आइए एडमिशन का मौसम है

लेखक-  शरद उपाध्याय

हमारे देश में प्रतिदिन हजारों बच्चों का जन्म होता है. बच्चे धीरेधीरे बड़े होते हैं व एक दिन उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जहां पर उन्हें स्कूल भेजने का संस्कार संपन्न कराना पड़ता है.

बच्चों को स्कूल में डालना, देखने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना सरल वास्तव में है नहीं. वे दिन गए जब बच्चों को सरलता से स्कूल में एडमिशन मिल जाया करता था. बच्चा थोड़ा सा ठीकठाक हुआ, उलटीसीधी गिनती बताने लगता था तो भी वे मात्र इस आधार पर कि बच्चे को पर्याप्त दिशाज्ञान है, स्कूल में भर्ती कर लेते थे.

पर आज ऐसा कुछ भी नहीं है. वर्तमान में एडमिशन एक दुर्लभ प्रक्रिया हो गई है. बच्चे के जन्म के साथ ही यह चिंता और बहस का विषय हो जाता है. जैसे ही बच्चा जन्मता है, मांबाप उस के भविष्य की चिंता प्रारंभ कर देते हैं. उन्हें घबराहट होती है कि बस, 3 या 4 साल बाद वे ‘स्कूल एडमिशन’ के पीड़ादायक दौर से गुजरने वाले हैं. उन्हें भूख कम लगने लगती है तथा ब्लडप्रेशर में उतारचढ़ाव अधिक महसूस होता है.

पहले जहां इस प्रक्रिया में अध्ययन केवल बच्चे को करना पड़ता था आजकल मांबाप को अधिक मेहनत करनी पड़ती है. वर्षों पूर्व की गई पढ़ाई की यादें ताजा हो जाती हैं तथा मांबाप  के हाथ में पत्रपत्रिकाओं के स्थान पर कोर्स की किताबें नजर आने लगती हैं.

बच्चे के जन्म के साथ ही मातापिता का नगरीय भौगोलिक ज्ञान बढ़ जाता है. शहर के वे सभी स्कूल, जहां वे बच्चे का एडमिशन कराना चाहते हैं, उन के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं. वे जब कभी भी उधर निकलते हैं, उन स्कूलों को देख कर ठंडी आहें भरते हैं.

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बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो मांबाप के चिंताग्राफ में वृद्धि हो जाती है. वे तथाकथित स्कूलों के अध्यापक- अध्यापिकाओं से संबंध बढ़ाने लगते हैं. जानपहचान न होने के बावजूद उन्हें नमस्ते करते हैं. यहां वे गुरुजनों के प्रोत्साहन के अभाव को दार्शनिक अंदाज में लेते हैं. वे सोचते हैं, कोई बात नहीं, आज नहीं तो कल ईश्वर उन की प्रार्थना को अवश्य सुनेगा.

थोड़ा सा परिचय होने के बाद वे गुरुजनों को घर पर चाय के लिए आमंत्रित करते हैं एवं उन के न आने पर स्वयं उन के घर जा धमकते हैं. इन नाना प्रकार के मौकों पर मिली उपेक्षा को वे भविष्यरूपी निवेश समझ कर पी जाते हैं.

लेकिन उन के प्रयास केवल बाहरी नहीं होते, उन का घर भी एक बाल अध्ययन केंद्र बन जाता है. पहले वे स्वयं रटरट कर याद करते हैं, उस के बाद बच्चे के साथ अत्याचार जारी रखते हैं. जिन सब्जियों को पहले वे मात्र हिंदी में ही पका कर खाते थे. अब उन के अंगरेजी अर्थ के लिए किताबों का सहारा लेते हैं. पहले उन के घर में जहां रोज पूजा के मंत्र गूंजते थे, अब पालतू जानवरों व पक्षियों के नाम तैरते रहते हैं. उन का घर, घर न लग कर चिडि़याघर प्रतीत होता है.

व्यक्ति घर से निकलने वाले सभी रास्ते भूल जाता है. वह घर से दफ्तर जाता है व दफ्तर से लौट कर सीधे घर आता है. घर आते ही वह किताबें उठा कर सीधे ट्यूशन पढ़ने चला जाता है. आखिरकार आजकल बच्चों के साथसाथ मांबाप का भी इंटरव्यू लिया जाता है. कहीं किसी मौके पर बच्चा तो होशियारी का परिचय दे जाए, किंतु मांबाप फिसड्डी साबित हों, इस डर से वह निरंतर अध्ययन में लगा रहता है.

आजकल बड़ेबड़े स्कूलों में फीस का स्तर भी बड़ाबड़ा ही होता है. अत: वह निर्धारित समय पर आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए विभिन्न ऋण योजनाओं का दामन पकड़ते हैं. जिस खर्चे में उन की कालिज स्तर की पढ़ाई संपन्न हो गई थी, आजकल उस में तो बच्चा नर्सरी भी पास नहीं कर सकता.

जैसे ही उन का नालायक बच्चा लायक बनता है उन की तैयारियां युद्ध स्तर पर प्रारंभ हो जाती हैं. पति व पत्नी  अपनी बेकाबू काया पर काबू पाने के लिए सघन अभियान प्रारंभ कर देते हैं. पति जहां रोज सुबहसुबह दौड़ लगाता है वहीं पत्नी रस्सी कूद कर शरीर छरहरा करने का असफल प्रयास करती है. आखिरकार इंटरव्यू में मांबाप फिट नहीं दिखे तो बच्चे के अनफिट होने की आशंका बढ़ जाती है.

पत्नी जो विभिन्न मौकों पर अंगरेजी की टांग तोड़ती रहती है, अब थोड़ा संभलसंभल कर बोलने लगती है.

शहर के विभिन्न स्कूल एडमिशन के इस पावन पर्व पर अपने फार्म जारी करते हैं जिस पर व्यक्ति सैकड़ों रुपए इनवेस्ट कर आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देता है.

फिर आता है इंटरव्यू का दौर. उस से पूर्व मातापिता का जहां खाना हराम हो जाता है वहीं बच्चों की डाइट बढ़ जाती है. अच्छे प्रदर्शन का वचन देने के बदले वह नाना प्रकार की स्वादिष्ठ वस्तुएं अनवरत पाता रहता है. इस से जहां बच्चे का स्वास्थ्य सुधरता है वहीं चिंतित मातापिता का स्वास्थ्य व बजट, दोनों बिगड़ जाता है.

इंटरव्यू के दौरान विभिन्न स्कूलों के अलगअलग चयनकर्ताओं के सामने प्रदर्शन करता है. जब तक रिजल्ट नहीं आता तब तक मांबाप, आपस में बैठ कर तीनों के प्रदर्शन की समीक्षा करते रहते हैं. वे विभिन्न देवीदेवताओं के समक्ष मनौती मानते हैं.

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किंतु होनी को कौन टाल सकता है. चंद भाग्यवानों के अतिरिक्त सभी का विश्वास भगवान से उठ जाता है. वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं. बच्चे का जीवन स्तर, जोकि अच्छे प्रदर्शन के वचन के कारण ऊपर उठ गया था, पुन: गरीबी की रेखा के नीचे आ जाता है.

फिर वे भारतीय खिलाडि़यों के अच्छे प्रदर्शन न कर पाने की तरह, एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं. और अंत में थकहार कर समझौतावादी हो जाते हैं. परिणाम में वे नालायक बेटे को किसी लायक स्कूल के स्थान पर अन्य स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं और इसे नियति मान कर स्वीकार कर लेते हैं. द्य

हड़ताली

बिस्तर पर लेटेलेटे सोम प्रकाश ने दीवार घड़ी की ओर देखा. सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे. वह अलसाया सा लेटा रहा. उस का बिस्तर छोड़ने का मन बिलकुल नहीं कर रहा था.

सोम प्रकाश की उम्र तकरीबन 50 साल थी. रंग सांवला, भरा हुआ शरीर, सिर पर छोटेछोटे बाल. परिवार में पत्नी गायत्री और एक बेटा राजीव था जो 12वीं जमात में पढ़ रहा था.बेटी अनीता की शादी 5 साल पहले कर दी गई थी. इतने सालों के बाद बेटी अनीता मां बनने वाली थी यानी वह नाना बनने वाला था.

गायत्री ने अनीता की ससुराल वालों से कह दिया था कि बेटी का पहला बच्चा यहीं पर उस के मायके में होगा. 2 महीने से बेटी यहां आई हुई थी.

सोम प्रकाश रोडवेज की बस में ड्राइवर था. 2 दिन से रोडवेज की चक्का जाम हड़ताल चल रही थी. सरकार महंगाई तो बढ़ा देती है, पर तनख्वाह बिना बढ़ाए देना चाहती है. जब से वह नौकरी पर है, कई बार हड़ताल हो चुकी है. हर बार उस ने हड़ताल को कामयाब बनाने में पूरा साथ दिया है.

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सोम प्रकाश उठ कर बैठ गया. आज के अखबार में रोडवेज की हड़ताल की खबर पढ़ने लगा. हड़ताल के चलते प्रदेश में करोड़ों रुपए का रोजाना का नुकसान हो रहा था. मुसाफिरों को बस न मिलने से बहुत परेशानी हो रही थी. कुछ डग्गेमार बसें पुलिस से मिल कर चल रही थीं. रोडवेज कर्मचारी यूनियन के नेताओं की सरकार से बातचीत नाकाम हो रही थी.

सोम प्रकाश मन ही मन खुश हो रहा था कि हड़ताल कामयाब हो रही है, तभी उस के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने मोबाइल कान से लगा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘10 बजे तक तुम बसस्टैंड पहुंच जाना. जलसा है. हमें सरकार को अपनी ताकत दिखानी है कि हमारी एकता के चलते हड़ताल कितनी कामयाब है. जिस हड़ताल में जनता जितनी परेशान होती है, वह हड़ताल उतनी ही कामयाब मानी जाती है,’ उधर से एक साथी की आवाज सुनाई दी.

‘‘ठीक है, मैं वहां पहुंच जाऊंगा. जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है तो मजबूर हो कर उंगली टेढ़ी मतलब हड़ताल करनी पड़ती है,’’ सोम प्रकाश ने कहा और फोन बंद कर दिया.

तभी गायत्री ने आ कर कहा, ‘‘उठो जल्दी, अब ज्यादा देर नहीं है. तुम शांति दाई को जल्दी बुला लाओ.’’

‘‘दाई को रहने दो. अनीता को कसबे के बड़े अस्पताल में ले चलते हैं.’’

‘‘नहीं, नहीं. वहां कभी डाक्टर नहीं मिलता तो कभी नर्स नहीं मिलती. शांति दाई पुरानी और समझदार हैं. तुम जल्दी जाओ,’’ गायत्री ने कहा.

शांति दाई का मकान ज्यादा दूर नहीं था. सोम प्रकाश उठा और लौटा तो दाई उस के साथ थी.

कुछ ही देर बाद दाई ने कमरे से बाहर निकल कर कहा, ‘‘बेटी को शहर के अस्पताल में ही ले जाना होगा. बिना आपरेशन के बच्चा नहीं होगा.’’

यह सुनते ही सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. जल्दी ही उस ने अपने एक दोस्त से कह कर कार मंगा ली. अनीता को पिछली सीट पर गायत्री के साथ बिठा दिया गया. कसबे से शहर तकरीबन 40 किलोमीटर दूर था.

सोम प्रकाश कार चलाने लगा. बेटी की दर्द भरी कराहट सुन कर उस के दिल में कुछ चुभता चला जाता.

‘‘बस बेटी, बस. शहर आने ही वाला है. 15-20 मिनट का रास्ता और रह गया है,’’ सोम प्रकाश ने कहा.

सामने रेलवे फाटक का नजारा देख कर सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. रेलवे फाटक बंद था. ट्रक, प्राइवेट बसें, कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टरट्रौली वगैरह के चलते लंबा जमा लगा था. एक ट्रेन खड़ी थी. उस पर हजारों छात्र लदे हुए थे. वे खूब जोरशोर से चीखचिल्ला कर नारे लगा रहे थे.

कल तक जिन नारों को सुन कर सोम प्रकाश की ताकत बढ़ जाती थी, आज वे नारे उस के कानों में चुभते चले जा रहे थे.

गायत्री ने पूछा, ‘‘यहां क्या हो गया अब?’’

‘‘पता नहीं, क्या चक्कर है. मैं देख कर आता हूं,’’ कहता हुआ सोम प्रकाश कार से उतरा और फाटक की तरफ चल दिया.

वहां जा कर वह कुछ लोगों की बातें सुनने लगा. एक आदमी कह रहा था, ‘‘कल से इन छात्रों ने हड़ताल के नाम पर खूब कहर बरपा रखा है. एक ट्रेन सुबह 10 बजे सुंदरपुर पहुंचती थी. रेलवे ने उस का टाइम बदल कर 11 बजे कर दिया. अब इन छात्रों की मांग है कि ट्रेन का टाइम 10 बजे का ही किया जाए ताकि वे समय पर स्कूलकालेज पहुंच सकें. कल भी दिनभर ये गाडि़यां रोकते और लेट करते रहे. इस में तो सारी गलती रेलवे की है. भला क्या जरूरत थी टाइम बदलने की? यह सरकार भी है न बिना हड़ताल कराए मानती ही नहीं.’’

‘‘भला इस में सरकार का क्या जा रहा है, परेशान तो आम जनता है न,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘आम जनता को परेशान करने के लिए ही तो यह हड़ताल की जाती है. अब देखो, 3 दिन से रोडवेज वालों की हड़ताल चल रही है और जनता परेशान है.’’

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‘‘इन रोडवेज वालों के बारे में कुछ न पूछो. ये रास्ते में अपनी मरजी से सवारी बिठाते हैं. सवारी भले ही हाथ देती रहे, पर मरजी होगी तो बस रोक देंगे. इन की हड़ताल से जनता कितनी परेशान है. लोग गधों की तरह टैंपो, ट्रक या डग्गेमार बसों में भर कर आ रहे हैं, जा रहे हैं. क्या करें, मजबूरी है,’’ उस आदमी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोम प्रकाश ने अपने महकमे की बुराई सुनी तो तिलमिला कर रह गया, पर वह चुपचाप आगे बढ़ गया.

फाटक के पास ट्रेन का गार्ड और ड्राइवर खड़े थे. कुछ छात्र उन को घेर कर खड़े हुए नारे लगा रहे थे. कुछ लोग ट्रेन से उतर कर इधरउधर खड़े थे. ट्रेन में बैठे परेशान से लोग खिड़की से इधरउधर झांक रहे थे.

सोम प्रकाश के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं कि अब क्या होगा. इन कमबख्तों को भी आज ही हड़ताल करनी थी. सुंदरपुर पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है. इन लड़कों ने ट्रेन फाटक के सामने जानबूझ कर रोकी है, ताकि जनता परेशान हो.

3 दिन पहले जब उन की हड़ताल शुरू हुई तो एक रोडवेज की बस को उस ने व उस के साथियों ने जबरदस्ती रोका था. बस से सभी सवारियों को उतर जाने को मजबूर किया था. उसी बस में एक आदमी के साथ उस का 6-7 साल का बीमार बेटा भी था. वह आदमी अपने बेटे को डाक्टर को दिखाने शहर ले जा रहा था. तब उस आदमी ने उन लोगों के सामने हाथ जोड़ कर दया की भीख मांगी थी, पर किसी भी हड़ताली का दिल नहीं पिघला था. उस का भी नहीं. वे सब हड़ताल को कामयाब बनाने के नशे में चूर थे.

सोम प्रकाश ट्रेन के गार्ड के पास जा कर चिंतित आवाज में बोला, ‘‘साहब और कितनी देर लगेगी यहां? टै्रफिक बहुत पीछे तक लगा है. हमें सुंदरपुर जाना है. गाड़ी को थोड़ा आगे करा कर फाटक खुलवा दो बस.’’

‘‘मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. पिछले स्टेशन से यहां तक 5-6 बार जंजीर खींच ली. गाड़ी आधा किलोमीटर भी नहीं चलती कि ये लड़के जंजीर खींच कर गाड़ी रोक देते हैं. यहां जब ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाने लगा तो लड़के इंजन में ही घुस गए और ड्राइवर को नीचे उतार दिया,’’ गार्ड ने जवाब दिया.

तभी ट्रेन का ड्राइवर बोल उठा, ‘‘ऐसे हालात में गाड़ी चलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. मैं ने भी यह सोच लिया है कि इन को अपनी मनमानी कर लेने दो. मैं भी अब ट्रेन ले कर आगे नहीं जाऊंगा.’’

सोम प्रकाश ने हाथ जोड़ कर गार्ड से कहा, ‘‘मेरी बेटी की हालत बहुत खराब है साहब. आप गाड़ी आगे करा कर यह फाटक खुलवा दो.’’

‘‘कैसे खुलवा दें फाटक? इंजन की हालत देख रहे हो न, कितने छात्र उस पर लदे हुए हैं. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है. मैं आप सभी का दुख समझ रहा हूं. ट्रेन में बैठे लोगों की अपनीअपनी परेशानी है. किसी को कोर्ट जाना है, किसी को औफिस जाना है, तो किसी को डाक्टर के पास पहुंचना है.

‘‘ये हड़ताली किसी का दुख नहीं समझते. इन्हें जनता को परेशान और दुखी करने में ही मजा आता है. जब कोई हड़ताली खुद किसी हड़ताल में फंसता है तब उसे पता चलता है कि हड़ताल कितनी खतरनाक है,’’ गार्ड ने कहा.सोम प्रकाश की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह खुद हड़ताल पर था. उन की हड़ताल से लोग कितने परेशान थे, इस के बारे में सोच कर वह खुश था. छात्रों की इस तरह की हड़ताल से जब सामना हुआ तो वह बुरी तरह घबरा गया.

दुखी और परेशान सा सोम प्रकाश कार के पास पहुंच गया. उसे देखते ही गायत्री ने पूछा, ‘‘कितनी देर और लगेगी यहां? अनीता की हालत ज्यादा खराब हो रही है.’’

सोम प्रकाश ने अनीता की ओर देखा. वह आंखें बंद कर निढाल हो चुकी थी.

सोम प्रकाश चुप रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था. उसे एकएक मिनट भारी लग रहा था.

गायत्री दुखी आवाज में बोली, ‘‘अब क्या होगा? अगर अनीता को कुछ हो गया तो मैं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगी.’’

‘‘तू ने ही अनीता को जबरदस्ती यहां बुलाया था कि पहला बच्चा है, यहां मायके में ही होना चाहिए. उस की ससुराल वाले तो मना कर रहे थे. अब भुगत अपनी जिद,’’ सोम प्रकाश ने गुस्से में कहा.

गायत्री की आंखों से आंसू बहने लगे. वह बोली, ‘‘मैं जाती हूं. इन लड़कों के आगे हाथपैर जोड़ कर ट्रेन आगे करा दूंगी. यह फाटक खुल जाएगा.’’

‘‘नहीं गायत्री, वहां जाना बेकार है. हड़ताल, जाम, धरनाप्रदर्शन करने वालों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं. न कोई सुनेगा और न कोई मानेगा.’’

तकरीबन एक घंटे बाद ट्रेन आगे की ओर सरकी. फाटक खुला. ट्रैफिक चलने लगा.

सोम प्रकाश ने देखा, अनीता निढाल सी बैठी थी. गायत्री उसे पुकार रही थी, पर वह कोई जवाब नहीं दे रही थी.

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सोम प्रकाश ने कार की रफ्तार बढ़ा दी. वह जल्द ही शहर के किसी भी नर्सिंगहोम में पहुंचना चाहता था.

नर्सिंगहोम तक पहुंचने में आधा घंटा लग गया. वह तेजी से डाक्टर के चैंबर में पहुंचा और बोला, ‘‘मेरी बेटी बहुत सीरियस है. डिलीवरी होनी है उस की.’’

‘‘मैं देखती हूं अभी,’’ कहते हुए डाक्टर आरती फोन पर कुछ जरूरी बात करने लगी.

‘‘मैं नंदनपुर कसबे से आ रहा हूं. रास्ते में कुछ छात्र फाटक पर ट्रेन को रोक कर प्रदर्शन कर रहे थे. फाटक बंद होने से टै्रफिक जाम होता चला गया. वहां डेढ़ घंटा बरबाद हो गया.’’

डाक्टर आरती उठते हुए बोलीं, ‘‘पता नहीं, क्या हो रहा है इस देश में, जहां देखो हड़ताल, धरना, प्रदर्शन व जाम. ट्रेन रोको, सड़क रोको, कामकाज ठप करो. हड़ताल से जनता को कितनी परेशानी होती है, यह हड़ताली नहीं सोचते. देश को नुकसान पहुंचा कर और आम जनता को परेशान कर अपना मतलब निकालना ही हड़ताल का मकसद है क्या?

‘‘जिस नेता या मंत्री से कोई शिकायत या मांग है तो उस का घेराव करें. उस के सामने धरनाप्रदर्शन करें. आम जनता को क्यों परेशान करते हो जिस का उस हड़ताल से कोई लेनादेना नहीं है. अदालतों का सहारा लें. आप क्या काम करते हैं?’’

‘‘मैं रोडवेज बस में ड्राइवर हूं,’’ सोम प्रकाश के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे.

‘‘कमाल है, आप भी तो हड़ताल पर हैं. अब आप को पता चल गया होगा कि हड़ताल के कितने भयंकर रूप हैं. सरकार को भी चाहिए कि हड़ताल, चक्काजाम, बंद वगैरह पर पूरी तरह रोक लगा दे,’’ कहते हुए डाक्टर आरती जच्चाघर में पहुंच गईं.

अनीता को स्ट्रैचर पर लिटा कर जच्चाघर ले जाया जा चुका था.

सोम प्रकाश व गायत्री धड़कते दिल से बैठे इंतजार कर रहे थे.

कुछ देर बाद डाक्टर आरती बाहर निकलीं और गंभीर आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख है कि आप की बेटी व बच्चा बच नहीं पाए. आप ने आने में देर कर दी. अगर आप सही समय पर आ जाते तो दोनों की जान बच जाती.’’

यह सुनते ही गायत्री दहाड़ मार कर रोने लगी. सोम प्रकाश का दिल भी बैठता चला गया. अब उस की बेटी व होने वाले नाती की बलि हड़ताल पर चढ़ गई थी. वह खुद भी तो हड़ताली है. उसे लग रहा था मानो वह हड़ताली नहीं, एक अपराधी है देश का.

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सोम प्रकाश चुपचाप अनीता की लाश कार में रखवा कर गायत्री के साथ वापस घर की ओर चल दिया.

मेरी बेटी का व्यंजन परीक्षण

लेखक-  सुव्रता हेमंत

इसलिए जब वह छात्रावास चली गई तो मैं ने चैन की सांस ली. लेकिन जबजब वह छुट्टियों में घर आ जाती तो रहीसही कसर पूरी कर लेती.

इस बार उस ने रसोई में कुछ अधिक ध्यान देने की ठानी. बोली, ‘‘मां, इस बार सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत हम लंदन जाएंगे. मुझे भारतीय खाना बनाना पड़ेगा. मुझे कुछ सिखाओ. कुछ ऐसे व्यंजन बनाना सिखाओ कि लंदन में बसी मेरी सहेलियां खुश हो जाएं.’’

यह सुनते ही मेरा बेटा चहक उठा, ‘‘अब तो मजा आएगा. आप खाना बनाओ. नएनए व्यंजन बनाओ, मैं चख कर बताऊंगा कि ठीक बने हैं या नहीं.’’

लेकिन 1-2 दिन में उस का यह उत्साह भी ठंडा पड़ गया. बने व्यंजन चखने तो क्या वह उन्हें देखने को भी तैयार न होता.

अब तो रसोई की तमाम चीजों से बेटी का परिचय कराना जरूरी हो गया. नमक की जगह मीठा सोडा, फिटकरी की जगह मिश्री की डली का प्रयोग बेटी बिना किसी संकोच के बड़े इत्मीनान से कर देती थी. दालों की भूलभुलैया की वजह से सभी दालों का मिश्रण पकता. कभी उड़द की जगह मूंग की दाल दहीभल्लों के लिए भिगोई जाती. वैसे जीरा और सौंफ का फर्क वह जल्दी ही समझ गई. बस, 1-2 दाने मुंह में डाल कर स्वाद चख लेती थी.

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एक दिन पुलाव के चावलों का और डोसे बनाने के लिए रखे कच्चे चावलों का दलबदल हो गया, बनने को तो दोनों व्यंजन बन गए मगर उन्हें स्वादिष्ठ कहना इस शब्द का अपमान होगा. बेटी खीजती हुई बोली, ‘‘पता नहीं रसोई में इतनी सारी चीजें क्यों रखती हो?’’ परिणामस्वरूप हर डब्बे पर नाम तथा उपयोग की पर्चियां चिपकाई गईं.

अब बात आई मसालों पर.

‘‘ओफ्फो, यह काली मिर्च, सफेद मिर्च और लाल मिर्च. सिर्फ एक मिर्च रखा करो, हरी वाली.’’

मसालों के पैकेट खरीदने का मुझे शौक नहीं था. मेरे बेटे को ताजा, गरममसाला पसंद था, परंतु अब हर प्रकार के पिसे मसालों के पैकेट खरीदे गए थे. इस से वह दुकानदार बड़ा खुश हो गया जिस से हम सामान खरीदते थे, ‘‘गुडि़या, तुम्हारी मां बिना मसालों के खाना बनाती थीं, अब तुम हमारे मसालों से बढि़या खाना बनाना.’’

रोटी या परांठे बनाने से पहले आटा गूंधना बड़ा कठिन काम था. कभी आटा पतला हो जाता था तब मुझे वह आटा ले कर तंदूर वाले के पास तंदूरी रोटी बनवाने के लिए जाना पड़ता. इतने पतले आटे की रोटियां सेंकना मुझे मेरी मां ने सिखाया नहीं था. एक बार आटा इतना सख्त गूंधा गया कि उस की पूडि़यां पापड़ की तरह बेलतेबेलते मेरे बाजू और कंधों में दर्द होने लगा. पूडि़यों में मठरी का सा मजा आ गया.

एकाध सब्जी का प्रशिक्षण जरूरी था. बेटा बोला, ‘‘आलू की सब्जी बनाना. कम से कम लंदन के लोगों को यह तो पता चल जाएगा कि किस चीज की सब्जी बनी है.’’

आलू उबाल कर, उस पर नमक- मसाला छिड़क कर, सब्जी बनाने की विधि सुन कर बेटी खुश हो गई. परंतु जब सब्जी बन गई तो उसे चखने के बाद बेटे ने दही और अचार के साथ रोटी खाई.

अब स्कूल से एक काफी लंबा पत्र आया. पत्र द्वारा सूचित किया गया था कि लंदन में जाने वाले बच्चों की सूची में मेरी बेटी का नाम भी शामिल है. इस के लिए बधाई दी गई थी. आगे लिखा था कि छात्राओं को भारतीय वेशभूषा के साथ भारतीय संस्कृति के बारे में जानकारी जरूरी थी, यह भी जरूरी था कि भारतीय ढंग से खाना बनाना, गीत गाना और नृत्य करना आता हो. बरतन मांजने, प्लेटों को धोने आदि का अभ्यास भी जरूरी था.

अब बेटी की सहायता करने के लिए उस की सहेलियां आने लगीं और खाना बनाने का अभ्यास करवाने लगीं. हर रोज सवेरे, दोपहर और शाम को भी भंगड़ा तथा गिद्दा नृत्य का अभ्यास भी वह सब करतीं. व्यंजनों की एक किताब खरीदी गई. उस के अनुसार खाना बनाने का प्रयास होने लगा. जो चीज घर में न होती, उसे तुरंत दुकान से खरीदा जाता, इस के बावजूद व्यंजनों का चटपटा स्वाद न होता, जैसेतैसे राजमाआलू की सब्जी और पूडि़यां तथा चावल बनाना लड़कियां सीख गईं.

खाना खाने के बाद बरतन मांजे जाते. साथ में ऊंचे स्वर में रेडियो चलता. रेडियो पर गाने वाली गायिका के साथसाथ बेटी भी गाना गाती. बीच में कुछ बेसुरे स्वर भी आते फिर पता चलता कि चीनी के कपप्लेट अथवा कांच के गिलास बेसुरे ढंग से टूट गए थे.

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जब लंदन जाने में 6-7 दिन बाकी रह गए तब मेरा धैर्य और संयम खत्म हो गया. मैं ने प्यार से बेटी को समझाया, ‘‘अब मैं व्यंजन बनाऊंगी. तुम और तुम्हारी सहेलियां देखना कि मैं किस प्रकार विभिन्न व्यंजन आदि बनाती हूं.’’

वह बिफर कर बोली, ‘‘मां, तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती. सभी सहेलियों की माताएं उन्हें प्रोत्साहन देती हैं और तुम? मैं जानती हूं, तुम नहीं चाहतीं कि मैं और कुछ सीखने का प्रयास करूं.’’

फिर उदास स्वर में बोली, ‘‘मां, तुम्हें तो मुझ पर नाराज होना चाहिए. तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा कि तुम्हारी बेटी को कोई व्यंजन बनाना नहीं आता और यहां तुम हो कि मुझे प्यार करती जा रही हो, हद है, मां.’’

मैं सहम गई, ‘‘अच्छा बेटी, चलो, बनाओ खाना या कोई भी व्यंजन बनाओ. मैं कुछ नहीं कहूंगी. तुम तो मेरी अच्छी बेटी हो. अब उदास होने की क्या जरूरत है?’’

लेकिन गुस्से से तमतमाती हुई वह रसोई से बाहर चली गई. जाने से पहले बोली, ‘‘अब मेरा मूड खराब हो गया. अब नहीं बनाऊंगी. पिछले 15 दिनों से खाना बना रही हूं, लेकिन तुम ने और भैया ने क्या कभी मेरी तारीफ की है?’’

अब उस ने जोर से अपने कपड़ों का बक्सा खींचा और अपने सूटों और चुन्नियों को परखने लगी. वह सिलाई की मशीन निकाल कर बैठ गई. इतने में उस की सहेली आ गई. सूट की सिलाई कैसे की जाती है, इस पर बहस होने लगी. बेटे ने होशियारी से उन्हें दरजी के पास जाने की सलाह दी. मैं अपनी रसोई में घुस गई. अब सूटों की बहस से बचने का यही एक रास्ता था.

रसोई में टूटी प्लेटों और कपों का ढेर सारा कचरा भरा था. प्रेशर कुकर और पतीले जल कर काले पड़े थे. कई डब्बों के ढक्कन गायब थे, कई मर्तबानों के सिर्फ ढक्कन ही शेष थे.

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बेटी का व्यंजन प्रशिक्षण हमें काफी महंगा पड़ा था. बेटा चुपके से पास आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘चलो मां, आज होटल में डोसा खाने चलते हैं. कल से करना रसोई की सफाई. कल तो तुम्हारी प्यारी बेटी लंदन चली जाएगी.’’     द्य

मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

लेखक- श्रीप्रकाश श्रीवास्तव

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’

‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला.

‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं.

दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया.

बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली. प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा.

2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’

निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता. बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’

‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं. क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’

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‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’

सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए. वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा.

लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा. कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से?

परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए.

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एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’

साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’

परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’

वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’

उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया. यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’

‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा.

‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था.

विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए.

अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई.

‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई. वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’

मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’

‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’ यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले.

परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी.

मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी. बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़.

परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’

‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया.

‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी.

सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया. परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए.

काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती. वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो.

सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’

‘‘कोई  उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली.

परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’

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सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था.

‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं.

‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा.

सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया.

‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’

‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया.

‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली.

‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए. अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया.

‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’

परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था.

परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी.

परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई. 2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार.

सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था. यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था.

दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए.

परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी. पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’

धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है. हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं.

इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’

चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी. उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता.

परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’

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मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया. यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था.

परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी. पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.   द्य

किसे स्वीकारे स्मिता

लेखक- राजेश मलिक

‘‘मैम, रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित है और इस में कुछ भी गलत नहीं है.’’

‘‘क्या तुम्हें अधिकारियों के आदेश का पता नहीं कि हमें शतप्रतिशत बच्चों को साक्षर दिखाना है,’’ सुपरवाइजर ने मेज पर रखी रिपोर्ट को स्मिता की तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘इसे ठीक करो.’’

‘मैम, फिर सर्वे की जरूरत ही क्यों?’ स्मिता ने कहना चाहा किंतु सर्वे के दौरान होने वाले अनुभवों की कड़वाहट मुंह में घुल गई.

चिलचिलाती धूप, उस पर कहर बरपाते लू के थपेडे़, हाथ में एक रजिस्टर लिए स्मिता बालगणना के राष्ट्रीय कार्य में जुटी थी. शारीरिक पीड़ा के साथ ही उस का चित्त भी अशांत था. मन का मंथन जारी था, ‘बालगणना करूं या स्कूल की ड्यूटी दूं. घर का काम करूं या 139 बच्चों का रिजल्ट बनाऊं?’ अधिकारी तो सिर्फ निर्देश देना जानते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि कर्मचारी के लिए इतना सबकुछ कर पाना संभव भी है या नहीं.

स्कूटर की आवाज से स्मिता की तंद्रा भंग हुई. सड़क के किनारे बहते नल से उस ने चुल्लू में पानी ले कर गले को तर किया. उस के मुरझाए होंठों पर ताजगी लौटने लगी. नल को बंद किया तो खराब टोंटी से निकली पानी की बूंदें उस के चेहरे और कपड़ों पर जा पड़ीं. उस ने कलाई पर बंधी घड़ी पर अपनी नजरें घुमा दीं.

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‘एक बज गया,’ वह बुदबुदाती हुई एक मकान की ओर बढ़ गई. घंटी बजाने पर दरवाजा खुलने में देर नहीं लगी थी.

एक सांवली सी औरत गरजी, ‘‘तुम्हारी अजीब दादागिरी है. अरे, जब मैं ने कह दिया कि मेरे बच्चे पोलियो की दवा नहीं पिएंगे, तो क्यों बारबार आ जाती हो? जाइए यहां से.’’

स्मिता को लगा जैसे किसी ने उस के मुंह पर जोर का तमाचा मारा हो. उस ने विनम्र स्वर में कहा, ‘‘बहनजी, एक मिनट सुनिए तो, लगता है आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं पोलियो के लिए नहीं, बालगणना के लिए यहां आई हूं.’

‘‘फिर आइएगा, अभी मुझे बहुत काम है,’’ उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

वह हताशा में यह सोचती हुई पलटी कि इस तरह तो कोई जानवर को भी नहीं भगाता.

स्मिता को लगा कि कई जोड़ी आंखें उस के शरीर का भौगोलिक परिमाप कर रही हैं मगर वह उन लोगों से नजरें चुराती हुई झोपड़ी की तरफ चली गई. वहां नीम के पेड़ की घनी छाया थी. एक औरत दरवाजे पर बैठी अपने बच्चे को दूध पिला रही थी. दाईं ओर 3 अधनंगे बच्चे बैठे थाली में सत्तू खा रहे थे. सामने की दीवार चींटियों की कतारों से भरी थी.

स्मिता उस औरत के करीब जा कर बोली, ‘‘हम बालगणना कर रहे हैं। कृपया बताइए कि आप के यहां कितने बच्चे हैं और उन में कितने पढ़ते हैं?’’

‘‘बहनजी, मेरी 6 लड़कियां और 3 लड़के हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है.’’

‘‘9 बच्चे,’’ वह चौंकी और सोचने लगी कि यहां तो एक बच्चा संभालना भी मुश्किल हो रहा है लेकिन यह कैसे 9 बच्चों को संभालती होगी?

‘‘अम्मां, कलुवा सत्तू नहीं दे रहा है.’’

‘‘कलुवा, सीधी तरह से इसे सत्तू देता है या नहीं कि उठाऊं डंडा,’’ औरत चीख कर बोली.

‘‘ले खा,’’ और इस के साथ लड़के के मुंह से एक भद्दी सी गाली निकली.

‘‘नहीं बेटा, गाली देना गंदी बात है,’’ कहती हुई स्मिता उस औरत से मुखातिब हुई, ‘‘आप ने अभी तक अपने बच्चों का नाम स्कूल में क्यों नहीं लिखवाया?’’

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‘‘अरे, बहनजी, चौकी वाले स्कूल में गई थी मगर मास्टर ने यह कह कर मुझे भगा दिया कि यहां दूसरे महल्ले के बच्चों का नाम नहीं लिखा जाता है. अब आप ही बताइए, जब मास्टर नाम नहीं लिखेेंगे तो हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? रही बात इस महल्ले की तो यहां सरकारी स्कूल है नहीं, और जो स्कूल है भी वह हमारी चादर से बाहर है.’’

एकएक कर के कई वृद्ध, लड़के, लड़कियां और औरतें वहां जमा हो गए. कुछ औरतें अपनेअपने घर की खिड़कियों से झांक रही थीं. स्मिता ने रजिस्टर बंद करते हुए कहा, ‘‘कल आप फिर स्कूल जाइए, अगर तब भी वह नाम लिखने से मना करें तो उन से कहिए कि कारण लिख कर दें.’’

‘‘ठीक है.’’

एकाएक धूल का तेज झोंका स्मिता से टकराया तो उस ने अपनेआप को संभाला. फिर एकएक कर के सभी बच्चों का नाम, जाति, उम्र, पिता का नाम, स्कूल आदि अपने रजिस्टर में लिख लिया.

बगल के खंडहरनुमा मकान में उसे जो औरत मिली वह उम्र में 35-40 के बीच की थी. चेहरा एनेमिक था. स्मिता ने उस से सवाल किया, ‘‘आप के कितने बच्चे हैं?’’

अपने आंचल को मुंह में दबाए औरत 11 बोल कर हंस पड़ी.

स्मिता ने मन ही मन सोचा, बाप रे, 11 बच्चे, वह भी इस महंगाई के जमाने में. क्या होगा इस देश का? पर प्रत्यक्ष में फिर पूछा, ‘‘पढ़ते कितने हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, क्या करेंगे पढ़ कर? आखिर करनी तो इन्हें मजदूरी ही है.’’

‘‘बहनजी, आप ऐसा क्यों सोचती हैं? पढ़ाई भी उतनी ही जरूरी है जितना कि कामधंधा. आखिर बच्चों को स्कूल भेजने में आप को नुकसान ही क्या है? उलटे बच्चों को स्कूल भेजेंगी तो हर महीने उन्हें खाने को चावल और साल में 300 रुपए भी मिलेंगे.’’

चेचक के दाग वाली एक अन्य औरत तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘यह सब कहने की बात है कि हर महीने चावल मिलेगा. अरे, मेरे लड़के को न तो कभी चावल मिला और न ही 300 रुपए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? आप का लड़का पढ़ता किस स्कूल में है?’’

‘‘अरी, ओ रिहाना… कहां मर गई रे?’’

‘‘आई, अम्मी.’’

‘‘बता, उस पीपल वाले स्कूल का क्या नाम है?’’

वह सोचती हुई बोली, ‘‘कन्या माध्यमिक विद्यालय.’’

स्मिता ने अपने रजिस्टर में कुछ लिखते हुए पूछा, ‘‘आप ने कभी उस स्कूल के प्रिंसिपल से शिकायत की?’’

‘‘तुम पूछती हो शिकायत की. अरे, एक बार नहीं, मैं ने कई बार की, फिर भी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसीलिए मैं ने उस की पढ़ाई ही बंद करवा दी.’’

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‘‘इस से क्या होगा, बहनजी.’’

स्मिता के इस प्रश्न पर उस ने उसे हिकारत भरी नजरों से देखा और बोली, ‘‘कुछ भी हो अब मुझे पढ़ाई करानी ही नहीं, वैसे भी पढ़ाई में रखा ही क्या है? आज मेरे लड़के को देखो, 20 रुपए रोज कमाता है.’’

स्मिता उन की बातों को रजिस्टर में उतार कर आगे बढ़ गई. अचानक तीखी बदबू उस की नाक में उतर आई. चेहरे पर कई रेखाएं उभर आई थीं. एक अधनंगा लड़का मरे हुए कुत्ते को रस्सी के सहारे खींचे लिए जा रहा था और पीछेपीछे कुछ अधनंगे बच्चे शोर मचाते हुए चले जा रहे थे. उस ने मुंह को रूमाल से ढंक लिया.

मकान का दरवाजा खुला था. चारपाई पर एक दुबलपतला वृद्ध लेटा था. सिरहाने ही एक वृद्धा बैठी पंखा झल रही थी. स्मिता ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘मांजी, आप के यहां परिवार में कितने लोग हैं.’’

‘‘इस घर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं है,’’ उस वृद्धा का स्वर नम था.

‘‘क्यों, आप के लड़के वगैरह?’’

‘‘वह अब यहां नहीं रहते और क्या करेंगे रह कर भी, न तो अब हमारे पास कोई दौलत है न ही पहले जैसी शक्ति.’’

‘‘मांजी, बाबा का नाम क्या है?’’

उस वृद्धा ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया. स्मिता की निगाहें उस गुदे हुए नाम पर जा टिकीं, ‘‘कृष्ण चंदर वर्मा,’’ उस के मुंह से शब्द निकले तो वृद्धा ने अपना सिर हिला दिया.

‘‘अच्छा, मांजी,’’ कहती हुई स्मिता सामने की गली की ओर मुड़ गई. वह बारबार अपने चेहरे पर फैली पसीने की बूंदों को रूमाल से पोंछती. शरीर पसीने से तरबतर था. उस की चेतना में एकसाथ कई सवाल उठे कि क्या हो गया है आज के इनसान को, जो अपने ही मांबाप को बोझ समझने लगा है, जबकि मांबाप कभी भी अपने बच्चों को बोझ नहीं समझते?’’

स्मिता सोचती हुई चली जा रही थी. कुछ आवाजें उस के कानों में खनकने लगीं, ‘अरे, सुना, चुरचुर की अम्मां, खिलावन बंगाल से कोई औरत लाया है और उसे 7 हजार रुपए में बेच रहा है.’

आवाज धीमी होती जा रही थी. क्योंकि कड़ी धूप की वजह से उस के कदम तेज थे. वह अपनी रफ्तार बनाए हुए थी, ‘आज औरत सिर्फ सामान बन कर रह गई है, जो चाहे मूल्य चुकाए और ले जाए,’  वह बुदबुदाती हुई सामने के दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

तभी पीछे से एक आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आप को किस से मिलना है. मम्मी तो घर पर नहीं हैं?’’

‘‘आप तो हैं. क्या नाम है आप का और किस क्लास में पढ़ते हैं?’’

‘‘मेरा नाम उदय सोनी है और मैं कक्षा 4 में पढ़ता था.’’

‘‘क्या मतलब, अब आप पढ़ते नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, मम्मीपापा में झगड़ा होता था  और एक दिन मम्मी घर छोड़ कर यहां चली आईं,’’ उस बच्चे ने रुंधे स्वर में बताया.

‘कैसे मांबाप हैं जो यह भी नहीं सोचते कि उन के झगड़े का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ स्मिता ने सोचा फिर पूछा, ‘‘पर सुनो बेटा, आप के पापा का क्या नाम है?’’

उस बच्चे का स्वर ऊंचा था, ‘‘पापा का नहीं, आप मम्मी का नाम लिखिए, बीना लता,’’ इतना बता कर वह चला गया.

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स्मिता के आगे अब एक नया दृश्य था. कूड़े के एक बड़े से ढेर पर 6-7 साल के कुछ लड़के झुके हुए उंगलियों से कबाड़ खोज रहे थे. दुर्गंध पूरे वातावरण में फैल रही थी. वहीं दाईं ओर की दीवार पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘यह है फील गुड.’ स्मिता के मस्तिष्क में कई प्रश्न उठे, ‘जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं उन के हाथों में उन के मांबाप ने कबाड़ का थैला थमा दिया. कैसे मांबाप हैं? सिर्फ पैदा करना जानते है.’ किंतु वह केवल सोच सकती थी इन परिस्थितियों को सुधारने की जिन के पास शक्ति व सामर्थ्य है वह तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहते.

हवा अब भी आग बरसा रही थी. स्मिता को रहरह कर अपने बच्चे की ंिचंता सता रही थी. मगर नौकरी के आगे वह बेबस थी. सामने से एक जनाजा आता नजर आया. वह किनारे हो गई. जनाजा भीड़ को खींचे लिए जा रहा था.

कुछ लोग सियापे कर रहे थे. नाटे कद की स्त्री कह रही थी, ‘बेचारी, आदमी का इंतजार करतेकरते मर गई, बेहतर होता कि वह विधवा ही होती.’

‘तुम ठीक बोलती हो, भूरे की अम्मां. जो आदमी महीनों अपने बीवी- बच्चों की कोई खोजखबर न ले वह कोई इनसान है? यह भी नहीं सोचता कि औरत जिंदा भी है या मर गई.’

‘अरी बूआ, तुम भी किस ऐयाश की बात करती हो. वह तो सिर्फ औरत को भोगना जानता था. 9 बच्चे क्या कम थे? अरे, औरत न हुई कुतिया हो गई. मुझे तो बेचारे इन मासूमों की चिंता हो रही है.’

‘किसी ने उस के पति को खबर की?’ एक दाढ़ी वाले ने आ कर पूछा.

‘अरे भाई, उस का कोई एक अड््डा हो तो खबर की जाए.’

एकएक कर सभी की बातें स्मिता के कानों में उतरती रहीं. वह सोचने पर मजबूर हो गई कि औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. वह तो सिर्फ मर्दों के हाथों की कठपुतली है जिस ने जब जहां चाहा खेला, जब जहां चाहा ठुकरा दिया.

प्यास के कारण स्मिता का गला सूख रहा था. उस ने सोचा कि वह अगले दरवाजे पर पानी का गिलास अवश्य मांग लेगी. उस के कदम तेजी से बढ़े जा रहे थे.

धूप दैत्य के समान उस के जिस्म को जकड़े हुए थी. उस ने एक बार फिर अपने चेहरे को रूमाल से पोंछा. उत्तर की ओर 1 वृद्धा, 2 लड़के बैठे बीड़ी का कश ले रहे थे.

‘‘अम्मां, यही आंटी मुझे पढ़ाती हैं,’’ दरवाजे से लड़के का स्वर गूंजा.

इस से पहले कि स्मिता कुछ बोलती, एक भारी शरीर की औरत नकाब ओढ़ती हुई बाहर निकली और तमतमा कर बोली, ‘‘एक तो तुम लोग पढ़ाती नहीं हो, ऊपर से मेरे लड़के को फेल करती हो?’’

उस औरत के शब्दबाणों ने स्मिता की प्यास को शून्य कर दिया.

‘‘बहनजी, जब आप का लड़का महीने में 4 दिन स्कूल जाएगा तो आप ही बताइए वह कैसे पास होगा?’’

‘‘मास्टराइन हो कर झूठ बोलती हो. अरे, मैं खुद उसे रोज स्कूल तक छोड़ कर आती थी.’’

‘‘बहनजी, आप का कहना सही है, मगर मेरे रजिस्टर पर वह गैरहाजिर है.’’

‘‘तो, गैरहाजिर होने से क्या होता है,’’ इतना कहती हुई वह बाहर चली गई.

खिन्न स्मिता के मुंह से स्वत: ही फूट पड़ा कि स्कूल भेजने का यह अर्थ तो नहीं कि सारी की सारी जिम्मेदारी अध्यापक की हो गई, मांबाप का भी तो कुछ फर्ज बनता है.

स्मिता प्यास से व्याकुल हो रही थी. उस ने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं, तभी उस की नजर एक दोमंजिले मकान पर जा टिकी. वह उस मकान के चबूतरे पर जा चढ़ी. स्मिता ने घंटी दबा दी. कुछ पल बाद दरवाजा खुला और एक वृद्ध चश्मा चढ़ाते हुए बाहर निकले. शरीर पर बनियान और पायजामा था.

वृद्ध ने पूछा, ‘‘आप को किस से मिलना है?’’

‘‘बाबा, मैं बालगणना के लिए आई हूं. क्या मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?’ स्मिता ने संकोचवश पूछा.

‘‘क्यों नहीं, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आप अंदर चली आइए.’’

स्मिता अंदर आ गई. उस की निगाहें कमरे में दौड़ने लगीं. वहां एक कीमती सोफा पड़ा था. उस के सामने रखे टीवी और टेपरिकार्डर मूक थे. कमरे की दीवारें मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, ओशो, रवींद्रनाथ टैगोर की तसवीरों से चमक रही थीं. दाईं तरफ की मेज पर कुछ साहित्यिक पुस्तकों के साथ हिंदी, उर्दू और अंगरेजी के अखबार बिखरे थे.

स्मिता ने खडे़खडे़ सोचा कि लगता है बाबा को पढ़ने का बहुत शौक है.

‘‘तुम खड़ी क्यों हो बेटी, बैठो न,’’ कह कर वृद्ध ने दरवाजे की ओर बढ़ कर उसे बंद किया और बोले, ‘‘दरअसल, यहां कुत्ते बहुत हैं, घुस आते हैं. तुम बैठो, मैं अभी पानी ले कर आता हूं. घर में और कोई है नहीं, मुझे ही लाना पड़ेगा. तुम संकोच मत करो बेटी, मैं अभी आया,’ कहते हुए वृद्ध ने स्मिता को अजब नजरों से देखा और अंदर चले गए.

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उन के अंदर जाते ही टीवी चल पड़ा. स्मिता ने देखा टीवी स्क्रीन पर एक युवा जोड़ा निर्वस्त्र आलिंगनबद्ध था. स्मिता के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गई. उस की प्यास गायब हो गई. घबरा कर उठी और दरवाजे को खोल कर बाहर की ओर भागी. वह बुरी तरह हांफ रही थी और उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. जैसे अभी किधर से भी आ कर वह बूढ़ा उसे अपने चंगुल में दबोच लेगा और वह कहीं भाग न सकेगी.

‘‘सोच क्या रही हो? जाओ, और जा कर इस रिपोर्ट को ठीक कर के लाओ. मुझे तथ्यों पर आधारित नहीं, शासन की नीतियों पर आधारित रिपोर्र्ट चाहिए.’’

स्मिता चौंकी, ‘‘जी मैम, मैं समझ गई,’’ वह चली तो उस के कदम बोझिल थे और मन अशांत.

रायचंद

लेखक- डा. सत्यकुमार

आप के मित्रों में, संबंधियों में और पड़ोसियों में अनेक ऐसे व्यक्ति होंगे जिन को हर बात का ज्ञान होता है. ताल ठोंक कर वे अपनी बात कहते हैं और आप को पसोपेश में डाल देते हैं.

‘‘जी, हां, इन्हें ही मैं रायचंद कहता हूं. इन से आप पूछें या न पूछें, मांगें न मांगें, यह अपनी राय जरूर देंगे. उस शाम मैं उदास बैठा था. सीताराम आया तो मुंह से निकल गया, ‘‘पिताजी का पत्र आया है, माताजी अस्वस्थ हैं. सोचता हूं, घर का चक्कर लगा आऊं.’’

सीताराम तपाक से बोला, ‘‘यार, मां आखिर बूढ़ी हैं, पता नहीं क्या हाल हो. तुम ऐसा करो भाभीजी को भी साथ ले जाओ. अगर कहीं ऐसीवैसी बात हो गई तो…’’

महीने की 28 तारीख थी. मैं अकेले जाने में ही खर्च का प्रबंध नहीं कर पा रहा था और वह कह रहा था कि भाभीजी को भी ले जाओ, और फिर बच्चे? बच्चों की परीक्षा सिर पर आ रही थी.

तभी विजय आ गया. उस का कोई परिचित टेलीफोन एक्सचेंज में था. बोला, ‘‘चलो, फोन से सही हाल पता करते हैं.’’

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मैं ने कहा, ‘‘भाई, वहां टेलीफोन नहीं है.’’

वह बोला, ‘‘कहीं पड़ोस में तो होगा? कुछ न कुछ सिलसिला निकल आएगा, चलो तो.’’

मुझे घर फोन करने की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी. पासपड़ोस क्या, मुझे तो अपने कसबे के भी किसी व्यक्ति का टेलीफोन नंबर पता नहीं था.

उसे जैसेतैसे टाला तो कमल आ गया. रास्ते में विजय ने उसे बता दिया था. बोला, ‘‘एक्सप्रेस टेलीग्राम कर दो. मेरी मानो तो जवाबी तार कर दो. घर बैठे कल हाल मालूम हो जाएगा.’’

क्या कहता? तार से पहले तो पोस्टकार्ड पहुंच जाता है.

तभी पड़ोसी रामलखन आ गया. बोला, ‘‘अरे, क्यों परेशान होते हो? उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्दी ठीक हो जाएं. बीमारी तो लगी ही रहती है. अच्छाभला आदमी भी अपना डाक्टरी मुआयना कराने चला जाए तो डाक्टर लोग 10 बीमारियां बता देंगे. रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों का दर्द और भी न जाने क्याक्या.’’

वकील सुशील कुमार घूम कर लौट रहे थे. बातचीत सुन कर चले आए. छड़ी उठा कर बोले, ‘‘देखो भाई, ऐसा करो कि बहू को भेज दो. तुम जा कर क्या करोगे? वह सास की सेवा करेगी और तुम्हारे पिताजी को चायखाना भी मिलता रहेगा. बस, कल ही भेज दो.’’

यानी यहां घर मैं देखूं, बच्चों को मैं संभालूं.

यह तो केवल एक उदाहरण है. आप के मुंह से तो कुछ निकलना चाहिए और बस, कंप्यूटर की तरह रायचंदजी की राय हाजिर है.

एक बार गरमियों में महेश मसूरी जाने का कार्यक्रम बना रहा था. साथियों को पता लगने में क्या देर लगती है? बस, फिर तो रोज मसूरी, नैनीताल, शिमला, डलहौजी, श्रीनगर, दार्जिलिंग आदि की चर्चा सुनने को मिलती, ‘‘मसूरी में क्या रखा है? नंगी पहाडि़यां हैं. पानी की अलग किल्लत रहती है. 3 दिन में बोर हो जाओगे.’’

एक नैनीताल की राय देते हुए नौकाविहार का गुणगान करता तो दूसरा दार्जिलिंग के सूर्योदय का बखान करता. इधर तीसरा मरने से पहले ही जन्नत भेजने की कोशिश करता, ‘‘कश्मीर जाओ यार, पृथ्वी पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है.’’

रायचंदों के सब्ज- बागों से घर में ही फूट पड़ गई. महेश की पत्नी कश्मीर के लिए हठ करने लगी, बेटा नैनीताल के ताल में छलांग लगाने लगा और बेटी माउंट आबू के सपने देखते कहती, ‘‘लौटते हुए उदयपुर, चित्तौड़, जयपुर, अजमेर व अलवर भी घूमते आएंगे.’’

परिणाम यह हुआ कि गरमी घर पर ही चखचख करते, पसीना पोंछते निकल गई.

बेटी की शादी आप को करनी है, पर पेट में दर्द रायचंद के हो रहा है. पता चलते ही गंभीरता से बोलेंगे, ‘‘भाई, हलवाई कौन सा तय किया?’’ और फिर अपनी राय देना शुरू कर देंगे.

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आप के बच्चे ने हाईस्कूल पास किया है, उसे भविष्य में क्या बनना चाहिए, यह मशविरा वह बिना मांगे देंगे, ‘‘वाणिज्य विषय में क्या रखा है? विज्ञान का युग है. 21वीं सदी में पहुंचने के लिए हमें कितने ही इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ेगी, इलेक्ट्रानिक्स में भेजो.’’

उस के कालिज में प्रवेश तक न जाने कितने प्रस्ताव आप के पास आ जाएंगे, आप के लिए सिरदर्द बन कर.

उस दिन छज्जूमल की दादी चल बसीं. एक रायचंद बोले, ‘‘भाई, ऐसा करो, एक बस की व्यवस्था कर लो. गढ़मुक्तेश्वर ले चलते हैं. धर्मकर्म वाली महिला थीं. आत्मा को शांति प्राप्त होगी.’’

दूसरे रायचंद ने हरिद्वार की सिफारिश की. तीसरे ने विद्युत शवदाहगृह की दलील दी. चौथे ने चंदन की लकड़ी मंगाने की राय दी. छज्जूमल सिर खुजाते- खुजाते परेशान.

असली परेशानी तो बीमार पड़ने पर होती है. मिजाजपुरसी को आने वाला हर व्यक्ति जैसे पूरा डाक्टर होता है, ‘‘किस का इलाज हो रहा है? क्या दवा चल रही है? कितना फायदा है? क्या परहेज बताया है?’’ आदिआदि. और फिर जाने से पहले अपनी पसंद के डाक्टर को दिखाने की राय अवश्य देगा तथा चलतेचलते एक नुसखा भी आजमाने को कह जाएगा.

रामभरोसे को जब मैं रविवार को देखने पहुंचा तो उस की खाट के साथ सटी मेज पर दवाइयों की शीशियों के पास एक पेंसिल और पैड भी पड़ा था. मैं ने पूछा, ‘‘आजकल क्या लिखते रहते हो?’’

वह मुसकरा कर बोला, ‘‘जो भी आता है एक नुसखा लिखा जाता है.’’

मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘सब नुसखे आजमा रहे हो? शरीर को प्रयोगशाला बना लिया है क्या?’’

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उस ने हंसते हुए खाट के नीचे रखी टोकरी की ओर इशारा कर दिया. वह कागजों के ढेर से अटी पड़ी थी. मैं उस की समझदारी की दाद दे कर लौटते हुए सोच रहा था कि रायचंदों से परेशान हो कर ही शायद मिर्जा गालिब ने यह शेर कहा होगा.

‘‘कमी नहीं है जहां में गालिब,

एक खोजो, हजार मिलते हैं.’’      द्य

सपनों की राख तले

लेखक-पुष्पा भाटिया

दौड़भाग, उठापटक करते समय कब आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह गश खा कर गिर पड़ी, याद नहीं.

आंख खुली तो देखा कि श्वेता अपने दूसरे डाक्टर सहकर्मियों के साथ उस का निरीक्षण कर रही थी. तभी द्वार पर किसी ने दस्तक दी. श्वेता ने पलट कर देखा तो डा. तेजेश्वर का सहायक मधुसूदन था.

‘‘मैडम, आप के लिए दवा लाया हूं. वैसे डा. तेजेश्वर खुद चेक कर लेते तो ठीक रहता.’’

आंखों की झिरी से झांक कर निवेदिता ने देखा तो लगा कि पूरा कमरा ही घूम रहा है. श्वेता ने कुछ देर पहले ही उसे नींद का इंजेक्शन दिया था. पर डा. तेज का नाम सुन कर उस का मन, अंतर, झंकृत हो उठा था. सोचनेविचारने की जैसे सारी शक्ति ही चुक गई थी. ढलती आयु में भी मन आंदोलित हो उठा था. मन में विचार आया कि पूछे, आए क्यों नहीं? पर श्वेता के चेहरे पर उभरी आड़ीतिरछी रेखाओं को देख कर निवेदिता कुछ कह नहीं पाई थी.

‘‘तकदीर को आप कितना भी दोष दे लो, मां, पर सचाई यह है कि आप की इस दशा के लिए दोषी डा. तेज खुद हैं,’’ आज सुबह ही तो मांबेटी में बहस छिड़ गई थी.

‘‘वह तेरे पिता हैं.’’

‘‘मां, जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके वह व्यक्ति समाज में रह कर समाज का अंग नहीं बन सकता और न ही सम्माननीय बन सकता है,’’ क्रोधित श्वेता कुछ ही देर में कमरा छोड़ कर बाहर चली गई थी.

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बेटी के जाने के बाद से उपजा एकांत और अकेलापन निवेदिता को उतना असहनीय नहीं लगा जितना हमेशा लगता था. एकांत में मौन पड़े रहना उन्हें सुविधाजनक लग रहा था.

खयालों में बरसों पुरानी वही तसवीर साकार हो उठी जिस के प्यार और सम्मोहन से बंधी, वह पिता की देहरी लांघ उस के साथ चली आई थी.

उन दिनों वह बी.ए. फाइनल में थी. कालिज का सालाना आयोजन था. म्यूजिकल चेयर प्रतियोगिता में निवेदिता और तेजेश्वर आखिरी 2 खिलाड़ी बचे थे. कुरसी 1 उम्मीदवार 2. कभी निवेदिता की हथेली पर तेजेश्वर का हाथ पड़ जाता, कभी उस की पीठ से तेज का चौड़ा वक्षस्थल टकरा जाता. जीत, तेजेश्वर की ही हुई थी लेकिन उस दिन के बाद से वे दोनों हर दिन मिलने लगे थे. इस मिलनेमिलाने के सिलसिले में दोनों अच्छे मित्र बन गए. धीरेधीरे प्रेम का बीज अंकुरित हुआ तो प्यार के आलोक ने दोनों के जीवन को उजास से भर दिया.

अंतर्जातीय विवाह के मुद्दे को ले कर परिवार में अच्छाखासा विवाद छिड़ गया था. लेकिन बिना अपना नफानुकसान सोचे निवेदिता भी अपनी ही जिद पर अड़ी रही. कोर्ट में रजिस्टर पर दस्तखत करते समय, सिर्फ मांपापा, तेजेश्वर और निवेदिता ही थे. इकलौती बेटी के ब्याह पर न बाजे बजे न शहनाई, न बंदनवार सजे न ही गीत गाए गए. विदाई की बेला में मां ने रुंधे गले से इतना भर कहा था, ‘सपने देखना बुरा नहीं होता पर उन सपनों की सच के धरातल पर कोई भूमिका नहीं होती, बेटी. तेरे भावी जीवन के लिए बस, यही दुआ कर सकती हूं कि जमीन की जिस सतह पर तू ने कदम रखा है वह ठोस साबित हो.’

विवाह के शुरुआती दिनों में सुंदर घर, सुंदर परिवार, प्रिय के मीठे बोल, यही पतिपत्नी की कामना थी और यही प्राप्ति. शुरू में तेज का साथ और उस के मीठे बोल अच्छे लगते थे. बाद में यही बोल किस्सा बन गए. निवि को बात करने का ढंग नहीं है, पहननाओढ़ना तो उसे आता ही नहीं है. सीनेपिरोने का सलीका नहीं. 2 कमरों के उस छोटे से फ्लैट को सजातेसंवारते समय मन हर पल पति के कदमों की आहट को सुनने के लिए तरसता. कुछ पकातेपरोसते समय पति के मुख से 1-2 प्रशंसा के शब्द सुनने के लिए मन मचलता, लेकिन तेजेश्वर बातबात पर खीजते, झल्लाते ही रहते थे.

निवेदिता आज तक समझ नहीं पाई कि ब्याह के तुरंत बाद ही तेज का व्यवहार उस के प्रति इतना शुष्क और कठोर क्यों हो गया. उस ने तो तेज को मन, वचन, कर्म से अपनाया था. तेज के प्रति निवेदिता को कोई गिलाशिकवा भी नहीं था.

कई बार निवेदिता खुद से पूछती कि उस में उस का कुसूर क्या था कि वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. लोगों के बीच जल्द ही आकर्षण का केंद्र बन जाती थी या उस की मित्रता सब से हो जाती थी. वरना पत्नी के प्रति दुराव की क्षुद्र मानसिकता के मूल कारण क्या हो सकते थे? शरीर के रोगों को दूर करने वाले तेजेश्वर यह क्यों नहीं समझ पाए कि इनसान अपने मृदु और सरल स्वभाव से ही तो लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बनता है.

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दिनरात की नोकझोंक और चिड़- चिड़ाहट से दुखी हो उठी थी निवेदिता. सोचा, क्या रखा है इन घरगृहस्थी के झमेलों में?

एक दिन अपनी डिगरियां और सर्टिफिकेट निकाल कर तेज से बोली, ‘घर में बैठेबैठे मन नहीं लगता, क्यों न मैं कोई नौकरी कर लूं?’

‘और यह घरगृहस्थी कौन संभालेगा?’ तेज ने आंखें तरेरीं.

‘घर के काम तो चलतेफिरते हो जाते हैं,’ दृढ़ता से निवेदिता ने कहा तो तेजेश्वर का स्वर धीमा पड़ गया.

‘निवेदिता, घर से बाहर निकलोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’

‘क्यों…’ लापरवाही से पूछा था उस ने.

‘लोग न जाने तुम्हें कैसीकैसी निगाहों से घूरेंगे.’

कितना प्यार करते हैं तेज उस से? यह सोच कर निवेदिता इतरा गई थी. पति की नजरों में, सर्वश्रेष्ठ बनने की धुन में वह तेजेश्वर की हर कही बात को पूरा करती चली गई थी, पर जब टांग पर टांग चढ़ा कर बैठने में, खिड़की से बाहर झांक कर देखने में, यहां तक कि किसी से हंसनेबोलने पर भी तेज को आपत्ति होने लगी तो निवेदिता को अपनी शुरुआती भावुकता पर अफसोस होने लगा था.

निरी भावुकता में अपने निजत्व को पूर्ण रूप से समाप्त कर, जितनी साधना और तप किया उतनी ही चतुराई से लासा डाल कर तेजेश्वर उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही बाधित करते चले गए.

दर्द का गुबार सा उठा तो निवेदिता ने करवट बदल ली. यादों के साए पीछा कहां छोड़ रहे थे. विवाह की पहली सालगिरह पर मम्मीपापा 2 दिन पहले ही आ गए थे. मित्र, संबंधी और परिचितों को आमंत्रित कर उस का मन पुलक से भर उठा था लेकिन तेजेश्वर की भवें तनी हुई थीं. निवेदिता के लिए पति का यह रूप नया था. उस ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि इस खुशी के अवसर को तेज अंधकार में डुबो देंगे और जरा सी बात को ले कर भड़क जाएंगे.

‘मटरमशरूम क्यों बनाया? शाही पनीर क्यों नहीं बनाया?’

छोटी सी बात को टाला भी जा सकता था पर तेजेश्वर ने महाभारत छेड़ दिया था. अकसर किसी एक बात की भड़ास दूसरी बात पर ही उतरती है. तेज का स्वभाव ही ऐसा था. दोस्ती किसी से करते नहीं थे, इसीलिए लोग उन से दूर ही छिटके रहते थे. आमंत्रित अतिथियों से सभ्यता और शिष्टता से पेश आने के बजाय, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही उन्होंने वह हंगामा खड़ा किया था. यह सबकुछ निवेदिता को अब समझ में आता है.

2 दिन तक मम्मीपापा और रहे थे. तेज इस बीच खूब हंसते रहे थे. निवेदिता इसी मुगालते में थी कि मम्मीपापा ने कुछ सुना नहीं था पर अनुभवी मां की नजरों से कुछ भी नहीं छिपा था.

घर लौटते समय तेज का अच्छा मूड देख कर उन्होंने मशविरा दिया था, ‘जिंदगी बहुत छोटी है. हंसतेखेलते बीत जाए तो अच्छा है. ज्यादा ‘वर्कोहोलिक’ होने से शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं. कुछ दिन कहीं बाहर जा कर तुम दोनों घूम आओ.’

इतना सुनते ही वह जोर से हंस दी थी और उस के मुंह से निकल गया था, ‘मां, कभी सोना लेक या बटकल लेक तक तो गए नहीं, आउट आफ स्टेशन ये क्या जाएंगे?’

मजाक में कही बात मजाक में ही रहने देते तो क्या बिगड़ जाता? लेकिन तेज का तो ऐसा ईगो हर्ट हुआ कि मारपीट पर ही उतर आए.

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हतप्रभ रह गई थी वह तेज के उस व्यवहार को देख कर. उस दिन के बाद से हंसनाबोलना तो दूर, उन के पास बैठने तक से घबराने लगी थी निवेदिता. कई दिनों तक अबोला ठहर जाता उन दोनों के बीच.

उन्हीं कुछ दिनों में निवेदिता ने अपने शरीर में कुछ आकस्मिक परिवर्तन महसूस किए थे. तबीयत गिरीगिरी सी रहती, जी मिचलाता रहता तो वह खुद ही चली गई थी डा. डिसूजा के क्लिनिक पर. शुरुआती जांच के बाद डा. डिसूजा ने गर्भवती होने का शक जाहिर किया था, ‘तुम्हें कुछ टैस्ट करवाने पड़ेंगे.’

एक घंटा भी नहीं बीता था कि तेज घर लौट आए थे. शायद डा. डिसूजा से उन की बात हो चुकी थी. बच्चों की तरह पत्नी को अंक में भर कर रोने लगे.

‘इतनी खुशी की बात तुम ने मुझ से क्यों छिपाई? अकेली क्यों गई? मैं ले चलता तुम्हें.’

आंख की कोर से टपटप आंसू टपक पड़े. खुद पर ग्लानि होने लगी थी. कितना छोटा मन है उन का…ऐसी छोटीछोटी बातें भी चुभ जाती हैं.

अगले दिन तेज ने डा. कुलकर्णी से समय लिया और लंच में आने का वादा कर के चले गए. 10 सालों तक हास्टल में रहने वाली निवेदिता जैसी लड़की के लिए अकेले डा. कुलकर्णी के क्लिनिक तक जाना मुश्किल काम नहीं था. डा. डिसूजा के क्लिनिक पर भी वह अकेली ही तो गई थी. पर कभीकभी अपना वजूद मिटा कर पुरुष की मजबूत बांहों के घेरे में सिमटना, हर औरत को बेहद अच्छा लगता है. इसीलिए बेसब्री से वह तेज का इंतजार करने लगी थी.

दोपहर के 1 बजे जूते की नोक से द्वार के पट खुले तो वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई थी. तेज बुरी तरह बौखलाए हुए थे. शायद थके होंगे यह सोच कर निवेदिता दौड़ कर चाय बना लाई थी.

‘पूरा दिन गंवारों की तरह चाय ही पीता रहूं?’ तेज ने आंखें तरेरीं तो साड़ी बदल कर, वह गाउन में आ गई और घबरा कर पूछ लिया, ‘आजकल काम ज्यादा है क्या?’

‘मैं आलसी नहीं, जो हमेशा पलंग पर पड़ा रहूं. काम करना और पैसे कमाना मुझे अच्छा लगता है.’

अपरोक्ष रूप से उस पर ही वार किया जा रहा है. यह वह समझ गई थी. सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट लिए निवेदिता अंदर ही अंदर घुटती रही थी. उस ने कई किताबों में पढ़ा था कि गर्भवती महिला को हमेशा खुश रहना चाहिए. इसीलिए पति के स्वर में छिपे व्यंग्य को सुन कर भी मूड खराब करने के बजाय चेहरे पर मुसकान फैला कर बोली, ‘एक बार ब्लड प्रैशर चेक क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह ही चिड़चिड़ाते रहते हो.’

इतना सुनते ही तेजेश्वर ने घर के हर साजोसामान के साथ कई जरूरत के कागज भी यत्रतत्रसर्वत्र फैला दिए थे. निवेदिता आज तक इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाई कि क्या पतिपत्नी का रिश्ता विश्वास पर नहीं टिका होना चाहिए. वह जहां जाती तेजेश्वर के साथ जाती, वह जैसा चाहते वैसा ही पहनती, ओढ़ती, पकाती, खाती. जहां कहते वहीं घूमने जाती. फिर भी वर्जनाओं की तलवार हमेशा क्यों उस के सिर पर लटकती रहती थी?

अंकुश के कड़े चाबुक से हर समय पत्नी को साध कर रखते समय तेजेश्वर के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि जो पति अपनी पत्नी को हेय दृष्टि से देखता है उस औरत के प्रति बेचारगी का भाव जतला कर कई पुरुष गिद्धों की तरह उस के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं. इस में दोष औरत का नहीं, पुरुष का ही होता है.

यही तो हुआ था उस दिन भी. श्वेता के जन्मदिन की पार्टी पर वह अपने कालिज की सहपाठी दिव्या और उस के पति मधुकर के साथ चुटकुलों का आनंद ले रही थी. मां और पापा भी वहीं बैठे थे. पार्टी का समापन होते ही तेज अपने असली रूप में आ गए थे. घबराहट से उन का पूरा शरीर पसीनेपसीने हो गया. लोग उन के गुस्से को शांत करने का भरसक प्रयास कर रहे थे पर तेजेश्वर अपना आपा ही खो चुके थे. एक बरस की नन्ही श्वेता को जमीन पर पटकने ही वाले थे कि पापा ने श्वेता को तेज के चंगुल से छुड़ा कर अपनी गोद में ले लिया था.

‘मुझे तो लगता है कि तेज मानसिक रोगी है,’ पापा ने मां की ओर देख कर कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ अनुभवी मां ने बात को संभालने का प्रयास किया था.

‘यदि यह मानसिक रोगी नहीं तो फिर कोई नशा करता है क्योंकि कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा अभद्र व्यवहार कभी नहीं कर सकता.’

उस दिन सब के सामने खुद को तेजेश्वर ने बेहद बौना महसूस किया था. घुटन और अवहेलना के दौर से बारबार गुजरने के बाद भी तेज के व्यवहार की चर्चा निवेदिता ने कभी किसी से नहीं की थी. कैसे कहती? रस्मोरिवाज के सारे बंधन तोड़ कर उस ने खुद ही तो तेजेश्वर के साथ प्रेमविवाह किया था पर उस दिन तो मम्मी और पापा दोनों ने स्वयं अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना था.

पापा ने साथ चलने के लिए कहा तो वह चुपचाप उन के साथ चली गई थी. सोचती थी, अकेलापन महसूस होगा तो खुद ही तेज आ कर लिवा ले जाएंगे पर ऐसा मौका कहां आया था. उस के कान पैरों की पदचाप और दरवाजे की खटखट सुनने को तरसते ही रह गए थे.

श्वेता, पा…पा…कहना सीख गई थी. हुलस कर निवेदिता ने बेटी को अपने आंचल में छिपा लिया था. दुलारते- पुचकारते समय खुशी का आवेग उस की नसों में बहने लगा और अजीब तरह का उत्साह मन में हिलोरें भरने लगा.

‘कब तक यों हाथ पर हाथ धर कर बैठी रहेगी? अभी तो श्वेता छोटी है. उसे किसी भी बात की समझ नहीं है लेकिन धीरेधीरे जब बड़ी होगी तो हो सकता है कि मुझ से कई प्रकार के प्रश्न पूछे. कुछ ऐसे प्रश्न जिन का उत्तर देने में भी मुझे लज्जित होना पड़े.’

घर में बिना किसी से कुछ कहे वह तेज की मां के चौक वाले घर में पहुंच गई थी. पूरे सम्मान के साथ तेजेश्वर की मां ने निवेदिता को गले लगाया था बल्कि अपने घर आ कर रहने के लिए भी कहा था. लेकिन बातों ही बातों में इतना भी बता दिया था कि तेज कनाडा चला गया है और जाते समय यह कह गया है कि वह निवेदिता के साथ भविष्य में कोई संबंध नहीं रखना चाहता है.

निवेदिता ने संयत स्वर में इतना ही पूछा था, ‘मांजी, यह सब इतनी जल्दी हुआ कैसे?’

‘तेज के दफ्तर की एक सहकर्मी सूजी है. उसी ने स्पांसर किया है. हमेशा कहता था, मन उचट गया है. दूर जाना है…कहीं दूर.’

सारी भावनाएं, सारी संवेदनाएं ठूंठ बन कर रह गईं. औरत सिर्फ शारीरिक जरूरत नहीं है. उस के प्रेम में पड़ना, अभिशाप भी नहीं है, क्योंकि वह एक आत्मीय उपस्थिति है. एक ऐसी जरूरत है जिस से व्यक्ति को संबल मिलता है. हवा में खुशबू, स्पर्श में सनसनी, हंसी में खिलखिलाहट, बातों में गीतों सी सरगम, यह सबकुछ औरत के संपर्क में ही व्यक्ति को अनुभव होता है.

समय की झील पर जिंदगी की किश्ती प्यार की पाल के सहारे इतनी आसानी से गुजरती है कि गुजरने का एहसास ही नहीं होता. कितनी अजीब सी बात है कि तेज इस सच को ही नहीं पहचान पाए. शुरू से वह महत्त्वाकांक्षी थे पर उन की महत्त्वाकांक्षा उन्हें परिवार तक छोड़ने पर मजबूर कर देगी, ऐसा निवेदिता ने कभी सोचा भी नहीं था. कहीं ऐसा तो नहीं कि बच्ची और पत्नी से दूर भागने के लिए उन्होंने महत्त्वाकांक्षा के मोहरे का इस्तेमाल किया था?

इनसान क्यों अपने परिवार को माला में पिरोता है? इसीलिए न कि व्यक्ति को सीधीसादी, सरल सी जिंदगी हासिल हो. निवेदिता ने विवेचन सा किया. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से अपनों को ही खुदगर्जी का लकवा मार जाए तो पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर ठंडे, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता है?

मन में विचार कौंधा कि अब यह घर उसे छोड़ देना चाहिए. आखिर मांबाप पर कब तक आश्रित रहेगी. और अब तो भाई का भी विवाह होने वाला था. उस की और श्वेता की उपस्थिति ने भाई के सुखद संसार में ग्रहण लगा दिया तो? उसे क्या हक है किसी की खुशियां छीनने का?

अगले दिन निवेदिता देहरादून में थी. सोचा कि इस शहर में अकेली कैसे रह सकेगी? लेकिन फौरन ही मन ने निश्चय किया कि उसे अपनी बिटिया के लिए जीना होगा. तेज तो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर विदेश जा बसे पर वह अपने दायित्वों से कैसे मुंह मोड़ सकती है?

श्वेता को सुरक्षित भविष्य प्रदान करने का दायित्व निवेदिता ने अपने कंधों पर ले तो लिया था पर वह कर क्या सकती थी? डिगरियां और सर्टि- फिकेट तो कब के तेज के क्रोध की आग पर होम हो चुके थे.

नौकरी ढूंढ़ने निकली तो एक ‘प्ले स्कूल’ में नौकरी मिल गई, साथ ही स्कूल की प्राध्यापिका ने रहने के लिए 2 कमरे का मकान दे कर उस की आवास की समस्या को भी सुलझा दिया, पर वेतन इतना था कि उस में घर का खर्चा चलाना ही मुश्किल था. श्वेता के सुखद भविष्य को बनाने का सपना वह कैसे संजोती?

मन ऊहापोह में उलझा रहता. क्या करे, कैसे करे? विवाह से पहले कुछ पत्रिकाओं में उस के लेख छपे थे. आज फिर से कागजकलम ले कर कुछ लिखने बैठी तो लिखती ही चली गई.

कुछ पत्रिकाओं में रचनाएं भेजीं तो स्वीकृत हो गईं. पारिश्रमिक मिला, शोहरत मिली, नाम मिला. लोग प्रशंसात्मक नजरों से उसे देखते. बधाई संदेश भेजते, तो अच्छा लगता था, फिर भी भीतर ही भीतर कितना कुछ दरकता, सिकुड़ता रहता. काश, तेज ने भी कभी उस के किसी प्रयास को सराहा होता.

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निवेदिता की कई कहानियों पर फिल्में बनीं. घर शोहरत और पैसे से भर गया. श्वेता डाक्टर बन गई. सोचती, यदि तेज ने ऐसा अमानवीय व्यवहार न किया होता तो उस की प्रतिभा का ‘मैं’ तो बुझ ही गया होता. कदमकदम पर पत्नी की प्रतिभा को अपने अहं की कैंची से कतरने वाले तेजेश्वर यदि आज उसे इस मुकाम पर पहुंचा हुआ देखते तो शायद स्वयं को उपेक्षित और अपमानित महसूस करते. यह तो श्वेता का संबल और सहयोग उन्हें हमेशा मिलता रहा वरना इतना सरल भी तो नहीं था इस शिखर तक पहुंचना.

दरवाजे पर दस्तक हुई, ‘‘निवेदिता,’’ किसी ने अपनेपन से पुकारा तो अतीत की यादों से निकल कर निवेदिता बाहर आई और 22 बरस बाद भी तेजेश्वर का चेहरा पहचानने में जरा भी नहीं चूकी. तेज ने कुरसी खिसका कर उस की हथेली को छुआ तो वह शांत बिस्तर पर लेटी रही. तेज की हथेली का दबाव निवेदिता की थकान और शिथिलता को दूर कर रहा था. सम्मोहन डाल रहा था और वह पूरी तरह भारमुक्त हो कर सोना चाह रही थी.

‘‘बेटी के ब्याह पर पिता की मौजूदगी जरूरी होती है. श्वेता के विवाह की बात सुन कर इतनी दूर से चला आया हूं, निवि.’’

यह सुन कर मोम की तरह पिघल उठा था निवेदिता का तनमन. इसे औरत की कमजोरी कहें या मोहजाल में फंसने की आदत, बरसों तक पीड़ा और अवहेलना के लंबे दौर से गुजरने के बाद भी जब वह चिरपरिचित चेहरा आंखों के सामने आता है तो अपने पुराने पिंजरे में लौट जाने की इच्छा प्रबल हो उठती है. निवेदिता ने अपने से ही प्रश्न किया, ‘कल श्वेता ससुराल चली जाएगी तो इतने बड़े घर में वह अकेली कैसे रहेगी?’

‘‘सूजी निहायत ही गिरी हुई चरित्रहीन औरत निकली. वह न अच्छी पत्नी साबित हुई न अच्छी मां. उसे मुझ से ज्यादा दूसरे पुरुषों का संसर्ग पसंद था. मैं ने तलाक ले लिया है उस से. मेरा एक बेटा भी है, डेविड. अब हम सब साथ रहेंगे. तुम सुन रही हो न, निवि? तुम्हें मंजूर होगा न?’’

बंद आंखों में निवेदिता तेज की भावभंगिमा का अर्थ समझ रही थी.

बरसों पुराना वही समर्थन, लेकिन स्वार्थ की महक से सराबोर. निवेदिता की धारणा में अतीत के प्रेम की प्रासंगिकता आज तक थी, लेकिन तेज के व्यवहार ने तो पुराने संबंधों की जिल्द को ही चिंदीचिंदी कर दिया. वह तो समझ रही थी कि तेज अपनी गलती की आग में जल रहे होंगे. अपनी करनी पर दुखी होंगे. शायद पूछेंगे कि इतने बरस उन की गैरमौजूदगी में तुम ने कैसे काटे. कहांकहां भटकीं, किनकिन चौखटों की धूल चाटी. लेकिन इन बातों का महत्त्व तेजेश्वर क्या जानें? परिवार जब संकट के दौर से गुजर रहा हो, गृहकलह की आग में झुलस रहा हो, उस समय पति का नैतिक दायित्व दूना हो जाता है. लेकिन तेज ने ऐसे समय में अपने विवेक का संतुलन ही खो दिया था. अब भी उन का यह स्पर्श उसे सहेजने के लिए नहीं, बल्कि मांग और पूर्ति के लिए किया गया है.

पसीने से भीगी निवेदिता की हथेली धीरेधीरे तेज की मजबूत हथेली के शिकंजे से पीछे खिसकने लगी, निवेदिता के अंदर से यह आवाज उठी, ‘अगर सूजी अच्छी पत्नी और मां साबित न हो सकी तो तुम भी तो अच्छे पिता और पति न बन सके.  जो व्यक्ति किसी नारी की रक्षा में स्वयं की बलि न दे सके वह व्यक्ति पूज्य कहां और कैसे हो सकता है? 22 बरस की अवधि में पनपे अपरिचय और दूरियों ने तेज की सोच को क्या इतना संकुचित कर दिया है?’

जेहन में चुभता हुआ सोच का टुकड़ा अंतर्मन के सागर में फेंक कर निवेदिता निष्प्रयत्न उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘तेज, दूरियां कुछ और नहीं बल्कि भ्रामक स्थिति होती हैं. जब दूरियां जन्म लेती हैं तो इनसान कुछ बरसों तक इसी उम्मीद में जीता है कि शायद इन दूरियों में सिकुड़न पैदा हो और सबकुछ पहले जैसा हो जाए, पर जब ऐसा नहीं होता तो समझौता करने की आदत सी पड़ जाती है. ऐसा ही हुआ है मेरे साथ भी. घुटनों चलने से ले कर श्वेता को डाक्टर बनाने में मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ी. रुकावटें आईं पर हम दोनों मांबेटी एकदूसरे का संबल बने रहे. आज श्वेता के विवाह का अनुष्ठान भी अकेले ही संपूर्ण हो जाएगा.’’

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एक बार निवेदिता की पलकें नम जरूर हुईं पर उन आंसुओं में एक तरह की मिठास थी. आंसुओं के परदे से झांक कर उन्होंने अपनी ओर बढ़ती श्वेता और होने वाले दामाद को भरपूर निगाहों से देखा. श्वेता मां के कानों के पास अपने होंठ ला कर बुदबुदाई, ‘जीवन के मार्ग इतने कृपण नहीं जो कोई राह ही न सुझा सकें. मां, जिस धरती पर तुम खड़ी हो वह अब भी स्थिर है.’

रिंग टोन्स के गाने, बनाएं कितने अफसाने

लेखक- ममता मेहता

कब से कह रहा हूं कि इस टंडीरे को हटा कर मोबाइल फोन ले लो, पर नहीं, चिपके रहेंगे अपने उन्हीं पुराने बेमतलब, बकवास सिद्धांतों से. मेरे सभी दोस्तों के पापा अपने पास एक से बढ़ कर एक मोबाइल रखते हैं और जाने क्याक्या बताते रहते हैं वे मुझे मोबाइल के बारे में. एक मैं ही हूं जिसे ढंग से मोबाइल आपरेट करना भी नहीं आता.’’

अंदर से अपने लाड़ले का पक्ष लेती हुई श्रीमतीजी की आवाज आई, ‘‘अब घर में कोई चीज हो तब तो बच्चे कुछ सीखेंगे. घर में चीज ही न होगी तो कहां से आएगा उसे आपरेट करना. वह तो शुक्र मना कि मैं थी तो ये 2-4 चीजें घर में दिख रही हैं, वरना ये तो हिमालय पर रहने लायक हैं… न किसी चीज का शौक न तमन्ना…मैं ही जानती हूं किस तरह मैं ने यह गृहस्थी जमाई है. चार चीजें जुटाई हैं.’’

श्रीमतीजी की आवाज घिसे टेप की तरह एक ही सुर में बजनी शुरू हो उस से पहले ही मैं ने सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘घर में घुसते ही गरमगरम चाय के बजाय गरमागरम बकवास सुनने को मिलेगी यह जानता तो घर से बाहर ही रहता.’’

श्रीमतीजी दांत भींच कर बोलीं, ‘‘आते ही शुरू हो गया नाटक. जब घर में कोई चीज लेने की बात होती है तो ये घर से बाहर जाने की सोचना शुरू कर देते हैं.’’

मैं कुछ जवाब देता इस से पहले ही अपना पप्पू बोल पड़ा, ‘‘पापा, ये लैंड लाइन फोन आजकल किसी काम के नहीं रहे हैं. आजकल तो सभी कंपनियां बेहद सस्ते दामों पर मोबाइल उपलब्ध करवा रही हैं. आप अब एक मोबाइल फोन ले ही लो.’’

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इस तरह मैं श्रीमतीजी और पप्पू के बनाए चक्रव्यूह में ऐसा फंसा कि मुझे मोबाइल फोन लेना ही पड़ा. अब जितनी देर मैं घर में रहता हूं, पप्पू मोबाइल से चिपका रहता है. पता नहीं कहांकहां की न्यूज निकालता, मुझे सुनाता. एसएमएस और गाने तो उस के चलते ही रहते.

