अनकहा प्यार- भाग 2: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

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‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

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सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी

से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार

का इजहार.

प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

जरूरी हैं दूरियां पास आने के लिए- भाग 3: क्यों मिशिका को भूलना चाहता था विहान

लेखिका- डा. मंजरी अमित चतुर्वेदी

‘‘जानती हो, जब हम साथ पढ़ाई करते थे तब भी मैं टौपिक समझ न आने के बहाने से देर तक बैठा रहता. तुम मुझे बारबार समझतीं. पर, मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में. जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान…’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो मुझे और मेरे दिल की आवाज को. याद है मिशी, जब हम 12वीं में थे, तुम मुझ से कहतीं, ‘क्यों विहान, गर्लफ्रैंड नहीं बनाई, मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं?’ मैं पूछता कि तुम्हारा भी है तो तुम हंस देतीं, ‘हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है एमबीए की, फिर मस्त जौब. पर विहान,  तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए’ इतना  कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें  झकझर कर कहूं कि तुम हो तो, पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर  जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता, वह देने वाला मैं ही था. बचपन में जब तुम को तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पैंसिल बौक्स में मिली, तुम बेहद खुश हुई थीं. अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘विहान, पता नहीं कौन है, मौम, डैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा यह सरप्राइज गिफ्ट  मिले.’ तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,’’ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं यह करता गया. पहले पैंसिल बौक्स था, फिर बैग, फिर तुम्हारा पर्स और अब कूरियर.’’

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई. वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर कभी यह नहीं सोचा कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

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रात गहरा चुकी थी. चांद स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छिपे प्रेम की परतें खोल  रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है. मैं ने बहुत हिम्मत कर अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था. मैं ने धड़कते दिल से तुम से कहा, दिखाऊं फोटो, तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हारा रिऐक्शन देख, मैं ठगा सा रह गया. मुझे लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला. पगली से प्यार कर बैठा,’’ इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?’’

‘‘हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा तो मैं ने कहा, ‘वाओ, कब लिया यह फोटो, बहुत प्यारा है, सैंड करो’ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.’’

‘‘जी, मैडमजी, मैं तुम्हारी लाइफ में  इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाईं. ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थीं, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नहीं,’’ विहान कहता जा रहा था. मिशी जोर से अपनी मुट्ठियां भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान न जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झकाए सुनती रही. मिशी का गला रुंध गया, ‘‘विहान, इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है. और तब तो बिलकुल नहीं जब उसे कोई समझने वाला ही न हो. कितना कुछ दबा रखा है तुम ने. मेरे साथ की छोटी से छोटी बात कितनी शिद्दत से सहेज कर रखी है तुम ने.’’

‘‘अरे, पागल रोते नहीं. और यह किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थीं. मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा. इसलिए प्यार का एहसास कहीं गुम हो गया था. और इस हकीकत को सामने लाने के लिए मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया. कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी सदा जरूर पहुंचेगी. नहीं तो, मुझे आगे बढ़ना होगा तुम को छोड़ कर.’’

‘‘मैं कितनी मतलबी थी.’’

‘‘न बाबा, तुम बहुत प्यारी तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. वह धीरे से विहान के कंधों पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया. वह एकदम उठ खड़ी हुई.

‘‘क्या हुआ, मिशी?’’

‘‘यह सब गलत है.’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…’’

‘‘मैं और पूजा….’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

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‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी, मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया. सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और, उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. मांपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी. फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी. किसी को कोई प्रौब्लम नहीं है. अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का.’’

इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. अब न कोई शिकायत बची थी, न सवाल.

‘‘बोलो मिशी, मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,’’ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,’’ मिशी ने नजरें झका कर भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था जब मैं 10 महीने बाद  तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर, झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती,’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा जी, मैं इतनी बकबक करती हूं,’’ मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हांजी, पर न तुम झगड़ीं, न कुछ बोलीं, बस देखती रहीं मुझे. ख्वाब बुनती रहीं. उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, यह वही है, मेरी मिशी, सिर्फ मेरी मिशी,’’ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ कस कर थाम लिया हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए. जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ कभी जुदा न होने के लिए. आसमां, चांदतारे, चांदनी और लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे.

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,  ‘मेरे हमसफर… मेरे हमसफर… हमें साथ चलना है उम्र भर…’

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आखिरी मुलाकात- भाग 2: क्यों सुमेधा ने समीर से शादी नहीं की?

Writer- Shivi Goswami

मैं उस का चेहरा देखे जा रहा था. वह मेरा बहुत अच्छा दोस्त बन गया था. शायद अब वह मेरे दिल की बात भी पढ़ने लगा था.

‘देखो, मैं ने जानबूझ कर हां बोला है और मैं कोई बहाना बना कर कल नहीं आऊंगा. तुम दोनों मूवी देखने अकेले जाना. इस से तुम्हें एकसाथ वक्त बिताने का मौका मिलेगा और अपने दिल की बात कहने का भी.’

‘लेकिन…’

‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, तुम्हें अपने दिल की बात कल उस से कहनी ही होगी. वह आ कर तो यह बात बोलेगी नहीं.’

मैं ने नीलेश को गले लगा लिया,

‘धन्यवाद नीलेश…’

‘ओह रहने दे, तेरी शादी में भांगड़ा करना है बस इसलिए ऐसा कर रहा हूं,’ यह कह कर नीलेश हंसने लगा.

आज रविवार था और नीलेश का प्लान कामयाब हो चुका था. उस ने सुमेधा को फोन कर के कह दिया था कि उस की मौसी बिना बताए उस को सरप्राइज देने के लिए पूना से यहां उस से मिलने आई हैं. इसलिए वह मूवी देखने नहीं आ सकता. लेकिन हम उस की वजह से अपना प्लान और मूड खराब न करें. इस से उस को अच्छा नहीं लगेगा.

सुमेधा मान गई और न मानने का तो कोई सवाल ही नहीं था. मैं मन ही मन नीलेश के दिमाग की दाद दे रहा था.

मौल के बाहर मैं सुमेधा का इंतजार कर रहा था. सुमेधा जैसे ही औटो से उतरी मैं ने उस को देख लिया था. सफेद सूट में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. मैं उस को बस देखे जा रहा था. उस ने मेरी तरफ आ कर मुझ से हाथ मिलाया और कहा, ‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा?

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‘नहीं, मैं बस 20 मिनट पहले आया था,’

मैं ने उस की तरफ देखते हुए कहा.

‘ओह, आई एम सौरी. ट्रैफिक बहुत है आज, रविवार है न इसलिए,’ उस ने हंसते हुए कहा.

हम दोनों ने मूवी साथ देखी. लेकिन मूवी बस वह देख रही थी. मेरा ध्यान मूवी पर कम और उस पर ज्यादा था.

मूवी के बाद हम दोनों वहीं मौल के एक रेस्तरां में बैठ गए. सुमेधा मूवी के बारे में ही बात कर रही थी.

‘मुझे तुम से कुछ कहना है सुमेधा,’ मैं ने सुमेधा की बात बीच में ही काटते हुए कहा.

‘हां, बोलो समीर…,’ सुमेधा ने कहा.

‘देखो, मैं ने सुना है कि लड़कियों का सिक्स सैंस लड़कों से कुछ ज्यादा होता है, लेकिन फिर भी मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. अगर तुम को मेरी बात पसंद न आए तो तुम मुझ से साफसाफ बोल देना. और हां, इस से हमारी दोस्ती में कोई फर्क नहीं आना चाहिए.’

‘लेकिन बात क्या है, बोलो तो पहले,’ सुमेधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

‘मुझे डर था कि कहीं अपने दिल की बात बोल कर मैं अपने प्यार और दोस्ती दोनों को ही न खो दूं. फिर नीलेश की बात याद आई कि कम से कम एक बार बोलना जरूरी है, जिस से सचाई का पता चल सके. मैं ने सुमेधा की तरफ देखते हुए अपनी पूरी हिम्मत जुटाते हुए कहा, ‘आई…आई लव यू सुमेधा. तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो.’

मेरी बात सुन कर सुमेधा एकदम अवाक रह गई. उस के चेहरे के भाव एकदम बदल गए.

‘सुमेधा, कुछ तो बोलो… देखो, अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं माफी चाहूंगा. जो मेरे मन में था और जो मैं तुम्हारे लिए महसूस करता हूं वह मैं ने तुम से कह दिया और यकीन मानो आज तक यह बात न तो मैं ने कभी किसी से कही है और न ही कहने का दिल किया कभी.’

सुमेधा मुझे देखे जा रही थी और मेरी घबराहट उस की नजरों को देख कर बढ़ती जा रही थी. वह धीमी आवाज में बोली, ‘मैं तुम से नाराज हूं…’

मैं उस की तरफ एकटक देखे जा रहा था.

‘मैं तुम से नाराज हूं इसलिए क्योंकि तुम ने यह बात कहने में इतना समय लगा दिया और मुझे लगता था कि मुझे ही प्रपोज करना पड़ेगा.’

उस की बात को सुन कर मुझे लगा कि कहीं मेरे कानों ने कुछ गलत तो नहीं सुन लिया था. कहीं यह सपना तो नहीं? लेकिन वह कोई सपना नहीं हकीकत थी.

मैं ने लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘तुम ने मुझे डरा दिया था सुमेधा. मुझे लगा कहीं प्यार की बात बोल कर मैं अपनी दोस्ती न खो दूं.’

‘अच्छा… और अगर न बताते तो शायद अपने प्यार को खो देते,’ सुमेधा ने कहा.

उस दिन से ज्यादा खुश शायद मैं पहले कभी नहीं हुआ था. जब एम.ए. में फर्स्ट क्लास आया था तब भी और जब नौकरी मिली थी तब भी. एक अजीब सी खुशी थी उस दिन.

सुमेधा और मैं घंटों मोबाइल पर बात किया करते थे और मौका मिलते ही एकदूसरे के साथ वक्त बिताते थे.

उस दिन के बाद एक दिन सुमेधा ने मुझे बहुत खूबसूरत सा हार दिखाते हुए बाजार में कहा, ‘देखो समीर, कितना प्यारा लग रहा है.’

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मैं ने कहा, ‘तुम से ज्यादा नहीं.’

वह बोली, ‘जनाब, यह मेरी खूबसूरती को और बढ़ा सकता है.’

उस वक्त मन तो था कि मैं उस को वह हार दिलवा कर उस की खूबसूरती में चार चांद लगा दूं, लेकिन मेरी सैलरी इतनी नहीं थी कि उस को वह हार दिलवा सकता.

सुमेधा समझ गई थी. उस ने मेरी तरफ देखते हुए कहा, ‘इतना भी खूबसूरत नहीं है कि इस हार की इतनी कीमत दी जाए. लगता है अपने शोरूम के पैसे भी जोड़ दिए हैं. चलो समीर चाय पीते हैं.’

मुझे सुमेधा की वह बात अच्छी लगी. वह खूबसूरत तो थी ही, समझदार भी थी.

वक्त बीतता गया. सुमेधा चाहती थी कि मैं शादी से पहले अपने पैरों पर अच्छे से खड़ा हो जाऊं ताकि शादी के बाद बढ़ती हुई जिम्मेदारियों से कोई परेशानी न आए. बात भी सही थी. अभी मेरी सैलरी इतनी नहीं थी कि मैं शादी जैसी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभा सकूं.

हमारे प्यार को 1 साल से ज्यादा हो गया था. वक्त कैसे बीत गया पता ही नहीं चला.

आज सुमेधा औफिस नहीं आई थी. मैं ने सुमेधा को फोन किया, लेकिन पूरी रिंग जाने के बाद भी उस ने मोबाइल नहीं उठाया.

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हो सकता है वह व्यस्त हो किसी काम में. क्या हुआ होगा, जो सुमेधा ने मुझे नहीं बताया कि आज वह छुट्टी पर है. पूरा दिन बीत गया लेकिन सुमेधा का कोई फोन नहीं आया. मुझे बहुत अजीब लग रहा था. क्या आज वह इतनी व्यस्त है कि एक बार भी फोन या मैसेज करना जरूरी नहीं समझा?

मन का मीत- भाग 3: कैसे हर्ष के मोहपाश में बंधती गई तान्या

मुझे हर्ष से यह उम्मीद नहीं थी, पर उस के मुंह से सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा और मन को अजीब सी शांति मिली. मुझे लगा समीर के लिए तो मैं टेकन फौर ग्रांटेड थी. उस ने मुझे कभी मिस किया हो उस की बातों से कभी मुझे प्रतीत नहीं हुआ. खैर, 2 महीने बाद मैं ने औफिस जाना शुरू किया. मेरी सास घर में रहती थीं और डे टाइम के लिए एक आया भी थी. इसलिए मैं आदि को उन के पास छोड़ कर औफिस जाने लगी. पर हर्ष से सीधे कोई बात नहीं होती थी, बस फोन पर मैसेज आदानप्रदान हो रहे थे और एकदूसरे को देखना होता था. लंच में मैं थोड़ी देर के लिए घर आ जाती थी बेटे आदि के पास. मेरा मन हर्ष से बात करने को तैयार था पर मेरे लिए बेटे को भी देखना जरूरी था.

एक बार औफिशियल मीटिंग में हम दोनों बगल में बैठे थे. उस ने धीरे से मेरे कान में कहा, ‘‘मुझ से बात करने से कतराती हो क्या?’’

मैं ने सिर्फ न में सिर हिला दिया. फिर बोला, ‘‘कभी शाम को साथ कौफी पीते हैं.’’

‘‘बाद में बात करते हैं,’’ मैं ने कहा.

मैं उस से मिल सकती हूं, मुझे भी अच्छा लगेगा, पर वह मुझ से क्या चाहता है या मुझ में क्या ढूंढ़ रहा है मैं समझ नहीं पा रही हूं.

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एक बार कंपनी को बड़ा और्डर मिलने की खुशी में पार्टी थी, सिर्फ औफिस के लोगों के लिए. इत्तफाक से उस दिन भी मैं और हर्ष एक ही टेबल पर बैठे थे.

उस ने कहा, ‘‘शुक्र है आज तुम्हारे साथ बैठ कर बातें करने का मौका मिल गया. बहुत अच्छा लग रहा है तुम्हारा सामीप्य.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है तुम से मिलना, पर क्यों मैं नहीं जानती… बस इट

हैपंस सो. पर तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’ मैं ने पूछा. ‘‘बस वही जो तुम्हें मिलता है यानी खुशी,’’ कह कर उस ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

उस का स्पर्श अच्छा लगा. उस दिन हम दोनों के लिए और सरप्राइज था. चिट ड्रा द्वारा मुझे हर्ष के साथ फ्लोर पर डांस करना था. हम दोनों ने कुछ देर एकसाथ डांस किया. मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं. मुझे ‘माई हार्ट इज बीटिंग…’ गाना याद आ गया.

डांस के बाद टेबल पर बैठते हुए उस ने बताया कि उस का एच 1 बी वीजा मंजूर हो गया है. मैं ने उसे हाथ मिला कर बधाई दी.

वह बोला, ‘‘मुझे इंडिया जाना होगा, पासपोर्ट पर वीजा स्टैंप के लिए, पर आजकल डर लगता है स्टैंपिंग में भी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पहले तो यह एक औपचारिकता थी पर आजकल नए प्रशासन में सुना है

कि कौंसुलेट इंटरव्यू होता है. ये लोग अनावश्यक पूछताछ और अमेरिका से क्लीयरैंस आदि लेने में काफी वक्त लगा देते हैं.’’

‘‘कब जा रहे हो?’’

‘‘नैक्स्ट वीक जाऊंगा. तुम्हें बहुत मिस करूंगा. क्या तुम भी मुझे मिस करोगी?’’

‘‘हां भी नहीं भी,’’ कह कर मैं टाल गई और आगे बोली, ‘‘पर क्या तुम मेरे पापा से बात कर सकते हो… मैं उन का फोन नंबर दे देती हूं.’’

‘‘अगर थोड़ा संकोच करोगी तब मैं यही समझूंगा कि तुम्हारी नजर में मैं अजनबी हूं. फोन क्या बोकारो से रांची तो बस 120 किलोमीटर है. मैं खुद भी जा सकता हूं.’’

हर्ष इंडिया चला गया. मैं हमेशा उस के खाली कैबिन की ओर बारबार देखती और उस के लौटने की प्रतीक्षा करती.

हर्ष से इंडिया में फोन पर या कभी वीडियो चैटिंग होती थी. वह परेशान था. उस के वीजा स्टैंपिंग पर कौंसुलेट काफी समय लगा रहा था. हर्ष लगभग 2 महीने बाद अमेरिका आया. तब तक मैं ने दूसरी कंपनी में जौइन कर ली थी.

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उस ने फोन पर कहा, ‘‘मुझे तुम से मिलना होगा. तुम्हारे पापा बोकारो आए थे. तुम्हारे मम्मीपापा ने तुम लोगों के लिए कुछ सामान भेजा है.’’

हम दोनों शाम को एक कौफी कैफे में मिले. वह बोला, ‘‘तुम ने जौब मुझ से पीछा छुड़ाने के लिए चेंज की है न?’’

मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे बारे में ऐसा सोचोगे तो मुझे दुख होगा. यह कंपनी मेरे घर के बहुत पास है. इस से मैं बेटे आदि के लिए कुछ समय दे पा रही हूं.’’

सच तो यही था कि मैं भी उसे मिस कर रही थी पर मुझे तो मां का फर्ज भी निभाना था.

एक शाम मैं हर्ष से मिली तो वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर नम आंखों से बोला, ‘‘मेरा औफिस में मन नहीं लग रहा है. आंखें तुम्हारे कैबिन की ओर बारबार देखती हैं. तुम

जब थीं तुम्हें देखने मात्र से एक अजीब सा सुकून मिलता था. अब मन करता है वापस इंडिया चला जाऊं.’’

‘‘ऐसी बेवकूफी मत करना. इतनी कठिनाई के बाद तो वीजा मिला है. कम से कम 6 साल तो पूरे कर लो. शायद इस बीच कंपनी तुम्हारा ग्रीन कार्ड स्पौंसर कर दे.’’

‘‘इस की उम्मीद बहुत कम है, खासकर भारतीय कंपनियां तो हमारी मजबूरी का फायदा उठाती हैं.’’

2-3 सप्ताह में 1 बार उस से समय निकाल कर मिल लेती थी. कुछ दिन बाद मेरी कंपनी में भी ओपनिंग थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम यहां आना चाहोगे? अगर वास्तव में रुचि हो तो बताना.

मैं रैफर कर दूंगी. तुम तो जानते हो बिना रैफर के यहां जौब नहीं मिलती और फिर रैफर करने वाले यानी मुझे भी 2-3 हजार डौलर इनाम मिल जाएगा.’’

1 महीने के नोटिस के बाद अब हर्ष मेरी कंपनी में आ गया. हमारे कैबिन आमनेसामने तो नहीं थे, फिर भी हम दोनों एकदूसरे को आसानी से देख सकते थे.

एक दिन जब शाम को दोनों मिले तो उस ने कहा, ‘‘तुम से मिल कर क्यों इतना अच्छा लगता है? मेरा बस चले तो तुम्हें देखता ही रहूं.’’

‘‘एक बात पूछूं? सचसच बताना. अब तो तुम सैटल हो. अपने लिए कोई अच्छी लड़की खोज कर शादी क्यों नहीं कर लेते हो?’’

‘‘अपनी ट्रू कौपी खोज कर लाओ. मैं शादी कर लूंगा.’’

‘‘मुझ में ऐसी क्या बात है?’’

‘‘सच बोलूं मैं ने क्या देखा है तुम में…

तो सुनो, बड़े कमल की पंखुडि़यों के नीचे कालीकाली नशीली आंखें, बारीकी से तराशी गई पतली और लंबी भौंहें, नाक में चमकती हीरे की कनी और गुलाबीरसीले होंठ और जब मुसकराती तो गोरेगोरे गालों में पड़ते डिंपल्स और…’’

‘‘बस करो. तुम जानते हो मैं एक पत्नी ही नहीं एक मां भी हूं. ज्यादा फ्लर्ट करने से भी तुम्हें कुछ मिलने से रहा.’’

‘‘मैं ने कब कहा है कि तुम पत्नी और मां नहीं हो. मैं तो बस तुम्हें देख कर अपना मन खुश कर लेता हूं.’’

उस की बातें मेरे दिल को स्पंदित कर रही थीं. मैं शरमा कर बोली, ‘‘मुझ से बेहतर यहीं सैकड़ों मिल जाएंगी.’’

‘‘मैं ने कहा न कि तुम्हारी ट्रू कौपी चाहिए. तुम से अच्छी भी नहीं चाहिए.’’

‘‘सच कहूं तो जब तक तुम शादी नहीं कर लेते मेरा मन तुम्हारे लिए भटकता रहेगा और तुम भी मृगतृष्णा में भटकते फिरोगे. मैं ऐसा नहीं चाहती.’’

‘‘ठीक है, मुझे कुछ समय दो सोचने का.’’

मैं ने सोचा हर्ष सोचे या न सोचे, मैं ने सोच लिया है. हर्ष से मिलना, बातें करना मुझे भी अच्छा लगता है पर अपनी खुशी के लिए मैं उसे अब और नहीं भटकने दूंगी.

2 सप्ताह के बाद मैं फिर हर्ष से मिली. उस का हाथ अपने हाथ में ले कर मैं ने कहा, ‘‘शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

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‘‘मेरी शादी से तुम्हें क्या मिलेगा? मुझे तो बस तुम से मिल कर ही काफी खुशी होती है.’’

‘‘मिल कर मैं भी खुश होती हूं. तुम मेरे दिल में हमेशा रहोगे, भरोसा दिलाती हूं मेरा कहा मान लो और जल्दी शादी कर लो.’’

थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच एक खामोशी पसर गई. वह उदास लग रहा था. उदास तो अंदर से मैं भी रहूंगी उस से दूर हो कर, पर जिस रिश्ते की कोई मंजिल न हो उसे कब तक ढोया जा सकता है.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘यकीन करो, तुम मेरी यादों में रहोगे. मैं तुम से मिलती भी रहूंगी, पर इस तरह नहीं, अपनी बीवी के साथ मिलना. हां, पर कहीं ऐसा न होने देना कि उस समय भी तुम्हारी नजरें मुझ में कुछ ढूंढ़ने लगें. हम मिलेंगे, बातें करेंगे बस मैं इतने से ही संतुष्ट हो जाऊंगी और तुम से भी यही आशा करूंगी. हम अपने रिश्ते का गलत अर्थ निकालने का मौका किसी को नहीं देंगे.’’

‘‘एक शर्त पर? एक बार जी भर के गले मिल लूं तुम से,’’ उस ने कहा और फिर अपनी दोनों बांहें फैला दीं. मैं बिना संकोच उस की बांहों में सिमट गई.

उस ने कहा, ‘‘मैं इस पल को सदा याद रखूंगा. और अगर मैं तुम्हें अपनी गिरफ्त से आजाद न करूं तो?’’

‘‘और यदि मुझे आदि बुला रहा हो तो?’’

हर्ष ने तुरंत अपनी पकड़ ढीली कर दी. मैं उस से अलग हो गई. फिर मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं. हर्ष मेरी बांहों में था. मैं ने कहा, ‘‘मैं भी इस पल को नहीं भूल सकती.’’

मैं ने दिल से कामना की कि हर्ष की पत्नी उसे इतना प्यार दे कि उसे मेरे कैबिन की ओर देखने की जरूरत न पड़े. मैं ने भी अपने मन को समझा लिया था कि अब हर्ष को सिर्फ यादों में ही रखना है.

अचानक डोरबैल की आवाज सुन कर मैं चौंक उठी और खयालों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. दरवाजा खोला तो सामने नरेश खड़ा था. मैं ने उसे अंदर आने को कहा.

नरेश ने निम्मो से कहा, ‘‘जल्दी चलो, मैं वकील से टाइम ले कर आया हूं. हमारे तलाक के पेपर तैयार हैं. चल कर साइन कर दो.’’

मैं यह सुन कर अवाक रह गई. मैं ने डांटते हुए कहा, ‘‘नरेश, क्या छोटीछोटी बातों को तूल दे कर तलाक लिया जाता है?’’

‘‘तुम्हारी सहेली ने ही तलाक लेने को कहा था.’’

तभी निम्मो रोती हुई बोली, ‘‘मैं ने तो बस मजाक में कह दिया था.’’

‘‘तो मैं ने भी कहां सीरियसली कहा है… चलो घर चलते हैं,’’ नरेश बोला.

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निम्मो दौड़ कर नरेश से लिपट गई. दोनों अपने घर चले गए.

कुछ देर बाद समीर आया. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारे बेटे का ऐडमिशन तुम जिस स्कूल में चाहती थी, हो गया है.’’

मैं ने मन में सोचा कि क्या बेटा सिर्फ मेरा ही है. हमारा बेटा भी तो कह सकता था समीर. वह स्कूल इस शहर का सर्वोत्तम स्कूल था. मारे खुशी के मैं दौड़ कर समीर से जा लिपटी. पर उस की प्रतिक्रिया में वही पुरानी उदासीनता थी. मैं ने व्यर्थ ही कुछ देर तक इंतजार किया कि शायद वह भी मुझे आगोश में लेगा.

फिर मैं भी सहज हो कर धीरे से उस से अलग हुई और वापस अपनी दुनिया में आ गई कि समीर से इस से ज्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए मुझे.मन का मीत- भाग 1: कैसे हर्ष के मोहपाश मेंबंधती गई तान्या

अब मैं समझ गई हूं- भाग 2: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

जब मैं ने उन्हें अपने पड़ोसी की याद दिलाई तो वे बोलीं, ‘‘अच्छा, वह गुप्ता परिवार की बात कर रहे हो. तुम उन की बड़ी बेटी को… मैं ने देखा है क्या… उस के परिवार वाले तैयार हैं?’’

‘‘अपने परिवार वालों को रिमू स्वयं संभालेगी मां. आप तो अपनी बात कीजिए.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि तुम्हारे पापा और मेरे लिए केवल तुम्हारी पसंद ही माने रखती है. इस के अलावा और कुछ नहीं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम्हारा चयन गलत नहीं होगा?’’ मां की बातें सुन कर मैं प्यार से अभिभूत हो उन के गले लग गया था.

अगले दिन सुबहसुबह ही मेरे सपनों की रानी रिमू का फोन आ गया. उस ने जो कहा उस से मेरी खुशी दोगुनी हो गई,

‘‘अमन, मैं ने मां को अपने बारे में बताया था तो उन्होंने कुंडली मिलान की बात की है. और कहा है कि तुम अपनी जन्मपत्रिका का फोटो व्हाट्सऐप पर भेज दो. वे कल ही हमारे पंडितजी के पास जा कर मिलवा लाएंगी. बस, फिर हमारी शादी,’’ कहतेकहते रीमा फोन पर ही शरमा गई.

रिमू की बात सुन कर मैं भी कुछ आश्वस्त सा हो गया कि कुछ गुण तो मिल ही जाएंगे अर्थात अब हमारे विवाह में कोई व्यवधान नहीं था. मन ही मन मैं अपने और रिमू के सुनहरे भविष्य के सुनहरे सपने बुनने लगा.

2-3 दिन यों ही खयालों में निकल गए. एक दिन जब मैं शाम को औफिस से निकल रहा था तो रिमू का फोन आया. वह फोन पर जोरजोर से रो रही थी. मैं उस का रोना सुन कर घबरा सा गया और बोला, ‘‘क्या हुआ, कुछ बताओगी भी, क्यों इतनी जोरजोर से रो रही हो?’’

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‘‘अमन, कल मां गई थीं हमारे पंडितजी से कुंडली मिलवाने. पर उन्होंने कहा है कि दोनों की कुंडली में लेशमात्र भी मिलान नहीं है.  इन दोनों का विवाह किसी भी हालत में संभव नहीं है और यदि किया गया तो लड़की का वैधव्य सुनिश्चित है. इसलिए मांपिताजी ने इस विवाह के लिए साफ मना कर दिया है. अब क्या होगा?’’ कह कर फिर वह जोर से रोने लगी और फोन काट दिया.

रिमू के मातापिता की ऐसी रूढि़वादी सोच ने मु?ो हैरत में डाल दिया क्योंकि स्वयं को अति आधुनिक बताने वाला परिवार इतना अंधविश्वासी और दकियानूसी हो सकता है, यह तो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

रिमू का भाई यूएस से एमबीए कर रहा था. पूरा परिवार प्रतिदिन अपने बेटे से स्काइप पर बातचीत करता था. घर के प्रत्येक सदस्य के पास अपना अलग लैपटौप और आधुनिक तकनीक के समस्त साधन मौजूद थे. घर की एकएक वस्तु आधुनिकता का बखान करती सी प्रतीत होती थी.

बातबात में अपनी आधुनिकता का प्रदर्शन करने वाले परिवार का इतना अंधविश्वासी होना मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था. जन्मपत्रिका और कुंडली को इतना अधिक महत्त्व देने वाले ये तथाकथित आधुनिक परिवेश के जनमानस क्यों नहीं सम?ा पाते कि विवाह किसी कुंडलीवुंडली से नहीं, बल्कि 2 लोगों की परस्पर सम?ादारी से सफल और असफल होते हैं.

क्या जन्मकुंडली में सभी गुण मिला कर किए विवाह असफल नहीं होते, जबकि वास्तविकता तो यह है कि विवाह की सफलता और असफलता तो पतिपत्नी की परस्पर सम?ा, त्याग और समर्पण की भावना पर निर्भर करता है.

खैर, इस समय तो मु?ो अपनी इस समस्या का ही कोई उपाय तलाशना था, सो शांतमन से किसी हल पर विचार करने लगा. इस के बाद दोएक अवसरों पर मैं ने स्वयं रिमू के मातापिता को कुंडली की निरर्थकता के बारे में सम?ाने का काफी प्रयास किया परंतु उन का एक ही जवाब था.

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‘‘हम जानबू?ा कर अपनी बेटी को विधवा होते नहीं देख सकते.’’

उन से बात कर के मु?ो भी सम?ा आ गया था कि उन के मन में कुंडली के बीजों की पैठ बहुत गहरी है. सो, उन के आगे बोलना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है. कुछ दिनों बाद मु?ो अपने एक मित्र के विवाह में भोपाल जाना पड़ा. मित्र ने बिना किसी ताम?ाम के कोर्ट में रजिस्टर्ड मैरिज की थी, जिस में महज उस के परिवार वाले ही शामिल थे.

लड़की के मातापिता ही नदारद थे. पूछने पर पता चला कि लड़की के मातापिता किसी भी स्थिति में इस अंतर्जातीय विवाह के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए दोनों ने बिना मातापिता के ही रजिस्टर्ड विवाह करने का फैसला लिया था.

वापस आते समय मैं भी रजिस्टर्ड विवाह के बारे में सोचने लगा कि अब शायद मेरे लिए भी यही चारा है क्योंकि आज 2 वर्ष हो गए पर रिमू के मातापिता सबकुछ सहीसलामत होते हुए भी कुंडली के साथ सम?ाता करने को तैयार नहीं थे. न जाने कैसे और क्यों उन के मस्तिष्क में इस जन्मकुंडली ने भी सर्प की भांति की कुंडली मार ली थी.

एक दिन बातों ही बातों में मैं ने फोन पर रिमू से मातापिता की अनुमति के बगैर रजिस्टर्ड विवाह करने की बात कही. इस पर रिमू बोली, ‘‘अमन, विवाह के बाद अगर कुछ ऐसावैसा हो गया तो क्योंकि पंडितजी ने कहा है…’’

‘‘कुछ नहीं होता रिमू, मैं ऐसे किसी भी अंधविश्वास में विश्वास नहीं करता. मैं ने ऐसे कितने ही जोड़े देखे हैं जो पूरी तरह कुंडली मिलने के बाद भी ताउम्र लड़ते?ागड़ते और एकदूसरे से असंतुष्ट ही रहते हैं. और मेरे ही परिचित कितने ऐसे जोड़े हैं जो अंतर्जातीय विवाह कर के भी आज खुशहाल जीवन जी रहे हैं.

‘‘हम दोनों मिल कर अपने गृहस्थ जीवन को खूबसूरत बनाएंगे. क्या तुम मांपापा को छोड़ कर मेरी खातिर आ सकती हो? कहते हैं न युवावस्था का प्यार अंधा होता है जिस में सिर्फ और सिर्फ प्यार को पाने की चाहत होती है. सो, सुनिश्चित दिन पर रीमा अपने मातापिता की अनुमति के बगैर घर से आ गई और मेरे मातापिता की मौजूदगी में मैं ने रिमू से कोर्ट मैरिज कर ली.

हमारे विवाह के बाद रिमू के मातापिता ने प्रारंभ में तो कुछ नाराजगी प्रदर्शित की परंतु बाद में धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. विवाह के बाद रिमू को ले कर मैं अपने पोस्ंिटग स्थल रीवां आ गया था. कुछ शादी की व्यस्तता और मौसम के बदलाव ने ऐसा असर दिखाया कि आते ही मैं चिकनगुनिया नामक बीमारी से ग्रस्त हो कर एक माह तक बिस्तर पर ही रहा.

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एक दिन रीमा मेरे पास आ कर बैठी और मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर बोली, ‘‘अमन, मु?ो लगता है हमारी बेमेल कुंडली ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है, मैं तुम से बारबार कहता हूं इस प्रकार का कोई वहम अपने मन में मत पालो. ये सब बेकार की बातें हैं,’’ कह कर मैं ने रीमा को चुप करा दिया.

मु?ो पूरी तरह ठीक होतेहोते ही लगभग 6 माह लग गए. सबकुछ सामान्य हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन अचानक मेरे बड़े भाई को हार्टअटैक हो गया और जब तक उन्हें अस्पताल ले जाया गया, उन्होंने दम तोड़ दिया. अब तो रीमा के अंधविश्वासी मन का वहम और भी मजबूत हो गया. जब हम लोग भैया का क्रियाक्रम कर के वापस आ रहे थे तो रीमा कहने लगी.

‘‘अमन, तुम मानो या न मानो, हमारे बड़ेबुजुर्ग जन्मकुंडली मिला कर विवाह करने की बात सही ही कहते थे. देखो, हम अपने विवाह के बाद चैन से रह तक नहीं पा रहे हैं. एक के बाद एक विपत्तियां आए ही जा रही हैं. गृहस्थ जीवन को तो हम महसूस तक नहीं कर पाए.’’

‘‘तो फिर क्यों तुम चली आईं अपने मातापिता को छोड़ कर मेरे साथ. जिस से जन्मकुंडली मिलती उसी से शादी करतीं.’’

इंतजार- भाग 1: क्यों सोमा ने अकेलापन का सहारा लिया?

सुबह के 6 बजे थे. रोज की तरह सोमा की आंखें खुल गई थीं.  अपनी बगल में अस्तव्यस्त हौल में लेटे महेंद्र को देख वह शरमा उठी थी. वह उठने के लिए कसमसाई, तो महेंद्र ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया था.

‘‘उठने भी दो, काम पर जाने में देर  हो जाएगी.’’

‘‘आज काम से छुट्टी, हम लोग आज अपना हनीमून मनाएंगे.’’

‘‘वाहवाह, क्या कहने?’’

पुरानी कड़वी बातें याद कर के वह गंभीर हो उठी, बोली, ‘‘यह बहुत अच्छा हुआ कि अपुन लोगों को शहर की इस कालोनी में मकान मिल गया है. यहां किसी को किसी की जाति से मतलब नहीं है.’’

‘‘सही कह रही हो. जाने कब समाज से ऊंचनीच का भेदभाव समाप्त होगा? लोगों को क्यों नहीं सम?ा में आता कि सभी इंसान एकसमान हैं.’’ महेंद्र बोला था.

‘‘वह सब तो ठीक है, लेकिन अब उठने भी दो.’’

‘‘आज हमारे नए जीवन का पहलापहला दिन है. यह क्षण फिर से तो लौट कर नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारी बांहों में बांहें डाल कर मस्ती करूंगा. इस पल के लिए तुम ने मु?ो बहुत लंबा इंतजार करवाया है. आज ‘जग्गा जासूस’ पिक्चर देखेंगे. बलदेव की चाट खाएंगे. राजाराम की शिकंजी पिएंगे. तुम जहां कहोगी वहां जाऊंगा, जो कहोगी वह करूंगा. आज मैं बहुतबहुत खुश हूं.’’

‘‘ओह हो, केवल बातों से पेट नहीं भरने वाला है. पहले जाओ, दूध और डबल रोटी ले कर आओ.’’

‘‘मेरी रानी, दूध के साथसाथ, आज तो जलेबी और कचौड़ी भी ले कर आऊंगा.’’ यह कह कर वह सामान लेने चला गया.

वह उठ कर रोज की तरह ?ाड़ूबुहारू और बरतन आदि काम निबटाने लगी थी. लेकिन आज उस की आंखों के सामने बीते हुए दिन नाच उठे थे. अभी वह 25 वर्ष की होगी, परंतु अपनी इन आंखों से कितना कुछ देख लिया था.

अम्मा स्कूल में आया थीं. इसलिए उसे मन ही मन टीचर बनाने का सपना देखती रहती थीं. बाबू राजगीरी का काम करते थे. उन्हें पैसा अच्छा मिलता था. लेकिन पीने के शौक के कारण सब बरबाद कर लेते थे. वे 2 दिन काम पर जाते, तीसरे दिन घर पर छुट्टी मनाते. अपनी मित्रमंडली के साथ बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाते और लंबीलंबी बातें करते.

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अम्मा जब भी कुछ बोलती तो गालीगलौज और मारपीट की नौबत  आ जाती.

पश्चिम उत्तर प्रदेश में संभलपुर से थोड़ी दूर एक बस्ती थी जिसे आज की भाषा में चाल कह सकते हैं. लगभग

10-12 घर थे. सब की आपस में रिश्तेदारी थी. बच्चे आपस में किसी के भी घर में खापी लेते और सड़क पर खेल लेते. कोई काका था, कोई दादी तो कोई दीदी. आपस में लड़ाई भी जम कर होती, लेकिन फिर दोस्ती भी हो जाती थी.

वह छुटपन से ही स्कूल जाने से कतराती थी. वह लड़कों के संग गिल्लीडंडा और क्रिकेट खेलती. कभीकभी लंगड़ीटांग भी खेला करती थी.

अम्मा स्कूल से लौट कर आती तो सड़क पर उसे देखते ही चिल्लाती, ‘काहे लली, स्कूल जाने के समय तो तुम्हें बुखार चढ़ा था, अब सब बुखार हवा हो गया. बरतन मांजने को पड़े हैं. चल मेरे लिए चाय बना.

वह जोर से बोलती, ‘आई अम्मा.’ लेकिन अपने खेल में मगन रहती जब तक अम्मा पकड़ कर उसे घर के अंदर न ले जाती. वे उस का कान खींच कर कहतीं, ‘अरी कमबख्त, कभी तो किताब खोल लिया कर.’

अम्मा की डांट का उस पर कुछ असर न होता. इसी तरह खेलतेकूदते वह बड़ी हो रही थी. लेकिन हर साल पास होती हुई वह बीए में पहुंच गई थी. कालेज घर से दूर था, इसलिए बाबू ने उसे साइकिल दिलवा दी थी.

बचपन से ही उसे सजनेसंवरने का बहुत शौक था. अब तो वह जवान हो चुकी थी, इसलिए बनसंवर कर अपनी साइकिल पर हवा से बातें करती हुई कालेज जाती.

वहां उस की मुलाकात नरेन सिंह से हुई. वह उस की सुंदरता पर मरमिटा था. कैफेटेरिया की दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल गई. उस की बाइक पर बैठ कर वह अपने को महारानी से कम न सम?ाती. 19-20 साल की कच्ची उम्र और इश्क का भूत. पूरे कालेज में उन के इश्क के चर्चे सब की जबान पर चढ़ गए थे. वह उस के संग कभी कंपनीबाग तो कभी मौल तो कभी कालेज के कोने में बैठ कर भविष्य के सपने बुनती.

एक दिन वे दोनों एकदूसरे को गलबहियां डाले हुए पिक्चरहौल से निकल रहे थे, तभी नरेन के चाचा बलवीर सिंह ने उन दोनों को देख लिया था. फिर तो उस दिन घर पर नरेन की शामत आ गई थी.

सोमा की जातिबिरादरी पता करते ही नरेन को उस से हमेशा के लिए दूर रहने की सख्त हिदायत मिल गई थी.

पश्चिम उत्तर प्रदेश जाटबहुल क्षेत्र है. वहां की खाप पंचायतें अपने फैसलों के लिए कुख्यात हैं. जाट लड़का किसी वाल्मीकि समाज की लड़की से प्यार की पेंग बढ़ाए, यह बात उन्हें कतई बरदाश्त नहीं थी.

वे लोग 15-20 गुडों को ले कर लाठीडंडे लहराते हुए आए. और शुरू कर दी गालीगलौज व तोड़फोड़.

वे लोग बाबू को मारने लगे, तो वह अंदर से दौड़ती हुई आई और चीखनेचिल्लाने लगी थी. एक गुंडा उस को देखते ही बोला, ऐसी खूबसूरत मेनका को देख नरेन का कौन कहे, किसी का भी मन मचल उठे.’

बाबू ने उसे धकेल कर अंदर जाने को कह दिया था. पासपड़ोस के लोगों ने किसी तरह उन लोगों को शांत करवाया, नहीं तो निश्चित ही उस दिन खूनखराबा होता.

पंचायत बैठी और फैसला दिया कि महीनेभर के अंदर सोमा की शादी कर दी जाए और 10 हजार रुपए जुर्माना.

उस का कालेज जाना बंद हो गया और आननफानन उस की शादी फजलपुर गांव के सूरज के साथ, जो कि स्कूल में मास्टर था, तय कर दी गई.

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उस के पास अपना पक्का मकान था. थोड़ी सी जमीन थी, जिस में सब्जी पैदा होती थी. अम्माबाबू ने खुशीखुशी यहांवहां से कर्ज ले कर उस की शादी कर दी.

बाइक, फ्रिज, टीवी, कपड़ेलत्ते, बरतनभांडे, दहेज में जाने क्याक्या दिया. आंखों में आंसू ले कर वह सूरज के साथ शादी के बंधन में बंध गई थी.

ससुराल का कच्चा खपरैल वाला घर देख उस के सपनों पर पानी फिर गया था. 10-15 दिन तक सूरज उस के इर्दगिर्द घूमता रहा था. वह दिनभर मोबाइल में वीडियो देखता रहता था. आसपास की औरतों से भौजीभौजी कह कर हंसीठिठोली करता या फिर आलसियों की तरह पड़ा सोता रहता.

रोज रात में दारू चढ़ा कर उस के पास आता. नशा करते देख उसे अपने बाबू याद आते. एक दिन उस ने उस से काम पर जाने को कहा. तो, नशे में उस के मुंह से सच फूट पड़ा. न तो वह बीए पास है और न ही सरकारी स्कूल में मास्टर है. यह सब तो शादी के लिए ?ाठ बोला गया था. वह रो पड़ी थी. फिर उस ने सूरज को सुधारने का प्रयास किया था. वह उसे सम?ाती, तो वह एक कान से सुनता, दूसरे से निकाल देता.

आलसी तो वह हद दर्जे का था. पानमसाला हर समय उस के मुंह में भरा ही रहता.

जुआ खेलना, शराब पीना उस के शौक थे. यहांवहां हाथ मार कर चोरी करता और जुआ खेलता.

उस का भाई भी रात में दारू पी कर आता और गालीगलौज करता.

कुछ पैसे अम्मा ने दिए थे. कुछ उस के अपने थे. वह अपने बक्से में रखे हुए थी. सूरज उन पैसों को चुरा कर ले गया था. एक दिन उस ने अपनी पायल उतार कर साफ करने के लिए रखी थी. वह उस को यहांवहां घंटों ढूंढ़ती रही थी. लेकिन जब पायल हो, तब तो मिले. वह तो उस के जुए की भेंट चढ़ गई थी. यहां तक कि वह उस की शादी की सलमासितारे जड़ी हुई साड़ी ले गया और जुए में हार गया.

अस्तव्यस्त बक्से की हालत देख वह साड़ी के गायब होने के बारे में जान चुकी थी. वह खूब रोई. जा कर अम्माजी से कहा, तो वे बोली थीं, ‘साड़ी ही तो ले गया, तु?ो तो नहीं ले गया. मैं उसे डांट लगाऊंगी.’

उस की शादी को अभी साल भी नहीं पूरा हुआ था, लेकिन उस ने मन ही मन सूरज को छोड़ कर जाने का निश्चय कर लिया था. वह नशे में कई बार उस की पिटाई भी कर के उस के अहं को भी चोट पहुंचा चुका था.

वह बहुत दुखी थी, साथ ही, क्रोधित भी थी. सूरज नशा कर के देररात आया. आज कुछ ज्यादा ही नशे में था. बदबू के भभके से उस का जी मिचला उठा था. फिर उस के शरीर को अपनी संपत्ति सम?ाते हुए अपने पास उसे खींचने लगा. पहले तो उस ने धीरेधीरे मना किया, पर वह जब नहीं माना, तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया. वह संभल नहीं पाया और जमीन पर गिर गया. कोने में रखे संदूक का कोना उस के माथे पर चुभ गया और खून का फौआरा निकल पड़ा.

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फिर तो उस दिन आधीरात को जो हंगामा हुआ कि पौ फटते ही उसे उस के घर के लिए बस में बैठा कर भेज दिया गया.

बाबूअम्मा ने उसे देख अपना सिर पीट लिया था. अम्मा बारबार उसे ससुराल भेजने का जतन करती, लेकिन वह अपने निर्णय पर अडिग रही.

उसे अब किसी काम की तलाश थी क्योंकि अब वह अम्मा पर बो?ा बन कर घर में नहीं बैठना चाहती थी.

सब उसे सम?ाते, आदमी ने पिटाई की तो क्या हुआ? तुम ने क्यों उस पर हाथ उठाया आदि.

अम्मा ने अमिता बहनजी से उस की नौकरी के लिए कहा तो उन्होंने उसे अपने कारखाने में नौकरी पर रख लिया. अंधे को क्या चाहिए दो आंखें. वहां शर्ट सिली जाती थी. उसे बटन लगा कर तह करना होता था. इस काम में कई औरतेंआदमी लगे हुए थे.

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 5

Writer- जसविंदर शर्मा 

वे तो एक अवांछित मेहमान की तरह हफ्ते में 2-3 बार आते. खाने का समय होता तो खाना खा लेते. ज्यादातर वे संडे को आते या तब आते जब हम बच्चों में से कोई एक घर पर होता. मां से अकेले मिलने वे कभी नहीं आए. अब अजीब सा, नीरस सा रिश्ता बचा रह गया था दोनों के बीच में.

अब वे शराब बहुत पीने लगे थे. उन की मिस्ट्रैस की हमें कोई खबर नहीं थी, न ही कभी वे उस के बारे में बताते और न ही हमें कोई जिज्ञासा थी कुछ जानने की. हम उसे हमारा घर बरबाद करने में सौ फीसदी जिम्मेदार मानते थे. मां की असहनीय उदासी और तिलतिल कर जवानी को गलाने के पीछे पापा की मिस्ट्रैस का ही हाथ था.

बड़ी बहन के अफेयर और घर छोड़ कर जाने के फैसले के बारे में मैं ने मां से जिस दिन बात की उस दिन उन का मौन व्रत था. मां आजकल ध्यान शिविरों, योग कक्षाओं और धर्मगुरुओं के प्रवचनों में बहुत अधिक शिरकत करने लगी थीं.

मैं ने डरतेडरते बात शुरू की, ‘मां, शिखा के बारे में आप को बताना था.’

मां ने मुसकरा कर मुझे इशारे से सबकुछ कहने के लिए कहा. उन के होंठों पर बहुत दिनों बाद मैं ने हलकी मुसकराहट देखी. मैं थोड़ा कांप गई. लगता था कि शिखा की बात उन से छिपी हुई नहीं है.

मेरी बहन ने कहा था कि जो लोग धर्म में बहुत गहरी आस्था रखने लगते हैं और अत्यधिक पूजापाठ करने लगते हैं, उन्हें अपने प्रियजनों की बहुत सारी बातें पहले से ही पता चल जाती हैं. इसीलिए मेरी बहन ने मां से खुद कुछ पूछना या अपने होने वाले पति के बारे में बताना उचित नहीं समझा. उसे डर था कि कहीं मां उस के होने वाले पति के बारे में कोई अप्रिय भविष्यवाणी ही न कर दें तो फिर एक शक का बीज उस के मन में उगने लगेगा.

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मां हम बच्चों की शादी से डरती क्यों थीं. शादी से उन का विश्वास उठ गया था जैसे. आखिरकार ‘शादी’ वह सामाजिक बंधन या करार है जो 2 लोग आपस में मिल कर करते हैं. उन्हें उम्मीद होती है कि उन की शादी हमेशा कायम रहेगी. अकसर ऐसा होता नहीं है. हालात बुरी तरह बिगड़ सकते हैं और बिगड़ते भी हैं. शादियां भ्रष्ट भी

हो जाती हैं. दूसरा आदमी या दूसरी औरत एक अच्छे जोड़े में दरार पैदा कर सकती है.

फिर भी इतिहास गवाह है कि शादी वह नायाब और चिरायु सामाजिक करार है जो हर युग, हर कौम और हर संस्कृति में कारगर व सफल रहा है. विवाह हमारे जीवन को स्थायित्व देता है मगर साथ ही, हम में कुछ लोगों को यह स्थायित्व डराता भी है. अपने जीवनसाथी के सामने शर्तहीन समर्पण हमें डराता है, संशय से भर देता है. हम सोचते हैं कि अगर उस ने हमारी निजता का मान न रखा या हमारी कसौटी पर खरा न उतरा या वह हमारे लिए सुपात्र सिद्ध न हुआ तो फिर हम कहीं के न रहेंगे.

विवाह स्मृतियों का एक पिटारा ही तो है जिस में अगर अच्छी और सुखद यादों के चित्र ज्यादा समेटे हुए हों तो उस विवाह को कामयाब कहा जा सकता है. विवाह पलों में सिमट सकता है, यह और बात है कि किन पलों को भुला दिया जाए और किन लमहों की यादों को करीने व खूबसूरती से संजोया जाए.

अब मैं जान गई हूं कि छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. एक कहावत है कि पत्थर अंतिम चोट से टूटता है मगर पहले की गई चोटें भी बेकार नहीं जातीं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं. इसीलिए भी शादी नहीं करनी चाहिए कि बच्चे चाहिए. बच्चे तो गोद भी लिए जा सकते हैं. किसी काल्पनिक सुरक्षा के लिए शादी करना बेकार है क्योंकि कोई ऐसी चीज है ही नहीं.

शादी में 2 अनजान लोग सारी उम्र साथ गुजारने का प्रण लेते हैं और एक धुंधले आकर्षण के साथ सारा जीवन साथ रहने को तैयार हो जाते हैं. कुछ डरपोक लोगों के लिए यह एक खतरनाक खेल है. कुछ अन्य के लिए यह एक मूर्खतापूर्ण कदम है. एक तर्कहीन यात्रा है. कुछ मान लेते हैं कि शादी एक पागलपन है, हताशा से उपजी विवशता है और अनिश्चितताओं से परिपूर्ण है.

मेरी बहन ने प्रेम कर के बिना किसी औपचारिक रस्म, कसम या शादी के अपने दोस्त के साथ रहने का मन बना लिया था. उसे विश्वास था कि टिकना हुआ तो यह बंधन भी खूब चलेगा वरना मांपापा की शादी में कितनी कसमें, रस्में और रिश्तेदार जुड़े थे, वह तो एक दिन भी ठीक से नहीं निभ पाई. बहन अपनी जगह ठीक थी.

मां बताती थीं कि पहले महीने के बाद से उन का पति उन का नहीं हो पाया. मगर अब समय बदल गया था. ऐसा आज समाज में व्यापक पैमाने पर हो रहा है. वर्जनाएं टूट रही हैं और हमारी नई पीढ़ी नए प्रयोग करने को तत्पर व आमादा है.

पापा अपनी दुनिया में मस्त थे और मां अपने दुख में त्रस्त थीं. ऐसे में हम दोनों बहनें शादी की उम्र से काफी आगे निकल गई थीं. अपनी उम्र के तीसरे दशक में जा कर हर कुंआरी लड़की एक आखिरी जोर लगाती है कि कोई जीवनभर का साथी मिल जाए. उम्र के तीसरे दशक के अंत में और चौथे दशक के शुरू होने तक उस का सौंदर्य अपने उतार पर आने लगता है. बालों में चांदी उतरने लगती है. सोने सी काया निढाल और परेशान सी दिखने लगती है.

मेरी बहन मुझ से कहती, ‘क्या करूं, कितने सालों से हम अपने लिए कोई फैसला लेने से रुके हुए हैं. घर का माहौल तो ठीक होने से रहा. क्यों न अब अपनी जिंदगी किसी रास्ते पर लगाई जाए.’

उस का मानना था कि प्रेम की कोई हद नहीं. प्रेम के समक्ष विवाह का कोई मेल नहीं. जो लोग प्रेम नहीं समझते वे कूपमंडूक हैं. जिंदगी केवल भावनाओं व आवश्यकताओं से ही नहीं चलती. रिश्तों में संवेदना और संजीदगी होनी चाहिए और एकदूसरे के प्रति एक मुकम्मिल प्रतिबद्धता भी. मां का मौन सबकुछ कह गया.

बिना किसी औपचारिक विदाई के मेरी बहन ने अपने होने वाले पति के साथ रहना शुरू कर दिया. मुझे अपने प्यार के बारे में मां को बताना ठीक नहीं लगा. मैं भी उस दिन की राह तकने लगी जब मैं भी पक्के मन से फैसला कर के अपने प्रेमी निकुंभ के साथ उस के फ्लैट में चली जाऊंगी.

प्रेम के मामले में मैं कच्ची थी, नवीना थी, नवस्फुटा थी. मेरे कोमल हृदय की सारी नवीन और उग्र वासनाएं पंख फैला कर उड़ना चाहती थीं मगर मुझे अभी रास्ता मालूम नहीं था.

वह कहता था कि मैं बला की खूबसूरत हूं. ऐसा मुझे कई नौजवान कह चुके थे. मैं सुंदर थी, अच्छी डीलडौल की थी. भरीपूरी छातियां असल में लड़की के गले में लटकता फांसी का फंदा होता है जो उसे उन लड़कों की नजर में चढ़ा देता है जो उसे अपनी रबड़ की गुडि़या बनाना चाहते हैं. लड़की के हुस्न की तारीफ तब तक है जब तक उस में मर्द को अपनी ओर खींचने की कोशिश होती है. एक बार उस की छातियां लटक जाएं या सूख जाएं तो फिर उस से वितृष्णा उपजती है.

कुतूहल और अनभिज्ञतावश जरा दो कदम आगे की ओर अग्रसर होती तो लाज, डर और मां के लिहाज के मारे वापस लौट आती. मैं अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए व्याकुल थी मगर मां को छोड़ कर जाती तो मां की देखभाल कौन करता. वे तो दिनरात मीरा की तरह अपने कथित भगवान की भक्ति में ही खोई रहतीं. बहुत कम बोलतीं. मेरा भाई बहुत पहले ही विदेश चला गया था.

मेरी जिंदगी सरपट भाग रही थी. अब मैं और किसी राजकुमार का इंतजार नहीं कर सकती थी, कोई बड़े खानदान का रईस या फिल्मी हीरो की तरह

बांका सजीला. एक बार जिस के साथ प्यार हो गया अब तो उसी के लिए जीनामरना था.

मेरा हीरो आज के जमाने का बिंदास आशिक था, वह शादी के खिलाफ था. मैं अपने कौमार्य को कब तक बचाती. मेरी उम्र मेरे हाथों से फिसलती जा रही थी. फिर एक दिन मैं उस की रौ में बह ही गई. अपने बैडरूम में ले जा कर उस ने धीरेधीरे अपने और मेरे कपड़े निकाले और बड़ी खूबसूरत व कलात्मक ढंग से मुझे प्यार किया. उस ने कोई घबराहट, हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दिखाई.

फूल सी दोस्ती- भाग 3: क्यों विराट की गर्लफ्रैंड उसका मजाक बनाती थी

‘‘ओके बाबा… लो…अभी व्हाट्सऐप पर तुम्हारे लिए स्टेटस डालती हूं.’’ और रिया ने तभी सुंदर सी रेशमी डोर की इमेज वाला स्टेटस डाला, जिस पर एक गीत की पंक्ति लिखी थी, ‘‘ये मोहमोह के धागे, तेरी उंगलियों से जा उलझे…’’

स्टेटस पढ़ते ही विराट की खुशी का ठिकाना न रहा और उस ने रिया का हाथ पकड़ कर चूम लिया. मन ही मन वह मंजरी का धन्यवाद करना भी नहीं भूला. अगला दिन उस ने लोधी गार्डेन में सैलिब्रेशन डे के रूप में मंजरी के साथ मनाने का निश्चय किया. घर पहुंच कर विराट के कई बार काल करने पर भी जब मंजरी ने फोन नहीं उठाया तो एक छोटा सा मैसेज भेज कर वह सो गया. सुबह होते ही वह फिर मंजरी को फोन करने लगा, पर कोई उत्तर न मिला. व्हाट्सऐप पर भी उस का लास्ट सीन रात का ही था. शिशिर लंदन गए हुए थे, इसलिए मंजरी कहीं दूर भी नहीं गई होगी. विराट बेहद चिंतित था. इसी तरह काफी समय बीत गया. इधर रिया से मिलने का टाइम हो रहा था, उधर मंजरी को ले कर चिंता.

इसी बीच दोपहर के 2 बज गए. कुछ सोचते हुए वह अपनी कार की चाबी ले कर घर से निकला ही था कि मंजरी का फोन आ गया. उस ने बताया कि रात से उसे तेज बुखार है, सुबह से चक्कर भी आ रहे हैं. बिस्तर से उठने की हिम्मत ही नहीं हो रही उस की. ‘‘मैं अभी आता हूं,’’ कह विराट मंजरी के घर की ओर निकल पड़ा. रिया को फोन कर उस ने बता दिया कि आज वह नहीं आ पाएगा क्योंकि एक फ्रैंड की तबीयत ठीक नहीं है, वह उस के घर जा रहा है.

मंजरी के घर पहुंचते ही विराट उसे ले कर हौस्पिटल गया. वहां मंजरी को दवा दी गई. घर वापस आ कर भी विराट तब तक मंजरी के पास बैठा रहा जब तक उस का बुखार कम नहीं हो गया. घर लौटते ही उस ने रिया को फोन कर मंजरी के बारे में बताना शुरू किया. सुन कर रिया बोली, ‘‘तुम ने तो कहा था कि एक फ्रैंड की तबीयत खराब है.’’

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‘‘हां, मंजरीजी फ्रैंड हैं मेरी.’’ ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब तुम भी यही सोचती हो कि एक मेल और फीमेल कभी फ्रैंड नहीं हो सकते?’’ ‘‘मैं क्या उस जमाने की लगती हूं तुम्हें? पर 50 की उम्र के पार की आंटी से फ्रैंडशिप? हाहाहा… आई कांट बिलीव इट.’’

‘‘तुम हंस क्यों रही हो?’’ विराट गुस्से से बोला. जवाब में रिया ने फोन काट दिया.

रात होतेहोते मंजरी की तबीयत में काफी सुधार आ गया. विराट को थैंक्स बोलने के लिए जब उस ने फोन किया तो ‘हैलो’ के साथ ही विराट की निराशा और गुस्से में भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘आई हेट रिया.’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ चिंतित सी मंजरी इतना ही बोल पाई. और विराट ने पूरी घटना उसे सुना दी.

‘‘विराट, इस में रिया की कोई गलती नहीं. हमें संस्कार ही ऐसे दिए जाते हैं कि हम भावनाओं को जीना जानते ही नहीं. अपनी संकीर्ण सोच से कुछ लोगों द्वारा बनाए गए नियमों के इर्दगिर्द ही घूमती रहती है हमारी पूरी जिंदगी. रिया को बस थोड़ा समझाने की जरूरत है. तुम परेशान मत होना, प्लीज…मैं देखती हूं अब क्या करना है.’’ मंजरी के कहने से विराट आश्वस्त हुआ और दोनों की बात वहीं समाप्त हो गई.

अगले दिन मंजरी ने बहुत सी चौकलेट्स खरीदीं और नेत्रहीन बच्चों के छात्रावास की ओर चल दी. वहां जा कर उस ने वे चौकलेट्स बच्चों में बांटने की इच्छा व्यक्त की. जैसा कि वह उम्मीद कर रही थी, उसे वहां की इंचार्ज यानी रिया के पास भेज दिया गया. गोरे रंग की लंबी, स्लिम बौडी की खूबसूरत रिया का फोटो भी विराट ने उसे अभी तक नहीं दिखाया था, क्योंकि वह दोनों को आमनेसामने मिलवाना चाहता था. मंजरी ने रिया को अपना नाम नहीं बताया. वह जानती थी कि चेहरे से रिया उसे नहीं पहचानती होगी.

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रिया के साथ वह ग्राउंड में खेल रहे बच्चों के पास पहुंच गई. उन सब की उम्र लगभग 5-10 वर्ष के बीच थी. रिया ने बताया कि उसे इन बच्चों से बहुत लगाव है. यहां इन के पढ़ने, रहने, खानेपीने और कपड़ों आदि का प्रबंध एक एनजीओ की मदद से होता है. ‘‘इन बच्चों का साथ मुझे हिम्मत, हौसला और जीने की नई ताकत देता है,’’ कह कर रिया मुसकराने लगी.

बच्चों के प्रति रिया का समर्पण मंजरी को बहुत अच्छा लगा. दोनों की बातचीत चल ही रही थी एक मासूम सा बच्चा मंजरी द्वारा दी गई चौकलेट रिया के पास ले कर आया और बोला, ‘‘आधी आप खाओ न मैम.’’ रिया ने थोड़ी सी चौकलेट तोड़ी और उस के गाल चूम कर उसे खेलने भेज दिया.

‘‘यह साहिल है. इस के मातापिता एक बम विस्फोट में मारे गए थे. साहिल भी उसी दुर्घटना के कारण अपनी आंखें गंवा बैठा. मुझे बहुत अच्छा लगता है साहिल. मैं इसे दुखी नहीं देख सकती और यह भी मुझे छू कर ही मेरा दुख समझ लेता है. जब कभी मैं उदास होती हूं तो मुझे खुश करने की कोशिश करता है.’’ ‘‘ओहो… बहुत दुखभरी है साहिल की कहानी. पर अच्छा हुआ कि उसे तुम्हारे जैसी दोस्त मिल गई.’’ मंजरी ने कहा.

‘‘आप इन भावनाओं को कितना समझती हैं… साहिल और मैं सचमुच एकदूसरे को बहुत प्यार करते हैं. वह मेरा प्यारा सा दोस्त है और मैं उस की,’’ मंजरी से सहमति जताती हुई रिया चहक उठी. ‘‘तो क्या तुम नहीं चाहोगी कि ये दोस्ती आज से 20-25 साल बाद भी ऐसी ही रहे? क्या तब तुम इसे इसलिए दोस्त नहीं कहोगी कि तुम 50 के पार हो जाओगी? क्या एक उम्र के बाद भावनाओं को दबा देना चाहिए? अगर उस समय साहिल आज की तरह ही तुम से लगाव महसूस करे तो क्या तब उम्र के अंतर को ध्यान में रखते हुए उसे तुम्हारे प्रति अपने प्यार को कम कर लेना होगा? या फिर तब रिश्ते का नाम दोस्ती से बदल कर कुछ और रखोगी? क्या नाम होगा उस रिश्ते का? शायद कोई नाम नहीं. तब क्या होगा रिया, बता सकती हो तुम?’’ रिया की ओर देख कर मंजरी लगातार मुसकराने की कोशिश कर रही थी.

‘‘प्यार तो ऐसा ही होगा शायद दोनों में. और नाम… नाम तो दोस्ती ही होगा रिश्ते का. अब भी. और तब भी…’’ सोचती हुई सी रिया बोली. ‘‘अगर साहिल और तुम्हारे रिश्ते को दोस्ती का नाम दिया जा सकता है, तो विराट और मंजरी के रिश्ते को क्यों नहीं…?’’ मंजरी के सब्र का बांध टूट गया और आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

रिया जैसे सोते से जागी हो, ‘‘आप मंजरीजी हैं न?’’ कह कर वह मंजरी से लिपट गई. उस की आंखों से भी आंसू निकल पड़े. कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठी रहीं. फिर चुप्पी तोड़ते हुए मंजरी बोली, ‘‘अब मैं चलती हूं रिया. कल तुम मेरे घर आना. विराट को भी वहीं बुला लूंगी. खूब बातें करनी हैं मुझे तुम दोनों से.’’

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रिया हामी में सिर हिला कर मुसकरा दी. आज रिश्तों का नया पाठ पढ़ा था रिया ने. सच ही तो है कि लगाव, परवाह, त्याग और प्यार जैसे शब्द मन की कोमल भावनाओं के नाम हैं और जब ये एकसाथ मिल जाएं तो बन जाती है दोस्ती. तो फिर दोस्ती का रिश्ता पूरी तरह मन का हुआ. और मन तो सदा एक सा ही रहता है… तो फिर दोस्ती क्यों हो उम्र की मुहताज?

अपने मन की बात विराट तक पहुंचाने के लिए रिया ने उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज किया ‘‘विराट… रिश्तों की गहराई को मैं समझ नहीं पाई थीं. अपनेपन की सुगंध से भरे किसी भी रिश्ते को उम्र के अंतिम पड़ाव तक भी मुरझाना नहीं चाहिए. मेरी ख्वाहिश है कि तुम्हारी और मंजरीजी की दोस्ती हमेशा महकती रहे. सचमुच बहुत सुंदर है ये फूल सी दोस्ती.’’

वेटिंग रूम- भाग 6: सिद्धार्थ और जानकी की छोटी सी मुलाकात के बाद क्या नया मोड़ आया?

Writer- जागृति भागवत 

सिद्धार्थ जानकी को होटल छोड़ कर घर चला गया. मन काफी भारी था और उदास भी. घर पहुंचा तो मां ने पूछा, लेकिन सिद्धार्थ ने बताया कि उस ने एक दोस्त के साथ बाहर खाना खा लिया है. सिद्धार्थ के चेहरे की उदासी उस के मन की जबान बन रही थी. मां ने उस से पूछा, ‘‘कौन दोस्त था तेरा?’’ सिद्धार्थ ने इस प्रश्न की कल्पना नहीं की थी. वह बस बोल गया, ‘‘मौम, आप नहीं जानतीं उसे,’’ और सिद्धार्थ अपने कमरे में चला गया. मां का शक पक्का हो गया कि सिद्धार्थ कुछ छिपा रहा है उस से. वे सिद्धार्थ के कमरे में गईं और पूछा, ‘‘आज तू पापा के साथ औफिस क्यों नहीं गया, इसी दोस्त के लिए?’’

सिद्धार्थ समझ नहीं पा रहा था कि मां इतना खोद कर क्यों पूछ रही हैं. वह बोला, ‘‘हां मौम, वह बाहर से आया है न, इसलिए उस का थोड़ा अरेंजमैंट देखना था.’’ 

‘‘तो क्या हो गया अरेंजमैंट?’’

‘‘अभी नहीं, मौम,’’ सिद्धार्थ बात को खत्म करने के लहजे में बोला. लेकिन मां तो आज ठान कर बैठी थीं कि सिद्धार्थ से आज सब जान कर रहेंगी.

‘‘फिर तू उसे घर क्यों नहीं ले आया? जब तक उस का कोई और इंतजाम नहीं हो जाता, वह हमारे साथ रह लेता,’’ मां ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मौम, उसे हैजिटेशन हो रहा था, इसलिए नहीं आया,’’ सिद्धार्थ बात को जितना समेटने की कोशिश कर रहा था, मां उसे और ज्यादा खींच रही थीं.

‘‘अच्छा यह बता, पिछले 10-12 दिन से तो तू बहुत खुशखुश लग रहा था, आज सुबह दोस्त से मिलने गया तब भी बड़ा खुश था, अब अचानक इतना गुमसुम क्यों हो गया है. सच बताना, मैं मां हूं तेरी मुझ से कुछ मत छिपा, कोई समस्या हो तोबता, शायद मैं मदद कर सकूं,’’ कह कर अब तो मां ने जैसे मोरचा ही खोल दिया था. अब सिद्धार्थ के लिए बात को छिपाना मुश्किल लग रहा था. इतने कम समय में उस ने जानकी को बहुत अच्छी तरह से पहचान लिया था लेकिन इतना बड़ा फैसला लेने में घबरा रहा था. इस बारे में मां और पिताजी को समझाना उसे काफी मुश्किल लग रहा था. सब से बड़ी बात है कि जानकी अनाथालय में पलीबढ़ी थी. जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए लेकिन ऐसे समय सभी खानदान और कुल जैसे भंवर में फंस जाते हैं. वह उच्च और रईस घराने से था, ऐसे में एक ऐसी लड़की जिस के न मातापिता का पता है न खानदान का. अनाथालय में पलीबढ़ी एक लड़की के चरित्र पर भी लोग संदेह करते हैं. ऐसे में वह क्या करे क्या न करे, फैसला नहीं ले पा रहा था.

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दूसरी तरफ उसे जानकी की चिंता सता रही थी. जब तक उस के रहने की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उसे होटल में ही रुकना पड़ेगा जो उस के लिए बहुत खर्चीला होगा. वह कहां से लाएगी इतना पैसा? आखिर उस ने मां को सबकुछ बताने का फैसला किया. ‘‘मौम, आप बैठिए प्लीज, मुझे आप से कुछ बातें करनी हैं,’’ और उस ने मनमाड़ रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय से ले कर आज तक की सारी बातें मां को बता दीं. सबकुछ सुनने के बाद मां कुछ देर चुप रहीं फिर बोलीं, ‘‘देखते हैं बेटा, कुछ करते हैं,’’ और उठ कर चली गईं.

अब सिद्धार्थ पहले से अधिक बेचैन हो गया. बारबार सोचता कि उस ने सही किया या गलत? फिर रात को पापा आए. सब ने साथ खाना खाया. खाने की टेबल पर पापा और सिद्धार्थ की थोड़ीबहुत बातें हुईं. पापा ने भी अनजाने में उस से पूछ लिया, ‘‘बेटा, तेरा वह दोस्त आया कि नहीं?’’

‘‘आया न पापा,’’ सिद्धार्थ ने मां की ओर देखते हुए कहा.

‘‘फिर उसे ले कर घर क्यों नहीं आया,’’ वही मां वाले सवाल पापा दुहराए जा रहे थे.

‘‘पापा, बाद में आएगा,’’ कह कर सिद्धार्थ ने बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई. खाना खा कर तीनों सोने चले गए. अगले दिन शाम को लगभग 4:30 बजे पिताजी ने औफिस में सिद्धार्थ को अपने कक्ष में बुला कर कहा, ‘‘तुम्हारी मौम का फोन था, वह आ रही हैं अभी, तुम्हारे साथ कहीं जाना है उन्हें. तुम अपना काम वाइंडअप कर लो.’’

कई वर्षों बाद ऐसा होगा जब सिद्धार्थ अपनी मौम के साथ कहीं जा रहा हो, वरना अब तक तो मां के साथ पिताजी ही जाते थे और सिद्धार्थ अपने दोस्तों के साथ. अचानक मां को उस के साथ कहां जाना है, वह समझ नहीं पा रहा था.

‘‘जी पापा,’’ इतना कह कर वह अपने कक्ष में आ गया. मां के आने तक सिद्धार्थ बेचैनी से घिरा जा रहा था. मां आईं और सिद्धार्थ उन के साथ गाड़ी में जा बैठा और पूछा, ‘‘मौम, कहां जाना है?’’

मां ने गंभीरता से पूछा, ‘‘जानकी किस होटल में रुकी है?’’ सिद्धार्थ अवाक् रह गया. बस, इतना ही मुंह से निकल पाया, ‘‘होटल शिवाजी पैलेस.’’

‘‘तो चलो,’’ मां बोलीं.

होटल पहुंच कर सिद्धार्थ ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मौम, वह मेरी भावनाओं से अनजान है.’’

‘‘मैं जानती हूं.’’

रिसैप्शन पर कमरा नंबर पता कर के दोनों उस के कमरे के बाहर पहुंचे. दरवाजे पर सिद्धार्थ आगे खड़ा था. दरवाजा खुलते ही जानकी बोली, ‘‘आप? अचानक?’’ ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी?’’ सिद्धार्थ ने स्वयं ही पहल की. लेकिन जानकी थोड़ा असमंजस में पड़ गई कि उसे अंदर आने के लिए कहे या नहीं. तभी सिद्धार्थ की मां सामने आईं और बोलीं, ‘‘मुझे तो अंदर आने दोगी?’’

‘‘मेरी मौम,’’ सिद्धार्थ ने मां से जानकी का परिचय करवाया.

जानकी ने दोनों को अंदर बुलाया. सिद्धार्थ और जानकी खामोश थे. खामोशी को तोड़ते हुए मां ने वार्त्तालाप शुरू की, ‘‘जानकी बेटा, मुझे सिद्धार्थ ने तुम्हारे बारे में बताया, लेकिन हमारे रहते तुम यहां होटल में रहो, यह हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. तुम सिद्धार्थ के कहने पर नहीं आईं, मैं समझ सकती हूं, अब मैं तुम्हें लेने आई हूं, अब तो तुम्हें चलना ही पड़ेगा.’’ सिद्धार्थ की मां ने इतने स्नेह और अधिकार के साथ यह सब कहा कि जानकी के लिए मना करना मुश्किल हो गया. फिर भी वह संकोचवश मना करती रही. लेकिन मां के आग्रह को टाल नहीं सकी. मां ने सिद्धार्थ से कहा, ‘‘सिद्धार्थ, नीचे रिसैप्शन पर जा कर बता दे कि जानकी होटल छोड़ रही हैं और बिल सैटल कर के आना.’’ जानकी को यह सब काफी अजीब लग रहा था. उस ने बिल के पैसे देने चाहे लेकिन सिद्धार्थ की मां बोलीं, ‘‘यह हिसाब करने का समय नहीं है, तुम अपना सामान पैक करो, बाकी सब सिद्धार्थ कर लेगा.’’

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सामान बांध कर जानकी सिद्धार्थ के घर चली गई. सिद्धार्थ की मां ने आउटहाउस को दिन में साफ करवा दिया था. जानकी रात को पिताजी से भी मिली. पहली बार उस ने मातापिता के स्नेह से सराबोर घर को देखा था. जानकी बहुत भावुक हो गई. अगले दिन से उस ने कालेज जाना शुरू कर दिया. साथ ही साथ रहने की व्यवस्था पर गंभीरता से खोज करने लगी. एक हफ्ते में सिद्धार्थ ने ही एक वर्किंग वूमन होस्टल ढूंढ़ा. जानकी को भी पसंद आया. सिद्धार्थ के पिताजी की पहचान से जानकी की अच्छी व्यवस्था हो गई. रविवार के दिन वह होस्टल जाने वाली थी. इस एक हफ्ते में सिद्धार्थ के मातापिता को जानकी को समझनेपरखने का अच्छा मौका मिल गया. अपने बेटे के लिए इतनी शालीन और सभ्य लड़की तो वे खुद भी नहीं खोज पाते. शनिवार की रात सब लोग एक पांचसितारा होटल में खाना खाने गए. पहले से तय किए अनुसार सिद्धार्थ के पिताजी सिद्धार्थ के साथ बिलियर्ड खेलने चले गए. अब टेबल पर सिर्फ सिद्धार्थ की मां और जानकी ही थे. अब तक जानकी उन से काफी घुलमिल गई थी. इधरउधर की बातें करतेकरते अचानक मां ने जानकी से पूछा, ‘‘जानकी, तुम्हें सिद्धार्थ कैसा लगता है?’’

अब तक जानकी के मन में सिद्धार्थ की तरफ आकर्षण जाग चुका था लेकिन सिद्धार्थ की मां से ऐसे प्रश्न की उसे अपेक्षा नहीं थी. सकुचाते हुए जानकी ने पूछा, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘इस के 2 मतलब थोड़े ही हैं, मैं ने पूछा तुम्हें सिद्धार्थ कैसा लगता है? अच्छा या बुरा?’’ मां शरारतभरी मुसकान बिखेरते हुए बोलीं.

अब जानकी को कोई कूटनीतिक उत्तर सोचना था, वह चालाकी से बोली, ‘‘आप जैसे मातापिता का बेटा है, बुरा कैसे हो सकता है आंटी.’’

‘‘फिर शादी करना चाहोगी उस से?’’ मां ने बेधड़क पूछ लिया. आमतौर पर लड़की के सामने शादी का प्रस्ताव लड़का रखता है लेकिन यहां मां रख रही थी.

जवाब में जानकी खामोश रही. सिद्धार्थ की मां ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, मैं जानती हूं कि तुम क्या सोच रही हो. रुपया, पैसा, दौलत, शोहरत एक बार चली जाए तो दोबारा आ सकती है लेकिन, रिश्ते एक बार टूट जाएं तो फिर नहीं जुड़ते, प्यार एक बार बिखर जाए तो फिर समेटा नहीं जाता और मूल्यों से एक बार इंसान भटक जाए तो फिर वापस नहीं आता. लेकिन तुम्हारी वजह से यह सब संभव हुआ है. यों कहो कि तुम ने यह सब मुमकिन किया है.‘‘सिद्धार्थ हमारा इकलौता बेटा है. पता नहीं हमारे लाड़प्यार की वजह से या कोई और कारण था, हम अपने बेटे को लगभग खो चुके थे. सिद्धार्थ के पिताजी को दिनरात यही चिंता रहती थी कि उन के जमेजमाए बिजनैस का क्या होगा? उस रात तुम से मिलने के बाद सिद्धार्थ में ऐसा बदलाव आया जिस की हम ने उम्मीद ही नहीं की थी. तुम ने चमत्कार कर दिया. तुम्हारी वजह से ही हमें हमारा बेटा वापस मिल गया. हम मातापिता हो कर अपने बच्चे को अच्छे संस्कार और मूल्य नहीं दे सके लेकिन तुम ने अनाथालय में पल कर भी वह सब गुण पा लिए. ‘‘जानकी बेटा, तुम्हारे दिल में सिद्धार्थ के लिए क्या है, मैं नहीं जानती, लेकिन वह तुम को बहुत पसंद करता है, साथ ही, मैं और सिद्धार्थ के पिताजी भी. अब बस एक ही इच्छा है कि तुम हमारे घर में बहू बन कर आओ. बोलो आओगी न?’’

जानकी झेंप गई और बस इतना ही बोल पाई, ‘‘आंटी, आप मानसी चाची से बात कर लें,’’ और जानकी का चेहरा शर्म से लाल हो गया. सिद्धार्थ के मातापिता की तय योजना के अनुसार, जिस में अब जानकी भी शामिल हो गई थी, उस के पिताजी उसे ले कर वापस आए. अब चारों साथ बैठे थे. अब चौंकने की बारी सिद्धार्थ की थी. मां ने वही सवाल अब सिद्धार्थ से पूछा, ‘‘बेटा, क्या तुम जानकी के साथ शादी करना चाहोगे?’’ सिद्धार्थ कुछ क्षणों के लिए तो सब की शक्लें देखता रहा, फिर शरमा कर उठ कर चला गया. सिद्धार्थ का यह एक नया रूप उस के मातापिता ने पहली बार देखा था.

पिताजी जानकी से बोले, ‘‘जाओ बेटा, उसे बुला कर ले आओ.’’ जानकी सिद्धार्थ के पास जा कर खड़ी हुई, दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा दिए. 2 माह बाद अनाथालय को दुलहन की तरह सजाया गया और जानकी वहां से विदा हो गई.

ये घर बहुत हसीन है- भाग 1: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

‘‘वान्या,आज से तुम ही संभालना घर और मेरे इस अनाड़ी से भाई को. अगर फ्लाइट्स बंद नहीं हो रही होतीं तो मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ बिता कर जाती. वैसे ठीक ही है हमारा जल्दी जाना. बच्चे दादादादी को खूब तंग कर रहे होंगे कोलकाता में. बहुत चाह रहे थे बच्चे अपनी दुल्हन मामी से मिलना. जल्दबाजी में सब कुछ नहीं करना पड़ता तो सब को ले कर आती.’’ सुरभि अपनी नईनवेली भाभी वान्या को टैक्सी में पीछे की सीट पर बैठे हुए बता रही थी. वान्या मुसकराते हुए सिर हिला कर कभी सुरभि को देखती तो कभी पास ही बैठे अपने पति आर्यन को. सुरभि का बोलना जारी था, ‘‘शादी चाहे जल्दबाजी में हुई, लेकिन सही फैसला है. अब मुझे आर्यन की फिक्र तो नहीं रहेगी. कोविड-19 ने तो ऐसा आतंक मचाया है कि डर लगने लगा है. तुम लोग भी ध्यान रखना अपना. हो सके तो अभी घर पर ही रहना, घूमने के लिए तो उम्र पड़ी है…’’

‘‘बसबस… रहने दो. टीचर है भाभी तुम्हारी और हमारे साले साहब आर्यन भी बेवकूफ थोड़े ही हैं कि जब इंडिया में भी कोरोना अपने पैर फैला रहा है तब बिना सोचेसमझे चल देंगे कहीं घूमने. क्यों साले साहब?’’ ड्राईवर के साथ आगे की सीट पर बैठे सुरभि के पति विशाल ने सिर पीछे घुमा कर आर्यन पर मुसकराती दृष्टि डालते हुए कहा.

वान्या और आर्यन का विवाह दो दिन पहले ही हुआ था. जुलाई में डेट थी शादी की, लेकिन कोरोना के कारण आर्यन ने ही फैसला किया था कि सादे समारोह में केवल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाह जल्दी से जल्दी हो जाए. वान्या का घर दिल्ली में था, इसलिए विवाह का आयोजन वहीं हुआ था. आर्यन हिमाचल प्रदेश के बड़ोग शहर का रहने वाला था. परिवार के नाम पर आर्यन की एक बड़ी बहन सुरभि थी, जो कोलकाता में अपने परिवार के साथ रहती थी. पति के साथ विवाह में सम्मिलित होने सुरभि वहां से सीधा दिल्ली पहुंच गई थी. आज वे दोनों वापस जा रहे थे, वान्या को ले कर आर्यन भी अपने घर आ रहा था. दीदीजीजू को एअरपोर्ट छोड़ने के बाद उन को रेलवे स्टेशन जाना था. दिल्ली से कालका तक वे ट्रेन से जाने वाले थे, जो रात 11 बजे चल कर सुबह 4 बजे कालका पहुंचती. वहां से टैक्सी द्वारा उन्हें आगे का सफर तय करना था.

‘‘लो बातोंबातों में पता ही नहीं लगा और एअरपोर्ट आ भी गया.’’ सुरभि के कहते ही टैक्सी रुक गई. आर्यन सामान उतारने लगा और विशाल दौड़ कर ट्रौली ले आया. सुरभि विशाल हाथ हिला कर एअरपोर्ट के गेट की और चल दिए.

आर्यन और वान्या को ले कर टैक्सी रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गई.

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ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चली. रात सोते हुए कब बीत गई पता ही नहीं लगा. सुबह वे ट्रेन से उतर कर बाहर आए तो वान्या को ठंडी हवा के झोंके स्वागत करते प्रतीत हुए. ‘‘मार्च में भी इतना ठंडा मौसम?’’ वान्या पूछ बैठी.

‘‘यह कोई ठंड है? अभी तो पहाड़ पर चढ़ना है मैडम. ठंड से आप की मुलाकात तो होनी बाकी है अभी.’’ आर्यन ठहाका लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘अरे, डर गईं? बड़ोग में इस समय सिर्फ रातें ठंडी होंगी, दिन में तो मौसम सुहाना ही होगा. तुम कभी हिली एरियाज में नहीं गईं इसलिए पता नहीं होगा.’’

टैक्सी आई तो दोनों की बातचीत का सिलसिला टूट गया. चलती टैक्सी में

वान्या उनींदी आंखों से बाहर झांक रही थी. भोर के नीरव अंधेरे में जलते बल्लों की मध्यम रोशनी से पेड़ भी ऊंघते हुए लग रहे थे. कुछ देर बाद सूर्य उदय हुआ तो खिलती धूप से ऊर्जा पा कर वातावरण में नवजीवन संचरित हो उठा.

परवाणु आने तक वान्या प्रकृति की सुंदरता को मन में कैद करती रही, आगे का रास्ता तन में झुरझुरी बढ़ाने लगा था. एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचेऊंचे पहाड़ों पर घने दरख्त.

धरमपुर आ कर ड्राईवर ने चाय पीने के लिए टैक्सी रोकी. हवा की ताजगी वान्या भीतर तक महसूस कर रही थी. सड़क किनारे बने ढाबे में जा कर आर्यन चाय ले आया. वान्या की निगाहें चारों ओर के मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती थीं. मौसम की खनक और आर्यन का साथ… वान्या के दिल में बरसों से छुप कर बैठे अरमान अंगड़ाई लेने लगे.

धरमपुर से बड़ोग अधिक दूर नहीं था. पाइनवुड होटल आया तो टैक्सी चौड़ी सड़क से निकल कर संकरे रास्ते पर चलती हुई एक घर के सामने रुक गई. बंगलेनुमा मकान देख वान्या ठगी सी रह गई. सफेद मार्बल से जड़ा उजला, धवल महल सा तन कर खड़ा मकान जैसे याद दिला रहा था कि वान्या अब हिमाचल प्रदेश में है. हिम का उज्जवल रंग आर्यन की तरह ही अब उस के जीवन का अभिन्न अंग बन जाएगा.

सामान निकाल कर आर्यन टैक्सी वाले का बिल चुका 2 सूटकेसों पर बैग्स रख पहियों के सहारे खींचता हुआ ला रहा था. वान्या भी अपना पर्स थामे कदम बढ़ाने लगी. पहाड़ में बनी चारपांच सीढि़यां चढ़ने पर वे गेट के सामने थे, जिसे किले का फाटक कहना उचित होगा. गेट के भीतर दोनों ओर मखमली घास कालीन सी बिछी थी. बंगले की ऊंची दीवारों के साथसाथ लगे लंबे पाइन के पेड़ सुंदरता में चारचांद लगा रहे थे.

आर्यन ने चाबी निकाल कर लकड़ी का नक्काशीदार भारीभरकम दरवाजा खोला और दोनों कमरे के भीतर दाखिल हो गए. कमरा क्या एक विशाल हौल था. लकड़ी के फर्श पर मोटा रंगबिरंगी आकृतियों के काम वाला तिब्बती कालीन बिछा था. बैठने के लिए सोफे के 3 सैट रखे थे. उन की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई राजसी शोभा लिए थी. सोफों से कुछ दूरी पर एक दीवान बिछा हुआ था. उसे देख कर वान्या को म्यूजियम में रखे शाही तख्त की याद आ गई. तख्त के एक ओर हाथीदांत की नक्काशी वाली लकड़ी की तिपाही पर नीली लंबी सुराही रखी थी. नीचे जमीन पर पीतल के गमले में सेब का बोनसाई किया पौधा लगा था, जिस में लाललाल नन्हें सेब ऐसे लग रहे थे जैसे क्रिसमस ट्री पर बौल्स सजाई गई हों.

‘‘सामान अंदर के कमरे में रख देते हैं… फिर मैं चाय बना लेती हूं, किचन कहां है?’’ वान्या समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बंगले में रसाई किस ओर होगी? उसे तो लग रहा था जैसे वह किसी महल में खड़ी है.

‘‘आउटहाउस से नरेंद्र आता ही होगा. वह लगा देगा सामान… उस की वाइफ प्रेमा किचन संभालती है, तुम फ्रैश हो जाओ बस.’’ कहते हुए आर्यन ने खिड़कियां खोल मोटे परदे हटा दिए. जाली से छन कर कमरे में आ रही धूप ठंडे मौसम में सुकून दे रही थी.

‘‘यहां घर अधिकतर ऐसे बने होते हैं कि ठंड का असर कम से कम हो. यह मकान मेरे परदादा ने बनवाया था, मोटीमोटी दीवारें हैं और फर्श लकड़ी से बने हैं. छत ढलुआं है ताकि बरसात और बर्फ बिलकुल न ठहरे.’’ आर्यन बता रहा था कि डोरबैल बज गई. नरेंद्र और प्रेमा आए थे. दोनों ने घर का काम शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब मैं नहा लेता हूं.’’ कह कर आर्यन चल दिया, वान्या भी उस के पीछेपीछे हो ली. कमरे से बाहर निकल लंबी गैलरी में नीले रंग के कारपेट पर चलते हुए पैरों की पदचाप खो गई थी. गैलरी के दोनों ओर कमरे दिख रहे थे. घर के बाकी कमरे भी बड़ेबड़े होंगे इस की वान्या ने कल्पना भी नहीं कि थी. एक कमरे में दाखिल हो आर्यन ने 10 फुट ऊंची महागनी की गोलाकार फ्रैंच स्टाइल में बनी अलमारी खोल कपड़े निकाले और बाथरूम में चला गया.

वान्या की आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं. चौड़ी सिंहासन नुमा कुरसी को देख वान्या का दिल चाह रहा था कि उस पर बैठ आंखें मूंद रास्ते की सारी थकान भूल जाए, लेकिन पहले नहाना जरूरी है सोचते हुए वापस ड्राइंगरूम में जा अपना सूटकेस खोल कपड़े देखने लगी.

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अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फोन उठा लिया. उस के हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा कहां हैं?’’ दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज है, सोचते हुए वान्या बोली, ‘‘किस से बात करनी है आप को? यह नंबर तो आप के पापा का नहीं है. दोबारा मिला कर देखो, बच्चे.

‘‘आर्यन पापा का नाम देख कर मिलाया था मैं ने… आप कौन हो?’’ बच्चा रुआंसा हो रहा था.

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