कोई नहीं

लेखक- मधुप चौधरी

दूसरी ओर से दिनेश की घबराहट भरी आवाज आई, ‘‘पापा, आप लोग जल्द चले आइए. बबिता ने शरीर पर मिट्टी का तेल उडे़ल कर आग लगा ली है.’’

‘‘क्या?’’ रामगोपाल को काठ मार गया. शंका और अविश्वास से वह चीख पडे़, ‘‘वह ठीक तो है?’’ और इसी के साथ उन की आंखों के सामने वे घटनाएं उभरने लगीं जिन की वजह से आज यह स्थिति बनी है.

रामगोपाल ने अपनी बेटी बबिता का विवाह 6 साल पहले अपने ही शहर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में किया था. उन के समधी गिरधारी लाल भी व्यवसायी थे और मुख्य बाजार में उन की कपडे़ की दुकान थी, जिस पर वह और उन का छोटा बेटा राजेश बैठते थे.

बड़ा बेटा दिनेश एक फर्म में चार्टर्ड एकाउंटेंट था और अच्छी तनख्वाह पाता था. रामगोपाल की बेटी, बबिता भी कामर्स से गे्रजुएट थी अत: दोनों परिवारों में देखसुन कर शादी हुई थी.

रामगोपाल ने अपनी बेटी बबिता का धूमधाम से विवाह किया. 2 बेटों के बीच वही एकमात्र बेटी थी इसलिए अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दानदहेज भी दिया जबकि समधी गिरधारी लाल की कोई मांग नहीं थी. दिनेश की सिर्फ एक मांग फोरव्हीलर की थी, सो रामगोपाल ने उन की वह मांग भी पूरी कर दी थी.

शादी के कुछ दिनों बाद ही ससुराल में बबिता के आचरण और व्यवहार पर आपत्तियां उठनी शुरू हो गईं. इसे ले कर दोनों परिवारों में तनाव बढ़ने लगा. गिरधारी लाल के परिवार में बबिता समेत कुल 5 लोग थे. गिरधारी लाल, उन की पत्नी सुलोचना, दिनेश और राजेश तथा नई बहू बबिता.

सुलोचना पारंपरिक संस्कारयुक्त और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं. वह सुबह उठतीं, स्नान करतीं और घरेलू कामों में जुट जातीं. वह चाहती थीं कि उन की बहू भी उन्हीं संस्कारों को ग्रहण करे पर बबिता के लिए यह कठिन ही नहीं, दुष्कर काम था. वास्तविकता यह थी कि वह ऐसे संस्कारों को पोंगापंथी और ढोंग समझती थी और इस के खिलाफ थी.

बबिता आधुनिक विचारों की थी तथा स्वाधीन रहना चाहती थी. रात में देर तक टेलीविजन के कार्यक्रम देखती, तो सुबह साढे़ 9 बजे से पहले उठ नहीं पाती. और जब तक वह उठती थी गिरधारी लाल और राजेश नाश्ता कर के दुकान पर जा चुके होते थे. दिनेश भी या तो आफिस जाने के लिए तैयार हो रहा होता या जा चुका होता.

सास सुलोचना को अपनी बहू के इस आचरण से बहुत तकलीफ होती. शुरू में तो उन्होंने बहू को घर के रीतिरिवाजों को अपनाने के लिए बहुत समझाया, पर बाद में उस की हठवादिता देख कर उस से बोलना ही छोड़ दिया. इस तरह एक घर में रहते हुए भी सासबहू के बीच बोलचाल बंद हो गई.

घर में काम के लिए नौकर थे, खाना नौकरानी बनाती थी. वही जूठे बरतनों को मांजती थी और कपडे़ भी धो देती. बबिता के लिए टेलीविजन देखने और समय बिताने के सिवा कोई दूसरा काम नहीं था. उस की सास सुलोचना कुछ न कुछ करती ही रहती थीं. कोई काम नहीं होने पर पुस्तकें ले कर पढ़ने बैठ जातीं. वह इस स्थिति की अभ्यस्त थीं पर बबिता को यह भार लगने लगा. एक दिन हालात से ऊब कर बबिता अपने मायके फोन मिला कर अपनी मम्मी से बोली, ‘मम्मी, आप ने कहां, कैसे घर में मेरा विवाह कर दिया? यह घर है या जेलखाना? मर्द तो काम पर चले जाते हैं, यहां दिन भर बुढि़या गिद्ध जैसी आंखें गड़ाए मेरी पहरेदारी करती रहती है. न कोई बोलने के लिए है न कुछ करने के लिए. ऐसे में तो मेरा दम घुट जाएगा, मैं खुदकुशी कर लूंगी.’

‘अरे नहीं, ऐसी बातें नहीं बोलते बेटी,’ उस तरफ से बबिता की मम्मी लक्ष्मी ने कहा, ‘यदि तुम्हारी सास तुम से बातें नहीं करती हैं तो अपने पति के आफिस जाने के बाद तुम यहां चली आया करो. दिन भर रह कर शाम को पति के लौटने के समय वापस चली जाना. ससुराल से मायका कौन सा दूर है. बस या टैक्सी से चली आओ. वे लोग कुछ कहेंगे तो हम उन्हें समझा लेंगे.’

यह सुनते ही बबिता की बाछें खिल गईं. उस ने झटपट कपडे़ बदले, पर्स लिया और अपनी सास से कहा, ‘मम्मी का फोन आया था, मैं मायके जा रही हूं. शाम को आ जाऊंगी,’ और सास के कुछ कहने का भी इंतजार नहीं किया, कदम बढ़ाती वह घर से निकल पड़ी.

इस के बाद तो यह उस की रोज की दिनचर्या हो गई. शुरू में दिनेश ने यह सोच कर इस की अनदेखी की कि घर में अकेली बोर होने से बेहतर है वह अपनी मां के घर घूम आया करे पर बाद में मां और पिताजी की टोकाटाकी से उसे भी कोफ्त होने लगी.

एक दिन बबिता ने उसे बताया कि वह गाड़ी चलाना सीखने के लिए ड्राइविंग स्कूल में एडमिशन ले कर आ रही है. उस ने दिनेश को एडमिशन का फार्म भी दिखाया. हुआ यह कि बबिता के बडे़ भाई नंद कुमार ने उस से कहा कि रोजरोज बस या टैक्सी से आनाजाना न कर के वह अपनी कार से आए और इस के लिए ड्राइविंग सीख ले. आखिर पापा ने दहेज में कार किसलिए दी है.

बबिता को यह बात जंच गई. पर दिनेश इस पर आगबबूला हो गया. अपनी नाराजगी और गुस्से को वह रोक भी नहीं पाया और बोल पड़ा, ‘तुम्हारे पापा ने कार मुझे दी है.’

‘हां, पर वह मेरी कार है, मेरे लिए पापा ने दी है.’

दिनेश बबिता का जवाब सुन कर दंग रह गया. उस ने अपने गुस्से पर काबू करते हुए विवाद को तूल न देने के लिए समझौते का रुख अपनाते हुए कहा, ‘ठीक है पर ड्राइविंग सीखने की क्या जरूरत है. गाड़ी पर ड्राइवर तो है?’

‘मुझे किसी ड्राइवर की जरूरत नहीं. मैं खुद चलाना सीखूंगी और मुझे कोई भी रोक नहीं सकेगा. मैं तुम्हारी खरीदी हुई गुलाम नहीं हूं.’

दिनेश ने इस के बाद एक शब्द भी नहीं कहा. बबिता को कुछ कहने के बजाय उस ने अपने पिता को ये बातें बता दीं. गिरधारी लाल ने तुरंत रामगोपाल को फोन मिलाया और उस से बबिता के व्यवहार की शिकायत की तो उधर से उन की समधिन लक्ष्मी का जवाब आया, ‘भाईसाहब, आप के लड़के से बेटी ब्याही है, कोई बेच नहीं दिया है जो उस पर हजार पाबंदियां लगा रखी हैं आप ने. यह मत करो, वह मत करो, पापामम्मी से बातें मत करो, उन के घर मत जाओ, क्या है यह सब? हम ने तो अपने ही शहर में इसीलिए बेटी की शादी की थी कि वह हमारे पास आतीजाती रहेगी, हमारी नजरों के सामने रहेगी.’

‘पर समधिनजी,’ फोन पर गिरधारी लाल ने जोर दे कर अपनी बात कही, ‘यदि आप की बेटी बराबर आप के घर का ही रुख किए रहेगी तो वह अपना घर कब पहचानेगी? संसार का तो यही नियम है कि बेटी जब तक कुंआरी है अपने बाप की, विवाह के बाद वह ससुराल की हो जाती है.’

‘यह पुरानी पोंगापंथी बातें हैं. मैं इसे नहीं मानती. रही बात बबिता की तो वह जब चाहेगी यहां आ सकती है और वह गाड़ी चलाना सीखना चाहती है तो जरूर सीखे. इस से तो आप लोगों के परिवार को ही फायदा होगा.’

गिरधारी लाल ने इस के बाद फोन रख दिया. उन के चेहरे पर चिंता की गहरी रेखा खिंच आई थीं. परिवार वाले चिंतित थे कि इस स्थिति का परिणाम क्या होगा?

दिनेश ने भी इस घटना के बाद चुप्पी साध ली थी. सास सुलोचना ने सब से पहले बहू से बोलना बंद किया था, उस के बाद गिरधारी लाल भी बबिता से सामना होने से बचने का प्रयत्न करते. राजेश को भाभी से बातें करने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. उस की जरूरतें मां, नौकर और नौकरानी से पूरी हो जाती थीं.

दिनेश और बबिता के बीच सिर्फ कभीकभार औपचारिक शब्दों का संबंध रह गया था. आफिस से छुट्टी के बाद वह ज्यादा समय बाहर ही गुजारता, देर रात में घर लौटता और खाना खा कर सो जाता.

इस बीच बबिता ने गाड़ी चलाना सीख लिया था. वह सुबह ही गाड़ी ले कर मायके चली जाती और रात में देर से लौटती. कभी उस का फोन आता, ‘आज मैं आ नहीं सकूंगी.’ बाद में इस तरह का फोन आना भी बंद हो गया.

कानूनी और सामाजिक तौर पर बबिता गिरधारी लाल के परिवार की सदस्य होने के बावजूद जैसे उस परिवार की ‘कोई नहीं’ रह गई थी. यह एहसास अंदर ही अंदर गिरधारी लाल और उन की पत्नी सुलोचना को खाए जा रहा था कि उन के बेटे का दांपत्य जीवन बबिता के निरंकुश एवं दायित्वहीन आचरण तथा उस के ससुराल वालों की हठवादिता से नष्ट हो रहा है.

आखिर एक दिन दिनेश ने दृढ़ स्वर में बबिता से कहा, ‘हम दोनों विपरीत दिशाओं में चल रहे हैं. इस से बेहतर है तलाक ले कर अलग हो जाएं.’

दिनेश को तलाक लेने की सलाह उस के पिता गिरधारी लाल ने दी थी. वह अपने बेटे के बिखरते वैवाहिक जीवन से दुखी थे. उन्होंने यह सलाह भी दी थी कि यदि बबिता उस के साथ अलग रह कर अपनी अलग गृहस्थी में सुखी रह सकती है तो वह ऐसा ही करे. पर दिनेश को यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं था कि वह अपने मातापिता को छोड़ कर अलग हो जाए.

दिनेश के मुंह से तलाक की बात सुन कर बबिता सन्न रह गई. उसे जैसे इस प्रकार के किसी प्रस्ताव की अपेक्षा नहीं थी. इस में उसे अपना घोर अपमान महसूस हुआ.

मायके आ कर बबिता ने अपने मम्मीपापा और भाइयों को दिनेश का प्रस्ताव सुनाया तो सभी भड़क उठे. रामगोपाल को जहां इस चिंता ने घेर लिया कि इतना अच्छा घरवर देख कर और काफी दानदहेज दे कर बेटी की शादी की, वहां इतनी जल्दी तलाक की नौबत आ गई. समाज और बिरादरी में उन की क्या इज्जत रहेगी? पर लक्ष्मी काफी उत्तेजित थीं. वह चीखचीख कर बारबार एक ही वाक्य बोल रही थीं, ‘उन की ऐसी हिम्मत…उन्हें इस का मजा चखा कर रहूंगी.’

उधर बबिता के भाइयों नंद कुमार और नवल कुमार तथा उन की पत्नियों को दूसरी चिंता ने घेर लिया कि बबिता यदि उन के घर में आ कर रहने लगी तो भविष्य में वह पापामम्मी की संपत्ति में दावेदार हो जाएगी और उसे उस का हिस्सा भी देना पडे़गा. इसलिए दोनों भाइयों ने आपस में सुलह कर बबिता से कहा कि दिनेश ने तलाक की बात कही है तो तुम उसे तलाक के लिए आवेदन करने दो. अपनी तरफ से बिलकुल आवेदन मत करना.

‘भैया, मेरा भी उस घर में दम घुट रहा है,’ बबिता बोली, ‘मैं खुद तलाक लेना चाहती हूं और अपनी मरजी का जीवन जीना चाहती हूं. इस अपमान के बाद तो मैं हरगिज वहां नहीं रह सकती.’

नंद कुमार ने कठोर स्वर में कहा, ‘ऐसी गलती कभी मत करना. तुम खुद तलाक लेने जाओगी तो ससुराल से कुछ भी नहीं मिलेगा. दिनेश तलाक लेना चाहेगा तो उसे तुम्हें गुजाराभत्ता देना पडे़गा.’

‘गुजाराभत्ता की मुझे जरूरत नहीं,’ बबिता बोली, ‘मैं पढ़ीलिखी हूं, कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगी और अपना खर्च चला लूंगी पर दोबारा उस घर में वापस नहीं जाऊंगी.’

‘नहीं, अभी तुम्हें वहीं जाना होगा और वहीं रहना भी होगा,’ इस बार नवल कुमार ने कहा.

बबिता ने आश्चर्य से छोटे भाई की ओर देखा. फिर बारीबारी से मम्मीपापा व भाभियों की ओर देख कर अपने स्वर में दृढ़ता लाते हुए वह बोली, ‘दिनेश ने तलाक की बात कह कर मेरा अपमान किया है. इस अपमान के बाद मैं उस घर में किसी कीमत पर वापस नहीं जाऊंगी.’

समझाने के अंदाज में पर कठोर स्वर में नंद कुमार ने कहा, ‘तुम अभी वहीं उसी घर में रहोगी, जब तक  कि तुम्हारे तलाक का फैसला नहीं हो जाता. तुम डरती क्यों हो? सभी तुम्हारे साथ हैं. शादी के बाद से कानूनन वही तुम्हारा घर है. देखता हूं, तुम्हें वहां से कौन निकालता है.’

बडे़ भैया की बातों में छिपी धमकी से आहत बबिता ने अपनी मम्मी की ओर इस उम्मीद से देखा कि वही उस की मदद करें. मम्मी ने बेटी की आंखों में व्याप्त करुणा और दया की याचना को महसूस करते हुए नंद कुमार से कहा, ‘बबिता यहीं रहे तो क्या हर्ज है?’

‘हर्ज है,’ इस बार दोनों भाइयों के साथ उन की पत्नियां भी बोलीं, ‘ब्याही हुई बेटी का घर ससुराल होता है, मायका नहीं. बबिता को अपने पति या ससुराल वालों से कोई हक हासिल करना है तो वहीं रह कर यह काम करे. मायके में रह कर हम लोगों की मुसीबत न बने.’

मां ने सिर नीचे कर लिया तो बबिता ने अपने पापा की ओर देखा. बेटी को अपनी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देख कर उन्हें मुंह खोलना ही पड़ा. उन्होेंने कहा, ‘तुम्हारे भाई लोग ठीक ही कह रहे हैं बबिता. बेटी का विवाह करने के बाद पिता समझता है कि उस ने एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली. पर इस के बाद भी उसे बेटी की चिंता ढोनी पडे़ तो उस के लिए इस से बड़ी दूसरी पीड़ा नहीं हो सकती.’

बबिता पढ़ीलिखी थी. उस में स्वाभिमान था तो अहंकार भी था. उस ने अपने भाइयों और मम्मीपापा की बातों का अर्थ समझ लिया था. इस के पश्चात उस ने किसी से कुछ नहीं कहा. वह उठी और चली गई. उस को जाते हुए किसी ने नहीं रोका.

अचानक फोन की घंटी फिर बजने लगी तो रामगोपालजी चौंके और लपक कर फोन उठा लिया.

दिनेश की घबराहट भरी आवाज थी, ‘‘पापा, आप लोग जल्दी आ जाइए न. बबिता ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर आग लगा ली है.’’

रामगोपाल का सिर घूमने लगा. फिर भी उन्होंने फोन पर पूछा, ‘‘कैसे हुआ यह सब? अभी तो कुछ समय पहले ही वह यहां से गई है.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम,’’ दिनेश की आवाज आई, ‘‘वह हमेशा की तरह आप के घर से लौट कर अपने कमरे में चली गई थी और उस ने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया था. अंदर से धुआं निकलता देख कर हमें संदेह हुआ. दरवाजा तोड़ कर हम अंदर घुसे तो देखा, वह जल रही थी. क्या वहां कुछ हुआ था?’’

इस सवाल का जवाब न दे कर रामगोपाल ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘हम लोग तुरंत आ रहे हैं.’’

लक्ष्मी ने बिस्तर पर लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘किस का फोन था?’’

‘‘दिनेश का,’’ रामगोपाल ने घबराहट भरे स्वर में कहा, ‘‘बबिता ने आग लगा ली है.’’

इतना सुनते ही लक्ष्मी की चीख निकल गई. मम्मी की चीख सुन कर नंद कुमार और नवल कुमार भी वहां पहुंच गए.

नंद कुमार ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है?’’

रामगोपाल ने जवाब दिया, ‘‘बबिता ने यहां से लौटने के बाद शरीर पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर आग लगा ली है, दिनेश का फोन आया था,’’ इतना कह कर रामगोपाल सिर थाम कर बैठ गए, फिर बेटों की तरफ देख कर बोले, ‘‘ससुराल से अपमानित बेटी ने मायके में रहने की इजाजत मांगी थी. तुम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उसे यहां रहने नहीं दिया. यहां से भी अपमानित होने के बाद उस ने आत्महत्या कर ली.’’

‘‘चुप कीजिए,’’ बडे़ बेटे नंद कुमार ने जोर से अपने पिता को डांटा, ‘‘आप ऐसा बोल कर खुद भी फंसेंगे और साथ में हम सब को भी फंसा देंगे. बबिता ने खुदकुशी नहीं की है, उसे मार डाला गया है. बबिता के ससुराल वालों ने दहेज के खातिर मिट्टी का तेल उडे़ल कर उसे जला डाला है.’’

रामगोपाल ने आशा की डोर पर झूलते हुए कहा, ‘‘चलो, पहले देख लें, शायद बबिता जीवित हो.’’

‘‘पहले आप थाने चलिए,’’ नंद कुमार ने फैसले के स्वर मेंकहा, ‘‘और तुम भी चलो, मम्मी.’’

रामगोपाल का परिवार जिस समय गिरधारी लाल के मकान के सामने पहुंचा, वहां एक एंबुलेंस और पुलिस की एक गाड़ी खड़ी थी. मकान के सामने लोगों की भीड़ जमा थी. जली हुई बबिता को स्ट्रेचर पर डाल कर बाहर निकाला जा रहा था. गाड़ी रोक कर रामगोपाल, लक्ष्मी, नंद कुमार तथा नवल कुमार नीचे उतरे. सफेद कपडे़ में ढंकी बबिता के चेहरे की एक झलक देखने के लिए रामगोपाल लपके पर नंद कुमार ने उन्हें रोक लिया.

थोड़ी देर बाद ही पुलिस के 4 सिपाही और एक दारोगा गिरधारी लाल, दिनेश, सुलोचना और राजेश को ले कर बाहर निकले. उन चारों के हाथों में हथकडि़यां पड़ी हुई थीं. दिनेश, बबिता को बचाने की कोशिश में थोड़ा जल गया था. रामगोपाल की नजर दामाद पर पड़ी तो जाने क्यों उन की नजर नीची हो गई.

फैसले

लेखक-संगीता बवेजा

‘‘नानी, जैसे फिल्मों में दिखाते हैं वैसे ही मां भी दुलहन बनेंगी?’’ उस ने फिर पूछा.

‘‘मुझे नहीं पता,’’ मीना ने नाती को टालते हुए कहा.

4 वर्ष का सौरभ दुनियादारी से तो बेखबर था लेकिन जो कुछ घर में हो रहा था उसे शायद वह सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा था. स्वीकार तो घर में कोई नहीं कर पा रहा था लेकिन इस के सिवा दूसरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था. मीना रोने लगी तो सौरभ उन के नजदीक खिसक आया और उन के आंसू पोंछता हुआ बोला, ‘‘नानी, रोओ मत. अब मैं आप से कुछ नहीं पूछूंगा. बस, एक बात और बता दो, जिन से मम्मी की शादी हो रही है वह कौन हैं?’’

मीना स्वर को संयत करती हुई बोलीं, ‘‘वह तेरे पापा हैं.’’

‘‘अच्छा, मैं अब पापामम्मी दोनों के साथ रहूंगा,’’ सौरभ खुशी से उछल पड़ा तो मीना उस का चेहरा देखती रह गईं.

अंजली अपनी मां और बेटे की बातें बगल के कमरे में बैठी सुन रही थी. उस के हाथ का काम छूट गया और वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गई. अतीत की काली परछाइयां जैसे उस के चारों ओर मंडराने लगी थीं.

5 साल पहले भी घर में उस की शादी की तैयारियां चल रही थीं. तब अंजली के मन में उत्साह था. आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे. तब गाजेबाजे के साथ वह विवेक की पत्नी बन अपने ससुराल पहुंची. जहां सभी ने खुले दिल से उस का स्वागत किया था. विवेक अपने मातापिता का इकलौता लड़का था. शादी के दूसरे दिन विवेक के 10-12 दोस्त उन्हें बधाई देने आए थे. नए जोडे़ को ले कर सब दोस्त मजाक कर रहे थे. उन्हीं में एक ऐसा भी दोस्त था, जिसे देख कर अंजली सहज नहीं हो पा रही थी, क्योंकि जितने समय सब बैठे थे उस की दोनों आंखें उसे घूरती ही रहीं.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

‘विवेक, मुझे तो तुझ से जलन हो रही है,’ सब के बीच सूरज बोला, ‘तू इतनी सुंदर बीवी जो ले कर आया है. अब मेरे नसीब में जाने कौन है?’ सूरज ने नजरें अंजली पर जमाए हुए कहा तो सब हंस पडे़.

‘चिंता मत कर, तुझे अंजली भाभी से भी ज्यादा खूबसूरत बीवी मिलेगी,’ दोस्तों के बीच से एक दोस्त की आवाज सुनाई दी तो सूरज ने नाटकीय अंदाज में अपने दोनों हाथ ऊपर हवा में लहरा दिए. एक बार फिर जोर से हंसी के फौआरे फूट पडे़.

चायनाश्ते के बाद जब सब दोस्त जाने लगे तो सूरज अंजली के करीब आ कर बोला, ‘मुझे अच्छी तरह पहचान लीजिए, भाभी जान. मैं विवेक का बहुत करीबी दोस्त हूं सूरज और आप चाहें तो आप का भी करीबी बन सकता हूं.’

अंजली उस के इस कथन से सकपका गई और एक देवर की अपनी नई भाभी से चुहलबाजी समझ कर चुप रह गई.

सूरज अब अकसर घर आने लगा. वह बात तो विवेक से करता पर उस की निगाहें अंजली पर ही टिकी रहतीं. अंजली ने कई बार विवेक को इशारों से समझाने की कोशिश भी की पर वह अपनी दोस्ती के आगे किसी को न तो कुछ समझता था और न समझाने का मौका देता था.

एक दिन सूरज किसी फिल्म की 3 टिकटें ले आया और विवेक व अंजली को ले जाने की जिद करने लगा. अंजली ने फिल्म देखने न जाने के लिए सिर दर्द का बहाना भी किया लेकिन उस के आगे उस की एक न चली.

अंजली को फिल्म देखने जाना ही पड़ा. इंटरवल से पहले तो सब ठीक था. विवेक उन दोनों के बीच में बैठा था. अंजली ने चैन की सांस ली लेकिन इंटरवल में जब वे लोग ठंडा पी कर लौटे तो अंजली को बीच की सीट पर बैठना पड़ा और वह विवेक से कुछ कहती इस से पहले फिल्म शुरू हो गई. सूरज ने मौका मिलते ही अंजलि को परेशान करना शुरू कर दिया. उस की आंखें तो सामने परदे पर थीं लेकिन हाथ और पैर अकसर अंजली से टकराते रहे. अंजली ने जब उसे घूर कर देखा तो वह अंजान बना फिल्म देखने लगा. किसी तरह फिल्म देख कर वह घर पहुंची तो उस ने मन में निश्चय किया कि आज की घटना वह विवेक से नहीं बल्कि अपनी सास को बताएगी.

अगले दिन विवेक के जाने के बाद अंजली अपनी बात कहने के लिए सास के पास गई. पर वहां कमरे में सामान फैला देख वह बोली, ‘मम्मीजी, आप कहीं जा रही हैं क्या?’

‘हां बहू, मैं और विवेक के पिताजी सोच रहे थे कि तुम घर संभाल रही हो तो हम दोनों कहीं घूम आएं. बहुत दिनों से हरिद्वार जाने की सोच रहे थे,’ अंजली की सास के स्वर में शहद की मिठास थी.

‘कितने दिनों के लिए आप लोग जा रहे हैं?’  अंजली ने झिझकते हुए पूछा.

‘3-4 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘आप लोग रास्ते में मुझे मेरी मां के घर छोड़ देंगे?’ अंजली ने हिम्मत बटोर कर पूछा.

‘बेटी, तेरे ही सहारे तो मैं निश्ंिचत हो कर जा रही हूं और फिर विवेक का खयाल कौन रखेगा?’ अंजली की सास ने कहा.

घर में अकेले रहने की कल्पना मात्र से अंजली का मन घबरा रहा था पर वह करे भी तो क्या. सोचा, चलो मांजी को हरिद्वार से लौटने पर सब बात बता देगी. यह सोच कर अंजली फिर अपने काम में लग गई. यथासमय सासससुर के हरिद्वार जाने के बाद अंजली डाक्टर के पास नर्सिंग होम चली गई क्योंकि कुछ दिन से उसे ऐसा लग रहा कि  शायद उस के व विवेक के प्यार का बीज उस के अंदर पनपने लगा है. घर में किसी से कुछ कहने से पहले वह डाक्टर की सहमति चाहती थी इसलिए आज रिपोर्ट लेने चली गई.

‘मुबारक हो अंजली, तुम मां बनने वाली हो,’ डाक्टर ने मुसकरा कर अंजली के हाथ में रिपोर्ट पकड़ा दी, ‘घर से तुम्हारे साथ कौन आया है?’

‘धन्यवाद, डाक्टर, मैं अकेली आई हूं. कुछ खास बात है तो मुझे बताइए,’ अंजली ने कहा.

‘नहीं, कुछ खास बात नहीं है,’ डाक्टर बोली, ‘मैं तो बस, इतना कहना चाहती थी कि तुम्हारे घर वालों को अब तुम्हारा खास खयाल रखना चाहिए.’

घर जातेजाते अंजली सोच रही थी कि आज जब विवेक घर आएंगे तो उन्हें यह खास खबर बताऊंगी. सुन कर कितने खुश होंगे वह. यह सोचते हुए अंजली विवेक के आने का इंतजार कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

ये भी पढ़ें- आंचल की छांव

अंजली ने लपक कर दरवाजा खोला तो सामने सूरज खड़ा था.

‘कैसी हो भाभी…जान?’ सूरज ने कुटिल हंसी के साथ पूछा.

अंजली दरवाजा कस कर पकडे़ हुए बोली, ‘मांबाबूजी घर पर नहीं हैं. आप फिर कभी आइएगा.’ लेकिन सूरज दरवाजे को ठेल कर जबरदस्ती अंदर घुस आया.

‘मैं जानता हूं कि वे लोग हरिद्वार गए हैं, पर तुम मुझे जाने को क्यों कह रही हो,’ अंजली को सिर से पैर तक घूरते हुए सूरज बोला, ‘कितने दिन बाद तो आज यह मौका हाथ लगा है. इसे यों ही क्यों गंवाने दें.’

‘तुम क्या अनापशनाप बके जा रहे हो?’ सूरज को बीच में टोकते हुए अंजली बोली, ‘तुम्हें शरम आनी चाहिए, मैं तुम्हारे अजीज दोस्त की बीवी हूं.’

सूरज उस की इस बात पर ठठा कर हंसते हुए बोला, ‘तुम्हें पता है अंजली, आज तक मैं ने विवेक की हर चीज शेयर की है तो बीवी क्यों नहीं, तुम चाहो तो सब हो सकता है और विवेक को कानोंकान खबर भी नहीं होगी.’

‘तुम अभी दफा हो जाओ मेरे घर से,’ अंजली चीखते हुए बोली, ‘मैं तुम्हें और बरदाश्त नहीं कर सकती. आज मैं विवेक को सब सचाई बता कर रहूंगी.’

‘तुम समझने की कोशिश करो अंजली, तुम्हारे लायक सिर्फ मैं हूं, विवेक नहीं, जो मुझ से हर लिहाज में उन्नीस है,’ कहतेकहते सूरज ने अंजली का हाथ पकड़ अपनी तरफ खींचा तो ‘चटाक’ की आवाज के साथ अंजली ने सूरज के गाल पर तमाचा जड़ दिया.

‘मैं सिर्फ और सिर्फ अपने पति से प्यार करती हूं और अब तो उस के बच्चे की मां भी बनने वाली हूं,’ फुफकार हुए अंजली बोली और सूरज को दरवाजे की ओर धकेल दिया.

‘तुम ने मेरा प्रस्ताव अस्वीकार कर बहुत बड़ी भूल की है अंजली. तुम्हें तो मैं ऐसा मजा चखाऊंगा कि भूल कर भी तुम मुझे कभी भुला नहीं पाओगी,’ जातेजाते सूरज उसे धमकी दे गया.

अंजली का शरीर गुस्से से कांप रहा था. उसे अपनी खूबसूरती और शरीर दोनों से घृणा होने लगी, जिसे सूरज ने छूने की कोशिश की थी. जो हुआ था उस के बारे में सोचतेसोचते अंजली परेशान हो गई. बुरेबुरे खयाल उस के मन में आने लगे कि आज तक तो विवेक आफिस से सीधे घर आते थे फिर आज देर क्यों? इसी उधेड़बुन में अंजली बैठी रही. रात 9 बजे विवेक घर आया.

‘आज बहुत देर कर दी आप ने,’ अंजली ने दरवाजा खोलते ही सामने खड़े विवेक को देख कर पूछा.

‘तुम्हारे लिए तो अच्छा ही है,’ विवेक ने चिढ़ कर कहा.

‘क्या मतलब?’ अंजली हैरानी से बोली.

‘तुम मां बनने वाली हो?’ विवेक ने गुस्से में पूछा.

‘जी, आप को किस ने बताया?’

‘तुम यह बताओ कि बच्चा किस का है?’ चिल्ला कर बोला विवेक.

‘किस का है, क्या मतलब? यह हमारा बच्चा है,’ अंजली विवेक को घूर कर बोली.

‘खबरदार, जो अपने पाप को मेरा नाम देने की कोशिश भी की. मैं सब जानता हूं, तुम कहांकहां जाती हो?’

‘आप यह सब क्या अनापशनाप बोले जा रहे हैं. आज हुआ क्या है आप को? कहीं सूरज…’

अंजली की बात बीच में काटते हुए विवेक फिर दहाड़ा, ‘देखा, चोर की दाढ़ी में तिनका. अपनेआप जबान खुलने लगी. हां, सूरज ने ही मुझे सारी सचाई बताई है. उसी ने तुम्हें हमेशा किसी के साथ देखा है और आज तुम ने सूरज के सामने सचाई स्वीकार की थी और सूरज ने मुझे यह भी बताया है कि तुम अपने आशिक के बच्चे की मां बनने वाली हो जिसे तुम मेरा नाम दोगी.’

ये भी पढ़ें- किसे स्वीकारे स्मिता

‘बस कीजिए, आप. इतना विश्वास है अपने दोस्त पर और अपनी बीवी पर जरा सा भी नहीं. आप क्या जानें सूरज की सचाई को. जबकि हकीकत यह है कि उस ने मुझे हमेशा गंदी नजरों से देखा और आज उस ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश भी की. अंजली अपनी बात अभी कह भी नहीं पाई थी कि विवेक का करारा तमाचा अंजली के गाल पर पड़ा और कमरे में सन्नाटा छा गया.’

‘देखा, जब अपना मैला दामन दूसरों को दिखने लगा तो तुम ने दूसरों पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया. हां, मुझे सूरज पर विश्वास है, तुम पर नहीं. तुम्हें यहां आए 6 महीने भी नहीं हुए और सूरज के साथ मैं ने 6 सालों से कहीं ज्यादा समय बिताया है. अब जब तुम्हारी असलियत जाहिर हो चुकी है तो मैं तुम्हें बरदाश्त नहीं कर सकता. मैं कल सुबह तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ कर आऊंगा और तलाक लूंगा,’ इतना कह कर विवेक अपने कमरे में जाने को मुड़ा तो अंजली उसे खींच कर अपने सामने खड़ा कर गरजते हुए बोली, ‘मैं नहीं जानती कि सूरज ने क्या झूठी कहानी आप को सुनाई है. अब मैं भी आप के साथ नहीं रहना चाहूंगी लेकिन मैं इतना आप को बता दूं कि विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. मैं चाहूं तो आप को प्रमाण दे सकती हूं कि मेरी कोख में आप का बच्चा है पर उस से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उस प्रमाण को सूरज फिर झूठा बना सकता है.’

रात भर अंजली सो न सकी. सुबह होते ही वह उठी और अपना सामान ले कर मायके चल दी. विवेक को पता भी नहीं चला.

मायके में मांबाबूजी को अपनी आप- बीती सुना कर अंजली ने ठंडी सांस ली. बाबूजी गुस्से से तमतमा उठे, ‘विवेक की यह मजाल कि फूल सी नाजुक और गंगा सी पवित्र बेटी पर लांछन लगाता है. मैं उस नवाबजादे को छोडूंगा नहीं.’

‘आप शांत रहिए और कुछ समय बीतने दीजिए. शायद विवेक को खुद अपनी गलती का एहसास हो जाए अन्यथा हम दोनों इस की ससुराल चलेंगे,’ मां ने बाबूजी को शांत करते हुए कहा.

लेकिन वहां से न कोई आया न ही उन्होंने अंजली के मांबाप से कोई बात की. बल्कि उन की पहल को ठुकराते हुए विवेक ने तलाक के कागज अंजली को भिजवाए तो पत्थर सी बनी अंजली ने यह सोच कर चुपचाप कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए कि जहां एक बार बात बिगड़ गई वहां दोबारा सम्मान और प्यार पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

धीरेधीरे समय बीतता गया. सौरभ का जन्म हो गया. अंजली ने कई बार नौकरी करने की जिद की पर बाबूजी ने हमेशा यह कह कर मना कर दिया कि तुम अपना बच्चा संभालो. मैं अभी इतना कमाता हूं कि तुम्हारा भरणपोषण कर सकूं.

एक दिन बाबूजी अंजली को समझाते हुए बोले, ‘बेटी, जिंदगी बहुत बड़ी होती है. मैं सोचता हूं कि तेरी शादी कहीं और कर दूं.’

‘बाबूजी, शादीविवाह से मेरा विश्वास उठा चुका है,’ अंजली बोली, ‘अब तो सौरभ के सहारे मैं पूरा जीवन काट लूंगी.’

‘बेटी, आज तो हम हैं लेकिन कल जब हम नहीं रहेंगे तब तुम किस के सहारे रहोगी?’ बाबूजी ने समझाया.

‘क्या मैं अपना सहारा स्वयं नहीं बन सकती? मैं क्यों दूसरों में अपना सहारा ढूंढ़ने के लिए कदम आगे बढ़ाऊं और फिर गिरूं.’

‘पांचों उंगलियां एकसमान नहीं होतीं,’ बाबूजी समझाते हुए बोले, ‘जीतेजी तुम्हारा सुखीसंसार देखने की हार्दिक इच्छा है वरना मर कर भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. क्या मेरी इतनी सी इच्छा तुम पूरी नहीं करोगी?’

बाबूजी के इस कातर स्वर से अंजली पिघल गई पर दृढ़ स्वर में बोली, ‘ठीक है बाबूजी, मैं शादी करूंगी पर उस व्यक्ति से जो मुझे सौरभ के साथ अपनाएगा.’

सुन कर बाबूजी थोड़ा विचलित तो हुए पर प्रत्यक्ष में बोले, ‘ठीक है जिन से तुम्हारी शादी की बात चल रही है उन से मैं तुम्हारी बातें कह दूंगा पर सौरभ को हम शादी के कुछ समय बाद भेजेंगे.’

‘‘अंजली बेटी, तुम तैयार नहीं हुई,’’ मीना ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा तो अंजली अपनी यादों से वापस लौट आई. बेटी की भीगीभीगी आंखें देख मीना का मन भी भीग उठा.

कोर्ट में रजिस्ट्रार के सामने अमित और अंजली दोनों ने हस्ताक्षर किए. अमित के चेहरे पर परिपक्वता थी फिर भी चेहरे की गरिमा अलग थी. उन का व्यक्तित्व विशिष्ट था.

सौरभ को कुछ दिन बाद भेजने की बात कह बाबूजी रोतेबिलखते सौरभ को ले कर भीतर कमरे में चले गए और अपने घर से विदा हो अंजली एक बार फिर अनजान लोगों के बीच आ गई.

अमित की दोनों बेटियां सुमेधा और सुप्रिया गुडि़यों जैसी थीं. सौरभ से उम्र में कुछ बड़ी थीं जो जल्दी ही अंजली से घुलमिल गईं. 2 महीने बीततेबीतते अंजली ने अमित से कहा, ‘‘मैं सौरभ को यहां लाना चाहती हूं.’’

‘‘हां, इस बारे में हम शाम को बात करेंगे,’’ अमित झिझकते हुए इतना कह कर आफिस चले गए.

शाम को सब बैठे टेलीविजन देख रहे थे तो अमित की मां बोलीं, ‘‘बहू, मुझे जल्दी से अब पोते का मुंह दिखाना.’’

ये भी पढ़ें- रायचंद

‘‘सौरभ भी आप का पोता ही है मांजी.’’ जाने कैसे हिम्मत कर अंजली कह गई.

यह सुनते ही अमित और उस की मां का चेहरा उतर गया.

एक पल बाद ही अमित की मां बोलीं, ‘‘लेकिन मैं अपने पोते अपने खून की बात कर रही थी बहू.’’

‘‘क्या मैं सुमेधा और सुप्रिया को अपना नहीं मानती, तो फिर सौरभ को अपनाने में आप को क्या दिक्कत है?’’ अंजली विनम्रता से बोली.

‘‘बहू, मैं ने तो शुरू में ही तुम्हारे बाबूजी को मना कर दिया था कि सौरभ को हम नहीं अपनाएंगे,’’ अमित की मां ने कहा तो अंजली यह सुन कर अवाक् रह गई.

‘‘चलिए, मैं मान लेती हूं कि आप ने बाबूजी से यह बात कही होगी जो उन्होंने मुझे नहीं बताई पर मैं अपने बच्चे के बिना नहीं रह सकती,’’ अंजली ने कहा.

‘‘देखो बहू, मैं इस बारे में सोच भी लेती पर अब जिंदा मक्खी निगल तो नहीं सकती न. मुझे सचाई का पता चल चुका है. मैं सौरभ को नहीं अपना सकती, जाने किस का गंदा खून है.’’

‘‘मांजी’’ अंजली ने चिल्ला कर उन की बात बीच में काट दी, ‘‘आप को मेरे या सौरभ के बारे में ऐसी बातें कहने का कोई हक नहीं है.’’

‘‘तुम क्या हक दोगी और अपने बारे में क्या सफाई दोगी?’’ अमित की मां तल्ख शब्दों में बोलीं, ‘‘तुम्हारे बारे में हमें सबकुछ पता है. मैं सब जान कर भी खामोश हो गई कि चलो, इनसान से गलती हो जाती है और सौरभ कौन सा मेरे घर आएगा पर अब तुम्हारी यह जिद नहीं चलेगी.’’

‘‘मांजी, यह मेरी जिद नहीं, मेरा हक है. मेरे मां होने का हक है,’’ अंजली भी उसी तरह तल्ख लहजे में बोली, ‘‘सौरभ विवेक का ही बेटा है और कौन किस का बेटा है यह एक मां ही जानती है और मैं नहीं चाहती कि हमारी भूल की सजा मेरा बेटा भुगते. वो यहां जरूर आएगा और मेरे साथ ही रहेगा.’’

अंजली का यह फैसला सुन कर अमित की मां गरज उठीं.

‘‘इस घर में सौरभ नहीं आएगा और अगर सौरभ इस घर में आएगा तो मैं इस घर में नहीं रहूंगी.’’

‘‘आप इस घर से क्यों जाएंगी. ये आप का घर है, आप शौक से रहिए. इस घर के लिए अभी मैं अजनबियों सी हूं, मैं ही चली जाऊंगी. पहले भी मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ था, आज फिर हो रहा है. पहले सूरज खिलाड़ी था और आज आप हैं जो स्वयं एक मां हैं. क्या आप अपने बच्चों से दूर रह सकती हैं?’’ अंजली अमित की मां का सामना करते हुए बोली.

‘‘पहली शादी टूट चुकी है. दूसरी हुई है तो निबाह ले मूरख वरना दुनिया थूथू करेगी,’’ अमित की मां ने कटाक्ष किया.

‘‘मैं ने आज तक अमित से या आप से यह नहीं पूछा कि इन की पहली पत्नी ने इन्हें क्यों तलाक दे दिया पर अब सोच सकती हूं कि अमित के तलाक में भी आप का ही हाथ रहा होगा.’’

मां और पत्नी के बीच बढ़ती तकरार को देख कर अमित मां को उन के कमरे में ले गए और अंजली पैर पटकती हुई अपने कमरे में लौट आई.

अंजली को लगा कि एक बार फिर उसे ससुराल की दहलीज लांघनी होगी पर इस बार वह अपने पैरों पर खड़ी हो अपना सहारा स्वयं बनेगी. बाबूजी ने झूठ बोल उस का संसार बसाना चाहा पर सौरभ की कीमत दे कर वह बाबूजी की इच्छा पूरी नहीं कर पाएगी. उस की आंखें नम हो आईं. उसे अपनी तकदीर पर रोना आ गया.

तभी अमित कमरे में प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘क्या सोच रही हो अंजली? शायद, घर वापस जाने की सोच रही हो?’’

‘‘जी,’’ छोटा सा उत्तर दे अंजली फिर खामोश हो गई.

‘‘मैं ने तो तुम से जाने को नहीं कहा,’’ अमित ने कहा तो अंजली रुखाई से बोली, ‘‘लेकिन आप ने अपनी मां का या मेरी बातों का कोई विरोध भी तो नहीं किया. क्या आप सुमेधा और सुप्रिया के बिना रह सकते हैं?’’ इतना कहतेकहते अंजली रो पड़ी.

‘‘ठीक है, हम जाएंगे और अपने बेटे सौरभ को ले कर आएंगे,’’ अमित की बात सुन सहसा अंजली को विश्वास नहीं हुआ. वह चकित सी अमित को देख रही थी तो अमित हंस पड़े.

‘‘लेकिन आप की मां,’’ अंजली ने शंका जाहिर की.

‘‘अरे हां, मैं तो भूल ही गया था, अभी आया,’’ कह कर अमित मुड़ने को हुए तो अंजली ने टोका, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’

‘‘अपनी मां को घर से निकालने,’’ अमित ने हंस कर कहा.

‘‘जी’’ किसी बच्चे की तरह चौंक कर अंजली फिर बोली, ‘‘जी.’’

‘‘अरे भई, उन्होंने ही तो अभी कहा था कि इस घर में या तो सौरभ रहेगा या वह रहेंगी. कल जब सौरभ आ रहा है तो जाहिर है वह यहां नहीं रहेंगी,’’ अमित ने कहा.

ये भी पढ़ें- सपनों की राख तले

‘‘लेकिन मैं ऐसा भी नहीं चाहती. आखिर वह आप की मां हैं,’’ अंजली अटकते हुए बोली.

‘‘मेरी मां हैं तभी तो उन्हें उन के भाई के यहां कुछ दिन छोड़ने के लिए जा रहा हूं. तुम चिंता मत करो. वह भी अपने बच्चे से अलग होंगी तभी तुम्हारी ममता को समझ पाएंगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर अमित बाहर निकल अपनी मां के कमरे की ओर मुड़ गए.

सुखदुख के मिलेजुले भाव ले वह अमित और उन की मां की उठती आवाजों को सुनती रही. बहस का अंत अमित के पक्ष में आतेआते अंजली का मस्तक अमित के लिए श्रद्धा से झुक गया.     द्य

बबली की व्यथा… बब्बन की प्रेमकथा

कहानी- डा. अरुणा कपूर

अपने त्रिलोकीनाथ मामाजी परेशान हैं. उन से भी ज्यादा परेशान मामी त्रिदेवी हैं, जो अपनेआप को श्रीदेवी से कभी कम नहीं समझतीं. हां, तो मामामामी दोनों इसलिए परेशान हैं कि उन के भांजे की धर्मपत्नी बबली परेशान है और इस समय रात के 10 बजे उन के घर बिना भांजे को साथ लिए आ पहुंची है.

मामी की परेशानी बढ़ती जा रही है क्योंकि ‘बबली रात को यहीं रुकेगी’ का डर उन के बदन में कंपकंपी पैदा कर रहा है. वैसे मामामामी दोनों बबली और बब्बन से दो हाथ दूर रहने में ही अपनी सलामती समझते हैं पर आफत कभी फोन कर के तो आती नहीं.

