कैक्टस के फूल- भाग 3: क्यों ममता का मन पश्चात्ताप से भरा था?

Writer- इंदिरा राय

बिना कुछ बोले ममता ने ताला खोला, कपिल की गोद से बच्ची को ले कर उसे मूक विदाई दी. सौरभ जब भीतर आ गया तो दरवाजा बंद कर के ममता उन के सम्मुख तन कर खड़ी हो गई. पल भर उस की आंखों में आंखें डाल कर उस के क्रोध को तोला फिर तीखेपन से कहा, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सब के सामने इस प्रकार बोलते हुए तुम्हें जरा भी झिझक नहीं लगी?’’

‘‘और तुम जो परपुरुष के साथ हीही, ठींठीं करती फिरती हो, घूमने जाती हो, उस में कुछ भी झिझक नहीं?’’

‘‘कपिल के लिए ऐसा कहते तुम्हें लज्जा नहीं आती? सहशिक्षा के स्कूल में पढ़ाती हूं, वहां स्त्रियों से अधिक पुरुष सहकर्मी हैं, उन्हें अछूत मानने से नहीं चलता. मुझे बच्चों की यूनिफार्म लेनी थी. कपिल भी साथ चले गए तो कौन सी आफत आ गई?’’

‘‘कपिल ही क्यों? दूसरा कोई क्यों नहीं?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो, अपनी पत्नी पर लांछन लगाने से पहले सोचनासमझना चाहिए. मुझ से कम से कम 8 वर्ष छोटे हैं. अपने परिवार से पहली बार अलग हो कर यहां आए हैं, मीनीचीनी को बहुत मानते हैं. इसी से कभीकभी आ जाते हैं, इस में बुरा क्या है?’’

सौरभ को लगा कि वह पुन: पत्नी के सम्मुख हतप्रभ होता जा रहा है. उस ने अंतिम अस्त्र फेंका, ‘‘मेरे समझने न समझने से क्या होगा, दुनिया स्त्रीपुरुष की मित्रता का अर्थ बस एक ही लेती है.’’

‘‘दुनिया के न समझने से मुझे कुछ अंतर नहीं पड़ता, बस, तुम्हें समझना चाहिए.’’

सौरभ बुझ गया था. रात भर करवटें बदलता रहा. बगल में सोई ममता दहकती ज्वाला के समान उसे जला रही थी.

तीसरे दिन स्कूल में दोपहर की छुट्टी में ममता ने मीनीचीनी के साथ परांठे का पहला कौर तोड़ा ही था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘प्रिंसिपल साहब ने आप को अभी बुलाया है, बहुत जरूरी काम है.’’

हाथ का कौर चीनी के मुंह में दे कर, वह उठ खड़ी हुई. पिछले कुछ दिनों से वह उलझन में थी, विचारों के सूत्र टूटे और पुराने ऊन के टुकड़ों के समान बदरंग हो गए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था. उस दिन सौरभ और कपिल का सामना न होता तो सब ठीक ही रहता. सौरभ को वह दोष नहीं दे पाती. उस की प्रतिक्रिया पुरुषोचित थी.

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सौरभ इंजीनियर के अच्छे पद पर है, पैसा और रुतबा पूरा है फिर उस का नौकरी करना कोई माने नहीं रखता किंतु वह क्या करे? अपनी निजता को कैसे तज दे?

जब से होश संभाला, पढ़ना और पढ़ाना जीवन के अविभाज्य अंग बने हुए हैं. अब सब छोड़ कर घर की सीमाओं में आबद्ध रह कर क्या वह संतुष्ट और प्रसन्न रह सकेगी?

कपिल…हां, रूपसी होने के कारण पुरुषों की चाह भरी निगाहों का प्रशंसनीय, उस ने अपना अधिकार समझ कर गौरव के साथ स्वीकारा है. कपिल भी उसी माला की एक कड़ी है. हां, अधिक है तो उस की एकाग्र भक्ति.

वह जानती है कि केवल उस के सान्निध्य के लिए वह बच्चियों के कितने उपद्रव झेल लेता है. अपने प्रति उस के सीमातीत लगाव से कहीं ममता का अहम परितृप्त हो जाता है, इस से अधिक तो कुछ भी नहीं. खिन्न अंतस पर औपचारिक मुसकान ओढ़ कर उस ने प्रिंसिपल के कक्ष में प्रवेश किया.

‘‘ममताजी,’’ पिं्रसिपल का स्वर चिंतायुक्त था, ‘‘अभी बिहारशरीफ से ट्रंककाल आया है, आप के पति अस्पताल में भर्ती हैं.’’

ममता के पैरों तले धरती खिसक गई. किंकर्तव्यविमूढ़ सी उस ने कुरसी को थाम लिया. उसी अर्द्धचेतनावस्था में कपिल के फुसफुसाते हुए शब्द स्वयं उस के कानों में पड़ रहे थे, ‘‘ममताजी, मैं टैक्सी ले कर आता हूं.’’

एक अंतहीन यात्रा की कामना. क्योंकि यात्रा के अंत पर अदृष्ट की क्रूर मुसकान को झेल न सकने की असमर्थता, कपिल की निरंतर सांत्वना तेल से चिकनी धरती पर स्थिर न रहने वाले जल कणों के समान निष्फल हो रही थी. ममता के समूचे अस्तित्व को जैसे लकवा मार गया था.

अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पीले, निस्तेज सौरभ को सफेद पट्टियों से रहित देख कर पल भर को उसे ढाढ़स मिला, दोबारा देखने पर नाक में नली लगी देख उसे मूर्च्छना सी आ गई, वह वहीं धरती पर बैठ गई.

‘‘ममताजी, धैर्य रखिए, इंजीनियर साहब खतरे से बाहर हैं,’’ ममता की हालत देख कर कपिल व्याकुल हो कर उसे धैर्य बंधाने में अपनी शक्ति लगाए दे रहा था. ममता का सारा शरीर थरथर कांप रहा था, काफी देर बाद अपने को संभाल पाई वह. नहीं दुर्घटना तो नहीं हुई है, जिस की कल्पना कर के वह अधमरी हो गई थी, फिर इन्हें क्या हो गया है? अभी 3 दिन पहले तक तो अच्छेभले थे.

बड़े डाक्टर को एक तरफ पा कर उस ने पूछा, ‘‘इन्हें क्या हुआ है, डाक्टर साहब?’’

‘‘आप इन की पत्नी हैं न. इन्होंने पिछली रात नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

डाक्टर का स्वर आरोप भरा था, ‘‘सुखी सद्गृहस्थ आत्महत्या क्यों करेगा?’’ ममता को पुन: चक्कर आ गया, उसे लगा समूचा विश्व उस पर हत्या का आरोप लगा रहा है. यहां तक कि उस की अंतरात्मा भी उसे ही अभियुक्त समझ रही है. उस की सारी दृढ़ता चूरचूर हो कर बिखर गई थी.

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कालरात्रि के समान वह रात बीती, भोर की प्रथम किरण के साथ सौरभ ने आंखें खोलीं. ममता और उस के पास खड़े कपिल को देख कर उस ने पुन: आंखें मूंद लीं. कपिल के शब्द बहुत दूर से आते लग रहे थे, ‘‘ममताजी, चाय पी लीजिए, कल से आप ने कुछ खाया नहीं है. इस तरह अपने को क्यों कष्ट दे रही हैं, सब ठीक हो जाएगा.’’

क्षीण देह की भीषण पीड़ा मन को संवेदनशीलता के सामान्य धरातल से ऊंचा उठा देती है, नितांत आत्मीय भी अपरिचितों की भीड़ में ऐसे मिल जाते हैं कि रागद्वेष निस्सार लगते हैं. सत्य की अनुभूति है केवल एक विराट शून्य में तैरती हुई देह और भावनाएं, बाहरी दुनिया के कोलाहल से परे स्थितप्रज्ञ की स्थिति आंखें खुलतीं तो ममता के सूखे मुख पर पल भर को चमक आ जाती.

लगभग एक सप्ताह के उपरांत सौरभ पूरी तरह चैतन्य हुआ. जीवन के अंत को इतने समीप से देख लेने के बाद अपना आवेग, अपनी प्रतिक्रिया सभी कुछ निरर्थक लग रहे थे. मृत्यु के मुख से लौट आने की लज्जा ने उस की वाणी को संकुचित कर दिया था.

अस्पताल से घर आने के बाद ममता से कुछ कहने के लिए पहली बार साहस बटोरा, ‘‘तुम अब पटना चली जाओ, काफी छुट्टी ले चुकी हो.’’

‘‘मैं अब कहीं नहीं जाऊंगी, कपिल से मैं ने इस्तीफा भिजवा दिया है.’’

‘‘इस्तीफा वापस भी लिया जा सकता है, इतने दिनों की तुम्हारी स्थायी नौकरी है…उसे छोड़ना बेवकूफी है,’’ बिना विचलित हुए ठंडेपन से सौरभ ने कहा.

ममता को लगा सौरभ उस के पुराने वाक्य को दोहरा रहा है.

‘‘उन सब बातों को भूल नहीं सकोगे. तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं था तभी तो…और अब मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं रहा, मैं तुम्हें पल भर को भी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दूंगी…’’

रूपगर्विता के दर्प के हिमखंड वेदना की आंच से पिघल कर आंखों में छलक आए थे और उन जल कणों से सिंचित हो कर सौरभ के अंतस में उगे कैक्टस में फूल खिलने लगे थे.

आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा- भाग 2

जसप्रीत मुझ से छूट कर मुसकराती हुई नीचे भाग गई.

मैं भी नीचे आ गया. उस की पलकें लाज और प्रेम से बोझिल थीं. तुम बहुत प्यारी हो प्रीत, क्या लिखूं और?

