Hindi Story : भटकाव के बाद

Hindi Story : राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

Hindi Story : नैपकिंस का चक्कर

Hindi Story : शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

Hindi Story : नाज पर नाज

Hindi Story : अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं.

Hindi Story : ऐसा ही होता है

Hindi Story : जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मुझे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

Hindi Story : नाव पर गाड़ी

Hindi Story : बाहर अदालत का चपरासी चिल्ला कर कह रहा था, ‘‘दिनेश शर्मा हाजिर हो…’’

दिनेश चुपचाप कठघरे में जा कर खड़ा हो गया. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने दस्तावेजों को देखना बंद कर उस की ओर निगाह दौड़ाई. एकबारगी तो वे भी चौंकीं, फिर मुसकरा कर उस की ओर गहरी निगाहों से देखने लगीं, मानो कह रही हों, ‘मु झे पहचानते हो न. देखो, मु झे देखो. मैं वही देहाती लड़की हूं, जिसे तुम ने अपने अहम के चलते ठुकरा दिया था. आज मैं कहां हूं और तुम कहां हो.

‘तुम्हें अपनी शहरी सभ्यता और पढ़ाईलिखाई का बड़ा घमंड था न, मगर तुम कुछ कर नहीं पाए. लेकिन मैं अपनी मेहनत के बल पर बहुत अच्छी हालत में हूं और तुम इंसाफ के फैसले के लिए मेरे सामने कठघरे में खड़े हो.’

‘आज तो सारा हिसाबकिताब चुकता कर देगी,’ दिनेश मन में सोच रहा था. मगर लक्ष्मी उसी गंभीरता का भाव लिए बैठी थीं.

दोनों तरफ के वकील बहस में उल झे थे. लक्ष्मी उन की दलीलों को ध्यान से सुनते हुए दिनेश को देख रही थीं.

मामला जमीन के एक पुश्तैनी टुकड़े को ले कर था, जिस पर दिनेश एक मार्केट बनाना चाहता था. इस के लिए उस ने बाकायदा नगरनिगम से नक्शा पास करा कर काम भी शुरू कर दिया था. मगर उस के एक रिश्तेदार ने उस पर अपना दावा करते हुए कोर्ट से स्टे और्डर ले कर मार्केट का काम रुकवा दिया था.

‘यह लक्ष्मी आज मु झे नहीं छोड़ने वाली. इस से इंसाफ की उम्मीद करना बेकार है…’ दिनेश बारबार यही सोच रहा था, ‘पिछली बेइज्जती का बदला यह इस रूप में लेगी और मेरी मिल्कीयत से मु झे ही अलग कर देगी.’

2 साल पहले की ही तो बात थी, जब दिनेश ने लक्ष्मी को देखा था. उन का रिश्ता तकरीबन तय हो चुका था और वह दोस्तों के साथ उसे देखने लक्ष्मी के गांव गया था.

पहली ही नजर में दिनेश को लक्ष्मी कालीकलूटी, गांव की गंवार लड़कियों के समान दिखी थी. उन दिनों दिनेश राज्य लोक सेवा आयोग की प्रतियोगिता की तैयारी करते हवाई सपने देखा करता था. फिल्मी हीरो की तरह रंगढंग थे उस के.

दिनेश मुंहफट तो था ही, सो वह वहीं बोल पड़ा था, ‘इस गांव की गंवार सी दिखने वाली लड़की से शादी कर के मु झे अपना स्टेटस खराब करना है क्या?’

लक्ष्मी के घर वाले सन्न रह गए थे. मगर लक्ष्मी दबी आवाज में बोल पड़ी थी, ‘तो इस के लिए आप पर दबाव कौन डाल रहा है?’

‘अरे, यह लड़की तो बोलती भी है,’ वह मजाकिया लहजे में हंसते हुए बोला था, ‘मैं तो सोचता था कि गांव की लड़कियों के जबान नहीं होती.’

‘क्यों, गांव की लड़कियों के जबान क्यों नहीं होगी?’ लक्ष्मी आखिरकार हिम्मत कर के बोल पड़ी थी, ‘फिर मैं ने तो इसी साल ग्रेजुएशन किया है.’

‘तो कौन सा तीर मार लिया है तुम ने,’ दिनेश शर्मा ऐंठते हुए बोला था, ‘कोई एसडीओ, कलक्टर तो नहीं बन गईं. तुम्हारे जैसी ग्रेजुएट शहरों में चप्पलें चटकाते 100-100 रुपए की मास्टरी करती फिरती हैं.’

वहां से वापस लौटने के बाद दिनेश कई दिनों तक लक्ष्मी की चटकारे ले कर चर्चा किया करता था कि कैसे वह एक गंवार लड़की के चंगुल से बालबाल बच गया कि कैसे उस ने एक बातूनी, जवाब देने वाली लड़की से पिंड छुड़ा लिया है.

समय गुजरता रहा. इस बीच दिनेश ने अनेक प्रतियोगिता परीक्षाएं दीं, मगर वह सब में नाकाम रहा. इस बीच उस ने एमए की परीक्षा भी पास कर ली, मगर ढंग की कोई नौकरी न मिलने पर उस ने मैडिकल स्टोर की दुकान खोल ली.

दुकान ठीक ढंग से चलती न थी. तब उस ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर एक मार्केट बनाना शुरू किया, ताकि उस से किराए के रूप में ही कुछ आमदनी हो सके. मगर इस बीच उस जमीन पर उस के एक रिश्तेदार ने अपना मुकदमा ठोंक दिया.

अब उस जमीन पर स्टे और्डर था और वह मुकदमेबाजी में फंस कर फटेहाल हो चुका था. फिर भी एक उम्मीद थी कि वह मुकदमा जीत जाएगा, मगर अब लक्ष्मी को देख कर उस की यह आस भी खत्म होती नजर आती थी.

अपना बयान दे कर दिनेश बु झे मन के साथ कठघरे से वापस लौटा और बैंच पर अपनी पत्नी सरला के नजदीक बैठ गया.

‘‘यह केस हम हार जाएंगे…’’ दिनेश बोला, ‘‘मजिस्ट्रेट के हावभाव से यही लग रहा है कि फैसला हमारे खिलाफ जाएगा.’’

‘‘अभी से उलटेसीधे विचार मन में नहीं लाइए…’’ सरला बोली, ‘‘बड़े पदों पर बैठे लोग बहुतकुछ देखते हैं. वे कभी भी नाइंसाफी नहीं होने देंगे.’’

‘‘ये सब फालतू की बातें हैं…’’ दिनेश  झुं झला कर बोला, ‘‘तुम्हें पता है, वहां मजिस्ट्रेट के पद पर कौन बैठा है?’’

‘‘मजिस्ट्रेट के पद पर कोई औरत बैठी है, तो इस से क्या हुआ. उसे भी सहीगलत की सम झ होगी.’’

‘‘अरे, वह और कोई नहीं, वही लक्ष्मी है, जिस की मैं कभी बेइज्जती कर चुका हूं. इसी लक्ष्मी की कहानी तो मैं तुम्हें सुनाता रहता हूं. मगर, आज देखो, वह कहां बैठी है और मैं कहां खड़ा हूं.’’

दिनेश की बात सुन कर सरला सन्न रह गई.

‘‘कहां तो यह भरोसा किया था कि जल्दी ही अपनी मार्केट का उद्घाटन कर दूंगा और कहां यह आफत सिर पर आ गिरी…’’ दिनेश बुदबुदाया, ‘‘अब फैसले का इंतजार क्या करना, वह तो मेरे खिलाफ जाना ही है.’’

तमाम सुबूतों की जांचपड़ताल करने और गवाहों की दलीलों को सुनने के बाद लक्ष्मी ने फैसला तैयार कर दिया था. लक्ष्मी का फैसला जान कर दिनेश ताज्जुब में पड़ गया, क्योंकि लक्ष्मी ने उस के हक में फैसला दिया था.

फैसला हो जाने के साथ ही अदालत का वह कमरा खाली हो चुका था. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी पहले ही अपने केबिन में जा चुकी थीं.

लेकिन मुकदमे में जीत के बावजूद पता नहीं क्यों दिनेश को कुछ हार जाने का भी अहसास हो रहा था. फैसला उस के हक में गया है, उसे जैसे यकीन ही नहीं हो रहा था.

‘‘अब वापस नहीं चलना है क्या?’’ सरला की बातों से दिनेश चौंका.

सरला कह रही थी, ‘‘अभी हमें जल्दी से ढेरों काम निबटाने हैं.’’

‘‘पता नहीं क्यों, मु झे इस फैसले पर अभी भी यकीन नहीं हो रहा…’’ वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘सचमुच सरला, मु झे ऐसा लग रहा है, मानो मैं जीत कर भी हार गया हूं.’’

‘‘वह भी गांव की एक गंवार लड़की से… क्यों?’’ सरला की इस बात से दिनेश का सिर  झुक सा गया.

‘‘यह आप नहीं, आप का अहंकार बोल रहा है,’’ सरला कहती गई, ‘‘और देखा जाए तो आज आप के अहंकार की हार हुई है. इसे स्वीकार कीजिए. समय और हालात हमेशा एक से नहीं रहते. यह तो बस मौका मिलने की बात है.’’

‘‘मैं एक बार लक्ष्मी से मिलना चाहता था.’’

‘‘तो मिल लीजिए न.’’

दिनेश ने चपरासी से मिन्नतें कर कहा कि वह मजिस्ट्रेट साहिबा से मिलना चाहता है.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने उसे मिलने की इजाजत दे दी थी.

दिनेश सरला के साथ  िझ झकते हुए लक्ष्मी के केबिन में दाखिल हुआ. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी अपनी कुरसी पर बैठी थीं. उन्होंने दोनों को कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया, फिर चपरासी को चाय लाने का और्डर दिया.

‘‘हम आप के बड़े आभारी हैं,’’ बमुश्किल दिनेश के बोल फूटे, ‘‘आप ने हमारे हक में फैसला दे कर हमें अनेक मुसीबतों से बचा लिया है.’’

‘‘इस में आभार जैसी कोई बात नहीं…’’ लक्ष्मी हंस कर बोलीं, ‘‘मैं ने अपना फैसला किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं किया है. सुबूतों और गवाहों के बयान के मुताबिक मैं ने अपना फैसला सिर्फ इंसाफ के पक्ष में दिया है. यही मेरा फर्ज है. मैं भी इस देश के कायदे और कानून से बंधी हूं, और उन का सम्मान करती हूं.’’

दिनेश शर्मा पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया. वह शर्म से गड़ा जा रहा था. उस ने बमुश्किल चाय की प्याली थाम रखी थी. लक्ष्मी उस के संकोच को तोड़ती हुई सी बोलीं, ‘‘पुरानी बातों को भूल जाइए शर्मा साहब. जिंदगी में अनेक हादसे घटते रहते हैं. इस से जिंदगी रुक नहीं जाती. आप चाय पीजिए.’’

‘‘हमें आप की बात सुन कर बहुत खुशी हुई…’’ सरला चाय का प्याला रखते हुए बोली, ‘‘अगले महीने मार्केट का उद्घाटन होना है. अगर आप उस दिन हमारे यहां आएंगी, तो हमारी खुशी दोगुनी हो जाएगी.’’

