मर्दों की नसबंदी: खत्म नहीं हो रहा खौफ

सियासत में तानाशाही ताकत के साथ बढ़ती जाती है. यह किसी एक दल की बपौती नहीं होती है. साल 1975 में कांग्रेस सरकार के समय इमर्जैंसी में मर्दों की नसबंदी को ले कर संजय गांधी के खौफ को हिटलर की तानाशाही से भी बड़ा माना गया था. उस समय संजय गांधी केंद्र सरकार तो छोडि़ए, कांग्रेस दल में भी किसी तरह के पद पर नहीं थे. इस के बाद भी उन का आदेश सब से ऊपर था, क्योंकि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे जो थे.

उस के बाद इस मुहिम का डर मर्दों में इस कदर बैठा कि आज 44 साल के बाद भी सरकार मर्दों की नसबंदी कराने के अपने टारगेट से काफी पीछे है. आज भी देश की परिवार नियोजन योजना में मर्दों का योगदान औरतों के मुकाबले काफी कम है.

इमर्जैंसी में मर्दों की जबरदस्ती नसबंदी कराने से नाराज लोगों ने तब कांग्रेस सरकार को यह बताते हुए भी उस का तख्ता पलट कर दिखा दिया था कि सियासत में तानाशाही का जवाब देना जनता को आता है. तब लोगों ने मर्दों की नसबंदी को राजनीतिक मुद्दा बना दिया था.

वैसे, आज भी ज्यादातर मर्दों को यही लगता है कि नसबंदी कराने से उन की सैक्स ताकत घट जाएगी. ऐसे में वे नसबंदी से दूर रहते हैं.

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मर्दों की नसबंदी का जिक्र आते ही पिछली पीढ़ी के सामने साल 1975 की इमर्जैंसी की ज्यादती की घटनाएं आंखों के सामने घूम जाती हैं. आज की पीढ़ी ने भले ही उस दौर को न देखा हो, पर गांवगांव, घरघर में ऐसी कहानियां सुनने को मिलती हैं, जब गांव में मर्दों को पकड़ कर जबरदस्ती नसबंदी करा दी जाती थी. गांव के गांव घेर कर पुलिस नौजवानों तक को उठा लेती थी.

सरकारी मुलाजिमों के लिए तो यह काम सब से जरूरी हो गया था. उन की नौकरी पर संकट खड़ा हो गया था. इस दायरे में बड़ी तादाद में स्कूली टीचर भी आए थे. कई जगहों पर अपना कोटा पूरा करने के लिए गैरशादीशुदा और बेऔलाद लोगों को भी नसबंदी करानी पड़ी थी. कई गरीब इस के शिकार हुए थे.

इस से देश के आम जनमानस में उस समय की कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़का था और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था.

मर्दों में नसबंदी का यह खौफ आज भी जस का तस कायम है. भारत में औरतों के मुकाबले बहुत कम मर्द नसबंदी कराते हैं. 70 के दशक में जब परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी, तो भारत में आबादी पर रोक लगाने के लिए औरतों पर ही ध्यान दिया गया. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि औरतें इस के लिए आसानी से तैयार हो जाती थीं.

70 के दशक में भारत गरीबी के दौर से गुजर रहा था. गरीबी को खत्म करने के लिए हरित क्रांति जैसे कार्यक्रम चलाए गए थे, जिस से देश में ज्यादा से ज्यादा अनाज उगाया जा सके और देश खाने के मामले में आत्मनिर्भर रह सके.

इस के लिए दूसरा बेहद जरूरी कदम आबादी को काबू में रखने का भी था. इस की जरूरत हर जाति और धर्म में महसूस की जा रही थी.

संजय गांधी को लगा था कि इमर्जैंसी इस के लिए सब से बेहतर समय है. उन्होंने मुसलिम धर्म के लोगों को भी इस दायरे में लिया था, पर तब मुसलिमों को लगता था कि यह उन की आबादी को कम करने के लिए किया जा रहा है.

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संजय गांधी का दबदबा

साल 1975 में इमर्जैंसी के दौरान संजय गांधी ने आबादी पर काबू पाने से जुड़े कानून के सहारे अपने असर को पूरे देश में दिखाने का काम किया था. इस के लिए उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने नसबंदी को ले कर ‘उग्र’ अभियान शुरू किया था. उन्होंने उस समय टैलीग्राफ के जरीए अपना एक संदेश हर प्रदेश के सरकारी अफसरों को भेजा था कि ‘सब को सूचित कर दीजिए कि अगर महीने के टारगेट पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ तनख्वाह रुक जाएगी बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी देना होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मु झे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें.’

इस संदेश ने नौकरशाही में खौफ पैदा कर दिया था, जिस की वजह से नसबंदी कराने के लिए लोगों को तैयार करने के काम में पुलिस की मदद भी ली गई थी.

इस में सब से ज्यादा गरीब आदमी परेशान हुए थे. पुलिस ने पूरे गांव को घेर लिया और मर्दों को जबरन घरों से खींच कर उन की नसबंदी करा दी गई थी. साल के भीतर ही तकरीबन 62 लाख लोगों की नसबंदी की गई थी. इस में गलत आपरेशनों से 2,000 लोगों की मौत भी हुई थी.

साल 1933 में जरमनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था. इस के लिए एक कानून बनाया गया था जिस के तहत किसी भी आनुवांशिक बीमारी से पीडि़त आदमी की नसबंदी का प्रावधान था. तब तक जरमनी नाजी पार्टी के कंट्रोल में आ गया था.

इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवांशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जरमन इनसान की सब से बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से दूर होगा. बताते हैं कि इस अभियान में तकरीबन 4 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.

भारत में नसबंदी को ले कर संजय गांधी के अभियान का खौफ पूरे देश पर इस कदर छाया था कि वे हिटलर से भी आगे निकल गए. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि संजय गांधी कम से कम समय में एक प्रभावी नेता के रूप में पूरे देश में छा जाना चाहते थे. ऐसे में वे नसबंदी के बहाने तानाशाही को दिखाने लगे थे.

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साल 1975 में इमर्जैंसी लगने के बाद राजनीति में आए संजय गांधी को लगने लगा था कि गांधीनेहरू परिवार की विरासत वे ही संभालेंगे. कम से कम समय में एक प्रभावशाली नेता बनने की फिराक में वे इस कदम को उठाने के लिए तैयार हुए थे.

लेकिन संजय गांधी की हवाई हादसे में हुई मौत और कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद उस के बाद आई जनता पार्टी सरकार ने नसबंदी के इस उग्र अभियान को दरकिनार कर दिया था और परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रचार और प्रोत्साहन के बल पर आगे बढ़ाने का काम किया था.

खत्म नहीं हो रहा खौफ

इमर्जैंसी के 44 साल के बाद भी मर्दों में नसबंदी का खौफ खत्म नहीं हो रहा है. आज सरकार मर्दों की नसबंदी पर 3,000 रुपए नकद प्रोत्साहन राशि दे रही है, जबकि औरतों की नसबंदी पर केवल 2,000 रुपए की प्रोत्साहन राशि दी जा रही है.

सरकारी अस्पतालों में नसबंदी के आंकड़े देखे जाएं तो यह अनुपात 10 औरतों पर एक मर्द का आता है. हैरान करने वाली बात यह है कि पतिपत्नी जब सरकारी अस्पताल आते हैं, तो पत्नी खुद कहती है, ‘डाक्टर साहब, इन को कामकाज करना होता है. खेतीकिसानी में बो झ उठाना पड़ता है. साइकिल चलानी पड़ती है. ऐसे में इन की जगह पर हम ही नसबंदी करा लेते हैं.’

जब पत्नी को सम झाने की कोशिश की जाती है, तो वह बताती है कि उस की सास भी यही चाहती है. असल में पत्नी पर पति का ही नहीं, बल्कि सास और दूसरे घर वालों के साथसाथ समाज तक का दबाव होता है.

आजमगढ़ जिले के रानी सराय ब्लौक के बेलाडीह गांव की रानी कन्नौजिया कहती हैं कि औरतों को यह भी लगता है कि नसबंदी न होने से बारबार बच्चा पैदा करने से उन को ही परेशानी होगी. ऐसे में वे आसानी से खुद ही नसबंदी करा कर परिवार नियोजन का काम कर लेती हैं.

कई गांवों में मर्दों की नसबंदी को अंधविश्वास से भी जोड़ दिया जाता है. कई बार मर्दों को यह बताया जाता है कि इस को कराने से किस तरह लोग प्रभावित होते हैं. ऐसे में डर के मारे वे नसबंदी नहीं कराते हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी मर्दों की नसबंदी अभी भी बहुत पिछड़ी हालत में है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2016-17 के दौरान 40 लाख नसबंदियां की गई थीं. इन में मर्दों की नसबंदी के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा.

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महफूज है मर्द नसबंदी

मक्कड़ मैडिकल सैंटर के सर्जन डाक्टर जीसी मक्कड़ कहते हैं कि मर्दों की नसबंदी ज्यादा आसान और सुरक्षित होती है. इस में समय भी कम लगता है. उन की नसबंदी भी औरतों की नसबंदी जितनी ही असरदार है. मर्दों की नसबंदी को ले कर गलतफहमियों को दूर करने की जरूरत होती है.

इस नसबंदी में मर्द के बच्चा पैदा करने वाले अंग व अंडकोष को नहीं काटा जाता और न ही नसबंदी से उन को कोई नुकसान होता है.

नसबंदी के बाद न तो अंग और अंडकोष सिकुड़ते हैं और न ही छोटे होते हैं. नसबंदी के चलते किसी भी तरह की जिस्मानी कमजोरी नहीं आती है. मर्द की मर्दानगी में कोई फर्क नहीं आता है. पतिपत्नी को जिस्मानी संबंधों में भी पहले जैसा ही मजा मिलता है.

मर्दों की नसबंदी बिना चीरे, बिना टांके के होती है. इस में सब से पहले अंडकोषों के ऊपर वाली खाल को एक सूई लगा कर सुन्न की गई खाल में एक खास चिमटी से एक बहुत बारीक सुराख करते हैं. ऐसा करने में न दर्द होता है और न ही खून निकलता है.

इस बारीक सुराख से उस नली को बाहर निकालते हैं जो अंडकोष से मर्दाना बीजों को पेशाब की नली तक पहुंचाती है. फिर इस नली को बीच से काट देते हैं. नली के कटे हुए दोनों छोरों को बांध कर उन का मुंह बंद कर देते हैं और अंडकोष वापस थैली के अंदर डाल देते हैं.

कम समय, आसान तरीका

नलियों को अंडकोष की थैली में वापस डालने के बाद सुराख पर डाक्टर टेप चिपका देते हैं. इस तरह खाल के लिए किए गए सुराख पर टांका लगाने की जरूरत भी नहीं पड़ती है. 3 दिन बाद वह सुराख खुद ही बंद हो जाता है. इस तरीके से नसबंदी करने में 5 से 10 मिनट का समय लगता है.

नसबंदी कराने के आधे घंटे बाद आदमी घर भी जा सकता है. 48 घंटे बाद वह सामान्य काम भी कर सकता है.

अगर नसबंदी के बाद 2 दिन तक लंगोट पहने रखें तो इस से अंडकोष को आराम मिलता है. 3 दिन सुराख पर टेप चिपकी रहनी चाहिए और जगह को गीला होने, मैल और खरोंच से बचाना चाहिए.

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नसबंदी कराने के अगले दिन आदमी नहा सकता है. इस जगह को गीला होने से बचा कर नहाएं. 3 दिन बाद अगर लगे कि सुराख बिलकुल ठीक हो गया है, तो टेप हटा कर उसे साबुन और पानी से धो लें.

किसी तरह की असुविधा से बचने के लिए नसबंदी के 7 दिन बाद ही साइकिल चलाएं. सुराख वाली जगह ठीक होने के बाद आदमी सैक्स संबंध भी बना सकता है.

सैक्स संबंधों में कमी नहीं

नसबंदी के बाद कम से कम 20 वीर्यपात या संभोगों तक आदमी कंडोम या उस की पत्नी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके का इस्तेमाल जरूर करे. आपरेशन के 3 महीने बाद वीर्य की डाक्टरी जांच कराएं कि वह शुक्राणुरहित हो गया है या नहीं. वीर्य के शुक्राणुरहित पाए जाने के बाद सैक्स के लिए कंडोम या किसी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके की जरूरत नहीं रहती है.

नसबंदी के बाद आदमी में किसी भी तरह की सैक्स समस्या नहीं आती है. वह पहले की ही तरह से सैक्स कर सकता है. आम लोगों को यह लगता है कि मर्दों की नसबंदी के बाद उन की सैक्स ताकत कम हो जाती है. यह बात पूरी तरह से गलत है.

नसबंदी करने से पहले यह देखा जाता है कि मर्द शादीशुदा हो. मर्द की उम्र 50 साल से कम और उस की पत्नी 45 साल से कम हो. पति या पत्नी दोनों में से किसी ने भी पहले नसबंदी न कराई हो या पिछली नसबंदी नाकाम हो गई हो. उस जोड़े का कम से कम एक जीवित बच्चा हो, उस की उम्र एक साल से ज्यादा हो. मर्द की दिमागी हालत ऐसी हो कि वह नसबंदी के नतीजों को सम झ सकता हो. उस ने नसबंदी कराने का फैसला अपनी इच्छा से और बगैर किसी दबाव के लिया हो.

नसबंदी कराने के लिए सरकारी अस्पताल से जानकारी ले सकते हैं. मर्दों की नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रोत्साहन के रूप में पैसे भी देती है.

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दिल्ली की आग से देश की आंखें नम, पढ़िए आग की नौ बड़ी घटनाएं

नई दिल्ली: लुटियंस दिल्ली के लोग इस काली सुबह को कभी भूल नहीं पाएंगे. सर्दी के मौसम में सुबह पांच बजे लोग आराम से सो रहे होते हैं. लेकिन उनको क्या पता था कि जब उनकी आंखे खुलेगी तो सामने आग की लपटों पर लिपटे जिस्म की चीखें सुनाई देंगी. कुछ ऐसा ही हुआ. दिल्ली में अनधिकृत बैग मैन्युफैक्चरिंग फैक्टरी में रविवार को लगी आग में 43 लोगों की मौत हो गई और बहुत से दूसरे लोग अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह घटना बीते 25 सालों में देश में हुई आग दुर्घटनाओं में सबसे गंभीर है.

देश में आग की नौ बड़ी घटनाएं

8 दिसंबर, 2019

लुटियंस दिल्ली में अनधिकृत बैग मैन्युफैक्चरिंग फैक्टरी में रविवार को लगी आग में 43 लोगों की मौत हो गई और बहुत से दूसरे लोग अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जिनके साथ ये हादसा हुआ अगर उनकी जुबानी सुनें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. यह घटना बीते 25 सालों में देश में हुई आग दुर्घटनाओं में सबसे गंभीर है.

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23 दिसंबर, 1995-डबवाली-हरियाणा

स्कूल के वार्षिक दिवस समारोह के बाद आग व भगदड़ मचने से 442 लोगों की मौत हो गई, जिसमें 225 स्कूली बच्चे थे. हॉल परिसर में 1500 लोग एक शामियाने में जमा थे, जिसके गेट बंद थे.

23 फरवरी 1997-बारिपदा-ओडिशा

यह आग एक संप्रदाय के धार्मिक कार्यक्रम के दौरान लगी और भगदड़ के बाद बारिपदा में 23 फरवरी 1997 को 206 लोगों की मौत हो गई. यह आग हताहतों की संख्या के मामले में दूसरी सबसे बड़ी आग त्रासदी थी. इसके अतिरिक्त भगदड़ में 200 लोगों को चोटें आई, जब भक्त आग से बचने की कोशिश कर रहे थे.

10 अप्रैल 2006-मेरठ-उत्तर प्रदेश

यहां एक उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स मेले के दौरान लगी भीषण आग से 100 लोगों की मौत हो गई. आग लगने का कारण शॉर्ट सर्किट था.

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16 जुलाई, 2004-कुंभकोणम-तमिलनाडु

एक अस्थायी मिडडे मील रसोई घर में लगी आग से 94 स्कूली बच्चों की मौत हो गई. रसोई घर की आग की लपटें पहली मंजिल की कक्षाओं तक पहुंच गई जहां 200 छात्र मौजूद थे.

9 दिसंबर, 2011-कोलकाता-पश्चिम बंगाल

इमारत के बेसमेंट में इलेक्ट्रिक शॉर्ट सर्किस से आग लग गई और इससे आग व धुआं एएमआरआई अस्पताल तक पहुंच गई और 89 लोगों की मौत हो गई.

13 जून, 1997-उपहार सिनेमा

आग की यह भयावह घटना बॉलीवुड फिल्म ‘बॉर्डर’ की स्क्रिनिंग के दौरान हुई, जिसमें 59 लोगों की मौत हो गई और 100 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गए.

5 सितंबर 2012-शिवकाशी-तमिलनाडु

यह हादसा शिवकाशी में पटाखा मैन्युफैक्चरिंग के दौरान मजदूरों के रासायनों के मिलाने की वजह से विस्फोट से हुआ और आग लग गई, जिसमें 54 लोग मारे गए और 78 लोग घायल हो गए.

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23 जनवरी, 2004-श्रीरंगम-तमिलनाडु

शादी के समारोह के दौरान आग लगने से 50 लोगों की मौत हो गई और 40 लोग घायल हो गए.

15 सितंबर, 2005-खुसरोपुर-बिहार

तीन अनधिकृत पटाखा मैन्युफैक्चरिंग ईकाई में विस्फोट से आग लगने से 35 लोगों की मौत हो गई और 50 से ज्यादा लोग घायल हुए.

हैदराबाद में चार आरोपियों के साथ कानून का भी हुआ एनकाउंटर

तेलंगाना पुलिस जिंदाबाद के नारे लगाए. दोषियों को अदालत ने सजा ए मौत भले न दी हो लेकिन कानून के रखवालों ने तामील कर दी. आज मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि एक कुप्रथा का सहारा लेकर तथाकथित न्याय किया गया. आज चार आरोपियों के एनकाउंटर के साथ एक और एनकाउंटर किया गया वो एनकाउंटर हुआ कानून का.

अभी वो केवल आरोपी ही थे दोषी नहीं. आरोपियों को 10 दिन की पुलिस रिमांड पर भेजा गया था. अभी तक ये भी पता नहीं कि आरोपी वही है या फिर और कोई. आरोपियों को पुलिस की कस्टडी पर रखकर सारे साक्ष्य और सबूत इकट्ठा किए जा रहे थे. कहा जा रहा है कि उन्होंने पुलिस के सामने गुनाह कबूल किया था. ये बात किसी से छिपी नहीं है कि पुलिस कैसे गुनाह कबूल करा देती है. इसी वजह से अदालत में जज के सामने जब किसी मुजरिम को पेश किया जाता है तो जज पूछते हैं कि आप किसी दबाव में तो नहीं बयान नहीं दे रहे. मतलब की जज को भी पता होता है कि पुलिस रिमांड के दौरान पुलिस के पास कौन-कौन से तरीके होते हैं गुनाह को कबूल कराने के.

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दोषियों को सजा ए मौत मिलनी चाहिए. बेशक मिलनी चाहिए. गैंगरेप और हत्या के आरोपियों को सरे आम फांसी पर लटका देना चाहिए. अदालत चाहे तो आरोपियों की फांसी का लाइव टेलिकास्ट करा देते  ताकि जहां कहीं भी हैवान होते उनको रूह कांप जाती. अगर इससे भी मन नहीं भरता तो दुनिया की सबसे कठोर जो सजा होती वो दे दी जाती. किसी को कोई गम नहीं होता. उन आरोपियों से किसी को भी हमदर्दी नहीं हो सकती.

खैर, महिला डॉक्टर को तो न्याय मिल गया लेकिन क्या न्याय उनको भी मिल पाएगा, जिनके जिस्म को तार-तार करने वाले हैवान आज भी न्याय के मंदिर पर सजा काट रहे हैं. जिस जगह पर महिला डॉक्टर की जली लाश मिली थी उससे कुछ ही दूरी पर 48 घंटे के भीतर एक दूसरी महिला की जली हुई निर्वस्त्र लाश मिली थी. लेकिन आज तक उसके बारे में कुछ नहीं हुआ. कोई खबर नहीं, कोई प्रदर्शन नहीं, सड़कों पर आक्रोश नहीं. मतलब साफ है कि न्याय भी उसी को मिलेगा जिसका कोई ओहदा होगा. क्या तेलंगाना पुलिस को उस महिला के साथ ऐसा जघन्य अपराध करने वालों को भी उतनी ही जल्दी नहीं पकड़ना चाहिए? ये सवाल है.

वरिष्ठ अधिवक्ता फ़ेलविया ऐग्निस ने इस एनकाउंटर को लोकतंत्र के लिए ‘भयावह’ बताते हुए कहा, “रात के अंधेरे में निहत्थे लोगों को बिना सुनवाई बिना अदालती कार्यवाही के मार देना भयावह है. पुलिस इस तरह से क़ानून अपने हाथों में नहीं ले सकती. इस तरह के एनकाउंटर को मिल रहे सार्वजनिक समर्थन की वजह से ही पुलिस की हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि वह चार निहत्थे अभियुक्तों को खुले आम गोली मारने में नहीं हिचकिचाते”.

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वरिष्ठ अधिवक्ता और महिला अधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर का कहना है कि इससे उपजे ध्रुवीकरण और बहस में सबसे बड़ी हार महिलाओं की ही होगी. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, “यह एनकाउंटर संदेहास्पद है. और जो लोग भी इसको ‘न्याय’ समझ कर उत्सव मना रहे हैं वो यह नहीं देख पा रहे हैं कि इस पूरी बहस में सबसे बड़ा नुक़सान महिलाओं का होने वाला है.”

उन्होंने कहा कि इसके दो कारण है. पहला तो यह कि अब जिम्मेदारी तय करने की बात ही खत्म हो जाएगी. महिलाएं जब भी शहरों में बेहतर आधारभूत ढांचे की मांग करेंगी, सरकार और पुलिस दोनों ही रोजमर्रा की कानून व्यवस्था और आम पुलिसिंग को दुरुस्त करने की बजाय इस तरह हिरासत में हुई गैर-कानूनी हत्याओं को सही ठहराने में लग जाएंगे.

वृंदा ग्रोवर ने कहा, “दूसरी सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस एनकाउंटर को मिल रही सार्वजनिक स्वीकृति पुलिस को अदालत और क़ानून की जगह स्थापित करती सी नज़र आती है. मतलब अगर पुलिस ही इस तरह न्याय करने लग जाए तो फिर अदालत की ज़रूरत ही क्या है?”

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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने हैदराबाद पुलिस द्वारा किए गए मुठभेड़ पर सवाल उठाए हैं. मुठभेड़ की निंदा करते हुए मेनका गांधी ने कहा, “जो भी हुआ है बहुत भयानक हुआ है इस देश के लिए. आप लोगों को इसलिए नहीं मार सकते, क्योंकि आप चाहते हैं. आप कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते, वैसे भी उन्हें अदालत से फांसी की सजा मिलती.” उन्होंने कहा, “अगर न्याय बंदूक से किया जाएगा तो इस देश में अदालतों और पुलिस की क्या जरूरत है?”

पहली बार पुरूष वनडे क्रिकेट में जीएस लक्ष्मी बनेंगी अंपायर, शारजाह का मैदान बनेगा गवाह

लक्ष्मी आठ दिसंबर से शुरू हो रहे तीसरे आईसीसी पुरुष क्रिकेट वर्ल्ड कप लीग दो के दौरान यूएई और अमरीका के बीच शारजाह में खेले जाने वाले वनडे मैच में बतौर मैच रेफ़री उतर कर इतिहास रचेंगी. आईसीसी पुरुष क्रिकेट वर्ल्ड कप लीग दो इस साल अगस्त में शुरू हुआ था और जनवरी 2022 तक चलेगा. इस दौरान इसमें कुल 126 मैच खेले जाएंगे.

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इसकी शीर्ष तीन टीमें आईसीसी पुरुष क्रिकेट वर्ल्ड कप क्वालिफायर 2022 में खेलेंगी. इसी के आधार पर भारत में 2023 में खेले जाने वाले वाले विश्व कप के लिए आईसीसी क्वालीफायर टीम का चयन होना है. आईसीसी इंटरनेशनल पैनल ऑफ मैच रेफरी में नियुक्ति के बाद यह लक्ष्मी की इस साल दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि है. 51 वर्षीय लक्ष्मी 2008-09 के घरेलू महिला क्रिकेट में पहली बार मैच रेफरी बनी थीं.

अब तक लक्ष्मी महिलाओं के तीन अंतरराष्ट्रीय वनडे मैचों, महिलाओं के सात टी-20 इंटरनेशनल और पुरुषों के सोलह टी-20 इंटरनेशनल में बतौर मैच रेफरी उतर चुकी हैं.

एक इंटरव्यू में जीएस लक्ष्मी ने कहा कि उन्होंने कभी क्रिकेटर बनने के बारे में नहीं सोचा था. उन्होंने कहा, “अपनी पढ़ाई के जरिए मैं कॉलेज में एडमिशन पाने में असफल रही थी. तब प्रिंसिपल ने मुझसे पूछा कि क्या तुम्हारे पास कोई अन्य प्रतिभा है. मैं अपने भाइयों के साथ क्रिकेट खेल रखी थी. मेरे इस कौशल को देखा गया. मुझमें गेंदबाजी की प्रतिभा थी. इसकी बदौलत मुझे कॉलेज में एडमिशन मिल गया.” 18 सालों तक घरेलू क्रिकेट खेली लक्ष्मी ने बताया कि इसके बाद वो क्रिकेट की कोचिंग देने लगीं. फिर राज्य स्तरीय टीम की सेलेक्टर बनीं.

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इस दौरान बीसीसीआई महिलाओं को मैच अधिकारी के रूप में क्रिकेट से जोड़ने का नया प्रावधान लेकर आई. लक्ष्मी उन पांच सदस्यों में से थी जिन्हें बीसीसीआई की तरफ से चयन किया गया.

लक्ष्मी ने कहा, “बतौर मैच रेफ़री चुना जाना मेरे लिए बहुत बड़ा सम्मान है. भारत में एक क्रिकेटर और मैच रेफ़री के रूप में मेरा लंबा करियर रहा है. उम्मीद है कि मैं एक खिलाड़ी और मैच अधिकारी के रूप में अपने अनुभव का यहां अच्छा उपयोग करूंगी.”

आंध्र प्रदेश में जन्मीं लक्ष्मी बिहार के जमशेदपुर में बड़ी हुईं. वहां उनके पिता कार्यरत थे. बतौर तेज गेंदबाज वे रेलवे के लिए खेलीं. गेंदबाज़ी में आउट स्विंग पर उनकी अच्छी पकड़ थी. 1999 में इंग्लैंड के दौरे पर भारतीय टीम की सदस्य भी रह चुकी हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए उन्हें खेलने का मौका कभी नहीं मिला.

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हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला

लोगों के थाली से कहीं प्याज गायब है तो कहीं पर खेतों से प्याज चोरी हो रहे हैं. रेस्टोरेंट्स ने ओनियन डोसा बंद कर दिया तो संसद में प्याज की कीमतों पर हंगामा हो रहा है. लोग धरना दे रहें हैं तो कहीं प्याज लौकर में रखे जा रहे हैं. अब भाई ये सब जानकर तो यही कहेंगे की हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला…

इस वक्त प्याज की कीमतें आसमान छू रहीं हैं गरीबों को प्याज मिलने की बात तो दूर यहां मध्यम वर्ग के परिवार और अमीरों तक के होश उड़े हुए हैं. अगर प्याज की कीमतों की बात करें तो इस वक्त जो रेट है उस हिसाब से प्याज खाना बहुत ही मुश्किल है. पिछले एक हफ्ते में प्याज की जो कीमत बढ़ी है वो भी आपको हैरान कर देगी.

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इस वक्त पूरे देश में प्याज 80 रुपये प्रति किलो से लेकर 120 रुपये प्रति किलो तक बिक रही है. जयपुर में प्याज की कीमत 85 रु प्रति किलो है, वाराणसी में प्याज की कीमत 90 रू प्रति किलो तक है. इतना ही नहीं दिल्ली में पिछले हफ्ते प्याज की थी 70 से 80 रु प्रति किलो लेकिन अब इसकी कीमत बढ़कर हो गई 100 से 120 रु प्रति किलो. हैदराबाद में 120-150 रु, भोपाल में 100-110,भुवनेश्वर में 100-120, पटना में 90-100, चंडीगढ़ में 95- 105, लखनऊ में 90-100, मुंबई में 100- 120 रूपये प्रति किलो तक प्याज बिक रहें हैं.

अब आप ये वाक्या भी जानकर हैरान ही होंगे कि मंदसौर के रिचा गांव में एक किसान के खेत से प्याज चोरी हो गई. उसने ये दावा किया कि मेरे खेत से 30,000 रुपये की प्याज की चोरी हुई है. अब ये तो सोचने वाली ही बात है कि कहां रुपया, पैसे और गहने चोरी होते थे और अब तो प्याज भी चोरी होने लगा.

अब भला आप खुद सोचिए ऐसे में कोई प्याज कहां से खाएगा? इस वक्त हर व्यक्ति को प्याज सोने-चांदी  के समान ही लग रहा होगा. प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर संसद तक में हंगामें हो चुके हैं. गुरुवार को संसद भवन में गांधी प्रतिमा के सामने कांग्रेस के राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों के सदस्यों ने प्रदर्शन किया फिर भी कोई असर नहीं दिख रहा है. हालांकि विपक्षी पार्टियों को वर्तमान सरकार पर तंज कसने का अवसर जरूर मिल रहा है.

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प्याज की बढ़ती कीमत के चक्कर में मंगलवार को भी संसद में जमकर हंगामा हुआ. क्योंकि पिछले दो-ढाई महीने से प्याज की कीमतें कई बार बढ़ी हैं. आम आदमी पार्टी के सदस्यों ने भी कीमत को लेकर हंगामा किया प्रदर्शन किया. आपको ये जानकर थोड़ा आश्चर्य होगा  कि जहां एक ओर इस वक्त पूरे देश में प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर हंगामें हो रहे हैं वहीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

उन्होंने तो संसद तक में ये बयान दे दिया कि प्याज की कीमत से उनपर व्यक्तिगत तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि न तो वो प्याज खाती है और ना ही उनके परिवार में कोई प्याज खाता है. उन्होंने कहा कि मैं बहुत ज्यादा प्याज – लहसुन नहीं खाती हूं. इसलिए चिंता ना करें मैं ऐसे परिवार से आती हूं जहां प्याज को लेकर कोई खास परवाह नहीं है अब भले ही वो इस बात को लेकर कोई परवाह ना करती हों लेकिन सोशल मीडिया पर उनके इस बयान के कारण काफी तंज कसे जा रहे हैं. अब देखना ये है कि आगे प्याज की कीमतों को लेकर हमारी सरकार क्या करती है ? क्योंकि अभी तक तो कीमत को लेकर भले ही हंगामें हुए हों फिर भी कोई राहत नजर नहीं आ रही है.

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डा. प्रियंका रेड्डी: कानून, एनकाउन्टर और जन भावना

6 दिसंबर की सुबह सुबह जो समाचार देश की मीडिया में आकाश के बादलों की तरह छा गया वह था हैदराबाद में हुए डा. प्रियंका रेड्डी के साथ हुए बलात्कार एवं नृशंस हत्याकांड के बाद देशभर में गुस्से के प्रतिकार स्वरुप पुलिस के एनकाउंटर का. जिसमें बताया गया था कि डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ हुई अनाचार के चारों आरोपियों को पुलिस ने एक एनकाउंटर में मार गिराया है.

इस खबर के पश्चात चारों तरफ मानो खुशियों का सैलाब उमड़ पड़ा. सोशल मीडिया हो या देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जब समाचार को लेकर आया तो इसके पक्ष में कसीदे पढ़े जाने लगे. यह अच्छी बात है कि लोगों में बलात्कार अनाचार के प्रति रोष दिखाई पड़ता है. मगर इस एनकाउंटर के पश्चात जिस तरह एकतरफा एनकाउंटर को जायज ठहराया गया वह कई प्रश्न खड़े करता है और यह संकेत देता है कि हमारा समाज, देश किस दिशा में जाने को तैयार खड़ा है. देखिए सोशल मीडिया कि कुछ प्रतिक्रियाएं-

प्रथम-हैदराबाद में रेप के चारों आरोपियों को पुलिस ने मार गिराया. बहुत लोग खुश हो रहे हैं. सत्ता यही चाहती है कि आप ऐसी घटनाओं पर खुश हों और आपकी आस्था बनी रहे.

द्वितीय- क्या एनकाउंटर की इसी तर्ज पर बड़ी मछलियों को भी मार दिया जाएगा? लिस्ट बहुत लंबी है. किस किस का नाम लिया जाय और किसे छोड़ा जाय?

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तृतीय- शायद मानवाधिकार और बुद्धिजीवी वर्ग पुनः सक्रिय होनेवाला है, इस एनकाउंटर के लिए पर आम जनता प्रसन्न है. तुरंत दान महा कल्याण. डिसीजन ओन द स्पॉट.निर्भय  की तरह न झूलेगा केस न जुवेनाइल कोर्ट का झमेला. जियो जियो .

चतुर्थ- सेंगर, कांडा, चिन्मयानंद, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम के मालिक और एम जे अकबर जैसों का एनकाउंटर कब होगा ?

पंचम- “कुछ देर बाद कई मानवाधिकार के ढोल वाले अपना शटररुपी मुँह खोलेंगे.उन्हें अवॉयड करियेगा. आज पीड़ित बेटी को अधिकार मिला है.

सुबह सुबह की तल्ख  खबर

हैदराबाद गैंगरेप और मर्डर केस के चारों आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया गया है. चारों आरोपियों को गुरुवार देर रात नेशनल हाइवे-44 पर क्राइम सीन पर ले जाया गया था. जहां उन्होंने भागने की कोशिश की तो पुलिस को एनकांउंटर करना पड़ा.हालांकि अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि इन चारों का एनकाउंटर किन परिस्थितियों में हुआ है.हैदराबाद में महिला वेटनरी डॉक्टर के साथ जिस तरह से चार लोगों ने कथित रूप से गैंगरेप किया और उसे जिंदा जला दिया उसके बाद देशभर में लोगों के भीतर इस घटना को लेकर आक्रोश था. लेकिन अब इन चारों ही आरोपियों को पुलिस ने एनकाउंटर में ढेर कर दिया है.

बता दें कि गैंगरेप और बर्बरता से हत्या के मामले तेलंगाना सरकार ने बुधवार को आरोपियों के खिलाफ मुकदमे की सुनवाई के लिए महबूबनगर जिले में स्थित प्रथम अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत को विशेष अदालत (फास्ट ट्रैक कोर्ट) के रूप में नामित किया था. इस मामले में पुलिस ने सोमवार को अदालत में याचिका दाखिल करके आरोपियों की दस दिनों की हिरासत की मांग की . लगातार तीन दिनों तक अभियोजन पक्ष की दलीलें सुनने के बाद सात दिनों की पुलिस हिरासत दे दी गई.

 डॉ प्रियंका के साथ जो हुआ, और अनुत्तरित प्रश्न

गौरतलब है कि 28 नवंबर को इन चार आरोपियों की जिनकी उम्र 20 से 26 साल के बीच थी ने डॉक्टर  प्रियंका रेड्डी को टोल बूथ पर स्कूटी पार्क करते देखा था. आरोप है कि इन लोगों ने जानबूझकर उसकी स्कूटी पंक्चर की थी. इसके बाद मदद करने के बहाने उसका एक सूनसान जगह पर लेकर गैंगरेप किया और बाद में पेट्रोल डालकर आग के हवाले कर दिया. पुलिस के मुताबिक घटना से पहले इन लोगों ने शराब भी पी रखी थी. रेप और मर्डर की घटना के बाद पूरे देश में गुस्सा था .

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वहीं इस एनकाउंटर के बाद लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने की मिल रही है. एक चैनल  से बात करते हुए एक्टिविस्ट और वकील वृंदा ग्रोवर ने सवाल उठाया है. उन्होंने कहा कि वह सभी के लिए “न्याय” चाहती हैं लेकिन इस तरह नहीं होना चाहिए था. वहीं इसी मुद्दे पर अनशन पर बैठीं दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने कहा कि जो हुआ अच्छा है कम से कम वह सरकारी दामाद बनकर रहेंगे जैसा कि दिल्ली के निर्भया केस में हुआ.

सबसे बड़ा प्रश्न इस संपूर्ण मामले में यह है कि क्या प्रियंका रेड्डी को इन चार आरोपियों के एनकाउंटर से न्याय मिल गया?

अगर पुलिस ने निअपराधियों को आरोपी बनाकर, देश को दिखा दिया होगा तो, जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है, तो क्या होगा?

सवाल यह भी है कि जैसी प्रसन्नता लोग सोशल मीडिया पर जाहिर कर रहे हैं क्या वह सही  कही जा सकती  है?

यह भी सच है कि लोगों में  प्रियंका रेड्डी बलात्कार कांड के बाद भयंकर रोष था, यह भी सच है कि कानून अपना काम अच्छे से नहीं कर पा रहा.यह भी सच है कि जिस त्वरित गति से प्रकरण की सुनवाई होनी चाहिए, नहीं हो पा रही. यह भी सही है कि मामला ले देकर राष्ट्रपति दया याचिका  पर फंस जाता है.  तो क्या इलाज अब एनकाउंटर ही बच गया है?

डॉक्टर प्रियंका रेड्डी कांड  के दोषी निसंदेह कानून के अपराधी हैं और हमारा कानून इतना सक्षम है कि वह दूध का दूध पानी का पानी कर सकता है. कानून की मंशा यही है कि चाहे सो गुनाहगार बचे जाएं मगर एक बेगुनाह नहीं मारा जाना चाहिए. इसी सारभूत तत्व को लेकर हमारा कानून  काम कर रहा है, अगर इसी तरह एनकाउंटर करके लोगों को मारा जाएगा तो फिर क्या  कानून की भावना, कानून की आत्मा के साथ क्या हमारा समाज और सिस्टम गलत नहीं कर रहा है.

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आने वाले समय में इस एनकाउंटर को जांच आयोग बनाकर और न्यायालय की देहरी पर हर तरीके से परखा जाएगा तब शायद यह तथ्य सामने आ जाएंगे की किस जगह एनकाउंटर में कई बड़ी गलतियां हुई हैं.

– जैसे सुबह सवेरे अंधेरी रात में चारों आरोपियों को घटनास्थल पर रीक्रिएशन के लिए ले जाना….?

-क्या आरोपियों के हाथों में हथकड़ीयां नहीं बांधी गई थी?

क्या आरोपी फिल्मी सितारों की तरह इतने ताकतवर थे की पुलिस की भारी दस्ते पर सरासर भारी पड़ गए? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इन चारों के चेहरे देखकर लगता है कि यह आम गरीब  परिवार से थे. क्या यह लोग किसी बड़ी शख्सियत के वारिस होते, तो क्या पुलिस इस तरह काउंटर का पाती.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि डॉ प्रियंका के हत्यारों के रूप में आरोपियों के साथ जो हुआ उससे देश में खुशी का माहौल दिखाई दे रहा है. मगर हमें  यह समझना होगा कि आरोपियों की जगह हम या हमारे कोई परिजन होते,उनके साथ अगर ऐसा पुलिस करती, तो हम क्या सोचते!

और अगर हम यह जानते होते की यह अपराधी नहीं है और तब यह एनकाउंटर होता तब क्या व्यतीत होता? क्योंकि यह सच जानना समझना होगा कि पुलिस के द्वारा गिरफ्तार कियाा जाना, कोई अपराधी सिद्ध हो जाना नहीं है. हमारे देश में जिस तरह पुलिस काम करती है, उससे यह समझा जा जा सकता है कि कभी भी किसी को भी पुलिस गिरफ्तार कर सकती है मगर अंतिम फैसला इजलास पर होता है.

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औरतों की आजादी कहां

ईरान में 39 साल बाद महिलाओं ने फिर आजादी का जश्न मनाया और हजारों की संख्या में तेहरान के सब से बड़े आजादी स्टेडियम में एक बड़ी स्क्रीन पर रूस में हुए फुटबौल विश्व कप का मैच देखा. दरअसल, यहां की महिलाओं को 1979 की इसलामिक क्रांति के बाद से ही खेल स्टेडियमों में आने की इजाजत नहीं थी. इस प्रतिबंध का संबंध सीधे धर्म से था.

पर 27 जून, 2018 को स्पेन और ईरान के मैच से पहले स्टेडियम को महिलाओं के लिए खोल दिया गया. ईरान के रूढिवादी नेताओं ने इस फैसले का विरोध किया. महाअभियोजक मोहम्मद जफर मोंटेजरी ने महिलाओं द्वारा इस तरह सिर से स्कार्फ हटा कर जश्न मनाने, गाने और नृत्य करने को शर्मनाक बताया. गौरतलब है कि ईरान में महिलाओं के लिए सिर पर स्कार्फ पहनना जरूरी है.

कुछ अरसा पहले स्कार्फ की अनिवार्यता के चलते भारत की शतरंज चैंपियन सौम्या स्वामीनाथन ने ईरान में एशियन टूरनामैंट में खेलने से इनकार कर दिया था. 29 साल की ग्रैंडमास्टर सौम्या ने इस नियम को मानवाधिकार का उल्लंघन बताया था. इस से पहले शूटर हिना सिद्द्धू ने 2016 में ईरान के एशियाई एअरगन मुकाबले से खुद को अलग कर लिया था. भारत के अलावा और कई अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी भी ऐसा कर चुके हैं. सऊदी अरब, ईरान जैसे मुसलिम और दूसरे पिछड़े देशों में महिलाओं के ऊपर तरहतरह की पाबंदियां लगी हुई हैं. सऊदी अरब में ऐसे बहुत से काम हैं, जो महिलाएं नहीं कर सकतीं.

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महिलाओं को घूमने, बैंक अकाउंट खोलने, पासपोर्ट बनवाने, शादी, तलाक, किसी तरह का कौंट्रैक्स साइन करने के लिए अपने घर के पुरुष सदस्यों से इजाजत लेनी जरूरी है.

महिलाएं वैसे कपड़े नहीं पहन सकतीं जो उन्हें खूबसूरत दिखाते हों.

अपने रिश्तेदारों के सिवा अन्य पुरुषों से महिलाएं एक सीमित समय तक ही बात कर सकती हैं.

संयुक्त अरब की महिलाएं सार्वजनिक स्वीमिंग पूल्स में नहीं जा सकतीं. उन्हें केवल महिलाओं के लिए बने जिम और स्पा में ही जाने की इजाजत है.

शौपिंग करने गई महिलाओं को ट्रायलरूम में कपड़े बदलने की भी इजाजत नहीं. उन्हें बिना ट्राई किए ही कपड़े पसंद करने होते हैं.

महिलाएं मातापिता की संपत्ति में बराबर की हिस्सेदार नहीं होतीं.

भारत में भी कमोबेश यही हाल है. कभी मासिकधर्म के नाम पर, कभी परदाप्रथा के नाम पर, कभी सड़ीगली परंपराओं के नाम पर तो कभी असुरक्षित माहौल के नाम पर उन के पैरों में बंदिशों की मोटीमोटी जंजीरें डाल दी जाती हैं. महिलाओं के कपड़ों को ले कर अकसर बखेड़े होते रहते हैं. लगता है जैसे शरीर महिलाओं का नहीं तथाकथित संस्कारों और परंपराओं का भार ढोते हुए समाज को सही रास्ता दिखाने का ठेका लेने वाले धर्मगुरुओं व पोंगापंडितों का है.

महिलाओं के साथ कोई अपराध हो तो उन्हें ही दोषी करार दिया जाता है. उन्हें परदे के अंदर रहने की हिदायत दी जाती है. हर तरह की चैलेंजिंग जौब से दूर रखा जाता है.

कोमलता कमजोरी नहीं

सवाल उठता है कि क्या महिला होना अपराध है? क्या पुरुषों की तरह औरतें इंसान नहीं? क्या उन का शरीर किसी और चीज से बना है? क्या उन के पास दिल और दिमाग नहीं? क्या वे सोचसमझ नहीं सकतीं? अपने फैसले खुद नहीं ले सकतीं? उन्हें इस कदर बांध कर और पुरुषों के अधीन क्यों रखा जाता है? यदि वे अपने बल पर जीने या कुछ कर दिखाने के काबिल हैं, तो उन्हें रोका क्यों जाता है? शरीर, हां एक शरीर ही है जो पुरुषों से थोड़ा अलग है. पुरुषों के मुकाबले महिलाएं शारीरिक रूप से थोड़ी नाजुक होती हैं. इसी कोमल तन और मन के नाम पर उन के साथ नाइंसाफियां की जाती हैं.

महिला की कोमलता को उस की कमजोरी मानने वाले पुरुष यह भूल जाते हैं कि इसी कोमल शरीर ने एक से एक ताकतवर पुरुषों को जन्म दिया है. पुरुषों ने इस हकीकत को नजरअंदाज करते हुए कोमलता के नाम पर महिलाओं के शरीर पर अधिकार जमाया.

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देह पर किस का अधिकार

देह पर अधिकार को ले कर हाल ही में अटौर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का एक दिलचस्प बयान सामने आया. आधार कार्ड को ले कर सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखते हुए उन्होंने कहा कि नागरिक अपने शरीर के अंगों पर पूर्ण अधिकार का दावा नहीं कर सकते. वे आधार नामांकन के लिए डिजिटल फिंगरप्रिंट और आइरिस को लेने से मना नहीं कर सकते. भाजपा सरकार की ओर से रोहतगी ने तर्क दिया कि कोईर् भी व्यक्ति अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि कानून लोगों को आत्महत्या करने और महिलाओं को ऐडवांस स्टेज पर गर्भपात करने से रोकता है. यदि उन का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार होता तो लोग अपने शरीर के साथ जो भी करना चाहते वह करने के लिए स्वतंत्र होते. बाद में उन के इस तर्क को कोर्ट ने सिरे से नकार दिया.

हालांकि यहां देह की बात दूसरे संदर्भ में की गई, मगर जब हम महिलाओं की देह की बात करते हैं तो कहीं न कहीं यही मानसिकता हमारे अंदर सिर उठाए रखती है. जहां तक इस बयान का हकीकत से संबंध है, महिलाओं के संदर्भ में इसे वास्तव में लागू किया जाता है. महिलाओं का अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार नहीं. पूर्ण क्या, बहुत सी जगह तो महिलाओं को अपने शरीर पर थोड़ा भी हक देने की फितरत नहीं रखी जाती.

टूट रही हैं दीवारें

लंबे अरसे से सऊदी अरब की महिलाओं को ड्राइविंग यानी गाड़ी चलाने का अधिकार नहीं था. वे केवल पिछली सीट पर बैठ सकती थीं. समयसमय पर वहां की महिलाएं इस के खिलाफ आवाज उठाती रहीं. 1990 में जब 47 महिलाओं ने इस के खिलाफ नारा बुलंद किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन के पासपोर्ट जब्त कर लिए गए. 2007 में महिला ऐक्टिविस्ट्स ने तत्कालीन उस समय के किंग अबदुल्लाह को ड्राइविंग से बैन हटाने के लिए 1000 हस्ताक्षरों के साथ एक याचिका दी पर कोईर् सुनवाई नहीं हुई. नवंबर, 2014 को संयुक्त अरब अमीरात तक ड्राइव करने की कोशिश के बाद ऐक्टिविस्ट्स लूजा इन हथलाउल और मायसा अल अमूदी को 73 दिनों तक हिरासत में रखा गया. इन पर आतंकवाद से जुड़े केस दर्ज किए गए.

बीते साल सितंबर में किंग सलमान ने अपने बेटे मोहम्मद बिन सलमान द्वारा सुधारों को लागू किए जाने के बाद महिलाओं की ड्राइविंग पर लगे बैन को हटाने का आदेश दिया और फिर गत 24 जून की आधी रात से महिलाओं की ड्राइविंग पर लगा बैन पूरी तरह से हट गया. महिलाएं कारों का स्टीयरिंग थामे इस आजादी का जश्न मनाती सड़कों पर नजर आने लगीं. आधिकारिक तौर पर उन्हें सड़कों पर ड्राइविंग करने की इजाजत जो मिल गई थी. लाइसैंस बनवाने के लिए महिलाओं की लंबी लाइनें लग गईं.

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संयुक्त अरब अमीरात दुनिया का ऐसा आखिरी देश है जहां इस तरह का प्रतिबंध कायम था. इस प्रतिबंध के हटने से खाड़ी देशों की 1.5 करोड़ से ज्यादा महिलाएं पहली बार सड़कों पर गाडि़या चला सकेंगी.

सोच बदलनी जरूरी भले ही प्रतिबंधों के टूटने पर महिलाओं का उत्साह बढ़ता है पर प्रतिबंधों को हटाने के साथसाथ लोगों की मानसिकता भी बदलनी जरूरी है. उदाहरण के लिए एक तरफ जहां संयुक्त अरब अमीरात की महिलाएं ड्राइविंग का हक मिलने के बाद आजादी का जश्न मना रही थीं, तो वहीं दूसरी तरफ इस खबर की रिपोर्टिंग करते हुए एक महिला रिपोर्टर का ऐसा वीडियो वायरल हुआ कि उसे देश छोड़ कर भागना पड़ा.

संयुक्त अरब अमीरात प्रशासन ने उस रिपोर्टर के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए. वजह थी रिपोर्टिंग के दौरान अश्लील कपड़े पहनना, दरअसल, टीवी की रिपोर्टर शिरीन का हैडस्कार्फ ढीला था और उस ने थोड़ा खुला गाउन पहना था. इसी बात को उछालते हुए संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने ट्विटर पर नैकेड वूमन ड्राइविंग इन रियाद हैशटैग से वीडियो वायरल कर दिया.

आज के दौर में समाज की उन्नति के लिए स्त्रियों के बढ़ते कदमों को हौसला देने की जरूरत है न कि अपनी कुंठाओं और घटिया सोच के बोझ तले उन के अरमानों को कुचलने और बंदिशों की डोर से बांधने की.

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किस काम का हिंदू विवाह कानून

उत्तर प्रदेश के इटावा शहर में प्रवीण व नीलम का विवाह 1998 में हुआ जब नीलम 18 साल की थी. दोनों को एक बेटी भी हुई. फिर दोनों के बीच मतभेद खड़े हो गए और वे अलगअलग रहने लगे. तब 2009 में पति ने तलाक का मुकदमा पारिवारिक अदालत में डाला. होना तो यह चाहिए था कि पत्नी की जो भी वजहें रही हों, पति और पत्नी को जबरन ढोए जा रहे संबंधों से कानूनी मुक्ति दिला दी जानी चाहिए थी पर पारिवारिक अदालत ने ऐप्लिकेशन रद्द कर दी.

चूंकि साथ रहना संभव न था, इसलिए पति ने जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया. जिला अदालत ने 3 साल इंतजार करा कर 2012 में तलाक मंजूर करने से इनकार कर दिया. नीलम अब 32 साल की हो चुकी थी.

प्रवीण उच्च न्यायालय पहुंचा. उच्च न्यायालय ने मई, 2013 में तलाक नामंजूर कर दिया, जबकि मामला शुरू हुए 15 साल गुजर चुके थे. दोनों जवानी भूल चुके थे.

प्रवीण अब सुप्रीम कोर्ट आया. समझौता वार्त्ता के दौरान प्रवीण ने क्व10 लाख पत्नी को देने की पेशकश की और क्व3 लाख का फिक्स्ड डिपौजिट करने का प्रस्ताव रखा, पर यह करतेकराते सुप्रीम कोर्ट में 6 साल लग गए.

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इस दौरान दोनों पक्षों ने कई मुकदमे शुरू कर दिए. 2009 में गुजारेभत्ते के लिए क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के अंतर्गत जिला अदालत इटावा में एक मुकदमा दायर किया गया. 2009 में ही घरेलू हिंसा का एक और मुकदमा नीलम ने इटावा में दायर किया. एक दहेज के बारे में 2002 में केस दायर किया गया था. एक मामला इटावा में ही इंडियन पीनल कोड की धारा 406 में अमानत में खयानत यानी ब्रीच औफ ट्रस्ट पर दायर किया गया था.

यहां तक कि पति के खिलाफ डकैती तक का मामला दायर किया गया था कि वह 5 जनों के साथ घर लूटने आया था.

आंतरिक विवाद जो भी हों विवाह के मामले में इतनी मुकदमेबाजी आज आम हो गई है और इस में पिसती औरत ही है.

18 साल की लड़की, जिस की शादी 1998 में हुई हो, न जाने कितने सपने ले कर ससुराल आई होगी पर जो भी मतभेद हों, वे अगर हल नहीं होते तो अलग हो कर चाहे तलाकशुदा का तमगा लगाए घूमना पड़े पर 20 साल अदालतों के चक्कर तो नहीं लगाने पड़ने चाहिए.

लाखों की वकीलों की फीस के बदले क्व13 लाख मिले पर क्या ये काफी हैं? क्या यह जवानी की अल्हड़ता फिर आएगी जब बेटी खुद शादी के लायक हो रही है?

यह हिंदू विवाह कानून किस काम का जो औरतों को 20-30 साल इंतजार कराए और बिना तलाक के रखे? यह आतंक तीन तलाक से कम नहीं है, लेकिन हिंदू धर्माधीश इसे सिर पर पगड़ी और माथे पर तिलक मान कर चल रहे हैं.

औरतें उन के पैरों की जूतियां हैं, जो चरणामृत पीती हैं. विवाह तो धर्म के दुकानदारों के हिसाब से संस्कार है. कुंडलियां मिला कर होने वाला विवाह जिस में लड़की की रजामंदी नहीं ली जाती पहले सुधार मांगती है. मुसलिम औरतें कम से कम दासी नहीं हैं, यह निर्णय तो यही कहता है.

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सामाजिक दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन धार्मिक कथाएं किस तरह दिमाग खराब करती हैं और किस तरह औरतों के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार हैं, यह रामायण और महाभारत से साफ है. हजारों औरतों को देशभर में अपने पाकसाफ होने के सुबूत में हाथपैर जलाने पड़ते हैं. पति अगर आरोप लगा दे कि पत्नी की किसी से आशनाई चल रही है तो राम और सीता के प्रसंग का लाभ उठा कर घरवाले ही नहीं, बल्कि पूरा समाज औरत को अग्नि परीक्षा सी देने को मजबूर करता है, जिस में स्वाभाविक है वह दोषी पाई जाती है और सदा के लिए बदनाम हो जाती है.

इसी तरह युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को जुए में हारने की कहानी इतनी बार कही जाती है कि आम लोगों में इसे सही मान कर अपनी पत्नी को दांव पर लगाने का हक सा मिल गया है. रामसीता के प्रदेश उत्तर प्रदेश में जौनपुर में एक पति ने एक बार नहीं 2 बार अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगा दिया और हार गया.

जाफराबाद में पुलिस स्टेशन में जुलाई 2019 में दर्ज रिपोर्ट के अनुसार एक नशेड़ी व जुआरी पति ने 2 दोस्तों के साथ जुआ खेलते हुए सबकुछ हार कर अपनी पत्नी को ही दांव पर लगा दिया. शायद उस के मन में बैठा होगा कि हारने पर कोई कृष्ण उस की पत्नी को भी बचा ही लेगा. अफसोस वह हार गया और दोनों दोस्तों ने उस की पत्नी का रेप किया, पति की इच्छा के हिसाब से.

नाराज पत्नी के पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा न था, क्योंकि पति ने तो धर्मनिष्ठ काम किया था, जो शायद स्वयं पत्नी की निगाह में अपराध न था. उस ने पहली बार न पुलिस में शिकायत की, न तलाक मांगा. वह घर छोड़ गई तो पति माफी मांगता पहुंचा. बेचारी हिंदू औरत उसे लौटना पड़ा, समाज का दबाव जो था. पति ने तो धर्म की मुहर लगा काम ही किया था न.

पति के सिर पर तो धर्म का भूत सवार था कि पत्नी उस की मिल्कीयत है, हाथ की घड़ी, पैरों के जूतों की तरह. उस ने उसे फिर धर्मराज युधिष्ठिर बन कर दांव पर लगा दिया. इस बार द्रौपदी नाराज हो गई. कोई कृष्ण नहीं आया बचाने के लिए तो पुलिस स्टेशन पहुंची.

अभियुक्तों को पकड़ लिया पर आगे होगा क्या? कुछ नहीं. औरत को झख मार कर लौटना पड़ेगा.

रामायण, महाभारत का नाम ले कर तो कहानियां रातदिन इतनी बार दोहराईर् जाती हैं कि औरतों को अपना पूरा जीवन सेवा और हुक्म मानने के लिए तैयार रहना पड़ता है. जब तलाक मांगो तब अदालतें भी नहीं देतीं. उन के दिमाग में भी बैठा है कि पति के बिना पत्नी कमजोर, असहाय है. इस सामाजिक दुर्दशा के लिए भाजपा सरकार तो कुछ न करेगी. औरतों को खुद ही आगे आना होगा पर वे आएंगी तो तब न जब उन्हें पूजापाठ, व्रतों, संतों की सेवा, तीर्थयात्राओं, जलाभिषेकों, मूर्तिपूजाओं से फुरसत मिले.

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बिजली मुफ्त औरतें मुक्त

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का 2 बत्ती, 1 टीवी, 1 पंखा, 1 फ्रिज, 1 कूलर, 1 कंप्यूटर के लायक 200 यूनिट तक की बिजली मुफ्त करने का फैसला चतुराईभरा है. 200 यूनिट तक का बिल अब माफ कर दिया गया है. शहर के

45 लाख उपभोक्ताओं को इस से लाभ होगा और बिजली का बिल भुगतान न होने के कारण बिजली इंस्पैक्टरों की धौंस का सामना नहीं करना पड़ेगा.

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से वैसे भी 33% घरों में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च होती है. अब तक लोग 200 यूनिट के क्व600-700 देते थे. इस से पहले खर्च क्व1,200 था जिस की खपत ज्यादा है, वे पक्की बात है कि अब कम बत्ती का इस्तेमाल कर के 200 यूनिट के नीचे रहना चाहेंगे. सब से बड़ी बात यह है जब बत्ती मुफ्त मिल रही है तो घर के सामने खुले तारों पर कांटा डाल कर बत्ती जलाने की आदत भी खत्म हो जाएगी.

इस पर खर्च क्व1,400 करोड़ तक आ सकता है पर 60,000 करोड़ के बजट में यह कोई खास नहीं. खासतौर पर तब जब सरकार को कम बिल भेजने पड़ेंगे. एक बिल छापने, भेजने, पैसा वसूल करने में ही 50 से 100 रुपए लग जाना मामूली बात है. बिजली दफ्तर जा कर बिल जमा कराने में शहरी गरीब जनता को न जाने कितना खर्च करना पड़ता है.

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जब सरकार जगहजगह वाईफाई फ्री कर ही रही है कि लोग मोबाइलों का इस्तेमाल कर के हर समय सरकार के फंदे में रहें तो गरीबों को यह छूट देना गलत नहीं है. गरीब औरतों के लिए यह वरदान है कि अब उन की बिजली कटेगी नहीं और वे न रातभर खुले में सोने को मजबूर होंगी और न उन के बच्चे रातभर पढ़ने से रह जाएंगे.

सरकारें बहुत पैसा वैसे भी जनहित के कामों के लिए खर्च करती हैं. हर शहर में पार्क बनते हैं पर पार्क में जाने के लिए पैसे नहीं लिए जाते. सड़कें, गलियां बनती हैं जिन पर चलने की फीस नहीं ली जाती. सस्ते सरकारी स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय हैं जहां बहुत कम पैसों में पढ़ाई होती है. बहुत अस्पतालों में तामझाम का पैसा न ले कर इलाज होता है.

जो लोग इसे टैक्सपेयर की जेब पर डाका मान रहे हैं यह भूल रहे हैं कि उन के अपने कर्मचारी अब ज्यादा सुरक्षित, सुखी और प्रोडक्टिव हो जाएंगे, क्योंकि वे अंधेरे के खौफ में न रहेंगे.

जनहित काम केवल कांवड़ यात्रा का नहीं होता, पटेल की मूर्ति का नहीं होता, मन की बात का जबरन प्रसारण नहीं होता, बिजलीपानी भी जरूरी है. साफ हवा की तरह गरीब औरतों के लिए थोड़ी सी बिजली मुफ्त हो तो एतराज नहीं. यह उन्हें कटने के खौफ से मुक्त रखेगा.

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धर्म के नाम पर चंदे का धंधा

धार्मिक कहानियां हमेशा ही लोगों को कामचोर और भाग्यवादी बनाने की सीख देती हैं. सभी धर्मों की कहानियों में यह बताया जाता है कि अमुक देवीदेवता को पूजने या पैगंबर की इबादत करने से दुनिया की सारी दौलत पाई जा सकती है.

इन कहानियों का असर युवा पीढ़ी यानी नौजवानों पर सब से ज्यादा पड़ता है. यही वजह है कि हमारे देश के नौजवान कोई कामधंधा करने के बजाय गणेशोत्सव, होली, दुर्गा पूजा, राम नवमी, मोहर्रम, क्रिसमस वगैरह त्योहारों पर जीजान लुटा देते हैं. ऐसे नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को ही रोजगार मानने लगते हैं.

चंदा वसूली के इस धंधे में धर्म के ठेकेदारों का खास रोल रहता है और चंदे के धंधे के फलनेफूलने में नौजवान खादपानी देने का काम करते हैं. तथाकथित पंडेपुजारियों द्वारा दी गई जानकारी की बदौलत धार्मिक उन्माद में ये नौजवान अपना होश खो बैठते हैं.

धर्म के नाम पर चंदा वसूली के इस खेल में दबंगई भी दिखाई जाने लगी है. स्कूलकालेज के पढ़ने वाले छात्रों की टोली इस में अहम रोल निभाती है.

जनवरी, 2018 में जमशेदपुर के साकची के ग्रेजुएट कालेज में सरस्वती पूजा के नाम पर छात्र संगठन के लोगों ने चंदा न देने वाली छात्राओं के साथ मारपीट की थी. सितंबर, 2019 में भुवनेश्वर में गणेश पूजा के दौरान जबरन चंदा वसूली करने वाले 13 असामाजिक और उपद्रवी तत्त्वों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

दरअसल, त्योहारों के मौसम में चंदा वसूलने का धंधा खूब फलताफूलता है. हाटबाजारों की दुकानों, निजी संस्थानों और सरकारी दफ्तरों में भी इन की चंदा वसूली बेरोकटोक चलती रहती है.

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होली, गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा के दौरान तो ये असामाजिक तत्त्व खुलेआम सड़क पर बैरियर लगा कर आनेजाने वाली गाडि़यों को रोक कर चंदा वसूली करते हैं. चंदा न देने पर गाडि़यों की हवा निकालने के साथ वाहन मालिकों के साथ गलत बरताव किया जाता है.

धर्म के नाम पर इकट्ठा किए गए चंदे के खर्च और उस के बंटवारे को ले कर कई बार ये नौजवान आपस में ही उल झ कर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं.

10 अक्तूबर, 2019 को मध्य प्रदेश की गाडरवाला तहसील के गांव पिठवानी की घटना इस बात का जीताजागता सुबूत है. गांव में दुर्गा पूजा पर हर घर से चंदा इकट्ठा किया गया और दशहरे के बाद हुई मीटिंग में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर नौजवानों में  झगड़ा हो गया. देखते ही देखते  झगड़ा इतना बढ़ गया कि 3 नौजवानों ने एक नौजवान को इस कदर पीटा कि उस की मौत हो गई.

धर्म के बहाने पुण्य कमाने वाले वे तीनों नौजवान इस समय जेल की सलाखों के पीछे हैं.

धर्म के नाम पर मौजमस्ती

धार्मिक त्योहारों पर चंदे के दम पर होने वाले बेहूदा डांस, लोकगीत और आरकेस्ट्रा के कार्यक्रमों में नशे का सेवन कर यही नौजवान मौजमस्ती करते हैं.

अनंत चतुर्दशी और दशहरा पर्व पर निकाले जाने वाले चल समारोह और प्रतिमा विसर्जन कार्यक्रमों में धर्म की दुहाई देने वाले ये नौजवान डीजे के गानों की मस्ती में इस कदर डूबे रहते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता है.

12 सितंबर, 2019 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में  गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए गए नौजवानों में से 13 की मौत की कहानी तो यही बयां करती है. तालाब में डूबने से मौत की नींद सोए सभी लड़के 15 से 30 साल की उम्र के थे. अंधश्रद्धा और अंधभक्ति के रंग में रंगे ये नौजवान रात के 3 बजे 2 नावों पर सवार हो कर प्रतिमा विसर्जन के लिए तालाब के बीच में गए थे.

गणेशोत्सव के नाम पर की गई मस्ती और हुड़दंग में नाव का संतुलन बिगड़ गया और पुण्य कमाने गए लड़के अपनी जान से हाथ धो बैठे.

कुछ इसी तरह का एक और वाकिआ राजस्थान के धौलपुर में 8 अक्तूबर, 2019 को हुआ था. दशहरे के दिन आयोजकों की टोली के कुछ नौजवान दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के लिए चंबल नदी गए हुए थे. दोपहर 2 बजे नदी की तेज धार में प्रतिमा विसर्जन के बहाने मौजमस्ती कर रहे 2 नौजवान बह गए, जिन्हें बचाने की कोशिश में 8 दूसरे नौजवानों की भी मौत हो गई.

इसी दिन मध्य प्रदेश के देवास के सोनकच्छ थाना क्षेत्र के गांव खजूरिया में भी तालाब में प्रतिमा विसर्जन के दौरान नौजवानों की डूबने से मौत हो गई थी.

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इन घटनाओं में हुई मौतें तो यही साबित करती हैं कि पढ़नेलिखने या कामधंधा खोजने की उम्र में ये नौजवान धार्मिक कट्टरता में पड़ कर अपनी जिंदगी से ही हाथ धो

रहे हैं. देश के पढ़ेलिखे नौजवान कामधंधा न कर के किस कदर धार्मिक आयोजन की बागडोर संभालने में अपना भला सम झ रहे हैं.

दरअसल, देश में बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले कई सालों से नौजवानों को रोजगार के मौके नहीं मिल पा रहे हैं. लाखों की तादाद में नौजवान बेकार घूम रहे हैं. सरकार केवल नौजवानों को रोजगार देने का लौलीपौप दिखा कर उन के वोट बटोर लेती है और फिर नौजवानों को राष्ट्र प्रेम, धारा 370, मंदिरमसजिद, गौहत्या रोकने के मसलों में उल झा देती है.

यही वजह है कि नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को रोजगार मान कर 10-15 दिन मौजमस्ती से काट लेना चाहते हैं.

गांवदेहातों में यज्ञ, हवन, रामकथा, भागवत कथा, प्रवचन देने का चलन इतना बढ़ा है कि वहां हर महीने इस तरह के आयोजन होते रहते हैं. ऐसे आयोजनों में एक हफ्ते में 2 से 5 लाख रुपए का खर्चा आ ही जाता है.

भक्तों को काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहने का संदेश देने वाले ये उपदेशक और कथावाचक लाखों रुपयों के चढ़ावे की रकम और कपड़ेलत्ते ले कर अपना कल्याण करने में लगे रहते हैं.

हालात ये हैं कि गांवों में बच्चों को पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं. लोगों के इलाज की बुनियादी सहूलियतें नहीं हैं. रातदिन खेतों में काम करने वाले किसानमजदूरों की खूनपसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यक्रमों में खर्च हो जाता है.

धर्म के पुजारी पापपुण्य का डर दिखा कर कथा, प्रवचन और भंडारे के नाम से उन का पैसा ऐंठने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

पत्रकार बृजेंद्र सिंह कुशवाहा बताते हैं कि गांवदेहात में आएदिन ढोंगी संतमहात्मा यज्ञ और मंदिर बनाने के नाम पर लोगों से चंदा वसूली करने आते हैं. धर्म की महिमा बता कर चंदे की मोटी रकम लूटने वाले ये पाखंडी बाबा आलीशान गाडि़यों में घूम कर चंदे का कारोबार करते हैं.

कोई भी धर्म आदमी को कर्मवीर बनने की सीख नहीं देता. धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा लिखी गई धार्मिक कहानियों में यही बताया गया है कि देवीदेवताओं की कथापूजन करने से बिना हाथपैर चलाए सभी काम पूरे हो जाते हैं.

पंडेपुजारी, मौलवी और पादरियों ने भी लोगों को इस कदर धर्मांध बना दिया है कि लोग उन की बातों पर आंखें मूंद कर अमल करने में ही अपनी भलाई सम झते हैं, तभी तो लोग धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर चंदा देने में संकोच नहीं करते हैं.

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जनता के चुने गए प्रतिनिधि, जो बड़े पदों पर बैठे हैं, वे धर्म के ठेकेदारों को मौज करने की छूट दिए हुए हैं. हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें भी धार्मिक पाखंड में बराबर की भागीदार हैं. सरकारें भी यही चाहती हैं कि लोग इसी तरह धर्म के मसलों में उल झे रहें. ये धर्म की कहानियां इतनी बार इतने सारे लोगों के मुंह से कही जाती हैं कि ये ही सच लगने लगती हैं.

देश के बड़ेबड़े मठों, मंदिरों वगैरह में रखी गई दानपेटियों से निकली धनराशि और भगवान को चढ़ावे में भेंट किए बेशकीमती धातु के गहने चंदे का गुणगान करते नजर आते हैं. इन नौजवानों को यह बात सम झ में क्यों नहीं आती कि आज तक पूजापाठ कर के न तो किसी को नौकरी मिली है और न ही इस से किसी का पेट भरा है. जिंदगी में कुछ करगुजरने के लिए जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है.

मौजूदा दौर में जरूरत इस बात की है कि धर्म के आडंबरों में पैसा फूंकने के बजाय लोग बच्चों की पढ़ाईलिखाई में पैसा खर्च कर उन्हें इस काबिल बनाएं कि वे आजीविका के लिए नौकरी पा सकें या उन्नत तरीकों से खेतीकिसानी या दूसरे कामधंधे कर पैसों की बचत करना सीखें. धर्म के नाम पर दी गई चंदे की रकम से केवल धर्म के ठेकेदारों का ही भला होता है.

धर्म के दुकानदार तो बहुत हैं, पर कर्म के दुकानदारों का टोटा है. वे यदाकदा ही दिखते हैं, इसीलिए धर्म की जयजयकार होती है.

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गहरी पैठ

अपने कैरियर की शुरुआत से ठाकरे परिवार ने यदि कोई सही फैसला लिया है, तो अब भारतीय जनता पार्टी के साथ बिना मुख्यमंत्री बने सरकार न बनाने का फैसला लिया है. वरना तो यह पार्टी बेमतलब में कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बिहारियों, कभी हिंदू पाखंडवादियों के नाम पर हल्ला मचाती रहती थी. शिव सेना का असर महाराष्ट्र में गहरे तक है. महाराष्ट्र की मूल जनता जो पहले खेती करती थी, छोटी कारीगरी करती थी, बाल ठाकरे की नेतागीरी में ही अपना वजूद बना पाई थी.

अफसोस यह है कि 1966 में जन्म से ही शिव सेना भगवा दास की तरह बरताव कर रही है. उस ने वे काम किए जो भारतीय जनता पार्टी सीधे नहीं कर सकती थी. उस ने तोड़फोड़ की नीति अपनाई जिस से वह भगवा एजेंडे का दमदार चेहरा बनी, पर हमेशा भारतीय जनता पार्टी की हुक्मबरदार थी. महाराष्ट्र के मराठे लोग खेती करने वालों में से आते हैं. उन्होंने ही महाराष्ट्र को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. शिवाजी ने ही औरंगजेब से तब दोदो हाथ किए थे, जब उस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई न था. मुगल राज को खत्म करने में मराठों की सेना का बड़ा हाथ था.

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लेकिन शिवाजी के बाद मराठों की नेतागीरी फिर पुरोहितपेशवाओं के हाथों में आ गई. वे ही मराठा साम्राज्य को चलाने लगे थे. 1966 में बाल ठाकरे ने जिस भी वजह से शिव सेना बनाई हो, उस को इस्तेमाल किया गया. उस के लोग महाराष्ट्र के गांवगांव में हैं. वे ही कारखानों की यूनियनों में  झंडा गाड़े रहे. कम्यूनिस्ट आंदोलन को उन्होंने ही हराया, लेकिन वे हरदम चाह कर या अनजाने में सेवक बने रहे. जब मुख्यमंत्री पद एक बार मिला था तो भी भाजपा की कृपा से.

अब 2019 में उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे अपनी कीमत लेंगे. वे केवल मजदूर नहीं हैं जो भाजपा की पालकी उठाएंगे. वे खुद पालकी में बैठेंगे. शिव सेना का मुख्यमंत्री पर हक जमाना सही है, क्योंकि भाजपा की जीत शिव सेना की वजह से हुई है. 2014 में भी भाजपा और शिव सेना अलगअलग लड़ीं, पर भाजपा को 122 सीटें मिली थीं और शिव सेना को 63. भाजपा ने 2019 में मई में लोकसभा चुनावों के बाद एक फालतू का सा मंत्रालय दिल्ली कैबिनेट में दे कर बता दिया था कि उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार की हैसियत क्या है.

कांग्रेस के लिए इस हालत में शिव सेना से समझौते का फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा हर तरह से शिव सेना को फुसला सकती है. 6-8 महीने में शिव सेना को मजबूर कर सकती है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस से किसी बात पर  झगड़ कर फिर भाजपा के खेमे में आ जाए. 11 दिसंबर को कांग्रेस ने फैसले में देर लगाई तो शिव सेना को निराशा हुई, पर जो यूटर्न शिव सेना ले रही है वह आसानी से पचने वाला नहीं है. शिव सेना को यह जताना होगा कि अब तक उस को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है. वह महाराष्ट्र की राजा नहीं थी, केवल मुख्य सेवक थी. उम्मीद करें कि यह अक्ल उन और पार्टियों को भी आएगी जो भाजपा के अश्वमेध घोड़े के साथ चल कर अपने को चक्रवर्ती सम झ रही हैं. वे केवल दास हैं, जैसे उन के वोटर हैं.

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देश के सामने असली परेशानी मंदिरमसजिद नहीं है, बेरोजगारी है. यह बात दूसरी है कि आमतौर पर धर्म के नाम पर लोगों को इस कदर बहकाया जा सकता है कि वे रोजीरोटी की फिक्र न कर के अपनी मूर्ति के लिए जान भी दे दें और अपने पीछे बीवीबच्चों को रोताकलपता छोड़ जाएं. जब देश के नेता मंदिर की जीत पर जश्न मना रहे थे, उस समय 15 साल से 35 साल की उम्र के 58 करोड़ लोगों में नौकरी की फिक्र बढ़ रही थी.

इन में से काफी नौकरी के लिए तैयार से हैं और काफी नौकरी पाए हुए हैं. जिन के पास नौकरी है उन्हें पता नहीं कि यह नौकरी कब तक टिकेगी. जिन के पास नहीं है वे अपना पैसा या समय गलियों, खेतों में बेबात गुजारते हैं. इस देश में हर साल 1 से सवा करोड़ नए जवान लड़केलड़कियां पहले नौकरी ढूंढ़ते हैं. क्या इतनी नौकरियां हैं?

देश में बड़े कारखानों की हालत बुरी है. सरकार की सख्ती से बैंकों ने कर्ज देना बंद सा कर दिया है. कभी प्रदूषण के मामले को ले कर, कभी टैक्स के मामले को ले कर कभी सस्ते चीनी सामान के आने से भारतीय बड़े उद्योग न के बराबर चल रहे हैं, लगना तो दूर. अखबार हर रोज उद्योगों, बैंकों, व्यापारों के घाटे के समाचारों से भरे हैं.

छोटे उद्योगों, कारखानों और दुकानों में काफी नौकरियां निकलती हैं. देश के 6 करोड़ छोटे कामों में 14 करोड़ को रोजगार मिला हुआ है, पर इन में से 5 करोड़ लोग तो अपना रोजगार खुद करते हैं. ये खुद काम करने वाले हर तरह की आफत सहते हैं. इन के पास न तो काम करने की सही जगह होती है, न ही कोई नया काम करने का हुनर. इन 6 करोड़ छोटे काम देने वालों में 10 से ज्यादा लोगों को काम देने वाले सिर्फ 8 लाख यूनिट हैं.

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इन 14 करोड़ लोगों को जो काम मिला है वह बड़ी कृपा है पर उन के पास न नया हुनर है, न उन की कोई खास तमन्ना है. वे जेल व कैदियों का सा काम करते हैं. वे इतना न खुद कमा पाते है, न कमा कर मालिक को दे पाते हैं कि कुछ बचत हो, बरकत हो, काम बड़ा हो सके. 50 करोड़ लोग जहां नौकरी पाने के लिए खड़े हों वहां ये 6 करोड़ काम देने वाले क्या कर सकते हैं?

सरकारी नौकरियां देश में कुल 3-4 करोड़ हैं. इस का मतलब हर साल बस 30-40 लाख नए लोगों को काम मिल सकता है. आरक्षण इसी 30-40 लाख के लिए है और उसी को खत्म करने के लिए मंदिर का स्टंट रचा जा रहा है, ताकि लोगों का दिमाग, आंख, कान, मुंह बेरोजगारी से हटाया जा सके और जो नौकरियां हैं, वे भी ऊंचे लोग हड़प जाएं और चूं तक न हो.

दलितों को तो छोडि़ए वे बैकवर्ड जो भगवा गमछा पहने घूम रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर कोई भी मंदिर उन की नौकरी को पक्का कैसे करेगा. उन्हें लगता है कि भगवान सब की सुनेगा. भगवान सुनता है, पर उन की जो भगवान की झूठी कहानी बनाते हैं, सुनाते हैं, बरगलाते हैं.

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