Romantic Story: मुझे कबूल नहीं – क्यों रेशमा ने सगाई तोड़ दी?

Romantic Story: अब्बाजान की प्राइवेट नौकरी के कारण 3 बड़े भाईबहनों की पढ़ाई प्राइमरी तक ही पूरी हो सकी थी. लेकिन मैं ने बचपन से ही ठान लिया था कि उच्चशिक्षा हासिल कर के रहूंगी.

‘‘रेशमा, हमारी कौम और बिरादरी में पढ़ेलिखे लड़के कहां मिलते हैं? तुम पढ़ाई की जिद छोड़ कर कढ़ाईबुनाई सीख लो,’’ अब्बू ने समझाया था.

मेरी देखादेखी छोटी बहन भी ट्यूशन पढ़ा कर पढ़ाई का खर्च खुद पूरा करने लगी. 12वीं कक्षा की मेरी मेहनत रंग लाई और मुझे वजीफा मिलने लगा. इस दरमियान दोनों बड़ी बहनों की शादी मामूली आय वाले लड़कों से कर दी गई और भाई एक दुकान में काम करने लगा. मैं ने प्राइवेट कालेजों में लैक्चरर की नौकरी करते हुए पीएचडी शुरू कर दी. अंत में नामचीन यूनिवर्सिटी में हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत हो गई. छोटी बहन भी लैक्चरर के साथसाथ डाक्टरेट के लिए प्रयासरत हो गई.

मेरी पोस्टिंग दूसरे शहर में होने के कारण अब मैं ईदबकरीद में ही घर जाती थी. इस बीच मैं ने जरूरत की चीजें खुद खरीद कर जिंदगी को कमोबेश आसान बनाने की कोशिश की. लेकिन जब भी अपने घर जाती अम्मीअब्बू के ज्वलंत प्रश्न मेरी मुश्किलें बढ़ा देते.

‘‘इतनी डिगरियां ले ली हैं रेशमा तुम ने कि तुम्हारे बराबर का लड़का ढूंढ़ने की हमारी सारी कवायद नाकाम हो गई है.’’

‘‘अब्बू अब लोग पढ़ाई की कीमत समझने लगे हैं. देखना आप की बेटियों के लिए घर बैठे रिश्ता आएगा. तब आप फख्र करेंगे अपनी पढ़ीलिखी बेटियों पर,’’ मैं कहती.

‘‘पता नहीं वह दिन कब आएगा,’’ अम्मी गहरी सांस लेतीं, ‘‘खानदान की तुम से छोटी लड़कियों की शादियां हो गईं. वे बालबच्चेदार भी हो गईं. सब टोकते हैं, कब कर रहे हो रेशमा और नसीमा की शादी? तुम्हारी शादी न होने की वजह से हम हज करने भी नहीं जा सकते हैं,’’ अम्मी ने अवसाद उड़ेला तो मैं वहां से चुपचाप उठ कर चली गई.

यों तो मेरे लिए रिश्ते आ रहे थे, लेकिन बिरादरी से बाहर शादी न करने की जिद अम्मीअब्बू को कोई फैसला नहीं लेने दे रही थी.

शिक्षा हर भारतीय का मूल अधिकार है, लेकिन हमारा आर्थिक रूप से कमजोर समाज युवाओं को शीघ्र ही कमाऊपूत बनाने की दौड़ में शिक्षित नहीं होने देता. नतीजतन पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी कौम आर्थिक तंगी, सीमित आय में ही गुजारा करने के लिए विवश होती है. यह युवा पीढ़ी की विडंबना ही है कि आगे बढ़ने के अवसर होने पर भी उस की मालीहालत उसे उच्च शिक्षा, ऊंची नौकरियों से महरूम कर देती है.

उस दिन अब्बू ने फोन किया. आवाज में उत्साह था, ‘‘तुम्हारे छोटे चाचा एक रिश्ता लाए हैं. लड़का पोस्ट ग्रैजुएट है. प्राइवेट स्कूल में नौकरी करता है तनख्वाह क्व8 हजार है… खातेपीते घर के लोग हैं… फोटो भेज रहा हूं.’’

‘‘दहेज की कोई मांग नहीं है. सादगी से निकाह कर के ले जाएंगे,’’ भाईजान ने भी फोन कर बताया.

अब्बू और भाईजान को तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैंने फोटो देखा. सामान्य चेहरा. बायोडाटा में मेरी डिगरियों के साथ कोई मैच नहीं था, लेकिन मैं क्या करती. अम्मीअब्बू की फिक्र… बहन की शादी की उम्र… मैं भी 34 पार कर रही थी… भारी सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव के तहत अब्बू ने मेरी सहमति जाने बगैर रिश्ते के लिए हां कर दी.

सगाई के बाद मैं वापस यूनिवर्सिटी आ गई. लेकिन जेहन में अनगिनत सवाल कुलबुलाते रहे कि पता नहीं उस का मिजाज कैसा होगा… उस का रवैया ठीक तो होगा न… मुझे घरेलू हिंसा से बहुत डर लगता है… यही तो देख रही हूं सालों से अपने आसपास. क्या वह मेरे एहसास, मेरे जज्बात की गहराई को समझ पाएगा?

तीसरे ही दिन मंगेतर का फोन आ गया. पहली बार बातचीत, लेकिन शिष्टाचार, सलीका नजर नहीं आया. अब तो रोज का ही दस्तूर बन गया. मैं थकीहारी औफिस से लौटती और उस का फोन आ जाता. घंटों बातें करता… अपनी आत्मस्तुति, शाबाशी के किस्से सुनाता. मैं मितभाषी बातों के जवाब में बस जी… जी… करती रहती. वह अगर कुछ पूछता भी तो बगैर मेरा जवाब सुने पुन: बोलने लगता.

चौथे महीने के बाद वह कुछ ज्यादा बेबाक हो गया. मेरे पुरुष मित्रों के बारे में, रिश्ते की सीमाओं के बारे में पूछने लगा. कुछ दिन बाद एक धार्मिक पर्व के अवसर पर बात करते हुए मैं ने महसूस किया कि वह और उस का परिवार पुरानी निरर्थक परंपराओं एवं रीतिरिवाजों के प्रति बहुत ही कट्टर और अडिग हैं. मैं आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा वाली ये सब सुन कर बहुत चिंतित हो गई.

यह सच है कि बढ़ती उम्र की शादी महज मर्द और औरत को एक छत के नीचे रख कर सामाजिक कायदों को मानने एवं वंश बढ़ाने की प्रक्रिया के तहत एक समझौता होती है, फिर भी नारी का कोमल मन हमेशा पुरुष को हमसफर, प्रियतम, दोस्त, गमगुजार के रूप में पाने की ख्वाहिश रखता है… मैं ऐसे कैसे किसी संवेदनहीन व्यक्ति को जीवनसाथी बना कर खुश रह सकती हूं?

एक दिन उस ने फोन पर बताया कि वह पोस्ट ग्रैजुएशन का अंतिम सेमैस्टर देने के लिए छुट्टी ले रहा है… मुझे तो बतलाया गया था कि वह पोस्ट ग्रैजुएशन कर चुका है… मैं ने उस के सर्टिफिकेट को पुन: देखा तो आखिरी सेमैस्टर की मार्कशीट नहीं थी… मेरा माथा ठनका कि इस का मतलब मुझे झूठ बताया गया. मैं पहले भी महसूस कर चुकी थी कि उस की बातों में सचाई और साफगोई नहीं है.

उस ने फोन पर बताया कि वह प्राइवेट नौकरी की शोषण नीति से त्रस्त हो चुका है. अब घर में रह कर अर्थशास्त्र पर किताब लिखना चाहता है.

‘‘किताब लिखने के लिए नौकरी छोड़ कर घर में रहना जरूरी नहीं है. मैं ने 2 किताबें नौकरी करते हुए लिखी हैं.’’

मेरे जवाब पर प्रतिक्रिया दिए बगैर उस ने बात बदल दी. अनुभवों और परिस्थितियों ने मुझे ठोस, गंभीर और मेरी सोच को परिपक्व बना दिया था. उस का यह बचकाना निर्णय मुझे उस की चंचल, अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे गया.

एक दिन मुझे औफिस का काम निबटाना था, तभी उस का फोन आ गया. हमेशा की तरह बिना कौमा, पूर्णविराम के बोलने लगा, ‘‘यह बहुत अच्छा हो गया… आप मुझे मिल गईं. अब मेरी मम्मी को मेरी चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरी तमाम बेसिक नीड्स पूरी हो जाएंगी.’’

सुन कर मैं स्तब्ध रह गई. मैं ने संयम जुटा कर पूछा.

‘‘बेसिक नीड्स से क्या मतलब है आप को?’’

उस ने ठहाका लगा कर जवाब दिया, ‘‘रोटी, कपड़ा और मकान.’’

मैं सुन कर अवाक रह गई. भारतीय समाज में पुरुष परिवार की हर जरूरत पूरा करने का दायित्व उठाते हैं. यह मर्द तो औरत पर आश्रित हो कर मुझे बैसाखियों की तरह इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है. इस से पहले भी उस ने मेरी तनख्वाह और बैंकबैलेंस के बारे में पूछा था जिसे मैं ने सहज वार्त्ता समझ कर टाल दिया था.

अपने निकम्मेपन, अपने हितों को साधने के लिए ही शायद उस ने पढ़ीलिखी नौकरीपेशा लड़की से शादी करने की योजना बनाई थी. आज मेरे जीवन का यह अध्याय चरमसीमा पर आ गया. मैं ने चाचा, अब्बू व भाईजान को अपनी सगाई तोड़ देने की सूचना दे कर दूसरे ही दिन मंगनी में दिया सारा सामान उस के पते पर भिजवा दिया. मेरा परिवार काठ बन गया.

मुझे खुदगर्जी के चेहरे पर मुहब्बत का फरेबी नकाब पहनने वाले के साथ रिश्ता कबूल नहीं था. छलकपट, स्वार्थ, दंभ से भरे पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करने से बेहतर है मैं अकेली अनब्याही ही रहूं.

Hindi Story: अंतिम निर्णय – कुछ तो लोग कहेंगे!

Hindi Story: सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

उन की अपनत्वभरी बातों ने क्षणभर में ही उस की विदेशयात्रा की कड़वाहट को धोपोंछ दिया और उस का मन सुकून से भर गया. जातेजाते सब ने उस को जेट लैग के कारण आराम करने की सलाह दी और उस के हफ्तेभर के खाने का मैन्यू उस को बतला दिया. साथ ही, आपस में सब ने फैसला कर लिया कि किस दिन, कौन, क्या बना कर लाएगा.

सुहासिनी के विवाह को 5 साल ही तो हुए थे जब उस के पति उस की गोद में 5 साल के सुशांत को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. परिजनों ने उस पर दूसरा विवाह करने के लिए जोर डाला था, लेकिन वह अपने पति के रूप में किसी और को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पढ़ीलिखी होने के कारण किसी पर बोझ न बन कर उस ने अपने बेटे को उच्चशिक्षा दिलाई थी. हर मां की तरह वह भी एक अच्छी बहू लाने के सपने देखने लगी थी.

सुशांत की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. उस को कंपनी की ओर से किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में 3 महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा. सुहासिनी अपने बेटे के भविष्य की योजनाओं में बाधक नहीं बनना चाहती थी, लेकिन अकेले रहने की कल्पना से ही उस का मन घबराने लगा था.

अमेरिका में 3 महीने बीतने के बाद, कंपनी ने 3 महीने का समय और बढ़ा दिया था. उस के बाद, सुशांत की योग्यता देखते हुए कंपनी ने उसे वहीं की अपनी शाखा में कार्य करने का प्रस्ताव रखा तो उस ने अपनी मां से भी विचारविमर्श करना जरूरी नहीं समझा और स्वीकृति दे दी, क्योंकि वह वहां की जीवनशैली से बहुत प्रभावित हो गया था.

सुहासिनी इस स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. उस ने बेटे को समझाते हुए कहा था, ‘बेटा, अपने देश में नौकरियों की क्या कमी है जो तू अमेरिका में बसना चाहता है? फिर तेरा ब्याह कर के मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हूं. साथ ही, तेरे बच्चे को देखना चाहती हूं, जिस से मेरा अकेलापन समाप्त हो जाए और यह सब तभी होगा, जब तू भारत में होगा. मैं कब से यह सपना देख रही हूं और अब यह पूरा होने का समय आ गया है, तू इनकार मत करना.’ यह बोलतेबोलते उस की आवाज भर्रा गई थी. वह जानती थी कि उस का बेटा बहुत जिद्दी है. वह जो ठीक समझता है, वही करता है.

जवाब में वह बोला, ‘ममा, आप परेशान मत होे, मैं आप को भी जल्दी ही अमेरिका बुला लूंगा और आप का सपना तो यहां रह कर भी पूरा हो जाएगा. लड़की भी मैं यहां रहते हुए खुद ही ढूंढ़ लूंगा.’ बेटे का दोटूक उत्तर सुन कर सुहासिनी सकते में आ गई. उस को लगा कि वह पूरी दुनिया में अकेली रह गई थी.

सालभर के अंदर ही सुशांत ने सुहासिनी को बुलाने के लिए दस्तावेज भेज दिए. उस ने एजेंट के जरिए वीजा के लिए आवेदन कर दिया. बड़े बेमन से वह अमेरिका के लिए रवाना हुई. अनजान देश में जाते हुए वह अपने को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रही थी. मन में दुविधा थी कि पता नहीं, उस का वहां मन लगेगा भी कि नहीं. हवाई अड्डे पर सुशांत उसे लेने आया था. इतने समय बाद उस को देख कर उस की आंखें छलछला आईं.

घर पहुंच कर सुशांत ने घर का दरवाजा खटखटाया. इस से पहले कि वह अपने बेटे से कुछ पूछे, एक अंगरेज महिला ने दरवाजा खोला. वह सवालिया नजरों से सुशांत की ओर देखने लगी. उस ने उसे इशारे से अंदर चलने को कहा. अंदर पहुंच कर बेटे ने कहा, ‘ममा, आप फ्रैश हो कर आराम करिए, बहुत थक गई होंगी. मैं आप के खाने का इंतजाम करवाता हूं.’

सुहासिनी को चैन कहां, मन ही मन मना रही थी कि उस का संदेह गलत निकले, लेकिन इस के विपरीत सही निकला. बेटे के बताते ही वह अवाक उस की ओर देखती ही रह गई. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. उस के बहू के लिए देखे गए सपने चूरचूर हो कर बिखर गए थे.

सुहासिनी ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा, ‘मुझे पहले ही बता देता, तो मैं बहू के लिए कुछ ले कर आती.’

मां की भीगी आखें सुशांत से छिपी नहीं रह पाईं. उस ने कहा, ‘ममा, मैं जानता था कि आप कभी मन से मुझे स्वीकृति नहीं देंगी. यदि मैं आप को पहले बता देता तो शायद आप आती ही नहीं. सोचिए, रोजी से विवाह करने से मुझे आसानी से यहां की नागरिकता मिल गई है. आप भी अब हमेशा मेरे साथ रह सकती हैं.’ उस को अपने बेटे की सोच पर तरस आने लगा. वह कुछ नहीं बोली. मन ही मन बुदबुदाई, ‘कम से कम, यह तो पूछ लेता कि विदेश में, तेरे साथ, मैं रहने के लिए तैयार भी हूं या नहीं?’

बहुत जल्दी सुहासिनी का मन वहां की जीवनशैली से ऊबने लगा था. बहूबेटा सुबह अपनीअपनी जौब के लिए निकल जाते थे. उस के बाद जैसे घर उस को काटने को दौड़ता था. उन के पीछे से वह घर के सारे काम कर लेती थी. उन के लिए खाना भी बना लेती थी, लेकिन उस को महसूस हुआ कि उस के बेटे को पहले की तरह उस के हाथ के खाने के स्थान पर अमेरिकी खाना अधिक पसंद आने लगा था. धीरेधीरे उस को लगने लगा था कि उस का अस्तित्व एक नौकरानी से अधिक नहीं रह गया है. वहां के वातावरण में अपनत्व की कमी होने के चलते बनावटीपन से उस का मन बुरी तरह घबरा गया था.

सुहासिनी को भारत की अपनी कालोनी की याद सताने लगी कि किस तरह अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वहां पर हर आयुवर्ग की वह चहेती बन गई थी. हर दिन शाम को, सभी उम्र के लोग कालोनी में ही बने पार्क में इकट्ठे हो जाया करते थे. बाकी समय भी व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क में बने रहते थे और जरा सी भी तबीयत खराब होने पर एकदूसरे की मदद के लिए तैयार रहते थे.

उस ने एक दिन हिम्मत कर के अपने बेटे से कह ही दिया, ‘बेटा, मैं वापस इंडिया जाना चाहती हूं.’

यह प्रस्ताव सुन कर सुशांत थोड़ा आश्चर्य और नाराजगी मिश्रित आवाज में बोला, ‘लेकिन वहां आप की देखभाल कौन करेगा? मेरे यहां रहते हुए आप किस के लिए वहां जाना चाहती हैं?’ वह जानता था कि उस की मां वहां बिलकुल अकेली हैं.

सुहासिनी ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे जाना है, तुम्हारे कोई बच्चा होगा तो आ जाऊंगी.’ आखिर वह भारत के लिए रवाना हो गई.

सुहासिनी को अब अपने देश में नए सिरे से अपने जीवन को जीना था. वह यह सोच ही रही थी कि अचानक उस की ढलती उम्र के इस पड़ाव में भी सुनीलजी, जो उसी अपार्टमैंट में रहते थे, के विवाह के प्रस्ताव ने मौनसून की पहली झमाझम बरसात की तरह उस के तन के साथ मन को भी भिगोभिगो कर रोमांचित कर दिया था. उस के जीवन में क्या चल रहा है, यह बात सुनीलजी से छिपी नहीं थी.

सुहासिनी के हावभाव ने बिना कुछ कहे ही स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया था. लेकिन उस के मन में आया कि यह एहसास क्षणिक ही तो था. सचाई के धरातल पर आते ही सुहासिनी एक बार यह सोच कर कांप गई कि जब उस के बेटे को पता चलेगा तो क्या होगा? वह उस की आंखों में गिर जाएगी? वैधव्य की आग में जलते हुए, दूसरा विवाह न कर के उस ने अपने बेटे को मांबाप दोनों का प्यार दे कर उस की परवरिश कर के, समाज में जो इज्जत पाई थी, वह तारतार हो जाएगी?

‘नहीं, नहीं, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती. ठीक है, अपनी सकारात्मक सोच के कारण वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और उन के प्रस्ताव ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि यही हाल उन का भी है. वे भी अकेले हैं. उन की एक ही बेटी है, वह भी अमेरिका में रहती है. लेकिन समाज भी कोई चीज है,’ वह मन ही मन बुदबुदाई और निर्णय ले डाला.

जब सुनीलजी मिले तो उस ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘मैं आप की भावनाओं का आदर करती हूं, लेकिन समाज के सामने स्वीकार करने में परिस्थितियां बाधक हो जाती हैं और समाज का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं है, मुझे माफ कर दीजिएगा.’’ उस के इस कथन पर उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसे कि वे पहले से ही इस उत्तर के लिए तैयार थे. वे जानते थे कि उम्र के इस पड़ाव में इस तरह का निर्णय लेना सरल नहीं है. वे मौन ही रहे.

अचानक एक दिन सुहासिनी को पता चला कि सुनीलजी की बेटी सलोनी, अमेरिका से आने वाली है. आने के बाद, एक दिन वह अपने पापा के साथ उस से मिलने आई, फिर सुहासिनी ने उस को अपने घर पर आमंत्रित किया. हर दिन कुछ न कुछ बना कर सुहासिनी, सलोनी के लिए उस के घर भेजती ही रहती थी. उस के प्रेमभरे इस व्यवहार से सलोनी भावविभोर हो गई और एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ, जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

अचानक एक दिन सलोनी उस के घर आई और बोली, ‘‘एक बात बोलूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगी? आप मेरी मां बनेंगी? मुझे अपनी मां की याद नहीं है कि वे कैसी थीं, लेकिन आप को देख कर लगता है ऐसी ही होंगी. मेरे कारण मेरे पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया कि पता नहीं नई मां मुझे मां का प्यार दे भी पाएगी या नहीं. लेकिन अब मुझ से उन का अकेलापन देखा नहीं जाता. मैं अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. लेकिन विवाह के बाद लड़कियां मजबूर हो जाती हैं. उन को अपने पति के साथ जाना ही पड़ता है. मेरे पापा बहुत अच्छे हैं. प्लीज आंटी, आप मना मत करिएगा.’’ इतना कह कर वह रोने लगी. सुहासिनी शब्दहीन हो गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. उस ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘ठीक है बेटा, मैं विचार करूंगी.’’ थोड़ी देर बाद वह चली गई.

कई दिनों तक सुहासिनी के मनमस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता रहा. एक दिन सुनीलजी अपनी बेटी के साथ सुहासिनी के घर आ गए. वह असमंजस की स्थिति से उबर ही नहीं पा रही थी. सबकुछ समझते हुए सुनीलजी ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप यह मत सोचना कि सलोनी ने मेरी इच्छा को आप तक पहुंचाया है. जब से वह आई है, हम दोनों की भावनाएं इस से छिपी नहीं रहीं. उस ने मुझ से पूछा, तो मैं झूठ नहीं बोल पाया. अभी तो उस ने महसूस किया है, धीरेधीरे सारी कालोनी जान जाएगी. इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए मैं अपने रिश्ते पर विवाह की मुहर लगा कर लोगों के संदेह पर पूर्णविराम लगाना चाहता हूं.

‘‘शुरू में थोड़ी कठिनाई आएगी, लेकिन धीरेधीरे सब भूल जाएंगे. आप मेरे बाकी जीवन की साथी बन जाएंगी तो मेरे जीवन के इस पड़ाव में खालीपन के कारण तथा शरीर के शिथिल होने के कारण जो शून्यता आ गई है, वह खत्म हो जाएगी. इस उम्र की इस से अधिक जरूरत ही क्या है?’’ सुनील ने बड़े सुलझे ढंग से उसे समझाया.

सुहासिनी के पास अब तर्क करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था. उस ने आंसूभरी आंखों से हामी भर दी. सलोनी के सिर से मानो मनों बोझ हट गया और वह भावातिरेक में सुनील के गले से लिपट गई.

अब सुहासिनी को अपने बेटे की प्रतिक्रिया की भी चिंता नहीं थी.

जीवन की मुसकान मैं इलाहाबाद में लोकनिर्माण विभाग में स्थानिक अभियंता के पद पर कार्यरत था. एक दिन मैं अपने स्कूटर से साइट निरीक्षण के लिए जा रहा था. मैं ने अपना ब्रीफकेस स्कूटर पर आगे रखा हुआ था, जिस कारण मेरा बायां पैर स्कूटर के बाहर लटका हुआ था.

मैं जब पुल पर पहुंचा, तभी एक स्कूल बस ने मुझे ओवरटेक किया और मेरे स्कूटर से आगे निकलने लगी. उस बस की खिड़की के पास एक 6-7 साल का छात्र बैठा था, उस ने स्कूटर से बाएं लटकते मेरे पैर को देखा और जोरजोर से मुझे आवाज देने लगा, ‘‘अंकल, अपना पैर अंदर कर लें वरना आप को चोट लग जाएगी.’’

इतनी कम उम्र में इतनी समझदारी व मुझ अनजान के प्रति प्रेम देख कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. मैं ने मन ही मन अच्छे संस्कार देने के लिए उस छात्र के मातापिता व अध्यापकअध्यापिकाओं को धन्यवाद दिया.      राजेश कुमार सक्सेना पूरे 40 वर्षों तक सरकारी नौकरी करने के बाद मैं रिटायर हो गई. तब समकक्ष दोस्तों ने समझाया कि अब इंद्रियां शिथिल होने लगेंगी, इसलिए सक्रिय रहने के लिए स्वाध्याय कीजिए और समाज से जुड़ कर अपने अनुभव को प्रेमपूर्वक बांटिए.

मैं ने ऐसा ही किया और आसपास के इलाकों में घूमघूम कर लोगों से परिचय बढ़ाया. फिर इसी दौरान एक पोलियोग्रस्त युवक से लगाव हो गया. वह तसवीरों को फ्रेम करने का काम करता था और प्रतिदिन विकलांग वाली गाड़ी में बैठ कर महल्ले में घूमता था. उस की दुकान छोटी है, मगर ग्राहकों के बैठने के लिए एक छोटा सा स्टूल रखा हुआ है जिस पर बैठ कर मैं उस से बातें करती थी.

एक दिन पुरस्कारस्वरूप कुछ किताबें और एक प्रशस्तिपत्र कोरियर से मेरे पास आया. इस प्रशस्तिपत्र को फ्रेम कराने के लिए मै उसी युवक के पास गई और अपना पर्स स्टूल पर रख कर बतियाने लगी और फिर घर वापस आ गई.

घर आ कर मुझे अपने पर्स का ध्यान न रहा और दोपहर से शाम तक का वक्त गुजर गया. तभी वह युवक अपनी विकलांग गाड़ी चलाता हुआ मेरे दरवाजे तक आ गया और फ्रेम देने के बाद हंसता हुआ बोला, ‘‘यह लीजिए अपना पर्स, आप वहीं भूल आई थीं.’’

मैं उस की ईमानदारी देख कर हैरान रह गई.

Romantic Story: थोड़ी सी बेवफाई – क्या अतुल कह पाया दिल की बात?

Romantic Story: ‘हाय, पहचाना.’ व्हाट्सऐप पर एक नए नंबर से मैसेज आया देख मैं ने उत्सुकता से प्रोफाइल पिक देखी. एक खूबसूरत चेहरा हाथों से ढका सा और साथ ही स्टेटस भी शानदार…

जरूरी तो नहीं हर चाहत का मतलब इश्क हो… कभीकभी अनजान रिश्तों के लिए भी दिल बेचैन हो जाता है. मैं ने तुरंत पूछा, ‘‘हू आर यू? क्या मैं आप को जानता हूं?’’

‘‘जानते नहीं तो जान लीजिए, वैसे भी मैं आप की जिंदगी में हलचल मचाने आई हूं…’’

‘‘यानी आप कहना चाहती हैं कि आप मेरी जिंदगी में आ चुकी हैं? ऐसा कब हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अभी, इसी पल. जब आप ने मेरे बारे में पूछा…’’

मैं समझ गया था, युवती काफी स्मार्ट है और तेज भी. मैं ने चुप रहना ही बेहतर समझा, तभी फिर मैसेज आया देख कर मैं इग्नोर नहीं कर सका.

‘‘क्या बात है, हम से बातें करना आप को अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’

‘‘यह तो मैं ने नहीं कहा…’’ मैं ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘तो फिर ठीक है, मैं समझूं कि आप को मुझ से बात करना अच्छा लग रहा है?’’

‘‘हूं… यही समझ लो. मगर मुझे भी तो पता चले कि आप हैं कौन?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है? आराम से बताऊंगी.’’

युवती ने स्माइली भेजी, तो मेरा दिल हौले से धड़कने लगा. मैं सोच में डूब गया कि यह युवती अजनबी है या उसे पहले से जानती है. कहीं कोई कालेज की पुरानी दोस्त तो नहीं, जो मजे लेने के लिए मुझे मैसेज भेज रही है. मुश्किल यह थी कि फोटो में चेहरा भी पूरा नजर नहीं आ रहा था. तभी मेरा मोबाइल बज उठा. कहीं वही तो नहीं, मैं ने लपक कर फोन उठाया. लेकिन बीवी का नंबर देख कर मेरा मुंह बन गया और तुरंत मैं ने फोन काट दिया. 10 सैकंड भी नहीं गुजरे थे कि फिर से फोन आ गया. झल्लाते हुए मैं ने फोन उठाया, ‘‘यार 10 मिनट बाद करना अभी मैं मीटिंग में हूं. ऐसी क्या आफत आ गई जो कौल पर कौल किए जा रही हो?’’

बीवी यानी साधना हमेशा की तरह चिढ़ गई, ‘‘यह क्या तरीका है बीवी से बात करने का? अगर पहली कौल ही उठा लेते तो दूसरी बार कौल करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’’ ‘‘पर आधे घंटे पहले भी तो फोन किया था न तुम ने, और मैं ने बात भी कर ली थी. अब फिर से डिस्टर्ब क्यों कर रही हो?’’

‘‘देख रही हूं, अब तुम्हें मेरा फोन उठाना भी भारी लगने लगा है. एक समय था जब मेरी एक कौल के इंतजार में तुम खानापीना भी भूल जाते थे…’’ ‘‘प्लीज साधना, समझा करो. मैं यहां काम करने आया हूं, तुम्हारा लैक्चर सुनने नहीं…’’

उधर से फोन कट चुका था. मैं सिर पकड़ कर बैठ गया. कभीकभी रिश्ते भी भार बन जाते हैं, जिन्हें ढोना मजबूरी का सबब बन जाता है और कुछ नए रिश्ते अजनबी हो कर भी अपनों से प्यारे लगने लगते हैं. जब अपनों की बातें मन को परेशान करने लगती हैं, उस वक्त मरहम की तरह किसी अजनबी का साथ जिंदगी में नया उत्साह और जीने की नई वजह बन जाता है. ऐसा नहीं है कि मैं अपनी बीवी से प्यार नहीं करता. मगर कई बार रिश्तों में ऐसे मोड़ आते हैं, जब जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी बुरी लगने लगती है. प्यार अच्छा है, मगर पजेसिवनैस नहीं. हद से ज्यादा पजेसिवनैस बंधन लगने लगता है, तब रिश्ते भार बन जाते हैं और मन में खालीपन घर कर जाता है. मेरी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही दौर आया था और इस खालीपन को भरने के लिहाज से उस अनजान युवती का दखल मुझे भाने लगा था. जिंदगी में एक नया अध्याय जुड़ने लगा था. नई ख्वाहिशों की आंच मन में अजीब सी बेचैनी पैदा कर रही थी. एक बार फिर से जिंदगी के प्रति मेरा रुझान बढ़ने लगा. दिलोदिमाग में बारबार उसी लड़की का खयाल उमड़ता कि कब उस का मैसेज आए और मेरी धड़कनों को बहकने का मौका मिले.

‘‘हाय, क्या सोच रहे हो?’’ अचानक फिर से आए उस युवती के मैसेज ने मेरे होंठों पर मुसकान बिखेर दी, ‘‘बस, तुम्हें ही याद कर रहा था.’’

‘‘हां, वह तो मैं जानती हूं. मैं हूं ही ऐसी बला जो एक बार जिंदगी में आ जाए तो फिर दिल से नहीं जाती.’’

मैं यह सुन कर हंस पड़ा था. कितनी सहज और मजेदार बातें करती है यह युवती. मैं ने फिर पूछा, ‘‘इस बला का कोई नाम तो होगा?’’

‘‘हां, मेरा नाम कल्पना है.’’

नाम बताने के साथ ही उस ने एक खूबसूरत सी शायरी भेजी. हसीं जज्बातों से लबरेज वह शायरी मैं ने कई दफा पढ़ी और फिर शायरी का जवाब शायरी से ही देने लगा.सालों पहले मैं शायरी लिखा करता था. कल्पना की वजह से आज फिर से मेरा यह पैशन जिंदा हो गया था. देर तक हम दोनों चैटिंग करते रहे. ऐसा लगा जैसे मेरा मन बिलकुल हलका हो गया हो. उस युवती की बातें मेरे मन को छूने लगी थीं. वह ब ड़े बिंदास अंदाज में बातें करती थी. समय के साथ मेरी जिंदगी में उस युवती का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला गया. रोज मेरी सुबह की शुरुआत उस के एक प्यारे से मैसेज से होती. कभीकभी वह बहुत अजीब सेमैसेज भेजती. कभी कहती, ‘‘आप ने अपनी जिंदगी में मेरी जगह क्या सोची है, तो कभी कहती कि क्या हमारा चंद पलों का ही साथ रहेगा या फिर जन्मों का?’’

एक बात जो मैं आसानी से महसूस कर सकता था, वह यह कि मेरी बीवी साधना की खोजी निगाहें अब शायद मुझ पर ज्यादा गहरी रहने लगी थीं. मेरे अंदर चल रही भावनात्मक उथलपुथल और संवर रही अनकही दास्तान का जैसे उसे एहसास हो चला था. यहां तक कि यदाकदा वह मेरे मोबाइल भी चैक करने लगी थी. देर से आता तो सवाल करती. जाहिर है, मेरे अंदर गुस्सा उबल पड़ता. एक दिन मैं ने झल्ला कर कहा, ‘‘मैं ने तो कभी तुम्हारे 1-1 मिनट का हिसाब नहीं रखा कि कहां जाती हो, किस से मिलती हो?’’

‘‘तो पता रखो न अतुल… मैं यही तो चाहती हूं,’’ वह भड़क कर बोल पड़ी थी. ‘‘पर यह सिर्फ पजेसिवनैस है और कुछ नहीं.’’

‘‘प्यार में पजेसिवनैस ही जरूरी है अतुल, तभी तो पता चलता है कि कोई आप से कितना प्यार करता है और बंटता हुआ नहीं देख सकता.’’

‘‘यह तो सिर्फ बेवकूफी है. मैं इसे सही नहीं मानता साधना, देख लेना यदि तुम ने अपना यह रवैया नहीं बदला तो शायद एक दिन मुझ से हाथ धो बैठोगी.’’

मैं ने कह तो दिया, मगर बाद में स्वयं अफसोस हुआ. पूरे दिन साधना भी रोती रही और मैं लैपटौप ले कर परेशान चुपचाप बैठा रहा. उस दिन के बाद मैं ने कभी भी साधना से इस संदर्भ में कोई बात नहीं की. न ही साधना ने कुछ कहा. मगर उस की शक करने और मुझ पर नजर रखने की आदत बरकरार रही. उधर मेरी जिंदगी में नए प्यार की बगिया बखूबी खिलने लगी थी. कल्पना मैसेज व शायरी के साथसाथ अब रोमांटिक वीडियोज और चटपटे जोक्स भी शेयर करने लगी थी. कभीकभी मुझे कोफ्त होती कि मैं इन्हें देखते वक्त इतना घबराया हुआ सा क्यों रहता हूं? निश्चिंत हो कर इन का आनंद क्यों नहीं उठा पाता? जाहिर है, चोरीछिपे कुछ किया जाए तो मन में घबराहट तो होती ही है और वही मेरे साथ भी होता था. आखिर कहीं न कहीं मैं अपनी बीवी से धोखा ही तो कर रहा था. इस बात का अपराधबोध तो मुझे था ही. एक दिन कल्पना ने मुझे एक रोमांटिक सा वीडियो शेयर किया और तभी साधना भी बड़े गौर से मुझे देखती हुई गुजरी. मैं चुपके से अपना टैबलेट ले कर बाहर बालकनी में आ गया. वीडियो डाउनलोड कर इधरउधर देखने लगा कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा. जब निश्चिंत हो गया कि साधना आसपास नहीं है, तो वीडियो का आनंद लेने लगा. उस वक्त मुझे अंदर से एक अजीब सा रोमांटिक एहसास हुआ. उस अजनबी युवती को बांहों में भरने की तमन्ना भी हुई मगर तुरंत स्वयं को संयमित करता हुआ अंदर आ गया.

साधना की अनुभवी निगाहें मुझ पर टिकी थीं. निगाहें चुराता हुआ मैं लैपटौप खोल कर बैठ गया. मुझे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा कैसे हो गया? एक समय था जब साधना मेरी जिंदगी थी और आज किसी और के आकर्षण ने मुझे इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया था. उधर समय के साथ कल्पना की हिमाकतें भी बढ़ने लगी थीं. मैं भी बहता जा रहा था. एक अजीब सा जनून था जिंदगी में. वैसे कभीकभी मुझे ऐसा लगता जैसे यह सब बिलकुल सही नहीं. इधर साधना को धोखा देने का अपराधबोध तो दूसरी तरफ अनजान लड़की का बढ़ता आकर्षण. मैं न चाहते हुए भी स्वयं को रोक नहीं पा रहा था और फिर एक दिन उस के एक मैसेज ने मुझे और भी ज्यादा बेचैन कर दिया.

