परिवर्तन- भाग 2: शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

यदाकदा उस के मन में तूफान सा उठने लगता, वह अर्द्ध बीमार सी पत्नी पर गालियों की बौछार कर देता. कितनी सीधी और शांत औरत है. किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं. बस, एक मुसकान चिपकाए खाली सा चेहरा और उस की सुखसुविधाओं का ध्यान.

गृहस्थी की गाड़ी यों ही हिचकोले खाती चल रही थी. कभीकभी एक दुष्ट विचार उस के मन में गहरा जाता. काश, कोई अच्छी सी पत्नी आ सकती इस घर में. पर नई गृहस्थी बसाने की बात क्या सोची भी जा सकती है? वह नाना बन चुका है. नवासा 21 वर्ष का होने को आया. इंजीनियर बनने में कुल 2 साल ही तो शेष हैं. वही तो संभालेगा उस का फलताफूलता धंधा. रिश्ते के लिए अभी से लोग चक्कर लगाने लगे हैं. ऊपर की मंजिल उस के लिए तैयार कराई गई है, उस का एअरकंडीशंड बैडरूम और अनोखी साजसज्जा का ड्राइंगरूम. उस के लिए पत्नी के चुनाव के बारे में वह बहुत सजग है.

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नाश्ते की मेज पर बैठा वह पत्नी से वैभव के संबंध के बारे में सलाहमशवरा करना चाहता था लेकिन आज वह और भी पुरानी व बीमार दिखाई दे रही थी. उस की मेज की दराज में अनेक फोटो और पत्र वैभव के संबंध में आए पड़े हैं. लेकिन क्या इस फूहड़ स्त्री से ऐसे नाजुक प्रसंग को छेड़ा जा सकता है?

वह कुछ देर तक चुप बैठा ब्रैड के स्लाइस का टुकड़ा कुतरता रहा. मन ही मन अपनेआप पर झुंझलाता रहा. न जाने क्यों व्यर्थ का आवेश उस की आदत बन चुकी है. उस की दरिद्रता के दिनों की साथी, उस की सहायिका ही नहीं, अर्द्धांगिनी भी, न जाने क्यों आज उस के लिए बेमानी हो चुकी है? कभीकभी अपनी सोच पर वह बेहद शर्मिंदा भी होता.

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कमला को पति की भारी डाक देखने तक में कोई रुचि नहीं थी. नौकर गेट पर लगे लैटरबौक्स से डाक निकाल कर अपने साहब की मेज पर रख आता था. लेकिन आज नाश्ते के बाद बाहर टंगे झूले पर बैठी कमला ने पोस्टमैन से डाक ले कर झूले के हत्थे पर रख लिया.

2-3 मोटे लिफाफे झट से नीचे गिर पड़े. उस ने उन्हें उठाया तो उसे लगा लिफाफों में चिट्ठी के साथ फोटो भी हैं. सोचने लगी, किस के फोटो होंगे? उस ने उन्हें उलटापलटा, तो कम चिपका एक लिफाफा यों ही खुल गया. एक कमसिन सी लड़की की फोटो उस में से झांक रही थी. उस ने पत्र पढ़ा. वैभव के रिश्ते की बात लिखी थी. तो यह बात है, चुपचाप बहू लाने की योजना चल रही है. और उसे कानोंकान खबर तक नहीं.

क्या हूं मैं, केवल एक धाय मात्र? उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. सदा से सब की झिड़कियां खाती आई हूं. पहले सास की सुनती रही. उन से डरडर कर जीती रही. यहां तक कि छोटी ननदें भी जो चाहतीं, कह लेती थीं. उसे सब की सहने की आदत पड़ गई है. उस की अपनी बेटियां भी उस की परवा नहीं करतीं और अब यह व्यक्ति, जो कहने को पति है, उसे निरंतर तिरस्कृत करता रहता है.

आखिर क्या दोष है उस का? कल घर में धेवते की बहू आएगी तो क्या समझेगी उसे? घर की मालकिन या कोने में पड़ी एक दासी? उस की दशा क्या होगी? उस की आज जो हालत है उस का जिम्मेदार कौन है? क्यों डरती है वह हर किसी से?

उस के पति ने भी कभी उस के रूप की सराहना की थी. उसे प्यार से दुलराया था. छाती से चिपटा कर रातें बिताई थीं. अब वह एक खाली ढोल हो कर रह गई है. साजसज्जा की सामग्री से अलमारियां भरी हैं. साडि़यों और सूटों से वार्डरोब भरे पड़े हैं. लेकिन इस बीमार थुलथुल देह पर कुछ सोहता ही नहीं.

