प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.

गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’

मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.

‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’

‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’

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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.

‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’

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‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’

मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :

‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’

‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’

चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.

मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.

मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.

हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.

आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.

गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.

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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?

मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’

राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’

घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.

‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई.  सभी के  टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.

मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.

उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.

राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.

राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.

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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.

राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.

अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?

मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.

मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.

फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.

मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.

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क्या फर्क पड़ता है- भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा. ‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं. इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया.

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मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या? अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’ ‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’ ‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

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‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था. कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है. ‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’

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मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं. खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं. अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा.

चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं. ‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’ ‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’ ‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’ सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’ ‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’ ‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था. क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था. ‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’ ‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’ मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं?

आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’ ‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’ ‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’ कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये…मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.

‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’ सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है. ‘‘बस, मौसीजी…आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’ ‘‘बैठ, बैठ…हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’ विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ.

शोकसभा – भाग 1

लेखक- मनमोहन भाटिया  

महानगरों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है. हर इनसान अपने में ही व्यस्त है. कुसूर किसी का भी नहीं है, वक्त की कमी सभी को है और हर कोई दूसरे से न मिलने की शिकायत करता है. लेकिन व्यक्ति क्या खुद अपने गिरेबान में झांक कर स्वयं को देखता है कि वह खुद जो शिकायत कर रहा है, स्वयं कितना समय दूसरों के लिए निकाल पाता है.

सुबह आफिस जाने के लिए सुभाष तैयार हो कर नाश्ते की मेज पर बैठे समाचारपत्र की सुर्खियों पर नजर डाल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठा कर उन्होंने जैसे ही हैलो कहा, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘क्या भाषी है?’’

एक अरसे के बाद भाषी शब्द सुन कर उन्हें अच्छा लगा और सोचने लगे कि कौन है भाषी कहने वाला, नजदीकी रिश्तेदार ही उन्हें भाषी कहते थे. तभी दूसरी तरफ की आवाज ने उन की सोच को तोड़ा, ‘‘क्या भाषी है?’’

‘‘हां, मैं भाषी बोल रहा हूं, आप कौन, मैं आवाज पहचान नहीं सका,’’ सुभाष ने प्रश्न किया.

‘‘भाषी, तू ने मुझे नहीं पहचाना, क्या बात करता है, मैं मेशी.’’

‘‘अरे, मेशी, कितने सालों बाद तेरी आवाज सुनाई दी है, कहां है तू. तेरी तो आवाज बिलकुल बदल गई है.’’

‘‘थोड़ा सा जुकाम हो रहा है पर यह बता, तू कहां है, कभी नजर ही नहीं आता.’’

‘‘मेशी, तेरे से मिले तो एक जमाना हो गया. क्या कर रहा है?’’

‘‘तेरे से यह उम्मीद न थी, भाषी. तू तो एकदम बेगाना हो गया है. मैं ने सोचा, कहीं तू विदेश तो नहीं चला गया, लेकिन शुक्र है कि तू बदल गया पर तेरा टैलीफोन नंबर नहीं बदला है.’’

‘‘क्या बात है मेशी, सालों बाद बात हो रही है और तू जलीकटी सुना रहा है.’’

‘‘भाषी, तू हरी के अंतिम संस्कार पर भी नहीं पहुंचा, आज उस की उठावनी है, इसलिए फोन कर रहा हूं, शाम को 3 से 4 बजे का समय है.’’

‘‘क्या बात करता है, हरी का देहांत हो गया. कब, कैसे हुआ, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं.’’

‘‘4 दिन हो गए हैं. आज तो उस की शोकसभा है. आना जरूर.’’

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‘‘कहां आऊं, पता तो बता…आज 10 साल बाद हमारे बीच बात हो रही है. न पता बता कर राजी है, न पहले बताया. बस, गिलेशिकवे कर रहा है,’’ भाषी ने तीखे शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की.

मेशी ने उठावनी कहां होनी है, उस का पता बताया.