मामी को आज तसल्ली इस बात की है कि हमेशा मामाजी के गले लग कर हंसने वाली बबली मामी के गले लग कर रो रही है.

रोती हुईर् बबली की तरफ देख कर मामाजी दहाड़े, ‘‘तो बब्बन की यह हिम्मत? अपनी सोने जैसी बीवी को छोड़ कर कोयले जैसी काम वाली का हाथ पकड़ता है?’’

‘‘हां मामाजी, सिर्फ हाथ ही नहीं पकड़ता बल्कि चोटी भी पकड़ता है और उसे पे्रमा कह कर बुलाता है. और भी बहुत कुछ कहता है…’’ कहतेकहते बबली रुक गई.

‘‘क्या कहता है वह भूतनीका?’’ मामी ने बब्बन के बहाने अपनी ननद को भी लपेटा. ननदभाभी के बीच होगी कोई पुरानी रंजिश.

‘‘देवी,’’ मामाजी बोले, ‘‘दीदी का इस में क्या दोष? बब्बन के घर तो होलीदीवाली के सिवा आती भी नहीं और हमारे घर आए तो 2-3 साल हो ही गए.’’

वह बहन के बारे में और कुछ कह डालें इस से पहले मामी फिर बोल उठीं, ‘‘अरे वाह, वह कितनी चटोरी हैं ये तो मैं ही जानती हूं. सारी कढ़ी चट कर जाती थीं और नाम मेरा आता था.’’

बबली उन दोनों के बीच कूदते हुए बोली, ‘‘वैसे माताजी तो अच्छी हैं पर मेरे से उन की सेवा नहीं होती है. उन की मरजी का खाना मैं पका नहीं सकती और बेचारी भूखी रह जाती हैं इसलिए जेठानी के घर रहती हैं. गलती मेरी ही है. काश, मैं उन के लिए बढि़या खाना पकाती कुछ नहीं तो कढ़ी ही अच्छी बना लेती तो वह मेरे यहां रहतीं और बब्बन की हिम्मत न पड़ती कि वह काम वाली की राहों में फूल बिछाएं और प्यार में पागल हो जाएं.’’

कल की ही बात है मामाजी, सुनिए, वे बाजार से फूल

खरीद कर लाए थे. सुबह दरवाजे

पर डालते हुए कहने लगे कि प्रेमा के आने का समय हो गया है उस की राहों में फूल बिछा रहा हूं. उस के बिना मेरे दिल को सुकून कहां? दुनिया चाहे इधर की उधर हो जाए…मैं उस का साथ नहीं छोडूंगा. मेरी सुबह, दोपहर और शाम उसी के साथ गुजरेगी. उस जानेमन के बगैर अब चैन कहां रे…’’

‘‘लेकिन बबली, बब्बन की सुबह, दोपहर और शाम उस कलूटी प्रेमवल्ली के साथ गुजरेगी यह बब्बन ने कह दिया लेकिन रात के लिए तो कुछ नहीं कहा,’’ मामी ने ऐसी शक्ल बनाते हुए कहा जैसे बहुत बड़ी ‘रिसर्च’ की हो.

‘‘देवी, तुम्हारा भी जवाब नहीं. मेरे साथ रह कर सोचनेसमझने की शक्ति तुम में भी आ गई, यह बहुत अच्छा हुआ,’’

‘‘अजी, सोचनेसमझने की शक्ति  यदि पहले आ गई होती तो आप से शादी कभी न करती,’’ मामी ने कहा और मामाजी चुप हो गए.

बबली ने बात का सिरा फिर पकड़ लिया और बोली, ‘‘रात अब तक तो मेरे साथ ही गुजर रही है पर कल का क्या पता,’’ कहते हुए बबली ने मामाजी के कंधे का सहारा लिया तो मामी ने फिर उसे अपनी तरफ खींचा.

ये भी पढ़ें- मै भी “राहुल गांधी” बनूंगा ….!

समस्या वाकई गंभीर थी. आपस में लड़ाईझगड़ा करने का समय नहीं था. बबली और बब्बन की ओछी हरकतों से हमेशा मुसीबत  में फंसने वाले मामामामी आज बबली का साथ दे रहे

थे. कहीं बब्बन

ने बबली को तलाक दे दिया और प्रेमवल्ली के साथ घर

बसा लिया तो रिश्तेदारों में मामामामी की नाक कट जाने का डर था. सभी रिश्तेदार उन्हीं से जवाबतलब करेंगे कि इतना सबकुछ हुआ तो शहर में होते हुए भी आप क्या कर रहे थे?

हुआ यह था कि घर के कामों से जी चुराने वाली बबली ने घर की साफसफाई के साथ खाना बनाने, कपड़े धोने और बाजार से सब्जी आदि लाने के काम के लिए एक काम वाली का सहारा लिया था. उस का पति बब्बन काल सेंटर की नौकरी पर लग गया था. पैसे अच्छे मिल रहे थे. दिन भर वह घर पर ही रहता था. रात को ड्यूटी पर जाता था. बबली या तो किटी पार्टियों में या फिर महल्ले के भजनकीर्तनों में चली जाती थी. घर पर रहती तो टेलीविजन पर आने वाले धारावाहिकों में खोई रहती थी. बब्बन के लिए उस के पास समय ही कहां बचता था. अब दिन भर घर में रह कर बब्बन सोएगा भी कितना? वह चाहता था कि बबली उस के पास बैठे. दो मीठी बातें करे, बढि़या खाना खिलाए, चाय के साथ कभी पकौड़े तो कभी समोसे खिलाए, बाजार घूमने जाए…पर बबली इस में से कुछ भी करती नहीं थी और बब्बन को मन मार कर दिन गुजारना पड़ता था.

एक दिन बबली को लगा कि बब्बन अब पहले से खुश रहने लगा है. वह जब  भी रेडियो पर रोमांटिक गाने आते उन्हें आवाज तेज कर सुनने लगा है. बाजार खरीदारी भी करने जाने लगा है. उस की खुशी का कारण बबली को जल्दी ही पता चल गया. एक दिन बबली ने देखा कि वह बाजार से खरीदारी कर के आ रहा था और उस के स्कूटर के पीछे प्रेमवल्ली हाथ में सब्जी का थैला पकड़े बैठी हुई थी जो अब स्कूटर के रुकते नीचे उतर रही थी. यह दृश्य देखते ही बबली के तनमन में आग लग गई.

‘‘प्रेमवल्ली को स्कूटर पर बैठा कर बाजार क्यों गए?’’ घर में घुसते ही बबली ने सवाल किया.

‘‘पता है, प्रेमवल्ली सब्जीभाजी के बहाने बीच में से कितने पैसे मार लेती है? इसलिए उस को साथ ले कर खुद ही सब्जी लेने चला गया,’’ बब्बन के पास जवाब ‘रेडी’ था.

अब प्रेमवल्ली को घर जाने में देर हो जाती थी तो बब्बन स्कूटर पर बैठा कर उसे छोड़ने भी जाने लगा. बबली के पूछने पर कहता, ‘‘जमाना कितना खराब है. जवान लड़की को इस तरह रात में अकेले कैसे जाने दूं. आखिर हमारी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है.’’

बबली ने एक दिन बहाने से प्रेमवल्ली को हटा कर दूसरी बूढ़ी काम वाली रख ली लेकिन 2 दिन काम कर के वह चली गई, क्योंकि प्रेमवल्ली ने उस से झगड़ा किया कि मेरा घर तू ने कैसे ले लिया. उस के बाद कोई काम वाली काम करने के लिए राजी नहीं हुई और हार कर बबली को दोबारा प्रेमवल्ली को ही तनख्वाह बढ़ा कर काम पर रखना पड़ा.

अब बब्बन को किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. वह रसोई में खड़ा रह कर प्रेमवल्ली से कौफी बनवाता था और वहीं खड़ाखड़ा उस के साथ हंसीठठोली करता हुआ पीता था. खाना भी वहीं खड़ा हो कर अपनी पसंद का बनवाता था और बबली के सामने बैठ कर खाता हुआ उस की तारीफ के पुल बांधता था.

यह सब देखते हुए बबली का घर से निकलना कम हो गया. उधर टेलीविजन पर सीरियल चल रहा होता था पर बबली की आंख और कान घर में चल रहे धारावाहिक की ओर ही होते थे. धीरेधीरे बबली का ध्यान धारावाहिकों से इतना हट गया कि वह सास को बहू और बहू को सास समझ बैठी.

उस दिन तो हद हो गई. बब्बन के पीछे स्कूटर पर बैठी प्रेमवल्ली नीचे उतर रही थी कि ऊंची एड़ी की सैंडिल की वजह से संतुलन खो बैठी और गिरने ही वाली थी कि बब्बन ने उसे कंधे से पकड़ कर संभाल लिया. बबली पहले से ही आगबबूला थी. जब प्रेमवल्ली मटकती हुई घर में घुसी तो बबली चिल्लाई…

‘‘मेरी सैंडिल पहनने की तेरी हिम्मत कैसे हो गई?’’

‘‘अय्यो अम्मां, यह आप का सैंडिल नई है, ये तो बब्बनजी ने मुझ को खरीद के दिया. जा के कमरे में देख लें मैडम, आप का सैंडल वहीं पड़ा होगा.’’

‘‘रहने दे…रहने दे. ज्यादा बकवास मत कर. जा कर अपना काम कर,’’ बबली ने बात छोटी करनी चाही पर बब्बन तो अपने पूरे मूड में था. कहने लगा, ‘‘बबली, आज तो प्रेमा ने कमाल किया. 700 वाली सैंडिल सेल में इस ने 500 रुपए में खरीदी है.’’

‘‘क्या कहा? प्रेमा…अब काम वाली को ‘प्रेमा’ कहा जाने लगा. उसे सब्जी की खरीदारी के बहाने बाजार की सैर करानी शुरू कर दी आज 500 रुपए की मेरे जैसी सैंडिल ले कर दी और वह भी आप को साहब की जगह बब्बनजी कह रही है. यह सब क्या है?’’ बबली दहाड़ी. बब्बन ने बबली को कोई जवाब नहीं दिया और बाथरूम से हाथमुंह धो कर जो निकला तो सीधा रसोई में कौफी पीने चला गया. बबली आने वाले संकट को भांप कर कांप उठी.

उस दिन छुट्टी होने की वजह से बब्बन रात में घर पर ही था. बेडरूम में उस के साथ प्यार से पेश आती बबली उस के बालों को सहलाती हुई कहने लगी, ‘‘हम पहलेपहल प्रयाग में संगम पर मिले थे. कितनी भीड़ थी. कुंभ का मेला था पर दो दिलों का मिलन तो गंगायमुना की तरह हो कर ही रहा. क्यों न हम अपने पहले प्यार को याद करने प्रयाग चले जाएं.’’

ये भी पढ़ें- उपहार

‘‘प्रेमा से पूछना पड़ेगा. उस की अम्मां शायद मना कर दे,’’ बब्बन को इस समय भी प्रेमा याद आई.

‘‘यह कैसा मजाक मेरे साथ कर रहे हो?’’ बबली अपने गुस्से पर काबू रखते हुए बोली.

‘‘यह मजाक नहीं है बबलीजी. आप की कसम, मैं सचमुच ही प्रेमा से प्रेम करने लगा हूं. उस की बलखाती लंबी नागिन सी चोटी जब हाथ में लेता हूं तो लगता है इस से बढ़ कर कोई और सहारा क्या होगा? और उस के बालों में अटका फूलों का गजरा तो मुझे इस दुनिया से उठा कर उस दुनिया की सैर कराता है. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि मैं अब तक उस के बगैर जिंदा कैसे रहा. आप के साथ जो प्यार हुआ था वह प्यार नहीं था बबलीजी, एक धोखा था, बेकार में हम उसे प्यार समझ बैठे. भूल जाइए वह सब और सो जाइए,’’ कहते हुए बब्बन सो गया.

आखिर में यह सोच कर कि गृहस्थी में लगी हुई आग को बुझाने का काम केवल मामाजी ही कर सकते हैं क्योंकि उन के पास हर समस्या का हल होता है,  सोच कर बबली उन की शरण में आ पहुंची थी. रात का समय था, बब्बन नाइट शिफ्ट में चला गया था. आधी रात तो बबली ने बब्बन की प्रेम कहानी सुनाने में ही निकाल दी. प्रेमवल्ली के साथ बब्बन के प्रेमप्रसंग को वह कभी आंखों में आंसू भर कर तो कभी गुस्से की लाली भर कर सुनाती रही. नींद के झोंके आ रहे थे फिर भी मामी जागने की जीतोड़ कोशिश करती रहीं क्योंकि मामाजी का भरोसा नहीं था वह कब बबली के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे अपनी गोदी में सुला दें. जब कहीं मामाजी ही सोने चले गए तब मामी बबली के साथ ड्राइंग रूम में ही सो गईं.

सुबह जब बब्बन घर लौटा और लटकते हुए ताले ने उस का स्वागत किया तो सोचने में ज्यादा समय खर्च किए बगैर वह सीधा मामाजी के यहां चला आया. उस का यहां ठंडा स्वागत हुआ. सुबह का समय था पर किसी ने चाय तक नहीं पूछी. बबली तो अभी तक सो रही थी. बब्बन ढीठ था सीधा रसोई में गया और 3 कप चाय बना लाया. मामामामी को चाय का एकएक कप पकड़ा कर वह खुद भी पीने बैठ गया, साथ में अखबार भी पढ़ने लगा.

‘‘क्यों आया बब्बन?’’ मामाजी ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘बबली आ सकती है तो क्या मैं नहीं आ सकता?’’ बब्बन ने अखबार पलटते हुए जवाब दिया.

‘‘तो तू जानता है कि बबली यहां आई है,’’ मामी आड़ातिरछा मुंह बनाते हुए बोलीं.

‘‘आप से ज्यादा मैं बबली को जानता हूं,’’ बब्बन ने अखबार मामाजी को पकड़ाया.

इतने में बबली भी आ धमकी और मामाजी की कुरसी के डंडे पर बैठने लगी थी पर मामी ने पकड़ कर उसे दूसरी कुरसी पर बिठाया. थोड़ी देर खामोशी छाई रही.

‘‘बब्बन, तू अपनेआप को समझता क्या है?’’ मामाजी ने बब्बन की तरफ मोरचा खोला.

‘‘बब्बन ही समझता हूं मामाजी, कोई और नहीं,’’ बब्बन बबली की तरफ देख कर बोला.

‘‘उस कामवल्ली…क्या नाम…प्रेम- वल्ली को इतना मुंह क्यों लगाया है?’’ मामाजी सीधे मुद्दे पर आ गए.

‘‘क्या प्यार करना गुनाह है और आप को पता भी है कि वह मेरी कितनी देखभाल करती है, उस के हाथ का बना इडलीसांबर, करारा डोसा और आलू के परांठे मामाजी खा कर तो देखिए, आप भी उस से प्यार करने लगेंगे,’’ बब्बन ने कहा और उधर मामाजी के मुंह में पानी  आ गया.

‘‘बस कर भूतनीके…’’ मामी ने कहा तो इस बार मामाजी को अपनी बहन की याद नहीं आई. वह मन ही मन प्रेमवल्ली का रेखाचित्र बना रहे थे और उस में इडली का सफेद, सांबर का मटमैला और डोसे का सुनहरा रंग भर रहे थे. आलू के परांठे का बैकग्राउंड उन्हें मनोहारी लग रहा था.

मामाजी की मौन साधना को देख कर मामी आगे बढ़ीं…

‘‘बब्बन, तेरी अक्ल को क्या काठ मार गया? घर में सुंदर, शरीफ, खानदानी बीवी के होते हुए तेरी नजर काम वाली पर कैसे टिक गई नमूने? बेचारी बबली अच्छा हुआ कि यहां चली आई, नहीं तो तेरी इन हरकतों से वह आत्महत्या भी कर सकती थी.’’

‘‘आत्महत्या तो एक बार मामाजी भी करने चले थे…की तो नहीं,’’ बब्बन ने मामाजी पर कटाक्ष किया.

ये भी पढ़ें- आखिरी बाजी

‘‘बब्बन, तू अपनी हद से गुजर रहा है. मैं आत्महत्या करूं या न करूं, इस से तुझे क्या? तू अपने घर की सोच. घर फूंक कर तमाशा मत देख. माना कि प्रेमवल्ली अच्छा खाना बनाती है, घर साफसुथरा रखती है, बरतनचौका सबकुछ करती है पर उस की बराबरी पत्नी से तो नहीं हो सकती, फिर बबली तुझे कितना प्यार करती है,’’ मामाजी ने समझाने के अंदाज में बब्बन से कहा.

‘‘पत्नी के सिर्फ मन ही मन प्यार करने से या मैं तुम से प्यार करती हूं, कह देने से पेट तो नहीं भरता मामाजी, सुखी गृहस्थी के लिए और भी बहुत कुछ चाहिए होता है. घर का वातावरण आनंददायक होना चाहिए. घर व्यवस्थित होना चाहिए. पति काम पर से घर लौटे तो टीवी बंद कर के पति को चायनाश्ता पूछना चाहिए. कुछ अपनी बातें बतानी चाहिए, कुछ उस की पूछनी चाहिए. अगर अपने हाथ का बना कोई व्यंजन पति को पत्नी प्रेम से खिलाती है तो उसे भी लगता है कि घर में उस का चाहने वाला कोई है.

 

आप ने एक बार कहा था कि किसी के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है. बस, प्रेमा उस रास्ते से मेरे दिल तक पहुंच चुकी है. अब बबली के लिए कोई गुंजाइश नहीं है,’’ बब्बन बोला और बबली ने माथा पीट लिया.

‘‘बबली, तू यहां आ कर बैठ. कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा,’’ मामाजी ने बबली को अपनी कुरसी के डंडे पर बिठाया. मामी तिलमिला कर रह गईं.

‘‘देख बब्बन, अगर बबली बढि़या खाना बना कर खिलाए, तेरे साथ गुटरगूं करे और घर में व्यवस्था पूरी तरह बनाए रखे तो क्या तू उस प्रेमवल्ली को दिल से बाहर निकाल सकता है?’’ मामाजी ने पूछा.

‘‘छोडि़ए मामाजी, इस के लिए थोड़े ही बबली राजी होगी?’’ बब्बन तिरछी नजरों से बबली की तरफ देख रहा था.

‘‘मैं तो सबकुछ करने के लिए तैयार हूं मामाजी, यह तो आप की इज्जत का सवाल है. कल को हमारी गृहस्थी धूलमिट्टी में मिल जाती है तो रिश्तेदारी में नाक तो आप ही की कटेगी. मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. अच्छा खाना बनाना मुश्किल काम थोड़े ही है, जरा सा ध्यान देना पड़ेगा. मामाजी, आप की इज्जत की खातिर मैं वह सारे व्यंजन बना कर इन को खिलाऊंगी जो प्रेमवल्ली बनाती है. मामाजी सिर्फ…’’ बबली ने गिरने के बाद भी अपनी टांग ऊपर रखी.

‘‘तो काम वाली की कल से छुट्टी?’’ मामाजी ने बब्बन से पूछा.

‘‘उस बेचारी के पेट पर लात क्यों मारनी मामाजी, वह सफाई, बरतन करती रहे.’’ बब्बन ने इस आखिरी दृश्य में सच से परदा उठाते हुए कहा, ‘‘मैं सिर्फ बबली को डराने के लिए ही उस से प्यार करने का दिखावा कर रहा था ताकि वह अपनी जिम्मेदारी समझे.’’

बब्बन ने बबली की तरफ देख कर कहना शुरू किया, ‘‘मामाजी, प्रेमा को मैं सिर्फ महल्ले के नुक्कड़ तक ही स्कूटर पर बैठा कर ले जाता था और वहीं से वापस ले आता था. हां, 500 रुपए की सैंडिल जरूर खरीद कर दी जिस के 250 रुपए वह अपनी तनख्वाह से कटवाने को राजी हुई है, मैं ने न तो कभी उस की चोटी पकड़ी, न तो उस का गजरा सहलाया.

इस तरह बबली के ऊपर आए हुए संकट के बादल छंट गए. ऐसे में मामी और बब्बन ने पिकनिक पर जाने का कार्यक्रम बनाया. मामाजी के बच्चे अब तक कहीं दुबक कर बैठे तमाशा देख रहे थे, वे भी पिकनिक का नाम सुनते ही प्रकट हो गए. पर मामाजी को दाल में कुछ काला नजर आ रहा था. उन के मन में यह आशंका जोर पकड़ती गई कि इस नाटक का कलाकार भले ही बब्बन हो लेकिन लेखक कोई और ही है.

‘‘अभी आ रहा हूं,’’ कह कर मामाजी श्रीमती खोटे के घर आ धमके.

‘‘भाभीजी, सचसच बताइए क्या बब्बन कभी यहां आया था?’’ मामाजी श्रीमती खोटे को घूरते हुए बोले.

‘‘हां, पिछले माह जब आप सपरिवार पर्यटन पर गए हुए थे तब आप के घर पर ताला देख कर वह यहां आया था. बस 5-10 मिनट बैठा था…’’ श्रीमती खोटे मामाजी को बताने लगीं.

‘‘बसबस, मैं समझ गया. ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है कि वह कितनी देर बैठा था,’’ बड़बड़ाते हुए मामाजी चले गए. काफी गुस्से में लग रहे थे.

थोड़ी ही देर में मामाजी के घर का दरवाजा खुला और गरजदार आवाज गूंज उठी, ‘‘निकल जा मेरे घर से…नासपीटे.’’

ये भी पढ़ें- सन्नाटा

‘‘पर मामाजी, आप के दरवाजे पर ताला देख कर मैं मिसेज खोटे के यहां पूछने गया था…’’

‘‘मैं कुछ सुनना नहीं चाहता. मेरे होते हुए मेरे पड़ोसियों से सलाह लेता है तू?’’ मामाजी बरस रहे थे.

‘‘आप भी तो वहीं से सलाह ले कर मुझे देते. इसलिए मैं सीधे चला गया,’’ बब्बन मिनमिनाया.

‘‘उलटा जवाब देता है, भूतनीके…’’ कह कर मामाजी रुक गए. शायद बहन की याद आ गई.

‘‘अजी, पहले पिकनिक हो आते हैं, बब्बन को तो बाद में भी घर से निकाल सकते हैं,’’ मामी बाहर निकलते हुए बोलीं.

‘‘ठीक है, पिकनिक के बाद तू सीधा अपने घर चला जाएगा,’’ मामाजी का आदेश था.

‘‘बबली भी तेरे साथ ही जाएगी, यहां नहीं आएगी समझे,’’ मामी को डर था शायद बबली वापस आ जाए.

 सरहद पार से

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

ये भी पढ़ें- सहयात्री

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

ये भी पढ़ें- बेकरी की यादें

‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

अनमोल उपहार

कहानी- डा. निरूपमा राय

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

ये भी पढ़ें- सहयात्री

दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

बिस्तर पर लेटी दादीमां अतीत की धुंध भरी गलियों में अनायास भागती चली गईं.

‘अम्मां, मनहूस किसे कहते हैं?’ 4 साल के विश्वनाथ ने पूछा तो सरस्वती चौंक पड़ी थी.

‘बूआ कहती हैं, तुम मनहूस हो, मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो मैं भी मर जाऊंगा,’ बेटे के मुंह से यह सब सुन कर सरस्वती जैसे संज्ञाशून्य सी हो गई और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘बूआ झूठ बोलती हैं, विशू. तुम ही तो मेरा सबकुछ हो.’

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

तभी सरस्वती की ननद कमला तेजी से कमरे में आई और उस की गोद से विश्वनाथ को छीन कर बोली, ‘मैं ने कोई झूठ नहीं बोला. तुम वास्तव में मनहूस हो. शादी के साल भर बाद ही मेरा जवान भाई चल बसा. अब यह इस खानदान का अकेला वारिस है. मैं इस पर तुम्हारी मनहूस छाया नहीं पड़ने दूंगी.’

‘पर दीदी, मैं जो नीरस और बेरंग जीवन जी रही हूं, उस की पीड़ा खुद मैं ही समझ सकती हूं,’ सरस्वती फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘क्यों उस मनहूस से बहस कर रही है, बेटी?’ आंगन से विशू की दादी बोलीं, ‘विशू को ले कर बाहर आ जा. उस का दूध ठंडा हो रहा है.’

बूआ गोद में विशू को उठाए कमरे से बाहर चली गईं.

सरस्वती का मन पीड़ा से फटा जा रहा था कि जिस वेदना से मैं दोचार हुई हूं उसे ये लोग क्या समझेंगे? पिता की मौत के 5 महीने बाद विश्वनाथ पैदा हुआ था. बेटे को सीने से लगाते ही वह अपने पिछले सारे दुख क्षण भर के लिए भूल गई थी.

सरस्वती की सास उस वक्त भी ताना देने से नहीं चूकी थीं कि चलो अच्छा हुआ, जो बेटा हुआ, मैं तो डर रही थी कि कहीं यह मनहूस बेटी को जन्म दे कर खानदान का नामोनिशान न मिटा डाले.

सरस्वती के लिए वह क्षण जानलेवा था जब उस की छाती से दूध नहीं उतरा. बच्चा गाय के दूध पर पलने लगा. उसे यह सोच कर अपना वजूद बेकार लगता कि मैं अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिला सकती.

कभीकभी सरस्वती सोच के अथाह सागर में डूब जाती. हां, मैं सच में मनहूस हूं. तभी तो जन्म देते ही मां मर गई. थोड़ी बड़ी हुई तो बड़ा भाई एक दुर्घटना में मारा गया. शादी हुई तो साल भर बाद पति की मृत्यु हो गई. बेटा हुआ तो वह भी अपना नहीं रहा. ऐसे में वह विह्वल हो कर रो पड़ती.

समय गुजरता रहा. बूआ और दादी लाड़लड़ाती हुई विश्वनाथ को खिलातीं- पिलातीं, जी भर कर बातें करतीं और वह मां हो कर दरवाजे की ओट से चुपचाप, अपलक बेटे का मुखड़ा निहारती रहती. छोटेछोटे सपनों के टूटने की चुभन मन को पीड़ा से तारतार कर देती. एक विवशता का एहसास सरस्वती के वजूद को हिला कर रख देता.

विश्वनाथ की बूआ कमला अपने परिवार के साथ शादी के बाद से ही मायके में रहती थीं. उन के पति ठेकेदारी करते थे. बूआ की 3 बेटियां थीं. इसलिए भी अब विश्वनाथ ही सब की आशाओं का केंद्र था. तेज दिमाग विश्वनाथ ने जिस दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पास की सारे घर में जैसे दीवाली का माहौल हो गया.

‘मैं जानती थी, मेरा विशू एक दिन सारे गांव का नाम रोशन करेगा. मां, तेरे पोते ने तो खानदान की इज्जत रख ली.’  विश्वनाथ की बूआ खुशी से बावली सी हो गई थीं. प्रसन्नता की उत्ताल तरंगों ने सरस्वती के मन को भी भावविभोर कर दिया था.

विश्वनाथ पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले मां के पांव छूने आया था.

‘सुखी रहो, खुश रहो बेटा,’ सरस्वती ने कांपते स्वर में कहा था. बेटे के सिर पर हाथ फेरने की नाकाम कोशिश करते हुए उस ने मुट्ठी भींच ली थी. तभी बूआ की पुकार ‘जल्दी करो विशू, बस निकल जाएगी,’ सुन कर विश्वनाथ कमरे से बाहर निकल गया था.

समय अपनी गति से बीतता रहा. विशू की नौकरी लगे 2 वर्ष बीत चुके थे. उस की दादी का देहांत हो चुका था. अपनी तीनों फुफेरी बहनों की शादी उस ने खूब धूमधाम से अच्छे घरों में करवा दी थी. अब उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे.

एक शाम सरस्वती की ननद कमला एक लड़की की फोटो लिए उस के पास आई. उस ने हुलस कर बताया कि लड़की बहुत बड़े अफसर की इकलौती बेटी है. सुंदर, सुशील और बी.ए. पास है.

‘क्या यह विशू को पसंद है?’ सरस्वती ने पूछा.

‘विशू कहता है, बूआ तुम जिस लड़की को पसंद करोगी मैं उसी से शादी करूंगा,’ कमला ने गर्व के साथ सुनाया, तो सरस्वती के भीतर जैसे कुछ दरक सा गया.

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

ये भी पढ़ें- बेकरी की यादें

गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

गायत्री ने कहा, ‘मन के बुरे नहीं हैं. न ही आप के प्रति गलत धारणा रखते हैं. पर बचपन से जो बातें कूटकूट कर उन के दिमाग में भर दी गई हैं उन का असर धीरेधीरे ही खत्म होगा न? बूआ का प्रभाव उन के मन पर बचपन से हावी रहा है. आज उन्हें इस बात का एहसास है कि उन्होंने आप का दिल दुखाया है.’

गायत्री के मुंह से यह सुन कर सरस्वती का चेहरा एक अनोखी आभा से चमक उठा था.

गायत्री की गोदभराई के दिन घर सारे नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. गहनों और बनारसी साड़ी में सजी गायत्री बहुत सुंदर लग रही थी.

‘चलो, बहू, अपना आंचल फैलाओ. मैं तुम्हारी गोद भर दूं,’ बूआ ने मिठाई और फलों से भरा थाल संभालते हुए कहा.

‘रुकिए, बूआजी, बुरा मत मानिएगा. पर मेरी गोद सब से पहले अम्मां ही भरेंगी.’

‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? ये काम सुहागन औरतों को ही शोभा देता है और तुम्हारी सास तो…’ पड़ोस की विमला चाची ने टोका, तो कमला बूआ जोर से बोलीं, ‘रहने दो बहन, 4 अक्षर पढ़ कर आज की बहुएं ज्यादा बुद्धिमान हो गई हैं. अब शास्त्र व पुराण की बातें कौन मानता है?’

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

‘जो शास्त्र व पुराण यह सिखाते हों कि एक स्त्री की अस्मिता कुछ भी नहीं और एक विधवा स्त्री मिट्टी के ढेले से ज्यादा अहमियत नहीं रखती, मैं ऐसे शास्त्रों और पुराणों को नहीं मानती. आइए, अम्मांजी, मेरी गोद भरिए.’

गायत्री का आत्मविश्वास से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा. सरस्वती जैसे नींद से जागी. मन में एक अनजाना भय फिर दस्तक देने लगा.

‘नहीं बहू, बूआ ठीक कहती हैं,’ उस का कमजोर स्वर उभरा.

‘आइए, अम्मां, मेरी गोद पहले आप भरेंगी फिर कोई और.’

बहू की गोद भरते हुए सरस्वती की आंखें मानो पहाड़ से फूटते झरने का पर्याय बन गई थीं. रोमरोम से बहू के लिए आसीस का एहसास फूट रहा था.