यह सबकुछ कुछ दिनों तक तो मुझे भी बड़ा अच्छा लगा था, कहीं भी रहो, कभी भी, कैसे भी, किसी से भी कांटेक्ट  कर लो. पर कुछ ही दिनों में उलझन सी होने लगी. कहीं भी, कभी भी, किसी का भी फोन आ जाता. थोड़ी देर की भी शांति नहीं. सच तो यह है कि मोबाइल पर बजने वाली रिंग टोन मुझे परेशानी में डालने लगी थी.

एक दिन मेरे दफ्तर में एक जरूरी मीटिंग थी कि कंपनी की सेल को कैसे बढ़ाया जाए. सुझाव यह था कि कर्मचारियों के काम के घंटे बढ़ा दिए जाएं और उन्हें कुछ बोनस दे दिया जाए. अभी इस पर बातचीत चल ही रही थी कि मेरा मोबाइल बजा, ‘…बांहों में चले आओ हम से सनम क्या परदा…’

मीटिंग में बैठे लोग मूंछों में हंसी दबा रहे थे और मैं खिसिया रहा था. फोन घर से था. मैं ने फोन सुनने के बजाय स्विच आफ कर दिया. मुझे लगा कि मेरे ऐसा करने से वे समझ जाएंगे कि मैं किसी काम में व्यस्त हूं. पर नहीं, जैसे ही मैं ने सहज होने का असफल प्रयास करते हुए चर्चा शुरू करने की कोशिश की, रिंग टोन फिर से सुनाई पड़ी, ‘…बांहों में चले आओ…’

‘‘सर,’’ मीटिंग में मौजूद एक सज्जन बोले, ‘‘लगता है आज भाभीजी आप को बहुत मिस कर रही हैं. हमें कोई एतराज नहीं अगर इस मीटिंग को हम कल अरेंज कर लें.’’

मैं ने हाथ के इशारे से उन्हें रोकते हुए जल्दी से फोन उठाया और जरा गुस्से से भर कर बोला, ‘‘क्या आफत है, जल्दी बोलो. मैं इस समय एक जरूरी मीटिंग में हूं.’’

‘‘कुछ नहीं. मैं  कह रही थी कि आज शाम को मेरी कुछ सहेलियां आ रही हैं तो आप आते समय बिल्लू चाट भंडार से गरम समोसे लेते आना,’’ श्रीमतीजी गरजते स्वर में बोलीं.

अब मौजूद सदस्यों की व्यंग्यात्मक हंसी के बीच चर्चा आगे बढ़ाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई सो मीटिंग बरखास्त कर दी. घर आ कर मैं ने पप्पू को आड़े हाथों लिया कि मेरे मोबाइल पर फिल्मी गानों की रिंग टोन लेने की जरूरत नहीं है, सीधीसादी कोई रिंग टोन लगा दे, बस. बेटे ने सौरी बोला और चला गया.

अगले दिन मुझे एक गांव में परिवार नियोजन पर भाषण देने जाना था. अपने भाषण से पहले मैं कुछ गांव वालों के बीच बैठा उन्हें  यह समझा रहा था कि ज्यादा बच्चे हों तो व्यक्ति न उन की देखभाल अच्छी तरह से कर सकता है न उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकता है. बच्चे ज्यादा हों तो घर में एक तरह से शोर ही मचता रहता है और अधिक बच्चों का असर घर की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है.

अभी मैं और भी बहुत कुछ कहता कि मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे….’ और इसी के साथ वहां मौजूद सभी गांव वाले खिलखिला कर हंस पड़े. कल ही पप्पू को रिंग टोन बदलने के लिए डांटा था तो वह मुझे इस तरह समझा रहा था कि बच्चों को डांटो मत. इच्छा तो मेरी हुई कि मोबाइल पटक दूं पर खुद पर काबू पाते हुए मैं ने कहा, ‘‘बच्चे 1 या 2 ही अच्छे होते हैं. ज्यादा नहीं,’’ और फोन सुनने लगा.

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घर पहुंचने पर मैं ने बेटे को फिर लताड़ा तो वह बिना कुछ बोले ही वहां से हट गया. मेरे साथ दिक्कत यह थी कि मुझे अच्छी तरह से मोबाइल आपरेट करना नहीं आता था. मुझे सिर्फ फोन सुनने व बंद करने का ही ज्ञान था. इसलिए भी रिंग टोन के लिए मुझे बेटे पर ही निर्भर रहना पड़ता था. अब उसे डांटा है तो वह बदल ही देगा यह सोचता हुआ मैं वहां से चला  गया था.

हमारी कंपनी ने मुंबई के बाढ़  पीडि़तों को राहत सामग्री पहुंचाने का जिम्मा लिया था. सामग्री बांटने के दौरान मैं भी वहां मौजूद था जहां वर्षा से परेशान लोग भगवान को कोसते हुए चाह रहे थे कि बारिश बंद हो. तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन पर यह धुन बज उठी, ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो…’

यह रिंग टोन सुन कर लोगों के चेहरों पर जो भाव उभरे उसे देख कर मैं फौरन ही अपने सहायक को बाकी का बचा काम सौंप कर वहां से हट गया.

अब की बार मैं ने पप्पू को तगड़ी धमकी दी और डांट की जबरदस्त घुट्टी पिलाई कि अब अगर उस ने सादा रिंग टोन नहीं लगाई तो मैं इस मोबाइल को तोड़ कर फेंक दूंगा.

कुछ दिनों तक सब ठीकठाक चलता रहा. मैं निश्ंिचत हो गया कि अब वह रिंग टोन से बेजा छेड़छाड़ नहीं करेगा.

एक सुबह उठा तो पता चला कि हमारे घर से 2 घर आगे रहने वाले श्यामबाबू का 2 घंटे पहले हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया है. आननफानन में मैं वहां पहुंचा. बेहद गमगीन माहौल था. लोग शोक में डूबे मृतक के परिवार के लोगों को सांत्वना दे रहे थे कि तभी मेरे मोबाइल की रिंग टोन बज उठी, ‘चढ़ती जवानी मेरी चाल मसतानी…’

मैं लोगों की उपहास उड़ाती नजरों से बचते हुए फौरन घर पहुंचा और पहले तो बेटे को बुरी तरह से डांट लगाई फिर वहीं खड़ेखड़े उस से रिंग टोन बदलवाई.

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अब पप्पू ने मेरे मोबाइल से छेड़छाड़ तो बंद कर दी है पर घर में उस ने एक नई तान छेड़ दी है कि अब मुझे भी मोबाइल चाहिए. क्योेंकि मेरे सभी दोस्तों के पास मोबाइल है. सिर्फ एक मैं ही ऐसा हूं जिस के पास मोबाइल नहीं है. मेरे पास अपना मोबाइल होगा तो मैं जो गाना चाहूं अपने मोबाइल की रिंग टोन पर फिट कर सकता हूं.

श्रीमतीजी हर बार की तरह इस बार भी बेटे के पक्ष में हैं और मैं सोच रहा हूं कि मैं तो बिना मोबाइल के ही भला हूं. क्यों न विरासत मेें रिंग टोन के साथ यही मोबाइल बेटे को सौंप दूं.

धारावाहिक उपन्यास- मंजिल

लेखक-  माया प्रधान

गतांक से आगे…

मांपापा भी बहुत चिंतित थे, कम से कम फोन ही किया होता. मां ने पुरवा को बच्चे का वास्ता दे कर जबरन खाना खिला दिया था. पापा बारबार कह रहे थे, ‘‘बहुत ही लापरवाह होता जा रहा है.’’ पुरवा के मन में भी उथलपुथल थी. प्रतीक्षा करतेकरते ही उस की आंख लग गईं. रात 11 बजे के बाद सुहास आया तो मां व पापा ने प्रश्नों की बौछार कर दी. पुरवा कमरे में थी पर ऊंची आवाज से उस की नींद टूट गई. मन ही मन में विचित्र सी शंका उसे भयभीत करने लगी. वह कौन से कारण अब जन्म ले रहे हैं जिन की वजह से यहां के शांत वातावरण में अकसर भूचाल सा आने लगा है.

सुहास जब कमरे में आया तो पुरवा के कुछ पूछने से पहले ही बोला, ‘‘अब तुम भी मत शुरू हो जाना. मैं कोई डिस्को करने नहीं गया था, न दोस्तों के साथ जुआ खेलने और शराब पीने गया था.’’

‘‘मुझे मालूम है,’’ पुरवा ने सीधा उस की आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘खाना लगाऊं?’’

सुहास ने पलंग पर बैठते हुए जूते और मोजे इधरउधर उछाल दिए और थके हुए स्वर में बोला, ‘‘तुम ने खाया या नहीं?’’

‘‘मां बिना खाए रहने कहां देती हैं, उन का पोता भूखा नहीं रहना चाहिए,’’ पुरवा ने उस की उदासी दूर करने के विचार से मुसकरा दिया, पर सुहास उलझन में था. बोला, ‘‘कुछ थोड़ा सा यहीं ला दो, बाहर जाने का मतलब है फिर से भाषण सुनना.’’

पुरवा ने चकित दृष्टि से उसे देखा. ऐसी भाषा मां व पापा के लिए कब से सीख ली सुहास ने. धीरे से बोली, ‘‘एक फोन कर देते तो कोई चिंता नहीं होती किसी को.’’

‘‘फोन करने का समय कहां था. अरे इतना समय तो मिला नहीं कि बेला भाभी को फोन कर के भाई साहब का हाल पूछ लूं. बेचारी ने फोन पर बताया था कि भाई साहब को डाक्टर अलसर बता रहे हैं. शायद अस्पताल में भर्ती करना पड़े.’’

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पुरवा ने केवल सुना, पर बोली कुछ नहीं. बेला के यहां भी कुछ न कुछ घटता ही रहता है और हर बार सुहास की अपनी कोई समस्या तो है ही नहीं, पर सुहास का बेला के साथ अस्पतालों के चक्कर में बीतता है.

कैसा विरोधाभास है सुहास के स्वभाव का यह. अपने भविष्य की चिंता है न वर्तमान की पर दूसरों के लिए आधी रात तक भूखाप्यासा दौड़ता रह सकता है. कई बार सोचती है पुरवा, कहीं इस मनोविज्ञान के पीछे प्रशंसा पाने की तड़प तो नहीं है?

खाना खाते समय सुहास ने बताया, ‘‘हमारी दुकान के सामने ही राकेशजी की बहुत बड़ी दुकान है. आज वह शाम 7 बजे ही दुकान से निकले कहीं शादी में जाने को, पर दुकान से बाहर पैर रखते ही बेहोश हो कर गिर पड़े. सब दौड़े, पर वे बेहोश्ी में थे और उन्हें पसीने छूट रहे थे. अब तुम्हीं बताओ, उन्हें ले कर अस्पताल जाना, उन के घर वालों को बुलाना, डाक्टर से जांचपड़ताल कराना, कैसे बीच में आ जाता. उन्हें तो दिल का दौरा पड़ा था.’’

पुरवा ने सुहास के बालों में हाथ फेरा. उस की यही भावना कहीं पुरवा को गर्व से भी भर देती है पर हर बात की अति प्राय: दुखदायी लगने लगती है. पुरवा को भी कभीकभी इसी भावना से जूझना पड़ता है, धीरे से बोली, ‘‘तुम अपनी जगह सही हो सुहास, पर वे मांबाप हैं, जिन्हें बचपन से ही आदत है तुम्हारे लिए परेशान हो जाने की. तुम्हें उन का दिल भी नहीं दुखाना चाहिए था.’’

‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो, पर मैं थक भी तो जाता हूं.’’

पुरवा ने सुहास के बालों में उंगलियां उलझाते हुए कहा, ‘‘यही तो बात है सुहास, तुम्हें अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए. अपना स्वास्थ्य, अपना काम और आने वाली जिम्मेदारी के बारे में.’’

‘‘सोचूंगा, इस समय तो मैं बस, अपने बारे में यही सोच पा रहा हूं कि कैसे झटपट सो जाऊं.’’

पुरवा ने मुसकरा कर बत्ती बुझा दी और बोली, ‘‘ठीक है, अब सुबह बात करेंगे.’’

सुबह चाय पर सुहास ने मां व पापा से क्षमा मांग ली और पूरी घटना भी विस्तार से सुना दी. मां ने भी तब पुरवा की तरह यही कहा, ‘‘तुम्हें अपने और काम के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए. आखिर बीवी व बच्चे की जिम्मेदारी कोई हंसीखेल तो नहीं है.’’

चाय का दौर चल ही रहा था तभी नौकर ने आ कर बताया कि कोई प्रभात बाबू आए हैं. पुरवा उत्साह से बोली, ‘‘उन्हें ड्राइंगरूम में बैठाओ, अभी हम लोग भी आ रहे हैं,’’ फिर सब की तरफ देख कर बोली, ‘‘वह मेरा शिष्य है. पापा ने उसे सहायता कर के रेडीमेड कपड़ों का व्यापार शुरू करवाया था. आंखें नहीं हैं पर लगन बहुत है उस में.’’

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यह सुन कर मां व पापा के चेहरे पर उत्साह सा छा गया लेकिन सुहास चुपचाप सैंडविच और दलिया खाता रहा. जब पुरवा ने सब से प्रभात का परिचय करवाया, तो मांपापा बहुत ही प्रसन्न हुए. सुहास ने उस के हाथों में अपनी हथेली रख दी तो प्रभात ने तुरंत उस के पैर छू लिए फिर बारीबारी मां व पापा के भी छुए. उस की विनम्रता सभी के दिलों को छू रही थी. सुहास ने कहा, ‘‘पुरवा आप की बहुत प्रशंसा करती रही है. बस, मिलने का अवसर ही नहीं मिला.’’

‘‘मुझे ही मिलने आने में देर हो गई, जीजाजी,’’ प्रभात ने कहा.

सुहास को इस संबोधन की आदत नहीं थी, इसलिए बहुत ही अच्छा लगा. पुरवा का भाई अभी तक भारत नहीं लौटा था और साला होते हुए भी सुहास इस प्रिय संबंध के बारे में नहीं जानता था.

बातोंबातों में ही प्रभात ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप का व्यापार कैसा चल रहा है?’’ सुहास इस प्रश्न पर अचकचा गया, फिर भी मन को संयत कर के कहा, ‘‘ठीक चल रहा है, लेकिन मेरी पसंद का नहीं है,’’ सुहास ने कहने के साथ ही चोर दृष्टि से सब को देख लिया.

‘‘ऐसा होता है, जीजाजी, पर मन को उखड़ने मत दीजिएगा. कोशिश कर के पुराने के साथ ही अपनी पसंद का भी जमाइए,’’ प्रभात ने सादगी से कहा.

‘‘एक काम संभल जाए यही बहुत है, एकसाथ 2 काम करना तो बहुत मुश्किल है,’’ सुहास ने कह तो दिया पर तुरंत ही उसे लगा कि उस ने कुछ गलत कह दिया है. विशेष कर उस व्यक्ति के सामने जो आंखें न होते हुए भी अच्छा- भला व्यापार चला रहा है.

‘‘जीजाजी, कोई भी कार्य बिना परिश्रम के पूरा नहीं होता है,’’  प्रभात ने तुरंत ही कहा. और यह व्यापार की दुनिया तो बहुत ही परिश्रम मांगती है, नहीं तो कुछ दिन में पता चलता है कि हम तो बहुत पिछड़ गए हैं…फिर बाजार से गायब होने में कुछ देर नहीं लगती है.’’

मां व पापा पूरी तन्मयता से प्रभात को सुन रहे थे. उन की आंखों में अनोखी सी चमक थी, पर सुहास के चेहरे पर हताशा के भाव थे. प्रभात के जाने के उपरांत पापा ने अचानक कहा, ‘‘वह मूषक कथा पढ़ी है तुम ने?’’ पापा सुहास को संबोधित कर रहे थे.

‘‘पढ़ी होगी, याद नहीं,’’ सुहास ने उखड़े हुए स्वर में कहा.

‘‘उस कहानी का नायक एक मरे हुए चूहे से व्यापार करने का वादा कर के महाजन से उसे उधार ले जाता है. एक दिन वह सचमुच अपने आत्मबल से बहुत बड़ा व्यापारी बन जाता है.’’

‘‘बन गया होगा, मुझे क्यों सुना रहे हैं,’’ सुहास के चेहरे पर कई भाव तीव्रता से आजा रहे थे. बीचबीच में वह पुरवा को भी क्रोध से देख लेता था.

पापा ने गरदन हिला कर दुख के भाव व्यक्त किए और फिर धीरे से कहा, ‘‘प्रभात को देख कर यह कहानी याद आ गई. आंखों के बिना ही इतना उत्साही युवक,’’ कुछ रुक कर फिर बोले, ‘‘उस ने ठीक ही कहा, सुहास. बाजार में बने रहने के लिए बहुत परिश्रम की जरूरत होती है.’’

सुहास अचानक उठ कर कमरे में चला गया तो मां ने भी दुख से कहा, ‘‘कोई बात इसे समझ में ही नहीं आती है. जाने क्या करने वाला है.’’

पता नहीं थकान थी या दुर्बलता, पुरवा की तबीयत खराब हो गई थी. पापा ने सुहास से कहा था, ‘‘अपनी जिम्मे- दारियां खुद उठाना सीखो. पुरवा को बराबर डाक्टर के पास ले जाना है और उस के खानेपीने और आराम का ध्यान भी तुम्हें ही रखना है.’’

हालांकि पापा के कहने के बाद भी अधिकतर मां को ही पुरवा का पूरा ध्यान रखना पड़ता था. कभीकभी ही सुहास उसे ले कर डाक्टर के पास जा पाता था. पुरवा का रक्तचाप भी अधिक हो जाता था और यह गर्भवती महिला के लिए ठीक नहीं था. एक दिन सुहास के बहुत देर से घर आने पर पुरवा ने कहा, ‘‘सुहास, घर के मरीज का कोई महत्त्व नहीं होता है न. अभी बेला भाभी या और कोई बीमार होता तो तुम उन के लिए भागते हुए नहीं थकते.’’

सुहास ने चौंक कर उसे देखा. बोला, ‘‘यह क्या ऊटपटांग बोल रही हो. तुम से अधिक और किसी की चिंता क्यों होगी मुझे,’’ पुरवा ने कुछ कहा नहीं तो फिर कुछ खीजे से स्वर में बोला, ‘‘और ये बेला भाभी कहां से बीच में आ गईं. अगर मैं भी कहूं कि वह तुम्हारा प्रभात यहां क्या करने आया था. सब की नजरों में मुझे गिराने के लिए ही उसे बुलाया था न?’’

पुरवा कुछ पल चकित सी उसे देखती रही और कुछ व्यथित हो बोली, ‘‘सुहास, उसे मैं ने बुलाया नहीं था, वह तो तुम से मिलने आया था. विवाह पर नहीं आ सका था इसीलिए मिलना चाहता था.’’

‘‘लोग मिलने आते हैं पर शिक्षा देने लगते हैं,’’ सुहास अपने मन की ग्रंथि धीरेधीरे खोल रहा था.

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पुरवा को लगा कि धीरेधीरे उस का एक नए सुहास से परिचय हो रहा है. या शायद उस ने स्वयं ही सुहास को पहले समझने की चेष्टा नहीं की. इस ईर्ष्यालु और गैरजिम्मेदार सुहास से तो उस का नयानया परिचय हो रहा है. पुरवा को चुप रहना ही ठीक लगा. सुहास लगातार अपने मन की भड़ास निकाल रहा था. पुरवा के मन में तूफान उठ रहा था और सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी थी. जाने क्या हुआ कि पुरवा एकदम ही बेसुध हो गई. सुहास ने घबरा कर मां को बुलाया और शीघ्र ही डाक्टर को बुला लिया गया. पुरवा का ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था, अत: तुरंत ही उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

सुहास मन ही मन एक अपराधभाव से घिर गया. सोचता रहा, कहीं मेरी बकबक से ही पुरवा का यह हाल तो नहीं हो गया है?

कुछ घंटों के बाद पुरवा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा. सुहास ने एकांत देखते ही पुरवा के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘सौरी, पुरु, मैं सचमुच बहुत ही गैर- जिम्मेदार प्राणी हूं.’’

पुरवा में बोलने का साहस नहीं था. पलकें खोल कर सुहास को कुछ पल निहारा और अपनी हथेली बढ़ा कर धीरे से उस के अधरों पर रख दी. जाने कब सुहास ने अपने परिचितों को अस्पताल में होने की सूचना दे दी, एकएक कर के सभी आने लगे.

शाम को बेला भी आ गई, पर वह अकेली थी. आते ही बोली, ‘‘यह क्या पुरवा, तुम्हें जब डाक्टर ने पूरा आराम बताया है तो जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.’’

पुरवा चुपचाप देखती रही. मन में सोचा, ‘क्यों, अस्पतालों में तुम सब के लिए भागने को सुहास खाली नहीं है इसलिए मुझे अपना ध्यान खुद ही रखना चाहिए.’ अभी उस की सोच पूरी भी नहीं हुई थी कि एक धमाका और हुआ, बेला बोली, ‘‘कुछ दिन से सागर भी बहुत बीमार रहने लगे हैं. उस दिन सुहास उन्हें ले कर अस्पताल जाते हुए यही कह रहे थे कि पुरवा को भी जल्दीजल्दी अस्पताल ले जाना पड़ता है.’’

पुरवा के मन में विचित्र सी हलचल थी, फिर भी हंस कर कहा, ‘‘क्या हुआ है भाई साहब को?’’

‘‘क्या बताऊं,’’ बेला ने गहरी सांस भर कर कहा, ‘‘पक्का तो पता नहीं, टेस्ट चल रहे हैं, पर पथरी का शक है डाक्टर को.’’

‘‘आप को इस तरह उन्हें अकेला छोड़ कर यहां नहीं आना चाहिए था, भाभीजी,’’ जाने कैसे पुरवा कह गई.

‘‘अब यह कैसे हो सकता है पुरवा, आखिर तुम भी तो अपनी हो.’’

बेला ने साधिकार प्यार जताया, पर न जाने क्यों पुरवा को उस प्यार में तनिक भी ऊष्मा की अनुभूति नहीं हुई. कुछ समय से न जाने क्यों उसे ऐसे तमाम रिश्तों में स्वार्थ और दिखावा ही अधिक दिखाई देने लगा है. बिस्तर पर पड़ेपड़े वह ऐसी अनेक बातों में ही उलझी रहती है. कभी सुहास का अत्यधिक गैर- जिम्मेदाराना व्यवहार उस के मन को कचोटने लगता है. तब वह प्रभात को याद करने लगती है. एक व्यक्ति आंखों से देख नहीं सकता, पर अपने उत्तरदायित्वों को ले कर कितना सतर्क रहता है. कुछ कर दिखाने का उस का प्रबल दृष्टिकोण किसी के लिए भी प्रेरणा बन सकता है.

उसे याद आता है कि जब वह पहली बार सुहास से मिली थी तब उसे वह भी एक उत्साही युवक प्रतीत हुआ था, जो नौकरी खोज रहा था और हर किसी के काम आने को आतुर रहता था. तब उसे लगा था कि सुहास बहुत संवेदनशील व्यक्ति है. किसी का दुख वह देख नहीं पाता, पर अब उसे बारबार लगता है कि उस की सोच गलत थी. सुहास जीवन की सचाइयों से कतराना चाहता है, इसीलिए समाज सेवा का भार ढो कर व्यस्तता की आड़ लेता है.

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पुरवा का ध्यान अचानक भंग हो गया. बेला उस से पूछ रही थी, ‘‘क्या देवरजी कंप्यूटर का काम शुरू करने जा रहे हैं?’’

पुरवा ने चौंकते हुए कहा, ‘‘जी, पता नहीं.’’

‘‘अरे, तुम्हें ही पता नहीं, यह कैसे हो सकता है.’’

‘‘जो लोग उन्हें रोज नया काम करने की नेक सलाह देते हैं उन्हें ही पता होगा,’’ पुरवा का स्वर अचानक उखड़ गया.

बेला ने उस के स्वर की तिक्तता महसूस की और बोली, ‘‘क्या बात है पुरवा, कहीं यह शिकायत तुम्हें हम लोगों से तो नहीं है?’’

पुरवा ने बिना कुछ बोले करवट बदल ली. बेला कुछ और बोलती इस से पहले ही मां आ गईं.

सुहास भी उन के साथ था. बेला उस के साथ ही जाने को तत्पर हो उठी, ‘‘अब मैं चलूंगी, सुहास.’’

‘‘चलिए, भाभी, मैं आप को छोड़ देता हूं,’’ सुहास कार की चाबी नचाता चल दिया. पुरवा ने तिरछी आंखों से सब देखा और मन ही मन कुढ़ सी उठी. लगा कि अचानक ही तबीयत फिर बिगड़ रही है.

ऐसे कई अवसरों पर पुरवा स्वयं को संभालने का भरसक प्रयास करती रही है पर अस्वस्थ मन, टूटा हुआ शरीर, पुरवा को अचानक बहुत कमजोरी लगने लगी. जैसे मन डूब रहा हो, डूबता ही जा रहा हो.

इन दिनों हर छोटीबड़ी बात उसे अंदर ही अंदर मथने लगती थी. एक तरफ उत्तेजना से देह धड़कने लगती, साथ ही रक्तचाप भी बढ़ जाता.

मां ने देखा तो तुरंत डाक्टर को बुला लाईं. डाक्टर ने रक्तचाप देखा और तुरंत इंजेक्शन दिया. फिर मां को आवश्यक निर्देश दे कर चला गया. इंजेक्शन के प्रभाव से पुरवा की आंखों में नींद का खुमार छाने लगा था. मां घर फोन करने चली गई थीं. तभी सुहास आ गया. पीछे क्या हुआ यह जाने बिना ही वह क्रोध से बोला, ‘‘पुरवा, तुम्हें क्या होता जा रहा है. बेला भाभी से बात करने की तमीज भी भूल गई हो.’’

पुरवा ने मुंदती हुई आंखों को भरसक खोलने का प्रयास किया.

सुहास के शब्द तीर की तरह उस के दिल में चुभ रहे थे. सुहास कह रहा था, ‘‘मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी पत्नी एक मामूली औरत की तरह इतनी ओछी बातें कर सकती है.’’

सुहास अभी और भी कुछ कहता, तभी मां कमरे में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या शोर मचा रखा है, सुहास. दिखता नहीं उस की तबीयत कितनी खराब हो गई है.’’

पुरवा तब तक नींद की गोद में समा गई थी.

कई दिनों से आकाश पर बादल छाए थे, पर उस दिन अचानक ही बरसात की संभावना बढ़ गई. एक दिन पहले ही पुरवा घर वापस आई थी. उस रात से ही पुरवा चुप सी हो गई थी. न किसी से बात कर रही थी न कोई शिकायत, अंदर ही अंदर जैसे कोई मंथन चल रहा था.

मम्मीपापा देखने आए हुए थे, उन के सामने भी चुपचाप ही पड़ी हुई थी. मां ने कहा, ‘‘जाने क्या हुआ है पुरवा को. किसी से बात ही नहीं करती है.’’

‘‘कोई तकलीफ है क्या, बताती क्यों नहीं है बेटी,’’ पापा ने झुक कर कई बार पूछा. मम्मी उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं तो अचानक पुरवा के अश्रु बह चले.

‘‘यह क्या, पुरु? घबराते नहीं हैं. जल्दी ठीक हो जाओगी.’’

‘‘मुझे घर ले चलो, ममा,’’ अचानक पुरवा ने रोते हुए कहा.

‘‘ले चलेंगे बेटे, तुम ठीक तो हो जाओ. अभी तो बहुत कमजोर हो तुम,’’ मम्मी ने प्यार से कहा.

‘‘नहीं, मुझे आज ही चलना है.’’

मां पास ही खड़ी सब सुन रही थीं. बोलीं, ‘‘अगर कुछ दिन वहां रह कर यह जल्दी स्वस्थ हो सकती है तो आप जरूर ले जाइए.’’

सबकुछ आननफानन में हो गया. पुरवा का सामान पैक हुआ. वह मम्मीपापा के साथ उन के घर चली गई. सुहास को जैसे कुछ सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं मिला. उसे उदास देख कर मां ने कहा, ‘‘अब उदास क्यों बैठा है. कुछ दिनों को वहां जाने का भी तो उसे अधिकार है.’’

‘‘मैं कहां कुछ कह रहा हूं.’’

‘‘फिर इतना मुंह लटकाने की क्या बात है?’’ मां कमरा ठीक करने लगी थीं. कोई चुभन उन के मन में भी थी, इसी से काम करते हुए कुछकुछ बोलती जा रही थीं.

‘‘सब के पीछे भागता रहता है, पर पत्नी बीमार पड़ी है तो प्यार से बात भी नहीं कर सकता है. बेला को ले कर बातबात पर उसे डांटता रहता है इन दिनों.’’

‘‘मैं क्या करूं, कभीकभी मेरा दिमाग फिर जाता है,’’ सुहास ने सफाई दी.

‘‘जिंदगी को मजाक समझ रखा है. हर बात में बचपना, हर समय जल्द- बाजी,’’ मां की किसी बात का उत्तर उस के पास नहीं था, पर वह उन की बातों पर सोचने के लिए विवश अवश्य हो रहा था.

पुरवा की कमी उसे बहुत खल रही थी. फोन पर जब भी वह पुरवा से बात करता, वह ‘हां, हूं’ में ही उत्तर देती. सुहास का मन करता कि अभी जाए और पुरवा को जबरन वापस ले आए, पर उस का अस्वस्थ शरीर याद आते ही सुहास हताश हो कर बैठ जाता. काम में मन पहले भी नहीं लगता था, अब उदासी का बहाना ले कर वह घर बैठ गया. जब मां व पापा ने अधिक टोका तो घर से बाहर तो निकलने लगा पर दुकान पर कम, कभी बेला, कभी किसी और मित्र के घर जा कर समय व्यतीत करने लगा.

पुरवा धीरेधीरे स्वस्थ हो रही थी. सुहास ने एक दिन पूछा, ‘‘कब आऊं लेने?’’ तो पुरवा ने चुप्पी साध ली. बहुत बार पूछने पर बोली, ‘‘अभी मैं आराम कर रही हूं.’’

मम्मी पास ही बैठी थीं. बोलीं, ‘‘उसे यहां बुला लो. कुछ दिन वह भी रह जाएगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है,’’ पुरवा का क्रोध अभी तक उतरा नहीं था. मम्मी कुछ पल उसे देखती रहीं फिर धीरे से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं है, पुरु. उस ने कोई भूल की भी है तब भी इतना क्रोध दिखाना गलत है.’’

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मम्मी अपनी बात कह कर चली गईं पर पुरवा खिन्न मन से खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. थोड़ी दूर पर गुलमोहर का पेड़ था और दूर तक बोगनबेलिया की लंबी झाड़…लालसफेद और बैंगनी फूल एकसाथ मुसकरा रहे थे. उसे लगा कि प्रकृति कितनी सरलता से एकदूसरे के साथ सामंजस्य बैठा लेती है. यह गुलमोहर का पेड़ साक्षी है उस के प्यार का. जब भी सुहास पुरवा के साथ इस गुलमोहर के नीचे आता था, भविष्य के अनेक सपने संजोए जाते थे. कहां गए वह सारे सपने. वह कौन सी धुंध उन दोनों के मध्य फैल गई है कि सारे सपने कहीं खो गए हैं. उसे तो अभी कुछ भी नहीं भूला है, पर सुहास सबकुछ भूल गया है.

पुरवा खिड़की से हट कर पुन: बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी, ‘उस से कहां भूल हो गई, उस ने सुहास को गलत समझा या सुहास ही बदल गया है,’ एक गहरी सांस खींच कर उस ने आंखें मूंद लीं.       -क्रमश:

धारावाहिक उपन्यास- मंजिल

लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई  के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.

श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवार वाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.

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समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी में खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.

सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है.

पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

एक दिन श्वेता ससुराल से लड़झगड़ कर मायके आती है. पुरवा के समझाने पर वह उलटा पुरवा को ही सुहास द्वारा कुछ न कमाने का ताना देती है. यह बात सच थी इसीलिए पुरवा सब चुपचाप सुन लेती है लेकिन अब उस के दिमाग में श्वेता के शब्द गूंज रहे थे.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का अहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद अहसास से झूम उठता है. अब आगे…

गतांक से आगे…

उस रात पुरवा ने सुहास पर क्रोध करते हुए कहा, ‘‘तुम ने चारों तरफ इतना ढिंढोरा क्यों पीटा?’’

सुहास बहुत प्रसन्न था अत: उसे मनाते हुए बोला, ‘‘तुम्हें क्या बताऊं पुरू, मैं कितना खुश हूं. बैठेबैठे यही कल्पना  करता हूं कि एक नन्हा सा बच्चा जब ‘पापा’ कह कर बुलाएगा तब भला कैसा लगेगा.’’

पुरवा ने मुसकरा कर उसे देखा. बोली, ‘‘यह कल्पना तो मैं भी करती हूं सुहास. यह जो मेरे अंदर पनप रहा है, इस की रचनाकार मैं हूं, यह भावना ही विचित्र रोमांच से भर देती है.’’

‘‘नहीं पुरवा, रचनाकार तो कुदरत है. तुम और मैं तो बस माध्यम हैं पर यह पूरी तरह से हम दोनों का होगा. जैसे मैं अपने मातापिता से अपनी इच्छाएं पूरी करवाता हूं, वैसे ही…’’

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‘‘हां सुहास,’’ पुरवा ने उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘लेकिन सोचो जरा, अब हमारी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गई है.’’

सुहास अपने उत्साह में डूबा हुआ ही बोला, ‘‘तो क्या पुरवा, मैं बहुत मेहनत करूंगा, एक दिन फैक्टरी खड़ी करूंगा, फिर उसे भी आगे बढ़ाऊंगा. इस घर में कोई व्यापारी नहीं है, पर मैं बन कर दिखाऊंगा,’’ उसे इतना उल्लसित देख कर पुरवा भी गद्गद हो उठी.

धीरेधीरे पुरवा अपने तनमन में विचित्र सा बदलाव महसूस करने लगी. मन के अंदर ममता का स्रोत फूटने लगा था. कैसा होगा मेरा बच्चा? किस पर जाएगा. जब वह मां कहेगा तो कैसा लगेगा. अनेक बातें उसे गुदगुदाती रहतीं. और शरीर में विचित्र सी व्याकुलता, चलने में, उठने में उलझन सी, खानेपीने में अरुचि. पुरवा सोचती, यह कैसा आनंद है जो कष्ट भी साथ ही साथ लाया है. सुहास दुकान छोड़ कर बीच में ही भाग आता तो पुरवा क्रोध करती, ‘‘यह क्या, इतनी जल्दी आ गए.’’

सुहास उस के पेट पर प्यार से हाथ फेरता, ‘‘हां, मुझे इस की बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘बहानेबाज.’’ पुरवा मुसकरा देती.

‘‘तुम्हें तो दुकान छोड़ कर भागते रहने का बहाना चाहिए.’’

‘‘नहीं सच्च. मुझे लगा कि तुम भी मुझे याद कर रही हो, आखिर तुम्हारा ध्यान रखना भी तो मेरा ही कर्तव्य है न,’’ सुहास ने सफाई दी.

पुरवा ने प्यार से उसे देखा और कहा, ‘‘सुहास, तुम्हारे प्यार पर मुझे सदा बहुत गर्व होता रहा है. पर कभीकभी मुझे लगने लगता है कि तुम प्यार और कर्तव्य निभातेनिभाते अपने उत्तरदायित्व को भूल जाते हो.’’