कल्पना ने लिखा था, ‘‘क्या अब हमारे रिश्ते के लिए जरूरी नहीं है कि हम दोनों को एकदूसरे को मिल कर करीब से एकदूसरे का एहसास करना चाहिए.’’

‘‘जरूर, जब तुम कहो…’’ मैं ने उसे स्वीकृति तो दे दी मगर मन में एक कसक सी उठी. मन का एक कोना एक अनजान से अपराधबोध से घिर गया. क्या मैं यह ठीक कर रहा हूं?  मैं ने साधना की तरफ देखा.

साधना सामने उदास सी बैठी थी, जैसे उसे मेरे मन में चल रही उथलपुथल का एहसास हो गया था. अचानक वह पास आ कर बोली, ‘‘मां को देखे महीनों गुजर गए. जरा मेरा रिजर्वेशन करा देना. इस बार 1-2 महीने वहां रह कर आऊंगी.’’ उस की उदासी व दूर होने का एहसास मुझे अंदर तक द्रवित कर गया. ऐसा लगा जैसे साधना के साथ मैं बहुत गलत कर रहा हूं और मैं ही उस का दोषी हूं. मगर कल्पना से मिलने और उस के साथ वक्त बिताने का लोभ संवरण करना भी आसान न था. अजीब सी कशमकश में घिरा मैं सो गया. सुबह उठा तो मन शांत था मेरा. देर रात मैं कल्पना को एक मैसेज भेज कर सोया था. सुबह उस का जवाब पढ़ा तो होंठों पर मुसकान खेल गई. थोड़े गरम कपड़े पहन कर मैं मौर्निंग वाक पर निकल गया. लौट कर कमरे में आया तो देखा, साधना बिस्तर पर नहीं है. घर में कहीं भी नजर नहीं आई. थोड़ा परेशान सा मैं साधना को छत पर देखने गया तो पाया, एक कोने में चुपचाप खड़ी वह उगते सूरज की तरफ एकटक देख रही है.

मैं ने उसे पीछे से बांहों में भर लिया. उस ने मेरी तरफ चेहरा किया तो मैं यह देख कर विचलित हो उठा कि उस की आंखों से आंसू निकल रहे थे. मैं ने प्रश्नवाचक नजरों से उस की तरफ देखा तो वह सीने से लग गई, ‘‘आई लव यू…’’

‘‘आई नो डियर, बट क्या हुआ तुम्हें?’’

अचानक रोतीरोती वह हंस पड़ी, ‘‘तुम्हें तो ठीक से बेवफाई करनी भी नहीं आती.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘अपनी महबूबा को भला ऐसे मैसेज किए जाते हैं? कल रात क्या मैसेज भेजा था तुम ने?’’

‘‘तुम ने लिखा था, डियर कल्पना, जिंदगी हमें बहुत से मौके देती है, नई खुशियां पाने के, जीवन में नए रंग भरने के… मगर वह खुशियां तभी तक जायज हैं, जब तक उन्हें किसी और के आंसुओं के रास्ते न गुजरना पड़े. किसी को दर्द दे कर पाई गई खुशी की कोई अहमियत नहीं. प्यार पाने का नहीं बस महसूस करने का नाम है. मैं ने तुम्हारे लिए प्यार महसूस किया. मगर उसे पाने की जिद नहीं कर सकता, क्योंकि मैं अपनी बीवी को धोखा नहीं दे सकता. तुम मेरे हृदय में खुशी बन कर रहोगी, मगर तुम्हें अपने अंतस की पीड़ा नहीं बनने दूंगा. तुम से मिलने का फैसला मैं ने प्यार के आवेग में लिया था मगर अब दिल की सुन कर तुम से सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि रिश्तों में सीमा समझना जरूरी है.

‘‘हम कभी नहीं मिलेंगे… आई थिंक, तुम मेरी मजबूरी समझोगी और खुद भी मेरी वजह से कभी दुखी नहीं रहोगी… कीप स्माइलिंग…’’

मैं ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘पर यह सब तुम्हें कैसे पता…?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारी कल्पना भी मैं हूं और साधना भी…’’ कह कर साधना मुसकराते हुए मेरे हृदय से लग गई और मैं ने भी पूरी मजबूती के साथ उसे बांहों में भर लिया.

आज मुझे अपना मन बहुत हलका महसूस हो रहा था. बेवफाई के इलजाम से आजाद जो हो गया था मैं.

Hindi Story: पहेली – कनिका ने अमित के साथ क्या किया?

Hindi Story: ‘‘है लो, आई एम कनिका सिंह, फ्राम राजस्थान.’’ इसखनकती आवाज ने अमित का ध्यान आकर्षित किया तो देखा, सामने एक असाधारण सुंदर युवती खड़ी है. क्लासरूम से वह अभी अपने साथियों के साथ ‘टी ब्रेक’ में बाहर आया था कि उस का परिचय कनिका से हो गया.

‘‘हैलो, मैं अमित शर्मा, राजस्थान से ही हूं,’’ अमित ने मुसकरा कर अपना परिचय दिया.

कनिका वास्तव में बहुत सुंदर थी. आकर्षक व्यक्तित्व, उम्र लगभग 26-27 की रही होगी. लंबा कद किंतु भरापूरा शरीर, तीखे नयननक्श उस की सुंदरता में और वृद्धि कर रहे थे. ‘टी ब्रेक’ खत्म होते ही सभी वापस क्लासरूम में पहुंच गए.

भारत के एक ऐतिहासिक शहर हैदराबाद में 1 माह के प्रशिक्षण का आज पहला दिन था. देश के अलगअलग प्रांतों से संभागियों के पहुंचने का क्रम अभी भी जारी था. कनिका भी दोपहर बाद ही पहुंची थी. पहले दिन की औपचारिक कक्षाएं खत्म होते ही सभी प्रशिक्षुओं को लोकसंगीत और नृत्य कार्यक्रम में शामिल होना था.

खुले रंगमंच में सभी लोग जमा हो चुके थे. कार्यक्रम शुरू हो गया था. लोककलाकार अपनीअपनी कला का बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे. संयोग से अमित के पास की सीट खाली थी. कनिका वहां आ गई तो अमित ने मुसकराते हुए उसे पास बैठने का इशारा किया. कनिका बैठते ही अमित से बातचीत करने लगी. उस ने बताया कि वह मनोविज्ञान की प्राध्यापक है. अमित ने कहा कि वह इतिहास विषय का है. कनिका ने बताया कि इतिहास उस का पसंदीदा विषय रहा है और वह चाहती है कि इस विषय का गहन अध्ययन करे. फिर हंसते हुए उस ने पूछा, ‘‘आप मुझे पढ़ाएंगे क्या?’’

अमित ने भी मजाक में उत्तर दिया, ‘‘अरे, मेरा विषय तो नीरस है. लड़कियां तो वैसे ही इस से दूर भागती हैं.’’

कनिका अपने कैमरे से कलाकारों की फोटो खींचने लगी. अमित के मन में उस के लिए न जाने क्यों एक खास आकर्षण पैदा हो चुका था. छोटी सी मुलाकात ने ही उसे बहुत प्रभावित कर दिया था. कनिका के उन्मुक्त व्यवहार से वह मानो उस के प्रति खिंचा जा रहा था.

होस्टल में अमित के दाईं ओर तमिलनाडु और बाईं ओर उड़ीसा के संभागी प्राध्यापक थे. इस अनोखे सांस्कृतिक समागम ने एकदूसरे को जानने और समझने का भरपूर अवसर प्रदान किया था. इसी होस्टल के ग्राउंड फ्लोर पर महिला संभागियों के रुकने की व्यवस्था थी. कुल 80 लोगों में 40 महिलाएं थीं जो भारत के विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं.

रात्रि भोज के बाद सभी संभागियों का अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम चलता था. हाल में सभी लोग जमा थे. इस कार्यक्रम में सभी को भाग लेना अनिवार्य था. कनिका ने राजस्थानी लोकगीत सुनाए जिस से उस की एक और प्रतिभा का पता चला कि वह संगीत में भी खासा दखल रखती थी.

दूसरे दिन सुबह चाय के समय कनिका ने अमित को अपने लैपटाप पर वे सारी फोटो दिखाईं जो उस ने रात्रि सांस्कृतिक कार्यक्रम में खींची थीं.

क्लासरूम में अमित बाईं ओर पहली कतार में बैठता था. आज उस ने नोट किया कि दाईं ओर की पहली कतार में असम और तमिलनाडु की महिला संभागियों के साथ कनिका भी बैठी है. पूरे दिन अमित ने जब भी कनिका को देखा, उसे अपनी ओर देखते, मुसकराते ही पाया. उस के दिल में एक सुखद एहसास जागृत हो रहा था.

लंच में अमित ने कनिका को अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित किया. उस मेज पर उस के कुछ तमिल दोस्त भी थे. कनिका बिना किसी झिझक के पास की कुरसी पर बैठ कर खाना खाने लगी.

बातचीत में कनिका ने अमित से पूछा, ‘‘सर, आप की फैमिली में कौनकौन हैं?’’

अमित अब खुल चुका था सो उस ने विस्तार से अपने परिवार के बारे में बताया कि उस की पत्नी सरकारी नौकरी में किसी दूसरे शहर में नियुक्त है. एक छोटी 4 साल की बेटी है जो अपनी मम्मी के साथ ही रहती है. अमित ने कनिका से भी पूछा किंतु वह बात टाल गई और हंसीमजाक में मशगूल हो गई.

रात के 11 बजे थे. होस्टल के हाल में सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था. अचानक अमित के मोबाइल पर एक अनजान नंबर से काल आई. उत्सुकता के चलते अमित ने उस काल को रिसीव किया.

‘‘हैलो सर, पहचाना?’’ अमित अभी असमंजस में था कि आवाज फिर आई, ‘‘मैं कनिका बोल रही हूं. आप 2 मिनट के लिए लान में आ सकते हैं?’’

अमित फौरन बाहर आया. कनिका बाहर कैंपस में खड़ी थी. यद्यपि बाहर इस समय और भी महिलापुरुष संभागी बातचीत में व्यस्त थे. किंतु अमित को अजीब महसूस हो रहा था, फिर कनिका ने पूछा, ‘‘सर, क्या आप के पास सिरदर्द की दवा है? आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

अमित ने घबरा कर कहा, ‘‘ज्यादा खराब हो तो डाक्टर के पास चलें?’’

कनिका के मना करने पर अमित तुरंत अंदर से अपनी मेडिकल किट ले आया और कुछ जरूरी दवाएं निकाल कर कनिका को दे दीं. कनिका ने धन्यवाद दिया और अपने कमरे में चली गई.

प्रशिक्षण के दिन खुशीखुशी बीत रहे थे. शुरू में 1 माह की अवधि बहुत लंबी लग रही थी किंतु अमित को अब लग रहा था कि जीवन का एकएक पल अमूल्य है जो बीता जा रहा है. कनिका के प्रति उस का लगाव बढ़ता जा रहा था. दूसरे दिन अमित इस उम्मीद में अपना मोबाइल देख रहा था कि शायद फिर से फोन आए. रात के 10 बज चुके थे. उस का मन सांस्कृतिक संध्या में नहीं लग रहा था. कुछ समय बाद काल आई. अमित तो जैसे इसी के इंतजार में था, तपाक से उस ने काल रिसीव की. फिर वही मधुर आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘परेशान कर दिया न सर, आप को.’’

अमित ने भी मजाक में पूछ लिया, ‘‘क्यों, नींद नहीं आ रही है क्या? शायद किसी की याद आ रही होगी?’’

कनिका ने खिलखिला कर हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों मजाक बनाते हो…मुझे आप से ही बात करनी थी,’’ फिर आगे बात बढ़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे कोई याद नहीं करता, मैं इतनी खास तो नहीं कि कोई…’’ उस ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया. फिर पूछा, ‘‘आप ने कल वाले प्रोजेक्ट वर्क की क्या तैयारी की है?’’

अमित उसे प्रोजेक्ट वर्क के बारे में समझाने लगा. फिर उस ने कनिका से पूछा कि उसे उस के फोन नंबर कैसे मिले. कनिका ने उस की जिज्ञासा शांत की और बताया कि रजिस्टे्रशन रजिस्टर में से मोबाइल नंबर लिए थे.

अमित को बहुत अच्छा लग रहा था कि कनिका उसे इतना महत्त्व दे रही है जबकि प्राय: सभी पुरुष संभागी उस से बातचीत करने और मेलजोल बढ़ाने के लिए लालायित थे.

कुछ दिन बाद आउटिंग का कार्यक्रम था. 2 रातें घने जंगल में औषधीय पौधों के अध्ययन में बितानी थीं. वहां बने रेस्टहाउस में सब के रहने की व्यवस्था थी. यात्रा में कनिका के हंसीमजाक ने पिकनिक जैसा माहौल बना दिया था. वहां पहुंचते ही फील्ड आफिसर ने सभी लोगों को 2 घंटे का समय लंच और थोड़ा आराम करने के लिए दिया. जिस का उपयोग सभी ने उस सुरम्य प्राकृतिक स्थल को और नजदीक से देखने में किया.

अमित अपना लंच ले कर साथियों के साथ झरने के टौप पर था कि नीचे उस की नजर कनिका पर पड़ी जो अपनी सहेलियों के साथ खड़ी उसे इशारे से नीचे बुला रही थी. उस का मन तो बहुत था लेकिन वह अपने दोस्तों में टारगेट बनना नहीं चाहता था.

कनिका के आमंत्रण को उस ने नजरअंदाज कर दिया. कुछ समय बाद जब वह मिली तो उस ने स्वाभाविक ढंग से शिकायत जरूर की, ‘‘आप आए क्यों नहीं, सर? बहुत अच्छा लगता.’’

बेचारा अमित मन मसोस कर रह गया. विषय बदलने के लिए उस ने कहा, ‘‘आज आप की राजस्थानी बंधेज की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’

कनिका खनकती आवाज में बोली, ‘‘सिर्फ साड़ी?’’

अमित ने कहा, ‘‘नहीं, और भी बहुत कुछ, ये वादियां, अमूल्य वनस्पति और आप.’’

कनिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘सर, आप बातों को इतना घुमाफिरा कर क्यों कहते हैं?’’

अमित क्या कहता. वह मन की बातों को अंदर दबा जाता था.

पौधों के बारे में जानकारी दी जा रही थी. सभी लोग नोटबुक थामे व्यस्त थे. यह पहला मौका था जब अमित को कनिका के स्पर्श का अनुभव हुआ. ग्रुप में वह सट कर खड़ी मुसकरा रही थी. उस की कुछ खास तमिल सहेलियां अमित से अंगरेजी में पौधों के बारे में पूछ रही थीं और वह उन्हें अंगरेजी में ही समझा रहा था. कनिका पहली बार अमित को धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते हुए सुन रही थी. अब कनिका अपने गु्रप से अलग हो कर पास के कैक्टस के पौधों की ओर चली गई. अमित को भी आवाज दे कर उस ने अपने पास बुला लिया और बोली, ‘‘देखिए सर, यह इस जगह की सब से जीवट वनस्पति है. हम चाहे इसे सौंदर्य की प्रतिमूर्ति न मानें किंतु यह हमें जीना सिखाती है.’’

अमित उस की बात को समझने का प्रयास कर रहा था. बाकी ग्रुप आगे बढ़ चुका था. तभी एक फोटोग्राफर ने उन दोनों का फोटो ले लिया. अमित को लगा शायद फोटोग्राफर उस के दिल की भावनाओं को जानता है.

कनिका फिर बोली, ‘‘आप को ऐसा नहीं लगता कि ये हमें संदेश दे रहे हैं…सब के बीच हमारा अपना अस्तित्व है और हमें उसे खोने का डर नहीं.’’

रेस्टहाउस में कनिका ने अमित के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम आज रात्रि में झरने के  किनारे चलें. मैं अपनी कुछ सहेलियों के साथ रात का नजारा देखना चाहती हूं. अमित तो जैसे पहले से ही अभिभूत था.

रात्रि विहार ने अमित को कनिका के और नजदीक आने का अवसर दिया. कारण, कनिका ने उसे आज वह सब बताया था जो किसी अनजान पुरुष को बताना संभव नहीं. पहली बार अमित को लगा, कनिका वैसी बिंदास नहीं है जैसी वह दिखती है.

कनिका ने बताया कि 4 साल पहले उस का विवाह हो चुका है. एक 3 साल का बेटा भी है. किंतु जीवन में उसे वह दुखद अनुभव भी झेलना पड़ा है जो एक स्त्री के लिए बहुत दुखद होता है. उस का पति एक बिगड़ा रईस निकला, जिस ने उस की कोई इज्जत नहीं की. कानूनन अब तलाक ले कर वह उस से मुक्ति पा चुका था. कनिका ने इस कठोर यथार्थ को स्वीकार किया और  जीवन को रोरो कर नहीं बल्कि मुसकरा कर जीने का फैसला किया.

ऐतिहासिक जगहों को घूमने वाले दिन कनिका बस में अमित के पास वाली सीट पर बैठी थी. अमित यह सोच कर बहुत खुश था कि आज कनिका पूरे दिन उस के साथ रहने वाली है. वे दोनों अंगरेजी भाषी ग्रुप में थे, जहां भीड़ कम थी, अत: पूरा दिन मौजमस्ती में बीत गया. अमित ने पहली बार आज कनिका को एक गिफ्ट दिया, जिसे बहुत मुश्किल से उस ने स्वीकार किया. आज कनिका ने बहुत फोटो लिए थे.

