‘‘नीलू भाई को बहुत चाहती है मां. उस से अच्छी लड़की हमारे लिए कोई हो ही नहीं सकती…अनाथ बच्ची को अपना बना लो, मां. बस, तुम्हारी ही बन कर जीएगी वह. हमारे घर को नीलू ही चाहिए.’’
आंखें खुली रह गई थीं मां की और मेरी भी. हमारे घर का वह कोना जिसे हम ने इतनी मेहनत से सुंदर, आकर्षक बनाया वहां नीलू को मैं ने किस रूप में सोचा था? मैं ने तो उसे सोम के लिए सोचा था न.
नीलू को इतना भी अनाथ मत समझना…मैं हूं उस का. मेरा उस का खून का रिश्ता नहीं, फिर भी ऐसा कुछ है जो मुझे उस से बांधता है. वह मेरे भाई से प्रेम करती है, जिस नाते एक सम्मानजनक डोर से वह मुझे भी बांधती है.
‘‘तुम्हें कैसे पता चला? मुझे तो कभी पता नहीं चला.’’
‘‘बस, चल गया था पता एक दिन…और उसी दिन मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर यह जिम्मेदारी ले ली थी कि उसे इस घर में जरूर लाऊंगा.’’
‘‘कभी अपने मुंह से कुछ कहा था उस से तुम दोनों ने?’’ बारीबारी से मां ने हम दोनों का मुंह देखा.
मैं सकते में था और सोम निशब्द.
‘‘नीलू का ब्याह तो हो भी गया,’’ रो पड़ी थीं मां हमें सुनातेसुनाते, ‘‘उस की बूआ ने कोई रिश्ता देख रखा था. 4 दिन हो गए. सादे से समारोह में वह अपने ससुराल चली गई.’’
हजारों धमाके जैसे एकसाथ मेरे कानों में बजे और खो गए. पीछे रह गई विचित्र सी सांयसांय, जिस में मेरा क्याक्या खो गया समझ नहीं पा रहा हूं. पहली बार पता चला कोई मुझ से प्रेम करती थी और खो भी गई. मैं तो उसे सोम के लिए इस घर में लाने का सपना देखता रहा था, एक तरह से मेरा वह सपना भी कहीं खो गया.
‘‘अरे, अगर कुछ पता चल ही गया था तो कभी मुझ से कहा क्यों नहीं तुम ने,’’ मां बोलीं, ‘‘सोम, तुम ने मुझे कभी बताया क्यों नहीं था. पगले, वह गरीब क्या करती? कैसे अपनी जबान खोलती?’’
प्रकृति को कोई कैसे अपनी मुट्ठी में ले सकता है भला? वक्त को कोई कैसे बांध सकता है? रेत की तरह सब सरक गया हाथ से और हम वक्त का ही इंतजार करते रह गए.
सोम अपना सिर दोनों हाथों से छिपा चीखचीख कर रोने लगा. बाबूजी भी तब तक ऊपर चले आए. सारी कथा सुन, सिर पीट कर रह गए.
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वह रात और उस के बाद की बहुत सी रातें ऐसी बीतीं हमारे घर में, जब कोई एक पल को भी सो नहीं पाया. मांबाबूजी अपने अनुभव को कोसते कि क्यों वे नीलू के मन को समझ नहीं पाए. मैं भी अपने ही मापदंड दोहरादोहरा कर देखता, आखिर मैं ने सोम को क्यों और किसकिस कोण से सही नहीं नापा. सब उलटा हो गया, जिसे अब कभी सीधा नहीं किया जा सकता था.
सोम एक सुबह उठा और सहसा कहने लगा, ‘‘भाई, खड़े सामान की तरह क्यों न अब खड़े भावों को भी मन से निकाल दें. जिस तरह नया सामान ला कर पुराने को विदा किया था उसी तरह पुराने मोह का रूप बदल क्यों न नए मोह को पाल लिया जाए. नीलू मेरे मन से जाती नहीं, भाभी मान जिस पर ममता लुटाता रहा, क्यों न उसे बहन मान नाता जोड़ लूं…मैं उस से मिलने उस के ससुराल जाना चाहता हूं.’’
‘‘अब क्यों उसे पीछे देखने को मजबूर करते हो सोम, जाने दो उसे…जो बीत गई सो बात गई. पता नहीं अब तक कितनी मेहनत की होगी उस ने खुद को नई परिस्थिति में ढालने के लिए. कैसेकैसे भंवर आए होंगे, जिन से स्वयं को उबारा होगा. अपने मन की शांति के लिए उसे तो अशांत मत करो. अब जाने दो उसे.’’
मन भर आया था मेरा. अगर नीलू मुझ से प्रेम करती थी तो क्या यह मेरा भी कर्तव्य नहीं बन जाता कि उस के सुख की चाह करूं. वह सब कभी न होने दूं. जो उस के सुख में बाधा डाले.
रो पड़ा सोम मेरे कंधे से लग कर. खुशनसीब है सोम, जो रो तो सकता है. मैं किस के पास जा कर रोऊं और कैसे बताऊं किसी को कि मैं ने क्या नहीं पाया, ऐसा क्या था जो बिना पाए ही खो दिया.
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‘‘सिर्फ एक बार उस से मिलना चाहता हूं भाई,’’ रुंधा स्वर था सोम का.
‘‘नहीं सोम, अब जाने दो उसे.