सुहास ऐसे में उसे गुदगुदा कर बात पलटने की कोशिश करता और कहता, ‘‘मुझे वह भी याद है पुरू. अपने आने वाले बच्चे के लिए मुझे बहुत परिश्रम करना है. एक सफल व्यवसायी बनना है. वह कहते हैं न कि हर सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है,’’ सुहास पुरवा को चिढ़ाते हुए कहता, ‘‘तो तुम हो न मुझे घड़ीघड़ी सही राह दिखाने वाली. मुझे मालूम है कि तुम मुझे कभी भटकने नहीं दोगी,’’ ऐसे में सदा पुरवा गर्व से भर उठती. सोचती, सुहास को पसंद कर के मैं ने कोई गलती नहीं की है.

श्वेता अपनी यात्रा से वापस आ गई थी. अपने सुखद अनुभव सब को सुना कर वह फूली नहीं समाती थी. पुरवा भी सुनती और खुश होती. सोचती, शुक्र है कि श्वेता की नादानी अब राह नहीं खोज पाएगी. पुरवा का स्वास्थ्य प्राय: खराब हो जाता था. मां उस का बहुत ध्यान रखती थीं. सुहास भी दुकान से सीधे घर आ जाता था. कभीकभी वह पुरवा को घुमाने ले जाता. दोनों बहुत सी पुरानी यादों को दोहराते और भविष्य के सपने बुनते. उन स्वप्नों में एक नन्हा शिशु भी किलकारियां भरता.

एक दिन अंधमहाविद्यालय से पुरवा के लिए एक पत्र आया. राष्ट्रपति के सम्मुख एक विशेष आयोजन में विद्यालय के बच्चों को कार्यक्रम प्रस्तुत करना था. पुरवा को कार्यक्रम तैयार करवाने में सहायतार्थ बुलाया गया था. उस ने मां से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘जाने में तो कोई हर्ज नहीं है पर तुम्हारी तबीयत तो ठीक नहीं रहती है और रिहर्सल करवाने रोज जाना पड़ेगा.’’

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‘‘जानती हूं मम्मी, पर वहां जा कर शायद मैं अपनी अस्वस्थता के बारे में कुछ देर भूली रहूं.’’

मां हंस दी थीं. बोलीं, ‘‘हां, यह तर्क भी ठीक है.’’ इस तरह पुरवा को एक बार पुन: कुछ घंटों के लिए अपना पुराना समय वापस मिल गया था. उसे बस या स्कूटर से जानेआने की आज्ञा नहीं थी, इसलिए कभी कार से कभी टैक्सी से ही उसे जाना पड़ रहा था. उस के चेहरे पर पुरानी चमक वापस आ रही थी. आंखों में उत्साह झलकने लगा था. सुहास भी उन दिनों बहुत देर से घर वापस आता था. पुरवा सोचती कि वह घर पर नहीं मिलती है शाम को शायद इसीलिए वह देर से वापस आता है पर एक दिन वह घर पहुंची तो उसे बड़ी विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा. वह टैक्सी वाले को पैसे चुका कर जैसे ही पोर्च तक पहुंची तो ड्राइंगरूम से ऊंचीऊंची बहसों का स्वर उसे चौंका गया. जिस घर में कभी भी ऊंचे स्वर में बात नहीं की जाती है, वहां थोड़ा सा ऊंचा स्वर भी चौंकाने के लिए काफी था. वह हतप्रभ आंखों से सब को देखती हुई अंदर पहुंची तो सब चुप हो गए.

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने सुहास की तरफ देखते हुए पूछा. सुहास बिना कुछ बोले उठ कर अंदर चला गया. पुरवा ने मां व पापा की ओर दृष्टि घुमाई तो मां ने मुसकराने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘कोई विशेष बात नहीं है. हम लोग सुहास को व्यापार की ऊंचनीच समझा रहे थे.’’ मां ने थकी हुई पुरवा को बैठाते हुए स्नेह से उसे देखा, ‘‘और तुम्हारी रिहर्सल कैसी चल रही है?’’

पुरवा ने भी मुसकराहट बिखेर कर कहा, ‘‘ठीक चल रही है मम्मीजी. बस, कार्यक्रम समाप्त होते ही फुरसत हो जाएगी.’’

‘‘चलो अच्छा है. कुछ मन भी बहला रहता है तुम्हारा. उठ कर फ्रेश हो लो. सब खाने को बैठे हैं.’’

कमरे में पहुंची तो सुहास लेटा हुआ था. पुरवा सिरहाने बैठ गई और बोली, ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां, ठीक है सब. तुम नहाना चाहो तो नहा लो,’’ सुहास ने जैसे बात टालते हुए कहा. पुरवा को लगा, उस से कुछ छिपाया जा रहा है, पता नहीं क्यों? वह गर्भवती है इसलिए, अथवा कोई अन्य कारण है. मन में चिंता सी हो आई पर ऊपर से उस ने कुछ भी प्रदर्शित नहीं होने दिया. सुबह जब सुहास जाने लगा तब पुरवा ने मां को कहते सुना, ‘‘जो भी करना, सोचसमझ कर करना.’’

सारा दिन यह वाक्य उसे दंश देता रहा था. आखिर व्यापार संबंधी वह कौन सी समस्या है जो उसे नहीं बताई जा रही है. जब से सुहास ने अपनी दुकान खोली है, कभी उस ने यह नहीं देखा कि सुहास ने मम्मीपापा को व उसे कुछ ला कर दिया हो. उसे जेठानी की बात याद आ गई. हंसीहंसी में ही उन्होंने कहा था, ‘सुहास को तो मम्मीजीपापाजी के आंचल में दुबक कर रहने की आदत पड़ी हुई है.’

‘क्या मतलब?’ पुरवा ने आश्चर्य से पूछा था.

‘मतलब सीधा सा है. दुलार के मारे उसे जरा से कष्ट में देख नहीं सकते हैं पापाजी और मम्मीजी. जो मांगते हैं, तुरंत हाजिर कर देते हैं,’ इला भाभी ने कहा था.

‘पर ऐसा तो सभी मातापिता करते हैं,’ पुरवा ने तर्क किया था.

‘तुम्हारा कहना ठीक है, पर फिर भी हर मांबाप बच्चे को जीवन की कठिनाइयों से भागने को उचित नहीं समझते हैं बल्कि जो मातापिता बच्चों को हर मुश्किल का सामना करने के लिए प्रेरणा देते हैं, वही ठीक करते हैं.’

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इला की बात पर पुरवा ने आश्चर्य से उसे देखा था. तब विस्तार से इला भाभी ने समझाया था कि सुहास ने पढ़ाई में भी बहुत लापरवाही बरती. दोनों बड़े भाई चाहते थे कि उन की तरह ही सुहास भी प्रतियोगिताओं में बैठ कर एक ठोस राह पकड़े. पर सुहास का पढ़ाई में या शायद परिश्रम में अधिक मन नहीं लगता था. मम्मीजी व पापाजी ने भी इसे उस का बचपना कह कर टाल दिया. मम्मीजी कहतीं, ‘बच्चों के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए, समय आने पर कोई न कोई राह उसे भी मिल ही जाएगी.’

उस समय पुरवा ने इन बातों को गंभीरता से नहीं लिया था, पर अब कुछ समय से उन बातों को प्राय: याद कर लेती है. जैसे उस की हर आवश्यकता मम्मीजी अपने पर्स से पूरी करती रहती हैं. कभीकभी तो सुहास को भी मम्मीजी से ही रुपए लेते पुरवा ने देखा है.

कल शाम से जो हालात हैं घर में, उन्हें देख कर एक बार फिर उसे इला की बातें याद आ रही हैं, तो क्या वह यह सोचे कि सुहास परिश्रम करने से बचता रहता है, पर व्यापार का पहला सिद्धांत ही यह है कि व्यक्ति को परिश्रमी, साहसी व उद्यमी होना चाहिए. सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि उसे कुछ भी बताया नहीं जा रहा था. इतना अधिक अस्वस्थ भी नहीं है वह कि उसे कुछ भी  बताया ही न जा सके.

शाम को वह कार्यक्रम के अंतिम चरण की तैयारी करने गई थी. रविवार को कार्यक्रम प्रस्तुत होना था. सभी बच्चे पूरी लगन के साथ तैयारी में जुटे हुए थे.

बीच के समय में रोज चाय ले कर मदन आया करता था पर उस शाम यकायक कपड़ों में सजाधजा, चुस्तदुरुस्त सा जो युवक चाय ले कर आया, उसे देख कर पुरवा चौंक उठी. उस युवक ने चाय मेज पर रख दी और टटोल कर पुरवा के पैर छूने लगा तो पुरवा संकोच से बोली, ‘‘नहींनहीं, यह क्या?’’

‘‘दीदी, आप ने पहचाना नहीं क्या?’’ युवक वहीं फर्श पर बैठ गया. पुरवा ने सोचते हुए कहा, ‘‘तुम प्रभात हो न.’’

युवक मुसकराया. उस के चेहरे की हर शिकन पर उत्साह की चमक थी. बोला, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘कैसे हो प्रभात?’’ पुरवा ने प्रसन्नता से पूछा.

‘‘आप की कृपा से बहुत अच्छा हूं दीदी,’’ उस के स्वर में प्रसन्नता और उत्साह साथसाथ तैर रहे थे. पुरवा को भी उसे देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. एक दिन यही प्रभात बहुत ही रोंआसे स्वर में उस से बोला था, ‘दीदी, मैं शीघ्र से शीघ्र अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं. मेरी मां बहुत बीमार रहती हैं. पिता शराब में अपना वेतन फूंक देते हैं. घर में 2 भाई और एक बहन भी हैं.’

उस दिन के प्रभात में और आज के प्रभात में कितना अंतर था. पुरवा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा व्यापार कैसा चल रहा है प्रभात.’’

उस ने दोनों हाथ जोड़ लिए और गद्गद स्वर में बोला, ‘‘आप का ही आशीर्वाद है दीदी. अंकल ने जो राह दिखाई थी, उसी पर चल कर आज मेरी अपनी छोटी सी कंपनी है, जहां बड़े पैमाने पर देशविदेश के लिए रेडीमेड कपड़े तैयार होते हैं.’’

पुरवा ने सुना तो हतप्रभ रह गई. एक व्यक्ति जिसे कुदरत ने आंखों की रोशनी नहीं दी, फिर भी वह जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हो जाना चाहता था. पुरवा ने अपने पापा के सामने उस की समस्या रखी और उन्होंने अपनी गारंटी पर प्रभात को बैंक से ऋण दिलवाया और रेडीमेड कपड़ों के बनाने और बेचने में सहायता की. प्रभात में साहस और लगन की कमी नहीं थी. अत: बहुत शीघ्र ये सारे कार्य उस ने कुशलतापूर्वकसंभाल लिए और सहाय साहब को अपनी सहायता से मुक्त कर दिया.

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इस बीच पुरवा के जीवन में बहुत से परिवर्तन हुए. वह एम.ए. की परीक्षा में व्यस्त हो गई, फिर उस के जीवन में सुहास आ गया और वह उस की पत्नी बन गई. प्रभात से मिले उसे बहुत लंबा अरसा हो गया था. कई वर्षों से वह अंध- महाविद्यालय से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसे वहां बहुत सम्मान प्राप्त था. प्रभात ने इतने थोड़े समय में इतनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी, यह देख कर पुरवा हतप्रभ थी. मन ही मन में वह प्रभात की तुलना सुहास से कर रही थी. सुहास को भी तो पापा ने पूरी सहायता दी थी. स्वयं उस के मम्मीपापा भी बराबर उस का ध्यान रखते हैं पर अभी तक ऐसा कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया कि लगे कि सुहास एक दिन सफल व्यापारी बन पाएगा. ऊपर से कुछ नई समस्या भी शायद उत्पन्न हो गई है जिस से उसे दूर रखा जा रहा है, तो क्या वह समझे कि सुहास एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति है? या वह जीवन संघर्ष से दूर भागने का आदी है.

पुरवा के मन में उथलपुथल मची हुई थी. एक मन सुहास के प्यार में डूबा हुआ था, पर सोच को क्या करे, जो सच और झूठ के बीच कसमसा रहा था. प्यार करते समय कहां पता चलता है कि जीवन को क्या दिशा मिलने वाली है. कभीकभी सोचती है कि वह भी सुहास की तरह ही मान कर चले कि जीवन तो आनंद से व्यतीत हो रहा है. जो चाहती है मिल जाता है. घूमनाफिरना भी हो जाता है. बहुत से मित्र, बहुत सारे संबंधी हैं, जिन से निरंतर मिलनाजुलना चलता रहता है. प्यार करने वाला पति व प्यार देने वाले सासससुर भी हैं और क्या चाहिए.

पर उस का आत्मसम्मान सदा उस के आड़े आ जाता है. विवाह के उपरांत पति के उत्तरदायित्व पत्नी के प्रति बढ़ जाते हैं. लेकिन सुहास के पास किसी भी उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए समय नहीं है. उसे डाक्टर के पास अधिकतर मां ले जाती हैं. सुहास को तो अपने परिचितों की सेवाटहल से ही फुरसत नहीं है.

प्रभात की प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी. पुरवा की तंद्रा भंग करते हुए उस ने कहा, ‘‘दीदी, आप कैसी हैं?’’

‘‘बहुत अच्छी हूं प्रभात. तुम से मिल कर बहुत खुशी हो रही है.’’

‘‘हमें भी बहुत याद आती थी दीदी, पर व्यापार जमाने में बहुत झंझट थे, आप से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘वह भी तो जरूरी था प्रभात. तुम ने इतना परिश्रम कर के अपने नाम को सार्थक कर दिखाया है,’’ पुरवा ने कहा.

‘‘जो कुछ भी है दीदी, आप की और अंकल की ही कृपा है. मुझे तो बस कर्म करना था. अभी तो बस नींव पड़ी है. छोटी सी फैक्टरी लगा ली है, शायद किसी दिन और भी कुछ कर सकूं,’’ प्रभात ने चाय का नया कप बना कर पुरवा को दिया था.

‘‘अच्छा दीदी, आप के पति कैसे हैं?’’

प्रभात ने पूछा तो पुरवा मुसकरा दी, ‘‘बहुत अच्छे हैं प्रभात. हम ने एकदूसरे को पसंद कर के विवाह किया है,’’ पुरवा की बात सुन कर प्रभात मुसकरा दिया.

‘‘आप की शादी की बात पता चली थी, पर जरा देर से. तब से ही मन था कि आप से और जीजाजी से मिलूं.’’

प्रभात सुहास के बारे में भी पूछता रहा. जब वह जाने लगा तो पुरवा ने कहा, ‘‘एक दिन हमारे घर जरूर आना, मैं सुहास से तुम्हें मिलवाना चाहती हूं.’’

‘‘हां दीदी, अवश्य आऊंगा,’’ प्रभात पैर छू कर चला गया पर पुरवा सोच में डूब गई. ऐसे कर्मठ लोग उसे बहुत अच्छे लगते हैं.

उस शाम के शोरगुल का कारण पुरवा को बहुत शीघ्र पता चल गया था. कारण जान कर वह हत्प्रभ रह गई थी. सुहास अब पुराना सब बेच कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता था. उसे किन लोगों ने यह सलाह दी थी, यह बात पता नहीं चली थी.

पुरवा सोच में पड़ गई थी. जाने कैसेकैसे मित्र बनाए हैं इन दिनों सुहास ने. कभीकभी घर पर भी आ धमकते हैं. जितनी देर बैठते हैं वे सब चाय के साथ अपनी नेक सलाहें देते रहते हैं. कभीकभी मां भी उन की सलाहों से परेशान हो जाती हैं.

मां और पापा के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दिखाई देता था. शायद उन्होंने भी कभी यह नहीं सोचा था कि उन का लाड़प्यार सुहास को इतना गैरजिम्मेदार बना देगा.

पुरवा के मन में भी लगातार हलचल मची हुई थी.

उस के गर्भ में सुहास का बच्चा था. सुहास को कम से कम अपने इस नए उत्तरदायित्व के प्रति सचेत होना चाहिए था. मां व पापाजी कब तक उस के सारे उत्तरदायित्व निभाते रहेंगे.

सुहास के बारे में सोचतेसोचते पुरवा को प्रभात का ध्यान आ गया. कुदरत ने उसे आंखें नहीं दी हैं, फिर भी वह जीवन के प्रति कितना गंभीर है. अपने मातापिता का दुख दूर करने के लिए उस ने राह बनाई और उस में सफलतापूर्वक आगे बढ़ भी रहा है. उस दिन भी पुरवा यही सोचती रही थी कि विकलांग हो कर भी प्रभात में आत्म- विश्वास कूटकूट कर भरा हुआ है. और तभी उसे यह भी सोचना पड़ा था कि क्या सुहास में आत्मविश्वास की कमी है. पहले तो कभी ऐसा नहीं लगा था फिर अब…अपनी नित नई सोच से घबरा कर कभीकभी वह अपना आत्म- विश्लेषण भी कर बैठती है.

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कई बार अपनेआप से उस ने प्रश्न किया है, ‘पुरवा, साथ रह कर क्या तुम सुहास में बस त्रुटियां खोजने लगी हो? तुम्हारे प्यार के वे सारे दावे कहां खो गए हैं?’

कई बार चौंक कर वह यह भी सोचती है, कहीं ऐसा न हो कि भविष्य की चिंता में वर्तमान भी हाथ से छूट जाए. यही सब सोच कर पुरवा ने निर्णय लिया कि वह सुहास को प्यार से समझाने का प्रयास करेगी. वह उस दिन व्यग्रता से सुहास की प्रतीक्षा करने लगी.

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