Short Story: दो हिस्से – जब खुशहाल शादी पहुंची तलाक तक

Short Story: ‘‘कहां थीं तुम? 2 घंटे से फोन कर रहा हूं… मायके पहुंच कर बौरा जाती हो,’’ बड़ी देर के बाद जब मोनी ने फोन रिसीव किया तो मीत बरस पड़ा.

‘‘अरे, वह… मोबाइल… इधरउधर रहता है तो रिंग सुनाईर् ही नहीं पड़ी… सुबह ही तो बात हुई थी तुम से… अच्छा क्या हुआ किसलिए फोन किया? कोई खास बात?’’ मोनी ने उस की झल्लाहट पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा.

‘‘मतलब अब तुम से बात करने के लिए कोई खास बात होनी चाहिए मेरे पास… क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता? तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे? हां, अब नानामामा का ज्यादा हक हो गया होगा,’’ मीत मोनी के सपाट उत्तर से और चिढ़ गया. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी.

उधर मोनी का भी सब्र तुरंत टूट गया. बोली, ‘‘तुम ने लड़ने के लिए फोन किया है तो मुझे फालतू की कोई बात नहीं करनी है. एक तो वैसे ही यहां कितनी भीड़ है और ऊपर से मान्या की तबीयत…’’ कहतेकहते उस ने अपनी जीभ काट ली.

‘‘क्या हुआ मान्या को? तुम से बच्चे नहीं संभलते तो ले क्यों जाती हो… अपने भाईबहनों के साथ मगन हो गई होगी… ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकट बुक करा रहा हूं तुम्हारा… वापस आ जाओ तुम… मायके जा कर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है और तुम वहां सैरसपाटा कर रही हो… नालायकी की हद है… लापरवाह हो तुम…’’ हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था. मीत अपना आपा खो बैठा था.

‘‘जरा सा बुखार हुआ है उसे… अब वह ठीक है… और सुनो, मुझे धमकी मत दो. मैं 10 दिन के लिए आई हूं. पूरे 10 दिन रह कर ही आऊंगी… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरे मायके आने से सांप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पर… अभी तुम्हारे गांव जाती जहां 12-12 घंटे लाइट नहीं आती… बच्चे वहां बीमार होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता… पूरा साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद 10 दिन को मायके क्या आ जाऊं तुम्हारी यही नौटंकी हर बार शुरू हो जाती है,’’ मोनी भी बिफर गई. उस की आवाज भर्रा गई पर वह अपने मोरचे पर डटी रही.

‘‘अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूं… बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहां…

अब तुम वहीं रहो. कोई जरूरत नहीं वापस आने की… 10 दिन नहीं अब पूरा साल रहो… खबरदार जो वापस आईं,’’ गुस्से से चीखते हुए मीत ने उस की बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया.

मोनी ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पर बैठ कर रोने लगी. उस की मां पास बैठी सब सुन रही थीं. वे बोलीं, ‘‘बेटी, वह हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था. देर से फोन उठाने पर अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हें प्यार से उसे हैंडल करना था. खैर, चलो अब रोओ नहीं. कल सुबह तक उस का भी गुस्सा उतर जाएगा.’’

मोनी अपना मुंह छिपाए रोते हुए बोली, ‘‘मम्मी, सिर्फ 10 दिन के लिए आई हूं. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इन से… पतियों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है कि जब भी हमें मिस करेंगे, हमारे बिना काम भी नहीं चलेगा तब प्यार जताने के बदले, हमारी कदर करने के बदले हमीं पर झलाएंगे, गुस्सा दिखाएंगे… हम से जुड़ी हर चीज से बैर पाल लेंगे. यह क्या तरीका है जिंदगी जीने का?’’

‘‘बेटी, ये पुरुष होते ही ऐसे हैं… ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उस से भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं. बीवी के मायके जाने पर इन को लगता है कि इन का अधिकार कुछ कम हो रहा है, तो अपनेआप अंदर ही अंदर परेशान होते हैं. ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उलटा बोल दे तो इन के अहं पर चोट लग जाती है और बेबात का झगड़ा होने लगता है… तेरे पापा का भी यही हाल रहता था,’’ मां ने मोनी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया.

‘‘पर मम्मी औरत को 2 भागों में आखिर बांटते ही क्यों हैं ये पुरुष? मैं पूरी ससुराल की भी हूं और मायके की भी… मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर? यह 2 जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है?’’ मोनी ने मानो यह प्रश्न मां से ही नहीं, बल्कि सब से किया हो.

मां उसे अपने सीने से लगा कर चुप कराते हुए बोलीं, ‘‘इन के अहं और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है… मोनी मैं ने कहा न कि पुरुष होते ही ऐसे हैं. यह इन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है… और पुरुष का काम ही है स्त्री को 2 भागों में बांट देना, जिन में एक हिस्सा मायके का और दूसरा ससुराल का बनता है… जैसे 2 अर्ध गोलाकार से एक गोलाकार पूरा होता है वैसे ही एक औरत भी इन 2 हिस्सों से पूर्ण होती है.’’

मोनी मूक बनी सब सुन रही थी. कुछ समझ रही थी और कुछ नहीं समझने की कोशिश कर रही थी. शायद यही औरत का सच है.

Social Story: उधार का रिश्ता

Social Story: टैलीफोन की घंटी लगातार बजती जा रही थी. मैं ने उनीदी आंखों से घड़ी की ओर देखा. रात के 2 बजे थे. ‘इस समय कौन हो सकता है?’ मैं ने स्वयं से ही सवाल किया और जल्दी से टैलीफोन का रिसीवर उठाया, ‘‘मेजर रंजीत दिस साइड.’’

‘‘सर, कैप्टन सरिता ने आत्महत्या कर ली है’’ औफिसर्स मैस के हवलदार की आवाज थी. वह बहुत घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘क्या?’’

‘‘सर, जल्दी आइए.’’

‘‘घबराओ मत, मैं तुरंत आ रहा हूं. किसी को भी मेरे आने तक किसी चीज को हाथ मत लगाने देना.’’

‘‘जी सर.’’

मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि कैप्टन सरिता ऐसा कर सकती है. वह एक होनहार अफसर थी. मैं नाइट सूट में था और उन्हीं कपड़ों में औफिसर्स मैस की ओर भागा. वहां पहुंचा तो कैप्टन नीरज और कैप्टन वर्मा पहले से मौजूद थे. कैप्टन नीरज ने सरिता के कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘सर, इस ओर.’’

‘‘ओके,’’ हम सब कैप्टन सरिता के कमरे की ओर बढ़े. नाइलौन की रस्सी का फंदा बना कर वह सीलिंग फैन से झूल गई थी.

‘‘सब से पहले कैप्टन सरिता को इस अवस्था में किस ने देखा?’’  मैस स्टाफ से मैं ने पूछा.

‘‘सर, 10 बजे मैम ने गरम दूध मंगवाया था. मैं दूध देने आया तो मैम लैपटौप पर काम कर रही थीं. मैं ने दूध का गिलास रख दिया. उन्होंने कहा, ‘आधे घंटे में गिलास ले जाना.’ मैं ‘जी’ कह कर लौट आया. आ कर कुरसी पर बैठा तो मेरी आंख लग गई. आंख खुली तो देखा कि मैम के कमरे की लाइट जल रही थी. सोचा, खाली गिलास उठा लाता हूं. मैम के कमरे में आया तो उन को पंखे से लटके देखा. मैं ने उन का चेहरा देख कर अनुमान लगाया था कि वे मर चुकी हैं. तुरंत आप को सूचित किया.’’

‘‘क्या तुम्हें इस बात का ध्यान नहीं रहा कि इतनी रात गए किसी महिला अफसर के कमरे में नहीं जाना चाहिए?’’ मैं ने मैस हवलदार को घूरते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे समय का ध्यान नहीं रहा. मैं ने घड़ी की ओर देखा ही नहीं. मैं ने सोचा, मेरी आंख लगे अधिक देर नहीं हुई है. इसलिए चला गया, सर.’’

मैं ने देखा, मैस हवलदार एकदम डर गया है. शायद उसे लग रहा था कि इस छोटी सी गलती के लिए उसे ही न फंसा दिया जाए.

‘‘कैप्टन नीरज, देखो कोई सुसाइड नोट है या नहीं? तब तक मैं मिलिटरी पुलिस को इस की सूचना दे देता हूं,’’ यह कहते हुए मैं टैलीफोन की ओर बढ़ा. मैं ने नंबर डायल किया तो दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘सर, मैं डेस्क एनसीओ हवलदार राम सिंह बोल रहा हूं.’’

इधर से मैं ने कहा, ‘‘मैं ओएमपी से मेजर रंजीत सिंह बोल रहा हूं. मुझे आप के ड्यूटी अफसर से तुरंत बात करनी है.’’

‘‘सर, एक सेकंड होल्ड करें, मैं लाइन ट्रांसफर कर रहा हूं,’’ राम सिंह ने कहा.

कुछ समय बाद दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘ड्यूटी अफसर कैप्टन डोगरा स्पीकिंग, सर, इतनी रात गए कैसे याद किया?’’

‘‘एक बुरी खबर है कैप्टन डोगरा. कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड,’’ मैं ने उसे बताया.

‘‘ओह, सर, यह तो बहुत बुरी खबर है. सर, किसी को बौडी से छेड़छाड़ न करने दें. मैं अभी टीम भेज रहा हूं. प्लीज मेजर साहब, डू इनफौर्म टू ब्रिगेड मेजर इन ब्रिगेड हैडक्वार्टर. आई विल आलसो इनफौर्म हिम.’’ यह कह कर कैप्टन डोगरा ने फोन काट दिया.

मैं ने तुरंत बीएम साहब को फोन लगाया. दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘यस, मेजर बतरा स्पीकिंग.’’

‘‘मेजर रंजीत दिस साइड,’’ मैं ने कहा.

‘‘इन औड औवर्स? इज देयर ऐनी इमरजैंसी, मेजर रंजीत?’’

‘‘यस, कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड.’’

‘‘ओह, सैड न्यूज, मेजर. हैव यू इनफौर्म मिलिटरी पुलिस?’’

‘‘यस, मेजर.’’

‘‘ओके, प्लीज डू नीडफुल.’’

‘‘राइट, मेजर.’’

मैं अभी फोन कर के हटा ही था कि मिलिटरी पुलिस की टीम आ गई. उस टीम में 1 सूबेदार और 2 हवलदार थे. उन्होंने मुझे सैल्यूट किया और चुपचाप अपने काम में लग गए. इतने में कैप्टन नीरज मेरे पास आया और कहा, ‘‘सर, और कुछ तो मिला नहीं, लेकिन यह डायरी मिली है. मैं मिलिटरी पुलिस की टीम से बचा कर ले आया हूं. सोचा, टीम के देखने से पहले शायद आप देखना चाहें.’’

‘‘गुड जौब, कैप्टन नीरज.’’

‘‘थैंक्स, सर.’’

‘‘कैप्टन नीरज, हैडक्लर्क को मेरे पास भेजो.’’

‘‘राइट, सर.’’

थोड़ी देर बाद हैडक्लर्क साहब आए, सैल्यूट किया और चुपचाप आदेश के लिए खड़े हो गए. मैं ने उन्हें गहराई से देखा और कहा, ‘‘यू नो, व्हाट हैज हैपेंड?’’

‘‘यस सर.’’

‘‘गिव टैलीग्राम टू हर पेरैंट्स. जस्ट राइट डाउन, कैप्टन सरिता एक्सपायर्ड, गिव नियरैस्ट रेलवे स्टेशन ऐंड माई सैल नंबर. डोंट राइट वर्ड सुसाइड.’’

