Serial Story वसीयत- आखिर सीमा और जेम्स वारन के बीच क्या रिश्ता था : भाग 1

दरवाजा खोला तो पोस्टमैन ने सीमा के हाथ में चिट्ठी दे कर दस्तखत करने को कहा.

‘‘किस की चिट्ठी है?’’ मैं ने बैठेबैठे ही पूछा.

चिट्ठी देख कर सीमा ठिठक गई और आश्चर्य से बोली, ‘‘किसी सौलिसिटर की है. लिफाफे पर भेजने वाले का नाम ‘जौन मार्र्टिन-सौलिसिटर्स’ लिखा है.’’

यह सुनते ही मैं ने चाय का प्याला होंठों तक पहुंचने से पहले ही मेज पर रख दिया. इंगलैंड में मैं वैध रूप से आया था और 65 वर्ष की आयु में वकील का पत्र देख कर दिल को कुछ घबराहट सी होने लगी थी. उत्सुकता और भय का भाव लिए पत्र खोला तो लिखा था.

‘‘जेम्स वारन, 30 डार्बी एवेन्यू, लंदन निवासी का 85 वर्ष की आयु में 28 नवंबर, 2004 को देहांत हो गया. उस की वसीयत में अन्य लोगों के साथ आप का भी नाम है. जेम्स की वसीयत 15 दिसंबर, 2004 को 3 बजे जेम्स वारन के निवास पर पढ़ी जाएगी. आप से अनुरोध है कि आप निर्धारित तिथि पर वहां पधारें या आफिस के पते पर टेलीफोन द्वारा सूचित करें.’’

‘‘यह जेम्स वारन कौन है?’’ सीमा ने उत्सुकता से कहा, ‘‘मेरे सामने तो आप ने कभी भी इस व्यक्ति का कोई जिक्र नहीं किया.’’

मैं जैसे किसी पुराने टाइमजोन में पहुंच गया. चाय का एक घूंट पीते हुए मैं ने सीमा को बताना शुरू किया.

उस समय मैं अविवाहित था और लंदन में रहता था. मैं कभीकभी 2 मील की दूरी पर स्थित एवेन्यू पार्क में जाता था. वहां एक अंगरेज वृद्ध जिस की उम्र लगभग 55-60 की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहां से गुजरने वाले हर व्यक्ति को हंस कर ‘गुडमार्निंग’ या ‘गुड डे’ इस अंदाज में कह कर अभिवादन करता, मानो कुछ कहना चाहता हो.

इंगलैंड में धूप खिलीखिली हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल बातों में समय गंवाए? यह सोच कर लोग उसे नजरअंदाज कर चले जाते और वह बैंच पर अकेला बैठा होता था. मैं भी औरों की तरह अकसर आंखें नीची किए कतरा कर चला जाता था.

हर रोज अंधेरा शुरू होने से पहले बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरेधीरे चल देता. मैं कभी अनायास ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर वह ‘हैलो’  कह कर मुसकरा देता. मैं भी उसी प्रकार उत्तर दे कर चला जाता.

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यह क्रम चलता रहा. एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं आई तो विचारों के क्रम में बारबार बूढे़ की आकृति सामने आती रही, फिर नींद लगी तो देर से सो कर उठा. सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर कपड़े बदले और पार्क जा पहुंचा.

देखा तो बूढ़ा उसी बैंच पर मुंह नीचे किए बैठा हुआ था. इस बार कतराने के बजाय मैं ने उस से कहा, ‘हैलो, जेंटिलमैन.’

बूढ़े ने मुंह ऊपर उठाया. उस की नजरें कुछ क्षणों के लिए मेरे चेहरे पर अटक गईं. फिर एकदम से उस की आंखों में चमक सी आ गई. वह बड़े उल्लास- पूर्वक बोला, ‘हैलो, सर. आप मेरे पास बैठेंगे क्या?’

मैं उसी बैंच पर उस के पास बैठ गया. बूढ़े ने मुझ से हाथ मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो. मैं ने पूछा, ‘आप कैसे हैं?’

जब भी 2 व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वत: ही मुख से निकल जाता है. कुछ देर मौन ने हम को अलग रखा था पर मैं ने ही फिर पूछा, ‘आसपास में ही रहते हैं?’

मेरे इस सवाल पर ही उस ने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया, ‘मेरा नाम जेम्स वारन है. 30 डार्बी एवेन्यू, फिंचले में अकेला ही रहता हूं.’

मैं ने कहा, ‘मिस्टर वारन…नहीं, नहीं…जेम्स.’

‘आप मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा,’ जेम्स ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही कह दिया.

मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे उस ने अपने अंदर दबा कर रखा है क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है. उस के अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिए जाने कब से संघर्ष कर रही होंगी किंतु किस के पास इस बूढ़े की दास्तान सुनने के लिए समय है?

जेम्स ने एक आह सी भरी और कहना शुरू किया.

‘मैं अकेला हूं और 4 बेडरूम के मकान की भांयभांय करती दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूं.’

इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ कर के दोबारा बोलना शुरू किया.

‘ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी बहुत अच्छी थी. हम दोनों एकदूसरे की सुनते थे. उस के साथ दुख का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?

‘एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया. पिता बनने की खबर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो. मेरी मां ने दादी बनने की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली. इसी तरह 8 महीने आनंद से बीत गए. ऐथल ने अपने आफिस से अवकाश ले लिया था. मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता.

‘एक रात मूसलाधार वर्षा हो रही थी. ऐथल को ऐसा तेज दर्द हुआ जो उस के लिए सहना कठिन था. मैं ने एंबुलेंस मंगाई और ऐथल की कराहटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुंच गया.

‘नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेजी से आई.सी.यू. में ले गईं. डाक्टर ने ऐथल की हालत जांच कर कहा कि शीघ्र ही आपरेशन करना पड़ेगा. अंदर डाक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के जीवन और मौत के बीच अपने औजारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने से लड़ता रहा. काफी देर बाद एक नर्स ने आ कर बताया कि तुम एक लड़के के पिता बन गए हो. खुशी में एक उन्माद सा छा गया. नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा था. नर्स ने मुझे जोर से झंझोड़ सा दिया पर मेरा हाथ जोर से दबाए रही. कहने लगी कि मिस्टर वारन, मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश के बाद भी आप की पत्नी नहीं बच सकी.

जेम्स ने आंखों से चश्मा उतार कर फिर साफ किया. उस की आंखें आंसुओं के भार को संभाल नहीं पाईं.  उस ने एक लंबी सांस छोड़ी और अपनी इस वेदना भरी कहानी को जारी करते हुए बोला, ‘मां पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगीं. मेरी मां बड़ी साहसी थीं. उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्योंकि विलियम ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था.’

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‘इसी तरह 8 साल बीत गए. मां बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं. एक दिन वह भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा ले कर चली गईं. उस दिन से विलियम के लिए मैं ही मां, दादी और पिता के कर्तव्यों को पूरी जिम्मेदारी से निभाता. उसे सुबह नाश्ता दे कर स्कूल छोड़ कर अपने दफ्तर जाता. वहां से भी दिन के समय स्कूल में फोन पर उस की टीचर से उस का हाल पूछता रहता. विलियम की उंगली में यदि जरा सी भी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर में दर्द फैल गया हो.

‘इतने लाड़प्यार में पलते हुए वह 18 वर्ष का हो गया. ए लेवल की परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की खबर सुन कर मैं बेहद खुश हुआ था. जब उस ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से आनर्स की डिगरी पास की तो मेरे आनंद का पारावार न था.

‘विलियम की गर्लफ्रेंड जैनी जब भी उस के साथ घर आती तो मैं खुशी से नाच पड़ता. जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में संपन्न हुआ जहां मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था. एक साल के बाद ही विलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया. उस दिन मुझे मां और ऐथल की बड़ी याद आई. मेरी आंखें भर आईं. पोते का नाम जार्ज वारन रखा.

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‘हंसतेखेलते एक साल बीत गया. इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था.

‘डैडी, जैनी और मुझे, कंपनी एक बहुत बड़ा पद दे कर आस्टे्रलिया भेज रही है. वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है. मकान, गाड़ी, हवाई जहाज की यात्रा के साथसाथ कंपनी जार्ज के स्कूल का प्रबंध आदि की सुविधाएं भी दे रही है, विलियम ने बताया तो मेरी आंखें खुली की खुली ही रह गईं.