कम्मो झूले से उठ खड़ी हुई और ड्रैसिंग मेज पर जा कर खुद को निहारने लगी. क्या इस देह में अब भी कुछ शेष है? उसे लगा, उस के अंदर से एक धीमी सी आवाज आ रही है, ‘कम्मो, अपनी स्थिति के लिए केवल तू ही जिम्मेदार है. तू अपने पति की उन्नति में सहायक बनी लेकिन उस की साथी नहीं बनी. वह ऊंचाइयां छूता गया और तू जमीन का जर्रा बनती गई. वह आधी रात को घर में घुसा, तू ने कभी पूछा तक नहीं. बस, उस के स्वागत में आंखें बिछाए रही.’

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उस की इच्छा हुई वह भी आज गुलाब की पंखडि़यों में नहाए. उस ने बाथरूम के लंबे टब में गुलाब की पंखडि़यां भर दीं, गीजर औन कर दिया. गरम फुहारों से टब लबालब भर गया तो उस में जा कर लेटी रही. उस में से कुछ समय बाद निकली तो काफी हलका महसूस कर रही थी. आज उस ने अपनी मनपसंद साड़ी पहनी और हलका मेकअप किया.

अब वह जिएगी तो अपने लिए, कोई परवा करे या न करे. एक आत्मविश्वास से वह खिलने लगी थी. स्नान के बाद ऊपर जा कर धूप में जाने की इच्छा उस में प्रबल हो उठी, लेकिन एक अरसे से वह सीढि़यां नहीं चढ़ी थी. घर की ड्योढ़ी लांघती तो उस की सांस बेकाबू हो जाती है, फिर इतनी अधिक सीढि़यां कैसी चढ़ेगी? फिर भी, आज उसे स्वयं को रोक पाना असंभव था. उस ने धीरेधीरे 3-4 सीढि़यां चढ़ीं, तो सांस ऊपरनीचे होने लगी.

वह बैठ गई. सामान्य होने पर फिर चढ़ने लगी. कुछ समय बाद वह छत पर थी. नीले आसमान में सूर्य चमक रहा था. उसे अच्छा लगा. वह आराम से झुक कर सीधी हो सकती है. बिना कष्ट के उस ने आगेपीछे, फिर दाएंबाएं होने का यत्न किया तो एक लचक सी शरीर में दौड़ गई. तत्पश्चात थोड़ी देर बाद वह बिना किसी परेशानी के नीचे उतर आई.

रसोई में रसोइया खाना बनाने की तैयारी कर रहा था. कमला काफी समय से वहां नहीं झांकी थी. नंदू पूछता, ‘क्या बनेगा’ तो बेमन से कह देती, ‘साहब की पसंद तू जानता ही है.’ पुराना नौकर मालिकों की आदतें जान गया था. इसलिए बिना अधिक कुछ कहे वह उन के लिए विभिन्न व्यंजन बना लेता. समय पर नाश्ता और खाना डायनिंग टेबल पर पहुंच जाता. घी, मसालों में सराबोर सब्जियां, चावल, रायता, दाल, सलाद सभी कुछ. कमला तो बस 2-4 कौर ही मुंह में डालती थी, पर फिर भी काया फूलती ही गई. उस का यही बेडौल शरीर ही तो उसे पति से दूर कर गया है.

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परिवर्तन- भाग 3: शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

कमला नीचे आई तो रसोईघर में घुस गई. उसे आज स्वयं भोजन बनाने की इच्छा थी. कमला ने हरी सब्जियां छांट कर निकालीं, फिर स्वयं ही छीलकाट कर चूल्हे पर रख दीं. आज से वह उबली सब्जियां खाएगी.

शिव सहाय कुछ दिनों के लिए बाहर गया था. कमला एक तृप्ति और आजादी महसूस कर रही थी. आज की सी जीवनचर्या को वह लगातार अपनाने लगी. शारीरिक श्रम की गति और अधिक कर दी. उसे खुद ही समझ में नहीं आया कि अब तक उस ने न जाने क्यों शरीर के प्रति इतनी लापरवाही बरती और मन में क्यों एक उदासी ओढ़ ली.

शिव सहाय दौरे से वापस आया और बिना कमला की ओर ध्यान दिए अपने कामों में व्यस्त हो गया. पतिपत्नी में कईकई दिनों तक बातचीत तक नहीं होती थी.

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शिव सहाय कामकाज के बाद ड्राइंगरूम की सामने वाली कुरसी पर आंख मूंद कर बैठा था. एकाएक निगाह उठी तो पाया, एक सुडौल नारी लौन में टहल रही है. उस का गौर पृष्ठभाग आकर्षक था. कौन है यह? चालढाल परिचित सी लगी. वह मुड़ी तो शिव सहाय आश्चर्य से निहारता रह गया. कमला में यह परिवर्तन, एक स्फूर्तिमय प्रौढ़ा नारी की गरिमा. वह उठ कर बाहर आया, बोला, ‘‘कम्मो, तुम हो, मैं तो समझा था…’’

कम्मो ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘क्या समझा आप ने कि कोई सुंदरी आप से मिलने के इंतजार में टहल रही है?’’

