मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के रम्पुरा गांव में रहने वाली अनीता का कुसूर केवल इतना था कि वह एक ब्राह्मण के घर पैदा हुई थी. 18 साल की होते ही वह 12वीं जमात पास हुई, तो उस की शादी कर्मकांड करने वाले एक पंडित के बेटे से करा दी गई. पंडित होने की वजह से जन्म कुंडली का मिलान कर शुभ मुहूर्त में शादी की रस्में निभाई गईं.
अनीता ससुराल में कुल 4 महीने ही रह पाई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. ससुराल वाले उसे इस बात के लिए ताना देते कि उस के कदम घर में पड़ते ही उन का बेटा दुनिया छोड़ गया.
ससुराल वालों के तानों से परेशान हो कर अनीता अपने पिता के घर पर रहने लगी. उस की हालत देख कर मां के मन में कई बार अपनी लड़की की फिर से शादी करने का विचार आता, पर वे अनीता के पिता से कभी इस का जिक्र नहीं कर सकीं.
अनीता की मां जानती थीं कि जातिबिरादरी की दकियानूसी परंपराओं के चलते अनीता के पिता कभी उस की दोबारा शादी के लिए तैयार नहीं होंगे.
इस घटना को 20 साल हो चुके हैं. तब से ले कर अब तक अनीता अपने पिता के घर पर अपनी पहाड़ सी जिंदगी बिताने को मजबूर है. दिनभर वह नौकरों की तरह घर के काम में लगी रहती है और अपनी कोई ख्वाहिश किसी के सामने जाहिर नहीं होने देती.
अनीता जैसी न जाने कितनी विधवा लड़कियां हैं, जो सामाजिक रीतिरिवाजों के चलते जिंदगी की खुशियों से दूर हैं. ऊंची जातियों में फैली इन कुप्रथाओं को देख कर तो लगता है कि जिन जातियों को समाज में नीचा समझा जाता है, वे इन मामलों में कहीं बेहतर हैं.
हमारे देश में चल रही वर्ण व्यवस्था में ऊंची जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भले ही दलितों को हिकारत की नजर से देखते हों, पर कम पढ़ेलिखे इन दलितों की सोच पढ़ेलिखे ऊंची जाति के ठेकेदारों से कहीं अच्छी है.
16 फरवरी, 2021 को संत रैदास जयंती पर दलित समाज के लोगों द्वारा कराई गई एक शादी की चर्चा करना बेहद जरूरी है.
मध्य प्रदेश के गाडरवारा में रहने वाले छिदामी लाल अहिरवार की 26 साल की बेटी ज्योति के पति की मौत अप्रैल, 2021 में कोरोना की तीसरी लहर में हो गई थी.
ज्योति के पति राजन प्राइवेट स्कूल में टीचर थे. उन की मौत के बाद ज्योति अपने बेटे को ले कर अपने पिता के पास रहने लगी.
पिता छिदामी लाल पेशे से सरकारी स्कूल में चपरासी हैं, पर उन की सोच बड़ी है. उन्हें अपनी बेटी के भविष्य की चिंता थी. उन्होंने सोचसमझ कर समाज के लोगों के बीच उस की दूसरी शादी की चर्चा की, तो शिक्षक वंशीलाल अहिरवार, मानक लाल मनु ने छिदामी लाल की इस पहल की तारीफ की.
समाज के लोगों के बीच हुई चर्चा में पता चला कि चीचली के पास हीरापुर गांव के शिवदास त्रिपालिया के 33 साल के बेटे हेमराज की पत्नी विनीता की मौत आज से 5 साल पहले हो चुकी थी. विनीता और उस के होने वाले बच्चे की मौत जचगी के दौरान ही हो गई थी.
हेमराज साइंस में ग्रेजुएट और कंप्यूटर में पीजीडीसीए की डिगरी ले कर एक निजी स्कूल में पढ़ाता है. दोनों पक्षों की रजामंदी से ज्योति और हेमराज की दूसरी शादी का फैसला हुआ और हेमराज ज्योति के बेटे के साथ उसे दुलहन बना कर अपने घर ले आया.
दलित समाज में होने वाला विधवा विवाह कोई नई बात नहीं है. दलित समाज में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. विधवा या विधुर की दूसरी के लिए इस तबके के लोग पंडितपुरोहितों से इजाजत लेने के बजाय लड़कालड़की की रजामंदी को तवज्जुह देना ज्यादा जरूरी समझते हैं.
मनुवादी सोच भी जिम्मेदार
समाज में विधवा की बुरी हालत के लिए मनुवादी सोच और व्यवस्था भी कम जिम्मेदार नहीं है. ‘मनुस्मृति’ में विधवा की दूसरी शादी का कोई विधान नहीं लिखा गया है. मनुवादी विधवा को कठोर जीवन जीने का आदेश दे कर उन से पाकसाफ आचरण की उम्मीद रखते हैं.
‘मनु विधि संहिता’ के अनुसार, पति के मर जाने के बाद औरत पवित्र पुष्प, कंद और फल के आहार से शरीर को क्षीण कर और व्यभिचार की भावना से दूसरे मर्द का नाम भी न ले. एक पतिव्रता धर्म चाहने वाली औरत जिंदगीभर क्षमायुक्त नियम से रहने वाली और मदिरा, मांस और मधु को छोड़ कर ब्रह्मचर्य से जीवन बिताए.
मनुवादी पापपुण्य का डर दिखा कर केवल यह चाहते हैं कि पति के मरने के बाद औरत मन, वचन, कर्म से संयत जीवन जिएगी, तो सीधे स्वर्ग की टिकट की अधिकारी हो जाएगी.
आज भी गांवकसबों में किसी विधवा के साथ उस के परिवार के लोग गलत बरताव करते हैं. जिस घर में वह अपने पति के जीवित रहते घर की मालकिन हो कर रहती थी, वहां उसे अब एक नौकरानी की तरह जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता है.
यही नहीं, विधवा अपने बच्चों के अलावा और सभी के द्वारा अशुभ मानी जाती थी. उस होने भर से उस के चारों ओर उदासी छा जाती थी. वह घर के मांगलिक समारोहों में शामिल नहीं हो सकती थी.
मनुवादियों ने समाज में यह गलत धारणा फैला दी है कि विधवा सभी लोगों के लिए दुर्भाग्य की वजह बनती है. विधवा औरत को घर के नौकरचाकर तक भाग्यहीन मानते हैं. सामाजिक तौर पर विधवा औरत समाज के कड़वे तानों का शिकार होती है.
विधवा को इज्जत नहीं
आज के दौर में लोग इस बात की दुहाई देते हैं कि अब लड़कियां किसी से कम नहीं हैं. वे मर्दों की तरह ही सब काम करती हैं और आजाद हैं, लेकिन आएदिन जब रेप जैसी वारदात सामने आती हैं, तब ये सब बातें बेमानी सी लगती हैं. शादीशुदा हो या कुंआरी, उसे हमेशा मर्द के साथ की जरूरत महसूस करवाई जाती है और जब किसी वजह से मर्द का साथ उस से छूट जाता है, तो उन्हें जिन हालात का सामना करना पड़ता है, वे बदतर होते हैं.
औरतों को इज्जत दिलवाने की पैरवी तो की जाती है, लेकिन अगर वाकई ऐसा होता तो आज ‘विधवाएं’ किसी आश्रम में अपने मरने का इंतजार न करतीं. सच तो यह है कि उन्हें समाज द्वारा कड़े बंधनों में बांध कर रखा गया है. समाज ने उन के पहनावे से ले कर खानपान तक के नियम तय कर रखे हैं.
धर्म और शास्त्र हैं वजह
औरत की आजादी और तरक्की में सब से बड़ी बाधा हमारे धर्मग्रंथ हैं, जिन में लिखी बातें मर्दों को तमाम तरह की छूट देते हैं, पर औरतों की आजादी पर पहरा बिठाने की वकालत करते हैं. सादा रहना और सफेद साड़ी पहनना तो जैसे एक विधवा की पहचान बन गई है. यह शास्त्रों में लिखा गया नियम है, जिस के आधार पर जिस औरत के पति की मौत हो जाए, उसे अपने खानपान और पहनावे में बदलाव कर लेना चाहिए.
धर्मशास्त्रों के अनुसार, पति की मौत के 9वें दिन सफेद वस्त्र धारण करने का नियम है, जिसे निभाना बहुत जरूरी माना गया है. स्त्री को उस के पति की मौत के कुछ सालों बाद तक केवल सफेद कपड़े ही पहनने होते हैं और उस के बाद अगर वह रंग बदलना चाहे तो भी बेहद हलका कपड़ा ही पहनना होगा.
शास्त्रों की मानें, तो एक विधवा को बिना लहसुनप्याज वाला भोजन करना चाहिए और साथ ही उन्हें मसूर की दाल, मूली व गाजर से भी परहेज रखना चाहिए. सिर्फ इतना ही नहीं, उन के लिए भोजन में मांसमछली परोसना घोर अपमान व पाप के समान है. उन का खाना पूरी तरह सात्विक होना चाहिए.
धर्म के ठेकेदारों की मनुवादी सोच साफतौर पर यह बात जाहिर करती है कि वे औरत का गुलाम बना कर रखने की वकालत करते हैं. धर्म की यह पितृ सत्तात्मक सोच औरतों की तरक्की में सब से बड़ी बाधा है.
इन्होंने की शुरुआत
आज से 165 साल पहले 1856 में 16 जुलाई के दिन भारत में विधवा की दूसरी शादी करने को कानूनी मंजूरी मिली थी. अंगरेज सरकार से इसे लागू करवाने में समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर का बड़ा योगदान था. उन्होंने विधवा विवाह को हिंदू समाज में जगह दिलवाने का काम शुरू किया था.
इस सामाजिक सुधार के प्रति उन की प्रबल इच्छाशक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद विद्यासागर ने अपने बेटे की शादी भी एक विधवा से ही कराई थी.
इस के अलावा सावित्री बाई फुले ने भी अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ समाजसेवा करने का बीड़ा उठाया था. उन दोनों ने साल 1848 में पुणे में देश का पहला बालिका स्कूल खोला था और स्कूल में बालिकाओं को पढ़ाने वाली वे पहली महिला शिक्षका बनी थीं.
सावित्री बाई फुले जब पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं, तो विरोध में लोग उन पर कीचड़ और गोबर तक फेंक देते थे. ऐसे में वे एक साड़ी अपने थैले में रख कर स्कूल जाती थीं.
सावित्री बाई फुले ने औरतों को पढ़ाने के साथ ही विधवा विवाह, छुआछूत मिटाने, बाल विवाह, युवा विधवाओं के मुंडन के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद की थी.
साल 1854 में उन्होंने एक आश्रय खोला था, जिस में उन लाचार औरतों और विधवाओं को आसरा मिला था, जिन्हें उन के परिवार वालों ने छोड़ दिया था.
सावित्री बाई ने ही विधवा की दूसरी शादी की परंपरा भी शुरू की थी और उन की संस्था के द्वारा ऐसी पहली शादी 25 दिसंबर, 1873 को कराई गई थी. सावित्री बाई ने एक विधवा के बेटे यशवंतराव को गोद भी लिया था.
आज देश में बड़ी आबादी दलित और तबके के लोगों की है, मगर ऊंची जातियों के दबंग उन पर रोब जमाते हैं और पंडेपुजारी उन्हें धर्म की घुट्टी पिलाते हैं.
मौजूदा दौर में पढ़ेलिखे दलित तबके के लोगों को संविधान में बनाए गए नियमकानूनों को जानसमझ कर सामाजिक कुप्रथाओं को रोकने के लिए आगे आना होगा, तभी औरतों को उन का वाजिब हक और इज्जत हासिल हो सकेगी.