भारतीय जनता पार्टी की हार: नहीं चला धार्मिक खेल

पश्चिम बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु और केरल में भी भारतीय जनता पार्टी की हार से यह साबित हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी का ऊंचनीच और भेदभाव वाला खेल कम से कम कुछ राज्यों में तो नहीं चलेगा. पश्चिम बंगाल में जिस तरह से छोटी सी, अकेली सी, कमजोर सी ममता बनर्जी ने भारतीय जनता पार्टी के खातेपीते दिखते लोगों की, धन्ना सेठों की बरात का मुकाबला किया यह काबिलेतारीफ था. 213 सीटें जीत कर उन्होंने भाजपा का इस बार 200 से पार का सपना धराशायी कर डाला.

तमिलनाडु और केरल में भारतीय जनता पार्टी इतनी बेचैन भी नहीं थी. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दिल्ली में कामधाम छोड़छाड़ कर पश्चिम बंगाल में दिन में 3-3, 4-4 रैलियां करते फिरे जिन में दिखने को भारी भीड़ थी. कुछ ने बताया भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तकरीबन 1,00,000 लोग वेतन पर 4 साल से बंगाल में हर जिले में फैला रखे थे जो रैलियों में भीड़ बढ़ाते थे. अब भीड़ में क्या पता चलता है कि यह बाहरी है या बंगाल का.

ममता बनर्जी की खासीयत रही कि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, वे रोईगिड़गिड़ाई नहीं. वे दूसरी पार्टियों के पीछे भी नहीं भागीं. उन्होंने अपने विधायकों और सांसदों की ब्लैकमेल के जरीए चोरी को सीना तान कर सहा, उन की पार्टी ने सीबीआई और एनफोर्समैंट डिपार्टमैंट का कहर  झेला, उन्होंने चुनाव आयोग की साफ दिखती एकतरफा केंद्र सरकार की जीहुजूरी देखी. पर यह बंगाल की जनता भी देख रही थी.

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बंगाल को सम झ आ गया था कि भाजपा का मकसद तो पूजापाठी लोगों को सत्ता में बैठाना है. जो जमींदारी पहले अंगरेजों ने थोपी थी, वह अब मंदिरों, सरकारी दफ्तरों, सरकार के तलुए चाटते धन्ना सेठों को सौंपनी है. ममता बनर्जी छोटे मकान में खुश हैं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने लिए राजपथ को तुड़वा कर विशाल बंगले, जिन में गुफाएं, कई मंजिल गहरे तहखाने और बंकर भी होंगे, बनवा रहे हैं. बंगाल की भूखी जनता को मालूम था कि ये लोग देने, बांटने नहीं लेने व छीनने आ रहे हैं.

देश के दूसरे राज्य में अगर भाजपा का पैर जमा है तो इसलिए कि भाजपा के बहुत से लोग छीन और लूट कर मजबूत हो गए हैं और वे जातजात, धर्मधर्म में अलगाव करा कर लोगों के कर्म का फल गीता के उपदेश पर डकार रहे हैं. भाजपा ने हर जाति के लिए हर गांव में एक छोटा मंदिर बनवा दिया है जो भाजपा कार्यालय का काम भी करता है और सरकार के अत्याचारों के समय जनता का मुंह बंद रखने का काम भी करता है. सदियों से इस देश में केवट, धींवर, निषाद, एकलव्य बस देते रहे हैं. लेना तो एकतरफा रहा है. पश्चिम बंगाल में यह रुका है. हालांकि कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला.

यह देश उसी तरह चलता रहेगा. तानाशाही चाहे दिल्ली की हो, कोलकाता, चेन्नई की हो या गली के महाजन की, चालू रहेगी. जब तक आम मेहनतकश धर्म और जाति की दीवारें नहीं तोड़ता, पूजापाठ के फंदे से नहीं निकलता, ये चुनाव नतीजे रेगिस्तान में बारिश से ज्यादा नहीं हैं. सारा पानी कुछ ही देर में रेत में जज्ब हो जाएगा.

इस बार महामारी ने अमीरों को भी डसा है. कोविड ने लगता है कि अमीरों को ज्यादा बीमार किया है जो वायरस से मुकाबला करना नहीं जानते. जो पहले से गंदे मकानों, गंदी सड़कों, गंदे पाखानों, गंदे कपड़ों के आदी हैं, उन्हें यह रोग या तो पकड़ नहीं पाया या फिर बिना पहचान कराए वे बीमार पड़े, मरे या ठीक हो गए, पर अस्पताल नहीं गए, सरकारी नंबरों में शामिल नहीं हुए.

कोविड ने गरीबों को बेकारी से ज्यादा मारा है. पिछले मार्चअप्रैल 2020 में जब कारखाने बंद हुए और इस बार फिर जब दोबारा बंद होने लगे तो लाखों की नौकरियां या धंधे चौपट हो गए. फर्क तो अमीरों को भी पड़ा जिन की बचत खत्म हो गई पर वे सह सकते थे. उन्हें भी दर्द  झेलना पड़ा क्योंकि वे इस के आदी नहीं थे. आम गरीब के लिए तो यह रोज की बात है.

यह गनीमत है कि देश में जगहजगह अस्पताल बन चुके हैं. 2014 के बाद तो मंदिर ही बन रहे हैं पर पहले धड़ाधड़ स्कूल और क्लिनिक बने थे. गांवोंकसबों में स्कूलों को अस्पतालों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और जो भी दवा मिल रही है वह ले कर बचने की कोशिश हो रही है. यह पक्का है कि दिल्ली में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस हलके से इस बीमारी का गरीबों पर पड़ने वाले असर को लिया, वह बेहद खलता है.