शिव सहाय ने बोलने का और मौका न दे कम्मो को अपनी ओर खींच कर सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी बहुत उपेक्षा की है मैं ने. पर यकीन करो, अब भूल कर भी ऐसा नहीं होगा. आखिर मेरी जीवनसहचरी हो तुम.’’ कम्मो का मन खुशी से बांसों उछल रहा था वर्षों बाद पति का वही पुराना रूप देख कर. वही प्यार पा कर उस ने निर्णय ले लिया कि अब इस शरीर को कभी बेडौल नहीं होने देगी, सजसंवर कर रहेगी और पति के दिल पर राज करेगी.

वैभव की शादी के लिए वधू का चयन दोनों की सहमति से हुआ. निमंत्रणपत्र रिश्तेदारों और परिचितों में बांटे गए. शादी की धूम निराली थी.

सज्जित कोठी से लंबेचौड़े शामियाने तक का मार्ग लहराती सुनहरी, रुपहली महराबों और रंगीन रोशनियों से चमचमा रहा था. स्टेज पर नाचरंग की महफिल जमी थी तो दूसरी ओर स्वादिष्ठ व्यंजनों की बहार थी. अतिथि मनपसंद पेय पदार्थों का आनंद ले कर आते और महफिल में शामिल हो जाते.

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आज कमला ने भी जम कर शृंगार किया था. वह अपने अनूठे सौंदर्य में अलग ही दमक रही थी. कीमती साड़ी और कंधे पर सुंदर पर्र्स लटकाए वह इष्टमित्रों की बधाई व सौगात ग्रहण कर रही थी. वह थिरकते कदमों से महफिल की ताल में ताल मिला रही थी.

लोगों ने शिव सहाय को भी साथ खींच लिया. फिर क्या था, दोनों की जोड़ी ने वैभव और नगीने सी दमकती नववधू को भी साथ ले लिया. अजब समां बंधा था. कल की उदास और मुरझाई कमला आज समृद्धि और स्वास्थ्य की लालिमा से भरपूर दिखाई दे रही थी. ऐसा लग रहा था मानो आज वह शिव सहाय के घर और हृदय पर राज करने वाली पत्नी ही नहीं, उस की स्वामिनी बन गई थी.

परिवर्तन – भाग 1: शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

शेव बनाते हुए शिव सहाय ने एक उड़ती नजर पत्नी पर डाली. उसे उस का बेडौल शरीर और फैलता हुआ सा लगा. वह नौकरानी को धुले कपड़े अच्छी तरह निचोड़ कर सुखाने का आदेश दे रही थी. उस ने खुद अपनी साड़ी झाड़ कर बताई तो उस का थुलथुल शरीर बुरी तरह हिल गया, सांस फूलने से स्थिति और भी बदतर हो गई, और वह पास पड़ी कुरसी पर ढह सी गई.

क्या ढोल गले बांध दिया है उस के मांबाप ने. उस ने उस के जन्मदाताओं को मन ही मन धिक्कारा-क्या मेरी शादी ऐसी ही औरत से होनी थी, मूर्ख, बेडौल, भद्दी सी औरत. गोरी चमड़ी ही तो सबकुछ नहीं.
‘तुम क्या हो?’ वह दिन में कई बार पत्नी को ताने देता, बातबात में लताड़ता, ‘जरा भी शऊर नहीं, घरद्वार कैसे सजातेसंवारते हैं? साथ ले जाने के काबिल तो हो ही नहीं. जबतब दोस्तयार घर आते हैं तो कैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.’

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जब देखो सिरदर्द, माथे पर जकड़ कर बांधा कपड़ा, सूखे गाल और भूरी आंखें. उस के प्रति शिव सहाय की घृणा कुछ और बढ़ गई. उस ने सामने लगी कलाकृतियों को देखा.

वार्निश के डब्बों और ब्रशों पर सरसरी निगाह डाली. बिजली की फिटिंग के सामान को निहारा. कुछ देर में मिस्त्री, मैकेनिक सभी आ कर अपना काम शुरू कर देंगे. उस ने बेरहमी से घर की सभी पुरानी वस्तुओं को बदल कर एकांत के उपेक्षित स्थान में डलवा दिया था.

क्या इस औरत से भी छुटकारा पाया जा सकता है? मन में इस विचार के आते ही वह स्वयं सिहर उठा.

42 वर्ष की उम्र के करीब पहुंची उस की पत्नी कमला कई रोगों से घिर गई थी. दवादारू जान के साथ लगी थी. फिर भी वह उसे सब तरह से खुश रखने का प्रयत्न करती लेकिन उन्नति की ऊंचाइयों को छूता उस का पति उसे प्रताडि़त करने में कसर नहीं छोड़ता. अपनी कम्मो (कमला) के हर काम में उसे फूहड़पन नजर आता. सोचता, ‘क्या मिला इस से, 2 बेटियां थीं जो अब अपना घरबार बसा चुकी हैं. बाढ़ के पानी की तरह बढ़ती दौलत किस काम आएगी? 58 वर्ष की उम्र में वह आज भी कितना दिलकश और चुस्तदुरुस्त है.

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कुरसी पर निढाल सी हांफती पड़ी पत्नी के रंगे बाल धूप में एकदम लाल दिखाई दे रहे थे. वह झल्लाता हुआ बाथरूम में घुस गया और देर तक लंबे टब में पड़ा रहा. पानी में गुलाब की पंखडि़यां तैर रही थीं. हलके गरम, खुशबूदार पानी में निश्चल पड़े रहना उस का शौक था.

कमला उस के हावभाव से समझ गई कि वह खफा है. उस ने खुद को संभाला और कमरे में आ कर दवा की पुडि़या मुंह में डाल ली.

बड़ी बेटी का बच्चा वैभव, उस ने अपने पास ही रख लिया था. बस, उस ने अपने इस लाड़ले के बचपन में अपने को जैसे डुबो लिया था. नहीं तो नौकरों से सहेजी इस आलीशान कोठी में उस की राहत के लिए क्या था? ढाई दशकों से अधिक समय से पत्नी के लिए, धनदौलत का गुलाम पति निरंतर अजनबी होता गया था. क्या यह यों ही आ गई? 18 वर्ष की मोहिनी सी गोलमटोल कमला जब ससुराल में आई थी तो क्या था यहां?

तीनमंजिले पर किराए का एक कमरा, एक बालकनी और थोड़ी सी खुली जगह थी. ससुर शादी के 2 वर्षों पहले ही दिवंगत हो चुके थे. घर में थीं जोड़ों के दर्द से पीडि़त वृद्धा सास और 2 छोटी ननदें.
पिता की घड़ीसाजी की छोटी सी दुकान थी, जो पिता के बाद शिव सहाय को संभालनी पड़ी, जिस में मामूली सी आय थी और खर्च लंबेचौड़े थे. उस लंबे से कमरे में एक ओर टीन की छत वाली छोटी सी रसोई थी.

दूसरी ओर, एक किनारे परदा डाल कर नवदंपती के लिए जगह बनाई गई थी. पीछे की ओर एक अलमारी और एक दीवारघड़ी थी. यही था उस का सामान रखने का स्थान. दिन में परदा हटा दिया जाता. शैय्या पर ननदें उछलतीकूदती अपनी भाभी का तेलफुलेल इस्तेमाल करने की फिराक में रहतीं.
कमला मुंहअंधेरे रसोई में जुट जाती. बच्चों को स्कूल जाना होता था, और पति को दुकान. जल्दी ही वह भी एक प्यारी सी बच्ची की मां बन गई

शुरू में शिव सहाय अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था. उसे लगता, उस की उजलीगुलाबी आभा लिए पत्नी कम्मो गृहस्थी की चक्की में पिसती हुई बेहद कमजोर और धूमिल होती जा रही है. रात को वह उस के लिए कभी रबड़ी ले आता तो कभी खोए की मिठाई.
कमला का आगमन इस परिवार के लिए समृद्धि लाने वाला सिद्ध हुआ. दुकान की सीमित आय धीरेधीरे बढ़ने लगी.

कमला ने पति को सलाह दी कि वह दुकान में बेचने के लिए नई घडि़यां भी रखे, केवल पुरानी घडि़यों की मरम्मत करना ही काफी नहीं है. चुपके से उस ने पति को अपने कड़े और गले की जंजीर बेचने के लिए दे दीं ताकि वह नई घडि़यां ला सके. इस से उस की आय बढ़ने लगी. काम चल निकला.

किसी कारण से पास का दुकानदार अपनी दुकान और जमीन का एक टुकड़ा उस के हाथों सस्ते दामों में बेच कर चला गया. दुकान के बीच का पार्टीशन निकल जाने से दुकान बड़ी हो गई. उस की विश्वसनीयता और ख्याति तेजी से बढ़ी. घड़ी के ग्राहक दूरपास से उस की दुकान पर आने लगे. मौडर्न वाच शौप का नाम शहर में नामीगिरामी हो गया.

मौडर्न वाच शौप से अब उसे मौडर्न वौच कंपनी बनाने की धुन सवार हुई. उस के धन और प्रयत्न से घड़ी बनाने का कारखाना खुला, बढि़या कारीगर आए. फिर बढ़ती आमदनी से घर का कायापलट हो गया. बढि़या कोठी, एंबेसेडर कारें और सभी आधुनिक साजोसामान.

बस पुरानी थी, तो पत्नी कमला. दौलत को वह अपने प्रयत्नों का प्रतिफल समझने लगा. लेकिन दिल के किसी कोने में उसे कमला के त्याग व सहयोग की याद भी उजागर हो जाती. अभावों की दुनिया में जीते उस के परिवार और उसे, आखिर इसी औरत ने तो संभाल लिया था. उस ने खुद भी क्याकुछ नहीं किया, घर सोनेचांदी से भर दिया है. इस बदहाल औरत के लिए रातदिन डाक्टर को फोन खटखटाते, मोटे बिल भरते खूबसूरत जिंदगी गंवा रहा है.

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परिवर्तन : शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

एक जहां प्यार भरा: भाग 3

“मतलब?”

“मतलब हम चाइनीज तरीके से भी शादी करें और इंडियन तरीके से भी.”

“ऐसा कैसे होगा रिद्धिमा?”

“आराम से हो जाएगा. देखो हमारे यहां यह रिवाज है कि दूल्हा बारात ले कर दुलहन के घर आता है. सो तुम अपने खास रिश्तेदारों के साथ इंडिया आ जाना. इस के बाद हम पहले भारतीय रीतिरिवाजों को निभाते हुए शादी कर लेंगे उस के बाद अगले दिन हम चाइनीज रिवाजों को निभाएंगे. तुम बताओ कि चाइनीज वैडिंग की खास रस्में क्या हैं जिन के बगैर शादी अधूरी रहती है?”

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“सब से पहले तो बता दूं कि हमारे यहां एक सैरिमनी होती है जिस में कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट हाउस या गवर्नमैंट औफिस में लड़केलड़की को कानूनी तौर पर पतिपत्नी का दरजा मिलता है. कागजी काररवाई होती है.”

“ठीक है, यह सैरिमनी तो हम अभी निबटा लेंगे. इस के अलावा बताओ और क्या होता है?”

“इस के अलावा टी सैरिमनी चाइनीज वैडिंग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इसे चाइनीज में जिंग चा कहा जाता है जिस का अर्थ है आदर के साथ चाय औफर करना. इस के तहत दूल्हादुलहन एकदूसरे के परिवार के प्रति आदर प्रकट करते हुए पहले पेरैंट्स को, फिर ग्रैंड पेरैंट्स को और फिर दूसरे रिश्तेदारों को चाय सर्व करते हैं. बदले में रिश्तेदार उन्हें आशीर्वाद और तोहफे देते हैं.”

“वह तो ठीक है इत्सिंग, पर इस मौके पर चाय ही क्यों?”

“इस के पीछे भी एक लौजिक है.”

“अच्छा वह क्या?” मैं ने उत्सुकता के साथ पूछा.

“देखो, यह तो तुम जानती ही होगी कि चाय के पेड़ को हम कहीं भी ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते. चाय का पेड़ केवल बीजों के जरीए ही बढ़ता है. इसलिए इसे विश्वास, प्यार और खुशहाल परिवार का प्रतीक माना जाता है.”

“गुड,” कह कर मैं मुसकरा उठी. मुझे इत्सिंग से चाइनीज वैडिंग की बातें सुनने में बहुत मजा आ रहा था.

मैं ने उस से फिर पूछा,” इस के अलावा और कोई रोचक रस्म?”

“हां, एक और रोचक रस्म है और वह है गेटक्रशिंग सैशन. इसे डोर गेम भी कह सकती हो. इस में दुलहन की सहेलियां तरहतरह के मनोरंजक खेलों के द्वारा दूल्हे का टैस्ट लेती हैं और जब तक दूल्हा पास नहीं हो जाता वह दुलहन के करीब नहीं जा सकता.”

इस रिवाज के बारे में सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने हंसते हुए कहा,”थोड़ीथोड़ी यह रस्म हमारे यहां की जूता छुपाई रस्म से मिलतीजुलती है.”

“अच्छा वही रस्म न जिस में दूल्हे का जूता छिपा दिया जाता है और फिर दुलहन की बहनों द्वारा रिश्वत मांगी जाती है? ”

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया,”हां, यही समझ लो. वैसे लगता है तुम्हें भी हमारी रस्मों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी है.”

“बिलकुल मैडम जी, यह गुलाम अब आप का जो बनने वाला है.”

उस की इस बात पर हम दोनों हंस पड़े.

“तो चलो यह पक्का रहा कि हम न तुम्हारे पेरैंट्स को निराश करेंगे और न मेरे पेरैंट्स को,” मैं ने कहा.

“बिलकुल.”

और फिर वह दिन भी आ गया जब दिल्ली के करोलबाग स्थित मेरे घर में जोरशोर से शहनाइयां बज रही थीं. हम ने संक्षेप में मगर पूरे रस्मोरिवाजों के साथ पहले इंडियन स्टाइल में शादी संपन्न की जिस में मैं ने मैरून कलर की खूबसूरत लहंगाचोली पहनी. इत्सिंग ने सुनहरे काम से सजी हलके नीले रंग की बनारसी शाही शेरवानी पहनी थी जिस में वह बहुत जंच रहा था. उस ने जिद कर के पगड़ी भी बांधी थी. उसे देख कर मेरी मां निहाल हो रही थीं.

अगले दिन हम ने चीनी तरीके से शादी की रस्में निभाई. मैं ने चीनी दुल्हन के अनुरूप खास लाल ड्रैस पहनी जिसे वहां किपाओ कहा जाता है. चेहरे पर लाल कपड़े का आवरण था. चीन में लाल रंग को खुशी, समृद्धि और बेहतर जीवन का प्रतीक माना जाता है. इसी वजह से दुलहन की ड्रैस का रंग लाल होता है.

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सुबह में गेटक्रैशिंग सेशन और टी सैरिमनी के बाद दोपहर में शानदार डिनर रिसैप्शन का आयोजन किया गया. दोनों परिवारों के लोग इस शादी से बहुत खुश थे. इस शादी को सफल बनाने में हमारे रिश्तेदारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी. दोनों ही तरफ के रिश्तेदारों को एकदूसरे की संस्कृति और रिवाजों के बारे में जानने का सुंदर अवसर भी मिला था.

इसी के साथ मैं ने और इत्सिंग ने नए जीवन की शुरुआत की. हमारे प्यारे से संसार में 2 फूल खिले. बेटा मा लोंग और बेटी रवीना. हम ने अपने बच्चों को इंडियन और चाइनीज दोनों ही कल्चर सिखाए थे.

आज दीवाली थी. हम बीजिंग में थे मगर इत्सिंग और मा लोंग ने कुरतापजामा और रवीना ने लहंगाचोली पहनी हुई थी.

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व्हाट्सएप वीडियो काल पर मेरे मम्मीपापा थे और बच्चों से बातें करते हुए बारबार उन की आंखें खुशी से भीग रही थीं.

सच तो यह है कि हमारा परिवार न तो चाइनीज है और न ही इंडियन. मेरे बच्चे एक तरफ पिंगपोंग खेलते हैं तो दूसरी तरफ क्रिकेट के भी दीवाने हैं. वे नूडल्स भी खाते हैं और आलू के पराठों के भी मजे लेते हैं. वे होलीदीवाली भी मनाते हैं और त्वान वू या मिड औटम फैस्टिवल का भी मजा लेते हैं. हर बंधन से परे यह तो बस एक खुशहाल परिवार है. यह एक जहान है प्यार भरा.

क्षितिज के उस पार: भाग -1

Dr. Kshama Chaturvedi

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

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‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

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घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

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ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था. मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’ मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’ ‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

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अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

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क्षितिज के उस पार: भाग -2

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था. मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

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क्षितिज के उस पार: भाग -3

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था. अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे. अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था. खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

एक बार फिर से : लॉकडाउन के बाद कैसे एक बार फिर क़रीब आए प्रिया और प्रकाश

“हैलो कैसी हो प्रिया ?”

मेरी आवाज में बीते दिनों की कसैली यादों से उपजी नाराजगी के साथसाथ प्रिया के लिए फिक्र भी झलक रही थी. सालों तक खुद को रोकने के बाद आज आखिर मैं ने प्रिया को फोन कर ही लिया था.

दूसरी तरफ से प्रिया ने सिर्फ इतना ही कहा,” ठीक ही हूं प्रकाश.”

हमेशा की तरह हमदोनों के बीच एक अनकही खामोशी पसर गई. मैं ने ही बात आगे बढ़ाई, “सब कैसा चल रहा है ?”

” बस ठीक ही चल रहा है .”

एक बार फिर से खामोशी पसर गई थी.

“तुम मुझ से बात करना नहीं चाहती हो तो बता दो?”

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“ऐसा मैं ने कब कहा? तुम ने फोन किया है तो तुम बात करो. मैं जवाब दे रही हूं न .”

“हां जवाब दे कर अहसान तो कर ही रही हो मुझ पर.” मेरा धैर्य जवाब देने लगा था.

“हां प्रकाश, अहसान ही कर रही हूं. वरना जिस तरह तुम ने मुझे बीच रास्ते छोड़ दिया था उस के बाद तो तुम्हारी आवाज से भी चिढ़ हो जाना स्वाभाविक ही है .”