निर्धारित समय पर विपुल का जन्म हुआ तो सरस्वती उसे गोद में समेट अतीत के सारे दुखों को भूल गई. विपुल में नन्हे विश्वनाथ की छवि देख कर वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाती थी.

अपने बेटे के लिए जोजो अरमान संजोए थे, वह सारे अरमान पोते के लालनपालन में फलनेफूलने लगे. फिर 2 साल के बाद नेहा गायत्री की गोद में आ गई. सरस्वती की झोली खुशियों की असीम सौगात से भर उठी थी. गायत्री जैसी बहू पा कर वह निहाल हो उठी थी. विश्वनाथ और उस के बीच में तनी अदृश्य दीवार गायत्री के प्रयास से टूटने लगी थी. बेटे और मां के बीच का संकोच मिटने लगा था.

अब विश्वनाथ खुल कर मां के बनाए खाने की प्रशंसा करता. कभीकभी मनुहारपूर्वक कोई पकवान बनाने की जिद भी कर बैठता, तो सरस्वती की आंखें गायत्री को स्नेह से निहार, बरस पड़तीं. कौन से पुण्य किए थे जो ऐसी सुघड़ बहू मिली. अगर इस ने मेरा साथ नहीं दिया होता तो गांव के उसी अकेले कमरे में बेहद कष्टमय बुढ़ापा गुजारने पर मैं विवश हो जाती.

समय अपनी गति से बीतता रहा. 3 वर्ष पहले कमला बूआ की मृत्यु हो गई. विपुल ने इसी साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी. और नेहा 8वीं कक्षा की होनहार छात्रा थी. दोनों बच्चों के प्राण तो बस, अपनी दादी में ही बसते थे.

गायत्री ने उन का दामन जमाने भर की खुशियों से भर दिया था और वही गायत्री इस तरह, अचानक उन्हें छोड़ गई? उन की सोच को एक झटका सा लगा.

‘‘दादीमां, दवा ले लीजिए,’’ पोती नेहा की आवाज से वह वर्तमान में लौटीं. उठने की कोशिश की पर बेहोशी की गर्त में समाती चली गईं.

नेहा की चीख सुन कर सब कमरे में भागे चले आए. विपुल दौड़ कर डाक्टर को बुला लाया. मां के सिरहाने बैठे विश्वनाथ की आंखें रहरह कर भीग उठती थीं.

‘‘इन्हें बहुत गहरा सदमा पहुंचा है, विश्वनाथ बाबू. इस उम्र में ऐसे सदमे से उबरना बहुत मुश्किल होता है. मैं कुछ दवाएं दे रहा हूं. देखिए, क्या होता है?’’

डाक्टर ने कहा तो विपुल और नेहा जोरजोर से रोने लगे.

‘‘दादीमां, तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं. मां तुम्हारे ही भरोसे हमें छोड़ कर गई हैं,’’ नेहा के रुदन से सब की आंखें नम हो गई थीं.

4 दिन तक दादीमां नीम बेहोशी की हालत में पड़ी रहीं. 5वें दिन सुबह अचानक उन्हें होश आया. आंखें खोलीं और करवट बदलने का प्रयास किया तो हाथ किसी के सिर को छू गया. दादीमां ने चौंक कर देखा. उन के पलंग की पाटी से सिर टिकाए उन का बेटा गहरी नींद में सो रहा था. कुरसी पर अधलेटे विश्वनाथ का सिर मां के पैरों के पास था.

तभी नेहा कमरे में आ गई. दादी की आंखें खुली देख वह खुशी से चीख पड़ी, ‘‘पापा, दादीमां को होश आ गया.’’ विश्वनाथ चौंक कर उठ बैठे.

बेटे से नजर मिलते ही दादीमां का दिल फिर से धकधक करने लगा. मन की पीड़ा अधरों से फूट पड़ी.

‘‘मैं सच में आभागी हूं, बेटा. मनहूस हूं, तभी तो सोने जैसी बहू सामने से चली गई और मुझे देख, मैं फिर भी जिंदा बच गई. मेरे जैसे मनहूस लोगों को तो मौत भी नहीं आती.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा मत कहो. तुम ऐसा कहोगी तो गायत्री की आत्मा को तकलीफ होगी. कोई इनसान मनहूस नहीं होता. मनहूस तो होती हैं वे रूढि़यां, सड़ीगली परंपराएं और शास्त्रपुराणों की थोथी अवधारणाएं जो स्त्री और पुरुष में भेद पैदा कर समाज में विष का पौधा बोती हैं. अब मुझे ही देख लो, गायत्री की मृत्यु के बाद किसी ने मुझे अभागा या बेचारा नहीं कहा.

‘‘अगर गायत्री की जगह मेरी मृत्यु हुई होती तो समाज उसे अभागी और बेचारी कह कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता.’’

दादीमां आंखें फाड़े अपने बेटे का यह नया रूप देख रही थीं. गायत्री जैसे पारस के स्पर्श से उन के बेटे की सोच भी कुंदन हो उठी थी.

विश्वनाथ अपनी रौ में कहे जा रहा था, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां. बचपन से ही मैं तुम्हारा प्यार पाने में असमर्थ रहा. अब तुम्हें हमारे लिए जीना होगा. मेरे लिए, विपुल के लिए और नेहा के लिए.’’

‘‘बेटा, आज मैं बहुत खुश हूं. अब अगर मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.’’

‘‘नहीं मां, अभी तुम्हें बहुत से काम करने हैं. विपुल और नेहा को बड़ा करना है, उन की शादियां करनी हैं और मुझे वह सारा प्यार देना है जिस से मैं वंचित रहा हूं,’’ विश्वनाथ बच्चे की तरह मां की गोद में सिर रख कर बोला.

सरस्वती देवी के कानों में बहू के कहे शब्द गूंज उठे थे.

ये भी पढ़ें- दरगाह का खादिम

‘मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन आप के मन की मुराद पूरी होगी. आप के प्रति उन का पछतावे से भरा एहसास जल्दी ही असीम स्नेह और आदर में बदल जाएगा, देखिएगा.’

सरस्वती देवी ने स्नेह से बेटे को अपने अंक में समेट लिया. बहू द्वारा दिए गए इस अनमोल उपहार ने उन की शेष जिंदगी को प्राणवान कर दिया था.

आईना

लेखिका-  सुधा गुप्ता

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्योंकर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

ये भी पढ़ें- मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

अस्पताल रह कर चारू लौटी तो अपने ही कमरे में कैद हो कर रह गई. परेशान हो गया था अनुराग. एक दिन मैं ने फोन किया तो बेचारा रो पड़ा था.

‘‘अच्छीभली हमारे घर आई थी. मायके में सारा घर चारू ही संभालती थी. मैं इस सच को अच्छी तरह जानता हूं. हमारे घर आई तो चाय का कप बनाते भी उस के हाथ कांपते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, मौसी?’’

‘‘उसे दीदी से दूर  ले जा. मेरी बात मान, बेटा.’’

‘‘मम्मी तो उस की देखभाल करती हैं. बेचारी चारू की चिंता में आधी हो गई हैं.’’

‘‘यही तो समस्या है, अनुराग बेटा. शोभा तेरी मां हैं तो मेरी बड़ी बहन भी हैं, जिन्हें मैं बचपन से जानती हूं. मेरी बात मान तो तू चारू को कहीं और ले जा या कुछ दिन के लिए मेरे घर छोड़ दे. कुछ भी कर अगर चारू को बचाना चाहता है तो, चाहे अपनी मां से झूठ ही बोल.’’

अनुराग असमंजस में था मगर बचपन से मेरे करीब होने की वजह से मुझ पर विश्वास भी करता था. टूर पर ले जाने के बहाने वह चारू को अपने साथ मेरे घर पर ले आया तो चारू को मैले कपड़ों में देख कर मुझे अफसोफ हुआ था.

‘‘मौसी, आप क्या समझाना चाहती हैं…मेरे दिमाग में ही नहीं आ रहा है.’’

‘‘बस, अब तुम चिंता मत करो. तुम्हारा 15 दिन का टूर है और दीदी को यही पता है कि चारू तुम्हारे साथ है, 15 दिन बाद चारू को यहां से ले जाना.’’

अनुराग चला गया. जाते समय वह मुड़मुड़ कर चारू को देखता रहा पर वह उसे छोड़ने भी नहीं गई. 6-7 महीने ही तो हुए थे शादी को पर पति के विछोह की कोई भी पीड़ा चारू के चेहरे पर नहीं थी. चूंकि मेरे दोनों बेटे बाहर पढ़ते हैं और पति शाम को ही घर पर आने वाले थे इसीलिए हम दोनों उस समय अकेली ही थीं.

‘‘चारू, बेटा क्या लेगी? ठंडा या गरम, कुछ नाश्ता करेगी न मेरी बच्ची?’’

स्नेह से सिर पर हाथ फेरा तो मेरी गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. मैं प्यार से उसे सहलाती रही.

‘‘ऐसा लगता है मौसी कि मैं मर जाऊंगी. मुझे बहुत डर लगता है. कुछ नहीं होता मुझ से.’’

‘‘होता है बेटा, होता क्यों नहीं. तुम्हें तो सब कुछ आता है. चारू इतनी समझदार, इतनी पढ़ीलिखी, इतनी सुंदर बहू है हमारी.’’

चारू मेरा हाथ कस कर पकड़े रही जब तक पूरी तरह सो नहीं गई. एक प्रश्नचिह्न थी मेरी बहन सदा मेरे सामने, और आज भी वह वैसी ही है. एक उलझा हुआ चरित्र जिसे स्वयं ही नहीं पता, उसे क्या चाहिए. जिस का अहं इतना ऊंचा है कि हर रिश्ता उस के आगे बौना है.

शाम को मेरे पति घर आए तब उन्हें मेरे इस कदम का पता चला. घबरा गए वह कि कहीं दीदी को पता चला तो क्या होगा. कहीं रिश्ता ही न टूट जाए.

‘‘टूटता है तो टूट जाए. उम्र भर हम ने दीदी की चालबाजी सही है. अब मैं बच्चों को तो दीदी की आदतों की बलि नहीं चढ़ने दे सकती. जो होगा हो जाएगा. कभी तो आईना दिखाना पड़ेगा न दीदी को.’’

चारू की हालत देख कर मैं सुबकने लगी थी. चारू उठी ही नहीं. सुबह का नाश्ता किया हुआ  था. खाना सामने आया तो पति का मन भी भर आया.

‘‘बच्ची भूखी है. मुझ से तो नहीं खाया जाएगा. तुम जरा जगाने की कोशिश तो करो. आओ, चलो मेरे साथ.’’

रिश्ते की नजाकत तो थी ही लेकिन सर्वोपरि थी मानवता. हमारी अपनी बच्ची होती तो क्या करते, जगाते नहीं उसे. जबरदस्ती जगाया उसे, किसी तरह हाथमुंह धुला मेज तक ले आए. आधी रोटी ही खा कर वह चली गई.

‘‘सोना मत, चारू. अभी तो हम ने बातें करनी हैं,’’ मैं चारू को बहाने से जगाना चाहती थी. पहले से ही खरीदी साड़ी उठा लाई.

‘‘चारू, देखना तुम्हारे मौसाजी मेरे लिए साड़ी लाए हैं, कैसी है? तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. तुम्हारी साडि़यां देखी थीं न शादी में, जरा पसंद कर के दे दो. यही ले लूं या बदल लूं.’’

चारू ने तनिक आंखें खोलीं और सामने पड़ी साड़ी को उस ने गौर से देखा फिर कहने लगी, ‘‘मौसाजी आप के लिए इतने प्यार से लाए हैं तो इसे ही पहनना चाहिए. कीमत साड़ी की नहीं कीमत तो प्यार की होती है. किसी के प्यार को दुत्कारना नहीं चाहिए. बहुत तकलीफ होती है. आप इसे बदलना मत, इसे ही पहनना.’’

शब्दों में सुलह कम प्रार्थना ज्यादा थी. स्नेह से माथा सहला दिया मैं ने चारू का.

‘‘बड़ी समझदार हो तुम, इतनी अच्छी बातें कहां से सीखीं.’’

‘‘अपने पापा से, लेकिन शादी के बाद मेरी हर अच्छाई पता नहीं कहां चली गई मौसी. मैं नाकाम साबित हुई हूं, घर में भी और नातेरिश्तेदारों में भी. मुझे कुछ आता ही नहीं.’’

‘‘आता क्यों नहीं? मेरी बच्ची को तो बहुत कुछ आता है. याद है, तुम्हारे मौसाजी के जन्मदिन पर तुम ने उपमा और पकौड़े बनाए थे, जब तुम अनुराग के साथ पहली बार हमारे घर आई थीं. आज भी हमें वह स्वाद नहीं भूलता.’’

‘‘लेकिन मम्मी तो कहती हैं कि आप लोग अभी तक मेरा मजाक उड़ाते हैं. इतना गंदा उपमा आप ने पहली बार खाया था.’’

यह सुन कर मेरे पति अवाक् रह गए थे. फिर बोले, ‘‘नहीं, चारू बेटा, मैं अपने बच्चों की सौगंध खा कर कहता हूं, इतना अच्छा उपमा हम ने पहली बार खाया था.’’

शोभा दीदी ने बहू से इस तरह क्यों कहा? इसीलिए उस के बाद यह कभी हमारे घर नहीं आई. आंखें फाड़फाड़ कर यह मेरा मुंह देखने लगे. इतना झूठ क्यों बोलती है यह शोभा? रिश्तों में इतना जहर क्यों घोलती है यह शोभा? अगर सुंदर, सुशील बहू आ गई है तो उस को नालायक प्रमाणित करने पर क्यों तुली है? इस से क्या लाभ मिलेगा शोभा को?

‘‘तुम, तुम मेरी बेटी हो, चारू. अगर मेरी कोई बेटी होती तो शायद तुम जैसी होती. तुम से अच्छी कभी नहीं होती. मैं तो सदा तुम्हारे अपनेपन से भरे व्यवहार की प्रशंसा करता रहा हूं. लगता ही नहीं कि घर में किसी नए सदस्य का आगमन हुआ था. अपनी मौसी से पूछो, उस दिन मैं ने क्या कहा था? मैं ने कहा था, हमें भी ऐसी ही बहू मिल जाए तो जीवन में कोई भी कमी न रह जाए. मैं सच कह रहा हूं बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, मेरा विश्वास करो.’’

मेरे सामने सब साफ होता गया. शोभा अपने पुत्र और पति के सामने भी खुद को बहू से कम सुंदर, कम समझदार प्रमाणित नहीं करना चाहती.

दूसरी सुबह ही मैं ने पूरा घर चारू को सौंप दिया. मेरे पति ने ही मुझे समझाया कि एक बार इसे अपने मन की करने तो दो, खोया आत्मविश्वास अपनेआप लौट आएगा. बच्ची पर भरोसा तो करो, कुछ नया होगा तो उसे स्वीकारना तो सीखो. इस का जो जी चाहे करे, रसोई में जो बनाना चाहे बनाए. कल को हमारी भी बहुएं आएंगी तो उन्हें स्वीकार करना है न हमें.

चाय बनाने में चारू के हाथ कांप रहे थे. वह डर रही थी तो मैं ने उस का हौसला बढ़ाने के लिए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ कमी होगी तो हम पूरी कर लेंगे. तुम बनाओ तो सही. बनाओ, शाबाश.’’

मेरे इस अभियान में पति भी मेरे साथ हो गए थे. उन्हें विश्वास था कि चारू अच्छी हो जाएगी. शाम को घर आए तो पता चला कि 15 दिन की छुट््टी पर हैं. पूछा तो हंसने लगे, ‘‘क्या करता, आज शोभा का फोन आया था. कहती थी 2 दिन के लिए यहां आना चाहती है. उसे मैं ने टाल दिया. मैं ने कह दिया कि कल से बनारस जा रहे हैं हम, मिल नहीं पाएंगे. इसलिए क्षमा करें.’’

ये भी पढ़ें- आंचल की छांव

‘‘अच्छा? यह तो मैं ने सोचा ही न था,’’ पति की समझदारी पर भरोसा था मुझे.

‘‘अब चारू के बहाने मैं भी घर पर रह कर आराम करूंगा. चारू नएनए पकवान बनाएगी, है न बिटिया.’’

‘‘मेरी खातिर आप को कितना झूठ बोलना पड़ रहा है.’’

15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. सब बदल गया, मानो हमें बेटी मिल गई हो. सुबह नाश्ते से ले कर रात खाने तक सब चारू ही करती रही. मेरे कितने काम रुके पड़े थे जो मैं गरदन में दर्द की वजह से टालती जा रही थी. चारू ने निबटा दिए थे. घर की सब अलमारियां करीने से सजा दीं और बेकार सामान अलग करवा दिया.

घर की साजसज्जा का भी चारू को शौक है. फैब्रिक पेंट और आयल पेंट से हमारा अतिथि कक्ष अलग ही तरह का लगने लगा. नई सोच और नई ऊर्जा पर मेरी थक चुकी उंगलियां संतुष्ट एवं प्रसन्न थीं. काश, ऐसी ही बहू मुझे भी मिल जाए. क्या दीदी को ऐसा नहीं लगता? फिर सोचती हूं उस की उंगलियां थकी ही कब थीं जो बहू में सहारा खोजतीं. उस ने तो आज तक सदा अभिनय किया और दांवपेच खेल कर अपना काम चलाया है. मेरी बनाई पाक कला पर बड़ी सहजता से अपना नाम चिपकाना, बनीबनाई चीज और पराई मेहनत का सारा श्रेय खुद ले जाना दीदी का सदा का शौक रहा है. भला इस में मेहनत कैसी जो वह थक जाती और बहू का सहारा उसे मीठा लगता.

अनुराग का फोन अकसर आता रहता. चारू उस से बात करने से भी कतराती. पूछने पर बताने लगी, ‘‘बहुत परेशान किया है मुझे अनुराग ने भी. कम से कम इन्हें तो मेरा साथ देना चाहिए. मेरा मन नहीं है बात करने का.’’

एक दिन चारू बोली, ‘‘मौसी, मैं अपने मायके पापा के पास भाग जाना चाहती थी लेकिन डरती हूं कि पापा को मेरी हालत देख कर धक्का लगेगा. उन्हें भी तो दुखी नहीं करना चाहती.’’

‘‘इस घर को अपने पापा का ही घर समझो, मैं हूं न,’’ भावविह्वल हो कर मेरे पति बोले थे. बरसों से मन में बेटी की साध थी. चारू से इन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों किसी भी विषय पर अच्छी खासी चर्चा कर बैठते.

‘‘बहुत समझदार और बड़ी सूझबूझ वाली है चारू, इसीलिए तुम्हारी बहन के गले में कांटे की तरह फंस गई. यह तो होना ही था. भला शोभा जैसी औरत इसे कैसे बरदाश्त करती?’’ मेरे पति बोले.

15 दिन बाद अनुराग आया और उस के सभी प्रश्नों के उत्तर उस के सामने थे. मेरे घर की नई साजसज्जा, दीवार पर टंगी खूबसूरत पेंटिंग, सोफों पर पड़े सुंदर कुशन, मेज पर सजा स्वादिष्ठ नाश्ता, सब चारू का ही तो कियाधरा था.

‘‘पता चला, मैं क्यों कहती थी कि चारू को मेरे पास छोड़ जा. कुछ नहीं किया मैं ने, सिर्फ उसे मनचाहा करने की आजादी दी है. पिछले 15 दिन से मैं ने पलट कर भी नहीं देखा कि वह क्या कर रही है. जो लड़की मेरा घर सजासंवार सकती है, क्या अपने घर में निपट गंवार होगी? क्या एक कप चाय भी वह तुम्हें नहीं पिला पाती होगी? अपनी मां का इलाज कराओ अनुराग, चारू तो अच्छीभली है. जाओ, जा कर मिलो उस से, अंदर है वह.’’

शाम तक अनुराग हमारे ही साथ रहा. घर जाने का समय आया तो हम दोनों का भी मन डूबने लगा. अपने मौसा की छाती से लग कर चारू फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘नहीं बिटिया, रोना नहीं. तुम्हारा अपना घर तो वही है न. अब तुम्हें उसी को सजानासंवारना है. जब भी याद आए, मत सोचना तुम्हारे पापा का घर दूर है. नहीं तो एक फोन ही घुमा देना, हम अपनी बच्ची से मिलने आ जाएंगे.’’

हाथ में पकड़ी सुंदर टाप्स की डब्बी इन्होंने चारू को थमा दी.

‘‘पापा के घर से बिटिया खाली हाथ नहीं न जाती. जाओ बच्ची, फलो- फूलो, खुश रहो.’’

दोनों चले गए. हम उदास भी थे और संतुष्ट भी. पूरी रात अपने कदम का निकलने वाला नतीजा कैसा होगा, सोचते रहे. सुबहसुबह इन्होंने शोभा दीदी के घर फोन किया.

‘‘दीदी, हम बनारस से लौट आए हैं. आप आइए न, कुछ दिन हमारे पास,’’ और कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद हंसते हुए फोन रख दिया.

‘‘सुनो, अब तुम्हारी बहन परेशान हैं. क्या उन्हें भी बुला लें. कह रही हैं, चारू अनुराग के साथ कुछ दिनों के लिए टूर पर गई थी और अब लौटी है तो मेमसाहब के रंगढंग ही बदले हुए हैं. कह रही हैं कि अपना और अनुराग का नाश्ता वह खुद ही बनाएंगी.’’

हैरान रह गई मैं, ‘‘तो क्या बहू की चुगली दीदी आप से कर रही हैं. उन्हें शर्म है कि नहीं?’’

मेरे पति खिलखिला कर हंस पडे़ थे. हमारा प्रयोग सफल रहा था. चारू संभल गई थी. अब भोगने की बारी दीदी की थी. कभी न कभी तो उसे अपना बोया काटना ही पड़ता न, सो उस का समय शुरू होता है अब.

अब अकसर ऐसा होता है, दीदी आती हैं और घंटों चारू के उसी अभिनय को कोसती रहती हैं जिस के सहारे दीदी ने खुद अपनी उम्र गुजारी है. कौन कहे दीदी से कि उसे आईना दिखाया जा रहा है, यह उसी पेड़ का कड़वा फल है जिस का बीज उस ने हमेशा बोया है. कभी सोचती हूं कि दीदी को समझाऊं लेकिन जानती हूं वह समझेंगी नहीं.

भूल जाता है मनुष्य अपने ओछे कर्म को. अपने संताप का कारण कभीकभी वह स्वयं ही होता है. जरा सा संतुलन अगर रिश्तों में शोभा भी बना लेने का प्रयास करती तो न वह कल औरों को दुखी करती और न ही आज स्वयं परेशान होती.

जो भी प्रकृति दे दे

लेखक- सुधा गुप्ता

कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

ये भी पढ़ें- लाश वाली सवारी

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

ये भी पढ़ेंकजरी

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

ये भी पढ़ें- जी शुक्रिया

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

ये भी पढ़ें- हड़ताली

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

ये भी पढ़ें- प्रश्नों के घेरे में

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे,

पुरस्कार

लेखक- सुरेंद्र नाथ मल्होत्रा

उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

ये भी पढ़ें- आइए एडमिशन का मौसम है

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

ये भी पढ़ें- राख: अभी ठंडी नहीं हुई

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

ये भी पढ़ें- सीमा रेखा

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

ये भी पढ़ें- शिकार

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

आइए एडमिशन का मौसम है

लेखक-  शरद उपाध्याय

हमारे देश में प्रतिदिन हजारों बच्चों का जन्म होता है. बच्चे धीरेधीरे बड़े होते हैं व एक दिन उस अवस्था को प्राप्त करते हैं जहां पर उन्हें स्कूल भेजने का संस्कार संपन्न कराना पड़ता है.

बच्चों को स्कूल में डालना, देखने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना सरल वास्तव में है नहीं. वे दिन गए जब बच्चों को सरलता से स्कूल में एडमिशन मिल जाया करता था. बच्चा थोड़ा सा ठीकठाक हुआ, उलटीसीधी गिनती बताने लगता था तो भी वे मात्र इस आधार पर कि बच्चे को पर्याप्त दिशाज्ञान है, स्कूल में भर्ती कर लेते थे.

पर आज ऐसा कुछ भी नहीं है. वर्तमान में एडमिशन एक दुर्लभ प्रक्रिया हो गई है. बच्चे के जन्म के साथ ही यह चिंता और बहस का विषय हो जाता है. जैसे ही बच्चा जन्मता है, मांबाप उस के भविष्य की चिंता प्रारंभ कर देते हैं. उन्हें घबराहट होती है कि बस, 3 या 4 साल बाद वे ‘स्कूल एडमिशन’ के पीड़ादायक दौर से गुजरने वाले हैं. उन्हें भूख कम लगने लगती है तथा ब्लडप्रेशर में उतारचढ़ाव अधिक महसूस होता है.

पहले जहां इस प्रक्रिया में अध्ययन केवल बच्चे को करना पड़ता था आजकल मांबाप को अधिक मेहनत करनी पड़ती है. वर्षों पूर्व की गई पढ़ाई की यादें ताजा हो जाती हैं तथा मांबाप  के हाथ में पत्रपत्रिकाओं के स्थान पर कोर्स की किताबें नजर आने लगती हैं.

बच्चे के जन्म के साथ ही मातापिता का नगरीय भौगोलिक ज्ञान बढ़ जाता है. शहर के वे सभी स्कूल, जहां वे बच्चे का एडमिशन कराना चाहते हैं, उन के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं. वे जब कभी भी उधर निकलते हैं, उन स्कूलों को देख कर ठंडी आहें भरते हैं.

ये भी पढ़ें- बताएं कि हम बताएं क्या

बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो मांबाप के चिंताग्राफ में वृद्धि हो जाती है. वे तथाकथित स्कूलों के अध्यापक- अध्यापिकाओं से संबंध बढ़ाने लगते हैं. जानपहचान न होने के बावजूद उन्हें नमस्ते करते हैं. यहां वे गुरुजनों के प्रोत्साहन के अभाव को दार्शनिक अंदाज में लेते हैं. वे सोचते हैं, कोई बात नहीं, आज नहीं तो कल ईश्वर उन की प्रार्थना को अवश्य सुनेगा.

थोड़ा सा परिचय होने के बाद वे गुरुजनों को घर पर चाय के लिए आमंत्रित करते हैं एवं उन के न आने पर स्वयं उन के घर जा धमकते हैं. इन नाना प्रकार के मौकों पर मिली उपेक्षा को वे भविष्यरूपी निवेश समझ कर पी जाते हैं.

लेकिन उन के प्रयास केवल बाहरी नहीं होते, उन का घर भी एक बाल अध्ययन केंद्र बन जाता है. पहले वे स्वयं रटरट कर याद करते हैं, उस के बाद बच्चे के साथ अत्याचार जारी रखते हैं. जिन सब्जियों को पहले वे मात्र हिंदी में ही पका कर खाते थे. अब उन के अंगरेजी अर्थ के लिए किताबों का सहारा लेते हैं. पहले उन के घर में जहां रोज पूजा के मंत्र गूंजते थे, अब पालतू जानवरों व पक्षियों के नाम तैरते रहते हैं. उन का घर, घर न लग कर चिडि़याघर प्रतीत होता है.

व्यक्ति घर से निकलने वाले सभी रास्ते भूल जाता है. वह घर से दफ्तर जाता है व दफ्तर से लौट कर सीधे घर आता है. घर आते ही वह किताबें उठा कर सीधे ट्यूशन पढ़ने चला जाता है. आखिरकार आजकल बच्चों के साथसाथ मांबाप का भी इंटरव्यू लिया जाता है. कहीं किसी मौके पर बच्चा तो होशियारी का परिचय दे जाए, किंतु मांबाप फिसड्डी साबित हों, इस डर से वह निरंतर अध्ययन में लगा रहता है.

आजकल बड़ेबड़े स्कूलों में फीस का स्तर भी बड़ाबड़ा ही होता है. अत: वह निर्धारित समय पर आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए विभिन्न ऋण योजनाओं का दामन पकड़ते हैं. जिस खर्चे में उन की कालिज स्तर की पढ़ाई संपन्न हो गई थी, आजकल उस में तो बच्चा नर्सरी भी पास नहीं कर सकता.

जैसे ही उन का नालायक बच्चा लायक बनता है उन की तैयारियां युद्ध स्तर पर प्रारंभ हो जाती हैं. पति व पत्नी  अपनी बेकाबू काया पर काबू पाने के लिए सघन अभियान प्रारंभ कर देते हैं. पति जहां रोज सुबहसुबह दौड़ लगाता है वहीं पत्नी रस्सी कूद कर शरीर छरहरा करने का असफल प्रयास करती है. आखिरकार इंटरव्यू में मांबाप फिट नहीं दिखे तो बच्चे के अनफिट होने की आशंका बढ़ जाती है.

पत्नी जो विभिन्न मौकों पर अंगरेजी की टांग तोड़ती रहती है, अब थोड़ा संभलसंभल कर बोलने लगती है.

शहर के विभिन्न स्कूल एडमिशन के इस पावन पर्व पर अपने फार्म जारी करते हैं जिस पर व्यक्ति सैकड़ों रुपए इनवेस्ट कर आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देता है.

फिर आता है इंटरव्यू का दौर. उस से पूर्व मातापिता का जहां खाना हराम हो जाता है वहीं बच्चों की डाइट बढ़ जाती है. अच्छे प्रदर्शन का वचन देने के बदले वह नाना प्रकार की स्वादिष्ठ वस्तुएं अनवरत पाता रहता है. इस से जहां बच्चे का स्वास्थ्य सुधरता है वहीं चिंतित मातापिता का स्वास्थ्य व बजट, दोनों बिगड़ जाता है.

इंटरव्यू के दौरान विभिन्न स्कूलों के अलगअलग चयनकर्ताओं के सामने प्रदर्शन करता है. जब तक रिजल्ट नहीं आता तब तक मांबाप, आपस में बैठ कर तीनों के प्रदर्शन की समीक्षा करते रहते हैं. वे विभिन्न देवीदेवताओं के समक्ष मनौती मानते हैं.

ये भी पढ़ें- टूटता विश्वास

किंतु होनी को कौन टाल सकता है. चंद भाग्यवानों के अतिरिक्त सभी का विश्वास भगवान से उठ जाता है. वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं. बच्चे का जीवन स्तर, जोकि अच्छे प्रदर्शन के वचन के कारण ऊपर उठ गया था, पुन: गरीबी की रेखा के नीचे आ जाता है.

