हत्यारिन पत्नी: न घर की रहती और न घाट की

हम  3 बहनें और 2 भाई हैं, जो पिता के साथ मजदूरी करते हैं. मेरी शादी 12 साल पहले छत का पुरा गांव के विश्वनाथ से हुई थी. कुछ सालों से वह मुझे आएदिन बहुत मारनेपीटने लगा था, क्योंकि मेरे पैर में सफेद दाग है.

‘‘मेरा 10 साल का एक बेटा और उस से एक साल छोटी बेटी है. मेरा पति मुझे घर से निकालना चाहता था. इस से कोई 5 साल पहले मेरा खिंचाव अरविंद सखवार की तरफ होने लगा था, जो हमारे खेतों में बंटाईदार है. हम दोनों में जिस्मानी ताल्लुकात बन गए. हम एकदूसरे से प्यार करने लगे थे. अरविंद भी शादीशुदा है. उस के 2 बेटे हैं.

‘‘वारदात वाले दिन मैं ने बाजरे की रोटी के लड्डू बनाए और उन में नींद की गोलियां मिला दीं. ये लड्डू मैं ने पति को खिला दिए. उसे नींद आने लगी, तो पहले उसे दूध गाड़ी में बैठा कर दिमनी ले गए, उस के बाद अरविंद अपनी मोटरसाइकिल ले आया. हम दोनों ने बेहोश विश्वनाथ को उस पर बैठाया और सिकरौदा नहर के किनारे एक सुनसान जगह ले गए.

‘‘वहां अरविंद निगरानी करता रहा कि कोई आएजाए तो पता चल जाए.

‘‘नहर के किनारे ले जा कर हम ने विश्वनाथ के कपड़े उतार दिए और उसे नहर में बहा दिया. उस के मोबाइल का सिम निकाल कर उसे भी नदी में फेंक दिया…’’

मुरैना के थाने में बैठी राजकुमारी को देख कर लगता नहीं था कि सीधीसादी सी दिखने वाली यह औरत अपने पति की इतनी बेरहमी से हत्या कर सकती है. लेकिन अब वह पछता रही है. उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा है कि इस से तो अच्छा था कि वही मर जाती.

अब राजकुमारी को समझ आ रहा है कि दोनों बच्चे अनाथ हो चुके हैं और जिन का कोई ठौरठिकाना नहीं है. जमीन अब देवर या जेठ के पास चली जाएगी, जो न जाने बच्चों के साथ कैसा सुलूक करेंगे.

शातिर दिमाग राजकुमारी

12 अगस्त, 2022 को थाने में मीडिया वालों को राजकुमारी रट्टू तोते की तरह अपनी दास्तां सुना रही थी, जिस में हैरानी और दिलचस्पी की बात यह थी कि हत्या के 22 महीने बाद तक किसी को शक ही नहीं हुआ कि विश्वनाथ अब इस दुनिया में नहीं है.

दरअसल, हत्या के बाद राजकुमारी जब घर वापस लौटी, तो उस ने अपनी 80 साला बूढ़ी सास को बताया कि विश्वनाथ काम की तलाश में गुजरात चला गया है. यही बात उस ने नातेरिश्तेदारों और गांव वालों को भी बताई थी.

सास की बात राजकुमारी अकसर मोबाइल फोन पर पति से करवा देती थी, जो असल में पति नहीं, बल्कि उस का आशिक अरविंद था, जो विश्वनाथ बन कर बात करता था.

बूढ़ी मां को ऊंचा सुनाई देता था और नजर भी कमजोर थी, इसलिए बेचारी आसानी से धोखा खाते हुए इस उम्मीद पर जीती रही कि जल्द ही बेटा लौट आएगा, मगर बेटा लौटता कहां से, उस की लाश को तो 24 नवंबर, 2020 को ही सिकरौदा पुलिस लावारिस मान कर दफना चुकी थी.

अगस्त के पहले हफ्ते में विश्वनाथ की बहन वंदना मायके आई, तो उस ने भी भाई से बात करनी चाही. राजकुमारी ने उस की बात भी अरविंद से करा दी, लेकिन इस दफा चोरी पकड़ी गई, क्योंकि वंदना को शक नहीं, बल्कि यकीन हो गया कि सामने से उस का भाई नहीं, बल्कि कोई और बात कर रहा है.

माथा ठनकने पर वंदना अपनी मां को ले कर थाने गई और इस गड़बड़ की शिकायत की तो जल्द ही सच सामने आ गया. शातिर दिमाग राजकुमारी ने पति को जल समाधि देने से पहले उस के कपड़े तक उतार लिए थे, जिस से पहचान का कोई सुबूत उस के साथ बह कर फांसी का फंदा न बन जाए. सिम निकाल कर उस के नंबर की पहचान जरूर कायम रखी.

राजकुमारी के पछतावे की वजह पति की हत्या करना कम, बल्कि पकड़े जाने के बाद सजा का खौफ ज्यादा है, क्योंकि जिंदगी अब जेल की चक्की पीसते कटेगी और अरविंद भी उस के पहलू में नहीं होगा, जो अब साफ मुकर रहा है कि हत्या उस ने की है, बल्कि पुलिस को उस ने बताया कि सारी साजिश तो राजकुमारी ने ही रची थी. वह तो उस का साथ दे रहा था. जाहिर है कि उसे सजा कम होगी.

मामूली सी बात पर पत्नी के साथ मारपीट कर विश्वनाथ बिलाशक गलती कर रहा था, लेकिन इतना बड़ा गुनाह उस ने नहीं किया था जितनी सजा उसे मिली.

बढ़ती तादाद

प्रेमी के संग मिल कर पति की हत्या करने के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, वह चिंता की बात है. इन से सबक सीखा जाना जरूरी है कि कातिल पकड़े जरूर जाते हैं.

अब डिजिटल का दौर है और हर हाथ में स्मार्टफोन है, जिस ने पुलिस और कानून की राह काफी आसान कर दी है. लिहाजा, पहले की तरह यह आसान काम नहीं रहा कि किसी को नींद की गोलियां या शराब के नशे में धुत्त कर के मारने के बाद किसी नदीनाले या नहर में फेंक दिया जाए और कुछ किलोमीटर दूर लाश जब कुछ दिन बाद मिले, तो कोई सुबूत या गवाह न मिलने की हालत में कातिल पकड़े न जाएं.

आजकल कोई भी शख्स अगर 2-4 दिन भी बिना बताए गायब होगा और उस का मोबाइल फोन बंद मिलता है, तो किसी अनहोनी के डर से तुरंत घर वाले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं, जिस की लोकेशन कातिलों को कानून के फंदे तक ले ही आती है. कई मामले तो इतने नीट ऐंड क्लीन होते हैं कि मोबाइल खंगालने की भी जरूरत नहीं पड़ती.

केस नंबर 1

हरियाणा के चमारखेड़ा गांव का रहने वाला महेंद्र सिंह अचानक गायब हो गया था, जिस की लाश गांव के नजदीक की नहर से बरामद हुई थी.

गांव में चर्चा तो पहले से ही थी, लेकिन महेंद्र के भाई सुशील ने आरोप लगाया कि महेंद्र की पत्नी यानी उस की भाभी रीनू का किसी अनजान नौजवान से प्यार का चक्कर चल रहा था.

इस शिकायत पर पुलिस ने फुरती दिखाते हुए महेंद्र का अंतिम संस्कार होने से पहले ही रीनू को गिरफ्त में ले कर कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने सच उगल दिया.

रीनू ने बताया कि उस ने नडाना गांव के रहने वाले अपने आशिक राकेश के साथ मिल कर महेंद्र की हत्या को अंजाम दिया था.

इस साजिश के तहत रीनू महेंद्र को इलाज के लिए करनाल के कल्पना चावला अस्पताल ले गई थी. वहां से राकेश के बुलावे पर वह काछवा गांव चली गई. वहां तीनों बाइक पर सवार हो कर चमारखेड़ा गांव पहुंचे और महेंद्र को छक कर शराब पिलाई और नशे की हालत में उसे नहर में धक्का दे दिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हत्या के बाद रीनू कल्पना चावला अस्पताल में भरती हो गई और 4 दिन बाद मायके चली गई और फिर ससुराल वापस आ गई. जाहिर है, अब वह कह सकती थी कि महेंद्र कहां गया, उसे नहीं पता, क्योंकि इलाज के बाद तो वह घर चली गई थी.

रीनू और राकेश ने सोचा था कि 4-6 दिन में महेंद्र की लाश कोसों दूर बह जाएगी और मछलियां और दूसरे जानवर उसे इतना नोंच खाएंगे कि लाश पहचानी नहीं जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब रीनू और राकेश जेल में बैठे पछताते हुए अपने मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ती देख रहे हैं.

रीनू तो उस घड़ी को ज्यादा कोस रही है, जब मोबाइल के जरीए राकेश से दिल और फिर जिस्म लगा बैठी थी और फिर पति को रास्ते से हटाने के लिए उस के कत्ल की साजिश रची थी.

केस नंबर 2

राजकुमारी और रीनू की तरह रीवा की अर्चना ने भी यही सोचा और चाहा था कि पति राजू की हत्या कुछ इस तरह की जाए कि कोई उस पर और उस के आशिक संदीप पर शक न करे. कुछ दिनों बाद मामला जब आयागया हो जाएगा, तो दोनों इतमीनान से शादी कर के मौज की जिंदगी जिएंगे.

12 अगस्त, 2021 को अर्चना ने अपने पति राजू के साथ छक कर शराब पी. साकी बनी इस पत्नी ने पति की शराब में आशिक की भेजी जहर की पुडि़या घोल दी थी, जिस से मामला जहरीली शराब से हुई मौत का लगे.

जहर और नशे के कहर से राजू तड़पता हुआ उम्मीदभरी निगाहों से पत्नी की तरफ देखता रहा कि वह उसे बचा ले, डाक्टर को बुलाए या फिर उसे अस्पताल ले जाए, लेकिन अर्चना का सावित्री बनने का कोई इरादा नहीं था. उस का सत्यवान तो थोड़ी दूर बसे गांव लालपुर में राजू की मौत की खबर सुनने के लिए मरा जा रहा था. वक्त काटने के लिए वे दोनों मोबाइल पर बात और चैटिंग करते जा रहे थे.

अर्चना राजू की बिगड़ती हालत के अपडेट संदीप को देती जा रही थी कि बस अब कुछ देर और, इस के बाद तो…

एक पति के प्रति एक पत्नी की क्रूरता की यह इंतिहा थी, जिस में वह पति को तिलतिल कर मरते देखने का लुत्फ उठा रही थी. जब राजू को खून की उलटी हुई तो अर्चना ने साफ कर दी. वह अपने पति की लाश पर बचपन के प्रेमी के साथ नया आशियाना बनाने के रंगीन सपने देख रही थी. घर वालों ने उस की शादी संदीप के साथ नहीं होने दी थी.

सुबह होतेहोते राजू ने आखिरकार दम तोड़ दिया. चूंकि मौत ज्यादा शराब पीने की वजह से हुई थी, इसलिए उस की लाश का पोस्टमार्टम कर बिसरा जांच के लिए सागर की फौरैंसिक लैब में भेज दिया गया.

जांच रिपोर्ट आने में 11 महीने लग गए. तब तक अर्चना और संदीप बेखौफ हो चुके थे और 4 महीने बाद नोटरी के यहां शादी भी उन्होंने कर ली थी. लेकिन बिसरा जांच की रिपोर्ट में जहर का होना पाया गया, तो पुलिस ने अर्चना को धर दबोचा. इन दोनों की रातभर की काल डिटेल्स सब से बड़ा सुबूत थीं, जिस से ये मुकर नहीं पाए.

अर्चना ने शराफत से अपना गुनाह कबूल कर लिया. जल्द ही 8 अगस्त, 2022 को संदीप को भी गिरफ्तार कर लिया गया. अब ये दोनों ही अपनी करनी पर पछताते हुए सजा का इंतजार कर रहे हैं.

हत्या हल नहीं

ऐसी लाखों पत्नियां और उन के आशिक जेल में सस्ते मुकदमे के फैसले का इंतजार करते पछता रहे हैं कि आखिर उन्हें हत्या कर के हासिल क्या हुआ. बाहर की जिंदगी में थोड़ी घरेलू और सामाजिक बंदिशें जरूर थीं, जो इस अंधेरी कोठरी की जिंदगी से तो हजार गुना ज्यादा बेहतर थीं.

अगर हत्या नहीं करते तो क्या करते, यह सवाल और उस का जवाब भी इन के जेहन में बारबार कौंधता होगा कि तलाक ले लेते तो छुटकारा भी मिल जाता और मनचाहा आशिक, माशूका और जिंदगी भी मिल जाती.

हत्यारिन पत्नी के नजरिए से देखें, तो लगता है कि तलाक की बात इन के दिमाग में शायद आई ही नहीं, क्योंकि हमारे देश के तलाक कानून बहुत सख्त और खर्चीले हैं.

ऐसा बिलकुल नहीं होता कि कोई पत्नी या फिर पति अदालत में तलाक की अर्जी लगाए और 2-4 पेशियों में ही उसे तलाक मिल जाए और फिर वह अपने आशिक से शादी कर सुकून और चैन की जिंदगी जिए.

अगर कानून में फटाफट तलाक के इंतजाम होते तो शायद पतियों की हत्याएं कम होतीं, क्योंकि पतिपत्नी के बीच रोजरोज होती कलह की मीआद सिमट कर रह जाती और पत्नी अपने प्रेमी के साथ पति की हत्या करने का रास्ता चुनने के बजाय कोर्ट जाती.

पतिपत्नी के रिश्ते में एक बार खटास पड़ जाए और उन्हें समझाने वाला कोई न हो, तो पत्नी का झुकाव अपने आशिक की तरफ बढ़ते जाना कुदरती बात है. दोनों मिलते हैं, सुनसान जगह पर सैक्स की अपनी भूख मिटाते हैं, तो यही हसीन लम्हे उन्हें अच्छे लगने लगते हैं.

पर घर पहुंचने के बाद जब शुरू होती है रोजरोज की कलह, मारकुटाई तो मन करता है कि अगर इस नरक से परमानैंट छुटकारा मिल जाए तो जिंदगी स्वर्ग हो जाएगी. इस के लिए दोनों तैयार करते हैं एक प्लान कि कैसे पति की हत्या कर के उसे हमेशा के लिए रास्ते से हटाया जाए.

पैसों की कमी, बच्चे हों तो उन की जिम्मेदारी जैसी वजहें इन्हें भागने की इजाजत नहीं देतीं. दूसरा डर इस बात का ज्यादा रहता है कि पाताल में जा कर भी छिप जाएं, पति और नातेरिश्तेदार पीछा नहीं छोड़ेंगे, इसलिए क्यों न हत्या ही कर दी जाए.

लेकिन किसी की हत्या करना मक्खीमच्छर मारने जितना आसान काम भी नहीं होता है. इस के बाद भी राजकुमारी, अर्चना और रीनू ने पूरा प्लान बना कर बड़े एहतियात से अपने पति की हत्या की वारदात को अंजाम दिया, लेकिन वे कानून के लंबे हाथों से बच नहीं पाईं. तीनों के आशिक भी अपनी जिंदगी बरबाद कर बैठे. इन का अंजाम देख कर सबक तो यही मिलता है कि हत्या करना समस्या का हल नहीं है.

तो फिर क्या है हल

आशिक के साथ मिल कर शौहर की हत्या के तकरीबन 90 फीसदी मामले गांवकसबों और गरीब तबके के लोगों में होते हैं. पढ़ेलिखे पैसे वाले तबके के लोग बजाय हत्या के तलाक का रास्ता चुनते हैं. उन्हें एहसास रहता है कि इस में देर जरूर लगेगी, लेकिन इलाज पक्का होगा, इसलिए वे सब्र का दामन थामे रहते हैं.

इस तबके की औरतें भी आमतौर पर कामकाजी होती हैं या उन्हें मायके का सहारा होता है, इसलिए उन्हें परेशानियां कम उठानी पड़ती हैं. पति से अलग रहना उन्हें किसी भी लिहाज से भारी नहीं पड़ता है.

लिहाजा, एकलौता हल तो यही है कि पति से जब पटरी बैठना बंद हो जाए और कोई दूसरा जब दिल और जिस्म की गहराइयों तक इतना उतर जाए कि उस के बिना जीना दुश्वार और बेकार लगने लगे तो फौरन पति को छोड़ देना चाहिए. यह कम से कम हत्या जैसे अपराध से मुश्किल रास्ता तो नहीं है.

इस के बाद भी अगर पति परेशान करे तो पुलिस और कानून का सहारा लेना चाहिए. इस से तलाक लेने में भी आसानी रहती है और कानूनन मुआवजा लेने में भी मदद मिलती है.

आशिक को हत्या के लिए उकसाना या उस के उकसाने में आना सीधे जेल की तरफ ले जानी वाली बातें हैं. इन से बचना चाहिए.

लेकिन इस के पहले पति से ही पटरी बैठाने की कोशिश होनी चाहिए. अकसर अनबन की वजहें उतनी बड़ी होती नहीं जितना कि उन्हें बढ़ा कर के देखा जाने लगता है. पति की छोटीमोटी कमजोरियों और गलतियों को दिल पर लेने के बजाय उन्हें प्यार और समझदारी से दूर करने से एक बड़े संगीन गुनाह से बचा जा सकता है.

अगर आप के बच्चे हैं तो उन की जो गत होगी, उसे राजकुमारी के बच्चों की हालत से समझा जा सकता है कि वे अनाथ हो कर दूसरों के रहमोकरम पर पलते रहेंगे और जिंदगी में कुछ खास नहीं कर पाएंगे.

पति को चाहिए कि वह अपनी पत्नी को गुलाम या सामान न समझे. उस से इज्जत और प्यार से पेश आए और अगर आपसी खटपट का कोई हल समझ नहीं आ रहा हो, तो रास्ते अलग कर लिए जाएं.

उत्सव : दीवाली- आनंद का नहीं पूजा पाठ का त्यौहार

पहले त्योहार मनाने का मकसद यह होता था कि जब आदमी मेहनत कर के थक जाए, तो इस बहाने खुशियां मना ले. भारत के गांवों की बात करें, तो त्योहार ही ऐसा मौका होता था, जब वहां रहने वाले खुशियां मनाने के लिए समय निकाल पाते थे. उन के आसपास ऐसा माहौल बन जाता था और तब वे नए कपड़े पहनने और लजीज पकवान का स्वाद लेते थे.

भारत में दीवाली का त्योहार अपनी अलग पहचान लिए हुए है. इसे रोशनी का त्योहार कहा जाता है, पर आज के दौर में माहौल बदल गया है. धर्म की दुकानदारी त्योहार की खुशियों पर भारी पड़ रही है.

समाज को इस तरह से बहका दिया गया है कि त्योहार पर पूजापाठ का खर्च ही उसे मनोरंजन लगने लगा है. इस में मंदिर सजाने वालों और पूजापाठ का सामान बेचने वालों की मौज हो रही है. गांवदेहात में तो त्योहारों के बहाने पैसा और समय दोनों खर्च होता है.

कोरोना काल में बेरोजगारी के चलते बहुत से लोग शहर छोड़ कर गांव आए थे. उन के पास पैसा नहीं था. खाने के लिए मुफ्त अनाज की राह देख रहे थे. बच्चों को पढ़ाने के लिए फीस और कौपीकिताबें नहीं थीं. बीमारी के इलाज के लिए पैसा नहीं था. इस दौर के खत्म होते ही भंडारे लगने लगे. मेले में लोगों की भीड़ जुटने लगी. मंदिरों में चढ़ावा चढ़ने लगा. कहीं से कोई आर्थिक संकट नहीं दिख रहा था.

पहले हर त्योहार एक क्षेत्र तक सीमित रहता था, पर अब सोशल मीडिया पर धर्म के प्रचार, टैलीविजन और फिल्मों को देख कर पूरे देश में हर त्योहार मनाया जाने लगा है.

मिसाल के तौर पर, पहले करवाचौथ केवल पंजाब तक सीमित था, पर अब यह पूरे उत्तर भारत में फैल गया है. इस की पूजा में नई चीजें जुड़ गई हैं.

यही हाल बिहार की छठ पूजा का हो गया है. यह त्योहार अब बिहार के बाहर भी पूरी तरह से फैल गया है. यही हाल पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश पूजा का हो गया है.

त्योहार का मतलब पूजापाठ

गांवदेहात में जिन लोगों के पास बच्चों को पढ़ाने, परिवार के लोगों का अस्पताल में इलाज कराने के लिए पैसा नहीं होता, वे मेलों में जाते हैं. देवीदेवताओं के नाम पर चढ़ावा चढ़ाते हैं. घर के लिए नया फर्नीचर, नए कपड़े या घरेलू सामान भले ही न खरीदें, पर नवरात्रि में पूजापाठ का सामान खूब खरीदा गया.

नवरात्रि हो या गणेश पूजा या फिर दुर्गा पूजा, हाल के कुछ सालों में इन का प्रचार घरघर हो गया है. अब तकरीबन हर कालोनी के पार्क में इन के पंडाल लगने लगे हैं. पूजा कराने वाले लोग महल्लों, गांवों और कालोनियों में रहने वालों से ही इस का चंदा लेने लगे हैं.

पहले शहरों में 1-2 जगहों पर ऐसे आयोजन होते थे. वहीं लोग एकजुट हो कर त्योहार का मजा लेते थे. अब ऐसे आयोजन कराना फायदे का सौदा होने लगा है. इस की वजह यह है कि अब धर्म के नाम पर मोटा चंदा मिलने लगा है. पहले जहां 11, 21, 51 और 101 रुपए की चंदे की रसीद कटती थी, अब शहरों में यह चंदे की रसीद 101 रुपए से कम की नहीं कटती.

गांवदेहात में भी 51 रुपए से कम की रसीद नहीं कटती है. लोग पर्यावरण, बाढ़ पीडि़तों या ऐसे ही तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए भले ही चंदा न दें, पर त्योहारों में धर्म के नाम पर चंदा खूब देते हैं.

यही वजह है कि चंदा लेने वाले भी कम पैसों की रसीद नहीं काटते हैं. जनता के मन में यह बैठा दिया गया है कि त्योहार का मतलब पूजापाठ है.

बढ़ गया पंडितों का दखल

पूजापाठ के बहाने त्योहारों में पंडितों का दखल बढ़ गया है. इस दखल का नतीजा यह हो गया है कि हर त्योहार को किसी न किसी बहाने 2 दिन का मनाया जाने लगा है. कोशिश यह होती है कि त्योहार मनाने का जो समय पंडित बताए, उस समय पर ही त्योहार मनाया जाए.

रक्षाबंधन में शुभ मुहूर्त और तिथि की बात को फैला कर उसे 2 दिन का कर दिया गया. इस के साथ ही यह भी कहा गया है कि राखी बांधने का शुभ मुहूर्त यह है, जिस की वजह से रक्षाबंधन 2 दिन का त्योहार हो गया. नतीजतन, शुभ मुहूर्त में राखी बांधने की होड़ लगी, तो हर जगह उसी समय भीड़ बढ़ गई.

इसी तरह से होली का त्योहार भी बसंत पंचमी की पूजा से शुरू होने लगा है. जिस जगह पर होलिका दहन होता है यानी जहां होली जलाई जाती है, वहां पर बसंत पंचमी के दिन एक लकड़ी बसंत पंचमी की पूजा के बाद गाड़ दी जाती है. यहीं पर होली के 1-2 दिन पहले लकड़ी एकत्र कर के होली जलाई जाती है.

आमतौर पर होली शाम को जला दी जाती थी. अब होली जलाने का भी मुहूर्त होता है. शुभ मुहूर्त पर ही होलिका दहन किया जाता है. होली खेलने का मुहूर्त भी पंडित बताने लगे हैं.

इसी तरह से गणेश पूजा में गणेश की स्थापना और दुर्गापूजा में दुर्गा की स्थापना का शुभ मुहूर्त होने लगा है. दीवाली पूजन में भी मुहूर्त के मुताबिक ही पूजा होती है.

दरअसल, मुहूर्त के पीछे एक ही बात है कि त्योहार को पूजापाठ से जोड़ना और पूजा में पंडित के प्रभाव को बढ़ाना. बिना उन की इजाजत के त्योहार को नहीं मनाया जा सकता.

धीरेधीरे जनता के मन में इस बात को पूरी तरह से बैठा दिया गया है कि बिना पूजापाठ के त्योहार नहीं हो सकता, जिस का मतलब यह है कि त्योहार लोगों की खुशी के लिए नहीं, बल्कि पूजापाठ के लिए होता है. धीरेधीरे त्योहार अपने मूल स्वरूप से पीछे हटते जा रहे हैं.

बढ़ गया बाजार

त्योहार के दिनों में गांव से ले कर शहर तक में पूजापाठ का सामान बेचने वाली दुकानों की तादाद बढ़ जाती है. उन दुकानों को ही फायदा हो रहा है, जो घर के मंदिर सजाने और पूजापाठ का सामान बेचने का काम करती हैं. मजेदार बात यह है कि अब बरतन बेचने वाले हों या किराने की दुकानें, उन में भी पूजापाठ का सामान बिकने लगा है.

गांवगांव इस तरह की दुकानें खुल गई हैं. अब डब्बाबंद पूजा का सामान मिलने लगा है. जिस तरह की पूजा का समय होता है, दुकानदार उस तरह का सामान रख लेता है, जिस में खरीदने वाले को कोई दिक्कत न हो. दुकानदार खुद ही बता देता है कि पूजापाठ में क्याक्या सामान लगता है. छोटेछोटे प्लास्टिक के पैकेट में यह सामान मिल जाता है.

दीवाली और गणेश पूजा में मूर्तियां कई तरह की और महंगी मिलती हैं. गणेश पूजा में मूर्तियां हर साल बढ़ी हुई कीमत पर खरीदनी पड़ती हैं.

पूजापाठ करने वाली जगह को सजाने के लिए भी सामान मिलता है.

इस में रंगोली से ले कर वाल पेपर तक सब होता है. बिजली की सजावट वाला सामान तो होता ही है.

और्गेनिक मूर्तियां अलग से मिलती हैं. इन को इको फ्रैंडली मूर्तियां भी कहते हैं. इन की कीमत अमूमन 500 रुपए से शुरू होती है. मूर्ति की सजावट पर पैसा अलग से लगता है.

5 दिन का आयोजन

दीवाली को 5 दिन का त्योहार माना जाता है. इन पांचों दिन को पूजा और मुहूर्त से खासतौर पर जोड़ दिया गया है. पहला दिन धनतेरस के रूप में मनाया जाता है.

दीवाली की शुरुआत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन से होती है. इस दिन धनतेरस का पर्व मनाया जाता है. धनतेरस पर धन के देवता कुबेर, यम और औषधि के देव धनवंतरी के पूजन का विधान है.

दीवाली का दूसरा दिन नरक चौदस के नाम से मनाया जाता है. नरक चौदस को छोटी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था. उसी के नाम से इस दिन को नरक चौदस कहा जाता है.

दीवाली की हर कहानी में किसी न किसी भगवान को इसलिए जोड़ा जाता है, ताकि इस से धार्मिक उत्सव बनाया जा सके, धर्म से जोड़ कर पूजापाठ को बढ़ावा दिया जा सके.

दीवाली के 5 दिन के त्योहार का सब से खास पर्व कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. दीवाली पर गणेशलक्ष्मी के पूजन का विधान है. इस के साथ ही इस दिन को राम द्वारा लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने के त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है.

दीवाली का चौथा दिन गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पूजा के नाम से मनाया जाता है. दीवाली के अगले दिन प्रतिपदा पर गोवर्धन पूजा या अन्नकूट का त्योहार मनाने का विधान है. यह पर्व भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठा कर मथुरावसियों की रक्षा करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है.

समाज को यह बताने की कोशिश की जाती है कि भगवान ही हमारी रक्षा करते हैं. इस के लिए पूजापाठ जरूरी है और पूजापाठ के लिए शुभ मुहूर्त होता है.

शुभ मुहूर्त बताने का काम पंडित करते हैं. बिना शुभ मुहूर्त के की गई पूजा फल नहीं देती है, इसलिए त्योहार मनाने के लिए जरूरी है कि शुभ मुहूर्त और पूजापाठ का पूरा ध्यान रखा जाए.

दीवाली का 5वां दिन भैया दूज या यम द्वितीया पर्व के रूप में मनाया जाता है. यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. यह त्योहार भी रक्षाबंधन की ही तरह से भाईबहन को समर्पित होता है. इस में नदी स्नान का विशेष महत्त्व बताया जाता है. इस तरह से देखें, तो दीवाली का त्योहार 5 दिन का धार्मिक आयोजन बन गया है.

सोशल मीडिया का इस्तेमाल

त्योहारों में पूजापाठ और शुभ मुहूर्त का प्रचार करने में सोशल मीडिया का रोल सब से खास हो गया है. सोशल मीडिया पर ऐसे पंडितों की भरमार हो गई है, जो धर्म का प्रचार करने का कोई मौका जाने नहीं देना चाहते. ऐसे लोग त्योहारों पर धर्म का असर बढ़ाने में लगे हैं.

सोशल मीडिया पर किसी भी त्योहार के कुछ समय पहले से ही ऐसे मैसेज वायरल होने लगते हैं, जो उस में धर्म की अहमियत बताते हैं. कई बार ये लोग ऐसे तर्क देते हैं कि त्योहार एक ही जगह 2 दिन का हो जाता है.

सोशल मीडिया पर ऐसे तर्क और ज्ञान देने वालों की भीड़ जुट गई है. इन में से ज्यादातर नौजवान हैं. वे अपने नाम के आगे पंडित लगा कर ऐसे संदेश देते हैं.

नौजवान होने के चलते इन को सोशल मीडिया पर प्रचारप्रसार की सारी जानकारी होती है. इन के संदेश इतने असरदार तरीके से लिखे होते हैं कि लोग इन पर आसानी से यकीन कर लेते हैं.

हर हाथ में मोबाइल फोन होने के चलते शहर हो या सुदूर गांव, हर जगह इन की बात आसानी से पहुंच जाती है, जिस से लोग त्योहार पर पूजापाठ ज्यादा करने लगे हैं.

त्योहार की अहमियत और इस में धर्म का दबदबा होने से तमाम तरह के खर्च बढ़ गए हैं. पूजापाठ के नाम पर हर चीज जरूरी हो गई है. पूजापाठ सही तरीके से न होने पर आप का बुरा हो सकता है, इस डर से आदमी सबकुछ छोड़ कर पूजापाठ पर अपना तनमनधन लगा देता है.

इस से हमारी जिंदगी में खर्च बढ़ गए हैं और उल्लास घट गया है. हंसीखुशी से मनाए जाने वाले त्योहार के मुहूर्त के बारे में पंडित से पूछना पड़ता है. जनता को यह समझना चाहिए कि यह सब बाजार के चलते हो रहा है, जिस का सारा बोझ उस की जेब पर पड़ रहा है.

जो पैसा घरपरिवार के भले के लिए खर्च होना चाहिए, वह पूजापाठ की दुकानों में खर्च हो रहा है. यह जनता की जेब से निकल कर धर्म का धंधा करने वालों की जेब में जा रहा है.

जनता के मेहनत की कमाई निठल्ले लोगों की जेब भर रही है, इसलिए त्योहार मौजमस्ती कम बोझ ज्यादा बनते जा रहे हैं. अगर सही माने में त्योहार मनाना है, तो फुजूलखर्ची छोड़नी होगी, तभी दीवाली और दूसरे बड़े त्योहारों का असली संदेश लोगों में जा सकेगा.

Diwali Special: हॉस्टल वाली दीवाली

जो लोग होस्टल में रहे हैं उन्हें पता है कि वे उन की जिंदगी के कभी न भूलने वाले पल हैं. होस्टल की जिंदगी मजेदार भी होती है और परेशानियों से भरी भी. बावजूद इस के, होस्टल में रह कर त्योहारों के समय जो खुशियां मिलती हैं, जो आजादी और मस्ती मिलती है, वह कहीं और नहीं मिलती.

संध्या जब हैदराबाद से दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने आई थी तो उस ने कई साल वुमन होस्टल में गुजारे थे. अब तो वह शादी कर के पति के घर में सैटल हो गई है मगर होस्टल के दिन उन्हें नहीं भूलते हैं. घर के ऐशोआराम से निकल कर कम संसाधनों और जुगाड़ों के बीच होस्टल की टफ लाइफ का भी अपना ही मजा था. उस जिंदगी को याद करते वक्त उन्हें सब से ज्यादा दीवाली की याद आती है.

संध्या कहती हैं, ‘‘किसी आसपास के शहर से होती तो त्योहारों में जरूर घर भाग जाती, मगर दिल्ली से ट्रेन में हैदराबाद तक 2 दिन का सफर बड़ा कठिन लगता था और वह भी सिर्फ दोतीन दिन के लिए जाना बिलकुल ऐसा जैसे देहरी छू कर लौट आओ. शुरू के 2 साल तो मैं दीवाली पर घर गई, मगर बाद में होलीदीवाली सब होस्टल में ही मनाने लगी.

‘‘दिल्ली के आसपास रहने वाली ज्यादातर लड़कियां घर चली जाती थीं.  बस, थोड़ी सी बचती थीं. शुरू में तो त्योहार के समय खाली पड़े कमरे को देख कर मु झे भुतहा फीलिंग होती थी, मगर जब शाम को बची हुई लड़कियां होस्टल की छत पर इकट्ठी हो कर पटाखे छुड़ाती थीं तब बड़ा मजा आता था. हम 8-10 लड़कियां नई ड्रैसेस पहन कर सुबह से ही त्योहार की तैयारियों में जुट जाती थीं. हमारी वार्डन काफी सख्तमिजाज महिला थीं, मगर उस दिन उन का मातृत्व हम लड़कियों पर खूब छलकता था. वे सिंगल मदर थीं. पति से तलाक हो चुका था. 14 साल की उन की बेटी थी जो उन के साथ ही रहती थी. त्योहार के दिन होस्टल के रसोइए की छुट्टी रहती थी और किचन हम लड़कियों के हवाले होता था. ऐसे में विशेष मैन्यू तैयार किया जाता. दोपहर और रात के खाने के लिए मनपसंद सब्जियां,  नौनवेज, पूडि़यां, पुलाव हम बनाते थे. इकट्ठे जब इतने सारे बंदे रसोई में पकाने के लिए जमा होते थे तो काम भी फटाफट निबट जाता था. शाम को हम सब होस्टल के गेट पर बड़ी सी रंगोली बनाने में जुट जाते थे. पूरे गेट और दीवार की मुंडेर को दीयों, फूलमालाओं और रंगोली से सजा देते थे.

‘‘अंधेरा होते ही पूरा होस्टल दीयों की जगमगाहट से भर जाता था. दीवाली की रात हम सब छत पर इकट्ठे हो कर आधी रात तक जम कर पटाखे जलाते थे. मगर उस दिन दोस्ती के लिए तो सब को खुली छूट थी. खुद वार्डन भी उन लड़कियों के साथ मस्ती करती. खानेपीने के बाद जब हम सोते तो दूसरे दिन 12 बजे से पहले आंख न खुलती थी.

‘‘फिर वार्डन की आवाज सुनाई देती कि जाओ सब मिल कर छत साफ करो. छत पर जले हुए पटाखों, दीयों, मोमबत्तियों, जूठे बरतनों का ढेर लगा होता था. सारा कूड़ा इकट्ठा कर के बोरियों में भर कर हम कूड़ा गाड़ी पर फेंकने जाते थे. घर की दीवाली में कभी इतना मजा नहीं आया जितना होस्टल की दीवाली में आया करता था. जबकि होस्टल की दीवाली में हमारी मेहनत दोगुनी होती थी लेकिन मजा भी दोगुना था. घर में तो मां ही पूरी रसोई बनाती थीं. वे ही पूजा करती थीं, फिर थोड़े से पटाखे हम भाईबहन महल्ले के बच्चों के साथ जला लेते थे. लो मन गई दीवाली. मगर होस्टल में त्योहार का आनंद ही अलग था. खुलेपन का एहसास जहां होस्टल में हुआ तो बियर का स्वाद भी पहलेपहल वहीं चखा.’’

संध्या बताती हैं, ‘‘मैं बचपन में बहुत दब्बू टाइप थी. मगर होस्टल में आने के बाद काफी बोल्ड हो गई. इस की वजह है होस्टल में हमें अपनी परेशानियों का हल खुद ही निकालना होता है. वहां मांबाप या बड़े भाईबहन नहीं होते जो परेशानी हल कर दें. एक बार की बात है, हमारे होस्टल में सुबह पानी की मोटर जल गई. अब किसी को कालेज के लिए निकलना था, किसी को औफिस के लिए. तब हम सब बाहर सरकारी नल से बाल्टी में पानी भरभर कर लाए और नहाया.

यह तो ऐसा मामला था जो शायद कभीकभार ही हो, लेकिन कुछ बातें तो लगभग हर गर्ल्स होस्टल या पीजी में देखने को मिलती हैं. हर होस्टल में चोरी जरूर होती है. चाहे वह कोई रहने वाली लड़की करे, चाहे कोई नौकर करे या कोई पड़ोसी ही आ कर कुछ चुरा ले जाए. लड़कियों की कटोरीचम्मच से ले कर अंडरगारमैंट्स तक गायब हो जाते थे.

‘‘कभीकभी 2 लड़कियों के बीच इतनी भयानक लड़ाई हो जाती थी कि मामला हाथापाई तक पहुंच जाता था. उस में बीचबचाव करना और सम झाना खुद की लाइफ को बहुत स्ट्रौंग बना देता है. होस्टल एक ऐसी जगह है जहां आजादी, मस्ती, टाइमपास, फैशन,  झगड़े सब होते हैं. लड़कियां अपने घर से दूर, मांबाप की डांट से दूर अपनी उम्र की लड़कियों के साथ जिंदगी का पूरा मजा लेती हैं.’’

वैसे होस्टल लाइफ को ले कर बहुत से लोग कहते हैं, ‘जो कभी होस्टल में नहीं रहा,  उस ने लाइफ में बहुतकुछ मिस किया है.’ राजीव चन्नी अपनी होस्टल लाइफ याद करते हुए कहते हैं, ‘‘पानी जैसी दाल, नहाने के लिए लंबी लाइन और खूसट वार्डन के अलावा भी बहुतकुछ होता है होस्टल में. घर के ऐशोआराम के बाद अगर आप ने होस्टल में संघर्ष कर लिया तो सम झ लो, जीवन सफल हो गया.

‘‘होस्टल में इंसान लाइफ के बहुत सारे स्किल्स सीख लेता है. जैसे, नहाते हुए पानी चले जाने पर शरीर पर लगे साबुन को गीले तौलिए से पोंछना और फ्रैश फील करना, दूसरे की शेविंग क्रीम या शैंपू इस्तेमाल कर लेना और उस को हवा भी न लगने देना, पौटी प्रैशर रोकने में सक्षम हो जाना, मनपसंद सब्जी न होने पर दहीचावल खा कर जीना, पनीर की सब्जी में से पनीर और आलू के परांठों में आलू ढूंढ़ना और जब हद गुजर जाए तो भूखहड़ताल करना वगैरहवगैरह और सब से अहम सीख है ‘एकता’. एकजुट हो कर कोई भी काम करना, स्ट्राइक से ले कर त्योहार मनाने तक.

‘‘दीवाली के दिन तो लड़कों का जोश देखने लायक होता था. कुछ घरेलू किस्म के लड़के जहां अपने कमरों में दीयामोमबत्तियां सजाते थे, पूजा करते और कुछ स्पैशल खाना बनाने में रसोइए की मदद करते थे, वहीं मर्द टाइप के लड़के इस जुगाड़ में रहते थे कि दारू और गर्लफ्रैंड के साथ त्योहार की रात कहां और कैसे मनाई जाए. दीवाली की रात ज्यादातर लड़के होस्टल के बाहर ही बिताते थे. कुछ सिनेमाहौल में तो कुछ होटल वगैरह में पाए जाते थे.

‘‘होस्टल लाइफ थी. खुली छूट थी. कोई रोकटोक नहीं. जब तक चाहो, बाहर रहो. कोई पूछने वाला नहीं था. न मां की  िझक िझक, न बाप की फटकार. कई बार तो हम सुबह के 4 बजे वापस आते और चौकीदार की जेब में 10 रुपए का नोट ठूंस कर आराम से कमरे में जा कर सो जाते. अलग ही आनंद था होस्टल लाइफ में त्योहार मनाने का. वे दिन तो जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

Diwali Special: मिलन के त्योहारों को धर्म से न बांटे

त्योहारों का प्रचलन जब भी हुआ हो, यह निश्चित तौर पर आपसी प्रेम, भाईचारा, मिलन, सौहार्द और एकता के लिए हुआ था. पर्वों को इसीलिए मानवीय मिलन का प्रतीक माना गया है. उत्सवों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है. सामाजिक बंधनों और पारिवारिक दायित्वों में बंधा व्यक्ति अपना जीवन व्यस्तताओं में बिता रहा है. वह इतना व्यस्त रहता है कि उसे परिवार के लिए खुशियां मनाने का वक्त ही नहीं मिलता.

इन सब से कुछ राहत पाने के लिए तथा कुछ समय हर्षोल्लास के साथ बिना किसी तनाव के व्यतीत करने के लिए ही मुख्यतया पर्वउत्सव मनाने का चलन हुआ, इसलिए समयसमय पर वर्ष के शुरू से ले कर अंत तक त्योहार के रूप में खुशियां मनाई जाती हैं.

उत्सवों के कारण हम अपने प्रियजनों, दोस्तों, शुभचिंतकों व रिश्तेदारों से मिल, कुछ समय के लिए सभी चीजों को भूल कर अपनेपन में शामिल होते हैं. सुखदुख साझा कर के प्रेम व स्नेह से आनंदित, उत्साहित होते हैं. और एक बार फिर से नई चेतना, नई शारीरिकमानसिक ऊर्जा का अनुभव कर के कामधंधे में व्यस्त हो जाते हैं.

दीवाली भी मिलन और एकता का संदेश देने वाला सब से बड़ा उत्सव है. यह सामूहिक पर्र्व है.  दीवाली ऐसा त्योहार है जो व्यक्तिगत तौर पर नहीं, सामूहिक तौर पर मनाया जाता है. एकदूसरे के साथ खुशियां मनाई जाती हैं. एक दूसरे को बधाई, शुभकामनाएं और उपहार दिए जाते हैं. इस से आपसी प्रेम, सद्भाव बढ़ता है. आनंद, उल्लास और उमंग का अनुभव होता है.

व्रत और उत्सव में फर्क है. व्रत में सामूहिकता का भाव नहीं होता. व्रत व्यक्तिगत होता है, स्वयं के लिए. व्रत व्यक्ति अपने लिए रखता है.  व्रत में निजी कल्याण की भावना रहती है जबकि उत्सव में मिलजुल कर खुशी मनाने के भाव. शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, नवरात्र, दुर्गापूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, छठ पूजा, गोवर्धन पूजा आदि ये सब व्रत और व्रतों की श्रेणी में हैं. ये  सब पूरी तरह से धर्म से जुड़े हुए हैं जो किसी न किसी देवीदेवता से संबद्घ हैं. इन में पूजापाठ, हवनयज्ञ, दानदक्षिणा का विधान रचा गया है.

यह सच है कि हर दौर में त्योहार हमें अवसर देते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार कर, खुशियों से सराबोर हो सकें. कुछ समय सादगी के साथ अपनों के साथ बिता सकें ताकि हमें शारीरिक व मानसिक आनंद मिल सके. मनुष्य के भले के लिए ही त्योहार की सार्थकता है और यही सच्ची पूजा भी है. उत्सव जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं. यह उत्साह मनुष्य के मन में सदैव कायम रहता है. जीवन में गति आती है. लोग जीवन में सकारात्मक रवैया रखते हैं. त्योहारों की यही खुशबू हमें जीवनभर खुशी प्रदान करती रहती है.

लेकिन दीवाली जैसे त्योहारों में धर्म और उस के पाखंड घुस आए हैं जबकि इन की कोई जरूरत ही नहीं है. इस में लक्ष्मी यानी धन के आगमन के लिए पूजापाठ, हवनयज्ञ और मंत्रसिद्धि जैसे प्रपंच गढ़ दिए गए हैं. मंदिरों में जाना, पूजन का मुहूर्त, विधिविधान अनिवार्य कर दिया गया है. इसलिए हर गृहस्थ को सब से पहले पंडेपुजारियों के पास यह सब जानने के लिए जाना पड़ता है. उन्हें चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है.

दीवाली पर परिवार के साथ स्वादिष्ठ मिठाइयों, पटाखों, फुलझडि़यों और रोशनी के आनंद के साथसाथ रिश्तेदारों, मित्रों से अपने संबंधों को नई ऊर्जा प्रदान करें. स्वार्थी लोगों ने दीवाली, होली में भी धर्म को इस कदर घुसा दिया है कि इन के मूल स्वरूप ही अब पाखंड, दिखावे, वैर, नफरत में परिवर्तित हो गए हैं.

पिछले कुछ समय से हमारे सामाजिकमजहबी बंधन के धागे काफी ढीले दिखाई देने लगे हैं. दंगों ने सामूहिक एकता को तोड़ने का काम किया है. आज उत्सव कटुता के पर्याय बन रहे हैं. त्योहारों की रौनक पर भाईचारे में आई कमी का कुप्रभाव पड़ा है. स्वार्थपरकता ने यह सब छीन लिया है. त्योहारों को संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं के दायरे में समेट कर संपूर्ण समाज की एकता में मजहब, जाति, वर्ग के बैरिकेड खड़े कर दिए गए. लिहाजा, एक ही धर्म के सभी लोग जरूरी नहीं, उस उत्सव को मनाएं.

धर्म व पाखंड के चलते रक्षाबंधन को ब्राह्मणों, विजयादशमी को क्षत्रियों, दीवाली को वैश्यों का पर्व करार सा दे दिया गया है, तो होली को शूद्रों का. ऐसे में शूद्र, दलित दीवाली मनाने में हिचकिचाते हैं. दीवाली मनाने के पीछे जितनी धार्मिक कथाएं हैं, उन से शूद्रों और दलितों का कोई सरोकार नहीं बताया गया. उलटा उन्हें दुत्कारा गया है.

अशांति की जड़ है धर्म       

अगर किसी का इन गढ़ी हुई मान्यताओं में यकीन नहीं है या वह उन से नफरत करता है तो निश्चित ही तकरार, टकराव होगा. दीवाली को लंका पर विजय के बाद राम के अयोध्या आगमन की खुशी का प्रतीक माना जाता है पर कुछ लोग रावण के प्रशंसक भी हैं जो राम को आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं मानते. राम के शंबूक वध की वजह से पढ़ेलिखे दलित उन के इस कृत्य के विरोधी हैं. राम द्वारा अपनी पत्नी सीता की अग्निपरीक्षा और गर्भवती अवस्था में घर से निष्कासन की वजह से उन्हें स्त्री विरोधी भी माना जाता है.

इसी तरह हर त्योहार को ले कर कोईर् न कोई धार्मिक मान्यता गढ़ दी गई. त्योहारों को धर्म और उस की मान्यताओं से जोड़ने से नुकसान यह है कि समाज के सभी वर्गों के लोग अब एकसाथ उन से जुड़ा महसूस नहीं कर पाते. कहने को धर्म को कितना ही प्रेम का प्रतीक संदेशवाहक बताया जाए पर धर्म हकीकत में सामाजिक भेदभाव, वैर, नफरत, अशांति की जड़ है. सच है कि त्योहारों में मिठास घुली होती है पर अपनों तक ही. मजहबी बंटवारे से यह मिठास खट्टेपन में तबदील हो रही है. अकसर त्योहारों पर निकलने वाले जुलूस, झांकियों के वक्त एकदूसरे का विरोध, गुस्सा देखा जा सकता है. कभीकभी तो खूनखराबा तक हो जाता है.

हर धर्म के त्योहार अलगअलग हैं. एक धर्र्म को मानने वाले लोग दूसरे के त्योहार को नहीं मानते. धर्मों की बात तो और, एक धर्र्म में ही इतना विभाजन है कि एक धर्म वाले सभी उत्सव एकसाथ नहीं मनाते. हिंदुओं के त्योहार ईर्साई, सिख, मुसलमान ही नहीं, स्वयं नीचे करार दिए गए हिंदू ही मनाने में परहेज करते हैं. मुसलमानों में शिया अलग, सुन्नी अलग, ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टेंटों की अलगअलग ढफली हैं. हर धर्म में ऊंचनीच है. श्रेष्ठता और छोटेबड़े की भावना है. फिर कहां है सांझी एकता? कहां है मिलन? क्या त्योहार आज भी मानवीय गुणों को स्थापित करने में, प्रेम, शांति एवं सद्भावना को बढ़ाते दिखाईर् पड़ते हैं?

त्योहारों में धर्म की घुसपैठ सामाजिक मिलन, एकता, समरसता की खाई को पाटने के बजाय और चौड़ी कर रही है. एकता, समन्वय और परस्पर जुड़ने का संदेश देने वाले त्योहारों के बीच मनुष्यों को बांट दिया गया है.

धर्म के धंधेबाजों का औजार 

धार्मिक वर्ग विभाजन की वजह से उत्सव अब सामाजिक मिलन के वास्तविक पर्व साबित नहीं हो पा रहे हैं. त्योहारों के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक महत्त्व को भूल कर धार्मिक, सांस्कृतिक पहलू को सर्वोपरि मान लिया गया है. त्योहार अब धर्म के कारोबारियों के औजार बन गए हैं. नतीजा यह हो रहा है कि विद्वेष, भेदभाव की जड़वत मान्यताओं को त्योहारों के जरिए और मजबूत किया जा रहा है. एक परिवार हजारों, लाखों रुपए दिखावे, होड़ में फूंक देता है. ऐसे में त्योहारों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं.

केवल समृद्धि, धन के आगमन की उम्मीदों के तौर पर मनाए जाने वाले दीवाली पर्व का महत्त्व धन से ही नहीं है, इस का रिश्ता सारे समाज की एकता, प्रेम, सामंजस्य, मिलन के भाव से है. हमें सोचना होगा कि क्यों सामाजिक, पारिवारिक विघटन हो रहा है. धर्मों में विद्वेष फैल रहा है? त्योहार सौहार्द के विकास में कहां सहयोग कर रहे हैं?

ऐसे में सवाल पूछा जाना चाहिए कि सामाजिक जीवन में धर्मों की क्या उपयोगिता रह गई है? धर्र्म के होते ‘अधर्म’ जैसे काम क्यों हो रहे हैं? त्योहारों के वक्त आतंकी खतरे बढ़ जाते हैं. सरकारों को सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है. रामलीलाओं में पुलिस और स्वयंसेवकों का कड़ा पहरा रहता है. वे हर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखते हैं. अब तो रामलीलाओं की सुरक्षा का जिम्मा द्रोण द्वारा तय किया जाने लगा है. फिर भी आतंकी बम फोड़ जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते है.

नए सिरे से विचार करना होगा कि परस्पर मेलमिलाप के त्योहार हमारी ऐसी सामाजिक सोच को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं? दीवाली को अंधकार को समाप्त करने वाला त्योहार कहा गया है. कई तरह के अंधकारों में धार्मिक भेदभाव, असहिष्णुता, वैमनस्यता और भाईचारे, सौहार्द के अभाव का अंधेरा अधिक खतरनाक है. जब घरपरिवार, समाज में सद्भाव, प्रेम, मेलमिलाप न रहेगा तो कैसा उत्सव, कैसी खुशी? समाज में फैल रहे धर्मरूपी अंधकार को काटना दीवाली पर्व का उद्देश्य होना चाहिए. तभी इस त्योहार की सही माने में सार्थकता है.

समस्या: ‘बूढ़ा’ के बगैर कैसे टूटेगी नक्सलियों की कमर

उम्र 80 साल. कई बीमारियों का शिकार. लकवा से पीडि़त. इस के बाद भी 4 राज्यों में नक्सली संगठनों की कमान. सिर पर एक करोड़ रुपए का इनाम. कई राज्यों में 200 से ज्यादा नक्सली वारदातों का आरोपी. हत्या के 100 से ज्यादा केस. 40 सालों से पुलिस को उस की तलाश.

प्रशांत बोस नाम का यह नक्सली कई सारे नामों से जाना जाता है. प्रशांत उर्फ किशन दा उर्फ मनीष उर्फ निर्भय मुखर्जी उर्फ काजल उर्फ महेश उर्फ बूढ़ा.

पिछले 40 सालों से पुलिस और 4 राज्यों की सरकार की नाक में दम करने वाला कुख्यात नक्सली प्रशांत बोस सैकड़ों नक्सली वारदातों का मास्टरमाइंड है. 12 नवंबर, 2021 को आखिरकार वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया. झारखंड के जमशेदपुर जिला के कांद्रा नाका के पास से उसे स्कौर्पियो गाड़ी में दबोच लिया. उस के साथ उस की बीवी शीला मरांडी और 5 नक्सलियों को पकड़ा गया.

प्रशांत बोस भाकपा माओवादी नक्सली संगठन के पोलित ब्यूरो का सदस्य है और ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो का सचिव है. प्रशांत बोस ने कन्हाई चटर्जी के साथ मिल कर साल 1978 में माओवादी कम्यूनिस्ट सैंटर औफ इंडिया की बुनियाद रखी थी.

प्रशांत बोस के पास से पुलिस ने डेढ़ लाख रुपए नकद, एक पैन ड्राइव और

2 मैमोरी कार्ड बरामद किए थे. पुलिस ने पैन ड्राइव और मैमोरी कार्ड की जांच की, तो उस में कई नक्सलियों व नक्सली संगठनों के बारे में जानकारी के साथसाथ कई मीटिंगों की जानकारी भी मिली थी.

इस से पहले सीपीआई माओपादी संगठन के हार्डकोर नक्सली बैलून सरदार और सूरज सरदार ने रांची पुलिस के सामने सरैंडर किया था. उन्हीं से मिली जानकारी के आधार पर प्रशांत बोस को दबोचने में पुलिस को कामयाबी मिल सकी थी.

प्रशांत बोस नक्सली संगठन का थिंक टैंक है और पूरे देश के नक्सली संगठनों में उस की पैठ और अहमियत है. वह झारखंड के जंगलों और पहाडि़यों में ही रहता था. पुलिस को कई बार उस के हजारीबाग के जंगलों, बोकारो के झुमरा जंगल, सरांडा के जंगल और बूढ़ा पहाड़ में होने की जानकारी मिलती रही थी.

पुलिस ने घेराबंदी कर उसे पकड़ने की कोशिश भी की, लेकिन हर बार वह पुलिस को चकमा देने में कामयाब हो जाता था. सरांडा के जंगल में सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन से कई दफा उस की मुठभेड़ हुई, पर हर बार वह बच निकला.

प्रशांत बोस मूल रूप से पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के जादवपुर का रहने वाला है. उस की बीवी शीला मरांडी झारखंड के टुंडी ब्लौक के नावाटांड गांव की रहने वाली है.

प्रशांत बोस के पिता का नाम ज्योतिंद्र नाथ सन्याल था. प्रशांत बोस का मूल पता है 7/12 सी, विजयगढ़ कालोनी, जादवपुर, कोलकाता. उस की बीवी शीला मरांडी के पहले पति का नाम भादो हंसदा था. उस की मौत के बाद शीला ने प्रशांत बोस से शादी कर ली.

साल 1960 में प्रशांत बोस ने नक्सलियों से जुड़े एक मजदूर संगठन से जुड़ कर जमींदारों के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. साल 1974 में वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया था और 1978 तक जेल की सलाखों के पीछे कैद रहा था.

रिहाई के कुछ समय बाद ही कन्हाई चटर्जी के साथ मिल कर उस ने एमसीसीआई (माओवादी कम्यूनिस्ट सैंटर औफ इंडिया) की बुनियाद रखी थी. उस के बाद उस ने गिरीडीह, धनबाद, हजारीबाग और बोकारो के जमींदारों के शोषण के खिलाफ आंदोलन तेज कर दिया था.

साल 2000 के आसपास प्रशांत बोस ने लोकल संथाल नेताओं के साथ मिल कर नक्सली संगठन को काफी मजबूत बना लिया था. साल 2004 में भाकपा माओवादी संगठन बनने के बाद प्रशांत बोस को केंद्रीय समिति और केंद्रीय सैन्य आयोग का सदस्य व पूर्वी क्षेत्रीय ब्यूरो का इंचार्ज बना दिया था.

साल 2007 में झारखंड मुक्ति मोरचा के महासचिव और जमशेदपुर के सांसद सुनील महतो की हत्या कर प्रशांत बोस ने सनसनी मचा दी थी. उस के अगले ही साल मंत्री रमेश मुंडा की हत्या कर एक बार फिर दहशत फैला दी थी. गृह रक्षा वाहिनी के शस्त्रागार को लूट कर उस ने पुलिस और सरकार को खुली चुनौती दे डाली थी. सरांडा के जंगल के 16 पुलिस वालों की हत्या का मास्टरमाइंड प्रशांत बोस ही था.

बिहार के जहानाबाद जेल बे्रक, महाराष्ट्र की कोकेगरांव हिंसा, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में डेढ़ दर्जन जवानों की हत्या का सूत्रधार प्रशांत बोस ही था. ऐसे ही सैकड़ों मामलों में पुलिस उसे कई सालों से ढूंढ़ रही थी और हर बार पुलिस के जवानों की आंखों में धूल झोंकने में ‘बूढ़ा’ कामयाब हो जाता था.

मिली जानकारी के मुताबिक, प्रशांत बोस ने पुलिस को दिए बयान में कहा था कि 70 के दशक में वह पारसनाथ आया था. वहीं से वह लगातार नक्सली गतिविधियों का संचालन करता रहा. बीमारी और काफी उम्र हो जाने की वजह से उस ने कुछ दिन पहले ही फैसला लिया था कि जिंदगी का बाकी समय वह पारसनाथ की पहाडि़यों पर रह कर ही काटेगा.

प्रशांत बोस ने यह भी कहा कि सरांडा छोड़ने के बाद संगठन में फूट पड़ चुकी है. लोकल कैडर और नेतृत्व के बीच मतभेद काफी बढ़ चुका है. संगठन में मतभेद की वजह से ही पिछले कुछ महीनों में कई नक्सलियों ने सरैंडर किया है. नक्सलियों के लेवी वसूली में भी काफी कमी आ गई, जिस से संगठन चलाना बहुत ही मुश्किल हो गया है.

झारखंड के बड़े पुलिस अफसर कहते हैं कि तकरीबन 80 साल का प्रशांत बोस जिस्मानी तौर पर भले ही कमजोर हो चुका है, लेकिन दिमागी रूप से अभी भी बहुत शातिर है. अभी भी वह किसी का भी दिमाग घुमा कर नक्सली बना सकता है.

अंधविश्वास की शिकार औरतें

देश के एक समाचारपत्र समूह द्वारा किए गए सर्वे में यह बात निकल कर आई है कि हमारे देश में हर तीसरे दिन एक मौत जादूटोना और अंधविश्वास की वजह से होती है.

साल 2001 से साल 2014 तक की 14 साल की रिपोर्ट में यह देखा गया कि भारत में 2,290 औरतों की मौत की वजह जादूटोना और अंधविश्वास है. इन 14 सालों में मध्य प्रदेश में 234 मौतें दर्ज की गईं. इन मौतों की वजह भी समाज के सभी तबकों में फैला अंधविश्वास ही है.

एक ऐसा ही मामला जबलपुर शहर की एक पढ़ीलिखी औरत के साथ हुआ. जबलपुर के गढ़ापुरवा में भद्रकाली दरबार के बाबा संजय उपाध्याय के परचे पूरे जबलपुर शहर में बांटे जाते थे.

परचे में छपे इश्तिहार में दावा किया गया था कि दरबार में एक नारियल चढ़ा कर सभी तरह की समस्याओं का समाधान किया जाता है.

संजय बाबा के इसी गलत प्रचारप्रसार के झांसे में जबलपुर शहर की 52 साल की एक औरत अनीता (बदला नाम) भी आ गई. अनीता का अपने पति से अलगाव चल रहा था, जिस की वजह से वह मानसिक रूप से परेशान रहती थी. बाबा द्वारा किए जा रहे प्रचारप्रसार के चक्कर में आ कर वह नवंबर, 2019 में भद्रकाली दरबार में पहुंची थी.

दरबार के पंडे संजय उपाध्याय ने उन्हें बताया कि पूजापाठ और मंत्र जाप करने से तुम्हारा पति तुम्हारे वश में हो जाएगा. इस तरह हैरानपरेशान अनीता को तांत्रिक संजय बाबा ने अपने झांसे में ले लिया.

संजय बाबा द्वारा बताए गए दिन जब अनीता मंदिर पहुंची, तो पूजापाठ के बहाने संजय महाराज उसे दरबार के नीचे बने एक ऐसे कमरे में ले गया, जो एकांत में होने के साथ आलीशान सुखसुविधाओं से सजा हुआ था.

संजय बाबा ने पूजापाठ के पहले उसे  जल पीने के लिए दिया. जल में कुछ नशीली चीज मिली हुई थी, जिस के चलते वह बेहोशी की हालत में चली गई. उसी दौरान संजय बाबा ने उस के साथ दुराचार कर मोबाइल फोन से वीडियो भी बना लिया.

इस घटना के बाद संजय बाबा अनीता को वीडियो दिखा कर ब्लैकमेल करने लगा. इस के बाद तो बाबा का जब मन होता, वह अनीता को वीडियो वायरल करने की धमकी देते हुए उसे अपने पास बुला लेता.

संजय बाबा द्वारा अनीता का कई बार शारीरिक शोषण किया गया. इस दुराचार से परेशान हो कर वह गुमसुम रहने लगी. परिवार के लोगों ने जब उस से वजह पूछी, तो अनीता ने अपने साथ हुए गलत बरताव की पूरी कहानी बता दी.

अनीता के परिवार वालों ने उसे हिम्मत बंधाते हुए 22 जुलाई, 2020 की रात जबलपुर के कोतवाली पुलिस थाने ले जा कर पूरी कहानी बताई और उस के साथ संजय बाबा द्वारा किए गए दुराचार की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

पुलिस ने सक्रियता से जब मामले की जांच की, तो संजय उपाध्याय की काली करतूत सामने आ गई. बाबा लेता था हर महीने पैसे जबलपुर के कोतवाली थाना प्रभारी के मुताबिक, तांत्रिक संजय उपाध्याय अनीता से हर महीने उस के पति को वीडियो भेजने की धमकी दे कर 20,000 रुपए रखवा लेता था. परेशान अनीता को वह अपने दरबार में काम के लिए भी घंटों बैठाए रखता था.

इस तांत्रिक के खिलाफ पहले भी कई औरतों ने शिकायत की थी और वीडियो भी वायरल हुए थे. इस के बाद भी तांत्रिक अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा था. एक लड़की के मातापिता ने तो संजय उपाध्याय पर लिखित में भी गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन हर बार वह अपने संपर्कों का सहारा ले कर बच जाता था.

क्यों जाल में फंसती हैं

समाज में आज भी ऐसे बाबाओं, पीरफकीरों की कमी नहीं है, जो बीमारी के इलाज के नाम पर, तो कहीं औरतों की सूनी गोद भरने के नाम पर उन्हें बहलाफुसला कर अपनी हवस मिटाते हैं.

आखिर औरतों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती है कि औलाद होने के लिए पतिपत्नी के बीच सैक्स संबंधों का होना जरूरी है? औरतों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि पति को प्यार और विश्वास से मना कर उस के दिल पर राज किया जा सकता है.

एक तरफ तो औरतें बाबाओं और तांत्रिकों को अपना सबकुछ सौंपने के लिए तैयार हो जाती हैं, पर पति और उस के परिवार की खुशियों के लिए अपने अहम को सब से ऊपर रख कर पति की बात मानने के लिए तैयार नहीं होती हैं.

इसी तरह शारीरिक और मानसिक परेशानियों का इलाज भी डाक्टरी सलाह और दवाओं से किया जा सकता है. लिहाजा, औरतों को सोचसमझ कर ऐसे ढोंगी बाबाओं के चक्कर में फंसने से बचना होगा.

नेता फैला रहे अंधविश्वास

देश के नेता मौजूदा दौर में अंधविश्वास को पनपने में मददगार बने हुए हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बारबार धार्मिक स्थलों पर जा कर साधुसंन्यासियों से मिलना तो यही दिखाता है.

महाकाल की नगरी उज्जैन में रात्रि विश्राम करने पर राजा का राजपाठ चले जाने का अंधविश्वास उन्हें कभी उज्जैन में रात को नहीं रुकने देता. कुरसी जाने के डर से वे अशोकनगर नहीं जाते हैं, तो नर्मदा नदी के उद्गम स्थल अमरकंटक जाने के लिए वे हैलीकौप्टर से नदी पार नहीं करते हैं.

मध्य प्रदेश के गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह अपने धार्मिक गुरु से पूछे बिना कोई काम नहीं करते हैं. उन की पत्नी राजयोग सदा बने रहने के लिए सुहागिनों को सिंगार का सामान बांटती हैं.

मध्य प्रदेश की एक राज्यमंत्री ललिता यादव बुंदेलखंड में अच्छी बारिश के लिए मेढकमेढकी की शादी रचा कर अंधविश्वास फैलाने का काम करती हैं, तो मंत्री गोपाल भार्गव रोजाना नंगे पैर चल कर गणेश मंदिर में पूजापाठ करते हैं.

मंत्री नरोत्तम मिश्रा पीतंबरा देवी के दर्शन के बिना कोई काम नहीं करते हैं. कांग्रेस के दिग्विजय सिंह शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के चेला हैं. वे भी बिना साधुसंतों की सलाह के कोई कदम नहीं उठाते हैं.

परंपरा के नाम पर फैला अंधविश्वास आज भी समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी जमाए बैठा है कि 21वीं सदी का मौडर्न कहा जाने वाला इनसान इस के बुरे नतीजों से बच नहीं पा रहा है.

मध्य प्रदेश का गोटमार मेला और हिंगोट युद्ध इस की जीतीजागती मिसाल है, जिस में हर साल परंपरा के नाम पर सैकड़ों लोग घायल होते हैं और कभीकभी तो उन की जान पर भी बन आती है. ऐसे कार्यक्रमों में शराब के नशे में होश खो चुके लोग पत्थरबाजी के साथ हिंसक हो जाते हैं और प्रशासन मूकदर्शक बन कर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है.

अंधविश्वास के प्रसारप्रचार में धर्म के ठेकेदारों की भूमिका काफी अहम रही है. अपनी दुकानदारी जमाने के लिए धार्मिक किताबों में लोगों को धर्म का डर दिखा कर कर्मकांड के नाम पर अंधभक्ति का बीज बोने वाले पंडेपुजारी आज अंधविश्वास की फसल काट कर उसे ही अपनी कमाई का जरीया बनाए हुए हैं.

हमारे देश में साक्षरता की दर बढ़ने और सामाजिक जीवन में विज्ञान के आविष्कारों के आने के बावजूद लोगों का मोह अंधविश्वासों से भंग नहीं हुआ है, बल्कि नएनए अंधविश्वास समाज में जन्म ले रहे हैं. विज्ञान के प्रयोग और सरकारी कार्यक्रम भी अंधविश्वास भगाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं.

देश के नेता मौजूदा दौर में अंधविश्वास को पनपने में सहायक बने हुए हैं. कुरसी पाने के लिए मठमंदिरों में मत्था टेकने और साधुसंतों की शरण में जाने वाले समाज के बड़े लोगों के आचरण आम जनता में अंधश्रद्घा फैलाने का काम कर रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों के नेता ऐसे मठाधीशों, बाबाओं और प्रवचनकर्ताओं के साथ हैं, जिन के पीछे बड़ी तादाद में भक्तों की भीड़ हो.

जब इसरो के वैज्ञानिक चंद्रयान की कामयाबी के लिए नारियल फोड़ने और मंदिरों में पूजापाठ के भरोसे हों और धर्मनिरपेक्ष देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह राफेल लड़ाकू विमान को फ्रांस से लाने के बाद उस पर ‘ओम’ लिख कर, नारियल चढ़ा कर विमान के पहियों के नीचे नीबू रखते हों, तो जनता का तो अंधविश्वासी होना लाजिमी है.