सुभाष की पत्नी सारिका रसोई में थी, टिफिन हाथ में ला कर बोली, ‘‘यह लो अपना लंच… नाश्ता यहीं ले कर आऊं या डाइनिंग टेबल पर लगाऊं.’’

‘‘टिफिन से खाना निकाल लो, आज आफिस नहीं जा रहा हूं.’’

‘‘क्यों? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, मेशी का फोन आया था. अभी उसी से बात कर रहा था. हरी का देहांत हो गया है, वहां जाना है.’’

‘‘क्या?’’ सारिका ने हैरानी से पूछा.

‘‘आज शाम को हरी की उठावनी है.’’

‘‘4 दिन हो गए और हमें पता ही नहीं. किसी ने बताया ही नहीं,’’ इस से पहले सारिका कुछ और कहती सुभाष ने कहा, ‘‘रहने दे, हम क्यों अपना दिमाग और समय खराब करें. जब पता चल ही गया है तो हम अभी हरी के घर चलते हैं और शाम को उठावनी में भी चलेेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं भी तैयार हो जाती हूं, फिर साथ चलते हैं.’’

सारिका तैयार होने चली गई तो सुभाष अतीत में गुम हो गया. हरी, भाषी और मेशी तो उन के घर के नाम थे. तीनों ताऊ, चाचा के लड़के थे. बचपन में सब के मकान एकसाथ थे. तीनों की उम्र में 1-2 साल का ही अंतर था. एकसाथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना. तीनों भाई ही नहीं दोस्त भी थे.

हरी यानी बिहारी, मेशी यानी रमेश और भाषी यानी सुभाष. तीनों बड़े हो गए लेकिन बचपन के उन के नाम नहीं गए. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही बिहारी, रमेश, सुभाष हों, लेकिन एकदूसरे के लिए हरी, मेशी और भाषी ही थे.

कालेज की पढ़ाई के बाद हरी ताऊजी की दुकान पर बैठ गया. रमेश चाचाजी की दुकान पर और सुभाष ने नौकरी कर ली, क्योंकि उस के पिताजी का व्यापार नुकसान की वजह से बंद हो चुका था और बहनों की शादी के खर्च के बाद मकान भी बिक गया. सुभाष मांबाप के साथ किराए के मकान में रहने लगा तो वे दूर हो गए फिर भी आपसी नजदीकियां और मेलजोल पहले जैसा ही रहा.

सुभाष की शादी सब से पहले हुई, फिर रमेश की और सब से बाद में बिहारी की. जहां सुभाष की पत्नी सारिका गरीब परिवार की थी वहीं रमेश और बिहारी की शादियां बड़े व्यापारियों की बेटियों के साथ बहुत धूमधाम से हुईं. अमीर घर की बेटियां सारिका से दूरी ही बनाए रखती थीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के रहते कुछ बोल नहीं पाती थीं.

समय बीतता गया. घर के बुजुर्गों के गुजर जाने के बाद रमेश और बिहारी की पत्नियां सेठानी की पदवी पा गईं, उन के सामने सारिका का कोई पद नहीं था, नतीजतन, सुभाष और सारिका का बचपन के लंगोटिया मेशी, हरी का साथ छूट गया.

एक शहर में रहते हुए भी वे अनजाने हो गए. आज के भौतिकवाद में हैसियत सिर्फ रुपएपैसों से तौली जाती है. सुभाष सोचने लगा, शायद 15 साल बीत गए होंगे, मेशी और हरी से मिले हुए. शायद नातेरिश्ते भी सिर्फ पैसा ही देखते हैं. एक छोटी सी नौकरी करते हुए सुभाष बिहारी और रमेश के नजदीक न आ सका. तभी सारिका की आवाज ने सुभाष को अतीत से वर्तमान में ला दिया.

‘‘कब चलना है, मैं तैयार हूं.’’

सुभाष व सारिका बाइक पर बैठ बिहारी (हरी) के मकान की ओर चल पड़े. सुभाष ने रमेश से बिहारी के नए मकान का पता ले लिया था. सुभाष और सारिका जब बिहारी की कोठी के सामने पहुंचे तो उस की भव्यता देख कर हैरान हो गए और उस के सामने उन्हें अपने 2 कमरे के फ्लैट का कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा था. वे हिम्मत कर के अंदर जाने लगे तो बड़े से भव्य गेट पर गार्ड ने उन्हें रोक लिया और विजिटर रजिस्टर पर नामपता लिखवाया फिर इंटरकौम पर पूछ कर इजाजत ली, तब कहीं अंदर जाने दिया.

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अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे जिन्हें सुभाष नहीं जानते थे. उन्हें कोई रिश्तेदार नजर नहीं आया. काफी देर तक वे बैठे रहे. जो लोग मिलने आ रहे थे, उन के डिजिटल कैमरे से फोटो खींच कर एक लड़का अंदर जाता और फिर मिलने की इजाजत ले कर बरामदे में आता और अपने साथ अंदर छोड़ कर आता.

सुभाष ने बैठेबैठे नोट किया कि उस लड़के के पास रिवाल्वर था. अपने भाई के देहांत पर अफसोस करने आए मगर अफसोस का यह सिस्टम उन की समझ से बाहर था कि क्यों आगंतुकों को एकएक कर के अफसोस जाहिर करने के लिए अंदर भेजा जा रहा है. आखिर 1 घंटे बाद सुभाष को अंदर भेजा गया. एक आलीशान कमरे में उस की भाभी डौली सोफे पर अपने 2 भाइयों के साथ बैठी थी. सोफे के दोनों कोनों पर 2 खूंखार विदेशी नस्ल के कुत्तों को देख कर सुभाष और सारिका ठिठक गए और दूर से ही हाथ जोड़ कर सिर झुका कर अफसोस जाहिर किया.

खट्टा-मीठा : भाग 1

साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.

‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’

‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’

रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.

रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.

वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’

बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.

‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.

‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.

‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.

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‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.

वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.

घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’

‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.

‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’

रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.

‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.

बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.

खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.

‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’

रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.

स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.

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रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.

‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’

‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’

Serial Story : सजा – भाग 1

लेखक : विजया वासुदेवा    

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

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‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

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इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

पिताजी : नीला को कब अहसास हुआ, ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए – भाग 1

वीणा समझ नहीं पा रही थीं कि पतिपरमेश्वर हर समय वहशी रवैया क्यों अपनाए रहते हैं. नीला भी पिताजी की डांटडपट से सहमी रहती. समय गुजरता रहा कि एक दिन वे वीणा से अपने को सच्चा पत्नीव्रता जताते नजर आए. और तब नीला को पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी के दर्शन हो गए.

‘‘जब देखो सब ‘सोते’ रहते हैं, यहां किसी को आदत ही नहीं है सुबह उठने की. मैं घूमफिर कर आ गया. नहाधो कर तैयार भी हो गया, पर इन का सोना नहीं छूटता. पता नहीं कब सुधरेंगे ये लोग. उठते क्यों नहीं हो?’’ कहते हुए पिताजी ने छोटे भाई पंकज की चादर खींची. पर उस ने पलट कर चादर ओढ़ ली. हम तीनों बहनें तो पिताजी के चिल्लाने की पहली आवाज से ही हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

सुबह के साढ़े 6 बजे का समय था. रोज की तरह पिताजी के चीखनेचिल्लाने की आवाज ने ही हमारी नींद खोली थी. हालांकि पिताजी के जोरजोर से पूजा करने की आवाज से हम जाग जाते थे, पर साढ़े 5 बजे कौन जागे, यही सोच कर हम सोए रहते.

पिताजी की तो आदत थी साढ़े 4 बजे जागने की. हम अगर 11 बजे तक जागे रहते तो डांट पड़ती थी कि सोते क्यों नहीं हो, तभी तो सुबह उठते नहीं हो. बंद करो टीवी नहीं तो तोड़ दूंगा. पर आज तो मम्मी भी सो रही थीं. हम भी हैरानगी से मम्मी का पलंग देख रहे थे. मम्मी थोड़ा हिलीं तो जरूर थीं, पर उठी नहीं.

पिताजी दूर से ही चिल्लाए, ‘‘तू भी क्या बच्चों के साथ देर रात तक टीवी देखती रही थी? उठती क्यों नहीं है, मुझे नाश्ता दे,’’ कहते हुए पिताजी हमेशा की तरह रसोई के सामने वाले बरामदे में चटाई बिछा कर बैठ गए. सामने भले ही डायनिंग टेबल रखी हुई थी पर पिताजी ने उसे कभी पसंद नहीं किया. वे ऐसे ही आराम से जमीन पर बैठ कर खाना खाना पसंद करते थे. मम्मी भले ही 55 की हो गई थीं पर पिताजी के लिए नाश्ता मम्मी ही बनाती थीं.

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बड़ी भाभी अपने पति के लिए काम कर लें, यही गनीमत थी. वैसे भी उन की रसोई अलग ही थी. पिताजी उन से किसी काम की नहीं कहते थे. पिताजी के 2 बार बोलने पर भी जब मम्मी नहीं उठीं तो मैं तेजी से मम्मी के पास गई, मम्मी को हिलाया, ‘‘मम्मीजी, पिताजी नाश्ता मांग…अरे, मम्मी को तो बहुत तेज बुखार है,’’ मेरी बात सुनते ही विनीता दीदी फौरन रसोई में पिताजी का नाश्ता तैयार करने चली गईं. हम सब को पता है कि पिताजी के खाने, उठनेबैठने, घूमने जाने का समय तय है. अगर नाश्ते का वक्त निकल गया तो लाख मनाते रहेंगे पर वे नाश्ता नहीं करेंगे. उस के बाद दोपहर के खाने के समय ही खाएंगे, भले ही वे बीमार हो जाएं.

विनीता दीदी ने फटाफट परांठे बना कर दूध गरम कर पिताजी को परोस दिया. पिताजी ने नाश्ता करते समय कनखियों से मम्मी को देखा तो, पर बिना कुछ बोले ही नाश्ता कर के उठ गए और अपने कमरे में जा कर एक किताब उठा कर पढ़ने लगे. मम्मी की एक शिकायत भरी नजर उन की तरफ उठी पर वे कुछ बोली नहीं. न ही पिताजी ने कुछ कहा.

मम्मी को बहुत तेज बुखार था. मैं पिताजी को फिर मम्मी का हाल बताने उन के कमरे में गई तो वे बोले, ‘‘नीला, अपनी मां को अंगरेजी गोलियां मत खिलाना, तुलसी का काढ़ा बना कर दे दो, अभी बुखार उतर जाएगा,’’ पर वे उठ कर मम्मी का हाल पूछने नहीं आए.

मुझे पिताजी की यही आदत बुरी लगती है. क्यों वे मम्मी की कद्र नहीं करते? मम्मी सारा दिन घर के कामों में उलझी रहती हैं. पिताजी का हर काम वे खुद करती हैं. अगर पिताजी बीमार पड़ जाएं या उन्हें जरा सा भी सिरदर्द हो तो मम्मी हर 10 मिनट में पिताजी को देखने उन के कमरे मेें जाती हैं. मैं ने अपनी जिंदगी में हमेशा मम्मी को उन की सेवा करते और डांट खाते ही देखा है. मम्मी कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं. अपने बारे में कभी शिकायत भी नहीं करतीं. एक बार मुझे गुस्सा भी आया कि मम्मी, आप पिताजी को पलट कर जवाब क्यों नहीं दे देतीं, तो वे मेरा चेहरा देखने लगी थीं.

‘ऐसे पलट कर पति को जवाब नहीं देना चाहिए. तेरी नानी ने भी कभी नहीं दिया. तेरी ताई और चाची जवाब देती थीं इसलिए कोई भी रिश्तेदार उन्हें पसंद नहीं करता. कोई उन के घर नहीं जाना चाहता.’

मुझे गुस्सा आया, ‘इस से हमें क्या फायदा है? जिस का दिल करता है वही मुंह उठाए यहां चला आता है. जैसे हमारे घर खजाने भरे हों.’

मम्मी हंस पड़ीं, ‘तो हमारे पास कौन से खजाने भरे हैं लुटाने के लिए. कभी देखा है कि मैं ने किसी पर खजाने लुटाए हों. जो है बस, यही सबकुछ है.’

‘पर पिताजी तो किसी के भी सामने आप को डांट देते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता. कितनी बेइज्जती कर देते हैं वे आप की.’

मम्मी ने प्यार से मुझे देखा, ‘तुम लोग करते हो न मुझ से प्यार, क्या यह कम है?’

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

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अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे  समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

Serial Story : रुपहली चमक – भाग 1

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.

मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.

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एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’

सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’

उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.

उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या करोगे?’’

‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’

तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’

मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया.

अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.

सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’

सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’

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मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’

फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.

बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.

बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.

पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.

हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.

कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.

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देखतेदेखते 1 वर्ष बीत गया था. एकाएक ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने खाई में गिराना चाहा हो. हड़बड़ा कर मैं ने देखा, सामने सुकु खड़ी थी. वह मुझे हिलाहिला कर पूछ रही थी, ‘‘विशेष, कहां खो गए?’’

एकाएक मैं अतीत से वर्तमान में आ गया.

‘‘विशेष, तुम्हें पिताजी बुला रहे हैं,’’ मैं सुकु के साथ ही उस के पिता के अध्ययन कक्ष में पहुंचा तो वे बोले, ‘‘बेटा विशेष, मैं ने तुम्हारे लिए बरमिंघम शहर में एक नौकरी का प्रबंध किया है, तुम्हें साक्षात्कार हेतु बुलाया गया है.’’

मैं ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया, ‘‘पर पिताजी, मैं तो अभी आगे पढ़ना चाहता हूं…’’

वे बात काटते हुए बोले, ‘‘बेटे, यहां के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. यहां पर काम मिलना मुश्किल होता जा रहा है. वह तो कहो कि उस फैक्टरी के मालिक मेरे मित्र हैं. अत: तुम्हें बगैर किसी अनुभव के ही काम मिल रहा है. मेरा कहा मानो, तुम बरमिंघम जा कर साक्षात्कार दे ही डालो. रही पढ़ाई की बात, तो बेटे, तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है. पढ़ लेना, जितना चाहो.’’

मुझे उन की बात में तर्क व अनुभव दोनों ही दृष्टिगोचर हुए. अत: मैं उन की बात मानते हुए निश्चित दिन साक्षात्कार हेतु बरमिंघम चला गया.

यह डब्बाबंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी फैक्टरी थी. साक्षात्कार के बाद ही मुझे पता चल गया कि मुझे यहां नौकरी मिल गई है. मैं प्रसन्न मन से लंदन पहुंचा व सब को यह खुशखबरी बता डाली.

सुकु के मातापिता निश्ंिचत हो गए कि दामाद आत्मनिर्भर होने जा रहा है और सुकु इस बात से बड़ी प्रसन्न हुई कि अन्य लड़कियों की भांति वह भी अब अपना अलग घर बनाने व सजाने जा रही है. ससुरजी ने हमारे साथ जा कर किराए के फ्लैट व अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध कर दिया. हम फ्लैट में रहने के लिए भी आ गए. हमें व्यवस्थित होता देख कर मेरे ससुर एक हफ्ते के पश्चात लंदन वापस चले गए.

हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु घर को सजाने की नवीन योजनाएं बनाने लगी. पर उन योजनाओं में मां बनने की योजना भी सम्मिलित रही, यह मुझे बाद में पता चला. 9 माह के पश्चात मैं एक फूल सी कोमल व अत्यंत सुंदर बच्ची का पिता बन गया.

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सुकु की मां 2 माह पूर्व ही सब संभालने आ गई थीं. इधर मैं ने भी कार चलाना सीखना आरंभ किया हुआ था. आशा थी कि ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त होते ही कोई बढि़या हालत की पुरानी कार खरीद लूंगा. पर बच्ची के आ जाने से खर्चे कुछ ऐसे बढ़े कि मुझे कार खरीदने की बात को फिलहाल कुछ समय तक भूल जाना पड़ा. बच्ची का नाम हम ने अनुप्रिया रखा था.

समय अपनी गति से बीतता जा रहा था. अनुप्रिया के प्रथम जन्मदिन पर मैं ने ढाई हजार पौंड की एक पुरानी कार खरीद ली थी. 2-3 माह बाद ही एक दिन सुकु ने अपने दोबारा गर्भवती होने की सूचना मुझे दी तो मैं अचंभित रह गया. परंतु सुकु ने समझाया, ‘‘देखो, यदि परिवार जल्दी ही पूर्ण हो जाए तो बुराई क्या है? 2 बच्चे हो जाएं तो मैं भी जल्दी मुक्त हो जाऊंगी व नौकरी कर सकूंगी.’’

मैं पुन: अपने कार्यों में व्यस्त हो गया. कहना आवश्यक न होगा कि मुझे घर के सभी कार्यों में सुकु की सहायता अंगरेज पतियों की भांति करनी पड़ती थी. यहां तक तो ठीक था, पर मुझे एक बात बहुत खलती थी और वह थी सुकु की तेज जबान व दबंग स्वभाव. मुझ से दबने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इस के विपरीत वह मुझ पर पूर्ण रूप से हावी हो जाना चाहती थी. यहां पर मैं समझौता करने को तैयार न था. फलस्वरूप घर में झगड़े होते रहते थे.

Serial Story : भोर की एक नई किरण – भाग 1

देहरादून एक्सप्रेस अपनी पूरी रफ्तार से भागी जा रही थी. कितु इस से भी तेज भाग रहा था, श्रीकांत का मन. भागती ट्रेन के शोर से भी अधिक स्वाति के पत्र के शब्द उन के दिमाग पर हथौडे़ बरसा रहे थे और चोट से बचने के लिए उन्होंने अपना चेहरा खिड़की से सटा लिया और प्रकृति के विस्तार में अपनी आंखें गडा़ दीं. कितु दूरदूर तक फैले हुए खेतखलिहान और भागते हुए वृक्ष भी उन के मन को न बांध सके. मन बारबार वर्तमान से अतीत की ओर भाग रहा था.

उन की बहन स्वाति ने मनोविज्ञान में एम.ए- किया था. उस का इरादा पीएच.डी- करने का था. वह शुरू से ही पढ़ने में बेहद तेज थी. मेहनत एवं लगन की उस में कमी नहीं थी. लेक्चरर बन कर अपना एक अलग स्थान बनाने के लिए वह जीजान से जुटी हुई थी. लेकिन स्वाति कहां जानती थी कि कभीकभी एक छोटा सा अनुरोध भी जीवन को नया मोड़ दे देता है.

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मनीष ने उसे एक विवाह समारोह में देखा था और वहीं उसे उस ने पसंद कर लिया. उस की ओर से जब विवाह का प्रस्ताव आया तो स्वाति ने तुरंत इनकार कर दिया. विवाह के लिए वह अपने कैरियर को दांव पर नहीं लगा सकती थी. विवाह तो बाद में भी किया जा सकता था. उस के भाई श्रीकांत जो मित्र और पथप्रदर्शक भी थे, उन की भी यही इच्छा थी कि पहले कैरियर फिर विवाह.घ्भाभी सुधा ने दोनों को समझाया था कि जीवन में ऐसे मौके बारबार नहीं आते, स्वाति ऐसे मौकों की कभी अवहेलना मत करो.

स्वाति ने प्रतिरोध करते हुए कहा, ‘भाभी, तुम भलीभांति जानती हो कि मैं ने वर्षों से एक ही सपना देखा है कि मैं जीवन में कुछ बनूं और तुम लोग मेरा यह स्वप्न तोड़ देना चाहते हो.’

बहुत सोचने के बाद श्रीकांत को सुधा की बात अधिक उचित जान पडी़. उन्होंने सुझाया, ‘क्यों न ऐसा रास्ता अपनाया जाए जिस से लड़का भी हाथ से न जाए और स्वाति की इच्छा भी रह जाए. मनीष से पत्रव्यवहार कर के यह स्पष्ट कर लेते हैं कि उसे विवाह के बाद स्वाति के पीएच-डी- करने पर कोई आपत्ति तो नहीं.’

इस के बाद श्रीकांत और मनीष के बीच पत्रव्यवहार हुआ, जिस से पता चला कि मनीष को इस पर कोई आपत्ति न थी. तब खुशीखुशी स्वाति और मनीष का विवाह हो गया.घ्स्वाति को विदा करते हुए जहां श्रीकांत को उस के दूर चले जाने का गम था, वहीं यह संतोष भी था कि उन्होंने बहन के प्रति कर्तव्यों को पूरा कर के मां को दिया हुआ वचन निभाया है. इस के लिए वह सुधा के भी आभारी थे, जिस ने भाभी के रूप में स्वाति को मां जैसा स्नेह दिया था.

विवाह के बाद स्वाति जब पहली बार मनीष के साथ मायके आई तो श्रीकांत को उस की खुशी देख कर सुखद अनुभूति हुई. समय का पंछी आगे उड़ता रहा और देखतेदेखते 6 वर्ष बीत गए. इस बीच स्वाति 2 बच्चों की मां भी बन गई. शादी के बाद जब कभी श्रीकांत और सुधा ने उस से पीएच-डी- पूरी करने के विषय में पूछा तो वह हंस कर टाल गई. श्रीकांत समझते, स्वाति अपने विवाहित जीवन के सुख में इतना खो गई है कि अब वह पीएच-डी- करने की बात भूल बैठी है. उन का स्वाति के बारे में यह भ्रम न जाने कब तक बना रहता, यदि अचानक उन्हें उस का भेजा पत्र न मिलता. पत्र देखते ही वह स्वाति से मिलने केघ्लिए चल पडे़ थे.घ्अचानक टेªन का झटका लगा और श्रीकांत अतीत से वर्तमान में लौट आए.

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उन्होंने जेब से पत्र निकाला और फिर एक बार उन की नजरें इन पंक्तियों पर अटक गईं:

फ्पिछले 6 सालों से अपने ही घर में अपने वजूद को तलाश करतेकरते थक चुकी हूं. इस से पहले कि पूरी तरह टूट कर बिखर जाऊं, मुझे यहां से ले जाओ.

पत्र पढ़ते ही श्रीकांत बेचैन हो उठे. उन का शेष सफर बहुत कठिनाई से बीता.

बडौ़दा स्टेशन पर उतरते ही उन्होंने टैक्सी पकडी़ और स्वाति के घर जा पहुंचे. बडे़ भाई को देखते ही स्वाति उन से लिपट गई और सुबकने लगी. मनीष आश्चर्यचकित हो कर बोला, फ्अरे, भैया आप आने की खबर कर देते तो मैं स्टेशन पहुंच जाता, कहते हुए उस ने श्रीकांत के पैर छुए.

फ्अचानक आफिस का कुछ विशेष काम निकल आया. इसलिए खबर देने का समय ही नहीं मिला.

फ्चलो, अच्छा हुआ. इसी बहाने आप आए तो, स्वाति के ससुर ने श्रीकांत को सोफे पर बैठाते हुए कहा.

फ्पायल कहां है? श्रीकांत ने चारों तरफ निगाहें दौडा़ते हुए पूछा.

फ्पायल स्कूल गई है, स्वाति बोली और बेटे सनी को अपने भाई की गोद में दे कर चाय का प्रबंध करने चली गई.

दोपहर में श्रीकांत जब आराम करने के लिए स्वाति के कमरे में आए तो स्नेहपूर्वक उसे पास बैठाते हुए बोले, फ्तुझे किस बात का दुख है, स्वाति?

भाई का स्नेहिल स्पर्श पाते ही स्वाति फफक पडी़, फ्मुझे यहां से ले चलो भैया वरना मैं मर जाऊंगी, और उस के बाद स्वाति ने धीरेधीरे श्रीकांत को सब बता दिया.

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Short Story : हथेली पर आत्मसम्मान

‘‘सो म, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

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‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर %A

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 1

श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

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‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

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कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

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