“चिढ़ तो मुझे भी तुम्हारी बहुत सी बातों से है प्रिया, मगर मैं कह नहीं रहा. और हां, यह जो तुम मुझ पर इल्जाम लगा रही हो न कि मैं ने तुम्हें बीच रास्ते छोड़ दिया तो याद रखना, पहले इल्जाम तुमने लगाए थे मुझ पर. तुम ने कहा था कि मैं अपनी ऑफिस कुलीग के साथ…. जब कि तुम जानती हो यह सच नहीं था. ”

“सच क्या है और झूठ क्या इन बातों की चर्चा न ही करो तो अच्छा है. वरना तुम्हारे ऐसेऐसे चिट्ठे खोल सकती हूं जिन्हें मैं ने कभी कोर्ट में भी नहीं कहा.”

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“कैसे चिट्ठों की बात कर रही हो? कहना क्या चाहती हो?”

“वही जो शायद तुम्हें याद भी न हो. याद करो वह रात जब मुझे अधूरा छोड़ कर तुम अपनी प्रेयसी के एक फोन पर दौड़े चले गए थे. यह भी परवाह नहीं की कि इस तरह मेरे प्यार का तिरस्कार कर तुम्हारा जाना मुझे कितना तोड़ देगा.”

“मैं गया था यह सच है मगर अपनी प्रेयसी के फोन पर नहीं बल्कि उस की मां की कॉल पर. तुम्हें मालूम भी है कि उस दिन अनु की तबीयत खराब थी. उस का भाई भी शहर में नहीं था. तभी तो उस की मां ने मुझे बुला लिया. जानकारी के लिए बता दूं कि मैं वहां मस्ती करने नहीं गया था. अनु को तुरंत अस्पताल ले कर भागा था.”

“हां पूरी दुनिया में अनु के लिए एक तुम ही तो थे. यदि उस का भाई नहीं था तो मैं पूछती हूं ऑफिस के बाकी लोग मर गए थे क्या ? उस के पड़ोस में कोई नहीं था क्या?

“ये बेकार की बातें जिन पर हजारों बार बहस हो चुकी है इन्हें फिर से क्यों निकाल रही हो? तुम जानती हो न वह मेरी दोस्त है .”

“मिस्टर प्रकाश बात दरअसल प्राथमिकता की होती है. तुम्हारी जिंदगी में अपनी बीवी से ज्यादा अहमियत दोस्त की है. बीवी को तो कभी अहमियत दी ही नहीं तुम ने. कभी तुम्हारी मां तुम्हारी प्राथमिकता बन जाती हैं, कभी दोस्त और कभी तुम्हारी बहन जिस ने खुद तो शादी की नहीं लेकिन मेरी गृहस्थी में आग लगाने जरूर आ जाती है.”

“खबरदार प्रिया जो फिर से मेरी बहन को ताने देने शुरू किए तो. तुम्हें पता है न कि वह एक डॉक्टर है और डॉक्टर का दायित्व बहुत अच्छी तरह निभा रही है. शादी करे न करे तुम्हें कमेंट करने का कोई हक नहीं.”

“हां हां मुझे कभी कोई हक दिया ही कहां था तुम ने. न कभी पत्नी का हक दिया और न बहू का. बस घर के काम करते रहो और घुटघुट कर जीते रहो. मेरी जिंदगी की कैसी दुर्गति बना दी तुम ने…”

कहतेकहते प्रिया रोने लगी थी. एक बार फिर से दोनों के बीच खामोशी पसर गई थी.

“प्रिया रो कर क्या जताना चाहती हो? तुम्हें दर्द मिले हैं तो क्या मैं खुश हूं? देख लो इतने बड़े घर में अकेला बैठा हुआ हूं. तुम्हारे पास तो हमारी दोनों बच्चियां हैं मगर मेरे पास वे भी नहीं हैं.” मेरी आवाज में दर्द उभर आया था.

“लेकिन मैं ने तुम्हें कभी बच्चों से मिलने से  रोका तो नहीं न.” प्रिया ने सफाई दी.

“हां तुम ने कभी रोका नहीं और दोनों मुझ से मिलने आ भी जाती थीं. मगर अब लॉकडाउन के चक्कर में उन का चेहरा देखे भी कितने दिन बीत गए.”

चाय बनाते हुए मैं ने माहौल को हल्का करने के गरज से प्रिया को सुनाया, “कामवाली भी नहीं आ रही. बर्तनकपड़े धोना, झाड़ूपोछा लगाना यह सब तो आराम से कर लेता हूं. मगर खाना बनाना मुश्किल हो जाता है. तुम जानती हो न खाना बनाना नहीं जानता मैं. एक चाय और मैगी के सिवा कुछ भी बनाना नहीं आता मुझे. तभी तो ख़ाना बनाने वाली रखी हुई थी. अब हालात ये हैं कि एक तरफ पतीले में चावल चढ़ाता हूं और दूसरी तरफ अपनी गुड़िया से फोन पर सीखसीख कर दाल चढ़ा लेता हूं. सुबह मैगी, दोपहर में दालचावल और रात में फिर से मैगी. यही खुराक खा कर गुजारा कर रहा हूं. ऊपर से आलम यह है कि कभी चावल जल जाते हैं तो कभी दाल कच्ची रह जाती है. ऐसे में तीनों वक्त मेगी का ही सहारा रह जाता है.”