ट्रस्ट एक प्रयास : भाग 1

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

हम सब अपनीअपनी जिंदगी में कितने ही सपने देखते हैं. कुछ टूटते हैं तो कुछ पूरे भी हो जाते हैं. बस, जरूरत है तो मात्र ‘प्रयास’ की. कई बार सिर्फ एक शब्द जिंदगी के माने बदल देता है. मेरी जिंदगी में भी एक शब्द ‘ट्रस्ट’ ने जहां मेरा दिल तोड़ा वहीं उसी शब्द ने मेरे सब से खूबसूरत सपने को भी साकार किया.

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

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मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

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खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

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बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

प्रोजैक्ट-भाग 3: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

2-3 पैग पीने के बाद रंजीत ने कहा, ‘इस शहर में किसी चीज की जरूरत हो, तो मुझे बताइएगा. आप की हर ख्वाहिश पूरी होगी. और फिर उसी ने हमें बताया कि समीर की पत्नी शालिनी का चालचलन कुछ ठीक नहीं है. काम के बोझ के चलते वह अपनी बीवी को पूरा वक्त नहीं दे पाता, औफिस में भी ओवरटाइम करता है. और उधर इस के घर में हर रोज नएनए लोगों का आनाजाना लगा रहता है. इस बारे में समीर को जरा भी खबर नहीं है. एकदो बार तो मैं भी जा चुका हूं. आप का भी अगर मूड हो तो बताइएगा.‘

फिर दूसरा अफसर अपनी सफाई में बोला, ‘हम उस की बातों में आ गए और अगले दिन औफिस में समीर का प्रोजैक्ट सलैक्ट करने के बाद जब हम अपने रूम में आए, तो हमारे पीछेपीछे रंजीत भी 2 व्हिस्की की बोतल ले कर रूम में आ गया. और जब हम पीने बैठे तो उस ने बातोंबातों में कहा, ‘समीर दोपहर 3 बजे की ट्रेन से नोएडा जा रहा है, इस से अच्छा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा, मैं तुम दोनों को उस के घर तक छोड़ दूंगा. और समीर के जाने के बाद शालिनी को भी तो अपने घर आने वाले खास मेहमानों का इंतजार रहेगा ही न,‘ कहते हुए उसी ने हमें समीर के घर तक अपनी गाड़ी से छोड़ा.

अब तक उन दोनों की बातों से सबकुछ स्पष्ट हो गया. उन की बातें सुन कर समीर का खून खौलने लगा था, तभी बौस बोले, ‘रंजीत ने समीर के साथ ऐसा क्यों किया? वह तो औफिस में इस का सीनियर है.‘

‘असली प्रोब्लम ही यही है सर कि वह मेरा सीनियर है, फिर भी पिछले 3 सालों से हर साल कंपनी से आने वाले अफसरों ने आज तक उस का कोई प्रोजैक्ट सलैक्ट नहीं किया. और इस बार आप ने यह काम मुझे सौंप दिया, तो उस ने इसे अपनी तौहीन समझते हुए मुझ से बदला लेने के लिए यह सब खेल खेला,‘ बौस की बात काटते हुए समीर ने अपना पक्ष रखा, तो बौस की आंखों के आगे जो भी धुंधला था सब साफ हो गया.

बौस ने पुलिस को रंजीत पर कड़ी कार्यवाही करने के निर्देश दिए और उन दोनों अफसरों की शिकायत कंपनी के हैड औफिस में कर दी, जिस के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

अपने आसपास के लोगों से भी हमें उतना ही सचेत रहने की आवश्यकता है, जितना अनजान अजनबियों से. शायद, यह बात अब शालिनी और समीर दोनों की समझ आ चुकी थी.

प्रोजैक्ट-भाग 2: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शाम 4 बजे के आसपास शालिनी किचन में चाय बना रही थी कि डोरबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा, तो वह भौचक्की रह गई. सामने वही 2 अफसर खड़े थे, जो थिएटर में समीर के बौस के साथ मौजूद थे. उन्हें हिलते हुए देख शालिनी को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि वे दोनों शराब के नशे में हैं. वह तो उन्हें बाहर से ही रवाना करने वाली थी, लेकिन वे अंदर आ गए तो उस ने उन्हें अनमने मन से बैठने की कह कर खुद किचन में चली गई.

जब शालिनी चाय ले कर आई, तो उन्हें चाय का कप पकड़ाते हुए पूछा, ‘समीर ने बताया नहीं कि आप आने वाले हो, और आप ने घर कैसे पहचान लिया? आप तो किसी दूसरे शहर ‘दरअसल, उस दिन हम लोग थिएटर से लौटते समय इसी रास्ते से हो कर गए थे, तो बौस ने ही हमें बताया था कि यह समीर का घर है. बस इसीलिए इधर से गुजरते हुए सोचा कि आप को बधाई देते चलें,‘ एक अफसर बोला.

‘वैसे, आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जो आप ने समीर के प्रोजैक्ट को सलैक्ट किया. बहुत मेहनत की है उस ने इस पर,‘ शालिनी उन का अहसान जताते हुए बोली.‘अजी सलैक्ट तो उसी दिन कर लिया था जब आप को थिएटर में पहली दफा देखा था,‘ दूसरा अफसर बोला.

‘क्या मतलब…?‘ शालिनी तपाक से बोली‘जी, सच कहा है. जिसे ले कर वह गया है, वह तो कंपनी का प्रोजैक्ट है, लेकिन हमारा प्रोजैक्ट तो आप ही हो न भाभीजी,‘ कहते हुए उस ने शालिनी के हाथ पर झपट्टा मारा.

अब तक शालिनी उन की मंशा अच्छी तरह समझ चुकी थी. उस ने झटक कर अपना हाथ छुड़ाया और सीधे बाहर की ओर भागी. वे लड़खड़ाते हुए दरवाजे तक पहुंचे, तब तक शालिनी ने बाहर की कुंडी लगा कर उन्हें घर में बंद कर दिया.

बाहर निकल कर शालिनी ने मदद के लिए दाएंबाएं देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया. मोबाइल भी घर के अंदर छूट गया. तभी उसे सामने से एक आटोरिकशा आता दिखा, वह उस ओर दौड़ी. आटोरिकशा जब उस के पास आ कर रुका, तो वह भौंचक्की रह गई. उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन ये सच था.

उस आटोरिकशा में समीर ही बैठा हुआ था. शालिनी को इस हालत में देख समीर कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है. शालिनी ने उसे सारी बात बताई और उस के वापस लौट आने की वजह भी पूछी, तो समीर ने कहा, ‘स्टेशन पहुंचने पर मुझे मालूम चला कि गाड़ी 3 घंटे देरी से चल रही है, इसीलिए सोचा कि यहां भीड़भाड़ में रहने से अच्छा है, घर पर ही आराम किया जाए. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है,‘ कह कर उस ने मोबाइल निकाला और अपने बौस को फोन लगा कर इस पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया.

‘तुम लोग बाहर ही रुके रहो समीर, मैं जल्दी ही वहां पहुंचता हूं,’ कह कर बौस ने फोन रखा. उधर वे दोनों अफसर भद्दी गालियां देते हुए अंदर से लगातार दरवाजा पीट रहे थे. कुछ देर बाद सामने से बौस की कार आती दिखाई दी. पीछेपीछे पुलिस की जीप भी आ रही थी.

जब कार पास आ कर रुकी, तो बाहर निकल कर बौस ने कहा, ‘घबराओ मत समीर. ऐसे लोगों की अक्ल ठिकाने लगाना मुझे अच्छे से आता है. ये लोग समझते हैं कि अनजान शहर में हम कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के पर मुझे अच्छे से काटने आते हैं. पुलिस को मैं ने ही फोन किया है.’

पुलिस की जीप आ कर रुकी, तो झट से 4-5 पुलिस वाले बाहर निकले. समीर ने अपने घर की ओर इशारा किया, जिस में से उन दोनों अफसरों की भद्दी गालियों की आवाज आ रही थी. पुलिस ने दरवाजा खोला और उन दोनों को वहीं पर ही दबोच लिया और ले जा कर जीप में बिठाया.

