लेकिन बुढ़ापे में अकसर बहुतों के साथ ऐसा होता है जैसा मनमोहन के साथ हुआ. रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा. मैं सोने की कोशिश कर रहा था. शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.
इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है.
हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया.
‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’
हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था. मनमोहन चाचा…’’
‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया. किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा.
‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’
‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं. बीमार हो गए क्या?’’
‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने.’’
मैं बिस्तर से उठा. पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुरता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया.
हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा.’’
मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा.’’
हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया.
महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है. गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है. घर की बत्तियां जल रही थीं. दरवाजा खुला हुआ था. मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया. बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा.
मैं ने हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया. गरमी के दिन थे, पसीनापसीना हो उठा था.
‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उस की छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी ले कर आ गई.
हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया. मैं ने लोटा वहीं सीढि़यों पर रख दिया. फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं? कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’
‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया.
‘‘ठीकठाक तो हैं?’’
‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं.’’
‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ खड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे. मैं ने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’
‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया.
आंगन के कोने से लगी सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर पहुंचा. सामने वाले कमरे के बीचों- बीच एक तखत पड़ा था. कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था. एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था. तखत पर मनमोहन पैर लटकाए गरदन झुकाए बैठे थे. फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था.
‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरेधीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तखत पर बैठ गया. तखत थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं.
‘‘तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’
रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया. वहां कमरे के बीचोंबीच लटक रहे पुराने बंद पंखे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था. नीचे एक तिपाई रखी थी.
‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे. वह तो मैं ने इन की गैंगैं की घुटीघुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़ कर आ गया. देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं. तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया. फिर नीलेश को आवाज दी. हम दोनों ने मिल कर जैसेतैसे इन्हें फंदे से अलग किया. चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं.
‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके. आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगा कर मरने से तो हमें भी मरवा देते. हम भी फांसी पर चढ़ जाते. पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घरद्वार फूंक कर इन के नाम पर फंदे पर लटक जाते.
‘‘अब चाचाजी, आप ही इन से पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है. इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बरबाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुल कर बात करनी चाही.
‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’
‘‘कोई झगड़ाटंटा नहीं हुआ. दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यारदोस्तों से भी मिल आए हैं. बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जा कर साइकिल पर उसे ले आए. हम ने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई. अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं. घर में इन का मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला.
‘‘लेकिन तुम लोगों ने इन से कुछ कहासुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैं ने पूछा.
‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इन से कोई क्या कह सकता है. बात करते ही काटने को दौड़ते हैं. आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है. फुल चेकअप. वह भी डा. आकाश की पैथोलौजी लैब में. हम ने पूछा भी कि आखिर आप को परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है. मन घबरा रहा है. अकेले में दम घुटता है.
‘‘पिछले महीने ही मैं ने इन्हें सरकारी अस्पताल में डा. दिनेश सिंह को दिखाया था. जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है…’’
तभी नीलेश पानी का गिलास ले कर आ गया. मैं ने पानी पी लिया. तब मैं ने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुम ने इन का दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’
‘‘नहीं, 2 महीने पहले डा. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला.
‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए. और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर. इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’
‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है. सब ठीकठाक है.’’
‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैं ने कहा.
‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा. फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जा कर, यहां क्या कर रहे हो.
बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया. फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए. इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुसकान फेंक कर चुप हो गया.
मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया. रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो. मैं वहीं आ रहा हूं.’’
रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं. कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गरदन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया.
मैं ने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने उन्हें रोने दिया. उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया. मैं ने फिर आत्मीयता से उन के सिर पर हाथ फेरा. अब की बार उन्होंने सिर उठा कर मु़झे देखा. उन की आंखें लाल हो रही थीं. बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे. फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ…’’ इतना कह कर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो. मैं यहां नहीं रह सकता. ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’
मैं ने कोई विवाद नहीं किया. कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो.’’
उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार हो कर खड़े हो गए.
तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’
‘‘इस समय इन की तबीयत खराब है. मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैं ने कहा.
‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न. आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था.
मैं ने धैर्य से काम लिया. उस से इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है. मैं समझाबुझा कर शांत कर दूंगा. इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है.’’
‘‘आप इन्हें नहीं जानते. यह नाटक कर रहे हैं. घरभर का जीना हराम कर रखा है. कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का. दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं. अब इस उम्र में इन की गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं. न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे. और वह मास्टरनी, अब छोडि़ए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है. अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था.
‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैं ने सहज ही पूछ लिया.
‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं.’’
‘‘जरा जबान संभाल कर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उन का भरापूरा परिवार है. पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इन से क्या स्वार्थ है. बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है. इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है. अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैं ने शांत भाव से पूछा.
‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाबकिताब पूछने की आप को कोई जरूरत नहीं है. इन का खानापीना, कपडे़ लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबाचौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इन से ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए. हम ने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद कर के फांसी लगाने का नाटक करने लगे. आप इन्हें नहीं जानते. इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है. एक अकेले आदमी का खर्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है…और आप से भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आ कर मैं आप से कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं.’’
इस के बाद तो उस ने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया. रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा.
मैं ने कुछ निश्चय किया. उस समय रात के 2 बज रहे थे. गली से निकल कर सीधा प्रो. प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया. दरवाजे की कालबेल दबा दी. कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया. अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला. मुझे सामने देख कर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्तव्यस्त से लग रहे थे. एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे.
मैं ने वहीं खडे़खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं. तभी प्रो. प्रेमलता भी आ गईं. बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया.
प्रो. प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं.
लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है. मनमोहनजी का सारा पी.एफ., जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया. साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है. इधरउधर साइन कर के 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है. इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इन से मजदूरी कराता है.’’
ये भी पढ़ें- यह मेरी मंजिल नहीं…
‘‘सागसब्जी, आटापिसाना, बच्चों को स्कूल ले जानालाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं. फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार स्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इन की जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी हैं.’’
मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार- विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए. उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था. हम ने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी.