Women’s Day- मेरा अभिमान: क्या पति को भूल गई निवेदिता?

‘‘कितनी खूबसूरत लग रही है निवेदिता दुलहन के वेश में. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें और तीखातिकोना चेहरा,’’ समता मौसी दुलहन की बलाएं लेते हुए बोलीं.

‘‘काश, दूल्हे के बारे में भी यही कहा जा सकता…’’ घर आए मेहमानों में से किसी ने कहा.

‘‘यह बात तो है… कहां हमारी निवेदिता एमए तक पढ़ी है… इतनी खूबसूरत और आश्रय सिर्फ 12वीं जमात तक पढ़ा है. पिता की मौत के बाद उन की जगह ही नौकरी लग गई है. रंग भी कुछ दबा हुआ है,’’ निवेदिता की बूआ ने कहा.

निवेदिता के घर में भी पैसा नहीं था. अगर उस के मातापिता को शादी की जल्दी थी. निवेदिता और पढ़ना भी चाहती थी, पर उस की शादी तय कर दी गई.

‘‘हां, कमाताखाता लड़का देख कर शादी कर रहे हैं,’’ किसी ने बात को आगे बढ़ाया.

शादी के बाद रात को निवेदिता सुहाग सेज पर बैठी हुई थी और उम्मीद के मुताबिक बिना किसी तामझाम व दिखावे के आश्रय कमरे में आ गया और गंभीर अंदाज में बोला, ‘‘निवेदिता, आज हमारे मिलन की पहली रात है और ऐसा दस्तूर है कि इस दिन गिफ्ट जरूर दिया जाना चाहिए.

‘‘तुम्हें मेरी माली हालत पता ही है. पहले पिताजी की बीमारी के चलते लिया हुआ कर्ज उतारना पड़ा. इसी वजह से कुछ भी बचत नहीं हुई. फिर भी मैं तुम्हारे लिए यह घड़ी लाया हूं.

‘‘यह घड़ी सस्ती जरूर है, पर समय महंगी घडि़यों के बराबर ही बताती है. यह भी बताती है कि समय कीमती है, इसे बरबाद मत करो. और भी कुछ उपहार चाहिए हों तो मांग सकती हो, बशर्ते वह खरीदना मेरी हद में हो.’’

‘‘क्या मैं ऐसा कुछ चाहूं, जो आप की हद में हो तो आप देंगे?’’ निवेदिता ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘जरूर,’’ आश्रय ने जवाब दिया.

‘‘मैं राज्य लोक सेवा आयोग की प्रशासनिक परीक्षा में बैठना चाहती हूं. क्या आप मुझे इजाजत देंगे? मुझे ओबीसी कोटे में जल्दी ही नौकरी भी मिल सकती है,’’ निवेदिता ने पूछा.

ये भी पढ़ें- Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 2

‘‘तुम्हारी पढ़ाई के लैवल के बारे में मैं अच्छी तरह से जानता हूं. निवेदिता, तुम इस एग्जाम में बैठ सकती हो. एक बार पतिपत्नी के संबंध बन जाने के बाद काबू करना मुश्किल होता है, इसलिए मैं चाहता हूं कि जब तक तुम अपने इम्तिहान में कामयाब न हो जाओ, तब तक हम दोनों एक नहीं होंगे’’

‘‘क्या…? आप ने मुझ से शादी किसी मजबूरी में की है? क्या आप मुझे प्यार नहीं करते हैं?’’ निवेदिता ने घबरा कर पूछा, क्योंकि उसे इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तुम्हें काफी दिन से देख रहा हूं. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, इसलिए तुम्हारे कामयाब होने के बाद ही हम दोनों इस प्यार के सच्चे हकदार होंगे,’’ आश्रय ने निवेदिता की गोरीगोरी कलाइयों को पकड़ते हुए कहा.

‘‘और, अगर मेरा चयन नहीं हो पाया तो…?’’ निवेदिता ने सवाल किया.

‘‘जब भी जोकुछ होगा, सिर्फ तुम्हारी रजामंदी से होगा,’’ आश्रय बोला.

‘‘बाहर सब को क्या जवाब देंगे?’’ निवेदिता ने पूछा.

‘‘किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं है. बस, इतना कहना है कि हमें अगले 3 साल तक बच्चे की जरूरत नहीं है,’’ आश्रय ने जवाब दिया.

‘‘वाह… आश्रय, मैं कल से ही पढ़ाई शुरू कर देती हूं.’’

दूसरे दिन से निवेदिता ने पढ़ाई शुरू कर दी. आश्रय ने अपनी मम्मी को भी निवेदिता की इच्छा के बारे में बता दिया. घर में 3 लोगों का काम बहुत ज्यादा नहीं था. रसोईघर का ज्यादातर काम आश्रय की मम्मी कर देती थीं.

निवेदिता देर रात तक पढ़ती, तो आश्रय बीच में चाय या कौफी बना कर उसे दे देता. कभीकभार सिर दुखने पर अपने हाथों से तब तक हलकीहलकी मसाज करता, जब तक कि निवेदिता की आंख न लग जाती.

आखिरकार वह ऐतिहासिक पल भी आ ही गया, जब निवेदिता सभी लिखित इम्तिहानों और इंटरव्यू में कामयाब हो कर डिप्टी कलक्टर बन गई.

‘‘अब सिर्फ प्यार,’’ निवेदिता  आश्रय के गले में बांहों का फंदा डाल कर बोली.

‘‘मेहनत तो तुम्हारी ही है निवेदिता. मैं तो सिर्फ तुम्हारे साथ था. तुम मेरी पत्नी हो गुलाम नहीं. आज तो सिर्फ और सिर्फ प्यार होगा,’’ आश्रय मुसकराता हुआ बोला.

अभी वे दोनों बात कर ही रहे थे कि अचानक आश्रय के मोबाइल फोन की घंटी बजी.

‘‘क्या…? कब…? अच्छाअच्छा… हम अभी पहुंचते हैं,’’ आश्रय घबराई आवाज में बोला.

‘‘क्या हुआ…?’’ निवेदिता ने चिंतित हो कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस तुम्हारे पापा की थोड़ी सी तबीयत खराब हो गई है,’’ आश्रय ने बताया.

निवेदिता और आश्रय जब तक पहुंचते, तब तक निवेदिता के पापा की मौत हो चुकी थी. अपनी मां को हिम्मत देने के लिए निवेदिता को वहीं पर रुकना पड़ा.

ये भी पढ़ें- विश्वास: एक मां के भरोसे की कहानी

निवेदिता को अपनी ट्रेनिंग की सूचना मिली, जो कि उस के मायके से तकरीबन 300 किलोमीटर दूर थी.

जौइन करने के साथ ही पता चला कि निवेदिता को अनुकूल शर्मा के अंडर ट्रेनिंग लेनी है.

अनुकूल शर्मा कुछ समय पहले तक निवेदिता के गृह जिले में ही थे और उन की अच्छे अफसरों में गिनती होती है.

अनुकूल शर्मा आ गए और अपने चैंबर में घुस गए. इजाजत ले कर निवेदिता भी चैंबर में आ गई.

‘‘तुम्हारे साथ वह बाहर कौन था?’’ लेटर देखते हुए अनुकूल शर्मा ने पूछा.

‘‘मेरे पति हैं,’’ निवेदिता ने कहा.

‘‘अब अगले 3 महीनों तक घरबार, पति, बच्चे सब भूल जाओ… समझी?’’ अनुकूल शर्मा ने कहा.

‘‘जी,’’ निवेदिता ने जवाब दिया.

‘‘मैं जा रहा हूं निवेदिता. अगले  3 महीनों तक खूब मेहनत करो. आगे की जिंदगी बहुत अच्छी होगी,’’ जातेजाते आश्रय ने निवेदिता से कहा.

अनुकूल शर्मा के अंडर में निवेदिता की टे्रनिंग खूब अच्छी चल रही थी. निवेदिता को अब तक सरकारी गाड़ी नहीं मिली थी. इसी वजह से वह अनुकूल शर्मा के साथ उन्हीं की सरकारी गाड़ी से टूर पर जाती थी.

ऐसे ही एक दिन जब वे दोनों टूर से लौट रहे थे, तो अनुकूल शर्मा बोले, ‘‘मुझे लगता है निवेदिता, तुम्हारे साथ ज्यादती हुई है.’’

‘‘आप को ऐसा क्यों लगता है सर…’’ निवेदिता ने अचरज भाव से पूछा.

‘‘तुम इतनी खूबसूरत और होशियार हो और तुम्हारा पति 12वीं जमात पास क्लर्क,’’ अनुकूल शर्मा ने कहा.

‘‘जिंदगी में हमें जो मिलता है, उसे हम बदल नहीं सकते,’’ निवेदिता बोली.

‘‘हम चाहें तो कुछ भी बदल सकते हैं. तुम ने भी यह नौकरी पा कर अपनी जिंदगी बदल दी है.’’

‘‘पर, अब किया क्या जा सकता है. आज मैं जोकुछ भी हूं, आश्रय के चलते ही हूं,’’ निवेदिता बोली.

‘‘कल उसी आश्रय के चलते तुम्हें शर्मिंदगी होगी. किसी पार्टी में तुम उसे ले जा नहीं पाओगी. तुम्हारे पीछे लोग उसे मखमल में टाट का पैबंद बताएंगे. रही कुछ करने की बात तो उस ने तुम पर कितने रुपए खर्च किए होंगे? लाख 2 लाख. तुम उसे 5 लाख दे कर हिसाब चुकता कर दो.

‘‘मैं ने भी अपनी देहाती पत्नी से तलाक के लिए अर्जी दी हुई है, क्योंकि वह मेरे स्टेटस के मुताबिक नहीं है. तुम भी ऐसा कर सकती हो. कल पछताने से आज सही फैसला लेना बेहतर है…’’ अनुकूल शर्मा बोले, ‘‘मुझे तो लगता है कि आश्रय मर्द ही नहीं है, वरना 3 साल तक कौन पति ऐसा होगा, जो अपनी पत्नी से दूर रहेगा?’’

निवेदिता ने कोई जवाब नहीं दिया.

दरअसल, पिछले 2 महीने से कुछ ज्यादा समय से साथ रहने के चलते अनुकूल शर्मा को ऐसा लगने लगा था कि निवेदिता उन की तरफ खिंच रही है.

एक दिन अचानक निवेदिता के पास कलक्टर का फोन पहुंचा और उसे तुरंत मिलने के लिए बुलाया गया.

‘‘बधाई हो निवेदिता, अनुकूल शर्मा जैसे काबिल अफसर ने आप की बहुत अच्छी रिपोर्ट दी है,’’ कलक्टर खुश हो कर बोले.

‘शुक्रिया सर’ कह कर निवेदिता कलक्टर औफिस से बाहर आ गई.

‘‘बधाई हो निवेदिता, एक पार्टी तो बनती ही है. ऐसा करते हैं कि आज  तुम औफिस का चार्ज ले लो. शनिवार और रविवार की छुट्टी है. हम पास  के शहर चलेंगे. वहां पार्टी करेंगे. सबकुछ मेरी तरफ से होगा,’’ अनुकूल शर्मा बोले.

‘‘जी सर,’’ कह कर निवेदिता अपने नए औफिस में चार्ज लेने चली गई.

जब आश्रय को निवेदिता के चार्ज लेने की बात पता चली, तो वह बहुत खुश हुआ. उस ने फोन पर अपने मन की बात कही.

‘‘तुम्हें देखने की बहुत इच्छा हो रही है. शनिवार और रविवार को छुट्टी है. मैं वहां आ जाता हूं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं. शनिवार और रविवार को तो मुझे कलक्टर साहब के साथ राजधानी जाना है,’’ निवेदिता ने झूठ बोलते हुए उसे रोक दिया.

शुक्रवार की शाम जब आश्रय दफ्तर से घर लौटा, तो रसोईघर में से हलवा बनने की मस्त महक आ रही थी.

ये भी पढ़ें- Short Story: किसकी कितनी गलती

‘‘मां, आज हलवा क्यों बन रहा है? कोई त्योहार है क्या?’’ दरवाजे से अंदर आते हुए आश्रय ने पूछा.

‘‘त्योहार से भी बढ़ कर है…’’ मां रसोईघर में से ही बोलीं.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ आश्रय ने पूछा.

‘‘तो रसोईघर के भीतर आ कर देख ले,’’ मां बोलीं.

‘‘अरे, निवेदिता तुम…’’ रसोईघर में घुसते ही आश्रय खुशी से चिल्लाया.

निवेदिता ने अपनी स्थायी नियुक्ति तक की पूरी बात आश्रय को बता दी.

‘‘चलो निवेदिता, शाम का खाना हम कहीं बाहर खाते हैं,’’ आश्रय बोला.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. इन 3 दिनों का एक पल भी मुझे किसी के साथ शेयर नहीं करना है. मुझे सिर्फ तुम और तुम चाहिए,’’ निवेदिता किसी जिद्दी बच्ची सी बोली.

शनिवार की सुबह तकरीबन 10 बजे अनुकूल शर्मा का फोन आया, ‘निवेदिता, कहां हो तुम? हमें पार्टी केलिए जाना था.’

‘‘सर, मैं स्वर्ग में हूं और यहां से नहीं आ सकती.’’

‘स्वर्ग… वह कहां है?’ अनुकूल शर्मा ने हैरानी से पूछा.

‘‘सर, यह हर उस जगह है, जहां पतिपत्नी अपने परिवार के साथ रहते हैं. मैं भी अपने पति के साथ हूं. आप ने ट्रेनिंग के दौरान मुझे एक बात सिखाई थी कि सोने का गहना कितना ही बड़ा क्यों न हो, अगर उस में छोटा सा हीरा लग जाए तो उस की कीमत दोगुनी हो जाती है.

‘‘आश्रय भी मेरी जिंदगी का एक ऐसा ही हीरा है, जिस के लगने से  मेरी जिंदगी अनमोल हो गई है. मुझे कभी भी आश्रय के चलते कोई शर्मिंदगी नहीं होगी.

‘‘धन्यवाद और नमस्कार सर. मैं आप से 2 दिन बाद मिलती हूं,’’ इतना कह कर निवेदिता ने फोन काट दिया.

Women’s Day- प्रतिबंध: क्या औरतों पर रोक लगाने से रुक गया यौन शोषण

इस मल्टीनैशनल कंपनी पर यह दूसरी चोट है. इस से पहले भी एक बार यह कंपनी बिखर सी चुकी है. उस समय कंपनी की एक खूबसूरत कामगार स्नेहा ने अपने बौस पर आरोप लगाया था कि वे कई सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं. उस के साथ सोने के लिए जबरदस्ती करते आ रहे हैं और यह सब बिना शादी की बात किए.

स्नेहा को लग रहा था कि बौस उस से शादी कर ही लेंगे क्योंकि वे घर सज्जा में भी उस की राय लेते रहे थे.

ऐसा नहीं था कि स्नेहा केवल खूबसूरत ही थी, काबिल नहीं. उस ने बीटैक के बाद एमटैक कर रखा था और वह अपने काम में भी माहिर थी. वह बहुत ही शोख, खुशमिजाज और बेबाक थी. उस ने अपनी कड़ी मेहनत से कंपनी को केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी कामयाबी दिलवाई थी.

ये भी पढ़ें- हल: आखिर क्यों पति से अलग होना चाहती थी इरा?

इस तरह स्नेहा खुद भी तरक्की करती गई थी. उस का पैकेज भी दिनोंदिन मोटा होता जा रहा था. वह बहुत खुश थी. चिडि़या की तरह हरदम चहचहाती रहती थी. उस के आगे अच्छेअच्छे टिक नहीं पाते थे.

पर अचानक स्नेहा बहुत उदास रहने लगी थी. इतनी उदास कि उस से अब छोटेछोटे टारगेट भी पूरे नहीं होते थे.

इसी डिप्रैशन में स्नेहा ने यह कदम उठाया था. वह शायद यह कदम उठाती नहीं, पर एक लड़की सबकुछ बरदाश्त कर सकती है, लेकिन अपने प्यार में साझेदारी कभी नहीं.

जी हां, स्नेहा की कंपनी में वैसे तो तमाम खूबसूरत लड़कियां थीं, पर हाल ही में एक नई भरती हुई थी. वह अच्छी पढ़ीलिखी और ट्रेंड लड़की थी. साथ ही, वह बहुत खूबसूरत भी थी. उस ने खूबसूरती और आकर्षण में स्नेहा को बहुत पीछे छोड़ दिया था.

इसी के चलते वह लड़की बौस की खास हो गई थी. बौस दिनरात उसे आगेपीछे लगाए रहते थे. स्नेहा यह सब देख कर कुढ़ रही थी. पलपल उस का खून जल रहा था.

आखिरकार स्नेहा ने एतराज किया, ‘‘सर, यह सब ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या… क्या ठीक नहीं है?’’ बौस ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘आप अपना वादा भूल बैठे हैं.’’

‘‘कौन सा वादा?’’

‘‘मुझ से शादी करने का…’’

‘‘पागल हो गई हो तुम… मैं ने तुम से ऐसा वादा कब किया…? आजकल तुम बहुत बहकीबहकी बातें कर रही हो.’’

‘‘मैं बहक गई हूं या आप? दिनरात उस के साथ रंगरलियां मनाते रहते…’’

बौस ने अपना तेवर बदला, ‘‘देखो स्नेहा, मैं तुम से आज भी उतनी ही मुहब्बत करता

हूं जितनी कल करता था… इतनी छोटीछोटी बातों पर ध्यान

मत दो… तुम कहां से कहां पहुंच

गई हो. अच्छा पैकेज मिल रहा है तुम्हें.’’

‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, अपनी मेहनत से हूं.’’

‘‘यही तो मैं कह रहा हूं… स्नेहा, तुम समझने की कोशिश करो… मैं किस से मिल रहा हूं… क्या कर रहा हूं, क्या नहीं, इस पर ध्यान मत दो… मैं जोकुछ भी करता हूं वह सब कंपनी की भलाई के लिए करता हूं… तुम्हारी तरक्की में कोई बाधा आए तो मुझ से शिकायत करो… खुद भी जिंदगी का मजा लो और दूसरों को भी लेने दो.’’

पर स्नेहा नहीं मानी. उस ने साफतौर पर बौस से कह दिया, ‘‘मुझे कुछ नहीं पता… मैं बस यही चाहती हूं कि आप वर्षा को अपने करीब न आने दें.’’

‘‘स्नेहा, तुम्हारी समझ पर मुझे अफसोस हो रहा है. तुम एक मौडर्न लड़की हो, अपने पैरों पर खड़ी हो. तुम्हें इस तरह की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए.’’

‘‘आप मुझे 3 बार हिदायत दे चुके हैं कि मैं इन छोटीछोटी बातों पर ध्यान न दूं… मेरे लिए यह छोटी बात नहीं है… आप उस वर्षा को इतनी अहमियत न दें, नहीं तो…

‘‘नहीं तो क्या…?’’

‘‘नहीं तो मैं चीखचीख कर कहूंगी कि आप पिछले कई सालों से मेरी बोटीबोटी नोचते रहे हो…’’

बौस अपना सब्र खो बैठे, ‘‘जाओ, जो करना चाहती हो करो… चीखोचिल्लाओ, मीडिया को बुलाओ.’’

स्नेहा ने ऐसा ही किया. सुबह अखबार के पन्ने स्नेहा के बौस की करतूतों से रंगे पड़े थे. टैलीविजन चैनल मसाला लगालगा कर कवरेज को परोस रहे थे.

यह मामला बहुत आगे तक गया. कोर्टकचहरी से होता हुआ नारी संगठनों तक. इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि सभी सकते में आ गए. वह यह कि वर्षा का खून हो गया. वर्षा का खून क्यों हुआ? किस ने कराया? यह राज, राज ही रहा. हां, कानाफूसी होती रही कि वर्षा पेट से थी और यह बच्चा बौस का नहीं, कंपनी के बड़े मालिक का था.

ये भी पढ़ें- शिकार : क्या मीरा और श्याम इस शादी से खुश थे

इस सारे मामले से उबरने में कंपनी को एड़ीचोटी एक करनी पड़ी. किसी तरह स्नेहा शांत हुई. हां, स्नेहा के बौस की बरखास्तगी पहले ही हो चुकी थी.

कंपनी ने राहत की सांस ली. उसने एक नोटीफिकेशन जारी किया कि कंपनी में काम कर रही सारी लड़कियां और औरतें जींसटौप जैसे मौडर्न कपड़े न पहन कर आएं.

कंपनी के नोटीफिकेशन में मर्दों के लिए भी हिदायतें थीं. उन्हें भी मौडर्न कपड़े पहनने से गुरेज करने को कहा गया. जींसपैंट और टाइट टीशर्ट पहनने की मनाही की गई.

इन निर्देशों का पालन भी हुआ, फिर भी मर्दऔरतों के बीच पनप रहे प्यार के किस्सों की भनक ऊपर तक पहुंच गई.

एक बार फिर एक अजीबोगरीब फैसला लिया गया. वह यह कि धीरेधीरे कंपनी से लेडीज स्टाफ को हटाया जाने लगा. गुपचुप तरीके से 1-2 कर के जबतब उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा. किसीकिसी को कहीं और शिफ्ट किया जाने लगा.

दूसरी तरफ लड़कियों की जगह कंपनी में लड़कों की बहाली की जाने लगी. इस का एक अच्छा नतीजा यह रहा कि इस कंपनी में तमाम बेरोजगार लड़कों की बहाली हो गई.

इस कंपनी की देखादेखी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनियों ने भी यही कदम उठाया. इस तरह देखते ही देखते नौजवान बेरोजगारों की तादाद कम होने लगी. उन्हें अच्छा इनसैंटिव मिलने लगा. बेरोजगारों के बेरौनक चेहरों पर रौनक आने लगी.

पहले इस कंपनी की किसी ब्रांच में जाते तो रिसैप्शन पर मुसकराती हुई, लुभाती हुई, आप का स्वागत करती हुई लड़कियां ही मिलती थीं. उन के जनाना सैंट और मेकअप से रोमरोम में सिहरन पैदा हो जाती थी. नजर दौड़ाते तो चारों तरफ लेडीज चेहरे ही नजर आते. कुछ कंप्यूटर और लैपटौप से चिपके, कुछ इधरउधर आतेजाते.

पर अब मामला उलटा था. अब रिसैप्शन पर मुसकराते हुए नौजवानों से सामना होता. ऐसेऐसे नौजवान जिन्हें देख कर लोग दंग रह जाते. कुछ तगड़े, कुछ सींक से पतले. कुछ के लंबेलंबे बाल बिलकुल लड़कियों जैसे और कुछ के बहुत ही छोटेछोटे, बेतरतीब बिखरे हुए.

इन नौजवानों की कड़ी मेहनत और हुनर से अब यह कंपनी अपने पिछले गम भुला कर धीरेधीरे तरक्की के रास्ते पर थी. नौजवानों ने दिनरात एक कर के, सुबह

10 बजे से ले कर रात 10 बजे तक कंप्यूटर में घुसघुस कर योजनाएं बनाबना कर और हवाईजहाज से उड़ानें भरभर कर एक बार फिर कंपनी में जान डाल दी थी.

इसी बीच एक बार फिर कंपनी को दूसरी चोट लगी. कंपनी के एक नौजवान ने अपने बौस पर आरोप लगाया कि वे पिछले 2 सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं.

उस नौजवान के बौस भी खुल कर सामने आ गए. वे कहने लगे, ‘‘हां, हम दोनों के बीच ऐसा होता रहा है… पर यह सब हमारी रजामंदी से होता रहा?है.’’

बौस ने उस नौजवान को बुला कर समझाया भी, ‘‘यह कैसी नादानी है?’’

‘‘नादानी… नादानी तो आप कर रहे हैं सर.’’

‘‘मैं?’’

‘‘हां, और कौन? आप अपना वादा भूल रहे हैं.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘मेरे साथ जीनेमरने का… मुझ से शादी करने का.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या?’’

ये भी पढ़ें- अपना घर : विजय को कैसे हुआ गलती का एहसास

‘‘दिमाग तो आप का खराब हो गया है, जो आप मुझ से नहीं, एक लड़की से शादी करने जा रहे हैं.’’

Women’s Day- ऐसा कैसे होगा: उम्र की दहलीज पर आभा

बड़े बाबू के पूछने पर मैं ने अपनी उम्र 38 वर्ष बताई, सहज रूप में ही कह दिया था, ‘38…’ हालांकि बड़े बाबू अच्छी तरह जानते थे कि मेरी जन्मतिथि क्या है, शायद उन्होंने उस पर इतना ध्यान भी नहीं दिया. लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी उम्र कम बता रही हूं. यह बात शायद बड़े बाबू जान गए थे और अपनी नाक पर टिके चश्मे से ऊपर आंखें चमका कर मुझे उपहासभरी दृष्टि से देख रहे थे.

वैसे मैं 39 वर्ष 7 महीने 11 दिन की हो गई हूं. सामान्यरूप से इसे 40 वर्ष की उम्र कहा जा सकता है. किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? 40 वर्ष तक तो व्यक्ति प्रौढ़ हो जाता है. लेकिन मैं तो अभी जवान हूं, सुंदर हूं, आकर्षक हूं.

नौजवान सहयोगी हसरतभरी निगाहों से मुझे देखते हैं. लोगों की आंखों को मैं पढ़ सकती हूं, भले ही उन में वासना के कलुषित डोरे रहते हैं, कामातुर विकारों से ग्रस्त रहती हैं उन की आंखें, फिर भी मुझे अच्छा लगता है. मुझ से बातें करने की उन की ललक, मेरी यों ही अनावश्यक तारीफ, मेरे कपड़ों के रंग, मेरा मुसकराना, बोलने का लहजा, काम करने का तरीका आदि अनेक चीजें हैं, जो काबिलेतारीफ कही जाती हैं. दूसरों की आंखों में आंखें डाल कर बात करने का मेरा सलीका लोगों को प्रभावित करता है. ये बातें मैं उन तमाम निकटस्थ सहयोगियों के क्रियाकलापों से जान जाती हूं.

ये भी पढ़ें : जीवन संध्या में – कर्तव्यों को पूरा कर क्या साथ हो पाए

मेरा मन चाहता है कि लोग मुझे घूरें, मेरे मांसल शरीर के ईदगिर्द अपनी निगाहें डालें, मेरा सामीप्य पाने के लिए बहाने ढूंढ़ें, मुझ से बातें करें व प्रेम करने की हद तक भाव प्रदर्शित करें.

किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? अभी तो मैं ने कौमार्यवय की अठखेलियों में भाग ही नहीं लिया, जवानी के उफनते वेग में पागल भी नहीं हुई. किसी के प्रणय में मदांध होना तो दूर, स्वच्छंद रतिविलासों का अनुभव भी नहीं किया. किसी के लौह बंधन में बंध कर चरमरा कर बिखर जाने की कामना अभी पूरी कहां हुई है? नारीत्व के समर्पित सुख का अनुभव कहां लिया है? मैं अभी 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

मैं ने जब से इस बढ़ती उम्र के गणित को सोचना प्रारंभ किया है, घबरा गई हूं, मन बेचैन सा हो गया है. शरीर में अचानक शिथिलता आ गई है. गालों पर कसी हुई त्वचा जैसे अपने कसाव कम कर रही है. ऐसा लग रहा है जैसे नदी उतर रही है, उस में आई बाढ़ जैसे घट रही है. आंखों के नीचे हलके निशान उभर आए हैं. हलकी सी श्यामलता चेहरे पर छा रही है.

लेकिन यह कैसे हो सकता है? बाबूजी की मृत्यु को 4 बरस हो गए. छोटू का इस बार एमबीबीएस कोर्स पूरा हो जाएगा, लेकिन उसे एमडी बनना है, 2-3 साल अभी लगेंगे. विभा इस वर्ष स्नातिका हो जाएगी. मामाजी ने उस के लिए एक रिश्ते की बात की है. अगले मार्च में उस की शादी कर देंगे. छोटू का भी कुछ प्रेमप्रसंग जोरशोर से चल रहा है, लड़की पंजाबी है, साथ पढ़ती है, इस में बुराई भी क्या है.

लेकिन, मैं अब क्या करूंगी? सोचती थी कि इन 4 सालों में विभा की पढ़ाई पूरी हो जाएगी और छोटू घर संभाल लेगा, तब मैं आजाद हो जाऊंगी. मेरे चाहने वाले बहुत हैं, ढेर सारे उम्मीदवार हैं, तब अपने विषय में सोचूंगी एकदम निश्ंिचत हो कर. लेकिन, इस अवधि में मैं 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

घर वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं है. बाबूजी कई रिश्ते लाए थे. जातिबिरादरी के, ऊंचे खानदान वाले, बड़ीबड़ी मांगों, दहेज की आकांक्षा वाले लोग. बाबूजी मेरा विवाह कर भी सकते थे. लेकिन तब छोटू एमबीबीएस न कर पाता, विभा बीए की पढ़ाई भी न कर पाती. सारी जमा पूंजी समाप्त हो जाती. मैं बड़ी बेटी हूं न, सारी समस्याएं जानती हूं.

शादी का नाम लेते ही मैं चिढ़ जाती थी, काटने दौड़ती थी. लोग मेरे सामने शादी की बात करने से डरते थे. वे मेरी आलोचना भी करते थे. भलाबुरा भी कहते थे. कोई कहता, ‘गोल्ड मैडलिस्ट है न, इसीलिए दिमाग आसमान पर चढ़ा है.’

दूसरा कहता, ‘रूपगर्विता है, अपने सौंदर्य का बड़ा अभिमान है.’

शादी के नाम पर जैसे मुझे सचमुच चिढ़ थी. किसी की ताबेदारी में रहना मुझे स्वीकार न था.

अच्छी कंपनी में इज्जत की नौकरी है, अच्छीखासी तनख्वाह है, प्रतिष्ठा है. औफिस में रोबदाब है, घर में भी लोग डरते हैं. छोटू और विभा भी सामने आने से कतराते हैं. मां भी जैसे खुशामद सी करती हैं. सबकुछ असहज और अस्वाभाविक लगता है. मन करता है कि विभा मेरे गले में बांहें डाल कर लिपट जाए, छोटू मेरी चोटी खींच कर भाग जाए. मां मुझे डांटें, धमकाएं, लेकिन वह सब कतई बंद है.

मां की बीमारी बढ़ गई है, उन्हें अस्पताल में भरती कराना ही पड़ेगा. डाक्टर ने साफ कह दिया है कि अब ज्यादा दिन नहीं जिएंगी. अंतिम अवस्था है.

लेकिन मेरी अंतिम अवस्था नहीं है. मैं घुलघुल कर नहीं मरूंगी, अपने वजूद को बचा कर रखूंगी. मुझे अभी प्रौढ़ा नहीं बनना है.

अपना राजपाल है न, मुझ पर जान देता है. हमउम्र और हमपेशा भी है. बेचारा विधुर है, 10 साल से एकाकी है. मेरे खयाल से उस से मिलना चाहिए. वह वासना और प्रेम का अंतर जानता है, उस में गहरी समझदारी है.

ये भी पढ़ें : तलाक के कागजात- क्या सचमुच तलाक ले पाए सुधीर

एक बार समझदारी के साथ ही उस ने शादी का अप्रत्यक्ष प्रस्ताव भी रखा था और मैं उस के प्रस्ताव से प्रभावित भी थी.

वह बोला था, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों इस मुद्दे पर एक लंबी वार्त्ता करें, जिस में अनेक सत्र हों, जो दिनों, महीनों, वर्षों तक चले. अब हमारेतुम्हारे पास विषय तो बहुत से हैं न, उन सभी विषयों पर सलीके से बातें करें. उन पर सोचें, व्यवहार करें, तुम मेरे विचारों की प्रयोगशाला बन जाओ और मैं तुम्हारे खयालों की ठोस जमीन. हम दोनों एकदूसरे से अपने प्रश्नों का समाधान कराएं. क्या तुम अपनी बकाया जिंदगी मेरे ऊलजलूल प्रश्नों को सुलझाने के लिए मेरे नाम कर सकती हो? क्या मैं तुम्हें समझने की कोशिश में तमाम उम्र बिता सकता हूं? सच कहता हूं, मैं तुम्हारी अनंत जिज्ञासाओं का एकमात्र समाधान हूं. मेरे अंतर्मन के पृष्ठों को पलट कर तो देखो.’

मैं कई दिनों से राजपाल के विषय में ही सोच रही हूं. वह एक परिपक्व व्यक्तित्व की गरिमा से युक्त है, संवेदनशील है. उस में कोई छिछोरापन नहीं है. प्रणय प्रस्ताव रखने में भी समझदारी से काम लेता है.

एक दिन कहने लगा, ‘आभा, तुम्हारे होंठों पर लगी लिपस्टिक और मेरे पैन की स्याही एकजैसी है, हलकी मैरून. यह रंग मन की अनुराग भावना को व्यक्त करता है, क्यों?’

मैं ने हलकी सी मुसकराहट फेंकी और आगे बढ़ गई. उस की बात बहुत दिनों तक मेरा पीछा करती रही. वह एक सभ्य और जिम्मेदार अफसर है. उस के साथ उठाबैठा जा सकता है.

कल मां को अस्पताल में भरती करा दूंगी. छोटू को स्कौलरशिप मिलती है. विभा की शादी के लिए बाबू की एफडी तो है. मामाजी सब संभाल लेंगे. मैं आज शाम को राजपाल के बंगले पर जाऊंगी, साफसाफ बात करूंगी और आजकल में ही निर्णय ले लूंगी.

मुझे अभी 40 साल की प्रौढ़ा नहीं बनना. 40 साल में अभी 5 महीने बाकी हैं. इन 5 महीनों में मैं अपना कौमार्य अनुभव करूंगी, नाचूंगी, गाऊंगी, आकाश में उड़ूंगी, सितारों से बातें करूंगी, चांद को छू कर देखूंगी.

अभी मुझे 40 साल की नहीं होना, सबकुछ व्यवस्थित हो गया है, सबकुछ ठीकठाक है.

स्नान करने के बाद मैं ने हलका सा मेकअप किया व नीली साड़ी पहनी. होंठों पर हलके मैरून रंग की लिपस्टिक लगाई. फिर विदेशी इत्र की सुगंध से सराबोर हो कर चल दी अपना अंतिम निर्णय लेने, अपने निश्चित गंतव्य के लिए.

ये भी पढ़ें : दो खजूर

Women’s Day- गांव की इज्जत: हजारी ने कैसे बचाई गांव की इज्जत

शालिनी देवी जब से गांव की सरपंच चुनी गई थीं, गांव वालों को राहत क्या पहुंचातीं, उलटे गरीबों को दबाने व पहुंच वालों का पक्ष लेने लगी थीं.

शालिनी देवी का मकान गांव के अंदर था, जहां कच्ची सड़क जाती थी.

सड़क को पक्की बनाने की बात तो शालिनी देवी करती थीं, पर अपना नया मकान गांव के बाहर मेन रोड के किनारे बनाना चाहती थीं, इसलिए वे गरीब गफूर मियां पर मेन रोड वाली सड़क पर उन की जमीन सस्ते दाम पर देने का दबाव डालने लगी थीं.

गफूर मियां को यह बात अच्छी नहीं लगी. वे हजारी बढ़ई के फर्नीचर बनाने की दुकान में काम करते थे. मेहनताने में जोकुछ भी मिलता, उसी से अपना परिवार चलाते थे.

ये भी पढ़ें- परख : प्यार व जनून के बीच थी मुग्धा

बड़ों के सामने गफूर मियां की बोली फूटती न थी. एक बार गांव के ही एक बड़े खेतिहर ने उन का खेत दबा लिया था, पर हजारी ने ही आवाज उठा कर गफूर मियां को बचाया था.

गफूर मियां हजारी बढ़ई को सबकुछ बता देते थे. उन्होंने बताया कि शालिनी देवी अपना नया मकान बनाने के लिए उन की जमीन मांग रही हैं.

इस बात पर हजारी बढ़ई खूब बिगड़े और बोले, ‘‘यह तो शालिनी देवी का जुल्म है. यह बात मैं मुखिया राधे चौधरी के पास ले जाऊंगा.’’

हजारी बढ़ई जानते थे कि मुखिया इंसाफपसंद तो हैं, पर शालिनी देवी के मामले में वे कुछ नहीं बोलेंगे. दबी आवाज में यह बात भी उठी थी कि शालिनी देवी का मुखिया से नाजायज संबंध है.

एक दिन हजारी बढ़ई गफूर मियां का पक्ष लेते हुए सरपंच शालिनी देवी से कहने लगे, ‘‘चाचीजी, हम लोग गरीब हैं. हमें आप से इंसाफ की उम्मीद है. आप गफूर मियां को दबा कर उन की जमीन सस्ते दाम में हड़पने की मत सोचिए, नहीं तो यह बात पूरे गांव में फैलेगी. विरोधी लोग आप के खिलाफ आवाज उठाएंगे. मैं नहीं चाहता कि अगले चुनाव में आप सरपंच का पद पाने से रह जाएं.’’

यह सुन कर शालिनी देवी गुस्से से कांप उठीं और बोलीं, ‘‘तुम उस गफूर की बात कर रहे हो, जो बिरादरी में छोटा है. उस की हिम्मत है, तो मुखिया के पास जा कर शिकायत करे.’’

हजारी बढ़ई बोले, ‘‘आप की नजर में तो मैं भी छोटा हूं… छोटे भी कभीकभी बड़ा काम कर जाते हैं.’’

शालिनी देवी एक दिन दूसरे सरपंचों से बोलीं, ‘‘क्या हमारा चुनाव इसलिए हुआ है कि हम दूसरे लोगों की धौंस से डर जाएं?’’

मुखिया राधे चौधरी ने शालिनी देवी को समझाया कि हजारी बढ़ई व गफूर मियां जैसे छोटे लोगों से डरने की जरूरत नहीं है.

शालिनी देवी खूबसूरत व चालाक थीं. उन की एक ही बेटी थी रेशमा, जो उन का कहना नहीं मानती थी. वह खेतखलिहानों में घूमती रहती थी.

शालिनी देवी के लिए अब एक ही रास्ता बचा था, जल्दी ही उस की शादी कर उसे ससुराल विदा कर दो.

जल्दी ही एक पड़ोसी गांव में उन्हें एक खेतिहर परिवार मिल गया. लड़का नौकरी के बजाय गांव की राजनीति में पैर पसार रहा था. भविष्य अच्छा देख कर शालिनी देवी ने रेशमा की शादी उस से तय कर दी.

शालिनी देवी ने हजारी बढ़ई को बुलाया और बोलीं, ‘‘मेरी बेटी रेशमा की शादी है. तुम उस के लिए फर्नीचर बना दो. मेहनताना व लकडि़यों के दाम मैं दे दूंगी.’’

इज्जत समझ कर हजारी बढ़ई ने गफूर मियां व मजदूरों को काम पर लगा कर अच्छा फर्नीचर बनवा दिया.

मेहनताना देते समय शालिनी देवी कतराने लगीं, ‘‘तुम मुझ से कुछ ज्यादा पैसे ले रहे हो. लकडि़यों की मुझे पहचान नहीं… सागवान है कि शीशम या शाल… कुछकुछ आमजामुन की लकड़ी भी लगती है.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘यह सागवान ही है. मेरे पेट पर लात मत मारिए. अपना समझ कर मैं ने दाम ठीक लिया है. मुझे मजदूरों को मेहनताना देना पड़ता है. फर्नीचर आप नहीं ले जाएंगी, तो दूसरे खरीदार न मिलने से मैं मारा जाऊंगा.’’

मौका देख कर शालिनी देवी बदले पर उतर आईं और बोलीं, ‘‘मैं औनेपौने दाम पर सामान नहीं लूंगी. मैं तो शहर से मंगाऊंगी.’’

तभी वहां मुखिया राधे चौधरी आ गए. वे भी शालिनी देवी का पक्ष लेते हुए बोले, ‘‘ज्यादा पैसा ले कर गफूर मियां का बदला लेना चाहते हो तुम?’’

हजारी बढ़ई तमक कर बोले, ‘‘मैं गलती कर गया. सुन लीजिए, जो मेरे दिल में कांटी ठोंकता है, उस के लिए मैं भी कांटी ठोंकता हूं… मैं बढ़ई हूं, रूखी लकडि़यों को छील कर चिकना करना मैं अच्छी तरह जानता हूं. आप का दिल भी रूखा हो गया है. मैं इसे छील कर चिकना करूंगा.

‘‘शालिनी देवी, आप की बेटी गांव के नाते मेरी बहन है. मैं बिना कुछ लिए यह फर्नीचर उसे देता हूं… आगे आप की मरजी…’’

ये भी पढ़ें- उस की रोशनी में : सुरभि अपना पाई उसे

हजारी बढ़ई ने मजदूरों से सारा फर्नीचर उठवा कर शालिनी देवी के यहां भिजवा दिया.

शालिनी देवी को लगा कि हजारी उस के दिल में कांटी ठोंक गया है.

गांव में क्या हिंदू क्या मुसलिम, सभी हजारी को प्यार करते थे. एक गूंगी लड़की की शादी नहीं हो रही थी. हजारी ने उस लड़की से शादी कर गांव में एक मिसाल कायम की थी.

इस पर गांव के सभी लोग कहा करते थे, ‘हजारी जैसे आदमी को ही गांव का मुखिया या सरपंच होना चाहिए.’

शालिनी देवी के घर बरात आई. उसी समय मूसलाधार बारिश हो गई. कच्ची सड़क पर दोनों ओर से ढलान था. सड़क पर पानी भर गया था. कहीं से निकलने की उम्मीद नहीं थी. चारों तरफ पानी ही पानी नजर आने लगा.

‘दरवाजे पर बरात कैसे आएगी?’ सभी बराती व घराती सोचने लगे.

दूल्हा कार से आया था. ड्राइवर ने कह दिया, ‘‘कार दरवाजे तक नहीं जा सकती. कीचड़ में फंस जाएगी, तो निकालना भी मुश्किल होगा.’’

शालिनी देवी सोच में पड़ गईं.

मुखिया राधे चौधरी भी परेशान हुए, क्योंकि इतनी जल्दी पानी को भी नहीं निकाला जा सकता था.

गांव की बिजली भी चली गई थी. पंप लगाना भी मुश्किल था. पैट्रोमैक्स जलाना पड़ रहा था.

फिर कीचड़ तो हटाई नहीं जा सकती थी. उस में पैर धंसते थे, तो मुश्किल से निकलते थे… मिट्टी में गिर कर दोचार लोग धोतीपैंट भी खराब कर चुके थे.

बराती अलग बिगड़ रहे थे. एक बोला, ‘‘कार दरवाजे पर जानी चाहिए. दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा. वह गोद में भी नहीं जाएगा.’’

दूल्हे के पिता बिगड़ गए और बोले, ‘‘कोई पुख्ता इंतजाम न होने से मैं बरात वापस ले जाऊंगा.’’

शालिनी देवी रोने लगीं, ‘‘इसीलिए मैं नया मकान मेन रोड पर बनाना चाहती थी. लेकिन जमीन नहीं मिलती. गफूर मियां अपनी जमीन नहीं देता. हजारी बढ़ई ने उसे चढ़ा कर रखा हुआ है.’’

शालिनी देवी ने अपनेआप को चारों ओर से हारा हुआ पाया. उन्हें मुखिया राधे चौधरी पर गुस्सा आ रहा था, जो कुछ नहीं कर पा रहे थे.

तभी हजारी बढ़ई गफूर मियां के साथ आए और बोले, ‘‘गांव की इज्जत का सवाल है. गांव की बेटी की शादी है… बरातियों की बात भी जायज है. कार दरवाजे तक जानी ही चाहिए…’’

शालिनी देवी हार मानते हुए बोल उठीं, ‘‘हजारी, कोई उपाय करो… समझो, तुम्हारी बहन की शादी है.’’

‘‘सब सुलट जाएगा. आप अपना दिल साफ रखिए.’’

शालिनी देवी को लगा कि हजारी ने एक बार फिर एक कांटी उन के दिल में ठोंक दी है.

हजारी बढ़ई गफूर मियां से बोले, ‘‘मुसीबत की घड़ी में दुश्मनी नहीं देखी जाती. दुकान में फर्नीचर के लिए जितने भी पटरे चीर कर रखे हुए हैं, सब उठवा कर मंगा लो और बिछा दो. उसी पर से बराती भी जाएंगे और कार भी जाएगी दरवाजे तक.

‘‘लकड़ी के पटरों पर से गुजरते हुए कार के कीचड़ में फंसने का सवाल ही नहीं उठता. बांस की कीलें ठोंक दो. कुछ गांव वालों को पटरियों के आसपास ले चलो…’’

सभी पटरियां लाने को तैयार हो गए, क्योंकि गांव की इज्जत का सवाल सामने था.

इस तरह हजारी बढ़ई, गफूर मियां और गांव वालों की मेहनत से एक पुल सा बन गया. उस पर से कार पार हो गई.

बराती खुश हो कर हजारी बढ़ई की तारीफ करने लगे.

शालिनी देवी की खुशी का ठिकाना न था. वे खुशी से झूम उठीं.

मुखिया राधे चौधरी हजारी बढ़ई की पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘इस खुशी में मैं अपने बगीचे के 5 पेड़ तुम्हें देता हूं.’’

पता नहीं, मुखिया हजारी को खुश कर रहे थे या शालिनी देवी को.

शालिनी देवी ने देखा कि हजारी बढ़ई और गफूर मियां भोज खाने नहीं आए, तो लगा कि दिल में एक कांटी और ठुंक गई है.

बरात विदा होते ही शालिनी देवी हजारी बढ़ई के घर पहुंच गईं और आंसू छलकाते हुए बोलीं, ‘तुम ने मेरे यहां खाना भी नहीं खाया. इतना रूठ गए हो… क्यों मुझ से नाराज हो? मैं अब कुछ नहीं करूंगी, गफूर की जमीन भी नहीं लूंगी. हां, कच्ची सड़क को पक्की कराने की कोशिश जरूर करूंगी…

ये भी पढ़ें- मरीचिका : मधु के साथ असीम ने क्या किया

‘‘सच ही तुम ने मेरे रूखे दिल को छील कर चिकना कर दिया है… तुम मेरी बात मानो…उखाड़ दो अपने दिल से कांटी… तब मुझे चैन मिलेगा.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘दरअसल, आप सरपंच होते ही हमें छोटा समझने लगी थीं. आप भूल गई थीं कि छोटी सूई भी कभी काम आती है.’’

तभी हजारी की गूंगी बीवी कटोरे में गुड़ और लोटे में पानी ले आई.

पानी पीने के बाद शालिनी देवी ने साथ आए नौकरों के सिर से टोकरा उतारा और गूंगी के हाथ में रख दिया. फिर वे हजारी से बोलीं, ‘‘शाम को अपने परिवार के साथ खाना खाने जरूर आना, साथ में अपने मजदूरों को लाना. मैं तुम सब का इंतजार करूंगी.’’

टोकरे में साड़ी, धोती, मिठाई, दही और पूरियां थीं. धोती के एक छोर में फर्नीचर के मेहनताने और लागत से भी ज्यादा रुपए बंधे हुए थे.

हजारी बढ़ई आंखें फाड़े शालिनी देवी को जाते देखते रहे, जिन का दिल चिकना हो गया था. अब कांटी भी उखड़ चुकी थी.

Women’s Day: परवाज़ की उड़ान

लेखक- शोभा रानी गोएल

बिजनैस मीटिंग मे भाग लेने के लिए वह 15 दिनों पहले न्यूयौर्क आया. मीटिंग बहुत अच्छी रही. कंपनी को नया प्रोजैक्ट मिल गया. वह बहुत खुश था. उसे अपनी कामयाबी पर बहुत फख्र हो रहा था. खुशी का एक कारण यह भी कि वह अपने वतन लौटा लौट रहा था. हिंदुस्तान जैसा दूसरा इस जहां में कहां.

हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबू ही अलग है, जिस में रिश्ते पनपते हैं. अमेरिका ने बहुत तरक्की की है, इस में शक नहीं लेकिन संस्कृति में अपने हिंदुस्तान का सानी नहीं. उसे आन्या की याद आई. आन्या उस की पत्नी, साक्षात अन्नपूर्णा है. सभ्य, सुसंस्कृत और मृदुभाषी…22 घंटे के सफर की थकान आन्या के हाथ की एक कप चाय पलभर में छूमंतर कर देगी. बेटे आदित्य के साथ फुटबौल खेलते हुए वह खुद को दुनिया का सब से खुश इंसान समझने लगता है. वह यह सब सोचसोच कर मुसकरा रहा था.

ये भी पढ़ें : उतरन- भाग 1: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

जब वह अपने देश में आया तो यहां का नजारा बदल चुका था. कोरोना वायरस हिंदुस्तान में कहर बरपा रहा था. दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते ही एयरपोर्ट ऐडमिनिस्ट्रेशन ने चश्मे जैसे यंत्र से उस की स्क्रीनिंग कर जांच की. उसे बताया गया कि उसे बुखार है.‌ उस ने अधिकारियों और स्वास्थ्य कर्मचारियों से कहा कि थकावट के कारण थोड़ी सी हरारत है. पर, उसे कोरोना संदिग्ध मानते हुए उस से अस्पताल चल कर चैकअप कराने को कहा गया. उस ने कितनी बार मिन्नतें कीं, पर उस की एक न सुनी गई. उसे आश्वासन दिया गया कि उस के परिवार को सूचित कर दिया जाएगा, साथ ही, उस के परिवार का पूरा ध्यान भी रखा जाएगा.

अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में रहने व जरूरी जांच के लिए उसे भरती किया गया. वहां उसे डाक्टर और मैडिकल स्टाफ के सिवा किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं थी. डाक्टर व नर्स आते, उस का चैकअप करते, दवाई देते. वार्डबौय पलंग की चादर बदलता, सफाईकर्मी अपना कार्य करते, साथ ही, हाल चाल पूछ लेते. कमरे में टीवी भी लगा हुआ था.

इन सब के बावजूद वह अकेलापन महसूस करता. वह‌ बारबार बाहर की दुनिया में जाना चाहता. पर यह संभव नहीं था. ‌एक बार उस ने वहां से निकलने की कोशिश की, तो पकडा गया. उसे सख्त हिदायत दी गई, यदि उस ने दोबारा ऐसा किया तो उस पर गैरइरादतन हत्या का केस दर्ज किया जाएगा. जब तक उस की रिपोर्ट नहीं आती, और वह कोरोना नैगेटिव नहीं पाया जाता, तब तक उसे यहीं रहना है. उस पर कड़ी निगरानी रखी जाती. वैसे, अस्पताल प्रशासन और कर्मचारी उस के साथ अच्छा व्यवहार करते. डाक्टर व नर्स उस से प्यार से बातें करते, उस की काउंसलिंग करते, उस की बातें धैर्य से सुनते. फिर भी, उसे कैद जैसा महसूस होता. अभी उसे यहां आए 5 दिन ही हुए थे, उस की रिपोर्ट पैंडिंग थी. वह बाहर की दुनिया में जाने के लिए छटपटाने लगा. वह रातदिन सोचता रहता.