बौस ने समीर से कहा, ‘शालिनी बेटी ने एक काम तो अच्छा किया कि इन्हें घर में बंद कर दिया, वरना आज अगर ये भाग जाते तो इन को पकड़ पाना थोड़ा मुश्किल होता, क्योंकि आज रात 9 बजे की फ्लाइट से ये दोनों मुंबई जाने वाले थे.‘

बौस ने आगे कहा, ‘दरअसल, गलती मेरी ही है, उस दिन थिएटर से लौटते  वक्त हम लोग इधर से गुजर रहे थे, तो मैं ने यों ही इन्हें कह दिया था कि हमारे औफिस में आप के सामने जो अपना प्रोजैक्ट पेश करेगा, उस समीर का घर यही है. लेकिन मुझे क्या पता था कि ये लोग शराब के नशे में अपना विवेक भूल कर ऐसी नीच हरकत कर बैठेंगे. इन्हें सिर्फ पुलिस को सौंपने से कुछ नहीं होगा. जब तक दोनों को नौकरी से न निकलवा दूं, मैं चैन की सांस नहीं लेने वाला. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है.

‘तुम लोग आओ, मेरी गाड़ी में बैठो. थाने चल कर शालिनी के बयान दर्ज करवाने हैं.‘

शालिनी और समीर दोनों कार में बैठे. बौस ने कार स्टार्ट कर आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘इन का तो अभी काम हो जाएगा, रही बात तुम्हारे प्रोजैक्ट की तो उस पर की गई तुम्हारी मेहनत मैं बेकार नहीं जाने दूंगा. उस के लिए मैं कंपनी से बात कर लूंगा. तुम थोड़ा धैर्य रखो. इन दोनों की तो शिकायत कर कंपनी से निकलवाऊंगा. साथ ही, इस प्रोजैक्ट के लिए अगले महीने की तारीख तय करने की कोशिश करूंगा.

‘और इस बार जाते वक्त शालिनी को भी साथ लेते जाना. यह भी घूम आएगी तुम्हारे साथ. वहां मीटिंग में बस 2-3 घंटे का ही काम होता है. फिर ऐश करना तुम लोग,‘ बौस ने यह कहा, तो शालिनी और समीर दोनों के चेहरे एक लंबी सी मुसकान ने दस्तक दे दी.

बौस ने गाड़ी को ब्रेक लगाया. पुलिस स्टेशन आ चुका था और पीछेपीछे पुलिस की वह जीप भी आ गई थी, जिस में वे दोनों अफसर मौजूद थे जो कि लाख मना करने के बावजूद शराब के नशे में ऊलजलूल बके जा रहे थे. उन की हरकत और मामले की गंभीरता को देखते हुए उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया गया.

‘फिलहाल तो ये दोनों अभी नशे में हैं. कल सुबह इन का नशा उतरते ही पूछताछ की जाएगी. उस के बाद ही स्थिति साफ हो पाएगी.

‘और हां.. इस दौरान अगर आप में से किसी की जरूरत पड़ी, तो आप को फोन कर दिया जाएगा. अभी आप लोग जा सकते हैं,‘ पुलिस ने शालिनी और समीर के बयान दर्ज कर के कहा. और फिर तीनों वहां से निकल गए.

बौस ने उन दोनों को घर छोड़ते हुए कहा, ‘पुलिस स्टेशन से फोन आए, तो मुझे भी इत्तिला कर देना. मैं भी साथ चलूंगा.‘

अगले दिन सुबह फोन की घंटी के साथ ही समीर की आंख खुली. फोन पुलिस स्टेशन से था. बात कर के समीर ने शालिनी को जगाते हुए कहा, ‘सुनो डियर, पुलिस स्टेशन से फोन आया है. पुलिस ने उन दोनों से पूछताछ कर ली. सुबह साढे़ 10 बजे हमें पुलिस स्टेशन बुलाया है. तुम जल्दी से उठ कर तैयारी करो. मैं बौस को फोन मिलाता हूं,‘ शालिनी को जगा कर समीर ने अपने बौस को इस बारे में जानकारी दी. और फिर साढे़ 10 बजे तीनों पुलिस स्टेशन पहुंच गए.

उन तीनों को देख थानाधिकारी ने कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आइए.. आइए.. बैठिए, आप लोग किसी रंजीत नाम के शख्स को जानते हैं, जो कि आप ही के औफिस में काम करता है.’

‘हां… हां, बिलकुल, औफिस में वह मेरा सीनियर है,‘ समीर बोला.‘लेकिन, रंजीत का इस केस से क्या ताल्लुक…?‘ बौस ने आश्चर्यमिश्रित भाव से कहा.

‘‘आप लोग मुझे उस का पूरा पता और मोबाइल नंबर दीजिए. अभी पता चल जाएगा कि इस केस से उस का क्या ताल्लुक है,’ थानाधिकारी ने प्रतिउत्तर में कहा. और फिर आवाज लगाई, ‘हवलदार, उन दोनों नशेड़ियों को बाहर लाओ जरा.’

अब दोनों अफसर अपनी झुकी गरदन के साथ उन सब के सामने थे. उन दोनों को अपनी आंखों के सामनेपा कर बौस ने कहा, ‘तुम जैसे अफसरों को पहचानने में मुझ से चूक कैसे हो गई. मैं ने अपने 22 साल के कैरियर में अब तक इतने बेशर्म और घटिया किस्म के अफसर नहीं देखे.‘‘इस में हमारी कोई गलती नहीं है, हमें माफ कर दीजिए,‘ एक अफसर बौस की बात काटते हुए बोला.

‘गलती तुम्हारी नहीं, गलती तो मेरी है, जो तुम्हें उस दिन फिल्म देख कर लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले समीर के घर के बारे में बताया,‘ बौस ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है सर, दरअसल, उस दिन फिल्म देखने के बाद आप ने तो हमें होटल के गेट तक ही छोड़ा था, लेकिन जब हम अंदर गए तो आप के औफिस में काम करने वाला रंजीत रूम के आगे खड़ा हमारा इंतजार कर रहा था. रूम में जा कर हम ने कुछ देर बात की और फिर उस ने अपने बैग में से व्हिस्की की बोतल निकाल कर हमारी मानमनौव्वल की, तो हम ने भी हामी भर दी.

प्रोजैक्ट-भाग 1: समीर की शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शनिवार को ओवर टाइम करने के बावजूद भी समीर का काम पूरा नहीं हो पाया था. रविवार को छुट्टी थी और सोमवार को औफिस की मीटिंग में किसी भी हाल में उसे प्रोजैक्ट पेश करना था, इसलिए वह औफिस का काम घर पर ले आया था, ताकि कैसे भी कर के प्रोजैक्ट समय पर पूरा हो जाए.

लेकिन, घर पहुंचते ही उसे याद आया कि रविवार को वह अपनी पत्नी शालिनी के साथ फिल्म देखने जाने वाला है. और इस बार वह मना भी नहीं कर सकता था, क्योंकि अब की मैरिज एनिवर्सरी भी तो इसी रविवार को पड़ रही है.

पिछली बार की तरह इस बार वह अपने काम की वजह से शालिनी का मूड औफ नहीं करना चाहता था. रात के खाने के बाद वह शालिनी से यह कह कर अपने काम में जुट गया, ‘सौरी डियर.. आज थोड़ा काम निबटा लूं, कल पूरा दिन ऐंजौए करेंगे.‘

समीर के चेहरे पर काम का तनाव साफ झलक रहा था, जिसे चाह कर भी वह शालिनी से छुपा न सका. शालिनी उस की ओर करवट ले कर लेटी उसे देखती रही और लेटेलेटे कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगले दिन सुबह जब शालिनी तैयार हो कर समीर के सामने आई, तो वह उस की तारीफ किए बिना नही रह सका. अभी उस की तारीफ खत्म भी नहीं हुई थी कि शालिनी ने अपनी बंद मुट्ठी समीर की ओर बढ़ाई. समीर ने उस का हाथ थाम कर बंद मुट्ठी की एकएक कर उंगली खोली और मुट्ठी में बंद चमकीली सिंदूरदानी अपने हाथ में ले कर शालिनी की मांग भरी और उसे अपनी बांहों में भर लिया.

इस दौरान शालिनी को भी न जाने क्या शरारत सूझी, वह उस की पीठ पर अपनी उंगली फिराते हुए बोली, ‘बताओ, मैं ने क्या लिखा है?‘

‘तुम्हारा नाम,‘ शालिनी को अपनी बांहों में कसते हुए समीर ने कहा.‘बिलकुल गलत. अच्छा चलो, दोबारा लिखती हूं, अब ठीक से बताना.‘शालिनी  फिर से समीर की पीठ पर उंगली से कुछ लिखने लगी. अपनी पीठ पर घूमती शालिनी की उंगली के साथसाथ समीर ने अपना दिमाग भी घुमाना शुरू किया और फिर तपाक से बोला, ‘आई लव यू.‘

सही जवाब पा कर शालिनी के चेहरे पर मुसकान फैल गई, ‘आई लव यू टू मेरी जान, चलो, अब जल्दी से तैयार हो जाओ. याद है न, आज हम लोग फिल्म देखने जाने वाले थे,‘ समीर को याद दिला कर शालिनी अपने काम में बिजी हो गई.

शालिनी चाहती तो आज फिल्म देखने का प्रोग्राम कैंसिल भी कर सकती थी. उस की कोई खास इच्छा नहीं थी फिल्म देखने की और न ही थिएटर में उस के पसंद की कोई मूवी लगी थी. उसे तो बस कैसे भी कर के इस बार यह खास दिन समीर के साथ बिताना था.

हालांकि शालिनी अच्छी तरह से जानती थी कि इस बार समीर के लिए यह प्रोजैक्ट कितना माने रखता है. लेकिन फिर भी उस ने समीर की मरजी देखनी चाही और चुप रही.

शालिनी यह सब सोच ही रही थी कि समीर तैयार हो कर उस के सामने आ खड़ा हुआ. वह समीर को अपलक देखती रही, समीर नीचे से ऊपर तक बिलकुल टिपटौप था. बस चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था. तैयार होने बावजूद वह अपने चेहरे से काम का तनाव नहीं छुपा सका. अनमना सा समीर शालिनी को साथ ले कर चल पड़ा.

वहां थिएटर में पहुंच कर वे गाड़ी पार्क कर के अंदर की ओर जाने लगे कि वहां पार्किंग में पहले से खड़ी एक ब्लैक कार को देख कर समीर चैंक गया और बोला, ‘अरे, बौस की गाड़ी, मतलब, बौस भी फिल्म देखने आए हुए हैं.‘

‘इतना बड़ा शहर है, इस कंपनी और इस कलर की गाड़ी किसी और की भी तो हो सकती है, क्या नंबर याद है तुम्हें बौस की गाड़ी का?‘ शालिनी ने पूछा.

नंबर को सुनते ही समीर बोला, ‘खैर, छोड़ो जो होगा देखा जाएगा. दोनों आगे बढे़ और थिएटर में अपनी सीट पर जा कर बैठ गए. फिल्म शुरू हो चुकी थी. फिल्म का शुरुआती सीन ही इतना सस्पैंस भरा था कि समीर की उत्सुकता बढ़ गई और उस के चेहरे से काम का तनाव जाता रहा.

इंटरवल में जब वह स्नैक्स लेने कैंटीन पहुंचा, तो भीड़ में अपने कंधे पर अचानक किसी का हाथ पाया. उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वही हुआ जिस बात का अंदेशा था. उस का बौस सोमवार की मीटिंग में आने वाले उन दोनों अफसरों के साथ फिल्म देखने पहुंचा हुआ था.

‘क्या बात है समीर अकेलेअकेले, पहले पता होता तो तुम्हें भी साथ ले आते हम लोग,‘ बौस ने मुसकराते हुए कहा.‘नहीं सर, मैं अकेला नहीं शालिनी भी साथ में है, वह वहां बैठी है. वैसे, आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. बस इसीलिए फिल्म दिखाने ले आया.‘

‘ओहो… कांग्रेचुलेशन समीर. और हां, मैडम कहां है भई, आज तो उन्हें भी बधाई देनी बनती है,‘ बौस ने ठहाका लगाते हुए कहा.समीर अपने बौस और उस के साथ आए दोनों अफसरों को शालिनी के पास ले आया. सब ने शालिनी को बधाई दी.

‘क्या लेंगे सर आप लोग ठंडा या गरम?‘ समीर ने पूछा.‘भई, तुम्हारी शादी की सालगिरह है, सिर्फ इतने से काम नहीं चलने वाला पूरी पार्टी देनी होगी.’समीर ने पार्टी के लिए हां भरी, तभी फिल्म शुरू हो गई, तो सभी अपनीअपनी सीटों पर जा कर बैठ गए.

फिल्म के खत्म होने पर समीर ने शालिनी को कुछ शौपिंग कराई. शहर की कई फेमस जगहों पर घुमाया, वहां सेल्फियां लीं और घर लौटते हुए खाना उसी होटल में खाया, जहां वे शादी से पहले कई बार एकसाथ गए थे.

रात गहराने लगी थी. घर पहुंच कर समीर सीधे अपने काम में जुट गया. फिर से उस के चेहरे पर वही काम का तनाव देख शालिनी समझ गई. कपड़े चेंज कर वह भी उस की मदद करने की मंशा से पास आ कर बैठ गई. उस ने भी कुछ हाथ बंटाया और देर रात तक समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को अंजाम तक पहुंचा ही दिया.

समीर अब काफी हलका महसूस कर रह था. उसे उम्मीद नहीं थी कि दिनभर की मौजमस्ती के बाद देर रात तक प्रोजैक्ट तैयार हो जाएगा. वह खुशी से उछल पड़ा. मदद के लिए शालिनी का शुक्रिया अदा करते हुए उसे अपनी बांहों में भर लिया.

शालिनी भी तो यही चाहती थी. उसे मालूम था कि जब तक काम पूरा नहीं होगा, समीर उस के पास नहीं आने वाला इसीलिए उस ने साथ लग कर उस के काम को अंजाम तक पहुंचाया.

‘थैंक यू सो मच डियर, तुम न होती तो सुबह हो जाती,‘ कहते हुए समीर ने शालिनी के गले पर नौनस्टोप एक बाद एक किस करने लगा.

शालिनी की सांसों की रफ्तार बढ़ने लगी. वह भी उस का साथ देते हुए बोली, ‘अब सुबह एकदूसरे की बांहों में ही होगी.‘ और समीर को कस कर अपनी बांहों में जकड़ लिया.

अगले दिन सुबह किचन में खटपट की आवाज से शालिनी की आंख खुली, तो चैंक गई. किचन में जा कर देखा तो हमेशा देर से उठने वाला समीर आज नहाधो कर नाश्ता बनाने लगा है.

‘क्यों मैडम पूरे 3 घंटे लेट उठी हो. लगता है, कल रात कुछ ज्यादा ही मेहनत कर ली थी,‘ शालिनी को देख कर समीर बोला.‘मेहनत न करती तो तुम्हारा प्रोजैक्ट कैसे पूरा होता.‘

‘मैं इस मेहनत की नहीं उस मेहनत की बात कर रहा हूं,‘ यह सुन कर शालिनी शरमा कर बाथरूम की ओर चल दी.जब तक वह बाहर निकली, तब तक समीर नाश्ता कर चुका था. और आज शाम थोड़ी देर से आने की कह कर वह औफिस के लिए निकल गया.

औफिस पहुंच कर जब उस ने मीटिंग में बौस के सामने अपना प्रोजैक्ट पेश किया, तो बौस ने बाहर से आए उन अफसरों के सामने उस प्रोजैक्ट को रखा.

कुछ देर की बातचीत, जांचपरख और नफानुकसान देखने के बाद समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को सलैक्ट करने का डिसीजन ले लिया गया.

बौस ने उसे अगले ही दिन लखनऊ से नोएडा जाने का टिकट थमाते हुए कहा, ‘2 दिन बाद कंपनी के हैड औफिस नोएडा में एक मीटिंग है, जिस में तुम्हें देशविदेश से आए लोगों के सामने इसी प्रोजैक्ट को एक बार फिर से पेश करना होगा. यह लो टिकट. कल दोपहर 3 बजे की ट्रेन है. अब तो दोदो पार्टियां बनती हैं.‘

‘जी सर जरूर, लौट के आने पर 2 नहीं 4 पार्टियां दे दूंगा एकसाथ,‘ समीर खुशीखुशी बोला.घर पहुंच कर समीर ने शालिनी को यह खुशखबरी दी. इस प्रोजैक्ट में उस ने भी तो अपना सहयोग दिया था. यह सुन कर वह भी बहुत खुश हुई. समीर ने जब बताया कि कल वह 2 दिन के लिए दोपहर 3 बजे की ट्रेन से कंपनी के काम से नोएडा जा रहा है, इसलिए पैकिंग कर देना. तब से शालिनी पैकिंग में जुट गई.

अगले दिन समीर शालिनी को काम खत्म होते ही जल्द लौट आने का वादा कर के निश्चित समय पर स्टेशन की ओर घर से निकल गया.

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 1

लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

मौल में पहुंचे ही थे कि मिशिका को उस के फें्रड्स सामने दिख गए और वह मुझे तेजी से बायबाय कह कर उन के साथ हो ली. वह नोएडा के एमिटी कालिज से इंजीनियरिंग कर रही है. उस के सभी मित्रों को अच्छी कैंपस प्लेसमेंट मिल गई थी सो इसी खुशी में उस के ग्रुप के सभी साथी यहां पिज्जा हट में खुशियां मना रहे थे.

नोएडा का यह मशहूर जीआईपी यानी ‘गे्रट इंडिया प्लेस’ मौल युवाओं का पसंदीदा स्थान है. हम गाजियाबाद में रहते हैं. मिशिका अकेले ही रोज गाजियाबाद से कालिज आती है मगर इस तरह पार्टी आदि में जाना हो तो मैं या उस के पापा साथ आते हैं. यों अकेले तैयार हो कर बेटी को घूमनेफिरने जाने देने की हिम्मत नहीं होती. एक तो उस के पापा का जिला जज होना, पता नहीं कितने दुश्मन, कितने दोस्त, दूसरे आएदिन होने वाले हादसे, मैं तो डरी सी ही रहती हूं. क्या करूं? आखिर मां हूं न…

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बच्चे अपने मातापिता की भावनाओं को कहां समझ पाते हैं. उन्हें तो यही लगता है कि हम उन की आजादी पर रोक लगा रहे हैं. कई बार मिशिका भी बड़ी हाइपर हुई है इस बात को ले कर कि ममा, आप ने तो मुझे अभी तक बिलकुल बच्चा बना कर रखा है. अब मैं बड़ी हो गई हूं. अपना ध्यान रख सकती हूं. अब उस नादान को क्या समझाएं कि मातापिता के लिए तो बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. चाहे वे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं.

हां, मेरी तरह शायद जज साहब से वह इतना कुछ नहीं कह पाती. उन की लाडली, सिर चढ़ी जो है. जो बात मनवानी होती है, मनवा ही लेती है. बात तो शायद मैं भी उस की मान ही लेती हूं लेकिन उसे बहुत कुछ समझाबुझा कर, जिस से वह मुझ से खीझ सी जाती है.

अब क्या करूं, जब मुझे इस तरह के आधुनिक तौरतरीके पसंद नहीं आते तो. मैं तो हर बार इसे ही तरजीह देती हूं कि वह अपने पापा के संग ही आए. दोनों बापबेटी के शौकमिजाज एक से हैं. कितनी ही देर मौल में घुमवा लो, दोनों में से कोई पहल नहीं करता घर चलने की. मैं भी कभीकभी बस फंस ही जाती हूं. जैसे आज वह नहीं वक्त निकाल पाए. कोर्ट में कुछ जरूरी काम था.

मैं थोड़ी देर तक यों ही एक दुकान से दूसरी दुकान में टहलती रही. खरीदारी तो वैसे भी मुझे कुछ यहां करनी नहीं होती है. वह तो मैं हमेशा अपने शहर की कुछ चुनिंदा दुकानों से ही करती हूं. सरकारी गाड़ी में अर्दलियों और सिपाहियों के संग रौब से जाओ और बस, रौब से वापस आ जाओ. सामान में कोई कमी हो तो चाहे महीने भर बाद दुकान पर पटक आओ. यहां मौल में, इतनी भीड़ में किस को किस की परवा है, कौन पहचान रहा है कि जज की बीवी शौपिंग कर रही है या कोई और. शायद इतने सालों से इसी माहौल की आदी हो गई हूं और कुछ अच्छा ही नहीं लगता.

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खैर समय तो गुजारना ही था. यों ही बेमतलब घूमते रहने से थकान सी भी होने लगी थी. घड़ी पर नजर डाली तो बस, आधा घंटा ही बीता था. सोचतेविचरते मैं मैकडोनाल्ड की तरफ आ गई. कार्य दिवस होने के बावजूद वहां इतनी भीड़ थी कि बस, लगा कालिज बंक कर के सब बच्चे यहीं आ गए हों. माहौल को देख कर मिशिका का खयाल फिर दिलोदिमाग पर छा गया कि पता नहीं, यह क्या मौलवौल में पार्टी करने का प्रचलन हो गया है. अरे, तसल्ली से घर में मित्रों को बुलाओ, खूब खिलाओपिलाओ, मौजमस्ती करो, कोई मनाही थोड़े ही है.

थोड़ी देर में ही सही, मेरा भी कौफी का नंबर आ ही गया था. कौफी और फ्रेंचफ्राइज ले कर भीड़ से बचतेबचाते मैं एक खाली सीट पर जा कर बैठ गई और अपने चारों तरफ देखती कौफी का सिप भरती जा रही थी.

तभी मेरे पास एक बड़ी स्मार्ट सी महिला आईं और खाली पड़ी सीट की ओर इशारा कर बोलीं, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां. क्यों नहीं…आप चाहें तो यहां बैठ सकती हैं,’’ इतना कहने के साथ ही मेरी इधरउधर की सोच पर वर्तमान ने बे्रक लगा दिया.

मैं उस संभ्रांत महिला को कौफी पीतेपीते देखती रही. उस ने कांजीवरम की भारी सी साड़ी पहन रखी थी. उसी से मेल खाता खूबसूरत सा कोई नैकलेस डाल रखा था. पर्स भी उस के हाथ में बहुत सुंदर सा था. कुल मिला कर वह हाइसोसाइटी की दिख रही थी.

मुझ से रहा नहीं गया. अटपटा सा लग रहा था कि उस के सामने मैं फे्रंचफ्राइज का मजा अकेले ही ले रही थी और वह सिर्फ कौफी ले कर बैठी थी. संकोच छोड़ मैं ने अपने चिप्स उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अकेले ही शौपिंग हो रही है…’’

अपने होंठों पर हलकी सी हंसी ला कर वह बोलीं, ‘‘शौपिंग नहीं, आज तो अपने बेटे के संग आई हूं. दरअसल, आज बच्चों की गेटटूगेदर है. मेरे पति रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं. यहीं सेक्टर 30 में हमारा छोटा सा घर है. पति तो अपनी ताशमंडली में व्यस्त रहते हैं और मैं बस, कभी क्लब, कभी किटी और कभी समाज- सेवा…रिटायर होने के बाद कहीं न कहीं तो अपने को व्यस्त रखना ही पड़ता है न.’’

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‘‘आज मेरा छोटा बेटा समर्थ बोला कि ममा, मेरे संग मौल चलिए, आप को अच्छा लगेगा. सो आज यहां का कार्यक्रम बना लिया,’’ उस ने दोचार फ्रेंचफ्राइज बिना किसी झिझक के उठाते हुए बताया.

हम समझ गए थे कि हमारे बच्चे एक ही ग्रुप में हैं. थोड़ी देर में ही हम सहज हो क र बातें करने लगे. कुछ अपने परिवार के बारे में वह बता रही थीं और कुछ मैं. बीचबीच में हम खानेपीने की चीजें भी मंगाते जा रहे थे. अब किसी के संग रहने से अच्छा लगने लगा था. बातोंबातों में ही पता चला कि उन के 2 बेटे थे. छोटा समर्थ, मिशिका के संग पढ़ रहा था और बड़ा पार्थ इंजीनियरिंग के बाद पिछले साल सिविल सर्विस में सिलेक्ट हो गया था. इस समय लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी, मसूरी में उस की टे्रनिंग चल रही थी.

मैं ने सोचा कि बापबेटा दोनों आईएएस. शुरू में ही मुझे लग गया था कि मेरी तरह यह महिला कोई ऊंची हस्ती है.

उन का बेटा आईएएस है और जल्दी ही वह उस की शादी करने की इच्छुक हैं, यह जान कर तो मेरी रुचि उन में और भी बढ़ गई. मैं तो खुद मिशिका के लिए अच्छा वर ढूंढ़ने की कोशिश में थी और एक आईएएस लड़के को अपना दामाद बनाना तो जैसे मेरे ख्वाबों में ही था.

पार्थ के बारे में जान कर मुझे सबकुछ अच्छा लगा था, लेकिन एक अड़चन थी कि वे कायस्थ थे, हमारी तरह ब्राह्मण नहीं थे जो मेरे लिए तो जमीं और आसमान को मिलाने वाली बात थी. अपनी इकलौती बेटी की गैर जाति में शादी करना मेरी सोच में कहीं दूरदूर तक नहीं था. एक तरह से तो मैं इस तरह के विवाह के बिलकुल खिलाफ थी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 3

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

देखते ही देखते हफ्ता निकल गया. पार्टी का दिन भी आ गया. लौन में ही पार्टी का इंतजाम किया था. पहली बार मिशिका ने पार्टी का जिम्मा अपने सिर पर लिया था. बोली, ‘‘ममा, अभी परीक्षा की कोई टेंशन नहीं है, इस बार मैं देखूंगी सारा इंतजाम.’’

सुन कर पहली बार एहसास हुआ कि बेटी बड़ी हो गई है. पार्थ का खयाल एक बार फिर दिमाग में आ गया. मगर मेरी मजबूरी थी कि मैं चाह कर भी यह रिश्ता नहीं कर सकती थी. मुझे इस समय अपनी भतीजी के गुस्से में कहे शब्द याद आ रहे थे.

घर में मेहमान आने शुरू हो गए थे. मैं ने अपनी सोच को दरकिनार करने की कोशिश की और मेहमानों की आवभगत में लग गई. जज साहब के कुछ करीबी जल्दी ही आ गए थे. अत: वह उन्हें पीने व पिलाने में व्यस्त हो गए. मैं और मिशिका मेहमानों के स्वागत में लगे थे. बेटी पर बारबार नजरें जा कर ठहर जातीं क्योंकि आज वाकई वह बहुत सुंदर लग रही थी. अचानक दिल में खयाल आया कि अगर आज की पार्टी में पार्थ उसे देख ले और पसंद कर ले या उस की मम्मी ही मिशिका को अपने बेटे के लिए मांग लें तो…

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अचानक ही वह परिवार आंखों के सामने आ गया. श्रीमती सक्सेना अपने पति व दोनों बेटों के साथ चेहरे पर मुसकान लिए आती दिखाई दीं. समर्थ को तो उस दिन मौल में ही देख लिया था पर पार्थ तो उस से भी चार कदम आगे था. यह लड़का इतना हैंडसम होगा यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. उस पर आईएएस भी. मुझे फिर लगा कि मेरी चाहत मेरी सोच पर हावी हो गई है. फिर से मेरी चाहत जोर पकड़ने लगी कि यह लड़का तो बस, मेरा दामाद हो जाए. तभी नजदीक आ कर दोनों भाइयों ने मेरे और जज साहब के पैर छुए. मन कहीं अंदर तक उन्हें अपना मान गया.

सक्सेना दंपती तो हम बड़ों के ग्रुप में शामिल हो गए और दोनों भाई, मिशिका के फ्रेंड्स ग्रुप में.

पार्टी खूब मजेदार चली. खाना खाने के बाद सभी लोग एकएक कर जाने लगे थे. मगर सक्सेना परिवार अभी जमा हुआ था. मुझे भी उन के जाने की कहां जल्दी थी. मिशिका पार्थ के संग खड़ी कितनी अच्छी लग रही थी. मन में सचमुच ही बहुत मलाल था कि वे कायस्थ हैं.

अब तक करीब सभी मेहमान जा चुके थे. रात के 11 बज चुके थे. 30 अक्तूबर की रात, शरीर में ठंडीठंडी हवा की सिहरन सी हो उठी थी कि मिसेज सक्सेना ने, ‘‘एक कप कौफी हो जाए फिर हम भी चलेंगे,’’ कह कर अभी थोड़ा और रुकने का संकेत दिया.

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‘‘अरे, क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ कहते हुए वेटर को 4 कप कौफी लाने का आर्डर दे दिया.

मिशिका दोनों भाइयों को अभीअभी अंदर ले गई थी. शायद अपना शानदार कमरा दिखा रही हो. लड़कियों को अपना कमरा दिखाने का बहुत क्रेज होता है.

कौफी आ गई थी. हम चारों हंसी मजाक के साथ कौफी का मजा ले रहे थे कि वह हो गया, जो मेरी सोच में तो निरंतर चल रहा था मगर हकीकत में उस का कोई अनुमान नहीं था.

सक्सेना साहब ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘अगर आप लोग हमें दे सकें तो अपनी मिशिका को हमारे पार्थ के लिए दे दीजिए.’’ उन के कहने के साथ ही मिसेज सक्सेना ने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

मैं तो स्तब्ध, भौचक्की, किंकर्तव्य- विमूढ़ सी रह गई. जज साहब ने मेरी तरफ देखा. दोचार पल यों ही खामोशी में निकल गए फिर जज साहब ने कहा, ‘‘हमें यह रिश्ता मंजूर है. पार्थ हमें भी बहुत पसंद आया है और फिर आप से अच्छा और कौन मिलेगा हमें.’’

जज साहब की हां सुन कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्थिति में अब मैं क्या करूं? न हां करने की स्थिति में थी और न ही ना करने की. फिर कुछ सोचती सी बोली, ‘‘अरे, मिशिका से भी तो पूछना होगा न…उस की भी राय जानना जरूरी है. आप को तो पता ही है कि आजकल के बच्चे…’’

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मुझे लगा कि चलो, इस बहाने कुछ तो वक्त मिलेगा सोचने का. फिर कुछ सोच कर मना कर देंगे. सही बताऊं तो भैयाभाभी, अंतरा किसी का भी सामना करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी.

मेरी इस बात को सुन कर मिसेज सक्सेना के साथ जज साहब और सक्सेना साहब दोनों हंस पड़े. इस के पहले कि मैं कुछ कह पाती, मिसेज सक्सेना अपनी हंसी रोकती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा, पहले यह तो बताइए, आप तो राजी हैं न…’’

‘‘मैं…मैं तो…हां, और क्या. मुझे तो बहुत खुशी होगी आप से जुड़ कर,’’ मैं इस के अलावा और क्या कह सकती थी. जब जज साहब ने इस की स्वीकृति दे दी. ‘‘मगर मिशिका…’’ मैं ने फिर इस से बचने की कोशिश की.

‘‘अरे, निशिजी, मुझे तो बस, आप की ही इजाजत चाहिए थी. बाकी सब की इजाजत तो पहले से ही है,’’ इस बार सक्सेना साहब ने जिस अंदाज में कहा, मेरा चौंकना लाजिमी था. असमंजस में पड़ी बोली, ‘‘मतलब?’’

‘‘अरे, निशि, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की मुलाकात मौल में इसीलिए तो कराई थी कि आप दोनों में दोस्ती हो जाए, वरना तो मैं भी जा सकता था उस दिन. मैं ने तो कोर्ट में व्यस्त होने का बहाना किया था. हम लोग काफी दिनों से योजना बना रहे थे कि तुम दोनों को कैसे मिलाया जाए. सो इत्तफाक से मिशिका की गेटटूगेदर निकल आई. हालांकि मौल में मिलवाना मुश्किल था, लेकिन बच्चों ने सब मैनेज कर लिया.’’

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जज साहब बोलते जा रहे थे और मैं आंखें फाड़े उन्हें सुने जा रही थी.

‘‘निशि, जब मौल से लौट कर तुम ने पार्थ के बारे में अपनी चाहत बताई तो मुझे लगा कि हमारा तीर निशाने पर लगा है. प्रकट में मैं ने तुम्हारी बात को तूल नहीं दिया था.

‘‘निशि, तुम्हें याद होगा कि 4 साल पहले मैं जब एक सेमिनार में अमेरिका गया था तो वहां उस में सक्सेना साहब भी मिले थे. भारत से जो खास लोग उस सेमिनार में भेजे गए थे, उन को एक ही होटल में ठहराया गया था और सक्सेना साहब का कमरा मेरे बगल में ही था.’’

दोस्ती होना तो लाजिमी ही था न. देखो, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की दोस्ती तो चंद घंटों में ही हो गई, जबकि हम तो पूरे 15 दिन साथ रहे थे. इसी दौरान एक बार मेरी तबीयत भी बिगड़ गई थी तो सक्सेना साहब ने ही मुझे संभाला था और वे सारी बातें यहां आने पर मैं ने तुम को बताई थीं.

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‘‘हांहां, मुझे सब याद है,’’ मैं कुछ खोईखोई सी बोली.

‘‘उन्हीं दिनों हम दोनों, एकदूसरे के बेहद करीब आ गए थे. दोस्ती के उन्हीं लम्हों में हम ने आपस में एक वचन लिया कि समय आने पर मिशिका और पार्थ की शादी कर देंगे. आज पार्थ आई.ए.एस. हो गया है. मगर दोस्ती में किए गए वादे में कहीं कोई कमी नहीं आई है. सक्सेनाजी के पास तो अब कितने अच्छेअच्छे आफर आ रहे होंगे जबकि यह जानते हैं कि मैं ने तो जिंदगी भर शोहरत और इज्जत के अलावा कुछ नहीं कमाया. मेरे पास अपनी मिशिका को उन्हें सौंपने के अलावा और कुछ देने को नहीं है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 2

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

मुझे हमेशा से ही यह अनुभव होता था कि इस के विपरीत शादियां कभी सुखद और सफल नहीं होतीं. शुरूशुरू में तो सब ठीकठाक चलता है, पर कुछ समय बाद कहीं तलाक होता है, तो कहीं जबरदस्ती रिश्तों को ढोया जाता है. यहां तक कि अपने परिवारों में होने वाली कई इस तरह की शादियों में मैं ने अपना पूरा विरोध जाहिर किया था.

ऐसा नहीं है कि जातिबिरादरी में शादियां कर के किसी तरह की टेंशन नहीं होती है या इस तरह की शादियां टूटती नहीं हैं, फिर भी काफी हद तक इन झमेलों से बचा जा सकता है और मेरे अनुभवों ने मुझे यही सिखाया है कि जब एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं तो यह तो समाज की सोच है जो न कभी एक हुई है और न ही होगी.

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इन सभी बातों में जज साहब और मेरे विचार एक से नहीं हैं तो औरों की क्या कहूं. कई बार उन्होंने अपनी बातों से मुझे भी समझाने की कोशिश की है, मगर मैं कभी इतने बड़े दिल की हो नहीं पाई.

पिछले साल मैं ने अपना यह विरोध अपने भैया पर थोप दिया था. जब उन्होंने बताया कि वह अंतरा यानी मेरी भतीजी की शादी एक ईसाई लड़के से तय कर रहे हैं. दोनों एकदूसरे को जहां बहुत चाहते हैं, वहीं लड़का और उस का परिवार सबकुछ बहुत बढि़या है. हम लोगों को बच्चों की खुशी के अलावा और क्या चाहिए.

तब भैया की बात सुन कर मैं ने बवंडर मचा दिया था. ‘आप ने तो भैया हद ही कर दी. बच्चों की जिदें क्या यों ही आंखें मूंद कर पूरी की जाती हैं? ईसाई लड़के से विवाह करोगे अपनी अंतरा का? चार दिन भी नहीं निभा पाएगी वह इस अलग जाति और धर्म के लड़के के संग… और फिर कर लो जो आप की मर्जी हो, मैं तो इस गलत शादी में आने से रही.’ मेरी बातों के आक्रोश ने भैया को भयभीत कर दिया और उन्होंने यह कह कर उस रिश्ते को टाल दिया कि इकलौती छोटी बहन ही शादी में शरीक नहीं होगी तो दुनिया क्या कहेगी?

उस दिन के बाद से अंतरा न अपने पापा से बात कर रही है और न मुझ से. एक दिन गुस्से में आ कर वह अपनी भड़ास निकाल गई थी, ‘‘बूआ, आप ने मेरा प्यार, मेरी जिंदगी मुझ से छीन ली. हम सब ने हमेशा आप को इतना प्यारसम्मान और स्नेह दिया, उस का यह सिला दिया आप ने. कल को आप को अपनी मिशिका की ऐसे ही किसी लड़के से शादी करनी पड़ी तब मैं देखूंगी कि कैसे आप जाति और धर्म का भेदभाव कर उस का दिल तोड़ पाती हैं.’’

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उस की आंखों में भरे हुए आंसू और अपने लिए नफरत, आज भी मुझे विचलित कर देते हैं. मुझे इस बात का एहसास बाद में हुआ कि वह उस लड़के के प्यार में इतनी दीवानी है कि उस के बिना किसी और से शादी नहीं करेगी. कभीकभी खुद पर भी बहुत गुस्सा आता है कि मैं ने इस कदर क्यों अपनी इच्छा, अपने विचार भैया पर थोपे, फिर सोचती हूं तो लगता है कि आखिर मैं ने गलत ही क्या किया. वह मेरे अपने थे, अगर अपनों को उन की गलती का एहसास करा दिया तो क्या गलत किया? अंतरा मेरी कोई दुश्मन थोड़े ही थी. खुद भैया को भी पता था कि मैं अंतरा से कितना प्यार करती हूं, पर मुझे उस समय जो सही लगा मैं ने वही किया. अब वही बातें मेरे जेहन में आ रही थीं.

मैकडोनाल्ड की उस मुलाकात ने थोड़े ही समय में दोनों मांओं के बीच एक दोस्ती का सा रिश्ता बना दिया था. अपने- अपने मोबाइल नंबर और अतेपते दे कर हम ने विदा ली थी.

रास्ते भर मैं मिशिका से अपनी इस नई बनी दोस्त की बातें करती रही और वह भी अपनी तरहतरह की बातें मुझे बताती रही. उस के दोस्त की मम्मी के संग मैं आज सारे दिन रही और बोर नहीं हुई, इस से मेरी बेटी बहुत संतुष्ट थी. बोली, ‘‘ममा, आज आप बोर नहीं हुईं. नहीं तो पिछली बार की तरह मुझे सारे रास्ते आप के भाषण सुनने पड़ते. चलो, आगे से जब भी ऐसी कोई पार्टी होगी तो मैं आंटी से कहूंगी कि वह भी आप को कंपनी देने आ जाएं. तब तो ठीक रहेगा न मम्मी. मुझे भी टेंशन नहीं रहेगी कि ममा इतनी देर क्या करेंगी.’’ उस की बात सुन कर मैं मुसकरा पड़ी थी.

घर आने के बाद तरोताजा हो कर मैं बैठी ही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. नंबर देखा तो आज की बनी फें्रड मिसेज सक्सेना का ही था. तुरंत रिसीव किया. ‘‘आप घर पहुंच गईं क्या, मुझे तो आप की बड़ी याद आ रही है. सोच रही हूं कि जल्दी ही किसी रोज गाजियाबाद आ कर आप से मिलूं. आप से मिल कर बातें कर के बहुत अच्छा लगा.’’

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‘‘हां, मैं भी बस, आप के बारे में ही सोच रही थी. कभीकभी किसी से अचानक मिलने पर भी ऐसा नहीं लगता कि हम जिंदगी में पहली बार मिले हैं.’’ मैं ने भी उन की बात का जवाब उन्हीं के अंदाज में दे दिया.

थोड़ी देर तक इसी तरह इधरउधर की बातें होती रहीं. फिर पता नहीं मुझे क्या हुआ कि उन्हें अपने घर अगले सप्ताह होने वाली पार्टी के लिए आमंत्रित कर दिया. मौल में श्रीमती सक्सेना से इसीलिए पार्टी में आने को नहीं कहा था कि जज साहब से पूछ कर कहूंगी पर अब जब उन्होंने यह बताया कि मसूरी से इस रविवार को 5 दिन के लिए पार्थ भी आ रहा है, तो बस, उसे देखने की इच्छा दिल में जाग उठी और बोल बैठी, ‘‘अरे, तो आप सब लोग इस रविवार को हमारे घर आइए न. एक छोटी सी पार्टी रखी है. जज साहब को अच्छा लगेगा.’’

वह भी तुरंत तैयार हो गईं. जैसे आने के लिए बिलकुल तैयार बैठी हों.

शाम को जज साहब कोर्ट से लौटे तो चाय के दौरान मैं ने सबकुछ उन्हें बता दिया और अपने दिल की चाहत भी कह बैठी, ‘‘इतना अच्छा लड़का है. आईएएस है. परिवार भी समझदार और हैसियत वाला है. कायस्थ हैं, क्या ही अच्छा होता कि हमारी तरह वह भी ब्राह्मण होते तो हाथ जोड़ कर उन से मिशिका के लिए उन का पार्थ मांग लेती.’’

मेरे स्वभाव से परिचित जज साहब ने इस बात को जरा भी तूल नहीं दिया. सामान्य भाव से बोले, ‘‘अरे, निशि, जिस रास्ते जाना नहीं, उस बारे में क्या सोचना. जब हम मिशिका के लिए लड़का ढूंढ़ने निकलेंगे तो देखना लड़कों की कोई कमी नहीं आएगी. अभी तो हमारी बेटी का इंजीनियरिंग का ही एक साल बचा है फिर उसे एमबीए भी करना है. अभी कई साल हैं उस की शादी में.’’

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मैं ने भी सोचा कि जज साहब सही तो कह रहे हैं. अपनी जाति में भी लड़कों की कोई कमी थोड़े ही है. अभी ऐसी जल्दी भी क्या है. अंतरा की तरह मिशिका का किसी गैर जाति में अफेयर थोड़े ही है, जो मैं इस विषय में सोचूं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 4

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

सक्सेना साहब ने जज साहब का हाथ अपने हाथों में ले लिया था और भावविह्वल हो कर बोले, ‘‘ऐसीवैसी कोई बात मत कीजिए जज साहब, नहीं तो मैं उठ कर चला जाऊंगा. जिंदगी में सबकुछ मिल जाता है, मगर दोस्ती, अच्छे लोग, अच्छा परिवार बहुत कम लोगों को मिल पाता है और हम लोग उन्हीं में से एक हैं कि हमें आप मिले हैं.’’

‘‘सुन रही हो निशि. तुम जाति- बिरादरी की बातें करती रहती हो, क्या इन से अच्छा तुम्हें मिशिका के लिए कुछ मिल पाएगा. अच्छे लोग, अच्छे रिश्ते, अच्छे परिवार इन सब से बढ़ कर न धर्म है न जाति है और न ही कुछ और. आज मैं ने बिना तुम्हारी इच्छा जाने इस रिश्ते को हां कर दी है क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं सही काम कर रहा हूं और अदालत में आएदिन परिवारों के टूटनेबिखरने के मामले मैं ने सुने और निबटाए हैं, उन में रिश्ते टूटने की वजह यह शायद ही हो कि उन की जाति अलग थी या धर्म.

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मुझे माफ करना निशि, तुम्हारी बेसिरपैर की बातों के लिए मैं इतना अच्छा रिश्ता नहीं ठुकरा सकता. अच्छा लड़का सोच कर ही पार्थ से मिशिका की शादी की बात खुद तुम्हारे दिमाग में आए इस के लिए ही वह मुलाकात करवाई गई और अब यह पार्टी भी रखी गई ताकि इस ड्रामे का सुखद अंत कर दिया जाए.’’

पत्नी को काफी कुछ कह कर अंत में जज साहब ने उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मेरे खयाल से अब तुम्हें भी समझ जाना चाहिए कि तुम्हारी सोच बहुत संकीर्ण थी. वक्त और जमाने से हट कर थी. तुम्हारे भैया तुम्हारी बात सुन कर अपनी बेटी का जीवन बिगाड़ सकते हैं, पर मैं नहीं.’’

सभी अपनीअपनी बात कह चुके थे. मिशिका और पार्थ भी अपनी स्वीकृति दे चुके थे. अब मेरी बारी थी सो मैं ने भी हाथ जोड़ कर इस रिश्ते को अपनी स्वीकृति दे दी. मिसेज सक्सेना ने उठ कर मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बधाई हो निशिजी. सबकुछ कितनी जल्दी हो गया न. अभीअभी तो हम दोस्त बने थे और अभीअभी समधिनें. उन्होंने अपने गले में पहना एक जड़ाऊ हार उतार कर तुरंत मिशिका को पहनाते हुए कहा, ‘‘आज से तुम्हारी एक नहीं, दोदो मांएं हैं.’’

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सबकुछ बहुत अच्छा लग रहा था मगर दिल में कहीं एक डर और चिंता थी, जो मुझे खुल कर खुश नहीं होने दे रही थी. क्या करूंगी, कैसे जाऊंगी भैयाभाभी के सामने. यह सोचसोच कर ही मेरी जान सूखी जा रही थी. सभी थक कर सो गए थे, मगर मेरे मन का डर और अपराधभाव मुझे सोने ही नहीं दे रहा था.

अगली सुबह काफी देर से आंखें खुल पाईं. पता नहीं कितने बजे नींद आई थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो पूरे 10 बज रहे थे. जज साहब के कोर्ट जाने की बात दिमाग में आते ही मैं तेजी से उठी कि भाभी ने चाय के प्याले के साथ कमरे में प्रवेश किया और हंसती हुई बोलीं, ‘‘क्या निशि, इतनी बड़ी खुशखबरी है और तुम सो रही हो अब तक?’’

जिस बात के लिए मैं अब तक इतनी परेशान थी, वह इतनी आसानी से सुलझ जाएगी, मैं ने सोचा भी न था. मुझे तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.

मुझे हैरान देख भाभी बोलीं, ‘‘सुबहसुबह ही ननदोईजी का फोन आ गया और फोन पर उन्होंने जब रिश्ता तय होने की बात बताई तो हम से रहा नहीं गया और आप की खुशी में खुशी मनाने चले आए. अपने जीजाजी को देखने के लिए अंतरा भी बेचैन हो रही है, शाम को वह भी यहीं आएगी. सक्सेना परिवार को भी बुला लिया है, आज का डिनर मामामामी की तरफ से शहर के सब से अच्छे होटल में…’’ भाभी बोले जा रही थीं.

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मैं हैरत में पड़ी भाभी का चेहरा पढ़ने में लगी थी. मगर वहां स्नेह व प्यार के अलावा और कुछ भी नहीं था. मेरे इतना बड़ा दुख देने के बावजूद भाभी का यह व्यवहार…कुछ समझ में नहीं आया तो मैं भाभी से लिपट कर जोरजोर से रो पड़ी.

‘‘भाभी, मैं इस लायक कहां कि आप मुझे इतना प्यार दें. मैं ने आप लोगों को अपनी गलत सोच की वजह से इतना दुख पहुंचाया, मैं तो आप को अपना मुंह भी दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. मैं कितनी बुरी हूं भाभी, कितनी बुरी…’’ मेरा रुदन तेज हुआ जा रहा था और भाभी मेरी पीठ सहलाए जा रही थीं.

‘‘मत रो निशि, मत रो. अब वह भी तुम्हारा हम से अगाध प्रेम ही तो था, वरना किसी को क्या पड़ी है, अच्छा हो या बुरा हो. तुम्हें गलत लगा, इसीलिए तुम ने रोका और हमें तुम्हारी बात सही लगी इसीलिए हम ने उसे मान लिया.’’

‘‘तुम्हारी भाभी बिलकुल सही कह रही हैं निशि. जो हो गया उसे भूल जा, और दिल खोल कर आने वाली खुशियों का इंतजार कर.’’ तभी कमरे में जज साहब के संग भैया आतेआते बोले, ‘‘मेरे मन का बोझ इतनी सहजता से उतर जाएगा, सोचा नहीं था,’’ मैं ने कृतज्ञता से जज साहब को देखा जिन्होंने अपनी समझदारी से इतनी बड़ी खुशी मुझे दे दी थी. उन्होंने मेरी आंखें पढ़ लीं और मुसकरा दिए.

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‘‘मगर अभी तो अंतरा का दुख है मेरे सामने. वह तो बहुत नाराज है अपनी बूआ से. उसे कैसे वापस पा सकूंगी मैं?’’

‘‘अरे, अपने बच्चे छोटेछोटे हैं. ज्यादा देर तक अपने बड़ों से नाराज नहीं रहते. मैं ने उसे समझाया है निशि, उस के मन में तुम्हारे लिए कोई गुस्सा नहीं है.’’ भैया बोले तो साथसाथ भाभी भी बोल पड़ीं, ‘‘और अभी सुबहसुबह ही तो फूफाजी से उस की ढेरों बातें हुई हैं और फूफाजी ने उस से वादा किया है कि अब चाहे उस की बूआ कुछ भी कहें, वह अपनी अंतरा की शादी उसी के संग कराएंगे जिसे वह पसंद करती है. पहले चर्च में अंतरा की उस ईसाई लड़के से शादी होगी, फिर मिशिका की मंडप के नीचे. बच्चे जितनी जल्दी गुस्सा हो जाते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं निशि.’’

भाभी अपनी बात कह चुकीं तो मैं ने खुश हो कर तुरंत कहा, ‘‘और अब सब से पहले तैयार हो कर हम लोग वहां चलेंगे. मुझे भी तो अपने दूसरे दामाद को शाम के डिनर के लिए आमंत्रित करना है. उन से भी तो माफी मांगनी है, इस बुरी बूआ को.’’

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