जागरूकता: गर्भपात तुरंत कराएं, वजह चाहे जो भी हो

अगर किसी लड़की के सैक्स संबंध के चलते बच्चा ठहर जाए, तो गर्भपात तुरंत कराना चाहिए. कई वजहों से गर्भपात कराना पड़ जाता है. कई बार अनचाहे गर्भधारण के चलते भी ऐसे कदम उठाने पड़ जाते हैं.

वजह चाहे जो भी हो, गर्भपात कराने से लड़की पर मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से गहरा असर पड़ता है. बच्चे होने से अच्छा गर्भपात कराना ही सुरक्षित है. हर मामले में गर्भपात कराने के बाद लड़की राहत की सांस लेती है.

गर्भपात कराने के बाद शारीरिक साइड इफैक्ट्स से कहीं ज्यादा भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक

असर देखा गया है और इस में मामूली दुख से

ले कर डिप्रैशन तक जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं.

गर्भपात कराने के बाद किसी ऐसी अनुभवी बड़ी लड़की से सभी खतरों के बारे में हर तरह की चर्चा कर लेना बहुत जरूरी है, जो आप के सभी सवालों और इन से जुड़े उसी का जवाब दे सके.

नकारात्मक, भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक असर से जुड़ा एक सब से बड़ा फैक्टर यह है कि आप के शरीर को यही लगता रहता है कि आप के अंदर अभी भी बच्चा पल रहा है.

कुछ लड़कियों में नैगेटिव फीलिंग ज्यादा होती है, क्योंकि गर्भधारण को ले कर उन का नजरिया बिलकुल अलग रहता है और वे सम?ाती हैं कि भ्रूण एक अविकसित जीव था, जो गया सो गया, पर कुछ लड़कियां गर्भपात कराने के बाद ज्यादा तनाव महसूस करती हैं.

खानपान में डिसऔर्डर, बेचैनी, गुस्सा, अपराधबोध, शर्म, आपसी संबंध की समस्याएं, अकेलापन या अलगथलग रहने का अहसास, आत्मविश्वास में कमी, अनिद्रा, आत्महत्या का विचार इस के साइड इफैक्ट्स में शामिल है.

गर्भपात कराने के बाद मुमकिन है कि किसी को भी अनचाहे भावनात्मक या मानसिक साइड इफैक्ट्स का अनुभव हो. आमतौर पर लड़कियों का अनुभव बताता है कि गर्भपात कराने को ले कर जितना वे उम्मीद कर रही थीं, उस से कहीं ज्यादा उन्हें इस प्रक्रिया से ?ोलना पड़ा.

जिन लड़कियों पर नैगेटिव भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक साइड इफैक्ट्स पड़ने की उम्मीद ज्यादा रहती है, उन में निम्न लड़कियां शामिल हैं :

* जो लड़कियां पहले से ही किसी दूसरी भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक परेशानी से जू?ा रही हैं.

* जो लड़कियां गर्भपात कराने

के लिए बहकाई गई हों और प्रेमी ने

शादी से इनकार कर दिया हो.

* गर्भपात को ले कर जिन लड़कियों की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हों.

* जिन लड़कियों को लगता हो कि गर्भपात कराना पाप या अनैतिक है.

* जिन लड़कियों को इस के लिए अपने पार्टनर का सहयोग नहीं मिल रहा हो.

लड़कियों के लिए सु?ाव

मदद लें : अनियोजित यानी शादी से पहले गर्भ से डर, विवाह के बाद जल्दी या दूसरेतीसरे बच्चों के चलते गर्भधारण की समस्या से निबटने के लिए शायद सब से जरूरी चीज होती है, ऐसे प्रशिक्षित प्रोफैशनल्स से सलाह देना, जो आप के सवालों का जवाब दे सके और आप की पर्स या पोजीशन पर चर्चा कर सके.

यदि आप बेचैनी का अनुभव कर रही हैं, तो सलाह ले सकती हैं. एकांत में रहने से बचें. अगर आप अनियोजित गर्भधारण की समस्या से जू?ा रही हैं, तो हो सकता है कि आप इस समस्या को राज रखने के लिए दूसरों से कटने लगेंगी या अकेले ही इस समस्या का सामना करने की सोचेंगी.

हालांकि यह मुश्किल हो सकता है, लेकिन इस बारे में अपने परिवार वालों और दोस्तों को बताने की कोशिश करें, जो आप को सहयोग कर सकें. ऐसे हालात में खुद को अलगथलग रखने से आप डिप्रैशन की शिकार हो सकती हैं.

अपने हालात का जायजा लें : उन लड़कियों की समस्याओं पर गौर करें, जिन्हें एक या ज्यादा साइड इफैक्ट्स का अनुभव हुआ हो. अपनी समस्या के बारे में किसी ऐसे करीबी को बताएं, जो आप के नजरिए में आप का सहयोग कर सके और आप को सम?ा सके.

तनाव से बचें : ऐसे लोगों से बचें, जो आप पर इस तरह का दबाव बना रहे हों कि वे जो सोचते हैं, वही सब से अच्छा है. आप चाहे मां बनना चाहें, बच्चे गोद लेना चाहें या गर्भपात कराना चाहें, आप अपनी पसंद के साथ जीने के लिए आजाद हैं यानी कोई भी फैसला 100 फीसदी आप का ही होना चाहिए.

दूसरों से चर्चा करें : किसी ऐसी लड़की से मिलें, जो गर्भपात करा चुकी हो, ताकि पता चल सके कि कैसा अनुभव होता है.

गर्भपात के बाद लड़कियों में अलगअलग शारीरिक साइड इफैक्ट्स हो सकते हैं. गर्भपात के बाद संभावित विस्तृत साइड इफैक्ट्स के बारे में किसी अनुभवी हैल्थ प्रोफैशनल और डाक्टर से जानकारी पाना जरूरी है.

यह भी जरूरी है कि गर्भपात के 4-6 हफ्ते बाद आप की मासिक क्रिया सही हो जाए और गर्भपात कराने के बाद आप दोबारा मां बनने लायक हो जाएं. इंफैक्शन से बचने के लिए अपने डाक्टर की सलाह के मुताबिक ही दवाओं का सेवन करना जरूरी है.

एक बात याद रखें कि अगर आप ने गर्भपात कराया है तो भी होने वाले पति को कभी पता नहीं चलेगा कि आप उस से गुजर चुकी हैं, इसलिए शादी से पहले कराए गए गर्भपात के बारे में कभी पति को या पति के सामने डाक्टर को न बताएं.

शर्मनाक: पिटाई से दलित छात्र की मौत, घिनौना जातिवाद

राजस्थान से एक झकझोर देने वाली खबर आई है. वहां के जालोर जिले के सायला ब्लौक के गांव सुराणा में सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल की तीसरी जमात का 9 साल का एक दलित छात्र इंद्रकुमार मेघवाल भारत के जातिवाद की भेंट चढ़ गया.

इंद्रकुमार मेघवाल को पानी पीने की मटकी छूने के चलते बेरहमी से पीटा गया था. यह घटना 20 जुलाई, 2022 की है. तकरीबन 25 दिन के इलाज के बाद बच्चे ने अहमदाबाद में दम तोड़ दिया था. आरोपी शिक्षक छैल सिंह भौमिया को गिरफ्तार कर हिरासत में ले लिया गया.

‘एक टीचर ने बकाया फीस की वजह से पीटपीट कर बच्चे को मार डाला’, ‘एक शिक्षिका ने बच्चे के मुंह में डंडा घुसेड़ कर उसे अधमरा कर दिया’… इस तरह की आसपास हिंसा की ऐसी ही और भी वारदातें हो रही हैं.

दुख और शर्म की बात यह है कि यह देश सदियों से जाति और जैंडर आधारित हिंसा झेल रहा है और लोग जाति और धर्म का झूठा गौरवगान कर रहे हैं.

इंद्रकुमार मेघवाल की हत्या पर इंसाफ मांग रहे लोगों पर फिर दमन की लाठियां चलीं और कुछ दलितों का भी खून बहाया गया. मारे गए छात्र के शोक में डूबे परिवार वालों को भी लाठियों का शिकार होना पड़ा.

सिस्टम इतना असंवेदनशील है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के विधायक पानाचंद मेघवाल ने अपनी विधायकी से इस्तीफा देना उचित समझा.

आरोपी शिक्षक छैल सिंह भौमिया राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखता है. वह अपने एक पार्टनर के साथ इस स्कूल का संचालक और हैडमास्टर भी था.

गांव सुराणा के इस सरस्वती विद्या मंदिर में सभी जातियों के तकरीबन 350 छात्र पढ़ रहे हैं. यह गांव भौमिया राजपूत समुदाय की बहुलता वाला है, पर स्कूल में दलित विद्यार्थियों के साथसाथ दलित व आदिवासी शिक्षक भी नियुक्त हैं और इस स्कूल का एक पार्टनर तो जीनगर है, जो दलित समुदाय का ही है.

इंद्रकुमार मेघवाल ने स्कूल के हैडमास्टर छैल सिंह भौमिया के लिए रखी पानी पीने की मटकी से पानी पी

लिया था और इस से आगबबूला हैडमास्टर ने मासूम बच्चे के साथ मारपीट की. जिस से उस के दाएं कान और आंख पर गंभीर चोट आई और उस की नस फट गई.

शिक्षक छैल सिंह भौमिया के गिरफ्तार होते ही शिक्षक की जाति के लोग संगठित और सक्रिय हुए और उन्होंने यह कहते हुए कि ‘पानी की मटकी छूने और मारपीट करने की बात झूठ है’.

अब सोशल मीडिया पर जातिवादी संगठन अपने बचाव में तरहतरह की बातें लिख रहे हैं जैसे कि उस विद्यालय में कोई मटकी थी ही नहीं, सब लोग पानी की टंकी से ही पानी पीते थे. पानी की बात, मटकी की बात, छुआछूत की बात और यहां तक कि मारपीट की बात भी सच नहीं है. लड़का पहले से ही बीमार था, बच्चे आपस में झगड़े होंगे, जिस से उसे चोट लग गई होगी.

उसी स्कूल के एक अध्यापक गटाराम मेघवाल और कुछ विद्यार्थियों को मीडिया के सामने पेश किया गया कि पानी की मटकी की बात सही नहीं है. इस स्कूल में कोई भेदभाव नहीं है और न ही बच्चे के साथ मारपीट की गई.

जालोर के भाजपा विधायक जोगेश्वर गर्ग ने भी अपना सुर मिलाया और खुलेआम आरोपी शिक्षक को बचाने की कोशिश करते हुए वीडियो जारी किया. पुलिस ने भी बिना इंवैस्टिगेशन पूरा किए ही मीडिया को बयान दे दिया कि मटकी का एंगल नहीं लग रहा है.

इतने बड़े कांड को 23 दिन तक छिपा कर रख दिया गया. अगर दलित इंद्रकुमार की मौत नहीं होती, तो पूरा मामला मैनेज ही किया जा चुका होता.

‘मानवतावादी विश्व समाज’ के संरक्षक आईपीएस किशन सहाय ने इस मुद्दे पर कहा, ‘‘भारत सरकार और राज्य सरकारें आजादी के 75 साल पूरे होने पर आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना  रही हैं, वहीं दूसरी तरफ दलितों को ऊंची जातियों के साथ पानी पीने तक का अधिकार नहीं है.

‘‘राजस्थान में ऊंची जाति के शिक्षक की मटकी से पानी पीने पर मौत की सजा इसलिए दी गई, क्योंकि वहां मनुवाद और पति की मौत पर सती बनने वाली फूलकुंवर की सोच अभी जिंदा है.

‘‘पौराणिक ग्रंथों की दकियानूसी मान्यताओं, शोषित  समाज की इज्जत के साथ खिलवाड़ और औरतों के आत्मसम्मान पर थोपी गई नैतिकता का रिवाज धर्म के आवरण में छिपा हुआ है. पापाचार, कुरीति, आडंबर और छुआछूत को कुचलने में कामयाबी इसलिए नहीं मिल पा रही है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दलों के लिए मनुवाद ब्रह्मास्त्र की तरह है.’’

राजस्थान हाईकोर्ट परिसर में 28 जुलाई, 1989 को उच्च न्यायिक सेवा एसोसिएशन ने लायंस क्लब के सहयोग से लगवाई गई मनु की प्रतिमा विवाद का जिक्र करते हुए किशन सहाय ने कहा, ‘‘मनु के विवादित स्टैच्यू को हटाने के लिए हाईकोर्ट ने निर्देश भी दिया, लेकिन भाजपा के अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद के नेता आचार्य धर्मेंद्र ने इस फैसले को चुनौती देते हुए इस पर अंतरिम रोक का आदेश हासिल कर लिया था. बाद में कोई भी सरकार मनु की प्रतिमा हटवाने की हिम्मत नहीं दिखा सकी.

‘‘साल 2015 में हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई तो हुई, लेकिन 3 दशक गुजर जाने के बावजूद जातिवाद और छुआछूत को बढ़ावा देने वाली मनु संस्कृति के कलंक को मिटाया नहीं जा सका.’’

बीते दिनों वाराणसी, उत्तर प्रदेश के एक गांव सुइलरा में विजय गौतम नामक दलित बच्चे पर 4 किलो चावल चुराने का झूठा इलजाम लगा कर दबंगों ने बुरी तरह पीटा था, जिस से उस की मौत हो गई थी, जबकि पुलिस ने आरोपियों पर ऐक्शन लेने के बजाय पीडि़त पक्ष के लोगों को ही धारा 151 में जेल भेज दिया था.

सामाजिक चिंतक भंवर मेघवंशी का कहना है, ‘‘सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में जाति के आधार पर शोषण के उदाहरण हर जगह देखने को मिल जाते हैं. समाज में ऊंचनीच की दरार अभी भी मौजूद है. चतुर लोगों ने जाति और वर्ण का भेद जानबूझ कर पैदा किया है. इस में वे लोग सब से आगे हैं, जो सुविधाभोगी हैं.

‘‘आजाद देश में हर कोई इज्जत के साथ जीना चाहता है, लेकिन मनुवाद के पोषक नहीं चाहते हैं कि उन के नाम के आगे जातिसूचक नाम लगा रहे. जब तक राष्ट्र में एक नियम, समान आर्थिक सुविधा, समान समाज नीति, एक भाषा का पालन नहीं कराया जाएगा, तब तक छुआछूत की दहशत बनी रहेगी.

‘‘इंद्रकुमार के मुद्दे पर दलित समाज गुस्सा हो कर आंदोलन की राह पकड़ रहा है, तो इस के लिए कोई और नहीं सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है.’’

आज भी देश के ज्यादातर गांवों के दूसरे छोर पर अछूतों की बस्ती अपने बंधे हाथ और पिघलती आंखों से गूंगे की तरह अपने मालिकों के आदेश का पालन करने के लिए मजबूर है. अपने हक के लिए वे लोग अपनी आवाज नहीं उठा सकते हैं. अपनी हिफाजत के लिए अपनी भुजाओं का इस्तेमाल करना जैसे वे भूल गए.

दलितों को अस्पृश्य में बराबरी मानने पर संविधान व कानून में दंड का प्रावधान है. इस के बावजूद इंद्रकुमार मेघवाल जैसे तमाम मासूम रोज कहीं न कहीं अछूतपन और बेइज्जती के शिकार हो रहे हैं, पर क्या मजाल कि संविधान और उस का कानून अपने सजा देने के हक का इस्तेमाल कर सके.

दलित घरों में विधवा की शादी

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के रम्पुरा गांव में रहने वाली अनीता का कुसूर केवल इतना था कि वह एक ब्राह्मण के घर पैदा हुई थी. 18 साल की होते ही वह 12वीं जमात पास हुई, तो उस की शादी कर्मकांड करने वाले एक पंडित के बेटे से करा दी गई. पंडित होने की वजह से जन्म कुंडली का मिलान कर शुभ मुहूर्त में शादी की रस्में निभाई गईं.

अनीता ससुराल में कुल 4 महीने ही रह पाई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. ससुराल वाले उसे इस बात के लिए ताना देते कि उस के कदम घर में पड़ते ही उन का बेटा दुनिया छोड़ गया.

ससुराल वालों के तानों से परेशान हो कर अनीता अपने पिता के घर पर रहने लगी. उस की हालत देख कर मां के मन में कई बार अपनी लड़की की फिर से शादी करने का विचार आता, पर वे अनीता के पिता से कभी इस का जिक्र नहीं कर सकीं.

अनीता की मां जानती थीं कि जातिबिरादरी की दकियानूसी परंपराओं के चलते अनीता के पिता कभी उस की दोबारा शादी के लिए तैयार नहीं होंगे.

इस घटना को 20 साल हो चुके हैं. तब से ले कर अब तक अनीता अपने पिता के घर पर अपनी पहाड़ सी जिंदगी बिताने को मजबूर है. दिनभर वह नौकरों की तरह घर के काम में लगी रहती है और अपनी कोई ख्वाहिश किसी के सामने जाहिर नहीं होने देती.

अनीता जैसी न जाने कितनी विधवा लड़कियां हैं, जो सामाजिक रीतिरिवाजों के चलते जिंदगी की खुशियों से दूर हैं. ऊंची जातियों में फैली इन कुप्रथाओं को देख कर तो लगता है कि जिन जातियों को समाज में नीचा समझा जाता है, वे इन मामलों में कहीं बेहतर हैं.

हमारे देश में चल रही वर्ण व्यवस्था में ऊंची जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भले ही दलितों को हिकारत की नजर से देखते हों, पर कम पढ़ेलिखे इन दलितों की सोच पढ़ेलिखे ऊंची जाति के ठेकेदारों से कहीं अच्छी है.

16 फरवरी, 2021 को संत रैदास जयंती पर दलित समाज के लोगों द्वारा  कराई गई एक शादी की चर्चा करना बेहद जरूरी है.

मध्य प्रदेश के गाडरवारा में रहने वाले छिदामी लाल अहिरवार की 26 साल की बेटी ज्योति के पति की मौत अप्रैल, 2021 में कोरोना की तीसरी लहर में हो गई थी.

ज्योति के पति राजन प्राइवेट स्कूल में टीचर थे. उन की मौत के बाद ज्योति अपने बेटे को ले कर अपने पिता के पास रहने लगी.

पिता छिदामी लाल पेशे से सरकारी स्कूल में चपरासी हैं, पर उन की सोच बड़ी है. उन्हें अपनी बेटी के भविष्य की चिंता थी. उन्होंने सोचसमझ कर समाज के लोगों के बीच उस की दूसरी शादी की चर्चा की, तो शिक्षक वंशीलाल अहिरवार, मानक लाल मनु ने छिदामी लाल की इस पहल की तारीफ की.

समाज के लोगों के बीच हुई चर्चा में पता चला कि चीचली के पास हीरापुर गांव के शिवदास त्रिपालिया के 33 साल के बेटे हेमराज की पत्नी विनीता की मौत आज से 5 साल पहले हो चुकी थी. विनीता और उस के होने वाले बच्चे की मौत जचगी के दौरान ही हो गई थी.

हेमराज साइंस में ग्रेजुएट और कंप्यूटर में पीजीडीसीए की डिगरी ले कर एक निजी स्कूल में पढ़ाता है. दोनों पक्षों की रजामंदी से ज्योति और हेमराज की दूसरी शादी का फैसला हुआ और हेमराज ज्योति के बेटे के साथ उसे दुलहन बना कर अपने घर ले आया.

दलित समाज में होने वाला विधवा विवाह कोई नई बात नहीं है. दलित समाज में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. विधवा या विधुर की दूसरी के लिए इस तबके के लोग पंडितपुरोहितों से इजाजत लेने के बजाय लड़कालड़की की रजामंदी को तवज्जुह देना ज्यादा जरूरी समझते हैं.

मनुवादी सोच भी जिम्मेदार

समाज में विधवा की बुरी हालत के लिए मनुवादी सोच और व्यवस्था भी कम जिम्मेदार नहीं है. ‘मनुस्मृति’ में विधवा की दूसरी शादी का कोई विधान नहीं लिखा गया है. मनुवादी विधवा को कठोर जीवन जीने का आदेश दे कर उन से पाकसाफ आचरण की उम्मीद रखते हैं.

‘मनु विधि संहिता’ के अनुसार, पति के मर जाने के बाद औरत पवित्र पुष्प, कंद और फल के आहार से शरीर को क्षीण कर और व्यभिचार की भावना से दूसरे मर्द का नाम भी न ले. एक पतिव्रता धर्म चाहने वाली औरत जिंदगीभर क्षमायुक्त नियम से रहने वाली और मदिरा, मांस और मधु को छोड़ कर ब्रह्मचर्य से जीवन बिताए.

मनुवादी पापपुण्य का डर दिखा कर केवल यह चाहते हैं कि पति के मरने के बाद औरत मन, वचन, कर्म से संयत जीवन जिएगी, तो सीधे स्वर्ग की टिकट की अधिकारी हो जाएगी.

आज भी गांवकसबों में किसी विधवा के साथ उस के परिवार के लोग गलत बरताव करते हैं. जिस घर में वह अपने पति के जीवित रहते घर की मालकिन हो कर रहती थी, वहां उसे अब एक नौकरानी की तरह जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता है.

यही नहीं, विधवा अपने बच्चों के अलावा और सभी के द्वारा अशुभ मानी जाती थी. उस होने भर से उस के चारों ओर उदासी छा जाती थी. वह घर के मांगलिक समारोहों में शामिल नहीं हो सकती थी.

मनुवादियों ने समाज में यह गलत धारणा फैला दी है कि विधवा सभी लोगों के लिए दुर्भाग्य की वजह बनती है. विधवा औरत को घर के नौकरचाकर तक भाग्यहीन मानते हैं. सामाजिक तौर पर विधवा औरत समाज के कड़वे तानों का शिकार होती है.

विधवा को इज्जत नहीं

आज के दौर में लोग इस बात की दुहाई देते हैं कि अब लड़कियां किसी से कम नहीं हैं. वे मर्दों की तरह ही सब काम करती हैं और आजाद हैं, लेकिन आएदिन जब रेप जैसी वारदात सामने आती हैं, तब ये सब बातें बेमानी सी लगती हैं. शादीशुदा हो या कुंआरी, उसे हमेशा मर्द के साथ की जरूरत महसूस करवाई जाती है और जब किसी वजह से मर्द का साथ उस से छूट जाता है, तो उन्हें जिन हालात का सामना करना पड़ता है, वे बदतर होते हैं.

औरतों को इज्जत दिलवाने की पैरवी तो की जाती है, लेकिन अगर वाकई ऐसा होता तो आज ‘विधवाएं’ किसी आश्रम में अपने मरने का इंतजार न करतीं. सच तो यह है कि उन्हें समाज द्वारा कड़े बंधनों में बांध कर रखा गया है. समाज ने उन के पहनावे से ले कर खानपान तक के नियम तय कर रखे हैं.

धर्म और शास्त्र हैं वजह

औरत की आजादी और तरक्की में सब से बड़ी बाधा हमारे धर्मग्रंथ हैं, जिन में लिखी बातें मर्दों को तमाम तरह की छूट देते हैं, पर औरतों की आजादी पर पहरा बिठाने की वकालत करते हैं. सादा रहना और सफेद साड़ी पहनना तो जैसे एक विधवा की पहचान बन गई है. यह शास्त्रों में लिखा गया नियम है, जिस के आधार पर जिस औरत के पति की मौत हो जाए, उसे अपने खानपान और पहनावे में बदलाव कर लेना चाहिए.

धर्मशास्त्रों के अनुसार, पति की मौत के 9वें दिन सफेद वस्त्र धारण करने का नियम है, जिसे निभाना बहुत जरूरी माना गया है. स्त्री को उस के पति की मौत के कुछ सालों बाद तक केवल सफेद कपड़े ही पहनने होते हैं और उस के बाद अगर वह रंग बदलना चाहे तो भी बेहद हलका कपड़ा ही पहनना होगा.

शास्त्रों की मानें, तो एक विधवा को बिना लहसुनप्याज वाला भोजन करना चाहिए और साथ ही उन्हें मसूर की दाल, मूली व गाजर से भी परहेज रखना चाहिए. सिर्फ इतना ही नहीं, उन के लिए भोजन में मांसमछली परोसना घोर अपमान व पाप के समान है. उन का खाना पूरी तरह सात्विक होना चाहिए.

धर्म के ठेकेदारों की मनुवादी सोच साफतौर पर यह बात जाहिर करती है कि वे औरत का गुलाम बना कर रखने की वकालत करते हैं. धर्म की यह पितृ सत्तात्मक सोच औरतों की तरक्की में सब से बड़ी बाधा है.

इन्होंने की शुरुआत

आज से 165 साल पहले 1856 में 16 जुलाई के दिन भारत में विधवा की दूसरी शादी करने को कानूनी मंजूरी मिली थी. अंगरेज सरकार से इसे लागू करवाने में समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर का बड़ा योगदान था. उन्होंने विधवा विवाह को हिंदू समाज में जगह दिलवाने का काम शुरू किया था.

इस सामाजिक सुधार के प्रति उन की प्रबल इच्छाशक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद विद्यासागर ने अपने बेटे की शादी भी एक विधवा से ही कराई थी.

इस के अलावा सावित्री बाई फुले ने भी अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ समाजसेवा करने का बीड़ा उठाया था. उन दोनों ने साल 1848 में पुणे में देश का पहला बालिका स्कूल खोला था और स्कूल में बालिकाओं को पढ़ाने वाली वे पहली महिला शिक्षका बनी थीं.

सावित्री बाई फुले जब पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं, तो विरोध में लोग उन पर कीचड़ और गोबर तक फेंक देते थे. ऐसे में वे एक साड़ी अपने थैले में रख कर स्कूल जाती थीं.

सावित्री बाई फुले ने औरतों को पढ़ाने के साथ ही विधवा विवाह, छुआछूत मिटाने, बाल विवाह, युवा विधवाओं के मुंडन के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद की थी.

साल 1854 में उन्होंने एक आश्रय खोला था, जिस में उन लाचार औरतों और विधवाओं को आसरा मिला था, जिन्हें उन के परिवार वालों ने छोड़ दिया था.

सावित्री बाई ने ही विधवा की दूसरी शादी की परंपरा भी शुरू की थी और उन की संस्था के द्वारा ऐसी पहली शादी 25 दिसंबर, 1873 को कराई गई थी. सावित्री बाई ने एक विधवा के बेटे यशवंतराव को गोद भी लिया था.

आज देश में बड़ी आबादी दलित और तबके के लोगों की है, मगर ऊंची जातियों के दबंग उन पर रोब जमाते हैं और पंडेपुजारी उन्हें धर्म की घुट्टी पिलाते हैं.

मौजूदा दौर में पढ़ेलिखे दलित तबके के लोगों को संविधान में बनाए गए नियमकानूनों को जानसमझ कर सामाजिक कुप्रथाओं को रोकने के लिए आगे आना होगा, तभी औरतों को उन का वाजिब हक और इज्जत हासिल हो सकेगी.

लड़कियों की इज्जत पर भारी प्यार

एकसाथ 2 लोगों से प्यार होना बड़ी बात नहीं है. प्यार… दुनिया का सब से खूबसूरत शब्द है. जब यह होता है तो सबकुछ सुंदर और अच्छा लगने लगता है. और जब नहीं होता तो सबकुछ हो कर भी दुनिया उदास व बेरंग नजर आती है. यह स्थिति प्यार होने और न होने की है, लेकिन तब क्या होगा जब 2 लोगों से एकसाथ प्यार हो जाए और दोनों में से आप किसी से अलग नहीं होना चाहें? इस सवाल को सुन कर आप के मन में सवाल आया होगा कि क्या 2 लोगों से एकसाथ प्यार होना मुमकिन है? तो इस का जवाब हां है.

आज के दौर में लव ट्राएंगल के किस्से काफी बढ़ गए हैं. पिछले कुछ सालों में लव ट्राएंगल की लोकप्रियता बढ़ी है. यह तब होता है जब आप अपने वर्तमान पार्टनर से खुश नहीं होते और प्यार व इमोशनली सपोर्ट के लिए किसी और को खोजने लगते हैं. ऐसी स्थिति में आकर्षण होना लाजिमी है. जब यह होता है तो लव ट्राएंगल कहा जाता है, लेकिन इसी ट्राएंगल में लड़कियां बुरी तरह फंस जाती हैं.

कुछ दिनों पहले रोहतक में एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और उस के बाद उस की निर्ममता से जो हत्या हुई, उस की जैसेजैसे परतें खुल रही हैं वे बहुत ही भयानक हैं. बलात्कारी और हत्यारे कोई और नहीं बल्कि लड़की का पुराना प्रेमी और उस के दोस्त ही हैं, जिन्होंने सोनीपत से जबरदस्ती उस का अपहरण किया. उस के बाद उस के साथ सामूहिक बलात्कार, फिर उस की निर्ममता से हत्या कर दी.

उस के हर अंग को बुरी तरह से कुचल दिया. उस के बाद उस की बौडी को झाडि़यों में फेंक दिया. जहां उस को कुत्ते खाते रहे. लड़की को ईंट से बुरी तरह कुचला गया, उस को गाड़ी से भी कुचला गया. उस के गुप्तांग में लोहे की छड़ घुसेड़ दी गई. यह अमानवीयता की हद है. अब वह लड़का कहता है कि वह उस लड़की से बहुत प्यार करता था. उस से शादी करना चाहता था, लेकिन जब लड़की ने शादी से मना कर दिया तो उस ने ऐसा किया.

प्यार का जादू

ऐसा जरूरी नहीं कि जिसे हम प्यार करें वह भी बदले में हमें प्यार दे. हम जिसे प्यार करते हैं अगर  वह भी हमें प्यार करे तो वे दोनों लव कपल कहलाते हैं, पर ऐसा न हुआ तो इसे हम एकतरफा प्यार कहते हैं. दिल टूटना, सपने टूटना आदि एकतरफा प्यार की निशानियां हैं.

संसार में ऐसा कोई नहीं जो प्यार के जादू से वंचित हो. प्यार एक नशे की तरह है जिस के बिना जिंदगी संभव नहीं. प्यार का जादू सिर चढ़ कर बोलता है और हां, प्यार का नाम सुनते ही न जाने हमारे दिल को क्या हो जाता है कि वह बीते हुए कल की तरफ या फिर आने वाले कल को  हसीन पलों में संजोए रखता है.

आज आप उम्र के उस कगार पर खड़े हैं जब प्यार का नशा अपनेआप ही चढ़ जाता है. जी हां, 16 साल की उम्र ऐसी ही होती है. कोई भी अनजान अपना सा लगने लगता है, जिस को सिर्फ देख कर ही दिल को सुकून मिलता है.

लड़कों के साथ ऐसा कई बार होता है. वे जिस लड़की को पसंद करते हैं वह उन के बारे में वैसा नहीं सोचती है. जिस के कारण वह उन के प्यार को स्वीकार नहीं कर पाती है और लड़कों को उस की न का सामना करना पड़ता है. ऐसे में लड़कों के लिए इस स्थिति का सामना करना मुश्किल हो जाता है. कई बार वे कुछ गलत कदम भी उठा लेते हैं जो दोनों के लिए बहुत नुकसानदेह हो जाता है. ऐसे में लड़कों व लड़कियों दोनों को संयम से काम लेना चाहिए.

न सुनने के लिए भी रहें तैयार

आप जब किसी से अपने दिल की बात कहते हैं तो ‘हां’ की उम्मीद के साथसाथ उस की ‘न’ सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. जब आप ने उसे अपनी भावनाओं के बारे में बता दिया तो आप का इजहार करने का काम खत्म हो गया. अब इस के आगे आप कुछ नहीं कर सकते. आप को हमेशा मानसिक रूप से तैयार रहना होगा कि अगर सामने वाला आप के प्यार को अस्वीकार भी कर देगा तो आप टूटेंगे नहीं.

आप किसी से प्यार करते हैं तो इस में बुराई नहीं है, लेकिन अपने प्यार का नकारात्मक प्रभाव अपनी पढ़ाई या कैरियर पर न पड़ने दें. यह आप के जीवन को बरबाद कर देगा. किसी के इनकार के बाद भी आप के जीवन में बहुतकुछ है जिसे आप पा सकते हैं. उस में आप की कोई गलती नहीं थी, इसलिए जितनी जल्दी हो सके उसे भूल जाएं, क्योंकि वह आप के बिना ज्यादा खुश है. वह आप को नहीं चाहती.

अगर आप उस की ‘न’ सुनने के बावजूद उस पर अपना प्यार थोपेंगे तो यह उस की भी खुशियां छीन लेगा. इसलिए उस के रास्ते से हट जाएं इस में ही आप दोनों खुश रहेंगे.

सही कदम उठाएं

किसी के बहकावे में आ कर कोई भी गलत कदम न उठाएं. इस से आप को कुछ हासिल नहीं होने वाला. इस से लोग आप पर हंसेंगे. आप के जीवन पर भी इस का बुरा प्रभाव पड़ सकता है. इसलिए इस घनचक्कर से निकलने की कोशिश करें. प्यार के अलावा भी आप के जीवन में बहुतकुछ है. इन सब को भुलाने के लिए खुद को काम में, पढ़ाई में या दोस्तों के साथ व्यस्त रखें.

समय हर जख्म को भर देता है. कुछ समय के बाद आप जिंदगी में नई शुरुआत कर पाएंगे. जिसे आप पसंद करते हैं उस के प्रति अपने मन में कोई मैल न रखें, न ही उस से बदला लेने की सोचें और न ही उस की जिंदगी को बरबाद करने की कोशिश करें.

अकसर लड़के प्यार में ‘न’ सुनने के तुरंत बाद किसी से भी प्यार करने के चक्कर में पड़ जाते हैं. यह पूरी तरह से भावुकता में लिया गया गलत फैसला है. ऐसे में खुद को थोड़ा समय दें और सोचसमझ कर किसी नए रिश्ते की शुरुआत करें.

सिर्फ इसलिए क्योंकि आप को अपना प्यार नहीं मिला, आप भी किसी और के साथ ऐसा करें, यह ठीक नहीं है. असल जिंदगी में फिल्मी तरीके न अपनाएं क्योंकि फिल्मों की कहानी काल्पनिक होती है जो जिंदगी की वास्तविकता से हमेशा मेल नहीं खाती है. गम दूर करने के नाम पर कभी नशे का सहारा न लें. यह आप की जिंदगी को बरबाद कर देगा.

त्रिकोणीय प्रेम से रहें दूर

दिल पर किसी का वश नहीं चलता. यह बहुत चंचल है, लेकिन कभीकभी यह चंचलता हमें ऐसी मुसीबत में डाल देती है जिसे हम जान कर भी अनदेखा कर देते हैं. त्रिकोणीय प्रेम का एक कारण यह भी होता है कि जब आप का अपने रिश्ते पर से भरोसा उठ जाता है और आप एक नए रिश्ते में बंधने की कोशिश करते हैं, जब ऐसे मुश्किल हालात सामने होते हैं तो यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि यह प्यार है या महज आकर्षण.

प्यार एक भावनात्मक रिश्ता

कोई कैसे अपने भावनात्मक रिश्तों के साथ खिलवाड़ कर सकता है. ऐसे ही रिश्तों की वजह से आज हमारे देश में लिवइन रिलेशन बढ़ता जा रहा है. सदियों से चली आ रही परंपराओं के अनुसार भी यह गलत है, क्योंकि एक रिश्ते के होते हुए दूसरा रिश्ता बनाना गुनाह है. भारत में इस तरह की परंपरा कभी नहीं रही, लेकिन अब यह हो रहा है. जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.

यह मुमकिन है कि हम एक समय में 2 लोगों के प्रति एकजैसी भावनाएं महसूस करें, लेकिन जिंदगी भर दोनों रिश्तों का एकसाथ निभा पाना मुश्किल है. समय रहते अगर इसे सुलझाया नहीं गया तो आगे जा कर आप एक बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हैं. दरअसल, त्रिकोणीय प्रेम केवल एक आकर्षण के अलावा और कुछ भी नहीं है. इसलिए इस के चक्कर में न ही फंसे तो ज्यादा अच्छा है.

सोच बदलने की जरूरत

सवाल यह है कि अगर मामूली सा भी लड़के को किसी लड़की से कभी प्यार हो जाता है तो वह बलात्कार तो दूर की बात है, उस की मरजी के बिना उस को छूता भी नहीं है. हत्या करना तो दूर, उस को खरोंच भी नहीं आने देना चाहता. क्या कोई सच्चा प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ ऐसा करेगा. चाहे वह एकतरफा ही प्यार क्यों न हो, वह ऐसा कभी भी नहीं करेगा. अगर कोई भी सिरफिरा प्रेमी ऐसा करता है तो वह मानसिक रूप से बीमार है. उस का इलाज तो मनोचिकित्सक ही कर सकता है.

लेकिन ऐसी घटनाएं दिनोदिन क्यों बढ़ रही हैं, इस के पीछे कारण क्या है. इस का सब से बड़ा बुनियादी कारण है पुरुषवादी सोच जो महिला को दोयम दर्जे का मानती है. जो मानती है कि महिला पुरुष से कमजोर है, महिला का रक्षक पुरुष होता है, महिला को पतिव्रता होना चाहिए, महिला को पुरुष की सत्ता के अधीन रहना चाहिए, महिला को घर में चूल्हेचौके तक सीमित रहना चाहिए, बाहर निकलेगी तो ये घटनाएं होंगी ही.

पिछले दिनों राष्ट्रीय पार्टी के एक नेता ने बयान भी दिया था कि गाड़ी बाजार में आएगी तो ऐक्सीडैंट तो होगा ही. इसलिए तो 70 साल आजादी के बाद भी लड़कियां अपने को गुलाम महसूस कर रही हैं. इसी सोच को आज बदलने की जरूरत है.

प्यार की आखिरी मंजिल

यही प्रश्न हर प्रेमी से है, क्या प्यार की आखिरी मंजिल शादी है? अगर किसी कारण से शादी न हो तो आप उसे मार देंगे? आप उस से सामूहिक बलात्कार करेंगे? आप उस के चेहरे पर तेजाब डाल देंगे? अगर प्यार की आखिरी मंजिल सिर्फ शादी है तो आप उस से प्यार नहीं करते बल्कि उस पर कब्जा जमाना चाहते हैं. उसे आप अपना गुलाम बनाना चाहते हैं. उस पर आप अपना एकाधिकार चाहते हैं. वह किस से बात करे, कहां बैठे, कहां जाए, क्या खाए, क्या पहने, ये सब आप तय करना चाहते हैं.

यह प्यार नहीं गुलामी है. अगर वह आप की गुलामी का विरोध करे, आप के एकाधिकार का विरोध करे तो आप उस को सजा दोगे.

यह आप की दबंगई नहीं तो और क्या है. क्या अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेना अपराध है? इस में रूढि़वादी मातापिता भी साथ नहीं देते. अब तो हालात ये हैं कि अगर किसी लड़की ने प्यार करने की गलती की तो उस का अपने शरीर पर भी अधिकार नहीं रह जाता. उस का अपने दिमाग पर भी कोई अधिकार नहीं रहता. अगर वह अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेगी तो उस को इस की सजा भुगतनी पड़ेगी. यह सजा कभी मांबाप की तरफ से तो कभी प्रेमी की तरफ से मिलेगी. इसलिए अब प्रेम करना भी जान को जोखिम में डालना है.

प्यार का मतलब जानें

आज के युवक की नजर में प्यार का मतलब है कि वह लड़की सिर्फ उस के लिए बनी है. उस पर सिर्फ उन का हक है. उस को वह अच्छी लगती है. उस का चेहरा देखे बिना नींद नहीं आती है. उस का चेहरा दुनिया में सब से सुंदर है, लेकिन उस बेहतरीन जिस्म को, चेहरे को जब वह हासिल नहीं कर पाता तो वह उसे चाकू से गोद देता है, चेहरे को तेजाब से जला देता और उस के गुप्तांग में लोहे की छड़ घुसेड़ देता है.

ऐसा कैसे करते हैं युवक, कोई भी अपने सब से प्यारे व करीबी इंसान को ऐसे कैसे नष्ट कर सकता है. इस का मतलब वे प्यार नहीं करते. यह प्यार नहीं हवस है. आप प्यार करते समय तो एकदूसरे के लिए चांदतारे तोड़ने की बात करते हो, लेकिन लड़की ने एक इनकार क्या किया आप ने चांदतारों की जगह लड़की के शरीर को ही ईंटों से तोड़ दिया, गाड़ी से कुचल दिया.

वाह, क्या यही प्यार है. जिस ने आप को उस चर्मसुख की अनुभूति करवाई तुम ने उसी को लोहे की छड़ से गोद दिया. क्या किसी भी लड़की के इनकार की इतनी भयंकर सजा हो सकती है. अगर यही सजा वह लड़की तुम्हें दे तो कैसा रहेगा.

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