रात के 2 बजे हैं और नींद मेरी आंखों को छोड़ कर वैसे ही जा चुकी है जैसे मेरे और जसप्रीत के बीच 5 दिन पहले का परायापन.

अचानक बारिश होने लगी है. काश, मैं और जसप्रीत अभी छत पर ही होते, वह कहती ‘मेरी सोहणी’ कह कर रुक क्यों गए, कुछ और बोलो न. मैं कहता, कल्पना करो कि तुम धरती और मैं बादल. प्यासी धरती और फिर खूब जोर से बरस जाए बादल. वह कहती यों नहीं, प्यार से कहो, कुछ अलग ढंग से. और मैं उसे कुछ गढ़ कर सुना देता, शायद कुछ ऐसा-

जमीं से लिपट कर बरस रहे आज बादल,

खुशबू में उस की सिमट रहे आज बादल,

करवट ली मौसम ने कैसी अचानक आज,

लिबास बन कर जमीं का मदहोश है बादल.

तुम ने तो मुझे शायर बना दिया प्रीत. आज नींद नहीं आएगी मुझे.

5 जून

कल रात न जाने कब नींद आई, पर आंख सुबह 6 बजे ही खुल गई. आसमान सुनहरा था. मेरे चेहरे को छू रही थी धूप की गुनगुनी सी गरमी और गुलाब के फूल को छू कर आए नर्म हवा के झोंके. मैं पंजाबी में गुनगुना उठा –

‘आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा,

तेरे चुम्मन पिछली संग वरगा,

है किरणा दे विच नशा जेहा,

किसे चिंदे सप्प दे डंग्ग वरगा.’

‘ओह, तो आप शिव कुमार बटालवी को भी पढ़ते हैं?’ पीछे से जसप्रीत की आवाज आई.

‘हां जी, सुना भी है उन्हें. कितना सुंदर लिखते थे वे प्रेम पर,’ मैं मुसकरा दिया.

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‘सिर्फ प्रेम पर थोड़े ही लिखते थे. वे तो जुदाई का दर्द भी जानते थे. तभी तो उन्हें बिरहा का सुलतान कहते हैं,’ जसप्रीत दोनों हाथ पीछे कर आंखें नचाती हुई बोली.

‘जब विरह से सामना होगा तब भी याद कर लेंगे उन्हें. पर अभी तो मोहब्बत के नगमे गाने दो न,’ मैं जसप्रीत के पास जा कर खड़ा हो गया.

‘करो जी इश्कविश्क, सुनाओ जी उन की प्रेम वाली कविता. पर मतलब भी समझते हो या यों ही?’ मुझे चिढ़ाने के अंदाज में हंसती हुई वह बोली.

मैं उस के एकदम करीब पहुंच गया और अपने दोनों हाथों में उसे समेटते हुए बोला, ‘मतलब भी जानते हैं, ऐसे ही थोड़ी गुनगुना रहा था मैं. लो सुनो, आज की सुबह तो बिलकुल तुम्हारे रंग जैसी है, एकदम सुनहरी. और पिछली मुलाकात में हुए चुंबन जैसी गुलाबी महक भी है सुबह में. और….और….आज तो किरणों की छुअन से भी नशा सा हो रहा है, किसी जहरीले सांप का डंक था वो चुंबन… नहीं…चुम्मन…’

मेरे बाहुपाश में जकड़ी जसप्रीत खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘आप तो माहिर हो पंजाबी में भी. हाय, मर जावां.’

जसप्रीत के तन की सुगंध मेरे अंगअंग पर छा रही थी. मैं किसी उन्मादी सा बहकने लगा था, ‘मर तो मैं गया हूं. एक बार फिर डस कर अपने जहर से जिंदा कर दो मुझे,’ कह कर मैं ने उस के अधरों पर अपने होंठों से प्रेम लिख दिया.

जसप्रीत का सुनहरा चेहरा सुर्ख लाल हो गया. मैं इस लाल रंग में रंगा अपनी सुधबुध खो बैठा हूं.

6 जून

जसप्रीत लुधियाना में रहने वाली अपनी कुछ सहेलियों के लिए रेडीमेड सलवारसूट खरीदना चाहती थी. उस ने बताया कि कमला मार्केट में इस प्रकार के कपड़ों की कई दुकानें हैं. मम्मी आज थकी हुई थीं. आंटीजी ने मुझ से आग्रह किया कि जसप्रीत के साथ मैं चला जाऊं. मुझे पता था कि कनाट प्लेस के पास भी कपड़ों की कुछ ऐसी ही दुकानें हैं जनपथ पर. इसलिए हम दोनों वहां चले गए.

अहा, क्या दिन था आज का. चिलचिलाती धूप आज चांदनी से कम नहीं लग रही थी. कनाट प्लेस में घूमते हुए कुल्फी खाने में बहुत आनंद आ रहा था हम दोनों को. कुछ सामान खरीदने के बाद मैं ने उस से पालिका बाजार चलने को कहा.

पालिका बाजार के विषय में जसप्रीत नहीं जानती थी. वातानुकूलित भूमिगत बाजार पहली बार देखा था उस ने. वहां गरमी से तो राहत मिली पर भीड़भाड़ बहुत थी.

बाहर निकल कर हम ने रीगल सिनेमा हौल में फिल्म ‘शराबी’ देखने का निश्चय किया, पर हाउसफुल का बोर्ड देख कर निराश हो गए. फिर आसपास घूमते हुए हम ने रेहड़ी वाले से गन्ने का रस खरीद कर पिया और गोलगप्पे भी खाए, खूब चटखारे ले कर.

शाम तक प्रीत ने वह सब खरीद लिया जो वह लेना चाहती थी. घर आते समय सामान अधिक होने के कारण हम ने बस से न आ कर औटो करना उचित समझा. औटो की तेज गति और जसप्रीत की निकटता का रोमांच. मैं हवा में उड़ा जा रहा था.

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घर पहुंचे तो सभी टीवी पर नजरें गड़ाए औपरेशन ब्लूस्टार का समाचार देख रहे थे. कुछ देर बाद अंकलजी ने कहा कि उन लोगों को लुधियाना के लिए कल ही निकल लेना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि राजनीति के नाम पर फूट डालने वालों को मौका मिल जाए और दंगेफसाद हो जाएं. खरीदारी भी लगभग पूरी हो गई थी उन की.

रात के खाने के बाद मैं जसप्रीत के साथ अपने कमरे में आ गया. हम अपने सपनों को ले कर चर्चा कर रहे थे. जसप्रीत बीएड कर एक अध्यापिका बनना चाहती है. मैं ने इस के लिए उसे खूब मेहनत करने की सलाह दी. मुझे भी लैक्चरर बनने के लिए शुभकामनाएं दीं उस ने.

अपने प्रेम के भविष्य को ले कर हमें एक सुखद एहसास हो रहा था. हम दोनों ही अपने मम्मीपापा की प्रिय संतान हैं, इसलिए विजातीय और अलगअलग धर्मों से होने के बावजूद हमें पूरा यकीन है कि हमारे मातापिता हमें एक होने से नहीं रोकेंगे.

7 जून

चली गई जसप्रीत.

जाने से पहले भावुक हो कर मुझ से बोली, ‘जल्दी ही हमेशा के लिए आ जाऊंगी यहां.’

मैं ने अपनी उदासी छिपाने की कोशिश कर हंसते हुए कहा, ‘जल्दी ही? अभी तो मैं अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हूं और तुम हो कि अपना बोझ मुझ पर लादना चाहती हो.’

उस ने नजरें झुका कर एक

कविता की पंक्तियां बोलते हुए जवाब

दिया-

‘चरणों पर अर्पित है, इस को चाहो तो स्वीकार करो,

यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो.’

‘ओह, सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता,’ मैं मुसकराने की असफल चेष्टा करते हुए बोला.

टैक्सी में बैठते हुए जसप्रीत अपनी रुलाई रोक न पाई और अपने कमरे में वापस आ कर मैं.

4 जुलाई

कई दिनों बाद डायरी खोली है. लिखता भी तो क्या? प्रीत की यादों के सिवा लिखने को था ही क्या मेरे पास.

आज लाइब्रेरी में पुस्तकें लौटाने गया तो यशपाल सर मिल गए. उन्होंने बताया कि केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद ने एक प्रोजैक्ट के लिए कुछ विद्यार्थियों के नाम मांगे थे उन से. सर ने मेरा नाम भी दिया था. मुझे चयनित कर लिया गया है. 4 महीने के लिए जाना पड़ेगा मुझे वहां पर. इस अनुभव का मुझे विशेष लाभ मिलेगा और पीएचडी के लिए आवेदन करने पर निश्चय ही मुझे प्राथमिकता दी जाएगी.

जसप्रीत तो 15 जुलाई से पहले आएगी नहीं होस्टल वापस. मैं तो तब तक हैदराबाद चला जाऊंगा. उसे पत्र या टैलीफोन द्वारा सूचित करने के उद्देश्य से मम्मी के पास जा कर जसप्रीत के घर का पता और फोन नंबर मांगा तो उन के माथे पर बल पड़ गए. वे जानना चाहती थीं कि मैं अपने हैदराबाद जाने की सूचना जसप्रीत को क्यों देना चाहता हूं? जब मैं ने उन्हें अपनी भावनाओं से अवगत कराया तो मेरी आशा के उलट वे नाराज हो गईं. मुझे डांट लगाती हुई बोलीं, ‘तुझे भी जमाने की हवा लग गई?’

जब मैं इस विषय में खुल कर उन से चर्चा करने लगा तो वे कल पापा के सामने बात करेंगे. कह कर चुपचाप चली गईं. पापा आज औफिस के काम से मेरठ गए हैं, देर रात में लौटेंगे.

5 जुलाई

कभी सोचा भी नहीं था मैं ने कि पापा मेरे और प्रीत के रिश्ते को ले कर इतने नाराज हो जाएंगे. वे मुझ से ऐसे बरताव करने लगे जैसे मैं ने चोरी की हो.

