Family Story: पीयूषा – क्या विधवा मिताली की गृहस्थी दोबारा बस पाई?

Family Story, लेखिका: Sandhya

रविवार का दिन था. छुट्टी होने के कारण मैं इतमीनान से अपने कमरे में अखबार पढ़ रहा था, तो अचानक चाचाजी पर नजर पड़ी. वे सामने उदास व शांत खड़े हुए थे. मैं ने बैठने का आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी, परेशान से लग रहे हैं? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम से कुछ कहना चाहता हूं,’’ बैठने के बाद चाचाजी ने धीरे से कहा. मैं ने अखबार एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘तो कहिए न चाचाजी.’’ लेकिन चाचाजी शांत ही बैठे रहे. मैं ने आग्रह करते हुए कहा, ‘‘क्या बात है चाचाजी? जो दिल में है बेझिझक कह दीजिए. आप का कथन मेरे लिए आदेश है,’’ चाचाजी की चुप्पी दरअसल मेरी बैचेनी बढ़ा रही थी. ‘‘बेटा पवन, तू ने कभी भी मेरी बात नहीं टाली है. आज भी इसी उम्मीद से तेरे पास आया हूं. तेरी चाची का और मेरा विचार है कि तू मिताली से शादी कर ले. उसे सहारा दे दे. बेचारी कम उम्र में विधवा हो गई है और दुनिया में एकदम अकेली है. मायके में उस का कोई नहीं है. हम बूढ़ाबूढ़ी का क्या भरोसा, तब वह अकेली कहां जाएगी…,’’ चाचाजी ने धीरेधीरे अपनी बात रखी. उन की आंखें सजल हो उठी थीं, गला भर आया था. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा चाचाजी की बातें सुन रहा था और क्या कहूं समझ नहीं पा रहा था. मेरे समक्ष एक ओर चाचाचाची का निर्णय था, तो दूसरी ओर मेरा प्यार जो पनप चुका था.

मुझे लग रहा था कि यह बात सच है कि जीवनपथ का अगला मोड़ क्या और कैसा होगा कोई नहीं जानता. आज जीवनपथ का ऐसा मोड़ मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ था, जिस में मुझे अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य एवं अपने प्यार में से किसी एक का चुनाव करना था.

मेरे जीवनपथ का प्रथम पड़ाव बचपन शुरू में काफी खुशहाल था. मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान हूं. पापा बैंक में मैनेजर थे और मां कुशल गृहिणी. चूंकि पापा घर के बड़े बेटे थे और मां अच्छे स्वभाव की महिला थीं, इसलिए मेरी वृद्धा दादी हमारे साथ ही रहती थीं. मुझे मांबाप के साथ दादी का भी भरपूर स्नेहप्यार मिलता रहा. पटना के सब से अच्छे स्कूल में मेरा दाखिला करवाया गया था. पढ़ाई में मेरी विशेष दिलचस्पी थी और शुरू से ही मैं मेधावी रहा, इसलिए अच्छे अंक लाता था. पढ़ाई के साथसाथ खेलकूद, गायन आदि में भी मेरी विशेष रुचि थी. मुझे मांपापा का पूरा प्रोत्साहन मिलता रहा, इसलिए सभी क्षेत्रों में अच्छा कर मैं परिवार एवं स्कूल की आंखों का तारा बना रहा. मेरे जीवनपथ में अचानक ही अत्यंत कठिन और पथरीला मोड़ आ खड़ा हुआ. मैं उस समय कक्षा 8 में पढ़ता था. मांपापा का अचानक रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मेरे पास इस दुख को सहने की न तो बुद्धि थी न ही हिम्मत. मैं हताश और हारा हुआ सा सिर्फ रोता रहता था.

उस कठिन समय में दादी ने मुझे ढाढ़स बंधाया और अपने छोटे बेटे यानी मेरे चाचाजी के घर मुझे ले आईं. मैं चाचा चाची के साथ जमशेदपुर में रहने लगा. उन का इकलौता बेटा पीयूष था. वह मुझ से 2 साल छोटा था. चाचाजी ने उसी के स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया. मैं वहां भी अच्छे अंकों से पास होने लगा.

चाचाचाची मेरी रहने, खानेपीने, पढ़नेलिखने आदि सभी व्यवस्था देखते, लेकिन मेरे और पीयूष के प्रति उन के व्यवहार में थोड़ा फर्क रहता. जैसे चाची मुझ से नजरें बचा कर पीयूष को कुछ स्पैशल खाने को देतीं. लेकिन पीयूष मेरे लाख मना करने पर भी उसे मुझ से शेयर करता. मैं चाचाचाची के सारे भेदभाव नजरअंदाज कर तहे दिल से उन का आभार मानता कि उन्होंने मुझ बेसहारा को सहारा तो दिया ही अच्छे स्कूल में मेरा नाम भी लिखवाया. मेरी दादी जब तक रहीं मुझ पर विशेष ध्यान देती रहीं, किंतु वे मांपापा के आकस्मिक निधन से अंदर तक टूट चुकी थीं. उन के जाने के 2 वर्ष बाद वे भी चल बसीं.

चाचाचाची पीयूष की उच्च शिक्षा हेतु अकसर चर्चा करते किंतु मेरे संबंध में ऐसी कोई जिज्ञासा नहीं व्यक्त करते. मैं ने 12वीं की परीक्षा उच्च अंकों से पास की. फिर बी.कौम. करने के बाद बैंक परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर मैं सरकारी बैंक में पी.ओ. बन गया. इत्तफाक से मेरी नियुक्ति जमशेदपुर में ही हुई, तो मैं चाचाचाची के साथ ही रहा. वैसे भी मेरी दिली इच्छा यही थी कि मैं चाचाचाची के साथ रह कर उन्हें सहयोग दूं क्योंकि दोनों को ही बढ़ती उम्र के साथसाथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी होने लगी थीं.

पीयूष ने बैंगलुरु से एम.बी.ए. किया. वहीं उस का एक मल्टीनैशनल कंपनी में सिलैक्शन हो गया. हम सभी उस की खुशी से खुश थे. उसे जल्दी ही अपनी जूनियर मिताली से प्यार हो गया, तो चाचाचाची ने उस की पसंद को सहर्ष स्वीकार करते हुए धूमधाम से उस का विवाह कर दिया. शादी के बाद पीयूष और मिताली बैंगलुरु लौट गए. पीयूष की शादी के बाद मेरा मन कुछ ज्यादा ही खालीपन महसूस करने लगा. उसी दौरान कविता ने कब इस में जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला. कविता मेरी ही बस से आतीजाती थी. सुंदर, सुशील, सभ्य कविता विशाल हृदय मालूम होती, क्योंकि हमेशा ही सब की सहायता हेतु तत्पर दिखाई देती. कभी किसी अंधे को सड़क पार करवाती, तो कभी किसी बच्चे की सहायता करती. बस में वृद्ध या गर्भवती महिला को तुरंत अपनी सीट औफर कर देती. मुझे उस की ये सब बातें बहुत अच्छी लगती थीं, क्योंकि वे मेरे स्वभाव से मेल खाती थीं. हम दोनों में छोटीछोटी बातें होने लगीं.

धीरेधीरे हम एकदूसरे के लिए जगह रख, साथ ही जानेआने लगे. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता. मैं उस के प्रति आकर्षण महसूस करता किंतु चाह कर भी उस के सामने व्यक्त नहीं कर पाता. उस की दशा भी मेरे समान ही महसूस होती, क्योंकि उस की आंखों में चाहत, समर्पण दिखाई देता. किंतु शर्मोहया का बंधन उसे भी जकड़े हुए था.

मैं अपने विवाह हेतु चाची से चर्चा करना चाहता किंतु झिझक महसूस होती. कई बार पीयूष की मदद लेने का विचार आता किंतु वह अपनी नौकरी एवं गृहस्थी में ऐसा व्यस्त और मस्त था कि उस से चर्चा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता. इस के अलावा उस का हमारे पास आना भी बहुत कम एवं सीमित समय के लिए हो पाता. उस दौरान मेरा संकोची स्वभाव कुछ व्यक्त नहीं कर पाता. मिताली के गर्भवती होने पर चाची उसे लंबी छुट्टी दिलवा कर अपने साथ ले आईं. 5 माह का गर्भ हो चुका था.

चाची बड़ी लगन एवं जिम्मेदारी से उस की देखभाल करतीं, तो नए मेहमान के आगमन की खुशी से घर में हर समय त्योहार जैसा माहौल बना रहता. मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण मिताली से थोड़ा दूरदूर ही रहता. हम दोनों में कभीकभी ही कुछ बात होती. जीवन अपनी गति से चल रहा था कि अचानक पीयूष का रोड ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. घर में मानो कुहराम मच गया. चाचाचाची का रोरो कर बुरा हाल था. मिताली तो पत्थर की मूर्ति सी बन गई. एकदम शांत, गमगीन. मैं स्वयं के साथसाथ सभी को संभालने की असफल कोशिश में लगा रहता. मिताली को समझाते हुए कहता कि मिताली कम से कम बच्चे के बारे में तो सोचो उस पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, तो वह आंसू पोंछते हुए सुबकने लगती. पीयूष के जाने बाद हम सभी का जीवन रंगहीन, उमंगहीन हो गया था. हम सभी यंत्रवत अपनाअपना काम करते और एकदूसरे से नजरें चुराते हुए मालूम होते.

जीवनयात्रा की टेढ़ीमेढ़ी डगर मेरे मनमस्तिष्क में हलचल मचा रही थी. चाचाजी मिताली से विवाह करने की बात पर मेरा जवाब सुनना चाह रहे थे. वे मेरी सहमति की आस लगाए बैठे थे और मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मेरा गुजरा कल आज मिताली के साथ में मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ है. कल जब मैं अपने मातापिता से बिछुड़ कर चाचाचाची के समक्ष सहारे की उम्मीद लिए आ खड़ा हुआ था, यदि उस समय उन्होंने सहारा नहीं दिया होता तो मेरा जाने क्या होता. सत्य है इतिहास स्वयं को दोहराता है. वैसे चाचाजी यदि मेरी जान भी मांग लेते तो बिना सोचेविचारे मैं सहर्ष दे देता, किंतु चाचाजी ने मिताली से विवाह का प्रस्ताव रख मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘चाचाजी, मिताली को मैं ने हमेशा अपनी छोटी बहन माना है. ऐसे में भला मैं उस से शादी कैसे कर सकता हूं?’’

‘‘बेटा, तुम निराश करोगे तो हम कहां जाएंगे,’’ कहते हुए चाचाजी रो पड़े. मैं ने उन्हें संभालते हुए कहा, ‘‘चाचाजी, स्वयं को संभालिए. यों निराश होने से समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? मैं नहीं जानता था कि आप लोग मिताली के पुनर्विवाह हेतु विचार कर रहे हैं. दरअसल, मेरा मित्र पंकज अपने विधुर भैया प्रसुन्न के लिए मुझ से मिताली का हाथ मांग रहा था, किंतु मैं उस के प्रस्ताव पर उस पर बिफर पड़ा था कि अभी बेचारी पीयूष के गम से उबर भी नहीं पाई है, उस का बच्चा मिताली के गर्भ में है, ऐसे में उस से मैं कहीं और शादी करने के लिए कैसे बोल सकता हूं. ‘‘उस ने मुझे समझाते हुए कहा था कि दोस्त गंभीरता से विचार कर. जो हुआ बहुत बुरा हुआ किंतु वह हो चुका है, तो अब उस से निकलने का उपाय सोचना होगा. मेरी भाभी बेटे के जन्म के साथ चल बसीं. आज बेटा डेढ़ वर्ष का हो गया है.

मेरी मां बेटे प्रखर का पालनपोषण करती हैं किंतु वे बूढ़ी और बीमार हैं. भैया दूसरी शादी के लिए इसलिए इनकार कर देते हैं कि अगर उन की दूसरी पत्नी उन के जान से प्यारे प्रखर के साथ बुरा व्यवहार करेगी तो वे बरदाश्त नहीं कर पाएंगे. वही सिचुएशन मिताली के समक्ष भी आ खड़ी हुई है. लेकिन वह बेचारी जिंदगी किस सहारे निकालेगी?

‘‘उस ने मुझे विस्तार से समझाते हुए कहा कि देख दोस्त मेरे भैया और मिताली दोनों संयोगवश अपने जीवनसाथियों से बिछुड़ आधेअधूरे रह गए हैं. हम दोनों को मिला कर उन के जीवन को सरस एवं सफल बनाएं, यही सर्वथा उचित होगा. मैं ने बहुत चिंतनमनन के बाद तेरे समक्ष यह प्रस्ताव रखा है. दोनों एकदूसरे के बच्चे को अपना कर जीवनसाथी बन जाएं, इसी में दोनों का सुख है. जो घटित हुआ उसे तो बदला नहीं जा सकता, किंतु उन का भविष्य तो अवश्य सुधारा जा सकता है. ‘‘गंभीरता से विचार करने पर मुझे भी पंकज का प्रस्ताव उचित लगा, किंतु आप लोगों से इस के बारे में चर्चा करने का साहस मुझ में न था. आज आप ने चर्चा की तो कहने का साहस जुटा पाया.’’

चाचाजी मेरी बातें शांति से सुन रहे थे और समझ भी रहे थे, क्योंकि अब वे संतुष्ट नजर आ रहे थे. चाचीजी जो अब तक परदे की ओट से हमारी बातें सुन रही थीं, लपक कर हमारे सामने आ खड़ी हुईं और अधीरता से बोलीं, ‘‘बेटा, कैसे हैं पंकज के भैया? क्या करते हैं? उम्र क्या है उन की और क्या तू उन से मिला है? वगैरहवगैरह.’’

मैं ने उन को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘चाचीजी, पहले आप इतमीनान से बैठिए. मैं सब बताता हूं. बड़े नेक और संस्कारवान इनसान हैं. सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं और मेरी ही उम्र के होंगे, क्योंकि पंकज से 2 साल ही बड़े हैं. पंकज मुझ से लगभग 2 साल ही छोटा है. वैसे आप लोग पहले उन से मिल लीजिए, उस के बाद निर्णय लीजिएगा. मैं तो मिताली को देख कर चिंतित हो जाता हूं. समझ नहीं पाता हूं कि वह इस बात के लिए तैयार होगी या नहीं. अभी बेहद गुमसुम व गमगीन रहती है.’’

‘‘बेटा, तू चिंता न कर. उसे विवाह के लिए हम सभी को प्रोत्साहित करना होगा. विवाह होने से वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगी जिस का प्रभाव गर्भ पर भी सकारात्मक पड़ेगा. बेटा, वह अभी स्वयं को अकेली एवं असुरक्षित महसूस करती होगी. एक औरत होने के नाते मैं उस की भावनाएं समझ सकती हूं. यदि उसे सहारा मिल जाएगा तब उसे दुनिया और जीवन प्रकाशवान लगने लगेगा. हम सब के सहयोग और प्रोत्साहन से वह सामान्य जीवन के प्रति अग्रसर हो जाएगी,’’ चाची ने समझाते हुए कहा. फिर चाची 2 मिनट बाद बोलीं, ‘‘बेटा पवन मिताली की शादी के बाद हम तेरी शादी भी कर देना चाहते हैं.’’

‘‘ठीक है चाची, लेकिन अभी हमें सिर्फ मिताली के संबंध में ही सोचना चाहिए. कच्ची उम्र में बड़ी विपदा उस पर आ पड़ी है.’’ ‘‘हां बेटा, बहुत दुख लगता है उसे यों मूर्त बना देख कर, लेकिन तेरी जिम्मेदारी भी पूरी कर देना चाहती हूं. कोई नजर में हो तो बता देना,’’ कहते हुए चाची ने स्नेह से मेरा सिर सहला दिया. मैं कविता को याद कर अहिस्ता से मुसकरा दिया. प्रसुन्न भैया के साथ मिताली की शादी कर दी गई. उन के प्यार, संरक्षण एवं हम सभी के स्नेह, सहयोग एवं प्रोत्साहन से मिताली ने स्वयं को संभाल लिया. समय से उस ने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, तो हम सभी को सारा संसार गुलजार महसूस होने लगा. सब से बड़ी बात तो यह हुई कि अब मिताली खुश रहने लगी. बच्ची के नामकरण हेतु घर में चर्चा होने लगी, तो मैं ने कहा, ‘‘प्रसुन्न भैया, आप ने बेटे का नाम प्रखर बहुत प्यारा एवं सारगर्भित रखा है. उसी तरह बेटी का नाम भी आप ही बताएं.’’

प्रसुन्न भैया 2 पल सोच कर मुसकराते हुए बोले, ‘‘मेरी बेटी का नाम होगा पीयूषा, जो है तो पीयूष की निशानी किंतु दुनिया उसे मेरी निशानी के रूप में पहचानेगी.’’ फिर प्यार से उन्होंने मिताली की ओर देखा. मिताली उन्हें आदर और प्यार से देखने लगी मानों कह रही हो कि आप को पा कर मैं धन्य हो गई.