‘‘राइट, सर.’’

‘‘मेक दिस टैलीग्राम मोस्ट अरजैंट.’’

‘‘सर, हम सैल से भी इनफौर्म कर सकते हैं.’’

‘‘कर सकते हैं, पर इस समय हम इस अवस्था में नहीं हैं कि उन से बात कर सकें. जस्ट डू इट, इट इज माई और्डर.’’

‘‘यस, सर,’’ हैडक्लर्क साहब ने सैल्यूट किया और चले गए.

हैडक्लर्क साहब गए तो मेरे सेवादार ने आ कर कहा, ‘‘सर, ब्रिगेड कमांडर साहब आप को याद कर रहे हैं. उन्होंने कहा है, जिस अवस्था में हों, आ जाएं.’’

‘‘उन के साथ और कोई भी है?’’

‘‘सर, बीएम साहब हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम उन को औफिस में ले जा कर बैठाओ. उन्हें पानी वगैरह पिलाओ, तब तक मैं आता हूं.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर वह चला गया लेकिन मैं खुद पिछली यादों में खो गया.

अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है, ब्रिगेड औफिसर्स मैस की पार्टी में कैप्टन सरिता ब्रिगेडियर यानी ब्रिगेड कमांडर साहब से चिपक कर डांस कर रही थी. मुझे ही नहीं बल्कि पूरी यूनिट के सभी अफसरों को यह बुरा लगा था. मैं उस का कमांडिंग अफसर था. मेरा फर्ज था, मैं उसे समझाऊं. दूसरे रोज औफिस में बुला कर उसे समझाने की कोशिश भी की थी.

‘यह सब क्या था, कैप्टन सरिता?’

‘क्या था, सर?’ उलटे उस ने मुझ से सवाल किया था.

‘कल रात पार्टी में ब्रिगेडियर साहब के साथ इस तरह डांस करना क्या अच्छी बात थी?’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा. कुछ समय के लिए वह झिझकी फिर बड़े साफ शब्दों में बोली, ‘सर, मैं उन के साथ रिलेशन में हूं.’

‘क्या बकवास है यह? जानती हो तुम क्या कह रही हो? तुम कैप्टन हो, वे ब्रिगेडियर हैं. तुम्हारे और उन के स्टेटस में जमीनआसमान का फर्क है. वे शादीशुदा हैं, 2 बच्चे और एक सुंदर बीवी है. तुम उन के साथ कैसे रिलेशन रख सकती हो? थोड़ा सा भी दिमाग है तो जरा सोचो.’

‘सर, उन्होंने कहा है, वे मेरे साथ लिव इन रिलेशन में रहेंगे. वे अपने बीवीबच्चों को भी खुश रखेंगे और मुझे भी.’

‘माइ फुट. वह तुम्हें यूज करेगा और छोड़ देगा. वह मर्द है, सरिता, मर्द. उस को कुछ फर्क नहीं पड़ता, वह चाहे 10 के साथ संबंध रखे. तुम लड़की हो, एक कुंआरी लड़की, तुम्हारा ब्राइट कैरियर है. जरा सोचो, लोग, तुम्हारे मांबाप, समाज, सब तुम्हें उस की रखैल कहेंगे और रखैल को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता.’

मैं ने उसे हर तरह से समझाने की कोशिश की थी. उस ने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया था, केवल सैल्यूट किया और मेरे औफिस से बाहर चली गई थी. मैं सोचने लगा कि ‘लिव इन रिलेशन’ कैसा रिश्ता है जो धीरेधीरे समाज की युवा पीढ़ी में फैलता जा रहा है, बिना इस के परिणाम सोचे. मैं दूरदूर तक इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा था. मैं खुद को असहाय महसूस कर रहा था. इसी स्थिति में मैं औफिस पहुंचा. हालांकि मुझ से कहा गया था कि मैं जिस स्थिति में हूं वैसे ही आ जाऊं लेकिन मैं यूनीफार्म में पहुंचा. मुझे नाइट सूट में जाना अच्छा नहीं लगा, वह भी अपने सीनियर अधिकारी के समक्ष.

औफिस में आते ही मैं ने ब्रिगेडियर साहब व बीएम साहब को सैल्यूट किया और अपनी कुरसी पर आ कर बैठ गया. सुबह के 8 बज चुके थे. सभी जवान और अधिकारी काम पर आ चुके थे. अर्दली मेरे औफिस के बाहर आ कर खड़ा हो गया था.

‘‘आस्क अर्दली टू क्लोज द डोर ऐंड नौट अलाऊ ऐनीबडी टू कम इन,’’ ब्रिगेडियर साहब ने कहा.

मैं ने अर्दली को बुला कर वैसा ही करने को कहा.

‘‘मेजर रंजीत, नाऊ टैल मी व्हाट इज योर ऐक्शन प्लैन?’’ बीएम साहब ने सीधे सवाल किया.

‘‘सर, मैं ने कैप्टन सरिता के पेरैंट्स को इनफौर्म कर दिया है, जिस में केवल उस की मौत की बात लिखी है. सुसाइड के बारे में कुछ नहीं कहा है. मिलिटरी पुलिस ने बौडी उतार कर पोस्टमौर्टम के लिए भेज दी है. और मामले की जांच कराने के लिए मैं ने अपने सहायक को निर्देश दे दिया है कि वह ब्रिगेड हैडक्वार्टर को निवेदन कर दे.’’

‘‘ओके, फाइन,’’ बीएम ने कहा.

‘‘अब आगे, सर?’’ बीएम साहब ने अब ब्रिगेड कमांडर साहब से कहा.

कमांडर साहब बोले, ‘‘मेजर रंजीत, यह आप के हाथ में कैप्टन सरिता की डायरी है?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘आप ने पढ़ा इसे?’’

‘‘नहीं सर, मैं पढ़ नहीं पाया.’’

‘‘मैं मानता हूं, जो कुछ हुआ, गलत हुआ. कैप्टन सरिता जैसी होनहार अफसर इस कदर भावना में बह कर अपनी जान गंवा देगी, मैं ने इस का अंदाजा नहीं लगाया था.’’

ब्रिगेड कमांडर साहब के चेहरे से दुख साफ झलक रहा था, लगा जैसे उस की मौत में कहीं न कहीं वे स्वयं को भी दोषी मानते हों.

‘‘रंजीत, क्या कैप्टन सरिता को औन ड्यूटी शो नहीं किया जा सकता?’’

मैं ब्रिगेड कमांडर साहब को कैप्टन सरिता का हत्यारा मानता था. कैप्टन सरिता तो बच्ची थी लेकिन वे तो बच्चे नहीं थे. वे उसे समझाते तो संभवत: यह नौबत न आती. लेकिन आज वे एक अच्छा काम करने जा रहे थे. मन के भीतर अनेक प्रकार के विरोध होने पर भी, कैप्टन सरिता के परिवार वालों के लिए मैं इस का विरोध नहीं कर पाया और कहा, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो बहुत अच्छा होगा.’’

‘वैसे भी इस आत्महत्या को हत्या साबित करना बहुत कठिन था,’ मैं ने सोचा.

‘‘ओके, मेजर बतरा, मेरे औफिस में एक मीटिंग का प्रबंध करो. ओसी प्रोवोस्ट यूनिट (मिलिटरी पुलिस), कमांडैंट मिलिटरी अस्पताल और इंक्वायरी करने वाली कमेटी के चेयरमैन को बुलाओ. मेजर रंजीत तुम भी जरूर आना, प्लीज.’’

‘‘राइट सर. एट व्हाट टाइम, सर?’’

‘‘11 बजे और कोर्ट औफ इंक्वायरी के लिए जो आप लैटर लिखें उस में सुसाइड शब्द का इस्तेमाल मत करें, जस्ट यूज डैथ औफ कैप्टन सरिता.’’

‘‘सर’’ मेरे इतना कहते ही सब उठ कर चले गए. मैं ने असिस्टैंट साहब को बुलाया और कैप्टन सरिता की डैथ के संबंध में ब्रिगेड हेडक्वार्टर को लिखे जाने वाले लैटर के लिए आदेश दिए. मैं ने अर्दली को बुला कर चायबिस्कुट लाने के लिए कहा. वह ले आया तो धीरेधीरे चाय की चुसकियां लेने लगा. मेरे पास इतना समय नहीं था कि मैं बंगले पर जा कर नाश्ता करता और फिर मीटिंग पर जाता. मैं कैप्टन सरिता की डायरी को भी एकांत में पढ़ना चाहता था, इसलिए उसे औफिस के लौकर में बंद कर दिया.

11 बजने में 10 मिनट बाकी थे जब मैं ब्रिगेड हैडक्वार्टर के मीटिंग हौल में पहुंचा. सभी अधिकारी, जिन्हें बुलाया गया था,आ चुके थे, केवल बीएम साहब और कमांडर साहब का इंतजार था. मैं ने सभी अधिकारियों को सैल्यूट किया और अपने लिए निश्चित कुरसी पर जा कर बैठ गया.

ठीक 11 बजे बीएम साहब और ब्रिगेड कमांडर साहब आए. सभी ने उठ कर उन का अभिवादन किया. सभी के बैठ जाने के बाद कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘जैंटलमेन, आप सब जानते हैं, हम यहां क्यों इकट्ठे हुए हैं? मैं आप का अधिक समय न लेते हुए सीधी बात पर आ जाता हूं. कैप्टन सरिता अब हमारे बीच नहीं है. शी हैज कमीटेड सुसाइड.’’

कुछ समय रुक कर कमांडर साहब ने अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए सभी के चेहरों को गौर से देखा, ‘‘मैं मानता हूं, आत्महत्या को भारतीय सेना में अपराध माना गया है और ऐसा अपराध करने वालों के परिवार वालों को सेना और सरकार किसी प्रकार की सुविधा नहीं देती. वे सड़क पर आ जाते हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया होता. इसलिए मैं चाहता हूं, कैप्टन सरिता की डैथ को औन ड्यूटी शो किया जाए जिस से उस के परिवार वालों को सभी सुविधाएं मिलें. आप लोगों के क्या विचार हैं, इसे जानने के लिए हम यहां एकत्रित हुए हैं.’’

काफी समय तक खामोशी छाई रही फिर प्रोवोस्ट यूनिट के ओसी कर्नल राजन बोले, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. इसलिए नहीं कि कैप्टन सरिता एक अफसर थी बल्कि पिछले दिनों हवलदार जिले सिंह के केस में भी ऐसा किया गया.’’

‘‘और कर्नल सुरेश?’’ कमांडर साहब ने ओसी एमएच से पूछा.

‘‘सर, मुझे कोई एतराज नहीं है, केवल मिलिटरी पुलिस की इनीशियल रिपोर्ट को समझदारी से बदलना होगा.’’

कर्नल सुरेश के सवाल का जवाब कर्नल राजन ने दिया, ‘‘वह सब मैं बदल दूंगा.’’

‘‘फिर, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट को मैं देख लूंगा.’’

‘‘कर्नल सुब्रामनियम, आप कोर्ट औफ इंक्वायरी की अध्यक्षता कर रहे हैं, आप को पता है, आप को क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने पूछा.

‘‘सर.’’

‘‘तो जैंटलमैन, यह तय रहा कि कैप्टन सरिता के केस में क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘कर्नल सुरेश, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट में कारण ऐसा होना चाहिए जिसे कहीं भी चैलेंज न किया जा सके.’’

‘‘सर, ऐसा ही होगा.’’

‘‘ओके जैंटलमेन, मीटिंग अब खत्म. एक सप्ताह में सारा काम हो जाए.’’

मीटिंग समाप्त होने पर सभी अपनेअपने कार्यालय में चले गए. गाड़ी में बैठते ही मुझे कैप्टन सरिता की डायरी की याद आई. ड्राइवर ने जब इस आशय से मेरी ओर देखा कि अब कहां जाना है तो मैं ने उसे औफिस चलने के लिए कहा. औफिस पहुंच कर मैं ने डायरी निकाली और पढ़ने लगा :

‘‘मेरे सपनों के राजकुमार, सर, मैं मानती हूं, किसी कुंआरी लड़की का एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से प्यार करना सुगम नहीं है. इस का कोई औचित्य भी नहीं है परंतु मैं जिस माहौल में पल, पढ़ कर बड़ी हुई, उस में अधेड़ उम्र के व्यक्ति को पसंद किया जाता है. मेरे दादा मेरी दादी से बहुत बड़े थे, मेरी मां भी मेरे पिताजी से बहुत छोटी थीं. शायद यही कारण था, आप को जब पहली बार देखा तो आप की ओर आकर्षित हुए बिना न रह पाई. आप ने मुझे सब बताया कि आप के 2 बच्चे हैं, एक सुंदर बीवी है जिसे आप किसी भी तरह छोड़ नहीं सकते. मैं तो ‘लिव इन रिलेशन’ की बात कर रही थी जिसे आप ने मन की गहराइयों से माना और स्वीकार किया. यह रिलेशन एक लंबे समय तक चलता रहा.

‘‘सोचा था, किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी लेकिन उस रोज आप की बीवी आईं और हमें रंगे हाथों पकड़ लिया. उन्होंने मुझे इतना बुराभला कहा कि मैं बर्दाश्त नहीं कर पाई, इसलिए भी कि आप चुपचाप सुनते रहे. आप की कातर नजरों ने इस बात की घोषणा कर दी कि जिसे मैं ने ‘लिव इन रिलेशन’ का रिश्ता समझा था, वह तो उधार का रिश्ता था, जो अब टूट चुका है. सो, मैं ने सोचा कि मेरे जीने का अब कोई औचित्य नहीं है, इसीलिए मैं ने स्वयं को खत्म करने का निर्णय लिया है.’’

मैं ने डायरी बंद कर दी और इस सोच में डूब गया कि 1 सप्ताह के भीतर सबकुछ ठीक हो जाएगा. सरकार की ओर से कैप्टन सरिता के परिवार वालों को सारी सुविधाएं मिल जाएंगी यानी जब तक उस की सर्विस रहती तब तक के लिए पूरा वेतन, उस के बाद पैंशन भी. परंतु अब भी मेरे सामने अनेक सवाल मुंहबाए खड़े हैं.

क्या किसी कुंआरी लड़की अथवा किसी ब्याहता का इस तरह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना और अपनी जान गंवाना ठीक है? मैं इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहा हूं.

Social Story: हिजड़ा – गुलशन चाचा को कैसा अक्स दिखाई पड़ता था?

Social Story, लेखक- राजेंद्र सिंह गहलौत

पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है. महिलाओं से बात करने में मैं हकलाने लगता हूं. सुंदर से सुंदर महिला को देख कर आकर्षित नहीं होता, उत्तेजित नहीं होता, एकदम से घबरा जाता हूं, लगता कि वह मुझे उपहासित कर लज्जित कर रही है.

इस घटना के पूर्व हर दूसरेतीसरे दिन पत्नी से अभिसार में मैं ही पहल किया करता था और वह समर्पण लेकिन…अब यदाकदा पहल वह करती तो मैं अभिसार के पलों में हिमशिला सा ठंडा हो जाता हूं. उस वक्त पत्नी की तरफ देखते ही वह पगली, उस की चीखें, उस का रुदन याद आ जाता. अगले ही पल पत्नी उस पगली में बदल जाती और मैं पसीनेपसीने हो उठता.

पत्नी मेरे इस ठंडेपन की शिकायत करती तो मैं कभी अपनी डायबिटीज की बीमारी तो कभी ढलती उम्र का तर्क देता. लेकिन उस रात की घटना का जिक्र करने का साहस न जुटा पाता. धीरेधीरे न जाने क्या होता जा रहा है कि अपनेआप से ही मैं डरने लगा. विशेषतौर पर आईने के सामने खड़े होने से घबराने लगा.

न जाने क्यों आईने में प्रतिबिंबित अपने चेहरे से ही नजर नहीं मिला पाता हूं. कभी लगता है कि वह मेरा उपहास कर रहा है तो कभी लगता है कि वह मुझे जलील करता हुआ फटकार रहा है. उस समय उस के चेहरे पर इतने विकृत भाव उभरते, इतनी नफरत मेरे प्रति उमड़ती दिखलाई पड़ती कि मैं आतंकित हो उठता.

ऐसा लगता कि कहीं वह घृणा से मेरे चेहरे पर थूक ही न दे. आईने से प्रतिबिंबित यह चेहरा मेरा अपना ही चेहरा तो है, समझ नहीं पाता हूं कि इस से कैसे बच पाऊंगा. शायद उस से ही बचने के लिए मैं ने आईना देखना ही बंद कर दिया कि न आईने के सामने खड़ा होऊंगा और न ही अपना प्रतिबिंब देखना पड़ेगा.

लेकिन फिर हर कहीं वह मेरा प्रतिबिंबित चेहरा उपहास करता, घृणा से मुझे जलील करता नजर आने लगा. जिस घटना का सिर्फ मैं चश्मदीद गवाह था, अनजाने में जो अपराध मुझ से हुआ था लगता है कि उसे मेरे प्रतिबिंबित चेहरे ने सब को बतला दिया है. हर शख्स से बात करते हुए मैं हकलाने लगता हूं, लगता कि वह मेरा उपहास कर रहा है. मुझ से नफरत कर रहा है. समझ नहीं पाता हूं कि मैं क्या करूं, जबकि मैं उस घटना में अपने को अपराधी भी नहीं मानता लेकिन उस घटना के बारे में किसी से जिक्र भी तो नहीं कर पाता हूं. यहां तक कि उस घटना से लगातार परेशान रहने के बावजूद खुद उस घटना को याद नहीं करना चाहता और न उस घटना से अपनी भूमिका का मूल्यांकन ही करना चाहता हूं.

बड़ी विचित्र स्थिति है, दिनभर व्यस्त रहने का प्रयास करते हुए अपनेआप से बचता रहता हूं, उस घटना की याद भुलाता रहता हूं, लेकिन रात्रि में बिस्तर पर लेटते ही मेरे अंतर्मन में ही एक अदालत लग जाती है. स्वयं मेरा ही प्रतिरूप जज की कुरसी पर बैठा नजर आता है और स्वयं मेरा ही कोई प्रतिरूप उस अदालत में ‘मुजरिम हाजिर हो’ की पुकार लगाने लगता है और स्वयं मेरा ही कोई अन्य प्रतिरूप कभी बतौर मुजरिम कठघरे में जा खड़ा होता है तो कभी मेरा ही एक और प्रतिरूप विपक्ष का वकील बन मुझ पर तीखे आरोपों की बौछार लगा देता है तो कभी स्वयं मेरा ही एक और प्रतिरूप मेरे पक्ष का वकील बन सफाई की दलीलें देता नजर आता है.

बड़ी विचित्र स्थिति है कि स्वयं मेरा अस्तित्व इस सब को देखता हुआ व्यथित होता, परेशान होता नजर आता है. कई बार पूरीपूरी रात यह सब देखतेभुगतते हुए ही गुजर जाती लेकिन मुकदमे का कोई फैसला न होता, न मैं बाइज्जत बरी ही हो पाता और न ही मुझे कोई सजा ही सुनाई जाती लेकिन फिर भी मैं अपनेआप को दंडित होता हुआ पाता.

कब तक आत्मव्यथित होता, आखिर एक दिन साहस कर के आईने में प्रतिबिंबित अपने चेहरे से जा भिड़ा. हाथों को कुशल वक्ता की तरह लहरालहरा कर, चीखचीख कर दलीलें देने लगा कि हर पढ़ालिखा, शरीफ, सभ्य आदमी दुनिया के हर झगड़ेझंझट से अपनेआप को दूर रखना चाहता है, फिर यदि मैं ने भी ऐसा किया तो क्या गुनाह किया? फिर थोड़ा स्वर को मुलायम करते हुए उसे समझाने का प्रयास किया कि अरे भाई, अपने आसपास तो रोज ही कई वारदातें होती रहती हैं.

कई दुर्घटनाएं घटती रहती हैं तो क्या कोई शरीफ, सभ्य आदमी वारदातों का प्रतिरोध करता हुआ अपनेआप को मुसीबत में डालता है. दुर्घटनाओं में मदद के लिए आगे बढ़ता हुआ अपना टाइम व्यर्थ करता है? नहीं न, तो फिर मैं ने भी तो यही किया है. इन सब से निबटने के लिए तो हैं न पुलिस वाले, एंबुलैंस, हौस्पिटल वाले.

अरे भाई साहब, फिल्म, उपन्यास, किस्साकहानी और यथार्थ के जीवन में फर्क होता है. किसी भी अनजान व्यक्ति को किसी दुर्घटना, किसी के अत्याचार से बचाते हुए खुद मुसीबत मोल लेने की ‘हीरोगीरी’ कोई भी शरीफ, सभ्य आदमी नहीं करता, समझे न, एकाएक नजर दर्पण में प्रतिबिंबित अपने प्रतिरूप पर पड़ी तो मैं चौंक पड़ा, सिहर उठा, अत्यधिक भयभीत हो उठा.

आईने में मेरा प्रतिबिंब कुछ दिनों पूर्व अपनी दुकान में मेरे द्वारा समझाइश देने पर हाथमुंह मटकामटका कर अपनी शारीरिक विकलांगता (नपुंसकता) की दलील देने वाले उस हिजड़े की शक्ल में बदलता जा रहा था, मेरी हर हरकत प्रतिबिंबित हो कर उस हिजड़े की हरकतों की तरह होती जा रही थी.

यह मेरा विचित्र प्रतिबिंब उस हिजड़े की तरह ही हाथमुंह हिलाहिला कर दलील दे रहा था. फिर मैं अपनी सफाई में कुछ भी तो न कह सका, कुछ भी न सोच सका. बस, अपनी नजरों में अपनेआप के गिरने की एक विचित्र सन्नाटे की ध्वनिविहीन गूंज जाने कहां से कैसे मुझे सुनाई पड़ने लगी. अब, न जाने कब मैं इस ध्वनिविहीन गूंज के भयंकर शोर के आर्तनाद से उबर सकूंगा?

Social Story: गोधरा में गोदनामा

Social Story: मरने के अलावा उसे और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जीने के लिए उस के पास कुछ नहीं था. न पत्नी न बच्चे, न मकान, न दुकान. उस का सबकुछ लुट चुका था. एक लुटा हुआ इंसान, एक टूटा हुआ आदमी करे भी तो क्या?

उस का घर दंगाइयों ने जला दिया था. हरहर महादेव के नारे श्रीराम पर भी कहर बरपा चुके थे. वह हिंदू था लेकिन उस की पत्नी शबनम मुसलमान थी. उस के बेटे का नाम शंकर था. फिर भी वे गोधरा में चली नफरत की आग में स्वाहा हो चुके थे.

श्रीराम अपने व्यापार के काम से रतलाम गया हुआ था. तभी अचानक दंगे भड़क उठे. जंगल की आग को तो बुझाया जा सकता है लेकिन आग यदि नफरत की हो और उस पर धर्म का पैट्रोल छिड़का जाता रहे, प्रशासन दंगाइयों का उत्साहवर्द्धन करता रहे तो फिर मुश्किल है उस आग का बुझना. ऊपर से एक फोन आया प्रशासन को. लोगों का गुस्सा निकल जाने दो. जो हो रहा है होने दो. बस, फिर क्या था? मौत का खूनी खेल चलता रहा. जिन दोस्तों ने श्रीराम का विवाह करवाया था वे अब कट्टरपंथी बन चुके थे.

दंगाई जब श्रीराम के घर के पास पहुंचे तो किसी ने कहा, ‘‘इस की पत्नी मुसलमान है. इसे मार डालना जरूरी है.’’

दंगाइयों में श्रीराम के दोस्त भी शामिल थे. उस के एक दोस्त ने कहा, ‘‘नहीं, वह श्रीराम की पत्नी है. इस नाते वह भी हिंदू हुई.’’

दंगाई बोले, ‘‘यह हिंदू नहीं मुसलमान है. यह अब भी नमाज पढ़ती है. रोजे रखती है. इस ने अपना नाम और सरनेम भी नहीं बदला. इस ने अपने बेटे का नाम जरूर शंकर रखा है किंतु उसे शिक्षासंस्कार इस्लाम के ही दिए हैं. इस तरह श्रीराम की पत्नी और बेटा मुसलमान ही हुए.’’

श्रीराम के एक दोस्त ने कहा, ‘‘कृपया यह घर छोड़ दीजिए. यह हमारे दोस्त का घर है. इस में उस की पत्नी और बच्चे रहते हैं. कल जब वह वापस आएगा तो हम उसे क्या जवाब देंगे.’’

दंगाई भड़क उठे, ‘‘श्रीराम जैसे मर्दों को जीने का कोई अधिकार नहीं है. मुसलिम औरत से विवाह किया था तो उसे हिंदू बनाना था. हिंदुओं की तरह रहना सिखाना था. ऐसे ही लोग मुसलमानों को बढ़ावा देते हैं. देखते क्या हो? खत्म कर दो सब को और आग लगा दो घर में.’’

थोड़ी ही देर में उस की पत्नीबच्चा आग के दावानल में घिर जल कर राख हो गए. घर से लगी हुई उस की दुकान लूट कर जला दी गई. जब वह वापस आया तो उस का सबकुछ लुट चुका था. वह बरबाद हो चुका था. वह मरने के लिए घर से निकल पड़ा. पहले उस ने ट्रेन के नीचे आ कर मरने की सोची किंतु भारतीय रेल की लेटलतीफी और दंगों के कारण रेल पुलिस भी सजग हो चुकी थी.

आत्महत्या करने के अपराध में कहीं उसे गिरफ्तार न होना पड़े, इसलिए उस ने फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक की शीशी खरीदी और पूरी की पूरी मुंह में उड़ेल ली. थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे. वह बेहोश हो कर गिर पड़ा. होश आया तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. उस के दोस्त शर्मिंदगी के भाव लिए उस के पास खड़े थे. उस से माफी मांग रहे थे. किंतु उन के माफी मांगने से उस का परिवार तो जीवित होने से रहा. उसे कोई शिकायत भी नहीं थी किसी से. वह तो हर हाल में मरना चाहता था.

अस्पताल घायलों की चीखपुकार से गूंज रहा था. श्रीराम सोच रहा था कि रात को वह अपनी नस काट लेगा ताकि उसे इस अकेले और लुटे जीवन से मुक्ति मिल सके. बिना प्यार, बिना सहारे, बिना घर, बिना दुकान के वह जी कर क्या करेगा? उस की पत्नी, उस का बच्चा, घर… सब कितने प्रेम से संजोया था उस ने. शबनम से विवाह के कारण उस का अपना परिवार भी छूट गया था. क्या करेगा वह शबनम और शंकर के बिना जी कर?

जिस बैड पर वह लेटा था उस के बगल में एक मासूम बच्ची थी. घायल, चोटग्रस्त. उफ, दंगाइयों ने इसे भी नहीं छोड़ा. न जाने कैसे बच गई थी. बच्ची को होश आ चुका था. वह रोने लगी. श्रीराम ने उसे सांत्वना दी, सहलाया. उस से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

बच्ची ने कराहते हुए कहा, ‘‘शबाना, और आप का?’’

‘‘श्रीराम.’’

बच्ची के चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए.

वह बोली, ‘‘आप हिंदू हो. मुझे भी मार डालोगे.’’

‘‘मैं तो खुद तुम्हारी तरह अस्पताल में भरती हूं. मैं तुम्हें क्यों मारूंगा?’’

‘‘आप तो हिंदू हैं. फिर आप को क्यों मारा?’’

श्रीराम की आंखों में आंसू आ गए.

उसे रोता देख बच्ची ने कहा, ‘‘सौरी, अंकल, आप को मुसलमानों ने मारा होगा. मेरा पूरा घर जला दिया. मेरे अम्मीअब्बू को भी मार डाला. पता नहीं, मैं कैसे बच गई?’’ यह कह कर 10 वर्ष की मासूम शबाना रोने लगी.

‘अब इस बच्ची का क्या होगा?

इसे कौन सहारा देगा? कौन इसे पालेगापोसेगा?’ श्रीराम सोचने लगा. उस ने डाक्टर से पूछा कि ठीक होने के बाद इस बच्ची का क्या होगा?

डाक्टर ने कहा, ‘‘अभी तक तो कोई रिश्तेदार आया नहीं. एकदो दिन देखते हैं, वरना यतीमखाने भिजवाना पड़ेगा.’’

श्रीराम सोचने लगा कि वह भी इस दुनिया में अकेला है और यह बच्ची भी. क्यों न इसी बच्ची को जीने का सहारा बनाया जाए. श्रीराम को शबाना में अपना बेटा शंकर दिखने लगा. उस का शबाना से मेलमिलाप बढ़ चुका था. उस ने शबाना से पूछा, ‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी?’’

‘‘लेकिन आप तो हिंदू हैं.’’

‘‘ठीक है, तो मैं मुसलमान बन जाता हूं.’’

‘‘नहीं, अंकल, आप मुसलमान मत बनना. नहीं तो आप का भी घर जला देंगे.’’

‘‘तो तुम हिंदू बन जाओ.’’

‘‘नहीं, अंकल, मैं हिंदू नहीं बनूंगी. हिंदू लोग अच्छे नहीं होते. वे लोगों को मार डालते हैं. घर जला देते हैं.’’

‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ, मेरी बेटी कैसे बनोगी?’’

शबाना ने दिमाग पर जोर लगाया, फिर कहा, ‘‘अंकल, आप हिंदू मैं मुसलमान. जब मुसलमान दंगे करेंगे तो मैं आप को बचाऊंगी और जब हिंदू दंगे करेंगे तो आप मुझे बचाना. क्यों, ठीक है न अंकल?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर श्रीराम उदास हो गया. वह कैसे समझाए इस मासूम को कि दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता. होता तो उस की पत्नी शबनम और बेटा शंकर जिंदा होते. शैतानों का कोई ईमान नहीं होता.

बहरहाल, हुआ यों कि श्रीराम ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया और शबाना को अपनी गोद में लिए शेष जीवन जीने में जुट गया.

Family Story: बाजारीकरण – जब बेटी के लिए नीला ने किराए पर रखी कोख

Family Story: आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

नीला को अनिता की बात जंच गई

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

Family Story: पुनर्विवाह- क्या पत्नी की मौत के बाद आकाश ने दूसरी शादी की?

Family Story: जब से पूजा दिल्ली की इस नई कालोनी में रहने आई थी उस का ध्यान बरबस ही सामने वाले घर की ओर चला जाता था, जो उस की रसोई की खिड़की से साफ नजर आता था. एक अजीब सा आकर्षण था इस घर में. चहलपहल के साथसाथ वीरानगी और मुसकराहट के साथसाथ उदासी का एहसास भी होता था उसे देख कर. एक 30-35 वर्ष का पुरुष अकसर अंदरबाहर आताजाता नजर आता था. कभीकभी एक बुजुर्ग दंपती भी दिखाई देते थे और एक 5-6 वर्ष का बालक भी.

उस घर में पूजा की उत्सुकता तब और भी बढ़ गई जब उस ने एक दिन वहां एक युवती को भी देखा. उसे देख कर उसे ऐसा लगा कि वह यदाकदा ही बाहर निकलती है. उस का सुंदर मासूम चेहरा और गरमी के मौसम में भी सिर पर स्कार्फ उस की जिज्ञासा को और बढ़ा गया.

जब पूजा की उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गई तो एक दिन उस ने अपने दूध वाले से पूछ ही लिया, ‘‘भैया, तुम सामने वाले घर में भी दूध देते हो न. बताओ कौनकौन हैं उस घर में.’’

यह सुनते ही दूध वाले की आंखों में आंसू और आवाज में करुणा भर गई. भर्राए स्वर में बोला, ‘‘दीदी, मैं 20 सालों से इस घर में दूध दे रहा हूं पर ऐसा कभी नहीं देखा. यह साल तो जैसे इन पर कयामत बन कर ही टूट पड़ा है. कभी दुश्मन के साथ भी ऐसा अन्याय न हो,’’ और फिर फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘भैया अपनेआप को संभालो,’’ अब पूजा को पड़ोसियों से ज्यादा अपने दूध वाले की चिंता होने लगी थी. पर मन अभी भी यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर क्या हुआ है उस घर में.

शायद दूध वाला भी अपने मन का बोझ हलका करने के लिए बेचैन था.

अत: कहने लगा, ‘‘क्या बताऊं दीदी, छोटी सी गुडि़या थी सलोनी बेबी जब मैं ने इस घर में दूध देना शुरू किया था. देखते ही देखते वह सयानी हो गई और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. सलोनी बेबी ऐसी थी कि सब को देखते ही पसंद आ जाए पर वर भी उस के जोड़ का होना चाहिए था न.

‘‘एक दिन आकाश बाबू उन के घर आए. उन्होंने सलोनी के मातापिता से कहा कि शायद सलोनी ने अभी आप को बताया नहीं है… मैं और सलोनी एकदूसरे को चाहते हैं और अब विवाह करना चाहते हैं,’’ और फिर अपना पूरा परिचय दिया.

‘‘आकाश बाबू इंजीनियर थे व मांबाप की इकलौती औलाद. सलोनी के मातापिता को एक नजर में ही भा गए. फिर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे मातापिता को यह रिश्ता मंजूर है?

‘‘यह सुन कर आकाश बाबू कुछ उदास हो गए फिर बोले कि मेरे मातापिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. 2 वर्ष पूर्व एक कार ऐक्सिडैंट में उन की मौत हो गई थी.

‘‘यह सुन कर सलोनी के मातापिता बोले कि हमें यह रिश्ता मंजूर है पर इस शर्त पर कि विवाहोपरांत भी तुम सलोनी को ले कर यहां आतेजाते रहोगे. सलोनी हमारी इकलौती संतान है. तुम्हारे यहां आनेजाने से हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा और हमारे जीवन में बेटे की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आकाश बाबू राजी हो गए. फिर क्या था धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया और फिर साल भर में गोद भी भर गई.’’

‘‘यह सब तो अच्छा ही है. इस में रोने की क्या बात है?’’ पूजा ने कहा.

दूध वाले ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘एक दिन जब मैं दूध देने गया तो घर में सलोनी बिटिया, आकाश बाबू और शौर्य यानी सलोनी बिटिया का बेटा भी था. तब मैं ने कहा कि बिटिया कैसी हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दीं. मेरी तो आंखें ही तरस जाती हैं तुम्हें देखने के लिए. पर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो सलोनी मुझे काकाकाका कहते नहीं थकती थी वह मेरी बात सुन कर मुंह फेर कर अंदर चली गई. मैं ने सोचा बेटियां ससुराल जा कर पराई हो जाती हैं और कभीकभी उन के तेवर भी बदल जाते हैं. अब वह कहां एक दूध वाले से बात करेगी और फिर मैं वहां से चला आया. पर अगले ही दिन मुझे मालूम पड़ा कि मुझ से न मिलने की वजह कुछ और ही थी. सलोनी बिटिया नहीं चाहती थी कि सदा उस का खिलखिलाता चेहरा देखने वाला काका उस का उदास व मायूस चेहरा देखे.

‘‘दरअसल, सलोनी बिटिया इस बार वहां मिलने नहीं, बल्कि अपना इलाज करवाने आई थी. कुछ दिन पहले ही पता चला था कि उसे तीसरी और अंतिम स्टेज का ब्लड कैंसर है. इसलिए डाक्टर ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जाने को कहा था. यहां इस बीमारी का इलाज नहीं था.

‘‘सलोनी को अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया, पर कोई फायदा नहीं हुआ. ब्लड कैंसर की वजह से सलोनी बिटिया की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई. बारबार कीमोथेरैपी करवाने से उस के लंबे, काले, रेशमी बाल भी उड़ गए. इसी वजह से वह हर वक्त स्कार्फ बांधे रखती. कितनी बार खून बदलवाया गया. पर सब व्यर्थ. आकाश बाबू बहुत चाहते हैं सलोनी बिटिया को. हमेशा उसी के सिरहाने बैठे रहते हैं… तनमनधन सब कुछ वार दिया आकाश बाबू ने सलोनी बिटिया के लिए.’’

शाम को जब विवेक औफिस से आए तो पूजा ने उन्हें सारी बात बताई, ‘‘इस

दुखद कहानी में एक सुखद बात यह है कि आकाश बाबू बहुत अच्छे पति हैं. ऐसी हालत में सलोनी की पूरीपूरी सेवा कर रहे हैं. शायद इसीलिए विवाह संस्कार जैसी परंपराओं का इतना महत्त्व दिया जाता है और यह आधुनिक पीढ़ी है कि विवाह करना ही नहीं चाहती. लिव इन रिलेशनशिप की नई विचारधारा ने विवाह जैसे पवित्र बंधन की धज्जियां उड़ा दी हैं.’’

फिर, ‘मैं भी किन बातों में उलझ गई. विवेक को भूख लगी होगी. वे थकेहारे औफिस से आए हैं. उन की देखभाल करना मेरा भी तो कर्तव्य है,’ यह सोच कर पूजा रसोई की ओर चल दी. रसोई से फिर सामने वाला मकान नजर आया.

आज वहां काफी हलचल थी. लगता था घर की हर चीज अपनी जगह से मिलना चाहती है. घर में कई लोग इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. बाहर ऐंबुलैंस खड़ी थी. पूजा सहम गई कि कहीं सलोनी को कुछ…

पूजा का शक ठीक था. उस दिन सलोनी की तबीयत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. हालांकि उन से अधिक परिचय नहीं था, फिर भी पूजा और विवेक अगले दिन उस से मिलने अस्पताल गए. वहां आकाश की हालत ठीक उस परिंदे जैसी थी, जिसे पता था कि उस के पंख अभी कटने वाले ही हैं, क्योंकि डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि सलोनी अपने जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही है. फिर वही हुआ. अगले दिन सलोनी इस संसार से विदा हो गई.

इस घटना को घटे करीब 2 महीने हो गए थे पर जब भी उस घर पर नजर पड़ती पूजा की आंखों के आगे सलोनी का मासूम चेहरा घूम जाता और साथ ही आकाश का बेबस चेहरा. मानवजीवन पर असाध्य रोगों की निर्ममता का जीताजागता उदाहरण और पति फर्ज की साक्षात मूर्ति आकाश.

दोपहर के 2 बजे थे. घर का सारा काम निबटा कर मैं लेटने ही जा रही थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजे पर एक महिला थी. शायद सामने वाले घर में आई थी, क्योंकि पूजा ने इन दिनों कई बार उसे वहां देखा था. उस का अनुमान सही था.

‘‘मैं आप को न्योता देने आई हूं.’’

‘‘कुछ खास है क्या?’’

‘‘हां, कल शादी है न. आप जरूर आइएगा.’’

इस से पहले कि पूजा कुछ और पूछती, वह महिला चली गई. शायद वह बहुत जल्दी में थी.

वह तो चली गई पर जातेजाते पूजा की नींद उड़ा गई. सारी दोपहरी वह यही सोचती रही कि आखिर किस की शादी हो रही है वहां, क्योंकि उस की नजर में तो उस घर में अभी कोई शादी लायक नहीं था.

शाम को जब विवेक आए तो उन के घर में पैर रखते ही पूजा ने उन्हें यह सूचना दी जिस ने दोपहर से उस के मन में खलबली मचा रखी थी. उसे लगा कि यह समाचार सुन कर विवेक भी हैरान हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे वैसे ही शांत रहे जैसे पहले थे.

बोले, ‘‘ठीक है, चली जाना… हम पड़ोसी हैं.’’

‘‘पर शादी किस की है, आप को यह जानने की उत्सुकता नहीं है क्या?’’ पूजा ने तनिक भौंहें सिकोड़ कर पूछा, क्योंकि उसे लगा कि विवेक उस की बातों में रुचि नहीं ले रहे हैं.

‘‘और किस की? आकाश की. अब शौर्य की तो करने से रहे इतनी छोटी उम्र में. आकाश के घर वाले चाहते हैं कि यह शीघ्र ही हो जाए, क्योंकि आकाश को इसी माह विदेश जाना है. दुलहन सलोनी की चचेरी बहन है.’’

यह सुन कर पूजा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. जिस आकाश को उस ने आदर्श पति का ताज दे कर सिरआंखों पर बैठा रखा था. वह अब उस से छिनता नजर आ रहा था. उस ने सोचा कि पत्नी को मरे अभी 2 महीने भी नहीं हुए और दूसरा विवाह? तो क्या वह प्यार, सेवाभाव, मायूसी सब दिखावा था? क्या एक स्त्री का पुरुषजीवन में महत्त्व जितने दिन वह साथ रहे उतना ही है? क्या मरने के बाद उस का कोई वजूद नहीं? मुझे कुछ हो जाए तो क्या विवेक भी ऐसा ही करेंगे? इन विचारों ने पूजा को अंदर तक हिला दिया और वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई. उसे सारा कमरा घूमता नजर आ रहा था.

जब विवेक वहां आए तो पूजा को इस हालत में देख घबरा गए और फिर उस का सिर गोद में रख कर बोले, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या ऊटपटांग सोचसोच कर अपना दिमाग खराब किए रखती हो? तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

विवेक की इस बात पर सदा गौरवान्वित महसूस करने वाली पूजा आज बिफर पड़ी, ‘‘ले आना तुम भी आकाश की तरह दूसरी पत्नी. पुरुष जाति होती ही ऐसी है. पुरुषों की एक मृगमरीचिका है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. आकाश यह शादी अपने सासससुर के कहने पर ही कर रहा है. उन्होंने ही उसे पुनर्विवाह के लिए विवश किया है, क्योंकि वे आकाश को अपने बेटे की तरह चाहने लगे हैं. वे नहीं चाहते कि आकाश जिंदगी भर यों ही मायूस रहे. वे चाहते हैं कि आकाश का घर दोबारा बस जाए और आकाश की पत्नी के रूप में उन्हें अपनी सलोनी वापस मिल जाए. इस तरह शौर्य को भी मां का प्यार मिल जाएगा.

‘‘पूजा, जीवन सिर्फ भावनाओं और यादों का खेल नहीं है. यह हकीकत है और इस के लिए हमें कई बार अपनी भावनाओं का दमन करना पड़ता है. सिर्फ ख्वाबों और यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. जिंदगी बहुत लंबी होती है.

‘‘आकाश दूसरी शादी कर रहा है इस का अर्थ यह नहीं कि वह सलोनी से प्यार नहीं करता था. सलोनी उस का पहला प्यार था और रहेगी, परंतु यह भी तो सत्य है कि सलोनी अब दोबारा नहीं आ सकती. दूसरी शादी कर के भी वह उस की यादों को जिंदा रख सकता है. शायद यह सलोनी के लिए सब से बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

‘‘यह दूसरी शादी इस बात का सुबूत है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के 2 पहिए हैं और यह गाड़ी खींचने के लिए एकदूसरे की जरूरत पड़ती है और यह काम अभी हो जाए तो इस में हरज ही क्या है?’’

विवेक की बातों ने पूजा के दिमाग से भावनाओं का परदा हटा कर वास्तविकता की तसवीर दिखा दी थी. अब उसे आकाश के पुनर्विवाह में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी और न ही विवेक के प्यार पर अब कोई शक की गुंजाइश थी.

विवेक के लिए खाना लगा कर पूजा अलमारी खोल कर बैठ गई और फिर स्वभावानुसार विवेक का सिर खाने लगी, ‘‘कल कौन सी साड़ी पहनूं? पहली बार उन के घर जाऊंगी. अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

विवेक ने भी सदा की तरह मुसकराते हुए कहा, ‘‘कोई भी पहन लो. तुम पर तो हर साड़ी खिलती है. तुम हो ही इतनी सुंदर.’’

पूजा विवेक की प्यार भरी बातें सुन कर गर्वित हो उठी.

Social Story: एक मुलाकात

Social Story: सपना से मेरी मुलाकात दिल्ली में कमानी औडिटोरियम में हुई थी. वह मेरे बगल वाली सीट पर बैठी नाटक देख रही थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि उस के मामा थिएटर करते हैं और वह उन्हीं के आग्रह पर आई है. वह एमएससी कर रही थी. मैं ने भी अपना परिचय दिया. 3 घंटे के शो के दौरान हम दोनों कहीं से नहीं लगे कि पहली बार एकदूसरे से मिल रहे हैं. सपना तो इतनी बिंदास लगी कि बेहिचक उस ने मुझे अपना मोबाइल नंबर भी दे दिया.

एक सप्ताह गुजर गया. पढ़ाई में व्यस्तता के चलते मुझे सपना का खयाल ही नहीं आया. एक दिन अनायास मोबाइल से खेलते सपना का नंबर नाम के साथ आया, तो वह मेरे जेहन में तैर गई. मैं ने उत्सुकतावश सपना का नंबर मिलाया.

‘हैलो, सपना.’

‘हां, कौन?’

‘मैं सुमित.’

सपना ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया तो उसे सहसा याद आया, ‘सुमित नाटक वाले.’

‘ऐसा मत कहो भई, मैं नाटक में अपना कैरियर बनाने वाला नहीं,’ मैं हंस कर बोला.

‘माफ करना, मेरे मुंह से ऐसे ही निकल गया,’ उसे अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘ओकेओके,’ मैं ने टाला.

‘फोन करती, पर क्या करूं 15 दिन बाद फर्स्ट ईयर के पेपर हैं.’ उस के स्वर से लाचारी स्पष्ट झलक रही थी.

‘किस का फोन था?’ मां ने पूछा.

‘मेरे एक फ्रैंड सुमित का. पिछले हफ्ते मैं उस से मिली थी.’ सपना ने मां को याद दिलाया.

‘क्या करता है वह?’ मां ने पूछा.

‘यूपीपीसीएस की तैयारी कर रहा है दिल्ली में रह कर.’

‘दिल्ली क्या आईएएस के लिए आया था? इस का मतलब वह भी यूपी का होगा.’

‘हां,’ मैं ने जान छुड़ानी चाही.

एक महीने बाद सपना मुझे करोल बाग में खरीदारी करते दिखी. उस के साथ एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं. मां के अलावा और कौन हो सकता है? मैं कोई निर्णय लेता, सपना ने मुझे देख लिया.

‘सुमित,’ उस ने मुझे आवाज दी. मैं क्षणांश लज्जासंकोच से झिझक गया, लेकिन सपना की पहल से मुझे बल मिला. मैं उस के करीब आया.

‘मम्मी, यही है सुमित,’ सपना मुसकरा कर बोली.

मैं ने उन्हें नमस्कार किया.

‘कहां के रहने वाले हो,’ सपना की मां ने पूछा.

‘जौनपुर.’

‘ब्राह्मण हो?’

मैं ब्राह्मण था तो बुरा भी नहीं लगा, लेकिन अगर दूसरी जाति का होता तो? सोच कर अटपटा सा लगा. खैर, पुराने खयालातों की थीं, इसलिए मैं ने ज्यादा दिमाग नहीं खपाया. लोग दिल्ली रहें या अमेरिका, जातिगत बदलाव भले ही नई पीढ़ी अपना ले, मगर पुराने लोग अब भी उन्हीं संस्कारों से चिपके हैं. नई पीढ़ी को भी उसी सोच में ढालना चाहते हैं.

मैं ने उन के बारे में कुछ जानना नहीं चाहा. उलटे वही बताने लगीं, ‘हम गाजीपुर के ब्राह्मण हैं. सपना के पिता बैंक में चीफ मैनेजर हैं,’ सुन कर अच्छा भी लगा, बुरा भी. जाति की चर्चा किए बगैर भी अपना परिचय दिया जा सकता था.

हम 2 साल तक एकदूसरे से मिलते रहे. मैं ने मन बना लिया था कि व्यवस्थित होने के बाद शादी सपना से ही करूंगा. सपना ने भले ही खुल कर जाहिर न किया हो, लेकिन उस के मन को पढ़ना कोई मुश्किल काम न था.

मैं यूपीपीसीएस में चुन लिया गया. सपना ने एमएससी कर ली. यही अवसर था, जब सपना का हाथ मांगना मुझे मुनासिब लगा, क्योंकि एक हफ्ते बाद मुझे दिल्ली छोड़ देनी थी. सहारनपुर जौइनिंग के पहले किसी नतीजे पर पहुंचना चाहता था, ताकि अपने मातापिता को इस फैसले से अवगत करा सकूं. देर हुई तो पता चला कि उन्होंने कहीं और मेरी शादी तय कर दी, तो उन के दिल को ठेस पहुंचेगी. सपना को जब मैं ने अपनी सफलता की सूचना दी थी, तब उस ने अपने पिता से मिलने के लिए मुझे कहा था. मुझे तब समय नहीं मिला था, लेकिन आज मिला है.

मैं अपने कमरे में कपड़े बदल रहा था, तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी.

‘कौन?’ मैं शर्ट पहनते हुए बोला.

‘सपना,’ मेरी खुशियों को मानो पर लग गए.

‘अंदर चली आओ,’ कमीज के बटन बंद करते हुए मैं बोला, ‘आज मैं तुम्हारे ही घर जा रहा हूं.’

सपना ने कोई जवाब नहीं दिया. मैं ने महसूस किया कि वह उदास थी. उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस के हाथ में कुछ कार्ड्स थे. उस ने एक मेरी तरफ बढ़ाया.

‘यह क्या है?’ मैं उलटपुलट कर देखने लगा.

‘खोल कर पढ़ लो,’ सपना बुझे मन से बोली.

मुझे समझते देर न लगी कि यह सपना की शादी का कार्ड है. आज से 20 दिन बाद गाजीपुर में उस की शादी होने वाली है. मेरा दिल बैठ गया. किसी तरह साहस बटोर कर मैं ने पूछा, ‘एक बार मुझ से  पूछ तो लिया होता.’

‘क्या पूछती,’ वह फट पड़ी, ‘तुम मेरे कौन हो जो पूछूं.’ उस की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. मुझे सपना का अपने प्रति बेइंतहा मुहब्बत का प्रमाण मिल चुका था. फिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी, जिस के चलते सपना ने अपनी मुहब्बत का गला घोंटा.

‘मम्मीपापा तुम से शादी के लिए तैयार थे, परंतु…’ वह चुप हो गई. मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. मैं सबकुछ जानना चाहता था.

‘बोलो, बोलो सपना, चुप क्यों हो गई. क्या कमी थी मुझ में, जो तुम्हारे मातापिता ने मुझे नापसंद कर दिया.’ मैं जज्बाती हो गया.

भरे कंठ से वह बोली, ‘जौनपुर में पापा की रिश्तेदारी है. उन्होंने ही तुम्हारे परिवार व खानदान का पता लगवाया.’

‘क्या पता चला?’

‘तुम अनाथालय से गोद लिए पुत्र हो, तुम्हारी जाति व खानदान का कुछ पता नहीं.’

‘हां, यह सत्य है कि मैं अपने मातापिता का दत्तक पुत्र हूं, मगर हूं तो एक इंसान.’

‘मेरे मातापिता मानने को तैयार नहीं.’

‘तुम क्या चाहती हो,’ मैं ने ‘तुम’ पर जोर दिया. सपना ने नजरें झुका लीं. मैं समझ गया कि सपना को जैसा मैं समझ रहा था, वह वैसी नहीं थी.

वह चली गई. पहली बार मुझे अपनेआप व उन मातापिता से नफरत हुई, जो मुझे पैदा कर के गटर में सड़ने के लिए छोड़ गए. गटर इसलिए कहूंगा कि मैं उस समाज का हिस्सा हूं जो अतीत में जीता है. भावावेश के चलते मेरा गला रुंध गया. चाह कर भी मैं रो न सका.

आहिस्ताआहिस्ता मैं सपना के दिए घाव से उबरने लगा. मेरी शादी हो गई. मेरी बीवी भले ही सुंदर नहीं थी तथापि उस ने कभी जाहिर नहीं होने दिया कि मेरे खून को ले कर उसे कोई मलाल है. उलटे मैं ने ही इस प्रसंग को छेड़ कर उस का मन टटोलना चाहा तो वह हंस कर कहती, ‘मैं सात जन्मों तक आप को ही चाहूंगी.’ मैं भावविभोर हो उसे अपने सीने से लगा लेता. सपना ने जहां मेरे आत्मबल को तोड़ा, वहीं मेरी बीवी मेरी संबल थी.

आज 18 नवंबर था. मन कुछ सोच कर सुबह से ही खिन्न था. इसी दिन सपना ने अपनी शादी का कार्ड मुझे दिया था. कितनी बेरहमी के साथ उस ने मेरे अरमानों का कत्ल किया था. मैं उस की बेवफाई आज भी नहीं भूला था, जबकि उस बात को लगभग 10 साल हो गए थे. औरत अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलती और पुरुष अपनी पहली बेवफाई.

कोर्ट का समय शुरू हुआ. पुराने केसों की एक फाइल मेरे सामने पड़ी थी. गाजीपुर आए मुझे एक महीने से ऊपर हो गया. इस केस की यह पहली तारीख थी. मैं उसे पढ़ने लगा. सपना बनाम सुधीर पांडेय. तलाक का मुकदमा था, जिस में वादी सपना ने अपने पति पर शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा कर तलाक व भरणपोषण की मांग की थी.

सपना का नाम पढ़ कर मुझे शंका हुई. फिर सोचा, ‘होगी कोई सपना.’ तारीख पर दोनों मौजूद थे. मैं ने दोनों को अदालत में हाजिर होने का हुक्म दिया. मेरी शंका गलत साबित नहीं हुई. वह सपना ही थी. कैसी थी, कैसी हो गई. मेरा मन उदास हो गया. गुलाब की तरह खिले चेहरे को मानो बेरहमी से मसल दिया गया हो. उस ने मुझे पहचान लिया. इसलिए निगाहें नीची कर लीं. भावनाओं के उमड़ते ज्वार को मैं ने किसी तरह शांत किया.

‘‘सर, पिछले 4 साल से यह केस चल रहा है. मेरी मुवक्किल तलाक के साथ भरणपोषण की मांग कर रही है.’’

दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनने के बाद लंच के दौरान मैं ने सपना को अपने केबिन में बुलाया. वह आना नहीं चाह रही थी, फिर भी आई.

‘‘सपना, क्या तुम सचमुच तलाक चाहती हो?’’ उस की निगाहें झुकी हुई थीं. मैं ने पुन: अपना वाक्य दोहराया. कायदेकानून से हट कर मेरी हमेशा कोशिश रही कि ऐसे मामलों में दोनों पक्षों को समझाबुझा कर एक किया जाए, क्योंकि तलाक का सब से बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है. वकीलों का क्या? वे आपस में मिल जाते हैं तथा बिलावजह मुकदमों को लंबित कर के अपनी रोजीरोटी कमाते हैं.

मुवक्किल समझता है कि ये हमारी तरफ से लड़ रहे हैं, जबकि वे सिर्फ अपने पेट के लिए लड़ रहे होते हैं. सपना ने जब अपनी निगाहें ऊपर कीं, तो मैं ने देखा कि उस की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं.

‘‘वह मेरे चरित्र पर शक करता था. किसी से बात नहीं करने देता था. मेरे पैरों में बेडि़यां बांध कर औफिस जाता, तभी खोलता जब उस की शारीरिक डिमांड होती. इनकार करने पर मारतापीटता,’’ सपना एक सांस में बोली.

यह सुन कर मेरा खून खौल गया. आदमी था कि हैवान, ‘‘तुम ने पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाई?’’

‘‘लिखवाती तब न जब उस के चंगुल से छूटती.’’

‘‘फिर कैसे छूटीं?’’

‘‘भाई आया था. उसी ने देखा, जोरजबरदस्ती की. पुलिस की धमकी दी, तब कहीं जा कर छूटी.’’

‘‘कितने साल उस के साथ रहीं?’’

‘‘सिर्फ 6 महीने. 3 साल मायके में रही, सोचा सुधर जाएगा. सुधरना तो दूर उस ने मेरी खोजखबर तक नहीं ली. उस की हैवानियत को ले कर पहले भी मैं भयभीत थी. मम्मीपापा को डर था कि वह मुझे मार डालेगा, इसलिए सुसराल नहीं भेजा.’’

‘‘उसे किसी मनोचिकित्सक को नहीं दिखाया?’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता? वैसे भी जन्मजात दोष को कोई भी दूर नहीं कर सकता.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘वह शुरू से ही शक्की प्रवृत्ति का था. उस पर मेरी खूबसूरती ने कोढ़ में खाज का काम किया. एकाध बार मैं ने उस के दोस्तों से हंस कर बात क्या कर ली, मानो उस पर बज्रपात हो गया. तभी से किसी न किसी बहाने मुझे टौर्चर करने लगा.’’

मैं कुछ सोच कर बोला, ‘‘तो अब तलाक ले कर रहोगी.’’ वह कुछ बोली नहीं. सिर नीचा कर लिया उस ने. मैं ने उसे सोचने व जवाब देने का मौका दिया.

‘‘अब इस के अलावा कोई चारा नहीं,’’ उस का स्वर अपेक्षाकृत धीमा था.

मैं ने उस की आंखों में वेदना के उमड़ते बादलों को देखा. उस दर्द, पीड़ा का एहसास किया जो प्राय: हर उस स्त्री को होती है. जो न चाहते हुए भी तलाक के लिए मजबूर होती है. जिंदगी जुआ है. यहां चाहने से कुछ नहीं मिलता. कभी मैं सपना की जगह था, आज सपना मेरी जगह है. मैं ने तो अपने को संभाल लिया. क्या सपना खुद को संभाल पाएगी? एक उसांस के साथ सपना को मैं ने बाहर जाने के लिए कहा.

मैं ने सपना के पति को भी बुलाया. देखने में वह सामान्य पुरुष लगा, परंतु जिस तरीके से उस ने सपना के चरित्र पर अनर्गल आरोप लगाए उस से मेरा मन खिन्न हो गया. अंतत: जब वह सपना के साथ सामंजस्य बिठा कर  रहने के लिए राजी नहीं हुआ तो मुझे यही लगा कि दोनों अलग हो जाएं. सिर्फ बच्चे के भरणपोषण को ले कर मामला अटका हुआ था.

मैं ने सपना से पूछा, ‘‘तुम्हें हर माह रुपए चाहिए या एकमुश्त रकम ले कर अलग होना चाहती हो,’’ सपना ने हर माह की हामी भरी.

मैं ने कहा, ‘‘हर माह रुपए आएंगे भी, नहीं भी आएंगे. नहीं  आएंगे तो तुम्हें अदालत की शरण लेनी पड़ेगी. यह हमेशा का लफड़ा है. बेहतर यही होगा कि एकमुश्त रकम ले कर अलग हो जाओ और अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ. तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि संपन्न है. बेहतर है ऐसे आदमी से छुट्टी पाओ.’’ यह मेरी निजी राय थी.

5 लाख रुपए पर मामला निबट गया. अब दोनों के रास्ते अलग थे. सपना के मांबाप मेरी केबिन में आए. आभार व्यक्त करने के लिए उन के पास शब्द नहीं थे. उन के चेहरे से पश्चात्ताप की लकीरें स्पष्ट झलक रही थीं. मैं भी गमगीन था. सपना से अब पता नहीं कब भेंट होगी. उस के भविष्य को ले कर भी मैं उदिग्न था. न चाह कर भी कुछ कहने से खुद को रोक नहीं पाया, ‘‘सपना, तुम ने शादी करने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मेरी जाति, खानदान का अतापता नहीं था. मैं अपने तथाकथित मातापिता का गोद लिया पुत्र था, पर जिस के मातापिता व खानदान का पता था उसे क्यों छोड़ दिया,’’ सब निरुत्तर थे.

सपना के पिता मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर भरे गले से बोले, ‘‘बेटा, मैं ने इंसान को पहचानने में गलती की, इसी का दंड भुगत रहा हूं. मुझे माफ कर दो,’’ उन की आंखों से अविरल अश्रुधार फूट पड़ी.

एक बेटी की पीड़ा का सहज अनुमान लगाया जा सकता था उस बाप के आंसुओं से, जिस ने बड़े लाड़प्यार से पालपोस कर उसे बड़ा किया था, पर अंधविश्वास को क्या कहें, इंसान यहीं हार जाता है. पंडेपुजारियों का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. सपना मेरी आंखों से ओझल हो गई और छोड़ गई एक सवाल, क्या उस के जीवन में भी सुबह होगी?

Short Story: एक रात का सफर- क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Short Story, लेखिका- सोनी किशोर सिंह

बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास.

Social Story: प्यार उसका न हो सका

Social Story, लेखक- किशन लाल शर्मा

‘‘कौन है?’’ दरवाजे पर कई बार दस्तक देने के बाद अंदर से आवाज आई पर अब भी दरवाजा नहीं खिड़की खुली थी.

‘‘मैं, नेहा. दरवाजा खोल,’’ नेहा बोली, ‘‘कब से दरवाजा खटखटा रही हूं.’’

‘‘सौरी,’’ प्रिया नींद से जाग कर उबासी लेते हुए बोली, ‘‘तू और कहीं कमरा तलाश ले.’’

‘‘कमरा तलाश लूं,’’ नेहा ने हैरानी से प्रिया की ओर देखा व बोली, ‘‘कमरा तो तुझे तलाशना है?’’

‘‘अब मुझे नहीं, कमरा तुझे तलाशना है,’’ प्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘मैं ने और कर्ण ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’ नेहा ने आश्चर्य से प्रिया को देखा. उस के माथे की बिंदी और मांग में भरा सिंदूर इस बात के गवाह थे.

‘‘पतिपत्नी के बीच तेरा क्या काम?’’ और इतना कहने के साथ ही प्रिया ने खिड़की बंद कर ली.

नेहा खड़ीखड़ी कभी खिड़की को तो कभी दरवाजे को ताकती रह गई. प्रिया औैर कर्ण के बारे में सोचतेसोचते उस के अतीत के पन्ने खुलने लगे.

नेहा और कर्ण कानपुर में इंजीनियरिंग कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. अंतिम वर्ष की परीक्षाएं चल रही थीं, तभी कालेज कैंपस में प्लेसमैंट के लिए कई कंपनियां आईं. मुंबई की एक कंपनी में नेहा और कर्ण का सलैक्शन हो गया. परीक्षा समाप्त होने के बाद दोनों मुंबई चले गए.

मुंबई में नेहा और कर्ण ने मिल कर एक फ्लैट किराए पर ले लिया और दोनों लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. साथ रहतेरहते दोनों एकदूसरे के करीब आ गए.

एक रात जब कर्ण ने नेहा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा तो वह चौंकते हुए बोली, ‘कर्ण, क्या कर रहे हो?’

‘प्यार… लव…’

‘नहीं,’ नेहा बोली, ‘अभी हमारी शादी नहीं हुई है.’

‘क्या प्यार करने के लिए शादी करना जरूरी है?’

‘हां, हमारे यहां शादी के बाद ही पतिपत्नी को शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत है.’

‘कैसी दकियानूसी बातें करती हो, नेहा. जब शादी के बाद हम सैक्स कर सकते हैं तो पहले क्यों नहीं,’ कर्ण बोला, ‘अगर तुम शादी को जरूरी समझती हो तो वह भी कर लेंगे.’

नेहा शिक्षित और खुले विचारों की थी, लेकिन सैक्स के मामले में उस का मानना था कि शादी के बाद ही शारीरिक संबंध बनाने चाहिए. लेकिन कर्ण ने अपने प्यार का विश्वास दिला कर शादी से पहले ही नेहा को समर्पण के लिए मजबूर कर दिया.सैक्स का स्वाद चखने के बाद नेहा को भी उस का चसका लग गया. रोज रात को समर्पण करने से तो वह इनकार नहीं करती थी, लेकिन सावधानी जरूर बरतने लगी थी.

शुरू में तो नेहा ने कर्ण से शादी के लिए कहा, लेकिन दिन गुजरने के साथ वह भी सोचने लगी थी कि औरतआदमी दोनों अगर साथ जीवन गुजारने को तैयार हों तो जरूरी नहीं कि समाज को दिखाने के लिए शादी के बंधन में बंधें. बिना शादी के भी वे पतिपत्नी बन कर रह सकते हैं.

नेहा को कर्ण के प्यार पर पूरा विश्वास था इसीलिए उस ने शादी का जिक्र तक करना छोड़ दिया था और उसे शादी का खयाल आता भी नहीं अगर उन के बीच प्रिया न आती.

प्रिया पिछले दिनों ही उन की कंपनी में नई नई आई थी. वह दिल्ली की रहने वाली थी. मुंबई में उस का कोई परिचित नहीं था. जब तक प्रिया को कहीं कमरा नहीं मिल जाता तब तक के लिए कर्ण और नेहा ने उसे अपने साथ फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी.

प्रिया नेहा से ज्यादा सुंदर और तेजतर्रार थी. कर्ण प्रिया की सुंदरता और उस की मनमोहक बातों से इतना प्रभावित हुआ कि वह उस में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा.

जिस कर्ण को नेहा सब से ज्यादा सुंदर नजर आती थी, वही कर्ण अब प्रिया के पीछे घर में ही नहीं औफिस में भी लट्टू था.

नेहा ने कई बार कर्र्ण को रोका, लेकिन कर्ण ने उस की बातों पर ध्यान नहीं दिया. नेहा समझ गई कि अगर जल्दी कर्ण को शादी के बंधन में नहीं बांधा गया तो वह हाथ से निकल जाएगा.

नेहा शादी के बारे में अपनी मां से बात करने एक सप्ताह की छुट्टी ले कर कानपुर चली गई. उस ने मां से कुछ नहीं छिपाया. मां ने उसे डांटते हुए कहा, ‘देर मत कर, उस से शादी कर ले.’

लेकिन नेहा आ कर कर्ण से शादी करती उस से पहले ही प्रिया ने उसे अपना बना लिया था.

कर्ण पर विश्वास कर के नेहा शादी से पहले अपना सबकुछ कर्ण को समर्पित कर चुकी थी और समर्पण कर के वह बुरी तरह ठगी जा चुकी थी. अपना सबकुछ लुटा कर भी नेहा कर्ण को अपना नहीं बना पाई.

Social Story: दीया और सुमि

Social Story: “अरे दीया, चलो मुसकरा भी दो अब. इस दुनिया की सारी समस्याएं केवल तुम्हारी तो नहीं हैं,” सुमि ने कहा तो यह लाजवाब बात सुन कर दीया हंस दी और उस ने सुमि के गाल पर एक मीठी सी चपत भी लगा दी.

“अरे सुनो, हां, तो यह चाय कह रही है कि गरमगरम सुड़क लो ठंडी हो जाऊंगी तो चाय नहीं रहूंगी,” सुमि ने कहा.

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने कप हाथों में थामा और होंठों तक ले आई. सुमि के हाथ की गरम चाय घूंटघूंट पी कर मन सचमुच बागबाग हो गया उस का.

“चलो, अब मैं जरा हमारे दिसु बाबा को बाहर सैर करा लाती हूं. तुम अपना मन हलका करो और यह संगीत सुनो,” कह कर सुमि ने 80 के दशक के गीत लगा दिए और बेबी को ले कर बाहर निकल गई.

दीया ने दिसु के बाहर जाने से पहले उसे खूब प्यार किया…’10 महीने का दिसु कितना प्यारा है. इस को देख कर लगता है कि यह जीवन, यह संसार कितना सुंदर है,’ दीया ने मन ही मन सोचा और खयालों में डूबती चली गई.

यादों के सागर में दीया को याद आया 2 साल पहले वाला वह समय, जब मेकअप रूम में वह सुमि से टकरा गई थी. दीया तैयार हो रही थी और सुमि क्लब के मैनेजर से बहस करतेकरते मेकअप रूम तक आ गई थी. वह मैनेजर दीया को भी कुछ डांस शो देता था, पर दीया तो उस से भयंकर नफरत करती थी. दीया का मन होता कि उस के मुंह पर थूक दे, क्योंकि उस ने दीया को नशीली चीजें पिला कर जाने कितना बरबाद कर डाला था. आज वह मैनेजर सुमि को गालियां दे रहा था.

आखिरकार सुमि को हां करनी पड़ी, “हांहां, इसी बदन दिखाती ड्रैस को पहन कर नाच लूंगी.”

यह सुन कर वह धूर्त मैनेजर संतुष्ट हो कर वहां से तुरंत चला गया और जातेजाते बोलता रहा, “जल्दी तैयार हो जाना.”

“क्या तैयार होना है, यह रूमाल ही तो लपेटना है…” कह कर जब सुमि सुबक रही थी, तब दीया ने उसे खूब दिलासा दिया और कहा, “सुनो, मैं आप का नाम तो नहीं जानती, पर यही सच है कि हम को पेट भरना है और
उस कपटी मैनैजर को पैसा कमाना है. जानती हो न इस पूरी धरती की क्या बिसात, वहां स्वर्ग में भी यह दौलत ही सब से बड़ी चीज है.”

इस तरह माहौल हलका हुआ. सुमि ने अपना नाम बताया, तब उन दोनों ने एकदूसरे के मन को पढ़ा. कुछ बातें भी हुईं और उस रात क्लब में नाचने के बाद अगले दिन सुबह 10 बजे मिलने का वादा किया.

आधी रात तक खूबसूरत जवान लड़कियों से कमर मटका कर और जाम पर जाम छलका कर उन के मालिक, मैनेजर या आयोजक सब दोपहर बाद तक बेसुध ही रहने वाले थे. वे दोनों एक पार्क में मिलीं और बैंच पर बैठ गईं. दोनों कुछ पल खामोश रहीं और सुमि ने बात शुरू की थी, फिर तो एकदूसरे के शहर, कसबे, गांव, घरपरिवार और घुटन भरी जिंदगी की कितनी बातें एक के बाद एक निकल पड़ीं और लंबी सांस ले कर सुमि बोली, “कमाल है न कि यह समय भी कैसा खेल दिखाता है. जिन को हम ने अपना समझ कर अपनी हर समस्या साझा कर ली, वे ही दोस्त से देह के धंधेबाज बन गए, वह भी हमारी देह के.”

“हां सुमि, तुम सही कह रही हो. कल रात तुम को देखा तो लगा कि हम दोनों के सीने में शायद एकजैसा दर्द है,” कहते हुए दीया ने गहरी सांस ली. आज कितने दिनों के बाद वे दोनों दिल की बात कहसुन रही थीं.

सुमि को तब दीया ने बताया कि रामपुर में उस का पंडित परिवार किस तरह बस पूजा और अनुष्ठान के भरोसे ही चल रहा था, पर सारी दुनिया को कायदा सिखा रहे उस घर में तनिक भी मर्यादा नहीं थी. उस की मां को उस के सगे चाचा की गोद में नींद आती और पिता से तीसरेचौथे दिन शराब के बगैर सांस भी न ली जाती.

“तो तुम कुछ कहती नहीं थी?” सुमि ने पूछा.

“नहीं सुमि, मैं बहुत सांवली थी और हमारे परिवार मे सांवली लड़की किसी मुसीबत से कम नहीं होती, तो मैं घर पर कम रहती थी.”

“तुम कहां रहती थी?”

“सुमि, मैं न बहुत डरपोक थी और जब भी जरा फुरसत होती तो सेवा करने चली जाती. कभी कहीं किसी के बच्चों को पढ़ा देती तो किसी के कुत्तेबिल्ली की देखभाल करती बड़ी हो गई तो किसी की रसोई तक संभाल देती पर यह बात भीतर तक चुभ जाती कि कितनी सांवली है, इस को कोई पसंद नहीं करेगा,” दीया तब लगातार बोलती रही थी.

सुमि कितने गौर से सुन रही थी. अब वह एक सहेली पा कर उन यादों के अलबम पलटने लगी.

दीया बोलने लगी, “एक लड़का मेरा दोस्त बन गया. उस ने कभी नहीं कहा कि तुम सांवली हो और जब जरूरत होती वह खास सब्जैक्ट की किताबें और नोट्स आगे रखे हुए मुझे निहारता रहता.

“इस तरह मैं स्कूल से कालेज आई तो अलगअलग तरह की नईनई बातें सीख गई. मेरे कसबे के दोस्तों ने बताया था कि अगर कोई लड़का तुम से बारबार मिलना चाहे तो यही रूप सच्चे मददगार का भी रूप है और मैं ने आसानी से इस बात पर विश्वास कर लिया था.”

एक दिन इसी तरह कोई मुश्किल सब्जैक्ट समझाते हुए उस लड़के के एकाध बाल उलझ कर माथे पर आ गए थे तो दीया का मन महक गया. उस के चेहरे पर हलकीहलकी उमंग उठी थी.

हालांकि दीया की उम्र 20 साल से ज्यादा नहीं थी, पर उस के दिल पर एक स्थायी चाहत थी, जिस का रास्ता बारबार उसी अपने और करीबी से लगने वाले मददगार लड़के के पास जाता दिखाई देता था.

दीया कालेज में पढ़ने वाले उस लड़के का कोई इतिहासभूगोल जानती नहीं थी और जानना भी नहीं चाहती थी. सच्चा प्यार तो हमेशा ईमानदार होता है, वह सोचती थी. एक दिन वह अपने घर से रकम और गहने ले कर चुपचाप
रवाना हो गई. वह बेफिक्र थी, क्योंकि पूरे रास्ते उस का फरिश्ता उस को गोदी मे संभाले उस के साथ ही तो था और बहुत करीब भी था.

दीया उस लड़के के साथ बिलकुल निश्चिंत थी, क्योंकि उस को जब भी अपने मददगार यार के चेहरे पर मुसकराहट दिखाई देती थी, वह यही मान लेती थी कि भविष्य सुरक्षित है, जीवन बिलकुल मजेदार होने वाला है. आने वाले दिन तो और भी रसीले और चमकदार होंगे.

मगर दीया कहां जानती थी कि वे कोरे सपने थे, जो टूटने वाले थे. यह चांदनी 4-5 दिन में ही ढलने लगी. एक दिन वह लड़का अचानक उठ कर कहीं चला गया. दीया ने उस का इंतजार किया, पर वह लौटा नहीं, कभी नहीं.

उस के बाद दीया की जिंदगी बदल गई. वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस जो उसे यहांवहां नाचने के लिए मजबूर किया गया. इतना ही नहीं उस को धमकी मिलती कि तुम्हारी फिल्म बना कर रिलीज कर देंगे, फिर किसी कुएं या पोखर मे कूद जाना.

दीया को कुछ ऐसा खिलाया या पिलाया जाता कि वह सुबह खुद को किसी के बैडरूम में पाती और छटपटा जाती. कई दिनों तक यों ही शहरशहर एक अनाचारी से दूसरे दुराचारी के पलंग मे कुटने और पिसने के बाद वह सुमि से मिल गई.

सुमि ने दीया को पानी की बोतल थमा दी और बताया, “मैं खुद भी अपने मातापिता के मतभेद के बीच यों ही पिसती रही जैसे चक्की के 2 पाटों में गेहूं पिस जाता है. मां को आराम पसंद था पिता को सैरसपाटा और लापरवाही भरा जीवन. घर पर बस नौकर रहते थे. हमारे दादा के बगीचे थे. पूरे साल रुपया ही बरसता रहता था. अमरूद, आम से ले कर अंगूर, अनार के बगीचे.”

“अच्छा तो इतने पैसे मिलते थे…” दीया ने हैरानी से कहा.

“हां दीया, और मेरी मां बस बेफिक्र हो कर अपने ही आलस में रहती थी. पिता के बाहर न जाने कितने अफेयर चल रहे थे. वे बाजारू औरतों पर दौलत लुटा रहे थे, पर मां मस्तमगन रहती. इस कमजोरी के तो नौकर भी खूब मजे लेते. वे मां को सजधज कर तैयार हो कर बाहर सैरसपाटा करने में मदद करते और घर पर पिता को महंगी शराब के पैग पर पैग बना कर देते.

“मां और पिता दोनों से नौकरों को खूब बख्शीश मिलती और उन की मौज ही मौज होती, लेकिन जब भी मातापिता एक दूसरे के सामने पड़ते तो कुछ पल बाद ही उन दोनों में भयंकर बहस शुरू हो जाती, कभी रुपएपैसे के हिसाब को ले कर तो कभी मुझे ले कर कि मैं किस की जिम्मेदारी हूं.

“मेरा अकेला उदास मन मेरे हमउम्र पडो़सी मदन पर आ गया था. वह हर रोज मेरी बातें सुनता, मुझे पिक्चर दिखा लाता और पढ़ाई में मेरी मदद करता. कालेज में तो मेरा एक ही सहारा था और वह था मदन.

“पर एक दिन वह मेरे घर आया और शाम को तैयार रहना कह कर मुझे एक पार्टी में ले गया जहां मुझे होश आया तो सुबह के 5 बज रहे थे. मेरे अगलबगल 2 लड़के थे, मगर मदन का कोई अतापता ही नहीं था.

“मैं समझ गई थी कि मेरे साथ क्या हुआ है. मैं वहां से भागना चाहती थी, पर मुझे किसी ने बाल पकड़ कर रोक दिया और कहा कि कार में बैठो. वे लोग मुझे किसी दूसरे शहर ले गए और शाम को एक महफिल में सजधज कर शामिल होने को कहा.

“वह किसी बड़े आदमी की दावत थी. मैं अपने मातापिता से बात करने को बेचैन थी, मगर मुझे वहां कोई गोली खिला दी गई और मेरा खुद पर कोई कंट्रोल न रहा. फिर मेरी हर शाम नाचने में ही गुजरने लगी.”

“ओह, सुमि,” कह कर दीया ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. आज 2 अजनबी मिले, पर अनजान होते हुए भी कई बातें समान थीं. उन की सरलता का फायदा उठाया गया था.

“देखो सुमि, हमारे फैसले और प्राथमिकता कैसे भी हों, वे होते तो हमारे ही हैं फिर उन के कारण यह दिनचर्या कितनी भी हताशनिराश करने वाली हो, दुविधा कितना भी हैरान करे, हम सब के पास 1-2 रास्ते तो हर हाल ही में रहते ही हैं और चुनते समय हम उन में से भी सब से बेहतरीन ही चुनते हैं, पर जब नाकाम हो जाते है, तो खुद को भरम में रखते हुए कहते हैं कि और कोई रास्ता ही नही था. इस से नजात पाए बिना दोबारा रास्ता तलाशना बेमानी है,” कह कर दीया चुप हो गई थी.

अब सुमि कहने लगी, “हमारे साथ एक बात तो है कि हम ने भरोसा किया और धोखा खाया, पर आज इस बुरे वक्त में हम दोनों अब अकेले नहीं रहेंगे. हम एकदूसरे की मदद के लिए खड़े हैं.”

“हां, मैं तैयार हूं,” कह कर दीया ने योजना बनानी शुरू की. तय हुआ कि 2 दिन बाद अपना कुछ रुपया ले कर रेल पकड़ कर निकल जाएंगी. उस के बाद जो होगा देखा जाएगा, अभी इस नरक से तो निकल लें.

यह बहुत अच्छा विचार था. 2 दिन बाद इस पर अमल किया. सबकुछ आराम से हो गया. वे दोनों चंडीगढ़ आ गईं. वहां उन्होंने एक बच्चा गोद लिया.

दीया यही सोच रही थी कि कुछ आवाज सी हुई. सुमि और दिसु लौट आए थे.

सुमि ने दीया की गीली आंखें देखीं और बोली, “ओह दीया, यह अतीत में डूबनाउतरना क्या होता है, क्यों होता है, किसलिए होता है, मैं नहीं जानती, क्योंकि मैं गुजरे समय के तिलिस्म में कभी पड़ी ही नहीं. मैं वर्तमान में जीना पसंद करती हूं. बीते समय और भविष्य की चिंता में वे लोग डूबे रहते हैं, जिन के पास डूबने का और कोई साधन नहीं होता…”

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने सुमि को अपने गले लगा लिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें