पेट्रोल-डीजल: प्रधानमंत्री का सांप सीढ़ी का खेल

देश के जनता ने देखा कि किस तरह केंद्र सरकार ने औचक पेट्रोल डीजल मूल्य में कमी करके अपनी पीठ थपथपाई. दरअसल,यह खेल उपचुनाव के परिणामों के पश्चात नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरकार खेलने पर विवश हो गई, उपचुनाव के परिणामों ने केंद्र सरकार को भीतर तक हिला दिया है. इसलिए अचानक केंद्र सरकार ने पेट्रोल डीजल के मूल्य कम कर दिए. और यह संदेश दिया कि यह देशवासियों के लिए दीपावली का तोहफा है. यह भी ध्यान रखना होगा कि आगामी कुछ महीनों में देश के राजनीतिक केंद्र उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. ऐसे में लगातार आंख बंद करके नित्य प्रतिदिन पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ाते जाना… बढ़ाते जाना और किसी की नहीं सुनना अखिर क्या इंगित करता है.

अब जब चुनाव परिणाम विपरीत आए हैं तो श्रीमान प्रधानमंत्री जी की आंख खुल गई है. और मजे की बात देखिए देश के प्रधानमंत्री के कैबिनेट के गृह मंत्री अमित शाह ने इस पर कहा कि यह हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की बहुत बड़ी संवेदनशीलता है. अगर आम जनता पेट्रोल डीजल के कम हुए दामों का स्वागत करती तो यह रेखांकित करने वाली बात होती. मगर आजकल देश की राजनीति में यह नया चलन शुरू हुआ है कि अपने ही मंत्रिमंडल के सदस्य प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाते हैं और अपनी ही सरकार के गुण गाते हैं.

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वस्तुत: यह एक ऐसा खेल है जिसे सिर्फ “तमाशा” कहा जा सकता है. क्योंकि आप की नीतियां अच्छी हैं जनहितकारी हैं तो विपक्ष को सामने आकर के प्रशंसा करनी चाहिए. विपक्ष नहीं तो कम से कम आम जनता तो यह कहें केंद्र सरकार का यह कदम स्वागतेय है, जनहितकारी है. मगर लगातार पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ाते चले जाना, बढ़ाते चले जाना, लोगों की त्रासदी के बीच आंख बंद करके अपने मंत्रालय में हंसते मुस्कुराते बैठे रहना और कोई टिप्पणी नहीं करना यह सब क्या है, यह कैसी संवेदनशीलता है.

दरअसल,पेट्रोल डीजल महंगा होना इसका सीधा सा अर्थ है पूरे देश में महंगाई को थोप देना. यह सभी जानते हैं कि जिस तरह कोरोना महामारी के बाद पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ते चले गए और यह बात परत दर परत सामने आई कि कोरोना संक्रमण के कारण हो रहे भारी अर्थव्यवस्था के नुकसान की भरपाई के लिए केंद्र सरकार ने पेट्रोल डीजल पर मूल्य वृद्धि का खेल शुरू करके घाटे की अंश को ठीक करने की व्यवस्था कर ली है, तो यह तो ऐसा हो गया कि एक हाथ से दो और दूसरे हाथ से ले लो.

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की यही चतुराई है जो कभी भी देश के हित की, जनता के हित की नहीं कही जा सकती. क्योंकि सरकार कोई व्यापारी नहीं है सरकार कोई सौदागर नहीं है. जो देश की जनता के साथ धंधे बाजी पर उतर आए और दोनों हाथों से उससे लेती ही चली जाए और जब थोड़ा बहुत दे दे इतना ढिंढोरा पीटा जाए की लोगों को लगे कि यह सरकार तो संवेदनशील है जनहितकारी है पूछिए ही मत.

खूब मारो और फिर- हंसाओ

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार की यह नीति है कि पहले देश की जनता को खूब त्रस्त कर दो, हलाकान परेशान कर दो, आहिस्ते से पीठ थपथपा दो. पेट्रोल डीजल में मूल्य कम करने के बाद कहा जाता है कि दिवाली से एक दिन पहले सरकार ने पेट्रोल पर 5 रुपए और डीजल पर 10 रुपए एक्साइज ड्यूटी कम कर के देश की जनता को बहुत बड़ा तोहफा दिया है. यही नहीं, यह भी कहा जा रहा है कि इससे देश को वित्त वर्ष में करीब 43 हजार करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान होगा. सवाल यह है कि जब पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ते चले जा रहे थे लोग विरोध प्रकट कर रहे थे तो सरकार कानों में उंगलियां डालकर के क्यों चुप बैठी थी. अब देश में हुए उपचुनाव के बाद और सामने उत्तर प्रदेश चुनाव को देखते हुए यह दयानतदारी क्यों?

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लाख टके का सवाल यह है कि क्या दिवाली से पूर्व पेट्रोल डीजल में रेट कम करने के बाद आगे रेट में वृद्धि नहीं होगी इसकी क्या गारंटी है.

दरअसल, देश में विपक्ष अपनी बात को जिस शिद्दत के साथ कहने के लिए जाना जाता था आजकल उस में भारी कमी दिखाई दे रही है. एकमात्र लालू यादव ने बड़े ही तीखे अंदाज में मोदी सरकार के पेट्रोल डीजल दाम की कमी पर तंज कसा है और कड़े शब्दों में कहा है कि यह सब शरारत है.

अच्छा होता अगर देश का विपक्ष विशेष तौर पर कांग्रेस पार्टी सामने आकर यह कहती कि अगर हम केंद्र में अपनी सरकार बनाएंगे तो आते ही सारा टैक्स और वैट खत्म कर दिया जाएगा और पेट्रोल डीजल को जीएसटी के दायरे में लाएंगे. इससे मोदी सरकार कटघरे में खड़ी हो जाती. मगर कांग्रेस पार्टी पता नहीं क्यों मौन है.

प्रशांत किशोर: राजनीतिक दिवालियापन का स्याह पक्ष

प्रशांत किशोर यानी पीके कुछ सालों से चर्चा में है. पीके को राजनीति के कुशल रणनीतिकार के रूप में ख्याति मिली हुई है.2014 में भाजपा को जीतने का श्रेय भी दिया गया है. उसके बाद कुछ एक चुनाव में जीत दर्ज करवाने के बाद यह माना जाता है कि प्रशांत किशोर एक ऐसा रणनीति कार है जो अपना खासा  महत्व रखता है.

मगर सार तथ्य यह है कि भारतीय राजनीति में आई गिरावट का पूरा लाभ उसने उठाया है और यह प्रचारित किया  गया कि प्रशांत किशोर तो एक कुशल रणनीतिकार है! जो किसी को भी “सत्ता के शीर्ष” पर पहुंचाने का माद्दा रखता है.

मगर ऐसा नहीं है क्या है, प्रशांत किशोर का सच क्या है, प्रशांत किशोर की भूमिका क्या है, और क्या है प्रशांत की ताकत, हम इस रिपोर्ट में यह सब बताने जा रहे हैं.

इस रिपोर्ट में दरअसल, हम आपको यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है. प्रशांत किशोर एक ऐसा शख्स है जो सिर्फ वक्त का फायदा उठाता रहा है. और इस देश को चलाने वाले रणनीतिकारों, राजनीतिज्ञों सत्ताधीशों के गर्भ गृह में घुसकर अपनी चला लेता है.

इसका सिर्फ एक कारण है राजनेता सत्ता के मोह में ऐसे लाचार और असहाय हो गए हैं कि उन्हें कुछ सुझाई नहीं देता, कुछ दिखाई नहीं देता. ऐसे में अंधेरे में एक दिया उन्हें प्रशांत किशोर  में दिखाई देता है नेताओं को राजनीतिक पार्टियों को यह प्रतीत होता है कि प्रशांत किशोर उनकी डूबती नैया को पार लगवा सकता है.

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प्रशांत किशोर के संपूर्ण कार्यकाल को खुली आंखों से देखें तो आप पाएंगे की यह पी के सिर्फ समय का सिकंदर है. इसने समय को साधा और आगे निकल गया.

क्या आपके पास इस प्रश्न का जवाब है कि 2014 में अगर प्रशांत किशोर ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता दिलाई, जिसमें नरेंद्र दामोदरदास मोदी प्रधानमंत्री बने तो क्या यह संभव है, सच है?

अगर प्रशांत किशोर भाजपा के साथ नहीं होते तो क्या नरेंद्र दामोदरदास मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते? इसका सीधा सा जवाब यह है कि प्रशांत किशोर अगर नहीं भी होते तो भी भारतीय जनता पार्टी  बहुमत के साथ देश की सत्ता पर काबिज होने जा रही थी.

इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रशांत किशोर  शतरंज का एक ऐसा मोहरा है जिसे देश की राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से चलाने का प्रयास करती है और वह अपने प्रारब्ध से किसी ऐसे दल से जुड़ जाता हैं जो सत्ता में आ जाती है और हवा यह बहने लगती है कि यह प्रशांत किशोर की रणनीति है कुशल रणनीति है जबकि असल में ऐसा कुछ भी नहीं है.

पी के की समझ और भूमिका

सीधी सी बात है कि अगर कोई शख्स सचमुच रणनीतिकार होता है तो ढोल पीटकर अपनी रणनीति बताता.

अगर आप खुद पर्दे के सामने है और कहा जा रहा है कि कुशल रणनीतिकार हैं तो यह एक साफ-साफ धोखा है, झूठ है. क्योंकि रणनीति कार पर्दे के पीछे ही काम करते हैं क्योंकि अगर आपकी बात सार्वजनिक हो गई तो फिर उसका सफल हो पाना संभव नहीं है. सीधी सी बात है कि अगर आप कोई खेल करने जा रहे हैं और वह सार्वजनिक हो जाता है तो सामने बैठे हुए राजनीतिक दल और उसकी घुर नेता, चूड़ियां पहन कर नहीं बैठें हैं.

सभी जानते हैं किप्रशांत किशोर 2014 के चुनाव में बीजेपी के साथ थे . बाद में उन्होंने बीजेपी को छोड़कर नीतीश कुमार का साथ पकड़ लिया . इसी साल 2021 हुए पश्चिम बंगाल के चुनाव में प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी के लिए पर्दे के पीछे से काम किया.

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जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है और यह समझने वाली बात है कि जो राजनीतिक पार्टी और नेता जीत रहा होता है उसके साथ प्रशांत किशोर का नाम जुड़ जाता है और बाद में श्रेय बटोर लेते हैं. यह है कि इतने बड़े देश में कोई कभी सदैव सत्ता का भोग नहीं कर सकता. राजनीतिक पार्टियां तो बदलते रहेंगी और यह मानना कि किसी हारने वाले राजनेता और उसकी पार्टी को अपनी सूझबूझ से प्रशांत किशोर सत्ता से आसन पर बैठा देंगे एकदम असंभव है कोरी कल्पना है. अगर ऐसा कोई जादू का डंडा प्रशांत किशोर के पास होता तो राजनीतिक दल उसे अपने पास रखते वह इधर उधर राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर में नेताओं के ईर्द-गिर्द चक्कर नहीं लगा रहा होता.

यह भी परम सत्य है की प्रशांत किशोर या किसी ने ऐसा गुण हो वह सत्ता दिलाने की रणनीति बना ले तो फिर देश के एक बड़े नेता प्रशांत किशोर को अपने यहां कैद कर के ना रख लें, की  हे प्रशांत किशोर अब तुम कहीं नहीं जा सकते!!

आप यह समझ लीजिए कि अगर प्रशांत किशोर दर-दर भटक रहा है तो वह कोई कुशल रणनीति कार कतई नहीं है.

देश का उच्चतम न्यायालय और नरेंद्र दामोदरदास मोदी

नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार की परतें प्याज के छिलके की तरह उच्चतम न्यायालय में उघरने लगी हैं. पेगासस जासूसी मामले में देश की उच्चतम न्यायालय में जो कुछ हुआ उसे देखकर कहा जा सकता है कि जो तथ्य सामने आ रहे यह एक उदाहरण है जो बताता है कि “नोटबंदी” से लेकर “काले धन” और सारी नीतियों पर मोदी सरकार का “सच” क्या है.

सुप्रीम कोर्ट का अहम आदेश आया है. इसमें कहा गया है कि पेगासस जासूसी मामले की जांच एक्सपर्ट कमेटी करेगी. इसे 8 हफ्ते में रिपोर्ट देनी है.  कोर्ट में दायर याचिकाओं में स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी. उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा, जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने इसपर फैसला सुनाया. कोर्ट ने कहा कि लोगों की “विवेकहीन जासूसी” बिल्कुल मंजूर नहीं है.

जैसा कि सभी जानते हैं पेगासस मामले में मोदी सरकार जांच कतई नहीं चाहती और विपक्ष खासतौर पर राहुल गांधी और देश की बौद्धिक वर्ग के महत्वपूर्ण लोग चाहते हैं कि दूध का दूध और पानी का पानी होना ही चाहिए.

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यही कारण है कि राहुल गांधी मोदी सरकार पर लगातार हमला कर रहे हैं और पेगासस पर जांच चाहते हैं सारे तथ्य सार्वजनिक होना चाहिए  वहीं दूसरी तरफ मोदी सरकार चाहती है कि “राष्ट्रीय सुरक्षा” की आड़ पर पेगासस मामला बंद कर दिया जाए. यही रस्साकशी विगत कई माह से देश में चल रही है. जिसका पटाक्षेप उच्चतम न्यायालय ने यह कर कर दिया है कि हर मामले को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ कर आप अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते और इस पर कोई हम समझौता नहीं करना चाहते.

अब सुप्रीम कोर्ट ने रिटायर्ड जस्टिस आरवी रवींद्रन की अगुवाई में कमेटी का गठन किया गया है. जस्टिस रवींद्रन के साथ आलोक जोशी और संदीप ओबेरॉय इस कमेटी का हिस्सा होंगे. एक्सपर्ट कमेटी में साइबर सुरक्षा, फारेंसिक एक्सपर्ट, आईटी और तकनीकी विशेषज्ञों से जुड़े लोग होंगे. आशा की जानी चाहिए कि सारे तथ्य सामने आ जाएंगे की अखिल इस जासूसी का मकसद क्या था इसमें कितना राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा जुड़ी हुई थी और कितनी सत्ता में बैठे लोगों के लिए मलाई या लाभदायक थी.

उच्चतम न्यायालय में- “पहला फांस”

संभवत लगभग 7 सालों में यह पहली बार हुआ है कि जब देश के सुप्रीम कोर्ट में नरेंद्र मोदी सरकार का पसीना निकल आया है. क्योंकि सरकार चाहती थी कि पेगासस मामले में जांच ना हो और मामला खत्म कर दिया जाए. मगर उच्चतम न्यायालय ने इसे जिस गंभीरता से लिया है उससे मोदी सरकार को दिक्कत हो सकती है.

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यहां यह भी सच सामने आ गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार कई मामलों में “राष्ट्रीय सुरक्षा” का ट्रंप कार्ड खेल करके संवेदनशील मामलों पर पर्दा डालने का काम करती रही है. जब भी कोई पेंच फंसता है तो मोदी और उनके नुमाइंदों को पाकिस्तान, चीन भारत का विश्व गुरु होना याद आने लगता है या फिर राम मंदिर की शरण.

शायद नरेंद्र मोदी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा कह कर के  सब कुछ  मुट्ठी में रहना चाहती है और वह जैसा चाहेगी वही होगा. यह कि देश की बाकी संवैधानिक संस्थाएं  उसके खींसे में हो.

यही कारण है कि देश में लोकतांत्रिक सरकार एक 5 साल के लिए चुनी हुई सरकार की अपेक्षा मोदी सरकार का व्यवहार कुछ ऐसा है जैसे मानो आजीवन सरकार चुनी गई है. और देश का हर अंतिम फैसला वह करना चाहते हैं मगर भूल जाते हैं कि इन्हें सिर्फ 5 वर्ष का कार्यकाल और देश चलाने का जिम्मा देश की जनता ने सौंपा है. देश की जनता के दुख दर्द और विकास के लिए काम करना है ना कि व्यक्तिगत अथवा पार्टी हित ही देखना है.

पेगासस जांच एक गंभीर मसला

जैसा कि देश का कानून है कि आप किसी की जासूसी नहीं कर सकते फोन टैपिंग नहीं की जा सकती. मगर ऐसा हुआ है यह सच सारी दुनिया जान चुकी है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 13 सितंबर को मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा था कि वह केवल यह जानना चाहती है कि क्या केंद्र ने नागरिकों की कथित जासूसी के लिए अवैध तरीके से पेगासस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया या नहीं?

कोर्ट ने कहा कि जासूसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रहरी के रूप में प्रेस की भूमिका पर गलत प्रभाव डाल सकती है. कहा गया कि एजेंसियों द्वारा एकत्र की गई जानकारी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बेहद जरूरी होती हैं. लेकिन निजता के अधिकार में तभी हस्तक्षेप हो सकता है जब राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी हो.

पेगासस केस की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर केंद्र सरकार का कहना था कि यह सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं है और न ही यह ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के हित’ में है.

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कुल मिलाकर पेगासस जासूसी मामले में निष्पक्ष जांच के लिए 15 याचिकाएं दायर की गई थीं. ये याचिकाएं वरिष्ठ पत्रकार एन राम, सांसद जॉन ब्रिटास और यशवंत सिन्हा समेत कई लोगों ने दायर की थीं.

दुनिया के मीडिया समूह ने खबर दी थी कि करीब 300 प्रमाणित भारतीय फोन नंबर हैं, जो पेगासस सॉफ्टवेयर के जरिये जासूसी के संभावित “निशाना” थे. आने वाले समय में नरेंद्र मोदी सरकार की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं और सच सामने आ सकता है.

लखीमपुर खीरी कांड: कड़वाहट से भर गया ‘चीनी का कटोरा’

लखीमपुर खीरी सब से ज्यादा गन्ने की पैदावार करता है. इस वजह से ही इसे ‘चीनी का कटोरा’ कहा जाता है. कृषि कानूनों के खिलाफ यहां के किसानों ने जब आवाज बुलंद की, तो उन्हें ‘खालिस्तानी’ कहा जाने लगा.

तराई के इस इलाके ने ही भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में 32 सीटें और लोकसभा चुनाव में 3 सीटें जितवाई थीं. अब भाजपा सिखों को ‘खालिस्तानी’ कह कर दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

केंद्र सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन को कुचलने के लिए हर तरह के छल और बल का प्रयोग केंद्र की भाजपा सरकार और उस की ‘ट्रोल आर्मी’ ने किया. आंदोलन में हिंसा भड़क जाए, इस का इंतजाम भी अराजक लोगों ने किया.

26 जनवरी, 2021 को लालकिले पर इस की बानगी मिल चुकी थी. इस वजह से उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसान नेता चौधरी राकेश टिकैत को दो कदम पीछे खींचने पड़े.

किसी भी आंदोलन को लंबा चलाने के लिए कई बार ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं. आंदोलन में हिंसा का सहारा ले कर सत्ता पक्ष पूरे किसान आंदोलन को खत्म कर सकता था. ऐसे में राकेश टिकैत ने दो कदम पीछे खींच कर गेंद उत्तर प्रदेश सरकार के पाले में डाल दी है.

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भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के लखनऊ जिला महामंत्री दिलराज सिंह कहते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश सरकार ने अगर सही से इंसाफ नहीं किया, तो यही मुद्दा चुनाव में उस की हार का जिम्मेदार होगा. हम ने सरकार के आश्वासन पर किसानों को इंसाफ दिलाने के लिए बात की है. हमारे लोग लगातार किसानों के संपर्क में हैं. अगर सरकार ने कोई वादाखिलाफी की और सही इंसाफ नहीं किया, तो हम चुप नहीं बैठेंगे.’’

बक्शी का तालाब, लखनऊ के रहने वाले सरदार गुरुमीत सिंह कहते हैं, ‘‘हम किसान जब उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में आए थे, तब वहां जंगल था. रातदिन जंगली जानवरों का खतरा रहता था. जिन जंगलों में लोग जाने से डरते थे, हम ने वहां खेती शुरू की और अपनी मेहनत से जंगली जमीन को उपजाऊ बनाया. हमारी मेहनत ने उस जंगली जमीन को ‘चीनी के कटोरे’ में बदल दिया.

‘‘हमारे लिए खेती ही सबकुछ है, इसलिए खेती को बचाने के लिए हम सालभर से सड़कों पर हैं. सरकार के हर जुल्म और इलजाम को सिरआंखों पर रखते हुए शांतिपूर्वक अपनी बात कह रहे हैं. हमें केंद्र के ये काले कानून स्वीकार नहीं हैं.’’

कैसे भरी कड़वाहट

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सीमा पर बसी तराई बैल्ट में पंजाब से आए किसानों ने खेती की तसवीर बदल दी. इस का असर उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों में भी देखा जा सकता है.

पंजाब से आए किसानों ने ‘ऊसर’ और ‘बंजर’ जमीन को खेती के लायक बना कर अपने फार्महाउस बनाए.

पंजाब से आए इन किसानों की तादाद केवल 4 फीसदी ही है. इस के बाद भी उन्होंने अपनी मेहनत से खेतीकिसानी को पूरी तरह से बदल दिया है. पूरे देश के किसान साल में धान की केवल एक फसल ही ले पाते हैं. पंजाब से आए ये किसान अपने खेतों में धान की 2 फसलें लेते हैं.

नेपाल सीमा से लगा उत्तर प्रदेश का जिला लखीमपुर खीरी 7,680 स्क्वायर किलोमीटर इलाके में फैला है. लखीमपुर और खीरी 2 नगरों पर इस का नाम रखा गया है. नेपाल सीमा के साथसाथ यह पीलीभीत, बहराइच, सीतापुर, शाहजहांपुर और हरदोई जिलों से सटा हुआ है.

लखीमपुर की खुशहाली का असर इन जिलों में भी देखा जा सकता है. यहां भी पंजाब से आए किसानों ने अपनेअपने फार्म बना कर खेती की दशा को सुधार दिया है.

खीरी ‘खर’ नाम के जंगली पेड़ों से घिरा था. इस वजह से ही इस इलाके का नाम खीरी पड़ा. यहां का कुछ हिस्सा दलदली जमीन वाला है. किसानों ने इस दलदली जमीन को खेती के लायक बनाया.

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अनदेखी का शिकार

लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, बहराइच, सीतापुर, शाहजहांपुर और हरदोई में किसान जागरूक हैं. इस वजह से यहां के किसान केंद्र सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार आंदोलन कर रहे हैं.

यहां के किसानों ने पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सब से ज्यादा सीटों से चुनाव जितवाया था. साल 2017 के विधानसभा चुनावों में इस इलाके की 36 विधानसभा सीटों में से 32 सीटों पर भाजपा का कब्जा हुआ था. साल 2019 में 3 लोकसभा सीटें खीरी, धौरहरा और सीतापुर भाजपा के खाते में गई थीं.

यहां का 4 फीसदी सिख तबका भाजपा के पक्ष में था. वह भले ही तादाद में कम हो, पर उस का असर ज्यादा है. ऐसे में तराई के इस इलाके में सिख वोट जीत में बहुत माने रखते हैं. किसान आंदोलन में हिस्सा लेने के चलते सिख तबका भाजपा के लिए विलेन हो गया. उस पर ‘खालिस्तान’ समर्थक होने के आरोप लगे.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि यहां के लोगों की नजरों में सिखों की खुशहाली खटकती है. वे उन पर दबंगई करने के बहाने तलाश करते रहते हैं. किसान आंदोलन के दौरान यह मौका उन्हें मिल गया और वे यहां के किसानों को निशाने पर लेने लगे.

10 महीने से यहां के किसान ऐसी हालत में पिस रहे हैं. दिल्ली से खीरी तक हर घटना में सिख किसानों को बदनाम करने का काम किया गया. आखिरकार 3 अक्तूबर, 2021 की काली घटना भी घट गई, जिस में 4 किसानों की गाड़ी से कुचल कर हत्या कर दी गई.

मंत्री की धमकी से भड़की आग

लखीमपुर में हुए किसानों के हत्याकांड की बुनियाद पहले पड़ चुकी थी. 25 सितंबर, 2021 को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ को गदनिया और महंगापुर में आंदोलन कर रहे किसानों ने काले ?ांडे दिखाए थे.

महंगापुर के रहने वाले किसान अमनीत सिंह और उस के 2 साथियों के खिलाफ मुकदमा कायम करा दिया गया.

इसी मामले में दूसरा मुकदमा गदनिया में महेंद्र सिंह समेत 40-45 अज्ञात लोगों के खिलाफ कायम हुआ था.

अमनीत सिंह पर यह आरोप था कि उस ने काले ?ांडे दिखाने का वीडियो वायरल किया. पुलिस ने इन लोगों पर इस बात का मुकदमा भी दर्ज किया कि ?ांडा दिखाने वालों ने ‘कोविड 19’ के प्रोटोकाल को भी नहीं माना था.

अजय मिश्रा ‘टेनी’ के खिलाफ किसानों का गुस्सा यहीं से पनपने लगा था. वहीं पर किसानों ने यह रणनीति बनाई कि अब उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को भी काले ?ांडे दिखाए जाएंगे.

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ दबंग सांसद माने जाते हैं. लखीमपुर के तिनकुनिया इलाके में

साल 2000 में प्रभात गुप्ता की हत्या के मामले में उन का नाम सामने आया था. लखीमपुर की सत्र अदालत ने सुबूत की कमी में साल 2004 में उन्हें बरी कर दिया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच में यह मामला 17 साल से लंबित है.

अजय मिश्रा ‘टेनी’ को किसानों का इस तरह से ?ांडा दिखाना अच्छा नहीं लगा था. ?ांडा दिखाने के बाद जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने इस घटना का जिक्र करते हुए मंच से किसानों को धमकी दी थी.

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इस का वीडियो वायरल हो गया. इस में मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ ने कहा था, ‘‘किसानों के अगुआ यानी संयुक्त किसान मोरचा के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सामना नहीं कर पा रहे हैं. आंदोलन को 10 महीने हो गए हैं.’’

काले ?ांडे दिखाने वालों के लिए आगे अजय मिश्रा ‘टेनी’ ने कहा, ‘‘अगर हम गाड़ी से उतर जाते, तो उन्हें भागने का रास्ता नहीं मिलता. कृषि कानून को ले कर केवल 10-15 लोग शोर मचा रहे हैं. यदि कानून इतना गलत है, तो अब तक पूरे देश में आंदोलन फैल जाना चाहिए था.’’

अजय मिश्रा ‘टेनी’ ने धमकी भरे लहजे में कहा, ‘‘सुधर जाओ, नहीं तो सामना करो, वरना हम सुधार देंगे.

2 मिनट लगेंगे. विधायकसांसद बनने से पहले से लोग मेरे विषय में जानते होंगे कि मैं चुनौती से भागता नहीं हूं. मैं अपनी पर उतर आया, तो लखीमपुर ही नहीं, बल्कि पलिया तक जगह नहीं मिलेगी.’’

केंद्र सरकार में मंत्री बनने के बाद अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बरताव में ही नहीं उन के पूरे खेमे के बरताव में बदलाव आ गया, जिस की वजह से जनप्रतिनिधि होने के बाद भी वे अपने इलाके की जनता से अच्छा बरताव नहीं कर सके.

वैसे, अजय मिश्रा ‘टेनी’ ऐसे आरोपों को गलत बताते हैं. वे अपने ‘धमकी’ वाले वीडियों को भी पुराना बताते हैं.

दिखाने थे काले झंडे

3 अक्तूबर, 2021 को उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का लखीमपुर खीरी में सरकारी कार्यक्रम था. इसी दिन केंद्रीय गृह राज्यमंत्री और खीरी के सांसद अजय मिश्रा ‘टेनी’ के गांव में ‘दंगल’ का कार्यक्रम भी था.

केशव प्रसाद मौर्य को यहां भी मुख्य अतिथि के रूप में जाना था. किसानों ने सब से पहले इंटर कालेज के मैदान पर बने हैलीपैड पर अपने ट्रैक्टर खड़े कर दिए, जिस से वहां हैलीकौप्टर न उतर सके.

इस बात की सूचना लखनऊ में केशव प्रसाद मौर्य को मिली, तो उन्होंने कार्यक्रम में फेरबदल किया और सड़क मार्ग से लखीमपुर पहुंच कर शिलान्यास व लोकार्पण कार्यक्रम में हिस्सा लिया. इस के बाद उन्हें अजय मिश्रा के गांव बनवीरपुर जाना था.

उपमुख्यमंत्री को लेने के लिए अजय मिश्रा ‘टेनी’ के समर्थक 4 गाडि़यों में गांव से निकले. बताया जाता है कि एक गाड़ी में मंत्री के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ भी थे. किसानों का जब इस बात की खबर लगी, तो वे हजारों की संख्या में निघासन तहसील के तिकुनिया कसबे में जमा हो गए.

मंत्री समर्थकों का काफिला  3 अक्तूबर, 2021 की दोपहर को तकरीबन साढ़े 3 बजे जब गुरुनानक तिराहे पर पहुंचा, तो वहां भीड़ ने उसे रोक लिया. पुलिस के कुछ सिपाही काफिला निकालने की कोशिश कर रहे थे. किसान लाठीडंडों से गाडि़यों को रोक रहे थे. जब गाडि़यां नहीं रुकीं तो पथराव कर दिया. इस के बाद जाम खुल गया और किसान आगे बढ़ने लगे.

रौंदे गए किसान

इस बात की जानकारी जब मंत्री खेमे के लोगों को लगी, तो उन के अंदर भी गुस्सा भर गया. किसानों की भीड़ सड़क पर चल रही थी. इतने में सड़क पर तेजी से 3-4 गाडि़यां निकलीं. इन में सब से आगे काले रंग की ‘थार’ तेज रफ्तार से किसानों को रौंदती हुई आगे निकल गई.

इस घटना का पूरा वीडियो है, जिस में यह साफतौर पर दिख रहा है कि जानबू?ा कर किसानों पर गाड़ी चढ़ाई गई है. इस में 4 किसानों की मौत हो गई.

इन किसानों में चौखड़ा फार्म म?ागई पलियाकलां के 18 साल के लवप्रीत सिंह, धौरहरा के रहने वाले 55 साल के नक्षत्र सिंह, नानपारा बहराइच के

40 साल के गुरुविंदर सिंह और बंजारन टांडा नानपारा बहराइच के 36 साल के दलजीत सिंह शामिल थे. तमाम दूसरे किसान भी गंभीर रूप से घायल हो गए.

इस बात की सूचना मिलते ही वहां पर तोड़फोड़ और मारपीट शुरू हो गई. इस के बाद भीड़ ने निघासन के रहने वाले 30 साल के पत्रकार रमन कश्यप, लखीमपुर के रहने वाले 27 साल के शुभम मिश्रा, फरधान के रहने वाले 26 साल के हरिओम मिश्रा और सिंगाही कला के रहने वाले 30 साल के श्याम सुंदर निषाद की हत्या कर दी. ये मारे गए लोग अजय मिश्रा के ड्राइवर और समर्थक थे.

इस घटना के बाद पूरे देश में इस का विरोध शुरू हो गया. विपक्षी नेताओं ने लखीमपुर पहुंच कर किसानों की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया.

उत्तर प्रदेश सरकार पूरे मामले को कंट्रोल करने में लग गई. लखीमपुर में इंटरनैट की सेवाएं बंद कर दी गईं. केंद्र और प्रदेश की पुलिस यहां लग गईं. लखीमपुर से लगी हर जिले की सीमाएं सील कर दी गईं. नेताओं को लखीमपुर जाने से रोक दिया गया.

भारतीय किसान यूनियन के नेता और किसान आंदोलन के अगुआ राकेश टिकैत को यह लगा कि उत्तर प्रदेश सरकार आंदोलन में हिंसा का बहाना बना कर आंदोलन को कुचल सकती है. ऐसे में उन्होंने किसानों के लिए इंसाफ की मांग करते हुए पूरे मामले की जांच और किसानों की मदद की मांग की.

उत्तर प्रदेश सरकार ने मरने वालों के परिवार को 45 लाख रुपए नकद और एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वादा किया. पूरा मामला अब जांच एजेंसियों, पुलिस और सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है.

अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ सहित अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा अपराध संख्या 219/2021 धारा 147, 148, 149, 279, 338, 304 ए, 302, 120 बी आईपीसी के तहत थाना तिकुनिया, जिला खीरी में दर्ज कर लिया.

विपक्षी नेताओं का दबाव

भाजपा और उस के पक्ष में काम करने वाली ‘ट्रोल आर्मी’ ने लखीमपुर हादसे के पीछे सब से पहले ‘खालिस्तान’ का नाम लिया, पर बात नहीं बनी. भाजपा को यह पता था कि किसानों को कार के नीचे रौंदने की घटना का चुनावी नुकसान केवल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ही नहीं होगा, बल्कि पंजाब विधानसभा चुनाव में भी इस का नतीजा भुगतना पड़ेगा.

यहां भाजपा की केंद्र और प्रदेश सरकार अलगअलग तरह से काम कर रही थी. प्रदेश सरकार ने मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया था, जिस से किसानों के गुस्से को शांत किया जा सके.

अजय मिश्रा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मुलाकात के बाद अजय मिश्रा ‘टेनी’ पर कार्यवाही करने को दरकिनार किया गया. सूत्र बताते हैं कि केंद्रीय हाईकमान ने अजय मिश्रा को ले कर उत्तर प्रदेश सरकार से नरमी बरतने को कहा. इस के बाद अजय मिश्रा उत्तर प्रदेश सरकार की बैठक में शामिल हुए.

विपक्षी नेता प्रियंका गांधी को

57 घंटे उत्तर प्रदेश सरकार ने सीतापुर में पीएसी के गैस्ट हाउस को अस्थायी जेल बना कर बंद कर रखा था. राहुल गांधी के आने के बाद उन्हें छोड़ा गया. इस के बाद वे दोनों मरने वाले किसानों के परिवारों से मिले और उन्हें मदद का भरोसा दिलाया.

कांग्रेस के पंजाब से मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह ‘चन्नी’ और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी लखीमपुर गए और मरने वालों को 50-50 लाख रुपए नकद का मुआवजा देने की घोषणा की.

कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, बसपा नेता सतीश मिश्रा और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह सहित बहुत सारे नेताओं ने लखीमपुर का दौरा किया.

लखीमपुर में किसानों के साथ जो हादसा हुआ है, वह भले ही ऊपर से शांत दिख रहा हो, पर अंदर ही अंदर गुस्से और विरोध की आग धधक रही है. उत्तर प्रदेश के साथसाथ पंजाब विधानसभा चुनाव में इस का असर देखने को मिलेगा.

पंजाब: पैरों में कुल्हाड़ी मारते अमरिंदर सिंह

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का राजनीतिक कद राष्ट्रीय स्तर का है. कांग्रेस से बाहर आने के बाद अब उन्होंने एक नई राजनीतिक पार्टी, किसानों और पंजाब के भविष्य को मजबूत बनाने की बात कह कर ऐलान किया है.

अमरिंदर सिंह की पार्टी के एलान के बाद पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा हो जाएगा मानो सत्ता ना तो अब कांग्रेस के हाथों में होगी और ना ही भाजपा के हाथों में. एक ऐसी त्रिशंकु सरकार बनाने में मददगार हो सकती है अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी.

लगभग 80 वर्ष की उम्र में अमरिंदर सिंह का जज्बा जहां आकर्षित करता है वहीं सोचने को विवश करता है.

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अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 80 के दशक में अमरिंदर सिंह ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी आगे जब ऑपरेशन ब्लू स्टार घटित हुआ तो उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था और लंबे समय बाद फिर राजीव गांधी के साथ उन्होंने राजनीति के हाईवे पर दौड़ना शुरू किया. परिणाम स्वरूप दो दफा पंजाब के मुख्यमंत्री रहे पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे और एक समय तो ऐसा भी आ गया जब अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस का पर्याय बन गए. अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आलाकमान को एक तरह से नजरअंदाज करते हुए उन्होंने लंबे समय तक मुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका निर्वाह की, शायद यही कारण था कि आलाकमान ने नवजोत सिंह सिद्धू को शतरंज की बिसात पर आगे बढ़ा दिया. और अभी हाल ही में पिछले दिनों देश ने देखा कि किस तरह पंजाब की राजनीति ने एक नई करवट बदली है नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह सिद्धू ने राजनीतिक दांव खेले परिणाम स्वरूप अमरिंदर सिंह के सामने दो विकल्प रह गए या तो कांग्रेस आलाकमान के सामने आत्मसमर्पण करना  अथवा मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा. और जैसा कि सभी ने देखा अमरिंदर सिंह ने एक झटके में आलाकमान को बिना जानकारी दिए ही राज्यपाल से मिलकर के 21 सितंबर 2021 को अपना इस्तीफा सौंप कर मानो कोप भवन में चले गए.

निसंदेह अमरिंदर सिंह के पास दीर्घ राजनीतिक अनुभव है उनकी छवि भी एक लोकप्रिय राजनेता की रही है. मगर राजनीति में बहुत आगे तक वही जाता है जो सबको लेकर चलता है या जिसमें एक दूर दृष्टि होती है. अमरिंदर सिंह ने अपने राजनीति के इस उत्तरार्ध काल में जहां आलाकमान के साथ दो दो हाथ करके अपना नुकसान किया है वहीं कांग्रेस पार्टी का भी नुकसान स्पष्ट दिखाई दे रहा है. क्योंकि नवजोत सिंह सिद्धू और चरणजीत सिंह चन्नी दोनों का ही मल युद्ध अगर चलाता रहा तो कांग्रेस की कब्र बनाने के लिए पर्याप्त माना जा रहा है.

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अमरिंदर सिंह का “कोप भवन”

यह सत्य है कि अमरिंदर सिंह को पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने जो कुछ दिया वह बहुत कम लोगों के भाग्य में होता है. मगर स्वयं को अंतिम ताकतवार मान करके उन्होंने जिस तरह राजनीतिक दांवपेच खेले हैं वह अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा है. आलाकमान को नजरअंदाज करना किसी भी राजनीतिक पार्टी या फिर व्यवस्था के लिए नुकसानदायक ही होता है. अनुशासन तो होना ही चाहिए. एक समय ऐसा भी था जब अमरिंदर सिंह कांग्रेस अनुशासन से बहुत दूर हो करके स्वतंत्र अपना काम कर रहे थे. और जब आलाकमान की तलवार चली और विधायक सिद्धू की तरफ भागने लगे तो नाराज अमरिंदर सिंह “कोप भवन” में चले गए. और अब 80 की उम्र में उनका ताल ठोकना देश की राजनीति का एक भदेस सच है.

ऐसा देश के जन-जन ने पहले भी देखा है जब पार्टी लाइन से हटकर के प्रादेशिक दिग्गजों ने अपनी लाइन खींचने की कोशिश की और बुरी तरह मात खाई जिनमें मध्य प्रदेश के दिग्गज अर्जुन सिंह उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी, भाजपा में उमा भारती आदि नाम गिनाए जा सकते हैं. वहीं यह भी सच है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने महाराष्ट्र में शरद पवार ने अपनी राजनीतिक बखत को दिखाया है. मगर पंजाब में अमरिंदर सिंह के मामले में यह कहा जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव में क्या आम मतदाता उन्हें तरजीह देंगे या फिर वह सिर्फ कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे की तरह भूमिका निभा करके राजनीतिक इतिहास के पन्नों में रह जाएंगे.

कांग्रेस: कन्हैया और राहुल

जैसा कि लंबे समय से प्रतिक्षा थी कांग्रेस में कोई कन्हैया कुमार जैसा ऊर्जा वान युवक अकर  अखिल भारतीय कांग्रेस को ऊर्जा से भर दे. अखिल यह हो ही गया. आज कांग्रेस को कन्हैया कुमार जैसे समझ वाले युवाओं की आवश्यकता है जिससे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल होने की संभावना है.

क्योंकि जिस तरीके से देश में भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रमुख नेताओं ने चक्रव्यूह बुना है उसे कोई कन्हैया कुमार जैसा नेता भी तोड़ सकता है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना जहां पार्टी के लिए शुभ है वही देश के लिए भी मंगलकारी कहा जा रहा है क्योंकि बहुत ही कम समय में कन्हैया कुमार ने अपनी राजनीतिक सोच और वक्तव्य से देशभर में बहुत लोगों को अपना मुरीद बना लिया है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि जहां राहुल गांधी ने एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है कन्हैया कुमार को कांग्रेस पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर के कांग्रेस में एक नई ऊर्जा का संचार किया जा सकता है. कांग्रेस का यह मास्टर स्ट्रोक, पहल  इसलिए आज चर्चा का विषय बन गई है क्योंकि भाजपा के सामने कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है.इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस में प्रभावशाली और लोकप्रिय नेताओं की कमी हो गई है. एक तरफ जहां भाजपा लगातार कांग्रेस को कमजोर करने में लगी है और उसके नेताओं को अपनी पार्टी में जोड़ने का प्रयास कर रही है जोड़ती चली जा रही है उससे कांग्रेस की हालत देखने लायक हो गई है.

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कांग्रेस और कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार 2015 में जेएनयू के प्रेसिडेंट बने थे और उसके बाद धीरे धीरे उनका व्यक्तित्व निखर कर सामने आया. आज उनकी उम्र सिर्फ 37 वर्ष है इतनी कम उम्र में इतनी राजनीतिक ऊंचाई नाप लेना अपने आप में महत्वपूर्ण है. जहां वे एक देशव्यापी नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं वहीं उन पर कथित रूप से देश के खिलाफ नारे लगाने का भी आरोप लगा और जेल यात्रा भी करके आ गए हैं, चुनाव लड़ने  का भी अनुभव हो चुका है.

कम्यूनिस्ट पार्टी में रहकर के उन्होंने एक तरह से अपने आप को तौल लिया है कि आखिर उनकी उड़ान कितनी हो सकती है.

दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी के अपने नियम कानून कायदे होते हैं और वहां व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि विचारधारा की चलती है. ऐसे में कन्हैया कुमार के पास एक ही विकल्प था कि वह कम्युनिस्ट दायरे से बाहर आकर के किसी राष्ट्रीय पार्टी का दामन थाम लें ऐसे में कांग्रेस और राहुल का आगे आकर के  कुमार को हाथों हाथ लेना जहां कन्हैया कुमार को एक नई धार तेवर दे गया है उन्हें देश में काम करने का मौका भी मिलेगा.

अब सिर्फ एक ही सवाल है कि कांग्रेस पार्टी अपनी संकीर्ण धाराओं से निकल कर के कन्हैया कुमार को कुछ ऐसा दायित्व दे जिससे पार्टी को भी लाभ हो और देश को भी. आने वाले समय में बिहार में भी कन्हैया कुमार की उपस्थिति का लाभ कांग्रेस पार्टी को मिलने की कोई संभावना है. यही कारण है कि कांग्रेस में आते ही पटना में कांग्रेस मुख्यालय में कन्हैया कुमार और राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देने लगे.

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राहुल गांधी और कन्हैया कुमार

लंबे समय से यह कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी में कन्हैया कुमार और जिग्नेश पटेल युवा आ रहे हैं. इस खबर से जहां कांग्रेस पार्टी में एक नई ऊर्जा का संचार दिखाई दे रहा था वहीं भाजपा में भी इसको लेकर के चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं. क्योंकि कन्हैया और जिग्नेश जैसे युवा किसी भी पार्टी को एक नई दिशा देने में सक्षम है. सिर्फ आवश्यकता है इनका उपयोग करने की समझ. यह माना जा रहा है कि अगर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को आगे कर के देशभर में आम जनमानस से मिलने निकल पड़े और छोटी-छोटी सभाएं करके लोगों से सीधा संवाद करें भाजपा और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की महत्वपूर्ण गलतियों पर चर्चा करें तो देखते-देखते माहौल बदल सकता है.

दरअसल, माना यह जा रहा है कि भाजपा के पास जो संगठननिक ताकत है जो अनुशासन है वह कांग्रेस में दिखाई नहीं देता इसे ला करके कांग्रेस पार्टी देश को एक नई दिशा दे सकती है.

क्वाड शिखर सम्मेलन: भारत का प्लस माइनस

विगत दिनों क्वाड शिखर सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे  प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने कहा कि क्वॉड ‘वैश्विक विकास के लिए एक शक्ति’ के रूप में अहम भूमिका निभा सकता है. उन्होंने भरोसा जताया कि चार लोकतांत्रिक देशों का यह संगठन हिंद-प्रशांत क्षेत्र और विश्व में शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने का काम करेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने क्वॉड की पहली व्यक्तिगत बैठक को संबोधित करने के लिए सबसे पहले पीएम मोदी को आमंत्रित किया था जिसमें मोदी ने अपनी बात को अपने ही अंदाज में रखा मगर चीन का जो तेवर देखने को मिल रहा है वह एक चिंता का सबब बन सकता है.

यही कारण है कि आने वाले समय में भारत और चीन के संबंध तल्ख होने वाले हैं. चीन दुनिया की एक महाशक्ति बन चुका है और अमेरिका भी जब उसकी तरफ देखने से झिझकता रहा है, ऐसे में भारत का चीन से 36 का संबंध, देश को किस मुकाम पर ले जाकर खड़ा करेगा यह चिंता का सबब बनता जा रहा है.

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यहां यह याद रखने वाली बात है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात जहां उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति पर गलबहियां डालीं, चीन के राष्ट्रपति को भी भारत बुला करके संबंध मधुर बनाने की पहल की थी. मगर अब धीरे-धीरे दुनिया के परिदृश्य में भारत अमेरिका की तरफ आगे बढ़ता चला जा रहा है. ऐसे में आने वाला समय कैसा होगा यह जानना समझना आवश्यक है.

दरअसल, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन आगामी 24 सितंबर को व्यक्तिगत उपस्थिति वाले पहले क्वाड शिखर सम्मेलन 2021 की मेजबानी करने जा रहे हैं. अब इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  और उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष स्कॉट मॉरिसन  तथा जापान के प्रधानमंत्री योशीहिदे सुगा भी  शामिल होंगे.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के इस शिखर सम्मेलन में शामिल होने पर चीन की वक्र दृष्टि है.

क्योंकि यह शिखर सम्मेलन एक तरफ से चीन के लिए एक चुनौती बन कर के सामने है. और चीन या नहीं चाहता कि कोई उसके हितों के खिलाफ गोल बंद हो, ऐसे में दुनिया की महाशक्ति अमेरिका के साथ भारत का हाथ मिलाना, चीन के लिए चिंता का सबब बन गया है, जिसका जवाब ढूंढने का प्रयास करते हुए चीन ने अपनी तरफ से भारत को कड़ा संदेश दे दिया है मगर भारत अभी मौन है.

अमेरिकी हित और भारत

और जैसा कि दुनिया की राजनीति में इन दिनों देखने को मिल रहा है. अमेरिका अब पहले जैसा अमेरिका नहीं है. अफगानिस्तान के मामले पर दुनिया सहित देश में भी अमेरिका की किरकिरी हुई है राष्ट्रपति जो बायडन की लोकप्रियता तेज़ी से घटी है.इस सवाल का जवाब अभी नहीं मिल पाया है कि भारत के हितों को नकार कर के जिस तरीके से अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपनी सेना को वापस बुलाया और एक तरह से आतंक के हवाले अफगानिस्तान को कर दिया गया, क्या उसके लिए इतिहास में कभी अमेरिका को माफी मिल पाएगी?

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एक तरफ आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात करने वाला अमेरिका जिस तरीके से आत्मसमर्पण करता हुआ देखा गया है. उससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि अमेरिका का शिखर नेतृत्व आज कितना कमजोर हो गया है और उसके साथ भारत का खड़ा होना भारत को क्या कमजोर नहीं बनाएगा?

क्योंकि कहा जाता है कि मजबूत मित्र के साथ आपको सरंक्षण मिल सकता है.एक मजबूत मगर आत्मविश्वास से कमजोर मित्र आपके लिए किसी काम का नहीं है. कुछ कुछ हालात आज अमेरिका और भारत की मित्रता के संदर्भ में भी ऐसे ही हैं.

नवीन संदर्भ में व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव जेन साकी के अनुसार   यह शिखर सम्मेलन मुक्त एवं खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र को बढ़ावा देने और जलवायु संकट से निबटने के बारे में बात करेगा. देश अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करने तथा कोविड-19 एवं अन्य क्षेत्रों में व्यवहारिक सहयोग को बढ़ाने के बारे में भी वार्ता करेंगे. इस मौके पर उभरती प्रौद्योगिकियों तथा साइबर स्पेस के बारे में भी बात की जाएगी. साकी ने कहा, ‘राष्ट्रपति जोसफ आर बाइडन जूनियर व्हाइट हाउस में 24 सितंबर को व्यक्तिगत उपस्थिति वाले पहले क्वाड शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेंगे. राष्ट्रपति बाइडन व्हाइट हाउस में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री योशीहिदे सुगा का स्वागत करने के लिए उत्सुक हैं.’

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साकी ने कहा कि क्वाड को बढ़ावा देना बाइडन प्रशासन के लिए प्राथमिकता है, जो मार्च में क्वाड नेताओं के पहले सम्मेलन में साफ नजर आया था. तब यह सम्मेलन ऑनलाइन आयोजित हुआ था और अब प्रत्यक्ष हो रहा है. स्मरण हो कि ऑनलाइन सम्मेलन की मेजबानी राष्ट्रपति बाइडन ने ही की थी तथा इसमें मुक्त, खुले, समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया गया था. मगर अब तक दुनिया की परिस्थितियां बहुत कुछ बदल चुकी है ऐसे में यह शिखर सम्मेलन भारत के लिए भी एक नई उम्मीद का कारण बन सकता है, वही थोड़ी सी भी चूक भारत को आने वाले समय में नई नई मुसीबतों में भी घेर सकती है. मगर जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे हम पड़ोसी नहीं बदल सकते मगर हां, मित्र बदल सकते हैं.  ऐसे में आने वाले समय में भारत चीन की रिश्ते किस करवट बैठेंगे यह देखना होगा.

कांग्रेस : मुश्किल दौर में भी मजबूत

पिछले कुछ साल से कांग्रेस पार्टी में भीतरी कलह कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने तो ठान ही लिया था कि वह देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ कर देगी.

इस मुहिम में खुद बहुत से कांग्रेसियों ने मानो भाजपा का साथ दिया और वे पार्टी छोड़ कर भाजपा के अलावा दूसरे दलों में जाते दिखाई दिए.

बड़े दिग्गज तो छोडि़ए, छोटे सिपहसालार भी कांग्रेस को डूबता जहाज समझ कर चूहे की तरह भागे. एक बानगी देखिए…

आदरणीय राहुल गांधीजी,

मेरे लिए आप सर्वोच्च हैं, मेरी कर्तव्यनिष्ठा पार्टी के लिए एक कार्यकर्ता के तौर पर सदैव बरकरार रहेगी.

पर, मैं मुंबई युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे रहा हूं.

आप का आज्ञाकारी

सूरज सिंह ठाकुर

यह एक चिट्ठी है, जो सूरज सिंह ठाकुर ने राहुल गांधी के नाम लिखी है. अब ये सूरज सिंह ठाकुर कौन हैं, जो एक तरफ तो राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति आज्ञाकारी और कर्तव्यनिष्ठ बनते हैं और दूसरी तरफ पद से इस्तीफा भी दे देते हैं?

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मुंबई युवा कांग्रेस का नाम तो आप ने सुना ही होगा. उस में अध्यक्ष पद को ले कर मचे झगड़े और गुटबाजी का नतीजा यह हुआ कि मंगलवार, 24 अगस्त, 2021 की देर शाम युवा कांग्रेस अध्यक्ष पद का ऐलान होना था और हुआ भी, पर जैसे ही विधायक रह चुके बाबा सिद्दीकी के बेटे और बांद्रा (पूर्व) से कांग्रेस विधायक जीशान सिद्दीकी को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, तो सूरज सिंह ठाकुर ने विद्रोह का बिगुल बजा कर राहुल गांधी को अपना इस्तीफा भेज दिया. वजह, वे भी इस अध्यक्ष पद के दावेदार थे.

बाबा सिद्दीकी वही शख्स हैं, जो कभी अपनी इफ्तार पार्टी में फिल्म कलाकार शाहरुख खान और सलमान खान को गले मिलवा कर सुर्खियां बटोर चुके थे. उन्हीं के साहबजादे जीशान सिद्दीकी जब विधायक के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, तब कांग्रेस के ही 12 विधायकों ने उन के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

बहरहाल, सूरज सिंह ठाकुर हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और भी, कांग्रेस से जाने वाले लोगों की फेहरिस्त पिछले कुछ समय से लंबी होती चली गई है. तो क्या यह समझ लिया जाए कि कांग्रेस अब चुकी हुई पार्टी है? वह परिवारवाद में इतनी उलझ चुकी है कि अब उस का उबरना मुश्किल है? क्या राहुल गांधी ही कांग्रेस को डुबो रहे हैं और किसी की हिम्मत नहीं है उन के खिलाफ बोलने की? क्या भारतीय जनता पार्टी अपने मकसद में कामयाब होती दिख रही है?

ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि कांग्रेस से लोगों के दूसरे दलों में जाने से पार्टी को नुकसान हो रहा है, पर यहीं पर राहुल गांधी की उस बात को भी बल मिलता है कि कांग्रेस की यह सफाई भविष्य में पार्टी को मजबूत करेगी. ऐसा नहीं है कि वे कांग्रेस से रूठों को मनाते नहीं हैं, पर उन के जाने पर रंज भी नहीं करते हैं.

उधर अगर भाजपा के ‘डबल इंजन’ नरेंद्र मोदी और अमित शाह बारबार कांग्रेस पर वार करते हैं और आज की देश की बदहाली के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो इस के पीछे उन की कूटनीति ही काम करती दिखाई देती है. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का उन का एजेंडा बड़ा ही साफ है.

पूरी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता है कि वे चाहे कितना ही राहुल गांधी और कांग्रेस को कोस लें, पर नैशनल लैवल पर केवल कांग्रेस ही भाजपा को चुनौती दे सकती है. लिहाजा, भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि कांग्रेस का वोट फीसदी भाजपा से ऊपर जाए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो भाजपा की मजबूती पर नैगेटिव असर पड़ेगा. केंद्र सरकार में शामिल उस के साथी दल सिर उठाएंगे और इस से भाजपा की लोकप्रियता में कमी आएगी. फिर वह संवैधानिक संस्थाओं पर अपना दबदबा नहीं बना पाएगी.

इस के अलावा भाजपा यह भी जानती है कि कांग्रेस में आज भी गांधी परिवार ही सब से ज्यादा ताकतवर है और वही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है. कांग्रेस को कमजोर करना है तो गांधी परिवार के ऊपर हमला जारी रखना होगा.

इस में भाजपा का आईटी सैल बड़ी शिद्दत से अपना रोल निभाता है. सोशल मीडिया पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी के साथसाथ प्रियंका गांधी को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है. उन पर खूब निजी हमले होते हैं और भाषा की मर्यादा का भी कोई लिहाज नहीं किया जाता है.

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क्यों हावी है भाजपा

दरअसल, साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी को अब यह लगने लगा है कि कांग्रेस को पूरी तरह समेटने का यही सही समय है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस अभी भी अपनी भीतरी लड़ाई में उलझी हुई है. एक तरफ उस के नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ जिन राज्यों में उन की सरकार है, वहां के बड़े नेताओं में सिरफुटौव्वल हो रही है.

पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच की जंग जगजाहिर है. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. इस के अलावा छोटेबड़े नेता अपने बेमतलब के बयानों से कांग्रेस की गरिमा को चोट पहुंचा ही देते हैं.

कोढ़ पर खाज यह है कि साल 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने वाले हैं. यह कांग्रेस के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है.

चुनौती तो यह भी है कि कांग्रेस अपने अध्यक्ष को ले कर भी स्पष्ट नहीं है. यही चुनौती वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच नाराजगी की दीवार खींच देती है. वे राहुल गांधी को अपनी समस्या बताएं या सोनिया गांधी के सामने अपना दुखड़ा रोएं, समझ नहीं पा रहे हैं, तभी तो कांग्रेस में रोजाना के बखेड़े हो रहे हैं.

राहुल और कांग्रेस

राहुल गांधी भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं हैं, पर अघोषित सर्वेसर्वा वही हैं. जब से देश के किसान 3 कृषि कानूनों के खिलाफ लामबंद हुए हैं, तब से राहुल गांधी ने सरकार पर खूब हमले किए हैं. भले ही वे शुरू में राजनीति में आने से परहेज करते रहे थे, पर धीरेधीरे ही सही, भाजपा के निशाने पर रहने के बावजूद उन्होंने भारत की राजनीति को समझना शुरू किया और स्वीकर किया कि उन्हें ही विपक्ष का चेहरा बन कर केंद्र सरकार को घेरना होगा.

राहुल गांधी एक ऐसे राजनीतिक परिवार से हैं, जहां देश के लिए अपनी जान देने वाले 2 कद्दावर प्रधानमंत्री निकले हैं. राहुल गांधी का हिंदी और इंगलिश भाषा पर बराबर का अधिकार है. वे जनता के सामने जाने से नहीं कतराते हैं और हर नैशनल और इंटरनैशनल मुद्दे पर बारीक नजर रखते हैं.

पर राहुल गांधी के सामने सब से बड़ी समस्या यह है कि उन के राजनीतिक सलाहकार कौन हों और वे उन्हें क्या और कैसी सलाह दें, जो कांग्रेस को मजबूत बनाएं, अभी ढंग से तय नहीं हो पाया है.

राहुल गांधी ने अगर युवा नेताओं पर अपना विश्वास जताया तो पुराने नेता उन से खफा हो गए. उन पर पार्टी के नेताओं पर ही समय न देने के आरोप लगे. यहां तक कह दिया गया कि वे चुनावों को सीरियसली नहीं लेते हैं. वे अपने बयानों से भाजपा को मजबूत कर देते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी की मासूमियत और साफगोई ही उन पर भारी पड़ जाती है. वे किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए जब ट्रैक्टर से संसद भवन जाते हैं, तो उस ट्रैक्टर का रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ होता है. नतीजतन, वे कानूनी पचड़े में फंस जाते हैं, क्योंकि नई दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में ट्रैक्टर का प्रवेश वर्जित है. वे अगर दूसरे मुद्दों पर भाजपा को घेरते हैं, तो बाकी कांग्रेसी उन का मजबूती से साथ नहीं देते हैं.

भाजपा देश में राहुल गांधी की इसी मासूम इमेज को अपने पक्ष में भुनाती है. वह यह साबित करना चाहती है कि राहुल गांधी कद्दावर नेता नहीं हैं और नरेंद्र मोदी के सामने उन की कोई बिसात नहीं है, पर ये वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने केंद्र सरकार को कोरोना पर मजबूती से घेरा, उस की चिकित्सा संबंधी बदइंतजामी को जनता के सामने रखा, औक्सीजन की कमी पर देश को जागरूक किया.

जब सरहद पर भारत की चीन से झड़प हुई, तो अपनी जमीन के छिनने के मुद्दे को राहुल गांधी ने बेबाकी से सब के सामने रखा, राफेल घोटाले पर बिना डरे बयान दिए, धारा 370 और राम  मंदिर के फैसले को देश के लिए विभाजनकारी बताया, भाजपा की हिंदुत्व के नाम पर लोगों को बांटती नीतियों को दुत्कारा. इतना ही नहीं, वे पैगासस के जासूसी वाले कांड को देश की जनता के सामने लाए.

इन सब बातों के साथसाथ राहुल गांधी जानते हैं कि उन्हें दोबारा से कांग्रेस को खड़ा करना है, उसे फिर से मजबूत बनाना है, तभी तो वे सोशल मीडिया पर अपने कार्यकर्ताओं से यह कहने से नहीं चूकते हैं, ‘एकदूसरे की ताकत बन कर खड़े रहेंगे, नहीं डरे हैं, नहीं डरेंगे.’

राहुल गांधी पार्टी छोड़ कर जाने वाले नेताओं पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि जो डर गए वे भाजपा में चले जाएंगे, जो नहीं डरेगा वह कांग्रेस में रहेगा. उन्होंने कांग्रेस को निडर लोगों की पार्टी बताते हुए कहा कि हमें निडर लोग चाहिए. जो डर रहे हैं उन्हें कहो, ‘जाओ भागो, नहीं चाहिए.’

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि दूसरी पार्टी में जो निडर लोग हैं, वे हमारे हैं. उन्हें ले कर आओ. कांग्रेस में शामिल करो. यह निडर लोगों की पार्टी है.

भाजपा राहुल गांधी की इसी निडरता को भांप रही है, तभी तो पिछले 7 साल के अपने किए गए कामों को गिनाने से ज्यादा उस ने कांग्रेस को इस बात के लिए कोसा कि उसी की वजह से देश की यह हालत हुई है. नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ और अमित शाह ‘देश में भड़काओ जज्बात’ से ज्यादा कुछ कह ही नहीं पाते हैं. रहीसही कसर स्मृति ईरानी और संबित पात्रा जैसे भाजपाई नेता अपने बड़बोले बयानों से पूरी कर देते हैं.

भाजपा यह भी जानती है कि चूंकि वह ऊंची जाति वालों की पार्टी है तो किसी तरह दबेकुचलों को कांग्रेस में दोबारा जाने से रोका जाए. लेकिन देखा जाए तो यह छोटी जाति के युवा नेताओं के लिए सुनहरा मौका है कि वे कांग्रेस से जुड़ कर राहुल गांधी को मजबूती देते हुए अपने राजनीतिक कैरियर को भी उड़ान दें. धर्म की राजनीति को कुंद करने के लिए जनता को जागरूक बनाने का बीड़ा उठाएं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदूमुसलिम को बांटने की राजनीति ज्यादा दिन नहीं चलेगी, लोगों को समझाने का सही समय यही है.

लिहाजा, भारतीय जनता पार्टी कितना ही कह ले कि वह देश की पहली जरूरत है, पर उस की हिंदुत्ववादी विचारधारा देश के एक बड़े वर्ग को उस से दूर कर देती है. इस के उलट कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता उस की बड़ी ताकत है. उसे सरकार चलाने का बहुत साल का अनुभव है और देश में धार्मिक उन्माद पर कैसे काबू पाना है, वह अच्छी तरह समझती है. यही कांग्रेस की ताकत है और भविष्य में वह देश में अपनी पैठ दोबारा बना लेगी, यही उम्मीद है.

तालिबान: नरेंद्र मोदी ने महानायक बनने का अवसर खो दिया!

अफगानिस्तान पर  लाखों करोड़ों रुपए का निवेश करने और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद दोस्ती का  नया गठबंधन करने के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जिस तरह अफगानिस्तान पर तालिबान का रातों-रात कब्जा हो गया और मौन देखते रहे यह देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है.

अगरचे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी जिन्होंने अपनी छवि दुनिया में एक प्रभावशाली नेता के रूप में बनानी थी तो यह उनके पास एक सुनहरा अवसर था.

दरअसल, नरेंद्र दामोदरदास मोदी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति से बातचीत करके उनकी मदद का हाथ बढ़ा देते तो दुनिया में मोदी और भारत की छवि कुछ अलग तरह से निखर कर सामने आ सकती थी.कहते हैं, संकट के समय ही आदमी की पहचान होती है यह एक पुरानी भी कहावत है.

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सभी जानते हैं कि भारत और अफगानिस्तान वर्षों वर्षों पुराने मित्र हैं और हाल में इस मित्रता का रिन्यूअल मोदी जी ने अफगानिस्तान को हर संभव सहयोग करके और वहां जाकर के किया था. उनके भाषण गूगल पर उपलब्ध हैं, ऐसे में  दृढ़ता का परिचय देते हुए नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़कर के तालिबान का मुकाबला किया होता तो शायद राजीव गांधी की तरह उनकी छवि भी दुनिया में प्रभावशाली बन करके सामने आ सकती थी.

क्या आपको स्मरण हैं प्रधानमंत्री पद पर रहते राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ शांति सेना भेजी थी. जिसके परिणाम स्वरूप श्रीलंका और भारत के संबंध और भी मजबूत हुए थे और दुनिया में एक संदेश गया था कि भारत अपने आस-पड़ोस जहां भी अशांति फैलती है और मदद की आवश्यकता होती है तो आगे आ जाता है.

इसका दुनिया की राजनीति और मिजाज पर गहरा असर पड़ता यह दुनिया की महा शक्तियों के लिए भी एक सबक होता अमेरिका जब अफगानिस्तान को छोड़कर नौ दो ग्यारह हो रहा था सारी दुनिया आतंक के सामने नतमस्तक थी, ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का एक्शन दुनिया के लिए एक नजीर बन जाता.

आतंक का सफाया हो जाता

अफगानिस्तान पर जब तालाबानियों लड़ाकों ने आक्रमण किया, उस समय उनकी संख्या 75 हजार बताई गई है. और अफगानिस्तान के सैनिकों की थी संख्या 3 लाख.और तो और अफगानिस्तान के  पास हवा से आक्रमण करने के सैन्य साधन भी थे जो तालाबानी आतंकियों के पास नहीं थे.

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हमारा मानना है-  पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नीति के अनुरूप श्रीलंका में जैसे उन्होंने शांति सेना भेजी थी अगर तालाबानियों के हमले के समय भारत अपनी “शांति सेना” भारत में उतार देता अथवा   बंगला देश निर्माण के समय की तरह सामने आता तो निश्चित रूप से 75 हजार तालाबानियों को आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. और पूरी बाजी नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारत के हाथों में होती.

हमारा आकलन यह है कि…

तालाबानियों के आत्मसमर्पण के लिये भारत को बड़ा बलिदान भी नहीं देना पड़ता और चीन,पाकिस्तान तथा रूस जो तालाबानियों के खैरख्वाह बने हुए हैं उनको बोलने का कोई अवसर ही नहीं मिलता. राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार  आर के पालीवाल के मुताबिक ऐसी स्थिति में  पूर्व से स्थापित राष्ट्रपति  और अफगानिस्तान सरकार जिससे भारत का मित्रवत सम्बन्ध है,उसी सरकार का अस्तित्व में रहता. अफगानिस्तान की सरकार ने भारत सरकार से मदद की गुहार न भी लगाई हो,उसके उपरांत भी भारत विश्व मंच पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी बात रख सकता था कि पदस्थ सरकार पर आतंकियों के हमले को रोकने और पड़ोसी देश होने के कारण उसने ये कदम उठाया है.

अगरचे, आज भारत की जो ऊहापोह की स्थिति नहीं रहती और भारत की पूरे विश्व मे एक नई छवि भी बनती.

कल्याण सिंह हालात के हिसाब से बदलते रहें!

राजनीति‘मेरा उद्देश्य अब पिछड़ों को उन का हक दिलाना है. राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी इस काम को पूरा करेगी…’ साल 2002 में अपनी अलग पार्टी का गठन करते समय कल्याण सिंह ने ऐसा कहा था.

‘भाजपा में वापस जाना मेरी भूल थी. राम मंदिर पर अपनी भूमिका को ले कर भी मुझे खेद है. इस बार मैं ने हमेशाहमेशा के लिए भाजपा से संबंध खत्म कर लिए हैं,’ 21 जनवरी, 2009 को कल्याण सिंह ने भाजपा से अलग होने के बाद कहा था.

कल्याण सिंह अपनी बात पर कायम होने वाले नेता नहीं बन सके. वे जबजब भाजपा से अलग हुए, तबतब पार्टी को बुरी तरह से कोसा. इस के बाद वापस भाजपा में गए.

वैसे तो कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक चुने गए थे, लेकिन भाजपा में उन का उपयोग उस समय किया गया, जब तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को पूरे देश में लागू किया था.

हर दल में पिछड़ी जाति के नेताओं को अहमियत दी जाने लगी थी और उस दौर में भाजपा ने भी कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे पिछड़े तबके के नेताओं को आगे कर के सत्ता हासिल की थी.

जनता पार्टी में जनसंघ का विलय होने के बाद जब जनता पार्टी टूटी, तब जनसंघ से आए नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया था. इस के पीछे संघ का पूरा हाथ था.

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भाजपा के संस्थापकों में अगड़ी जातियों के नेता प्रमुख थे. इन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व विजयाराजे सिधिंया जैसे नेता प्रमुख थे.

भाजपा के बनने के बाद संघ ने तय किया कि राम मंदिर आंदोलन को तेज किया जाएगा. इसी दौर में मंडल कमीशन को ले कर पिछड़ों की राजनीति भी शुरू हो रही थी.

भाजपा को उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति के किसी ऐसे नेता की तलाश थी, जो मुलायम सिंह यादव का मुकाबला कर सके, वह जमीन से जुड़ा हो और उस में हिंदुत्व की भी धार हो.

कल्याण सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उसी बैल्ट से आते थे, जिस से मुलायम सिंह यादव आते थे. अलीगढ़ के रहने वाले कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक बने थे. इसी साल मुलायम सिंह यादव भी चुनाव जीते थे.

मुलायम सिंह यादव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इटावा से आते थे. वे साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे. ऐसे में भाजपा ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपने का फैसला लिया.

कल्याण सिंह की खूबी थी कि वे पिछड़ी लोधी जाति से आते थे. वे हिंदुत्व की राजनीति कर सकते थे. वे अक्खड़ और रूखे स्वभाव के नेता थे. उन की छवि साफ थी. साल 1984 में कल्याण सिंह को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बना कर उन का इस्तेमाल शुरू किया था.

आमनेसामने 2 ओबीसी नेता

साल 1986 में राम मंदिर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम किया गया, तो कल्याण सिंह सब से उपयोगी नेता साबित हुए. भाजपा ने कल्याण सिंह के कंधे पर बंदूक रख कर चलाना शुरू किया. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग के लोग एकजुट न रह सके, जिस से मंडल कमीशन का फायदा पिछड़ी जातियों को मिल सके.

इस राजनीति ने कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव को आमनेसामने खड़ा कर दिया. मुलायम सिंह यादव संघ की हिंदुत्व वाली राजनीति के खिलाफ थे. कल्याण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन की कमान खुद संभाल रखी थी. उन दोनों के बीच राजनीतिक मुठभेड़ शुरू  हो गई.

भाजपा में ऊंची जातियों के नेता दूर से इस लड़ाई को देख रहे थे. साल 1989 में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब कल्याण सिंह भाजपा विधानमंडल दल के नेता थे.  इस दौरान राम मंदिर आंदोलन शिखर पर था.

साल 1990 में राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा की घोषणा हुई. उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने कहा था कि अयोध्या में कोई भी कारसेवक घुसने नहीं पाएगा. वहां परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा. दूसरी तरफ कल्याण सिंह इस बात पर अडिग थे कि कारसेवक अयोध्या पहुंचेंगे. 30 अक्तूबर और 6 नवंबर को हिंसक झड़पें हुईं.

कारसेवकों को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव को गोलियां चलवानी पड़ीं. इस के बाद उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व की लहर उठी. कल्याण सिंह इस के प्रतीक बने. मंडल कमीशन और पिछड़ों की राजनीति का नुकसान हुआ. मुलायम सिंह की सरकार गिर गई.

साल 1991 में उत्तर प्रदेश में दोबारा चुनाव हुए और तब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भाजपा की सरकार बनी. 221 सीटों वाली भाजपा ने कल्याण सिंह को अपना मुख्यमंत्री बनाया. कल्याण सिंह ने अपनी सरकार का कामकाज रामलला के दर्शन करने के बाद शुरू किया.

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हिंदुत्व की लहर पर सवार कल्याण सिंह भले ही मुख्यमंत्री बने पर पिछड़ी जातियों के सामाजिक न्याय के साथ धोखा हो गया. कल्याण सिंह केवल पिछड़ी जातियों के न्याय और मंडल कमीशन लागू होने की राह में रोड़ा ही नहीं बने, बल्कि मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर कानून और व्यवस्था के प्रति न्याय नहीं कर सके. अदालत में शपथपत्र देने के बाद भी वे अयोध्या के विवादित ढांचे की हिफाजत नहीं कर सके.

जब गिर गया विवादित ढांचा

कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद राम मंदिर की राजनीति करने वाली विश्व हिंदू परिषद ने दबाव बनाना शुरू किया कि राम मंदिर मसला जल्दी हल किया जाए.

कल्याण सिंह राम मंदिर बनाने का रास्ता मजबूत करना चाहते थे, पर उन के पास कोई हल नहीं था. मसला कोर्ट में था. बिना कोर्ट के फैसले के कुछ हो नहीं सकता था. वे इस मामले में थोड़ा वक्त चाहते थे.

राम मंदिर आंदोलन से जुड़े ऊंची जातियों के नेता इस के लिए वक्त देने को तैयार नहीं थे. ऐसे में 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवा की घोषणा कर दी गई. कल्याण सिंह ने केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों को वचन दिया कि कारसेवा के दौरान अयोध्या में कोई गड़बड़ नहीं होने  दी जाएगी.

6 दिसंबर के पहले से ही देशभर में माहौल गरम था. कारसेवा करने वालों के हौसले बुलंद थे, क्योंकि इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे, जो रामभक्त थे. उन से यह उम्मीद नहीं की जा रही थी कि वे कारसेवकों पर गोली चलवाएंगे. कारसेवक, जो काम साल 1990 में नहीं कर पाए थे, वह 2 साल बाद साल 1992 में करना चाहते थे.  कल्याण सिंह ने अयोध्या की सुरक्षा के ऐसे इंतजाम किए थे, जिस में केंद्र सरकार की फोर्स पीछे थी. उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों में अयोध्या की मुख्य कमान थी. घटना के दिन उत्तर प्रदेश पुलिस पीछे हट चुकी थी. उसे यह आदेश थे कि किसी भी कीमत पर कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी.

कारसेवक गुंबदों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने लगे. इस बात की जानकारी देश के तब के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को मिली. वे मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से फोन पर संपर्क करने की कोशिश करने लगे.

कल्याण सिंह अपने सरकारी आवास में थे. इस के बाद भी फोन पर बात नहीं की. वे भाजपा के नेताओं के संपर्क में थे. जैसा निर्देश मिल रहा था, वैसा काम कर रहे थे. पुलिस ने गोली नहीं चलाई और अयोध्या में कारसेवकों का  कब्जा हो गया. 1-1 कर के तीनों गुंबद गिरते गए.

केंद्र सरकार ने कैबिनेट मीटिंग शुरू की. उस में यह फैसला लिया जाना था कि उत्तर प्रदेश की कल्याण सरकार को बरखास्त कर दिया जाए.

यह सूचना मिलते ही जैसे ही साढ़े 5 बजे तीनों गुंबद गिर गए, कल्याण सिंह 30 मिनट बाद राजभवन गए और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

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जब तक गुंबद पूरी तरह से गिर नहीं गए और वहां पर अस्थायी राम मंदिर नहीं बन गया, कल्याण सिंह ने कुरसी नहीं छोड़ी.

कल्याण सिंह ने इस के बाद पूरे देश में ‘जनादेश यात्रा’ निकाली. उन को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और ‘अयोध्या का नायक’ कहा गया.

‘चरित्र हनन’ की राजनीति

साल 1997 में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा के बीच 6-6 महीने की सरकार चलाने का समझौता हुआ. कल्याण सिंह 21 अक्तूबर को मुख्यमंत्री बने. कल्याण सिंह को यह लगा कि वे अब भाजपा के बड़े नेता हो चुके हैं. इस सोच के बाद ही उन का टकराव उस समय के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से हो गया.

अगड़ी जाति के नेताओं को यह लग चुका था कि कल्याण सिंह को अब जमीन पर लाना है. इस के बाद कल्याण सिंह के साथ राजाजीपुरम क्षेत्र की सभासद कुसुम राय के संबंधों को ले कर ‘चरित्र हनन’ की राजनीति शुरू हुई. ऊंची जातियों के समर्थक मीडिया में रोज नई खबरें गढ़ी जाने लगीं. लोग राजाजीपुरम के नाम को मजाक में ‘रानीजीपुरम’ कहने लगे.

अहम की इस लड़ाई में अयोध्या के नायक कल्याण सिंह की हार हुई. उन को भाजपा से बाहर कर दिया गया.

साल 2002 में कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी का गठन किया, पर इस में वे कामयाब नहीं हुए. साल 2004 में वे वापस भाजपा में आए. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण भाजपा से बाहर हो गए.  उस समय उन्होंने कहा कि अब वे वापस भाजपा में नहीं जाएंगे. यह दौर वह था, जब भाजपा में पिछड़ी  जातियों की जगह अगड़ी जातियों का कब्जा था.

साल 2013 में जब भाजपा में पिछड़ी जातियों को अहमियत दी जाने लगी, तो कल्याण सिंह को वापस भाजपा में लाया गया. साल 2014 में राजस्थान और साल 2015 में हिमाचल प्रदेश के प्रभारी राज्यपाल बने.

साल 2017 में कल्याण सिंह के पोते संदीप को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री बनाया गया. साल 2019 में कल्याण सिंह वापस भाजपा कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे.

साल 2021 के अगस्त महीने में कल्याण  सिंह की मौत हो गई, जिस के बाद भाजपा ने पूरे सम्मान के साथ उन का अंतिम संस्कार किया.

Photo Credit- Social Media

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