Social Story: जिस्म की सफेदी

Social Story: लखनऊ के हजरतगंज इलाके के एक शानदार कौंप्लैक्स में बने अपने  औफिस में बैठा हुआ सुषेन दीवार पर लगे आईने में अपने चेहरे को देख रहा था. चेहरे की सफेदी को काली दाढ़ी ने काफी हद तक घेर रखा था. उस सफेदी के नीचे दबी हुई महीन नसें भी वह आईने में साफ देख सकता था.

इनसान की चमड़ी भी उस की जिंदगी में कितनी अहमियत रखती है… काली चमड़ी… गोरी चमड़ी… मोटी चमड़ी… महीन चमड़ी… खूबसूरत और बदसूरत चमड़ी…

खूबसूरत… हां… सुषेन भी तो खूबसूरत था… बांका और सजीला नौजवान… सुषेन 20 साल पहले की यादों में डूबने लगा था.

कालेज में बीएससी करते समय बहुत सी लड़कियां सुषेन की दीवानी थीं, क्योंकि वह दिखने में तो हैंडसम था ही, साथ ही साथ विज्ञान के प्रैक्टिकल करने में भी उसे महारत हासिल थी.

पर सुषेन के दिल में तो किसी और ही लड़की का राज था और वह लड़की थी एमएससी फाइनल में पढ़ने वाली सुरभि.

सुरभि और सुषेन दोनों अकसर लाइब्रेरी में मिलते थे और वहीं दोनों की आंखें मिलीं, बातें हुईं और 2 जवान दिलों में प्यार होते देर नहीं लगी. दोनों ने महसूस किया कि वे एकदूसरे को जाननेपहचानने लगे हैं और दोनों के विचार भी आपस में मिलते हैं. यकीनन वे एकदूसरे के लिए बने हैं, इसलिए सुषेन और सुरभि ने एकदूसरे से शादी का वादा भी कर डाला.

सुरभि के घर वालों को इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी और सुषेन ने भी बगैर यह सोचे ही हामी भर दी थी कि क्या उस के घर वाले उस से उम्र में 2 साल बड़ी लड़की से शादी करने की इजाजत देंगे?

और वही हुआ भी. सुषेन के घर वालों को उस की उम्र से बड़ी लड़की से शादी कर लेने पर घोर एतराज हुआ, पर शायद सुषेन मन ही मन ठान चुका था कि उसे अपने आगे की जिंदगी कैसे और किस के साथ गुजारनी है,
इसलिए उस ने पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर नौकरी लगने के बाद सुरभि के साथ ब्याह भी रचा लिया.

सुषेन और सुरभि के ब्याह में सुषेन के घर से कोई नहीं आया था. मतलब साफ था कि उस ने घर वालों से बगावत कर के यह शादी की थी और इसी के साथ ही सुषेन के घर वालों ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था.

सुरभि को पाने के लिए सुषेन ने अपना सबकुछ खो दिया था और इतनी पढ़ीलिखी और समझदार पत्नी पा कर वह मन ही मन बहुत खुश भी था. दोनों अपने जिंदगी मन भर कर जी लेना चाहते थे और इस के लिए उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी.

सुरभि खुश थी और सुषेन भी, पर अचानक उन की खुशियों को तब ग्रहण लग गया जब एक दिन शेव करते समय सुषेन को अपने होंठों के किनारे एक छोटा सा सफेद दाग दिखाई दिया.

सभी की तरह सुषेन ने भी यह सोच कर अनदेखा कर दिया कि शायद ज्यादा सिगरेट पीने की वजह से होंठ कुछ सफेद हो गया होगा, पर उस की चिंता कुछ महीनों बाद बढ़ गई, क्योंकि वह छोटा सा दाग अब न केवल बड़ा हो गया था, बल्कि उसी तरह के चकत्ते शरीर में और जगह भी हो गए थे.

“तो क्या मुझे सफेद दाग हो गया है?” सुषेन मन ही मन शक से बुदबुदा उठा था. ड़ाक्टर को दिखाया तो उस का डर सही निकला. सुषेन को सफेद दाग नामक बीमारी हो गई थी.

डाक्टर ने सुषेन से तनाव नहीं लेने को कहा और बताया कि यह बीमारी धीरेधीरे ही ठीक होती है, इसलिए बताए मुताबिक दवा खाते रहें. पर नियम से लगातार दवा खाने के बाद भी सुषेन के शरीर पर सफेद दाग फैलते ही गए.

‘आखिर मुझे सफेद दाग जैसी बीमारी कैसे हो गई, क्योंकि मैं तो बहुत साफसफाई से रहता हूं… जल्दी किसी से हाथ नहीं मिलाता और अगर मिलाना भी पड़ जाए तो तुरंत हाथों को सैनेटाइज़ करता हूं… फिर भी… मुझे… कैसे?… क्यों…’ वगैरह सवाल सुषेन के दिमाग में घूम रहे थे.

“लोग मुझे देख कर नजरें चुरा लेते हैं… मेरी सूरत की तरफ कोई देखना भी नहीं चाहता है… मैं क्या करूं?” एक दिन सुषेन ने अपने खास दोस्त राघव से कहा.

राघव ने उसे एक बाबा का पता बताया और कहा, “वे बाबा तुम्हारे बदन पर भभूत मलेंगे और कुछ तंत्रमंत्र… और बस तू भलाचंगा हो जाएगा.”

सुषेन बिना देर किए उस बाबा के पास पहुंचा. बाबा ने सुषेन को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, “यह सफेद दाग की बीमारी है जो पिछले जन्म के पाप कर्मों से ही पनपती है. तू ने जरूर किसी सफेद खाल वाले बेजबान जानवर को सताया होगा, इसीलिए तेरा खून खराब हो चुका है और तेरी खाल का रंग भी सफेद हो गया है.

“हमें तेरे खून को साफ करने के लिए सोनेचांदी की भस्म का लेप तेरे पूरे बदन पर लगाना होगा और सोने को गला कर उस का काढ़ा तुझे पिलाना होगा, तब कहीं जा कर यह बीमारी सही हो पाएगी, पर…”

“पर क्या बाबा?” सुषेन ने पूछा.

“क्या है कि इलाज थोड़ा महंगा होगा, इसलिए कुछ एडवांस भी जमा करना पड़ेगा तुझे,” बाबा ने कहा.

“कितना भी महंगा इलाज हो बाबा, आप बस मुझे ठीक कर दो. मैं तो समाज में बैठने लायक नहीं रह गया हूं. आप इलाज शुरू कीजिए, मैं पैसे का इंतजाम करता हूं,” यह कहते हुए सुषेन बहुत जोश में लग रहा था.

बाबा ने इलाज का खर्चा 50,000 रुपए बताया था और 25,000 रुपए पहले ही जमा करा लिए थे.

बाबा ने इलाज शुरू किया. सुषेन को कई तरह के काढ़े पिलाए गए, शरीर के ऊपर भभूत भी मली गई, पर उन सब चीजों से उसे फायदा मिलने के बजाय नुकसान ही होता गया.

धीरेधीरे सुषेन हर तरफ से इलाज करा कर हार गया था. पाखंडी तांत्रिकों, झोलाछाप डाक्टरों, मुल्लेमौलवियों सब ने सुषेन को बस लूटा ही था. अब कहीं न कहीं सुषेन भी यह मान चुका था कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है.

सुषेन एक तरफ तो इस बीमारी के चलते दिमागी तौर पर परेशान रहता था, दूसरी तरफ सामाजिक बहिष्कार ने उसे दुखी कर रखा था और तीसरी तरफ उसे यह भी लगने लगा था कि सुरभि की नजरों में अब उस के लिए प्यार की जगह तिरस्कार आता जा रहा है. अब वह पहले की तरह उस के पास नहीं बैठती थी और रात में उस के सोने के बाद वह अकसर सोफे पर चली जाती है और उसे शारीरिक संबंध भी नहीं बनाने देती है.

सुषेन को एहसास होने लगा था कि सुरभि अब उसे छोड़ देगी. सुरभि से इस बारे में पूछने पर उस का बड़ा सहज सा जवाब आया था, “हां.”

सुषेन के कानों में बहुतकुछ सनसनाता सा चला गया. उस ने जो सुना था, उस पर उसे भरोसा नहीं हो रहा था.

“बुरा मत मानना पर अब तुम्हें यह लाइलाज बीमारी हो गई है. तुम्हें तो इसी के साथ जीना होगा, पर मैं अभी जवान और खूबसूरत हूं. अपने पिछले जन्म के कर्मों का कियाधरा तुम भुगतो… मैं भला उस में क्यों पिसूं? मेरी और तुम्हारी राह आज से अलग है. मैं ने वकील से बात कर ली है. आपसी रजामंदी रहेगी तो तलाक आसानी से हो जाएगा…” और सुरभि ने बड़ी आसानी से इतनी बड़ी बात कह दी.

दोनों में तलाक हो गया. सुरभि कहां गई, यह जानने में सुषेन को कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह अब मन ही मन घुटने लगा था. तनाव हमेशा उस के दिमाग और चेहरे को घेरे रहता. खुदकुशी तक करने का विचार आया, पर सुषेन को लगा कि यह तो सरासर बुजदिली होगी.

सुषेन ने अपनेआप को संभाला तो थोड़ा सहारा उसे रमोला ने भी दिया, जो उस के साथ ही काम करती थी. रमोला यह भी जानती थी कि अगर इस समय सुषेन को सहारा नहीं दिया गया तो वह कुछ भी कर सकता है.

“सुषेनजी, क्या आज आप मुझे मेरे घर तक छोड़ सकते हैं? अंधेरा ज्यादा हो गया है और आजकल शहर में अकेली औरत का निकलना सही नहीं है,” एक दिन रमोला ने सुषेन से कहा.

“क्यों नहीं… बिलकुल छोड़ दूंगा… बस, 15 मिनट और रुक जाइए, फिर साथ ही निकलते हैं,” सुषेन ने हामी भरते हुए कहा.

दरअसल, रमोला एक तलाकशुदा औरत थी. उस के पति ने सांवला रंग होने के चलते उस से तलाक ले लिया था और अब वह अकेली ही जिंदगी काट रही थी.

जब सुषेन अपनी मोटरसाइकिल पर रमोला को उस के घर छोड़ने जा रहा था, तब उस ने महसूस किया कि रमोला उस से कुछ ज्यादा ही सट कर बैठी है. पहले तो सुषेन को लगा कि यह अनजाने में भी हो सकता है, पर जब लगातार रमोला ने अपने गदराए जिस्म को सुषेन के बदन से सटाए रखा तो वह समझ गया कि रमोला को मर्दाना जिस्म की जरूरत है.

“अंदर आ कर एक कप चाय तो पी लीजिए,” रमोला ने कहा तो सुषेन भी मना नहीं कर सका.

वे दोनों अंदर आए ही थे कि बारिश शुरू हो गई. रमोला किचन में चाय बनाने चली गई. सुषेन को रमोला का यह लगाव बहुत सुहा रहा था.

“रमोलाजी, आप मुझे अपने घर के कप में चाय पिला रही हैं. क्या आप को मुझ से कोई परहेज नहीं है? मेरा मतलब है कि मेरे इन सफेद दाग की वजह से?”

“नहीं सुषेनजी, मैं ने आप को आज से पहले भी देखा है. आज भी आप इतने हैंडसम हैं, जितना पहले थे.”

यह सुन कर सुषेन को बहुत अच्छा लगा और वह रमोला की तरफ खिंचता चला गया. रमोला भी मन ही मन सुषेन को पसंद करती थी, जिस का नतीजा यह हुआ कि उन दोनों में जिस्मानी संबंध बन गए. जब एक बार दोनों ने एकदूसरे के जिस्म को भोगा तो फिर प्यार का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि दोनों के बीच अकसर संबंध बनने लगे.

बाद में उन दोनों ने इस रिश्ते को एक नाम देने की सोची और आपस में शादी कर ली. दोनों एक दूसरे के साथ जिंदगी बिता कर बहुत खुश थे, पर सुषेन के मन में कहीं न कहीं अपनी बीमारी को ले कर निराशा भी थी, क्योंकि समाज में उसे एक छूत की बीमारी माना जाता था और उस ने महसूस किया कि देश में ऐसे न जाने कितने लड़केलड़कियां हैं, जिन की शादी इस बीमारी के चलते नहीं हो पाती है.

लिहाजा, सुषेन और रमोला ने इस दिशा में कुछ ठोस काम करने की सोची और अपने खर्चे पर ऐसी 2 लड़कियों की शादी कराई, जिन की शादी में अड़चनें आ रही थीं. इस काम में कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने भी उन की पैसे से मदद की थी.

आज जीतोड़ मेहनत कर के उन्होंने देश में अपनी एक पहचान बना ली है और इस काम को ढंग से करने के लिए उन के पास एक शानदार औफिस भी है.

आज सुरभि को सुषेन की जिंदगी से गए पूरे 25 साल हो गए थे. सुषेन अपने औफिस में बैठा हुआ काम में बिजी था कि उस के चपरासी ने बताया, “सर, कोई आप से मिलना चाहता है.”

सुषेन ने अंदर बुलवाने को कहा. थोड़ी देर में एक औरत एक आदमी के साथ अंदर आई. उन के साथ शायद उन की भी बेटी थी.

25 साल का समय लंबा जरूर होता है पर इतना लंबा भी नहीं कि आप उसे पहचान न सकें, जिस से शादी करने के लिए आप ने अपने घर वालों से बगावत कर दी थी. यह सुरभि थी. सुषेन उसे देखते ही पहचान गया था.

“जी, बात यह है कि मेरी बेटी को सफेद दाग की बीमारी है और इसी वजह से उस की शादी में अड़चन आ रही है,” वह आदमी बोला.

‘तो यह सुरभि का पति है. इस का मतलब है कि मुझे छोड़ते ही सुरभि ने इस आदमी से शादी कर ली थी और यह लड़की भी इसी आदमी की है, क्योंकि मुझे तो सुरभि ने अपने पास ही फटकने नहीं दिया था,’ सुषेन के मन में यह सब चल रहा था.

“जी, ठीक है. आप अपनी बेटी का नाम और उस के फोटो हमारे पास जमा करवा दीजिए. हमारी तरफ से जो भी मदद होगी, वह आप को दी जाएगी,” सुषेन ने सुरभि को देखते हुए कहा जो उस की घनी दाढ़ी के बीच छिपे चेहरे को पहचान लेने के बाद भी अनजान बनने की कोशिश कर रही थी.

Family Story: हृदयहीन – एक मध्यमवर्गीय परिवार की दिलचस्प कहानी

Family Story: ड्राइंगरूम में मम्मीपापा के साथ पड़ोस में रहने वाले अशोक अंकल और एक अनजान दंपती को देख कर दिव्या का चौंकना स्वाभाविक था.

‘‘लगता है बिटिया ने मुझे पहचाना नहीं,’’ अनजान सज्जन हंसे.

दिव्या ने उन्हें गौर से देखा, उसे पहचानते देर नहीं लगी कि ये तो उमेश चंद्र थे जो चंद घंटे पहले उस के होटल में अपनी बेटी की शादी के लिए हौल बुक कराने आए थे. उन्होंने बातचीत के दौरान उस से घरपरिवार के बारे में पूछा था. दिव्या ने उन की सज्जनता के प्रभाव में काफी कुछ बता दिया था. घर का पता सुनते ही उन्होंने कहा था कि स्टार टावर्स में तो उन के एक मित्र अशोक मित्तल भी रहते हैं और दिव्या ने बताया था कि वे उस के पापा के भी अच्छे दोस्त हैं.

‘‘सौरी अंकल, सोचा नहीं था कि आप से यहां और इतनी जल्दी मुलाकात होगी.’’

‘‘अब तो मुलाकातों का यह सिल- सिला चलता ही रहेगा बिटिया, अभी चलते हैं, फिर आएंगे,’’ उमेश चंद्र उठ खड़े हुए.

‘‘फिर भी आ जाइएगा अंकल, मगर अभी तो बैठिए,’’ दिव्या आग्रह करते हुए बोली, ‘‘आंटी से तो मेरा परिचय कराया ही नहीं.’’

‘‘परिचय क्या, आंटी तो तुम्हारी पूरी जन्मपत्री ले चुकी हैं. क्यों? यह आराम से जयाजी और उदयजी से सुनना, अभी हमें जाने दो, घर पर बच्चे इंतजार कर रहे हैं.’’

उन के जाने के बाद दिव्या ने देखा, मेज पर परिवार की कई तसवीरें बिखरी हुई थीं.

‘‘यह सब क्या है, मम्मी?’’

‘‘सब तेरा अपना कियाधरा है दिव्या, मम्मी का कोई कसूर नहीं है,’’ उदय ने कहा.

‘‘मेरा कियाधरा? मैं ने क्या किया है?’’ दिव्या ने झुंझला कर पूछा.

‘‘उमेश चंद्र से बेहद शालीनता और विनम्रता से बातें…’’

‘‘वह तो मेरी नौकरी का हिस्सा है मम्मी,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे तनख्वाह ही उसी की मिलती है और अभी जो रुकने को कहा वह आप का सिखाया शिष्टाचार है. खैर, वे यहां आए किस खुशी में थे?’’

‘‘अपने इकलौते इंजीनियर बेटे देवेश के लिए तेरा हाथ मांगने.’’

‘‘और आप ने फौरन देने का वादा कर दिया?’’ दिव्या चिल्लाई.

‘‘वह लड़का देखने के बाद तेरी मरजी पूछ कर करेंगे, फिलहाल मिलने और लड़का देखने में हमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा,’’ उदय ने कहा, ‘‘अगर लड़का अच्छा नहीं लगा तो मना कर देंगे.’’

दिव्या ने गहरी सांस ली.

‘‘वह तो आप शायद नहीं करेंगे, क्योंकि देवेश विनम्र और आकर्षक है, कल आया था हमारे होटल में हौल देखने.’’

‘‘हौल के साथ ही उस ने तुझे भी पसंद कर लिया और आज बात करने के लिए बाप को भेज दिया,’’ जया हंसीं.

‘‘उस ने शायद मुझे देखा भी न हो क्योंकि उस ने आते ही मेरे सहकर्मी विकास से बात की थी. वह केवल बैंक्वेट हौल को देखने और उस का किराया पता करने आया था और विकास से जरूरी जानकारी ले कर तभी चला गया था. उस समय मैं विकास की बराबर वाली सीट पर बैठी थी. इसलिए मेरा उसे देखना या उस की बात सुनना स्वाभाविक था.’’

‘‘यानी लड़का तुझे पसंद आया?’’

‘‘आप भी कमाल करती हैं, मम्मी. होटल में मेरे साथ एक से बढ़ कर एक स्मार्ट लोग काम करते हैं, पांचसितारा होटल में आने वाले सभी शालीन ही लगते हैं और मैं सब को पसंद करने लग गई तो हो गई छुट्टी. एक बात और, प्रोबेशन पीरियड में आप मेरी शादी की बात सोच भी कैसे सकती हैं?’’

‘‘तेरे पापा ने तो उमेश चंद्र को यह भी बताया था कि अपने बेटे सौरभ की गैरहाजिरी में वे बेटी की शादी की सोच भी नहीं सकते और सौरभ अगले साल के अंत से पहले नहीं आ सकता तो उन्होंने कहा कि उन्हें भी कोई जल्दी नहीं है.’’

‘‘पूरी बात बताओ न जया, उमेश चंद्र ने साफ कहा कि बेटी की शादी करने के तुरंत बाद बेटे की शादी करने लायक उन की हैसियत नहीं है लेकिन लड़की अच्छी लगी, इसलिए बात करने चले आए इस उम्मीद से कि शायद हम कुछ समय बाद शादी करने के लिए मान जाएं. हमें वे सुलझे हुए लोग लगे इसलिए हम ने उन्हें सपरिवार बुलाया है. लड़के की सुविधानुसार आएंगे वे किसी दिन.’’

‘‘यह भी बता दिया न कि मुझे उन के लड़के की सुविधानुसार जब चाहे तब छुट्टी नहीं मिलेगी?’’

‘‘अपनी छुट्टी का दिन और घर आने का समय तो तू स्वयं ही उन्हें बता चुकी है,’’ जया और उदय हंसने लगे.

दिव्या मुंह बनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

अगले सप्ताह उमेश चंद्र पत्नी और बेटीबेटे के साथ आए. दिव्या को पापा से सहमत होना पड़ा कि सुलझे हुए लोग हैं. देवेश ने उस से साफ कहा कि वह दहेज में कुछ नहीं लेगा और दिव्या को अपने शौक उस की या अपनी सीमित आय में ही पूरे करने होंगे. इकलौता बेटा है इसलिए मातापिता के प्रति उस के कुछ दायित्व हैं. उन्हें छोड़ कर न तो वह ज्यादा पैसे के लालच में विदेश जाएगा और न ही तरक्की के लिए किसी दूसरे शहर में. दिव्या को इसी शहर में उस के मातापिता के साथ रहना पड़ेगा. दोनों ही शर्तें दिव्या को मंजूर थीं क्योंकि उस के मातापिता भी यह शहर छोड़ कर जाने वाले नहीं थे. यहां रहते हुए वह बराबर उन का खयाल भी रख सकेगी और देवेश का संयुक्त परिवार होने से जरूरत पड़ने पर मम्मीपापा के पास आ कर रहने में भी आसानी रहेगी. जल्दी ही दोनों की सगाई हो गई. सगाई के बावजूद देवेश का व्यवहार बहुत सौम्य और शालीन था. वह दिव्या को फोन करता था, उस से मिलने आता और घुमाने भी ले जाता था लेकिन दिव्या की सुविधानुसार. उस का कहना था कि प्रोबेशन पीरियड पूरे कैरियर की नींव है. अगर वह पुख्ता हो गई तो बुलंदियों को छूना मुश्किल नहीं होगा. दिव्या का भी यही सपना था, होटल की सर्वोच्च कुरसी पर बैठना. देवेश जैसे समझदार जीवनसाथी के साथ अब यह मुश्किल नहीं लग रहा था.

दिव्या के प्रोबेशन पीरियड पूरे होने से कुछ रोज पहले सीढि़यों से गिरने के कारण जया के दाहिने कंधे की हड्डी कई जगह से टूट गई. कई घंटे के औपरेशन के बाद कंधे को जोड़ तो दिया गया लेकिन डाक्टर ने उन्हें आराम और एहतियात बरतने को कहा था. मां के फ्रैक्चर की खबर सुनते ही दिव्या की बड़ी बहन विजया भी आ गई थी, उस के रहते दिव्या काम पर जाती रही लेकिन विजया अपना घर और बच्चे छोड़ कर कितने रोज तक रुक सकती थी. जया तो पूरी तरह से विजया पर आश्रित थीं. उन्हें सहारा दे कर उठानाबैठाना, यहां तक कि एक खास अवस्था में लिटाना तक पड़ता था. पापा कितनी छुट्टी लेते और फिर मां और घर दोनों की देखभाल उन के बस की बात नहीं थी. दिव्या को छुट्टी तो नहीं मिल सकती थी लेकिन प्रोबेशन पीरियड पूरा होते ही वह नौकरी छोड़ सकती थी, इसलिए उस ने वही किया. मम्मीपापा ने तो नौकरी छोड़ने के लिए मना किया था लेकिन दिव्या के यह कहने पर कि नौकरी तो कभी भी दोबारा मिल जाएगी लेकिन तीमारदारी में थोड़ी सी कोताही हो गई तो मम्मी हमेशा के लिए अपाहिज हो जाएंगी, वे गद्गद हो गए. सौरभ और विजया ने भी उस की बहुत तारीफ की और आभार माना लेकिन देवेश यह सुनते ही कि उस ने नौकरी छोड़ दी है, बुरी तरह भड़क गया.

‘‘किस ने कहा था तुम्हें लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ने के लिए?’’

‘‘मेरी अंतरात्मा ने, अपनी मम्मी के प्रति जो मेरा कर्तव्यबोध है, उस ने.’’

‘‘कर्तव्य केवल तुम्हारा ही है? तुम्हारे बहनभाई या पापा का नहीं?’’

‘‘विजया दीदी घर और बच्चे छोड़ कर जितना रुक सकती थीं, रुक गईं, सौरभ भैया स्कौलरशिप पर पीएचडी कर रहे हैं इसलिए बीच में छोड़ कर नहीं आ सकते लेकिन पार्ट टाइम जौब कर के पैसा भेज रहे हैं…’’

‘‘तो उस पैसे से तुम्हारे पापा मम्मी के लिए ट्रेंड नर्स क्यों नहीं रखते?’’ देवेश ने बात काटी.

‘‘नर्स तो है ही देवेश लेकिन उस पर नजर रखने और मम्मी का मनोबल बनाए रखने के लिए परिवार के किसी सदस्य का हरदम उन के साथ रहना जरूरी है और फिलहाल यह काम मैं ही कर सकती हूं.’’

‘‘पांचसितारा होटल की नौकरी छोड़ कर? नौकरी छोड़ने से पहले किसी से पूछा तो होता?’’

‘‘जरूर पूछती अगर कोई गलत काम कर रही होती तो. मम्मी के बिलकुल ठीक होने के बाद फिर नौकरी तलाश कर लूंगी. वैसे यह होटल भी दोबारा जौइन कर सकती हूं.’’

‘‘लेकिन उसी पोजीशन और तनख्वाह पर, जिस पर तुम कल तक थीं,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा, ‘‘अगर 6 महीने के बाद भी जौइन किया तो लौंग रन में जानती हो कितने का नुकसान होगा?’’

दिव्या का मन एक अजीब से अवसाद से भर उठा. कमाल का आदमी है, मानवीय संवेदनाओं को पैसे से तौल रहा है. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, मम्मी के आईसीयू में रहने के दौरान देवेश बराबर पापा के साथ रहा था और उन्हें सौरभ की कमी महसूस नहीं होने दी थी. उस के घर वाले भी परिवार की तरह उन सब के लिए खाना लाते थे, जया को तसल्ली दिया करते थे.

उदय और जया बहुत खुश थे कि दिव्या को इतना अच्छा घरवर मिला है. दिव्या को लगा कि नौकरी में अनुभव होने के कारण शायद देवेश को मालूम होगा कि नौकरी में वरीयता की क्या अहमियत है मगर दिव्या की वरीयता तो मम्मी की संतुष्टि और सेहत थी. देवेश रोज ही शाम को जया को देखने आया करता था लेकिन उस रोज के बाद वह नहीं आया और न ही उस ने फोन किया. 2-3 रोज के बाद जया ने पूछा कि देवेश क्यों नहीं आ रहा है तो दिव्या ने उन्हें टालने को कह दिया कि काम में व्यस्त है. जया को तसल्ली नहीं हुई और अगले रोज उन्होंने स्वयं देवेश को फोन किया.

‘‘क्या बात है बेटा, तुम घर आ नहीं रहे, बहुत व्यस्त हो काम में?’’

‘‘काम छोड़ कर दिव्या बैठ तो गई है आप के सिरहाने,’’ देवेश ने तल्ख स्वर में कहा.

‘‘हां बेटा, रातदिन साए की तरह मेरे साथ रहती है. तभी कह रही हूं कि तुम आ जाओगे तो उस का ध्यान बंटेगा, हंसबोल लेगी तुम से.’’

‘‘उस के हंसनेबोलने की तो आप को फिक्र है लेकिन उस के कैरियर की नहीं, अभी भी देर नहीं हुई है, उसे समझा कर भेज दीजिए काम पर,’’ देवेश के स्वर में व्यंग्य था या आदेश, जया समझ नहीं सकीं.

‘‘देवेश को शायद दिव्या का नौकरी छोड़ना पसंद नहीं आया,’’ जया ने शाम को उदय के घर लौटने पर कहा.

‘‘शायद क्या, बिलकुल पसंद नहीं आया,’’ दिव्या बोली, ‘‘सुनते ही बौखला गया और लगा उलटासीधा बोलने.’’

‘‘कुछ ऐसा ही हाल उस के पिताजी का भी हुआ था,’’ उदय ने हंस कर कहा, ‘‘वे भी बौखला कर कहने लगे कि दुनिया में बहुत से लोग बाएं हाथ से सब काम करते हैं, जयाजी भी करना सीख लेंगी. उस के लिए दिव्या का कैरियर क्यों खराब कर रहे हैं? सोचा नहीं था कि उमेश चंद्रजी जैसे सज्जन व्यक्ति ऐसी बेहूदा बात कर सकते हैं.’’

‘‘जब उन्हें पसंद नहीं है तो तेरा काम पर लौटना ही मुनासिब होगा, दिव्या,’’ जया ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘काम पर तो लौटना है ही और जरूर लौटूंगी, मम्मी, लेकिन तब जब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी यानी मुझे अपने हाथ से बनाए परांठे खिला कर काम पर भेजेंगी.’’

‘‘और अगर मैं इस काबिल न हुई तो?’’

‘‘क्यों नहीं होगी?’’ दिव्या ने जिरह की, ‘‘औपरेशन से हड्डियां बिलकुल सही बैठा दी गई हैं. बस, अब इंतजार है उन के जुड़ने का और वे भी सही जुड़ जाएंगी अगर आप फालतू में हिलेंगीडुलेंगी नहीं और उस की चौकसी करने को मैं हूं ही.’’

‘‘ससुराल वालों की नाराजगी की कीमत पर?’’

‘‘वे अभी मेरे ससुराल वाले नहीं हैं, मम्मी. और न ही फिलहाल उन्हें मेरे व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करने का हक है.’’

‘‘यह तो तू ठीक कह रही है बेटी,’’ पापा ने बात काटी, ‘‘नौकरी करना या छोड़ना एक नितांत व्यक्तिगत मामला है, खासकर उन लड़कियों के लिए जो शौक के लिए नौकरी करती हैं, पैसों के लिए नहीं.’’

‘‘यही नहीं पापा, बात भावनाओं को समझने की भी तो है. जो लोग हमारे हालात और मजबूरियों को नहीं समझ रहे, वे सज्जनता का मुखौटा लगाए संवेदनहीन लोग नहीं हैं क्या?’’ दिव्या ने पूछा.

‘‘जहां पैसे का सवाल हो बेटा वहां मध्यम वर्ग के लोग भावुक होने के बजाय अकसर व्यावहारिक हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन अभी तो पैसा उन की जेब से नहीं जा रहा. दूसरी बात यह कि उन्होंने आप को बताया था कि अपने काम के प्रति मेरी निष्ठा से प्रभावित हो कर वे आप से मेरा हाथ मांगने आए थे, फिर अब अपने कर्तव्य या मां के प्रति मेरी निष्ठा से उन्हें तकलीफ क्यों हो रही है?’’ दिव्या ने फिर पूछा.

‘‘कभी मौका देख कर देवेश से पूछ लेना,’’ उदय ने टालने के स्वर में कहा लेकिन उमेश चंद्र और देवेश का व्यवहार उन्हें भी सामान्य नहीं लगा था और वे भी जानना चाहते थे कि कहीं उन लोगों ने दिव्या के रूपगुण की अपेक्षा उस की तगड़ी तनख्वाह से प्रभावित हो कर तो रिश्ता नहीं किया था? उस के बाद देवेश या उमेश चंद्र ने फोन नहीं किया. जया चाहती थीं कि उन से संपर्क किया जाए मगर दिव्या नहीं मानी.

‘‘परेशानी हमारे घर में है मम्मी, इसलिए उन लोगों को हमारी खैरखबर पूछनी चाहिए और अगर वे लोग मेरी नौकरी छोड़ने से नाराज हैं तो भूल जाइए कि मैं उन की खुशी के लिए आप के ठीक होने से पहले नौकरी जौइन करूंगी, इसलिए बेहतर है कि हम अभी चुप रहें,’’ दिव्या ने दृढ़ स्वर में कहा. जया और उदय दिव्या से सहमत तो थे लेकिन फिर भी उन्हें यह सब ठीक नहीं लग रहा था और वे किसी तरह उन लोगों का हालचाल जानना चाहते थे. इसलिए उदय एक रोज अशोक मित्तल से मिलने के लिए उन के घर गए. कुछ देर अशोक से इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने उमेश चंद्र का जिक्र छेड़ा.

‘‘यार क्या बताऊं, कंधा तो भाभीजी का टूटा मगर उम्मीदें और दिल उमेश के परिवार के टूट गए,’’ अशोक ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘असल में अपने मध्यम वर्ग को आदर्शवादी बनना रास नहीं आता. ईमानदारी से नौकरी करते हुए उमेश ने बच्चों को हैसियत से बढ़ कर उच्च शिक्षा दिलवाई, लड़की की शादी में खर्च भी दिल खोल कर किया और यह फैसला भी किया कि लड़के की शादी में दहेज नहीं लेगा, किसी अच्छी नौकरी वाली लड़की को ही बहू बनाएगा. देवेश भी अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित लड़की से ही शादी करना चाहता था ताकि घर में मां की सत्ता बरकरार रहे और बीवी की तगड़ी तनख्वाह भी आती रहे. दिव्या से मिलने के बाद परिवार को अपना सपना साकार होता लगा लेकिन भाभीजी ने अपने कंधे के साथ ही उन का सपना भी चकनाचूर कर दिया. भाभीजी का कंधा तो खैर सही इलाज से जुड़ गया है मगर उमेश के परिवार के सपने जुड़ने में समय लगेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’

‘‘क्योंकि देवेश को एक स्ट्रिक्टली कैरियर माइंडिड लड़की चाहिए. हालांकि इस बीच उसे दिव्या से प्यार भी हो गया है लेकिन उसे लगता है कि दिव्या अपने कैरियर के प्रति नहीं, घरपरिवार के प्रति अधिक समर्पित है. घरपरिवार में तो परेशानियां आती ही रहेंगी, खासकर बालबच्चे होने के बाद. इसलिए दिव्या जबतब छुट्टी ले कर या तो अपनी तरक्की के अवसर खराब किया करेगी या नौकरी छोड़ दिया करेगी…’’

‘‘और यह देवेश की तिकड़मी योजनाओं के अनुकूल नहीं है,’’ उदय ने बात काटी.

‘‘बिलकुल. मैं ने समझाया है कि यह कोई ऐसी गंभीर समस्या नहीं है, प्रभुत्व वाले पद पर पहुंचने के बाद हर कोई प्रैक्टिकल हो जाता है, दिव्या भी हो जाएगी. वह मेरी इस बात से तो सहमत है.’’

‘देवेश हो सकता है सहमत हो लेकिन दिव्या जैसी संवेदनशील लड़की प्रैक्टिकल होते हुए भी कभी भी देवेश जैसे हृदयहीन व्यक्ति के तिकड़मी विचारों से सहमत नहीं होगी और न ही तालमेल बिठा पाएगी,’ उदय ने घर लौटते हुए सोचा, ‘और इस के लिए मैं और जया कभी भी उस पर दबाव नहीं डालेंगे.’

Social Story: रुक के देखे न कभी पैर के छाले हमने

Social Story: 31 मार्च, 2020. धूप इतनी तेज थी कि चमकती सड़क पर आंखें चुंधिया रही थीं. कोरोना की मार से पहले भूख की मार के डर से मजदूर अपनेअपने घरगांव लौटने के लिए बेचैन हो उठे. ट्रेनबस समेत तमाम सवारियां बंद होने के चलते वे पैदल ही चल पड़े.

जुबैर, नाजिया और उन के तीनों बच्चे. रामभरोसे, उस की पत्नी कलावती, रामभरोसे का छोटा भाई कन्हैया और उन की 65 साल की बूढ़ी मां सरस्वती. कुलमिला कर 9 लोगों का जत्था दिल्ली से चंपारण के लिए पैदल चल रहा था.

सड़कों के चौड़ीकरण ने किनारे खड़े तमाम पेड़ों को निगल लिया था. हाईवे पर पसीना बहाते, गमछे और आंचल की छांव तले कदम से कदम मिलाते ये लोग चले जा रहे थे. मीलों चलने के बाद एक घना पेड़ नजर आया, जहां उन्हें आराम करने का मौका मिला.

दिल्ली से चंपारण की दूरी 1,000 किलोमीटर से ऊपर होगी, लेकिन मौत के सामने यह दूरी इन्हें कम लग रही थी.

लौकडाउन का ऐलान होते ही कारखाना बंद कर के मालिक ने जगह खाली करने का फरमान सुना दिया था. बीमारी की भयावहता को देखते हुए सरकार ने दुकान, होटल, ट्रेन, बस, टैंपोरिकशा सब बंद कर दिया, ताकि कम्यूनिटी इंफैक्शन को रोका जा सके.

सफर का दूसरा दिन. सहारनपुर से इन का काफिला निकला. शाजेब और शहाब अपनी मां नाजिया की उंगली थामें चल रहे थे, जबकि सूफिया अपने अब्बु जुबैर के कंधे पर सवार थी. साथ में सामान से भरे 2 बैग भी जुबेर के कंधों से लटक रहे थे.

रामभरोसे के लिए सब से भारी बोझ उस की मां सरस्वती थी. एक तो बूढ़ी, ऊपर से बीमार. वह बेचारी भी हांफतेकांपते कदमों से चलने को मजबूर थी.

बहरहाल, सब ने अपनेअपने सामान पेड़ के नीचे रखे और बैठ कर सुस्ताने लगे. कलावती ने फटी हुई चादर बिछाई तो कन्हैया दौड़ कर चापाकल से पानी ले आया. शाजेब और शहाब कुछ खाने की जिद करने लगे.

नाजिया के पास बिसकुट के 2 पैकेट बचे थे, जो उस ने 5 रुपए के बदले 10-10 रुपए में खरीदे थे. 2 बिसकुट के पैकेट और 4 बच्चे… शाजेब, शहाब, सूफिया और कन्हैया. हालात के शिकार बच्चों ने उसी में मिलबांट कर खाया और बड़े लोगों ने सिर्फ पानी से प्यास बुझाई, फिर आगे चल दिए.

अचानक लौकडाउन होने के चलते सेठ ने 1000-1000 रुपए दे कर उन्हें टरका दिया था. दोनों परिवार एक ही गांव के थे. रामभरोसे के पास अब महज 680 रुपए और जुबैर के पास 820 रुपए बचे थे.

रास्ते में एक जगह मकई के भुट्टे खरीद कर सभी ने पेट की आग को शांत किया और सफर जारी रखा. बच्चे और बूढ़े में दम ही कितना होता है, इसलिए हर 4-5 किलोमीटर पर उन्हें रुकना पड़ता, ठहरना पड़ता. जगहजगह पुलिस वालों के सवालों का जवाब देना पड़ता और कहींकहीं लाठियां भी खानी पड़तीं.

रात होने लगी. अनजान शहर में खोजतेखोजते मुश्किल से एक रैनबसेरा मिला, लेकिन पुलिस वालों ने वहां भी ठहरने से रोक दिया. मजबूरन वहां से आगे बढ़े और कुछ दूर चल कर सड़क के किनारे सो रहे मजदूरों की कतार में प्लास्टिक बिछा कर सो गए.

भूख से अंतड़ियां कुलबुला रही थीं, इसलिए नींद नहीं आ रही थी. पैर के छाले अलग ऊधम मचा रहे थे और गरम बिछौना बनी सड़क अलग मुंह चिढ़ा रही थी.

रात के 2 बज रहे होंगे कि रामभरोसे की पत्नी कलावती को शक हुआ कि उस की सास सरस्वती देवी की सांसें बंद हो चुकी हैं. उस ने ‘अम्मांअम्मां’ कह कर जगाना चाहा, पर वह तो नहीं जागी, लेकिन बाकी सभी लोग जाग गए.

सब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. बुढ़िया मर चुकी थी और उन के लिए बहुत बड़ी समस्या छोड़ चुकी थी. वह कोरोना से मरी, थकान से मरी या बीमारी से मरी, इस से मतलब नहीं था, मतलब इस से था कि वह अपने साथ सब को ले कर मरी थी, इसलिए सब ने सरस्वती देवी की लाश को छोड़ कर चुपचाप निकल जाने में ही भलाई समझी.

सब तो जाने लगे, लेकिन 8 साल का कन्हैया अपनी मां को छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं था. मां की लाश से लिपट कर वह जोरजोर से रो रहा था. सब ने समझाया कि चिल्लाना बंद करो वरना कोरोना के चक्कर में सब पकड़े जाएंगे. न सवारी है, न लाश ढोने का माद्दा, और न ही अंतिम संस्कार के लिए पैसे हैं. लाश का अंतिम संस्कार तो सरकार कर ही देगी, फिर मरने वाले के साथ इतने लोगों की जान सांसत में डालने का क्या मतलब.

फिर भी कन्हैया मानने के लिए तैयार नहीं था। बच्चा था, मासूम था, मां की याद उस के दिल में अभी भी बरकरार थी. दुनिया के पैतरेबाजी से अनजान था, इसलिए मां को लाश मानने के लिए तैयार नहीं था.

रामभरोसे ने कहा, “रे कन्हैया, मां हम दोनों की थी, पर तू बात क्यों नहीं समझता है, अब इस को घसीट कर तो ले नहीं जा सकते.”

कलावती ने कहा, “छोड़ दो इस को भी, अपनी माई के साथ यहीं सड़ता रहेगा.”

रामभरोसे ने ‘चटाक’ से एक थप्पड़ कलावती के गाल पर जमाते हुए कहा, “बच्चा है… समझा रहे हैं… तुम्हारी मां थोड़ी है… उस की मां है तो रोएगा ही… तुम क्यों भचरभचर कर रही हो.”

आखिरकार सब ने मिल कर कन्हैया को लाश से खींच कर अलग किया और उसे घसीटते हुए ले चले.

चौथे दिन लखनऊ पहुंचे. अब दोनों परिवारों के पास महज 300-300 रुपए बच रहे थे, जबकि सफर खासा लंबा था. पैर के छालों ने रुलाना छोड़ दिया और समझा दिया कि वे उन के हमसफर हैं, जो साथसाथ चलेंगे.

रात दर रात खुले आसमान में सोतेजागते जुबैर के दोनों बेटों को निमोनिया हो गया. नाजिया छाती पीटने लगी, ‘हायहाय’ करने लगी. न कोई मददगार, न डाक्टर, न दवा. बच्चे निमोनिया से जितना हांफते, नाजिया उतना ही तड़पती.

जैसेतैसे वे लोग एक सरकारी अस्पताल पहुंचे. कोरोना के डर से अस्पताल वालों ने मरीजों को दूसरे राज्य का बता कर इलाज करने से मना कर दिया.

अनजान जगह, सड़कों पर लोग नहीं, जेब में पैसे नहीं, हर तरफ मरघट जैसा सन्नाटा. भागतेभागते एक प्राइवेट क्लिनिक पहुंचे, जहां छिपछिपा कर इलाज चल रहा था.

डाक्टर ने 5,000 रुपए का खर्च बताया. उन लोगों के पास कुल जमा 600 रुपए बचे थे. डाक्टर ने इनकार कर दिया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

जुबैर ने कहा, “डाक्टर साहब, हम पर रहम करें, हम हालात के मारे हुए लोग हैं.”

डाक्टर ने अपने कंपाउंडर से उन्हें बाहर निकालने का इशारा किया. लेकिन, बच्चों की मां अभी जिंदा थी, उस के कानों में सोने की बाली थी. नाजिया ने उन्हें उतार कर डाक्टर के सामने रख दिया.

डाक्टर ने मन ही मन दोनों बाली को तोला और इलाज शुरू कर दिया.

इलाज से एक बच्चा बच गया तो दूसरा नहीं रहा. नाजिया गम से निढाल हो गई. एक मां के लिए उस की औलाद से बढ़ कर कुछ नही होता. नाजिया कभी कोरोना को कोसती, कभी सरकार को कोसती तो कभी अपनी गरीबी को.

बच्चे की लाश को रास्ते में दफना कर वे लोग फिर से आगे बढ़े. 9 में से 2 लोग साथ छोड़ चुके थे और बच गए थे 7 जाने, जबकि मंजिल अभी काफी दूर थी.

छठे दिन वे सब गोंडा पहुंचे. अपनों से बिछड़ने का गम अलग, कोरोना की मार अलग और भूख से बेहाल अलग. मजलूम इनसान अपनी बेबसी से लड़े, कोरोना से लड़े या भूख से लड़े… पैर के छाले और मुंह के छाले आपस में होड़ करने लगे, एकदूसरे को चिढ़ाने लगे, इनसान की मजबूरी पर मुसकराने लगे.

रास्ते में एक जगह लंगर चल रहा था. यह देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सुख हो या दुख, भूख तो अपनी जगह हर हाल में बरकरार रहती है. सब ने पेट भर कर खाना खाया. जब पेट भरा तब गम कुछ हलका हुआ, फिर एक टाइम का खाना भी साथ में बांध लिया और आराम करने की गरज से रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े.

जैसे ही गोंडा जंक्शन पहुंचे आरपीएफ वाले लाठीडंडा ले कर आ धमके. काफी गुजारिश के बाद उन्हें रात गुजारने की मोहलत मिली. जब पेट भरा हो और ऊपर से जिस्म पर थकावट भी तारी हो तो नींद बहुत अच्छी आती है, इसलिए सब लोग घोड़े बेच कर सो गए.

अगली सुबह एक और मुसीबत सामने खड़ी थी. उन के सारे सामान चोरी हो चुके थे. बैग में रखे कपड़ेलत्ते, मोबाइल चार्जर, आईडी कार्ड, आधारकार्ड सबकुछ गायब.

“अब घर कैसे जाएंगे…” यह कलावती की फरियाद थी, जबकि नाजिया के आंसू तो कब के सूख चुके थे. कन्हैया कभीकभी दोनों औरतों की मनोदशा देख कर रोने लगता, फिर अपनेआप चुप भी हो जाता.

जुबैर और रामभरोसे को हर हाल में अपनी माटी को गले लगाना था. वे किस से अपना दुखड़ा रोते। बस किसी तरह वे लोग अपने गांव पहुंच जाना चाहते थे. अभी रास्ता आधा बचा था, जबकि जेब खाली हो चुकी थी.

फिर चलतेचलते सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम हो गई. पैर नौनौ मन के हो गए, जो उठाए नहीं उठ रहे थे. होंठों पर भूख से पपड़ी पड़ चुकी थी. पेट धंस कर पीठ में समा चुके थे.

बसस्टैंड पर भीड़ देख कर वे लोग रुक गए. पास पहुंचे तो देखा कि कुछ लोग खाने के पैकेट बांट रहे हैं, शायद एनजीओ वाले थे. खाने के पैकेट देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सभी लाइन में लग गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.

अगला ठहराव गोरखपुर में था जहां से चंपारण की दूरी महज 150 किलोमीटर थी. मांबाप के नाजों में पली नाजिया अब बेदम हो चुकी थी. उस के पैरों के छाले घाव बन कर तड़पा रहे थे. बुखार से उस का सारा बदन तप रहा था. उस के दोनों बच्चे अपनी अम्मी का मुंह ताक रहे थे, लेकिन अम्मी में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि वह अपने बच्चों को दुलार सके, पुचकार सके, उन के चेहरों पर हाथ फेर सके.

जुबैर अपनेआप को कोस रहा था और सारी मुसीबत की जड़ खुद को मान रहा था. एक बच्चा खो चुका था अब बीवी भी हाथ से निकलती नजर आ रही थी.

मेहनतकश कलावती भी अब हार मान चुकी थी. उस से भी चला नहीं जा रहा था, फिर भी वह नाजिया के बच्चों की देखभाल कर रही थी.

दूर हाईवे के किनारे खड़ी एंबुलैंस को देख कर कुछ उम्मीद नजर आई. रामभरोसे लपक कर ड्राइवर के पास गया और बातें करने लगा. रामभरोसे ने इशारे से कन्हैया को बुलाया. जुबैर चुपचाप यह सबकुछ देख रहा था.

कन्हैया ने आ कर जुबैर को बताया, “ड्राइवर 7,000 रुपए में घर पहुंचाने को तैयार हुआ है. क्या कहते हो? पैसे घर चल कर देने हैं.”

‘घर पर कर्ज ले कर भाड़ा दे देंगे,’ यह सोच कर जुबैर फौरन तैयार हो गया.

फिर एंबुलैंस का ड्राइवर सभी अधमरे इनसानों को लाद कर, मुसकराते, सीटी बजाते हुए चंपारण के लिए चल पड़ा. यह आज का उस का दूसरा भाड़ा था.

Social Story: खुल गई पोल

Social Story, लेखक-  अनूप कुमार सिंह

किशना जब बलजीत प्रधान की चौपाल से उठ कर घर की ओर आ रहा था, तो उस के डगमगाते कदम भी मानो उस का साथ नहीं दे रहे थे, लेकिन वह अपनेआप को दुनिया का सब से खुशनसीब इनसान और बलजीत प्रधान को बड़ा दानदाता समझता था, जो किशना जैसे लोगों को मुफ्त में दारू पिलाता है.

घर पहुंच कर दुलारी को जागती देख कर किशना बोला, ‘‘तू अभी तक सोई नहीं है?’’

‘‘अब तो तेरा इंतजार करने की आदत सी पड़ गई है,’’ दुलारी ने सहज भाव से कहा, ‘‘खाना लगाऊं या खा कर आए हो?’’

‘‘अरे मेरी दुलारो, बलजीत प्रधान इतना खिलापिला देता है कि उस के बाद जरूरत ही नहीं पड़ती. एकदम हीरा आदमी है,’’ किशना ने तारीफ के अंदाज में कहा.

‘‘वह तुझे दारू नहीं जहर पिला रहा है. उस की नजर अपने खेत पर है,’’ तीखी लेकिन दबी आवाज में दुलारी  ने कहा.

‘‘अरे, अगर उसे खेत ही चाहिए तो आज किसी और का नहीं खरीद  सकता है. उस के पास कौन सा पैसे की कमी है,’’ किशना ने दुलारी को डांटते हुए कहा.

‘‘वह हमारा खेत इसलिए चाहता है, क्योंकि वह उस के ट्यूबवैल के पास है. तू इतनी सी बात नहीं समझता… एक न एक दिन मैं उस की नीयत की पोल खोल कर रहूंगी, तब देखना.’’

इस के बाद किशना और दुलारी की कोई बातचीत नहीं हुई. किशना पास बिछी चारपाई पर खर्राटे मारने लगा और दुलारी अतीत की उन यादों में खो गई, जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी.

तब कितनी खुशियां थीं यहां. सभी लोग खेतिहर मजदूर थे, पर इतना कमा लेते थे कि किसी के आगे हाथ फैलाने की कभी नौबत नहीं आती थी.

सुहागरात पर जब सभी दारू के नशे में मस्त थे, तब दुलारी ने शरमा कर किशना से पूछा था, ‘क्या तू भी इन लोगों की तरह दारू पिएगा?’

तब किशना ने दुलारी को अपनी बांहों में भर कर कहा था, ‘जब तुझ में ही इतना नशा है, तो मुझे पीने की क्या जरूरत.’

समय बीतने के साथ खुशी के रूप में जब उन की बेटी बन्नो इस दुनिया में आई, तो किशना को दुलारी की जगह दारू ज्यादा अच्छी लगने लगी, भले ही इस में बलदेव प्रधान का हाथ बहुत ज्यादा था.

भोर की सुबह जब दुलारी अपने खेत पर गई, तो गेहूं की फसल में पानी की जरूरत को देखते हुए वह बलदेव प्रधान के ट्यूबवैल पर चली गई.

उस समय बलदेव प्रधान चारपाई पर लेटा हुआ था और उस का चमचा शंभू उस के पैर दबा रहा था.

दुलारी ने पास पहुंच कर घूंघट की ओट से धीरे से पूछा, ‘‘प्रधानजी, पानी कब मिलेगा?’’

‘‘अरे दुलारी, पानी क्या पूरा ट्यूबवैल तेरा है… बस एक बार मेरी बात मान ले, कसम से तेरी जिंदगी बना दूंगा,’’ अंगड़ाई लेते हुए बलदेव प्रधान  ने कहा.

‘‘क्या ऐसी बातें सब के सामने की जाती हैं…’’ इठलाते हुए दुलारी ने कहा.

‘‘तू इस शंभू की चिंता मत कर. यह तो अपना ही आदमी है,’’ हवस में अधलेटा होते हुए बलदेव प्रधान ने कहा.

‘‘तो ठीक है, आज गहरी रात घर आ जाओ,’’ इतना कह कर हंसते हुए दुलारी वहां से जाने लगी.

‘‘सुनसुन… और तेरा मरद घर पर होगा,’’ बलदेव प्रधान का चमचा  शंभू होशयारी दिखाते हुए बीच में  बोल पड़ा.

इसी के साथ बलदेव प्रधान ने शंभू के सिर पर हलकी सी चपत जमाई और बोला, ‘‘तू इतने दिनों से हमारे साथ है. और इतना भी नहीं जानता कि किशना तो दारू का गुलाम है… दे देंगे दारू की बोतल तो पड़ा रहेगा कहीं भी.’’

घर आ कर दुलारी ने पूरी बात किशना को बताई और बोली, ‘‘मैं कहती थी न कि प्रधान बुरा आदमी है.’’

‘‘अगर ऐसी बात है दुलारी, तो मैं कभी उस के पास नहीं जाऊंगा और न ही दारू को हाथ लगाऊंगा,’’ पछताते हुए किशना ने कहा.

दुलारी चुप रही.

‘‘ठीक है दुलारी, उसे रात में आने दे, अगर लाठी मारमार कर उस को अधमरा न कर दिया तो कहना?’’

‘‘आज तू उस की चौपाल पर जरूर जाना, नहीं तो उस को शक हो जाएगा, लेकिन दारू कम पीना,’’ दुलारी ने समझाते हुए कहा.

आज बलदेव प्रधान किशना का ही इंतजार कर रहा था. उस को आया देख कर दारू की बोतल उस की ओर उछाल कर बोला, ‘‘ले किशना, आज जम कर ऐश कर.’’

पर, आज किशना से दारू गले के नीचे नहीं उतारी गई. वह बोला, ‘‘मैं घर जा कर पिऊंगा.’’

घर आ कर किशना ने बोतल एक ओर रख दी. आज उस के मन में दारू पीने की कोई कसक नहीं हो रही थी.

आज की रात गहराइयों में जा रही थी, लेकिन किशना और दुलारी की आंखों में नींद नहीं थी. तभी उन के मिट्टी से बने घर से ‘धपाक’ की आवाज आई. शायद दीवार की कुछ मिट्टी नीचे गिरी थी.

किशना आवाज की तरफ ‘चोरचोर’ की आवाज लगाता हुआ भागा और कंबल डाले हुए एक साए को कई डंडे धर दिए.

अचानक हुए हमले से साए को भी संभलने का मौका नहीं मिला. इधर दुलारी और किशना की आवाज सुन कर आसपास के लोग भी वहां आ गए.

कंबल डाले वह साया गली में भाग रहा था. किशना और महल्ले के लोग उसे खदेड़ रहे थे, तभी गली के उस छोर से बलदेव प्रधान का चमचा शंभू दारू के नशे में लड़खड़ाता हुआ चला आ रहा था. अपनी ओर आ रहे साए को देख कर वह बोला, ‘‘अरे प्रधानजी आप…’’

अब बलदेव प्रधान ने कंबल  एक ओर फेंक कर शंभू से कहा, ‘‘बुड़बक, तू ने तो सारी पोल खोल कर ही रख दी…’’

Hindi Short Story: सच्चा प्रेम

Hindi Short Story: 6 साल पहले की बात है. सोशल मीडिया ने पूरी रफ्तार से गति पकड़ ली थी. श्यामली ने भी फेसबुक पर अपना एकाउंट बना लिया था. उसी साल उस का ग्रैजुएशन पूरा हुआ था. ग्रैजुएशन पूरा होते ही उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

स्वभाव से चंचल, शांत और हमेशा दूसरे के बारे में पहले सोचने वाली श्यामली औफिस का काम पूरा कर के फेसबुक लौगइन कर के बैठ जाती थी. श्यामली की प्रोफाइल में उस की एक फ्रैंड प्रियंका थी. प्रियंका और श्यामली अकसर फेसबुक पर कोई न कोई पोस्ट डालती रहती थीं. उस के बाद उन पर आए कमेंट्स और लाइक भी वे ध्यान से पढ़तीं और जरूरी होता तो जवाब भी देतीं. फेसबुक चलाने में उन्हें इतना मजा आता था कि वे उस की दीवानी बन गई थीं.

उस दिन औफिस से निकलते ही श्यामली ने फेसबुक पर एक पोस्ट शेयर की. देखते ही देखते उस पर लाइक और कमेंट्स आने लगे. प्रियंका और श्यामली आने वाले कमेंट्स पर आपस में बातें कर रही थीं कि तभी प्रियंका के एक कौमन फ्रैंड ने भी उस पोस्ट पर कमेंट किया. उस का नाम था दुष्यंत. इस के बाद दुष्यंत, प्रियंका और श्यामली कमेंट बौक्स में ही बातें करने लगे थे.

2 दिन बाद जब श्यामली ने फेसबुक खोला तो उस में दुष्यंत की फ्रैंड रिक्वेस्ट आई थी. 2 दिनों तक सोचनेविचारने के बाद श्यामली ने उस की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली. यहीं से शुरू हुई उस प्यार की शुरुआत, जो कभी श्यामली को मिल नहीं सका.

दुष्यंत ने कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई अभी जल्दी ही पूरी की थी. स्वभाव से शांत और भावनात्मक दुष्यंत हमेशा सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहता था. सोशल मीडिया पर ही श्यामली से उस की मुलाकात हुई थी. श्यामली और दुष्यंत अब फेसबुक फ्रैंड बन गए थे. हायहैलो से शुरू हुआ यह संबंध अब पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था.

मार्निंग शिफ्ट होने की वजह से दुष्यंत सुबह जल्दी 5 बजे ही उठ जाता था. और उठने के साथ ही वह श्यामली को गुडमौर्निंग का मैसेज भेजता था. यह उस का रोजाना का नियम बन गया था.  दुष्यंत की सुबह श्यामली को मैसेज भेजने के साथ ही शुरू होती थी. इस के बाद श्यामली के मैसेज के इंतजार में उस का आधा दिन बीत जाता. उसे श्यामली अच्छी लगने लगी थी. किसी न किसी बहाने वह उस से बात करने का मौका खोजता रहता था. वह यही सोचता रहता था कि श्यामली कब औनलाइन हो और वह उसे मैसेज करे.

दुष्यंत एक संस्कारी घर का युवक था, इसलिए श्यामली को उस पर विश्वास करने में ज्यादा समय नहीं लगा. विश्वास होने के बाद श्यामली ने दुष्यंत को अपना फोन नंबर दे दिया था. वैसे तो श्यामली आज के जमाने की आधुनिक लड़की थी. फिर भी वह खुद को इस आधुनिक जमाने से दूर रखती थी. क्योंकि उसे पता था कि सोशल मीडिया पर दुनिया भर के गलत काम भी होते हैं.

दुष्यंत को उस ने एक महीने तक परखा था, उस के बाद उस ने उसे दोस्त के रूप में दिल से स्वीकार किया था. बाकी तो उसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आता था.

नंबर मिलने के बाद वाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के आगे भी बात बढ़ गई थी. जबकि श्यामली अभी भी उसे अच्छा दोस्त ही मान रही थी. दुष्यंत तो श्यामली के ही सपनों में दिनरात खोया रहता था. इस के बावजूद दुष्यंत कभी श्यामली से अपने प्यार का इजहार नहीं कर सका था. दूसरी ओर दुष्यंत के स्वभाव से प्रभावित हो कर श्यामली के मन में भी उस के लिए प्रेम का बीज अंकुरित होने लगा था. पर कोई संस्कारी लड़की कहां जल्दी अपने प्यार का इजहार करती है. फिर श्यामली तो वैसे भी अपने मन की बात जल्दी किसी से कहने वाली नहीं थी.

उसी तरह दुष्यंत भी हमेशा सोचता रहता था कि वह अपने मन की बात कैसे श्यामली से कहे. प्यार की बात कहने पर कहीं श्यामली नाराज न हो जाए. पता नहीं वह उस के बारे में क्या सोचती होगी, क्या वह भी उसी की तरह उसे प्यार करती है या नहीं. अगर वह अपने मन की बात उस से कहेगा तो वह कहीं बुरा तो नहीं मानेगी?

यही सब सोचतेसोचते दिन बीत रहे थे. दुष्यंत हमेशा इसी सोच में डूबा रहता था कि आखिर वह करे तो क्या करे, किस तरह वह श्यामली से अपने मन की बात कहे.

आखिर एक दिन उस ने हिम्मत कर के श्यामली से मन की बात कह ही दी. श्यामली ने कहा, ‘‘अरे… अरे अभी रुको, अभी तो दूसरा अध्याय बाकी है.’’

दुष्यंत श्यामली से अपने मन की पूरी बात यानी प्रेम का इजहार तो नहीं कर पाया, पर इतना तो जता ही दिया कि वह उसे पसंद करता है. उस ने यह भी कह दिया था, ‘‘मैं तुम्हें तुम्हारे घर देखने आना चाहता हूं. तुम अपने मम्मीपापा से कह देना. मैं अपने मम्मीपापा के साथ आऊंगा.’’

इतना कह कर दुष्यंत सपनों की दुनिया में खो गया.

आखिर वह घड़ी आ ही गई, जब दुष्यंत जा कर श्यामली से आमनेसामने मिला. दोनों परिवारों में आपस में बातचीत हुई. श्यामली को भी दुष्यंत अच्छा लगा. पर बौडीगार्ड जैसा शरीर होने की वजह से श्यामली के पिता को दुष्यंत पसंद नहीं आया.

श्यामली एकदम स्लिम और ट्रिम थी. दूसरी ओर 90 किलोग्राम वजन वाले 25 साल के युवक दुष्यंत को श्यामली के पिता ने रिजेक्ट कर दिया. इस बात से दुष्यंत को लगा कि वह श्यामली को पसंद नहीं है, इसलिए श्यामली ने उस के साथ शादी से मना कर दिया है.

समय समुद्र की लहरों की तरह पूरे जोश से आगे बढ़ रहा था. अब श्यामली और दुष्यंत के बीच बातें कम होने लगी थीं. कुछ दिनों में श्यामली की भी शादी हो गई और दुष्यंत को भी जीवनसाथी मिल गई थी.

दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी में बहुत खुश थे. फिर भी जब कभी दुष्यंत एकांत में होता, तो उसे श्यामली की याद आ ही जाती थी. उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहता कि वह श्यामली से अपने दिल की बात खुल कर कह नहीं सका. किसी तरह अपने मन को मना कर उस का पहला प्रेम पूरा नहीं हुआ, इस दर्द को दिल में छिपा कर अतीत से वर्तमान में आ जाता.

पूरे 3 साल बाद अचानक एक मौल में दुष्यंत और श्यामली की मुलाकात हो गई. दोनों के बीच हायहैलो हुई. दुष्यंत ने पूछा, ‘‘कैसी हो श्यामली?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं. अपनी बताओ?’’ वह बोली.

दोनों ने एकदूसरे के बारे में पूछा. हालचाल जानने के बाद दोनों के बीच नौरमल बातें होने लगीं. बातचीत करते हुए दोनों अतीत में खो गए. उसी बातचीत में दुष्यंत ने हिम्मत कर के कह दिया कि वह उस से बहुत प्यार करता था, है और हमेशा करता रहेगा.

यह सुन कर श्यामली के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. यह बात तो वह 3 साल पहले सुनना चाहती थी. पर उस समय यह बात दुष्यंत नहीं कह सका था. उस समय श्यामली भी इस बात को नहीं समझ सकी थी. दोनों का यह अनकहा प्रेम 3 साल से हृदय में जीवंत रहा. पर दोनों ही अपने इस प्रेम को एकदूसरे से कह नहीं सके थे.

आज पूरे 3 साल बाद जब दोनों ने अकेले में बात की तो दुष्यंत ने अपने प्रेम का इकरार कर लिया. वह बहुत अच्छा दिन था. दोनों के ही मन में एकदूसरे के लिए अनहद प्रेम था.  पर समय उन के हाथ से निकल गया था. अब दोनों की ही शादी हो गई थी और दोनों ही उम्र से अधिक समझदार हो चुके थे.

दोनों ही अपने जीवनसाथी के साथ विश्वासघात करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. पर दोनों ने ही एकदूसरे को वचन दिया कि वे जीवन के अंत तक एकदूसरे के संपर्क में बने रहेंगे.

दुष्यंत और श्यामली आज भी एकदूसरे से बातें करते हैं, प्रेम व्यक्त करते हैं, एकदूसरे की भावनाओं को समझते हैं, पर दोनों ही अपनेअपने जीवनसाथी के प्रति पूरी तरह से वफादार बने हुए हैं. वे जीवनसाथी नहीं बन सके तो क्या हुआ, दोनों ही एकदूसरे से मन से जुड़ कर जीवन का आनंद ले रहे हैं.

तो क्या अपने पहले प्रेम से दिल से जुड़े रहना अपराध है? क्या शादी के बाद अपने जीवनसाथी के प्रति वफादारी दिखाते हुए मनपसंद आदमी से बात करना अपराध है?

अपने जीवनसाथी के प्रति वफादार रहते हुए दो प्रेमी जब अपने अधूरे रह गए प्रेम को एकदूसरे से इकरार करते हैं तो लोग इस संबंध को खराब नजरों से देखते हैं. पर दुष्यंत और श्यामली का कहना है कि अगर एकदूसरे से बात करने से दुख कम होता हो और खुशी मिलती हो तो इस में गलत क्या है.

प्रेम तो प्रेम होता है. शादी के पहले करो या बाद में, उस में पवित्रता, विश्वास और बिना स्वार्थ का लगाव होना चाहिए, जो केवल हृदय के भाव को जानसमझ सके.

Hindi Story: एक हीरो की आत्मकथा

Hindi Story: आज जब मैं पलट कर पीछे देखता हूं तो पाता हूं कि क्याकुछ नहीं था मेरे पास. दादादादी, मम्मीपापा और इन सब के बीच में सब से छोटा मैं. मतलब, आप में से कुछ लोगों का पसंदीदा फिल्म स्टार चकमक. दादाजी बिजनैस करते थे और उस समय के लखपति थे. पिताजी ने इस कारोबार को दो कदम आगे बढ़ाया और करोड़पति कहलाने लगे.

दादाजी तो शुरू से ही प्रगतिशील विचारधारा के रहे हैं. इसी वजह से उस दौर में जब लोगों के यहां 4-5 बच्चे होते थे, तब सिर्फ 2 बच्चे मतलब पापा और बूआजी को पैदा कर दादाजी ने एक अलग हो मिसाल पेश की थी.

समय के साथ पापा ने भी देशहित में फैसला लेते हुए अपने परिवार को मेरे जन्म तक ही सीमित रखा.

17 साल का होतेहोते मुझ पर फिल्मों का भूत सवार हो गया. तकरीबन हर फिल्म पहले ही दिन मैं देखता था. धीरेधीरे यह जुनून सिर्फ देखने तक ही सीमित न हो कर फिल्मों में काम करने में बदल गया.

आखिरकार एक दिन पापा व दादाजी के सामने मैं ने अपनी मंशा जाहिर कर ही दी.

‘‘क्या…? पागल हो गया है क्या? इतना अच्छा जमाजमाया कारोबार छोड़ कर भांड़गीरी करेगा?’’ पापाजी चिल्लाए थे.

‘‘पापा, यह भी कला का एक रूप है. इस में नाम, पैसा, शोहरत, रुतबा सबकुछ है,’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम्हें जो दिखाई दे रहा है, वह बरसाती बिजली के जैसी पलभर की चमक है. इस के पीछे एक बड़ा गहरा तिलिस्म है, जिस को तोड़ना सब के लिए मुमकिन नहीं है,’’ पापा ने कहा.

‘‘आप ने और दादाजी ने अपनी मेहनत से यह मुकाम पाया है, मैं भी अपनी मेहनत से कुछ कर दिखाना चाहता हूं,’’ मैं ने कुछ मजबूत आवाज में कहा.

‘‘जमेजमाए कारोबार को छोड़ना बेवकूफी है. वहां के संघर्ष व शोषण के बारे में शायद तुम ने सुना नहीं है,’’ पापा बोले.

‘‘आग में तप कर ही कुंदन सोना बनता है,’’ मैं ने फिल्मी डायलौग मारा.

यहां पर दादाजी की प्रगतिशीलता काम आई और वे पापा से बोले, ‘‘सूरज, विवेक जैसा चाहता है करने दो इसे. समझो, यह भी एक तरह का इंवैस्टमैंट है. अगर विवेक में दम हुआ तो यह भी करोड़ों में खेलेगा, वरना हमारा बिजनैस तो संभालना ही है इसे.’’

‘‘मतलब, मैं इसे भेज दूं?’’ पिताजी ने हैरानी से पूछा.

‘‘विवेक को अपना हुनर दिखाने का मौका मिलना ही चाहिए, मगर कुछ शर्तों के साथ,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘कैसी शर्तें दादाजी?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हें सिर्फ और सिर्फ 5 साल का समय मिलेगा. इस पीरियड में अगर तुम नाकाम रहे तो वापस आ कर अपना बिजनैस संभालना पड़ेगा,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘ये 5 साल मेरी पहली फिल्म रिलीज होने से जोड़े जाएंगे और अगर इन 5 सालों में कोई फिल्म शुरू नहीं हो पाई, तो मैं खुद घर लौट आऊंगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘अपने संबंधों को देखो कहीं कोई काम का आदमी मिलता है तो उस के मारफत हम विवेक को फिल्मों में पहुंचाएंगे तो बुनियाद मजबूत रहेगी,’’ दादाजी ने कहा.

पापा ने अपने काम के लोग खोजने शुरू किए. आखिर एक आदमी मिल ही गया. यह पापा के दोस्त का छोटा भाई शैशव था, जो मशहूर निर्मातानिर्देशक सुभान भाई के यहां पीआरओ का काम देखता था.

सुभान भाई इंडस्ट्री का बड़ा नाम थे. उन का रिकौर्ड यह था कि पिछली 3 फिल्में उन्होंने नए कलाकारों को ले कर बनाई थीं और तीनों ही फिल्में सुपरहिट रही थीं. शैशव के जरीए पापा ने सुभान भाई से मिलने का जुगाड भिड़ा लिया.

‘‘देखिए, आप के बेटे का चेहरामोहरा तो ठीक है, लेकिन इंडस्ट्री चलती है हुनर के दम पर. इस ने स्कूल के स्टेज के अलावा कहीं काम नहीं किया है, कैमरा फेस करना भी सिखाना पड़ेगा,’’ सुभान भाई मेरी तरफ देखते हुए बोले.

‘‘अरे सुभान भाई, आप का हाथ तो पारस है, जो लोहे को भी सोना बना देता है…’’ शैशव खुशामद भरी आवाज में बोला, ‘‘इस लड़के पर भी हाथ रख दीजिए. यह भी कुछ बन जाएगा.’’

‘‘बनानाबिगड़ना हमारे हाथ में नहीं है. हम तो सिर्फ मेहनत कर सकते हैं,’’ सुभान भाई ने डिप्लोमैटिक अंदाज में कहा.

‘‘वही हम चाहते हैं. आप के साथ रह कर यह कुछ बन जाए. यही हम सब लोगों की इच्छा है,’’ पापा हाथ जोड़ कर बोले.

‘‘काफी मेहनत करनी पड़ेगी इस लड़के पर. छोटे शहर से यहां आने पर कल्चर से ले कर ऐक्टिंग तक सभी की ट्रेनिंग देनी पड़ती है. वैसे भी फिल्म मेंिंकग अपनेआप में बड़ा महंगा सौदा है,’’ सुभान भाई किसी कारोबारी अंदाज में बोले.

‘‘पैसों की आप चिंता मत कीजिए, सब इंतजाम हो जाएगा,’’ पापा बोले.

‘‘देखिए, मेरी अगली फिल्म तो फ्लोर पर आ चुकी है. इस की स्टारकास्ट अनाउंस भी हो चुकी है. इस फिल्म में तो जगह नहीं बन पाएगी. इसे पूरा होने में 8 से 10 महीने का समय लगेगा. तब तक यह लड़का मेरे बंगले पर रहेगा. मेरी पत्नी भी अच्छी हीरोइन रह चुकी है. वह खुद इसे तैयार करेगी.

‘‘जब तक फिल्म की रूपरेखा पूरे तौर पर तैयार नहीं हो जाती, तब तक इसे किसी से भी नहीं मिलना है, क्योंकि जैसे ही मार्केट में यह खबर आएगी कि सुभान भाई नए लड़के को तैयार कर रहे हैं तो कई छोटेछोटे निर्माता अपनी फिल्म में लेने का लालच दे कर उसे बुला सकते हैं.

‘‘उन की फिल्में शायद ही बनें और बनें तो शायद चलें. ऐसे में कैरियर बनने से पहले ही खत्म हो जाएगा,’’ सुभान भाई ने लंबा भाषण दिया.

‘‘नहीं, आप जैसा बोलें वैसा ही करेंगे,’’ पापा ने कहा.

‘‘ठीक है, मेरी अगली फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है. इस का हीरो घरेलू काम करने वाला एक नौकर है. तुम्हें इसी रोल की ट्रेनिंग मैडम से लेनी है. ठीक है?’’ सुभान भाई ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

‘‘जी, जैसा आप को उचित लगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘विवेक नाम कुछ ओल्ड फैशन का लगता है. इस कारण तुम्हारा नया नाम रखेंगे और यह नाम होगा चकमक,’’ सुभान भाई बोले.

‘‘आप की फीस कितनी होगी?’’ पापा ने पूछा.

‘‘वैसे तो 80 लाख रुपए होती है. अब आप शैशवजी के साथ आए हैं, तो जो आप को उचित लगे दे दीजिए,’’ सुभान भाई बेझिझक बोले.

‘‘यह 40 लाख रुपए का चैक अभी ले लीजिए, बाकी का 3-4 महीनों में इंतजाम कर के पहुंचाता हूं, बच्चे का ध्यान रखिए… आप के भरोसे है,’’ पापा ने फिर हाथ जोड़ लिए.

‘‘आप बेफिक्र रहिए. अब यह लड़का हमारी जवाबदारी है,’’ सुभान भाई बोले.

‘‘अरे, रौकी भाई को तो इन्होंने गलीकूचे से निकाल कर स्टार बना दिया, फिर यह तो अपने घर का बच्चा है. आप बेफिक्र रहिए,’’ शैशव बोला.

मैं सुभान भाई के साथ उन के घर चला गया. वे अपनी पत्नी सुहाना से मिलवाते हुए बोले, ‘‘यह चकमक है और अपनी अगली फिल्म का हीरो. इसे फिल्म में घरेलू नौकर का रोल करना है, इसलिए तुम इसे उस हिसाब से तैयार करो. बाजार से सब्जी लाने से झाड़ूपोंछा तक सभी कामों की ट्रेनिंग दो. मैं फिल्म में पूरी रियलिटी चाहता हूं. इस बात का ध्यान रखना.’’

‘‘जी, ठीक है,’’ सुहाना बोली. मैं ने इस ट्रेनिंग को पूरी शिद्दत के साथ करना शुरू कर दिया. सुबह 11 बजे सो कर उठने वाला लड़का अब सुबह 5 बजे उठ जाता था. झाड़ूपोंछा करने के बाद नाश्ते की तैयारी, खाना बनवाने में मदद, सब के नहाने के बाद कपड़े धोना और सब से बाद में झोला उठा कर सौदा लेने जाना.

एक दिन सुभान भाई ने अपनी पत्नी सुहाना को छोटे कपड़े सुखाते देख लिया, तो गुस्सा होते हुए बोले, ‘‘ये कपड़े क्यों नहीं धुलवाती हो चकमक से?’’

‘‘कैसी बातें करते हो आप, ये कपड़े मैं उस से धुलवाऊंगी?’’ सुहाना बोली.

‘‘अरे, कपड़ों की कोई जान होती है क्या. सब कपड़ों जैसे यह भी कपड़े हैं. सैट पर कोई ऐसा सीन करना हुआ और पूरे मन के साथ नहीं कर पाया तो कितनी बदनामी होगी,’’ सुभान भाई बिगड़ कर बोले.

‘‘ठीक है, यह भी धुलवा लूंगी,’’ सुहाना बोली.

‘‘कुछ डांस वगैरह आता है कि नहीं उसे?’’ एक दिन सुभान भाई ने अचानक पूछ लिया.

‘‘जी, थोड़ाबहुत डांस आता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘आज तुम्हें बनी पार्टी में जाना है,’’ सुभान भाई ने आदेश दिया.

‘‘बनी पार्टी क्या होती है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बनी पार्टी नहीं मालूम तुम्हें, क्या आदमी हो तुम…’’ सुभान भाई बोले, ‘‘सुरेश समझा देगा तुम्हें, वह पहले जा चुका है.’’

‘‘जैसे कैबरे करती हुई लड़कियां बदन दिखाती हैं, उसी तरह बनी पार्टी में मर्दों को एकएक कर के अपने सभी कपड़े हटाने होते हैं. इस तरह के डांस को देखने वाली सिर्फ औरतें ही होती हैं और वे भी बेहद अमीर. यहां पर इनाम भी काफी मिलता है,’’ सुरेश ने बताया.

बनी पार्टी के बेहूदे और बेशर्मी भरे अनुभव को बयान कर पाना मुश्किल है. सपने में भी शायद कोई इतना नीचे गिर कर नहीं सोच सकता. यहां आने के बाद ही पता चला कि जिगोलो भी कुछ इसी तरह का प्रोग्राम है. यहीं पर यह भी पता चला कि गे नाम का भी कोई संबंध होता है. इतना सब करतेकरते 2 साल का समय यों ही गुजर गया. सुभान भाई की फ्लोर वाली फिल्म पूरी हो कर रिलीज हो गई और हिट भी.

मुझे विश्वास था कि अगली फिल्म मेरी होगी, पर ऐसा नहीं हुआ. अगली फिल्म के लिए मेरा नाम नहीं था.

एक दिन अचानक पापा आ गए और मुझे इस तरह का काम करते देख बहुत दुखी हुए और गुस्सा भी. चूंकि उन्होंने दोनों पेमेंट्स चैक से की थीं, इसलिए पैसे देने के सुबूत मौजूद थे.

कानूनी कार्यवाही की धमकी से डर कर सुभान भाई ने मेरे साथ फिल्म शुरू की. फिल्म साधारण रूप से हिट भी रही, पर सारा क्रेडिट सुभान भाई को ही मिला. फिल्म के बाद कुछ छोटीमोटी फिल्में जरूर मिलीं, पर वे चली नहीं.

5 साल होने वाले हैं और मैं पापा और दादाजी के बुलावे का इंतजार कर रहा हूं.

Social Story: मैं पवित्र हूं

Social Story, लेखक- बलविंदर ‘बालम’

‘‘साहब, लड़की बहुत ही खूबसूरत है. जिस्म की बनावट देखें. खिला हुआ ताजा गुलदाऊदी है जनाब. रंगरूप कितना चढ़ा हुआ है. जनाब, आप तो इस तरह की रसदार जिस्म वाली लड़कियां ही पसंद करते हो… जनाब उठा लें, फिर मौका नहीं मिलने वाला?’’

जीप से थोड़ी दूर ही हवलदार की नजर उस लड़की पर जा पड़ी थी. सूरज अंबर के घौंसले में जा छिपा था. रात खतरनाक रूप ले कर और गहरी होती जा रही थी.

एक नया शादीशुदा जोड़ा हाथ में एक छोटी सी अटैची उठाए, नाजुकनाजुक प्यारीप्यारी बातें करता पैदल ही अपने गांव जा रहा था. गांव की दूरी तकरीबन एक किलोमीटर ही होगी. वे दोनों बस से उतर कर थोड़ी ही दूर गए थे कि पुलिस की जीप आहिस्ता से उन के पास से गुजरी.

इंस्पैक्टर ने जोश में आ कर ड्राइवर को कहा, ‘‘जीप मोड़ ले…’’ और अपनी  बांहें ऊपर को खींच कर 2-3 अंगड़ाइयां तोड़ लीं.

ड्राइवर ने जीप उस जोड़े के आगे जा कर खड़ी कर दी. हवलदार और इंस्पैक्टर नीचे उतरे.

हवलदार ने उस लड़के से पूछा, ‘‘ओए, कहां जाना है तुझे?’’

‘‘अपनी ससुराल से आ रहा हूं जनाब और अपने गांव जा रहा हूं. जनाब, कुछ दिन पहले ही हमारी शादी हुई है?’’

‘‘ओए, तू तस्करी करता है… तू अफीम बेचता है… इतने अंधेरे में ससुराल से आ रहा है?’’

‘‘जनाब, इस अटैची में सिर्फ कपड़े हैं और कुछ भी नहीं है,’’ उस लड़के ने कहा.

‘‘ओए, तू थाने चल. वहां जा कर पता चलेगा कि इस में क्या है…’’

‘‘जनाब, मेरा कुसूर क्या है? मैं कोई अफीम नहीं बेचता, कोई तस्करी नहीं करता. जनाब, मेरी अटैची देख लें.’’

‘‘चुप कर. हमें अभीअभी वायरलैस से खबर आई है कि एक नया शादीशुदा जोड़ा आ रहा है. उस के पास अफीम है. उन्होंने सारा हुलिया तेरा बताया है कि तू अफीम बेचता है.’’

‘‘जनाब, ऐसी कोई बात नहीं है. आप को गलतफहमी हुई है. मेरे गांव से पूछ लें… मैं प्रीतम सिंह हूं जनाब. मैं रेहड़ा चलाता हूं जनाब. मेरे मातापिता, बहनभाई सब घर में हैं. आप गांव से पता कर लो.’’

‘‘यह तो थाने जा कर ही पता चलेगा. कैसे बकबक करता है. हम को गलत सूचना मिली है?’’ कहते हुए हवलदार ने 5-7 थप्पड़ प्रीतम सिंह के गाल पर जड़ दिए. उस की पगड़ी खुल कर नीचे गिर गई और वह खुद भी. उन्होंने लातोंबांहों से उस की खूब सेवा कर दी.

प्रीतम सिंह की पत्नी राज कौर ने बहुत गुजारिश की, पर इंस्पैक्टर पर तो हवस का भूत सवार हो चुका था. उस ने राज कौर पर 3-4 थप्पड़ जड़ दिए. वह भी नीचे गिर गई.

इंस्पैक्टर ने हवलदार और सिपाही को कहा, ‘‘उठा कर जीप में फेंक दो इन  दोनों को. थाने ले चलो, देखते हैं कैसे  नहीं मानता.’’

सिपाहियों ने उन दोनों को जीप में धकेल लिया.

राज कौर रोरो कर कह रही थी कि जनाब छोड़ दो हमें, हम बेकुसूर हैं, पर सिपाही उन को गंदीगंदी गालियां निकाले जा रहे थे.

थाने में ले जा कर इंस्पैक्टर ने दोनों को हवालात में बंद कर दिया. राज कौर का जूड़ा खुल चुका था, बाल बिखर चुके थे. उन दोनों का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.

इंस्पैक्टर ने हवलदार को तेज आवाज लगा कर कहा, ‘‘बड़ा सा पैग बना कर ला.’’

तकरीबन 55 साल के उस इंस्पैक्टर ने अपने सारे कपड़े ढीले कर लिए और गरम लहू में उबलता हुआ टांगें पसार कर कुरसी पर बैठ गया.

हवलदार बड़ा पैग बना कर ले आया और बोला, ‘‘जनाब, माल बहुत बढि़या है. ताजा गुलकंद है जनाब. खींच दो जनाब. यह मौका बारबार नहीं मिलेगा जनाब. पहले माल से यह माल अलग ही है, ताजातरीन है जनाब.’’

इंस्पैक्टर ने अपनी मूंछें अकड़ा कर एक ही सांस में पैग हलक के नीचे उतार लिया. उस की आंखों के डोरे तंदूर की तरह तपने लगे.

हवलदार ने कहा, ‘‘जनाब, एक पैग और ले आएं?’’

‘‘अभी नहीं, पहले उन की तसल्ली तो करवा दूं.’’

इंस्पैक्टर ने जाते ही प्रीतम सिंह के बाल पकड़ लिए और चिल्लाया, ‘‘कहां है तेरी अटैची ओए?’’

‘‘जनाब, आप के पास ही है. उस में कोई अफीम नहीं है.’’

हवलदार ने अटैची में अफीम रख दी थी.

‘‘जनाब, मैं बेकुसूर हूं. जाने दो जनाब. हमारे घर वाले इंतजार करते होंगे,’’ राज कौर ने इंस्पैक्टर के पैर पकड़ लिए. उस ने राज कौर का सुंदर मुखड़ा ऊपर उठा कर कामुकता से निहारा, जिस्म की गोलाइयां उस का नशा और तेज कर गईं.

राज कौर समझ गई थी कि कोई बुरा समय आने वाला है.

इंस्पैक्टर ने प्रीतम सिंह को नंगधड़ंग कर के उलटा लिटा कर खूब पिटाई लगाई. वह बेहोश हो गया.

राज कौर रोरो कर मिन्नतें कर रही थी.

इंस्पैक्टर ने हवलदार को इशारा किया, तो वह एक बड़ा पैग और बना कर ले आया. उस ने एक सांस में ही गटागट पूरा अंदर उतार लिया.

होंठों पर लगे पैग को उलटे हाथ से साफ करते हुए हवलदार को इशारे से समझाया.

हवलदार प्रीतम सिंह को बेहोशी की हालत में खींच कर दूसरे कमरे में ले गया.

राज कौर इंस्पैक्टर के पैर पकड़ रही थी, पर उस पर हवस का भूत सवार था. उस को महकमे का कोई डर नहीं था. उस के हाथ बहुत लंबे थे मिनिस्ट्री तक. उस की लगामें खुली थीं और आंखों का फैलाव कानों को छू रहा था.

इंस्पैक्टर ने नशे में कहा, ‘‘तेरे जैसा मखमल सा माल तो कभीकभार ही मिलता है. तेरे ऊपर केस नहीं डालूंगा, चिंता मत कर. तू किसी से बात मत करना. अगर किसी से बात की तो तेरे पति को जान से मरवा दूंगा…’’

इंस्पैक्टर ने राज कौर के जबरदस्ती कपड़े उतार फेंके और अपनी हवस की आग बुझाने की कोशिश की, पर गुत्थमगुत्था से आगे न जा सका और शांत हो कर अपने कमरे में चला गया.

राज कौर अपनी इज्जत के टुकड़ेटुकड़े समेटते हुए प्रीतम सिंह के पास जा कर रोए जा रही थी.

प्रीतम सिंह को पता चल गया था, पर क्या किया जा सकता था.

अगले दिन प्रीतम सिंह हवालात में था. राज कौर को डराधमका कर छोड़ दिया गया.

इंस्पैक्टर ने राज कौर से कहा, ‘‘अगर कोई भी बात जबान से बाहर निकाली तो तेरे पति को जेल में ही मरवा दूंगा. उस पर केस बनवा कर मार दूंगा. गांव में, घरबाहर किसी से कोई बात मत करना, अगर इस की जिंदगी चाहती?है तो… गांव में जा कर कहना कि इस से अफीम पकड़ी गई थी और पुलिस ने केस डाल कर जेल भेज दिया है.’’

राज कौर पहले ही इंस्पैक्टर की गुंडागर्दी व दहशत को जानती थी. उस ने कई लड़कियों की इज्जत से खिलवाड़ किया था और कई जायजनाजायज कत्ल करवाए थे.

राज कौर ने गांव में जा कर प्रीतम सिंह के मातापिता और भाईबहनों को बताया कि प्रीतम सिंह से अफीम पकड़ी गई?है. वह जेल में बंद है.

प्रीतम सिंह के भाइयों ने उस की जमानत करवा ली. खैर, केस के दौरान उस को कुछ महीनों की सजा हो गई. वह सजा काट कर आ गया था.

प्रीतम सिंह और राज कौर दोनों घर के कमरे में बैठे चुपचाप उस दिन को सोच कर रो रहे थे.

राज कौर पढ़ाई में बहुत होशियार थी. खूबसूरत जवान भरे बदन वाली. गरीब घर की होने के चलते वह मुश्किल से 10वीं जमात तक ही पढ़ पाई थी. मैट्रिक उस ने फर्स्ट डिविजन में पास की थी.

प्रीतम सिंह ने भी बारहवीं फर्स्ट डिविजन से पास की थी. बहुत पढ़नेलिखने में होशियार था, पर घर की तंगहाली के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया था.

प्रीतम सिंह अपने इलाके में घोड़े वाला रेहड़ा चलाता था. यह पुश्तैनी धंधा था उस का. वह सरल स्वभाव का लड़का था.

रात को सोते समय राज कौर ने मायूसी में प्रीतम सिंह को तसल्ली देते  हुए कहा, ‘‘मैं ने कहा जी, आप दिल छोटा मत करें. जो होना था हो गया, कौन हमारी सुनेगा?

‘‘मैं चाहती तो खुदकुशी कर सकती थी. केवल अंजू के लिए जिंदा हूं. देखो, मैं बिलकुल पवित्र हूं, पवित्र रहूंगी. पर मैं पवित्र तब ही हो सकती हूं. अगर आप मेरा एक काम करेंगे तो…’’

प्रीतम सिंह ने कहा, ‘‘राज कौर, तू बेकुसूर है. मेरे लिए तो तू पवित्र ही है. तेरा बड़ा जिगरा है, अगर और कोई लड़की होती तो कब की खुदकुशी कर गई होती, पर तेरा जिगरा देख कर मुझे और ताकत मिली है. तू मुझे बता, मैं तेरी हर एक बात मानूंगा.’’

‘‘सरदारजी, मुझे केवल मक्खन (इंस्पैक्टर) का सिर चाहिए. जैसे भी हो कैसे भी. कोई ऐसी जुगत बनाई जाए कि हींग लगे न फिटकरी… मक्खन हम से ज्यादा नहीं पढ़ालिखा, वह सिपाही से इंस्पैक्टर बना है, बेकुसूर लड़कों को मारमार कर.’’

मैं आप को एक तरकीब बताती हूं. आप जेल में रहें. सारे गांव को पता था कि आप बेकुसूर हैं, पर किया क्या जा सकता था? मक्खन सिंह से सारा इलाका डरता है. उस की ओर कोई मुंह नहीं कर सकता.’’

दिन बीतते गए. प्रीतम सिंह ने सारा भेद अपने दिल में ही रखा. किसी से जिक्र नहीं किया.

राज कौर और प्रीतम सिंह ने कई दिनों के बाद एक योजना बना ली. इस योजना को अंजाम देने के लिए रास्ते ढूंढ़ने शुरू कर दिए.

मक्खन सिंह उन के गांव से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर वाले गांव का रहने वाला था. वह हर शनिवार की शाम को गांव आता था और सुबह तड़के ही अकेला सैर करने जाता था. मक्खन सिंह के घरपरिवार के बारे में सारी जानकारी 1-2 महीने में जमा कर ली थी.

प्रीतम सिंह ने अब एक ईंटभट्ठे से ईंटें लाने का काम शुरू कर लिया था. वह भट्ठे के और्डर के मुताबिक ही ईंटें गांवगांव पहुंचाता था.

मक्खन सिंह के गांव की ओर भी ईंटें छोड़ने जाना शुरू कर दिया था. उस ने मक्खन सिंह के आनेजाने की पूरी जानकारी हासिल कर ली थी. उस ने देखा कि वह हर शनिवार की रात को घर आता है और रविवार को दोपहर को जाता है. सुबह 5 बजे के आसपास अकेला ही सैर करता?है.

इस तरह कुछ महीने बीत गए. एक दिन प्रीतम सिंह ने पूरी जानकारी रखी. उस ने पता किया कि आज शनिवार की शाम को मक्खन सिंह घर आ चुका है. वह सुबह सैर पर जाएगा.

प्रीतम सिंह रात को ही रेहड़े पर ईंटें लाद कर घर ले आया. रात में उन दोनों ने रेहड़े के ऊपर लादी हुई ईंटों के बीच में से ईंटें इधरउधर कर के खाली जगह बना ली. 1-2 खाली बोरे तह लगा कर रख दिए और एक लंबी तीखी तलवार नीचे छिपा कर रख ली.

यह तलवार प्रीतम सिंह ने स्पैशल बनवाई थी. तलवार इतनी तेज धार वाली थी कि पेड़ के तने में मारे, तो एक बार में पेड़ को काट दे.

वे दोनों सुबह 4 बजे रेहड़े पर बैठ कर घर से निकल पड़े. पौने 5 बजे के आसपास मक्खन सिंह की कोठी से थोड़ी दूर जा कर अंधेरे में रेहड़ा खड़ा कर दिया और प्रीतम सिंह घोड़े की लगाम कसने लगा.

पूरे 5 बजे मक्खन सिंह अकेला ही घर से बाहर निकला. चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. हाथ में स्टिक व सफेद कुरतापाजामा पहने मक्खन सिंह अपनी मस्त चाल में आराम से चलता जा  रहा था.

प्रीतम सिंह और राज कौर ने हिम्मत समेट कर रेहड़ा चला लिया. मक्खन सिंह अपनी मस्त चाल में चलता जा रहा था. गांव के बाहर थोड़ी दूर जा कर प्रीतम सिंह ने तलवार अपने दाएं हाथ की मुट्ठी में मजबूती से पकड़ ली.

राज कौर हिम्मत के साथ रेहड़े में बैठी रही. आहिस्ता से रेहड़ा नजदीक करते हुए प्रीतम सिंह ने ललकारा, ‘‘ओए, पापी तेरी ऐसी की तैसी…’’

जब मक्खन सिंह ने उस की ओर देखा, तो प्रीतम सिंह ने पूरी जान लगा कर इतनी तेजी से तलवार उस की गरदन पर दे मारी कि उस का सिर कट कर दूर जा पड़ा. उस की चीख भी निकलने नहीं दी.

प्रीतम सिंह ने जल्दीजल्दी उस का सिर बोरी में लपेट कर उठा लिया और ईंटों के बीच खाली जगह पर रख लिया.

रेहड़ा आसमान से बातें करने लगा. किसी को कोई खबर तक नहीं लगी.  5-6 किलोमीटर दूर जा कर नहर के किनारे राज कौर ने मक्खन सिंह का सिर निकाला और तलवार से उस के सिर के छोटेछोटे टुकड़े कर के नहर में फेंक दिए. इस के बाद वे दोनों घर आ गए.

राज कौर घर के अंदर चली गई और प्रीतम सिंह ईंटों का रेहड़ा ले कर किसी के घर पहुंचाने चला गया.

इलाके में खबर फैल गई कि मक्खन सिंह का कोई सिर काट कर ले गया है. उस के सिर काटने की खबर सुन कर इलाके में दहशत हो गई.

खुद पुलिस ने कोई बड़ी कार्यवाही नहीं की. केवल कानूनी दिखावे के लिए ही सारी कार्यवाही की गई.

पुलिस ने बहुत भागदौड़ की, पर कोई खोजखबर हाथ नहीं लगी. लोगों ने चैन की सांस ली.

कई लोग कहते सुने गए कि किसी मां के बहादुर बेटे ने यह काम किया है. इलाके का कलंक खत्म कर दिया. एक महाराक्षस का खात्मा कर दिया है.

शाम को प्रीतम सिंह रोजमर्रा की तरह रेहड़ा ले कर घर आता है. राज कौर नईनवेली दुलहन सी सजीसंवरी सी काम कर रही थी. उस के दिल में कोई डर नहीं था. अब बेशक उस को मौत भी आ जाए, कोई परवाह नहीं. बेशक फांसी ही क्यों न हो जाए, अब उस के चेहरे पर अलग किस्म का नूर था.

प्रीतम सिंह नहाधो कर अच्छे कपड़े पहन कर कमरे में दाखिल हुआ, तो राज कौर ने शरमा कर प्रीतम सिंह के गले में अपनी बांहें डालते हुए कहा, ‘‘सरदारजी, मैं पवित्र हूं.’’

प्रीतम सिंह ने राज कौर को जोर से छाती से लगा लिया.

Hindi Story: मरीचिका – वरूण को मिला प्रकृति और मानवता की सेवा का परिणाम

Hindi Story: सुबह के सूरज की लाली आसमान पर फैल रही थी और हमेशा की तरह अदरक वाली चाय की चुस्कियों का आनंद लिया जा रहा था कि एक वाक्य गूंजा- “सुनो मीनू, आज नाश्ता कर के मुझे मोहन के साथ उन के लिए नया मकान देखने जाना है.”

वरुण ने यह कहा ही था कि मीनू उस का चेहरा देखती ही रह गई. “मतलब, मकान देखने, क्यों, उन के पास है न घर जहां वे 10 वर्षों से रह रहे हैं?” मीनू ने आश्चर्य प्रकट करते पूछ लिया.

“हां मीनू, वह मकान पुराने समय का है. तब वे एक साधारण बीमा दलाल थे. पर अब तो वे एक सफल कारोबारी हो गए हैं. खूब रुपया बरस रहा है. अब उन के परिचय में नएनए लोग जुड़ रहे हैं. अपने जैसे ऊंचेऊंचे लोगों के साथ ठाठ से रोब जमाना है तो अब उन को घर भी बड़ा चाहिए. मीनू, आर्थिक सबलता आज एक जादुई ताकत बन गई है. यह हमारे जीवन को उस के सभी सिद्धांतों से परे ले जाती है जहां हम मन के भावों में बेपरवाह भिगोना चाहते हैं और उन में अपने मन जैसे ही किसी साथी को भागीदार बनाना चाहते हैं.”

“हूं, सही कहा. बिलकुल सही.”

वरुण ने आगे बताया कि वह जाना नहीं चाहता था पर फोन कर के उन्होंने निवेदन किया है.

“अच्छा, फिर तो जाना चाहिए,” मीनू यह जवाब दे कर मन ही मन सोचने लगी कि वह मोहन के परिवार को 10 वर्षों से बखूबी जानती थी. एक छोटा सा घर और साधारण जीवन, मगर कितना आनंद था उस जीवन में. वे सब हर रविवार को पिकनिक के लिए जाते, ‘अपना बाजार’ से खरीदारी कर के खुशीखुशी लौट आते. लेकिन पिछले 2 वर्ष ऐसे निकले कि मोहन के दर्शन ही दुर्लभ हो गए थे.

वे और उन की पत्नी दोनों ने मिल कर टैंट एंड डैकोरेटर्स का काम शुरू कर दिया था. अब दोनों हर समय रूपया जमा कर रहे थे, भड़कीली, शानदार दावतों में शामिल हो रहे थे और मंहगी दावतें दे भी रहे थे कभी शहर के मेयर को कभी कमिश्नर को तो कभी रेलवे और नगर विकास प्राधिकरण के चेयरमैन को.

मीनू देख रही थी कि वे दोनों किस तरह इस कुटिल बाजार की धूर्तता का शिकार हो रहे थे. वे एक जाल में फंस रहे थे. उन का हर काम अब रुपएपैसे से जुड़ा था. उन की यही मजबूरी हो गई थी, इसीलिए अब उन के संपर्क में न तो सीधेसादे दोस्त थे न ही उन की दिनचर्या सहज व सरल थी.

वापस लौट कर वरुण ने मीनू को बताया, “बहुत ही पौश इलाके में घर फाइनल कर दिया है.” मीनू चकित थी कि वरुण का तो ऐसा रुझान ही नहीं है, तब भी उन्होंने वरुण को बुलाया. उसे और वरुण को तो महंगे घरों की जानकारी है ही नहीं. उस ने अपने मन में उठ रहा यह सवाल पूछ लिया तो वरुण ने जवाब दिया, “अरे, मुझे वे अपना लकी चार्म मानते हैं, इसलिए बुलाया. वहां पर दोचार नामचीन कारोबारी उन के साथ थे.”

“अच्छा,” मीनू को यह बात सही लगी. ऐसा पहले भी हुआ था जब मोहन ने अपना दफ्तर शुरू किया था.

“मीनू, उन का घर बिलकुल फिल्मी स्टाइल में तैयार किया गया है. एक चर्चित अभिनेत्री है न, बिलकुल उसी के घर की फोटोकौपी है.”

“अच्छा,” कह कर मीनू ने प्रतिक्रिया दी पर वह आगे और कुछ भी न बोली. बस, मन में सोचती रही कि हर इंसान की संरचना अलग है, दिमागी रसायन भी एकदूसरे से बिलकुल जुदा. ऐसे में लोकप्रिय अभिनेता का बाथरूम और बाथटब किसी अन्य के लिए कैसे मुफीद हो सकता है? अगर अभिनेत्री जैसा वार्डरोब नहीं होगा तो बाजार यह कहेगा कि आप को तो पहननेओढ़ने तक का सलीका नहीं मालूम.

वह अपनेआप से कहती रही कि घर तो हमारे सिर पर एक आशीष होता है. थके तनमन को एक कोमल सी थपकी कब पसंद नहीं. हम को बहुत सुकून देने वाले इस घर के साथ हमारी चुस्ती, खुमारी, गपशप, उपलब्धि, चहलपहल, बेचैनी, नींद, करवट, सपने आदि के खट्टेमीठे सारे ही अनुभव गूंजा करते हैं. हमारे मुंदे हुए 2 नैना और उन के सपनों का अथाह संसार हमेशा गहरी नींद में कहे गए कुछ साफ व धुंधले शब्द सब एक घर की स्मृतियों में हमेशाहमेशा सहेजे हुए रहते हैं. वहां नकल का क्या काम भला?  खैर, सब की अपनी सोच है.

“तो फिर, हम भी एक नया घर बुक करा लें?” वरुण ने उस की तरफ देख कर पूछा तो मीनू ने कहा, “वरुण, मेरे लिए तो यह घर पर्याप्त है. मुझे किसी भी तरह का कोई दिखावा या आडंबर नहीं करना है. हां, अगर तुम को यह घर असहज लगता हो तो वह अलग बात है.”

यह सुन कर वरुण जोर से हंस पड़ा और मुसकराते हुए बोला, “मीनू, इस का मतलब यह हुआ कि हम दोनों एक सी सोच रखते हैं. देखो न, तमाम कोशिश कर के, लोन जुटा कर और अपने

गाढे़पसीने की कमाई से हासिल यह घरौंदा हमारी हर रुचि को दिखाता है. तुम ने छत पर इतनी सुंदर नर्सरी बना रखी है कि बड़ेबड़े बंगले वाले तुम से प्रेरणा लेते हैं कि घर को कम जगह में भी शानदार कैसे बनाया जा सकता है. यही घर हम दोनों की वास्तविकता है.”

मीनू को यह सुन कर बहुत तसल्ली मिली और वह सीढ़ियां चढ़ कर छत पर चली गई. शाम को महाविद्यालय के कुछ शोध छात्र आ कर उस के पौधे देख अपनी रिपोर्ट तैयार करना चाहते थे.

मीनू इस तरह खूब व्यस्त रहती थी. रोजाना 4 घंटे का समय वह छत पर इन पौधों को दिया करती थी. पौधे भी ऐसे सुंदर और स्वस्थ थे कि देखते ही मन मोह लेते थे. उन्हें बारबार देख कर भी मन नहीं भरता था.

दिन यों ही सार्थक ढंग से गुजर रहे थे कि कुछ दिनों बाद मोहन ने फोन किया. उन के बेहद आग्रह पर मीनू और वरुण उन का आशियाना देखने गए. बहुत दुख हुआ कि उन के इतने अच्छे दोस्त अब एक अजीबोगरीब बनावटी घर में रहने लगे थे जो उन दोनों पर थोपा हुआ सा लगता था, उस पर तुर्रा यह कि वे दोनों, उस को मेरा आशियाना, मेरे सपनों का घर कहते हुए जरा सा भी न हिचक रहे, न अटक रहे थे.

मीनू और वरुण वहां अधिक देर तक नहीं रुके, जल्द वापस आ गए. जैसे ही घर पहुंचे, तो स्थानीय टीवी चैनल वाले गेट पर ही मिल गए. कालोनी वालों ने नई प्राकृतिक स्टोरी के लिए मीनू का नाम प्रस्तावित किया था. इसलिए वे मिलने आए थे और उस की छत पर जा कर नर्सरी का वीडियो बनाना चाहते थे.

उन की बात सुन कर मीनू दंग रह गई. उस का प्रकृतिप्रेम आज उस को कितनाकुछ दे रहा था. साथ ही, कालोनीवासियों का कितना लाड़प्यार था. वरना, वह तो ब्रेकिंग न्यूज, सनसनी खबर आदि से हमेशा दूर ही भागती थी.

मीनू ने टीवी चैनल की पूरी टीम को कुछ गमले उपहार में दिए. वे सब इतने खुश हो गए जैसे आज उन को सोनाचांदी ही मिल गया. वे जातेजाते यह बोलते गए कि “सच कहा जाए तो यह जीवन कुछ सीमित सांसों का एक खेल ही है जो कभी भी किसी समय भी खत्म हो सकता

है. इस खेल को अपने दिल की तरंगोंउमंगों के अनुसार खेला, तो शानदार है. और यही सही भी है. आप एक बेहतरीन जीवन जी रही हैं मीनू जी.”

यह सुन कर मीनू मन ही मन बहुत शरमा गई.

टीवी पर अपनी मां की स्टोरी देख कर बच्चे बहुत खुश हो गए. मीनू तो उन की नजर में एक हीरोइन हो गई थी.

वैसे भी, दोनों बच्चे अपने स्कूल में मां मीनू के कारण भी जाने जाते थे. एक बार भारी बारिश में पूरे शहर की नर्सरी बंद थीं. तब एक समारोह के लिए मीनू ने ही ताजे फूलों के गुलदस्ते बना कर दिए थे. उस दिन तो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भी बारबार उन फूलों को छू कर देख रहे थे.

फिर तो स्कूल प्रोजैक्ट वगैरह में उन के दोस्त भागभाग कर मीनू आंटी की छत पर आ जाते और वहां पर 200 गमलों से अपने लिए खजाना बटोर कर ले जाते. इसी तरह कुछ और दिन गुजर गए.

एक शाम मोहन सपत्नीक अचानक उन के घर पर आ गए. उन का उतरा हुआ चेहरा व उन की उदास आवाज से मीनू और वरुण चौंक गए कि आखिर माजरा क्या है? पता लगा कि उन को करोड़ों की चपत लग गई थी.

मामला यह था कि 3 अलगअलग विशाल सरकारी समारोह होने थे. उन आयोजनों मे किसी दलाल के भरोसे इन्होंने सप्ताहभर की सजावट का सामान भिजवाया और उस दलाल ने इन से बिल भी बनवा लिया यह कह कर कि भुगतान जल्दी करवा दूंगा. लंबाचौड़ा भुगतान होना था. पर अब भुगतान ले कर वह भूमिगत हो गया और इन की हालत पतली है. इन को करोड़ों की भारी चपत लग गई. उन का पिछला भी उसी दलाल के पास बहुत बकाया पड़ा था.

3 दिनों पहले ही मोहन ने मेयर की दावत में भी 2 लाख रुपए अपनी जेब से खर्च कर दिए थे यह सोच कर कि करोड़ रुपए का भुगतान आ ही रहा है. अब उन दोनों को कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें.

उस समय वहां मीनू के बडे़ भाई भी शिमला से आए हुए थे. वे भी यह सब कहानी सुन कर भौचक्के रह गए. मीनू ने उन को मन शांत रखने की सलाह दी और पहले ठंडा पानी व फिर कड़क चाय भी पिलाई. उस के बाद मीनू के बडे़ भाई ने उन को विस्तार से बताया कि लगभग 30 वर्षों से वे भी टैंट तथा डैकोरेशन का कारोबार कर रहे हैं पर आज तक कोई गड़बड़ी नहीं हुई.

“अच्छा,”  मोहन उन को अचंभे से देखने लगे.

“जी हां, मैं सरकारी और्डर तब लेता हूं जब सरकारी विभाग से लिखित कागज मिल जाता है. इस तरह सब काम पारदर्शी होता है. दलाल वगैरह के लालच में बंधने को तत्पर हम अपने कारोबार के सिद्धांत का मौलिक रूप मिटा रहे होते हैं. कारोबार में इस तरह साख खराब हो जाती है. लोग भरोसा नहीं करते. और फिर, अपनेअपने विचार हैं. जल्दीजल्दी खूब रुपया कमाना तो मेरा शौक नहीं रहा मगर आप को हंसी आएगी कि 30 लोगों का स्टाफ है, फिर भी 20 लाख रुपए सालाना की आय है. और यह हमारी जरूरत से ज्यादा है. खूब बचत हो जाती है. और मुझे आज तक किसी तिकड़म में नहीं फंसना पडा़.”

“अच्छा,” कह कर वे दोनों चुप सुनते रहे. मीनू को यह दिल से महसूस हुआ कि उन के घर पर कुछ देर रुक कर उन दोनों का मन काफी हलका हो गया था.

कुछ क्षण चुप रहने के बाद “अच्छा, फिर मिलते हैं,” कह कर उन्होंने विदा ली.

मीनू ने साफ देखा कि वे दोनों उस के भाई को कितने आदर व प्रेम से नमस्कार कर रहे थे.

एक महीने बाद एक और खबर मिली. जिस कालोनी में मीनू और वरुण रहते थे वहां एक छोटा सा घर बिकाऊ था. पता लगा कि मोहन वहां रहने लगे थे. मीनू और वरुण दौड़ेदौड़े उन से मिलने गए, तो देख कर दंग रह गए कि वे दोनों खुद ही सारे काम कर रहे थे. इतने सादे और शालीन सजावट वाले घर में वे रहने लगे थे और दोनों के मुखडे़ भी दमक रहे थे.

मीनू और वरुण भी उन की सहायता करने लगे. गपशप भी होती रही. बातोंबातों में उन्होंने बताया कि टैंट वाला पूरा काम उन्होंने अब किसी को बेच दिया है, साथ ही, कीमती मकान भी बेच दिया है. अब उसी पूंजी से कुछ नई शुरुआत होगी. फिर जरा सा रुक कर वे बोले कि कुछ समय तक तो वे दोनों लंबी छुट्टी मनाना चाह रहे हैं.

“ओह, तो आप विदेश जा रहे हैं न,” मीनू ने सहज ही कहा.

“नहीं मीनू, अब वह सब हम को सुकून नहीं देता. फिलहाल तो सिर्फ अच्छी किताबें पढ़ कर और घर पर रह कर चिंतनमनन करना चाहते हैं. जल्द ही कुछ अच्छा होगा, नया काम शुरू करेंगे.”

“हां, हां, बिलकुल होगा,” मीनू उन के सुर में सुर मिला कर बोली.

मीनू मन ही मन उन दोनों के लिए मंगलकामना करने लगी.

एक महीने बाद बड़ा ही सुखद समाचार मिला. वरुण ने बताया कि उन दोनों ने 20 बीघा का खेत खरीद लिया है. उस में वे एक हर्बल बगीचा विकसित कर रहे हैं. जहां गिलोय, तुलसी, नीम आदि की पैदावार होगी.

यह सचमुच एक शानदार काम था प्रकृति की और मानवता की सेवा का. मीनू और वरुण ने मिल कर उन को बधाई दी. अपने उन दोस्तों पर अब उन दोनों को गर्व था.

Hindi Story: हिम्मत वाली लड़की

Hindi Story: ‘‘अरे राशिद, आज तो चांद जमीन पर उतर आया है,’’ मीना को सफेद कपड़ों में देख कर आफताब ने फबती कसी.

मीना सिर झुका कर आगे बढ़ गई. उस पर फबतियां कसना और इस प्रकार से छेड़ना, आफताब और उस के साथियों का रोज का काम हो गया था. लेकिन मीना सिर झुका कर उन के सामने से यों ही निकल जाया करती. उसे समझ नहीं आता कि वह क्या करे? आफताब के साथ हमेशा 5-6 मुस्टंडे होते, जिन्हें देख कर मीना मन ही मन घबरा जाती थी.

मीना जब सुबह 7 बजे ट्यूशन पढ़ने जाती तो आफताब उसे अपने साथियों के साथ वहीं खड़ा मिलता और जब वह 8 बजे वापस आती तब भी आफताब और उस के मुस्टंडे दोस्त वहीं खड़े मिलते. दिनोदिन आफताब की हरकतें बढ़ती ही जा रही थीं.

एक दिन हिम्मत कर के मीना ने आफताब की शिकायत अपने पापा से की. मीना की शिकायत सुन कर उस के पापा खुद उसे ट्यूशन छोड़ने जाने लगे. उस के पापा को इन गुंडों की पुलिस में शिकायत करने या उन से उलझने के बजाय यही रास्ता बेहतर लगा.

एक दिन मीना के पापा को सवेरे कहीं जाना था इसलिए उन्होंने उस के छोटे भाई मोहन को साथ भेज दिया. जैसे ही मीना और मोहन आफताब की आवारा टोली के सामने से गुजरे तो आफताब ने फबती कसी, ‘‘अरे, यार अब्दुल्ला, आज तो बेगम साले साहब को साथ ले कर आई हैं.’’

यह सुन कर मोहन का खून खौल गया. वह आफताब और उस के साथियों से भिड़ गया, पर वह अकेला 5 गुंडों से कैसे लड़ता. उन्होंने उस की जम कर पिटाई कर दी. महल्ले वाले भी चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे, क्योंकि कोई भी आफताब की आवारा मित्रमंडली से पंगा नहीं लेना चाहता था.

शाम को जब मीना के पापा को इस घटना का पता चला तो उन्होंने भी चुप रहना ही बेहतर समझा. मोहन ने अपने पापा से कहा, ‘‘पापा, यह जो हमारी बदनामी और बेइज्जती हुई है इस की वजह मीना दीदी हैं. आप इन की ट्यूशन छुड़वा दीजिए.’’

मोहन के मुंह से यह बात सुन मीना हतप्रभ रह गई. उसे यह बात चुभ गई कि इस बेइज्जती की वजह वह खुद है. उसे उन गुंडों के हाथों भाई के पिटने का बहुत दुख था. लेकिन भाई के मुंह से ऐसी बातें सुन कर उस का कलेजा धक रह गया. वह सोच में पड़ गई कि वह क्या करे? सोचतेसोचते उसे लगा कि जैसे उस में हिम्मत आती जा रही है. सो, उस ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब उसे क्या करना है? उस ने उन आवारा टोली से निबटने की सारी तैयारी कर ली.

अगले दिन सवेरे अकेले ही मीना ट्यूशन के लिए निकली. उस ने न अपने भाई को साथ लिया और न ही पापा को. जैसे ही मीना आफताब की आवरा टोली के सामने से गुजरी उन्होंने अपनी आदत के अनुसार फबती कसते हुए कहा, ‘‘अरे, आज तो लाल गुलाब अंगारे बरसाता हुआ आ रहा है.’’

इतना सुनते ही मीना ने पूरी ताकत से एक तमाचा आफताब के गाल पर जड़ दिया. इस झन्नाटेदार तमाचे से आफताब के होश उड़ गए. उस के साथी भी एकाएक घटी इस घटना से ठगे रह गए. इस से पहले कि आफताब संभलता मीना ने दूसरा तमाचा उस की कनपटी पर जड़ दिया. तमाचा खा कर आफताब हक्काबक्का रह गया. वह उस पर हाथ उठाने ही वाला था कि तभी पास खड़े एक आदमी ने उस का हाथ पकड़ते हुए रोबीली आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, अगर लड़की पर हाथ उठाया.’’

यह देख आफताब के साथी वहां से भागने की तैयारी करने लगे, तभी उन सभी को उस आदमी के इशारे पर उस के साथियों ने दबोच लिया.

आफताब इन लोगों से जोरआजमाइश करना चाहता था. तभी वह आदमी बोला, ‘‘अगर तुम में से किसी ने भी जोरआजमाइश करने की कोशिश की तो तुम सब की हवालात में खबर लूंगा. इस समय तुम सब पुलिस की गिरफ्त में हो और मैं हूं इंस्पेक्टर जतिन.’’

यह सुन कर उन आवारा लड़कों की पांव तले जमीन खिसक गई. उन के हाथपैर ढीले पड़ गए. इंस्पेक्टर जतिन ने मोबाइल से फोन कर मोड़ पर जीप लिए खड़े ड्राइवर को बुला लिया. फिर उन्हें पुलिस जीप में बैठा कर थाने लाया गया.

तब तक मीना के मम्मीपापा और भाई भी थाने पहुंच गए. इंस्पेक्टर जतिन उन्हें वहां ले गए जहां मीना अपनी सहेली सरिता के साथ बैठी हंसहंस कर बातें करती हुई नाश्ता कर रही थी.

इस से पहले कि मीना के मम्मीपापा उस से कुछ पूछते, इंस्पेक्टर जतिन खुद ही बोल पड़े, ‘‘देवेश बाबू, इस के पीछे मीना की हिम्मत और समझदारी है. कल मीना ने सरिता को फोन पर सारी घटना बताई. तब मैं ने मीना को यहां बुला कर योजना बनाई और बस, आफताब की आवारा टोली पकड़ में आ गई.

‘‘देवेश बाबू, एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा कि इस प्रकार के मामलों में कभी चुप नहीं बैठना चाहिए. इस की शिकायत आप को पहले ही दिन थाने में करनी चाहिए थी. लेकिन आप तो मोहन की पिटाई के बाद भी बुजदिल बने खामोश बैठे रहे. तभी तो इन गुंडों और समाज विरोधी तत्त्वों की हिम्मत बढ़ती है.’’

यह सुन कर मीना के मम्मीपापा को अफसोस हुआ. मोहन धीरे से बोला, ‘‘अंकल, सौरी.’’

‘‘मोहन बेटा, तुम भी उस दिन झगड़े के बाद सीधे पुलिस थाने आ जाते तो हम तुरंत कार्यवाही करते. पुलिस तो होती ही जनता की सुरक्षा के लिए है. उसे अपना मित्र समझना चाहिए.’’

इंस्पेक्टर जतिन की बातें सुन कर मीना के मम्मीपापा व भाई की उन की आंखें खुल गईं. वे मीना को ले कर घर आ गए. इस हिम्मतपूर्ण कार्य से मीना का मानसम्मान सब की नजरों में बढ़ गया. लोग कहते, ‘‘देखो भई, यही है वह हिम्मत वाली लड़की जिस ने गुंडों की पिटाई की.’’

अब मीना को छेड़ना तो दूर, आवारा लड़के उसे देख कर भाग खड़े होते. मीना के हौसले की चर्चा सारे शहर में थी अब वह सब के लिए एक उदाहरण बन गई थी.

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