हारीबीमारी किसी को भी हो सकती है और इसलिए इलाज की सुविधा सरकार को मुफ्त देनी होगी. मुफ्त का मतलब सिर्फ इतना है कि सब थोड़ाथोड़ा पैसा टैक्स की शक्ल में देंगे. हर गांवकसबे में एंबुलैंस और अस्पताल होने चाहिए चाहे केंद्र सरकार के हों, राज्य सरकार के या पंचायत के. जब थाने हर जगह बन सकते हैं तो अस्पताल क्यों नहीं. शायद इसलिए कि थानों के जरीए लोगों पर राज किया जाता है और अस्पताल में सेवा करनी होती है. सरकार के दिमाग में कहीं यह कीड़ा बैठा है कि वह राज करने के लिए है, लूटने के लिए, मंदिरों की तरह लेने के लिए है, किसी को कुछ देने के लिए नहीं.

अस्पताल खोलो तो नेताओं की मुसीबत आती है. शिकायतें शुरू हो जाती हैं कि डाक्टर समय पर नहीं आते, सफाई नहीं होती, दवाएं चोरी हो रही हैं, जगह कम है. थाना खोलो तो कोई शिकायत नहीं. पुलिस वालों का डंडा सब को ठीक कर देता है.

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नरेंद्र मोदी की सरकार वैसे भी उस पौराणिक सोच पर चलती है कि एक बड़े हिस्से का काम सेवा करना है, कुछ पाना नहीं. हमारे पुराण कहीं भी गरीबों को दान देने की बात करते नजर नहीं आते. फिर कोविड जैसी बीमारी के लिए, बेकारी के लिए या बीमारी के लिए दान की उम्मीद करना ही बेकार है. देशभर में गरीब यह मांग कर भी नहीं रहे. शहरी लोग ही औक्सीजन, वैंटिलेटर, बैड, रेमेडिसिवर का हल्ला मचा रहे हैं.

लेकिन यह न भूलें कि कोविड ने देश को 10-15 साल पीछे धकेल दिया है. सरकार टैक्स चाहे ज्यादा वसूल ले पर आम जनता गरीब हो गई है और गरीब और गरीब हो गया है. वह कोविड से चाहे मरे या न मरे खराब खाने और बेरोजगारी से जरूर मरेगा.

क्या गर्लफ्रेंड रखना आसान काम है?

हर जवान की इच्छा होती है कि उस की कोई गर्लफ्रैंड हो. आजकल गांवकसबों में लड़केलड़कियों को मिलने के इतने मौके मिलने लगे हैं कि आसानी से गर्लफ्रैंड बन जाती हैं. पर आज के छोटे शहरों, कसबों और गांवों की लड़कियां भोलीभाली नहीं हैं. वे अपनी कीमत जानती हैं. वे लड़कों से ज्यादा पढ़ रही हैं. वे लड़कों से ज्यादा हुनरमंद हैं. घरों में रहते हुए भी उन्हें पैसे की कीमत मालूम है.
आज गांवों की लड़कियों को भी काम के मौके मिलने लगे हैं. थोड़ी पढ़ाई हो, थोड़ा काम तो उम्मीदों के पंख लग जाते हैं. शहर जा कर मौल में खाना और पिक्चर देखना, स्मार्ट फोन खरीदना, डाटा चार्ज कराना, घरेलू रोटी, शरबत की जगह बर्गर, पिज्जा और कोक लेना वे जानती हैं और इन सब का भुगतान बौयफ्रैंड ही करेगा, वे यह भी जानती हैं.
आज की लड़कियां अपने साथ की कीमत भी जानती हैं और अपने बदन की भी. उन्हें अगर सैक्स पर कोई एतराज न हो तो वे यह भी जानती हैं कि यह चीज कीमती है. वे इस की कीमत लेना शादी तक नहीं टालना चाहतीं. उन्हें आज ही चाहिए और इसीलिए लड़कों को मरखप कर कमा कर, चोरी कर के गर्लफ्रैंड के लिए पैसा जमा करना ही होता है. घरों में लड़की को आज भी कमतर माना जाता है पर लड़कियां फिर भी जुगत भिड़ा कर आसमान में उड़ने के लिए एक साथी को ढूंढ़ने से कतराती नहीं हैं और इस साथी को ही पंखों को हवा देनी होती है.
दिल्ली में अप्रैल के दूसरे सप्ताह में एक लड़के ने अपनी गर्लफ्रैंड के खर्च उठाने के लिए 7 महीने का एक बच्चा ही अगवा कर लिया और 40 लाख रुपयों की मांग कर डाली. इस नौसिखिए अपराधी कोपकड़ लिया गया पर वह बक गया कि इस तरह का जोखिम उस ने क्यों लिया था.

लड़कियों की खातिर गलियों में आएदिन मारपीट होती रहती है. लव जिहाद का शिगूफा इसीलिए उठाया गया है क्योंकि हिंदू लड़कियों को मुसलिम लड़के भाते हैं जो मेहनती हैं, काम करना जानते हैं और हिंदू लड़कों के मुकाबले ज्यादा तहजीब वाले हैं. मुसलमानों में लड़कियों को बहुत आजादी नहीं है. परदा है, बुरका है पर फिर भी धार्मिक कानूनों में वे बराबर की सी हैं. उन के बीच पलेबढ़े हुए लड़के हिंदू निकम्मों से ज्यादा बेहतर हैं.

फिर हिंदू दलित लड़कियां सुंदर हों तो हिंदू लड़के गर्लफ्रैंड नहीं बनाना चाहते, बस उन से सैक्स चाहते हैं, राजीराजी या जबरन. लव जिहाद का शिगूफा हिंदू लड़कों की पोल खोल रहा है कि आखिर क्यों हिंदू लड़कियां मुसलिम लड़कों को मरने तक की हद तक चाहने लगी हैं.

गर्लफ्रैंड चाहे हिंदू हो या मुसलिम पालना आसान नहीं है. आज शादी की उम्र टल रही है. 30-35 साल तक की उम्र के लड़के भी एक छत पा सकने लायक नहीं कमा पा रहे. उन्हें गर्लफ्रैंड ही चाहिए क्योंकि शादी कर नहीं सकते, घर ला नहीं सकते. दोजनी मोदीशाहसरकार को वैसे तो समाज की बड़ी चिंता है पर उस के लठैतों की क्या बुरी हालत समाज में है, उस की कोई फिक्र नहीं. इसलिए गर्लफ्रैंड बनाओ, खर्च करो, रोओ, लड़कोंकेलिए यही बचा है.

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क्या सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह है ?

देश में सरकार के खिलाफ हर बात कहने वाले के साथ अब वही सुलूक हो रहा है जो हमारी पौराणिक कहानियों में बारबार दोहराया गया है. हर ऋषिमुनि इन कहानियों में जो भी एक बार कह डालता, वह तो होगा ही. विश्वामित्र को यज्ञ में दखल देने वाले राक्षसों को मरवाना था तो दशरथ के राजदरबार में गुहार लगाई कि रामलक्ष्मण को भेज दो. दशरथ ने खूब विनती की कि दोनों बच्चे हैं, नौसिखिए हैं पर विश्वामित्र ने कह दिया तो कह दिया. वे नहीं माने.

कुंती को वरदान मिला कि वह जब चाहे जिस देवता को बुला सकती है. सूर्य को याद किया तो आ गए पर कुंती ने लाख कहा कि वह बिना शादीशुदा है और बच्चा नहीं कर सकती पर सूर्य देवता नहीं माने और कर्ण पैदा हो गया. उसे जन्म के बाद पानी में छोड़ना पड़ा.

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अब चाहे पश्चिम बंगाल हो, कश्मीर का मुद्दा हो, किसानों के कानून हों, जजों की नियुक्ति हो, लौकडाउन हो, नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सरकार के महर्षियों ने एक बार कह दिया तो कह दिया. अब तीर वापस नहीं आएगा.

कोविड के दिनों में तय था कि वैक्सीन बनी तो देश को 80 करोड़ डोज चाहिए होंगी पर नरेंद्र मोदी को नाम कमाना था पर लाखों डोज भारतीयों को न दे कर 150 देशों में भेज दी गईं जिन में से 82 देशों को तो मुफ्त दी गई हैं. भारत में लोग मर रहे हैं, वैक्सीन एक आस है पर फैसला ले लिया तो ले लिया.

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यह हर मामले में हो रहा है. पैट्रोल, डीजल, घरेलू गैस के दाम बढ़ रहे हैं तो कोई सुन नहीं रहा.  चुनाव तो हिंदूमुसलिम कर के जीत लिए जाएंगे. नहीं जीते तो विधायकों को खरीद लेंगे जैसे कर्नाटक, असम, मध्य प्रदेश में किया.

जनता की न सुनना हमारे धर्मग्रंथों में साफसाफ लिखा है. राजा सिर्फ गुरुओं की सुनेगा चाहे इस की वजह से सीता का परित्याग हो, शंबूक का वध हो, एकलव्य का अंगूठा काटना हो. जनता बीच में कहीं नहीं आती. यह पाठ असल में हमारे प्रवचन करने वाले शहरों में ही नहीं गांवों में भी इतनी बार दोहराते हैं कि लोग समझते हैं कि राज करने का यही सही तरीका है. भाजपा ही नहीं कांग्रेस भी ऐसे ही राज करती रही है, ममता बनर्जी भी ऐसे ही करती हैं, उद्धव ठाकरे भी.

यह हमारी रगरग में बस गया है कि किसी की न सुनो. हमारा हर नेता, हर अफसर अपने क्षेत्र में अपनी चलाता है चाहे सही हो या गलत. यह तो पक्का है कि जब 10 फैसले लोगे तो 5 सही ही होंगे. पर 5 जो खराब हैं, गलत हैं, दुखदायी हैं, जनता को पसंद नहीं हैं तो दुर्वासा मुनि की तरह जम कर बैठ जाने का क्या मतलब? आज सरकार लोकतंत्र की देन है, संविधान की देन है, पुराणों की नहीं. पौराणिक सोच हमें नीचे और पीछे खींच रही है. हर जना आज परेशान है. आज धन्ना सेठों को छोड़ कर हर किसान, मजदूर, व्यापारी परेशान है पर वह भी यही सोचता है कि राजा का फैसला तो मानना ही होगा. उस के गले से आवाज नहीं निकलती.

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यह सोच हर गरीब को ले डूबेगी. गरीब हजारों सालों से गरीब रहा क्योंकि वह बोला नहीं. उस ने पढ़ा नहीं, समझा नहीं, जाना नहीं. इंदिरा गांधी ने इस का फायदा उठाया. आज मोदी उठा रहे हैं. जिस अच्छे दिन की उम्मीद लगा रखी थी वह आएगा तो तब जब अच्छा होता क्या है यह कहने का हक होगा और सुनने वाला सुनेगा.

देश की सरकार मजदूरों के लिए हैं या मालिकों के लिए?

दिल्ली के पास बसा गुड़गांव देश का सब से अमीर इलाका है. यहां जाओ तो ऊंचेऊंचे शीशों से चमचमाते भवन हैं जिन में बड़ी गाडि़यों में आते लोग हैं, जो 100 रुपए की बोतल का पानी पीते हैं और एक खाने पर 1,000 रुपए खर्चते हैं. करोड़ों से कम के मकानों में ये लोग नहीं रहते. इन में कुछ मालिक, कुछ मैनेजर, कुछ एक नई किस्म के लोग कंसल्टैंट हैं. इन पर पैसा बरसता है. मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री इन्हें दिखा कर फूले नहीं समाते. हम अमेरिका, चीन से कोई कम थोड़े हैं.

इसी गुड़गांव में अप्रैल के पहले सप्ताह में एक गांव के पास बसी झुग्गियों की बस्ती में आग लग गई. कुछ ही देर में 700 घर जल गए. 1,000 से ज्यादा लोग बेघर हो गए. उन के कपड़े जल गए. घर का खाने का सामान जल गया. बरतन जल गए. जो रुपयापैसा रखा था वह जल गया. उन के सर्टिफिकेट, आधारकार्ड, पैनकार्ड, राशनकार्ड जल गए.

सवाल है कि उस शहर में जहां 30-30 मंजिले भवन हैं जो संगमरमर से चमचमा रहे हैं, वहां मजदूरों के लिए मैले से, बदबूदार ही सही, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह भिनभिनाते ही सही, पर पक्के मकान क्यों नहीं बन सकते? देश की सरकारें मजदूरों के लिए हैं या मालिकों के लिए? मालिकों को, अमीरों को 5,000 गज, 10,000 गज, 20,000 गज के प्लाट दिए जा रहे हैं, मजदूरों को बसाने के लिए 20 गज के प्लाट या बने मकान भी दे नहीं सकती सरकारें. ऐसी सरकार किस काम की.

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राम मंदिर के नाम पर होहल्ला मचाया जा रहा है. अरबों रुपया जमा करा जा रहा है. मजदूरों के लिए क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री हाईवे की बातें करते हैं जिन पर 50 लाख की गाडि़यां दौड़ती हैं, पर मजदूरों के मकानों की नहीं. हर शहर में कच्ची बस्तियां ही बस्तियां दिखती हैं. गांवों में 2000 साल पुरानी तकनीक के बने मकानों के नीचे बसे लोग दिखते हैं. एक फूस के छप्पर और उस पर तनी फटी हुई तिरपाल के नीचे घरौंदे बसे होते हैं.

देश के पास इतनी सीमेंट, ईंट, लोहा है कि दुनिया की सब से ऊंची मूर्ति ऐसे नेता की बनवाई जा सके जिस की पार्टी उस के मरने के 60 साल बाद बदलवा दी गई, पर उन लोगों के लिए 200 फुट के  मकान के लिए सामान नहीं जो 60 साल से इंतजार कर रहे हैं और कांवड़ भी ढोते हैं, विधर्मी का सिर भी फोड़ते हैं कि भगवान खुश हो जाए.

हर देश का फर्ज है कि अपने सब से गरीब का भी खयाल रखे. हरेक को बराबर का सा मिले, यह तो शायद नहीं हो सकता पर हरेक को पक्की छत तो मिले ताकि बारिश, गरमी, रात और आग से तो बच सके. ये सरकारें कैसे चौड़ी सड़कों को बनवा डालने के इश्तिहार सारे देश में लगवा सकती हैं, जबकि आम मजदूर चाहे गांव का हो या शहर का पक्के मकान, पानी और सीवर से जुड़े शौचालय का हकदार नहीं है. यह कमजोरी उन अरब भर मजदूरों की है कि उन्होंने अपना आज और अपने बच्चों का कल ऐसे लोगों के हाथ गिरवी रख दिया है जो कभी संसद में, कभी विधानसभा में, कभी मंदिर में बैठ कर वादे करते हैं पर मलाई हजम कर के डकार भी नहीं लेते.

आम मजदूर तो जल रहा है, कभी आग में, कभी बेकारी में, कभी भूख में और कभी पुलिस के डंडों की मार से.

देश में जरूरत है डाक्टरों की!

नतीजा यह हुआ कि उस की पत्नी भी नौसिखिया नीमहकीम के हाथों मारी गई और बच्चा भी. अगर कहीं यह काम करने वाला राजेंद्र शुक्ला की जगह रहमान होता तो अब तक उत्तर प्रदेश में कोहराम मच चुका होता पर अब यह कोने में रह जाने वाली खबर बन कर रह गई. एक औरत मर गई, एक बच्चा मर गया, एक मर्द बरसों अकेला रह जाएगा. राजेंद्र शुक्ला 10-20 दिन जेल में रह कर बाहर आ जाएगा क्योंकि वह देशभक्तों में से है, टुकड़ेटुकड़े गैंग का या खालिस्तानीपाकिस्तानी नहीं.

देश को असल में जरूरत है डाक्टरों की, अस्पतालों की, नर्सिंगहोमों की पर बन रहे हैं भगवा पंडितपुजारी, मंदिर और आश्रम. गांवगांव का दौरा कर लो. सब से बड़ी चीज जो बनी दिखेगी वह अस्पताल तो नहीं होगा, मंदिर होगा. स्कूल जरूर होंगे क्योंकि आजादी के बाद सरकारों ने चप्पेचप्पे पर स्कूल खोले मगर उन में घुस गए ऐसे टीचर जो पाठ पढ़ाते हैं कि भजन करो, योग करो, ठीक रहोगे. यह गलती थी. पढ़ाना था रोजमर्रा की तकनीक, हिसाब रखना, लिखना, सेहत का ध्यान रखना, अपने हकों के बारे में कैसे जागें बताना, यह सब न कर के पहले ही प्रार्थना में कह दिया जाता है कि हमें तो पूजापाठ पर भरोसा है.

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बच्चों को शुरू से नीमहकीमों के पैरों में बैठने की आदत डाल दी जाती है चाहे ये नीमहकीम राजनीति के हों या सेहत और इलाज के. जो मैडिकल कालेज खुल रहे हैं उन में भी मंदिर बन रहे हैं. मैडिकल के छात्रों को भी सिखा दिया जाता है कि मरीज को कह दो कि दवा तो ले पर दुआ भी करे यानी अगर गलत दवा दी, कुछ नहीं हुआ या खराब हुआ तो चूक दुआ में थी. डाक्टर साफ बच गया. कौन डाक्टर ऐसे शौर्टकट नहीं अपनाएगा.

और ऊपर से अगर सफेद कोट पहन लिया जाए तो किसी को भी डाक्टर मान लिया जाता है जैसे हर भगवा कपड़े वाले को शांत, ईमानदार, भगवान का पक्का एजेंट मान लिया जाता है. सफेद कोट वाले भी और भगवा कुरते वाले भी पैसा पूरा लेते हैं पर करते न के बराबर हैं. इस राजाराम और उस की बीवी पूनम के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. वे सफेद कोट के झांसे में आ गए और शायद और कहां जाते. शायद वही सब से पास एकलौता अस्पताल या नर्सिंगहोम था. मंदिर थोड़े ही जाना था जो हर नुक्कड़ पर मिल जाएंगे.

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यह अभी जनता की समझ में नहीं आएगा कि मंदिरोंमसजिदों की जरूरत नहीं, अस्पतालों की जरूरत है. कोविड-19 ने बता दिया है कि सेहत कितनी जरूरी है. कब कैसी बीमारियां आ सकती हैं जो मंदिरों के दरवाजे भी बंद करवा सकती हैं, पता नहीं. सरकार तो चेतेगी नहीं. उस का तो लक्ष्य ही दूसरा है. यह काम तो जनता को खुद करना होगा. सरपंच, मेयर का काम अपने इलाकों में अस्पताल बनवाने के लिए चंदा जमा करना होना चाहिए. यह सब से ज्यादा जरूरी है.

पश्चिम बंगाल में चलेगा ममता बनर्जी का जादू ?

भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव को जीतने में कुछ ज्यादा बेचैन ही नजर आ रही है और इसलिए उस के पिछलग्गू इस बात पर तो खुश होंगे कि उन की राह में रोड़ा बनी ममता बनर्जी की टांग एक भीड़ के कुचले जाने की वजह से क्रैक कर गई और बाकी चुनाव में उन्हें ह्वीलचेयर पर बैठ कर बोलना और जगहजगह जाना पड़ेगा.

यह घटना हुई इसलिए कि ममता बनर्जी अपने और अपने वोटरों के बीच फासला नहीं रखतीं. इस देश में वैसे तो छूतअछूत का दौर आज भी चलता है और जब तक दूसरे की जाति पता नहीं हुई उसे छूने का परहेज ही किया जाता है. जो जितना बड़ा हिंदू कट्टरपंथी होगा वह उतना ज्यादा छुआछात बरतेगा और कहीं गंदा न हो जाए वह भीड़ में ही नहीं जाएगा. जो मंत्री है उसे तो भरपूर सरकारी बंदोबस्त मिलता है और प्रधानमंत्री के आसपास तो सिर्फ कैमरे वाले ही फटक सकते हैं. गनीमत है कि ममता बनर्जी ऐसी नहीं हैं.

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चुनावों में इस तरह पैर टूटने से काफी नुकसान हो सकता है क्योंकि ममता बनर्जी अब उतनी जगह नहीं जा पाएंगी जितनी वे चाहती थीं. भाजपा की हो सकती है इस वजह से लौटरी भी खुल जाए. दूसरी तरह यह भी हो सकता है कि पश्चिम बंगाल की जनता कहे, अरे यह नेता तो अपनी है, अपनों के साथ घुलतीमिलती है, सेहत तक का खयाल नहीं रखती. ऐसा हुआ तो फायदा हो भी सकता है.

वैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हारें या न हारें यह पक्का दिख रहा है कि कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का सफाया होगा ही. वे मुंह दिखाने लायक सीटें भी नहीं जीतेंगे. वैसे भी वे नहीं चाहते कि जो भाजपा को पसंद नहीं करते उन की वोटें कटें. वे चाहते हैं कि चाहे वे हार जाएं पर भाजपा सरकार न बना पाए.

ऐसा लग नहीं रहा कि भाजपा को बड़ी जीत मिलने वाली है क्योंकि अभी भी ममता बनर्जी का जादू चालू है. पिछले सभी चुनावों में जहां भी कद्दावर विपक्ष का नेता है, भारतीय जनता पार्टी जीत नहीं पाई. पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र इस बात का सुबूत हैं कि अब तक भाजपा कहीं भी कद्दावर नेता को हरा नहीं पाई है. दिल्ली के राज सिंहासन पर भी वह जीत इसीलिए रही है क्योंकि देश की जनता ढुलमुल नेताओं के साथ खुश नहीं है और नरेंद्र मोदीकी टक्कर का नेता कोई कहीं नहीं है. इस के बावजूद बहुत से राज्यों में लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को न के बराबर की जीत मिली है.

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पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने क्या किया क्या नहीं यह अब सवाल ही नहीं रह गया है. ममता बनर्जी तो तब अच्छा रिपोर्टकार्ड दिखाएं जब सामने वाले के पास नारों, वादों के अलावा कोई रिपोर्टकार्ड हो. सामने वाले तो न अपनी डिगरी दिखाते हैं, न कोविड में जमा किए अरबों का हिसाब देने को तैयार हैं और न ही कोई उन से राम मंदिर के बनाने के लिए चंदों की लिस्ट मांगेगा. वे तो वैसे ही बातों के धनी हैं पर जनता समझती नहीं ऐसा भी नहीं. जहां चेहरा अच्छा होता है वहां पंजाब और दिल्ली के नगरनिकायों जैसे नतीजे आते हैं जहां भाजपा दूरदूर तक नजर नहीं आई थी.

क्या ‘जय श्रीराम’ के नारे से जनता की समस्याओं का हल किया जा सकता है ?

जब देश में महंगाई की डायन का साया चारों तरफ फैल रहा हो, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही हो, कानूनों की मनमानी के खिलाफ देश के कितने हिस्सों में जनता उबाल पर हो, राजपाट करने वाले या तो प्रवचन करने में लगे हैं या धर्म का डंका बजा कर राज्य सरकारों को गिराने में लगे हैं.

पश्चिम बंगाल के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने जय श्रीराम का नारा लगा रखा है और खरीदफरोख्त कर के अब पुडुचेरी की कांग्रेस सरकार गिरा दी. राज करने वालों को या तो पौराणिक धर्म को बचाने की चिंता है या फिर उस के सहारे अपनी गलतियों को छिपाने की.

देश की जनता की मूल परेशानियों के बारे में भाजपा की सोच गायब सी हो गई है. जितने मंत्री हैं, सांसद हैं, राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री हैं अगर भारतीय जनता पार्टी के हैं तो राम मंदिर के लिए चंदा जुटाने में लगे हैं या जनता को बहकाने में कि इसी से उन का कल्याण होगा, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में पक्का. जो दूसरे दलों की सरकारें हैं वे सम झ नहीं पा रहीं कि वे जनता के हितों में काम करें या अपनी धोती में भाजपा की लगाई गई आग को बुझाने में.

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नुकसान जनता का है. जनता को जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा. हां 1940-45 की तरह बंगाल में आए अकाल की तरह देश की सड़कों पर भूखों की कतारें नहीं लग रहीं और गरीब और किसान भी जो कैमरों की लपेटों में आ रहे हैं, खातेपीते दिख रहे हैं, पर यह कमाल इस सरकार का नहीं, यह बिजली, पानी, कपड़ा, मकान की नई तकनीकों का है.

जो पैसा गांवों में दिख रहा है और शहरों की गरीब बस्तियों में दिख रहा है उस का बड़ा हिस्सा उन मजदूरों का है जो विदेशों में काम कर रहे हैं. 90 लाख तो खाड़ी के देशों में ही हैं. 80 लाख दूसरे देशों में हैं. लगभग सवा करोड़ भारतीय मजदूर 80,00,00,00,000 डौलर तो बैंकों के जरीए भारत में भेजते हैं. विदेशों में वे कोई ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने नहीं गए हैं. जो 90 लाख खाड़ी के देशों में हैं वे तो मुसलिम मालिकों के पास काम कर रहे हैं.

हमारे नेता इन मुसलिम मालिकों के यहां लगभग गुलामी कर के भेजे पैसे पर देश में 8,000-8,000 करोड़ के हवाईजहाज खरीदते हैं ताकि वे एक जगह से दूसरी जगह आराम से जा सकें. इस पैसे के बल पर राम मंदिर बन रहा है. इन मुसलिम मालिकों के बल पर कमाए पैसे से चारधाम की सड़कें बन रही हैं.

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देश में हिंदूमुसलिम कर रहे नेता आम जनता को भड़का और बहका रहे हैं कि धर्म की रक्षा ही सब से बड़ा काम है. ये वे ही लोग है जिन्हें सिखों में खालिस्तानी ही नजर आते हैं. ये नेता वे हैं जो विदेशी संबंधों के नाम पर किसी को भी जेल में ठूंस देते हैं. पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी हो या मध्य प्रदेश अगर भाजपा सरकारों को गिराने में लगी है न कि विदेशों से आए मजदूरों के पैसे का सही इस्तेमाल करने में तो यह जमींदारी से भी बदतर काम होगा. रातदिन खट कर हमारे मजदूर देश में भी और विदेश में भी जो कमाते हैं वह उन के सुखों के लिए है, भगवानों की मूर्तियों के लिए नहीं.

यह ठीक है कि धर्म के दुकानदारों के जबरदस्त प्रचार की वजह से हर देशवासी आज धर्म को काम से ज्यादा इंर्पोटैंस देने लगा है पर यह अपने लिए खुद गड्ढा खोदना है. किसी न किसी दिन चारों ओर फेंकी गई मिट्टी ढहेगी ही और खोदने वाले दबे पाए जाएंगे.

क्या जाति के आधार पर सेलेक्शन करते हैं शिक्षा संस्थान?

सरकार हर तरह के हथकंडे अपना रही है कि जन्म से पैदा हुए नीच दलित शैड्यूल कास्टों और शैड्यूल ट्राइबों को न पढ़ने को मिले, न नौकरियां मिलें और न उन की जिंदगी सुधरे. उन्हें पढ़ने को स्कूल न मिलें इसलिए हर राज्य ही नहीं, जिले के भी शिक्षा अधिकारी ज्यादातर सरकारी स्कूलों को उन इलाकों में खोलते हैं जहां उन से ऊंची जाति शूद्र जिन्हें हम पिछड़े या ओबीसी कहते हैं, ज्यादा गिनती में हों. दिल्ली की इंडियन इंस्टीट्यूट टैक्नोलौजी की एक रिसर्च टीम ने यह पाया है.

वैसे तो पिछले 6 सालों से ये बातें ही बंद हो गई हैं और आईआईटी हो या शिक्षा मंत्रालय, वहां बैठे लोग, जो ऊंची जातियों के ही हैं, किसी तरह के तथ्य ही नहीं जमा करने देते. पढ़ाई के बारे में तो वे बहुत ही सतर्क हैं क्योंकि जानते हैं कि अगर शूद्र और दलित जान गए कि उन को लगातार मूर्ख बनाया जा रहा है तो शायद विद्रोह कर जाएं.

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पढ़ाई का मौका न देना दलितों को पुश्तैनी कामों में धकेलने का सब से आसान तरीका है जहां कम पैसे में मेहनत का काम लिया जा सकता है. लड़कों से खेतोंकारखानों में काम कराया जाता है और लड़कियों को या तो बच्चे पैदा करने की मशीन बना लिया  जाता है या फिर दूसरों के घरों में काम के लिए भेज दिया जाता है. यहां वेतन सुविधाएं भी कम मिलती हैं और किसी तरह ऊंची जगह पहुंचने के मौके भी कम. ऊंची जातियां इसीलिए स्कूलों की जगह मंदिर बनवाने पर जोर देती हैं ताकि ऊंचे लोगों को मिलबैठ कर साजिश करने की तो जगह मिल जाए पर झोंपडि़यों में रहने वाले अपने खाने के इंतजाम में लगे रहें.

जो सरकारी स्कूल दलितों के इलाकों में खुल भी जाते हैं उन का हाल बुरा रहता है. वहां ऊंची जाति के मास्टर पढ़ाते नहीं सेवा कराते हैं. अच्छे बच्चों को जलील करते हैं. ड्रौप आउट यानी स्कूल छोड़ने वाले इन्हीं स्कूलों में ज्यादा होते हैं. अगला खाना कैसे पकेगा, इस के लिए मांबाप भी बच्चों को स्कूल भेजने की जगह कागजपत्थर, लकडि़यां बटोरने के लिए भेज देते हैं. लड़कियां अमूमन दबंगों की चपेट में आ जाती हैं और जल्दी ही छोटे सुखों के लिए स्कूल की पढ़ाई की जगह बिस्तर की पढ़ाई सीख लेती हैं.

आईआईटी ने पाया है कि बिहार के 777 शैड्यूल ट्राइब बहुल इलाकों में केवल 11 स्कूल हैं. उत्तर प्रदेश का भी यही हाल है. मध्य प्रदेश में केवल 6 फीसदी सैकेंडरी स्कूल दलित इलाकों में हैं. मध्य प्रदेश में भी 15,843 गांव ज्यादा दलित हैं केवल 965 सैकेंडरी स्कूल हैं. देश के शासकों के राज्य गुजरात में 54 दलित बहुल गांवों में सिर्फ 2 सैकेंडरी स्कूल हैं. जब दलित बच्चों को 10-20 मील दूर सैकेंडरी स्कूल में जाना होता है, वह भी पैदल क्योंकि वे बस का पैसा नहीं खर्च कर सकते, उन का पढ़ाई में क्या मन लगेगा.

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यह सब साजिश के तौर पर हो रहा है और दलितों और गरीब पिछड़े सोच रहे हैं कि गांव में किसी ऐरेगैरे देवता का मंदिर बना कर उन्होंने अपना अगला जन्म सुधार लिया. लानत है इन के नेताओं पर, इन के चौधरियों पर और इन बिरादरियों के सरकारी मुलाजिमों पर.

क्या राममंदिर के लिए पैसा जमा करना जरूरी है?

गांवगांव, शहरशहर में कहा जाता है कि मंदिर जाओ, कीर्तन करो, पाठ पढ़ो, दान दो, यज्ञहवन कराओ, पैसा बरसेगा. आम भारतीय इस भुलावे में रह कर घर पर रह कर, गांवशहर के मंदिर में जा कर, कभीकभार दूर तीर्थस्थल तक जा कर, मन्नतें मान कर, दूधनारियल चढ़ा कर पैसा पाने के लिए कोशिश करता ही रहता है. जो करता है उसे धर्म के दुकानदार शरीफ बता देते हैं. जो नहीं करता उस का हुक्कापानी बंद करवाने की कोशिश करते हैं.

गरीब भी अपनी थोड़ी सी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पूजापाठ पर खर्च कर डालता है कि इस से और मिलेगा, अपनेआप मिलेगा, छप्पर फाड़ कर मिलेगा. भई अगर ऐसा है तो राम मंदिर को अयोध्या में पैसा जमा करने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए. पर हो उलटा रहा है. लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने हुक्म जारी किया?है कि उस के सांसद गलीगलीकूचेकूचे जा कर राम मंदिर के लिए अगले 1-2 महीनों में पैसा जमा करें. दिल्ली में राम मंदिर के लिए मनोज तिवारी फरवरी भर यही काम करेंगे.

उन्होंने कहा है कि वे घरघर, दुकानदुकान जाएंगे. अब अकेले तो जाएंगे नहीं. 10-20 भगवा दुपट्टे लपेटे तोंद वाले वर्कर भी साथ होंगे. खातेपीते दबंग घरों के लोग जिस घर में जाएंगे वहां से खाली हाथ लौटने का सवाल ही नहीं. सांसद दरवाजे तक आए और 10-20 हजार लिए बिना चला जाए, कैसे हो सकता है. मुसलमानों के घरों में भी जाएंगे और जो मांगेंगे मिलेगा वरना मालूम है न कि कपिल मिश्रा ने पुलिस की निगरानी में क्या कहा था और उत्तरपूर्व दिल्ली में क्या किया था फरवरी 2020 में.

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यह सारे देश में दोहराया जाएगा. जहां भाजपा सरकारें हैं वहां भी, जहां नहीं हैं, वहां भी. दलितों से भी वसूला जाएगा, पिछड़ों से भी. कहने को राम मंदिर सब के लिए खुला होगा पर असल में इस में ऊंची जातियों वाले ही जा पाएंगे. वैसे भी हमारे देश में आम वैश्यों के लिए शिव, वर्किंग लोगों के लिए हनुमान, और छोटी जातियों के लिए लोकल देवीदेवता रिजर्व हैं. लोग अपनेअपने देवीदेवता की पूजा करते हैं, क्योंकि उन का अक्लमंद पंडितपुजारी उन्हें जाति के हिसाब से खास मंदिर में जाने पर ही पैसा पाने की दिलासा देता है.

राम मंदिर को ग्रंथों के हिसाब से अपनेआप पैसा मिलना चाहिए. भगवान जब खुश होते हैं तो हीरेजवाहरातों के ढेर प्रकट हो जाते हैं. सुख टपक पड़ता है, धन की कमी रहती ही नहीं. मनोज तिवारी जैसे सांसद फिर तो पक्की बात है कि राम मंदिर के बहाने कुछ और वसूली करने जा रहे हैं. यह पैसा भी हो सकता है, काम करने की इजाजत देने की कीमत भी, और अगले चुनाव के लिए वोट भी.

अब भला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस के पास ऐसी जादू की छड़ी कहां है? राम मंदिर ही नहीं लगभग सभी मंदिरों पर कब्जा तो एक ही का है. जिस के पास वसूली का हक और तरीका है वही वोट मंदिर से वरदान पाएगा.

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आखिर पढ़ाई की संस्थाओं में अड़चनें क्यों आ रही है?

मोदी सरकार ने भीमराव अंबेडकर के आरक्षण का असर कम करने के लिए पढ़ाई की संस्थाओं में जो इकोनौमिकली वीकर सैक्शनों के लिए आरक्षण घोषित किया था, उस में भी अड़चनें आ रही हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में बहुत सी सीटें खाली रह गई हैं क्योंकि चाहने वालों को सर्टिफिकेट नहीं मिले थे.

शायद बात दूसरी है. रिजर्वेशन के खिलाफ हल्ला इसलिए नहीं है कि ऊंची जातियों के लोगों को शिक्षा संस्थानों या नौकरियों में जगह नहीं मिल पा रही है और उन की जगह पिछड़े और दलित आ रहे हैं. यह हल्ला तो इसलिए मच रहा है कि आखिर पिछड़े और दलित पढ़ें ही क्यों और सरकारी नौकरी में बाबू अफसर क्यों बनें?

ऊंची जाति वालों को रोज पुराण पढ़ कर आज भी सुनाए जा रहे हैं कि साफ लिखा है कि पिछड़ी और निचली जाति के लोगों का काम न राज करना है, न ज्ञान पाना और देना है, न व्यापार करना है. ऊंची जातियों के लोगों ने पिछले 200 सालों में बड़ी मेहनत से पुराणों की महानता का बखान करकर के लोगों के दिमाग में बैठाया है कि जो भी इन में लिखा है वही पहला और आखिरी सच है और इन में अगर लिखा है कि शूद्र (सभी पिछड़े ओबीसी) व जाति बाहर (सभी तरह के दलित) न पैसे के हकदार हैं, न राज के, न पढ़ाई और ज्ञान के तो सही लिखा है. यह इन के पिछले जन्मों के पापों का फल है और इन्हें भुगता जाना चाहिए चाहे कोई भी कीमत हो. इन्हें न भोगना भगवान के आदेश के खिलाफ जाना है. अगर नासमझ पिछड़े व दलित इस ईश्वरवाणी को नहीं समझ रहे तो ज्ञानी स्वामियों का फर्ज व अधिकार है कि वे समझाएं चाहे बोल कर या डंडा मार कर या फिर जेल में बंद कर के.

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अगर कालेजों में इकोनौमिकली वीकर सैक्शन की सीटें नहीं भर रहीं तो इसलिए कि इन जातियों में गरीब हैं ही न के बराबर और जो हैं वे इतने निकम्मे हैं जो घटी कटऔफ में भी दाखिला नहीं ले पाते.

जो पिछड़े और दलित अच्छे नंबर पा कर ज्ञान और सत्ता पा रहे हैं उन से निबटना हमारे महाज्ञानी अच्छी तरह जानते हैं और तभी वे सत्ता में बैठ गए हैं जबकि उन की गिनती मुट्ठीभर है. पिछड़े और दलित किसानों की सरकारों को कहीं चिंता है क्या, जो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दिए बैठे हैं. अगर धर्म का काम, जैसे कांवड़ यात्रा, हो रहा होता तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह खुद चल कर सिर नवाने जाते.

विश्वविद्यालयों में ईडब्ल्यूएस कोटे में जो सीटें खाली हैं वे आरक्षण के खिलाफ हल्ले की पोल खोलती हैं.

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