सरकार हर तरह के हथकंडे अपना रही है कि जन्म से पैदा हुए नीच दलित शैड्यूल कास्टों और शैड्यूल ट्राइबों को न पढ़ने को मिले, न नौकरियां मिलें और न उन की जिंदगी सुधरे. उन्हें पढ़ने को स्कूल न मिलें इसलिए हर राज्य ही नहीं, जिले के भी शिक्षा अधिकारी ज्यादातर सरकारी स्कूलों को उन इलाकों में खोलते हैं जहां उन से ऊंची जाति शूद्र जिन्हें हम पिछड़े या ओबीसी कहते हैं, ज्यादा गिनती में हों. दिल्ली की इंडियन इंस्टीट्यूट टैक्नोलौजी की एक रिसर्च टीम ने यह पाया है.
वैसे तो पिछले 6 सालों से ये बातें ही बंद हो गई हैं और आईआईटी हो या शिक्षा मंत्रालय, वहां बैठे लोग, जो ऊंची जातियों के ही हैं, किसी तरह के तथ्य ही नहीं जमा करने देते. पढ़ाई के बारे में तो वे बहुत ही सतर्क हैं क्योंकि जानते हैं कि अगर शूद्र और दलित जान गए कि उन को लगातार मूर्ख बनाया जा रहा है तो शायद विद्रोह कर जाएं.
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पढ़ाई का मौका न देना दलितों को पुश्तैनी कामों में धकेलने का सब से आसान तरीका है जहां कम पैसे में मेहनत का काम लिया जा सकता है. लड़कों से खेतोंकारखानों में काम कराया जाता है और लड़कियों को या तो बच्चे पैदा करने की मशीन बना लिया जाता है या फिर दूसरों के घरों में काम के लिए भेज दिया जाता है. यहां वेतन सुविधाएं भी कम मिलती हैं और किसी तरह ऊंची जगह पहुंचने के मौके भी कम. ऊंची जातियां इसीलिए स्कूलों की जगह मंदिर बनवाने पर जोर देती हैं ताकि ऊंचे लोगों को मिलबैठ कर साजिश करने की तो जगह मिल जाए पर झोंपडि़यों में रहने वाले अपने खाने के इंतजाम में लगे रहें.
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