Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 1

रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.

तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.

नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.

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दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.

कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.

पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.

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माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.

‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.

‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.

तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’

माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’

‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.

‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.

‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’

‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.

चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.

माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’

‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.

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‘‘हां, वही.’’

‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.

‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम कैसे जानते हो?’

‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’

‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.

‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’

‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’

‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’

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‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,

इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’

‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’

‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’

‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 3

‘‘बहुत मुश्किल से किसी तरह दवा लाने का बहाना कर के मैं गांव से निकली. फोन पर सौरभ को सारी बातें बताईं. उस ने कहा कि मैं रात में बनारस पहुंच जाऊं. सुबह वहीं से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे. उस ने रिजर्वेशन भी करा लिया है. उस का एक दोस्त वहां रहता है. मुझे दोस्त के पास रख कर वह लौट आएगा, फिर पत्नी को तलाक दे कर मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘ओह… तो तुम मुंबई जाने की तैयारी कर के आई हो?’’ तृप्ति ने कहा.

‘‘हां.’’

‘‘माधुरी, तुम समझदार हो, इसलिए तुम को मैं समझा तो नहीं सकती… और फिर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक सभी को है, पर हम आपस में इस बारे में बात तो कर ही सकते हैं, जिस से सही दिशा मिल सके और तुम समझ पाओ कि जानेअनजाने में तुम से कोई गलत फैसला तो नहीं हो रहा है.’’

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‘‘बोल तृप्ति, समय कम है, मुझे सुबह निकलना भी है. यह तो मुझे भी एहसास हो रहा है कि मैं कुछ गलत कर रही हूं. पर मेरे सामने इस के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है,’’ माधुरी की चिंता उस के चेहरे से साफ झलक रही थी.

‘‘अच्छा माधुरी, सौरभ के पिता से गहनों की कीमत में छूट कराने के लिए तुम्हें सौरभ से कहना पड़ा था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ से तुम्हारी जानपहचान भी नहीं थी. सिर्फ इतना ही कि तुम्हारे साथ सौरभ भी एक ही स्कूल में पढ़ता था.’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. काफी सारा पैसा उस के बैंक अकाउंट में था, जिसे खर्चने के लिए उसे अपने पिता की इजाजत लेने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

‘‘सौरभ की शादी उस की मरजी से नहीं हुई थी. गूंगीबहरी होने के चलते अपनी पत्नी को वह पसंद नहीं करता था. कहीं न कहीं उस के मन में किसी दूसरी सुंदर लड़की की चाह थी.’’

‘‘तुम्हारी बातों में सचाई है. कई बार उस ने ऐसा कहा था. लेकिन तुम जिरह बहुत अच्छा कर लेती हो. देखना, तुम अच्छी वकील बनोगी.’’

‘‘वह खुद जवान और सुंदर है और तुम भी उस की सुंदरता की ओर खिंचने लगी थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

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‘‘फिर अब तो तुम मानोगी कि तुम से ज्यादा तुम्हारी शारीरिक सुंदरता उसे अपनी ओर खींच रही थी और पहली ही झलक में उस ने तुम में अपनी हवस पूरी की इच्छा की संभावना तलाश ली होगी. और जब तुम ने उस की सोने की महंगी अंगूठी स्वीकार कर ली तब वह पक्का हो गया कि अब तुम उस के जाल में आसानी से फंस सकती हो.

‘‘फिर वही हुआ, अपने पैसे का उस ने भरपूर इस्तेमाल किया और तुम पर बेतहाशा खर्च किया, जिस के नीचे तुम्हारा विवेक भी मर गया. तुम्हारी समझ कुंठित हो गई और तुम ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा धन गंवा दिया, जिसे कुंआरापन कहते हैं.’’

माधुरी के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘बोल तृप्ति बोल, अपने मन की बात खुल कर मेरे सामने रख,’’ माधुरी उत्सुकता से उस की बातें सुन रही थी.

‘‘माधुरी, अब जिस सैक्स सुख के लिए मर्द शादी तक इंतजार करता है, वही उसे उस के पहले ही मिल जाए और उसे यह विश्वास हो जाए कि अपने पैसों से तुम्हारी जैसी लड़कियों को आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक देने और दूसरी से शादी करने का झंझट क्यों मोल लेगा?

‘‘फिर वह अच्छी तरह जानता है कि उस की पत्नी की बदौलत ही उस के पास इतनी दौलत है और उसे तलाक देते ही उस को इस जायदाद से हाथ धोना पड़ जाएगा. मुकदमे का झंझट होगा, सो अलग.

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‘‘मुझे तो लगता है, तुम किसी बड़ी साजिश की शिकार होने वाली हो. तुम से उस का मन भर गया है. अब वह तुम्हें अपने दोस्त को सौंपना चाहता है.’’

‘‘नहींनहीं…’’ अचानक माधुरी के मुंह से चीख सी निकली.

‘‘पर, इस सब में केवल सौरभ ही कुसूरवार नहीं है, तुम भी हो. तुम ने क्या सोच कर अंगूठी अपने जीजाजी और मां से छिपाई.

‘‘जीजाजी के सामने ही क्यों नहीं कहा कि सौरभ, यह अंगूठी तुम्हें उपहार में दे रहा है. मां को भी क्यों नहीं बताया कि लाख मना करने पर भी सौरभ ने अंगूठी नहीं ली.

‘‘अगर तुम ने ऐसा किया होता तो फिर सौरभ समझ जाता कि उस ने गलत जगह अपनी गोटी डाली है और वह आगे बात न बढ़ाता. जवानी और पैसे के लालच में तुम्हारी मति मारी गई थी. तुम गलत को सही और सही को गलत समझने लगी थी.

‘‘तुम्हारी मां गहनों में छूट चाहती थीं. हर ग्राहक की चाहत सस्ता खरीदने की होती है, उन की भी थी. लेकिन वे नाजायज कुछ नहीं चाहती थीं. उन्होंने धूप में अपने बाल सफेद नहीं किए हैं. उन को सौरभ की अंगूठी देने के पीछे की मंशा पता चल गई थी, इसीलिए ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी थी.

‘‘अब तुम्हारी शादी जिस लड़के से तय हुई है, तुम उस से बात करती. उस के स्वभाव, व्यवहार और चरित्र का पता लगाती. अगर पसंद नहीं आता तो साफ इनकार कर देती. यह एक सही कदम होता. इस के लिए कई लोग तुम्हारी मदद में आगे आ जाते. तुम्हारा आत्मविश्वास बना रहता और मनोबल भी ऊंचा रहता.’’

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माधुरी बोली, ‘‘एक गिलास पानी पिला तृप्ति. अब मैं सब समझ गई हूं. कल घर लौट जाऊंगी. मां से बोल दूंगी, आगे की पढ़ाई के लिए समझने मैं तृप्ति के पास आई थी. मां पूछेंगी तो तुम भी यही कह देना.’’

तृप्ति ने कहा, ‘‘कल सुबह मैं चाची को फोन कर के बता दूंगी. सौरभ को अभी तुम बोल दो. अभी वह भी सोया न होगा. बनारस आने की तैयारी में लगा होगा. उस से कहो कि मैं अब गांव लौट रही हूं. मांबाबूजी का दिल दुखाना नहीं चाहती. तुम्हारा घर तोड़ कर किसी की आह नहीं लेना चाहती.

‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि सौरभ खुश होगा कि बला उस के सिर से टलेगी.’’

तृप्ति ने सच ही कहा था. सौरभ अभी जाग रहा था और थोड़ी देर पहले ही मुंबई वाले अपने दोस्त से कहा था, ‘यार, अब इस बला को तुम संभालो. वह सुंदर है. खर्च करोगे तो तुम्हारी हो जाएगी. जब मन भर जाएगा तो कुछ दे कर उस के गांव वाली ट्रेन पर बिठा देना. अब मुझे एक दूसरी मिल गई है.’

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सौरभ ने एक छोटा सा जवाब दिया था, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा. मैं रिजर्वेशन कैंसिल करा देता हूं.’

माधुरी का मन अब हलका था, ‘‘तृप्ति, अब एक काम और कर दे. कल क्यों आज ही घर में फोन कर दे. अभी रात के 12 बजे हैं. मांबाबूजी बहुत चिंतित होंगे. मैं चुपके से यहां आ गई हूं.’’

‘‘अच्छा, बोलती हूं…’’ तृप्ति माधुरी की मां को समझा रही थी, ‘‘चिंता न करें आंटीजी. माधुरी मेरे पास आ गई है. वह आगे पढ़ना चाहती है. आप ने उस को घर से निकलने पर बंदिश लगा दी थी न, इसलिए… हां, उसे बता कर निकलना चाहिए था… अच्छा प्रणाम, माधुरी सो गई है, कल सुबह बात कर लेगी.’’

फोन कट गया. माधुरी को अपने किए पर पछतावा तो था, पर आगे साजिश में फंसने से बच जाने की खुशी भी थी. साथ ही, अपनी सहेली तृप्ति पर गर्व भी था. दोनों सहेलियां बात करतेकरते सो गईं.

Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 2

‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’

‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’

‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तुझ पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’

‘‘मां की बात मुझे बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.

‘‘सच कहूं तृप्ति, मां के इस बरताव से मेरा सौरभ के प्रति और झुकाव बढ़ गया. उस दिन के बाद से मैं उस की दुकान पर जाने का बहाना ढूंढ़ने लगी.

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‘‘एक दिन मौका मिल ही गया. बड़े वाले जीजाजी घर आए थे. मां ने जब भाभी के लिए खरीदे गए गहनों को दिखाया तो वे बोले, ‘सुनार ने वाजिब दाम लगाया है. मुझे भी उपहार में देने के लिए एक अंगूठी की जरूरत है. सलहज की उंगली का नाप आप के पास है ही, इस से थोड़ी अलग डिजाइन की अंगूठी मैं भी उसी दुकान से ले लेता हूं.’

‘‘मां ने कहा था, ‘माधुरी साथ चली जाएगी. दुकानदार का लड़का इस का परिचित है. कुछ छूट भी कर देगा.’

‘‘मां ने अंगूठी लौटाने वाली बात को जानबूझ कर छिपा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मुझ पर किसी तरह का आरोप लगे. मेरी शादी के लिए बाबूजी किसी नौकरी वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘दूसरे दिन जीजाजी के साथ जब मैं उस की दुकान पर पहुंची तब सौरभ किसी औरत को अंगूठी दिखा रहा था. मुझे देखते ही वह मुसकराया और बैठने के लिए इशारा किया. जब जीजाजी ने अंगूठी दिखाने को कहा तो उस के पिताजी ने उसी की ओर इशारा कर दिया.

‘‘तभी कोई फोन आया और उस के पिताजी बोले, ‘2-3 घंटे के लिए मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं. ये लोग पुराने ग्राहक हैं, इन का ध्यान रखना.’

‘‘यह सुन कर सौरभ के चेहरे पर मुसकान थिरक गई. वह बोला, ‘जी बाबूजी, मैं सब संभाल लूंगा.’’

‘‘जीजाजी ने एक अंगूठी पसंद की और उस का दाम पूछा. मैं ने कहा, ‘मेरे जीजाजी हैं.’

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‘‘मेरा इशारा समझ कर सौरभ ने कहा, ‘फिर तो जो आप दे दें, मुझे मंजूर होगा.’

‘‘जीजाजी ने बहुत कहा, लेकिन वह एक ही रट लगाए रहा, ‘आप जो देंगे, ले लूंगा. आप लोग पुराने ग्राहक हैं. आप लोगों से क्या मोलभाव करना है.’

‘‘जीजाजी धर्मसंकट में थे. उन्होंने अपना डैबिट कार्ड बढ़ाते हुए कहा, ‘अब मैं भी मोलभाव नहीं करूंगा. आप जो दाम भर देंगे, स्वीकार कर लूंगा.’

‘‘खैर, जीजाजी ने जो सोचा था, उस से कम दाम उस ने लगाया. उस ने हम लोगों के लिए मिठाई मंगाई और जब जीजाजी मुंह धोने वाशबेसिन की ओर गए तो वही पुरानी अंगूठी मुझे जबरन थमाते हुए कहा था, ‘अब फिर न लौटाना… नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा.’

‘‘जीजाजी देख न लें, इसलिए मैं ने उस अंगूठी को ले कर छिपा लिया.

‘‘उस दिन के बाद हम दोनों मौका निकाल कर चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. सौरभ से मालूम हुआ कि उस के पिताजी ने पिछले साल उस की शादी एक अमीर लड़की से दहेज के लालच में करा दी थी. लड़की तो सुंदर है, लेकिन गूंगीबहरी है. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी है. मां का देहांत हो चुका है. पिता ने अपनी जायदाद लड़की के नाम कर दी है. शहर में एक तिमंजिला मकान भी उस की नाम से है. उस मकान से हर महीने अच्छा किराया मिलता है. रुपयापैसा उसी के अकाउंट में जमा होता है. पिताजी ने भी गहनों की यह दुकान उस के नाम कर दी है.

‘‘तृप्ति, सौरभ मुझ पर इतना पैसा खर्च करने लगा कि मैं उसी की हो कर रह गई.’’

‘‘यानी तुम ने अपना जिस्म भी उसे सौंप दिया?’’ तृप्ति ने हैरान होते हुए पूछ लिया.

‘‘क्या करती… कई बार हम लोग होटल में मिले. कोई न कोई बहाना बना कर मैं सुबह निकलती और उस के बुक कराए होटल में पहुंच जाती. शुरू में तो काफी हिचकिचाई, पर बाद में उस के आग्रह के आगे झुक गई.’’

‘‘फिर…?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘फिर क्या… मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’

‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’

‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.

‘‘बाबूजी तैयार हो गए. मां ने विरोध किया तो कहने लगे, ‘एक पैर ही तो खराब है. सरकारी नौकरी है. उसे कई रियायतें भी मिलेंगी.

‘‘जब मां भी तैयार हो गईं तो मैं ने मुंह खोला, पर उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें तो नौकरी मिली नहीं, अब मुश्किल से नौकरी वाला एक लड़का मिला है, तो जबान चलाती है.’

‘‘लेकिन, बात यह नहीं थी. किसी ने मां के कान में डाल दिया था कि मेरा सौरभ से मिलनाजुलना है. मां को तो उसी समय शक हो गया था, जब मैं अंगूठी बिना लौटाए आ गई थी.

‘‘इधर सौरभ मेरे लिए कुछ न कुछ हमेशा खरीदता रहता था. अब घर में क्याक्या छिपाती मैं. कोई न कोई बहाना बनाती, पर मां का शक दूर न होता. वे भी चाहती थीं कि किसी तरह जल्द से जल्द मेरी शादी हो जाए, ताकि समाज में उन की नाक न कटे.

‘‘मां का मुझ पर भरोसा नहीं रहा था. उन्होंने मुझे गांव से बाहर जाने की मनाही कर दी. उधर बाबूजी ने जीजाजी के प्रस्ताव पर हामी भर दी.

लड़के ने मेरा फोटो और बायोडाटा देख कर शादी करने का फैसला मुझ पर छोड़ दिया. बिना मुझ से सलाह लिए मांबाबूजी ने अगले महीने मेरी शादी की तारीख भी पक्की कर दी है.

‘‘मांबाबूजी का यह रवैया मुझे नागवार लगा, इसलिए मैं  सौरभ से इस संबंध में बात करना चाहती थी. मैं उस के साथ कहीं भाग जाना चाहती थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

Serial Story: दस्विदानिया भाग 1

दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

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दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम 2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

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1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

Serial Story: चिंता- पार्ट 1

लेखक-  कृष्णकांत

पद्मजा उस दिन घर पर अकेली गुमसुम बैठी थीं. पति संपत कैंप पर थे तो बेटा उच्च शिक्षा के लिए पड़ोसी प्रदेश में चला गया था और बेटी समीरा शादी कर के अपने ससुराल चली गई. बेटी के रहते पद्मजा को कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं हुई. वह बड़ी हो जाने के बाद भी छोटी बच्ची की तरह मां का पल्लू पकड़े, पीछेपीछे घूमती रहती थी. एक अच्छी सहेली की तरह वह घरेलू कामों में पद्मजा का साथ देती थी. यहां तक कि वह एक सयानी लड़की की तरह मां को यह समझाती रहती थी कि किस मौके पर कौन सी साड़ी पहननी है और किस साड़ी पर कौन से गहने अच्छे लगते हैं.

ससुराल जाने के बाद समीरा अपनी सूक्तियां पत्रों द्वारा भेजती रहती जिन्हें पढ़ते समय पद्मजा को ऐसा लगता मानो बेटी सामने ही खड़ी हो.

उस दिन पद्मजा बड़ी बेचैनी से डाकिए की राह देख रही थीं और मन में सोच रही थीं कि जाने क्यों इस बार समीरा को चिट्ठी लिखने में  इतनी देर हो गई है. इस बार क्या लिखेगी वह चिट्ठी में? क्या वह मां बन जाने की खुशखबरी तो नहीं देगी? वैसी खबर की गंध मिल जाए तो मैं अगले क्षण ही वहां साड़ी, फल, फूलों के साथ पहुंच जाऊंगी.

तभी डाकिया आया और उन के हाथ में एक चिट्ठी दे गया. पद्मजा की उत्सुकता बढ़ गई.

चिट्ठी खोल कर देखा तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कारण, चिट्ठी में केवल 4 ही पंक्तियां लिखी थीं. उन्होंने उन पंक्तियों पर तुरंत नजर दौड़ाई.

‘‘मां,

तुम ने कई बार मेरी घरगृहस्थी के बारे में सवाल किया, लेकिन मैं इसलिए कुछ भी नहीं बोली कि अगर तुम्हें पता चल जाए तो तुम बरदाश्त नहीं कर पाओगी. मां, हम धोखा खा चुके हैं. वह शराबी हैं, जब भी पी कर घर आते हैं, मुझ से झगड़ा करते हैं. कल रात उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठाया. अब मैं इस नरक में एक पल भी नहीं रह पाऊंगी. इसलिए सोचा कि इस दुनिया से विदा लेने से पहले तुम्हारे सामने अपना दिल खोलूं, तुम से भी आज्ञा ले लूं. मुझे माफ करो, मां. यह मेरी आखिरी चिट्ठी है. मैं हमेशाहमेशा के लिए चली जा रही हूं, दूर…इस दुनिया से बहुत दूर.

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-समीरा.’’

पद्मजा को लगा मानो उन के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. ऐसा लगा मानो एक भूचाल आया और वह मलबे के नीचे धंसती जा रही हैं.

‘क्या यह सच है? उन के दिल ने खुद से सवाल पूछा, क्योंकि ‘समीरा के लिए जब यह रिश्ता पक्का हुआ था तो वह कितनी खुश थी. समीरा तो फूली न समाई. लेकिन ऐसा कैसे हो गया?’

अतीत की बातें सोच कर पद्मजा का मन बोझिल हो गया. उन की आंखें डबडबाने लगीं.

वह फिर सोचने लगीं कि इस वक्त घर पर मैं अकेली हूं. अब कैसे जाऊं? ट्रेन या बस से जाने पर तो कम से कम 5-6 घंटे लग ही जाएंगे.’ तभी उन के दिमाग में एक उपाय कौंध गया और तुरंत उन्होंने अपने पति के मित्र केशवराव का नंबर मिलाया.

‘‘भैया, मुझे फौरन आप की गाड़ी चाहिए. मुझे अभीअभी खबर मिली है कि समीरा की हालत बहुत खराब है. आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी,’’

केशवराव ने तुरंत ड्राइवर सहित अपनी गाड़ी भेज दी. गाड़ी में बैठते ही पद्मजा ने ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, जरा गाड़ी तेज चलाना.’’

गाड़ी नेशनल हाईवे पर दौड़ रही थी. पीछे वाली सीट पर बैठी पद्मजा का मन बेचैन था. रहरह कर उन्हें अपनी बेटी समीरा की लाश आंखों के सामने प्रत्यक्ष सी होने लगती थी.

कार की रफ्तार के साथ पद्मजा के विचार भी दौड़ रहे थे. उन का अतीत चलचित्र की भांति आंखों के सामने साकार होने लगा.

‘पद्मजा,’ तेरे मुंह में घीशक्कर. ले… लड़के वालों से चिट्ठी मिल गई. उन को तू पसंद आ गई,’ सावित्रम्मा का मन खुशी से नाच उठा.

‘मां, मैं कई बार तुम से कह चुकी हूं कि यह रिश्ता मुझे पसंद नहीं है. मैं ने शशिधर से प्यार किया है. मैं बस, उसी से शादी करूंगी. वरना…’ पद्मजा की आवाज में दृढ़ता थी.

‘चुप, यह क्या बक रही है तू. अगर कोई सुन लेता तो एक तो हम यह रिश्ता खो बैठेंगे और दूसरे तू जिंदगी भर कुंआरी बैठी रहेगी. मुझे सब पता है. शशिधर से तेरी जोड़ी नहीं बनेगी. वह तेरे लायक नहीं. हम तेरे मांबाप हैं. तुझ से ज्यादा हमें तेरी भलाई की चिंता है. हम तेरे दुश्मन थोड़े ही हैं,’ कहती हुई मां सावित्री गुस्से में वहां से चली गईं.

मां की बातों का असर पद्मजा पर बिलकुल नहीं पड़ा, उलटे उस का क्रोध दोगुना हो गया. वह सोचने लगी कि वह मां मां नहीं और वह बाप बाप नहीं जो अपनी संतान की पसंद, नापसंद को न समझे.

वैसे पद्मजा शुरू से ही तुनकमिजाज थी. उस में जोश ज्यादा था. जब भी कोई ऐसी घटना हो जाती थी जो उस के मन के खिलाफ हो, तो तुरंत वह आपे से बाहर हो जाती. वह अगले पल अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर देती और पिता की नींद की गोलियां मुट्ठी भर ले कर निगल भी लेती थी.

सावित्रम्मा बेटी पद्मजा का स्वभाव अच्छी तरह से जानती थीं. इस से पहले भी एक बार मेडिकल में सीट न मिलने पर उस ने ब्लेड से अपनी एक नस काट दी थी. नतीजा यह हुआ कि उस की जान आफत में पड़ गई. इसी वजह से, सावित्रम्मा अपनी बेटी के व्यवहार पर नजर गड़ाए बैठी थीं. बेटी के अपने कमरे में घुसते ही उस ने यह खबर पति के कान में डाल दी. पतिपत्नी दोनों के बारबार बुलाने पर भी वह बाहर न आई. लाचार हो कर पतिपत्नी ने दरवाजा तोड़ दिया और पद्मजा को अस्पताल में दाखिल कर दिया.

‘पद्मा, यह तुम क्या कह रही हो? तुम्हारी मूर्खता रोजरोज बढ़ती जा रही है. पढ़ीलिखी हो कर तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए.’ संपत बड़ी बेचैनी से पत्नी पद्मजा से बोला.

पद्मजा एकदम बिगड़ गई.

‘हां…पढ़ीलिखी होने की वजह से ही मैं आप से यह पूछ रही हूं. मेरे साथ अन्याय हो तो मैं क्यों बरदाश्त करूं? और कैसे बरदाश्त करूं? मैं पुराणयुग की भोली अबला थोड़े ही हूं कि आप अपनी मनमानी करते रहें, बाहर गुलछर्रे उड़ाएं, ऐश करें और मैं चुपचाप देखती रहूं. आप कभी यह नहीं समझना कि मैं सीतासावित्री के जमाने की हूं और आप की हर भूल को माफ कर दूंगी. आखिर मैं ने क्या भूल की है? क्या अपने पति पर सिर्फ अपना ही हक मानना अपराध है? दूसरी महिलाओं से नाता जोड़ना, उन के चारों ओर चक्कर काटना तो क्या मैं चुपचाप देखती रहूं.’

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‘वैसा पूछना गलत नहीं हो सकता है लेकिन मैं ने वैसा किया कब था? यह सब तेरा वहम है. तेरे दिमाग पर शक का भूत सवार है. वह उठतेबैठते, किसी के साथ मिलते, बात करते मेरा पीछा कर रहा है. तेरी राय में मेरी कोई लेडी स्टेनो नहीं रहनी चाहिए. मेरे दोस्तों की बीवियों से भी मुझे बात नहीं करनी चाहिए… है न.’

‘ऐसा मैं ने थोड़े ही कहा है, जो कुछ मैं ने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना वही तो बता रही हूं. सचाई क्या है, मैं जानती हूं. आप के इस तरह चिल्लाने से सचाई दब नहीं सकती.’

चरित्र- भाग 1

लेखक- अनिल के. माथुर

‘‘उफ, इसे भी अभी ही बजना था,’’ आटा सने हाथों से ही मधु ने दरवाजा खोला. सामने मणिकांत खड़ा था, जो उसी के कालिज में लाइब्रेरी का चपरासी था.

‘‘तुम…’’ बात अधूरी छोड़ मधु रोते विशू को उठाने लपकी मगर अपने आटा सने हाथ देख कर ठिठक गई. परिस्थिति को भांपते हुए मणिकांत ने अपने हाथ की पुस्तकें नीचे रखीं और विशू को गोद में उठा कर चुप कराने लगा.

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर मधु हाथ धोने रसोई में चली गई. एक मिनट बाद ही तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह फिर कमरे में आई और मणिकांत की गोद से विशू को ले लिया.

‘‘मैडम, आप ये पुस्तकें लाइब्रेरी में ही भूल आई थीं,’’ पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए मणिकांत ने कुछ इस तरह से कहा मानो वह अपने आने के मकसद को जाहिर कर रहा हो.

मधु को याद आया कि पुस्तकें ढूंढ़ कर जब वह उन्हें लाइब्रेरियन से अपने नाम इश्यू करवा रही थी तभी उस का मोबाइल बज उठा था. लाइब्रेरी की शांति भंग न हो इसलिए वह बात करती हुई बाहर आ गई थी. पति सुमित का फोन था. वह आफिस के कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को डिनर पर ला रहे थे. मधु को जल्दी

घर पहुंचना था. जल्दबाजी में वह अंदर से पुस्तकें लेना भूल गई और सीधे घर आ गई थी.

‘‘अरे, यह तो मैं कल ले लेती, पर तुम्हें मेरे घर का पता कैसे चला?’’

‘‘जहां चाह वहां राह. किसी से पूछ लिया था. लगता है आप खाना बना रही हैं. बच्चे को तब तक मैं रख लेता हूं,’’ मणिकांत ने विशू को गोद में लेने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ाए तो मधु पीछे हट गई.

‘‘नहीं…नहीं, मैं सब कर लूंगी. मेरा तो यह रोज का काम है. तुम जाओ,’’ दरवाजा बंद कर वह विशू को सुलाने का प्रयास करने लगी. विशू को थपकी देते हाथ मानो उस के दिमाग को भी थपथपा रहे थे.

उस की जिंदगी कितनी भागम- भाग भरी हो गई है. बाई तो बस, बंधाबंधाया काम करती है, बाकी सब तो उसे ही देखना पड़ता है. सुबह जल्दी उठ कर लंच पैक कर सुमित को आफिस रवाना करना, विशू को संभालना, खुद तैयार होना, विशू को रास्ते में क्रेच छोड़ना, कालिज पहुंचना, लौटते समय विशू को लेना, घर पहुंच कर सुबह की बिखरी गृहस्थी समेटना और उबासियां लेते हुए सुमित का इंतजार करना.

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थकेहारे सुमित रात को कभी 10 तो कभी 11 बजे लौटते. कभी खाए और कभी बिना खाए ही सो जाते. मधु जानती थी, प्राइवेट नौकरी में वेतन ज्यादा होता है तो काम भी कस कर लिया जाता है. यद्यपि पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. सुमित 8 बजे तक घर लौट आते थे और शाम का खाना दोनों साथ खाते थे. लेकिन जब से सुमित की कंपनी के मालिक की मृत्यु हुई थी और उन की विधवा ने सारा काम संभाला था तब से सुमित की जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई थीं और उस ने देरी से आना शुरू कर दिया था.

मधु शिकायत करती तो सुमित लाचारी से कहते, ‘‘क्या करूं डियर, आना तो मैं भी जल्दी चाहता हूं पर मैडम को अभी काम समझने में समय लगेगा. उन्हें बताने में देर हो जाती है.’’

एक विधवा के प्रति सहज सहानुभूति मान कर मधु चुप रह जाती.

शादी से पहले की प्रवक्ता की अपनी नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहती थी. उस का पढ़ने का शौक शादी के बाद तक बरकरार था. इसलिए अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर वह लाइब्रेरी से पुस्तकें लाती रहती थी और देर रात सुमित का इंतजार करते हुए उन्हें पढ़ती रहती. हालात से अब उस ने समझौता कर लिया था. पर कभीकभी कुछ बेहद जरूरी मौकों पर उसे सुमित की गैरमौजूदगी खलती भी थी.

उस दिन भी वह आटो में गृहस्थी का सारा सामान ले कर 2 घंटे बाद घर लौटी तो थक कर चूर हो चुकी थी. गोद में विशू को लिए उस ने दोनों हाथों में भरे  हुए थैले उठाने चाहे तो लगा चक्कर खा कर वहीं न गिर पड़े. तभी जाने कहां से मणिकांत आ टपका था.

तुरतफुरत मणिकांत ने मधु को मय सामान और विशू के घर के अंदर पहुंचा दिया था. शिष्टतावश मधु ने उसे चाय पीने के लिए रोक लिया. वह चाय बनाने रसोई में घुसी तो विशू ने पौटी कर दी. मधु उस के कपड़े बदल कर लाई तब तक देखा मणिकांत 2 प्यालों में चाय सजाए उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अरे, तुम ने क्यों तकलीफ की? मैं तो आ ही रही थी,’’ मधु को संकोच ने आ घेरा था.

‘‘तकलीफ कैसी, मैडम? आप को इतना थका देख कर मैं तो वैसे भी कहने वाला था कि चाय मुझे बनाने दें, पर…’’

‘‘अच्छा, बैठो. चाय पीओ,’’ मधु ने सामने के सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, तुम इधर कैसे आए?’’

‘‘इधर मेरा कजिन रहता है. उसी से मिलने जा रहा था कि आप दिख गईं,’’ चाय पीते हुए मणिकांत ने पूछा, ‘‘मैडम, साहब कहीं बाहर नौकरी करते हैं?’’

‘‘अरे, नहीं. इसी शहर में हैं पर दफ्तर में बहुत व्यस्त रहते हैं इसलिए घर देर से आते हैं. सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है,’’ मधु कह तो गई पर फिर बात बदलते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मांपिताजी हैं, जो गांव में रहते हैं. शादी अभी हुई नहीं है. थोड़ा पढ़ालिखा हूं इसलिए शहर आ कर नौकरी करने लगा. पढ़नेलिखने का शौक है इसलिए पुराने मालिक ने यहां लाइब्रेरी में लगवा दिया,’’ कहते हुए मणिकांत उठ खड़ा हुआ. मधु उसे छोड़ने बाहर आई. उसे वापस उसी दिशा में जाते देख मधु ने टोका, ‘‘तुम अपने कजिन के यहां जाने वाले थे न?’’

‘‘हां…हां. पर आज यहीं बहुत देर हो गई है. फिर कभी चला जाऊंगा.’’

उस का रहस्यमय व्यवहार मधु की समझ में नहीं आ रहा था. उसे तो यह भी शक होने लगा था कि वह अपने कजिन से नहीं बल्कि उसी से मिलने आया था.

रात को मधु ने सुमित को मणिकांत के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘भई, कमाल है,’’ सुमित बोले, ‘‘एक तो बेचारा तुम्हारी इतनी मदद कर रहा है और तुम हो कि उसी पर शक कर रही हो. खुद ही तो कहती रहती हो कि मैं गृहस्थी और विशू को अकेली ही संभालतेसंभालते थक जाती हूं. कोई हैल्पिंगहैंड नहीं है. अब यदि यह हैल्पिंग- हैंड आ गया है तो अपनी शिकायतों को खत्म कर दो. चाहो तो उसे काम के बदले पैसे दे दिया करो ताकि तुम्हें उस से काम लेने में संकोच न हो.’’

‘‘हूं, यह भी ठीक है,’’ मधु को सुमित की बात जंच गई.

अब मधु गाहेबगाहे मणिकांत की मदद ले लेती. वह तो हर रोज आने को तैयार था पर मधु का रवैया भांप कम ही आता था. हां, जब भी मणिकांत आता मधु के ढेरों काम निबटा जाता. कभी बिना कहे ही शाम को ढेरों सब्जियां ले कर पहुंच जाता. मधु उसे हिसाब से कुछ ज्यादा ही पैसे पकड़ा देती. फिर वह देर तक विशू को खिलाता रहता, तब तक मधु सारे काम निबटा लेती. फिर मधु उसे खाना खिला कर ही भेजती थी.

पैसे लेने में शुरू में तो मणिकांत ने बहुत आनाकानी की पर जब मधु ने धमकी दी कि फिर यहां आने की जरूरत नहीं है तो वह पैसा लेना मान गया. विशू भी अब उस से बहुत हिलमिल गया था. मधु को भी उस की आदत सी पड़ गई थी.

मणिकांत का पढ़ने का शौक भी मधु के माध्यम से पूरा हो जाता था क्योंकि वह लाइब्रेरी से अच्छी पुस्तकें चुनने में उस की मदद करती थी. किसी पुस्तक के बारे में उसे घंटों समझाती. इस तरह अपनी नीरस जिंदगी में अब मधु को कुछ सार नजर आने लगा था.

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मंथर हत्या

लेखिका- कादंबरी मेहरा    

मैं अनीता जोशी, माताजी की नर्स हूं.

माताजी जब बड़े भैया के यहां से वापस आई थीं, एकदम चुस्त- दुरुस्त थीं. खूब हंसहंस कर बाबूजी को बता रही थीं कि क्या खाया, क्या पिया, किस ने पकाया.

बड़े भैया जब भी कनाडा से भारत आते मां को अपने फ्लैट पर ले जाते और अमृतसर से अपनी छोटी बहन मंजू को भी बुला लेते. कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है. महीना भर के लिए मेरी भी मौज हो जाती. मैं भी उधर ही रहती. माताजी पिछले 4 सालों से मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर थीं. 90 साल की उम्र ठहरी, शरीर के सभी जरूरी काम बिस्तर पर ही निबटाने पड़ते थे.

वैसे देखा जाए तो सुरेश और उन की पत्नी संतोष को सेवा करनी चाहिए. मांबाप के घर में जो रह रहे हैं. कभी काम नहीं जमाया. एक तरह से बाबूजी का ही सब हथिया कर बैठ गए हैं. संतोष बीबीजी भी एकदम रूखी हैं. पता नहीं कैसे संस्कार पाए हैं. औरत होते हुए भी इन का दिल कभी अपनी सास के प्रति नहीं पसीजता. बस, अपने पति और बच्चों से मतलब या पति की गांठ से.

इधर कई महीनों से माताजी रात को आवाज लगाती थीं तो सुरेश का परिवार सुनीअनसुनी कर देता था. एक दिन बाबूजी ने सुरेश के बच्चों को फटकारा तो वह कहने लगे कि ऊपर तक आवाज सुनाई नहीं देती. आवाज लगाना फुजूल हुआ तो माताजी ने कटोरी पर चम्मच बजा कर घंटी बना ली. इस पर संतोष बीबीजी ने यह कह कर कटोरी की जगह प्लास्टिक की डब्बी रखवा दी कि कटोरी बजाबजा कर बुढि़या ने सिर में दर्द कर दिया.

मैं ड्यूटी पर आई तो माताजी ने कहा कि अनीता, तू ने मुझे रात को खाना क्यों नहीं दिया. मैं बोली कि खाना तो मैं बना कर जाती हूं और आशीष आप को दोनों समय खाना खिलाता है. मैं ने ऊपर जा कर छोटी बहू संतोष से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘अरे, इस बुढि़या का तो दिमाग चल गया है. खाऊखाऊ हमेशा लगाए रखती है. खाना दिया था यह भूल गई.’’

अगले दिन बाबूजी से पूछा तो वह कहने लगे कि डाक्टर ने खाने के लिए मना किया है. रात का खाना खिलाने से इन का पेट खराब हो जाएगा. ताकत की दवाइयां दे गया है. आशीष खिला देता है.

मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘डाक्टर आप को देखने आया था लेकिन आप ने तो नहीं बताया.’’

माताजी हैरान हो कर बोलीं, ‘‘कौन सा डाक्टर? अरे, मैं तो डा. चावला को दिखाती थी पर उन को मरे हुए तो 2 साल हो गए. दूसरे किसी डाक्टर को ये इसलिए नहीं दिखाते कि मुझ पर इन को पैसा खर्च करना पड़ेगा.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘ताकत की गोलियां कहां हैं मांजी, दूध के संग उन्हें मेरे सामने ही ले लो.’’

वह बोलीं, ‘‘कौन सी गोलियां? मरने को बैठी हूं… झूठ क्यों बोलूंगी? 3 दिन से रात का खाना बंद कर दिया है मेरा. जा, पूछ, क्यों किया ऐसा.’’

मैं ने तरस खा कर जल्दी से एक अंडा आधा उबाला और डबल रोटी का एक स्लाइस ले कर अपने घर जाने से पहले उन्हें खिला दिया.

अगले दिन मेरी आफत आ गई. सुरेश बाबू ने मुझे डांटा और कहा कि जो वह कहेंगे वही मुझे करना पड़ेगा. रात को उन्हें पाखाना कौन कराएगा.

मैं ने दबी जबान से दलील दी कि भूख तो जिंदा इनसान को लगती ही है, तो चिल्ला पड़े, ‘‘तू मुझे सिखाएगी?’’

मैं भी मकानजायदाद वाली हूं. घर से कमजोर नहीं हूं. मेरा बड़ा बेटा डाक्टरी पढ़ रहा है. छोटा दर्जी की दुकान करता है. उसी की कमाई से फीस भरती हूं. दोनों मुझे यहां कभी न आने देते. मगर माताजी मेरे बिना रोने लगती हैं. मैं हूं भी कदकाठी से तगड़ी. माताजी 80 किलो की तो जरूर होंगी. उन्हें उठानाबैठाना आसान काम तो नहीं और मैं कर भी लेती हूं.

एक बार कनाडा से माताजी जिमर फ्रेम ले आई थीं जो वजन में हलका और मजबूत था. माताजी उसे पकड़ कर चल लेती थीं. अंदरबाहर भी हो आती थीं. पर तभी छोटी बहू के पिताजी को लकवा मार गया. अत: उन्होंने जिमर फ्रेम अपने पिताजी को भिजवा दिया.

बड़े भैया जब अगली बार आए तो अपनी मां को एक पहिएदार कुरसी दिला गए. मैं उसी पर बैठा कर उन को नहलानेधुलाने बाथरूम में ले जाती थी. मगर 2 साल पहले जब आशीष ने कंप्यूटर खरीदा तो संतोष बीबीजी ने उस की पुरानी मेज माताजी के कमरे में रखवा दी जिस से व्हील चेयर के लिए रास्ता ही नहीं बचा.

बड़े भैया कनाडा से आते तो अपनी मां के लिए जरूरत का सब सामान ले आते. भाभीजी सफाईपसंद हैं, एकदम कंचन सा सास को रखतीं. भाभीजी अपने हाथ से माताजी की पसंद का खाना बना कर खिलातीं. बाबूजी बड़े भैया के घर नहीं जाते थे. सुरेश ने कुछ ऐसा काम कर रखा था कि बाप बेटे से जुदा हो गया. बाबूजी के मन में अपने बड़े बेटे के प्रति कैसा भाव था यह तब देखने को मिला जब भैया माताजी से मिलने आए तो बाबूजी परदे के पीछे चले गए. इस के बाद ही बड़े भैया ने अलग मकान लिया और मां को बुलवा कर उन की सारी इच्छाओं को पूरा करते थे. तब मेरी भी खूब मौज रहती. वह मुझे 24 घंटे माताजी के पास रखते और उतने दिनों के पैसों के साथ इनाम भी देते.

फिर जब उन के कनाडा जाने का समय आता तो वह माताजी को वापस यहां छोड़ जाते और वह फिर उसी गंदी कोठरी में कैद हो जातीं. भाभीजी की लाई हुई सब चीजें एकएक कर गायब हो जातीं. मैं ने एक बार इस बात की बाबूजी से शिकायत की तो उलटा मुझ पर ही दोष लगा दिया गया. मैं ने जवाब दे दिया कि कल से नहीं आऊंगी, दूसरा इंतजाम कर लो. मगर माताजी ने मेरे नाम की जो रट लगाई कि उन का चेहरा देख कर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा.

खाना तो रोज बनता है इस घर में. बाबूजी को खातिर से खिलाते हैं मगर मांजी के लिए 2 रोटी नहीं हैं. यह वही मां है जिस ने किसी को कभी भूखा नहीं सोने दिया. देवर, ननद, सासससुर, बच्चे सब संग ही तो रहते थे. आज उसी का सब से लाड़ला बेटा उसे 2 रोटी और 1 कटोरी सब्जी न दे? क्या कोई दुश्मनी थी?

माताजी की सहेली भी मैं ही थी. एक दिन उन से पूछा तो कहने लगीं कि बाबूजी की ये खातिरवातिर कुछ नहीं करते. सब नीयत के खोटे हैं. बाबूजी के बैंक खाते में करोड़ों रुपए हैं इसलिए उन्हें मस्का लगाते हैं. मैं ठहरी औरत जात. 2-4 गहने थे उन्हें बेटी के नेगजोग में दे बैठी. इन पर बोझ नहीं डाला कभी. अब मैं खाली हाथ खर्चे ही तो करवा रही हूं. रोज दवाइयां, डाक्टर. ऊपर से मुझे दोष लगाते हैं कि तू मेरे गहने परायों को दे आई.

आज सुरेश अपनी बीवी को 5 हजार रुपया महीना जेबखर्च देता है. मेरा आदमी इसे देख कर भी नहीं सीखता. पहले तो ऐसा रिवाज नहीं था. औरतों को कौन जेबखर्च देता था.

माताजी की बाबूजी से नहीं बनती. कैसे बने? शराबी का अपना दिमाग तो होता नहीं. सुरेश के हाथ कठपुतली बन कर रह गए हैं. 10वीं में बेटा फेल हुआ तो उसे अपने साथ दुकानदारी में लगा लिया और पीना भी सिखा दिया. अब उसी नालायक से यारी निभा रहे हैं. माताजी कहती थीं कि देखना अनीता, जिस दिन मेरी आंखें बंद हो जाएंगी यह बाप की रोटीपानी भी बंद कर देगा. बाप को बोतल पकड़ा कर निचोड़ रहा है, ताकि जल्दी मरे.

माताजी कोसतीं कि इतनी बड़ी कोठी कौडि़यों के मोल बेच दी और इस दड़बे जैसे घर में आ बैठा, जहां न हवा है न रोशनी. मेरे कमरे में तो सूरज के ढलने या उगने का पता ही नहीं चलता. ऊपर से संतोष ने सारे घर का कबाड़ यहीं फेंक रखा है.

माताजी रोज अपनी कोठी को याद करती थीं. सुबह चिडि़यों को दाना डालती थीं. सूरज को निकलते देखतीं, पौधों को सींचतीं. ग्वाला गाय ले कर आता तो दूध सामने बैठ कर कढ़वातीं. लोकाट और आम के पेड़ थे, लाल फूलों वाली बेल थीं.

बड़े भैया के बच्चे सामने चबूतरे पर खेलते थे. बड़े भैया अच्छा कमाते थे. सारे घर का खर्च उठाते थे. सारा परिवार एक छत के नीचे रहता था और यह सुरेश की बहू डोली से उतरने के 4 दिन बाद से  ही गुर्राने लगी. अपने घर की कहानी सुनातेसुनाते माताजी रो पड़तीं.

इस बार बड़े भैया जब आए तब जाने क्यों बाबूजी खुद ही उन से बोलने लगे. भाभीजी ने पांव छुए तो फल उठा कर उन के आंचल में डाले. पास बैठ कर घंटों अच्छे दिनों की यादें सुनाने लगे. जब वह लोग माताजी को अपने फ्लैट पर ले गए तो मैं ने देखा कि उस रोज बाबूजी पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रो रहे थे.

मैं रुक गई और पूछा, ‘‘क्या बात हो गई?’’ तो कहने लगे कि अनीता, आज तो मैं लुट गया. मेरा एक डिविडेंड आना था. सुरेश फार्म पर साइन करवाने कागज लाया था. मगर मैं ने कुछ अधिक ही पी रखी थी. उस ने बीच में सादे स्टांप पेपर पर साइन करवा लिए. नशा उतरने के बाद अपनी गलती पर पछता रहा हूं. अरे, यह सुरेश किसी का सगा नहीं है. पहले बड़े भाई के संग काम करता था तो उसे बरबाद किया. वह तो बेचारा मेहनत करने परदेस चला गया. मुझ से कहता था, भाई ने रकम दबा ली है और भाग निकला है. मैं भी उसे ही अब तक खुदगर्ज समझता रहा मगर बेईमान यह निकला.

मैं ने कहा, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है. सबकुछ तो आप के पास है. बड़े को उस का हक दो और आप भी कनाडा देखो.’’

वह हताश हो कर बोले, ‘‘अनीता, कल तक सब था, आज लुट गया हूं. क्या मुंह दिखाऊंगा उसे. मुझे लगता है कि मैं ने इस बार बड़े से बात कर ली तो छोटे ने जलन में मुझे बरबाद कर दिया.’’

मन में आया कह दूं कि आप को तो रुपए की बोरी समझ कर संभाल रखा है. मांजी पर कुछ नहीं है इसलिए उन्हें बड़े भाई के पास बेरोकटोक जाने देता है. मगर मैं क्यों इतनी बड़ी बात जबान पर लाती.

होली की छुट्टियों में मैं गांव गई थी. जाते समय जमादारिन से कह गई थी कि माताजी को देख लेगी. 4 दिन बाद गांव से लौटी तो देखा माताजी बेहोश पड़ी थीं. बड़े भैया 1 माह की दवाइयां, खाने का दिन, समय आदि लिख कर दे गए थे. उसी डा. चावला को टैक्सी भेज कर बुलवाया था जिसे इन लोगों ने मरा बता दिया था. माताजी देख कर हैरान रह गई थीं. डाक्टर साहब ने हंस कर कहा था, ‘‘उठिए, मांजी, स्वर्ग से आप को देखने के लिए आया हूं.’’

बाबूजी ने मुझे बताया कि जब से तू गांव गई सुरेश ने एक भी दवाई नहीं दी. कहने लगा कि आशीष और विशेष की परीक्षाएं हैं, उस के पास दवा देने का दिन भर समय नहीं और मुझे तो ठीक से कुछ दिखता नहीं.

माताजी ब्लड प्रेशर की दवा पिछले 55 साल से खाती आ रही हैं. मुझे बाबूजी से मालूम हुआ कि दवा बंद कर देने से उन का दिल घबराया और सिर में दर्द होने लगा तो सुरेश ने आधी गोली नींद की दे दी थी. उस के बाद ही इन की हालत खराब हुई है.

मैं ने माताजी की यह हालत देखी तो झटपट बड़े भैया को फोन लगाया. सुनते ही वह दौड़े आए. बड़ी भाभी ने हिलाडुला कर किसी तरह उठाया और पानी पिलाया. माताजी ने आंखें खोलीं. थोड़ा मुसकराईं और आशीर्वाद दिया, ‘‘सुखी रहो…सदा सुहागिन बनी रहो.’’

बस, यही उन के आखिरी बोल थे. अगले 7 दिन वह जिंदा तो रहीं पर न खाना मांगा न उठ कर बैठ पाईं. डाक्टर ने कहा, सांस लेने में तकलीफ है. चम्मच से पानी बराबर देते रहिए.

मैं बैठी रही पर उन्होंने आंखें नहीं खोलीं. ज्यादा हालत बिगड़ी तो डाक्टर ने कहा कि इन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ेगा.

सुरेश झट से बोला, ‘‘देख लो, बाबूजी. क्या फायदा ले जाने का, पैसे ही बरबाद होंगे.’’

तभी बड़ी भाभी ने अंगरेजी में बाबूजी को डांटा कि आप इन के पति हैं. यह घड़ी सोचने की नहीं बल्कि अपनी बीवी को उस के आखिरी समय में अच्छे से अच्छे इलाज मुहैया कराने की है, अभी इसी वक्त उठिए, आप को कोई कुछ करने से नहीं रोकेगा.

2 दिन बाद माताजी चल बसीं. उन का शव घर लाया गया. महल्ले की औरतें घर आईं तो संतोष बीबीजी ऊपर से उतरीं और दुपट्टा आंखों पर रख कर रोने का दिखावा करने लगीं.

अंदर मांजी को नहलानेधुलाने का काम मैं ने और बड़ी भाभी ने किया. बड़े भैया ने ही उन के दाहसंस्कार पर सारा खर्च किया.

कल माताजी का चौथा था. कालोनी की नागरिक सभा की ओर से सारा इंतजाम मुफ्त में किया गया. पंडाल लगा, दरी बिछाई गई. रस्म के मुताबिक सुरेश को सिर्फ चायबिस्कुट खिलाने थे.

सुबह 11 बजे मैं घर पहुंची तो देखा, बाबूजी उसी पलंग पर लेटे हुए थे जिस पर माताजी लेटा करती थीं. मैं ने उन्हें उठाया, कहा कि पलंग की चादरें भी नहीं बदलवाईं अभी किसी ने.

यह सुनते ही सुरेश चिल्लाए, ‘‘तेरा अब यहां कोई काम नहीं, निकल जा. होली की छुट्टी लेनी जरूरी थी. मार डाला न मेरी मां को. अब 4 दिन की नागा काट कर हिसाब कर ले और दफा हो.’’

‘‘माताजी को किस ने मारा, यह इस परिवार के लोगों को अच्छी तरह पता है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा हिसाब.’’

मैं चिल्ला पड़ी थी. मेरा रोना निकल गया पर मैं रुकी नहीं. लंबेलंबे डग भर कर लौट पड़ी.

बाबूजी मेरे पीछेपीछे आए. मेरे कंधे पर हाथ रखा. उन की आंखों में आंसू थे, भर्राए गले से बोले, ‘‘अब मेरी बारी है, अनीता.’’

मिनी की न्यू ईयर पार्टी

अगले कुछ दिनों में कुछ होने वाला था. मैं चारों पैरों पर खड़ा हो कर ताकने की कोशिश कर रहा था. घर की चौकीदारी तो मेरा ही काम है न. हर जने की आवाज पहचानता हूं. मिनी की सारी सहेलियों को जानता हूं. मालिकमालकिन का दुलारा हूं और मिनी तो कई बार कह देती है कि मैं तीसरा बेटा हूं उन का. उन की बातें चाहे समझ न आएं पर चेहरा तो पढ़ ही सकता हूं न.

‘‘मिनी, घर पर दोस्तों का जमघट न लगा लेना. अंजलि या रिया को बुलाना हो तो सोने के लिए बुला लेना और किसी को नहीं.’’

‘‘ओह मम्मी, मैं छोटी बच्ची थोड़े ही हूं. औफिस जाने लगी हूं. सचमुच इतनी हिदायतें देने की जरूरत है क्या?’’

शेखर ने फौरन मिनी को हमेशा की तरह पुचकारा, ‘‘माया, मिनी बड़ी हो गई है, यह जानती है कैसे रहना है. न्यू ईयर का समय है, बच्चे भी तो ऐंजौय करेंगे. जब हम दोनों बाहर जा रहे हैं तो यह भी घर में अकेली क्यों रहे… दोस्त आ भी जाएंगे तो बुरा क्या है?’’

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‘‘मेरे सामने इस के फ्रैंड्स आते ही हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं पर मेरे पीछे से आने में मुझे चिंता रहती है, साफ बात है. राहुल भी दोस्तों के साथ गोवा चला गया वरना परेशानी की कोई बात ही न होती.’’

मिनी ने अब लाड़ से माया के गले में हाथ डाल दिया, ‘‘ओके मम्मी. आप आराम से जाओ… जमघट नहीं लगेगा. खुश?’’

माया ने भी मिनी का गाल चूम लिया. मैं वहीं खड़ा यह रोचक दृश्य देख रहा था. शेखर ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैं भी पूंछ हिलाता हुआ उन से लिपट गया.

शेखर और माया हर साल तो न्यू ईयर पर मुंबई में घर पर ही रहते थे पर इस बार माया को न्यू ईयर पर कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाना था.

राहुल भी औफिस से छुट्टी ले कर गोवा जा चुका है. उसे वैसे भी कोई ज्यादा रोकताटोकता नहीं है. अब यह मिनी… शैतान लड़की… हर साल न्यू ईयर पार्टी अंजलि के घर होती है. वहीं सब बच्चे इकट्ठा होते हैं. मिनी की एक बात मुझे पसंद है. उसे बाहर से अच्छा अपने घर पर दोस्तों के साथ समय बिताना पसंद है. उस में भी माया मना कर रही है. गलत बात है. बस, न्यू ईयर पर मिनी अंजलि के घर न चली जाए वरना मैं अकेला रह जाऊंगा. वैसे आज तक अकेला नहीं रहा.

शेखर और माया चले गए. मिनी ने मुझे गोद में बैठा लिया. लिपट गई मुझ से. कैसे जान लेती है न मेरे मन की बात. बोली, ‘‘डौंट वरी बडी, तू अकेला नहीं रहेगा. मैं कहीं नहीं जाऊंगी. घर पर पार्टी करेंगे.’’

मैं मन ही मन हंसा. बडी नाम रखा था मिनी ने मेरा. अपना नाम पसंद है मुझे. मिनी सोफे पर पसर गई. मैं भी वहीं फर्श पर लेट गया. उस ने फोन स्पीकर पर रखा और चहकी, ‘‘अंजलि, गुड न्यूज. न्यू ईयर पार्टी इस बार मेरे घर पर.’’

‘‘अरे वाह, अंकलआंटी गए?’’

‘‘हां. बोल, किसेकिसे बुलाना है?’’

‘‘वही अपना पूरा ग्रुप.’’

‘‘ठीक है, डिनर और्डर करेंगे, मूवी देखेंगे… सब शाम को आ जाओ. तुम ही सब से बात कर लो.’’

मेरे कान खड़े हुए मूवी. ओह, यह मिनी की बच्ची फिर ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी. इतनी बड़ी फैन जो है शाहरूख की. इस का मूड अच्छा हो तो यही मूवी देखती है. चलो ठीक है. शेखर और माया के हर साल के टीवी के न्यू ईयर के प्रोग्राम से तो अच्छा ही कटेगा मेरा समय.

उन दोनों की टीवी की पसंद के प्रोग्राम से परेशान हो चुका हूं. जब से शेखर रिटायर हुए हैं पूरा दिन दोनों ‘सावधान इंडिया’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ देखते हैं. उस के बाद दोनों बातें भी वैसी ही करने लगे हैं. देखा था न, अभी जाते हुए मिनी को कैसे समझा रहे थे कि जमाना खराब है, कोई किसी का नहीं, दोस्त ही दुश्मन होते हैं, किसी पर भी विश्वास नहीं करना वगैरावगैरा.

वह तो अच्छा है मिनी एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल रही थी. यह क्राइम पैट्रोल का ज्ञान है, मिनी जानती है वरना तो पार्टी हो ही न पाती. इस के दोस्त तो बहुत अच्छे हैं. जब भी आते हैं कैसा यंग माहौल हो जाता है. वाह, आज की रात धमाल रहेगा… मजा आएगा. अभी सो लेना चाहिए.

जैसे ही आंख लगी, मिनी संजय के साथ मेन्यू डिस्कस करने लगी, शेखर और माया घर पर नहीं होते तो मिनी का फोन स्पीकर पर रहता है, इसलिए मैं सब आराम से सुनता हूं. राहुल भी स्पीकर पर रखता है. उस की भी सब बातें मुझे पता हैं. गोवा दोस्तों के साथ नहीं गया है गर्लफ्रैंड प्रीति के साथ गया है और यह सिर्फ मैं जानता हूं. बडी सब जानता है.

मिनी जोरशोर से पार्टी की तैयारी में लग गई है. न… न… कामवाम में नहीं, बस सोफे पर लेट कर फोन करने में. मिनी का बस चले तो पार्टी भी सोफे पर लेट कर निबटा लें. लेट कर फोन पर वीडियो, शो देखना या कोई किताब पढ़ना उस का शौक है पर बहुत मस्ती है उस में… मूड अच्छा हो तो मुझे बैठने ही नहीं देगी… इतना खेलेगी… क्या खेलती है? बताऊं? बुद्धू बनाती है मुझे.

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इसी सोफे पर लेटीलेटी बारबार बौल फेंकती रहती है और

‘बडी जाओ, बौल लाओ… शाबाश’ कहती रहती है. कभी इधर फेंकेंगी, कभी उधर… कभी डाइनिंग टेबल के नीचे तो कभी सोफे के नीचे… पागल बनाती है पर मजा भी आता है. मुंबई के इन फ्लैट्स में यही खेल सकते हैं.

मिनी खाने का और्डर दे रही है. मेरे कान खड़े हो गए. यहां घर में सब वैजिटेरियन हैं, राहुल कभीकभी मेरे लिए कुछ नौनवैज पैक करवा लाता है. किसी को पता नहीं है कि वह बाहर नौनवैज खाने लगा है. बस, मुझे पता है. मुझे स्मैल आ जाती है कि जनाब बाहर नौनवैज उड़ा कर आए हैं. हां, तो जिस दिन राहुल मेरे लिए नौनवैज पैक करवा कर लाता है, अपनी पार्टी हो जाती है. वैसे माया के हाथ की सादी दाल और रोटी में भी स्वाद है पर रोजरोज… चेंज मुझे भी चाहिए.

मिनी फाइनल कर रही है… पिज्जा, चिकन बिरयानी, वेज बिरयानी, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम… मुझे खास इंट्रैस्ट नहीं आया. खैर, चिकन बिरयानी चलेगी. दालरोटी से तो बैटर ही रहेगी.

मिनी मेरे ऊपर गिरती हुए लिपट गई. हो गई इस की मस्ती शुरू. ‘‘बडी, पार्टी है. मजा आएगा… तेरे लिए चिकन बिरयानी, ठीक है?’’

मैं ने पूंछ हिला दी. हंसा, मिनी का हाथ चाट लिया.

‘‘चल, अब लंच करते हैं, फिर सोएंगे, शाम को फिर फ्रैश रहेंगे.’’

मिनी हम दोनों का खाना ले आई. दाल में भिगो कर रोटी के टुकड़े मेरे बरतन में मुझे दिए, खुद भी अपनी प्लेट ले कर बैठ गई. मिनी कुछ चीजों में सीधी है… जो भी माया बनाती है, चुपचाप खा लेती है. राहुल को खिला कर देखो दाल और रोटी, देखते ही कहता है कि क्या मैं बीमार हूं मां? उस समय मुझे जोर से हंसी आती है.

खाना खा कर हम दोनों सोने चले गए. बहुत सालों बाद दिन में 2 घंटे जम कर सोया, यह नींद रोज मेरे नसीब में कहां. ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पैट्रोल’ की आवाजें सुनी हैं कभी? हर कोने में छिप कर लेट कर देख लिया… सो नहीं पाता.

शाम को मिनी मुझे बाहर घुमाने ले गई. सोसायटी की आंटियां मिनी से पूछ रही हैं कि और मिनी,

न्यू ईयर पार्टी कहां है? और शैतान मिनी कितना भोला मुंह बना कर कह रही है, ‘‘पार्टी नहीं है आंटी, घर पर ही हूं.’’

ये माया की सहेलियां हैं न… ये आंटियां नहीं, रिपोर्टर होती हैं. मिनी नहाधो कर तैयार हो रही है. दोस्तों के फोन आते रहे. सब खुश हैं… पार्टी के लिए एक घर खाली मिल गया है. 8 बजे सब आ गए. संजय, अंजलि, रोमा, टोनी, मयंक, रिया, नेहा, आरती… सब अच्छे लगते हैं मुझे.

टोनी ने पहला काम जमीन पर ही बैठ कर मुझ से खेलने का किया, ‘‘हैलो बडी, मिस यू यार.’’

यही कहता है वह हमेशा. मैं ने भी कहा, ‘‘मिस यू टू, तुम सब जल्दी आया करो… पर बोल नहीं पाता तो मेरी बात तो मुंह में ही रह जाती है न. सब मुझे ‘हैलो बडी’ कह कर प्यार कर रहे थे.’’

सैल्फी की शौकीन आरती ने सब से पहले मेरे साथ कई फोटो लिए, मैं ने भी

अच्छे पोज दिए, मुझे तो आदत हो गई है. राहुल व मिनी के सारे दोस्त मेरे साथ सैल्फी लेते हैं. तब मुझे स्टार जैसा फील होता है.

9 बजे तक खाने की डिलिवरी हो गई, रोमा ने कहा, ‘‘सुनो, खाना गरम है. पहले खा लें?’’

मिनी की चिंता सब से अलग होती है. बोली, ‘‘रातभर पार्टी करेंगे. दोबारा भूख लग आई तो?’’

संजय ने कहा, ‘‘न्यू ईयर का टाइम है, फिर मंगवा लेंगे.’’ खाने के पैकेट खुल गए. मेरे बरतन में सब से पहले मिनी ने चिकन बिरयानी परोसी. थैंक्यू मिनी, कहते हुए मैं टूट पड़ा. बहुत बढि़या सारी खत्म कर दी. सब बच्चे ड्राइंगरूम में खा

रहे थे.

मयंक ने पूछा, ‘‘बडी पिज्जा चाहिए?’’

मैं वहां से हट गया. बिरयानी के बाद पिज्जा कौन खाएगा. मुंह का स्वाद अच्छा था.

मिनी सब को समझा रही थी, ‘‘सुनो, सब लोग प्लीज 1-1 चीज कूड़ेदान में डालना…’’ सब अपनेअपने बरतन धोपोंछ कर रखना. मम्मी को बताना नहीं है कि हम ने पार्टी की है. उन के सामने पार्टी हो तो उन्हें ठीक लगता है. उन के पीछे से पार्टी हो तो उन्हें चिंता हो जाती है कि पता नहीं क्याक्या होता होगा.

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रिया ने कहा, ‘‘डौंट वरी, हम सब संभाल लेंगे.’’ 10 बजे तक धीरेधीरे खाते हुए सब ने मजेदार गप्पें मारीं. कितनी अलग है इन की दुनिया. हलकीफुलकी मजेदार बातें… मूवीज की, नए गानों की… अपनेअपने औफिस की मजेदार बातें. मुझे यह साफ समझ आया कि संजय रिया का बौयफ्रैंड है, टोनी आरती का. बस, बाकी सब में अच्छी मजबूत दोस्ती है. सब ने मिल कर 1-1 चीज समेट दी.

मिनी ने कहा, ‘‘सुबह 8 बजे तक सब चले जाना वरना 9 बजे लता आंटी काम के लिए आएंगी… वे मम्मी को सब बता देंगी.’’

‘‘हांहां, डौंट वरी. आज पार्टी के लिए घर मिल गया, इतना बहुत है. न्यू ईयर पर होटलों की वेटिंग बहुत लंबी रहती है. अब आराम से खाना तो खाया… अब टाइमपास करेंगे.’’

मिनी बोली, ‘‘चलो, मूवी देखें कोई.’’

मेरे कान खड़े हो गए. कोई मूवी क्या? यह पक्का ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी, इस का अच्छा मूड हो और यह यह मूवी न देखे… डायलौग रट गए हैं मुझे. सब अपनीअपनी पसंद बताने लगे, मैं आराम से बैठ गया, जानता हूं किसी की नहीं चलेगी. मिनी शाहरूख के अलावा किसी की मूवी नहीं देखेगी. 20 मिनट बाद तय हुआ कि ‘ओम शांति ओम’ देखी जाएगी.

देखा? वही हुआ जो मुझे सुबह से पता था. शैतान मिनी. हमेशा कैसे भोली सूरत बना कर अपनी बात मनवा लेती है… प्यारी है, दोस्त

प्यार करते हैं उसे. मूवी का नाम सुनते ही मैं मालिक और मालकिन के बैड के नीचे घुस

कर यह सोच कर लेट गया. शायद वहां आवाज कम आए.

टोनी आवाज देने लगा, ‘‘बडी आओ, मूवी देखें… कहां हो यार?’’

मैं ने कहा, ‘‘रहने दो भाई, तुम ही देख लो, तुम ने शायद एक बार ही देखी होगी… मुझे बख्शो. मैं मिनी के साथ ही रहता हूं.’’

मयंक भी आवाज दे रहा है, ‘‘कम,

बडी कम.’’

‘‘ओह, जाना पड़ेगा. कोई बुलाता है तो जाना ही पड़ता है. मैं ड्राइंगरूम में बच्चों के पास जा कर खड़ा हो गया. मयंक ने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘आओ, बडी, मूवी देखेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘मुझे एक भी सीन नहीं देखना इस मूवी का. मुझे पूरी मूवी रट गई है, अब तो मिनी के अच्छे मूड से डर लगने लगा है. मुझे माफ करो.’’

अजी कहां, मिनी ने मेरे पास फर्श पर ही अपना तकिया रख लिया. लेट गई. बोली, ‘‘आ जा बडी, तेरे बिना मूवी देखने में मुझे मजा नहीं आता.’’

अब तो कहीं छिप कर बैठ नहीं सकता न. मूवी शुरू हो गई. मैं आंखें बंद किए लेटा तो था पर कानों में डायलौग तो पड़ने ही थे. अगर शाहरूख खान की मूवी के डायलौग का इम्तिहान हो तो मैं ही फर्स्ट आऊंगा और मिनी को श्रेय दूंगा. 12 बजने में 2 मिनट पर टीवी बंद कर दिया गया. फिर हैप्पी न्यू ईयर के शोर से ड्राइंगरूम गूंज उठा. सब एक दूसरे के गले मिल रहे थे. मुझे भी सब ने हैप्पी न्यू ईयर कहा. बच्चों में मैनर्स हैं.

रोमा चिल्लाते हुए बोली, ‘‘अब थोड़ा डांस हो जाए.’’

मुझे पता है रोमा को डांस का शौक है. एक दिन बता रही थी कि उस ने डांस क्लास जौइन की है. मैं तो बहुत किनारे जा कर बैठ गया. डांस तो देखना था. मुझे इन बच्चों का डांस देखने में मजा आता है. ड्राइंगरूम का फर्नीचर एक तरफ कर जगह बना ली गई. मुझे पता था मिनी कौन सा म्यूजिक लगाएगी, यही तो सुनती है आजकल. बादशाह के गाने…

वैसे उसे और कर्णप्रिय मधुर गाने भी पसंद हैं पर फिर वही बात, उस का मूड अच्छा हो तो आप शाहरूख की मूवीज और बादशाह के गानों से बच ही नहीं सकते. बच्चे बढि़या डांस कर रहे हैं. यह टोनी… थोड़ा मोटा है पर डांस अच्छा कर लेता है. सब रोमा के स्टैप कौपी कर रहे हैं. वह सीखती है न, सब को नएनए स्टैप बता रही है हमारी मिनी. उसे किसी के डांस से मतलब नहीं. उस का अपना ही डांस होता है. कोई उसे तो कौपी कर ही नहीं सकता. कुछ भी करती है, अच्छा करती है.

अब डांस शुरू हो गया तो जल्दी नहीं रुकेगा. बीचबीच में कोल्ड ड्रिंक पी जाती, फिर शुरू हो जाते. 3 बजे तक डांस किया सब ने. बहुत मजा आया. वैसे तो मिनी माया के बताए

घर के 2 काम करने में थक जाती है, पर इस समय देखो, अच्छा है… बच्चे मेरे सामने हैं. अच्छी पार्टी है. नहीं तो हर बार न्यू ईयर पर टीवी के बोरिंग प्रोग्राम.

डांस के बाद जिसे जो जगह समझ आई, वहीं सो गया. मिनी के बैड पर 3

लड़कियां… बाकी नीचे चादर बिछा कर सो गईं. शेखर व माया के बैडरूम में लड़के सो गए. सब इंतजाम देख मैं भी ड्राइंगरूम में फर्श पर बिछे अपने बैड पर सो गया. टोनी सोफे पर ही लेटा था, उस के खर्राटों से मेरी नींद खुलती रही. सब को पता था टोनी खर्राटे लेता है, इसलिए उसे सोफे पर सुलाया गया था, पर मैं तो फंस गया न.

मिनी के 7 बजे के अलार्म से भगदड़ सी मची. मिनटों में पूरा घर जैसे था वैसे व्यवस्थित कर दिया गया. एक बार फिर एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर कहते हुए सब अपनेअपने घर चले गए. मिनी मुझे बाहर घुमा लाई. फिर लताबाई आ गई. मिनी ने लताबाई को भी न्यू ईयर विश किया. लता बाई ने पूछा, ‘‘मिनी, घर पर ही थी? कहीं गई नहीं? फ्रैंड्स लोग आए क्या?’’

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‘‘नहीं, आंटी.’’

‘‘पार्टी नहीं की?’’

‘‘नहीं आंटी,’’ मिनी ने मुझे आंख मारते हुए ताली दी तो मैं ने भी आंख मारते हुए अपना पंजा उठा दिया.

‘‘ओह बडी, आई लव यू,’’ मिनी मुझ से लिपट गई, ‘‘लव यू टू, मिनी.’’

मिनी ने मेरे कान में पूछा, ‘‘बडी, मजा आया न पार्टी में?’’

‘‘हां, बहुत,’’ मैं ने जोरजोर से अपनी पूंछ हिला दी. युवा कहकहों से गूंजते घर में, हंसतेखेलते, डांस देखते मेरे नए साल की शुरुआत काफी अच्छी थी.

आप कौन हैं सलाह देने वाले- भाग 1

लेखक- सुधा गुप्ता

उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी. मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही. हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे. ‘‘आप की बहुत याद आती थी मुझे,’’ मीना बोली, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखा था मैं ने…याद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे.’’ ‘‘मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे. जीवन तो इसी का नाम है. इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करे…आज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा.’’

मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना. उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी. वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी.

‘‘याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था. अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी. बड़ी दुआएं देती है आप को. कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी.’’

याद आया मुझे. उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था. लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी. उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था. वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे. बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे:

‘दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है. यह कुछ रुपए रख लीजिए.’

‘बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा,’ यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था.

सहसा कितना सब याद आने लगा. मीना कितना सब सुनाती रही. समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े. 6 साल कम थोड़े ही होते हैं.

‘‘तुम अपना पता और फोन नंबर दो न,’’ कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं.

‘‘भैया, जरा कलमकागज देना.’’

दुकानदार हंस कर बोला, ‘‘लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं. घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं. आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न.’’

क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं. क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं. क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, ‘‘क्याक्या सुना आप ने, भैयाजी. हम तो पता नहीं क्याक्या बकती रहीं.’’

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‘‘बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने.’’

‘‘क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब,’’ सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘आइए, बहनजी. अरे, छोटू…जा, जा कर 2 चाय ला.’’

पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं. अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे. सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था. एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी. इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया. मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था.

‘‘नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना,’’ मीना मना करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं.’’

‘‘बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी?’’ मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे.

‘‘तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है. एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगा…शरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती. इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा.’’

कड़वी गोली- भाग 1

लेखक- सुधा गुप्ता

बरामदे का पिछला कोना गंदा देख कर मीना बड़बड़ा रही है. दोष किसी इनसान का नहीं, एक छोटे से पंछी का है जिसे पंजाब में ‘घुग्गी’ कहते हैं. किस्सा इतना सा है कि सामने कोने में ‘घुग्गी’ के एक जोड़े ने अपना छोटा सा घोंसला बना रखा है जिस में उन के कुछ नवजात बच्चे रहते  हैं. अभी उन्हें अपने मांबाप की सुरक्षा की बेहद जरूरत है.

नरमादा दोनों किसी को भी उस कोने में नहीं जाने देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि हम उन के बच्चे चुरा लेंगे या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाएंगे. काम वाली बाई सफाई करने गई तो चोंच से उस के सिर के बाल ही खींच ले गए. इस के बाद से उस ने तो उधर जाना ही छोड़ दिया. मीना घूंघट निकाल कर उधर गई तो उस के सिर पर घुग्गी के जोड़े ने चोंच मार दी.

‘‘इन्हें किसी भी तरह यहां से हटाइए,’’ मीना गुस्से में बोली, ‘‘अजीब गुंडागर्दी है. अपने ही घर में इन्होंने हमारा चलनाफिरना हराम कर रखा है.’’

‘‘मीना, इन की हिम्मत और ममता तो देखो, हमारा घर इन नन्हेनन्हे पंछियों के शब्दकोष में कहां है. यह तो बस, कितनी मेहनत से अपने बच्चे पाल रहे हैं. यहां तक कि रात को भी सोते नहीं. याद है, उस रोज रात के 12 बजे जब मैं स्कूटर रखने उधर गया था तो भी दोनों मेरे बाल खींच ले गए थे.’’

रात 12 बजे का जिक्र आया तो याद आया कि मीना को महेश के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया. महेश का फोन न मिल पाने के कारण हम पतिपत्नी परेशान जो थे.

‘‘सुनो मीना, महेश का फोन तो कटा पड़ा है. बच्चों ने बिल ही जमा नहीं कराया. कहते हैं सब के पास मोबाइल है तो इस लैंडलाइन की क्या जरूरत है…’’

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बुरी तरह चौंक गई थी मीना. ‘‘मोबाइल तो बच्चों के पास है न, महेश अपनी बातचीत कैसे करेंगे? वैसे भी महेश आजकल अपनेआप में ही सिमटते जा रहे हैं. पिछले 2 माह से दोपहर का खाना भी दफ्तर के बाहर वाले ढाबे से खा रहे हैं क्योंकि सुबहसुबह खाना  बना कर देना बहुओं के बस का नहीं है.’’

मीना के बदलते तेवर देख कर मैं ने गरदन झुका ली. 18 साल पहले जब महेश की पत्नी का देहांत हुआ था तब दोनों बेटे छोटे थे, उम्र रही होगी 8 और 10 साल. आज दोनों अच्छे पद पर कार्यरत हैं, दोनों का अपनाअपना परिवार है. बस, महेश ही लावारिस से हैं, कभी इधर तो कभी उधर.

एक दिन मैं ने पूछा था, ‘तुम अपनी जरूरतों के बारे में कब सोचोगे, महेश?’

‘मेरी जरूरतें अब हैं ही कितनी?’

‘क्यों? जिंदा हो न अभी, सांस चल रही है न?’

‘चल तो रही है, अब मेरे चाहने से बंद भी तो नहीं होती कम्बख्त.’

यह सुन कर मैं अवाक् रह गया था. बहुत मेहनत से पाला है महेश ने अपनी संतान को. कभी अच्छा नहीं पहना, अच्छा नहीं खाया. बस, जो कमाया बच्चों पर लगा दिया. पत्नी नहीं थी न, क्या करता, मां भी बनता रहा बच्चों की और पिता भी.

माना, ममता के बिना संतान पाली नहीं जा सकती, फिर भी एक सीमा तो होनी चाहिए न, हर रिश्ते में एक मर्यादा, एक उचित तालमेल होना चाहिए. उन का सम्मान न हो तो दर्द होगा ही.

महेश ने अपना फोन कटा ही रहने दिया. इस पर मुझे और भी गुस्सा आता कि बच्चों को कुछ कहता क्यों नहीं. फोन पर तो बात हो नहीं पा रही थी. 2 दिन सैर पर भी नहीं आया तो मैं उस के घर ही चला गया. पता चला साहब बीमार हैं. इस हालत में अकेला घर पर पड़ा था क्योंकि दोनों बहुएं अपनेअपने मायके गई थीं.

‘‘हर शनिवार उन का रात का खाना अपनेअपने मायके में होता है.’’

‘‘तो तुम कहां खाते हो? बीमारी में भी तुम्हें उन की ही वकालत सूझ रही है. फोन ठीक होता तो कम से कम मुझे ही बता देते, मैं ही मीना से खिचड़ी बनवा लाता…’’

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महेश चुप रहा और उस का पालतू कुत्ता सूं सूं करता उस के पैरों के पास बैठा रहा.

‘‘यार, इसे फ्रिज में से निकाल कर डबलरोटी ही डाल देना,’’ महेश बोला, ‘‘बेचारा मेरी तरह भूखा है. मुझ से खाया नहीं जा रहा और इसे किसी ने कुछ दिया नहीं.’’

‘‘क्यों? अब यह भी फालतू हो गया है क्या?’’ मैं व्यंग्य में बोल पड़ा, ‘‘10 साल पहले जब लाए थे तब तो आप लोगों को मेरा इसे कुत्ता कहना भी बुरा लगता था, तब यह आप का सिल्की था और आज इस का भी रेशम उतर गया लगता है.’’

‘‘हो गए होंगे इस के भी दिन पूरे,’’ महेश उदास मन से बोला, ‘‘कुत्ते की उम्र 10 साल से ज्यादा तो नहीं होती न भाई.’’

‘‘तुम अपनी उम्र का बताओ महेश, तुम्हें तो अभी 20-25 साल और जीना है. जीना कब शुरू करोगे, इस बारे में कुछ सोचा है? इस तरह तो अपने प्रति जो तुम्हारा रवैया है उस से तुम जल्दी ही मर जाओगे.’’

कभीकभी मुझे यह सोच कर हैरानी होती है कि महेश किस मिट्टी का बना है. उसे कभी कोई तकलीफ भी होती है या नहीं. जब पत्नी चल बसी तब नाते- रिश्तेदारों ने बहुत समझाया था कि दूसरी शादी कर लो.

तब महेश का सीधा सपाट उत्तर होता था, ‘मैं अपने बच्चों को रुलाना नहीं चाहता. 2 बच्चे हैं, शादी कर ली तो आने वाली पत्नी अपनी संतान भी चाहेगी और मैं 2 से ज्यादा बच्चे नहीं चाहता. इसलिए आप सब मुझे माफ कर दीजिए.’

महेश का यह सीधा सपाट उत्तर था. हमारे भी 2 बच्चे थे. मीना ने साथ दिया. इस सत्य से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि यदि वह न चाहती तो शायद मैं भी चाह कर कुछ नहीं कर पाता.

एक तरह से महेश, मैं और मीना, तीनों ने मिल कर 4 बच्चों को पाला. महेश के बच्चे कबकब मीना के भी बच्चे रहे समझ पाना मुश्किल था. मैं यह भी नहीं कहता महेश के बच्चे उस से प्यार नहीं करते, प्यार कहीं सो सा गया है, कहीं दब सा गया है कुछ ऐसा लगता है. सदा पिता से लेतेलेते  वे यह भूल ही गए हैं कि उन्हें पिता को कुछ देना भी है. छोटे बेटे ने पिता के नाम पर गाड़ी खरीदी जिस की किश्त पिता चुकाता है और बड़े ने पिता के नाम पर घर खरीदा है जिस की किश्त भी पिता की तनख्वाह से ही जाती है.

‘‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तुम्हारे हाथ आते हैं. उस में तुम्हारा दोपहर का खाना, कपड़ा, दवा, टेलीफोन का बिल कैसे पूरा होगा, क्या बच्चे यह सब- कुछ सोचते हैं? अगर नहीं सोचते तो उन्हें सोचना पड़ेगा, महेश.

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