‘‘यह खुशी की बात है कि आप के मार्केट का उद्घाटन होने वाला है…’’ लक्ष्मी बोल रही थीं, ‘‘मु झे भी उस वक्त आप के यहां आने से खुशी होती, मगर मैं ने बताया न कि मैं कुछ कायदेकानून से बंधी हूं. उन में से एक कानून यह भी है कि मजिस्ट्रेट लोग उन लोगों के यहां के कार्यक्रमों में नहीं जाते, जिन के मुकदमे वे देखते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं…’’ सरला अपनी निश्छल हंसी बिखेरते हुए बोली, ‘‘आप कायदेकानून से बंधी हैं, इसलिए आप नहीं आ सकतीं. मगर हमारे साथ तो ऐसा कोई बंधन नहीं. हम तो आप के यहां आ ही सकते हैं?’’

‘‘शौक से आइए…’’ लक्ष्मी अपनी गहरी नजरों से दिनेश शर्मा को देखते हुए बोलीं, ‘‘मु झे बहुत खुशी होगी, मगर साथ में इन्हें भी लाना.’’

एक सम्मिलित हंसी के बीच दिनेश संकोच से गड़ गया. वह अपने बौनेपन के अहसास से दबा जा रहा था. उद्घाटन के दिन भी क्या वह अपने इसी छोटेपन के अहसास से घिरा रहेगा. हां, यही उस की सजा है, जिसे उसे भुगतना ही होगा.

उद्घाटन के दिन दिनेश शर्मा की खुशी देखते बनती थी. उस का सालों का देखा हुआ सपना जो साकार हो रहा था. शहर के बिजी इलाके में 8-8 दुकानों की मार्केट का मालिक होना माने रखता था. आज मार्केट का उद्घाटन हुआ था. सैकड़ों लोगों ने उस के द्वारा कराए गए इस भव्य कार्यक्रम में आ कर भोजन किया था.

एकएक कर सारे मेहमान विदा हो चुके थे. दिनेश एक कुरसी पर बैठा कुछ सोच रहा था. अचानक सरला उस के पास जा कर खड़ी हो गई. लाल रंग की बनारसी साड़ी और जड़ाऊ गहनों से लदीफदी थी वह. वह उसे एकटक देखता रह गया. उस के हाथ में लाल रंग के एक मखमली डब्बे में चांदी का एक छोटा सा दीया था.

‘‘चलना नहीं है क्या?’’ सरला बोली, ‘‘फिर हमें वहां जा कर लौटना भी तो है.’’

‘‘अब कहां जाना है?’’ वह हैरान होते हुए बोला.

‘‘अरे, मजिस्ट्रेट लक्ष्मी के घर पर,’’ सरला हंस कर बोली, ‘‘वे आप का इंतजार कर रही होंगी.’’

दिनेश अनचाहे भाव के साथ उठ खड़ा हुआ.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने अपने पति आनंद के साथ उन का स्वागत किया. उस के पति आनंद शहर की यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे.

‘‘लक्ष्मी ने आप के बारे में मु झे सबकुछ पहले ही बता दिया है,’’ आनंद हंसते हुए बोले, ‘‘चलिए, आप ने इन्हें नकारा, तो मु झे ये मिल गईं.’’

‘‘मैं अपने किए पर वाकई बहुत शर्मिंदा हूं…’’ दिनेश बमुश्किल बोल पा रहा था, ‘‘मु झे अब अपनी गलती का अहसास हो रहा है, इसलिए अब मु झे और शर्मिंदा न कीजिए.’’

‘‘फिर भी आप को आगे का हाल जानने की उत्सुकता तो होगी ही,’’ लक्ष्मी उन्हें देखते हुए बोलीं, ‘‘उस दिन की घटना के बाद मैं पहले तो खूब रोई, फिर जीजान से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गई. पहली बार तो नाकामी मिली, मगर दूसरी बार में मेरा चयन राज्य लोक सेवा आयोग के लिए हो गया. इस के बाद तो मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.’’

‘‘सिर्फ एक बार,’’ लक्ष्मी के पति आनंद मुसकरा कर बोले, ‘‘शादी के समय को छोड़ कर.’’

एक सम्मिलित हंसी वहां गूंज उठी. मिठाइयों की प्लेट सजाते हुए लक्ष्मी ने दिनेश को देखा. वह नजरें चुरा रहा था.

सरला अपने साथ लाए चांदी के दीपक को वहीं बैठक में जला चुकी थी. उस की रोशनी में वह खो सी गई थी.

‘‘क्या करती लक्ष्मी बहन, मैं आप के लिए कुछ नहीं कर सकती, आप कायदेकानूनों से जो बंधी हैं.’’

‘‘किस कानून से…’’

‘‘यही कि आप हम से उपहार नहीं स्वीकार कर सकतीं, क्योंकि आप ने हमारा मामला देखा है.’’

फिर एक सम्मिलित हंसी गूंजी.

दिनेश किसी से नजरें नहीं मिला पा रहा था. विदा लेते वक्त लक्ष्मी ने उसे दोबारा देखा.

‘क्या अजीब बात है…’ लक्ष्मी ने सोचा, ‘कभीकभी गाड़ी को भी नदी पार कराने के लिए नाव पर चढ़ाया जाता है और तब उसे अपने छोटेपन का पता चलता है. चलो जो हुआ, अच्छा ही हुआ. किसी का अहंकार तो टूटा.’

Hindi Story : बहू बेटी

Hindi Story : जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ ूपोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

Hindi Story : खरीदारी – अपमान का कड़वा घूंट

Hindi Story : प्रात: के 9 बज रहे थे. नाश्ते आदि से निबट कर बिक्री कर अधिकारी चंद्रमोहन समाचारपत्र पढ़ने में व्यस्त था. निकट रखे विदेशी टेपरिकार्डर पर डिस्को संगीत चल रहा था, जिसे सुन कर उस की गरदन भी झूम रही थी.

तभी उस की पत्नी सुमन ने निकट बैठते हुए कहा, ‘‘आज शाम को समय पर घर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कुछ खरीदारी करने जाना है.’’

‘‘कोशिश करूंगा. वैसे आज 1-2 जगह निरीक्षण पर जाना है.’’

‘‘निरीक्षण को छोड़ो. वह तो रोज ही चलता है. आज कुछ चीजें खरीदनी जरूरी हैं.’’

‘‘मैं ने अभी 3-4 दिन पहले ही तो खरीदारी की थी. पूरे एक हजार रुपए का सामान लिया था,’’ चंद्रमोहन ने कहा.

‘‘तो क्या और किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ती?’’ सुमन ने तुनक कर कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा? देखो, सुमन, हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं है. ऐश्वर्य के सभी साधन हैं हमारे यहां, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, वीसीआर, स्कूटर तथा बहुत सी विदेशी चीजें. नकद पैसे की भी कमी नहीं है. दोनों बच्चे भी अंगरेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है. जब से चंदनगढ़ में बदली हुई है मजा आ गया है,’’ सुमन ने प्रसन्न हृदय से कहा.

‘‘हां, 2 साल में ही सब कुछ हो गया. जब हमलोग यहां आए थे तो हमारे पास कुछ भी नहीं था. बस, 2-3 पुरानी टूटी हुई कुरसियां, दहेज में मिला पुराना रेडियो, बड़ा पलंग तथा दूसरा सामान. यहां के लोग गाय की तरह बड़े सहनशील और डरपोक हैं. चाहे जैसे दुह लो, कभी कुछ नहीं कहते,’’ चंद्रमोहन बोला.

तभी दरवाजे पर लगी घंटी बजी.

सुमन ने दरवाजा खोला. सामने खड़े व्यक्ति ने अभिवादन कर पूछा, ‘‘साहब हैं?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘उन से मिलना है.’’

‘‘आप का नाम?’’

‘‘मुझे सोमप्रकाश कहते हैं.’’

कुछ क्षण बाद सुमन ने लौट कर कहा, ‘‘आइए, अंदर चले आइए.’’

चंद्रमोहन को बैठक में बैठा देख कर सोमप्रकाश ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और प्लास्टिक के कागज में लिपटा एक डब्बा मेज पर रख दिया.

सुमन दूसरे कमरे में जा चुकी थी.

‘‘कहिए?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘मैं सोम एंड कंपनी का मालिक हूं. अभी हाल ही में आप ने हमारी फर्म का निरीक्षण किया था लेकिन जितने माल की बिक्री नहीं हुई उस से कहीं अधिक की मान ली गई है. अगर आप की कृपादृष्टि न हुई तो मैं व्यर्थ में ही मारा जाऊंगा. आप से यही प्रार्थना करने आया हूं,’’ सोमप्रकाश ने दयनीय स्वर में कहा.

‘‘मैं तुम जैसे व्यापारियों को बहुत अच्छी तरह जानता हूं. जितना माल बेचते हो उस का चौथाई भी कागजात में नहीं दिखाते, और इस तरह दो नंबर का अंधाधुंध पैसा बना कर टैक्स की चोरी कर के सरकार को चूना लगाते हो. तुम लोगों की वजह से ही सरकार को हर साल बजट में घाटा दिखाना पड़ता है,’’ चंद्रमोहन ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोमप्रकाश अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया. आखिर वह कर ही क्या सकता था. उस ने कमरे में दृष्टि डाली. हर ओर संपन्नता की झलक दिखाई दे रही थी. फर्श पर महंगा कालीन बिछा था. वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था परंतु गले में मानो कुछ अटक सा गया था. बहुत प्रयत्न कर के स्वर में मिठास घोल कर बोला, ‘‘साहब, मैं आप की कुछ सेवा करना चाहता हूं. ये 2 हजार रुपए रख लीजिए. बच्चों की मिठाई के लिए हैं.’’

‘‘काम तो बहुत मुश्किल है, फिर भी जब तुम आए हो तो मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा काम बन जाए.’’

‘‘आप की बहुत कृपा होगी. जब आप निरीक्षण पर आए थे तो मैं वहां नहीं था. मुझे रात ही पता चला तो सुबह होते ही मैं आप के दर्शन करने चला आया,’’ सोमप्रकाश बोला और उठ कर बाहर चला गया.

चंद्रमोहन ने सुमन को बुला कर कहा, ‘‘लो, भई, ये रुपए रख लो, अभी एक असामी दे गया है.’’

सुमन रुपए उठा कर दूसरे कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी फिर बज उठी.

चंद्रमोहन ने दरवाजा खोला. सामने एडवोकेट प्रेमलाल को खड़ा देख चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोला, ‘‘अरे, आप. आइए, पधारिए.’’

प्रेमलाल कमरे में आ कर सोफे पर बैठ गया.

‘‘सब से पहले यह बताइए कि क्या लेंगे. ठंडा या गरम?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मैं अभी नाश्ता कर के आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी, कुछ तो लेना ही होगा,’’ कहते हुए चंद्रमोहन ने सुमन को चाय लाने का संकेत किया.

प्रेमलाल की जरा ज्यादा ही धाक थी. बिक्री कर के वकीलों की संस्था में उस की बात कोई न टालता था. इस बार इस संस्था के अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो रहा था. उस के निर्विरोध चुने जाने की पूरी संभावना थी.

चंद्रमोहन ने पूछा, ‘‘कहिए, कैसे कष्ट किया?’’

कल आप ने विनय एंड संस का निरीक्षण किया था. वहां से कुछ कागजात भी पकड़े गए. उस निरीक्षण की रिपोर्ट बदलवाने और आप ने जो कागजात पकड़े हैं उन्हें वापस लेने आया हूं.

‘‘आप के उन लोगों से कुछ निजी संबंध हैं क्या? उस फर्म में बहुत हेराफेरी होती है. वैसे भी ये व्यापारी टैक्स की बहुत चोरी करते हैं. यों समझिए कि खुली लूट मचाते हैं. यदि ये ईमानदारी…’’

‘‘ईमानदारी…’’ हंस दिया प्रेमलाल, ‘‘यह शब्द सुनने में जितना अच्छा लगता है, व्यवहार में उतना ही कटु है. ऐसा कौन व्यक्ति है जो सचमुच ईमानदारी से काम कर रहा हो? आखिर दुकानदार कैसे ईमानदार रह सकता है, जब सरकार उस पर तरहतरह के टैक्स लगा कर उसे स्वयं इन की चोरी करने के लिए प्रेरित करती है. अब आप अपने को ही लीजिए. आप का गिनाचुना वेतन है, फिर भी आप हर महीने हजारों रुपए खर्च करते हैं. क्या आप कह सकते हैं कि आप स्वयं ईमानदार हैं?’’

चंद्रमोहन खिसियाना सा हो कर रह गया.

‘‘हमाम में हम सब नंगे हैं. जिसे आप ने अभी बेईमानी कहा उस में हम सब का हिस्सा है. जब सरकार ने ही बिना सोचेसमझे व्यापारियों पर इतने टैक्स लाद रखे हैं तो वह बेचारा भी क्या करे?’’

तभी सुमन चाय ले कर आ गई.

चाय की चुसकी ले कर प्रेमलाल ने जेब से एक हजार रुपए निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘भई, यह काम आज शाम तक कर दीजिएगा. देखिए, कुछ इस ढंग से चलिए कि सभी का काम चलता रहे, अगर मुरगी ही न रही तो अंडा कैसे हासिल होगा? और हां, वे कागजात…’’

‘‘दे दूंगा,’’ मना करने का साहस चंद्रमोहन में नहीं था.

‘‘हां, एक बात और. कल मुझे एक दुकानदार ने एक शिकायत की थी.’’

‘‘कैसी शिकायत?’’

‘‘यह कि आप का चपरासी रामदीन दुकानदारों से यह कह कर सामान ले जाता है कि साहब ने मंगवाया है. कल आप ने कुछ सामान मंगवाया था क्या?’’

‘‘नहीं तो…’’

‘‘तो अपने चपरासी पर जरा ध्यान रखिए. कहीं ऐसा न हो कि मजे वह करता  रहे और मुसीबत में आप फंस जाएं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस नालायक को ठीक कर दूंगा,’’ चंद्रमोहन ने रोष भरे स्वर में कहा.

शाम को चंद्रमोहन ने गांधी बाजार में एक दुकान के आगे अपना स्कूटर खड़ा किया और फिर सुमन व दोनों बच्चों के साथ उस दुकान की ओर बढ़ा.

काउंटर पर खड़े दुकानदार  ने चंद्रमोहन को देख कर क्षण भर के लिए बुरा सा मुंह बनाया, मानो उसे कोई बहुत कड़वी दवा निगलनी पड़ेगी. वह चंद्रमोहन की आदत से परिचित था. पहले भी

2-3 बार चंद्रमोहन सपरिवार उस की दुकान पर आ चुका था और उसे मजबूरन सैकड़ों का माल बिना दाम लिए चंद्रमोहन को देना पड़ा था.

यद्यपि चंद्रमोहन ने उस सामान के दाम पूछे थे, पर दुकानदार जानता था कि अगर उस ने दाम लेने की हिमाकत की तो चंद्रमोहन उस का बदला उस का बिक्री कर बढ़ा कर लेगा. इसलिए दूसरे ही क्षण उस ने चेहरे पर जबरदस्ती मुसकान बिखरते हुए कहा, ‘‘आइए, साहब…आइए.’’

‘‘सुनाइए, क्या हाल है?’’

‘‘आप की कृपा है, साहब. कहिए क्या लेंगे, ठंडा या गरम?’’ न चाहते हुए भी दुकानदार को पूछना पड़ा.

‘‘कुछ नहीं, रहने दीजिए.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो लेना ही होगा.’’ दुकानदार ने नौकर को 4 शीतल पेय की बोतलें लाने को कहा.

सुमन बोली, ‘‘मुझे लिपस्टिक और शैंपू दिखाइए.’’

दुकानदार ने कई तरह की लिप-स्टिक दिखाए हैं. सुमन उन में से पसंद करने लगी.

शीतल पेय पी कर लिपस्टिक, शैंपू, सेंट, स्प्रे, टेलकम, ब्रा तथा अन्य सामान बंधवा लिया था.

‘‘कितना बिल हो गया?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

लगभग 300 रुपए का सामान हो गया था. फिर भी दुकानदार मुसकरा कर बोला, ‘‘कैसा बिल, साहब? यह तो आप ही की दुकान है. कोई और सेवा बताएं?’’

‘‘धन्यवाद,’’ कहता हुए चंद्रमोहन अपने परिवार के साथ दुकान से बाहर निकल आया.

कुछ दुकानें छोड़ कर चंद्रमोहन सिलेसिलाए कपड़ों की दुकान पर आ धमका. दुकानदार वहां नहीं था. उस का 15 वर्षीय लड़का दुकान पर खड़ा था, तथा 2 नौकर भी मौजूद थे.

‘‘इस दुकान के मालिक किधर हैं?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘किसी काम से गए हैं,’’ लड़के ने उत्तर दिया.

‘‘कब तक आएंगे?’’

‘‘पता नहीं, शायद अभी आ जाएं.’’

‘‘ठीक है, तुम इन दोनों बच्चों के कपड़े दिखाओ.’’

नौकर बच्चों के सूट दिखाने लगा. 2 सूट पसंद कर बंधवा लिए गए.

‘‘कितना बिल हुआ?’’ चंद्रमोहन ने पूछा.

‘‘230 रुपए.’’

‘‘तुम हमें पहचानते नहीं?’’

‘‘जी नहीं,’’ लड़के ने कहा.

‘‘खैर, हम यहां के बिक्री कर अधिकारी हैं. जब दुकान के मालिक आ जाएं तो उन्हें बता देना कि चंद्रमोहन साहब आए थे और ये दोनों सूट पसंद कर गए हैं. वह इन्हें घर पर ले कर आ जाएंगे. क्या समझे?’’

‘‘बहुत अच्छा, कह दूंगा,’’ लड़का बोला.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल आया और सुमन से बोला, ‘‘ये दोनों सूट तो घर पहुंच जाएंगे. लड़के का बाप होता तो ये अभी मिल जाते. अच्छा, अब और भी कुछ लेना है?’’

‘‘हां, कुछ क्राकरी भी तो लेनी है.’’

‘‘जरूर. हमें कौन से पैसे देने हैं,’’ कहता हुआ चंद्रमोहन क्राकरी की एक दुकान की तरफ बढ़ा.

देखते ही दुकानदार का माथा ठनका. वह चंद्रमोहन की आदत को अच्छी तरह जानता था. पहले भी कभी चंद्रमोहन, कभी उस की पत्नी और कभी उस का चपरासी बिना पैसे दिए सामान ले गया था. फिर भी दुकानदार को मधुर मुसकान के साथ उस का स्वागत करना पड़ा, ‘‘आइए, साहब, बड़े दिनों बाद दर्शन दिए.’’

‘‘कैसे हैं आप?’’

‘‘बस, जी रहे हैं, साहब, बहुत मंदा चल रहा है.’’

‘‘हां, मंदीतेजी तो चलती ही रहती है.’’

‘‘कल आप का चपरासी रामदीन आया था, साहब. आप ने कुछ मंगाया था न?’’

‘‘हम ने, क्या ले गया वह?’’

‘‘एक दरजन गिलास.’’

चंद्रमोहन चपरासी की इस हरकत पर परदा डालते हुए बोला, ‘‘अच्छा वे गिलास…वे कुछ बढि़या नहीं निकले. वापस भेज दूंगा. अब कोई बढि़या सा टी सेट और कुछ गिलास दिखाइए.’’

चंद्रमोहन व सुमन टी सेट पसंद करने लगे.

तभी अचानक जैसे कोई भयंकर तूफान सा आ गया. बाजार में भगदड़ मचने लगी. दुकानों के दरवाजे तेजी से बंद होने लगे. 2-3 व्यक्ति चिल्ला रहे थे, ‘‘दुकानें बंद कर दो. जल्दी से चौक में इकट्ठे हो जाओ.’’

दुकानदार ने चिल्लाने वाले एक आदमी को बुला कर पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘झगड़ा हो गया है.’’

‘‘झगड़ा? किस से?’’

‘‘एक बिक्री कर अधिकारी से.’’

‘‘क्या बात हुई?’’

‘‘बिक्री कर विभाग के छापामार दस्ते का एक अधिकारी गोविंदराम की दुकान पर पहुंचा. 500 सौ रुपए का सामान ले लिया. जब उस ने पैसे मांगे तो वह अधिकारी आंखें दिखा कर बोला, ‘हम को नहीं जानता.’ दुकानदार भी अकड़ गया. बात बढ़ गई. वह अधिकारी उसे बरबाद करने की धमकी दे गया है. इन बिक्री कर वालों ने तो लूट मचा रखी है. माल मुफ्त में दो, नहीं तो बरबाद होने के लिए तैयार रहो. मुफ्त में माल भी खाते हैं और ऊपर से गुर्राते भी हैं.’’

‘‘दुकानें क्यों बंद कर रहे हो?’’ दुकानदार ने पूछा.

उस ने कहा, ‘‘बाजार बंद कर के जिलाधिकारी के पास जाना है. आखिर कब तक इस तरह हम लोगों का शोषण होता रहेगा? एक न एक दिन तो हमें इकट्ठे हो कर इस स्थिति का सामना करना ही होगा.

‘‘इन अफसरों की भी तो जांचपड़ताल होनी चाहिए. ये जब नौकरी पर लगते हैं तब इन के पास क्या होता है? और फिर 2-4 साल के बाद ही इन की हालत कितनी बदल जाती है. अब तुम जल्दी दुकान बंद करो. सब दुकानदार चौक में इकट्ठे हो रहे हैं. अब इन मुफ्तखोर अधिकारियों की सूची दी जाएगी. अखबार वालों को भी इन अधिकारियों के नाम बताए जाएंगे,’’ कहता हुआ वह व्यक्ति चला गया.

चंद्रमोहन को लगा मानो यह जलूस छापामार दस्ते के उस अधिकारी के विरुद्ध नहीं, स्वयं उसी के विरुद्ध जाने वाला है. वह भी तो मुफ्तखोर है. आज नहीं तो कल उस का भी जलूस निकलेगा. समाचारपत्रों में उस के नाम की भी चर्चा होगी. उसे अपमानित हो कर इस नगर से निकलना पड़ेगा. नगर की जनता अब जागरूक हो रही है. उसे अपनी यह आदत बदलनी ही पड़ेगी.

दुकानदार ने उपेक्षित स्वर में पूछा, ‘‘हां, साहब, आप फरमाइए.’’

चंद्रमोहन की हालत पतली हो रही थी. उस ने शुष्क होंठों पर जीभ फेर कर कहा, ‘‘आज नहीं, फिर कभी देख लेंगे. आज तो आप भी जल्दी में हैं.’’

‘‘ठीक है.’’ दुकानदार ने गर्वित मुसकान से चंद्रमोहन की ओर देखा और दुकान बंद करने लगा.

चंद्रमोहन दुकान से बाहर निकल कर चल दिया. उसे ग्लानि हो रही थी कि आज वह बहुत गलत समय खरीदारी करने घर से निकला.

‘बच्चू, बंद कर के जाओगे कहां? किसी और दिन सही. आखिर हमारी ताकत तो बेपनाह है,’ मन ही मन बुदबुदाते हुए उस ने कहा.