मेरी बातें सुन कर अचानक ही प्रिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

“कितनी दफा कहा था तुम्हें कि कुछ किचन का काम भी सीख लो पर नहीं. उस वक्त तो मियां जी के भाव ही अलग थे. अब भोगो. मुझे क्या सुना रहे हो?”

मैं ने अपनी बात जारी रखी,” लॉकडाउन से पहले तो गुड़िया और मिनी को मुझ पर तरस आ जाता था. मेरे पीछे से डुप्लीकेट चाबी से घर में घुस कर हलवा, खीर, कढ़ी जैसी स्वादिष्ट चीजें रख जाया करती थीं. मगर अब केवल व्हाट्सएप पर ही इन चीजों का दर्शन कराती हैं.”

“वैसे तुम्हें बता दूं कि तुम्हारे घर हलवापूरी, खीर वगैरह मैं ही भिजवाती थी. तरस मुझे भी आता है तुम पर.”

“सच प्रिया?”

एक बार फिर हमारे बीच खामोशी की पतली चादर बिछ गई .दोनों की आंखें नम हो रही थीं.

“वैसे सोचने बैठती हूं तो कभीकभी तुम्हारी बहुत सी बातें याद भी आती हैं. तुम्हारा सरप्राइज़ देने का अंदाज, तुम्हारा बच्चों की तरह जिद करना, मचलना, तुम्हारा रात में देर से आना और अपनी बाहों में भर कर सॉरी कहना, तुम्हारा वह मदमस्त सा प्यार, तुम्हारा मुस्कुराना… पर क्या फायदा ? सब खत्म हो गया. तुम ने सब खत्म कर दिया.”

“खत्म मैं ने नहीं तुम ने किया है प्रिया. मैं तो सब कुछ सहेजना चाहता था मगर तुम्हारी शक की कोई दवा नहीं थी. मेरे साथ हर बात पर झगड़ने लगी थी तुम.” मैं ने अपनी बात रखी.

“झगड़े और शक की बात छोड़ो, जिस तरह छोटीछोटी बातों पर तुम मेरे घर वालों तक पहुंच जाते थे, उन की इज्जत की धज्जियां उड़ा देते थे, क्या वह सही था? कोर्ट में भी जिस तरह के आरोप तुम ने मुझ पर लगाए, क्या वे सब सही थे ?”

“सहीगलत सोच कर क्या करना है? बस अपना ख्याल रखो. कहीं न कहीं अभी मैं तुम्हारी खुशियों और सुंदर भविष्य की कामना करता हूं क्यों कि मेरे बच्चों की जिंदगी तुम से जुड़ी हुई है और फिर देखो न तुम से मिले हुए इतने साल हो गए . तलाक के लिए कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने में भी हम ने बहुत समय लगाया. मगर आजकल मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगी है . तलाक के उन सालों का समय इतना बड़ा नहीं लगा था जितने बड़े लॉकडाउन के ये कुछ दिन लग रहे हैं. दिल कर रहा है कि लौकडाउन के बाद सब से पहले तुम्हें देखूं. पता नहीं क्यों सब कुछ खत्म होने के बाद भी दिल में ऐसी इच्छा क्यों हो रही है.” मैं ने कहा तो प्रिया ने भी अपने दिल का हाल सुनाया.

“कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी है प्रकाश. हम दोनों ने कोर्ट में एकदूसरे के खिलाफ कितने जहर उगले. कितने इल्जाम लगाए. मगर कहीं न कहीं मेरा दिल भी तुम से उसी तरह मिलने की आस लगाए बैठा है जैसा झगड़ों के पहले मिला करते थे.”

“मेरा वश चलता तो अपनी जिंदगी की किताब से पुराने झगड़े वाले, तलाक वाले और नोटिस मिलने से ले कर कोर्ट की चक्करबाजी वाले दिन पूरी तरह मिटा देता. केवल वे ही खूबसूरत दिन हमारी जिंदगी में होते जब दोनों बच्चियों के जन्म के बाद हमारे दामन में दुनिया की सारी खुशियां सिमट आई थी.”

“प्रकाश मैं कोशिश करूंगी एक बार फिर से तुम्हारा यह सपना पूरा हो जाए और हम एकदूसरे को देख कर मुंह फेरने के बजाए गले लग जाएं. चलो मैं फोन रखती हूं. तब तक तुम अपनी मैगी बना कर खा लो.”

प्रिया की यह बात सुन कर मैं हंस पड़ा था. दिल में आशा की एक नई किरण चमकी थी. फोन रख कर मैं सुकून से प्रिया की मीठी यादों में खो गया.

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