कांग्रेस: कन्हैया और राहुल

जैसा कि लंबे समय से प्रतिक्षा थी कांग्रेस में कोई कन्हैया कुमार जैसा ऊर्जा वान युवक अकर  अखिल भारतीय कांग्रेस को ऊर्जा से भर दे. अखिल यह हो ही गया. आज कांग्रेस को कन्हैया कुमार जैसे समझ वाले युवाओं की आवश्यकता है जिससे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल होने की संभावना है.

क्योंकि जिस तरीके से देश में भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रमुख नेताओं ने चक्रव्यूह बुना है उसे कोई कन्हैया कुमार जैसा नेता भी तोड़ सकता है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना जहां पार्टी के लिए शुभ है वही देश के लिए भी मंगलकारी कहा जा रहा है क्योंकि बहुत ही कम समय में कन्हैया कुमार ने अपनी राजनीतिक सोच और वक्तव्य से देशभर में बहुत लोगों को अपना मुरीद बना लिया है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि जहां राहुल गांधी ने एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है कन्हैया कुमार को कांग्रेस पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर के कांग्रेस में एक नई ऊर्जा का संचार किया जा सकता है. कांग्रेस का यह मास्टर स्ट्रोक, पहल  इसलिए आज चर्चा का विषय बन गई है क्योंकि भाजपा के सामने कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है.इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस में प्रभावशाली और लोकप्रिय नेताओं की कमी हो गई है. एक तरफ जहां भाजपा लगातार कांग्रेस को कमजोर करने में लगी है और उसके नेताओं को अपनी पार्टी में जोड़ने का प्रयास कर रही है जोड़ती चली जा रही है उससे कांग्रेस की हालत देखने लायक हो गई है.

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कांग्रेस और कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार 2015 में जेएनयू के प्रेसिडेंट बने थे और उसके बाद धीरे धीरे उनका व्यक्तित्व निखर कर सामने आया. आज उनकी उम्र सिर्फ 37 वर्ष है इतनी कम उम्र में इतनी राजनीतिक ऊंचाई नाप लेना अपने आप में महत्वपूर्ण है. जहां वे एक देशव्यापी नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं वहीं उन पर कथित रूप से देश के खिलाफ नारे लगाने का भी आरोप लगा और जेल यात्रा भी करके आ गए हैं, चुनाव लड़ने  का भी अनुभव हो चुका है.

कम्यूनिस्ट पार्टी में रहकर के उन्होंने एक तरह से अपने आप को तौल लिया है कि आखिर उनकी उड़ान कितनी हो सकती है.

दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी के अपने नियम कानून कायदे होते हैं और वहां व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि विचारधारा की चलती है. ऐसे में कन्हैया कुमार के पास एक ही विकल्प था कि वह कम्युनिस्ट दायरे से बाहर आकर के किसी राष्ट्रीय पार्टी का दामन थाम लें ऐसे में कांग्रेस और राहुल का आगे आकर के  कुमार को हाथों हाथ लेना जहां कन्हैया कुमार को एक नई धार तेवर दे गया है उन्हें देश में काम करने का मौका भी मिलेगा.

अब सिर्फ एक ही सवाल है कि कांग्रेस पार्टी अपनी संकीर्ण धाराओं से निकल कर के कन्हैया कुमार को कुछ ऐसा दायित्व दे जिससे पार्टी को भी लाभ हो और देश को भी. आने वाले समय में बिहार में भी कन्हैया कुमार की उपस्थिति का लाभ कांग्रेस पार्टी को मिलने की कोई संभावना है. यही कारण है कि कांग्रेस में आते ही पटना में कांग्रेस मुख्यालय में कन्हैया कुमार और राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देने लगे.

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राहुल गांधी और कन्हैया कुमार

लंबे समय से यह कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी में कन्हैया कुमार और जिग्नेश पटेल युवा आ रहे हैं. इस खबर से जहां कांग्रेस पार्टी में एक नई ऊर्जा का संचार दिखाई दे रहा था वहीं भाजपा में भी इसको लेकर के चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं. क्योंकि कन्हैया और जिग्नेश जैसे युवा किसी भी पार्टी को एक नई दिशा देने में सक्षम है. सिर्फ आवश्यकता है इनका उपयोग करने की समझ. यह माना जा रहा है कि अगर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को आगे कर के देशभर में आम जनमानस से मिलने निकल पड़े और छोटी-छोटी सभाएं करके लोगों से सीधा संवाद करें भाजपा और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की महत्वपूर्ण गलतियों पर चर्चा करें तो देखते-देखते माहौल बदल सकता है.

दरअसल, माना यह जा रहा है कि भाजपा के पास जो संगठननिक ताकत है जो अनुशासन है वह कांग्रेस में दिखाई नहीं देता इसे ला करके कांग्रेस पार्टी देश को एक नई दिशा दे सकती है.

क्वाड शिखर सम्मेलन: भारत का प्लस माइनस

विगत दिनों क्वाड शिखर सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे  प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने कहा कि क्वॉड ‘वैश्विक विकास के लिए एक शक्ति’ के रूप में अहम भूमिका निभा सकता है. उन्होंने भरोसा जताया कि चार लोकतांत्रिक देशों का यह संगठन हिंद-प्रशांत क्षेत्र और विश्व में शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने का काम करेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने क्वॉड की पहली व्यक्तिगत बैठक को संबोधित करने के लिए सबसे पहले पीएम मोदी को आमंत्रित किया था जिसमें मोदी ने अपनी बात को अपने ही अंदाज में रखा मगर चीन का जो तेवर देखने को मिल रहा है वह एक चिंता का सबब बन सकता है.

यही कारण है कि आने वाले समय में भारत और चीन के संबंध तल्ख होने वाले हैं. चीन दुनिया की एक महाशक्ति बन चुका है और अमेरिका भी जब उसकी तरफ देखने से झिझकता रहा है, ऐसे में भारत का चीन से 36 का संबंध, देश को किस मुकाम पर ले जाकर खड़ा करेगा यह चिंता का सबब बनता जा रहा है.

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यहां यह याद रखने वाली बात है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात जहां उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति पर गलबहियां डालीं, चीन के राष्ट्रपति को भी भारत बुला करके संबंध मधुर बनाने की पहल की थी. मगर अब धीरे-धीरे दुनिया के परिदृश्य में भारत अमेरिका की तरफ आगे बढ़ता चला जा रहा है. ऐसे में आने वाला समय कैसा होगा यह जानना समझना आवश्यक है.

दरअसल, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन आगामी 24 सितंबर को व्यक्तिगत उपस्थिति वाले पहले क्वाड शिखर सम्मेलन 2021 की मेजबानी करने जा रहे हैं. अब इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  और उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष स्कॉट मॉरिसन  तथा जापान के प्रधानमंत्री योशीहिदे सुगा भी  शामिल होंगे.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के इस शिखर सम्मेलन में शामिल होने पर चीन की वक्र दृष्टि है.

क्योंकि यह शिखर सम्मेलन एक तरफ से चीन के लिए एक चुनौती बन कर के सामने है. और चीन या नहीं चाहता कि कोई उसके हितों के खिलाफ गोल बंद हो, ऐसे में दुनिया की महाशक्ति अमेरिका के साथ भारत का हाथ मिलाना, चीन के लिए चिंता का सबब बन गया है, जिसका जवाब ढूंढने का प्रयास करते हुए चीन ने अपनी तरफ से भारत को कड़ा संदेश दे दिया है मगर भारत अभी मौन है.

अमेरिकी हित और भारत

और जैसा कि दुनिया की राजनीति में इन दिनों देखने को मिल रहा है. अमेरिका अब पहले जैसा अमेरिका नहीं है. अफगानिस्तान के मामले पर दुनिया सहित देश में भी अमेरिका की किरकिरी हुई है राष्ट्रपति जो बायडन की लोकप्रियता तेज़ी से घटी है.इस सवाल का जवाब अभी नहीं मिल पाया है कि भारत के हितों को नकार कर के जिस तरीके से अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपनी सेना को वापस बुलाया और एक तरह से आतंक के हवाले अफगानिस्तान को कर दिया गया, क्या उसके लिए इतिहास में कभी अमेरिका को माफी मिल पाएगी?

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एक तरफ आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात करने वाला अमेरिका जिस तरीके से आत्मसमर्पण करता हुआ देखा गया है. उससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि अमेरिका का शिखर नेतृत्व आज कितना कमजोर हो गया है और उसके साथ भारत का खड़ा होना भारत को क्या कमजोर नहीं बनाएगा?

क्योंकि कहा जाता है कि मजबूत मित्र के साथ आपको सरंक्षण मिल सकता है.एक मजबूत मगर आत्मविश्वास से कमजोर मित्र आपके लिए किसी काम का नहीं है. कुछ कुछ हालात आज अमेरिका और भारत की मित्रता के संदर्भ में भी ऐसे ही हैं.

नवीन संदर्भ में व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव जेन साकी के अनुसार   यह शिखर सम्मेलन मुक्त एवं खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र को बढ़ावा देने और जलवायु संकट से निबटने के बारे में बात करेगा. देश अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करने तथा कोविड-19 एवं अन्य क्षेत्रों में व्यवहारिक सहयोग को बढ़ाने के बारे में भी वार्ता करेंगे. इस मौके पर उभरती प्रौद्योगिकियों तथा साइबर स्पेस के बारे में भी बात की जाएगी. साकी ने कहा, ‘राष्ट्रपति जोसफ आर बाइडन जूनियर व्हाइट हाउस में 24 सितंबर को व्यक्तिगत उपस्थिति वाले पहले क्वाड शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेंगे. राष्ट्रपति बाइडन व्हाइट हाउस में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री योशीहिदे सुगा का स्वागत करने के लिए उत्सुक हैं.’

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साकी ने कहा कि क्वाड को बढ़ावा देना बाइडन प्रशासन के लिए प्राथमिकता है, जो मार्च में क्वाड नेताओं के पहले सम्मेलन में साफ नजर आया था. तब यह सम्मेलन ऑनलाइन आयोजित हुआ था और अब प्रत्यक्ष हो रहा है. स्मरण हो कि ऑनलाइन सम्मेलन की मेजबानी राष्ट्रपति बाइडन ने ही की थी तथा इसमें मुक्त, खुले, समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया गया था. मगर अब तक दुनिया की परिस्थितियां बहुत कुछ बदल चुकी है ऐसे में यह शिखर सम्मेलन भारत के लिए भी एक नई उम्मीद का कारण बन सकता है, वही थोड़ी सी भी चूक भारत को आने वाले समय में नई नई मुसीबतों में भी घेर सकती है. मगर जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे हम पड़ोसी नहीं बदल सकते मगर हां, मित्र बदल सकते हैं.  ऐसे में आने वाले समय में भारत चीन की रिश्ते किस करवट बैठेंगे यह देखना होगा.

कांग्रेस : मुश्किल दौर में भी मजबूत

पिछले कुछ साल से कांग्रेस पार्टी में भीतरी कलह कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने तो ठान ही लिया था कि वह देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ कर देगी.

इस मुहिम में खुद बहुत से कांग्रेसियों ने मानो भाजपा का साथ दिया और वे पार्टी छोड़ कर भाजपा के अलावा दूसरे दलों में जाते दिखाई दिए.

बड़े दिग्गज तो छोडि़ए, छोटे सिपहसालार भी कांग्रेस को डूबता जहाज समझ कर चूहे की तरह भागे. एक बानगी देखिए…

आदरणीय राहुल गांधीजी,

मेरे लिए आप सर्वोच्च हैं, मेरी कर्तव्यनिष्ठा पार्टी के लिए एक कार्यकर्ता के तौर पर सदैव बरकरार रहेगी.

पर, मैं मुंबई युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे रहा हूं.

आप का आज्ञाकारी

सूरज सिंह ठाकुर

यह एक चिट्ठी है, जो सूरज सिंह ठाकुर ने राहुल गांधी के नाम लिखी है. अब ये सूरज सिंह ठाकुर कौन हैं, जो एक तरफ तो राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति आज्ञाकारी और कर्तव्यनिष्ठ बनते हैं और दूसरी तरफ पद से इस्तीफा भी दे देते हैं?

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मुंबई युवा कांग्रेस का नाम तो आप ने सुना ही होगा. उस में अध्यक्ष पद को ले कर मचे झगड़े और गुटबाजी का नतीजा यह हुआ कि मंगलवार, 24 अगस्त, 2021 की देर शाम युवा कांग्रेस अध्यक्ष पद का ऐलान होना था और हुआ भी, पर जैसे ही विधायक रह चुके बाबा सिद्दीकी के बेटे और बांद्रा (पूर्व) से कांग्रेस विधायक जीशान सिद्दीकी को युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, तो सूरज सिंह ठाकुर ने विद्रोह का बिगुल बजा कर राहुल गांधी को अपना इस्तीफा भेज दिया. वजह, वे भी इस अध्यक्ष पद के दावेदार थे.

बाबा सिद्दीकी वही शख्स हैं, जो कभी अपनी इफ्तार पार्टी में फिल्म कलाकार शाहरुख खान और सलमान खान को गले मिलवा कर सुर्खियां बटोर चुके थे. उन्हीं के साहबजादे जीशान सिद्दीकी जब विधायक के लिए चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, तब कांग्रेस के ही 12 विधायकों ने उन के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

बहरहाल, सूरज सिंह ठाकुर हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और भी, कांग्रेस से जाने वाले लोगों की फेहरिस्त पिछले कुछ समय से लंबी होती चली गई है. तो क्या यह समझ लिया जाए कि कांग्रेस अब चुकी हुई पार्टी है? वह परिवारवाद में इतनी उलझ चुकी है कि अब उस का उबरना मुश्किल है? क्या राहुल गांधी ही कांग्रेस को डुबो रहे हैं और किसी की हिम्मत नहीं है उन के खिलाफ बोलने की? क्या भारतीय जनता पार्टी अपने मकसद में कामयाब होती दिख रही है?

ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि कांग्रेस से लोगों के दूसरे दलों में जाने से पार्टी को नुकसान हो रहा है, पर यहीं पर राहुल गांधी की उस बात को भी बल मिलता है कि कांग्रेस की यह सफाई भविष्य में पार्टी को मजबूत करेगी. ऐसा नहीं है कि वे कांग्रेस से रूठों को मनाते नहीं हैं, पर उन के जाने पर रंज भी नहीं करते हैं.

उधर अगर भाजपा के ‘डबल इंजन’ नरेंद्र मोदी और अमित शाह बारबार कांग्रेस पर वार करते हैं और आज की देश की बदहाली के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो इस के पीछे उन की कूटनीति ही काम करती दिखाई देती है. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का उन का एजेंडा बड़ा ही साफ है.

पूरी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता है कि वे चाहे कितना ही राहुल गांधी और कांग्रेस को कोस लें, पर नैशनल लैवल पर केवल कांग्रेस ही भाजपा को चुनौती दे सकती है. लिहाजा, भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि कांग्रेस का वोट फीसदी भाजपा से ऊपर जाए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो भाजपा की मजबूती पर नैगेटिव असर पड़ेगा. केंद्र सरकार में शामिल उस के साथी दल सिर उठाएंगे और इस से भाजपा की लोकप्रियता में कमी आएगी. फिर वह संवैधानिक संस्थाओं पर अपना दबदबा नहीं बना पाएगी.

इस के अलावा भाजपा यह भी जानती है कि कांग्रेस में आज भी गांधी परिवार ही सब से ज्यादा ताकतवर है और वही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है. कांग्रेस को कमजोर करना है तो गांधी परिवार के ऊपर हमला जारी रखना होगा.

इस में भाजपा का आईटी सैल बड़ी शिद्दत से अपना रोल निभाता है. सोशल मीडिया पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी के साथसाथ प्रियंका गांधी को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है. उन पर खूब निजी हमले होते हैं और भाषा की मर्यादा का भी कोई लिहाज नहीं किया जाता है.

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क्यों हावी है भाजपा

दरअसल, साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी को अब यह लगने लगा है कि कांग्रेस को पूरी तरह समेटने का यही सही समय है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस अभी भी अपनी भीतरी लड़ाई में उलझी हुई है. एक तरफ उस के नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ जिन राज्यों में उन की सरकार है, वहां के बड़े नेताओं में सिरफुटौव्वल हो रही है.

पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच की जंग जगजाहिर है. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. इस के अलावा छोटेबड़े नेता अपने बेमतलब के बयानों से कांग्रेस की गरिमा को चोट पहुंचा ही देते हैं.

कोढ़ पर खाज यह है कि साल 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने वाले हैं. यह कांग्रेस के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है.

चुनौती तो यह भी है कि कांग्रेस अपने अध्यक्ष को ले कर भी स्पष्ट नहीं है. यही चुनौती वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच नाराजगी की दीवार खींच देती है. वे राहुल गांधी को अपनी समस्या बताएं या सोनिया गांधी के सामने अपना दुखड़ा रोएं, समझ नहीं पा रहे हैं, तभी तो कांग्रेस में रोजाना के बखेड़े हो रहे हैं.

राहुल और कांग्रेस

राहुल गांधी भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं हैं, पर अघोषित सर्वेसर्वा वही हैं. जब से देश के किसान 3 कृषि कानूनों के खिलाफ लामबंद हुए हैं, तब से राहुल गांधी ने सरकार पर खूब हमले किए हैं. भले ही वे शुरू में राजनीति में आने से परहेज करते रहे थे, पर धीरेधीरे ही सही, भाजपा के निशाने पर रहने के बावजूद उन्होंने भारत की राजनीति को समझना शुरू किया और स्वीकर किया कि उन्हें ही विपक्ष का चेहरा बन कर केंद्र सरकार को घेरना होगा.

राहुल गांधी एक ऐसे राजनीतिक परिवार से हैं, जहां देश के लिए अपनी जान देने वाले 2 कद्दावर प्रधानमंत्री निकले हैं. राहुल गांधी का हिंदी और इंगलिश भाषा पर बराबर का अधिकार है. वे जनता के सामने जाने से नहीं कतराते हैं और हर नैशनल और इंटरनैशनल मुद्दे पर बारीक नजर रखते हैं.

पर राहुल गांधी के सामने सब से बड़ी समस्या यह है कि उन के राजनीतिक सलाहकार कौन हों और वे उन्हें क्या और कैसी सलाह दें, जो कांग्रेस को मजबूत बनाएं, अभी ढंग से तय नहीं हो पाया है.

राहुल गांधी ने अगर युवा नेताओं पर अपना विश्वास जताया तो पुराने नेता उन से खफा हो गए. उन पर पार्टी के नेताओं पर ही समय न देने के आरोप लगे. यहां तक कह दिया गया कि वे चुनावों को सीरियसली नहीं लेते हैं. वे अपने बयानों से भाजपा को मजबूत कर देते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी की मासूमियत और साफगोई ही उन पर भारी पड़ जाती है. वे किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए जब ट्रैक्टर से संसद भवन जाते हैं, तो उस ट्रैक्टर का रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ होता है. नतीजतन, वे कानूनी पचड़े में फंस जाते हैं, क्योंकि नई दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में ट्रैक्टर का प्रवेश वर्जित है. वे अगर दूसरे मुद्दों पर भाजपा को घेरते हैं, तो बाकी कांग्रेसी उन का मजबूती से साथ नहीं देते हैं.

भाजपा देश में राहुल गांधी की इसी मासूम इमेज को अपने पक्ष में भुनाती है. वह यह साबित करना चाहती है कि राहुल गांधी कद्दावर नेता नहीं हैं और नरेंद्र मोदी के सामने उन की कोई बिसात नहीं है, पर ये वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने केंद्र सरकार को कोरोना पर मजबूती से घेरा, उस की चिकित्सा संबंधी बदइंतजामी को जनता के सामने रखा, औक्सीजन की कमी पर देश को जागरूक किया.

जब सरहद पर भारत की चीन से झड़प हुई, तो अपनी जमीन के छिनने के मुद्दे को राहुल गांधी ने बेबाकी से सब के सामने रखा, राफेल घोटाले पर बिना डरे बयान दिए, धारा 370 और राम  मंदिर के फैसले को देश के लिए विभाजनकारी बताया, भाजपा की हिंदुत्व के नाम पर लोगों को बांटती नीतियों को दुत्कारा. इतना ही नहीं, वे पैगासस के जासूसी वाले कांड को देश की जनता के सामने लाए.

इन सब बातों के साथसाथ राहुल गांधी जानते हैं कि उन्हें दोबारा से कांग्रेस को खड़ा करना है, उसे फिर से मजबूत बनाना है, तभी तो वे सोशल मीडिया पर अपने कार्यकर्ताओं से यह कहने से नहीं चूकते हैं, ‘एकदूसरे की ताकत बन कर खड़े रहेंगे, नहीं डरे हैं, नहीं डरेंगे.’

राहुल गांधी पार्टी छोड़ कर जाने वाले नेताओं पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि जो डर गए वे भाजपा में चले जाएंगे, जो नहीं डरेगा वह कांग्रेस में रहेगा. उन्होंने कांग्रेस को निडर लोगों की पार्टी बताते हुए कहा कि हमें निडर लोग चाहिए. जो डर रहे हैं उन्हें कहो, ‘जाओ भागो, नहीं चाहिए.’

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि दूसरी पार्टी में जो निडर लोग हैं, वे हमारे हैं. उन्हें ले कर आओ. कांग्रेस में शामिल करो. यह निडर लोगों की पार्टी है.

भाजपा राहुल गांधी की इसी निडरता को भांप रही है, तभी तो पिछले 7 साल के अपने किए गए कामों को गिनाने से ज्यादा उस ने कांग्रेस को इस बात के लिए कोसा कि उसी की वजह से देश की यह हालत हुई है. नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ और अमित शाह ‘देश में भड़काओ जज्बात’ से ज्यादा कुछ कह ही नहीं पाते हैं. रहीसही कसर स्मृति ईरानी और संबित पात्रा जैसे भाजपाई नेता अपने बड़बोले बयानों से पूरी कर देते हैं.

भाजपा यह भी जानती है कि चूंकि वह ऊंची जाति वालों की पार्टी है तो किसी तरह दबेकुचलों को कांग्रेस में दोबारा जाने से रोका जाए. लेकिन देखा जाए तो यह छोटी जाति के युवा नेताओं के लिए सुनहरा मौका है कि वे कांग्रेस से जुड़ कर राहुल गांधी को मजबूती देते हुए अपने राजनीतिक कैरियर को भी उड़ान दें. धर्म की राजनीति को कुंद करने के लिए जनता को जागरूक बनाने का बीड़ा उठाएं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदूमुसलिम को बांटने की राजनीति ज्यादा दिन नहीं चलेगी, लोगों को समझाने का सही समय यही है.

लिहाजा, भारतीय जनता पार्टी कितना ही कह ले कि वह देश की पहली जरूरत है, पर उस की हिंदुत्ववादी विचारधारा देश के एक बड़े वर्ग को उस से दूर कर देती है. इस के उलट कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता उस की बड़ी ताकत है. उसे सरकार चलाने का बहुत साल का अनुभव है और देश में धार्मिक उन्माद पर कैसे काबू पाना है, वह अच्छी तरह समझती है. यही कांग्रेस की ताकत है और भविष्य में वह देश में अपनी पैठ दोबारा बना लेगी, यही उम्मीद है.

तालिबान: नरेंद्र मोदी ने महानायक बनने का अवसर खो दिया!

अफगानिस्तान पर  लाखों करोड़ों रुपए का निवेश करने और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद दोस्ती का  नया गठबंधन करने के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जिस तरह अफगानिस्तान पर तालिबान का रातों-रात कब्जा हो गया और मौन देखते रहे यह देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है.

अगरचे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी जिन्होंने अपनी छवि दुनिया में एक प्रभावशाली नेता के रूप में बनानी थी तो यह उनके पास एक सुनहरा अवसर था.

दरअसल, नरेंद्र दामोदरदास मोदी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति से बातचीत करके उनकी मदद का हाथ बढ़ा देते तो दुनिया में मोदी और भारत की छवि कुछ अलग तरह से निखर कर सामने आ सकती थी.कहते हैं, संकट के समय ही आदमी की पहचान होती है यह एक पुरानी भी कहावत है.

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सभी जानते हैं कि भारत और अफगानिस्तान वर्षों वर्षों पुराने मित्र हैं और हाल में इस मित्रता का रिन्यूअल मोदी जी ने अफगानिस्तान को हर संभव सहयोग करके और वहां जाकर के किया था. उनके भाषण गूगल पर उपलब्ध हैं, ऐसे में  दृढ़ता का परिचय देते हुए नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़कर के तालिबान का मुकाबला किया होता तो शायद राजीव गांधी की तरह उनकी छवि भी दुनिया में प्रभावशाली बन करके सामने आ सकती थी.

क्या आपको स्मरण हैं प्रधानमंत्री पद पर रहते राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ शांति सेना भेजी थी. जिसके परिणाम स्वरूप श्रीलंका और भारत के संबंध और भी मजबूत हुए थे और दुनिया में एक संदेश गया था कि भारत अपने आस-पड़ोस जहां भी अशांति फैलती है और मदद की आवश्यकता होती है तो आगे आ जाता है.

इसका दुनिया की राजनीति और मिजाज पर गहरा असर पड़ता यह दुनिया की महा शक्तियों के लिए भी एक सबक होता अमेरिका जब अफगानिस्तान को छोड़कर नौ दो ग्यारह हो रहा था सारी दुनिया आतंक के सामने नतमस्तक थी, ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का एक्शन दुनिया के लिए एक नजीर बन जाता.

आतंक का सफाया हो जाता

अफगानिस्तान पर जब तालाबानियों लड़ाकों ने आक्रमण किया, उस समय उनकी संख्या 75 हजार बताई गई है. और अफगानिस्तान के सैनिकों की थी संख्या 3 लाख.और तो और अफगानिस्तान के  पास हवा से आक्रमण करने के सैन्य साधन भी थे जो तालाबानी आतंकियों के पास नहीं थे.

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हमारा मानना है-  पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नीति के अनुरूप श्रीलंका में जैसे उन्होंने शांति सेना भेजी थी अगर तालाबानियों के हमले के समय भारत अपनी “शांति सेना” भारत में उतार देता अथवा   बंगला देश निर्माण के समय की तरह सामने आता तो निश्चित रूप से 75 हजार तालाबानियों को आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. और पूरी बाजी नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारत के हाथों में होती.

हमारा आकलन यह है कि…

तालाबानियों के आत्मसमर्पण के लिये भारत को बड़ा बलिदान भी नहीं देना पड़ता और चीन,पाकिस्तान तथा रूस जो तालाबानियों के खैरख्वाह बने हुए हैं उनको बोलने का कोई अवसर ही नहीं मिलता. राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार  आर के पालीवाल के मुताबिक ऐसी स्थिति में  पूर्व से स्थापित राष्ट्रपति  और अफगानिस्तान सरकार जिससे भारत का मित्रवत सम्बन्ध है,उसी सरकार का अस्तित्व में रहता. अफगानिस्तान की सरकार ने भारत सरकार से मदद की गुहार न भी लगाई हो,उसके उपरांत भी भारत विश्व मंच पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी बात रख सकता था कि पदस्थ सरकार पर आतंकियों के हमले को रोकने और पड़ोसी देश होने के कारण उसने ये कदम उठाया है.

अगरचे, आज भारत की जो ऊहापोह की स्थिति नहीं रहती और भारत की पूरे विश्व मे एक नई छवि भी बनती.

कल्याण सिंह हालात के हिसाब से बदलते रहें!

राजनीति‘मेरा उद्देश्य अब पिछड़ों को उन का हक दिलाना है. राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी इस काम को पूरा करेगी…’ साल 2002 में अपनी अलग पार्टी का गठन करते समय कल्याण सिंह ने ऐसा कहा था.

‘भाजपा में वापस जाना मेरी भूल थी. राम मंदिर पर अपनी भूमिका को ले कर भी मुझे खेद है. इस बार मैं ने हमेशाहमेशा के लिए भाजपा से संबंध खत्म कर लिए हैं,’ 21 जनवरी, 2009 को कल्याण सिंह ने भाजपा से अलग होने के बाद कहा था.

कल्याण सिंह अपनी बात पर कायम होने वाले नेता नहीं बन सके. वे जबजब भाजपा से अलग हुए, तबतब पार्टी को बुरी तरह से कोसा. इस के बाद वापस भाजपा में गए.

वैसे तो कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक चुने गए थे, लेकिन भाजपा में उन का उपयोग उस समय किया गया, जब तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को पूरे देश में लागू किया था.

हर दल में पिछड़ी जाति के नेताओं को अहमियत दी जाने लगी थी और उस दौर में भाजपा ने भी कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे पिछड़े तबके के नेताओं को आगे कर के सत्ता हासिल की थी.

जनता पार्टी में जनसंघ का विलय होने के बाद जब जनता पार्टी टूटी, तब जनसंघ से आए नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया था. इस के पीछे संघ का पूरा हाथ था.

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भाजपा के संस्थापकों में अगड़ी जातियों के नेता प्रमुख थे. इन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व विजयाराजे सिधिंया जैसे नेता प्रमुख थे.

भाजपा के बनने के बाद संघ ने तय किया कि राम मंदिर आंदोलन को तेज किया जाएगा. इसी दौर में मंडल कमीशन को ले कर पिछड़ों की राजनीति भी शुरू हो रही थी.

भाजपा को उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति के किसी ऐसे नेता की तलाश थी, जो मुलायम सिंह यादव का मुकाबला कर सके, वह जमीन से जुड़ा हो और उस में हिंदुत्व की भी धार हो.

कल्याण सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उसी बैल्ट से आते थे, जिस से मुलायम सिंह यादव आते थे. अलीगढ़ के रहने वाले कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक बने थे. इसी साल मुलायम सिंह यादव भी चुनाव जीते थे.

मुलायम सिंह यादव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इटावा से आते थे. वे साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे. ऐसे में भाजपा ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपने का फैसला लिया.

कल्याण सिंह की खूबी थी कि वे पिछड़ी लोधी जाति से आते थे. वे हिंदुत्व की राजनीति कर सकते थे. वे अक्खड़ और रूखे स्वभाव के नेता थे. उन की छवि साफ थी. साल 1984 में कल्याण सिंह को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बना कर उन का इस्तेमाल शुरू किया था.

आमनेसामने 2 ओबीसी नेता

साल 1986 में राम मंदिर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम किया गया, तो कल्याण सिंह सब से उपयोगी नेता साबित हुए. भाजपा ने कल्याण सिंह के कंधे पर बंदूक रख कर चलाना शुरू किया. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग के लोग एकजुट न रह सके, जिस से मंडल कमीशन का फायदा पिछड़ी जातियों को मिल सके.

इस राजनीति ने कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव को आमनेसामने खड़ा कर दिया. मुलायम सिंह यादव संघ की हिंदुत्व वाली राजनीति के खिलाफ थे. कल्याण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन की कमान खुद संभाल रखी थी. उन दोनों के बीच राजनीतिक मुठभेड़ शुरू  हो गई.

भाजपा में ऊंची जातियों के नेता दूर से इस लड़ाई को देख रहे थे. साल 1989 में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब कल्याण सिंह भाजपा विधानमंडल दल के नेता थे.  इस दौरान राम मंदिर आंदोलन शिखर पर था.

साल 1990 में राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा की घोषणा हुई. उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने कहा था कि अयोध्या में कोई भी कारसेवक घुसने नहीं पाएगा. वहां परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा. दूसरी तरफ कल्याण सिंह इस बात पर अडिग थे कि कारसेवक अयोध्या पहुंचेंगे. 30 अक्तूबर और 6 नवंबर को हिंसक झड़पें हुईं.

कारसेवकों को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव को गोलियां चलवानी पड़ीं. इस के बाद उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व की लहर उठी. कल्याण सिंह इस के प्रतीक बने. मंडल कमीशन और पिछड़ों की राजनीति का नुकसान हुआ. मुलायम सिंह की सरकार गिर गई.

साल 1991 में उत्तर प्रदेश में दोबारा चुनाव हुए और तब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भाजपा की सरकार बनी. 221 सीटों वाली भाजपा ने कल्याण सिंह को अपना मुख्यमंत्री बनाया. कल्याण सिंह ने अपनी सरकार का कामकाज रामलला के दर्शन करने के बाद शुरू किया.

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हिंदुत्व की लहर पर सवार कल्याण सिंह भले ही मुख्यमंत्री बने पर पिछड़ी जातियों के सामाजिक न्याय के साथ धोखा हो गया. कल्याण सिंह केवल पिछड़ी जातियों के न्याय और मंडल कमीशन लागू होने की राह में रोड़ा ही नहीं बने, बल्कि मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर कानून और व्यवस्था के प्रति न्याय नहीं कर सके. अदालत में शपथपत्र देने के बाद भी वे अयोध्या के विवादित ढांचे की हिफाजत नहीं कर सके.

जब गिर गया विवादित ढांचा

कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद राम मंदिर की राजनीति करने वाली विश्व हिंदू परिषद ने दबाव बनाना शुरू किया कि राम मंदिर मसला जल्दी हल किया जाए.

कल्याण सिंह राम मंदिर बनाने का रास्ता मजबूत करना चाहते थे, पर उन के पास कोई हल नहीं था. मसला कोर्ट में था. बिना कोर्ट के फैसले के कुछ हो नहीं सकता था. वे इस मामले में थोड़ा वक्त चाहते थे.

राम मंदिर आंदोलन से जुड़े ऊंची जातियों के नेता इस के लिए वक्त देने को तैयार नहीं थे. ऐसे में 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवा की घोषणा कर दी गई. कल्याण सिंह ने केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों को वचन दिया कि कारसेवा के दौरान अयोध्या में कोई गड़बड़ नहीं होने  दी जाएगी.

6 दिसंबर के पहले से ही देशभर में माहौल गरम था. कारसेवा करने वालों के हौसले बुलंद थे, क्योंकि इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे, जो रामभक्त थे. उन से यह उम्मीद नहीं की जा रही थी कि वे कारसेवकों पर गोली चलवाएंगे. कारसेवक, जो काम साल 1990 में नहीं कर पाए थे, वह 2 साल बाद साल 1992 में करना चाहते थे.  कल्याण सिंह ने अयोध्या की सुरक्षा के ऐसे इंतजाम किए थे, जिस में केंद्र सरकार की फोर्स पीछे थी. उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों में अयोध्या की मुख्य कमान थी. घटना के दिन उत्तर प्रदेश पुलिस पीछे हट चुकी थी. उसे यह आदेश थे कि किसी भी कीमत पर कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी.

कारसेवक गुंबदों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने लगे. इस बात की जानकारी देश के तब के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को मिली. वे मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से फोन पर संपर्क करने की कोशिश करने लगे.

कल्याण सिंह अपने सरकारी आवास में थे. इस के बाद भी फोन पर बात नहीं की. वे भाजपा के नेताओं के संपर्क में थे. जैसा निर्देश मिल रहा था, वैसा काम कर रहे थे. पुलिस ने गोली नहीं चलाई और अयोध्या में कारसेवकों का  कब्जा हो गया. 1-1 कर के तीनों गुंबद गिरते गए.

केंद्र सरकार ने कैबिनेट मीटिंग शुरू की. उस में यह फैसला लिया जाना था कि उत्तर प्रदेश की कल्याण सरकार को बरखास्त कर दिया जाए.

यह सूचना मिलते ही जैसे ही साढ़े 5 बजे तीनों गुंबद गिर गए, कल्याण सिंह 30 मिनट बाद राजभवन गए और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

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जब तक गुंबद पूरी तरह से गिर नहीं गए और वहां पर अस्थायी राम मंदिर नहीं बन गया, कल्याण सिंह ने कुरसी नहीं छोड़ी.

कल्याण सिंह ने इस के बाद पूरे देश में ‘जनादेश यात्रा’ निकाली. उन को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और ‘अयोध्या का नायक’ कहा गया.

‘चरित्र हनन’ की राजनीति

साल 1997 में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा के बीच 6-6 महीने की सरकार चलाने का समझौता हुआ. कल्याण सिंह 21 अक्तूबर को मुख्यमंत्री बने. कल्याण सिंह को यह लगा कि वे अब भाजपा के बड़े नेता हो चुके हैं. इस सोच के बाद ही उन का टकराव उस समय के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से हो गया.

अगड़ी जाति के नेताओं को यह लग चुका था कि कल्याण सिंह को अब जमीन पर लाना है. इस के बाद कल्याण सिंह के साथ राजाजीपुरम क्षेत्र की सभासद कुसुम राय के संबंधों को ले कर ‘चरित्र हनन’ की राजनीति शुरू हुई. ऊंची जातियों के समर्थक मीडिया में रोज नई खबरें गढ़ी जाने लगीं. लोग राजाजीपुरम के नाम को मजाक में ‘रानीजीपुरम’ कहने लगे.

अहम की इस लड़ाई में अयोध्या के नायक कल्याण सिंह की हार हुई. उन को भाजपा से बाहर कर दिया गया.

साल 2002 में कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी का गठन किया, पर इस में वे कामयाब नहीं हुए. साल 2004 में वे वापस भाजपा में आए. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण भाजपा से बाहर हो गए.  उस समय उन्होंने कहा कि अब वे वापस भाजपा में नहीं जाएंगे. यह दौर वह था, जब भाजपा में पिछड़ी  जातियों की जगह अगड़ी जातियों का कब्जा था.

साल 2013 में जब भाजपा में पिछड़ी जातियों को अहमियत दी जाने लगी, तो कल्याण सिंह को वापस भाजपा में लाया गया. साल 2014 में राजस्थान और साल 2015 में हिमाचल प्रदेश के प्रभारी राज्यपाल बने.

साल 2017 में कल्याण सिंह के पोते संदीप को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री बनाया गया. साल 2019 में कल्याण सिंह वापस भाजपा कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे.

साल 2021 के अगस्त महीने में कल्याण  सिंह की मौत हो गई, जिस के बाद भाजपा ने पूरे सम्मान के साथ उन का अंतिम संस्कार किया.

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डॉक्टर मनमोहन सिंह के पद चिन्हों पर चलते नरेंद्र मोदी

आखिरकार भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी अंततः पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के पद चिन्हों पर चल पड़े हैं. जी हां! यह सच है और सारा देश देख रहा है कि किस तरह अफगानिस्तान के मसले पर नरेंद्र मोदी ने चुप्पी साध ली है.उनके कम बोलने पर कटाक्ष करने वाले अब बात बात पर स्वयं मौन हो जाते हैं जो देश में चर्चा का विषय है.

एक समय छोटी-छोटी बातों पर 56 इंच के सीना दिखाने वाले मोदी ने देश की आवाम को यह कह कर के आकर्षित किया था कि कांग्रेस गठबंधन की सरकार और उसके मुखिया डॉ मनमोहन सिंह तो सिर्फ मौन रहते हैं.उनके शांत स्वभाव का जैसा माखौल उड़ाया गया वह इतिहास में दर्ज है.

दरअसल डा मनमोहन सिंह की इतनी आलोचना की गई और नरेंद्र मोदी कि इतनी प्रशंसा इतनी बढ़ाई की देश की जनता ने उन्हें भारी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बना दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को बड़े ख्वाब दिखाए और छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी गाथाएं सुनाते हुए आकर्षित कर लिया था. ऐसा मालूम होता था कि मानो कोई देश की तरफ आंख भी उठाएगा तो मोदी जी की सरकार उसकी आंखें निकाल डालेंगे.

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मगर धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती चली जा रही है. जिसमें अफगानिस्तान का मामला आज सुर्खियों में है, भारत अफगानिस्तान की मित्रता सैकड़ों साल पुरानी है और आधुनिक समय में भी लंबे समय से दोनों साथ-साथ एक अच्छे पड़ोसी के रूप में जाने जाते हैं. ऐसे में जब तालिबान का दस्ता अफगानिस्तान की सरकार पर काबिज होता चला गया भारत और वर्तमान नेतृत्व मौन साध कर बैठ गया.और अब यह चर्चा है कि मोदी आखिरकार डॉ मनमोहन सिंह के पदचिन्ह पर क्यों चल रहें है.

हजारों करोड़ पानी में

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के पश्चात 2015 में अफगानिस्तान में मित्रता का एक नया अध्याय शुरू किया और लगभग हजारों करोड़ रुपए का निवेश प्रारंभ हो गया. यही नहीं अफगानिस्तान की संसद को भी भारत में अपने पैसों से संवारा और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम एक बड़ा प्रखंड निर्माण कराया गया.

सामरिक दृष्टि से भी भारत ने यहां निर्माण कार्य शुरू कराएं, जिन पर अब पानी फिर गया दिखाई देता है. यही कारण है कि लोग आश्चर्यचकित हैं कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी चुप क्यों है. आखिर छोटी छोटी बातों पर देश और दुनिया को संबोधित करने वाले मोदी जी अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे पर क्यों नहीं बोल रहे हैं.

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लेकिन कुछ भी कहिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी और उनके सरकार ने रूको और वॉच करो नीति अपनाई है जो कुटनीतिज्ञ दृष्टि से सही भी है. मगर लाख टके का सवाल है कि जब आप पहले छोटी-छोटी बातों पर अपना रूप में सामने रखे थे बड़ी-बड़ी बातें करते थे तो आज सवाल तो पूछा जाएगा.

गंभीरता एक बड़ी खूबी

अब लगभग साढ़े सात वर्ष पश्चात पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की खूबियां देश देख रहा है. जिस तरीके से उन्होंने देश को नेतृत्व दिया उचाई दी ऐतिहासिक हो गया है. मगर,एक समय में मनमोहन सिंह के 10 साल तक के समय में उनकी खूबियों को उनकी खामियां बताया गया.

अब सच्चाई लोगों को समझ में आ रही है कि राजनीतिक रूप से कूटनीति के तहत अनेक जगहों पर मौन रहा जाता है. हर जगह बात करना ऊंची हांकना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होता है. इस आलेख के माध्यम से हम यह सच आपको बताना चाहते हैं कि राजनीतिक दांव पेंच से ऊपर उठकर देश की आवाम के प्रति जवाबदेही देश के नेताओं को समझ होनी चाहिए .

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कांग्रेस हमेशा से राजनीति में सभी जाति, धर्म और गरीब व कमजोर तबके को साथ ले कर चलती रही है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने बीसी, एससी  और कमजोर तबके की राजनीति की है.

भारतीय जनता पार्टी के हिंदू राष्ट्र में गरीब, बीसी तबके और औरतों के लिए जगह नहीं है. राजा के आदेश का  पालन कराने के लिए पुलिस जोरजुल्म करेगी. ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ की कहानियां इस की मिसाल हैं, जहां एससी और बीसी को कोई हक नहीं थे.

हिंदू राष्ट्र के सहारे पुलिस राज चलाने का काम किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश इस का मौडल बनता जा रहा है. भाजपा हमेशा से अगड़ी जातियों की पार्टी रही है. वहां जातीय आधार पर एकदूसरे का विरोध होता रहा है.

परेशानी की बात यह है कि कांग्रेस हो या सपा और बसपा, सभी दल अपनी विचारधारा को छोड़ चुके हैं. इन दलों के बड़े नेताओं को सलाह देने वाले लोग भाजपाई सोच के हैं, जिस वजह से वे सही सलाह नहीं दे रहे हैं. नतीजतन, कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे दल अब हाशिए पर जा रहे हैं और इन के मुद्दे बेमकसद के लगने लगे हैं.

अमूमन राजनीतिक दलों की अपनी विचारधारा होती है. उस विचारधारा के आधार पर ही उन के नेता चुनावों में जनता के बीच जा कर वोट मांगते हैं, जिस के बाद उस दल की सरकार बनती है और फिर वह दल अपनी विचारधारा के कामों को पूरा करता है.

कांग्रेस की विचारधारा आजादी के पहले से ही सब को साथ ले कर चलने की थी. इसी वजह से जब देश हिंदूमुसलिम के बीच बंट कर भारत और पाकिस्तान बन रहा था, तब कांग्रेस इस पक्ष में थी कि भारत सभी जाति और धर्म के लोगों का देश रहेगा.

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देश में जब पहली सरकार बनी थी, उस समय कांग्रेस के घोर विरोधी दलों में से एक जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी मंत्रिमंडल में जगह दी गई थी.

भाजपा अब अपने राज में जवाहरलाल नेहरू को ले कर गंदेगंदे आरोप लगा रही है. ऐसी राजनीति कभी भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जवाहरलाल नेहरू ने सोची तक नहीं होगी.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश की तरक्की को अहमियत देने के साथसाथ गरीब और पिछड़ों की  तरक्की को भी अहमियत देने का काम किया था. उस समय ही ऐसे तमाम कमीशन बनाए गए थे, जिन को अपनी रिपोर्ट देनी थी.

जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो देश में रोजगार को बढ़ाने और नई टैक्नोलौजी को लाने का काम किया गया था. राजीव गांधी के जमाने में ही कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी.

इस के बाद कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल में आर्थिक सुधारों के लिए काफी काम किया था, जिस के बाद निजी सैक्टर में काफी तरक्की हुई थी.

10 साल की डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा योजना के तहत लोगों को ‘रोजगार की गारंटी’ दी. गरीबों की मदद के लिए ‘मिड डे मील’ योजना शुरू की. जब पूरी दुनिया में आर्थिक तंगी थी, उस समय भारत बेहतर हालत में था.

कांग्रेस सरकार में गरीबों को मदद करने की तमाम योजनाएं चली थीं, पर उस का बो झ टैक्स देने वाले पर इतना नहीं पड़ा था कि वह टूट जाए.

भ्रष्टाचार और काले धन के खात्मे के नाम पर सत्ता में आई मोदी सरकार नोटबंदी, जीएसटी और तालाबंदी की ऐसी योजनाएं ले कर आई कि गरीब की मदद तो दूर उन की रोजीरोटी तक चली गई. मोदी सरकार के ऐसे फैसलों से महंगाई और बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ गई. देश का विकास सब से नीचे स्तर पर पहुंच गया.

सरकारी कंपनियों को विनिवेश के नाम पर बेचने का काम सब से ज्यादा किया जा रहा है. सरकार की पौलिसी में गरीब कहीं नजर नहीं आते हैं. केंद्र के स्तर पर देखें, तो कांग्रेस ने ही गरीबों और मध्यम तबके के लिए सब से ज्यादा काम किया. यही वजह थी कि उस दौर में महंगाई और बेरोजगारी सब से कम थी.

कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की नीतियां गरीब और पिछड़ों की मदद करने वाली लग रही हैं. जिस तरह से राहुल गांधी ने एससी और गरीबों का आत्मबल बढ़ाने के लिए उन के घरों में साथ बैठ कर खाना खाने की शुरुआत की, उस से भाजपा के बड़े नेता भी उसी राह पर चलने को मजबूर हुए.

लाभकारी रही समाजवादी योजनाएं

अखिलेश सरकार ने अपने कार्यकाल  में समाजवादी विचारधारा की कई ऐसी योजनाएं शुरू की, जिन से गरीबों को लाभ हुआ. गांव के गरीब बच्चों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन को पढ़ने के लिए लैपटौप मिल सकेंगे. 12वीं जमात पास करने वाले बच्चों के हाथों में लैपटौप पहुंचना किसी चमत्कार से कम नहीं था.

इस के साथसाथ बेरोजगारी भत्ता सब से ज्यादा मिला, जिस की शुरुआत समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकाल में की थी. उस समय जिस ने भी रोजगार दफ्तर में अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया था, उसे 500 रुपए प्रतिमाह बेरोजगारी भत्ता मिलने लगा था.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के दौर में रोजगार दफ्तरों के सामने रजिस्ट्रेशन कराने के लिए लगी लंबीलंबी लाइनें बताती थीं कि योजना का लाभ किस तरह लोगों तक पहुंच  रहा है.

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अखिलेश सरकार ने गांवगांव एंबुलैंस सेवा और आशा बहुओं के जरीए गरीबों की मदद करने का काम किया. गांवगांव विधवा पैंशन पहुंचाने का काम किया गया. इस से गरीब और कमजोर लोगों की मदद होती रही. समाजवादी पार्टी ने प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर भी एससी तबके का साथ दिया.

युवा सलाहकारों की टीम

अखिलेश यादव के पास 5 युवा नेताओं की सलाहकार टीम है. इन में सुनील साजन, राजपाल कश्यप, सोनू यादव, अभिषेक मिश्रा और अनुराग भदौरिया प्रमुख हैं.

ये सभी मुलायम सिंह यादव की पुरानी समाजवादी विचारधारा के नहीं हैं. इन की खासीयत यह है कि ये सभी अखिलेश यादव के बेहद भरोसेमंद और हमउम्र हैं.

अखिलेश यादव सरकार में ये खास ओहदों पर रहे हैं. इस वजह से अखिलेश यादव इन पर पूरा भरोसा करते हैं. इन की सलाह पर वे काम भी करते हैं.

इन नेताओं की सलाह विचाराधारा से ज्यादा इस बात पर होती है कि चुनाव कैसे लड़ा जाए. किस तरह के लोगों को पार्टी में जोड़ा जाए. लोगों तक पहुंचने की रणनीति क्या हो.

इन सलाहकारों में से ज्यादातर लोग मायावती के साथ चुनावी गठबंधन नहीं करना चाहते थे. दरअसल, अखिलेश यादव के तमाम सलाहकार भाजपाई सोच के हैं, जहां समाजवादी विचारधारा का कोई मतलब नहीं रह गया है. यह बात केवल चुनावी भाषण बन कर रह गई है.

समाजवादी पार्टी में चाचाभतीजे की लड़ाई में भी सलाहकारों का अहम रोल था. अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव की पार्टी के साथ भी चुनावी तालमेल को ये लोग पसंद नहीं कर रहे हैं. पंचायत चुनावों में जिस तरह का काम समाजवादी पार्टी ने किया है, उस में इन युवा सलाहकारों का अहम रोल रहा है.

समाजवादी पार्टी की नेता विभा शुक्ला कहती हैं, ‘‘समाजवादी पार्टी ने हमेशा ही गरीब और कमजोर लोगों की मदद की है. तमाम सरकारी योजनाएं छोटे कारोबारियों को ले कर बनाई गई थीं. भाजपा सरकार ने जीएसटी, नोटबंदी और तालाबंदी के जरीए कारोबारियों को अलगअलग तरह से परेशान किया. लोग अपना कारोबार बंद कर घरों में बैठ गए. ऐसे लोग अब यह कहते हैं कि समाजवादी सरकार हर किसी का खयाल रखती थी.

‘‘भाजपा के बारे में कहा जाता था कि वह कारोबारियों की सरकार है, पर भाजपा के समय में ही कोराबारी सब से ज्यादा परेशान हैं. यही नहीं, समाजवादी सरकार ने गरीब और कमजोर तबके के लिए जो भी योजनाएं चलाई थीं, उन को बंद कर दिया गया, जिस में बेरोजगारी भत्ता सब से बड़ा उदाहरण है.

‘‘समाजवादी सरकार के समय चलाई गई तमाम योजनाओं के नाम बदल दिए गए. गरीब और कमजोर लोगों की मदद करने का जो सपना समाजवादी पार्टी ने देखा, वह किसी और ने नहीं देखा.’’

महिला नेता रजिया नवाज कहती हैं, ‘‘समाजवादी पार्टी केवल दिखावे के लिए नहीं कहती है कि वह गरीब और कमजोर लोगों के लिए काम करती है. वह जमीनी लैवल पर कर के दिखाती है.

‘‘पिछले 7 साल में मोदी सरकार की हर बात केवल सफेद  झूठ ही रही है. चाहे बात किसानों की कमाई दोगुनी करने की हो, खेती में लागत मूल्य का डेढ़ गुना देने की बात हो, फसल बीमा योजना की बात हो, सूखे और आपदा में किसानों और गरीबों की मदद की बात हो, खाद, बीज, डीजल, पैट्रोल के कीमत की बात हो, हर बात केवल दिखाने के लिए रही है. जिस बात का वादा नहीं किया था, वे कृषि बिल किसानों को बरबाद करने के लिए जरूर ला दिए गए.’’

मायावती ने दिलाया गरीबों और कमजोरों को सम्मान

बहुजन समाज पार्टी ने दलित चेतना जगाने और उन को एकजुट कर के राजनीतिक ताकत बनाने का काम शुरू किया था, जिस में पार्टी कामयाब भी रही. गरीब, कमजोर और मजलूम तबके की लड़ाई में उस के साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक ताकत बनने के लिए बसपा ने सत्ता में भागीदारी की.

बसपा नेता मायावती साल 1995 से ले कर साल 2007 के बीच 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मायावती ने दलित ऐक्ट को ले कर असरदार ढंग से काम किया, जिस से इस तबके की सुनवाई थाने और तहसील में होने लगी. एससी और कमजोर तबके के साथ भेदभाव कम हो गया और उसे इंसाफ भी मिलने लगा.

मायावती साल 1995 से ले कर साल 2003 तक जब भी मुख्यमंत्री रहीं, कभी पार्टी के सिद्धांतों ने कोई किनारा नहीं किया था. कांशीराम के बाद मायावती ने बसपा को अपने हिसाब से चलाया. उन्होंने साल 2007 के विधानसभा चुनाव के समय ही दलितब्राह्मण गठजोड़ को आगे किया.

अचानक बसपा में ब्राह्मणों का दबदबा ऐसे बढ़ गया कि बसपा का नाम लोगों ने ‘ब्राह्मण समाज पार्टी’ कहना शुरू कर दिया.

ब्राह्मणों के दबाव में बसपा के मूल नेता पार्टी से बाहर किए जाने लगे. बसपा के मूल कैडर के कार्यकर्ता अनदेखी का शिकार होने लगे. खुद मायावती ने बसपा मूल के नेताओं को पार्टी से बाहर करना शुरू कर दिया. इस के बाद उन को खुद अपनी ताकत पर भरोसा नहीं रह गया. नतीजतन, पहले मायावती ने अखिलेश यादव से सम झौता किया और अब बसपा भाजपा की ‘बी टीम’ कही जाने लगी है.

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पार्टी से ज्यादा अहम हो गया परिवार

मायावती की दिक्कत यह रही कि पार्टी में कांशीराम के समय से जुटे नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया गया. मायावती का अपने परिवार पर भरोसा बढ़ गया. वे अपने भाई आनंद कुमार के साथसाथ भतीजे आकाश आनंद की सलाह पर चलने लगीं.

परिवार से बाहर अभी भी मायावती का सब से ज्यादा भरोसा सतीश चंद्र मिश्रा पर है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी के नेता और पदाधिकारी से ज्यादा जिम्मेदारी मायावती के तमाम मुकदमों की उठा रहे हैं.

मायावती को पता है कि यह जिम्मेदारी दूसरा कोई नहीं उठा सकता है. ऐसे में वे सतीश चंद्र मिश्रा को अपने साथ रखने के लिए मजबूर हैं. वे उन की सलाह पर ही काम करती हैं. दलितों को ले कर बसपा की नीतियों में जो बदलाव दिख रहा है, उस के लिए सतीश चंद्र मिश्रा की सलाह बेहद अहम रही है.

भाजपा को यह पता था कि अगर एससी और बीसी एकसाथ खड़े होंगे तो उस का नुकसान होगा. ऐसे में भाजपा ने मायावती में महत्त्वाकांक्षा को पैदा कर इन तबकों में दूरी पैदा कर दी. ऐसे में भाजपा अपनी ताकत खत्म होने से बचा ले गई.

मायावती भाजपा के पक्ष में खड़ी दिखने भले ही लगी हों, पर जो चेतना उन्होंने एससी तबके में जगाई, वह अब भाजपा के लिए मुसीबत की वजह बन रही है. भाजपा इस का मुकाबला करने के लिए एससी और बीसी जातियों में दूरी पैदा करने के बाद इन की उपजातियों मे दरार डाल कर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है.

विश्व शूद्र महासभा के अध्यक्ष चौधरी जगदीश पटेल कहते हैं, ‘‘मायावती ने अपने कार्यकाल में जिस तरह से भ्रष्टाचार किया, उस की वजह से वे भाजपा से दबने लगी हैं. इस के बाद भी दलित बिरादरी स्वाभिमान के लिए कांशीराम और मायावती ने बाबा साहब की नीतियों को जिस तरह से आगे बढ़ाने का काम किया था, वह बहुत अच्छा था.

‘‘आज दलित भेदभाव का पहले जैसा शिकार नहीं रह गया है. वह अपने रीतिरिवाज से सम झौते नहीं कर रहा. ग्राउंड लैवल पर भले ही एकदम बदलाव न आया हो, पर अब पहले जैसी छुआछूत की भावना नहीं रह गई है. ऐसे मे दलित और गरीबों की आवाज उठाने में बसपा का प्रमुख रोल है.

‘‘मायावती के काम आज कैसे भी हों, पर पहले जैसा सुलूक करना अब मुमकिन नहीं है. दलितों के तमाम तबकों में अपनी आवाज उठाने वाले लोग उठ खड़े हुए हैं, जिस का श्रेय बसपा को ही जाता है.’’

हिंदू राष्ट्र बन जाएगा पुलिस राष्ट्र

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा इस काम में कामयाब रही है. उस ने अपने हिंदुत्व के कार्ड को आगे कर दिया, जिस की वजह से उसे भारी वोटों से जीत मिली. 7 सालों में देश के लोग यह सम झ रहे हैं कि गरीबों के लिए कौन अच्छा काम कर रहा था?

जनता के सामने हिंदुत्व का कार्ड और विकास का गुजरात मौडल फेल होता दिख रहा है. ऐसे में जनता विचार कर रही है कि गरीबों के लिए कौन सब से ज्यादा अच्छा है?

साल 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने कई राज्यों का चुनाव जीता और साल 2019 में दोबारा लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा मोदीमय हो गई. अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने हिंदू राष्ट्र के सपने को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. उत्तर प्रदेश इस के मौडल के रूप में विकसित होता जा रहा है.

साल 2021 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के मुकाबले हार का मुंह देखने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भाजपा पर हावी होने का मौका मिल गया.

भाजपा में अंदरूनी कलह के बहाने संघ ने अपने तमाम पदाधिकारियों को भाजपा में स्थापित कर दिया. अब संघ के लोग भाजपा में सलाहकार की भूमिका निभाने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश में भाजपा में मोदी और योगी के गुट को सलाह देने के नाम पर संघ ने एक अपनी पूरी टीम यहां लगा दी है. संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रय होसबले को लखनऊ में बैठने के लिए कह दिया गया. संघ में ऐसे लोगों को जिम्मेदारी वाले पद दिए गए, जो उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले हैं. इन में आलोक कुमार, महेंद्र कुमार, धनीराम, धर्मेंद्र और विनोद प्रमुख हैं.

संघ का यह दावा पूरी तरह से  झूठ है कि वह राजनीति नहीं करता है. संघ अभी तक भाजपा की आड़ में राजनीति करता था, पर पश्चिम बंगाल चुनाव में हार के बाद वह खुल कर भाजपा के सहारे राजनीति करने लगा है. संघ को लगता है कि अगर इस समय भाजपा पर कब्जा नहीं किया गया, तो मोदीशाह की जोड़ी के कब्जे से भाजपा को मुक्त कराना आसान नहीं होगा.

आने वाले विधानसभा चुनाव और साल 2024 के लोकसभा चुनाव तक संघ अपना प्रभाव भाजपा में इस तरह बढ़ा लेना चाहता है कि फिर भाजपा संघ के किसी आदेश को मानने से इनकार न कर सके. संघ यह सोच रहा है कि जब तक भाजपा संघ के पूरी तरह कब्जे में नहीं आएगी, तब तक देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है.

संघ के हिंदू राष्ट्र में गरीबों और महिलाओं की हालत कैसी होगी, यह सभी को सम झ आ रहा है. महिलाओं को ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के सिद्धांतों पर चलने को मजबूर किया जाएगा. लव जिहाद के नाम पर ऐसा किया जा रहा है. एक तरह से यह कहा जा रहा है कि अपने मनपसंद जीवनसाथी का चुनाव महिलाएं नहीं कर पाएंगी.

इस के अलावा जनसंख्या कानून, नागरिकता कानून बनाने से जनता के अधिकार सीमित किए जा रहे हैं. सरकारी नीतियों का विरोध करने वालों की जबान को पुलिस के सहारे बंद करने की कोशिश की जा रही है. हिंदू राष्ट्र एक तरह से पुलिस राष्ट्र की तरह बनता जा रहा है, जहां राजा का आदेश ही लोकतंत्र माना जाएगा.

“सुशासन बाबू” नीतीश के रंग!

यही कारण है कि लोकतंत्र में हमारे देश में अनेक राजनीतिक पार्टियां हैं और उनके नेता रंग रंग की राजनीतिक उछल कूद से जहां अनायास देश का भला करते हैं, वहीं देशवासियों का मनोरंजन भी.

बात अगर हम आज बिहार की करें, तो आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार “सुशासन बाबू” के रूप में अपनी ही पीठ थपथपाते जाते हैं. यह सारा देश जानता है कि बिहार में सुशासन नाम की चीज आपको कहीं नहीं मिलेगी. अब उन्होंने एक नया अंदाज बयां दिखाया है जिसे राजनीति के बड़े पर्दे पर बड़े ही उत्सुकता के साथ देखा जा रहा है . यह है अपने ही एनडीए गठबंधन के खिलाफ सुर बुलंद करना.

नीतीश कुमार ने इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की दुखती हुई रग को पकड़ लिया है और कहा है कि पेगासस मुद्दे पर तो जांच होनी ही चाहिए.

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राजनीति के जानकार हर आम-ओ-खास जानता है कि पेगासस जासूसी कांड पर नरेंद्र दामोदरदास मोदी और उनके दाएं बाएं रहस्यमय रूप से खामोश हैं. कोई कुछ कहता और न ही जांच की बात पर सहमति है. ऐसे में अपने ही गठबंधन के एक शीर्षस्थ नेता नीतीश कुमार द्वारा पेगासस जासूसी कांड के चीथड़े को खींचकर पूरी चलती संसद के बीच उधाड़ देना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके दाएं बाएं को नागवार गुजर सकता है.

सबसे अहम सवाल यह है कि जिस एनडीए गठबंधन के संरक्षण में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनकर कुर्सी पर बैठे हुए हैं यहां उन्हें ऐसी कोई बात करनी चाहिए जो गठबंधन के नीति और सिद्धांतों के खिलाफ है? क्या एनडीए गठबंधन का कोई माई बाप नहीं है जो उसे अपने हिसाब से देश के हित में और पार्टियों के हित में संचालित कर सके?

आखिरकार नीतीश कुमार के इन रंग बदलते बोलो के पीछे की राजनीति क्या है?
आइए! आज हम इस पर दृष्टिपात करते हैं.

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नीतीश कुमार की निगाह!

आपको हम बताते चलें कि नीतीश कुमार देश के एक बड़े कद के नेता माने जाते रहे हैं. और उन्हें प्रधानमंत्री पद का एक महत्वपूर्ण दावेदार भी लंबे समय से माना गया है. ऐसे में नीतीश कुमार ने सोची समझी राजनीतिक चाल चलनी शुरू कर दी है. पहले भी चल रहे किसान आंदोलन का आप समर्थन कर चुके हैं. यही नहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का मुख्य घटक दल जनता दल (यूनाइटेड) केंद्र सरकार की राय के विपरीत जाति जनगणना कराने पर भी जोर दे रहा है. नीतीश कुमार ने पेगासस जासूसी कांड की भी जांच की मांग कर दी है है ऐसे में सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार केंद्र सरकार की नीतियों का इस तरह विरोध क्यों कर रहे हैं.

नीतीश कुमार, जैसा कि सभी जानते हैं एक के वरिष्ठ राजनेता हैं वह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे हैं. और मोदी को कई दफा घात प्रतिघात दे चुके हैं.

यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने देश की बागडोर संभाली तो उन्होंने नीतीश कुमार को दबाने का प्रयास शुरू कर दिया और लालू नीतीश कुमार के गठबंधन को अपने अदृश्य हाथों से छिन्न-भिन्न करके भाजपा के साथ नीतीश कुमार को लाने में सफलता प्राप्त की. जब नीतीश कुमार ने लालू के साथ को छोड़ा तो उनकी बड़ी आलोचना हुई थी. मगर नीतीश कुमार मौन हो आंखें बंद कर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर विराजमान हो गए और एनडीए के साथ गलबहियों में खोये रहे. इधर नरेंद्र दामोदरदास मोदी उन्हें झटके पे झटका देते रहे 2019 में जब केंद्र सरकार में उन्होंने नीतीश कुमार के चार मंत्रियों के कोटे को कटौती करके एक मंत्री पद देने की बात कही तो नीतीश कुमार ने गुस्से में एक भी मंत्री पद लेने से इनकार कर दिया था. मगर उनकी नाराजगी पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया .

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नीतीश कुमार एक बेचारे मुख्यमंत्री बन करके रह गए. मगर जैसा कि होता है राजनीति में घाट घाट का पानी तो पीना ही पड़ता है ऐसे में नीतीश कुमार ने जैसे ही तीन विधेयकों का मामला जोर पकड़ने लगा वे किसानों के पक्ष में खड़े होकर के उन्होंने यह बता दिया कि वे मोदी की नीति के कितने खिलाफ हैं और अब पेगासस जासूसी मामले में उन्होंने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को जिस तरह से घेर दिया है वह विपक्ष को एक ताकत दे गया है.

समस्या: लोकतंत्र का माफियाकरण

लेखक- देवेंद्र गौतम

साल 2022 के 15 अगस्त को आजादी की 75वीं सालगिरह मनाई जाएगी. इस के लिए ‘अमृत महोत्सव’ की बड़े पैमाने पर तैयारी चल रही है. 26 जनवरी, 2022 को हमारा लोकतंत्र भी 72वें साल में दाखिल हो जाएगा.

आजाद भारत के इतने लंबे सफर के बाद राजनीति के अपराधीकरण के बाद अब राजनीति के माफियाकरण का खतरा पैदा हो गया है.

इस की एक जीतीजागती मिसाल महाराष्ट्र के सत्ता संरक्षित वसूली गैंग के रूप में सामने आई है. अब चुनाव भी सत्ता पर कब्जे की होड़ में तबदील हो चले हैं, जिस में प्यार और जंग में सबकुछ जायज है की तर्ज पर कानूनी और गैरकानूनी सभी साधनों का इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले दिनों भारत के जानेमाने उद्योगपति मुकेश अंबानी के बंगले के पास लावारिस स्कौर्पियो गाड़ी में बरामद जिलेटिन की छड़ों ने बगैर डैटोनेटर इतना बड़ा धमाका कर दिया कि इस की आंच महागठबंधन सरकार तक पहुंच गई है.

मुंबई के पुलिस कमिश्नर रह चुके परमवीर सिंह और गृह मंत्री रह चुके अनिल देशमुख से होती हुई इस की लपटें राकांपा प्रमुख शरद पवार तक पहुंच चुकी हैं. धीरेधीरे चेहरे बेनकाब हो रहे हैं. अभी और कितने लोग इस की चपेट में आएंगे, पता नहीं.

एनआईए मामले की जांच कर रही है. इस में रोज नएनए हैरतअंगेज खुलासे हो रहे हैं. जांच का आखिरी फैसला सामने आने में अभी समय है, लेकिन अभी तक जो तथ्य सामने आए हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि अब सत्ता की राजनीति काले धन का खेल बन चुकी है और लोकतंत्र का माफियातंत्र में बदलाव हो चुका है.

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अभी तक एनआईए की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं, उन से यह कहने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि महाराष्ट्र में सत्ता की आड़ में एक खूंख्वार माफिया गैंग काम कर रहा था. यह गैंग अंडरवर्ल्ड के गिरोहों की तर्ज पर कारपोरेट घरानों  से भारीभरकम वसूली का जाल बिछा चुका था.

जांच आगे बढ़ेगी, तो पता चलेगा कि इस गिरोह में सीधे और गैरसीधे तौर पर कौनकौन से सफेदपोश नेता और नौकरशाह शामिल थे. कितने की वसूली हो चुकी है और दूसरे अपराधी गिरोहों से इन के क्या संबंध थे.

इस गैंग के मेन किरदार परदे के  पीछे हैं. परदे पर मौजूद किरदार सचिन वाझे थे. महाराष्ट्र पुलिस के अदना से असिस्टैंट पुलिस इंस्पैक्टर जो ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रह चुके हैं और एक हत्या के आरोप में साल 2004 से ही निलंबित थे.

सचिन वाझे का काम करने का तरीका पूरी तरह जासूसी उपन्यासों के अपराधी सरगनाओं की तरह रहा है. ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रहने के नाते जाहिर है कि उन के अंडरवर्ल्ड से संबंध रहे होंगे.

कुछ ऐसी ऐक्स्ट्रा खूबियां सचिन वाझे के अंदर रही होंगी कि 16 साल के वनवास के बाद उन्हें वापस बुला कर नौकरी पर रखा गया, जबकि वे हत्या के मामले से बरी भी नहीं हुए थे. कुछ तो उन की ऐसी उपयोगिता थी, जो वर्तमान पुलिस बल से अलग और अहम थी.

सचिन वाझे निलंबित रहते हुए भी फाइव स्टार जिंदगी जी रहे थे, तो इस का सीधा सा मतलब है कि उन की जिंदगी पुलिस महकमे की तनख्वाह से नहीं चल रही थी. उन की आमदनी के दूसरे कई अज्ञात स्रोत थे. पुलिस की वरदी सिर्फ अपनी करतूतों को सरकारी जामा पहनाने का साधन थी.

ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट होने के नाते सचिन वाझे को सत्ता में बैठे लोग भी जानते थे. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि निलंबित रहने के बावजूद वे आधा दर्जन से ज्यादा लग्जरी कारों में कैसे घूमते थे? शाही जिंदगी कैसे जीते थे? इस बीच वे शिव सेना के सक्रिय सदस्य बन गए थे.

महागठबंधन सरकार बनने के बाद सरकार और महाराष्ट्र पुलिस को सचिन वाझे की सेवाओं की खास जरूरत पड़ गई, इसीलिए उन्हें विशेष प्रावधान के तहत सेवा में वापस लिया गया और उन्हें क्राइम ब्रांच में विशेष जिम्मेदारी दी गई. उन्हें सीधे पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट करना होता था. वे उन्हीं के निर्देश पर काम करते थे. 9 महीने के अंदर ही उन्हें तकरीबन 2 दर्जन खास मामलों का जांच अधिकारी बना दिया गया था.

जाहिर है कि भांड़ा फूट जाने के बाद सचिन वाझे अकेले बलि का बकरा बनना पसंद नहीं करते, इसलिए धीरेधीरे अपने आकाओं के नाम जाहिर करते जा रहे हैं. हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज पर.

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मायानगरी मुंबई में धन उगाही पहले भी होती रही है, लेकिन पहले दुबई और मलयेशिया में बैठे डौन बड़ी रकमों की उगाही करते थे. उन के निशाने पर बौलीवुड के सितारे भी होते थे और बड़े कारोबारी भी, खासतौर पर काले धंधे से जुड़े हुए लोग. लोकल इलाकाई गुंडे छोटे दुकानदारों से हफ्तावसूली करते थे.

यह मुंबई तक ही सीमित नहीं है. देश के तकरीबन हर राज्य में सरकार संरक्षित वसूली गैंग हैं, जो राजनीति के लिए खादपानी का जुगाड़ करते रहे हैं, लेकिन मुंबई की सरकार संरक्षित माफिया की वसूली का लक्ष्य बड़ा था.

अभी 100 करोड़ रुपए हर महीने वसूली का टारगेट सामने आया है, लेकिन बात यहीं तक नहीं होगी. अभी बहुतकुछ उजागर होना बाकी है. इतनी बड़ी रकम किसी खास मकसद से ही वसूली जा सकती है.

यह मकसद सत्ता पर कब्जा बनाए रखने या कब्जा करने का हो सकता है. केंद्र सरकार में बैठे लोग इसे बेहतर समझ रहे होंगे, इसीलिए राज्य के क्राइम ब्रांच से मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई.

क्या यह आम लोगों के लिए बेहद चिंता की बात नहीं होनी चाहिए? औपनिवेशिक सत्ता से आजादी के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने कितना संघर्ष किया, कितनी कुरबानियां दीं, उस का नतीजा इस रूप में सामने आ रहा है. हम जिस तरह का देश बनाना चाहते थे, वह यह तो कतई नहीं है. यकीनन, किसी नई व्यवस्था को स्थापित होने में समय लगता है.

फ्रांस की क्रांति 1779 में हुई थी. इस का लक्ष्य लोकतंत्र की स्थापना था, लेकिन इस क्रांति ने नैपोलियन बोनापार्ट को पैदा किया, जिन्होंने सत्ता हाथ में आने के बाद खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया और राजशाही की वापसी हो गई. फिर राजा बदलता रहा, राजशाही चलती रही और लोकतंत्र की दोबारा बहाली 1848 के बाद ही हो सकी यानी 69 साल बाद.

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भारतीय लोकतंत्र भी अभी संक्रमण काल से ही गुजर रहा है. लोकतंत्र की आड़ में परिवारवाद, व्यक्तिवाद का दौर चलता रहा. अब माफियावाद का दौर दस्तक दे रहा है. जब तक आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जरूरी नागरिक गुणों से लैस नहीं होगी, इस तरह की विकृतियां जारी रहेंगी.

ये विकृतियां धीरेधीरे देश और समाज को खोखला कर देंगी और हम कुछ नहीं कर पाएंगे.

क्या ‘नरेंद्र मोदी’ नाम का जहाज डूब रहा है!

कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र दामोदरदास मोदी की “सत्ता- सरकार” का जहाज जब डूबने डूबने को हो रहा था तो मोदी अपने सिद्धांतों और कही हुई बातों से मुकर गए और मोदी नाम का जहाज़ डूब गया.

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जब 2014 में देश के प्रधानमंत्री की शपथ ली थी तो उन्होंने अपने मुंह से और आचरण से जो जो बातें कहीं, क्या वह आपको याद है. हमारे देश की यही फितरत है- “आगे पाठ पीछे सपाट” यही कारण है कि मोदी ने जो जो आशा आकांक्षाएं देश की जन जन के बीच जागृत की थी और लोग उनके मुरीद होते चले गए थे. आज लगभग 7 साल बीत जाने के बाद मोदी को एहसास हो चला है कि उनका बनाया हुआ “मायाजाल” अब बिखर रहा है. देश की आवाम इस जादुई “भ्रम जाल” से बाहर निकल रहा हैं, ऐसे में मोदी के आचरण में वही घबराहट दिख रही है जो नाव या जहाज डूबने के समय नाविक और कैप्टन के चेहरे पर नजर आती है.

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नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह एहसास हो चला है कि आने वाले समय में लोकतंत्र की दुहाई देकर, देश प्रेम की अग्नि जलाकर, देश को विकास के एक नए मॉडल के सपने दिखाकर उन्होंने जो सत्ता हासिल की है वह अब उनकी हाथों से निकल रही है. यही कारण है कि उन्होंने बीते दिनों जो केंद्रीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया वह स्वयं उनके लिए आइना बन गया है, जो बता रहा है कि आपने जो जो कहा था, उससे आप मुकर गए हैं. सत्ता के लिए आप भी वही सब कुछ कर रहे हैं जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया था.

मोदी के इस संपूर्ण व्यवहार और सिद्धांत पर आइए हम दृष्टिपात करते हैं.

दिग्गज मंत्रियों को हटाने का “लक्ष्य”!

लोगों के एक आदर्श बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की कथनी और करनी में अंतर साफ साफ दिखाई देता है. वो जो कहते हैं के पीछे का सच कुछ और होता है और जो कुछ नहीं कहते हैं उसके आगे का सच कुछ और होता है. बिलकुल वैसे ही जैसे तीतर के दो आगे तीतर तीतर के दो  पीछे तीतर बताओ कितने तीतर!

देशभर में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की चर्चा हो रही है कि किस तरह उन्होंने डॉ हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर जैसे दिग्गज मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. और किस तरह महिलाओं को, पिछड़ों को और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु को उन्होंने प्रतिनिधित्व दिया है. महिलाओं का कोटा बढ़ा दिया है ऐसी बातें पढ़ कर के और देख कर के हमें यह समझना होगा कि आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कि इसके पीछे रणनीति क्या है?

नरेंद्र मोदी के बारे में सारा देश और दुनिया जानती है कि वही प्रधानमंत्री हैं और वही कैबिनेट और राज्यमंत्री भी! उनकी बिना सहमति और निगाह के किसी मंत्री की कोई बखत नहीं है. देश को एकमात्र वही अपनी उंगलियों पर चला रहे हैं या कहें नचा रहे हैं ऐसे में इन बड़े-बड़े दिग्गज मंत्रियों को अचानक हटाने के पीछे की मंशा क्या है.

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दरअसल इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपनी छवि को निखारना है. आप याद करिए जब  कोरोना कोविड-19 का देश में आगमन हुआ था तो किस तरह  “नमस्ते ट्रंप” का  आयोजन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हुआ था. कोरोना जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया, दीप जलाओ ताली बजाओ और लॉकडाउन का खेल चला और यह कहा गया कि अब कोरोनावायरस देश से खत्म हो जाएगा.मगर जब दांव उल्टा पड़ने लगा तो अपनी छवि बनाने के लिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने मंत्रिमंडल के दिग्गज मंत्रियों की छुट्टी करके यह संदेश देने का प्रयास किया है कि देखिए! किस तरह हम एक्शन लेते हैं.

यह भी सच है कि जिन जिन मंत्रियों को कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया गया है आने वाले समय में आप देखेंगे कि देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर यही लोग विराजमान दिखेंगे. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी लोगों को ध्यान बटाने के लिए यह एक सीधी सी ट्रिक चली गई है जो कामयाब होती भी दिख रही है. क्योंकि हमारे देश में लोगों के जल्द भूल जाने की फितरत है. उसी का लाभ हमारे नेताओं को गाहे-बगाहे मिल जाता है.

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