Hindi Story : डर – क्या फौज से सुरेश को डर लगता था

Hindi Story : मैं सुबह की सैर पर था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है, मैं ने खुद से ही प्रश्न किया. देखा, यह तो अमृतसर से कौल आई है.

‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो फूफाजी, प्रणाम, मैं सुरेश

बोल रहा हूं?’’

‘‘जीते रहो बेटा. आज कैसे याद किया?’’

‘‘पिछली बार आप आए थे न. आप ने सेना में जाने की प्रेरणा दी थी. कहा था, जिंदगी बन जाएगी. सेना को अपना कैरियर बना लो. तो फूफाजी, मैं ने अपना मन बना लिया है.’’

‘‘वैरी गुड’’

‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’

‘‘तुम अपनी मम्मी से मेरी बात करवाओ.’’

थोड़ी देर बाद शकुन लाइन पर आई, ‘‘पैरी पैनाजी.’’

‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.

‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे

फौज में.’’

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात से?’’

‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’

‘‘क्या सिविल में लोग नहीं मरते? कीड़ेमकोड़ों की तरह मर जाते हैं. लड़ाई में तो शहीद होते हैं, तिरंगे में लिपट कर आते हैं. उन को मर जाना कह कर अपमानित मत करो, शकुन. फौज में तो मैं भी था. मैं तो अभी तक जिंदा हूं. 35 वर्ष सेना में नौकरी कर के आया हूं. जिस को मरना होता है, वह मरता है. अभी परसों की बात है, हिमाचल में एक स्कूल बस खाई में गिर गई. 35 बच्चों की मौत हो गई. क्या वे फौज में थे? वे तो स्कूल से घर जा रहे थे. मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’

‘‘जी, कारगिल की लड़ाई.’’

‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’

‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’

‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती  ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’

मैं थोड़ी देर के लिए रुका. ‘‘दूसरे, सुरेश इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के रूप में जाएगा. इन्वैंट्री का मतलब है, स्टोर यानी ऐसे अधिकारी जो स्टोर को कंट्रोल करेंगे. वह सेना की किसी सप्लाई कोर में जाएगा. ये विभाग सेना के मजबूत अंग होते हैं, जो लड़ने वाले जवानों के लिए हर तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं. लड़ाई में भी ये पीछे रह कर काम करते हैं. और फिर तुम जानती हो, जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु तक का रास्ता तय हो जाता है. जीवन उसी के अनुसार चलता है.

‘‘तो कोई डर नहीं है?

‘‘मौत से सब को डर लगता है, लेकिन इस डर से कोईर् फौज में न जाए यह एकदम गलत है. दूसरे, सुरेश के इतने नंबर नहीं हैं कि  वह हर जगह अप्लाई कर सके. कंपीटिशन इतना है कि अगर किसी को एमबीए मिल रहे हैं तो एमए पास को कोई नहीं पूछेगा. एकएक नंबर के चलते नौकरियां नहीं मिलती हैं. बीकौम 54 प्रतिशत नंबर वाले को तो बिलकुल नहीं. सुरेश अच्छी जगहों के लिए अप्लाई कर ही नहीं सकता. तुम्हें अब तक इस का अनुभव हो गया होगा शकुन, इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘जी, वहां नंबरों का चक्कर तो

नहीं पड़ेगा.’’

‘‘अच्छा एकेडैमिक कैरियर हर जगह देखा जाता है. परंतु सेना के अपने मापदंड हैं. उसी के अनुसार सिलैक्शन किया जाता है. वहां कोईर् आरक्षण का चक्कर नहीं होता. वहां उन को औलराउंडर चाहिए जो आत्मविश्वास से भरा हो, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता रखता हो, दिमाग और शरीर से स्वस्थ हो. और हर तरह का काम करने में समर्थ हो. फिर वे उन को अपनी ट्रेनिंग से सेना के अनुसार ढाल लेते हैं. मेरी सुरेश से बात करवाओ. मैं उसे बताऊंगा कि कैसे करना है,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, जी.’’

‘‘दिल्ली के एस एन दासगुप्ता कालेज ने अमृतसर में कोचिंग ब्रांच खोली है जो आईएएस, आईपीएस, सेना में अफसर बनने के लिए इच्छुक नौजवानों को कोचिंग देता है. वह यूपीएससी की अन्य परीक्षाओं की भी तैयारी करवाता है. तुम्हें पता है, आजकल सब औनलाइन होता है. वहां चले जाओ. वे इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के लिए औनलाइन अप्लाई करवा देंगे. वहीं तुम्हें इस की लिखित परीक्षा के लिए कोचिंग लेनी है. अगर लिखित परीक्षा पास कर लेते हो तो वहीं इंटरव्यू की तैयारी की कोचिंग भी लेनी है. वे तुम्हें इस प्रकार तैयारी करवाएंगे कि तुम्हारे 99 प्रतिशत सफल होने के चांस रहेंगे.’’

‘‘पर फूफाजी, मेरे पास उन का पता नहीं है.’’

‘‘यार, आजकल सारी सूचनाएं गूगल पर मिल जाती हैं. गूगल पर सर्च मारो, सब पता चल जाएगा. फिर मुझे बताना कि क्या हुआ.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

कुछ दिनों बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘फूफाजी, मुझे पता चल गया था. मैं ने औनलाइन अप्लाई कर दिया है. कोचिंग सैंटर ने अप्लाई और लिखित परीक्षा की तैयारी के लिए 10 हजार रुपए लिए हैं और साथ में यह गारंटी भी दी है कि लिखित परीक्षा वह अवश्य क्लीयर कर ले.’’

‘‘सुरेश, यह उन का व्यापार है. ऐसा वे सब से कहते होंगे जो उन के पास परीक्षा की तैयारी के लिए जाते हैं. यह औल इंडिया बेस की परीक्षा है. इस में सब से अधिक तुम्हारी खुद की मेहनत रंग लाएगी. तुम से अच्छे भी होंगे और खराब भी. बस, रातदिन तुम्हें मेहनत करनी है बिना यह सोचे कि तुम्हारा एकेडैमिक कैरियर कैसा था. यदि तुम ने लिखित परीक्षा पास कर ली तो समझो 50 प्रतिशत मोरचा फतेह कर लिया.’’

‘‘जी, फूफाजी. मैं ईमानदारी से मेहनत करूंगा. लो एक सैकंड पापा से बात करें.’’

‘‘नमस्कार, जीजाजी.’’

‘‘नमस्कार, कैसे हो विपिन?’’

‘‘ठीक हूं, जीजाजी. यह जो सुरेश के लिए सोचा गया है, क्या वह ठीक रहेगा.’’

‘‘बिलकुल ठीक रहेगा. अगर सुरेश सिलैक्ट हो जाता है तो उस की जिंदगी बन जाएगी. वह लैफ्टिनैंट बन कर निकलेगा. क्लास वन गैजेटेड अफसर. सेना की सारी सुविधाएं उसे प्राप्त होगी. उन सुविधाओं के प्रति आम आदमी सोच भी नहीं सकता. ट्रेनिंग के दौरान ही उसे 20 हजार रुपए भत्ता मिलेगा, रहनाखाना फ्री. पासिंगआटट के बाद इस की

55 हजार रुपए से ऊपर सैलरी होगी. वहीं साथ में कई तरह के भत्ते भी मिलेंगे. सारी उम्र न केवल आप को बल्कि पूरे परिवार के रहनेखाने की चिंता नहीं रहेगी, यानी रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, जीजाजी, बस एक ही डर है, बेमौत मारे जाने का.’’

‘‘मैं शकुन को सबकुछ समझा चुका हूं, मानता हूं, यह डर उस समय भी था जब मैं सेना में गया था. सेना की इस सेवा के दौरान मैं ने 2 लड़ाइयां भी लड़ीं. मुझे  कुछ नहीं हुआ. जिस की आई होती है, वही मरता है. मैं आप को अपने जीवन की एक घटना बताना चाहता हूं. 65 की लड़ाई में हम सियालकोट सैक्टर से पाकिस्तान में घुसे थे. सारा स्टोर 2 गाडि़यों में ले कर चल रहे थे. एक गाड़ी में मैं और मेरा ड्राइवर था. दूसरी गाड़ी में एक बंगाली लड़का और उस का ड्राइवर था. पाकिस्तान में हम आसानी से घुसते चले गए. लड़ाई हम से कोई 10 किलोमीटर आगे चल रही थी. हम लोगों को केवल हवाई हमलों का डर था और वही हुआ.

‘‘जैसे ही हम ने पाकिस्तान के चारवा गांव को क्रौस किया, हम पर हवाई हमला हुआ. गाडि़यों से निकल कर जिस को जहां जगह मिली लेट गया. मेरे बराबर में मेरा ड्राइवर और उस के बराबर में वह बंगाली लड़का लेटा था. ऊपर से गन का ब्रस्ट आया और गोलियां ड्राइवर के शरीर से इस प्रकार निकल गईं जैसे कपड़े की सिलाई की गई हो. उस ने चूं भी नहीं की. उसी वह मर गया. हम लोगों पर भी खून और मिट्टी पड़ी थी.

‘‘मैं ने आप को डराने के लिए यह घटना नहीं सुनाई है बल्कि यह बताने के लिए कि जिस की मौत आनी होती है, वही शहीद होता है और यह रिस्क हर जगह रहता है. आप यहां सिविल में भी घर से निकलो तो जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता. फिर भी सब अपनेअपने कामों पर घरों से निकलते हैं. इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘ठीक है जीजाजी, पर सुना है, सेना में वही लोग जाते हैं जो भूखे और गरीब हैं, जिन के पास सेना में जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.’’

‘‘यह बात सही है विपिन. जिन के घरों में गरीबी है, दालरोटी के लाले पड़े हैं, अकसर वही लोग सेना में जाते हैं और जब तक यह गरीबी रहेगी, दालरोटी के लाले रहेंगे, देश को सैनिकों की कमी नहीं रहेगी.

‘‘किसी नेता या अभिनेता के बच्चे कभी सेना में नहीं जाते हैं. यहां तक कि जम्मूकश्मीर के अलगांववादी नेताओं के बच्चे भी सेना में नहीं जाते. वे भी विदेशों में पढ़ते हैं. यह देश के लिए दुख की बात है. आज की ही खबर है कि 8वीं पास सिपाही चाहिए और उस के लिए दौड़ रहे हैं डाक्टर, इंजीनियर और एमबीए. पर तुम्हें सुरेश को ले कर यह बात नहीं सोचनी है. उस का भविष्य बनने दो. कुछ देर के लिए समझ लो, तुम भी गरीब हो. इस से अधिक और मैं कुछ नहीं कह सकता.’’

‘‘ठीक है, जीजाजी. अब मैं उसे नहीं रोकूंगा.’’

मैं भूल चुका था कि सुरेश किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है. मुझे कुछ देर पहले ही पता चला कि उस ने परीक्षा दे दी है. उस के भी कोई 4 महीने बाद सुरेश का फोन आया कि उस ने इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर की लिखित परीक्षा पास कर ली है. इस की  सूचना मुझे ईमेल और डाक द्वारा दी गई है. अब उसे एसएसबी क्लीयर करनी है.

‘‘बधाई हो, सुरेश, एसएसबी के लिए तुम्हें 2-3 महीने मिलेंगे. कोचिंग सैंटर में ऐडमिशन लो और तैयारी में जुट जाओ. उसे पूरा विश्वास है कि तुम एसएसबी भी क्लीयर कर लोगे.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

फिर 3 महीने बाद उस का फोन आया. वह बहुत खुश था. उस की आवाज में खुशी थी. ‘‘मैं ने एसएसबी क्लीयर कर ली है, फूफाजी. 25 में से 4 लड़के सिलैक्ट हुए थे. वहां भी सभी का मैडिकल हुआ था. सभी ने क्लीयर कर लिया था. अब क्या होगा, फूफाजी?’’

‘‘कुछ नहीं. मार्च में शुरू होगा

यह कोर्स.’’

‘‘जी, मार्च के पहले सोमवार से.’’

‘‘ठीक है. देश के सभी एसएसबी केंद्रों से इस कोर्स के लिए चुने गए उम्मीदवारों की लिस्ट सेना मुख्यालय को भेजी जाएगी. वह इसे कंसौलिडेट करेगा. फिर सभी को दिसंबर के पहले हफ्ते तक इस की सूचना ईमेल और डाक द्वारा दी जाएगी. उस सूचना के अनुसार जो प्रमाणपत्र और डौक्युमैंट्स उन को चाहिए होंगे उन की फोटोकौपी अटैस्ट करवा कर जिस पते पर उन्होंने भेजने के लिए लिखा होगा, उस पर भेजनी होगी. ईमेल और डाक द्वारा फिर सारे डौक्युमैंट्स चैक करने के बाद आप का मिलिटरी अस्पताल में डिटेल्ड मैडिकल होगा, इस की सूचना समय रहते आ जाएगी. एक बात बताओ सुरेश, तुम ने अभी दाढ़ीमूंछ रखी हुई है?’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

‘‘मैं तुम्हें बता दूं, सेना के लोग, चाहे वे किसी भी विभाग के हों, मूंछें तो पसंद करते हैं परंतु दाढ़ी बिलकुल नहीं. इसलिए मैडिकल के लिए सेना अस्पताल जाओ तो मूंछें ट्रिम करवा कर जाना और दाढ़ी बिलकुल साफ होनी चाहिए. चिकना बन कर जाना. कटिंग करवा कर जाना. छोटेछोटे बाल होने चाहिए. ऊपर से ले कर नीचे तक साफसुथरा. तुम्हारे शरीर के एकएक अंग का निरीक्षण होगा. मेरे कहे अनुसार चलोगे तो मैडिकल में फेल होने के कम चांस रहेंगे. मैडिकल करने वाले डाक्टरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा. वे समझेंगे, लड़का सच में अफसर बनने लायक है.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया. ‘‘फूफाजी, आज मैं मिलिटरी अस्पताल, अमृतसर मैडिकल के लिए जा रहा हूं. आप के कहे अनुसार चिकना बन गया हूं. वहां से आ कर मैं आप को बताऊंगा.’’

रात को उस का फोन आया, ‘‘फूफाजी, सब ठीक हो गया है. एक अलग से मैडिकल प्रमाणपत्र दिया है जो सेना मुख्यालय के अनुसार है. पूरा दिन लग गया. शाम को 6 बजे तक सारा चैकअप पूरा हुआ. फिर कहीं जा कर उन्होंने प्रमाणपत्र दिया. मैं ने सब की फोटोकौपी ले कर फाइल बना ली है. केवल बीकौम के प्रमाणपत्र अटैस्ट होने बाकी हैं. पर फूफाजी, एक दिक्कत आ रही है. सारे प्रमाणपत्र सर्विंग मिलिटरी अफसर से अटैस्ट होने हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसे होगा?’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘तुम्हारे कालेज में एनसीसी है?’’

‘‘है, फूफाजी.’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है. अपने कालेज जाओ. एनसीसी के प्रोफैसर को पकड़ो, साथ लो और एनसीसी मुख्यालय पहुंच जाओ. वहां सारे सेना के सर्विंग अफसर मिल जाएंगे. अपने साथ सारी फाइल ले जाना. तुम्हारा काम एक मिनट में हो जाएगा.’’

‘‘यह सही कहा आप ने, एनसीसी के प्रोफैसर रमाकांतजी मेरे अच्छे जानकार भी हैं.’’

‘‘ठीक है फिर, शुभकामनाएं.’’

सुरेश ने फोन बंद कर दिया. 2 दिन बाद फोन आया, ‘‘फूफाजी, सारे प्रमाणपत्र अटैस्ट हो गए हैं. अब सेना मुख्यालय में डौक्युमैंट्स भेजने हैं.’’

‘‘सारे इंस्ट्रक्शन ध्यान से पढ़ना. जिस प्रकार उन्होंने कहा है या लिखा है, उसी के अनुसार भेजना. कोई डौक्युमैंट छूटना नहीं चाहिए और सब की फोटोकौपी लेना न भूलना. वहां स्पीडपोस्ट या कूरियर से आप डौक्युमैंट्स नहीं भेज सकते हैं. आप को रजिस्टर्ड डाक से ही भेजने होंगे और एक कौपी ईमेल से. आप सेना मुख्यालय के इंस्ट्रक्शन फौलो करना.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘मुझे ट्रेनिंग के लिए आईएमए देहरादून में 5 मार्च को रिपोर्ट करनी है. लिफाफे में मेरा मूवमैंट और्डर और द्वितीय श्रेणी का रेलवे वारंट है और साथ में सामान की लिस्ट है जो साथ ले कर जाना है.’’

‘‘मुबारक हो. तुम्हारी जिंदगी बन गई. सेना में अफसर बनना गर्व की बात है.’’ थोड़ा रुक कर मैं ने कहा, ‘‘रेलवे वारंट और मूवमैंट और्डर के साथ रेलवे स्टेशन पर एमसीओ, मिलिटरी मूवमैंट कंट्रोल औफिस चले जाना. एक नंबर प्लेटफौर्म पर यह औफिस है, वह मिलिटरी कोटे से तुम्हारे रिजर्वेशन का प्रबंध करेगा. बाकी रही तुम्हारी सामान साथ ले जाने वाली बात, अमृतसर कैंट में मस्कटरी की दुकानें हैं. वहां तुम्हें सारा सामान मिल जाएगा. अगर कुछ रह भी जाता है तो वह आईएमए से मिल जाएगा.’’

‘‘जी, फूफाजी. लेकिन देहरादून पहुंच कर आईएमए तक कैसे पहुंचा जाएगा?’’

‘‘सेना का कोई काम पैंडिंग नहीं होता. उन को पहले ही इस की सूचना होगी. वे सुबह शनिवार से रेलवे स्टेशन पर एमसीओ के बाहर टेबलकुरसी ले कर बैठे होंगे और साथ में लिखा होगा कि इस कोर्स के कैंडिडेट यहां रिपोर्ट करें. और यह सिलसिला रविवार शाम तक चलता रहेगा.

‘‘गाडि़यां बाहर खड़ी रहेंगी जिन में बैठा कर वह सब को आईएमए पहुंचाती रहेगी. वहां सिर्फ तुम्हारा कोर्स ही नहीं चल रहा होगा, सभी के लिए अलगअलग टेबल लगी होंगी. तुम्हें अपने मूवमैंट और्डर लिखे कोर्स नंबर की टेबल पर रिपोर्ट करनी है. फिर उन का काम है कि कैसे करना है. तुम्हें उन के अनुसार करते रहना है.’’

4 मार्च की शाम को सुरेश का फोन आया. ‘‘आज रात मैं ट्रेन से आईएमए देहरादून जा रहा हूं. एमसीओ अमृतसर ने इस का रिजर्वेशन किया था. सुबह 10 बजे तक मैं वहां पहुंच जाऊंगा. शाम को 6 बजे तक वहां रिपोर्ट करनी है. मैं तो वहां 10 बजे ही पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. वहां आप को सैटल होने का समय मिल जाएगा. जिस में हेयरकट से ले कर वरदी लेने तक और सोमवार को शुरू होने वाली टे्रनिंग की तैयारी में सुविधा रहेगी. ट्रेनिंग काफी सख्त रहेगी.

‘‘आईएमए विश्व का सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग संस्थान है. अन्य देशों से भी अफसर यहां टे्रनिंग लेने आते हैं. सबकुछ व्यवस्थित ढंग से चलेगा. जब तुम वहां से पासआउट हो कर निकलोगे तो तुम भारतीय सशस्त्र सेना के अफसर होगे.

‘‘प्रथम श्रेणी के अफसर, जैसे आईएएस, आईपीएस अफसर होते हैं. तुम्हें लगेगा कि तुम औरों से बिलकुल अलग हो. तुम्हारे शरीर पर सेना की सुंदर वरदी होगी. दोनों कंधों पर 2-2 चमकते स्टार होंगे. हवाईजहाज या ट्रेन में प्रथम श्रेणी में सफर करोगे. तुम्हारे नाम के साथ लैफ्टिनैंट जुड़ जाएगा. तुम अपना परिचय लैफ्टिनैंट सुरेश कुमार के रूप में दोगे. उस समय जो तुम्हें गर्व महसूस होगा वह अनुभव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव होगा. मेरी शुभकामनाएं हैं तुम्हें.’’

Hindi Story : जब मैं छोटा था

Hindi Story : केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

रानी ने मुसकरा कर केशव को हलकी झिड़की दी, ‘‘अब घूरना बंद करो और मुंह से कुछ बोलो.’’

केशव ने रानी को मुंह सिकोड़ कर देखा और फिर सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्या समय आ गया है.’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा?’’ रानी ने हंस कर कहा, ‘‘बेकार में समय को दोष क्यों देते हो?’’

‘‘मांगा?’’ केशव ने तैश खा कर कहा, ‘‘मांगना तो दूर हमारा तो उन के सामने मुंह भी नहीं खुलता था. इतनी इज्जत करते थे उन की.’’

‘‘इज्जत करते थे या डरते थे?’’ रानी ने व्यंग्य से कहा.

केशव ने लापरवाही का नाटक किया, ‘‘एक ही बात है. अब हमारी औलाद हम से डरती कहां है?’’

अवसर का लाभ उठाते हुए अंगद ने शरारत से पूछा, ‘‘पिताजी, क्या आप के समय में आजकल की तरह जन्मदिन मनाया जाता था?’’

केशव ने व्यंग्य से हंस कर कहा, ‘‘जनाब, ऐसी फुजूलखर्ची के बारे में सोचना ही गुनाह था. ये तो आजकल के चोंचले हैं.’’

‘‘फिर भी पिताजी,’’ अंगद ने कहा, ‘‘कभी न कभी तो आप को जन्मदिन पर कुछ तो विशेष मिला होगा.’’

रानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मिला था, एक पाजामा. क्यों, ठीक है न?’’

केशव भी हंसा, ‘‘ठीक है, तुम्हें तो मेरा राज मालूम है.’’

‘‘पाजामा?’’ अंगद ने चकित हो कर पूछा, ‘‘क्या यह भी कोई उपहार है?’’

‘‘बहुत बड़ा उपहार था, बेटे,’’ केशव ने यादों में खोते हुए कहा, ‘‘पिताजी से तो बात करने का सवाल ही नहीं था. जब मैं ने मां से हठ की तो उन्होंने अपने हाथों से नया पाजामा सिल कर दिया था. मैं बहुत खुश था. रानी, तुम भी अंगद को एक पाजामा सिल

कर दो, पर…पर तुम्हें तो सिलना आता ही नहीं.’’

‘‘सारे दरजी मर गए क्या?’’ रानी ने चिढ़ कर कहा.

‘‘पाजामावाजामा नहीं,’’ अंगद ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर कुछ देना है तो मोपेड दीजिए. मेरे सारे दोस्तों के पास है. सब मोपेड पर ही स्कूल आते हैं. बस, एक मैं ही हूं, खटारा साइकिल वाला.’’

के शव ने तनिक नाराजगी से कहा, ‘‘साइकिल की इज्जत करना सीखो. उस ने 20 साल मेरी सेवा की है.’’

‘‘दहेज में जो मिली थी,’’ रानी ने टांग खींची.

‘‘क्या करता,’’ केशव चिढ़ कर बोला, ‘‘अगर स्कूटर मांगता तो तुम्हारे पिताजी को घर बेचना पड़ जाता.’’

‘‘अरे, जाओ भी,’’ रानी ने चोट खाए स्वर में कहा, ‘‘लेने वाले की हैसियत भी देखी जाती है.’’

अंगद ने महसूस किया कि बातों का रुख बदल रहा है इसीलिए बीच में पड़ कर बोला, ‘‘आप लोग तो

फिर लड़ने लगे. मेरे लिए मोपेड लेंगे या नहीं?’’

‘‘बरखुरदार,’’ केशव ने फिर से घूरते हुए कहा, ‘‘जब हम तुम्हारे बराबर थे तो पैदल स्कूल जाते थे. स्कूल भी कोई पास नहीं था. पूरे 3 मील दूर था. उन दिनों घर में बिजली भी नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढ़ते थे. जेबखर्च के पैसे भी नहीं मिलते थे. दिन भर कुछ नहीं खाते थे. घर आ कर 5 बजे तक रात का खाना निबट जाता था. समझे जनाब? आप मोपेड की बात करते हैं.’’

रानी इस भाषण को कई बार सुनसुन कर उकता चुकी थी इसलिए ताना मार कर बोली, ‘‘तो यह है आप की सफलता का रहस्य. देखो बेटे, ऐसा करोगे तो पिताजी की तरह एक दिन किसी कारखाने के महाप्रबंधक बन जाओगे.’’

अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी.

नाश्ता समाप्त होने पर केशव कार्यालय जाने की तैयारी में लग गया और नौकरानी के आ जाने से रानी घर की सफाई कराने में व्यस्त हो गई. अंगद कब स्कूल चला गया किसी को पता ही नहीं चला.

कार निकालते समय केशव ने रोज के मुकाबले कुछ फर्क महसूस किया, पर समझ नहीं पाया. बहुत दूर निकल जाने पर उसे ध्यान आया कि आज अंगद की साइकिल अपनी जगह पर ही खड़ी थी. वैसे अकसर साइकिल खराब होने पर अंगद साइकिल घर छोड़ कर बस से चला जाता था.

घर का काम निबट जाने के बाद रानी ने देखा कि अंगद का लंच बाक्स मेज पर ही पड़ा था. वैसे आमतौर पर वह लंच बाक्स ले जाना भूलता नहीं है क्योंकि रानी हमेशा बेटे का मनपसंद खाना ही रखती थी. खैर, कोई बात नहीं, अंगद की जेब में इतने रुपए तो होते ही हैं कि वह कुछ ले कर खा ले.

शाम को रानी को च्ंिता हुई क्योंकि अंगद हमेशा 3 बजे तक घर आ जाता था, पर आज 5 बज रहे थे. केशव के फोन से वह जान चुकी थी कि आज अंगद साइकिल भी नहीं ले गया था, पर बस से भी इतनी देर नहीं लगती. उस वक्त 6 बज रहे थे जब अंगद ने घर में प्रवेश किया. उस का चेहरा लाल हो रहा था और जूते धूलधूसरित हो गए थे. थकान के लक्षण भी स्पष्ट थे.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’ रानी ने बस्ता संभालते हुए पूछा.

‘‘बस, हो गई देर, मां,’’ अंगद ने टालते हुए कहा, ‘‘जल्दी से खाना दो. बहुत भूख लगी है.’’

‘‘खाना क्यों नहीं ले गया?’’ रानी ने शिकायत की.

‘‘भूल गया था,’’ अंगद का झूठ पता चल रहा था.

‘‘भूल गया या ले नहीं गया?’’ रानी ने तनिक क्रोध से पूछा.

‘‘कहा न, भूल गया,’’ अंगद चिढ़ कर बोला.

रानी ने अधिक जोर नहीं दिया. बोली, ‘‘जा, जल्दी से कपड़े बदल और हाथमुंह धो कर आ. आलू के परांठे और गाजर का हलवा बना है.’’

अंगद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता से रानी को संतोष हुआ. उसे लगा कि वह वाकई बहुत भूखा है. अंगद के आने से पहले ही उस ने खाना मेज पर लगा दिया था.

अंगद ने भरपेट खाया. कुछ देर तक टीवी देखा और फिर पढ़ाई करने अपने कमरे में चला गया.

8 बजे केशव कार्यालय से आया.

आराम से बैठने के बाद केशव ने रानी से पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं? बहुत शांति है घर में.’’

‘‘मन्नू तो शालू के यहां गई है,’’ रानी ने सामने बैठते हुए कहा, ‘‘कोई पार्टी है. देर से आएगी.’’

‘‘अकेली आएगी क्या?’’ केशव ने चिंता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ रानी ने उत्तर दिया, ‘‘शालू का भाई छोड़ने आएगा.’’

‘‘उफ, ये बच्चे,’’ केशव ने अप्रसन्नता से कहा, ‘‘इतनी आजादी भी ठीक नहीं. जब मैं छोटा था तो बहन को तो छोड़ो, मुझे भी देर से आने नहीं दिया जाता था. आगे से ध्यान रखना. वैसे मन्नू कब तक आएगी?’’

‘‘अब क्यों च्ंिता करते हो,’’ रानी ने कहा, पर केशव की मुद्रा देख कर बोली, ‘‘ठीक है, फोन कर के पूछ लूंगी.’’

‘‘और साहबजादे कहां हैं?’’ केशव ने पूछा.

‘‘पढ़ रहा है,’’ रानी ने उत्तर दिया.

‘‘पर मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही,’’ केशव ने पुकारा, ‘‘अंगद…अंगद?’’

‘‘ओ हो, पढ़ने दो न,’’ रानी ने झिड़का, ‘‘कल परीक्षा है उस की.’’

‘‘तो जवाब नहीं देगा क्या?’’ केशव ने क्रोध से पुकारा, ‘‘अंगद?’’

अंगद का उत्तर नहीं आया. केशव अब अधिक सब्र नहीं कर सका. उठ कर अंगद के कमरे की ओर गया और झटके से अंदर घुसा.

‘‘यहां तो है नहीं,’’ केशव ने क्रोध से कहा.

‘‘नहीं है,’’ रानी को विश्वास नहीं हुआ, ‘‘थोड़ी देर पहले ही तो मैं उस के मांगने पर चाय देने गई थी.’’

केशव ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हां, चाय का प्याला तो है, पर जनाब नहीं हैं. गया कहां?’’

‘‘मुझ से तो कुछ कह कर नहीं गया,’’ रानी ने च्ंिता से कहा, ‘‘मन्नू के कमरे में देखो.’’

‘‘मन्नू के कमरे में भी होता तो जवाब देता न,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘बहरा तो नहीं है.’’

रानी ने तसल्ली के लिए मन्नू के कमरे में  देखा और बोली, ‘‘पता नहीं कहां गया. शायद अखिल के यहां चला गया होगा. उस के साथ ही पढ़ता है न.’’

‘‘कह कर तो जाना था,’’ केशव भी अब च्ंितित था, ‘‘अखिल का घर कहां है?’’

‘‘वह राममनोहरजी का लड़का है,’’ रानी ने कहा, ‘‘309 नंबर में रहता है.’’

‘‘ओह,’’ केशव ने कहा, ‘‘उन के यहां तो फोन भी नहीं है.’’

‘‘थोड़ी देर देख लो,’’ रानी ने अपनी चिंता छिपाते हुए कहा, ‘‘आ जाएगा.’’

‘‘और मन्नू…’’

केशव का वाक्य समाप्त होेने से पहले ही रानी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मन्नू के पीछे पड़ गए. कभी तो चैन से बैठा करो.’’

झिड़की खा कर केशव कुरसी पर बैठ कर पत्रिका पढ़ने का नाटक करने लगा.

‘‘खाना लगाऊं क्या?’’ रानी ने कुछ देर बाद पूछा.

‘‘नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘बच्चों को आने दो.’’

‘‘मन्नू तो खा कर आएगी,’’ रानी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अंगद बाद में खा लेगा. स्कूल से आ कर कुछ ज्यादा ही खा लिया था.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘2 की जगह पूरे 4 परांठे खा लिए,’’ रानी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘उसे आलू के परांठे अच्छे लगते हैं न.’’

कुछ और समय बीतने पर केशव उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं राममनोहरजी के घर हो कर आता हूं.’’

उसी समय घंटी बजी और मानिनी ने प्रवेश किया. वह बहुत प्रसन्न थी.

‘‘शालू की पार्टी में बहुत मजा आया,’’ मानिनी ने हंसते हुए पूछा, ‘‘यह अंगद सड़क के किनारे क्यों बैठा है? क्या आप ने सजा दी है?’’

‘‘सड़क के किनारे?’’ केशव और रानी ने एकसाथ पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘साधना स्टोर के सामने,’’ मानिनी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या मैं उसे बुला कर ले आऊं?’’

इस से पहले कि रानी कुछ कहती केशव ने गंभीरता से कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. शायद पढ़ रहा होगा.’’

‘‘क्या घर में बिजली नहीं है?’’ मानिनी ने पूछा, पर फिर ध्यान आया कि बिजली तो है.

रानी ने खाना लगा दिया. केशव हाथ धो कर बैठने ही वाला था कि अंगद ने आहिस्ताआहिस्ता घर में प्रवेश किया.

केशव ने घूरते हुए पूछा, ‘‘इतनी दूर पढ़ने क्यों गए थे?’’

‘‘क्योंकि पास में कोई लैंपपोस्ट नहीं था,’’ अंगद ने मासूमियत से कहा.

केशव को हंसी भी आई और क्रोध भी. रानी भी हंस कर रह गई.

‘‘चलो, खाने के लिए बैठो,’’ रानी ने कहा.

‘‘स्कूल से आते ही खा तो लिया था,’’ अंगद ने कहा और अपने कमरे में चला गया.

केशव और रानी को अंगद का व्यवहार अब समझ में आ रहा था. लगता था कि नाटक की शुरुआत है.

मानिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने पूछा, ‘‘बात क्या है? आज अंगद के तेवर क्यों बिगड़े हुए हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ रानी हंसी, ‘‘शीत- युद्ध है.’’

‘‘क्यों?’’ मानिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मोपेड चाहिए जनाब को,’’ केशव ने कहा, ‘‘हमारे जमाने में…’’

‘‘ओ हो, पिताजी,’’ मानिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मैं समझ गई. न आप कभी बदलेंगे, न आप का जमाना. ठीक है, मैं चंदा इकट्ठा करती हूं.’’

एक मानिनी ही थी जो केशव से बेझिझक हो कर बात कर सकती थी.

केशव ने उसे घूर कर देखा और फिर उठ कर चला गया.

सुबह की चाय हो चुकी थी. जब नाश्ता लगा तो अंगद जा चुका था.

उस की साइकिल पर धूल जम गई थी और हवा भी निकल गई थी.

शाम को थकामांदा अंगद 6 बजे आया.

‘‘क्यों, बस नहीं मिली क्या?’’ रानी ने क्रोध से पूछा.

‘‘बसें तो आतीजाती रहती हैं.’’

‘‘तो फिर?’’ रानी ने पूछा.

‘‘तो फिर क्या? मुझे भूख लगी है. खाना तो मिलेगा न?’’

रानी को अब क्रोध नहीं आया. जानती थी कि वह भूखा होगा. उस के लिए खीर, पूडि़यां और गोभी की

सब्जी बनाई थी. अंगद ने प्रसन्न हो कर भरपेट खाया और कमरे में चला गया.

केशव जब आया तब अंगद घर में नहीं था. आते वक्त केशव ने लैंपपोस्ट के नीचे निगाह डाली थी. अंगद धुंधली रोशनी में आंखें गड़ाए पढ़ रहा था.

3 दिन तक यह नाटक चलता रहा.

आज अंगद का जन्मदिन था. हर साल इस दिन रौनक छा जाती थी. पार्टी में आने वाले मित्रों की सूची बनती थी. लजीज व्यंजन बनाए जाते थे. मानिनी कुछ दिन पहले ही से उसे छेड़ने लगती थी और इस छेड़छाड़ में लड़ाई भी हो जाती थी. वैसे अंगद को इस बात का बहुत मलाल रहता था कि मानिनी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है.

नींद खुलते ही अंगद की नजर पास पड़े लिफाफे पर पड़ी. लिफाफे को उठाते ही उस में से एक चाबी गिरी. चाबी से लटका एक छोटा सा कार्ड था. उस पर लिखा था, ‘जन्मदिन पर छोटा सा उपहार.’

अंगद की आंखों में चमक आ गई. यह तो मोपेड की चाबी थी. आधी रात को वह एक चिट्ठी खाने की मेज पर छोड़ कर आया जिस में लिखा था :

पूज्य पिताजी और मां, क्या आप मुझे क्षमा करेंगे? मोपेड के लिए हठ करना मेरी भूल थी. मुझे सिवा आप के आशीर्वाद और प्यार के कुछ नहीं चाहिए.

आप का पुत्र अंगद.

जब अंगद नीचे पहुंचा तो पत्र मां के हाथ में था और वह पढ़ कर सुना रही थीं. केशव और मानिनी हंस रहे थे.

‘‘पिताजी, आप ने भी जल्दी कर दी. बेकार में मोपेड की चपत पड़ी,’’ मानिनी हंस कर कह रही थी.

अंगद सिर झुकाए शर्मिंदा सा खड़ा था.

‘‘तो आप को मोपेड नहीं चाहिए,’’ केशव ने नकली गंभीरता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ अंगद ने दृढ़ता से उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशव ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्योंकि,’’ अंगद ने गंभीरता से शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब मुझे स्कूटर चाहिए.’’

‘‘क्या?’’ केशव ने मारने के अंदाज में हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

मानिनी ने बीच में आते हुए कहा, ‘‘पिताजी, छोडि़ए भी. हमारा अंगद अब छोटा नहीं है.’’

‘‘पर जब मैं छोटा था…’’

होहल्ले में केशव अपना वाक्य पूरा न कर सका.

Hindi Story : ईर्ष्या – क्या था उस लिफाफे में

Hindi Story : निशा को डाक्टर ने जब यह बताया कि पेट में ट्यूमर है तथा आपरेशन कराना बेहद जरूरी है वरना वह कैंसर भी बन सकता है तो पति आयुष के साथ वह भी काफी घबरा गई थी. सारी चिंता बच्चों को ले कर थी. वरुण और प्रज्ञा काफी छोटे थे, उस की इस बीमारी का लंबे समय तक चलने वाला इलाज तो उस के पूरे घर को अस्तव्यस्त कर देगा.

सच पूछिए तो जब यह महसूस होता है कि हम अपाहिज होने जा रहे हैं या हमें दूसरों की दया पर जीना है तो मन बहुत ही कुंठित हो उठता है.

परिवार में सास, ननद, देवर, जेठ सभी थे पर एकाकी परिवारों में सब के सामने उस जैसी ही समस्या उपस्थित थी. कौन अपना घरपरिवार छोड़ कर इतने दिनों तक उस के घर को संभालेगा?

अपने आपरेशन से भी अधिक निशा को अपने घरसंसार की चिंता सता रही थी. यह भी अटल सत्य है कि पैर चाहे चिता में रखे हों पर जब तक सांस है तब तक व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त नहीं हो पाता.

आसपड़ोस के अलावा निशा ने अखबार में भी विज्ञापन देखने शुरू कर दिए तथा ‘आवश्यकता है एक काम वाली की’ नामक विज्ञापन अपना पता देते हुए प्रकाशित भी करवा दिया. विज्ञापन दिए अभी हफ्ता भी नहीं बीता था कि एक 21-22 साल की युवती घर का पता पूछतेपूछते आई. उस ने अपना परिचय देते हुए काम पर रखने की पेशकश की थी और अपने विषय में कुछ इस प्रकार बयां किया था :

‘‘मेरा नाम प्रेमलता है. मैं बी.ए. पास हूं. 3 साल पहले मेरा विवाह हुआ था पर पिछले साल मेरा पति एक दुर्घटना में मारा गया. संतान भी नहीं है. ससुराल वालों ने मुझे मनहूस समझ कर घर से निकाल दिया है. परिवार में अन्य कोई न होने के कारण मुझे भाई के पास रहना पड़ रहा है पर भाभी अब मेरी उपस्थिति सह नहीं पा रही है…वहां तिलतिल कर मरने की अपेक्षा मैं कहीं काम करना चाह रही हूं…1-2 स्कूलों में पढ़ाने के लिए अरजी भी दी है पर बात बनी नहीं, अब जब तक कोई अन्य काम नहीं मिल जाता, यही काम कर के देख लूं सोच कर चली आई हूं… भाई के घर नहीं जाना चाहती…काम के साथ रहने के लिए घर का एक कोना भी दे दें तो मैं चुपचाप पड़ी रहूंगी.’’

उस की साफगोई निशा को बहुत पसंद आई. उस ने कुछ भी नहीं छिपाया था. रुकरुक कर खुद ही सारी बातें कह डाली थीं. निशा को भी जरूरत थी तथा देखने में भी वह साफसुथरी और सलीकेदार लग रही थी. अत: उस की शर्तों पर निशा ने हां कर दी.

निशा को जब महसूस हुआ कि अब इस के हाथों घर सौंप कर आपरेशन करवा सकती हूं तब उस ने आपरेशन की तारीख ले ली.

नियत तिथि पर आपरेशन हुआ और सफल भी रहा. सभी नातेरिश्तेदार आए और सलाहमशवरा दे कर चले गए. प्रेमलता ने सबकुछ इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया था कि किसी को उस ने जरा भी शिकायत का मौका नहीं दिया. जातेजाते सब उस की तारीफ ही करते गए. फिर भी कुछ ने यह कह कर नाराजगी जाहिर की कि ऐसे समय में भी तुम ने हमें अपना नहीं समझा बल्कि हम से ज्यादा एक अजनबी पर भरोसा किया.

वैसे भी आदरयुक्त, प्रिय और आत्मीय संबंध तो आपसी व्यवहार पर आधारित रहते हैं पर परिवार में सब से बड़ी होने के नाते किसी को भी खुद के लिए कष्ट उठाते देखना निशा के स्वभाव के विपरीत था अत: अपनी तीमारदारी के लिए किसी को भी बुला कर परेशान करना उसे उचित नहीं लगा था पर वे ऐसी शिकायत करेंगे, उसे आशा नहीं थी. शायद कमियां निकालना ही ऐसे लोगों की आदत रही हो.

ऐसी शिकायत करने वाले यह भूल गए थे कि ऐसी स्थिति आने पर क्या वह सचमुच अपना घर छोड़ कर महीने भर तक उस के घर को संभाल पाते…जबकि डाक्टरों के मुताबिक उसे 6 महीने तक भारी सामान नहीं उठाना था क्योंकि गर्भाशय में संक्रमण के कारण ट्यूमर के साथ गर्भाशय को भी निकालना पड़ गया था. ऐसे वक्त में लोगों की शिकायत सुन कर एकाएक ऐसा लगा कि वास्तव में रिश्तों में दूरी आती जा रही है, लोग करने की अपेक्षा दिखावा ज्यादा करने लगे हैं.

सच, आज की दुनिया में कथनी और करनी में बहुत अंतर आ गया है…कार्य व्यस्तता या दूरी के कारण संबंधों में भी दूरी आई है…इस में कोई संदेह नहीं है…उन के व्यवहार से मन खट्टा हो गया था.

प्रेमलता की उचित देखभाल ने निशा को घर के प्रति निश्ंिचत कर दिया था. वरुण और प्रज्ञा भी उस से हिल गए थे. शाम को उस को पार्क में घुमाने के साथ उन का होमवर्क भी वह पूरा करा दिया करती थी.

जाने क्यों निशा प्रेमलता के प्रति बेहद अपनत्व महसूस करने लगी थी… आयुष के आफिस जाने के बाद वह साए की तरह उस के आगेपीछे घूमती रहती, उस की हर आवश्यकता का खयाल रखती. एक दिन बातोंबातों में प्रेमलता बोली, ‘‘दीदी, आप के पास रह कर लगता ही नहीं है कि मैं आप के यहां नौकरी कर रही हूं. सास और भाई के घर मैं इस से ज्यादा काम करती थी पर फिर भी उन्हें मैं बोझ ही लगती थी…दीदी, वे मेरा दर्द क्यों नहीं समझ पाए, आखिर पति के मरने के बाद मैं जाती तो जाती कहां? सास तो मुझे हर वक्त इस तरह कोसती रहती थी मानो उस के बेटे की मौत का कारण मैं ही हूं. दुख तो इस बात का था कि एक औरत हो कर भी वह औरत के दुख को क्यों नहीं समझ पाई?’’

आंखों में आंसू भर आए थे…रिश्तों में आती संवेदनहीनता ने प्रेमलता को तोड़ कर रख दिया था…यहां आ कर उसे सुकून मिला था, खुशी मिली थी अत: उस की पुरानी चंचलता लौट आई थी. शरीर भी भराभरा हो गया था. निशा भी खुश थी, चलो, जरूरत के समय उसे अच्छी काम वाली के साथसाथ एक सखी भी मिल गई है.

बीचबीच में प्रेमलता का भाई उस की खोजखबर लेने आ जाया करता था. बहन को अपने साथ न रख पाने का उस को बेहद दुख था पर पत्नी के तेज स्वभाव के चलते वह मजबूर था. यहां बहन को सुरक्षित हाथों में पा कर वह निश्चिंत हो चला था. प्रेमलता का पति जो बैंक में नौकर था, उस के फंड पर अपना हक जमाने के लिए ससुराल के लोग उसे घर से बेदखल कर उस पैसे पर अपना हक जमाना चाहते थे. भाई उसे उस का हक दिलाने की कोशिश कर रहा था. भाई का अपनी बहन से लगाव देख कर ऐसा लगता था कि रिश्ते टूट अवश्य रहे हैं पर अभी भी कुछ रिश्तों में कशिश बाकी है वरना वह बहन के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं काटता.

प्रेमलता को इतनी ही खुशी थी कि भाभी नहीं तो कम से कम उस का अपना भाई तो उस के दुख को समझता है. कोई तो है जिस के कारण वह जीवन की ओर मुड़ पाई है वरना पति की मौत के बाद उस के जीवन में कुछ नहीं बचा था और ऊपर से ससुराल वालों की प्रताड़ना से बेहद टूटी प्रेमलता आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगी थी.

उस का दुख सुन कर मन भर आता था. सच, आज भी हमारा समाज विधवा के दुख को नहीं समझ पाया है, जिस पति के जाने से औरत का साजशृंगार ही छिन गया हो, भला उस की मौत के लिए औरत को दोषी ठहराना मानसिक दिवालिएपन का द्योतक नहीं तो और क्या है? सब से ज्यादा दुख तो उसे तब होता था जब स्त्री को ही स्त्री पर अत्याचार करते देखती.

एक दिन रात में निशा की आंख खुली, बगल में आयुष को न पा कर कमरे से बाहर आई तो प्रेमलता का फुस- फुसाता स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘नहीं साहब, मैं दीदी का विश्वास नहीं तोड़ सकती.’’

सुन कर निशा की सांस रुक गई. समझ गई कि आयुष की क्या मांग होगी.

वितृष्णा से भर उठी थी निशा. मन हुआ, मर्द की बेवफाई पर चीखेचिल्लाए पर मुंह से आवाज नहीं निकल पाई. लगा, चक्कर आ जाएगा. उस ने वहीं बैठना चाहा, तो पास में रखा स्टूल गिर गया. आवाज सुन कर आयुष आ गए. उसे नीचे बैठा देख बोले, ‘‘तुम यहां कैसे? अगर कुछ जरूरत थी तो मुझ से कहा होता.’’

निशब्द उसे बैठा देख कर आयुष को लगा कि शायद निशा पानी पीने उठी होगी और चक्कर आने पर बैठ गई होगी. वह भी ऐसे आदमी से उस समय क्या तर्कवितर्क करती जिस ने उस के सारे वजूद को मिटाते हुए अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए दूसरी औरत से सौदा करना चाहा.

दूसरे दिन आयुष तो सहज थे पर प्रेमलता असहज लगी. बच्चों और आयुष के जाने के बाद वह निशा के पास आ कर बैठ गई. जहां और दिन उस के पास बातों का अंबार रहता था, आज शांत और खामोश थी…न ही आज उस ने टीवी खोलने की फरमाइश की और न ही खाने की.

‘‘क्या बात है, सब ठीक तो है न?’’ उस का हृदय टटोलते हुए निशा ने पूछा.

‘‘दीदी, कल बहुत डर लगा, अगर आप को बुरा न लगे तो कल से मैं वरुण और प्रज्ञा के पास सो जाया करूं,’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने पूछा था.

‘‘ठीक है.’’

निशा के यह कहने पर उस के चेहरे पर संतोष झलक आया था. निशा जानती थी कि वह किस से डरी है. आखिर, एक औरत के मन की बातों को दूसरी औरत नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? पर वह सचाई बता कर उस के मन में आयुष के लिए घृणा या अविश्वास पैदा नहीं करना चाहती थी, इसलिए कुछ कहा तो नहीं पर अपने लिए सुरक्षित स्थान अवश्य मांग लिया था.

आयुष के व्यवहार ने यह साबित कर दिया था कि पुरुष के लिए तो हर स्त्री सिर्फ देह ही है, उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए सिर्फ देह ही चाहिए…इस से कोई मतलब नहीं कि वह देह किस की है.

अब निशा को खुद ही प्रेमलता से डर लगने लगा था. कहीं आयुष की हवस और प्रेमलता की देह उस का घरसंसार न उजाड़ दे. प्रेमलता कब तक आयुष के आग्रह को ठुकरा पाएगी…उसे अपनी बेबसी पर पहले कभी भी उतना क्रोध नहीं आया जितना आज आ रहा था.

प्रेमलता भी तो कम बेबस नहीं थी. वह चाहती तो कल ही समर्पण कर देती पर उस ने ऐसा नहीं किया और आज उस ने अपनी निर्दोषता साबित करने के लिए अपने लिए सुरक्षित ठिकाने की मांग की.

प्रश्न अनेक थे पर निशा को कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था. दोष दे भी तो किसे, आयुष को या प्रेमलता की देह को. मन में ऊहापोह था. सोच रही थी कि यह तो समस्या का अस्थायी समाधान है, विकट समस्या तो तब पैदा होगी जब आयुष बच्चों के साथ प्रेमलता को सोता देख कर तिलमिलाएंगे या चोरी पकड़ी जाने के डर से कुंठित हो खुद से आंखें चुराने लगेंगे. दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं.

निशा ने सोचा कि आयुष के आने पर प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में रहने की बात कह वह उन के मन की थाह लेने की कोशिश करेगी. पुरुष के कदम थोड़ी देर के लिए भले ही भटक जाएं पर अगर पत्नी थोड़ा समझदारी से काम ले तो यह भटकन दूर हो सकती है. अभी तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होने में महीना भर और लगेगा. उसे अभी भी प्रेमलता की जरूरत है पर कल की घटना ने उसे विचलित कर दिया था.

आयुष आए तो मौका देख कर निशा ने खुद ही प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में करने की बात की तो पहले तो वह चौंके पर फिर सहज स्वर में बोले, ‘‘ठीक ही किया. कल शायद वह डर गई थी. उस के चीखने की आवाज सुन कर मैं उस के पास गया, उसे शांत करवा ही रहा था कि स्टूल गिर जाने की आवाज सुनी. आ कर देखा तो पाया कि तुम चक्कर खा कर गिर पड़ी हो.’’

आयुष के चेहरे पर तनिक भी क्षोभ या ग्लानि नहीं थी. तो क्या प्रेमलता सचमुच डर गई थी या जो उस ने सुना वह गलत था. अगर उस ने जो सुना वह गलत था तो प्रेमलता की चीख उसे क्यों नहीं सुनाई पड़ी. खैर, जो भी हो जिस तरह से आयुष ने सफाई दी थी, उस से हो सकता है कि वह खुद भी शर्मिंदा हों.

प्रेमलता अब यथासंभव आयुष के सामने पड़ने से बचने लगी थी. अब निशा स्वयं आयुष के खानेपीने, नाश्ते का खयाल रखने की कोशिश करती.

अभी महीना भर ही बीता होगा कि प्रेमलता का भाई आया और एक लिफाफा उस को पकड़ाते हुए बोला, ‘‘तू ने जहां नौकरी के लिए आवेदन किया था वहां से इंटरव्यू के लिए काल लेटर आया है. जा कर साक्षात्कार दे आना पर आजकल बिना सिफारिश के कुछ नहीं हो पाता. नौकरी मिल जाए तो अच्छा ही है, कम से कम तुझे किसी का मुंह तो नहीं देखना पड़ेगा.’’

एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के पद के लिए इंटरव्यू काल थी. निशा ने जब काल लेटर पढ़ा तो याद आया कि इसी ग्रुप के एक स्कूल में उस की मित्र शोभना की भाभी प्रधानाचार्या हैं. निशा ने उन से बात की. नौकरी मिल गई. अगले सत्र से उसे काम करना था. डेढ़ महीना और बाकी था.

प्रेमलता की निशा को ऐसी आदत पड़ गई थी कि अब उस के बिना वह कैसे सबकुछ कर पाएगी, यह सोचसोच कर वह परेशान होने लगी थी. इस अजनबी लड़की ने उस के दुख और परेशानी के क्षणों में साथ दिया है. उस की जगह अगर कोई और होता तो भावावेश में उस का घरसंसार ही बिखेर देता…खासकर तब जब गृहस्वामी विशेष रुचि लेता प्रतीत हो. पर उस ने ऐसा न कर के न केवल अपने अच्छे चरित्र की झलक दिखाई थी बल्कि उस की गृहस्थी को टूटनेबिखरने से बचा लिया था.

स्कूल का सेशन शुरू हो गया था. घर न मिल पाने के कारण प्रेमलता उस के घर से ही आनाजाना कर रही थी. स्कूल जाने से पहले वह नाश्ता और खाना बना कर जाती थी तथा शाम का खाना भी वही आ कर बनाती. लगता ही नहीं था कि वह इस परिवार की सदस्य नहीं है…पर अब प्रेमलता को जाना ही है, सोच कर निशा भी धीरेधीरे घर का काम करने की कोशिश करने लगी थी.

‘‘दीदी, स्कूल के पास ही घर मिल गया है. अगर आप इजाजत दें तो मैं वहां रहने के लिए चली जाऊं,’’ एक दिन प्रेमलता स्कूल से आ कर बोली.

‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो. अब तो मैं काफी ठीक हो गई हूं. धीरेधीरे सब करने लगूंगी.’’

वरुण को पता चला तो वह बहुत उदास हो कर बोला, ‘‘आंटी, आप यहीं रह जाओ न. आप गणित पढ़ाती थीं तो बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘दीदी, आप चली जाओगी तो मुझे आलू के परांठे कौन बना कर खिलाएगा… आप जैसे परांठे तो ममा भी नहीं बना पातीं,’’ प्रज्ञा ने आग्रह करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं, बेबी, मैं दूर थोड़े ही जा रही हूं, हर इतवार को मैं मिलने आऊंगी, तब आप को आप का मनपसंद आलू का परांठा बना कर खिला दिया करूंगी,’’ प्रेमलता ने प्यार से प्रज्ञा को गोदी में उठाते हुए कहा.

निशा ने भी प्रेमलता को सदा नौकरानी से ज्यादा मित्र समझा था पर वरुण और प्रज्ञा का उस से इतना भावात्मक लगाव उस के अहम को हिला गया. अचानक उसे लगा कि इस लड़की ने कुछ ही दिनों में उस से उस की जगह छीन ली है…वह जगह जो उस ने 10 वर्षों में बनाई थी, इस ने केवल 5 महीनों में ही बना ली. बच्चे भी अब उस के बजाय प्रेमलता से ही अपनी फरमाइशें करते और वह भी हंसतेहंसते उन की हर फरमाइश पूरी करती, चाहे वह खाना हो, पढ़ना हो या बाहर पार्क में उस के साथ जाना.

‘‘क्या प्रेमलता घर छोड़ कर जा रही है?’’ शाम को चाय पीतेपीते आयुष ने पूछा था.

‘‘हां, कोई परेशानी?’’ निशा ने एक तीखी नजर से उन्हें देखा.

‘‘मुझे क्या परेशानी होगी. बस, ऐसे ही पूछ लिया था. कुछ दिन और रुक जाती तो तुम्हें थोड़ा और आराम मिल जाता,’’ निशा की तीखी नजर से अपनी आंखें चुराते हुए आयुष ने जल्दीजल्दी कहा.

पहले तो निशा सोच रही थी कि प्रेमलता से कुछ दिन और रुकने का आग्रह वह करेगी पर आयुष और बच्चों की सोच ने उसे कुंठित कर दिया. अब उसे वह एक पल भी नहीं रोकेगी. कल जाती हो तो आज ही चली जाए. जिस की वजह से उस की अपनी गृहस्थी पराई हो चली है, भला उसे अपने घर में वह क्यों शरण दे?

ईर्ष्यारूपी अजगर ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया था. जब वह उस से विदा मांगने आई तब कोई उपहार देना तो दूर उस से इतना भी नहीं कहा गया कि छुट्टी के दिन चली आया करना जबकि बच्चों को रोते देख प्रेमलता खुद ही कह रही थी, ‘‘रोओ मत, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रही हूं, जब मौका मिलेगा तब मिलने आ जाया करूंगी.’’

जहां कुछ समय पहले तक निशा स्वयं आपसी रिश्तों में आती संवेदनहीनता के लिए दूसरों को दोषी ठहरा रही थी, आज वह स्वयं ईर्ष्या के कारण उसी जमात में शामिल हो गई थी. तभी तो उस अजनबी लड़की के अपार प्रेम के बावजूद, उस का प्रतिदान देने में कंजूसी कर गई थी.

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