आखिर टे्रनिंग खत्म होने का अंतिम दिन आ ही गया. सभी के मन उदास थे. अमित आज कनिका से बहुत बातें करना चाहता था. तभी रात को कनिका का फोन आ गया. उस ने पूछा कि क्या वह एक दिन और नहीं रुक सकता. इधर बहुत सारे पर्यटक स्थल देखने को बचे हैं. अमित का तो जाने का मन ही नहीं था. इसलिए वह एक दिन और रुकने को तैयार हो गया. दोनों ने खूब बातें कीं.

औपचारिक विदाई समारोह के समय सभी बहुत भावुक हो गए. अनजान लोग इतने करीबी हो चुके थे कि बिछुड़ने का दुख सहन नहीं हो रहा था. ग्रुप फोटो मधुर यादों का हिस्सा बनने जा रहा था. फोटो तो इतने हो चुके थे कि अलबम ही तैयार हो गया था. भारी मन से गले लग कर सब विदा हुए.

अमित ने कनिका की डायरी में अपने हस्ताक्षर कर अपना संदेश लिखा. न जाने क्यों वह अभी भी अपने मन की बात कनिका को कह नहीं पाया था. कनिका ने भी अमित की डायरी में लिखा, ‘‘मैं इतिहास से बहुत प्यार करती हूं…बहुत… बहुत ज्यादा, लेकिन इतिहास नहीं दोहराती.’’ – कनिका सिंह.

इस विचित्र इबारत का अर्थ अमित की समझ में नहीं आया था.

कनिका के आग्रह पर अमित होटल में एक कमरा बुक करवा कर कल का इंतजार करने लगा. शाम को उस की कनिका से लंबी बातें हुईं, दूसरे दिन उस ने घूमने का कार्यक्रम बनाया था. अमित सोच रहा था, कल वह अवश्य ही कनिका को अपने दिल की बात बता देगा. सारी रात वह सो नहीं पाया.

दूसरे दिन 10 बजे वह तैयार हो कर कनिका से मिलने के लिए रवाना हुआ. 11 बजे कनिका ने चारमीनार के पास मिलने को कहा था. 11 बज गए. अमित की बेचैनी बढ़ने लगी. थोड़ा और समय बीता. वह अधीर हो गया. करीब साढ़े 11 बजे कनिका का फोन आया :

‘‘हैलो सर, आई एम वैरी सौरी. मैं आप को कैसे कहूं. मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा…सर, सुबह पापा का फोन आया था, इमरजेंसी है मुझे वापस घर जाना पड़ रहा है. सौरी, प्लीज आप कांटेक्ट बनाए रखना. मैं कभी आप को नहीं भूलूंगी… मैं कल आप को फोन करूंगी.’’

अमित का मूड उखड़ चुका था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे. कल रात का टे्रन का आरक्षण वह कैंसिल करा चुका था और अब सारा दिन वह अकेला क्या करेगा. उस ने फ्लाइट पकड़ी और अपने शहर रवाना हो गया.

दूसरे दिन भी कनिका का कोई फोन नहीं आया. वह बहुत परेशान हो गया. उस की उदासी बढ़ती जा रही थी. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

अमित ने खुद कनिका को फोन लगाया तो वज्रपात हुआ क्योंकि जो नंबर उस के पास था वह सिम अब डेड हो चुकी थी. असम से एक मैडम का फोन आया तो अमित को पता चला कि कल उस के पास कनिका का फोन आया था. ऐसी ही बात उस की एक तमिल सहेली ने भी बताई.

अमित का दिल टूट गया. दोनों के साथ के फोटो अमित के सामने पड़े थे. वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि अब वह टे्रनिंग के दिनों को याद करे या भूलने का प्रयास करे. कनिका तो वैसे ही उस के लिए एक गूढ़ पहेली बन गई थी. अचानक उस की नजर अपनी डायरी पर पड़ी, धड़कते दिल से उस ने प्रथम पृष्ठ पढ़ा. उस पर कनिका का वह संदेश लिखा था जो उस ने विदाई के समय लिखा था : ‘‘मैं इतिहास से बहुत प्यार करती हूं… बहुत…बहुत ज्यादा लेकिन इतिहास नहीं दोहराती,’’ – कनिका सिंह.

आज अमित को उपरोक्त पंक्तियों का सही अर्थ समझ में आ रहा था लेकिन दिल अभी भी संतुष्ट नहीं था. अगर ऐसा ही था तो उस ने नजदीकी ही क्यों बढ़ाई. उस के दिमाग में कई संभावनाएं आजा रही थीं. अचानक अमित को कनिका के कहे वे शब्द याद आ रहे थे जो उस ने कईकई बार उस से कहे थे, ‘‘सर, मैं आप को कभी भुला नहीं पाऊंगी. आप भी मुझे याद रखेंगे न, कहीं भूल तो नहीं जाएंगे?’’

अमित उन शब्दों का अर्थ खोजता रहा लेकिन कनिका उस के लिए अब एक  अनसुलझी पहेली बन चुकी थी.

Romantic Story: निर्णय – क्या था जूही का अतीत?

Romantic Story, लेखिका – निर्मला डोसी 

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं? जय के बारे में तो जरा सोचिए. और फिर इस सब का सुबूत क्या है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जो कुछ कह रहा हूं, वह पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद ही कह रहा हूं. जिस लड़की को तुम मांबेटे अपनी कुलवधू बनाने को बेताब हो उठे हो, उस के उजले चेहरे के पीछे कैसा काला अतीत है, उसे सुन कर मैं हैरत में पड़ गया था. वह सुलतानपुर के चौधरी की भानजी जरूर है पर जिन मांबाप के लिए तुम्हें कहा गया था कि वे मर चुके हैं, यह सत्य बात नहीं है. पिता का तो पता नहीं पर मां किसी रईस की रखैल है.’’

‘‘कहीं कोई भूल…?’’

‘‘फिर वही दुराग्रह…सुलतानपुर जा कर मैं उस के मामा से मिला, सबकुछ तय कर के लौट रहा था कि मेरे कालेज के जमाने का एक साथी ट्रेन में मिला. उस से जब मैं ने सुलतानपुर आने की वजह बताई तो मालूम हुआ कि जूही की मां ही अपने ‘पेशे’ से कमा कर बेटी को बड़ीबड़ी रकमें भेजती रहती है. चौधरी ने तो मुफ्त में भानजी के पालनपोषण का नाम कमाया है.

‘‘इस पर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ तो पहुंचा देहरादून, जहां उस की मां के होने की सूचना मिली थी. और तब सबकुछ मालूम होता चला गया. देहरादून के एक प्राइवेट संस्थान में कभी टाइपिस्ट का काम करने वाली वंदना जूही की मां है. अब वह उस संस्थान के मालिक रंजन की रखैल है,’’ आवेश से विकास का मुख तमतमा उठा.

सुचित्रा ठगी सी उन्हें देखती रह गई.

‘‘यह क्या हो गया? जय का तो दिल ही टूट जाएगा. कितने सपने सजा लिए थे उस ने, जूही को ले कर. अपनी स्वीकृति का रंग स्वयं मैं ने ही सहर्ष भरा था उन सपनों में, एक स्नेहमयी मां की तरह.’’

वैसे जय को कुछ कहना भी कहां पड़ा था. उस के जन्मदिन की पार्टी में जब उस के कालेज के साथियों के हुजूम में सुचित्रा ने जूही को देखा तो देखती रह गई. फूलों की तरह तरोताजा, युवतियों की उस माला का सब से आबदार मोती ही लग रही थी जूही. सुंदरसलोनी लड़की को देख कर ब्याह योग्य पुत्र की जननी स्वयं उस अलभ्य रत्न को तत्काल अपनी गांठ में बांध लेने को व्यग्र हो उठी.

फिर जय का उस की तरफ झुकाव व नाटकीयता से कोसों दूर उस की आदतों और उस के सरल, सौम्य व्यक्तित्व ने मोह लिया था सब को. पर यह क्या हुआ? उस ने तो बताया था कि सुलतानपुर के चौधरी उस के मामा हैं, मांबाप बचपन में ही किसी हादसे का शिकार हो गए. मामा ने ही उसे पढ़ाया और पाला है.

दिल्ली के ऊंचे स्कूल व कालेज में पढ़ने व बचपन से ही होस्टल में रहने वाली जूही सिर्फ छुट्टियों में ही सुलतानपुर जाती थी. यही उस के पिछले जीवन का संक्षिप्त इतिहास था.

शाम को पिता का गंभीर चेहरा देख कर स्वयं जय ही मां के पास चला आया, ‘‘मां, पिताजी जूही के मामा से मिलने गए थे न. फिर?’’

‘‘बेटा, अब क्या कहूं तुम से… मैं नहीं समझती कि उस लड़की ने तुम्हारे साथ छल किया होगा. स्वयं वह भी कदाचित अपने अतीत से अनजान है. समझ में नहीं आता और विश्वास करने को जी भी नहीं चाहता, पर तुम्हारे पिताजी ने भी पूरी तहकीकात कर के ही कहा है सबकुछ मुझ से, स्वयं वे भी दुखी हैं.’’

‘‘पर बात क्या है, मां? स्पष्ट कहो.’’

सुचित्रा धीरेधीरे सबकुछ बताती चली गई. सुन कर जय हतप्रभ रह गया. कुछ पल चुप रह कर शांत स्वर में बोला, ‘‘जूही ने जानबूझ कर हम से कुछ छिपाया हो, यह तो मैं सोच भी नहीं सकता. रही बात उस की मां की, सो मुझे उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. फिर भी मां, मैं सबकुछ तुम पर छोड़ता हूं. तुम्हें यदि जूही हमारे घर के अनुपयुक्त लगे तो तुम कह दोगी कि उस का खयाल छोड़ दो तो मैं तुम्हारी बात मान लूंगा. मगर मां, मुझे विश्वास है कि तुम किसी निरपराध के साथ अन्याय नहीं करोगी,’’ फिर वह बेफिक्री से चला गया.

रातभर चिंतन कर के सुचित्रा ने एक निर्णय लिया और सुबह पति से बोली, ‘‘मैं देहरादून जाना चाहती हूं.’’

‘‘सुचित्रा, तुम जाना ही चाहती हो तो जाओ, पर फायदा कुछ भी नहीं होगा.’’

‘‘सभी कार्य फायदे के लिए नहीं किए जाते, नुकसान न हो, इसलिए भी कुछ काम किए जाते हैं.’’

‘‘ठीक है, कल चली जाना.’’

‘‘मां, तुम देहरादून जा रही हो, मैं भी चलूं?’’ जय ने धीरे से पूछा.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं. और हां, जूही को कुछ मत बताना.’’

पति के बताए पते पर गाड़ी जा कर खड़ी हुई. दिल्ली से देहरादून की लंबी यात्रा से सुचित्रा पूरी तरह थक चुकी थी.

छोटे से सुंदर बंगले के बाहर उतर कर सुचित्रा ने ड्राइवर को 2 घंटे के लिए बाहर खापी कर घूम आने को कहा और स्वयं अंदर चली गई.

2-3 मिनट में ही जो स्त्री बाहर आई, उसे देख कर सुचित्रा हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. लगभग 40 वर्षीया उस अत्यंत रूपसी आकृति को देख कर वह ठगी सी रह गई.

‘‘मैं दिल्ली से आई हूं. आप से पूर्व परिचय न होने पर भी मिलने चली आई. मेरा पुत्र जय…’’  लेकिन सुचित्रा की बात अधूरी ही रह गई.

‘‘मेरी पुत्री जूही को पसंद करता है. उस से ब्याह करना चाहता है. माफ कीजिएगा, मैं ने आप की बात काट दी… लेकिन जूही के अतीत की भनक पड़ते ही आप भागी चली आईं. मैं आप लोगों की तरफ से किसी के आने का इंतजार ही कर रही थी. पिछले सप्ताह मेरे भाई का फोन आया था सुलतानपुर से कि जूही की सगाई दिल्ली में कर दी है. खैर…हां, तो आप क्या पूछना चाहती हैं, कहिए?’’ बहुत ही ठहरे हुए दृढ़ शब्दों में वह बोली.

जूही की मां के सौंदर्य से सुचित्रा  अभिभूत जरूर हो गई थी और  उस के दृढ़ शब्दों की गूंज से अचंभित भी. लेकिन उस के जीवन को ले कर समूचा मन व्यथित हो रहा था.

‘‘जूही मेरे बेटे की ही नहीं, हम पतिपत्नी की भी पसंद है. उस ने हमें बताया था कि बचपन में उस के मातापिता चल बसे. मामा ने ही उस का पालनपोषण किया. मेरे पति सुलतानपुर जा कर रिश्ता भी तय कर आए थे, किंतु बाद में मालूम हुआ कि…’’

‘‘उस की मां जीवित है. आप ने जो कुछ भी सुना, सत्य है. मुझे इतना ही कहना है कि जूही को मेरे बारे में कुछ भी मालूम नहीं है. सो, इस सारी कहानी के साथ उसे मत जोड़ें. वह निरपराध है. वह आप के पुत्र की पत्नी बने, ऐसा अब शायद नहीं हो सकेगा. मांबाप के अच्छेबुरे कर्मों का फल संतान को भुगतना ही पड़ता है. और अधिक क्या कहूं?’’

उस का गौरवान्वित मुखमंडल व्यथा- मिश्रित निराशा से घिर गया. पर मेरे बेटे ने मुझे जिस चक्रव्यूह में फंसा दिया था, उस से मुझे निकलना भी तो था.

‘‘हम ने जूही को कभी दोषी नहीं माना है लेकिन आप ने ऐसा क्यों किया? माफ कीजिएगा, यह मेरे बेटे के जीवन का प्रश्न है, इसलिए आप की निजी जिंदगी के बारे  में पूछने की गुस्ताखी कर रही हूं?’’

‘‘मुझे कुछ भी बताने में कोई संकोच नहीं है किंतु इस से फायदा भी कुछ नहीं होगा. मेरे जीवन की भयानक त्रासदी सुन कर भी मेरे प्रति आप के मन में आए नफरत के भाव कभी दूर नहीं हो सकते. मेरी पुत्री का वरण आप का पुत्र कर सके, यह शायद अब संभव नहीं. फिर पुरानी बातें कुरेदने का अर्थ ही क्या रह जाता है?’’

‘‘न रहे कोई अर्थ, पर मुझे अपने इनकार के पीछे सही व ठोस कारण तो जय को बताना ही होगा. एक मां को उस की संतान गलत न समझे, मेरे प्रति उस के मन के विश्वास को ठेस न लगे, इस का वास्ता दे कर मैं आप से विनती करती हूं. कृपया आप हकीकत से परदा उठा दें. जूही को इस की भनक भी नहीं लगेगी. यह वादा रहा.’’

‘‘आप चाहती हैं तो सुनिए…

‘‘करीब 11-12 वर्ष पहले की बात है, आप को याद होगा, यह वह वक्त था जब आतंकवाद अपनी जड़ें जमा रहा था. एक दिन मैं अपने मायके सुलतानपुर से अपनी ससुराल भटिंडा जा रही थी, अपने पति के साथ. जूही उस समय 9-10 वर्ष की थी. मेरे भाई और उन के तीनों बेटों ने जबरन उसे सुलतानपुर में ही रख लिया था. इकलौती बहन की इकलौती पुत्री के प्रति भाई और भतीजों का विशेष स्नेह था.

‘‘उन के विशेष आग्रह पर मुझे कुछ दिनों के लिए जूही को वहीं छोड़ना पड़ा. बीच रास्ते में ही 8-10 आतंकवादियों ने बस रोक कर कहर बरपा दिया. हम 9-10 औरतों पर उस दिन जो जुल्म हुआ उसे देख कर न धरती धंसी, न आसमान फटा. बस में बैठे सभी मर्द, जिन्हें ‘मर्द’ कहना एक गाली ही है, थरथर कांपते हुए अपनी बहन, बेटी व पत्नी की आबरू लुटते देखते रहे. उन में से एक भी माई का लाल ऐसा न निकला जिस के सर्द लहू में उबाल आया हो. वरना क्या 40-45 पुरुष उन 8-10 सिरफिरों पर भारी न पड़ते? बेशक उन के पास बंदूकें थीं, वे गोलियों से भून देते, जैसा कि बाद में उन्होंने किया भी. पर वे प्रतिकार तो करते.

‘‘लेकिन नहीं, किसी ने भी अपनी जान दांव पर लगाने की जहमत नहीं उठाई. बाद में उन आतंकवादियों ने सभी यात्रियों को गोलियों से छलनी कर दिया. मुझे भी मरा समझ कर छोड़ गए थे. पर उस कुचले शरीर की सांस भी बड़ी बेशर्म थी, जो चल रही थी, बंद नहीं हुई थी.’’

अपनी कहानी समाप्त कर वह सिसकने लगी थी. सुचित्रा का सिर शर्म से झुक गया था. वह सोचने लगी कि जो लोग अपनी जान के डर से अपनी आंखों के सामने अपनी स्त्रियों की बेइज्जती होती देखते रहे, उन्हें जीवित रहने का कोई अधिकार भी नहीं था. इस तरह की घटनाओं के बाद प्रशासन से सुरक्षा की मांग और उस की लापरवाही की निंदा करते लोग थकते नहीं. लेकिन क्या यह संभव है कि सरकार प्रत्येक नागरिक के साथ सुरक्षा के लिए एक बंदूकधारी लगा दे? क्या लोगों को थोड़ाबहुत प्रयास स्वयं नहीं करना चाहिए?

वंदना कुछ संयत हुई तो सुचित्रा ने उस से पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘फिर क्या होना था, पति को तो मेरे सामने ही वे लोग गोली मार चुके थे. मैं किसी तरह गिरतीपड़ती अपने भाई के पास पहुंची. दुख व अपमान से घायल क्षतविक्षत हुआ मेरा तनमन अपने इकलौते भाई का स्नेह और आश्रय पा कुछ संभलता भी, पर जान छिड़कने वाला मेरा वही भाई मेरी आपबीती सुन कर पत्थर हो गया. मेरे साथ हुए बर्बर हादसे के कारण मुझे सांत्वना देने की जगह कोढ़ लगे अंग की तरह मुझे तुरंत वहां से दूर हटा देने को व्यग्र हो उठा.

‘‘भाई के बदले तेवर का अंदाजा होते ही मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं था. मेरे सामने मेरी मासूम बच्ची का समूचा भविष्य था.

‘‘जिस जूही को मेरे लाख मना करने पर भी मेरा भाई और भतीजे मेरे साथ भेजना नहीं चाहते थे, अब उसे ही आश्रय देने को मैं भिक्षुक की तरह उन के समक्ष गिड़गिड़ा रही थी लेकिन वे टस से मस न हो रहे थे. मैं ने जब आश्वासन दिया कि मैं अपनी शक्ल उन्हें कभी नहीं दिखाऊंगी और जूही पर होने वाला खर्च भेजती रहूंगी, वे जूही को संरक्षण दें और मुझे हादसे में मरा घोषित कर दें, तब बेमन से वे माने थे.

‘‘मैं जानती थी बहन, मेरी बच्ची अब उन के चरणों की धूल हो जाएगी… पर और उपाय ही क्या था?

‘‘एक दिन मैं इस शहर में चली आई. मैं ने कितनी ठोकरें खाईं, कितना अपमान और अभाव मैं ने झेला, उस की एक अंतहीन कहानी है. कुदरत ने सौंदर्य दान दे कर मेरा नाश ही तो कर डाला था. बच्ची की परवरिश के लिए पैसा चाहिए था, और उस के लिए मैं छोटे

से छोटा काम करने का संकोच छोड़ चुकी थी.

‘‘पर एक खूबसूरत जवान औरत से लोगों को रुपए के बदले काम नहीं, कुछ और चाहिए था. मैं ने वर्षों तक उस जानलेवा स्थिति का सामना किया था. धीरेधीरे जूही बड़ी हो रही थी. उस की पढ़ाई पर होने वाले खर्च बढ़ने लगे थे. उन्हीं दिनों रंजनजी से मुलाकात हुई थी. मुझे उन के दफ्तर में टाइपिस्ट के पद पर नौकरी मिल गई. एक दिन एक सहयोगी द्वारा छेड़खानी करने पर मैं उसे फटकार रही थी. रंजनजी ने केबिन में बैठेबैठे सब कुछ सुना और मुझे अंदर बुलाया.

‘‘मैं उस समय तक समय की मार और कामी पुरुषों की जलती नजरों के चाबुक से पूरी तरह टूट चुकी थी. सहानुभूति पा कर उन से सबकुछ कह बैठी.

‘‘एक दिन वे मुझे अपने घर ले गए जहां फालिज से अपाहिज, दुखी उन की पत्नी लंबे समय से बिस्तर पकड़े थीं. पति को दूसरी शादी के लिए स्वयं वे लंबे समय से विवश भी कर रही थीं. तब मैं ने एक कठोर निर्णय लिया. विश्वास कर सकें तो कीजिएगा कि उस निर्णय के पीछे भी मेरी किसी कमजोरी या इच्छा का जरा सा भी हाथ नहीं था. पर स्वयं को इस बेमुरव्वत दुनिया से बचा पाने व पुत्री को ऊंची शिक्षा दिला पाने में स्वयं को सर्वथा असमर्थ पा रही थी.

‘‘मैं सोचती थी कि कभी किसी से ठगी जा कर पहले की तरह लुटने से यही अच्छा है कि किसी एक के संरक्षण में रहूं. कम से कम अपनी जूही को तो वे सभी सुविधाएं दे सकूं जिन का सपना हर मां संतान के जन्म के साथ देखने लगती है.

‘‘रंजनजी की पत्नी की सहर्ष स्वीकृति मेरे साथ थी. जब तक वे रहीं, मैं ने सदैव बड़ी बहन समझ कर उन की सेवा की. उस अपाहिज स्त्री ने ही उदारता से मुझे सुरक्षा दी थी.

‘‘मुझे तो लोग ‘वेश्या’ भी कह देते हैं और ‘रखैल’ भी. पर एक औरत होने के नाते आप सच बताएं, क्या इन शब्दों की परिभाषा से मेरे जीवन की त्रासदी मेल खाती है?’’

‘‘माफ करना बहन, मैं ने भावावेश में बिना आप की आपबीती सुने ही आप को गलत कह दिया,’’ भावुक हो कर वंदना के हाथ थाम कर खड़ी हो गई सुचित्रा, ‘‘अब चलूंगी…देखती हूं, क्या कर सकती हूं.’’

‘‘क्या…सबकुछ सुन कर भी…?’’

‘‘हां, अब ही तो कुछ करना है. अच्छा, शीघ्र फिर मिलेंगे.’’

सुचित्रा आ कर गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी वापस दौड़ पड़ी दिल्ली की तरफ.

सुचित्रा ने सबकुछ पति को बताया और अपना निर्णय भी सुना दिया,

‘‘जूही ही इस घर की बहू बनेगी.’’

‘‘तुम जो कहती हो वह सब ठीक है. पर सोचो, लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘भाड़ में जाएं लोग, जूही का कोई दोष नहीं. मैं तो उस की मां का भी कोई दोष नहीं मानती. जब उसे रंजनजी अपना सकते हैं, पत्नी सा मान व प्यार दे सकते हैं तो हम जूही को क्यों ठुकरा दें? किस बात की सजा दें मांबेटी को?’’

‘‘मैं कब कहता हूं कि उन का कोई दोष है. लेकिन क्या…’’

‘‘लेकिन क्या? तूफानी वर्षा में तो बड़ीबड़ी पुख्ता इमारतें तक हिल जाती हैं. घनघोर हिमपात में तो बड़ेबड़े पर्वतशिखर भी भूस्खलन से नहीं बच पाते, जिस पर वह तो सिर्फ अकेली निहत्थी नारी थी. सच, कुछ लोग होते हैं जिन्हें जिंदगी क्रूरतापूर्वक छलती है, निर्दोष होने पर भी जिन्हें दंड मिलता है. पर उन की निरपराध संतान भी क्यों भोगे कोई कठोर सजा?’’

सुचित्रा के गंभीर स्वर की गूंज बापबेटे के अंतर में प्रतिध्वनित होने लगी. अपने पिता के पास खड़े जय ने आगे बढ़ कर मां के कंधे पर अपना सिर रख दिया. मां ने उस के विश्वास की रक्षा की थी, उस की जूही के साथ न्याय किया था.

Social Story: लौटते कदम – जिंदगी के खूबसूरत लम्हों को जीने का मौका

Social Story: जीवन में सुनहरे पल कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता है. वक्त तो वही याद रहता है जो बोझिल हो जाता है. वही काटे नहीं कटता, उस के पंख जो नहीं होते हैं. दर्द पंखों को काट देता है. शादी के बाद पति का प्यार, बेटे की पढ़ाई, घर की जिम्मेदारियों के बीच कब वैवाहिक जीवन के 35 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला.

आंख तो तब खुली जब अचानक पति की मृत्यु हो गई. मेरा जीवन, जो उन के आसपास घूमता था, अब अपनी ही छाया से बात करता है. पति कहते थे, ‘सविता, तुम ने अपना पूरा वक्त घर को दे दिया, तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है. कल यदि अकेली हो गई तो क्या करोगी? कैसे काटोगी वो खाली वक्त?’

मैं ने हंसते हुए कहा था, ‘मैं तो सुहागिन ही मरूंगी. आप को रहना होगा मेरे बगैर. आप सोच लीजिए कि कैसे रहेंगे अकेले?’ किसे पता था कि उन की बात सच हो जाएगी. बेटा सौरभ, बहू रिया और पोते अवि के साथ जी ही लूंगी, यही सोचती थी. जिंदगी ऐसे रंग बदलेगी, इस का अंदाजा नहीं था.

बहू के साथ घर का काम करती तो वह या तो अंगरेजी गाने सुनती या कान में लीड लगा कर बातें करती रहती. मेरे साथ, मुझ से बात करने का तो जैसे समय ही खत्म हो गया था. कभी मैं ही कहती, ‘रिया, चल आज थोड़ा घूम आएं. कुछ बाजार से सामान भी लेना है और छुट्टी का दिन भी है.’

उस ने मेरे साथ बाहर न जाने की जैसे ठान ली थी. वह कहती, ‘मां, एक ही दिन तो मिलता है, बहुत सारे काम हैं, फिर शाम को बौस के घर या कहीं और जाना है.’ बेटे के पास बैठती तो ऐसा लगता जैसे बात करने को कुछ बचा ही नहीं है. एक बार उस से कहा भी था, ‘सौरभ, बहुत खालीपन लगता है. बेटा, मेरा मन नहीं लगता है,’ कहतेकहते आंखों में आंसू भी आ गए पर उन सब से अनजान वह बोला, ‘‘अभी पापा को गए 6 महीने ही तो हुए हैं न मां, धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी. तुम घर के आसपास के पार्क क्यों नहीं जातीं. थोड़ा बाहर जाओगी, तो नए दोस्त बनेंगे, तुम को अच्छा भी लगेगा.’’

सौरभ का कहना मान कर घर से बाहर निकलने लगी. पर घर आ कर वही खालीपन. सब अपनेअपने कमरे में. किसी के पास मेरे लिए वक्त नहीं. जहां प्यार होता है वहां खुद को सुधारने की या बदलने की बात भी खयाल में नहीं आती. पर जब किसी का प्यार या साथ पाना हो तो खुद को बेहतर बनाने की सोच साथ चलती है. आज पास्ता बनाया सब के लिए. सोचा, सब खुश हो जाएंगे. पर हुआ उलटा ही. बहू बोली, ‘‘मां, यह तो नहीं खाया जाएगा.’’

यह वही बहू है, जिसे खाना बनाना तो दूर, बेलन पकड़ना भी मैं ने सिखाया. इस के हाथ की सब्जी सौरभ और उस के पिता तो खा भी नहीं पाते थे. सौरभ कहता, ‘‘मां, यह सब्जी नहीं खाई जाती है. खाना तुम ही बनाया करो. रिया के हाथ का यह खाना है या सजा?’’

जब रिया के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी तब उसे दर्द से संभलने में मैं ने उस का कितना साथ दिया था. तब मैं अपने पति से कहती, ‘रिया का ध्यान रखा करो. पिता को यों अचानक खो देना उस के लिए बहुत दर्दनाक है. अब आप ही उस के पिता हैं.’

मेरे पति भी रिया का ध्यान रखते. वे बारबार अपनी मां से मिलने जाती, तो पोते को मैं संभाल लेती. उस की पढ़ाई का भी तो ध्यान रखना था न. इतना कदम से कदम मिला कर चलने के बाद भी आज यह सूनापन…

एक दिन बहू से कहा, ‘‘रिया, कालोनी की औरतें एकदूसरे के घर इकट्ठी होती हैं. चायनाश्ता भी हो जाता है. पिछले महीने मिसेज श्वेता की बहू ने अच्छा इंतजाम किया था. इस बार हम अपने घर सब को बुला लें क्या?’’ सुनते ही रिया बोली, ‘‘मां, अब यह झमेला कौन करेगा? रहने दो न, ये सब. मैं औफिस के बाद बहुत थक जाती हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आजकल तो सब की बहुएं बाहर काम पर जाती हैं, पर उन्होंने भी तो किया था न. चलो, हम नहीं बुलाते किसी को, मैं मना कर देती हूं.’’ उस दिन से मैं ने उन लोगों के बीच जाना छोड़ दिया. कल मिसेज श्वेता मिल गईं तो मैं ने उन से कहा, ‘‘मुझे वृद्धाश्रम जाना है, अब इस घर में नहीं रहा जाता है. अभी पोते के इम्तिहान चल रहे हैं, इस महीने के आखिर तक मैं चली जाऊंगी.’’

यह सुन कर मिसेज श्वेता कुछ भी नहीं कह पाई थीं. बस, मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लिया था. कहतीं भी क्या? सबकुछ तय कर लिया था. फिर भी जाते समय हमारे बच्चे को हम से कोई तकलीफ न हो, हम यही सोचते रहे. वक्त भी बड़े खेल खेलता है. वृद्धाश्रम का फौर्म ला कर रख दिया था. सोचा, जाने से पहले बता दूंगी.

आज दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. ‘इस समय कौन होगा?’ सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने बहू खड़ी थी. मुझे देखते ही बोली, ‘‘मां, मेरी मां को दिल का दौरा पड़ा है. वे अस्पताल में हैं. मुझे उन के पास जाना है. सौरभ पुणे में है, अवि की परीक्षा है, मां, क्या करूं?’’ कहतेकहते रिया रो पड़ी. ‘‘तू चिंता मत कर. अवि को मैं पढ़ा दूंगी. छोटी कक्षा ही तो है. सौरभ से बात कर ले वह भी वहीं आ जाएगा.’’

4 दिनों बाद जब रिया घर आई तो आते ही उस ने मुझे बांहों में भर लिया. ‘‘क्या हो गया रिया, तुम्हारी मां अब कैसी है?’’ उस के इस व्यवहार के लिए मैं कतई तैयार नहीं थी. ‘‘मां अब ठीक हैं. बस, आराम की जरूरत है. अब मां ने आप को अपने पास बुलाया है. भाभी ने कहा है, ‘‘आप दोनों साथ रहेंगी तो मां को भी अच्छा लगेगा. वे आप को बहुत याद कर रही थीं.’’

रिया ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘मां, इस घर को आप ने ही संभाला है. आप के बिना ये सब असंभव था. यदि आप सबकुछ नहीं संभालतीं तो अवि के एक साल का नुकसान होता या मैं अपनी मां के पास नहीं जा पाती.’’ ‘‘अपने बच्चों का साथ नहीं दिया तो यह जीवन किस काम का. चल, अब थोड़ा आराम कर, फिर बातें करेंगे.’’

अगले दिन सुबह जब रिया मेरे साथ रसोई में काम कर रही थी, तो हम दोनों बातें कर रहे थे. दोपहर में तो घर सूना होता है पर आज हर तरफ रौनक लग रही थी. सोचा, चलो, मिसेज श्वेता से मिल कर आती हूं. उन के घर गई तो उन्होंने बड़े प्यार से पास बिठाया और बोलीं, ‘‘कल रात को रिया हमारे घर आई थी. मुझ से और मेरी बहू से पूछ रही थी कि हम ने अपने घर कितने लोगों को बुलाया और पार्टी का कैसा इंतजाम किया. इस बार तुम्हारे घर सब का मिलना तय कर के गई है. तुम्हें सरप्राइज देगी. तुम्हारे दिल का हाल जानती हूं, इसलिए तुम्हें बता दिया. बच्चे अपनी गलती समझ लें, यही काफी है. हम इन के बगैर नहीं

जी पाएंगे.’’ ‘‘यह तो सच है, हम सब को एकदूसरे की जरूरत है. सब अपनाअपना काम करें, थोड़ा वक्त प्रेम को दे दें, तो जीवन आसान लगने लगता है.’’

मिसेज श्वेता के घर से वापस आते समय मुझे धूप बहुत सुनहरी लग रही थी. लगा कि आज फिर वक्त के पंख लग गए हैं.

Hindi Story: निकम्मा – जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने किया इंतजाम

Hindi Story: दीपक 2 साल बाद अपने घर लौटा था. उस का कसबा भी धीरेधीरे शहर के फैशन में डूबा जा रहा था. जब वह स्टेशन पर उतरा, तो वहां तांगों की जगह आटोरिकशा नजर आए. तकरीबन हर शख्स के कान पर मोबाइल फोन लगा था.

शाम का समय हो चुका था. घर थोड़ा दूर था, इसलिए बीच बाजार में से आटोरिकशा जाता था. बाजार की रंगत भी बदल गई थी. कांच के बड़े दरवाजों वाली दुकानें हो गई थीं. 1-2 जगह आदमीऔरतों के पुतले रखे थे. उन पर नए फैशन के कपड़े चढ़े हुए थे. दीपक को इन 2 सालों में इतनी रौनक की उम्मीद नहीं थी. आटोरिकशा चालक ने भी कानों में ईयरफोन लगाया हुआ था, जो न जाने किस गाने को सुन कर सिर को हिला रहा था.

दीपक अपने महल्ले में घुस रहा था, तो बड़ी सी एक किराना की दुकान पर नजर गई, ‘उमेश किराना भंडार’. नीचे लिखा था, ‘यहां सब तरह का सामान थोक के भाव में मिलता है’. पहले यह दुकान भी यहां नहीं थी.

दीपक के लिए उस का कसबा या यों कह लें कि शहर बनता कसबा हैरानी की चीज लग रहा था.

आटोरिकशा चालक को रुपए दे कर जब दीपक घर में घुसा, तो उस ने देखा कि उस के बापू एक खाट पर लेटे हुए थे. अम्मां चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं, जबकि एक ओर गैस का चूल्हा और गैस सिलैंडर रखा हुआ था.

दीपक को आया देख अम्मां ने जल्दी से हाथ धोए और अपने गले से लगा लिया. छोटी बहन, जो पढ़ाई कर रही थी, आ कर उस से लिपट गई.

दीपक ने अटैची रखी और बापू के पास आ कर बैठ गया. बापू ने उस का हालचाल जाना. दीपक ने गौर किया कि घर में पीले बल्ब की जगह तेज पावर वाले सफेद बल्ब लग गए थे. एक रंगीन टैलीविजन आ गया था.

बहन के पास एक टचस्क्रीन मोबाइल फोन था, तो अम्मां के पास एक पुराना मोबाइल फोन था, जिस से वे अकसर दीपक से बातें कर के अपनी परेशानियां सुनाया करती थीं.

शायद अम्मां सोचती हैं कि शहर में सब बहुत खुश हैं और बिना चिंता व परेशानियों के रहते हैं. नल से 24 घंटे पानी आता है. बिजली, सड़क, साफसुथरी दुकानें, खाने से ले कर नाश्ते की कई वैराइटी. शहर यानी रुपया भरभर के पास हो. लेकिन यह रुपया ही शहर में इनसान को मार देता है. रुपयारुपया सोचते और देखते एक समय में इनसान केवल एक मशीन बन कर रह जाता है, जहां आपसी रिश्ते ही खत्म हो जाते हैं. लेकिन अम्मां को वह क्या समझाए?

वैसे, एक बार दीपक अम्मां, बापू और अपनी बहन को ले कर शहर गया था. 3-4 दिनों बाद ही अम्मां ने कह दिया था, ‘बेटा, हमें गांव भिजवा दो.’

बहन की इच्छा जाने की नहीं थी, फिर भी वह साथ लौट गई थी. शहर में रहने का दर्द दीपक समझ सकता है, जहां इनसान घड़ी के कांटों की तरह जिंदगी जीने को मजबूर होता है.

अम्मां ने दीपक से हाथपैर धो कर आने को कह दिया, ताकि सीधे तवे पर से रोटियां उतार कर उसे खाने को दे सकें. बापू को गैस पर सिंकी रोटियां पसंद नहीं हैं, जिस के चलते रोटियां तो चूल्हे पर ही सेंकी जाती हैं. बहन ने हाथपैर धुलवाए. दीपक और बापू खाने के लिए बैठ गए.

दीपक जानता था कि अब बापू का एक खटराग शुरू होगा, ‘पिछले हफ्ते भैंस मर गई. खेती बिगड़ गई. बहुत तंगी में चल रहे हैं और इस साल तुम्हारी शादी भी करनी है…’

दीपक मन ही मन सोच रहा था कि बापू अभी शुरू होंगे और वह चुपचाप कौर तोड़ता जाएगा और हुंकार भरता जाएगा, लेकिन बापू ने इस तरह की कोई बात नहीं छेड़ी थी.

पूरे महल्ले में एक अजीब सी खामोशी थी. कानों में चीखनेचिल्लाने या रोनेगाने की कोई आवाज नहीं आ रही थी, वरना 2 घर छोड़ कर बद्रीनाथ का मकान था, जिन के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा गणेश हाईस्कूल में चपरासी था, जबकि दूसरा छोटा बेटा उमेश पोस्ट औफिस में डाक रेलगाड़ी से डाक उतारने का काम करता था.

अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के छोटे बेटे उमेश का ट्रांसफर कहीं और हो गया. तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिए उस ने जाने से इनकार कर दिया. जाता भी कैसे? क्या खाता? क्या बचाता? इसी के चलते वह नौकरी छोड़ कर घर बैठ गया था.

इस के बाद न जाने किस गम में या बुरी संगति के चक्कर में उमेश को शराब पीने की लत लग गई. पहले तो परिवार वाले बात छिपाते रहे, लेकिन जब आदत ज्यादा बढ़ गई, तो आवाजें चारदीवारी से बाहर आने लगीं.

उमेश ने शराब की लत के चलते चोरी कर के घर के बरतन बेचने शुरू कर दिए, फिर घर से गेहूंदाल और तेल वगैरह चुरा कर और उन्हें बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया. जब परिवार वालों ने सख्ती की, तो घर में कलह मचना शुरू हो गया.

उमेश दुबलापतला सा सांवले रंग का लड़का था. जब उस के साथ परिवार वाले मारपीट करते थे, तो वह मुझे कहता था, ‘चाचा, बचा लो… चाचा, बचा लो…’

2-3 दिनों तक सब ठीक चलता, फिर वह शराब पीना शुरू कर देता. न जाने उसे कौन उधार पिलाता था? न जाने वह कहां से रुपए लाता था? लेकिन रात होते ही हम सब को मानो इंतजार होता था कि अब इन की फिल्म शुरू होगी. चीखना, मारनापीटना, गली में भागना और उमेश का चीखचीख कर अपना हिस्सा मांगना… उस के पिता का गालियां देना… यह सब पड़ोसियों के जीने का अंग हो गया था.

इस बीच 1-2 बार महल्ले वालों ने पुलिस को बुला भी लिया था, लेकिन उमेश की हालत इतनी गईगुजरी थी कि एक जोर का थप्पड़ भी उस की जान ले लेता. कौन हत्या का भागीदार बने? सब बालबच्चों वाले हैं. नतीजतन, पुलिस भी खबर होने पर कभी नहीं आती थी.

उमेश को शराब पीते हुए 4-5 साल हो गए थे. उस की हरकतों को सब ने जिंदगी का हिस्सा मान लिया था. जब उस का सुबह नशा उतरता, तो वह नीची गरदन किए गुमसुम रहता था, लेकिन वह क्यों पी लेता था, वह खुद भी शायद नहीं जानता था. महल्ले के लिए वह मनोरंजन का एक साधन था. उस की मित्रमंडली भी नहीं थी. जो कुछ था परिवार, महल्ला और शराब थी. परिवार के सदस्य भी अब उस से ऊब गए थे और उस के मरने का इंतजार करने लगे थे. एक तो निकम्मा, ऊपर से नशेबाज भी.

लेकिन कौऐ के कोसने से जानवर मरता थोड़े ही है. वह जिंदा था और शराब पी कर सब की नाक में दम किए हुए था.

लेकिन आज खाना खाते समय दीपक को पड़ोस से किसी भी तरह की आवाज नहीं आ रही थी. बापू हाथ धोने के लिए जा चुके थे.

दीपक ने अम्मां से रोटी ली और पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, आज तो पड़ोस की तरफ से लड़ाईझगड़े की कोई आवाज नहीं आ रही है. क्या उमेश ने शराब पीना छोड़ दिया है?’’

अम्मां ने आखिरी रोटी तवे पर डाली और कहने लगीं, ‘‘तुझे नहीं मालूम?’’

‘‘क्या?’’ दीपक ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, जिसे ये लोग निकम्मा समझते थे, वह इन सब की जिंदगी बना कर चला गया…’’ अम्मां ने चूल्हे से लकडि़यां बाहर निकाल कर अंगारों पर रोटी को डाल दिया, जो पूरी तरह से फूल गई थी.

‘‘क्या हुआ अम्मां?’’

‘‘अरे, क्या बताऊं… एक दिन उमेश ने रात में खूब छक कर शराब पी, जो सुबह उतर गई होगी. दोबारा नशा करने के लिए वह बाजार की तरफ गया कि एक ट्रक ने उसे टक्कर मार दी. बस, वह वहीं खत्म हो गया.’’

‘‘अरे, उमेश मर गया?’’

‘‘हां बेटा, लेकिन इन्हें जिंदा कर गया. इस हादसे के मुआवजे में उस के परिवार को 18-20 लाख रुपए मिले थे. उन्हीं रुपयों से घर बनवा लिया और तू ने देखा होगा कि महल्ले के नुक्कड़ पर ‘उमेश किराने की दुकान’ खोल ली है. कुछ रुपए बैंक में जमा कर दिए. बस, इन की घर की गाड़ी चल निकली.

‘‘जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने इन का पूरा इंतजाम कर दिया,’’ अम्मां ने अंगारों से रोटी उठाते हुए कहा.

दीपक यह सुन कर सन्न रह गया. क्या कोई ऐसा निकम्मा भी हो सकता है, जो उपयोगी न होने पर भी किसी की जिंदगी को चलाने के लिए अचानक ही सबकुछ कर जाए? जैसे कोई हराभरा फलदार पेड़ फल देने के बाद सूख जाए और उस की लकडि़यां भी जल कर आप को गरमागरम रोटियां खाने को दे जाएं. हम ऐसी अनहोनी के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते.

Hindi Kahani: उसकी रोशनी में – क्या सुरभि अपना पाई उसे

Hindi Kahani: पूस का महीना था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. रात 10 बजे सूरत में हाईवे के किसी होटल पर यात्रियों के भोजन के लिए बस आधे घंटे के लिए रुकी थी. मैं ने भी भोजन किया और फिर बस में सवार हो गया. मुझे उस शहर जाना है, जो पहाडि़यों की तलहटी में बसा है और अपने में गजब का सौंदर्य समेटे हुए है. जहां कभी 2 जवां दिल धड़के, सुलगे थे. और उसी की स्मृति मात्र से छलक जाती हैं आंसुओं की बूंदें, पलकों की कोर पर.

बस ने थोड़ी सी ही दूरी तय की होगी कि मेरी आंख लग गई. रतनपुर बौर्डर पर ऐंट्री करते ही रोड ऊबड़खाबड़ थी, जिस कारण बस हिचकोले खाती हुई चल रही थी. मेरा सिर बस की खिड़की के कांच से टकराया, तो नींद में व्यवधान पड़ा. आंखें मसलीं, घड़ी देखी तो सुबह होने में थोड़ी देर थी. बाहर एकदम सन्नाटा छाया हुआ था. बस सर्द गुबार को चीरती हुई भागी जा रही थी.

सुबह के 8 बजे थे. सूरज की किरणें धरती को स्पर्श कर चुकी थीं. उदयापोल सर्कल पर बस से उतरा ही था कि रिकशा वाला सामने आ खड़ा हुआ. मेरे पास लगेज था. मैं बस से नीचे उतर आया. मैं यहां अपने प्रिय मित्र पीयूष की शादी में शरीक होने आया था. उस ने शादी के निमंत्रणपत्र में साफ लिखा था कि यदि तू शादी में नहीं आया तो फिर देखना.

हालांकि सफर बहुत लंबा था. तकरीबन 800 किलोमीटर का. जाने का मन तो नहीं था, लेकिन 2 बातें थीं. एक तो इस ‘देखना’ शब्द का दबाव जो मुझ से सहन नहीं हो रहा था, दूसरा इस शहर से जुड़ी यादें, जिन्हें खुद से अलग नहीं कर पाया. मैं ने आंखें मूंद कर भीतर झांकने की कोशिश की, एक सलोनी छवि आज भी मेरे हृदय में विद्यमान है. उस के होने मात्र से ही मेरे भीतर का आषाढ़ भीगने लगता था और मन हमेशा हिरण की तरह कुलांचें भरने लगता था. उसे गाने का बहुत शौक था. वह रातभर मुझे अपनी मधुर आवाज में अलगअलग रागों से परिचित करवाती थी, पर अब तो मन की चित्रशाला में रागरंग रहा ही नहीं, वहां मात्र यादों के चित्र शेष रह गए हैं.

‘‘किधर चलना है साहब ’’ औटो वाले ने पूछा.

‘‘मीरा गर्ल्स कालेज के सामने वाली गली में.’’

‘‘आइए बैठिए,’’ कहते हुए उस ने मेरा लगेज रिकशा में रख दिया.

‘‘अरे, तुम ने बताया नहीं, कितना चार्ज लगेगा ’’

‘‘क्या साहब, सुबह का समय है, शुरुआत आप के हाथ से होनी है, 50 रुपया लगते हैं, जो भी जी आए, दे देना.’’

रिकशा में बैठा मैं उस की ‘जो भी जी में आए, दे देना’ वाली बात पर गौर कर रहा था. सोच रहा था, सुबह का वक्त भी है, 50 रुपए से कम देना भी ठीक नहीं होगा. मैं भी उसे अपनी तरफ से कहां निराश करने वाला था.

रास्ते में सिगनल पर रिकशा थोड़ी देर लालबत्ती के हरा होने के इंतजार में खड़ा रहा. यह चेटक सर्कल था. मैं ने नजर दौड़ाई. सिगनल के दाईं ओर चेटक सिनेमा हुआ करता था. अब वह नहीं रहा, उसे तोड़ कर शायद कौंप्लैक्स बनाया जा रहा है. 5 साल में बहुत कुछ बदल गया था. सिनेमा वाली जगह दिखी तो मन अतीत की स्मृतियों को कुरेदने लगा.

यादों का सिरा पकड़े मैं आज तक उस की रोशनी के कतरे तलाश रहा हूं, यादें उस के आसपास भटक कर आंसुओं में बह जाती हैं.

10 साल मैं इसी शहर में रहा था. इस शहर को अंदरबाहर से समझने में मुझे ज्यादा समय नहीं लगा. हां, तब यहां इतनी चकाचौंध भी नहीं थी. समय के चक्र के साथ इस शहर ने विश्वपटल पर अपनी रेखाएं खींच दी हैं. उन दिनों यहां मात्र यही एक टौकीज हुआ करता था. यहीं पर मैं ने सुरभि के साथ पहली फिल्म देखी थी बालकनी में बैठ कर. फिल्म थी, ‘प्रिंस.’

वह शायद दिसंबर का कोई शनिवार था. वह होस्टल में रहती थी. होस्टल की चीफ वार्डन लड़कियों को अधिक समय तक बाहर नहीं रहने देती थी. उन्हें 8 बजे तक किसी भी हालत में होस्टल में पहुंच जाना होता था. शनिवार को उस ने वार्डन से कह दिया कि आज वह घर जा रही है, सोमवार तक लौट आएगी. शाम के 5 बजे वह अपना बैग उठा कर मेरे कमरे पर आ गई थी.

‘आज तुम आ गई हो तो अपने हाथ से खाना भी बना कर खिला दो.’

‘क्या  खाना, मुझे कौन सा खाना बनाना आता है.’

‘फिर तुम्हें आता क्या है यदि हमारी शादी हुई तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाएगा ’

‘कौन खिलाएगा का क्या मतलब, बाहर से मंगवाएंगे.’

‘क्या पुरुष शादी इसलिए करते हैं कि घर में पत्नी के होते हुए उन्हें खाना बाहर से मंगवाना पड़े.’

‘पुरुषों की तो पुरुष जानें, मैं तो अपनी बात कर रही हूं.’

उस की बातें सुन कर एक पल मुझे अपनी मां की याद आ गई. वे घर का कितना सारा काम करती हैं और एक यह है आधुनिक भारतीय नारी, जिसे काम तो क्या, खाना तक बनाना नहीं आता.

‘अरे, महाशय, कहां खो गए  मैं तो यों ही मजाक कर रही थी. खाना बाद में खाना, पहले मैं तुम्हारे लिए एक कप चाय तैयार कर देती हूं.’

उस दिन पहली बार उस के हाथ की चाय पी कर मन को कल्पना के पंख लग गए थे.

‘मैं खाना भी स्वादिष्ठ बनाती हूं, पर आज नहीं. आज तो मूवी देखने चलना है.’

‘ओह, मैं तो भूल ही गया था, 5 मिनट में तैयार हो जाता हूं.’

हम जल्दी से सिनेमा देखने पहुंच गए. अब मल्टीप्लैक्स का जमाना आ गया था. सिनेमाघर के बाहर मुख्यद्वार के ऊपर रंगीन परदा लगा था, जिस पर फिल्म के नायकनायिका का चित्र बना था. अभिनेत्री अल्प वस्त्रों में थी, जिस से पोस्टर पर बोल्ड वातावरण अंगड़ाइयां ले रहा था. मैं टिकट विंडो पर जाता, उस से पहले ही उस ने मना कर दिया, पोस्टर इतना गंदा है तो फिल्म कैसी होगी  चलो, फतेहसागर घूमने चलते हैं.

‘अरे, क्या फतेहसागर चलते हैं  किस ने कहा कि फिल्म गंदी है ’

‘तुम तो पागल हो, पोस्टर नहीं दिखता क्या, कितना खराब सीन दिया है.’

‘ओह, कितनी भोली हो तुम. फिल्म वाले इस तरह का पोस्टर बाहर नहीं लगाएंगे तो लोग फिल्म की ओर कैसे आकर्षित होंगे  वैसे फिल्म में ऐसा कुछ है नहीं, जैसा तुम सोच रही हो. टीवी पर कई दिन से इस का ऐड भी आ रहा था. रिव्यू में भी इसे अच्छा बताया गया है.’

वह मूवी देखने में थोड़ा असहज महसूस कर रही थी, लेकिन जैसेतैसे उसे मना लिया. उस के चेहरे पर अचानक मुसकान थिरकी और वह मान गई.

सिनेमा हौल की बालकनी तो जैसे हमारे लिए ही सुरक्षित थी. पूरे हौल में एकाध सिर इधरउधर बिखरे नजर आ रहे थे. फिल्म थोड़ी ही चली थी कि गीत आ गया. गीत आया जो आया, मेरे लिए मुसीबत की घंटी बजा गया. नायकनायिका दोनों आलिंगनबद्ध शांत धड़कनों में उत्तेजना का संचार करता दृश्य, अचानक उस ने मेरी आंखों पर अपनी हथेली रख दी.

‘आप यह सीन नहीं देख सकते,’ उस ने कहा.

जब तक फिल्म खत्म नहीं हुई, मेरे साथ यही चलता रहा. उस दिन तो मैं वह मूवी आधीअधूरी ही देख पाया, फिर एक दिन अपने दोस्तों के साथ जा कर अच्छी तरह देखी. यह फिल्म सुरभि के साथ मेरी पहली और आखिरी फिल्म थी. छोटी सी तकरार को ले कर उस ने मुंह क्या मोड़ा, दोस्ती के गहरे और मजबूत रिश्ते को भी तारतार कर दिया. वह मुहब्बत की मिसाल थी पर उस ने वापस कभी मेरी ओर झांक कर नहीं देखा. इस बात को 5 वर्ष बीत गए. पता नहीं, वह कहां होगी, पर मैं हूं कि आज भी मुझे उस के साए तक का इंतजार है. कभी सोचता हूं कि यह भी क्या कोई जिंदगी है जो उस के बिना गुजारनी पड़े.

‘‘साहब, कौन से मकान के बाहर रोकना है, बता देना ’’ रिकशा वाले ने कहा.

‘‘उस सामने वाले घर के बगल में ही रोक देना.’’

पीयूष मुझे देखते ही सामने दौड़ा आया और बांहों में जकड़ लिया.

‘‘मुझे पता था, तुम अवश्य आओगे. मेरे लिए न सही, पर किसी खास वजह के लिए. और हां, तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है.’’

‘‘और वह क्या खबर है ’’

‘‘शाम को तुम्हें अपनेआप पता चल जाएगा. थके हुए हो, अभी तुम आराम करो.’’

‘‘अच्छा, एक बात बता यार, कभी सुरभि दिखाई दी क्या, मेरे जाने के बाद ’’

‘‘हां… मिली थी, तुम्हारे लिए कोई संदेश दिया था. शाम को रिसैप्शन के समय बताऊंगा.’’

अब मेरे लिए यह दिन निकालना भारी पड़ेगा. मन तो करता है कि अभी दिन ढल जाए और रिसैप्शन शुरू हो जाए. ‘काश, वह आज भी मेरा इंतजार कर रही होगी. उस का हृदय इतना पाषाण नहीं हो सकता. फिर उस ने मुझ से मिलने की कोशिश क्यों नहीं की. पीयूष को क्या बताया होगा उस ने. यह भी कितना नालायक है, बात अभी क्यों नहीं बताई मुझे.’’

मैं बेसब्री से रिसैप्शन शुरू होने का इंतजार कर रहा था. आखिर दिन ढल भी गया और रिसैप्शन में मेरी आंखों ने वह देखा जो पीयूष मुझे दिन में बता नहीं पाया था.

सुरभि शादी में आई थी. उस के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. उस के साथ तकरीबन 2 साल का सुंदर बच्चा भी था. वह बिलकुल सुरभि पर गया था. मैं उस से आंखें बचा रहा था, पर शायद उसे मेरी उपस्थिति का पहले से अंदाजा था. यह बच्चा किस का है. कहीं सुरभि ने…

पीयूष से मुझे पता चला कि सुरभि जब मुझ से रूठ कर गई, तब घर वालों के दबाव में उस ने शहर के एक रईस युवक से शादी कर ली थी, पर शादी के एक साल में ही उन के रिश्ते में दरार पड़ गई और वह गुमनाम सी बन कर रह गई.

मैं ने उसे कितना समझाया था  हरदम उसे अपना समझा. उसे खरोंच तक नहीं लगने दी, पर वह मुझे नीचा दिखा गई. मैं उस के दिल और दोस्ती की आज भी कद्र करता हूं और हमेशा करूंगा. साथ ही कभीकभी एक अपराधबोध भी मेरे अंदर जागृत होता है, जिस का एहसास मुझे हमेशा सालता रहेगा. पर हैरानी है कि वह मुझे अकेला और तनहा छोड़ गई. लगता नहीं कि अब किसी और के साथ निबाह हो सकेगा.

उसे नहीं पता कि आज भी मैं उसे कितना प्यार करता हूं, पर आज मेरे कदम उस की ओर उठ नहीं पा रहे हैं और होंठ भी खामोश हैं. आंखों में जलधारा लिए मैं ने भी नजरें घुमा लीं.

Romantic Story: रुक गई प्राची – क्या प्राची को उसका प्यार मिल पाया

Romantic Story: चंद्रभागाके तट पर खड़ी प्राची आंखों में असीम आनंद लिए विशाल समुद्र में नदियों का मिलन देख रही थी. तभी बालुई तट पर खड़ी प्राची के पैर सागर ने पखार लिए. असीम आनंद की अनुभूति गजब का आकर्षण होता है समुद्र का. प्राची का मन किया कि वह समुद्र का किनारा छोड़ कर उतरती जाए, समाती जाए, ठीक समुद्र के बीचोंबीच जहां नीला सागर शांत स्थिर है. शायद उस के अपने मन की तरह. फिर मन ही मन सोचने लगी कि क्यों आई सब छोड़ कर, सब को छोड़ कर या फिर भाग कर… सागर देखने की उत्कंठा तो कब से थी. वह पुरी पहुंचने से पहले कुछ देर के लिए कोर्णाक गई थी, पर उस का मन तो सागर में बसा था. उसे पुरी पहुंचने की जल्दी थी.

मगर कल ऐसा क्या हुआ कि बौस के सामने छुट्टी का आवेदन दिया कि कल ही जाना जरूरी है. मां को ओडिसा घुमाने ले जाने के लिए. कल ही से छुट्टी चाहिए और वह भी कम से कम 5 दिनों की. बौस के चेहरे से लग रहा था कि उन्हें प्राची की बात पर यकीन नहीं हुआ. मगर प्राची का चेहरा कह रहा था कि अगर छुट्टी नहीं मिली तो भी चली जाएगी विदआउट पे लीव पर या फिर नौकरी से इस्तीफा देना पड़े तब भी.

बौस ने छुट्टी सैंक्शन कर दी. प्राची के चेहरे पर सुकून आया. मगर उस ने यह बात सिर्फ अपनी सहेली निकिता से शेयर की, इस ताकीद के साथ कि औफिस के किसी भी सहयोगी को पता न चले कि वह कहां जा रही है. प्राची घर चल दी. कोलकाता शहर नियोन लाइट में जगमगा रहा था. प्राची की आंखों में भी आंसू झिलमिला गए. अचानक मानो नियोन लाइट से होड़ लगी हो.

कई सारे सवाल प्राची के मन में उमड़ रहे थे. वह जानती थी कि इन के जवाब उसे खुद ही देने हैं. वह पूछना चाहती थी खुद से कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है? उसे पता था निखिल के सामने होने से यह संभव नहीं. वह सब भूल जाती है बस लगता है निखिल सामने रहे उस के बाद उसे दुनिया में किसी भी चीज की जरूरत नहीं.

सुबह के 4 बजे ही बिस्तर छोड़ दिया प्राची ने. एक एअरबैग में कुछ कपड़े रखे, मेकअप का जरूरी सामान लिया और जरूरत भर के पैसे ले कर वह बसस्टैंड की तरफ चल पड़ी. वह चाहती थी कि रात होने से पहले पुरी पहुंच जाए. इस के पीछे 2 वजहें थीं. एक तो वह अंधेरा होने से पहले पहुंचना चाहती थी ताकि उसे होटल में कमरा मिलने में कोई परेशानी न हो और दूसरा अगर उसे होटल नहीं मिला तो उस के अंकल रेलवे में काम करते हैं. वहां रेलवे का गैस्टहाउस भी था. वहां कुछ इंतजाम हो जाता.

दूसरी अहम बात उस ने यह सुन रखी थी कि पूनम की रात समुद्र की लहरें काफी तेज उछलती हैं मानो चांद को छूना चाहती हों. उसे यह शानदार दृश्य देखना था और संयोग से उस दिन पूनम की रात भी थी. जब वह समुद्र के तट पर पहुंची शाम ढल रही थी. समुद्र के दूसरी छोर से चांद निकल रहा था सफेद चमकीला. प्राची के कदम थम से गए. एक तरफ रेत के किनारे से बुलाता सागर तो दूसरी तरफ होटलों की कतार, जहां उसे कुछ दिन रहना था. वह सोचने लगी कि पहले होटल ले या समुद्र को छू ले. अगले ही पल अपने एअरबैग को रेत पर पटका उस ने और दौड़ गई समुद्र किनारे.

सूरज के ढलते ही अंधेरा हो गया. रात में समुद्र की आवाज एक भय पैदा कर रही थी. सिहरन सी होने लगी. अपने दोनों हाथों को सीने में बांध वह जाने लगी पास और पास हाहाकार करते समुद्र के. उसे लगा जैसे यह उस के ही दिल की आवाज हो. दूर समुद्र के दूसरे छोर पर चांद रोशन था. गहन समुद्र… दूर तक पानी ही पानी. बस लहरें उठने के शोर से पता चलता था कि समय सरक रहा है. जी चाहा कि दूर समुद्र में उतरती जाए… चलती ही जाए जब तक कि पानी उस की सांसों की डोर न थामने लगे. मगर इस खयाल को परे झटका प्राची ने. सोचा यह तो आत्महत्या करने वाली बात होगी. उस ने ऐसा तो कभी नहीं चाहा. बहुत जीवट है उस में. जमाने से लड़ कर अपना मुकाम बना सकती है. प्राची लौट चली. पुकारते समुद्र की आवाज को अनसुना कर के. बैग को एक झटके से कंधे पर लटकाया और चल पड़ी.

उसे होटल का कमरा भी लेना था. देर हो रही थी. अब सोचविचार का वक्त नहीं था.

अंधकार अपनी पूरी शिद्दत से पसर चुका था. वह चलतेचलते भीड़भाड़ वाले इलाके से दूर आ चुकी थी. सामने जो होटल आया उस ने रिसैप्शन पर जा कर सीधे पूछा कि कोई रूम खाली है? हां में जवाब मिलने पर वह कमरा देखने चली गई. सोचा जैसा भी हो आज रात रुक जाएगी. पसंद नहीं आएगा तो कल बदल लेगी. मगर कमरा खूबसूरत था. सब से अच्छी बात यह कि उस की फेसिंग समुद्र की तरफ थी. वह अब पास जाए बिना भी समुद्र देख सकती है, जिस के लिए वह आई है. खुश हो कर प्राची ने कमरा ले लिया और खाने का और्डर दे कर फ्रैश होने चली गई. उस के आने तक डिनर भी आ गया. वह खाना खा कर बाहर बालकनी में बैठ गई, हाथ में कौफी का मग थामे. अब उस के पास तनहाई थी, समुद्र था और थी निखिल की यादें. वह इसी के लिए तो आई थी. खुद से बातें करने… जीवन की दिशा तय करने. वहां उस के आगे वह कुछ सोच पाने में असमर्थ जैसे कुछ सोच पाना उस के इख्तियार में नहीं.

हां, वह प्यार करती है निखिल को बेहद. उस के बिना जीने की कल्पना भी उसे पागल बना देती है. मगर निखिल का कुछ पता नहीं चलता. उस की आंखें तो कहती हैं वह भी आकर्षित है, मगर जबान कुछ कहना नहीं चाहती. वह चाहती है निखिल एक बार कहे. बहुत असमंजस में है प्राची. उस के सामने कैरियर है, प्यार है, वह क्या करे. डरती है, कहीं आगे बढ़ कर यह बात निखिल को बताई तो कहीं इनकार से दिल न टूट जाए. उस के बाद उस के साथ एक औफिस में काम करना संभव नहीं होगा. प्यार मिला, तो खजाना मिलेगा और न मिला तो जैसे सब छूट जाएगा, दिल टूटेगा, कैरियर भी समाप्त. फिर क्या करेगी वह इस बड़े से शहर में. वापस घर जा कर सब लोगों को, दोस्तों को गांव के परिचितों को क्या बताएगी? बड़े दंभ के साथ वह घर छोड़ कर आई गांव से यहां तक. फिर 1 ही साल में अपने मांबाबूजी को भी शहर ले आई अपने साथ रखने के लिए गोया जता रही हो वह कि आज के दौर में वह किसी बेटे से कम नहीं उन के लिए. फिर उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है. मुकाम हासिल करना है. प्यार करने तो नहीं आई इस कोलकाता जैसे शहर में. तो फिर निखिल उस का रहनुमां कैसे बन बैठा? क्यों वह चकोर की तरह बिहेव करती है? क्यों तकती है उस का रास्ता? इन्हीं सवालों के जवाब खोजने हैं आज उसे यहां. अब उसे फैसला लेना होगा. खुद को मजबूत बनाने ही तो यहां आई है.

प्राची जानती है कि निखिल को उस की केयर है. वह परेशान होगा. फिर भी उसे बता कर नहीं आई कि वह कहां जा रही है. उस ने अपना मोबाइल भी स्विचऔफ कर दिया ताकि कोई उसे डिस्टर्ब न कर सके. उसे फैसला लेना है जीवन का, प्यार का, कैरियर का.

अब रात ढल रही है. एकांत कमरे में प्राची सोने की कोशिश में है. पूरे चांद को और समुद्र की लहरों को देख उन का उछाल बारबार आंखों के सामने आ रहा है प्राची के… काश वह निखिल के साथ यहां आ पाती. उस के साथ जिंदगी बिताना कितना सुखद होता. यह सोच कर उसे रोमांच हो आया.

प्राची को याद है, वह रात को 10 बजे अपनी डैस्क का काम खत्म कर के घर आती है. उस के ऐडिटोरियल हैड उस के कार्यव्यवहार से बहुत संतुष्ट हैं. रात अपनी न्यूज स्टोरी की आखिरी कौपी उन को दे कर वह कैब से घर चली जाती है. जहां रोज की तरह छत वाले कमरे का अकेलापन उस का इंतजार कर रहा होता है. मां पहले अकसर उस के लिए गरम खाना बनाती थी उस के आने के बाद, मगर बाद में उस ने जिद कर के मां को मना कर दिया. इस के 2 कारण थे- एक तो मां की बढ़ती उम्र की वजह से उन के घुटनों का दर्द और दूसरी वह खुद इतनी थकी होती कि खाने की हिम्मत नहीं होती. चाहती, बस कुछ ऐसा मिल जाए जिसे सीधे गटक लिया जाए हलक में दलिए की तरह. सो अब उसे खाना भी वहीं कमरे में रखा मिल जाता है जिसे नहाने के बाद प्राची जैसेतैसे निगलती है और फिर कुछ देर टीवी के बाद सीधे बिस्तर में.

वह कभी रात को किसी से भी फोन पर बात नहीं करती. मगर आज क्यों बारबार उसे लग रहा है कि बस एक बार निखिल की भारी आवाज सुन ले. बस एक बार फोन कर उस पार से आती उस की सांसें महसूस करे बस एक बार. इसी असमंजस में उस ने हाथ बढ़ा कर पर्स में पड़ा अपना मोबाइल निकालने का उपक्रम किया. बस इतने में ही उस का दिल जोरों से धड़क उठा. जैसेतैसे उस ने उसे औन किया. इस के साथ ही उस के मन में हजारों खयाल एकसाथ उमड़ पड़े.

निखिल का उस के साथ ऐक्स्ट्रा अटैंटिव बरताव करना, उस की बातों में प्राची ने हमेशा एक सम्मान मिश्रित प्रेम अनुभव किया. प्राची ने कभी कोई हलकी बात उस के मुंह से नहीं सुनी किसी के लिए भी.

अपने कालेज के दिनों से ही प्राची अपने व्यक्तित्व के चलते हर जगह छाई रहती थी. पढ़ाई, संगीत, वादविवाद प्रतियोगिता हो या फिर फैशन डिजाइनिंग अथवा कालेज की छमाही पत्रिका में लेखन, संपादन हर जगह प्राची आगे… कालेज के लड़कों की ही नहीं लड़कियों की भी जैसे स्टार रही है वह.

उसे याद है कितने ही लड़के उस के आतेजाते रास्ते में खड़े उस की राह ताकते रहते. कुछ करीब आ कर बातें करने की कोशिश करते. कई बार उसे अब सोच कर हंसी आती है कि कैसे किसी भी साल रोज डे के दिन उस के कालेज पहुंचने से पहले ही उस की डैस्क गुलाबों से भरी होती, लाल, पीले, मैरून, पिंक… सब को पता था उसे गुलाबों से बेइंतहा लगाव है. हर बुके के साथ उस के लिए विश लिखी होती, साथ ही लिखा होता उस लड़के का नाम और एक दबा सा अस्पष्ट प्रीत निवेदन. प्राची उन सब प्रीत निवेदन की परचियों को फाड़ कर फेंक देती और गुलाब रख लेती. उस का इतना प्रभावी व्यक्तित्व था कि लड़के उस के साथ रहते, मगर जो किला उस ने अपने चारों ओर बना रखा था उसे भेद कर भीतर आने की हिमाकत कोई नहीं कर पाया. और आज जैसे लग रहा है, उन दिनों में मजबूत रही प्राची खुद ही अपने बनाए किले की प्राचीरें तोड़ने को मजबूर है.

औफिस में भी एक निखिल को छोड़ कर उस ने लगभग सभी की आंखों में अपने लिए एक सवाल देखा. कभी वह ‘हम भी खड़े हैं राहों में’ वाले स्टाइल में होता, कभी केवल टाइमपास जैसा कहीं किसी सौदेबाजी की तरह. मगर वह कभी नहीं डगमगाई. नहीं झुकी किसी प्रलोभन के आगे. उस का काम बोलता था. उस की खबरों की रिपोर्टिंग में उस का नाम बोलता था. मगर आज इस आधी रात को क्यों टूट रही है वह और वह भी एक ऐसे सहकर्मी के लिए जिस ने सामने से कभी कुछ कहा नहीं… उसे कोई इशारा भर भी नहीं किया. बस वह रोज उस का लंच टाइम में वेट करता. साथ चाय पीती उस के साथ. वहीं बहुत सी बातें होतीं. प्राची अब सोचती है बातें भी क्या. वह बस उसे सुनती मंत्रमुग्ध सी हो जाती उस की आवाज में. कुछ ही पलों में लगता जैसे समुद्र तट पर खड़ी है वह. अंधकार में स्वर की लहरों पर सवार है. बहा लिए जा रहा कोई उस के अनछुए मन को. सिहरन सी भर रहा है कोई उस अनछुए तन में.

अचानक तंद्रा भंग हुई उस की. उस ने देखा मोबाइल में पता नहीं कब उस की उंगलियां निखिल का नंबर ढूंढ़ लाईं जिसे उस ने ‘ऐ बेबी’ के नाम से सेव किया था. सर्दी की यह रात तेजी से ढल रही थी. फोन हाथ में लिए प्राची उठी. दिल जोर से धड़क रहा था. खिड़की से समुद्र की ओर झांका जो इस वक्त हिलोरें ले रहा था. लहरों की आवाजें किनारों की चट्टानों से टकराने की… लग रहा था जैसे हजारों लहरों पर निखिल का नाम लिखा है और वह नाम उस की मन की कठोर चट्टानों को भिगो रहा है… तोड़ने की, भेदने की कोशिश कर रहा है… अचानक उसे खयाल आया निखिल सोते हुए कैसा लगता होगा और फिर यह सोचती सी प्राची एक षोडसी सी लजा उठी.

मगर इस खयाल से वह बेहद खुशी से भर उठी. उस ने फोन वापस औफ कर दिया. सोचा अगली सुबह निखिल से जरूर बात करेगी. अभी नहीं. इस निर्णय के बाद उसे लगा कि अब सो पाएगी वह. हालांकि सुबह होने को है, मगर कुछ घंटे चैन की नींद फ्रैश कर देती है उसे, यह वह जानती है. उस ने अब तय किया कि सुबह उठ कर समुद्र के किनारे जब लहरें हौले से उस के पैरों को भिगो रही होंगी और समुद्र के ऊपर आसमान में निखिल को ले कर उस की कल्पनाओं की तरह असंख्य पंछी उड़ रहे होंगे तब ऐसे में वह निखिल को फोन से अपने मन की बात बता देगी. प्राची को ये सब सोचते हुए बेहद सुकून मिला और फिर पता ही नहीं चला कि वह कब अपने होंठों पर एक मुसकान लिए नींद के आगोश में चली गई.

करीब 2 घंटे की गहरी नींद के बाद प्राची जागी. खिड़की से बाहर झांका. सूर्य एक नारंगी रंग के गोले की तरह निकलने के उपक्रम में था. शांत समुद्र में बहुत हलकी सी चमकीली लहरें जैसे बुला रही थीं उसे. प्राची जल्दी से अपना कैमरा उठा कर दौड़ पड़ी समुद्र की ओर… यही पल उसे कैद करने हैं… अपने जेहन में भी, अपने जीवन में भी. इन्हीं की साक्षी बन उसे निखिल को अपना फैसला बताना है.

नंगे पैरों को लहरें चूम रही थीं. प्राची ने वक्त के इस बेहद खास लमहे को पहले अपने कैमरे में कैद किया. फिर कांपते हाथों से पर्स से मोबाइल निकाल कर निखिल का नंबर मिलाया. धड़कते दिल से उस की रिंगटोन सुनती रही, ‘‘सुनो न, संगेमरमर की ये मीनारें.’’ यह सुनते हुए उसे लग रहा था जैसे दिल की धड़कनें कानों से कनपटियों के निचले हिस्से तक जमा हो रहीं… वह खोई थी लहरों में, गीत में… उस बेहद रोमानी आलम में अचानक फोन कनैक्ट हुआ.

‘‘हैलो… निखिल….’’ वह जोर से लगभग चिल्लाते हुए बोली पर दूसरी ओर से कोई रिप्लाई नहीं आया.

‘‘निखिल…’’ वह फिर से बोली. ‘‘हैलो, वे सोए हैं अभी… आप कौन?’’ आवाज निश्चित किसी लड़की की थी.

‘‘जी मैं उनके औफिस से बोल रही हूं,’’ किसी तरह रुकरुक कर प्राची ने बताया. दूसरी तरह चुप्पी छाई रही.

‘‘आप कौन?’’ अटकते हुए किसी तरह प्राची ने पूछ ही लिया. ‘‘मैं निखिल की पत्नी और आप?’’

प्राची के हाथ से फोन छूट कर गीले बालू पर गिर गया. हैरान खड़ी थी वह… लहरें अब भी प्राची के पैरों को, फोन को भिगो रही थीं… समुद्र की आवाज गूंज रही थी… लहरें आ रही थीं… जा रही थीं.

Hindi Story: फोन कौल्स – आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

Hindi Story, लेखक – सोनू कुमार ‘सुमन’

‘ट्रिंग ट्रिंग… लगा फिर से फोन बजने,‘ फोन की आवाज से पूरा हौल गूंज उठा. आज रात तीसरी बार फोन बजा था. उस समय रात के 2 बज रहे थे. मीनाक्षी गहरी नींद में सो रही थी. उस के पिता विजय बाबू ने फोन उठाया. उस तरफ से कोई नाटकीय अंदाज में पूछ रहा था, ‘‘मीनाक्षी है क्या?’’

‘‘आप कौन?’’ विजय बाबू ने पूछा तो उलटे उधर से भी सवाल दाग दिया गया, ‘‘आप कौन बोल रहे हैं?’’

‘‘यह भी खूब रही, तुम ने फोन किया है और उलटे हम से ही पूछ रहे हो कि मैं कौन हूं.’’

‘‘तो यह मीनाक्षी का नंबर नहीं है क्या? मुझे उस से ही बात करनी है, मैं बुड्ढों से बात नहीं करता?’’

‘‘बदतमीज, कौन है तू? मैं अभी पुलिस में तेरी शिकायत करता हूं.’’

‘‘बुड्ढे शांत रह वरना तेरी भी खबर ले लूंगा,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया.

विजय बाबू गुस्से से तिलमिला उठे. उन्हें अपनी बेटी पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उन का मन हुआ कि जा कर दोचार थप्पड़ लगा दें मीनाक्षी को.

‘2 दिन से इसी तरह के कई कौल्स आ रहे हैं. पहले ‘हैलोहैलो’ के अलावा और कोई आवाज नहीं आती थी और आज इस तरह की अजीब कौल…’ विजय बाबू सोच में पड़ गए.

मीनाक्षी ने अच्छे नंबरों से 12वीं पास की और एक अच्छे कालेज में बी कौम (औनर्स) में दाखिला लिया था. पहले स्कूल जाने वाली मीनाक्षी अब कालेज गोइंग गर्ल हो गई थी. कालेज में प्रवेश करते ही एक नई रौनक होती है. मीनाक्षी थी भी गजब की खूबसूरत. उस के काफी लड़केलड़कियां दोस्त होंगे, पर ये कैसे दोस्त हैं जो लगातार फोन करते रहते हैं तथा बेतुकी बातें करते हैं.

अगली सुबह जब विजय बाबू चाय की चुसकियां ले रहे थे और उधर मीनाक्षी कालेज के लिए तैयार हो रही थी, तभी विजय बाबू ने मीनाक्षी को बुलाया, ‘‘मीनाक्षी, जरा इधर आना.’’

डरतेडरते वह पिता के सामने आई. उस का शरीर कांप रहा था. वह जानती थी कि पिताजी आधी रात में आने वाली फोन कौल्स के बारे में पूछने वाले हैं क्योंकि परसों रात जो कौल आई थी, मीनाक्षी के फोन उठाते ही उधर से अश्लील बातें शुरू हो गई थीं. वह कौल करने वाला कौन है, उसे क्यों फोन कर रहा है, ये सब उसे कुछ भी मालूम नहीं था. वह बेहद परेशान थी. इस समस्या के बारे में किस से बात की जाए, वह यह भी समझ नहीं पा रही थी.

‘‘कालेज जा रही हो?’’ विजय बाबू ने बेटी से पूछा.

मीनाक्षी ने सिर हिला कर हामी भरी.

‘‘मन लगा कर पढ़ाई हो रही है न?’’

‘‘हां पिताजी,’’ मीनाक्षी ने जवाब दिया.

‘‘कालेज से लौटते वक्त बस आसानी से मिल जाती है न, ज्यादा देर तो

नहीं होती?’’

‘‘हां पिताजी, कालेज के बिलकुल पास ही बस स्टौप है. 5-10 मिनट में बस मिल ही जाती है.’’

‘‘क्लास में न जा कर दोस्तों के साथ इधरउधर घूमने तो नहीं जाती न,’’ मीनाक्षी को गौर से देखते हुए विजय बाबू ने पूछा.

‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है पिताजी.’’

‘‘देखो, अगर कोई तुम्हारे साथ गलत व्यवहार करता हो तो मुझे फौरन बताओ, डरो मत. मेरी इज्जतप्रतिष्ठा को जरा भी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए. मैं इसे कभी बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

मीनाक्षी ने ‘ठीक है’, कहते हुए सिर हिलाया. आंखों में भर आए आंसुओं को रोकते हुए वह वहां से जाने लगी.

‘‘मीनाक्षी’’, विजय बाबू ने रोका, मीनाक्षी रुक गई.

‘‘रात को 3 बार तुम्हारे लिए फोन आया. क्या तुम ने किसी को नंबर दिया था?’’

‘‘नहीं पिताजी, मैं ने अपने क्लासमेट्स को वे भी जो मेरे खास दोस्त हैं, को ही अपना नंबर दिया है.’’

‘‘उन खास दोस्तों में लड़के भी हैं क्या?’’ विजय बाबू ने पूछा.

‘‘नहीं, कुछ परिचित जरूर हैं, पर दोस्त नहीं.’’

‘‘ठीक है, अब तुम कालेज जाओ.’’

इस के बाद विजय बाबू ने फोन कौल्स के बारे में ज्यादा नहीं सोचा, ‘कोई आवारा लड़का होगा,’ यह सोच कर निश्चिंत हो गए.

शाम को जब विजय बाबू दफ्तर से लौटे तो मीनाक्षी की मां लक्ष्मी को कुछ परेशान देख उन्होंने इस का कारण पूछा तो वे नाश्ता तैयार करने चली गईं.

दोनों चायबिस्कुट के साथ आराम से बैठ कर इधरउधर की बातें करने लगे, लेकिन विजय बाबू को लक्ष्मी के चेहरे पर कुछ उदासी नजर आई.

‘‘ऐसा लगता है कि तुम किसी बात को ले कर परेशान हो. जरा मुझे भी तो बताओ?’’ विजय बाबू ने अचानक सवाल किया.

‘‘मीनाक्षी के बारे में… वह… फोन कौल…‘‘ लक्ष्मी ने इतना ही कहा कि विजय बाबू सब मामला समझते हुए बोले, ‘‘अच्छा रात की बात? अरे, कोई आवारा होगा. अगर उस ने आज भी कौल की तो फिर पुलिस को इन्फौर्म कर ही देंगे.’’

लक्ष्मी ने सिर हिला कर कहा, ‘‘नहीं. पिछले 2-3 दिन से ही ऐसे कौल्स आ रहे हैं. मैं ने मीनाक्षी को फोन पर दबी आवाज में बातें करते हुए भी देखा है. जब मैं ने उस से पूछा तो उस ने ‘रौंग नंबर‘ कह कर टाल दिया. आज दोपहर में भी फोन आया था. मैं ने उठाया तो उधर से वह अश्लील बातें करने लगा. मुझे तो ऐसा लगता है कि हमारी बेटी जरूर हम से कुछ छिपा रही है.’’

‘‘तुम्हारा क्या सोचना है कि ऐसे लड़के मीनाक्षी के बौयफ्रैंड्स हैं?’’

‘‘कह नहीं सकती. पर क्या बौयफ्रैंड्स ऐसे लफंगे होते हैं. हमारे समय में भी कालेज हुआ करते थे. उस वक्त भी कुछ लड़के असभ्य होते थे. लड़कियां, लड़कों से बातें करने में शरमाती थीं कि कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा. वे तो हमें कीड़ेमकोड़े की तरह दिखते थे.

फिर भी वहां लड़केलड़कियों में डिग्निटी रहती थी.’’

‘‘ऐसे कीड़े तो हर जगह होते हैं लक्ष्मी, जरूरी होता है कि हम उन कीड़ों से कितना बच कर रहते हैं. आज रात अगर फोन कौल आई तो हम इस की खबर पुलिस में करेंगे, तुम भी मीनाक्षी से प्यार से पूछ कर देखो,’’ विजय बाबू ने समझाया.

लक्ष्मी ने गहरी सांस लेते हुए सिर हिला कर हामी भरी और गहरी सोच में डूब गई. जवान होती लड़कियों की समस्याओं के बारे में वे भी जानती थीं. प्रेमपत्र, बदनामी, जाली फोटो, बेचारी लड़कियां न किसी को बता पाती हैं और मन में रख कर ही घुटघुट कर जीती हैं. कुछ कहने पर लोग उलटे उन्हीं पर शक करते हैं. कितनी यातनाएं इन लड़कियों को सहनी पड़ती हैं.

पहले जमाने में लोग लड़कियों को घर से बाहर पढ़ने नहीं भेजते थे बल्कि घरों में ही कैद रखते थे. लोग सोचते थे कि कहीं ऊंचनीच न हो जाए जिस से समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे. इस से उन के व्यक्तित्व पर कितना बुरा असर पड़ता है, लेकिन अब समय के साथ लोगों की मानसिकता बदली है. लोग बेटियों को भी बेटे के समान ही मानते हैं. उन्हें जीने की पूरी आजादी दे रहे हैं. इस से इस तरह की कई समस्याएं भी सामने आ रही हैं.

लक्ष्मी ने मन ही मन सोचा कि मीनाक्षी को बेकार की बातों से परेशान नहीं करेंगी तथा प्यार से सारी बातें पूछेंगी.

उस रात भी फोन कौल्स आईं. फोन एक बार तो विजय बाबू ने उठाया, फिर लक्ष्मी ने उठाया तो कोई जवाब नहीं आया. जब तीसरी बार फोन आया तो उन दोनों ने मीनाक्षी से फोन उठाने को कहा और उस का हौसला बढ़ाया. मीनाक्षी ने डरतेडरते फोन उठाया. मीनाक्षी बोली, ‘‘मैं तुम्हें बिलकुल नहीं जानती. मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मेरे पीछे पड़े हो. मेरा पीछा छोड़ दोे.’’ यह कह कर वह फफक पड़ी. ‘अभी पूछना सही नहीं होगा,‘ यह सोच मीनाक्षी को चुप करा कर सभी सो गए. पर नींद किसी की आंखों में नहीं थी. अगली सुबह दोनों ने मीनाक्षी से पूछा, ‘‘बेटी, यह क्या झमेला है?’’

मीनाक्षी रोंआसी हो कर बोली, ‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

‘‘रात को फोन करने वाले ने तुझ से क्या कहा.’’

‘‘कह रहा था कि मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम बहुत खूबसूरत हो. क्या तुम कल सुबह कालेज के पास वाले पार्क में मिलोगी.’’

‘‘ठीक है, अब तुम निडर हो कर कालेज जाओ. बाकी मैं देखता हूं, इस के बारे में तुम बिलकुल मत सोचो, अब तुम अकेली नहीं, बल्कि तुम्हारे मातापिता भी तुम्हारे साथ हैं.’’

‘‘मीनाक्षी ने हामी भरी और कालेज जाने की तैयारी करने लगी. विजय बाबू सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उन्होंने शिकायत दर्ज कराई और सारा माजरा बता दिया. इंस्पैक्टर ने उन्हें जल्द कार्यवाही करने की तसल्ली दे कर घर जाने को कहा.’’

2-3 दिन गुजर गए. अगले दिन पुलिस स्टेशन से फोन आया. मीनाक्षी को भी साथ ले कर आने को कहा गया था. विजय बाबू जल्दीजल्दी मीनाक्षी को साथ ले कर थाने पहुंचे.

पुलिस इंस्पैक्टर ने उन्हें बैठने को कहा और कौंस्टेबल को बुला कर उसे कुछ हिदायतें दीं. वह अंदर जा कर एक लड़के के साथ वापस आया.

इंस्पैक्टर ने पूछा, ‘‘क्या आप इस लड़के को जानती हैं?’’

‘‘जी नहीं, मैं इसे नहीं जानती.’’

‘‘मैं बताता हूं, यह कौन है और इस ने क्या किया है.’’ इंस्पैक्टर ने कहना जारी रखा, ‘‘आप अपनी सहेली नीलू को जानती हैं न.’’

‘‘जी हां, मैं उसे बखूबी जानती हूं. वह मेरी कालेज में सब से क्लोज फ्रैंड है.’’

‘‘और यह आप की क्लोज फ्रैंड का सगा भाई नीरज है. यह बहुत आवारा किस्म का इंसान है. यह अपनी बहन नीलू के मोबाइल में आप का फोटो देख कर आप का दीवाना हो गया और फिर उसी के मोबाइल से आप का नंबर ले कर आप को कौल्स करने लगा. इसी तरह यह आप के सिवा और भी कई लड़कियों के नंबर्स नीलू के मोबाइल से ले कर चोरीछिपे उन्हें तंग करता है. इस के खिलाफ कईर् शिकायतें हमें मिलीं हैं. अब यह हमारे हाथ आया है और मैं इस की ऐसी क्लास लूंगा कि यह हमेशा के लिए ऐसी हरकतें करना भूल जाएगा. मैं ने इस के मातापिता तथा नीलू को खबर कर दी है. वे यहां आते ही होंगे.’’

‘‘मैं इस पर केस करना चाहता हूं. इस तरह के अपराधियों को जब सजा मिलेगी तभी ये ऐसी घिनौनी हरकतें करना बंद करेंगे,’’ विजय बाबू ने जोर दे कर कहा.

मीनाक्षी चुपचाप उन की बातें सुन रही थी. वह अंदर ही अंदर उबल रही थी कि 4-5 थप्पड़ जड़ दे उसे.

इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘आप का कहना भी सही है पर ऐसे केस जल्दी सुलझते नहीं हैं. बारबार कोेर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं. इन्हें बेल भी चुटकी में मिल जाती है.’’

इतने में नीरज के मातापिता तथा बहन नीलू भी वहां आ पहुंचे. नीलू को देख कर मीनाक्षी उस के गले लिपट कर रोने लगी. नीलू की मां ने नीरज को जा कर 4-5 थप्पड़ जड़ दिए और बोलीं, ‘‘नालायक तुझे इतना भी खयाल नहीं आया कि तेरी भी एक बहन है और बहन की सहेली भी बहन ही तो होती है. इंस्पैक्टर साहब, इसे जो सजा देना चाहते हैं दीजिए.’’

नीरज के पिता, विजय बाबू से विनती कर बोले, ‘‘भाई साहब, इसे माफ कर दीजिए. मैं मानता हूं कि इस ने गलती की है.  इस में इस की उम्र का दोष है. इस उम्र के बच्चे कुछ भी कर बैठते हैं. ये अब ऐसी हरकतें नहीं करेगा. इस की जिम्मेदारी मैं लेता हूं और आप को विश्वास दिलाता हूं कि यह दोबारा ऐसे फोन कौल्स नहीं करेगा.’’ फिर बेटे की तरफ देख कर बोले, ‘‘देखता क्या है जा अंकल से सौरी बोल.’’

नीरज सिर झुका कर विजय बाबू के पास गया और उन के सामने हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए अंकल, अब मुझ से ऐसी गलती कभी नहीं होगी. आज से मेरे बारे में कोई शिकायत आप के पास नहीं आएगी,’’ फिर वह मीनाक्षी की ओर मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आई एम वैरी सौरी मीनाक्षी दीदी, प्लीज मुझे माफ कर दो. आज से मैं तुम्हें तो क्या कभी किसी और लड़की को तंग नहीं करूंगा.’’

गुस्से से लाल मीनाक्षी ने सिर उठा कर नीरज की तरफ देखा और फिर सिर हिला दिया.

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