‘यह क्या तमाशा है? अपनी जात में लड़कियों का अकाल पड़ गया है क्या?’ त्योरियां चढ़ा कर पापा सुबहसुबह मुझ से बोले.

‘पापा, मैं उस से प्यार करता हूं.’

‘एक हफ्ता रहे उस के साथ

और प्यार? इसे प्यार नहीं कुछ और ही कहते हैं.’

‘क्या कहते हैं इसे पापा?’

‘बुरी नजर. शर्म नहीं आती तुझे?’ पापा गुस्से से चिल्लाए.

‘जसप्रीत भी प्यार करती है मुझ से,’ मैं भी तेज आवाज में बोला.

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मेरे इस तरह जवाब देने से पापा कहीं और क्रोधित न हो जाएं, यह सोच कर मम्मी बीच में आ गईं.

‘बेटा, तू बड़ा भोला है, वह तुझ से दो मीठे बोल बोली और तू प्यार समझ बैठा. वह सबकुछ भूल भी चुकी होगी अब तक,’ मम्मी बोलीं.

‘नहीं, मुझे यकीन है जसप्रीत पर,’ मैं अपनी बात पर अड़ा हुआ था.

‘लुधियाना से लौट कर तेरे साथ घूमनेफिरने के लिए कर रही होगी, प्यार का नाटक. यहां जसप्रीत की जानपहचान वाला तो कोई रहता नहीं. हमारे तो रिश्तेदार भरे पड़े हैं दिल्ली

में. मिलना भी मत उस से. हमारी

इज्जत मिट्टी में मिलाएगा?’ पापा जोर से चिल्लाए.

‘ठीक है पापा, अभी नहीं घूमूंगा उस के साथ. पर शादी के बाद तो घूम सकता हूं, फिर तो कोई एतराज नहीं होगा किसी रिश्तेदार को?’

‘फिर वही बेवकूफी. क्या कमी है तुझ में कि कोई अपनी लड़की नहीं देगा? और फिर भी तुझे हमारी बात नहीं माननी है तो समझ ले कि मर गए हम तेरे लिए,’ किसी फिल्मी पिता की तरह बोल कर पापा ने बात खत्म की.

मैं अपने कमरे में वापस आ गया. सोच रहा हूं कि हैदराबाद न जाऊं.

पर ऐसा मौका हाथ से जाने भी नहीं

दे सकता.

ठीक है. चला जाता हूं. आ कर मिलता हूं जसप्रीत से. शायद उस के मम्मीपापा मना लेंगे मेरे पापामम्मी को.

6 जुलाई

आज मैं जसप्रीत के होस्टल गया. अच्छा हुआ कि उस की रूममेट, शालिनी छुट्टियां बिता कर आ चुकी थी वहां. एक पत्र उस को दे दिया मैं ने जसप्रीत के लिए. उस में ज्यादा न लिख कर केवल अपने जाने की बात लिख दी थी.

अब इस डायरी में हैदराबाद से लौट कर ही कुछ लिखूंगा.

20 नवंबर

मैं कितना प्रसन्न था कल हैदराबाद से लौटने पर. सोचा था कुछ देर बाद ही जसप्रीत से मिलने होस्टल जाऊंगा. पर उस समय मैं अवाक रह गया जब मम्मी ने मुझे जसप्रीत की शादी का कार्ड दिखाया. डाक से मिला था उन्हें वह कार्ड. यकीन ही नहीं हुआ मुझे.

जसप्रीत के विवाह की शुभकामनाएं देने के बहाने मैं एक बार लुधियाना जा कर इस बारे में जानना चाहता था. पर मम्मीपापा नहीं माने. उन का कहना था कि 31 अक्तूबर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो माहौल बना है उसे देखते हुए वे मुझे पंजाब जाने की अनुमति नहीं दे सकते.

जब अपने घर में ही लोग धर्म और जाति को ले कर इतना भेदभाव करते हैं तो देश में सौहार्दपूर्ण वातावरण की आशा क्यों?

21 नवंबर

मैं जसप्रीत के होस्टल जा कर शालिनी से मिला. उस ने बताया कि जसप्रीत जुलाई में लुधियाना से वापस आ गई थी. शालिनी ने मेरा पत्र भी दे दिया था प्रीत को. पर अगस्त में ही उस के पापा उसे वापस लुधियाना ले गए थे. शालिनी भी नहीं जानती थी कि प्रीत का विवाह हो गया.

क्या कहूं मैं अब? उसे तो भूल नहीं सकता कभी. मेरे लिए तो प्रीत के साथ बिताए वे 7 दिन ही सात जन्मों के बराबर थे. जसप्रीत, तुम ही हो मेरी सात जन्मों की साथी. किसी और की क्या जरूरत है अब मुझे?

कभी मिले तो पहचान लोगी न? खुश रहना हमेशा.

इतना पढ़ने के बाद हर्षित रुक गया. उस ने पन्ने पलटे पर इस के बाद डायरी में कुछ नहीं लिखा था.

‘‘तो सर कभी मिलीं जसप्रीतजी आप से आ कर?’’ साक्षी ने निराश हो कर पूछा.

‘‘आप ने क्यों नहीं कर ली शादी जब उन्होंने ही आप को धोखा दे दिया,’’ अमन के कहते ही दीपेश और हर्षित ने भी सहमति में अपना सिर हिला दिया.

प्रशांत सर ने पास रखा लकड़ी का डब्बा खोला और एक कागज साक्षी की ओर बढ़ा दिया और बोले, ‘‘मेरे हैदराबाद से लौटने के लगभग 2 वर्षों बाद अंकलजी हमारे घर आए थे. मैं मिल नहीं पाया था उन से, क्योंकि तब मैं जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहा था और प्रतिदिन होने वाली भागदौड़ से बचने के लिए होस्टल में रह रहा था. लो, पढ़ो यह पत्र.’’

एक सफेद लिफाफा जो लगभग पीला पड़ चुका था. भेजने वाले का नाम-सतनाम सिंह और पाने वाले की जगह लिखा था- प्रशांत पुत्तर के वास्ते. उस लिफाफे से कागज को निकाल कर साक्षी ने पढ़ना शुरू किया-

नई दिल्ली,

14.10.1986

प्रशांत, मेरे बच्चे,

लंबी उमर हो तेरी.

आज मैं आप के घर पर आया हुआ हूं. मिलना चाहता था एक बार आप से. यहां पहुंचा तो पता लगा कि आप गए हुए हो पीएचडी करने. मैं खत लिख कर आप के पापा को दे दूंगा.

पिछली बार जब मेरा परिवार आप के घर आया था, तब कितने खुश थे हम सब. बस यों समझ लो कि मेरे जीवन की सारी खुशियां यहीं छूट गई थीं. मुसकराना भी भूल गया मैं तो उस के बाद.

मेरे भतीजे की शादी के टाइम पर एक रिश्ता आया था हमारी प्रीत के वास्ते. लड़का कनाडा में रहता था, पर उस वक्त वह शादी अटैंड करने आया हुआ था.

जसप्रीत ने इस रिश्ते के लिए इनकार कर दिया. मेरा पूरा परिवार तो हिल गया था यह सुन कर कि वह आप को पसंद करती थी. खानदान में कभी किसी ने सिख धर्म को छोड़ कर कहीं ब्याह नहीं किया था अपने बच्चों का.

लड़का अपने घरवालों के साथ 2 महीनों के लिए ही था इधर. हम ने जसप्रीत की मरजी के खिलाफ उस लड़के से जसप्रीत की शादी करने का प्रोग्राम बना लिया. जसप्रीत ने बहुत विनती की हम से कि आप के हैदराबाद से आने तक हम इंतजार करें, आप से बात कर के ही कोई फैसला लें.

नहीं माने हम लोग. पर क्या मिला उस जोरजबरदस्ती से हमें? आनंद कारज वाला घर अफसोस में बदल गया. बरात आने से पहले ही घर की छत से कूद गई जसप्रीत. 3 हफ्ते तक कोमा में रहने के बाद होश में तो आ गई वह, पर गरदन से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया. सब समझती है, थोड़ाबहुत बोल भी लेती है पर, पुत्तर, उस के हाथपैर किसी काम के नही रहे. महसूस भी कुछ नहीं होता उसे गरदन के नीचे से पैरों तक. आप की आंटीजी सतवंत तो उस की हालत देख ही नहीं सकीं और पिछले साल चली गईं यह दुनिया छोड़ कर.

अंधे हो गए थे हम लोग. हमारी आंखों पर धर्म का परदा पड़ा था. हम नहीं समझ सके आप दोनों को. मेरे बच्चे, मैंनू माफ कर देना. वरना चैन से मर नहीं पाऊंगा.

आप का अंकलजी,

सतनाम सिंह.

अब मैं समझ गई हूं- भाग 1: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

आज हमारे विवाह की 5वीं वर्षगांठ थी. वैवाहिक जीवन के ये 10 वर्ष मेरे लिए किसी चुनौती से कम न थे क्योंकि इन सालों में अपने वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए मैं ने कसर नहीं छोड़ी थी. खुशी इस बात की भी थी कि मैं अपनी पत्नी को भी अपने रंग में ढालने में सफल हो गया था.

इन चंद वर्षों में मैं यह भी सम?ा गया था कि बचपन में बच्चों को दिए गए संस्कारों को बदलना कितना मुशकिल होता है. आप को बता दूं कि रिमू यानी मेरी पत्नी रीमा मेरी बचपन की मित्र थी. उस से विवाह होना मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात थी. जिस से आप प्यार करते हो उसी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है.