फिर वे भारतीय खिलाडि़यों के अच्छे प्रदर्शन न कर पाने की तरह, एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं. और अंत में थकहार कर समझौतावादी हो जाते हैं. परिणाम में वे नालायक बेटे को किसी लायक स्कूल के स्थान पर अन्य स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं और इसे नियति मान कर स्वीकार कर लेते हैं. द्य

हड़ताली

बिस्तर पर लेटेलेटे सोम प्रकाश ने दीवार घड़ी की ओर देखा. सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे. वह अलसाया सा लेटा रहा. उस का बिस्तर छोड़ने का मन बिलकुल नहीं कर रहा था.

सोम प्रकाश की उम्र तकरीबन 50 साल थी. रंग सांवला, भरा हुआ शरीर, सिर पर छोटेछोटे बाल. परिवार में पत्नी गायत्री और एक बेटा राजीव था जो 12वीं जमात में पढ़ रहा था.बेटी अनीता की शादी 5 साल पहले कर दी गई थी. इतने सालों के बाद बेटी अनीता मां बनने वाली थी यानी वह नाना बनने वाला था.

गायत्री ने अनीता की ससुराल वालों से कह दिया था कि बेटी का पहला बच्चा यहीं पर उस के मायके में होगा. 2 महीने से बेटी यहां आई हुई थी.

सोम प्रकाश रोडवेज की बस में ड्राइवर था. 2 दिन से रोडवेज की चक्का जाम हड़ताल चल रही थी. सरकार महंगाई तो बढ़ा देती है, पर तनख्वाह बिना बढ़ाए देना चाहती है. जब से वह नौकरी पर है, कई बार हड़ताल हो चुकी है. हर बार उस ने हड़ताल को कामयाब बनाने में पूरा साथ दिया है.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

सोम प्रकाश उठ कर बैठ गया. आज के अखबार में रोडवेज की हड़ताल की खबर पढ़ने लगा. हड़ताल के चलते प्रदेश में करोड़ों रुपए का रोजाना का नुकसान हो रहा था. मुसाफिरों को बस न मिलने से बहुत परेशानी हो रही थी. कुछ डग्गेमार बसें पुलिस से मिल कर चल रही थीं. रोडवेज कर्मचारी यूनियन के नेताओं की सरकार से बातचीत नाकाम हो रही थी.

सोम प्रकाश मन ही मन खुश हो रहा था कि हड़ताल कामयाब हो रही है, तभी उस के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने मोबाइल कान से लगा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘10 बजे तक तुम बसस्टैंड पहुंच जाना. जलसा है. हमें सरकार को अपनी ताकत दिखानी है कि हमारी एकता के चलते हड़ताल कितनी कामयाब है. जिस हड़ताल में जनता जितनी परेशान होती है, वह हड़ताल उतनी ही कामयाब मानी जाती है,’ उधर से एक साथी की आवाज सुनाई दी.

‘‘ठीक है, मैं वहां पहुंच जाऊंगा. जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है तो मजबूर हो कर उंगली टेढ़ी मतलब हड़ताल करनी पड़ती है,’’ सोम प्रकाश ने कहा और फोन बंद कर दिया.

तभी गायत्री ने आ कर कहा, ‘‘उठो जल्दी, अब ज्यादा देर नहीं है. तुम शांति दाई को जल्दी बुला लाओ.’’

‘‘दाई को रहने दो. अनीता को कसबे के बड़े अस्पताल में ले चलते हैं.’’

‘‘नहीं, नहीं. वहां कभी डाक्टर नहीं मिलता तो कभी नर्स नहीं मिलती. शांति दाई पुरानी और समझदार हैं. तुम जल्दी जाओ,’’ गायत्री ने कहा.

शांति दाई का मकान ज्यादा दूर नहीं था. सोम प्रकाश उठा और लौटा तो दाई उस के साथ थी.

कुछ ही देर बाद दाई ने कमरे से बाहर निकल कर कहा, ‘‘बेटी को शहर के अस्पताल में ही ले जाना होगा. बिना आपरेशन के बच्चा नहीं होगा.’’

यह सुनते ही सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. जल्दी ही उस ने अपने एक दोस्त से कह कर कार मंगा ली. अनीता को पिछली सीट पर गायत्री के साथ बिठा दिया गया. कसबे से शहर तकरीबन 40 किलोमीटर दूर था.

सोम प्रकाश कार चलाने लगा. बेटी की दर्द भरी कराहट सुन कर उस के दिल में कुछ चुभता चला जाता.

‘‘बस बेटी, बस. शहर आने ही वाला है. 15-20 मिनट का रास्ता और रह गया है,’’ सोम प्रकाश ने कहा.

सामने रेलवे फाटक का नजारा देख कर सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. रेलवे फाटक बंद था. ट्रक, प्राइवेट बसें, कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टरट्रौली वगैरह के चलते लंबा जमा लगा था. एक ट्रेन खड़ी थी. उस पर हजारों छात्र लदे हुए थे. वे खूब जोरशोर से चीखचिल्ला कर नारे लगा रहे थे.

कल तक जिन नारों को सुन कर सोम प्रकाश की ताकत बढ़ जाती थी, आज वे नारे उस के कानों में चुभते चले जा रहे थे.

गायत्री ने पूछा, ‘‘यहां क्या हो गया अब?’’

‘‘पता नहीं, क्या चक्कर है. मैं देख कर आता हूं,’’ कहता हुआ सोम प्रकाश कार से उतरा और फाटक की तरफ चल दिया.

वहां जा कर वह कुछ लोगों की बातें सुनने लगा. एक आदमी कह रहा था, ‘‘कल से इन छात्रों ने हड़ताल के नाम पर खूब कहर बरपा रखा है. एक ट्रेन सुबह 10 बजे सुंदरपुर पहुंचती थी. रेलवे ने उस का टाइम बदल कर 11 बजे कर दिया. अब इन छात्रों की मांग है कि ट्रेन का टाइम 10 बजे का ही किया जाए ताकि वे समय पर स्कूलकालेज पहुंच सकें. कल भी दिनभर ये गाडि़यां रोकते और लेट करते रहे. इस में तो सारी गलती रेलवे की है. भला क्या जरूरत थी टाइम बदलने की? यह सरकार भी है न बिना हड़ताल कराए मानती ही नहीं.’’

‘‘भला इस में सरकार का क्या जा रहा है, परेशान तो आम जनता है न,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘आम जनता को परेशान करने के लिए ही तो यह हड़ताल की जाती है. अब देखो, 3 दिन से रोडवेज वालों की हड़ताल चल रही है और जनता परेशान है.’’

ये भी पढ़ें-  मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

‘‘इन रोडवेज वालों के बारे में कुछ न पूछो. ये रास्ते में अपनी मरजी से सवारी बिठाते हैं. सवारी भले ही हाथ देती रहे, पर मरजी होगी तो बस रोक देंगे. इन की हड़ताल से जनता कितनी परेशान है. लोग गधों की तरह टैंपो, ट्रक या डग्गेमार बसों में भर कर आ रहे हैं, जा रहे हैं. क्या करें, मजबूरी है,’’ उस आदमी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोम प्रकाश ने अपने महकमे की बुराई सुनी तो तिलमिला कर रह गया, पर वह चुपचाप आगे बढ़ गया.

फाटक के पास ट्रेन का गार्ड और ड्राइवर खड़े थे. कुछ छात्र उन को घेर कर खड़े हुए नारे लगा रहे थे. कुछ लोग ट्रेन से उतर कर इधरउधर खड़े थे. ट्रेन में बैठे परेशान से लोग खिड़की से इधरउधर झांक रहे थे.

सोम प्रकाश के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं कि अब क्या होगा. इन कमबख्तों को भी आज ही हड़ताल करनी थी. सुंदरपुर पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है. इन लड़कों ने ट्रेन फाटक के सामने जानबूझ कर रोकी है, ताकि जनता परेशान हो.

3 दिन पहले जब उन की हड़ताल शुरू हुई तो एक रोडवेज की बस को उस ने व उस के साथियों ने जबरदस्ती रोका था. बस से सभी सवारियों को उतर जाने को मजबूर किया था. उसी बस में एक आदमी के साथ उस का 6-7 साल का बीमार बेटा भी था. वह आदमी अपने बेटे को डाक्टर को दिखाने शहर ले जा रहा था. तब उस आदमी ने उन लोगों के सामने हाथ जोड़ कर दया की भीख मांगी थी, पर किसी भी हड़ताली का दिल नहीं पिघला था. उस का भी नहीं. वे सब हड़ताल को कामयाब बनाने के नशे में चूर थे.

सोम प्रकाश ट्रेन के गार्ड के पास जा कर चिंतित आवाज में बोला, ‘‘साहब और कितनी देर लगेगी यहां? टै्रफिक बहुत पीछे तक लगा है. हमें सुंदरपुर जाना है. गाड़ी को थोड़ा आगे करा कर फाटक खुलवा दो बस.’’

‘‘मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. पिछले स्टेशन से यहां तक 5-6 बार जंजीर खींच ली. गाड़ी आधा किलोमीटर भी नहीं चलती कि ये लड़के जंजीर खींच कर गाड़ी रोक देते हैं. यहां जब ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाने लगा तो लड़के इंजन में ही घुस गए और ड्राइवर को नीचे उतार दिया,’’ गार्ड ने जवाब दिया.

तभी ट्रेन का ड्राइवर बोल उठा, ‘‘ऐसे हालात में गाड़ी चलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. मैं ने भी यह सोच लिया है कि इन को अपनी मनमानी कर लेने दो. मैं भी अब ट्रेन ले कर आगे नहीं जाऊंगा.’’

सोम प्रकाश ने हाथ जोड़ कर गार्ड से कहा, ‘‘मेरी बेटी की हालत बहुत खराब है साहब. आप गाड़ी आगे करा कर यह फाटक खुलवा दो.’’

‘‘कैसे खुलवा दें फाटक? इंजन की हालत देख रहे हो न, कितने छात्र उस पर लदे हुए हैं. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है. मैं आप सभी का दुख समझ रहा हूं. ट्रेन में बैठे लोगों की अपनीअपनी परेशानी है. किसी को कोर्ट जाना है, किसी को औफिस जाना है, तो किसी को डाक्टर के पास पहुंचना है.

‘‘ये हड़ताली किसी का दुख नहीं समझते. इन्हें जनता को परेशान और दुखी करने में ही मजा आता है. जब कोई हड़ताली खुद किसी हड़ताल में फंसता है तब उसे पता चलता है कि हड़ताल कितनी खतरनाक है,’’ गार्ड ने कहा.सोम प्रकाश की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह खुद हड़ताल पर था. उन की हड़ताल से लोग कितने परेशान थे, इस के बारे में सोच कर वह खुश था. छात्रों की इस तरह की हड़ताल से जब सामना हुआ तो वह बुरी तरह घबरा गया.

दुखी और परेशान सा सोम प्रकाश कार के पास पहुंच गया. उसे देखते ही गायत्री ने पूछा, ‘‘कितनी देर और लगेगी यहां? अनीता की हालत ज्यादा खराब हो रही है.’’

सोम प्रकाश ने अनीता की ओर देखा. वह आंखें बंद कर निढाल हो चुकी थी.

सोम प्रकाश चुप रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था. उसे एकएक मिनट भारी लग रहा था.

गायत्री दुखी आवाज में बोली, ‘‘अब क्या होगा? अगर अनीता को कुछ हो गया तो मैं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगी.’’

‘‘तू ने ही अनीता को जबरदस्ती यहां बुलाया था कि पहला बच्चा है, यहां मायके में ही होना चाहिए. उस की ससुराल वाले तो मना कर रहे थे. अब भुगत अपनी जिद,’’ सोम प्रकाश ने गुस्से में कहा.

गायत्री की आंखों से आंसू बहने लगे. वह बोली, ‘‘मैं जाती हूं. इन लड़कों के आगे हाथपैर जोड़ कर ट्रेन आगे करा दूंगी. यह फाटक खुल जाएगा.’’

‘‘नहीं गायत्री, वहां जाना बेकार है. हड़ताल, जाम, धरनाप्रदर्शन करने वालों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं. न कोई सुनेगा और न कोई मानेगा.’’

तकरीबन एक घंटे बाद ट्रेन आगे की ओर सरकी. फाटक खुला. ट्रैफिक चलने लगा.

सोम प्रकाश ने देखा, अनीता निढाल सी बैठी थी. गायत्री उसे पुकार रही थी, पर वह कोई जवाब नहीं दे रही थी.

ये भी पढ़ें-  मेरी बेटी का व्यंजन परीक्षण

सोम प्रकाश ने कार की रफ्तार बढ़ा दी. वह जल्द ही शहर के किसी भी नर्सिंगहोम में पहुंचना चाहता था.

नर्सिंगहोम तक पहुंचने में आधा घंटा लग गया. वह तेजी से डाक्टर के चैंबर में पहुंचा और बोला, ‘‘मेरी बेटी बहुत सीरियस है. डिलीवरी होनी है उस की.’’

‘‘मैं देखती हूं अभी,’’ कहते हुए डाक्टर आरती फोन पर कुछ जरूरी बात करने लगी.

‘‘मैं नंदनपुर कसबे से आ रहा हूं. रास्ते में कुछ छात्र फाटक पर ट्रेन को रोक कर प्रदर्शन कर रहे थे. फाटक बंद होने से टै्रफिक जाम होता चला गया. वहां डेढ़ घंटा बरबाद हो गया.’’

डाक्टर आरती उठते हुए बोलीं, ‘‘पता नहीं, क्या हो रहा है इस देश में, जहां देखो हड़ताल, धरना, प्रदर्शन व जाम. ट्रेन रोको, सड़क रोको, कामकाज ठप करो. हड़ताल से जनता को कितनी परेशानी होती है, यह हड़ताली नहीं सोचते. देश को नुकसान पहुंचा कर और आम जनता को परेशान कर अपना मतलब निकालना ही हड़ताल का मकसद है क्या?

‘‘जिस नेता या मंत्री से कोई शिकायत या मांग है तो उस का घेराव करें. उस के सामने धरनाप्रदर्शन करें. आम जनता को क्यों परेशान करते हो जिस का उस हड़ताल से कोई लेनादेना नहीं है. अदालतों का सहारा लें. आप क्या काम करते हैं?’’

‘‘मैं रोडवेज बस में ड्राइवर हूं,’’ सोम प्रकाश के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे.

‘‘कमाल है, आप भी तो हड़ताल पर हैं. अब आप को पता चल गया होगा कि हड़ताल के कितने भयंकर रूप हैं. सरकार को भी चाहिए कि हड़ताल, चक्काजाम, बंद वगैरह पर पूरी तरह रोक लगा दे,’’ कहते हुए डाक्टर आरती जच्चाघर में पहुंच गईं.

अनीता को स्ट्रैचर पर लिटा कर जच्चाघर ले जाया जा चुका था.

सोम प्रकाश व गायत्री धड़कते दिल से बैठे इंतजार कर रहे थे.

कुछ देर बाद डाक्टर आरती बाहर निकलीं और गंभीर आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख है कि आप की बेटी व बच्चा बच नहीं पाए. आप ने आने में देर कर दी. अगर आप सही समय पर आ जाते तो दोनों की जान बच जाती.’’

यह सुनते ही गायत्री दहाड़ मार कर रोने लगी. सोम प्रकाश का दिल भी बैठता चला गया. अब उस की बेटी व होने वाले नाती की बलि हड़ताल पर चढ़ गई थी. वह खुद भी तो हड़ताली है. उसे लग रहा था मानो वह हड़ताली नहीं, एक अपराधी है देश का.

ये भी पढ़ें-  प्रश्नों के घेरे में

सोम प्रकाश चुपचाप अनीता की लाश कार में रखवा कर गायत्री के साथ वापस घर की ओर चल दिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें