Family Story: पश्चाताप – आज्ञाकारी पुत्र घाना को किस बात की मिली सजा?

Family Story: ट्रेन से उतर कर टैक्सी किया और घर पहुंच गया. महीनों बाद घर वापस आया था. मुझे व्यापार के सिलसिले में अकसर बाहर रहना पड़ता है. मैं लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था, इसलिए आदतन सब से पहले नहाधो कर फ्रेश हुआ. तभी  पत्नी आंगन में चायनाश्ता ले आई. चाय पीते हुए मां से बातें कर रहा था. अगर मैं घर से बाहर रहूं और कुछ दिनों बाद वापस आता हूं तो  मां  घर की समस्याएं और गांवघर की दुनियाभर की बातें ले कर बैठ जाती है. यह उस की पुरानी आदत है. इसलिए कुछ उस की बातें सुनता हूं. कुछ बातों पर ध्यान नहीं देता हूं. परंतु इस प्रकार अपने गांवघर के बारे में बहुतकुछ जानकारी मिल जाती है.

मां ने बातोंबातों में बताया कि, “उस ने अपने बिसेसर चाचा की हत्या  डंडे से पीटपीट कर  कर दी है. उसे  जेल हो गई है.”

“कौन, मां, तुम किस के बारे में कह रही हो?” मैं ने हत्या और जेल के बारे में सुन कर जरा चौकन्ना होते हुए पूछा.

” घाना…ना…, घाना के बारे में बता रही हूं,” मां जोर देते हुए बोली.

” घाना ने किस की हत्या कर दिया, मां? ” मैं ने ज़रा आश्चर्य से पूछा था.

“अरे, वह अपने बिसेसर चाचा की, बउआ,” वह दृढ़ता से बोली थी.

यह सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ. एक पल को लगा, शायद यह झूठ है. किंतु सच तो सच होता है न, कई दिनों तक उस के बारे में मेरे मन में विचार उमड़तेघुमड़ते रहे.

मुझे आज भी याद है. हम दोनों एकसाथ बचपन में खेलते थे. साथसाथ बगीचे से आम चुराते थे. खेतों से मटर ककी फलियां तोड़ना, एकसाथ पगडंडियों पर दौड़ना… दोनों साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए थे.

आज मैं व्यापार के सिलसिले में अपने गांव से दूर रहता हूं और कभीकभार ही आ पाता हूं. समयाभाव के कारण मिलनाजुलना हम दोनों का कम हो गया था. किंतु आज भी हमदोनों की पटती है. जब भी मैं गांव  आता हूं, हम दोनों की घंटों बातें होती हैं.

उस के परिवार के लोगों की विसेसर चाचा से पुरानी रंजिश थी क्योंकि वे उस के गोतिया थे. मैं एक बार किसी काम से उस के घर जा रहा था. उस की चाची से उस की मां की तूतूमैंमैं हो रही थी. उस की मां जोरजोर से गालियां दे रही थी.

उस की चाची व उस की चचेरी बहनें भी उस की मां को  गालियां देने लगीं.

उस की मां  जोरजोर से चिल्लाने लगी, “दौड़ रे घाना…” इतना सुनते ही घाना अंदर से दौड़ पड़ा था. ऐसा लग रहा था, अभी वह चाची पर टूट पड़ेगा. वह भी मां की तरह से अनापशनाप बोलने लगा. मैं ने उस को डांटा और शांत किया. वह मेरी बात मानता था. मैं ने उस को समझाया, “छोटीछोटी बातों पर गुस्सा क्यों करते हो, आखिर, वह तुम्हारी चाची ही तो है.”

कुछ देर बाद मामला रफादफा हो गया था.

कुछ दिनों बाद उस ने बताया कि, “चाचा के परिवार से परेशान हो गया हूं. वे लोग जमीनजायदाद के बंटवारे को उलझा कर रखे हैं. उन्होंने बंटवारे में ज्यादा जमीन रख ली है. इसलिए हम दोनों परिवारों में झगड़ा और तनाव रहता है. वे दोबारा बंटवारे के लिए  तैयार नहीं हो रहे हैं.”

यह कहते हुए वह गंभीर हो गया था.

मैं ने उस को समझाया, “क्यों नहीं तुम लोग सहूलियत से ही  मांग लेते हो.”

“वे कभी नहीं देंगे. वे बहुत अड़ियल हैं,” वह निराश होते हुए बोला था.

वह मेरा बचपन का दोस्त था. मैं उस को भलीभांति जानता हूं. वह कभीकभी उखड़ जाता है, गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाता है. परंतु वह इतना कठोर नहीं है कि हत्या जैसे अपराध में लिप्त हो जा.

गांव के लोगों से मालूम हुआ कि जब वह केस हार गया और उसे सजा मिल गई तो उस ने अपने मांबाबूजी से भी मिलने से इनकार कर दिया.

सभी लोग उसे अपराधी मान रहे थे. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. इसलिए मैं ने समय निकाल कर उस से मिलने के लिए सोचा.

मैं जेल के सामने खड़ा था. वह कुछ देर बाद  सलाखों के पीछे आ चुका था. मुझे देखते ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस के आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं बारबार उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था.

“घाना,  मैं तुम से जानने आया हूं  कि आखिर यह सब कैसे हो गया?” मैं ने उस से सीधा सवाल किया था.

वह बहुत देर तक अपने आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. जब आंसू रुके तो उस ने बोलना शुरू किया, “भैया, आप जानते हैं…”

मैं उस की उम्र से थोड़ा बड़ा हूं और गांवघर के रिश्ते में भाई भी लगता हूं, इसलिए वह मुझे भैया ही कहता है. फिर भी, वह मेरा दोस्त है.

एक बार फिर रुक कर उस ने बोला शुरू किया, “मैं गुस्से के आवेग में ऐसा कर गया. वहां मांबाबूजी और मेरी बहन  भी थी. मां मारोमारो की आवाज लगा रही थी. बहन ने आग में घी डालने का काम कर दिया. मैं आगेपीछे नहीं सोच पाया. किसी ने एक बार भी मुझ से यह नहीं कहा कि मत मारो. अगर  किसी ने एक बार भी रोका होता,  तो शायद मैं उन की हत्या न करता और कारावास का दंड न मिलता.”

मैं ने तसल्ली देने की कोशिश की, “अब जो हो गया,  हो गया. अब पछताने से कोई फायदा नहीं है.”

कुछ देर मुझ से नज़रें नहीं मिला पा रहा था वह. अपना चेहरा इधरउधर घुमा रहा था. वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा था, ऐसा मुझे महसूस हो रहा था.

वह कुछ सोचते हुए अपना हाथ मलने लगा था. वह बारबार अपनी उन हथेलियों को देख रहा था जिन से उस ने हत्या की थी. भले ही वह हत्या के लिए पश्चात्ताप कर रहा था, यह बात तो स्पष्ट थी कि वह गुनाहगार और अपराधी तो बन ही गया. मैं कुछ देर तक गांवघर के बारे में इधरउधर की बातें कर उस का मन बहलाता रहा.

“मैं ने सुना है कि तुम अपने मांबाबूजी से अब नहीं मिलते हो. शायद, तुम ने  उन को मिलने से मना कर दिया है. लेकिन क्यों ?” मैं ने उस से सवाल किया.

उस का चेहरा कठोर हो गया था. उस ने बताया, “भैया, आप जानते हैं,  मांबाबूजी की आकांक्षाओं के कारण ही तो यह महाभारत हुआ है. अब मैं जिंदगीभर जेल में रहूंगा. इस के पीछे मेरे मांबाबूजी ही जिम्मेदार हैं. वे जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए जिंदगीभर जहर भरते रहे. वे लोग एक बार भी रोके  होते तो शायद मैं  कारावास में जीवन नहीं भोगता.”

मैं सचाई सुन कर घाना के प्रति द्रवित हो रहा था. लेकिन इस परिस्थिति में मदद नहीं कर पा रहा था. मैं ने महसूस किया कि इन सहानुभूतियों का भी कोई फायदा नहीं है. मैं भारीमन से फिर मिलने का वादा कर के निकल गया.

उस ने कहा, “आते रहिएगा भैया, आप के सिवा अब मेरा कोई अपना नहीं है. अब मेरे मांबाबूजी अपने नहीं रहे जिन्होंने मुझे गुनाह के रास्ते पर धकेल दिया है.”

“ऐसा नहीं कहते मेरे भाई, वे तुम्हारे ही मांबाबूजी हैं. वे तुम्हारे ही रहेंगे,” मैं ने समझाने की कोशिश की.

उस की आंखों में घृणा और पश्चात्ताप के आंसू स्पष्ट दिख रहे थे.

Short Story: वे 9 मिनट- आखिर दिव्या अपने पति से क्या चाहती थी?

Short Story: ‘‘निम्मो,शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है न, आज 5 अप्रैल है,’’ बूआजी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

‘‘अरे दीदी, तैयारी क्या करना. सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया न भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टौर्च भी जला लेंगे.’’

‘‘अरे, तू चुप कर’’ बूआजी ने पापा को झिड़क दिया. ‘‘मोदीजी ने कोई ऐसे ही थोड़ी न कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाएं तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी
मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती,’’ बूआजी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआजी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई. ‘‘अरे जीजी, क्या यह घर आप का नहीं? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं,’’ मम्मी की
इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बूआजी पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा है. उन के 2 बेटे हैं जो अलगअलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बूआजी भी पैंडुलम की भांति बारीबारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उन के स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं. वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उन की पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15-20 दिन ही हुए थे हमारी शादी को, मगर बूआजी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसेतैसे शादी संपन्न हुई. हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बूआजी को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और 25 मार्च को प्रधानमंत्री द्वारा लौकडाउन का आह्वान किए जाने पर हम सब कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपनेअपने घरों में कैद हो गए और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वे सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एकदूसरे की आंखों में देखी थीं.

2 कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बूआजी और उन के अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था. मम्मी को तो वे हमेशा अपने साथ ही रखती हैं, दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है, मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हौल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बूआजी की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बूआजी की तीखी निगाहें उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देख कर दिव्या भी मुझ से दूरदूर ही रहती है क्योंकि बूआजी की तीखी निगाहें हर वक्त उस को तलाशती रहती हैं.

‘‘बेटे, हो सके तो बाजार से मोमबतियां ले आना,’’ मम्मी की आवाज सुन कर मैं अपने विचारों से बाहर निकला. ‘‘क्या मम्मी, तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दीए जला कर ही काम चला लो न. बारबार बाहर निकलना सही नहीं है.

अभी जनता कर्फ्यू के दिन तालीथाली बजा कर मन नहीं भरा क्या जो यह दीए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया,’’ मैं ने धीरे से बुदबुदाते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इस के साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और ग्लब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं है.

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचतेबचाते मोमबत्तियां तथा दीए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथी ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैं ने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सऐप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच व्हाट्सऐप पर ही बातें होती थी.

बूआजी के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते. ‘‘ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बूआजी हमेशा बहू की रट लगाए रहती हैं,’’ दिव्या ने रिप्लाई किया.

‘‘मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वे 9 मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएंगे.’’

‘‘ओके… मैं देखती हूं,’’ दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई. और मैं शाम के 9 मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझ से कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैं ने साफसाफ कह दिया. ‘‘मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे औफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.

‘‘इन को रहने दीजिए मम्मीजी, चलिए मैं चलती हूं,’’ दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बूआजी के साथ मिल कर 21 दिए जलाने की तैयारी कर ली. बूआजी का ऐसा मानना था कि कि 21 दिनों के लौकडाउन के लिए 21 दीए उपयुक्त हैं.

‘‘मम्मीजी मैं ने सभी दीयों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाइए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.’’ दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैं ने दिव्या की कमर में हाथ डाल कर उसे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बांहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

‘‘अरे वाह, तुम ने तो हमारी योजना को बिलकुल कामयाब बना दिया.’’ मैं ने दिव्या के कानों में फुसफुसा कर कहा.

‘‘कैसे न करती, मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को’’ दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी.

‘‘सिर्फ 9 मिनट हैं हमारे पास…’’ दिव्या कुछ और बोलती इस से पहले मैं ने उस के होठों को अपने होंठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में धधक रही थी.

आज उस ने अंगारों का रूप ले लिया था और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोरजोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुन कर हम होश में आए.‘‘अरे बेटा, सो गया क्या तू? जरा बाहर तो निकल… आ कर देख दीवाली जैसा माहौल है,’’ मां की आवाज सुन कर मैं ने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में
चली गई.

‘‘द… दिव्या तो यहां नहीं आई. वह तो आप के साथ ही गई थी,’’ मैं ने हकलाते हुए कहा और मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दीवाली जैसा माहौल था. मानों बिन मौसम बरसात हो रही हो. तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

‘‘तुम कहां चली गई थी दिव्या? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं,’’ मैं ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

‘‘मैं छत पर चली गई थी. दीयों की रोशनी देखने,’’ दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा. और मैं ने एक शरारती मुसकान के साथ अंधेरे का फायदा उठा कर और बूआजी से नजरें बचा कर एक फ्लाइंग किस उस की तरफ उछाल दिया.

Family Story: बिटिया का पावर हाऊस

Family Story: अमितजी की 2 संतान हैं, बेटा अंकित और बेटी गुनगुन. अंकित गुनगुन से 6-7 साल बड़ा है.

घर में सबकुछ हंसीखुशी चल रहा था मगर 5 साल पहले अमितजी की पत्नी सरलाजी की तबियत अचानक काफी खराब रहने लगी. जांच कराने पर पता चला कि उन्हें बड़ी आंत का कैंसर है जो काफी फैल चुका है. काफी इलाज कराने के बाद भी उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.

जब उन्हें लगने लगा कि अब वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाएंगी तो एक दिन अपने पति से बोलीं,”मैं अब ज्यादा दिन जीवित नहीं रहूंगी. गुनगुन अभी 15-16 वर्ष की है और घर संभालने के लिहाज से अभी बहुत छोटी है. मैं अपनी आंख बंद होने से पूर्व इस घर की जिम्मेदारी अपनी बहू को देना चाहती हूं. आप जल्दी से अंकित की शादी करा दीजिए.”

अमितजी ने उन्हें बहुत समझाया कि वे जल्द ठीक हो जाएंगी और जैसा वे अपने बारे में सोच रही हैं वैसा कुछ नहीं होगा. लेकिन शायद सरलाजी को यह आभास हो गया था कि अब उन की जिंदगी की घड़ियां गिनती की रह गई हैं, इसलिए वे पति से आग्रह करते हुए बोलीं, “ठीक है, यदि अच्छी हो जाऊंगी तो बहू के साथ मेरा बुढ़ापा अच्छे से कट जाएगा. लेकिन अंकित के लिए बहू ढूंढ़ने में कोई बुराई तो है नहीं, मुझे भी तसल्ली हो जाएगा कि मेरा घर अब सुरक्षित हाथों में है.”

अमितजी ने सुन रखा था कि व्यक्ति को अपने अंतिम समय का आभास हो ही जाता है. अत: बीमार पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने अंकित के लिए बहू ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

एक दिन अंकित का मित्र आभीर अपनी बहन अनन्या के साथ उन के घर आया. अंकित ने उन दोनों को अपनी मां से मिलवाया. जब तक अंकित और आभीर आपस में बातचीत में मशगूल रहे, अनन्या सरलाजी के पास ही बैठी रही. उस का उन के साथ बातचीत करने का अंदाज, उन के लिए उस की आंखों में लगाव देख कर अमितजी ने फैसला कर लिया कि अब उन्हें अंकित के लिये लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है.

उन्होंने सरलाजी से अपने मन की बात बताई, जिसे सुन कर सरलाजी के निस्तेज चेहरे पर एक चमक सी आ गई.

वे बोलीं, “आप ने तो मेरे मन की बात कह दी.”

अंकित को भी इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दोनों परिवारों की रजामंदी से अंकित और अनन्या की शादी तय हो गई.

शादी के बाद जब मायके से विदा हो कर अनन्या ससुराल आई तो सरलाजी उस के हाथ में गुनगुन का हाथ देते हुए बोलीं,”अनन्या, मैं मुंहदिखाई के रूप में तुम्हें अपनी बेटी सौंप रही हूं. मेरे जाने के बाद इस का ध्यान रखना.”

अनन्या भावुक हो कर बोली, “मम्मीजी, आप ऐसा मत बोलिए. आप का स्थान कोई नहीं ले सकता.”

“बेटा, सब को एक न एक दिन जाना ही है, लेकिन यदि तुम मुझे यह वचन दे सको कि मेरे जाने के बाद तुम गुनगुन का ध्यान रखोगी, तो मैं चैन से अंतिम सांस ले पाऊंगी.”

“मांजी, आप विश्वास रखिए. आज से गुनगुन मेरी ननद नहीं, मेरी छोटी बहन है.”

बेटे के विवाह के 1-2 महीने के अंदर ही बीमारी से लड़तेलड़ते सरलाजी की मृत्यु हो गई. अनन्या हालांकि उम्र में बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन उस ने अपनी सास को दिया हुआ वादा पूरे मन से निभाया. उस ने गुनगुन को कभी अपनी ननद नहीं बल्कि अपनी सगी बहन से बढ़ कर ही समझा.

बड़ी होती गुनगुन का वह वैसे ही ध्यान रखती जैसे एक बड़ी बहन अपनी छोटी बहन का रखती है.

वह अकसर गुनगुन से कहती, “गुनगुन, बड़ी भाभी, बड़ी बहन और मां में कोई भेद नहीं होता.”

गुनगुन के विवाह योग्य होने पर अंकित और अनन्या ने उस की शादी खूब धूमधाम से कर दी. विवाह में कन्यादान की रस्म का जब समय आया, तो अमितजी ने मंडप में उपस्थित सभी लोगों के सामने कहा,”कन्यादान की रस्म मेरे बेटेबहू ही करेंगे.”

विवाह के बाद विदा होते समय गुनगुन अनन्या से चिपक कर ऐसे रो रही थी जैसे वह अपनी मां से गले लग कर रो रही हो. ननदभाभी का ऐसा मधुर संबंध देख कर विदाई की बेला में उपस्थित सभी लोगों की आंखें खुशी से नम हो आईं.

गुनगुन शादी के बाद ससुराल चली गई. दूसरे शहर में ससुराल होने के कारण उस का मायके आना अब कम ही हो पाता था. उस का कमरा अब खाली रहता था लेकिन उस की साजसज्जा, साफसफाई अभी भी बिलकुल वैसी ही थी जैसे लगता हो कि वह अभी यहीं रह रही हो. अंकित के औफिस से लौटने के बाद अनन्या अपने और अंकित के लिए शाम की चाय गुनगुन के कमरे में ही ले आती ताकि उस कमरे में वीरानगी न पसरी रहे और उस की छत और दीवारें भी इंसानी सांसों से महकती रहे.

एक दिन पड़ोस में रहने वाले प्रेम बाबू अमितजी के घर आए. बातोंबातों में वे उन से बोले, “आप की बिटिया गुनगुन अब अपने घर चली गई है, उस का कमरा तो अब खाली ही रहता होगा. आप उसे किराए पर क्यों नहीं दे देते? कुछ पैसा भी आता रहेगा.”

यह बातचीत अभी हो ही रही थी कि उसी समय अनन्या वहां चाय देने आई. ननद गुनगुन से मातृतुल्य प्रेम करने वाली अनन्या को प्रेम बाबू की बात सुन कर बहुत दुख हुआ. वह उन से सम्मानपूर्वक किंतु दृढ़ता से बोलीं,”अंकल, क्या शादी के बाद वही घर बेटी का अपना घर नहीं रह जाता जहां उस ने चलना सीखा हो, बोलना सीखा हो और जहां तिनकातिनका मिल कर उस के व्यक्तित्व ने साकार रूप लिया हो.

“अकंल, बेटी पराया धन नहीं बल्कि ससुराल में मायके का सृजनात्मक विस्तार है. शादी का अर्थ यह नहीं है कि उस के विदा होते ही उस के कमरे का इंटीरियर बदल दिया जाए और उसे गैस्टरूम बना दिया जाए या चंद पैसों के लिए उसे किराए पर दे दिया जाए.”

“बहू, तुम जो कह रही हो, वह ठीक है. लेकिन व्यवहारिकता से मुंह मोड़ लेना कहां की समझदारी है?”

“अंकल, रिश्तों में कैसी व्यवहारिकता? रिश्ते कंपनी की कोई डील नहीं है कि जब तक क्लाइंट से व्यापार होता रहे तब तक उस के साथ मधुर संबंध रखें और फिर संबंधों की इतिश्री कर ली जाए. व्यवहारिकता का तराजू तो अपनी सोच को सही साबित करने का उपक्रम मात्र है.”

तब प्रेम बाबू बोले,”लेकिन इस से बेटी को क्या मिलेगा?”

”अंकल, मायका हर लड़की का पावर हाउस होता है जहां से उसे अनवरत ऊर्जा मिलती है. वह केवल आश्वस्त होना चाहती है कि उस के मायके में उस का वजूद सुरक्षित है. वह मायके से किसी महंगे उपहार की आकांक्षा नहीं रखती और न ही मायके से विदा होने के बाद बेटियां वहां से चंद पैसे लेने आती हैं बल्कि वे हमें बेशकीमती शुभकामनाएं देने आती हैं, हमारी संकटों को टालने आती हैं, अपने भाईभाभी व परिवार को मुहब्बत भरी नजर से देखने आती हैं.

“ससुराल और गृहस्थी के आकाश में पतंग बन उड़ रही आप की बिटिया बस चाहती है कि विदा होने के बाद भी उस की डोर जमीन पर बने उस घरौंदे से जुड़ी रहें जिस में बचपन से ले कर युवावस्था तक के उस के अनेक सपने अभी भी तैर रहे हैं. इसलिए हम ने गुनगुन का कमरा जैसा था, वैसा ही बनाए रखा है. यह घर कल भी उन का था और हमेशा रहेगा.”

प्रेम बाबू बोले, “लेकिन कमरे से क्या फर्क पड़ता है? मायके आने पर उस की इज्जत तो होती ही है.”

अनन्या बोली, “अंकल, यही सोच का अंतर है. बात इज्जत की नहीं बल्कि प्यार और अपनेपन की है. लड़की के मायके से ससुराल के लिए विदा होते ही उस का अपने पहले घर पर से स्वाभाविक अधिकार खत्म सा हो जाता है. इसीलिए विवाह के पहले प्रतिदिन स्कूलकालेज से लौट कर अपना स्कूल बैग ले कर सीधे अपने कमरे में घुसने वाली वही लड़की जब विवाह के बाद ससुराल से मायके आती है, तो अपने उसी कमरे में अपना सूटकेस ले जाने में भी हिचकिचाती है, क्योंकि दीवारें और छत तो वही रहती हैं मगर वहां का मंजर अब बदल चुका होता है. लेकिन उसी घर का बेटा यदि दूसरे शहर में अपने बीबीबच्चों के साथ रह रहा हो, तो भी यह मानते हुए कि यह उस का अपना घर है उस का कमरा किसी और को नहीं दिया जाता. आखिर यह भेदभाव बेटी के साथ ही क्यों, जो कुछ दिन पहले तक घर की रौनक होती है?

“यदि संभव हो, तो बिटिया के लिए भी उस घर में वह कोना अवश्य सुरक्षित रखा जाना चाहिए, जहां नन्हीं परी के रूप में खिलखिलाने से ले कर एक नई दुनिया बसाने वाली एक नारी बनने तक उस ने अपनी कहानी अपने मापिता, भाईबहन के साथ मिल कर लिखा हो.”

हर लड़की की पीड़ा को स्वर देती हुई अनन्या की दर्द में डूबी बात को सुन कर राम बाबू को एकबारगी करंट सा लगा.

उन्हें पिछले दिनों अपने घर में घटित घटनाक्रम की याद आ गई, जब उन की बेटी अमोली अपने मायके आई थी.

वे बोले,”बहू, तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. परसों मेरी बिटिया अमोली ससुराल से मायके आई थी. यहां आने के बाद उस का सामान उस के अपने ही घर के ड्राइंगरूम में काफी देर ऐसे पड़ा रहा, जैसे वह अमोली का नहीं बल्कि किसी अतिथि का सामान हो. ‘बेटा अपना, बेटी पराई’ जैसी बात को बचपन से अबतक सुनते आए हमारी मनोभूमि वैसी ही बन जाती है और इसी भाव ने अमोली को कब चुपके से घर की सदस्य से अपने ही घर में अतिथि बना दिया, उस मासूम को पता ही नहीं चला. पता नहीं क्यों, मैं ने उस का कमरा किसी और को क्यों दे दिया? यदि गुनगुन की तरह अमोली का कमरा भी उस के नाम सुरक्षित रहता तो वह भी पहले की भांति सीधे अपने कमरे में जाती जैसे कालेज ट्रिप से आने के बाद वह सीधे अपने कमरे में अपनी दुनिया में चली जाती थी,” यह बोलते हुए उन की आंखें भर आईं और गला अवरुद्ध हो गया. वे रुमाल से अपना चश्मा साफ करने लगे.

अनन्या तुरंत उन के लिए पानी का गिलास ले आई. पानी पी कर गला साफ करते हुए राम बाबू बोले, “बहू, उम्र में इतनी छोटी होने पर भी तुम ने मुझे जिंदगी का एक गहरा पाठ पढ़ा दिया. मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं…”

अनन्या बोली, “अंकल, यदि आप मुझे शुभकामनाएं स्वरूप कुछ देना चाहते हैं तो आप घर जा कर अमोली से कहिए कि तुम अपने कमरे को वैसे ही सजाओ, जैसे तुम पहले किया करती थी. मैं आज बचपन वाली अमोली से फिर से मिलना चाहता हूं. यही मेरे लिए आप का उपहार होगा.”

प्रेम बाबू बोले, “बेटा, जिस घर में तुम्हारे जैसी बहू हो, वहां बेटी या ननद को ही नहीं बल्कि हर किसी को रहना पसंद होगा और आज से अमोली का पावर हाऊस भी काम करने लगा है, वह उसे निरंतर ऊर्जा देता रहेगा.”

प्रेम बाबू की बात को सुन कर अमितजी और अनन्या मुसकरा पड़े. खुशियों के इन्द्रधनुष की रुपहली आभा अमितजी के घर से प्रेम बाबू के घर तक फैल चुकी थी.

Romantic Story: सच्चा प्रेम

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‘‘जी, और आप आशाजी… मशहूर लेखिका. मैं कब से आप को देख रहा था और पहचानने की कोशिश कर रहा था कि आप तो अंबाला में रहती हैं, यहां नागपुर में

भला कैसे? फिर सोचा कि चल कर पूछ ही लूं.’’

‘‘दरअसल, यहां मेरी ननद रहती हैं. उन के घर फंक्शन है, वहां आई हूं. आप के कार्टून देखती रहती हूं, बेहद शानदार होते हैं.’’

‘‘शुक्रिया. मैं भी आप के लेख पढ़ता रहता हूं. बहुत अच्छा लिखती हैं आप. कई बार सोचा कि आप को फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजूं, फिर लगा, पता नहीं कि आप को कैसा लगेगा.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. मुझे आप के कार्टून अच्छे लगते हैं और मेरे पास आप के सभी कार्टून की तसवीरें हैं.’’

‘‘तो क्या मैं आप को दोस्त समझूं?’’

‘‘जी हां… बिलकुल.’’

इस तरह उन दोनों में दोस्ती हो गई. मैसेंजर पर दोनों बातचीत करने लगे. आशा और नीलेश दोनों शादीशुदा थे. उन के बच्चों की शादी हो गई थी.

नीलेश की पत्नी को सिर्फ अपने किट्टी पार्टियां और मौजमस्ती प्यारी थी. वह नीलेश की तरफ कोई जिम्मेदारी नहीं समझती. नीलेश को यह अकेलापन सालता था.

उधर, आशा का पति लापरवाह किस्म का है. उसे जैसे आशा से कोई सरोकार नहीं है. लिहाजा, आशा ने अपने लेखन को अपना साथी बना लिया था.

लेकिन अब दोनों को एकदूसरे से बातें करना अच्छा लगता था. भले न मिलें, पर मैसेंजर पर ही बात कर लेते थे तो दिलों को संतुष्टि मिल जाती थी. दोनों एकदूसरे से बेतकल्लुफ       हो गए थे. शायद दोनों के दिलों में कुछकुछ था एकदूजे के लिए.

एक दिन नीलेश ने आशा को मैसेज किया, ‘आज मुझे तुम से कुछ कहना है. तुम बिजी तो नहीं हो न?’

‘कहो जो कहना है. मैं औनलाइन हूं. अभी तो मैं खाली हूं. थोड़ी देर के लिए हम बात कर सकते हैं.’

‘आई लव यू.’

‘नीलेश, ऐसा मत कहो.’

‘लेकिन क्यों?’

‘इस अधेड़ उम्र में प्यार के कोई माने नहीं हैं.’

‘नहीं आशा, प्लीज ऐसा मत सोचो. मैं मानता हूं कि हम अपना परिवार नहीं छोड़ सकते और न ही हमारी ऐसी उम्र है कि फिल्म हीरोहीरोइन की तरह बागों में घूमते हुए प्यार के गीत गाएं, लेकिन दिल पर तो किसी का जोर नहीं है.

‘मैं ने जिस दिन तुम्हारा पहला  लेख पढ़ा था, उस दिन से मैं तुम्हें प्यार करता हूं. यह दिल मेरे बस में तो नहीं  है न.’

‘नीलेश, तुम सच कह रहे हो. दिल पर किसी का जोर नहीं है. मैं भी तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन हमारी भी अपनीअपनी मर्यादाएं हैं, जिन्हें हम लांघ नहीं सकते.’

‘मैं कभी तुम्हें मर्यादा लांघने को नहीं कहूंगा. बस, ऐसे ही फोन पर कभीकभी बात कर लिया करना, वह भी अगर तुम्हारा मन हो तब, नहीं तो हम मैसेंजर पर ही बात कर लेंगे.’

चाहती तो आशा भी यही थी, लेकिन मर्यादा की बेडि़यों में जकड़ी कुछ कह नहीं पा रही थी.

‘आशा, तुम ने जवाब नहीं दिया.’

आशा ने अब जवाब न दे कर अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. नीलेश ने फोन लगाया, तो आशा ने झट से

फोन उठा लिया, जैसे वह उसी का इंतजार कर रही थी और दोनों ने ढेर सारी बातें कीं.

अब तो अकसर वे दोनों फोन पर बातें करते, कभी हंसतेखिलखिलाते, कभी एकदूजे का दुखसुख बांटते… दोनों खुश रहने लगे थे.

उन की पतझड़ जैसी जिंदगी में मानो बहार आ गई थी.

प्यार सिर्फ जिस्म का नहीं होता. सच्चा प्यार तो दिल में बसता है, जो उन दोनों के दिलों में था. अब दोनों खुशीखुशी अपनेअपने परिवार की जिम्मेदारी निभा रहे थे,

लेकिन दिल में एकदूजे के रहते थे.

जब कभी 2-4 साल बाद आशा अपनी ननद के घर जाती, तो दोनों उसी माल में मिलते, जहां वे पहली बार  मिले थे.

Social Story: नहीं बदली हूं मैं – सुनयना का पति उसे लेस्बियन क्यों कह रहा था?

Social Story: ‘‘चलो कहीं घूमने चलते हैं. राघव भी अपने दोस्तों के साथ 15 दिनों के लिए सिंगापुर जा रहा है. कितने दिन हो गए हमें कहीं गए हुए,’’ सुनयना ने अपने पति जय से बहुत ही मनुहार करते हुए कहा.

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. कोफ्त होती है मुझे कहीं जाने की सुन कर. मिलता क्या है कहीं बाहर जा कर? वापस घर ही तो आना होता है. ट्रेन में सफर करो, थको और फिर किसी होटल में रहो और बेवकूफों की तरह उस जगह की सैर करते रहो. बेकार में इतना पैसा खर्च हो जाता है और वापस आ कर फिर थकान उतारने में 2 दिन लग जाते हैं. सारा शैड्यूल बिगड़ जाता है वह अलग. पता नहीं क्यों तुम्हें हमेशा घूमने की लगी रहती है. तुम्हें पता है मुझे कहीं बाहर जाना पसंद नहीं, फिर भी कहती रहती हो,’’ जय ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘पता है मुझे तुम्हें नहीं पसंद पर कभी मेरी खुशी की खातिर तो जा सकते हो? शादी को 22 साल हो गए पर कभी कहीं ले कर नहीं गए. राघव को भी नहीं ले जाते थे. शुक्र है वह तुम्हारे जैसा खड़ूस नहीं है और घूमने का शौक रखता है. शादी के बाद हर लड़की का ख्वाब होता है कि उस का पति उसे घुमाने ले जाए. बंधीबंधाई रूटीन जिंदगी से निकल कुछ समय अगर रिलैक्स कर लिया जाए तो स्फूर्ति आ जाती है और फिर नएनए लोगों और जगहों को जानने का भी अवसर मिलता है. दुनिया पागल नहीं जो देशविदेश की सैर पर जाती है. केवल तुम ही अनोखे इनसान हो. असल में पैसा खर्चते हुए मुसीबत होती है तुम्हें. अव्वल दर्जे के कंजूस जो ठहरे… कभी दूसरे की भावना का भी सम्मान करना सीखो. छोटीछोटी खुशियों को तरसा देते हो,’’ सुनयना के अंदर भरा गुबार जैसे बाहर आने को बेताब था.

‘‘ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. रही बात राघव की तो अभी उस की शादी नहीं हुई है. हो जाने दो अपनेआप सारे शौक खत्म हो जाएंगे जब पैसे खर्चने पड़ेंगे. अभी तो बाप के पैसों पर ऐश कर रहा है.’’

‘‘बेकार की बातें न करो. तुम्हारी जेब से कहां निकलते हैं पैसे. उस के ट्रिप का सारा खर्च मैं ने ही दिया है,’’ सुनयना गुस्से से बोली.

‘‘हां, तो कौन सा एहसान कर दिया. कमाती हो तो खर्च करना ही पड़ेगा वरना क्या सारा पैसा अपने ऊपर ही खर्च करने का इरादा है?’’

दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी. यह कोई एक दिन की बात नहीं थी. अकसर उन में मतभेद पैदा हो जाते थे. जय का स्वभाव ही ऐसा था. पता नहीं उसे खुश रहने से क्या ऐलर्जी थी. बस सुनयना की हर बात को काटना, उस में दोष देखना… जैसे उसे मजा आता था इस सब में.

‘‘मैं ने भी सोच लिया है कि कहीं घूमने जाऊंगी,’’ उस ने जैसे जय को चुनौती दी. उसे पता था कि इन दिनों वूमन ओनली ट्रैवल जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जिन में औरतें चाहें तो अकेले या फिर ग्रुप में ट्रैवल कर सकती हैं. सारा अरेंजमैंट वही करते हैं, इसलिए सेफ्टी की भी चिंता नहीं रहती.

उस ने गूगल पर ऐसे अरेंजमैंट करने वाले देखने शुरू किए. ‘वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप’ नामक साइट पर क्लिक करने पर जब उस ने संस्थापक का नाम पढ़ा तो जानापहचाना लगा. उस का प्रोफाइल पढ़ते ही उस की आंखें चमक उठीं. मानसी उस की कालेज फ्रैंड. शादी के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था, जैसेकि अकसर लड़कियों के साथ होता है. जय को तो वैसे भी उस का किसी से मिलना या किसी के घर जाना पसंद नहीं था खासकर दोस्तों के तो बिलकुल भी नहीं. इसलिए शादी के बाद उस ने अपने सारे फ्रैंड्स से नाता ही तोड़ लिया था खासकर पुरुष मित्रों से.

साइट से मानसी का फोन नंबर ले कर सुनयना ने जैसे ही उसे फोन कर अपना परिचय दिया वह चहक उठी. बोली, ‘‘हाय सुनयना, कितने दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुन रही हूं… यार कहां गायब हो गई थी? बता कैसा चल रहा है?’’

फिर तो जो उन के बीच बातों का सिलसिला चला तो रुका ही नहीं. उसे पता चला कि मानसी के साथ इस वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप में उन के कालेज की 2 फै्रंड्स भी शामिल हैं.

‘‘अब तुम्हारा नैक्स्ट ट्रिप कब और कहां जा रहा है? मैं भी जाना चाहती हूं.’’

‘‘अरे, तो चल न. 4 दिन बाद ही लद्दाख का 10 दिन का ट्रिप प्लान किया है. सारा अरेंजमैंट हो चुका है. 10 लेडीज का ग्रुप ले कर जाते हैं, पर मैं तुझे शामिल कर लूंगी. मजा आएगा. चलेगी न? लैट्स हैव फन… इसी बहाने पुरानी यादों को ताजा भी कर लेंगे… तू बस हां कर दे… मैं बाकी सारी व्यवस्था कर लूंगी और हां तुझे डिस्काउंट भी दे दूंगी.’’

‘‘बिलकुल… मैं तैयारी कर लेती हूं. ऐसा मौका कौन गंवाना चाहेगा,’’ सुनयना ने चहकते हुए कहा.

पर जय को जैसे ही उस ने यह बात बताई उस का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया. बोला, ‘‘दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा… इतना पैसा बरबाद करोगी… फिर ऐसी औरतें जिन के साथ तुम जा रही हो न सब फ्रस्ट्रेटेड होती हैं… या तो इन की शादी नहीं हुई होती है या फिर तलाकशुदा होती हैं अथवा पति से अलग रह रही होती हैं वरना क्यों बनातीं वे ऐसा ग्रुप, जो केवल औरतों के लिए हो? न जाने ये औरतें क्याक्या करती हैं… घूमने के बहाने क्या गुल खिलाती हैं… कोई जरूरत नहीं है तुम्हें जाने की. पुरुषों के लाइफ में न होने पर आपस में ही संबंध बना लेती होंगी तो भी कोई बड़ी बात नहीं… पुरुषों की न सही, औरतों की ही कंपनी सही… यही फंडा होता है इन का. सब की सब बेकार की औरतें होती हैं. ऐक्सपैरिमैंट करने के चक्कर में यहांवहां घूमती हैं और स्वयं को इंटेलैक्चुअल कह समाज को दिखाती हैं कि अकेले भी वे बहुत कुछ कर सकती हैं. ऐसी औरतें सैक्सुअल प्लैजर को तरसने वाले वर्ग में आती हैं. तुम्हें तो नहीं है न मुझ से कोई ऐसी शिकायत?’’ जय ने व्यंग्य कसा.

‘‘छि:… तुम्हारी इस तरह की सोच पर मुझे हैरानी होती है जय. तुम्हें क्या लगता है कि जो औरतें अकेले बिना पति के या बिना किसी पुरुष के फिर चाहे वह उन का पिता हो या पुत्र अथवा भाई अकेले कुछ करती हैं तो उन में कोई खोट होता है या वे फ्रस्ट्रेट होती हैं? अपनी खुशी से कुछ पल गुजारना क्या इतने प्रश्नचिन्ह लगा सकता है, मैं ने कभी सोचा न था… और यह सैक्सुअल प्लैजर की बात कहां से आ गई… मुझे तुम से किसी तरह की बहस नहीं करनी है. मैं नहीं जाती… लेकिन तब तुम्हें मुझे ले कर जाना होगा.’’

सुनयना की बात सुन तिलमिला गया जय. चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया.

मानसी और अन्य 2 फ्रैंड्स से मिल सुनयना बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. जय की रूढि़वादी मानसिकता और रोकटोक से मुक्त वह 1-1 पल ऐंजौय कर रही थी. लद्दाख की प्राकृतिक सुंदरता अभिभूत करने वाली थी. वहां जा कर ऐसा महसूस होता है मानो पूरी दुनिया की छत पर घूम रहे हैं. लद्दाख की ऊंचाई इतनी है मानो हम धरती और आकाश के बीच खड़े हैं. लद्दाख का नीला पानी और ताजा हवा उस पर जादू सा असर कर रही थी. मानसी ने उसे बताया कि लद्दाख भारत का ऐसा क्षेत्र है जो आधुनिक वातावरण से बिलकुल अलग है. वास्तविकता से जुड़ी पुरानी परंपराओं को समेटे हुए है यहां का जीवन. जो पर्यटक यहां आते हैं उन्हें लद्दाख का जनजीवन, संस्कृति और लोग दुनिया से अलग लगते हैं. महान बुद्ध की परंपरा को वहां के लोगों ने आज भी सहेज रखा है. इसी कारण लद्दाख को छोटा तिब्बत भी कहा जाता है. छोटा तिब्बत कहने का एकमात्र कारण यह है कि यहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव दिखाईर् देता है. यह अपनेआप में इतना अद्भुत है कि हर किसी को आकर्षित करता है. पहाड़ों के बीच बने यहां के गांव, आकाश छूते स्तूप और खड़ी व पथरीली चट्टानों पर बने मठ ऐसे दिखाई देते हैं जैसे हवा में झूल रहे हों.

सुनयना को लग रहा था कि वह बहुत लंबे समय के बाद अपने हिसाब से जी रही है. उस ने तय कर लिया कि वह अब मानसी के साथ अकसर ऐसे ट्रिप में आया करेगी.

10 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला मानसी को. एकदम रिलैक्स हो कर जब वह लौटी तब तक राघव भी वापस आ चुका था. दोनों एकदूसरे के साथ अपने ट्रिप के अनुभवों को शेयर कर रहे थे कि अचानक जय भड़क गया, ‘‘पता नहीं दोनों क्या तीर मार कर आए हैं, जो इतने खुश हो रहे हैं… और तुम सुनयना जरूरत से ज्यादा खिली हुई लग रही हो. क्या बात है? उन औरतों का साथ कहीं ज्यादा तो नहीं भा गया तुम्हें? कहीं उन औरतों का रंग तो नहीं चढ़ गया है तुम पर?’’

मानसी जो जय के व्यवहार व सोच से पहले ही दुखी रहती थी, अब उस से कटीकटी रहने लगी. उस की बातें, उस के कटाक्ष सीधे उस के दिल पर चोट करते थे. उस के बाद दोनों के बीच तनाव बहुत बढ़ गया. कैसेकैसे इलजाम लगाता है जय. वह जब भी उस के साथ सैक्स संबंध बनाने की कोशिश करता वह उस का हाथ झटक देती… हद होती है, किसी बात की. इतने ताने सुनने के बाद कैसे वह जय के करीब जा सकती थी… थोड़ी देर पहले किसी का दिल दुखाओ और फिर उस के शरीर को पाना चाहो, आखिर कैसे संभव है यह? मन खुश न हो तो तन कैसे साथ देगा?

जय की तिलमिलाहट सुनयना के  इस व्यवहार से और बढ़ गई. एक रात उस के करीब आने की कोशिश में जब सुनयना ने उसे धक्का दे दिया तो वह चिल्लाने लगा, ‘‘सब समझ रहा हूं मैं तुम में आए इस बदलाव की वजह…

औरतों के साथ रहोगी तो पति का साथ कैसे अच्छा लगेगा? स्वाद जो बदल गया है तुम्हारा अब…. देख रहा हूं मानसी से भी खूब मिलने लगी हो तुम.’’

सुनयना यह सुन सकते में आ गई, ‘‘क्या कहना चाहते हो तुम? साफसाफ कहो.’’

‘‘साफसाफ क्यों सुनना चाहती हो, समझ जाओ न खुद ही,’’ जय ने ताना मारा.

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. जब से घूम कर लौटी हूं तुम कुछ न कुछ मुझे सुनाते ही रहते हो… आखिर ऐसा क्या बदल गया मुझ में?’’ सुनयना का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘तुम तो पूरी ही बदल गई हो. मुझे तो लगता है कि तुम लेस्बियन बन गई हो. इसलिए मेरे स्पर्श से भी दूर भागती हो.’’

सुनयना अवाक खड़ी रह गई. कैसे जय ने इतनी आसानी से रिश्ते की सारी गरिमा को कलंकित कर दिया था… अगर महिला दोस्तों के साथ कोई महिला घूमने जाए तो लेस्बियन कहलाती है और पुरुष मित्रों के साथ घूमे तो चरित्रहीन… समाज की खोखली परिभाषाएं उसे परेशान कर रही थीं.

अब जय रात को देर से घर लौटने लगा. वह कुछ पूछती तो कहता कि घूमता रहता हूं दोस्तों के साथ, पर जान लो मैं गे नहीं हूं. बीचबीच में उस के कानों में यह बात जरूर पहुंच रही थी कि जय आजकल बहुत सी औरतों से मिलता है. उन्हें घुमाने ले जाता है, मूवी भी देखता है और शायद उन के साथ संबंध भी बनाता है. सुनयना इन सब बातों पर विश्वास नहीं करना चाहती थी पर एक दिन जय की शर्ट पर लिपस्टिक के निशान देख उस का शक यकीन में बदल गया. हालांकि पहले भी उस के कई दोस्तों ने उसे चेताया था कि जय के कदम डगमगा रहे हैं, पर उन की बातों को नजरअंदाज कर देती थी.

रात को जब जय लौटा तो नशे की हालत में था. शराब की बदबू कमरे में फैल गई थी. सुनयना ने गुस्से में जब जय से सवाल किया

तो वह चिल्लाया, ‘‘मेरी जासूसी करने लगी हो. खुद लद्दाख में ऐय्याशी कर के आई हो और मुझ से सवाल कर रही हो. तुम तो एकदम ही बदल गई हो. जब तुम मुझे सैक्स सुख नहीं दोगी तो कहीं तो जाऊंगा या नहीं. हां, मेरे संबंध हैं कई औरतों से तो इस में गलत क्या है? कम से कम पुरुषों से तो नहीं हैं… तुम लेस्बियन बन गई हो पर मैं….’’

‘‘जय मेरी बात सुनो, मैं नहीं बदली हूं. मुझे तुम्हारा साथ, स्पर्श अच्छा लगता है, पर तुम्हारा व्यवहार कचोटता है मुझे… एक बार मुझे समझने की कोशिश तो करो…’’

मगर सुनयना की बात ठीक से सुने बिना ही जय बिस्तर पर लुढ़क गया था. सुनयना को समझ नहीं आ रहा था कि जय ने उस पर अपने दोष छिपाने के लिए इतना बड़ा इलजाम लगाया था ताकि उसे और औरतों से संबंध बनाने का लाइसैंस मिल जाए या फिर उसे उस के  ट्रिप पर जाने की सजा दे रहा था.

Family Story: परीक्षा – क्यों सुषमा मायके जाना चाहती थी?

Family Story: पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा. तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया.

Social Story: छठी इंद्रिय – छोटी उम्र के प्रत्यूष के साथ गीत के रिश्ते की कहानी

Social Story: अलार्म की आवाज से गीत की नींद खुल गई. कल की ड्रिंक का हैंगओवर था, इसलिए सिर भारी था. उन्होंने ग्रीन टी बना कर पी और फिर मौर्निंग वाक के लिए चली गईं. सुबह की ठंडी हवा और कुछ लोगों से हायहैलो कर के ताजगी आ जाएगी. फिर तो वही रोज का रूटीन कालेज, लैक्चर बस…

कल से नैना उन की सहेली उन के मनमस्तिष्क से हट ही नहीं रही थी. उन की कहानियों की आलोचना करतेकरते कैसे अपना आपा खो बैठती थी.

‘‘गीत, तुम्हारी कहानी की नायिका पुरुष के बिना अधूरी क्यों रहती है?’’

‘‘नैना, मेरे विचार से स्त्रीपुरुष दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. एकदूसरे के बिना अधूरे हैं.’’

वह नाराज हो कर बोली, ‘‘नहीं गीत, मैं नहीं मानती. स्त्री अपनी इच्छाशक्ति से आकाश को भी छू सकती है. सफल होने के लिए दृढ़इच्छा जरूरी है.’’

बड़ीबड़ी बातें करने वाली नैना पति का अवलंबन पाते ही सबकुछ भूल गई और पिया का घर प्यारा लगे कहती हुई चली गई.

नैना के निर्णय से गीत का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा उठीं और फिर वहीं बैंच पर बैठ गईं. बच्चों को स्कैटिंग करता देखना उन्हें अच्छा लग रहा था. वे बच्चों में खोई हुई थीं, तभी बैंच पर एक आकर्षक युवक आ कर बैठ गया. उन्होंने उस की ओर देखा तो वह जोर से मुसकराया. उस की उम्र 30-32 साल होगी.

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘माई सैल्फ प्रत्यूष.’’

‘‘माई सैल्फ गीत.’’

‘‘वेरी म्यूजिकल नेम.’’

‘‘थैंक्यू.’’

उस का चेहरा और पर्सनैलिटी देख गीत चौंक उठी थीं, जिस पीयूष की यादों को वे अपने मन की स्लेट से धोपोंछ कर साफ कर चुकी थीं, उस व्यक्ति ने आज उन यादों को पुनर्जीवित कर दिया था.

वही कदकाठी, वही मुखाकृति, वही चालढाल, वही अंदाज और चेहरे पर लिखी मुसकान तथा वही लापरवाह अंदाज.

गीत डिगरी कालेज में लैक्चरर थीं. उम्र 38 साल थी, लेकिन लगती 30-32 की थीं. रूपमाधुर्य और सौंदर्य की वे धनी थीं. गोरा संगमरमरी रंग, गोल चेहरे पर कंटीली आकर्षक आंखें और होंठ के किनारे पर कुदरत प्रदत्त तिल उन के सौंदर्य को मादक बना देता था.

प्रत्यूष को देखते ही गीत को अपने कालेज के दिन याद आ गए. जब वे और पीयूष यूनिवर्सिटी की लवलेन में एकदूसरे से मिला करते थे. कौफीहाउस के कोने वाली मेज पर बैठ कर एक कौफी के कप के साथ घंटों गुजारा करते थे. कभी किसी पेपर के प्रश्न डिस्कस करते तो कभी अपने भविष्य के सपने संजोते. लेकिन एक हादसे ने क्षणभर में सबकुछ उलटपुलट कर दिया.

एक ऐक्सीडैंट में पापामम्मी दोनों ने एकसाथ दुनिया से विदा ले ली. उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वाणी 12वीं कक्षा में तो किंशुक 10वीं कक्षा में था. ऐसी स्थिति में भला वे अपनी खुशियों के बारे में कैसे सोच सकती थीं. उन्होंने पीयूष के प्यार को नकार दिया. यद्यपि वह उन के साथ जिम्मेदारी निभाने को तैयार थे.

अपने जीवन के लक्ष्य को बदल कर वे डिगरी कालेज में लैक्चरर बन गईं. कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गईं, कई पत्रिकाओं में नियमित कौलम लिखने लगीं. वाणी और किंशुक दोनों ही विदेश में सैटल हो गए. अब उन के लिए समस्या है उन के मन के रीतेपन की. उन्हें अपना अकेलापन सालता रहता है, अंदर ही अंदर कचोटता रहता है.

प्रत्यूष से रोज मिलनाजुलना होने लगा. मुसकराहट बातचीत में बदल गई. दोनों को एकदूसरे का साथ मनभावन लगने लगा. उस ने बातोंबातों में अपनी दर्दभरी कहानी बताई कि उस के पिता बचपन में ही एक ऐक्सीडैंट में उसे अकेला कर गए थे. मां ने दूसरी शादी कर ली. उन के पास पहले से एक बेटा था, इसलिए उसे न तो कभी मां का प्यार मिला और न पिता का. मां हर समय डरीसहमी रहतीं और वह स्वयं को अवाछिंत सा महसूस करता. हां, पढ़ने में तेज था, इसलिए इंजीनियर बन गया. यही उस के जीवन की पूंजी है. अब तो उन लोगों से उस का कोई रिश्ता नहीं है. इतनी बड़ी दुनिया में बिलकुल अकेला है, उस की आंखें डबडबा उठी थीं.

प्रत्यूष की कहानी सुन कर गीत के मन में उस के प्रति सहानुभूति और प्यार दोगुना बढ़ गया.

एक दिन उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा फ्लैट किस फ्लोर में है?’’

‘‘अरे मेरा क्या? वन रूम फ्लैट किराए पर ले रखा है. शांतनु के साथ शेयर कर के रह रहा हूं.’’

पार्किंग में उसे किसी लड़के के साथ देख उस की बातों पर विश्वास हो गया था.

जौगिंग आपस में मिलने का बहाना बन गया. उन्हें अपनी जिंदगी हसीन लगने लगी थी. दोनों बेंच पर बैठ कर आपस में कुछ कहते, कुछ सुनते.

महानगरों की जीवनशैली है कि कोई किसी के व्यक्तिगत जीवन में रुचि नहीं लेता. छोटे शहरों में तुरंत लोगों को गौसिप का चटपटा विषय मिल जाता है और एकदूसरे से कहतेसुनते चरित्र पर लांछन तक बात पहुंच जाती है.

प्रत्यूष कभी लिफ्ट में तो कभी नीचे ग्राउंड में आ फिर पार्किंग में टकरा ही जाता. उस का आकर्षक व्यक्तित्व और निश्छल मुसकान से ओतप्रोत ‘हाय ब्यूटीफुल’, ‘हाय स्मार्टी’ सुन कर वे प्रसन्न हो उठतीं. फिर वे भी उसे ‘हाय हैंडसम’ कह कर मुसकराने लगी थीं.

यदि किसी दिन वह नहीं दिखाई देता तो उस दिन गीत की निगाहें प्रत्यूष को यहांवहां तलाशतीं. फिर उदास और निराश हो उठती थीं.

गीत समझ नहीं पा रही थीं कि उसे देखते ही वे क्यों इतनी खुश हो जाती हैं. 5-6 दिन से वह दिखाई नहीं दे रहा था. उन्हें न तो उस का फ्लैट का नंबर मालूम था और न हीं फोन नंबर. वे उदास थीं और अपने पर ही नाराज हो कर कालेज के लिए तैयार हो रही थीं.

तभी घंटी बजी. मीना किचन में नाश्ता बना रही थी. इसलिए गीत ने ही दरवाजा खोला. उसे सामने देख रोमरोम खिल उठा.

‘‘ऐक्सक्यूज मी, थोड़ी सी कौफी होगी? उस ने सकुचाते हुए पूछा.’’

‘‘आओ, अंदर आ जाओ.’’

अंदर आते ही ड्राइंगरूप में चारों ओर निगाहें घुमाते हुए बोला, ‘‘अमेजिंग, इट्स अमेजिंग, ब्यूटीफुल… आप जितनी सुंदर हैं, अपने फ्लैट को भी उतना ही सुंदर सजा रखा है.’’

‘‘थैंक्यू,’’ उन्होंने मुसकराते हुए औपचारिकता निभाई थी.

‘‘नाश्ता करोगे?’’

‘‘माई प्लैजर.’’

मीना ने आमलेट बनाया था. उस के लिए भी एक प्लेट में ले आईं. वह बच्चों की तरह खुश हो कर पुलक उठा, ‘‘वाउ, वैरी टेस्टी.’’

उसे अपने साथ बैठ कर नाश्ता करते देख गीत का मन उल्लसित हो उठा. उस का संगसाथ पाने के लिए वे उसी के टाइम पर जौगिंग पर जाने लगी थीं. अपना परिचय देते हुए उस ने बताया था कि वह इंजीनियर है और अमेरिकन कंपनी ‘टारगेट’ में काम करता है. वह चैन्नई से है… उसे हिंदी बहुत कम आती है, इसलिए कोई ट्यूटर कुछ दिनों के लिए बता दें.

गीत खुश हो उठीं. जैसे मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो. जब उन्होंने बताया कि वे हिंदी में पत्रिकाओं में कहानियां, लेख और कौलम लिखती हैं.

यह सुन कर आश्चर्य से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘आप इंग्लिश की लैक्चरर और हिंदी में लेखन, सो सरप्राइजिंग.’’

मुलाकातें बढ़ने लगीं. संडे को दोनों फ्री होते तो साथ में खाना खाते, बातें करते और शाम को लौंग ड्राइव पर जाते. हिंदी पढ़ना तो शायद बहाना था.

उन्हें साथी मिल गया था, जिस के साथ वे भावनात्मक रूप से जुड़ती जा रही थीं. उस की पसंद का स्पैशल नाश्ता, खाना, अपने हाथों से बनातीं और उसे खिला कर उन्हें आंतरिक खुशी मिलती.

वह आता तो अपनी मनपसंद सीडी लगाता, कौफी बनाता और फिर दोनों साथसाथ पीते. कभीकभी बीयर भी पी लेते.

वह अकसर गीत की हथेलियों को अपने हाथों से पकड़ कर बैठता. उस का स्पर्श उन्हें रोमांचित कर देता. कई बार उन के मन में खयाल आता कि उन्हें क्या होता जा रहा है… क्या उन्हें प्रत्यूष से प्यार हो गया है? वह उम्र में उन से छोटा है. लेकिन उसे देखते ही वे सबकुछ भूल जातीं. उस के प्यार में डूबती जा रही थीं. कई बार दोनों रोमांटिक धुन बजा कर डांस भी करते.

एक दिन उस ने थिरकतेथिरकते मदहोश हो कर उन्हें अपनी बांहों में भर कर किस कर लिया. यद्यपि वे संकोचवश शरमा कर उस से अलग हो गईं, पर सच तो यह था कि शायद इन पलों का वे कब से इंतजार कर रही थी.

काश, वह हमेशा के लिए उन की नजरों के सामने रहता. वे हर क्षण षोडशी की भांति उस की कल्पना में खोई रहतीं. इन क्षणों को अपनी मुट्ठी में, स्मृति में कैद कर लेना चाहती थीं.

एक दिन उन के लंबे बालों से खेलते हुए उस ने छोटे बालों के लिए अपनी पसंद जाहिर की.

वे पार्लर गईं और अपने लंबे बालों पर कैंची चलवा दी. नए हेयर कट में स्वयं को आईने में देख शरमा उठीं. जाने क्यों प्रत्यूष के प्रति उन के मन में दीवानापन बढ़ता ही जा रहा था.

गीत सहमी सी रहतीं कि कहीं प्रत्यूष उन्हें छोड़ कर दूसरी हमउम्र लड़की के साथ अपने प्यार की पींगें न बढ़ाने लगे.

उस दिन नीचे खड़ी लिफ्ट का इंतजार कर रही थीं, तभी वहां प्रत्यूष भी आफिस से लौट कर आ गया. उन के चेहरे पर उस की निगाह पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया.

खुशी के मारे आज सब के सामने उस ने उन्हें अपनी बांहों के घेरे में जकड़ लिया.

गीत ने अपेन को छुड़ाते हुए प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘सब देख रहे हैं.’’

‘‘नाइस हेयर स्टाइल… लुकिंग सो स्वीट ऐंड यंग.’’

उस की आंखों में प्यारभरी खुशी का भाव दिखाई दे रहा था. उस की आंखों में उन के प्रति दीवानगी साफ दिखाई दे रही थी. शायद यही तो वे कब से चाह रही थीं.

‘‘आज शाम को क्या कर रही हो? फ्री हो तो शौपिंग पर चलते हैं.’’

गीत प्रत्यूष के साथ मौल गईं. अभी तक वे इंडियन ड्रैसेज ही पहनती थीं, लेकिन आज उस के आग्रह को नहीं टाल पाईं. ढेरों वैस्टर्न ड्रैसेज पसंद कर लीं. जब उन ड्रैसेज को ट्रायलरूम में पहन कर उसे दिखातीं तो उस की आंखें खुशी से चमक उठतीं.

वहीं कैफेटेरिया में दोनों कौफी का और्डर दे कर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले बैठे थे.

‘‘गीत, तुम ने तो मुझे अपना दीवाना बना लिया है,’’ वह बोला.

गीत उस के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रही थीं. मुसकरा पड़ी थीं. लेकिन मन ही मन सोच रही थीं कि वह 38 साल की प्रौढ़ा और यह 28 साल का खूबसूरत स्मार्ट युवक जाने कब उन्हें छोड़ कर अकेला कर दे, इसलिए उन्हें अपने पर कंट्रोल करना होगा. गलत रास्ते पर कदम बढ़ाती चली जा रही हैं. उन्हें उस से दूरी बना कर अपनी पुरानी दुनिया में लौटना होगा.

मगर उसे देखते ही उन के इरादे रेत के महल की तरह ढह जाते और वे उस के प्यार में डूब जातीं. उस के साथ कभी पिक्चर, थिएटर, कभी ड्रामा, कभी डिनर तो कभी मौल… समय को पंख लग गए थे. इन मधुर पलों को वे अपनी स्मृतियों में संजो लेना चाहती थीं.

जब भी वह उन का हाथ पकड़ता, वे सिहर उठतीं, एक दिन फ्रिज से बीयर की बोतल निकाल कर बोला, ‘‘आज सैलिब्रेशन हो जाए.’’

‘‘किस बात की?’’

‘‘मेरीतुम्हारी दोस्ती के लिए.’’

मंदमंद संगीत, हलका सुरूर… वे मुसकरा उठी थीं. थिरकतेथिरकते वे उस की बांहों में खो गईं.

आज दोनों के बीच के सारे बंधन टूट गए. दोनों एकदूसरे में समा गए. वे गहरी निद्रा के आगोश में चली गईं.

जब आंख खुली, तो अपनी अस्तव्यस्त दशा देख एक क्षण को उन्हें झटका सा लगा कि उफ, उन्होंने यह क्या कर डाला. प्रत्यूष उन के बारे में क्या सोचेगा? शायद शरीर की चाहत के कारण वे बहक गई थीं.

वे तेजी से दूसरे कमरे में गई तो देखा प्रत्यूष आराम से सो रहा है. उन के अंदर उस से नजरें मिलाने का भी साहस नहीं हो रहा था.

रात्रि का खुमार नहीं उतरा था, चेहरे पर तृप्ति और संतुष्टि की मुसकान थी तो मन ही मन प्रत्यूष के रिएक्शन के प्रति डर और घबराहट भी थी. उन की निगाहें आकाश में उगते सूर्य के गोले को देख रही थीं. उगता सूर्य कितनों के जीवन में खुशियों का उजाला लाता है, तो कितनों को गम देता है. आज चिडि़यों का चहचहाना उन के कानों में मधुर संगीत का आभास दे रहा था. रोज की तरह उन्होंने उन के लिए दाना डाला.

प्रत्यूष की आहट से वे संकुचित हो उठी. वे उस का सामना करने से हिचक रही थीं. उस के हाथों में ग्रीन टी का कप था.

‘‘हैलो…’’ उस ने कप को मेज पर रखा और फिर घुटनों के बल उन का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मैं भी अकेला, तुम भी अकेलीं विल यू मैरी मी?’’

ये वे लफ्ज थे, जिन का गीत को बरसों से इंतजार था. आज पहली बार उन्होंने स्वयं उसे अपनी बांहों में भर लिया.

गीत खुशियों के झूले में झूल रही थीं. शादी कर के अपने रिश्ते को एक नाम देना चाहती थीं, वे अपने भाईबहन और करीबियों को बुला कर अपनी खुशी में शामिल करना चाहती थीं.

सब से पहले प्रत्यूष की मां से मिलने चलने का आग्रह उन्होंने उस से किया तो वह नाराज हो उठा. वह आर्यसमाज मंदिर में गुपचुप तरीके से शादी करने के पक्ष में था और वे कोर्ट के द्वारा रजिस्टर्ड मैरिज करना चाहती थीं. इसी विषय में दोनों के बीच थोड़ा तनाव भी हो गया. वह उन के लिए एक डायमंड की अंगूठी ले आया था, लेकिन उन की पारखी निगाहें पलभर में पहचान गईं कि यह नकली है.

कुछ दिन बाद ही उस ने बताया कि शांतनु उसे धोखा दे कर उस के पैसेकपड़े सबकुछ ले कर न जाने कहां चला गया. कमरे को भी छोड़ दिया है. उस के प्यार में पागल वे उस की बातों में आ गईं और दोनो लिवइन में रहने लगे. गीत ने उस पर विश्वास कर के हमदर्दी दिखाते हुए अपना एटीएम कार्ड दे दिया.

प्रत्यूष उन के पैसों पर ऐश करने लगा. कभी शौपिंग तो कभी पार्टी के बिल के मैसेज उन के फोन पर उन्हें मिलते रहते. जब एक दिन उन्होंने पूछा कि किस के संग पार्टी थी तो वह अकड़ कर बोला, ‘‘मेरी सैलरी आने वाली है… सारे पैसे चुका दूंगा.’’

उस के कहने का लहजा उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने गौर किया कि जब भी कोई फोन आता तो वह उन के सामने बात नहीं करता. दूसरे रूम में भी नहीं वरन घर से बाहर जा कर घंटों लंबी बातें करता. उन्होंने उस का फोन या लैपटौप चैक करने की कोशिश की पर वह हरदम लौक लगा कर रखता और अपना पासवर्ड भी नहीं बताता.

उस की यह सब बातें उन्हें खटकने लगीं. उन्हें महसूस हुआ कि जरूर कहीं दाल में काला है. अचानक उन की छठी इंद्रिय जाग्रत हो उठी. उन्होंने चुपचाप से कई जगह स्पाई कैमरे लगवा दिए. फिर वे उस की असलियत पता लगाने में जुट गईं.

सोसायटी के वाचमैन और प्राइवेट डिटैक्टिव की सहायता से चंद दिनों में ही उन की आंखों के समक्ष उस के कुकर्मों की कुंडली खुल गई. वह स्वयं अपनी मृगमरीचिका में छले जाने से बच गईं  थीं.

प्रत्यूष इंजीनियर नहीं था वरन, एक गैंग का सदस्य था, जो अलगअलग शहरों में प्यार का जाल बिछा कर लड़कियों को फंसा कर उन की अस्मत से खेलता था और लौकर में रखी रकम लूटता था. इस में उस का भोलाभाला सुंदर चेहरा और धारा प्रवाह इंग्लिश बोलना बहुत काम आता था.

इस बार गीत को लूटने का जाल रचा था. उन के लौकर को मास्टर चाभी से खोलने की कोशिश करने की संदिग्ध हरकतें कैमरे में कैद थीं. वह उन का डायमंड सैट और कैश ले कर नौ दो ग्यारह होने की कोशिश में था.

पुलिस ने कैमरे के सुबूत के आधार पर उस के हाथों में हथकड़ी लगा दी.

गीत का प्यार का खुमार उतर चुका था. उसे इस हालत में देख उन की आंखें डबडबा उठीं थीं. जीवनसाथी की तलाश में वे अपने ही बुने जाल से मुक्त हो कर बहुत खुश थीं. वे अपने अनुभव को शब्दों के माध्यम से सब के सामने ला कर अपनी छठी इंद्रिय को बारबार धन्यवाद दे रही थीं.

Short Story: दो हिस्से – जब खुशहाल शादी पहुंची तलाक तक

Short Story: ‘‘कहां थीं तुम? 2 घंटे से फोन कर रहा हूं… मायके पहुंच कर बौरा जाती हो,’’ बड़ी देर के बाद जब मोनी ने फोन रिसीव किया तो मीत बरस पड़ा.

‘‘अरे, वह… मोबाइल… इधरउधर रहता है तो रिंग सुनाईर् ही नहीं पड़ी… सुबह ही तो बात हुई थी तुम से… अच्छा क्या हुआ किसलिए फोन किया? कोई खास बात?’’ मोनी ने उस की झल्लाहट पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा.

‘‘मतलब अब तुम से बात करने के लिए कोई खास बात होनी चाहिए मेरे पास… क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता? तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे? हां, अब नानामामा का ज्यादा हक हो गया होगा,’’ मीत मोनी के सपाट उत्तर से और चिढ़ गया. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी.

उधर मोनी का भी सब्र तुरंत टूट गया. बोली, ‘‘तुम ने लड़ने के लिए फोन किया है तो मुझे फालतू की कोई बात नहीं करनी है. एक तो वैसे ही यहां कितनी भीड़ है और ऊपर से मान्या की तबीयत…’’ कहतेकहते उस ने अपनी जीभ काट ली.

‘‘क्या हुआ मान्या को? तुम से बच्चे नहीं संभलते तो ले क्यों जाती हो… अपने भाईबहनों के साथ मगन हो गई होगी… ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकट बुक करा रहा हूं तुम्हारा… वापस आ जाओ तुम… मायके जा कर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है और तुम वहां सैरसपाटा कर रही हो… नालायकी की हद है… लापरवाह हो तुम…’’ हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था. मीत अपना आपा खो बैठा था.

‘‘जरा सा बुखार हुआ है उसे… अब वह ठीक है… और सुनो, मुझे धमकी मत दो. मैं 10 दिन के लिए आई हूं. पूरे 10 दिन रह कर ही आऊंगी… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरे मायके आने से सांप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पर… अभी तुम्हारे गांव जाती जहां 12-12 घंटे लाइट नहीं आती… बच्चे वहां बीमार होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता… पूरा साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद 10 दिन को मायके क्या आ जाऊं तुम्हारी यही नौटंकी हर बार शुरू हो जाती है,’’ मोनी भी बिफर गई. उस की आवाज भर्रा गई पर वह अपने मोरचे पर डटी रही.

‘‘अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूं… बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहां…

अब तुम वहीं रहो. कोई जरूरत नहीं वापस आने की… 10 दिन नहीं अब पूरा साल रहो… खबरदार जो वापस आईं,’’ गुस्से से चीखते हुए मीत ने उस की बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया.

मोनी ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पर बैठ कर रोने लगी. उस की मां पास बैठी सब सुन रही थीं. वे बोलीं, ‘‘बेटी, वह हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था. देर से फोन उठाने पर अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हें प्यार से उसे हैंडल करना था. खैर, चलो अब रोओ नहीं. कल सुबह तक उस का भी गुस्सा उतर जाएगा.’’

मोनी अपना मुंह छिपाए रोते हुए बोली, ‘‘मम्मी, सिर्फ 10 दिन के लिए आई हूं. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इन से… पतियों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है कि जब भी हमें मिस करेंगे, हमारे बिना काम भी नहीं चलेगा तब प्यार जताने के बदले, हमारी कदर करने के बदले हमीं पर झलाएंगे, गुस्सा दिखाएंगे… हम से जुड़ी हर चीज से बैर पाल लेंगे. यह क्या तरीका है जिंदगी जीने का?’’

‘‘बेटी, ये पुरुष होते ही ऐसे हैं… ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उस से भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं. बीवी के मायके जाने पर इन को लगता है कि इन का अधिकार कुछ कम हो रहा है, तो अपनेआप अंदर ही अंदर परेशान होते हैं. ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उलटा बोल दे तो इन के अहं पर चोट लग जाती है और बेबात का झगड़ा होने लगता है… तेरे पापा का भी यही हाल रहता था,’’ मां ने मोनी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया.

‘‘पर मम्मी औरत को 2 भागों में आखिर बांटते ही क्यों हैं ये पुरुष? मैं पूरी ससुराल की भी हूं और मायके की भी… मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर? यह 2 जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है?’’ मोनी ने मानो यह प्रश्न मां से ही नहीं, बल्कि सब से किया हो.

मां उसे अपने सीने से लगा कर चुप कराते हुए बोलीं, ‘‘इन के अहं और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है… मोनी मैं ने कहा न कि पुरुष होते ही ऐसे हैं. यह इन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है… और पुरुष का काम ही है स्त्री को 2 भागों में बांट देना, जिन में एक हिस्सा मायके का और दूसरा ससुराल का बनता है… जैसे 2 अर्ध गोलाकार से एक गोलाकार पूरा होता है वैसे ही एक औरत भी इन 2 हिस्सों से पूर्ण होती है.’’

मोनी मूक बनी सब सुन रही थी. कुछ समझ रही थी और कुछ नहीं समझने की कोशिश कर रही थी. शायद यही औरत का सच है.

Social Story: उधार का रिश्ता

Social Story: टैलीफोन की घंटी लगातार बजती जा रही थी. मैं ने उनीदी आंखों से घड़ी की ओर देखा. रात के 2 बजे थे. ‘इस समय कौन हो सकता है?’ मैं ने स्वयं से ही सवाल किया और जल्दी से टैलीफोन का रिसीवर उठाया, ‘‘मेजर रंजीत दिस साइड.’’

‘‘सर, कैप्टन सरिता ने आत्महत्या कर ली है’’ औफिसर्स मैस के हवलदार की आवाज थी. वह बहुत घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘क्या?’’

‘‘सर, जल्दी आइए.’’

‘‘घबराओ मत, मैं तुरंत आ रहा हूं. किसी को भी मेरे आने तक किसी चीज को हाथ मत लगाने देना.’’

‘‘जी सर.’’

मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि कैप्टन सरिता ऐसा कर सकती है. वह एक होनहार अफसर थी. मैं नाइट सूट में था और उन्हीं कपड़ों में औफिसर्स मैस की ओर भागा. वहां पहुंचा तो कैप्टन नीरज और कैप्टन वर्मा पहले से मौजूद थे. कैप्टन नीरज ने सरिता के कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘सर, इस ओर.’’

‘‘ओके,’’ हम सब कैप्टन सरिता के कमरे की ओर बढ़े. नाइलौन की रस्सी का फंदा बना कर वह सीलिंग फैन से झूल गई थी.

‘‘सब से पहले कैप्टन सरिता को इस अवस्था में किस ने देखा?’’  मैस स्टाफ से मैं ने पूछा.

‘‘सर, 10 बजे मैम ने गरम दूध मंगवाया था. मैं दूध देने आया तो मैम लैपटौप पर काम कर रही थीं. मैं ने दूध का गिलास रख दिया. उन्होंने कहा, ‘आधे घंटे में गिलास ले जाना.’ मैं ‘जी’ कह कर लौट आया. आ कर कुरसी पर बैठा तो मेरी आंख लग गई. आंख खुली तो देखा कि मैम के कमरे की लाइट जल रही थी. सोचा, खाली गिलास उठा लाता हूं. मैम के कमरे में आया तो उन को पंखे से लटके देखा. मैं ने उन का चेहरा देख कर अनुमान लगाया था कि वे मर चुकी हैं. तुरंत आप को सूचित किया.’’

‘‘क्या तुम्हें इस बात का ध्यान नहीं रहा कि इतनी रात गए किसी महिला अफसर के कमरे में नहीं जाना चाहिए?’’ मैं ने मैस हवलदार को घूरते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे समय का ध्यान नहीं रहा. मैं ने घड़ी की ओर देखा ही नहीं. मैं ने सोचा, मेरी आंख लगे अधिक देर नहीं हुई है. इसलिए चला गया, सर.’’

मैं ने देखा, मैस हवलदार एकदम डर गया है. शायद उसे लग रहा था कि इस छोटी सी गलती के लिए उसे ही न फंसा दिया जाए.

‘‘कैप्टन नीरज, देखो कोई सुसाइड नोट है या नहीं? तब तक मैं मिलिटरी पुलिस को इस की सूचना दे देता हूं,’’ यह कहते हुए मैं टैलीफोन की ओर बढ़ा. मैं ने नंबर डायल किया तो दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘सर, मैं डेस्क एनसीओ हवलदार राम सिंह बोल रहा हूं.’’

इधर से मैं ने कहा, ‘‘मैं ओएमपी से मेजर रंजीत सिंह बोल रहा हूं. मुझे आप के ड्यूटी अफसर से तुरंत बात करनी है.’’

‘‘सर, एक सेकंड होल्ड करें, मैं लाइन ट्रांसफर कर रहा हूं,’’ राम सिंह ने कहा.

कुछ समय बाद दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘ड्यूटी अफसर कैप्टन डोगरा स्पीकिंग, सर, इतनी रात गए कैसे याद किया?’’

‘‘एक बुरी खबर है कैप्टन डोगरा. कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड,’’ मैं ने उसे बताया.

‘‘ओह, सर, यह तो बहुत बुरी खबर है. सर, किसी को बौडी से छेड़छाड़ न करने दें. मैं अभी टीम भेज रहा हूं. प्लीज मेजर साहब, डू इनफौर्म टू ब्रिगेड मेजर इन ब्रिगेड हैडक्वार्टर. आई विल आलसो इनफौर्म हिम.’’ यह कह कर कैप्टन डोगरा ने फोन काट दिया.

मैं ने तुरंत बीएम साहब को फोन लगाया. दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘यस, मेजर बतरा स्पीकिंग.’’

‘‘मेजर रंजीत दिस साइड,’’ मैं ने कहा.

‘‘इन औड औवर्स? इज देयर ऐनी इमरजैंसी, मेजर रंजीत?’’

‘‘यस, कैप्टन सरिता कमीटैड सुसाइड.’’

‘‘ओह, सैड न्यूज, मेजर. हैव यू इनफौर्म मिलिटरी पुलिस?’’

‘‘यस, मेजर.’’

‘‘ओके, प्लीज डू नीडफुल.’’

‘‘राइट, मेजर.’’

मैं अभी फोन कर के हटा ही था कि मिलिटरी पुलिस की टीम आ गई. उस टीम में 1 सूबेदार और 2 हवलदार थे. उन्होंने मुझे सैल्यूट किया और चुपचाप अपने काम में लग गए. इतने में कैप्टन नीरज मेरे पास आया और कहा, ‘‘सर, और कुछ तो मिला नहीं, लेकिन यह डायरी मिली है. मैं मिलिटरी पुलिस की टीम से बचा कर ले आया हूं. सोचा, टीम के देखने से पहले शायद आप देखना चाहें.’’

‘‘गुड जौब, कैप्टन नीरज.’’

‘‘थैंक्स, सर.’’

‘‘कैप्टन नीरज, हैडक्लर्क को मेरे पास भेजो.’’

‘‘राइट, सर.’’

थोड़ी देर बाद हैडक्लर्क साहब आए, सैल्यूट किया और चुपचाप आदेश के लिए खड़े हो गए. मैं ने उन्हें गहराई से देखा और कहा, ‘‘यू नो, व्हाट हैज हैपेंड?’’

‘‘यस सर.’’

‘‘गिव टैलीग्राम टू हर पेरैंट्स. जस्ट राइट डाउन, कैप्टन सरिता एक्सपायर्ड, गिव नियरैस्ट रेलवे स्टेशन ऐंड माई सैल नंबर. डोंट राइट वर्ड सुसाइड.’’

‘‘राइट, सर.’’

‘‘मेक दिस टैलीग्राम मोस्ट अरजैंट.’’

‘‘सर, हम सैल से भी इनफौर्म कर सकते हैं.’’

‘‘कर सकते हैं, पर इस समय हम इस अवस्था में नहीं हैं कि उन से बात कर सकें. जस्ट डू इट, इट इज माई और्डर.’’

‘‘यस, सर,’’ हैडक्लर्क साहब ने सैल्यूट किया और चले गए.

हैडक्लर्क साहब गए तो मेरे सेवादार ने आ कर कहा, ‘‘सर, ब्रिगेड कमांडर साहब आप को याद कर रहे हैं. उन्होंने कहा है, जिस अवस्था में हों, आ जाएं.’’

‘‘उन के साथ और कोई भी है?’’

‘‘सर, बीएम साहब हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम उन को औफिस में ले जा कर बैठाओ. उन्हें पानी वगैरह पिलाओ, तब तक मैं आता हूं.’’

‘‘जी, सर,’’ कह कर वह चला गया लेकिन मैं खुद पिछली यादों में खो गया.

अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है, ब्रिगेड औफिसर्स मैस की पार्टी में कैप्टन सरिता ब्रिगेडियर यानी ब्रिगेड कमांडर साहब से चिपक कर डांस कर रही थी. मुझे ही नहीं बल्कि पूरी यूनिट के सभी अफसरों को यह बुरा लगा था. मैं उस का कमांडिंग अफसर था. मेरा फर्ज था, मैं उसे समझाऊं. दूसरे रोज औफिस में बुला कर उसे समझाने की कोशिश भी की थी.

‘यह सब क्या था, कैप्टन सरिता?’

‘क्या था, सर?’ उलटे उस ने मुझ से सवाल किया था.

‘कल रात पार्टी में ब्रिगेडियर साहब के साथ इस तरह डांस करना क्या अच्छी बात थी?’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा. कुछ समय के लिए वह झिझकी फिर बड़े साफ शब्दों में बोली, ‘सर, मैं उन के साथ रिलेशन में हूं.’

‘क्या बकवास है यह? जानती हो तुम क्या कह रही हो? तुम कैप्टन हो, वे ब्रिगेडियर हैं. तुम्हारे और उन के स्टेटस में जमीनआसमान का फर्क है. वे शादीशुदा हैं, 2 बच्चे और एक सुंदर बीवी है. तुम उन के साथ कैसे रिलेशन रख सकती हो? थोड़ा सा भी दिमाग है तो जरा सोचो.’

‘सर, उन्होंने कहा है, वे मेरे साथ लिव इन रिलेशन में रहेंगे. वे अपने बीवीबच्चों को भी खुश रखेंगे और मुझे भी.’

‘माइ फुट. वह तुम्हें यूज करेगा और छोड़ देगा. वह मर्द है, सरिता, मर्द. उस को कुछ फर्क नहीं पड़ता, वह चाहे 10 के साथ संबंध रखे. तुम लड़की हो, एक कुंआरी लड़की, तुम्हारा ब्राइट कैरियर है. जरा सोचो, लोग, तुम्हारे मांबाप, समाज, सब तुम्हें उस की रखैल कहेंगे और रखैल को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता.’

मैं ने उसे हर तरह से समझाने की कोशिश की थी. उस ने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया था, केवल सैल्यूट किया और मेरे औफिस से बाहर चली गई थी. मैं सोचने लगा कि ‘लिव इन रिलेशन’ कैसा रिश्ता है जो धीरेधीरे समाज की युवा पीढ़ी में फैलता जा रहा है, बिना इस के परिणाम सोचे. मैं दूरदूर तक इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा था. मैं खुद को असहाय महसूस कर रहा था. इसी स्थिति में मैं औफिस पहुंचा. हालांकि मुझ से कहा गया था कि मैं जिस स्थिति में हूं वैसे ही आ जाऊं लेकिन मैं यूनीफार्म में पहुंचा. मुझे नाइट सूट में जाना अच्छा नहीं लगा, वह भी अपने सीनियर अधिकारी के समक्ष.

औफिस में आते ही मैं ने ब्रिगेडियर साहब व बीएम साहब को सैल्यूट किया और अपनी कुरसी पर आ कर बैठ गया. सुबह के 8 बज चुके थे. सभी जवान और अधिकारी काम पर आ चुके थे. अर्दली मेरे औफिस के बाहर आ कर खड़ा हो गया था.

‘‘आस्क अर्दली टू क्लोज द डोर ऐंड नौट अलाऊ ऐनीबडी टू कम इन,’’ ब्रिगेडियर साहब ने कहा.

मैं ने अर्दली को बुला कर वैसा ही करने को कहा.

‘‘मेजर रंजीत, नाऊ टैल मी व्हाट इज योर ऐक्शन प्लैन?’’ बीएम साहब ने सीधे सवाल किया.

‘‘सर, मैं ने कैप्टन सरिता के पेरैंट्स को इनफौर्म कर दिया है, जिस में केवल उस की मौत की बात लिखी है. सुसाइड के बारे में कुछ नहीं कहा है. मिलिटरी पुलिस ने बौडी उतार कर पोस्टमौर्टम के लिए भेज दी है. और मामले की जांच कराने के लिए मैं ने अपने सहायक को निर्देश दे दिया है कि वह ब्रिगेड हैडक्वार्टर को निवेदन कर दे.’’

‘‘ओके, फाइन,’’ बीएम ने कहा.

‘‘अब आगे, सर?’’ बीएम साहब ने अब ब्रिगेड कमांडर साहब से कहा.

कमांडर साहब बोले, ‘‘मेजर रंजीत, यह आप के हाथ में कैप्टन सरिता की डायरी है?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘आप ने पढ़ा इसे?’’

‘‘नहीं सर, मैं पढ़ नहीं पाया.’’

‘‘मैं मानता हूं, जो कुछ हुआ, गलत हुआ. कैप्टन सरिता जैसी होनहार अफसर इस कदर भावना में बह कर अपनी जान गंवा देगी, मैं ने इस का अंदाजा नहीं लगाया था.’’

ब्रिगेड कमांडर साहब के चेहरे से दुख साफ झलक रहा था, लगा जैसे उस की मौत में कहीं न कहीं वे स्वयं को भी दोषी मानते हों.

‘‘रंजीत, क्या कैप्टन सरिता को औन ड्यूटी शो नहीं किया जा सकता?’’

मैं ब्रिगेड कमांडर साहब को कैप्टन सरिता का हत्यारा मानता था. कैप्टन सरिता तो बच्ची थी लेकिन वे तो बच्चे नहीं थे. वे उसे समझाते तो संभवत: यह नौबत न आती. लेकिन आज वे एक अच्छा काम करने जा रहे थे. मन के भीतर अनेक प्रकार के विरोध होने पर भी, कैप्टन सरिता के परिवार वालों के लिए मैं इस का विरोध नहीं कर पाया और कहा, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो बहुत अच्छा होगा.’’

‘वैसे भी इस आत्महत्या को हत्या साबित करना बहुत कठिन था,’ मैं ने सोचा.

‘‘ओके, मेजर बतरा, मेरे औफिस में एक मीटिंग का प्रबंध करो. ओसी प्रोवोस्ट यूनिट (मिलिटरी पुलिस), कमांडैंट मिलिटरी अस्पताल और इंक्वायरी करने वाली कमेटी के चेयरमैन को बुलाओ. मेजर रंजीत तुम भी जरूर आना, प्लीज.’’

‘‘राइट सर. एट व्हाट टाइम, सर?’’

‘‘11 बजे और कोर्ट औफ इंक्वायरी के लिए जो आप लैटर लिखें उस में सुसाइड शब्द का इस्तेमाल मत करें, जस्ट यूज डैथ औफ कैप्टन सरिता.’’

‘‘सर’’ मेरे इतना कहते ही सब उठ कर चले गए. मैं ने असिस्टैंट साहब को बुलाया और कैप्टन सरिता की डैथ के संबंध में ब्रिगेड हेडक्वार्टर को लिखे जाने वाले लैटर के लिए आदेश दिए. मैं ने अर्दली को बुला कर चायबिस्कुट लाने के लिए कहा. वह ले आया तो धीरेधीरे चाय की चुसकियां लेने लगा. मेरे पास इतना समय नहीं था कि मैं बंगले पर जा कर नाश्ता करता और फिर मीटिंग पर जाता. मैं कैप्टन सरिता की डायरी को भी एकांत में पढ़ना चाहता था, इसलिए उसे औफिस के लौकर में बंद कर दिया.

11 बजने में 10 मिनट बाकी थे जब मैं ब्रिगेड हैडक्वार्टर के मीटिंग हौल में पहुंचा. सभी अधिकारी, जिन्हें बुलाया गया था,आ चुके थे, केवल बीएम साहब और कमांडर साहब का इंतजार था. मैं ने सभी अधिकारियों को सैल्यूट किया और अपने लिए निश्चित कुरसी पर जा कर बैठ गया.

ठीक 11 बजे बीएम साहब और ब्रिगेड कमांडर साहब आए. सभी ने उठ कर उन का अभिवादन किया. सभी के बैठ जाने के बाद कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘जैंटलमेन, आप सब जानते हैं, हम यहां क्यों इकट्ठे हुए हैं? मैं आप का अधिक समय न लेते हुए सीधी बात पर आ जाता हूं. कैप्टन सरिता अब हमारे बीच नहीं है. शी हैज कमीटेड सुसाइड.’’

कुछ समय रुक कर कमांडर साहब ने अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए सभी के चेहरों को गौर से देखा, ‘‘मैं मानता हूं, आत्महत्या को भारतीय सेना में अपराध माना गया है और ऐसा अपराध करने वालों के परिवार वालों को सेना और सरकार किसी प्रकार की सुविधा नहीं देती. वे सड़क पर आ जाते हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया होता. इसलिए मैं चाहता हूं, कैप्टन सरिता की डैथ को औन ड्यूटी शो किया जाए जिस से उस के परिवार वालों को सभी सुविधाएं मिलें. आप लोगों के क्या विचार हैं, इसे जानने के लिए हम यहां एकत्रित हुए हैं.’’

काफी समय तक खामोशी छाई रही फिर प्रोवोस्ट यूनिट के ओसी कर्नल राजन बोले, ‘‘सर, ऐसा हो जाए तो इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. इसलिए नहीं कि कैप्टन सरिता एक अफसर थी बल्कि पिछले दिनों हवलदार जिले सिंह के केस में भी ऐसा किया गया.’’

‘‘और कर्नल सुरेश?’’ कमांडर साहब ने ओसी एमएच से पूछा.

‘‘सर, मुझे कोई एतराज नहीं है, केवल मिलिटरी पुलिस की इनीशियल रिपोर्ट को समझदारी से बदलना होगा.’’

कर्नल सुरेश के सवाल का जवाब कर्नल राजन ने दिया, ‘‘वह सब मैं बदल दूंगा.’’

‘‘फिर, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट को मैं देख लूंगा.’’

‘‘कर्नल सुब्रामनियम, आप कोर्ट औफ इंक्वायरी की अध्यक्षता कर रहे हैं, आप को पता है, आप को क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने पूछा.

‘‘सर.’’

‘‘तो जैंटलमैन, यह तय रहा कि कैप्टन सरिता के केस में क्या करना है?’’ कमांडर साहब ने कहना शुरू किया, ‘‘कर्नल सुरेश, पोस्टमौर्टम रिपोर्ट में कारण ऐसा होना चाहिए जिसे कहीं भी चैलेंज न किया जा सके.’’

‘‘सर, ऐसा ही होगा.’’

‘‘ओके जैंटलमेन, मीटिंग अब खत्म. एक सप्ताह में सारा काम हो जाए.’’

मीटिंग समाप्त होने पर सभी अपनेअपने कार्यालय में चले गए. गाड़ी में बैठते ही मुझे कैप्टन सरिता की डायरी की याद आई. ड्राइवर ने जब इस आशय से मेरी ओर देखा कि अब कहां जाना है तो मैं ने उसे औफिस चलने के लिए कहा. औफिस पहुंच कर मैं ने डायरी निकाली और पढ़ने लगा :

‘‘मेरे सपनों के राजकुमार, सर, मैं मानती हूं, किसी कुंआरी लड़की का एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से प्यार करना सुगम नहीं है. इस का कोई औचित्य भी नहीं है परंतु मैं जिस माहौल में पल, पढ़ कर बड़ी हुई, उस में अधेड़ उम्र के व्यक्ति को पसंद किया जाता है. मेरे दादा मेरी दादी से बहुत बड़े थे, मेरी मां भी मेरे पिताजी से बहुत छोटी थीं. शायद यही कारण था, आप को जब पहली बार देखा तो आप की ओर आकर्षित हुए बिना न रह पाई. आप ने मुझे सब बताया कि आप के 2 बच्चे हैं, एक सुंदर बीवी है जिसे आप किसी भी तरह छोड़ नहीं सकते. मैं तो ‘लिव इन रिलेशन’ की बात कर रही थी जिसे आप ने मन की गहराइयों से माना और स्वीकार किया. यह रिलेशन एक लंबे समय तक चलता रहा.

‘‘सोचा था, किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी लेकिन उस रोज आप की बीवी आईं और हमें रंगे हाथों पकड़ लिया. उन्होंने मुझे इतना बुराभला कहा कि मैं बर्दाश्त नहीं कर पाई, इसलिए भी कि आप चुपचाप सुनते रहे. आप की कातर नजरों ने इस बात की घोषणा कर दी कि जिसे मैं ने ‘लिव इन रिलेशन’ का रिश्ता समझा था, वह तो उधार का रिश्ता था, जो अब टूट चुका है. सो, मैं ने सोचा कि मेरे जीने का अब कोई औचित्य नहीं है, इसीलिए मैं ने स्वयं को खत्म करने का निर्णय लिया है.’’

मैं ने डायरी बंद कर दी और इस सोच में डूब गया कि 1 सप्ताह के भीतर सबकुछ ठीक हो जाएगा. सरकार की ओर से कैप्टन सरिता के परिवार वालों को सारी सुविधाएं मिल जाएंगी यानी जब तक उस की सर्विस रहती तब तक के लिए पूरा वेतन, उस के बाद पैंशन भी. परंतु अब भी मेरे सामने अनेक सवाल मुंहबाए खड़े हैं.

क्या किसी कुंआरी लड़की अथवा किसी ब्याहता का इस तरह ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना और अपनी जान गंवाना ठीक है? मैं इस सवाल का जवाब नहीं ढूंढ़ पा रहा हूं.

Social Story: हिजड़ा – गुलशन चाचा को कैसा अक्स दिखाई पड़ता था?

Social Story, लेखक- राजेंद्र सिंह गहलौत

पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है. महिलाओं से बात करने में मैं हकलाने लगता हूं. सुंदर से सुंदर महिला को देख कर आकर्षित नहीं होता, उत्तेजित नहीं होता, एकदम से घबरा जाता हूं, लगता कि वह मुझे उपहासित कर लज्जित कर रही है.

इस घटना के पूर्व हर दूसरेतीसरे दिन पत्नी से अभिसार में मैं ही पहल किया करता था और वह समर्पण लेकिन…अब यदाकदा पहल वह करती तो मैं अभिसार के पलों में हिमशिला सा ठंडा हो जाता हूं. उस वक्त पत्नी की तरफ देखते ही वह पगली, उस की चीखें, उस का रुदन याद आ जाता. अगले ही पल पत्नी उस पगली में बदल जाती और मैं पसीनेपसीने हो उठता.

पत्नी मेरे इस ठंडेपन की शिकायत करती तो मैं कभी अपनी डायबिटीज की बीमारी तो कभी ढलती उम्र का तर्क देता. लेकिन उस रात की घटना का जिक्र करने का साहस न जुटा पाता. धीरेधीरे न जाने क्या होता जा रहा है कि अपनेआप से ही मैं डरने लगा. विशेषतौर पर आईने के सामने खड़े होने से घबराने लगा.

न जाने क्यों आईने में प्रतिबिंबित अपने चेहरे से ही नजर नहीं मिला पाता हूं. कभी लगता है कि वह मेरा उपहास कर रहा है तो कभी लगता है कि वह मुझे जलील करता हुआ फटकार रहा है. उस समय उस के चेहरे पर इतने विकृत भाव उभरते, इतनी नफरत मेरे प्रति उमड़ती दिखलाई पड़ती कि मैं आतंकित हो उठता.

ऐसा लगता कि कहीं वह घृणा से मेरे चेहरे पर थूक ही न दे. आईने से प्रतिबिंबित यह चेहरा मेरा अपना ही चेहरा तो है, समझ नहीं पाता हूं कि इस से कैसे बच पाऊंगा. शायद उस से ही बचने के लिए मैं ने आईना देखना ही बंद कर दिया कि न आईने के सामने खड़ा होऊंगा और न ही अपना प्रतिबिंब देखना पड़ेगा.

लेकिन फिर हर कहीं वह मेरा प्रतिबिंबित चेहरा उपहास करता, घृणा से मुझे जलील करता नजर आने लगा. जिस घटना का सिर्फ मैं चश्मदीद गवाह था, अनजाने में जो अपराध मुझ से हुआ था लगता है कि उसे मेरे प्रतिबिंबित चेहरे ने सब को बतला दिया है. हर शख्स से बात करते हुए मैं हकलाने लगता हूं, लगता कि वह मेरा उपहास कर रहा है. मुझ से नफरत कर रहा है. समझ नहीं पाता हूं कि मैं क्या करूं, जबकि मैं उस घटना में अपने को अपराधी भी नहीं मानता लेकिन उस घटना के बारे में किसी से जिक्र भी तो नहीं कर पाता हूं. यहां तक कि उस घटना से लगातार परेशान रहने के बावजूद खुद उस घटना को याद नहीं करना चाहता और न उस घटना से अपनी भूमिका का मूल्यांकन ही करना चाहता हूं.

बड़ी विचित्र स्थिति है, दिनभर व्यस्त रहने का प्रयास करते हुए अपनेआप से बचता रहता हूं, उस घटना की याद भुलाता रहता हूं, लेकिन रात्रि में बिस्तर पर लेटते ही मेरे अंतर्मन में ही एक अदालत लग जाती है. स्वयं मेरा ही प्रतिरूप जज की कुरसी पर बैठा नजर आता है और स्वयं मेरा ही कोई प्रतिरूप उस अदालत में ‘मुजरिम हाजिर हो’ की पुकार लगाने लगता है और स्वयं मेरा ही कोई अन्य प्रतिरूप कभी बतौर मुजरिम कठघरे में जा खड़ा होता है तो कभी मेरा ही एक और प्रतिरूप विपक्ष का वकील बन मुझ पर तीखे आरोपों की बौछार लगा देता है तो कभी स्वयं मेरा ही एक और प्रतिरूप मेरे पक्ष का वकील बन सफाई की दलीलें देता नजर आता है.

बड़ी विचित्र स्थिति है कि स्वयं मेरा अस्तित्व इस सब को देखता हुआ व्यथित होता, परेशान होता नजर आता है. कई बार पूरीपूरी रात यह सब देखतेभुगतते हुए ही गुजर जाती लेकिन मुकदमे का कोई फैसला न होता, न मैं बाइज्जत बरी ही हो पाता और न ही मुझे कोई सजा ही सुनाई जाती लेकिन फिर भी मैं अपनेआप को दंडित होता हुआ पाता.

कब तक आत्मव्यथित होता, आखिर एक दिन साहस कर के आईने में प्रतिबिंबित अपने चेहरे से जा भिड़ा. हाथों को कुशल वक्ता की तरह लहरालहरा कर, चीखचीख कर दलीलें देने लगा कि हर पढ़ालिखा, शरीफ, सभ्य आदमी दुनिया के हर झगड़ेझंझट से अपनेआप को दूर रखना चाहता है, फिर यदि मैं ने भी ऐसा किया तो क्या गुनाह किया? फिर थोड़ा स्वर को मुलायम करते हुए उसे समझाने का प्रयास किया कि अरे भाई, अपने आसपास तो रोज ही कई वारदातें होती रहती हैं.

कई दुर्घटनाएं घटती रहती हैं तो क्या कोई शरीफ, सभ्य आदमी वारदातों का प्रतिरोध करता हुआ अपनेआप को मुसीबत में डालता है. दुर्घटनाओं में मदद के लिए आगे बढ़ता हुआ अपना टाइम व्यर्थ करता है? नहीं न, तो फिर मैं ने भी तो यही किया है. इन सब से निबटने के लिए तो हैं न पुलिस वाले, एंबुलैंस, हौस्पिटल वाले.

अरे भाई साहब, फिल्म, उपन्यास, किस्साकहानी और यथार्थ के जीवन में फर्क होता है. किसी भी अनजान व्यक्ति को किसी दुर्घटना, किसी के अत्याचार से बचाते हुए खुद मुसीबत मोल लेने की ‘हीरोगीरी’ कोई भी शरीफ, सभ्य आदमी नहीं करता, समझे न, एकाएक नजर दर्पण में प्रतिबिंबित अपने प्रतिरूप पर पड़ी तो मैं चौंक पड़ा, सिहर उठा, अत्यधिक भयभीत हो उठा.

आईने में मेरा प्रतिबिंब कुछ दिनों पूर्व अपनी दुकान में मेरे द्वारा समझाइश देने पर हाथमुंह मटकामटका कर अपनी शारीरिक विकलांगता (नपुंसकता) की दलील देने वाले उस हिजड़े की शक्ल में बदलता जा रहा था, मेरी हर हरकत प्रतिबिंबित हो कर उस हिजड़े की हरकतों की तरह होती जा रही थी.

यह मेरा विचित्र प्रतिबिंब उस हिजड़े की तरह ही हाथमुंह हिलाहिला कर दलील दे रहा था. फिर मैं अपनी सफाई में कुछ भी तो न कह सका, कुछ भी न सोच सका. बस, अपनी नजरों में अपनेआप के गिरने की एक विचित्र सन्नाटे की ध्वनिविहीन गूंज जाने कहां से कैसे मुझे सुनाई पड़ने लगी. अब, न जाने कब मैं इस ध्वनिविहीन गूंज के भयंकर शोर के आर्तनाद से उबर सकूंगा?

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