रीमा मेरा पहला प्यार थी. जब हम एकदूसरे को टूट कर चाहने लगे थे तब हमें स्वयं ही पता नहीं था कि हमारे प्यार का भविष्य क्या होगा परंतु फिर भी चांदनी रात के दूधिया उजाले में एकदूसरे का हाथ थामे हम दोनों घंटों बैठे रहते थे. रीमा की कोयल स्वरूप मधुर वाणी से ?ारते हुए शब्दरूपी फूलों जैसी उस की बातें मेरा मन मोह  लेती थीं.

तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, जब रीमा का परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया था. उस का घर मेरे घर से 10 कदम की दूरी पर ही था. उस दिन मैं जब कालेज से लौटा तो अपने घर से कुछ दूरी पर सामान से लदा ट्रक खड़ा देख कर चौंक गया था. तेज कदमों से अंदर जा कर मां से पूछा, ‘‘मां, यह सामान किस का है? कौन आया है रहने?’’

‘‘मु?ो क्या पता किस का है? तू भी फालतू की बातों में अपना दिमाग खराब मत कर, खाना तैयार है चुपचाप खा ले.’’

कह कर मां अपने काम में व्यस्त हो गई. पर मेरा मन तो न जाने क्यों उस ट्रक में ही उल?ा था. सो, मैं अपने कमरे की खिड़की से ?ांकने लगा. तभी वहां एक कार आ कर रुकी और उस में से पतिपत्नी और 2 बेटियां उतरी थीं. बड़ी बेटी लगभग 20 और छोटी 15 वर्ष की रही होगी.

गोरीचिट्टी, लंबी उस कमसिन नवयुवती को देख कर मैं ने मन ही मन कहा, ‘लगता है कुदरत ने इसे बड़ी ही फुरसत में बनाया है. क्या बला की खूबसूरती पाई है.’

उस के बारे में सोच कर ही मेरा मन सौसौ फुट ऊपर की छलांग लगाने लगा था. उस के बाद तो मेरा युवामन न पढ़ने में लगता और न ही अन्य किसी काम में. खैर, जिंदगी तो जीनी ही थी. अब मैं अकसर अपने कमरे की उस खिड़की पर बैठने लगा था, बस, उस की एक ?ालक पाने के लिए. कभी तो ?ालक मिल जाती थी पर कभी पूरे दिन में एक बार भी नहीं.

लगभग एक माह बाद जब मैं अपने कालेज की लाइब्रेरी से बाहर आ रहा था तो अचानक लाइब्रेरी के अंदर आते उसे देखा.  बस, लगा मानो जीवन सफल हो गया. सहसा अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. एक बार फिर उसे घूर कर देखा और आश्वस्त होते ही मैं ने वापस अपने कदम लाइब्रेरी की ओर मोड़ दिए थे. अंदर जा कर उस की बगल की सीट पर बैठ गया था. कुछ देर तक अगलबगल ?ांकने के बाद मैं ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया था.

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‘‘हैलो, माईसैल्फ अमन जैन, स्टूडैंट औफ बीएससी थर्ड ईयर.’’

‘‘हैलो, आई एम रीमा गुप्ता, स्टूडैंट औफ बीएस फर्स्ट ईयर. अभी कल ही मेरा एडमिशन हुआ है.’’

उस ने मु?ो अपना परिचय देते सकुचाते हुए कहा था, ‘‘पापा के ट्रांसफर के कारण मेरा एडमिशन कुछ लेट हुआ है. क्या आप नोट्स वगैरह बनाने में मेरी कुछ मदद कर देंगे?’’

‘‘व्हाई नौट, एनीटाइम. वैसे मेरा घर तुम्हारे घर के नजदीक ही है,’’ मैं ने दो कदम आगे रह कर कहा था और इस तरह हमारी प्रथम मुलाकात हुई थी.

नोट्स के आदानप्रदान के साथ ही हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, हमें ही पता नहीं चला था. ग्रेजुएशन के बाद मैं राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा था और वह पोस्ट ग्रेजुएशन की. उस से मिलना तपती धूप में एसी की ठंडी हवा का एहसास कराता था.

2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद मेरा चयन जिला खाद्य अधिकारी के पद के लिए हो गया था. जिस दिन मु?ो अपने चयन की सूचना मिली, मैं बहुत खुश था और शाम का इंतजार था क्योंकि हम दोनों पास के पार्क में लगभग रोज ही मिलते थे.

उस दिन भी मैं नियत समय पर पहुंच गया था. पर आज मेरी रिमू नहीं आई थी. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद मैं मायूस हो उठा और वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक सामने से मु?ो वह आती दिखाई दी.

‘‘अरे आज इतनी लेट क्यों? और यह मेरा गुलाब मुर?ाया हुआ क्यों है?’’ मेरे इतना कहते ही वह मु?ा से लिपट गई थी.

‘‘अमन, हम अब इतने आगे आ गए हैं कि अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. मेरे घर वाले शादी की बातें कर रहे हैं. क्या तुम मु?ो अपनाओगे?’’ रिमू ने बिना किसी लागलपेट के मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था और मैं हतप्रभ सा उसे देखता ही रह गया था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, मैं कब तुम्हारे बिना रह पाऊंगा,’’ कह कर मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया था.

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उस के बाद मेरा सर्विस जौइन करना और रिमू के पापा का ट्रांसफर पास के ही शहर में होना, सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिला. मैं और रिमू फोन के माध्यम से एकदूसरे से टच में अवश्य थे. मैं ने भी अपनी पत्नी के रूप में सिर्फ रिमू की ही कल्पना की थी.

नौकरी जौइन करने के बाद जब पहली बार मैं घर आया तो मां ने मेरे विवाह की बात की. मैं अपनी मां से प्रारंभ से ही प्रत्येक बात शेयर करता रहा था, सो मां से अपने दिल की बात कह डाली.

‘‘मां, मैं और किसी से विवाह नहीं कर पाऊंगा और जो भी करूंगा आप की अनुमति से ही करूंगा.’’

‘‘कौन लोग हैं वे और क्या करते हैं. किस जाति और धर्म के हैं?’’ मां ने कुछ अनमने से स्वर में पूछा था.

अनकहा प्यार- भाग 1: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोईर् थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने झलसे और उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

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उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

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‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 4

Writer- जसविंदर शर्मा 

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे पापा की प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. सभी टोनेटोटकों के बावजूद मां उसे घर से बाहर नहीं निकाल पाईं. लेकिन मां द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर उसे घर छोड़ना पड़ा और इस तरह पापा दो परिवारों के मुखिया बन कर रह गए. लेकिन पापा ने हम से पल्ला झाड़ लिया. पढि़ए शेष भाग…

छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं.

पापा ने जो किया था वह एक सम्माननीय और संतुलित व्यक्ति का व्यवहार नहीं था. अपनी वासनात्मक लालसाएं पूरी करने के लिए पापा ने इस घर के 4 जनों को दिनरात घुलते चले जाने को विवश किया था. विवाहेतर संबंध तो ठीक थे मगर उस पर यह अतिरेक और कुचेष्टा कि उन की रखैल मिस्ट्रैस को इस घर में सम्मान मिले और वह हमारे साथ भी रहे. दैहिक जरूरतों के सामने घर जैसी पवित्र जगह को युद्ध की रणभूमि बना डाला था ऐसे में तो कुंठा और दमन ही हाथ आना था.

यह तो बहुत ही मार देने वाला काम था. मां की हिम्मत थी कि पिछले इतने सालों से वे किसी तरह घर को जोड़ कर के रखे हुए थीं. वे पस्त हो जातीं, टूट जातीं या भाग कर मायके चली जातीं तो हम बच्चों का भविष्य खराब हो जाता.

लगभग 1 साल बाद मां को मोटी रकम मिल गई और पापा को तलाक मिल गया. ‘उस ने’ अगले ही महीने पापा से शादी कर ली. मां ने पापा को माफ कर दिया यह समझ कर कि गलती तो उस युवती की है जो एक अधेड़ व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती.

तब मैं तय नहीं कर पाई कि सच में सारी गलती ‘उस की’ ही थी. क्या मां या पापा कुसूरवार नहीं थे? त्रिकोणीय संबंधों में अगर 1 को बलि का बकरा बनना पड़ता है तो बाकी के 2 लोग भी ज्यादा देर तक ऐसे अनैतिक संबंध को सहजता से नहीं जी पाते.

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जल्दी ही उस मायावी औरत से पापा का मोहभंग हो गया. जब तक उस से पापा की शादी नहीं हुई थी तब तक पापा में उसे सारा आकर्षण दिखता था. गलत पते की चिट्ठी की तरह पापा 1 साल बाद हमारे घर के चक्कर लगाने लगे. भरापूरा घर, जिसे वे एक जवान नई औरत के लिए लात मार कर चले गए थे, अब हम बच्चेबच्चियों को देखने के बहाने फिर आने लगे थे.

पापा हमारे जन्मदिन पर बढि़या तोहफे लाते, हमें कपड़े ले कर देते. हमारे कालेज के बारे में पूछते. मेरे छोटे भाई में उन्हें खास दिलचस्पी रहती. हमें यकीन नहीं होता कि ये हमारे वही पापा हैं जिन्होंने हम से बात तक करनी बंद कर दी थी क्योंकि हम हमेशा मां की तरफदारी करते थे.

मां के मन की स्थिति कोई खास निश्चित नहीं थी कि अब पापा को ले कर वे क्या सोचती थीं. ‘उस ने’ जब पापा को हासिल कर लिया तभी से उन के रिश्ते के अंत का काउंटडाउन शुरू हो गया.

हम दोनों बहनों ने अच्छे संस्थानों से डिगरी ले ली थी और हमें अच्छी जौब मिल गई थी. पापा हम दोनों को ले कर कुछ ज्यादा ही वात्सल्य दिखाने लगे थे. मां के प्रति उन के मन में सोया प्यार जागने लगा था. अपनी मिस्ट्रैस की परवा कम ही करते थे. मां तो कहती कि

अब इस बूढे़ का दिल लगता है, दफ्तर की किसी अन्य स्त्री पर आ गया है

और हमारी आड़ ले कर यह अपनी मिस्ट्रैस से जान छुड़ाना चाहता है.

हो सकता है मां की बातों में कुछ सचाई हो मगर हमें अब सारा मामला समझ में आने लगा था. पापा इतनी ऊंची पोस्ट पर थे, अच्छा कमाते थे, फिर मां की उन से एक दिन भी नहीं बनी. क्या मां का कोई दोष नहीं था? मेरी बड़ी बहन का मानना था कि मां के हर समय शक करते रहने से पापा ऐसे बन गए.

खैर, मां और पापा का कोई समझौता नहीं हो सका. पापा पेंडुलम की तरह इधर से उधर, उधर से इधर आतेजाते रहे. मां ने उन्हें कोई तबज्जुह न दी. मां अब धार्मिक व अंधविश्वासी हो गई थीं. मेरे छोटे भाई ने जब डिगरी हासिल कर ली तो मां का ध्यान पूरा ईश्वर में लग गया. वे हर दुखसुख से ऊपर उठ गई थीं.

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घर के मामलों में उन्होंने रुचि लेनी बंद कर दी थी. हमारी शादी के बारे में भी उन्होंने कभी सीरियसली नहीं सोचा. उन्होंने सबकुछ पापा और वक्त पर छोड़ दिया था. कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता है, यह मां को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था.

मां को मालूम था कि पापा अब भी घर में रुचि लेते हैं. मां को एक निश्चित रकम हर महीने मिल जाती. हम बच्चे भी अच्छा कमा रहे थे, कारों में घूमते थे.

जब मेरी बहन ने अपने दोस्त के साथ रहने का फैसला किया तो उस ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं मां को सारी बातों के बारे में ब्रीफ करूं. उस में हिम्मत नहीं थी यह सब कहने की. पापा को तो हम इतनी अंतरंग बातें कभी न बता सकते थे.

पांच साल बाद- भाग 4: क्या निशांत को स्निग्धा भूल पाई?

पूर्व कथा

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि जिस समाज से स्निग्धा विद्रोह करना चाहती थी उसी समाज के एक कुलीन ने उस का सतीत्व लूट लिया और मन भरने के बाद उसे छोड़ दिया. उधर, निशांत, जो उस से एकतरफा प्यार करता था, पांच साल बाद उस की जिंदगी में आया. आगे क्या हुआ.

पढि़ए शेष भाग.

वह सारा दिन उन दोनों ने साथसाथ व्यतीत किया. पालिका बाजार, सैंट्रल पार्क, कनाट प्लेस से ले कर पुराने किले से होते हुए वे इंडिया गेट तक गए और रात 8 बजे तक वहीं बैठ कर उन्होंने जीवन के हर पहलू के बारे में बात की. निशांत हवा के साथ उड़ रहा था तो स्निग्धा के मन में अपने विगत को ले कर एक अपराधबोध था. निशांत हर प्रकार की खुशबू अपने दामन में समेटने के लिए आतुर था तो स्निग्धा संकोच के साथ अपने पांव पीछे खींच रही थी.

निशांत के जीवन की खोई हुई खुशियां जैसे दोबारा लौट आई थीं. उस के जीवन में 5 साल बाद वसंत के फूल महके थे. स्निग्धा को उस के घर के बाहर तक छोड़ कर जब वह वापस लौट रहा था तब उस के कानों में स्निग्धा के मीठे स्वर गूंज रहे थे, ‘बाय निशू, गुड नाइट. एक अच्छे दिन के लिए बहुतबहुत धन्यवाद. आशा है, हम कल फिर मिलेंगे.’

‘हां, कल शाम को मैं तुम्हें फोन करूंगा, ओके.’

स्निग्धा के घर से उस के घर के बीच का रास्ता कितनी जल्दी खत्म हो गया, उसे पता ही न चला. अपने 2 कमरों के किराए के मकान में पहुंच कर उसे लगा, जैसे पूरा घर ताजे फूलों से सजा हुआ हो और उन की मादक सुगंध चारों तरफ फैल कर उस के दिमाग को मदहोश किए दे रही थी. वह एक लंबी सांस ले कर पलंग पर धम से गिर पड़ा.

उसे स्निग्धा के साथ मिलने के संयोग पर विश्वास नहीं हो रहा था.

विश्वास तो स्निग्धा को भी नहीं हो रहा था. वह अपने कमरे की सीढि़यां चढ़ते हुए यही सोच रही थी कि निशांत से मिलने के बाद क्या उस के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला है. क्या यह परिवर्तन सुखद होगा? कमरे में पहुंची तो उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, जैसे वह फूल की तरह हलकी हो गई थी और उसे लग रहा था कि हवा का एक हलका झोंका भी आया तो वह आसमान में उड़ जाएगी. कोई उसे पकड़ नहीं पाएगा.

उस की रूममेट रश्मि ने जब उस का हंसता हुआ चेहरा देखा तो पहला प्रश्न यही किया, ‘लगता है, तुम्हारा खोया हुआ प्यार तुम्हें मिल गया है?’

उस ने पर्स को मेज पर पटका और रश्मि को गले से लगा कर भींच लिया. रश्मि कसमसा उठी और उसे परे करती हुई बोली, ‘इतना ज्यादा मत इतराओ. अभी एक प्यार की चोट पूरी तरह से भरी नहीं है और फिर से तुम प्यार करने लगी हो. कहां तो समाज की हर चीज से बगावत करने पर तुली हुई थीं, कहां अब एक आम लड़की की तरह बारबार प्यार में इस तरह गिर रही हो, जैसे गीले गुड़ में मक्खी…क्या यही है तुम्हारा आदर्श?’

‘अरे, भाड़ में जाए समाज से विद्रोह. वह मेरी बेवकूफी थी कि मैं नैतिकता को बंधन समझती थी. दरअसल, यही सच्चा जीवनमूल्य है, जो हमें एक नैतिक और मर्यादित बंधन में रख कर समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में मदद करता है. निरंकुश आजादी मनुष्य को गैरजिम्मेदार और तानाशाह बना देती है, जबकि सामाजिक मूल्य हमें एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करते हैं.’

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‘वाह, तुम तो एक दिन ही में सारे जीवनमूल्यों को पहचान गईं. किस ने ऐसा गुरुमंत्र दिया है जो अपनी बनाई हुई लीक को तोड़ने पर मजबूर हो गई हो? क्या पहले प्यार में धोखा खाने के बाद तुम्हें यह एहसास हुआ है या किसी ने तुम्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति का पाठ पढ़ाया है?’

वह पलंग पर बैठती हुई बोली, ‘नहीं रश्मि, बहुतकुछ हम अपने अनुभवों से सीखते हैं और बहुतकुछ हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से. इस से कुछ कटु अनुभव होते हैं और कुछ मृदु. यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि अपने द्वारा किए गए गलत कामों के कटु अनुभवों से हम क्या सीखते हैं और हम किस प्रकार अपने को बदल कर सही मार्ग पर आते हैं.

समाज में हर चीज गलत नहीं होती. हमें अपने विवेक से देखना पड़ता है कि क्या सही है, क्या गलत. सामाजिक कुरीतियां, अंधविश्वास, अति पूजापाठ और धर्मांधता अगर बुरे हैं तो शादीब्याह जैसी संस्थाएं बुरी नहीं हैं. यह परिवार और समाज को एक बंधन में बांध कर राष्ट्र को मजबूत बनाने में मदद करती हैं. मेरी गलती थी कि मैं समाज की हर चीज को बुरा समझने लगी थी. मनमाने ढंग से जीवन जीने का परिणाम क्या हुआ? एक व्यक्ति जिसे मैं अपना समझती थी कि वह जीवनभर मेरा साथ देगा, मेरे सुखदुख बांटेगा, वही मेरा उपभोग कर के एक किनारे हो गया.

‘यही काम अगर मैं शादी कर के करती तो समाज में गर्व से अपना सीना तान कर चल सकती थी. आज मैं अपने मांबाप, परिजनों और संबंधियों के सामने नहीं पड़ सकती, उन को अपना मुंह नहीं दिखा सकती. इतनी नैतिक शक्ति मेरे पास नहीं है,’ और उस के चेहरे पर फिर से पहले जैसी उदासी व्याप्त हो गई.

रश्मि बहुत समझदार लड़की थी. वह उस के पास आ कर उस के सिर पर हाथ रख कर बोली, ‘तुम बहुत साहसी लड़की हो. कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारतीं. आज तुम कितना खुश थीं. मुझे अफसोस है कि मैं ने तुम्हारी दुखती रग पर हाथ रख कर तुम्हें ज्यादा दुखी कर दिया. चलो, भूल जाओ अपना अतीत और नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो. अब मैं तुम से पिछले जीवन के बारे में कोई बात नहीं करूंगी. बस, तुम खुश रहा करो.’

‘मैं खुश हूं, रश्मि,’ उस ने हंसने का खोखला प्रयास किया और बाथरूम की तरफ जाती हुई बोली, ‘तुम देखना, मैं हमेशा हंसतीमुसकराती रहूंगी.’

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‘ये हुई न कोई बात.’

स्निग्धा ने अपने मन को इतना कठोर बना लिया था कि राघवेंद्र के साथ व्यतीत किए गए जीवन के कड़वे पलों को पूरी तरह भुला दिया था. अगर कभी यादें उसे हरा देतीं तो उस को उबकाई आने लगती.

आज वह एक सच्चे प्यार की तलाश में थी, तन की भूख की अब उस में कोई ललक नहीं थी.

रश्मि एक कौल सैंटर में काम करती थी. लखनऊ की रहने वाली थी. स्निग्धा से उस की मुलाकात इसी गैस्ट हाउस में हुई थी. रश्मि पहले से यहां रह रही थी. बाद में स्निग्धा आ गई तो उन्होंने एकसाथ एक कमरे में रहने का निर्णय लिया. इस से उन पर किराए का बोझ कम हो गया था.

स्निग्धा जब से आई थी, बहुत उदास और गुमसुम सी रहती थी. बहुत पूछने और साथ रहने के कारण स्निग्धा ने उस से अपने जीवन की बहुत सारी बातें बांट ली थीं. रश्मि ने भी उसे अपने बारे में बहुतकुछ बताया था. धीरेधीरे स्निग्धा खुश रहने लगी थी परंतु आज बाहर से आने के बाद वह जितना खुश थी उतना दिल्ली आने के बाद कभी नहीं रही.

धुंधली सी इक याद- भाग 1: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

‘‘बोलो न राज… एक बार मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. कहो न कि तुम्हें मुझ से प्यार है,’’ ईशा ने राज के गले में बांहें डालते हुए कहा.

‘‘हां, मुझे तुम से और सिर्फ तुम से प्यार है. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. तुम परी हो, अप्सरा हो और न जाने क्याक्या हो… हो गया या और भी कोई डायलौग सुनने को बाकी है?’’ राज ने मुसकराते हुए पूछा.

ईशा भी मुसकराते हुए बोली, ‘‘हुआ… हुआ… अब आया न मजा.’’

राज और ईशा एकदूसरे को 8 सालों से जानते थे. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. वहीं दोनों के प्यार का सिलसिला शुरू हुआ था. दोनों साथ घूमतेफिरते और अपनी पढ़ाई का भी ध्यान रखते. ईशा अमीर मातापिता की इकलौती संतान थी. उसे पैसे की नहीं सच्चे प्यार की तलाश थी और राज को पा कर वह धन्य हो गई थी. बस अब उसे इंतजार था कि कब राज की प्रमोशन हो और वह अपने मातापिता को राज के बारे में सब कुछ बता सके.  वैसे तो राज एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम करता था. लेकिन ईशा चाहती थी कि राज की एक प्रमोशन और हो जाए ताकि वह अपने पिता से शान से कह सके कि उस ने राज को जीवनसाथी के रूप में चुना है. बस 1 महीने का और इंतजार था.

जैसे ही राज को प्रमोशन लैटर मिला,  ईशा ने खुशी से उसे बधाई देते हुए कहा, ‘‘बस राज मैं आज ही पापा से तुम्हारे बारे में बात  करती हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि पापा तुम्हें बहुत पसंद करेंगे.’’  जब ईशा रात का खाना खाने अपने परिवार के साथ बैठी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘पापा, मैं आप को एक खुशखबरी देना चाहती हूं. मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है.’’

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उस के पिता ने भी बड़े आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छा, कौन है वह?’’

ईशा चहकते हुए बोली, ‘‘पापा वह राज है. आप कहें तो मैं कल उसे डिनर के लिए बुला लूं ताकि आप और मम्मी उस से मिल सकें?’’

ईशा के पिता ने झट से हामी भर दी. अगले दिन राज ईशा के घर में था. उस से मिल कर ईशा के पिता बोले, ‘‘हमें गर्व है अपनी बेटी की पसंद पर. हमें तुम से यही उम्मीद थी ईशा. तुम इतनी पढ़ीलिखी और समझदार हो कि तुम्हारी पसंद में तो हम कोई कमी निकाल ही नहीं सकते.’’

फिर अगले संडे को ईशा के मातापिता ने राज के मातापिता से मिल दोनों के रिश्ते की बात की.  बात ही बात में राज के पिता ने ईशा के पिता से कहा, ‘‘हमें ईशा बहुत पसंद है, किंतु हम आप को एक बात साफ बता देना चाहते हैं कि राज हमारा अपना बच्चा नहीं, इसे हम ने गोद लिया था. लेकिन हम ने इसे पालापोसा अपने बच्चे की तरह ही है. हमारी अपनी कोई संतान न थी. लेकिन हम यकीन दिलाते हैं कि हम ईशा को भी बड़े ही प्यार से रखेंगे.’’  राज के पिता का व्यवहार और कारोबार बहुत अच्छा था. अत: ईशा के पिता को इस रिश्ते पर कोई ऐतराज नहीं था. फिर क्या था. एक ही महीने में राज व ईशा की सगाई व शादी हो गई. ईशा दुलहन बनी बहुत ही सुंदर लग रही थी. कालेज के दोस्त व सहेलियां भी उन की शादी में उपस्थित थे. उन में से कुछ की शादी हो चुकी थी और कुछ तैयारी में थे. सभी राज व ईशा को बधाई दे रहे थे. विदाई की रस्म पूरी हुई और ईशा राज के घर आ गई. राज के मातापिता भी चांद सी बहू पा कर बहुत खुश थे.

आज राज व ईशा की पहली रात थी. उन का कमरा फूलों से सजाया गया था.  पलंग पर हलके गुलाबी रंग की चादर पर गहरे गुलाबी रंग की पंखुडि़यों को दिल के आकार में सजाया गया था. पूरा कमरा गुलाब की खुशबू से महक रहा था. उस पर सजीधजी ईशा इतनी खूबसूरत लग रही थी कि चांद की चमक भी फीकी पड़ जाए. रोज सलवारकुरता और जींसटौप पहनने वाली ईशा दुलहन बन इतनी सुंदर लगी कि राज के मुंह से निकल ही गया, ‘‘जी चाहता है इतने सुंदर चेहरे को आंखों में भर लूं और हर पल नजारा करूं.’’ ईशा शरमा कर राज की बांहों में समा गई.  अगली सुबह ईशा नहाधो कर हलके नीले रंग की साड़ी पहने किसी परी सी लग रही थी. सुबह से ही उस की सहेलियों के फोन आने शुरू हो गए. सब चुटकियां लेले पूछ रही थीं, ‘‘कैसी रही पहली रात ईशा?’’  उस का पूरा दिन इन चुहलबाजियों में ही बीत गया. ईशा भी सब को हंस कर एक ही जवाब देती, ‘‘अच्छी रही, वंडरफुल.’’

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खैर, 1 महीना बीत गया और दोनों का हनीमून भी खत्म हुआ. अब राज को 1 महीने की छुट्टी के बाद दफ्तर जाना था. दफ्तर जाते ही सभी पुराने दोस्तों का भी वही सवाल था कि कैसा रहा हनीमून और जवाब में राज भी मुसकरा कर बोला कि अच्छा रहा.  दिन तेजी से बीत रहे थे. हर शाम ईशा सजीधजी राज के घर आने का इंतजार करती. रात को खाना खा कर दोनों छत पर लगे झूले में बैठ कर चांदनी रात में तारों को निहारा करते. प्यार की बातों में कब आधी रात हो जाती उन्हें मालूम ही न पड़ता. राज के मातापिता भी ईशा से बहुत खुश थे. उस के आने से घर की रौनक बढ़ गई थी. सारा काम नौकरचाकर करते, लेकिन ईशा राज की मां और स्वयं की थाली खुद ही लगाती. राज की मां के साथ ही खाना खाती.  1 साल बीत गया. अब राज की मां ईशा से कहने लगीं, ‘‘बेटी, तुम ने इस सूने घर में रौनक ला दी. बेटी अब इस घर में 1 बच्चा आ जाए तो यह रौनक 4 गुना बढ़ जाए.’’

ईशा भी कहती, ‘‘जी मम्मी, आप ठीक कह रही हैं.’’

जब कभी खाने के समय राज भी साथ होता तो यही बात मां राज से भी कहतीं.  राज कहता, ‘‘हो जाएगा मम्मी. इतनी भी क्या जल्दी है?’’

ऐसा चलते 1 साल और बीत गया. अब ईशा भी राज से कहने लगी, ‘‘राज, मैं तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. तुम बुरा न मानना और मुझे गलत न समझना… तुम्हें क्या हो जाता है राज… तुम मुझ से प्यार की बातें करते हो, मुझे चूमते हो, मुझे बांहों में लेते हो, लेकिन वह क्यों करते नहीं जो एक बच्चा पैदा करने के लिए जरूरी है? हमारी शादी को 2 साल हो गए, लेकिन हम अभी कुंआरों की जिंदगी ही जी रहे हैं.’’  राज ने भी सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां, तुम ठीक कहती हो.’’

मन का मीत- भाग 2: कैसे हर्ष के मोहपाश में बंधती गई तान्या

मेरी मम्मी को मेरे अकेले मुंबई रहने में समस्या दिख रही थी. अत: वे भी मेरे साथ मुंबई आ गईं. मेरे पापा के बौस के बड़े भाई अमेरिकी नागरिक हैं. उन का बेटा अमेरिका में नौकरी करता था. उन्होंने अपने बेटे समीर के रिश्ते के लिए पापा से संपर्क किया. उन्होंने बताया कि समीर से शादी के बाद मुझे भी जल्द ही अमेरिका का ग्रीन कार्ड और नागरिकता मिल जाएगी. आननफानन में मेरी शादी हो गई. मैं अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में आ गई. फिर मुझे जल्द ही ग्रीन कार्ड भी मिल गया.

मेरे पति समीर गूगल कंपनी में काम करते थे. मुझे भी यहां नौकरी मिल गई. अमेरिका में काफी बड़ा बंगला, 4-4 महंगी गाडि़यां और अन्य सभी ऐशोआराम की सुविधाएं उपलब्ध थीं. मैं समीर की पत्नी भी बन गई और जब उस की मरजी होती उस के लिए पत्नी धर्म का पालन भी करती. पर मर्दों के प्रति जो मन में एक खौफ था बचपन से उस के चलते अकसर उदासीनता छाई रहती.

हम दोनों के विचार भी भिन्न थे. समीर शुरू से अमेरिकन संस्कृति में पलाबढ़ा था. यही कारण रहा होगा हम दोनों में असमानता का पर मैं ने महसूस किया कि आज तक उस ने कभी मुझे प्यार भरी नजरों से नहीं देखा, न ही मेरी तारीफ में कभी दो शब्द कहे. अपने साथ मुझे बाहर पार्टियों में भी वह बहुत कम ले जाता. मैं कभी कुछ कहना चाहती तो मेरी पूरी बात सुने बिना बीच में ही झिड़क देता या कभी सुन कर अनसुना कर देता. मेरी भावनाएं उस के लिए कोई माने नहीं रखतीं. काफी दिनों तक पति से हमबिस्तर होने पर भी मुझे वैसा कोई आनंद नहीं होता जैसा फिल्मों में देखती थी.

मेरे औफिस में एक नए भारतीय इंजीनियर ने जौइन किया था. पहले दिन उस का सब से परिचय हुआ, हर्षवर्धन नाम था उस का. उसे औफिस में सब हर्ष कहते थे. हम दोनों के कैबिन आमनेसामने थे. मैं ने महसूस किया कि अकसर वह मुझे देखता रहता. कभी मैं भी उस की तरफ देखने लगती. जब दोनों की नजरें मिलतीं, तो हम दोनों नजरें झुका लेते.

पर पता नहीं क्यों हर्ष का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगता और मैं भी जब उसे देखती मन में खुशी की लहर सी उठती थी. मुझे लगता कि कोई तो है जिसे मुझ में कुछ तो दिखा होगा. अभी तक दोनों में वार्त्तालाप नहीं हुआ था. लंच टाइम में औफिस की कैंटीन में दोनों का आमनासामना भी होता, नजरें मिलतीं बस. कभी उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान होती जिसे देख कर मैं नजरें चुरा लेती.

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इस बीच मैं प्रैगनैंट हुई. हर्ष और मैं दोनों उसी तरह से नजरें मिलाते रहे. मैं ने देखा कैंटीन में कभीकभी उस की नजरें मेरे बेबीबंप पर जा टिकतीं तो मैं शर्म से आंखें फेर लेती या उस से दूर चली जाती. कभी बीचबीच में वह काम के सिलसिले में टूअर पर जाता तो मेरी नजरें उसे ढूंढ़तीं. कुछ दिनों बाद मैं मैटर्निटी लीव पर चली गई.

इसी बीच मैं ने फेसबुक पर हर्ष का फ्रैंडशिप रिक्वैस्ट देखा. पहले तो मुझे आश्चर्य हुआ कि न बोल न चाल और सीधे दोस्त बनना चाहता है. 2-3 दिनों तक मैं भी इसी उधेड़बुन में रही कि उस की रिक्वैस्ट स्वीकार करूं या नहीं. फिर मेरा मन भी अंदर से उसे मिस कर रहा था. अत: मैं ने उस की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर ली. फौरन उस का पोस्ट आया कि थैंक्स तान्या. आई मिस यू.

मैं ने भी मी टू लिख दिया. फिलहाल मैं ने उस दिन इतने पर ही फेसबुक लौग आउट कर दिया. मैं आंखें बंद कर देर तक उस के बारे में सोचती रही.

पता नहीं क्यों आमनेसामने हर्ष को मुझ से या फिर मुझे भी हर्ष से बात करने में संकोच होता, पर मुझे अब रोज हर्ष का फेसबुक पर इंतजार रहता. मेरा पति समीर भी जानता था मेरे एफबी फ्रैंड के बारे में, पर यह एक आम बात है. कोई शक या आश्चर्य की बात नहीं है. उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

इसी बीच हर्ष ने बताया कि वह बोकारो का रहने वाला है. बीटैक करने के बाद अमेरिका एक स्टूडैंट वीजा पर आया था और मास्टर्स करने के बाद ओपीटी पर है. अमेरिका में साइंस, टैक्नोलौजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स (एसटीईएम) में स्नातकोत्तर करने पर कम से कम 12 महीने तक की औप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी) का अवसर दिया जाता है जिस दौरान वे नौकरी करते हैं. अगर इसी बीच किसी कंपनी द्वारा उन्हें जौब वीजा एच 1 बी मिल जाता है तब वे 3 साल के लिए और यहां नौकरी कर सकते हैं वरना वापस अपने देश जाना पड़ता है.

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हर्ष और मेरे बीच फेसबुक संपर्क बना हुआ था. इसी बीच मैं ने एक बेटे को जन्म दिया. हम लोगों ने उस का नाम आदित्य रखा, पर घर में उसे आदि कहते हैं. हर्ष ने मुझे और समीर को बधाई संदेश भेजा. मेरे घर पर पार्टी हुई पर मैं हर्ष को चाह कर भी नहीं बुला सकी. औफिस कुलीग के लिए अलग से एक होटल में पार्टी दी गई. उस में हर्ष भी आमंत्रित था. उस ने आदि के लिए ‘टौएज रस’ और ‘मेसी’ दोनों स्टोर्स के 100-100 डौलर्स के गिफ्ट कार्ड दिए थे ताकि मैं अपनी पसंद के खिलौने व कपड़े आदि ले सकूं. पहली बार इस पार्टी में उस से आमनेसामने बातें हुईं.

उस ने मुझे बधाई देते हुए धीरे से कहा, ‘‘तान्या, तुम वैसे ही सुंदर हो पर प्रैगनैंसी में तो तुम्हारी सुंदरता में चार चांद लग गए थे. मैं तुम्हें मिस कर रहा हूं. औफिस कब जौइन कर रही हो?’’

तलाक के बाद शादी- भाग 2: देव और साधना आखिर क्यों अलग हुए

देव ने गुस्से में फोन पटक दिया और उदास हो कर सोचने लगा, ‘जिस लड़की के प्यार में अपने मातापिता, भाईबहन, समाज, रिश्तेदार सब छोड़ दिए, आज वही मुझे बिना बताए चली गई. उस पर उस की मां कोर्टकचहरी की धमकी दे रही है. अगर उस का परिवार है तो मैं भी तो कोई अकेला नहीं हूं.’

देव भी अपने घर चला गया. उस के परिवार के लोगों ने भी यही कहा, ‘तुम ने गैरजात की लड़की से शादी कर के जीवन की सब से बड़ी भूल की है. तलाक लो. फुरसत पाओ. हम समाज की किसी अच्छी लड़की से शादी करवा देंगे. शादी 2 परिवारों का मिलन है. जो गलती हो गई उसे भूल जाओ. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? अच्छे दिखते हो. अच्छी कमाई है. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अच्छा हुआ कि कोई बालबच्चा नहीं हुआ वरना फंस गए थे बुरी तरह. पूरा जीवन बरबाद हो जाता. फिर तुम्हारे बच्चों की शादी किस जात में होती.’

प्रेम तभी सार्थक है जब वह निभ जाए. यदि बीच में टूट जाए तो उसे अपने पराए सब गलती कहते हैं. यदि यही शादी जाति में होती तो मातापिता समझाबुझा कर बच्चों को सलाह देते. विवाह कोई मजाक नहीं है. थोड़ाबहुत सुनना पड़ता है. स्त्री का धर्म है कि जहां से डोली उठे, वहीं से जनाजा. फिर दामादजी से क्षमायाचना की जाती है. बहू को भी प्रेम से समझाबुझा कर लाने की सलाह दी जाती है. लेकिन मातापिता की मरजी के विरुद्ध अंतरजातीय विवाह में तो जैसे दोनों पक्षों के परिवार वाले इस प्रयास में ही रहते हैं.

यह शादी ही नहीं थी, धोखा था. लड़केलड़की को बहलाफुसला कर प्रेम जाल में फंसा लिया गया था. उन की बेटाबेटी तो सीधासादा था. अब तलाक ही एकमात्र विकल्प है. यह शादी टूट जाए तो ही सब का भला है. ऐसे में जीजा नाम के प्राणी को घर का सम्मानित व्यक्ति समझ सलाह ली जाती है और जीजा वही कहता है जो सासससुर, समाज कहता है. इस गठबंधन के बंध तोड़ने का काम जीजा को आगे बढ़ा कर किया जाता है.

जब देव साधना से और साधना देव से बात करना चाहते तो दोनों तरफ से माता या पिता फोन उठा कर खरीखोटी सुना कर तलाक की बात पर अड़ जाते और बच्चों के कान में उलटेसीधे मंत्र फूंक कर एकदूसरे के खिलाफ घृणा भरते.

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तलाक की पहली पेशी में भी पतिपत्नी आपस में बात न कर पाए इस उद्देश्य से घर से समझाबुझा कर लाया गया था कोर्ट में और साथ में मातापिता, जीजा हरदम बने रहते कि कहीं कोई बात न हो जाए. इस बीच साधना औफिस नहीं गई. उस ने भोपाल तबादला करवा लिया या कहें करवा दिया गया.

मजिस्ट्रेट के पूछने पर दोनों पक्षों ने तलाक के लिए रजामंदी दिखाई. फिर दूसरी पेशी में उन के वकीलों ने दलीलें दीं. तीसरी पेशी में पत्नी और पति को साथ में थोड़े समय के लिए छोड़ा गया. कुछ झिझक, कुछ गुस्सा, कुछ दबाव के चलते कोई निर्णय नहीं हो पाया. चौथी पेशी में तलाक मंजूर कर लिया गया.

इस बीच 3 वर्ष गुजर गए. जिस जोरशोर से परिवार के लोगों ने दोनों का तलाक करवाया था, उसी तरह विवाह की कोशिश भी की, लेकिन जो उत्तर उन्हें मिलते उन उत्तरों से खीज कर वे अपने बच्चों को ही दोषी ठहराते.

तलाकशुदा से कौन शादी करेगा? 30 साल बड़ा 2 बच्चों का पिता चलेगा जो विधुर है.घर से भाग कर पराई जात के लड़के से शादी, फिर तलाक. एक व्यक्ति है तो लेकिन अपाहिज है. एक और है लेकिन सजायाफ्ता है लड़की से जबरदस्ती के केस में.

मां ने गुस्से में कह दिया, ‘‘बेटी, तुम भाग कर शादी करने की गलती न करती तो मजाल थी ऐसे रिश्ते लाने वालों की. समाज माफ नहीं करता.’’ फिर मां ने समझाते हुए कहा, ‘‘ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं जो बिना शादी के ही परिवार की देखरेख में जीवन गुजार देती हैं. तुम भोपाल में भाईभाभी के साथ रहो. अपने भतीजेभतीजियों की बूआ बन कर उन की देखरेख करो.’’

साधना ने भाभी को भी धीरे से भैया से कहते सुन लिया था कि दीदी की अच्छी तनख्वाह है, हमारे बच्चों को सपोर्ट हो जाएगा. मन मार कर वह भाईभाभी के साथ रहने लगी. भाभी के हाथ में किचन था. भैया ड्राइंगरूम में अपने दोस्तों के साथ गपें लड़ाते, टीवी देखते रहते और वह दिनभर थकीहारी औफिस से आती तो दोनों भतीजे उसे पढ़ाने या उस के साथ खेलने की जिद करते उस के कमरे में आ कर.

कुछ ऐसा ही देव के साथ हुआ तलाक के बाद. शादी की जहां भी बात चलती तो लड़का तलाकशुदा है. कोई गरीब ही अपनी लड़की मजबूरी में दे सकता है. कौन जाने कोई बच्चा भी हो. फिर तलाश की गई लड़की की उम्र बहुत कम होती या उसे बिलकुल पसंद न आती.

पिता गुस्से में कहते, ‘‘दामन पर दाग लगा है, फिर भी पसंदनापसंद बता रहे हो. फिर भी तुम्हारे जीवन को सुखी बनाने के लिए कर रहे हैं तो दस कमियां निकाल रहे हैं जनाब. पढ़ीलिखी नहीं है. बहुत कम उम्र की है. दिखने में ठीकठाक नहीं है.’’

परिवार के व्यंग्य से तंग आ कर देव ने कई बार तबादला कराने की सोची. लेकिन सफलता नहीं मिली. इन 3 वर्षों में वह सब सुनता रहा और एक दिन उसे प्रमोशन मिल गया और उस का तबादला भोपाल हो गया. उसे मंगलवार तक औफिस जौइन करना था. रविवार को उस ने कंपनी से मिले नौकर की मदद से कंपनी के क्वार्टर में सारी सामग्री जुटा ली. सोमवार को उस ने बाकी छोटामोटा घरेलू उपयोग का समान लिया और मन बहलाने के लिए 6 बजे के शो का टिकट ले कर पिक्चर देखने चला गया. ठीक 9 बजे फिल्म छूटी. वह एमपी नगर से हो कर निकला जहां उस का औफिस था. सोचा, औफिस देख लूं ताकि कल आने में आसानी हो. एमपी नगर से औफिस पर नजर डालते हुए वह अंदर की गलियों से मुख्य रोड पर पहुंचने का रास्ता तलाश रहा था.

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दिसंबर की ठंड भरी रात. गलियां सुनसान थीं. उसे अपने से थोड़ी दूर एक महिला आगे की ओर तेज कदमों से जाती हुई दिखाई पड़ी. देव को लगा, शायद यह किसी दफ्तर से काम कर के मुख्य रोड पर जा रही हो, जहां से आटो, टैक्सी या सिटीबस मिलती हैं. वह उस के पीछे हो लिया. तभी उस महिला के पीछे 3 मवाली जैसे लड़कों ने चल कर भद्दे इशारे, व्यंग्य करने शुरू कर दिए.

‘‘ओ मैडम, इतनी रात को कहां? घर छोड़  या कहीं और?’’

फिर तीनों ने उसे घेर कर उस का रास्ता रोक लिया. महिला चीखी. देव तब तक और नजदीक आ चुका था. एक मवाली ने उसे थप्पड़ मार कर चुप रहने को कहा. महिला फिर चीखी. उसे चीख जानीपहचानी लगी. उस के दिल में कुछ हुआ. पास आया तो वह उस महिला को देख कर आश्चर्य में पड़ गया. यह तो साधना है. वह चीखा, ‘‘क्या हो रहा है, शर्म नहीं आती?’’

फूल सी दोस्ती- भाग 1: क्यों विराट की गर्लफ्रैंड उसका मजाक बनाती थी

आजकल मंजरी का मन घर में बिलकुल भी नहीं लग रहा था. उस के पति शिशिर बिजनैस के सिलसिले में ज्यादातर बाहर रहा करते थे और बेटा अतुल एमएस करने अमेरिका गया, तो वहीं का हो कर रह गया. साक्षी से ही वह अपने मन की बातें कर लिया करती थी. साक्षी भी मंजरी को मां नहीं सहेली समझती थी. तभी तो पिछले सप्ताह उसे एअरपोर्ट तक छोड़ते समय मन बहुत उदास हो गया था मंजरी का. हालांकि इस बात से वह बहुत खुश थी कि मिलान से फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई करने के लिए स्कौलरशिप मिली साक्षी को. शिशिर ने उसे सोसाइटी की महिलाओं का क्लब जौइन करने का सुझाव दिया.

पर मंजरी ने सोचा कि पहले की तरह फिर उसे क्लब छोड़ना पड़ गया तो वह सब की आंखों की किरकिरी बन जाएगी. उस की दिलचस्पी औरों की तरह लोगों की कमियां निकालने, गहनों की चर्चा करने और साडि़यों की सेल के बारे में जानने की नहीं थी. किट्टी पार्टी में महंगी क्रौकरी के प्रदर्शन और ड्राइंगरूम में नित नए शो पीसेज से अपना रुतबा बढ़ाचढ़ा कर दिखाने का स्वांग रचना भी नहीं जानती थी वह. उसे कुछ अच्छा लगता था तो बस देर तक प्रकृति की गोद में बैठे रहना या फिर बच्चों के साथ हंसतेखिलखिलाते हुए बचपन को फिर से महसूस करना. उसे कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह 50 वर्ष पार चुकी है.

साक्षी के चले जाने के बाद मंजरी अकसर किसी पार्क में जा कर बैठ जाया करती थी. एक दिन पार्क में बैंच पर बैठी हुई वह व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ने में तल्लीन थी कि ‘एक्सक्यूज मी’ सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ. सामने एक 28-29 वर्षीय लंबा, हैंडसम युवक उसे बैंच पर रखा उस का पर्स हटाने को कह रहा था. मुसकराते हुए उस ने पर्स उठा लिया और वह युवक बैंच पर बैठ गया.

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लगभग 5 मिनट यों ही बीत गए. युवक बेचैन सा कभी पार्क के गेट की ओर देखता तो कभी अपने मोबाइल को. ऐसा लग रहा था कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है. मंजरी ने पूछ लिया, ‘‘किसी का इंतजार कर रहे हो क्या?’’ लेकिन प्रश्न पूछते ही उसे लगा कि उस से गलती हो गई. एक अजनबी, वह भी नवयुवक….अब जरूर यह खीज उठेगा. परंतु उस की आशा के विपरीत युवक ने मुसकरा कर उस की ओर देखा और कहा, ‘‘मैं… हां… इतंजार कर रहा हूं… आप… अकेली बैठीं हैं?’’

‘‘हां…जब बोर होती हूं तो यहां आ कर बैठ जाती हूं. मेरे अलावा घर के सब लोग बिजी हैं…लगता है यह बैंच उन लोगों के लिए ही बनी है जो अपनों का साथ पाने को बेचैन हैं,’’ वह निराश, पर थोड़े से मजाकिया लहजे में बोली. ‘‘हां… शायद… मेरी गर्लफ्रैंड… नहीं, हाफ गर्लफ्रैंड भी बिजी रहती है. वह ऐसे बच्चों के हौस्टल में औफिसर इन चार्ज है जो देख नहीं सकते. काफी काम रहता है उसे वहां. शायद इसीलिए टाइम पर नहीं पहुंच पाती मेरे पास.’’ निराशा छिपाते हुए एक सांस में ही नवयुवक ने सब कह डाला.

फिर अपना परिचय देते हुए उस ने मंजरी को अपना नाम बताया, ‘‘जी, मेरा नाम विराट है. और आप?’’ ‘‘मैं मंजरी,’’ थोड़ा हिचकिचाते हुए मंजरी ने भी अपना परिचय दिया.

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‘‘काम तो अच्छा कर रही हैं आप की साहिबा. नाम क्या है और हाफ गर्लफ्रैंड क्यों?’’ ‘‘रिया नाम है मैडम का… हम दोनों मुंबई में 5वीं क्लास तक एकसाथ पढ़ते थे, फिर उस के पापा का ट्रांसफर हो गया और वे लोग दिल्ली आ गए. 3 महीने पहले एक दिन अचानक ही उस से मुलाकात हो गई. उस के बाद से ही हमारा मिलनाजुलना शुरू हो गया. हम दोनों एकदूसरे को पसंद भी बहुत करते हैं. बस…वो ‘3 वर्ड्स’ अभी तक नहीं कह पाए एकदूसरे को,’’ विराट ने शरमाते हुए कहा.

‘‘फिर तो तुम भी हाफ बौयफ्रैंड हुए न उस के,’’ मंजरी ने विराट की बातों में दिलचस्पी लेते हुए कहा. ‘‘नहींनहीं, रिया तो कब की मेरे मन की बात जान चुकी होगी, क्योंकि मेरे वाट्सऐप और फेसबुक के स्टेटस मेरे मन के राज खोल देते हैं. पर रिया…वह तो इस मामले में पूरी साइलैंट मूवी की हीरोइन है,’’ और विराट होंठों पर उंगली रख, चुप्पी का इशारा करते हुए मुसकराने लगा.

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