सोचतेसोचते वह आन्या को याद करने लगा. आन्या से उस के विवाह को 10 वर्ष होने को आए. शादी से पहले आन्या नौकरी करती थी. उस ने घर की देखभाल करने के कारण नौकरी करने से मना कर दिया. उस ने जिद करनी चाही पर उसे दृढ़ देख कर मान गई. जब भी वह घर से बाहर जाना चाहती, वह हमेशा मना कर देता. घर का सौदा वगरह वह ही लाता. पानी व बिजली के बिल खुद जा कर भर देता. आन्या कभी घूमने के लिए जाना चाहती, तो वह साथ में जाता. मायके भी साथ जाता, साथ ही ले आता. उसे अकेला कभी कहीं जाने न देता. उस की फिक्र करतेकरते उस की ऐसी फितरत बन गई.

उस ने आन्या को घर से बाहर निकलने से सख्त मना कर दिया था. दूधसब्जी से ले कर घर की सभी जरूरी चीजें वह खुद ला कर देता. कभीकभी आन्या जिद करती, तो वह उसे डांट देता, बुराभला कहता. धीरेधीरे उस ने कहना ही छोड़ दिया. शादी के 2 वर्षों बाद उन की जिंदगी में आदी आया. लेकिन उस की सोच नहीं बदली. उस की मानसिकता वही रही कि बाहर की दुनिया स्त्री के लिए सुरक्षित नहीं है. महिलाएं बाहर जा कर आफत को निमंत्रण देती हैं.

उस के औफिस में महिलाएं काम करती थीं. अकसर सहकर्मी उन के कपड़े और उन के कार्यों पर छींटाकशी करते. वह यह सब देखता था. महिला बौस का तो सहकर्मी पीछे मजाक बनाते, उन की मिमक्री करते. आतेजाते राह में असामाजिक तत्त्वों द्वारा लड़कियों को छेड़ते उस ने कई बार देखा था. अखवार मे आएदिन वह रेप की‌ खबरें पढ़ता. तो मन दहल जाता. इसीलिए वह आन्या के बाहर जाने पर रोक लगाने लगा. आन्या ने अब उस से कुछ कहना ही छोड़ दिया. वह आदी के साथ ज्यादा समय गुजारती, उस के साथ खेलती व बातें करती.

ऐसे मना उसे धीरेधीरे यह एहसास होने लगा था कि आन्या उस से दूर जा रही है. अब वह उस से जरूरतभर बात ही करती. जब कभी आत्मिक क्षणों में उस के पास आता. वह स्थिर बनी रहती. वह अब न शिक़ायत करती और न ही अपनी इच्छा व्यक्त करती.

ये भी पढ़ें : हिकमत- भाग 1: क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी

एक दिन औफिस से लौटते समय रैडलाइट होने पर कार रोकी. एक बहेलिया इक प्यारी सी चिड़िया को पिंजरे में कैद कर उसे पिंजड़ासहित बेच रहा था. वह आदी के लिए उसे खरीद लाया. पिंजरे में दानापानी रखते हुए आन्या उस चिड़िया से कह रही थी, ‘तेरीमेरी एक ही नियती, जिंदगी बनी कैद मुसाफिर.’

वह नहीं समझ पाया था कि आन्या किस यंत्रणा से गुजर रही है. उस ने समझना ही नहीं चाहा. वह अपने अहं में चूर रहा. चिड़िया से वह उसे अकसर बातें करते देखता, तो हंसने लगता, कहता, ‘यह मूक प्राणी तुम्हारी बातें क्या समझेगा, और क्या जबाव देगा?’ ‘कुछ बातों के लिए जवाब नहीं, जज़्बातों की जरूरत होती है, वह तुम नहीं समझोगे,’ आन्या ने कहा था.

एक मीटिंग के सिलसिले में जब अमेरिका के प्रसिद्ध शहर न्यूयौर्क आने का मौका मिला तो वह खुशीखुशी पैकिंग करने लगा. तब दबी जबान में आन्या ने उसे साथ ले जाने का आग्रह किया. तो, वह बिफर पड़ा था. ‘मैं घूमने के लिए नहीं, काम करने के लिए जा रहा हूं. तुम्हारी मोटी बुद्धि तो हमेशा ही मौजमस्ती की ही बातें जानती है. घर का जरूरी सामान ला कर रख दिया है, बाहर निकलने की जरूरत नहीं है. जब भी फुरसत मिलेगी, वीडियो कौल करूंगा. आन्या का मन बुझ गया.

आज जब उसे अस्पताल में रखा गया तब उसे आन्या की तकलीफ़ समझ आई, उस का दर्द दिखाई दिया. वह कितना बेदर्द था और आन्या कितनी बेबस. कितना निष्ढुर हो गया था वह. अब समझ गया कि हजार सुविधाएं भी आजादी के अभाव में कांटें बन जाती हैं. किसी को कैद कर उसे सुखी समझना जीवन की सब से बड़ी भूल होती है, अन्याय है यह.

ये भी पढ़ें : अपने हिस्से की लड़ाई

जब कांटों से डर कर गुलाब खिलना नहीं छोडते, तो फिर हम उन पर क्यों बंदिशें लगाएं. यहां से ठीक होने के बाद अब वह सब से पहले आन्यारुपी अपनी चिड़िया को आजाद करेगा खुले आसमां में, उस की ऊंची उड़ान देखेगा. फिर, आन्या से माफी मांग कर उसे खुद के जीवन जीने के लिए लगी बंदिशें हटा देगा. अब कोई कैद नहीं, जीवन फिर से खिलखिलाएगा.

सरप्राइज – क्या खुद खुश रह पाई सबका जीवन संवारने वाली सीमा?

लेखिका-Anita Jain

रविवार को सुबह 10 बजे जब सीमा के मोबाइल की घंटी बजी तो उस ने उसे लपक कर उठा लिया. स्क्रीन पर अपने बचपन की सहेली नीता का नाम पढ़ा तो वह भावुक हो गई और खुद से ही बोली कि चलो किसी को तो याद है आज का दिन.

लेकिन अपनी सहेली से बातें कर उसे निराशा ही हाथ लगी. नीता ने उसे कहीं घूमने चले का निमंत्रण भर ही दिया. उसे भी शायद आज के दिन की विशेषता याद नहीं थी.

‘‘मैं घंटे भर में तेरे पास पहुंच जाऊंगी,’’ यह कह कर सीमा ने फोन काट दिया.

‘सब अपनीअपनी जिंदगियों में मस्त हैं. अब न मेरी किसी को फिक्र है और न जरूरत. क्या आगे सारी जिंदगी मुझे इसी तरह की उपेक्षा व अपमान का सामना करना पड़ेगा?’ यह सोच उस की आंखों में आंसू भर आए.

कुछ देर बाद वह तैयार हो कर अपने कमरे से बाहर निकली और रसोई में काम कर रही अपनी मां को बताया, ‘‘मां, मैं नीता के पास जा रही हूं.’’

‘‘कब तक लौट आएगी?’’ मां ने पूछा.

‘‘जब दिल करेगा,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर उस ने अपनी नाराजगी प्रकट की.

‘‘ठीक है,’’ मां का लापरवाही भरा जवाब सुन कर उदास हो गई.

सीमा का भाई नवीन ड्राइंगरूम में अखबार पढ़ रहा था. वह उस की तरफ देख कर मुसकराया जरूर पर उस के बाहर जाने के बारे में कोई पूछताछ नहीं की.

नवीन से छोटा भाई नीरज बरामदे में अपने बेटे के साथ खेल रहा था.

‘‘कहां जा रही हो, दीदी?’’ उस ने अपना गाल अपने बेटे के गाल से रगड़ते हुए सवाल किया.

‘‘नीता के घर जा रही हूं,’’ सीमा ने शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं कार से छोड़ दूं उस के घर तक?’’

‘‘नहीं, मैं रिकशा से चली जाऊंगी.’’

‘‘आप को सुबहसुबह किस ने गुस्सा दिला दिया है?’’

‘‘यह मत पूछो…’’ ऐसा तीखा जवाब दे कर वह गेट की तरफ तेज चाल से बढ़ गई.

कुछ देर बाद नीता के घर में प्रवेश करते ही सीमा गुस्से से फट पड़ी, ‘‘अपने भैयाभाभियों की मैं क्या शिकायत करूं, अब तो मां को भी मेरे सुखदुख की कोई चिंता नहीं रही.’’

‘‘हुआ क्या है, यह तो बता?’’ नीता ने कहा.

‘‘मैं अब अपनी मां और भैयाभाभियों की नजरों में चुभने लगी हूं… उन्हें बोझ लगती हूं.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे घर वालों के व्यवहार में कोई बदलाव महसूस नहीं किया है. हां, कुछ दिनों से तू जरूर चिड़चिड़ी और गुस्सैल हो गई है.’’

‘‘रातदिन की उपेक्षा और अपमान किसी भी इंसान को चिड़चिड़ा और गुस्सैल बना देता है.’’

‘‘देख, हम बाहर घूमने जा रहे हैं, इसलिए फालतू का शोर मचा कर न अपना मूड खराब कर, न मेरा,’’ नीता ने उसे प्यार से डपट दिया.

‘‘तुझे भी सिर्फ अपनी ही चिंता सता रही है. मैं ने नोट किया है कि तुझे अब मेरी याद तभी आती है, जब तेरे मियांजी टूर पर बाहर गए हुए होते हैं. नीता, अब तू भी बदल गई है,’’ सीमा का गुस्सा और बढ़ गया.

‘‘अब मैं ने ऐसा क्या कह दिया है, जो तू मेरे पीछे पड़ गई है?’’ नीता नाराज होने के बजाय मुसकरा उठी.

‘‘किसी ने भी कुछ नहीं किया है… बस, मैं ही बोझ बन गई हूं सब पर,’’ सीमा रोंआसी हो उठी.

‘‘तुम्हें कोई बोझ नहीं मानता है, जानेमन. किसी ने कुछ उलटासीधा कहा है तो मुझे बता. मैं इसी वक्त उस कमअक्ल इंसान को ऐसा डांटूंगी कि वह जिंदगी भर तेरी शान में गुस्ताखी करने की हिम्मत नहीं करेगा,’’ नीता ने उस का हाथ पकड़ा और पलंग पर बैठ गई.

‘‘किसकिस को डांटेगी तू. जब मतलब निकल जाता है तो लोग आंखें फेर लेते हैं. अब मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार मेरे दोनों भाई और उन की पत्नियां कर रही हैं तो इस में हैरानी की कोई बात नहीं है. मैं बेवकूफ पता नहीं क्यों आंसू बहाने पर तुली हुई हूं,’’ सीमा की आंखों से सचमुच आंसू बहने लगे थे.

‘‘क्या नवीन से कुछ कहासुनी हो गई है?’’

‘‘उसे आजकल अपने बिजनैस के कामों से फुरसत ही कहां है. वह भूल चुका है कि कभी मैं ने अपने सहयोगियों के सामने हाथ फैला कर कर्ज मांगा था उस का बिजनैस शुरू करवाने के लिए.’’

‘‘अगर वह कुसूरवार नहीं है तब क्या नीरज ने कुछ कहा है?’’

‘‘उसे अपने बेटे के साथ खेलने और पत्नी की जीहुजूरी करने से फुरसत ही नहीं मिलती. पहले बहन की याद उसे तब आती थी, जब जेब में पैसे नहीं होते थे. अब इंजीनियर बन जाने के बाद वह खुद तो खूब कमा ही रहा है, उस के सासससुर भी उस की जेबें भरते हैं. उस के पास अब अपनी बहन से झगड़ने तक का वक्त नहीं है.’’

‘‘अगर दोनों भाइयों ने कुछ गलत नहीं कहा है तो क्या अंजु या निशा ने कोई गुस्ताखी की है?’’

‘‘मैं अब अपने ही घर में बोझ हूं, ऐसा दिखाने के लिए किसी को अपनी जबान से कड़वे या तीखे शब्द निकालने की जरूरतनहीं है. लेकिन सब के बदले व्यवहार की वजह से आजकल मैं अपने कमरे में बंद हो कर खून के आंसू बहाती हूं. जिन छोटे भाइयों को मैं ने अपने दिवंगत पिता की जगह ले कर सहारा दिया, आज उन्होंने मुझे पूरी तरह से भुला दिया है. पूरे घर में किसी को भी ध्यान नहीं है कि मैं आज 32 साल की हो गई हूं…

तू भी तो मेरा जन्मदिन भूल गई… अपने दोनों भाइयों का जीवन संवारते और उन की घरगृहस्थी बसातेबसाते मैं कितनी अकेली रह गई हूं.’’

नीता ने उसे गले से लगाया और बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘इंसान से कभीकभी ऐसी भूल हो जाती है कि वह अपने किसी बहुत खास का जन्मदिन याद नहीं रख पाता. मैं तुम्हें शुभकामनाएं देती हूं.’’

उस के गले से लगेलगे सीमा सुबकती हुई बोली, ‘‘मेरा घर नहीं बसा, मैं इस बात की शिकायत नहीं कर रही हूं, नीता. मैं शादी कर लेती तो मेरे दोनों छोटे भाई कभी अच्छी तरह से अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाते. शादी न होने का मुझे कोई दुख नहीं है.

‘‘अपने दोनों छोटे भाइयों के परिवार का हिस्सा बन कर मैं खुशीखुशी जिंदगी गुजार लूंगी, मैं तो ऐसा ही सोचती थी. लेकिन आजकल मैं खुद को बिलकुल अलगथलग व अकेला महसूस करती हूं. कैसे काटूंगी मैं इस घर में अपनी बाकी जिंदगी?’’

‘‘इतनी दुखी और मायूस मत हो, प्लीज. तू ने नवीन और नीरज के लिए जो कुरबानियां दी हैं, उन का बहुत अच्छा फल तुझे मिलेगा, तू देखना.’’

‘‘मैं इन सब के साथ घुलमिल कर जीना…’’

‘‘बस, अब अगर और ज्यादा आंसू बहाएगी तो घर से बाहर निकलने पर तेरी लाल, सूजी आंखें तुझे तमाशा बना देंगी.

तू उठ कर मुंह धो ले फिर हम घूमने चलते हैं,’’ नीता ने उसे हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खड़ा कर दिया.

‘‘मैं घर वापस जाती हूं. कहीं घूमने जाने का अब मेरा बिलकुल मूड नहीं है.’’

‘‘बेकार की बात मत कर,’’ नीता उसे खींचते हुए गुसलखाने के अंदर धकेल आई.

जब वह 15 मिनट बाद बाहर आई, तो नीता ने उस के एक हाथ में एक नई काली साड़ी, मैचिंग ब्लाउज वगैरह पकड़ा दिया.

‘‘हैप्पी बर्थडे, ये तेरा गिफ्ट है, जो मैं कुछ दिन पहले खरीद लाई थी,’’ नीता की आंखों में शरारत भरी चमक साफ नजर आ रही थी.

‘‘अगर तुझे मेरा गिफ्ट खरीदना याद रहा, तो मुझे जन्मदिन की मुबारकबाद देना कैसे भूल गई?’’ सीमा की आंखों में उलझन के भाव उभरे.

‘‘अरे, मैं भूली नहीं थी. बात यह है कि आज हम सब तुझे एक के बाद एक सरप्राइज देने के मूड में हैं.’’

‘‘इस हम सब में और कौनकौन शामिल है?’’

‘‘उन के नाम सीक्रेट हैं. अब तू फटाफट तैयार हो जा. ठीक 1 बजे हमें कहीं पहुंचना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘उस जगह का नाम भी सीके्रट है.’’

सीमा ने काफी जोर डाला पर नीता ने उसे इन सीक्रेट्स के बारे में और कुछ भी

नहीं बताया. सीमा को अच्छी तरह से तैयार करने में नीता ने उस की पूरी सहायता की. फिर वे दोनों नीता की कार से अप्सरा बैंक्वेट हौल पहुंचे.

‘‘हम यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘मुझ से ऐसे सवाल मत पूछ और सरप्राइज का मजा ले, यार,’’ नीता बहुत खुश और उत्तेजित सी नजर आ रही थी.

उलझन से भरी सीमा ने जब बैंक्वेट हौल में कदम रखा, तो अपने स्वागत में बजी तालियों की तेज आवाज सुन कर वह चौंक पड़ी. पूरा हौल ‘हैप्पी बर्थडे’ के शोर से गूंज उठा.

मेहमानों की भीड़ में उस के औफिस की खास सहेलियां, नजदीकी रिश्तेदार और परिचित शामिल थे. उन सब की नजरों का केंद्र बन कर वह बहुत खुश होने के साथसाथ शरमा भी उठी.

सब से आगे खड़े दोनों भाई व भाभियों को देख कर सीमा की आंखों में आंसू छलक आए. अपनी मां के गले से लग कर उस के मन ने गहरी शांति महसूस की.

‘‘ये सब क्या है? इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी?’’ उस की डांट को सुन कर नवीन और नीरज हंस पड़े.

दोनों भाइयों ने उस का एकएक बाजू पकड़ा और मेहमानों की भीड़ में से गुजरते हुए उसे हौल के ठीक बीच में ले आए.

नवीन ने हाथ हवा में उठा कर सब से खामोश होने की अपील की. जब सब चुप हो गए तो वह ऊंची आवाज में बोला,

‘‘सीमा दीदी सुबह से बहुत खफा हैं. ये सोच रही थीं कि हम इन के जन्मदिन की तारीख भूल गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं था. आज हम इन्हें बहुत सारे सरप्राइज देना चाहते हैं.’’

सरप्राइज शब्द सुन कर सीमा की नजरों ने एक तरफ खड़ी नीता को ढूंढ़ निकाला. उस को दूर से घूंसा दिखाते हुए वह हंस पड़ी.

अब ये उसे भलीभांति समझ में आ गया था कि नीता भी इस पार्टी को सरप्राइज बनाने की साजिश में उस के घर वालों के साथ मिली हुई थी.

नवीन रुका तो नीरज ने सीमा का हाथ प्यार से पकड़ कर बोलना शुरू कर दिया, ‘‘हमारी दीदी ने पापा की आकस्मिक मौत के बाद उन की जगह संभाली और हम दोनों भाइयों की जिंदगी संवारने के लिए अपनी खुशियां व इच्छाएं इन के एहसानों का बदला हम कभी नहीं भूल गईं.’’

‘‘लेकिन हम इन के एहसानों व कुरबानियों को भूले नहीं हैं,’’ नवीन ने फिर

से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘कभी ऐसा वक्त था जब पैसे की तंगी के चलते हमारी आदरणीय दीदी को हमारे सुखद भविष्य की खातिर अपने मन को मार कर जीना पड़ रहा था. आज दीदी के कारण हमारे पास बहुत कुछ है.

‘‘और अपनी आज की सुखसमृद्धि को अब हम अपनी दीदी के साथ बांटेंगे.

‘‘मैं ने अपना राजनगर वाला फ्लैट दीदी के नाम कर दिया है,’’ ऊंची आवाज में ये घोषणा करते हुए नवीन ने रजिस्ट्री के कागजों का लिफाफा सीमा के हाथ में पकड़ा दिया.

‘‘और ये दीदी की नई कार की चाबी है. दीदी को उन के जन्मदिन का ये जगमगाता हुआ उपहार निशा और मेरी तरफ से.’’

‘‘और ये 2 लाख रुपए का चैक फ्लैट की जरूरत व सुखसुविधा की चीजें खरीदने

के लिए.

‘‘और ये 2 लाख का चैक दीदी को अपनी व्यक्तिगत खरीदारी करने के लिए.’’

‘‘और ये 5 लाख का चैक हम सब की तरफ से बरात की आवभगत के लिए.

‘‘अब आप लोग ये सोच कर हैरान हो रहे होंगे कि दीदी की शादी कहीं पक्की होने की कोई खबर है नहीं और यहां बरात के स्वागत की बातें हो रही हैं. तो आप सब लोग हमारी एक निवेदन ध्यान से सुन लें. अपनी दीदी का घर इसी साल बसवाने का संकल्प लिया है हम दोनों भाइयों ने. हमारे इस संकल्प को पूरा कराने में आप सब दिल से पूरा सहयोग करें, प्लीज.’’

बहुत भावुक नजर आ रहे नवीन और नीरज ने जब एकसाथ झुक कर सीमा के पैर छुए, तो पूरा हौल एक बार फिर तालियों की आवाज से गूंज उठा.

सीमा की मां अपनी दोनों बहुओं व पोतों के साथ उन के पास आ गईं. अब पूरा परिवार एकदूसरे का मजबूत सहारा बन कर एकसाथ खड़ा हुआ था. सभी की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे.

बहुत दिनों से चली आ रही सीमा के मन की व्याकुलता गायब हो गई. अपने दोनों छोटे भाइयों के बीच खड़ी वह इस वक्त अपने सुखद, सुरक्षित भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नजर आ रही थी.

Valentine’s Special- वेलेंटाइन डे: वो गुलाब किसका था

अपने देश में विदेशी उत्पाद, पहनावा, विचार, आचारसंहिता आदि का चलन जिस तरह से जोर पकड़ चुका है उस में वेलेंटाइन डे को तो अस्तित्व में आना ही था. वैसे अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि वेलेंटाइन डे के दिन होता क्या है. फिर भी बात चली है तो खुलासा कर देते हैं कि चाहने वाले जवान दिलों ने इस दिन को प्रेम जाहिर करने का कारगर माध्यम बना लिया है. इस अवसर पर बाजार सजते हैं, चहकते, इठलाते लड़केलड़कियों की सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाती है, वातावरण में खुमार, खनक, खुशी भर जाती है.

सेंट जोंसेफ कानवेंट स्कूल के कक्षा 11 के छात्र अभिराम ने इसी दिन अपनी सहपाठिनी निष्ठा को ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर चटक लाल गुलाब रख कर भेंट किया था. निष्ठा ने अंदरूनी खुशी और बाहरी झिझक के साथ भेंट स्वीकार की थी तो कक्षा के छात्रछात्राओं ने ध्वनि मत से उन का स्वागत कर कहा, ‘‘हैप्पी फोर्टीन्थ फैब.’’

विद्यालय का यह पहला इश्क कांड नहीं था. कई छात्रछात्राओं का इश्क चोरीछिपे पहले से ही परवान चढ़ रहा था. आप जानिए, वे पढ़ाई की उम्र में पढ़ाई कम दीगर हरकतें ज्यादा करते हैं. चूंकि यह विद्यालय अपवाद नहीं है इसलिए यहां भी तमाम घटनाएं हुआ करती हैं.

एक छात्रा स्कूल आने और उस के निर्धारित समय का लाभ ले कर किसी के साथ भाग चुकी है. एक छात्रा को रसायन शास्त्र के अध्यापक ने लैब में छेड़ा था. इस के विरोध में विद्यार्थी तब तक हड़ताल पर बैठे रहे जब तक उन को प्रयोगशाला से हटा नहीं दिया गया. इस के बावजूद स्कूल का जो अनुशासन, प्रशासन और नियमितता होती है वह आश्चर्यजनक रूप से यहां भी है.

हां, तो बात निष्ठा की चल रही थी. उस ने दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ ग्रीटिंग की इबारत पढ़ी- ‘निष्ठा, सेंट वेलेंटाइन ने कहा था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है. मैं संत का बहुत आभारी हूं-अभिराम.’

प्रेम की घोषणा हो गई तो उन के बीच मिलनमुलाकातें भी होने लगीं. दोनों एकदूसरे को मुग्धभाव से देखने लगे. साथसाथ ट्यूशन जाने लगे, फिल्म देखने भी गए.

कक्षा की सहपाठिनें निष्ठा से पूछतीं, ‘‘प्रेम में कैसा महसूस करती हो?’’

‘‘सबकुछ अच्छा लगने लगा है. लगता है, जो चाहूंगी पा लूंगी.’’

‘‘ग्रेट यार.’’

अपने इस पहले प्रेम को ले कर उत्साहित अभिराम कहता, ‘‘निष्ठा, मेरे मम्मीपापा डाक्टर हैं और वे मुझे भी डाक्टर बनाना चाहते हैं. यही नहीं वे बहू भी डाक्टर ही चाहते हैं तो तुम्हें भी डाक्टर बनना होगा.’’

‘‘और न बन सकी तो? क्या यह तुम्हारी भी शर्त है?’’

‘‘शर्त तो नहीं पर मुझे ले कर मम्मीपापा ऐसा सोचते हैं,’’ अभिराम बोला, ‘‘तुम्हारे घरवालों ने भी तो तुम्हें ले कर कुछ सोचा होगा.’’

‘‘यही कि मेरी शादी कैसे होगी, दहेज कितना देना होगा? आदि…’’ सच कहूं अभिराम तो पापामम्मी विचित्र प्राणी होते हैं. एक तरफ तो वे दहेज का दुख मनाएंगे, किंतु लड़की को आजादी नहीं देंगे कि वह अपने लिए किसी को चुन कर उन का काम आसान करे.’’

‘‘यह अचड़न तो विजातीय के लिए है हम तो सजातीय हैं.’’

‘‘देखो अभिराम, धर्म और जाति की बात बाद में आती है, मांबाप को असली बैर प्रेम से होता है.’’

‘‘मैं अपनी मुहब्बत को कुरबान नहीं होने दूंगा,’’ अभिराम ने बहुत भावविह्वल हो कर कहा.

‘‘बहुत विश्वास है तुम्हें अपने पर.’’

‘‘हां, मेरे पापामम्मी ने तो 25 साल पहले प्रेमविवाह किया था तो मैं इस आधुनिक जमाने में तो प्रेमविवाह कर ही सकता हूं.’’

‘‘अभि, तुम्हारी बातें मुझे भरोसा देती हैं.’’

अभिराम और निष्ठा अब फोन पर लंबीलंबी बातें करने लगे. अभि के मातापिता दिनभर नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे अत: उस को फोन करने की पूरी आजादी थी. निष्ठा आजाद नहीं थी. मां घर में होती थीं. फोन मां न उठा लें इसलिए वह रिंग बजते ही रिसीवर उठा लेती थी.

मां एतराज करतीं कि देख निष्ठा तू घंटी बजते ही रिसीवर न उठाया कर. आजकल के लड़के किसी का भी नंबर डायल कर के शरारत करते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं ने एक फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘पहचाना? मैं ने कहा कौन? तो बोला, तुम्हारा होने वाला.’’

इस तरह अभिराम और निष्ठा का प्रेम अब एक साल पुराना हो गया.

अभिराम ने योजना बनाई कि निष्ठा, वेलेंटाइन डे पर कुछ किया जाए.

निष्ठा ने सवालिया नजरों से अभिराम को देखा, जैसे पूछ रही हो क्या करना है?

‘‘देखो निष्ठा, इस छोटे से शहर में कोई बीच या पहाड़ तो है नहीं,’’ अभिराम बोला. ‘‘अपना पुष्करणी पार्क अमर रहे.’’

‘‘पार्क में हम क्या करेंगे?’’

‘‘अरे यार, कुछ मौजमस्ती करेंगे. और कुछ नहीं तो पार्क में बैठ कर पापकार्न ही खा लेंगे.’’

‘‘नहीं बाबा, मैं वेलेंटाइन डे पर तुम्हारे साथ पार्क में नहीं जा सकती. जानते हो हिंदू संस्कृति के पैरोकार एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है, जो लोग वेलेंटाइन डे मनाते हुए मिलेंगे उन्हें परेशान किया जाएगा.’’

‘‘निष्ठा, यही उम्र है जब मजा मार लेना चाहिए. स्कूल में यह हमारा अंतिम साल है. इन दिनों की फिर वापसी नहीं होगी. हम कुछ तो ऐसा करें जिस की याद कर पूरी जिंदगी में रौनक बनी रहे. हम पार्क में मिलेंगे. मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट दूंगा, इंतजार करो,’’ अभिराम ने साहबी अंदाज में कहा.

निष्ठा आखिर सहमत हो गई. मामला मुहब्बत का हो तो माशूक की हर अदा माकूल लगती है.

शाम को दोनों पार्क में मिले. निष्ठा खास सजसंवर कर आई थी. पार्क के कोने की एकांत जगह पर बैठ कर अभिराम निष्ठा को वाकमैन उपहार में देते हुए बोला, ‘‘इस में कैसेट भी है जिस पर तुम्हारे लिए कुछ रिकार्ड किया है.’’

‘‘वाह, मुझे इस की बहुत जरूरत थी. अब मैं अपने कमरे में आराम से सोते हुए संगीत सुन सकूंगी.’’

अभिराम ने निष्ठा के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि विकसित और आधुनिक देशों की संस्कृति भी प्रेम को बुरा कहती रही है. कैथोलिक ईसाइयों में प्रेम और शादी की मनाही थी. तब वेलेंटाइन ने कहा था कि मनुष्य को प्रेम की अभिव्यक्ति का अधिकार है. तभी से 14 फरवरी के दिन प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करते हैं.’’

संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रेमियों को खदेड़ने आ पहुंचे हैं, इस से बेखबर दोनों प्रेम के सागर में हिचकोले ले रहे थे कि अचानक संगठन के कार्यकर्ताओं को लाठी, हाकी, कालारंग आदि लिए देख अभिराम व निष्ठा हड़बड़ा कर खड़े हो गए. कुछ लोग पार्क छोड़ कर भाग रहे थे, तो कुछ तमाशा देख रहे थे.

उधर संगठन के ऐलान को ध्यान में रख स्थानीय मीडिया वाले रोमांचकारी दृश्य को कैमरे में उतारने के लिए शाम को वहां आ डटे थे. उन्होंने कैमरा आन कर लिया. अभिराम व निष्ठा स्थिति को भांपते इस के पहले कार्यकर्ताओं ने दोनों के चेहरे काले रंग से पोत दिए.

निष्ठा ने बचाव में हथेलियां आगे कर ली थीं. अत: चेहरे पर पूरी तरह से कालिख नहीं पुत पाई थी.

‘‘क्या बदतमीजी है,’’ अभिराम चीखा तो एक कार्यकर्ता ने हाकी से उस की पीठ पर वार कर दिया.

हाकी पीठ पर पड़ते ही अभिराम भाग खड़ा हुआ. उसे इस तरह भागते देख निष्ठा असहाय हो गई. वह किस तरह अपमानित हो कर घर पहुंची यह तो वही जानती है. डंडा पड़ते ही भगोड़े का इश्क ठंडा हो गया. वेलेंटाइन डे मना कर चला है क्रांतिकारी बनने. अरे अभिराम, अब तो मेरी जूती भी तुझ से इश्क न करेगी.

निष्ठा देर तक अपने कमरे में छिपी रही. वह जब भी पार्क की घटना के बारे में सोचती उस का मन अभिराम के प्रति गुस्से से भर जाता. बारबार मन में पछतावा आता कि उस ने प्रेम भी किया तो किस कायर पुरुष से. फिल्मों में देखो, हीरो अकेले ही कैसे 10 को पछाड़ देते हैं. वे तो कुल 4 ही थे.

तभी उस के कानों में बड़े भाई विट्ठल की आवाज सुनाई पड़ी जो मां से हंस कर कह रहा था, ‘‘मां, कुछ इश्कमिजाज लड़केलड़कियां पुष्करणी पार्क में वेलेंटाइन डे मना रहे थे. एक संगठन के लोगों ने उन के चेहरे काले किए हैं. रात को लोकल चैनल की खबर जरूर देखना.’’

खबर देख विट्ठल चकित रह गया, जिस का चेहरा पोता गया वह उस की बहन निष्ठा है?

‘‘मां, अपनी दुलारी बेटी की करतूत देखो,’’ विट्ठल गुस्से में भुनभुनाते हुए बोला, ‘‘यह स्कूल में पढ़ने नहीं इश्क लड़ाने जाती है. इस के यार को तो मैं देख लूंगा.’’

मां और बेटा दोनों ही निष्ठा के कमरे में घुस आए. मां गुस्से में निष्ठा को बहुत कुछ उलटासीधा कहती रहीं और वह ग्लानि से भरी चुपचाप सबकुछ सुनती व सहती रही. उस के लिए प्रेम दिवस काला दिवस बन गया था.

उधर अभिराम को पता ही नहीं चला कि वह पार्क से कैसे निकला, कैसे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कैसे भगा. उसे अब लग रहा था जैसे सबकुछ अपने आप हो गया. निष्ठा उस की कायरता पर क्या सोच रही होगी? बारबार यह प्रश्न उसे बेचैन किए जा रहा था.

पिताजी घर में थे, रात को टेलीविजन पर बेटे को देख कर वह चौंके और फौरन उन की आवाज गूंजी, ‘‘अभिराम, इधर तो आना.’’

‘‘जी पापा…’’

‘‘तो तुम पढ़ाई नहीं इश्क कर रहे हो. मैं तुम्हें डाक्टर बनाना चाहता हूं और तुम रोड रोमियो बन रहे हो.’’

‘‘पापा, वो… मैं वेलेंटाइन डे मना रहा था.’’

‘‘बता तो ऐसे गौरव से रहे हो जैसे एक तुम्हीं जवान हुए हो. मैं तो कभी जवान था ही नहीं. देखो, मैं इस शहर का मशहूर सर्जन हूं. क्या कभी तुम ने इस बारे में सोचा कि तुम्हें टेलीविजन पर देख कर लोग क्या कहेंगे कि इतने बड़े सर्जन का बेटा इश्क में मुंह काला करवा कर आ गया. जाओ पढ़ो, चार मार्च से सालाना परीक्षा है और तुम इश्क में निकम्मे बन रहे हो. आज से इश्कबाजी बंद.’’

अभिराम अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गया. इन बाप लोगों की चरित्रलीला समझ में नहीं आती. खुद इश्क लड़ाते रहे तो कुछ नहीं अब बेटे की बारी आई तो बड़ा बुरा लग रहा है. फिल्मों में बचपन का इश्क भी शान से चलता है और यहां सिखाया जा रहा है, इश्क में निकम्मे मत बनो. निष्ठा तुम ठीक कहती हो कि इन बड़े लोगों को असली बैर प्रेम से है.

बेचैन अभिराम निष्ठा को फोन करना चाह रहा था पर न साहस था न स्फूर्ति, न स्थिति.

4 मार्च को पहले परचे के दिन दोनों ने एकदूसरे को पत्र थमाए. अभिराम ने लिखा था, ‘निष्ठा, मैं तुम से सच्चा प्रेम करता हूं, साबित कर के रहूंगा.’

निष्ठा ने लिखा था, ‘यह सब प्रेम नहीं छिछोरापन है, और छिछोरेपन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.’.

और्डर

लेखिका- दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

भ्रमजाल

बहुत देर से कोई बस नहीं आई. मैं खड़ेखड़े उकता गई. एक अजीब सी सुस्ती ने मुझे घेर लिया. मेरे आसपास लोग खड़े थे, बतिया रहे थे, कुछ इधरउधर विचर रहे थे. मैं उन सब से निर्विकार अपने अकेलेपन से जू?ा रही थी. निगाह तो जिधर से बस आनी थी उधर चिपक सी गई थी. मन में एक प्रश्न यह भी उठ रहा था कि मैं जा क्यों रही हूं? न अम्मा, न बाबूजी, कोई भी तो मेरा इंतजार नहीं कर रहा है. तो क्या लौट जाऊं? पर यहां अकेली कमरे में क्या करूंगी. होली का त्योहार है, आलमारी ठीक कर लूंगी, कपड़े धो कर प्रैस करने का समय मिल जाएगा. 4 दिनों की छुट्टी है. समय ही समय है. सब अपने घरपरिवार में होली मना रहे होंगे. किसी के यहां जाना भी अजीब लगेगा…नहीं, चली ही जाती हूं. क्या देहरादून जाऊं शीला के पास? एकाएक मन शीला के पास जाने के लिए मचल उठा.

शीला, मेरी प्यारी सखी. हमारी जौइनिंग एक ही दिन की है. दोनों ने पढ़ाई पूरी ही की थी कि लोक सेवा आयोग से सीधी भरती के तहत हम इंटर कालेज में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गए. प्रथम तैनाती अल्मोड़ा में मिली.

अल्मोड़ा एक सुंदर पहाड़ी शहर है जहां कसबाई संस्कृति की चुलबुलाहट है. सुंदर आबोहवा, रमणीक पर्यटन स्थल, खूबसूरत मंदिर, आकार बदलते ?ारने, उपनिवेश राज के स्मृति चिह्न, और भी बहुत कुछ. खिली धूप और खुली हवा. ठंडा है किंतु घुटा हुआ नहीं. मैदानी क्षेत्रों की न धुंध न कोहरा. सबकुछ स्वच्छनिर्मल. जल्दी ही हमारा मन वहां रम गया.

दोनों पढ़ने वाले थे. शीघ्र ही हमारी दोस्ती परवान चढ़ने लगी. साथ भोजन करने से खाने का रस बना रहा. पहाड़ी जगह, सीधेसरल जन, रंग बदलते मौसम, रसीले फल और शाम को टहलना, सेहत तो बननी ही थी.

स्कूल की बंधीबंधाई दिनचर्या के उपरांत कुछ शौपिंग, कुछ बतियाना, स्फूर्तिपूर्वक लगता था. अन्यथा स्कूल का माहौल, बाप रे, ऐडमिशन, टाइमटेबल, लगातार वादन, होमवर्क, यूनिट टैस्ट, छमाही, सालाना, कौपियां, रिजल्ट, प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सदन, पत्रिका, संचयिका, अभिभावक संघ, बैठकें, प्रीबोर्ड, बोर्ड परीक्षा, गृह परीक्षा, प्रैक्टिकल्स…उफ, कहीं कुछ चूक हो जाए तो दुनियाभर की फजीहत. इन सब के बाद सवा महीने की गरमियों की छुट्टी. अधिकांश उड़ जाते अपने स्थायी बसेरों की ओर. मैं भी अल्मोड़ा के शीतल मनोहारी वायुमंडल को त्याग तपते आगरा में अम्माबाबूजी की शीतल छांव में जाने को बेताब रहती.

 

अम्माबाबूजी की दवा, खुराक, सामाजिक व्यवहार, कपड़ों की खरीदारी में कब ग्रीष्मावकाश फुर्र हो जाता, कुछ पता ही नहीं चलता. आतेआते भी, ‘मैं जल्दी आऊंगी,’ कह कर ही निकल पाती.

बीच में कुछ दिन देहरादून में दीदी और जीजाजी के पास रहती. वे भी इंतजार सा करते रहते. दीदी कमजोर थीं, 3 बच्चे छोटेछोटे. किसी भी जरूरत पर मु?ो जाना पड़ता था. मेरे बारबार चक्कर काटने से शीला खी?ा जाती. एक दिन तो फट पड़ी.

गजब की ठंड थी. पहाडि़यां बर्फ से लकदक हो गई थीं. रुकरुक कर होती बारिश ने सब को घरों में रहने को मजबूर सा कर दिया था. बर्फीली हवा ने पूरी वादी को अपने आगोश में ले लिया था. मैं छुट्टी की अप्लीकेशन और लैब की चाबी लिए शीला के घर की ओर चल दी. दरवाजा खटखटाया. कुछ देर यों ही खड़ी रही. शीला को आने में समय लगा. बिस्तर में रही होगी. हाथ में बैग देखते ही बोली, ‘इस मौसम में, इतनी ठंड में चिडि़या भी घोंसले में दुबकी है और एक तू है जो बर्फीली हवा की तरह बेचैन है.’

‘देहरादून से जीजाजी का फोन आया है. हनी को चोट लग गई है. शायद औपरेशन कराना पड़े.’

‘तेरे तो कई औपरेशन कर दिए इस बुलावे ने,’ शीला ने बात पूरी सुने बिना जिस विद्रूपता से मेरे हाथ से चाबी और अप्लीकेशन ?ापट कर दरवाजा खटाक से बंद किया, बरसों बाद भी उस का कसैलापन धमनियों में बहते खून में तिरने लगता है. शीला की बात से नहीं, हनी के व्यवहार से.

पिछली बार जब मैं उबाऊ और मैले सफर के बाद देहरादून पहुंची तो बड़ी देर तक हनी और बहू मिलने नहीं आए. हनी के मुख से निकले वाक्य ‘मौसी फिर आ गई हैं’ ने अनायास मु?ा से मेरा साक्षात्कार करा दिया. ऐसा नहीं था कि उन की आंखों में धूमिल होती प्रसन्नता की चमक और लुप्त होते उत्साह को मैं महसूस नहीं कर रही थी किंतु मैं अपने भ्रमजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही थी. सबकुछ बदल रहा था, केवल मैं रुकी हुई थी. शीला ठीक कहती थी, ‘निकल इस व्यामोह से, सब की अपनी जिंदगी है. किसी को तेरी जरूरत नहीं. सब फायदा उठा रहे हैं. अपनी सुध ले.’

मु?ो बेचैनी सी होने लगी. बैग से पानी की बोतल निकाली. कुछ घूंट पिए. इस बीच एक बस आई थी. ठसाठस भरी. मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पाई. लोग सरकती बस में लटकते, चिपकते और ?ालते चले गए.

धीरेधीरे मु?ो लगने लगा कि अम्माबाबूजी की मु?ा पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी. वे हर चीज के लिए मेरी राह देखने लगे. मु?ो गर्व होने लगा, अपने लंबे भाइयों का कद छोटा होते देख. उन को यह जताने में मु?ो पुलक का अनुभव होने लगा कि मेरे रहते हुए अम्माबाबूजी को किसी बात की कोई कमी नहीं है, उन्हें बेटों की कोई दरकार नहीं. भाईभतीजे कुछ खिंचेखिंचे रहने लगे थे. भाभियां कुछ ज्यादा चुप हो गईं. पर मैं ने कब परवा की. बीचबीच में बाबूजी मु?ो इशारा करते थे परंतु मैं ने बात को छूने की कभी कोशिश ही नहीं की.

आज अम्माबाबूजी नहीं हैं. बादलों का वह ?ांड टुकड़ेटुकड़े हो गया जिसे मैं ने शाश्वत सम?ा लिया था.

पहले बाबूजी गए. 93 वर्ष की उम्र में भरेपूरे परिवार के बीच जब उन की अरथी उठी तो सब ने उन्हें अच्छा कहा. उसी कोलाहल में एक दबा स्वर यह भी उभरा कि बेटी को अनब्याहा छोड़ गए. कोई और समय होता तो मैं उस शख्स से भिड़ जाती. पर अब लगता है, अम्माबाबूजी बुजुर्ग हो गए थे किंतु असहाय नहीं थे. उन्होंने मेरे रिश्ते की सरगरमी कभी नहीं दिखाई. जैसे उन्होंने यह मान लिया था कि मैं विवाह करूंगी ही नहीं.

मेरी समवयस्का सखी शीला के घर से जबतब उस के लिए रिश्ते के प्रस्ताव आते रहते. एक रूमानियत उस की आंखों में तैरने लगी थी. बोलती तो जैसे परागकण ?ार रहे हों, चेहरे का आकर्षण दिन पर दिन बढ़ने लगा था. वह मु?ा से बहुतकुछ कहना चाहती थी पर मेरे लिए तो जैसे वह लोक था ही नहीं. आखिर, वह मु?ा से छिटक गई और अकेले ही अपने कल्पनालोक में विचरने लगी.

फिर एकाएक एक दिन उस ने मेरे हाथ में अपनी शादी का कार्ड रख दिया- शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तुते…मैं पंक्ति को पढ़ती जाती और अर्थ ढूंढ़ती जाती. शीला खीझ गई, ‘मेरी शादी है. फुरसत मिले तो आ जाना. मैं आज जा रही हूं.’ मैं उसे देखती रह गई.

शादी के बाद शीला वर्षभर यहां और रही. उस के पति शेखर ने पूरा जोर लगा दिया उस का देहरादून तबादला कराने में. शेखर वहां ‘सर्वे औफ इंडिया’ में अधिकारी थे. कोशिश करतेकरते भी सालभर लग गया. इस बीच वे शीला के पास यहां आते रहे. जब शेखर यहां आते तो मेरी एक सीमारेखा खिंच जाती. परंतु शीला मेरा पहले से भी अधिक खयाल रखने लगती. कोशिश करती कि मैं खाना अकेले न बनाऊं. मैं न जाती तो खाना पहुंचा देती. बहुत मना करती तो दालसब्जी तो जरूर दे जाती. शेखर के स्वभाव में गंभीरता दिखती थी इसलिए मिलने से बचती रही. लेकिन इस गंभीरता के नीचे सहृदयता की निर्मल धारा बह रही है, यह धीरेधीरे पता चला. अपनेआप ?ि?ाक कम होती चली गई और उन में मु?ो एक शुभचिंतक नजर आने लगा.

इसी दौरान शेखर ने मु?ो अरविंद के बारे में बताया, जो उन्हीं के औफिस में देहरादून में कार्यरत था. एक सरकारी कार्य के बहाने उसे अल्मोड़ा बुला कर मेरी मुलाकात भी करा दी. अरविंद ने मु?ो आकर्षित किया. अपने प्रति भी उस की रुचि अनुभव की. शेखर और शीला के दांपत्य के शृंगार का सौंदर्य देख चुकी थी. मैं विवाह के लिए उत्कंठित हो गई. शीला का भी आग्रह बढ़ता गया. कई प्रकार से वह मु?ो सम?ाती.

‘अम्माबाबूजी हमेशा नहीं रहेंगे. पीतपर्ण हैं…कभी भी ?ार जाएंगे. फिर वे अपना जीवन जी चुके हैं. बिंदु, तू बाद में पछताएगी. सोच ले.’

‘ठीक है, अम्माबाबूजी को मैं नहीं छोड़ पाऊंगी पर इस संबंध में तुम मेरे जीजाजी से बात करो,’ मैं ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी स्वीकृति दे दी.

शीला हर्षित हो गई जैसे उसे कोई निधि मिल गई हो. तुरतफुरत उस ने शेखर की जीजाजी से बात करा दी. जीजाजी ने जिस उखड़ेपन से बात की वह शेखर के उत्साह को क्षीण करने के लिए काफी थी. वह बात नहीं थी, कटाक्ष था.

‘अच्छा, तो हमारी साली के रिश्ते की बातें इतनी सार्वजनिक हो गई हैं. आप उस की कलीग शीला के पति बोल रहे हैं न. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है. घर में बिंदु के बहुत हितैषी हैं.’

शीला अपने पति के अपमान से तिलमिला गई. रोंआसी हो कहने लगी, ‘बिंदु, तेरे जीजाजी कभी तेरी शादी नहीं होने देंगे. अम्माबाबूजी के बस की बात नहीं और भाइयों की हद से तू निकल चुकी है. तु?ो स्वयं फैसला लेना होगा.’
पर मैं तो अपने बारे में कभी फैसला ले ही नहीं पाई. धीरेधीरे बात काल के गर्भ में समा गई. शेखर और शीला ने फिर कभी मेरे रिश्ते की बात नहीं की. पर हां, उन्होंने मु?ो देहरादून में जमीन या फ्लैट खरीदने को दोएक बार अवश्य कहा.

‘बिंदु, जमीन के दाम बढ़ते जा रहे हैं. तू समय रहते देहरादून में अपना मकान पक्का कर ले. अपना ठिकाना तो होना चाहिए.’

मैं चौंक गई. मैं और मकान. मैं पलट कर बोली, ‘देहरादून में मेरे दीदीजीजाजी हैं. एक जीजाजी सहारनपुर में हैं. मेरे लिए मकानों की कमी नहीं है.’

अब सबकुछ मेरी आंखों के सामने है. पिछली बार देहरादून गई तो सीधे शीला के पास चली गई थी. शीला प्रसन्न हुई, उस से अधिक हैरान. उस के 2 सुंदर बच्चे हमेशा की तरह मु?ा से चिपक गए. उन के लिए जो लाई थी, उन्हें पकड़ा दिया. शीला बिगड़ी. मैं चुप रही. शीला कुछ ढूंढ़ने लगी. बच्चों को लौन में खेलने भेज दिया.

‘बिंदु, कुछ परेशान लग रही है. सब ठीक है न?’

मेरा गला भर आया. स्वयं पर दया आने का यह विचित्र अनुभव था. शब्द नहीं निकल पाए. शीला पानी ले आई.

‘अच्छा, पहले पानी पी ले. थोड़ा आराम कर ले,’ कह कर शीला रसोई की ओर जाने लगी. मैं ने रोक दिया.

‘शीला, शेखर से कहना कि मेरे लिए कोई छोटा सा फ्लैट देख लें…’

शीला फट पड़ी, ‘अब आया तु?ो होश. जब पहले कहा था कि अपने लिए मकान देख ले तब तो तू ने कहा था कि मेरे बहुत सारे मकान हैं. कहां गए वे सारे मकान? अब याद आ रही है मकान खरीदने की, वह भी देहरादून में.’

शीला और उस के पति ने मकान ढूंढ़ने की कवायद शुरू कर दी. जमीन भी देखी, जमीन शहर से बहुत दूर थी, अकेली प्रौढ़ा के लिए ठीक नहीं लगा और शहर में फ्लैट बहुत महंगे थे. धीरेधीरे दोनों चीजें मेरी पहुंच से बहुत दूर चली गईं.

अब अम्मा भी नहीं रहीं. बाबूजी के जाने के 6 वर्ष बाद अम्मा भी छोड़ कर चली गईं. ऐसा लगने लगा कि जैसे मेरे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया. अब कहां जाऊं? सचमुच एक व्यामोह में कैद थी मैं. अब भ्रम टूटा तो 52 वर्ष की फिसलती उम्र के साथ अकेली खड़ी हूं…

भीड़ में कुछ हलचल हुई. शायद कोई बस आ रही है. बैग संभाल लिए. बस आ गई. रेले में मैं भी यंत्रवत सी बस में चढ़ गई. मंजिल हो न हो, सफर तो है ही.

New Year 2022: नई जिंदगी की शुरुआत

फूलमनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बुतरू के स्टाइल पर फिदा हो गई. प्यार के झांसे में आ कर एक दिन बिना सोचेसमझे वह अपना घर छोड़ उस के साथ शहर भाग आई. शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंडि़या बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंडि़या पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.

फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगल बगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.

बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई है…’’

फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती.

एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’

सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता.

शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता.

ये भी पढ़ें- प्यार अपने से : जब भाई को हुआ बहन से प्यार

फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.

साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी.

सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से साझा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे.

एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.

मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’

सुखराम थोड़ा झेंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह समझती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’

‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’

झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था.

दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब झगड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.

सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’

किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोंपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’

दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’

‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया.

ये भी पढ़ें- अहसास : रामनाथ ने थामा डांसर रेखा का हाथ

सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.

अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया.

अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’

साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनी पाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.

सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’

‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडंू? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’

‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’

‘‘बोलो…’’

ये भी पढ़ें- रश्मि : बलविंदर के लालच ने ली रश्मि की जान

‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’

बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें