Hindi Story : माटी का प्यार

Hindi Story : फोन की घंटी की आवाज सुन कर मिथिला ने हाथ का काम छोड़ कर चोगा कान से लगाया.

‘मम्मा’ शब्द सुनते ही समझ गईं कि भूमि का फोन है. वह कुछ प्यार से, कुछ खीज से बोलीं, ‘‘हां, बता, अब और क्या चाहिए?’’

‘‘मम्मा, पहले हालचाल तो पूछ लिया करो, इतनी दूर से फोन कर रही हूं. आप की आवाज सुनने की इच्छा थी. आप घंटी की आवाज सुनते ही मेरे मन की बात समझ जाती हैं. कितनी अच्छी मम्मा हैं आप.’’

‘‘अब मक्खनबाजी छोड़, मतलब की बात बता.’’

‘‘मम्मा, ललित के यहां से थोड़ी मूंगफली मंगवा लेना,’’ कह कर भूमि ने फोन काट दिया.

मिथिला ने अपने माथे पर हाथ मारा. सामने होती तो कान खींच कर एक चपत जरूर लगा देतीं. यह लड़की फ्लाइट पकड़तेपकड़ते भी फरमाइश खत्म नहीं करेगी. फरमाइश करते समय भूल जाती है कि मां की उम्र क्या है. मां तो बस, अलादीन का चिराग है, जो चाहे मांग लो. भैयाभाभी दोनों नौकरी करते हैं. कोई और बाजार दौड़ नहीं सकता. अकेली मां कहांकहां दौडे़? गोकुल की गजक चाहिए, प्यारेलाल का सोहनहलवा, सिकंदराबाद की रेवड़ी, जवे, कचरी, कूटू का आटा, मूंग की बडि़यां, पापड़, कटहल का अचार और अब मूंगफली भी. कभी कहती, ‘मम्मा, आप बाजरे की खिचड़ी बनाती हैं गुड़ वाली?’

सुन कर उन की आंखें भर आतीं, ‘तू अभी तक स्वाद नहीं भूली?’

‘मम्मा, जिस दिन स्वाद भूल जाऊंगी अपनी मम्मा को और अपने देश को भूल जाऊंगी. ये यादें ही तो मेरा जीवन हैं,’ भूमि कहती.

‘ठीक है, ज्यादा भावुक न बन. अब आऊंगी तो बाजरागुड़ भी साथ लेती आऊंगी. वहीं खिचड़ी बना कर खिला दूंगी.’

और इस बार आधा किलोग्राम बाजरा भी मिथिला ने कूटछान कर पैक कर लिया है.

कई बार रेवड़ीगजक खाते समय भूमि खयालों में सामने आ खड़ी होती.

‘मम्मी, सबकुछ अकेलेअकेले ही खाओगी, मुझे नहीं खिलाओगी?’

‘हांहां, क्यों नहीं, ले पहले तू खा ले,’ और हाथ में पकड़ी गजक हाथ में ही रह जाती. खयालों से बाहर निकलतीं तो खुद को अकेला पातीं. झट भूमि को फोन मिलातीं.

‘भूमि, तू हमेशा मेरी यादों में रहती है और तेरी याद में मैं. बहुत हो चुका बेटी, अब अपने देश लौट आ. तेरी बूढ़ी मां कब तक तेरे पास आती रहेगी,’ कहतेकहते वह सुबक उठतीं.

‘मम्मा, आप जानती हैं कि मैं वहां नहीं आ सकती, फिर क्यों याद दिला कर अपने साथ मुझे भी दुखी करती हो.’

‘अच्छा बाबा, अब नहीं कहूंगी. ले, कान पकड़ती हूं. अब अपने आंसू पोंछ ले.’

‘मम्मा, आप को मेरी आंखें दिखाई दीं?’

‘बेटी के आंसू ही तो मां की आंखों में आते हैं. तेरी आवाज सब कह देती है.’

‘मम्मा, आंसू पोंछ लिए मैं ने, लेकिन इस बार जब तुम आओगी तो जाने नहीं दूंगी. यहीं मेरे पास रहना. बहुत रह लीं वहां.’

‘ठीक है, पर तेरे देश की सौगातें तुझे कैसे मिलेंगी?’

‘हां, यह तो सोचना पडे़गा. अब आप को तंग नहीं होना पडे़गा. हम भारत से आनलाइन खरीदारी करेंगे. थोड़ा महंगा जरूर पडे़गा पर कोई बात नहीं. आप की बेटी कमा किस के लिए रही है. पता है मम्मा, यहां एक इंडियन रेस्तरां है, करीब 150 किलोमीटर दूर. जिस दिन भारतीय खाना खाने का मन होता है वहीं चली जाती हूं और वहीं एक भारतीय शाप से महीने भर का सामान भी ले आती हूं.’

बेटी की बातें सुन कर मिथिला की आंखें छलछला आईं. उन्हें लगा कि बिटिया भारतीय व्यंजनों के लिए कितना तरसती है. पिज्जाबर्गर की संस्कृति में उसे आलू और मूली का परांठा याद आता है. काश, वह उस के पास रह पातीं और रोज अपने हाथ से बनाबना कर खिला पातीं.

5 साल हो गए यहां से गए हुए, लौट कर नहीं आई. वह ही 2 बार हो आई हैं और अब फिर जा रही हैं. भूमि के विदेश जाने में वह कहीं न कहीं स्वयं को अपराधी मानती हैं. यदि भूमि के विवाह को ले कर वह इतनी जल्दबाजी न करतीं तो ये सब न होता. भूमि ने दबे स्वर में कहा भी था कि मम्मा, थोड़ा सोचने का वक्त दो.

वह तब उबल पड़ी थीं कि तू सोचती रहना, वक्त हाथ से निकल जाएगा. सोचतेसोचते तेरे पापा चले गए. मैं भी चली जाऊंगी. अब नौकरी करते भी 2 साल निकल गए. रिश्ता खुद चल कर आया है. लड़का स्वयं साफ्टवेयर इंजीनियर है. तुम दोनों पढ़ाई में समान हो और परिवार भी ठीकठाक है, अब और क्या चाहिए?

उत्तर में मां की इच्छा के आगे भूमि ने हथियार डाल दिए क्योंकि  वह हमेशा यही कहती थीं कि तू ने किसी को पसंद कर रखा हो तो बता, हम वहीं बात चलाते हैं. भूमि बारबार यही कहती कि मम्मा, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप जहां कहोगी चुपचाप शादी कर लूंगी.

भूमि ने मां की इच्छा को सिरआंखों पर रख, जो दरवाजा दिखाया उसी में प्रवेश कर गई, लेकिन विवाह को अभी 2 महीने भी ठीक से नहीं गुजरे थे कि भूमि पर नौकरी छोड़ कर घर बैठने का दबाव बनने लगा और जब भूमि ने नौकरी छोड़ने से इनकार कर दिया तो उस का चारित्रिक हनन कर मानसिक रूप से उसे प्रताडि़त करना शुरू कर दिया गया.

6 महीने मुश्किल से निकल पाए. भूमि ने बहुत कोशिश की शादी को बचाए रखने की, पर नहीं बचा सकी. इसी बीच कंपनी की ओर से उसे 6 माह के लिए टोरंटो (कनाडा) जाने का अवसर मिला. वह टोरंटो क्या गई बस, वहीं की हो कर रह गई और उस ने तलाक के पेपर हस्ताक्षर कर के भेज दिए.

‘मम्मा, अब कोई प्रयास मत करना,’ भूमि ने कहा था,  ‘इस मृत रिश्ते को व्यर्थ ढोने से उतार कर एक तरफ रख देना ज्यादा ठीक लगा. बहुत जगहंसाई हो ली. मैं यहां आराम से हूं. सारा दिन काम में व्यस्त रह कर रात को बिस्तर पर पड़ कर होश ही नहीं रहता. मैं ने सबकुछ एक दुस्वप्न की तरह भुला दिया है. आप भी भूल जाओ.’

कुछ नहीं कह पाईं बेटी से वह क्योंकि उस की मानसिक यंत्रणा की वह स्वयं गवाह रही थीं. सोचा कि थोडे़ दिन बाद घाव भर जाएंगे, फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा. इसी उम्मीद को ले कर वह 2 बार भूमि के पास गईं. प्यार से समझाया भी, ‘सब मर्द एक से नहीं होते बेटी. अपनी पसंद का कोई यहीं देख ले. जीवन में एक साथी तो चाहिए ही, जिस से अपना सुखदुख बांटा जा सके. यहां विदेश में तू अकेली पड़ी है. मुझे हरदम तेरी चिंता लगी रहती है.’

‘मम्मा, अब मुझे इस रिश्ते से घृणा हो गई है. आप मुझ से इस बारे में कुछ न कहें.’

विचारों को झटक कर मिथिला ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजने वाले हैं. कल की फ्लाइट है. पैकिंग थोड़ी देर बाद कर लेगी. घर को बाहर से ताला लगा और झट रिकशा पकड़ कर ललित की दुकान से 1 किलो मूंगफली, मूंगफली की गजक, गुड़धानी और गोलगप्पे का मसाला भी पैक करा लाईं.

बहू और विनय के आने में अभी 1 घंटा बाकी है. तब तक रसोई में जा सब्जी काट कर और आटा गूंध कर रख दिया. थकान होने लगी. मन हुआ पहले 1 कप चाय बना कर पी लें, फिर ध्यान आया कि विनय और बहू ये सामान देखेंगे तो हंसेंगे. पहले उस सामान को बैग में सब से नीचे रख लें. चाय उन दोनों के साथ पी लेंगी.

बहूबेटे खा पी कर सो गए. उन की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह बेटी के लिए ले जाने वाले सामान को रखने लगीं. ज्यादातर सामान उन्होंने किलो, आधा किलो के पारदर्शी प्लास्टिक बैगों में पैक कराए हैं ताकि कस्टम में परेशानी न हो और वह आराम से सामान चैक करा सकें. भूमि के लिए कुछ ड्रेस और आर्टी- फिशियल ज्वैलरी भी खरीदी थी. उसे बड़ा शौक है.

सारा सामान 2 बैगों में आया. अपना सूटकेस अलग. मन में संकोच हुआ कि विनय और बहू क्या कहेंगे? इतना सारा सामान कैसे जाएगा. जब से आतंक- वादियों ने धमकी दी है चैकिंग भी सख्त हो गई है. भूमि ने तो कह दिया है कि मम्मा, चिंता न करना. अतिरिक्त भार का पेमेंट कर देना. और यदि खोल कर देखा तो…?

उन की इस सोच को अचानक ब्रेक लगा जब विनय ने पूछा, ‘‘मम्मा, आप की पैकिंग पूरी है, कुछ छूटा तो नहीं, वीजा, टिकट और फौरेन करेंसी सहेज कर रख ली?’’

संकोचवश नीची निगाह किए उन्होंने हां में गरदन हिलाई.

अगले दिन गाड़ी में सामान रख सब शाम 5 बजे ही एअरपोर्ट की ओर चल पड़े. रात 8 बजे की फ्लाइट है. डेढ़ घंटा एअरपोर्ट पहुंचने में ही लग जाएगा. फिर काफी समय सामान की चैकिंग और औपचारिकताएं पूरी करने में निकल जाता है. मिथिला रास्ते भर दुआ करती रहीं कि उन के सामान की गहन तलाशी न हो.

लेकिन सोचने के अनुसार सबकुछ कहां होता है. वही हुआ जिस का मिथिला को डर था. बैग खोले गए और रेवड़ी, गजक व दलिए के पैकेट देख कर कस्टम अधिकारी ने पूछा,  ‘‘मैडम, यह सब क्या है?’’

अचानक मिथिला के मुंह से निकला, ‘‘ये जो आप देख रहे हैं, इस देश का प्यार है, यादें हैं, सौगातें हैं. कोई इन के बिना विदेश में कैसे जी सकता है. मेरी बेटी 5 साल में भी इन का स्वाद नहीं भूली है. यदि मेरे सामान का वजन ज्यादा है तो आप कस्टम ड्यूटी ले सकते हैं.’’

मिथिला का उत्तर सुन कर कस्टम अधिकारी ने आंखों से इशारा किया और वह अपने बैगों को ले कर बाहर निकलने लगीं. तभी मन में विचार कौंधा कि कस्टम अधिकारी भी मेरी बेटी की तरह अपने देश को प्यार करता है, तभी मुझे यों जाने दिया.

हालांकि न तो भार अधिक था और न उन के पास ऐसा कोई आपत्तिजनक सामान था जिस पर कस्टम अधिकारी को एतराज होता. उन्होंने स्वयं सारा सामान माप के अनुसार पैक किया था. बैग खोल कर एक रेवड़ी का पैकेट निकाला और दरवाजे से ही अंदर मुड़ीं. बोलीं, ‘‘सर, एक मां का प्यार आप के लिए भी. इनकार मत करिएगा,’’ कहते हुए पैकेट कस्टम अधिकारी की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक्यू, मैडम,’’ कह कर अधिकारी ने पैकेट पकड़ा, आंखों से लगाया और चूम लिया. मिथिला मुसकरा पड़ीं.

Hindi Story : पुल

Hindi Story : ‘‘शुक्रिया जनाब, लेकिन मैं शराब नहीं पीता,’’ मुस्ताक ने अपनी जगह से थोड़ा पीछे हटते हुए जवाब दिया. ‘‘कमाल की बात करते हो मुस्ताक भाई, आजकल तो हर कारीगर और मजदूर शराब पीता है. शराब पिए बिना उस की थकान ही नहीं मिटती है और न ही खाना पचता है. ‘‘कभीकभार मन की खुशी के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा नशा तो कर ही लेना चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए ठेकेदार ने वह पैग अपने गले में उड़ेल लिया. ‘‘गरीब आदमी के लिए तो पेटभर दालरोटी ही सब से बड़ा नशा और सब से बड़ी खुशी होती है. शराब का नशा करूंगा तो मैं अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे भरूंगा?’’ ‘‘खैर, जैसी तुम्हारी मरजी. मैं ने तो तुम्हें एक जरूरी काम के लिए बुलाया था. तुम्हें तो मालूम ही है कि इस पुल के बनने में सीमेंट के हजारों बैग लगेंगे.

ऐसा करना, 2 बैग बढि़या सीमेंट के साथ 2 बैग नकली सीमेंट के भी खपा देना. नकली सीमेंट बढि़या सीमेंट के साथ मिल कर बढि़या वाला ही काम करेगी. ‘‘इसी तरह 6 सूत के सरिए के साथ 5 सूत के सरिए भी बीचबीच में खपा देना. पास खड़े लोगों को भी पता नहीं चलेगा कि हम ऐसा कर रहे हैं,’’ ठेकेदार ने उसे अपने मन की बात खोल कर बताई. रात का समय था. पुल बनने वाली जगह के पास खुद के लिए लगाए गए एक साफसुथरे तंबू में ठेकेदार अपने बिस्तर पर बैठा था.

नजदीक के एक ट्यूबवैल से बिजली मांग कर रोशनी का इंतजाम किया गया था. ठेकेदार के सामने एक छोटी सी मेज रखी हुई थी. मेज पर रम की खुली बोतल सजी हुई थी. पास में ही एक बड़ी प्लेट में शहर के होटल से मंगाया गया लजीज चिकन परोसा हुआ था. ‘‘ठेकेदार साहब, यह काम मुझ से तो नहीं हो सकेगा,’’ मुस्ताक ने दोटूक जवाब दिया. ‘‘क्या…?’’ हैरत से ठेकेदार का मुंह खुला का खुला रह गया. हाथ की उंगलियां, जो चिकन के टुकड़े को नजाकत के साथ होंठों के भीतर पहुंचाने ही वाली थीं, एक झटके के साथ वापस प्लेट के ऊपर जा टिकीं. ठेकेदार को मुस्ताक से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद नहीं थी. एक लंबे अरसे से वह ठेकेदारी का काम करता आ रहा था, पर इस तरह का जवाब तो उसे कभी भी नहीं मिला था. ‘‘क्यों नहीं हो सकेगा तुम से यह काम?’’ गुस्से से ठेकेदार की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गई थीं. ‘‘साहब, आप को भी मालूम है और मुझे भी कि इस पुल से रेलगाडि़यां गुजरा करेंगी.

अगर कभी पुल टूट गया तो हजारों लोग बेमौत मारे जाएंगे. मैं तो उन के दुख से डरता हूं. मुझे माफ कर दें,’’ मुस्ताक ने हाथ जोड़ कर अपनी लाचारी जाहिर कर दी. खुद का मनोबल बनाए रखने के लिए ठेकेदार ने रम का एक और पैग डकारते हुए कहा, ‘‘अरे भले आदमी, तुम खुद मेरे पास यह काम मांगने के लिए आए थे… मैं तो तुम्हें इस के लिए बुलाने नहीं गया था. तब तुम ने खुद ही कहा था कि तुम अपने काम से मुझे खुश कर दोगे. ‘‘पहले जो कारीगर मेरे साथ काम करता था, उसे जब यह पता चला कि मैं ने तुम्हें इस काम के लिए रख लिया है, तो वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे सावधान करते हुए कहने लगा कि यह विधर्मी तुम्हें धोखा देगा… ‘‘पर, मैं ने उस की एक न सुनी… वह नाराज हो कर चला गया… तुम्हारे लिए अपने धर्मभाइयों को मैं ने नाराज किया और तुम हो कि ईमानदारी का ठेकेदार बनने का नाटक कर रहे हो.’’

‘‘मैं कोई नाटक नहीं कर रहा साहब. यह ठीक है कि मैं आप के पास खुद काम मांगने के लिए आया था… आप ने मेहरबानी कर के मुझे यह काम दिया… मैं इस का बदला चुकाऊंगा, पर दूसरी तरह से… ‘‘मैं वादा करता हूं कि मैं और मेरे साथी कारीगर हर रोज एक घंटा ज्यादा काम करेंगे. इस के लिए हम आप से फालतू पैसा नहीं लेंगे… इस तरह आप को फायदा ही फायदा होगा,’’ मुस्ताक ने यह कह कर ठेकेदार को यकीन दिलाना चाहा. ‘‘अच्छा, इस का मतलब यह कि तू चाहता है कि मैं लुट जाऊं… बरबाद हो जाऊं और तू तमाशा देखे… क्यों?’’ ठेकेदार खा जाने वाली नजरों से मुस्ताक को घूर रहा था. कारीगर मुस्ताक यह देख कर डर गया. उस ने हकलाते हुए कहा, ‘‘नहीं… मेरा मतलब यह नहीं था कि…’’ ‘‘और क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि ईमानदारी के रास्ते पर चल कर पेट तो भरा जा सकता है, पर दौलत नहीं कमाई जा सकती. जिस तरह तू काम करने की बात कर रहा है, वह तो सचाई और ईमानदारी का रास्ता है. उस से हमें क्या मिलेगा? ‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इंजीनियर साहब पहले ही मुझ से रिश्वत के हजारों रुपए ले चुके हैं. ‘वर्क कंप्लीशन सर्टिफिकेट’ देने से पहले न जाने कितने और रुपए लेंगे.

कहां से आएंगे वे रुपए? क्या तुम दोगे? नहीं न? तब क्या मैं तुम्हारी ईमानदारी को चाटूंगा? बोलो, क्या काम आएगी ऐसी वह ईमानदारी? ‘‘मुस्ताक मियां, मुझे ईमानदारी बन कर बरबाद नहीं होना है. मुझे तो हर हाल में पैसा कमाना है. याद रखना, ऐसा करने से तुम्हें भी कोई फायदा नहीं होने वाला है.’’ मुस्ताक ने जवाब देने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा. ठेकेदार ने मन ही मन सोचा कि मुस्ताक को उस के तर्कों के सामने हार माननी ही पड़ेगी. आखिर कब तक नहीं मानेगा? उसे भूखा थोड़े ही मरना है. अपने लिए एक पैग और तैयार करते हुए ठेकेदार ने मुस्ताक से कहा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया.’’ ‘‘मैं मजबूर हूं साहब,’’ मुस्ताक ने धीरे से कहा. ‘‘मुस्ताक मियां, मजबूरी की बात कर के मुझे बेवकूफ मत बनाओ.

मैं जानता हूं कि तुम जैसे गरीब तबके के लोगों की नीयत बहुत गंदी होती है. तुम्हें हर चीज में अपना हिस्सा चाहिए. ठीक है, वह भी तुम्हें दूंगा और पूरा दूंगा. ‘‘इसीलिए तो तुम लोग सच्चे और ईमानदार बनने का नाटक करते हो. घबराओ मत, मैं भी जबान का पक्का हूं, जो कह दिया, सो कह दिया.’’ ठेकेदार अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना दायां हाथ मुस्ताक के कंधे पर रख दिया. इस तरह वह उस का यकीन जीतना चाहता था. मुस्ताक को चुप देख कर ठेकेदार ने कहा, ‘‘पुल के गिरने वाली बात को अपने मन से निकाल दो. अगर यह पुल गिर भी गया, तब भी न तो मेरा कुछ बिगड़ेगा और न ही तुम्हारा. ‘‘मेरे पास तो अपनी 2 कारें हैं, इसलिए मैं कभी भी रेलगाड़ी में नहीं बैठूंगा. रही बात तुम्हारी, तो तुम्हारे पास इतना पैसा ही नहीं होता कि तुम रेल में बैठ कर सफर करो.’’

ठेकेदार को अचानक महसूस हुआ कि वह मुस्ताक के सामने कुछ ज्यादा ही झुक गया है. मुस्ताक इस बात को उस की कमजोरी मान कर उस पर हावी होने की कोशिश जरूर करेगा, इसलिए उस ने अपना हाथ मुस्ताक के कंधे से दूर किया. फिर अपने लहजे को कुछ कठोर बनाते हुए ठेकेदार ने कहा, ‘‘और अगर अब भी तुम यह काम नहीं करना चाहते, तो कल से तुम्हारी छुट्टी. और कोई आ जाएगा यह काम करने के लिए. कोई कमी नहीं है यहां कारीगरों की. अब जाओ, मेरा सिर मत खाओ.’’ ऐसा कहते हुए ठेकेदार बेफिक्र हो कर फिर से अपने बिस्तर पर जा बैठा और प्लेट से चिकन का टुकड़ा उठा कर आंखें बंद कर के चबाने लगा. ‘‘तो ठीक है साहब, कल से आप किसी और कारीगर को बुला लें.’’ अचानक मुस्ताक मियां के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर ठेकेदार को ऐसा लगा, मानो उस के गालों पर कोई तड़ातड़ तमाचे जड़ रहा हो. उस की आंखें अपनेआप खुल गईं. उस ने देखा कि मुस्ताक वहां नहीं था. उस के लौटते कदमों की दूर होती आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी.

 लेखक- रामकुमार आत्रेय

Hindi Story : जमानत- क्या अदालत में सुभाष को जमानत मिली

Hindi Story : पढ़ेलिखे व भोलेभाले सुभाष चंद एक सिपाही के कहने मात्र पर उस के साथ थाने चले गए, जहां उन्हें हवालात में बंद कर दिया गया. कानून से अनभिज्ञ सुभाष की पत्नी अपने पति की जमानत लेने के लिए थाने गई, फिर वकील की शरण में पहुंची, और तब अदालत…

‘‘बाबूजी, अपना स्कूटर इधर खड़ा कर दो,’’ स्कूटर से उतरते सुभाष चंद को इशारा करते हुए एक सिपाही ने कहा.

स्कूटर खड़ा कर हकबकाया सा सुभाष चंद सदर थाने की बड़ी और आधुनिक शैली में बनी इमारत में सिपाही के साथ प्रविष्ट हुआ. सुभाष का सामना कभी पुलिस से नहीं पड़ा था. वह थाने कभी नहीं आया था. 2-3 दफा स्कूटर का चालान होने पर ट्रैफिक पुलिस से उस का वास्ता पड़ा था और कोई अनुभव नहीं था.

‘थानाध्यक्ष कक्ष’ लिखे कमरे के अंदर प्रविष्ट होते ही सुभाष का सामना विशाल मेज के पीछे बैठे लाललाल आंखों और लालभभूका चेहरे वाले भारी शरीर के एक पुलिस अधिकारी से हुआ जो देखते ही बोला, ‘‘ले आए.’’

‘‘जी, जनाब.’’

‘‘आप सुभाष चंद वल्द कलीराम, हैड क्लर्क, सांख्यिकी विभाग, निवासी बड़ा महल्ला हो?’’

‘‘जी हां,’’ सकपकाए से सुभाष ने कहा.

‘‘आप ने कल शाम शहर की सीमा पर स्थित देशी शराब के ठेके पर शराब पीने के बाद किसी सुमेर सिंह निवासी रसूलपुर से झगड़ा किया और उस को जान से मारने की धमकी दी थी?’’

इस पर सुभाष चंद ने हैरानी से थानेदार की तरफ देखा और कहा, ‘‘जनाब, मैं न तो शराब पीता हूं, न कभी किसी ठेके पर गया हूं, न ही किसी सुमेर सिंह नाम के आदमी को जानता हूं और न ही कभी रसूलपुर गांव का नाम सुना है.’’

‘‘फिर आप के खिलाफ दरख्वास्त कैसे लग गई?’’ थानेदार ने कुटिलता से मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे क्या पता? शायद आप को गलत सूचना मिली हो?’’

‘‘हमें गलत सूचना नहीं मिली. आप अपने खिलाफ लगी दरख्वास्त खुद देख लो,’’ थानेदार के इशारे पर एक हवलदार ने फाइल खोल कर कुछ कागज सुभाष चंद को थमा दिए.

चश्मा साफ कर सुभाष ने तहरीर पढ़ी और वह हैरानी और रोष से भर उठा. जो कुछ थानेदार ने कहा वही लिखा था.

‘‘साहब, यह झूठा आरोप है. सरासर किसी की बदमाशी है.’’

‘‘ऐसा सब कहते हैं. आप ऐसा करें, साथ के कमरे में बैठ जाएं. थोड़ी देर में आप के खिलाफ शिकायत करने वाला अपने गवाहों के साथ आएगा तब आप का सामना करवा देंगे.’’

मनोरंजन कक्ष लिखे एक बड़े कमरे में 3-4 सादे कपड़ों में पुलिस वाले टीवी पर कोई फिल्म देख रहे थे और बीचबीच में ठहाके लगा रहे थे. सुभाष चंद को एक कुरसी पर बैठा कर उस को थाने लाया सिपाही बाहर चला गया.

थोड़ी देर बाद सुभाष के मोबाइल पर घंटी बजी. एक कोने में जा कर फोन सुना. उस की पत्नी का फोन था. सिपाही उस को एकदम से ‘आप को थाने में साहब ने बुलाया है’ कह कर ले आया था.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘किसी सुमेर सिंह नाम के आदमी ने मेरे खिलाफ शिकायत की है कि मैं ने कल रात शराब पी कर उसे जान से मारने की धमकी दी थी. थानेदार कहता है कि अभी थोड़ी देर के बाद उस से मेरा सामना करवाएगा.’’

‘‘अरे, यह कौन है?’’

‘‘पता नहीं. तुम ऐसा करना अगर 1 घंटे तक मैं न आऊं तो रमेश को साथ ले कर थाने आ जाना.’’

‘‘थाने में?’’ पत्नी के स्वर में घबराहट थी.

‘‘हांहां, थाने में. थाना है कोई फांसीघर नहीं.’’

1 घंटा बीत गया. कोई नहीं आया. थोड़ी देर बाद सुभाष को थाने ले कर आया सिपाही अंदर आया और उसे ले कर ‘स्वागत कक्ष’ लिखे एक कमरे में पहुंचा जहां मौजूद एक एएसआई ने सुभाष को गौर से देखा.

‘‘आप का नाम सुभाष चंद वल्द कलीराम है?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘आप के खिलाफ सुमेर सिंह वल्द फतेह सिंह निवासी रसूलपुर ने शिकायत की है कि आप ने कल रात उस को शराब पी कर जान से मारने की धमकी दी थी.’’

‘‘नहीं जनाब, यह सब झूठ है.’’

‘‘अपनी सफाई में जो भी कहना है, कोर्ट में कहना. आप के खिलाफ झगड़ा करने और शांति भंग करने के आरोप में धारा 107 और 151 में मामला दर्ज किया गया है. आप अपनी जामातलाशी दे दें. आप को हवालात में बंद करना पड़ेगा.’’

‘‘हवालात,’’ सुभाष चंद के चेहरे पर मातमी छा गई.

‘470 रुपए नकद, एक घड़ी, एक अंगूठी, एक रुमाल, एक चमड़े की बैल्ट, एक पैन, एक छोटा कंघा’, इस सारे सामान की सूची बना उस पर सुभाष के हस्ताक्षर करवा सामान एक दराज में बंद कर, ‘एएसआई’ ने सिपाही को इशारा किया.

भारी कदमों से सुभाष उस के साथ बाहर आया. ‘बंदी कक्ष’ लिखे एक जंगले वाले दरवाजे के बाहर आ सिपाही ने भारीभरकम ताला खोला. फिर कुंडी खोल कर बोला, ‘‘जाओ, अंदर जाओ.’’

सुभाष दरवाजे के अंदर चला गया.

‘‘ठहरो, अपना चश्मा मुझे दे दो और जब बाहर निकलो, ले लेना,’’ कहते हुए सिपाही ने उस का चश्मा उतार कर ले लिया.

‘‘अरे, भाई बिना चश्मे के मुझे जरा भी नहीं दिखता.’’

मगर सिपाही उस की बात अनसुनी कर ताला लगा, चला गया. निसहाय सुभाष कमरे में आगे बढ़ा. एक छोटा मटमैला कमरा था जिस में कम पावर का एक बल्ब जल रहा था.

कमरे में दरी बिछी थी. दीवार के साथ टेक लगा कर कई चेहरे बैठे थे. कोई बीड़ी पी रहा था तो कोई सिगरेट. कमरे में कसैला धुआं भरा हुआ था. थोड़ी देर तक सुभाष खड़ा रहा फिर वह आगे बढ़ा तो उस की नाक में सड़ांध  घुसी. उस ने बदबू की दिशा में देखा तो उधर शौचालय था. बदबू असहनीय थी. आराम से बैठे उस ने रुमाल के लिए जेब में हाथ डाला तो रुमाल नहीं था. उसे ध्यान आया कि वह भी जामातलाशी में उस से ले लिया गया था.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. मुंशी उस की ऊपरी जेब की तलाशी लेना भूल गया था. वह उठा, शौचालय में गया. फोन पत्नी का था, ‘‘क्या पोजीशन है?’’

‘‘मुझ पर शांति भंग करने और झगड़ा करने का केस बना दिया गया है. इस समय हवालात में बंद हूं. ऐसा कर, रमेश को ले कर यहां आ जा. घबरा मत.’’

आधे घंटे बाद बड़े लड़के के साथ पत्नी टिफिन बाक्स लिए आ गई. वही सिपाही दरवाजे पर आया. सुभाष उठ कर दरवाजे के समीप आया. सिपाही ने दरवाजा खोल टिफिन उसे थमा दिया. पत्नी कभी थाने नहीं आई थी. वह रोंआसी सी थी. एकदम से क्या हो गया था? किसी से कभी कोई झगड़ा नहीं था. फिर यह मामला कैसे बन गया.

सुभाष पत्नी की मनोस्थिति समझ रहा था.

‘‘घबराओ मत, गली में कपड़े प्रैस करने वाला रामू है, तू उस से मिल लेना. वह अनुभवी बुजुर्ग है, कोई न कोई रास्ता बता देगा.’’

स्कूटर बाहर खड़ा था. रमेश स्कूटर चलाना जानता था. सो मम्मी को पीछे बैठा कर वह स्कूटर चला कर ले गया.

रामू ने सारी बात ध्यान से सुनी.

‘‘बिटिया, यह या तो साहब के किसी दफ्तर के साथी की करतूत है या फिर मकानमालिक की शरारत. उन्होंने किसी किराए के बदमाश की मदद से यह शरारत की होगी.’’

‘‘अब हम क्या करें?’’

‘‘धीरज रखें. पहले साहब की जमानत करवाते हैं फिर आगे जो होगा साहब ही देखेंगे.’’

‘‘जमानत?’’ पत्नी को भला कानूनी मामलों की कहां समझ थी?

‘‘जी हां, पहले वकील करना पड़ेगा. पुलिस कल साहब को जब कोर्ट में पेश करेगी तो वह उन की जमानत करवाएगा.’’

‘‘मैं किसी वकील को नहीं जानती,’’ पत्नी सचमुच घबरा गई थी.

‘‘मेरी जानकारी में एक वकील है, अभी उस के पास चलते हैं,’’ पौश कालोनी में वकील साहब की कोठी काफी बड़ी और आलीशान थी.

‘‘आप के पति पढ़ेलिखे हो कर भी भोले हैं. इस तरह सिपाही के साथ थाने नहीं जाना था. सिपाही को 200 रुपए दे देने थे. उस को टाल देना था, बाद में अग्रिम जमानत करवानी थी,’’ सफेद बालोें वाले बुजुर्ग वकील की बात सुभाष की पत्नी को कुछ समझ में आई, कुछ नहीं आई थी.

‘‘आप की फीस क्या है?’’

‘‘5 हजार रुपए और अन्य खर्चे.’’

‘‘ठीक है,’’ पत्नी ने 2 हजार रुपए वकील साहब को थमा दिए.

अगली सुबह पत्नी और बड़ा बेटा नाश्ता लाए थे. सिपाही ने 50 का नोट ले दरवाजा खोल उसे बरामदे में एक स्टूल पर बैठा दिया था. सारी रात विपरीत माहौल और शौचालय की बदबू के चलते सुभाष टिफिन नहीं खोल पाया था. भूखे सुभाष ने बिना नहाए, बिना पेस्ट किए ही मजबूरी में नाश्ता किया.

दोपहर बाद एक जिप्सी में अन्य बंदियों के साथ सुभाष को उपमंडल अधिकारी के कोर्ट में ले जाया गया.

कोर्ट नए सचिवालय में था. एसडीएम साहब 3 बजे आते थे.

सुभाष को दूसरे कैदियों के हाथ के पंजे में पंजा फंसा कर अदालत लाया गया था और अब साहब का इंतजार था.

साढ़े 3 बजे साहब आए. 30-32 साल का चश्माधारी नौजवान एसडीएम था.

‘‘आप का जमानती कौन है?’’ सुभाष को पेश करते ही साहब ने पूछा.

इस पर वकील ने सुभाष की पत्नी को आगे कर दिया. एक सरसरी नजर फाइल में लगे कागजों पर डाल साहब ने सुभाष को कहा, ‘‘ठीक है, जाइए,’’ और चंद मिनटों में जमानत हो गई थी.

अगली पेशी 15 दिन बाद थी. सुभाष, उस की पत्नी, बेटा भी आए थे. साहब शाम को 4 बजे आए. चंटचालाक 100-50 रुपए का नोट थमा अपनी तारीख ले चले गए.

अगली पेशी पर सुभाष अकेला आया. थोड़ी देर इंतजार किया फिर उस ने भी 50 रुपए का नोट थमा पेशी ली और वापस हो लिया.

इस के बाद जैसे यह सिलसिला ही बन गया. 15-20 दिन बाद की पेशी पड़ती. 50 रुपए थमा सुभाष चला जाता.

‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’ पत्नी का सीधा सवाल था.

‘‘पता नहीं.’’

‘‘यह सुमेर सिंह आखिर है कौन?’’

‘‘पता नहीं. वकील का मुंशी बताता है कि इस तरह के आदमी या पार्टी किसी को फंसाने के लिए पुलिस पहले तैयार रखती है.’’

‘‘यह किस की शरारत हो सकती है?’’

‘‘कई जने कहते हैं कि मकान मालिक हम से यह मकान खाली करवाना चाहता है इसलिए उस की शरारत है.’’

‘‘हम मकान खाली कर देते हैं.’’

‘‘जिस ने हम पर यह झूठा मुकदमा बनवाया है क्या उस पर हम कोई मुकदमा नहीं कर सकते?’’

‘‘वकील साहब कहते हैं कि विपरीत मुकदमा करने के लिए आप के पास अपने गवाह होने चाहिए. आप को साबित करना पड़ेगा कि आप शराब नहीं पीते, झगड़ा नहीं करते. फीस और जमाखर्च अलग है.’’

‘‘अब हम क्या करें?’’ पत्नी ने हैरानी से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. 6 महीने तक इंतजार करेेंगे. मुकदमे की मियाद पूरी हो जाने पर मुकदमा अपनेआप समाप्त हो जाएगा. विपरीत केस करना संभव है पर ठीक नहीं तो इसे ही नियति मान सब्र कर लेना होगा.’’

6 महीने बाद मुकदमा समाप्त हो गया. सुभाष चंद अपना तबादला करवा कर दूसरे शहर चला गया.

Hindi Story : कच्चे पंखों की फड़फड़ाहट

Hindi Story : उस का मन आनंद के बिना बिलकुल भी नहीं लगता था. दूसरे जिले में तबादले के बाद आनंद भी लावण्या के बगैर अधूरा सा हो गया था. ‘अब तो मेरा मन भी कर रहा है कि नौकरी छोड़ कर आ जाऊं घर वापस,’ आनंद ने भी बुझी सी आवाज में उस से अपने दिल का हाल बताया. अब दिल चाहे जो भी कहे, सरकारी नौकरी भले साधारण ही क्यों न हो, लेकिन आज के जमाने में उस को छोड़ देना मुमकिन न था. इसे आनंद भी समझता था और लावण्या भी. सो, दोनों हमेशा की तरह फोन स्क्रीन के जरीए ही एकदूसरे की आंखों में डूबने की कोशिश करते रहे.

तभी लावण्या बोली, ‘‘लीजिए, सोनू भी बाथरूम से आ गया है, बात कीजिए और डांट सुनिए इस की,’’ कह कर लावण्या ने मोबाइल फोन अपने 13 साल के एकलौते बेटे सोनू को थमा दिया. सोनू अपने पापा को देखते ही शुरू हो गया, ‘‘पापा, आप ने बोला था कि इस बार 15 दिनों के बीच में भी आएंगे… तो क्यों नहीं आए?’’ आनंद प्यार से उस को अपनी मजबूरियां बताता रहा. बात खत्म होने के बाद कमरे में नाइट बल्ब चमकने लगा और लावण्या सोनू को अपने सीने से लगा कर लेट गई. सोनू फिर से जिद करने लगा, ‘‘मम्मी, आज कोई नई कहानी सुनाओ.’’ ‘‘अच्छा बाबा, सुनो…’’ लावण्या ने नई कहानी बुननी शुरू की और उसे सुनाने लगी. नींद धीरेधीरे उन दोनों को जकड़ती चली गई. आधी रात को लावण्या की आंख खुली तो उस ने फिर अपने कपड़े बेतरतीब पाए. साड़ी सामान्य से ज्यादा ऊपर उठी थी. उस ने बैठ कर जल्दी से उसे ठीक किया और सोनू के सिर पर हाथ फेरा. वह निश्चिंत हो कर सो रहा था.

दरवाजा तो बंद था, लेकिन गरमी का मौसम होने के चलते कमरे की खिड़की खुली थी. लावण्या खिड़की के पास जा कर बाहर गलियारे में देखने लगी. नीचे वाले कमरे में 2 छात्र किराए पर रहते थे. कहीं किसी काम से इधर आए न हों… ‘‘कितनी लापरवाह होती जा रही हूं मैं… नींद में कपड़ों का भी खयाल नहीं रहता,’’ सबकुछ ठीक पा कर बुदबुदाते हुए लावण्या बिस्तर पर आ कर लेट गई. इधर कुछ हफ्तों में तकरीबन यह चौथी बार था जब उस को बीच रात में जागने पर अपने कपड़े बेतरतीब मिले. एक दिन सोनू के स्कूल की छुट्टी थी और उन किराएदार लड़कों की कोचिंग की भी. ऐसा होने पर आजकल सोनू बस खानेपीने के समय ही ऊपर लावण्या के पास आता था और फिर नीचे उन्हीं लड़कों के पास भाग जाता था कि भैया यह दिखा रहे हैं, वह दिखा रहे हैं. लावण्या जानती थी कि दोनों लड़के सोनू से खूब घुलमिल चुके हैं. वह निश्चिंत हो कर घर के काम निबटाने लगी.

तभी सोनू हंसता और शोर मचाता हुआ वहां से भागा आया. पीछेपीछे वे दोनों लड़के भी दौड़े चले आए. सोनू बिस्तर पर आ गिरा और वे दोनों उसे पकड़ने लगे. लावण्या ने टोका, ‘‘अरेअरे… यहां बदमाशी नहीं… नीचे जाओ सब…’’ ‘‘ठीक है आंटी…’’ उन में से एक लड़के ने कहा और उस के बाद वे दोनों लड़के सोनू का हाथ पकड़ कर उसे नीचे ले गए. उन तीनों के चले जाने के बाद लावण्या की नजर बिस्तर पर पड़े एक मोबाइल पर गई जो उन दोनों में से किसी का था. लावण्या ने उन्हें बुलाना चाहा, लेकिन वे दोनों जा चुके थे. लावण्या ने वह मोबाइल टेबल पर रखा ही था कि तभी उस की स्क्रीन पर ब्लिंक होती किसी नोटिफिकेशन से उस का ध्यान उस पर गया.

उस ने अनायास ही मोबाइल उठा कर देखा तो कोई वीडियो फाइल डाउनलोड हो चुकी थी. फाइल के नाम से ही उसे शक हो रहा था, सो उस ने उस को ओपन किया. वीडियो देखते ही लावण्या की आंखें फैलती चली गईं. लड़कों ने कोई बेहूदा फिल्म डाउनलोड की थी. उस ने उस मोबाइल फोन पर ब्राउजर ओपन किया तो एड्रैस बार में कर्सर रखते ही सगेसंबंधियों पर आधारित कहानियों के ढेरों सुझाव आने लगे जो उन्होंने पहले सर्च कर रखे थे. उसी समय किसी के सीढि़यों से ऊपर आने की आहट हुई. लावण्या ने जल्दी से मोबाइल बिस्तर पर रख दिया. वही किराएदार लड़का अपना मोबाइल लेने आया था.

उस ने पूछा, ‘‘आंटी, क्या मेरा मोबाइल है यहां?’’ ‘‘हां, पलंग पर है,’’ लावण्या ने थोड़ी झल्लाहट के साथ जवाब दिया लेकिन उस लड़के का ध्यान उस पर नहीं गया और वह मोबाइल ले कर वापस नीचे चला गया. लावण्या को कोई हैरानी नहीं हो रही थी, क्योंकि क्या लड़का और क्या लड़की, ये सब चीजें तो आज स्मार्टफोन के जमाने में आम बात हो चुकी हैं. उसे चिंता होने लगी थी तो बस सोनू के साथ उन लड़कों की बढ़ती गलबहियों की. इस के बाद लावण्या ने सोनू को उन के पास जाने से रोकना शुरू किया. जब वह उन के पास जाना चाहता, तो वह उसे किसी बहाने से उलझा लेती.

इस के बाद भी वह कभी न कभी उन के पास चला ही जाता था. एक रात बिजली नहीं थी और लावण्या के घर का इनवर्टर भी डाउन हो गया था. गरमी के चलते उस की नींद खुल गई और प्यास भी लगने लगी थी. पानी पी आती लेकिन आलस भी हो रहा था. इसी उधेड़बुन में वह चुपचाप लेटी रही. तभी लावण्या को अपनी तरफ सोनू के हाथ की हरकत महसूस हुई. लावण्या को कुछ अलग सी छुअन लगी सो वह यों ही लेटी रही कि देखे आगे क्या होगा. उन हाथों के पड़ावों के बारे में जैसेजैसे लावण्या को पता चलता गया, उस के आश्चर्य की सीमाएं टूटती गईं. उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और प्यास से सूखे मुंह में कसैले स्वाद ने भी अपनी जगह बना ली. जी तो चाहा कि सोनू को उठा कर थप्पड़ मारने शुरू कर दे, लेकिन विचारों के बवंडर ने ऐसा करने नहीं दिया. कुछ देर बाद सोनू ने धीरे से करवट बदली और शांत हो गया.

लावण्या उठ कर बिस्तर पर बैठ गई और अपनी हालत को देखने लगी. अकसर रात में अपने कपड़ों के बिखरने का राज जान कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे थे. आखिर उन लड़कों का बुरा असर उस के कलेजे के टुकड़े को भी अपनी चपेट में ले गया था. लावण्या सोच रही थी कि उस की परवरिश में आखिर कहां कमी रह गई, जो बाहरी चीजें इतनी आसानी से उस के खून में आ मिलीं? वह उसी हाल में पूरी रात पलंग पर बैठी रही. अगली सुबह नाश्ता बनाते समय लावण्या ने सोनू के सामने अनजान बने रहने की भरसक कोशिश की लेकिन रहरह कर उस के अंदर का हाल उस के शब्दों से लावा बन कर फूटने को उतावला हो जाता और सोनू हैरानी से उस का मुंह ताकने लगता. सोनू के स्कूल चले जाने के बाद लावण्या लगातार अपने मन को मथती रही. आनंद से इस बारे में बात करे या नहीं? अपनी मां को बताए कि दीदी को, वह फैसला नहीं ले पा रही थी. कई दिनों तक लावण्या इसी उधेड़बुन में रही, लेकिन किसी से कुछ कहा नहीं. सोनू से बात करते समय अब उस ने मां वाली गरिमा का ध्यान रखना शुरू कर दिया.

आखिरकार उस के दिल ने फैसला कर लिया कि सोनू उस का जिगर है, उम्र के इस मोड़ पर वह भटक सकता है मगर खो नहीं सकता. इस के अलावा सोनू बहुत कोमल मन का भी था. अपनी छोटी सी गलती के भी पकड़े जाने पर वह काफी घबरा उठता. और यहां तो इतनी बड़ी बात थी. सीधेसीधे उस से इस बारे में कुछ कहना किसी बुरी घटना को न्योता देने के बराबर था. लावण्या ने तय किया कि वह उन जरीयों को तोड़ देगी जो उस के बेटे के कच्चे मन की फड़फड़ाहट को अपने अनुसार हांकना चाह रहे हैं. लावण्या ने उन लड़कों और सोनू के बीच हो रही बातचीत को छिपछिप कर सुनना शुरू किया.

उस का सोचना बिलकुल सही निकला. वे लड़के लगातार सोनू के बचपन को अधपकी जवानी में बदलना चाह रहे थे और उन की घिनौनी चर्चाओं का केंद्र लावण्या होती थी. सोनू फटीफटी आंखों से उन की बातें सुनता रहता था. नए हार्मोंस से भरे उस के किशोर मन के लिए ये अनोखे अनुभव जो थे. लावण्या सबकुछ अपने मोबाइल फोन में रेकौर्ड करती गई. लगातार उन को मार्क करने के बाद एक दिन लावण्या ने अपने संकल्प को पूरा करने का मन बना लिया और उन लड़कों के कमरे में गई. सोनू अभीअभी वहां से निकला था. उसे देख कर दोनों चौंक उठे. एक ने बनावटी भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या बात है आंटी? आप यहां…’’

लावण्या ने सोनू के साथ होने वाली उन की बातचीत की वीडियो रेकौर्डिंग चला कर मोबाइल फोन उन की ओर कर दिया. यह देख दोनों लड़के घबरा गए. लावण्या गुस्साई नागिन सी फुफकार उठी, ‘‘अपने बच्चे पर तुम लोगों का साया भी मैं अब नहीं देख सकती. अभी और इसी वक्त यहां से अपना सामान बांध लो वरना मैं ये रेकौर्डिंग पुलिस को दिखाने जा रही हूं.’’ वे दोनों उस के पैरों पर गिर पड़े, पर लावण्या ने उन को झटक दिया और गरजी, ‘‘मैं ने कहा कि अभी निकलो तो निकलो.’’

वे दोनों उसी पल अपना बैग उठा कर वहां से भाग निकले. लावण्या सोनू के पास आई. वह इन बातों से अनजान बैठा कोई चित्र बना रहा था. लावण्या ने उस से पूछा तो बोला कि पूरा होने पर दिखाएगा. चित्र बना कर उस ने दिखाया तो उस में लावण्या और अपना टूटफूटा मगर भावयुक्त स्कैच बनाया था उस ने और लिखा था, ‘मेरी मम्मी, सब से प्यारी.’ लावण्या ने उसे गले लगा लिया और चूमने लगी. उस की आंखों से आंसू बह निकले और दिल अपने विश्वास की जीत पर उत्सव मनाने लगा. उस के कलेजे का टुकड़ा बुरा नहीं था, बस जरा सा भटका दिया गया था जिस को वापस सही रास्ते पर आने में अब देर नहीं थी.

Hindi Story : हैवान

Hindi Story : उन्होंने घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजे थे. पूरा कमरा सिगरेट की गंध से भरा हुआ था. उन्हें याद है कि इस से पहले उन्होंने जीवन में 2 बार सिगरेट पी थी पर इस एक रात में वह 4 पैकेट सिगरेट पी गए थे. दरअसल, शाम को अनीता का फोन आने के बाद डा. पटेल इतना आंदोलित हो गए थे कि अपने बीवीबच्चों से काम का बहाना बना कर रात को अपने नर्सिंग होम में ही रुक गए थे. हां, उसी अनीता का फोन आया था जिस के लिए मैं पिछले 5 सालों से अपना घरपरिवार, व्यवसाय, यारदोस्त, यहां तक कि अपने 2 मासूम बच्चों को भी भूले बैठा था. उसी अनीता के जहर बुझे शब्द अब भी मेरे कानों में गूंज रहे थे, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी योजना के तहत किया है. तुम इनसान नहीं, हैवान हो.

मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’ डा. पटेल सोच रहे थे कि बरबाद तो मैं हुआ, समाज में मेरी बदनामी हुई, शारीरिक रूप से अपंग मैं हुआ, प्रोफेशनल रूप से जमीन पर मैं आ गया, और वह सिर्फ अनीता की खातिर, फिर भी उस का पति देवता और मैं हैवान. इसी के साथ डा. पटेल के दिमाग में पिछले कुछ सालों की घटनाएं न्यूजरील की तरह उभरने लगीं. मैं डा. पटेल. इसी उदयपुर में पलाबढ़ा और यहीं से सर्जरी में एम.एस. करने के बाद सरकारी नौकरी में न जा कर अपना निजी नर्सिंग होम खोला. छोटा शहर, काम करने की लगन और कुछ मेरे मिलनसार व्यक्तित्व ने मिल कर मरीजों पर इस कदर असर छोड़ा कि 3-4 साल के भीतर ही मेरा नर्सिंग होम शहर का नंबर एक नर्सिंग होम कहलाने लगा था.

शहर और आसपास के डाक्टर भी मेरे नर्सिंग होम में सर्जरी के लिए अपने मरीजों को पूरे विश्वास के साथ भेजने लगे. मेरी पत्नी उदयपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर थी, हर तरह से सुखी, संतुष्ट जीवन गुजर रहा था कि अनीता से मेरी मुलाकात हो गई. अनीता मेरे ही एक नजदीकी दोस्त गजेश की बीवी थी. गजेश रामकरण अंकल का बेटा था और रामकरण अंकल के एहसानों तले मैं पूरी तरह से दबा हुआ था. यह बात तब की है जब अपने नर्सिंग होम को जमाने के लिए मुझे कुछ सर्जरी के उपकरण खरीदने के लिए एक बैंक गारंटर की जरूरत थी. ऐसे में काम आए मेरी पत्नी के दूर के एक रिश्तेदार रामकरण अंकल, जो उदयपुर में ही शिक्षा विभाग में क्लर्क थे. रामकरण अंकल ने बैंक गारंटर बन कर मेरी समस्या को हल किया था और मैं यह कभी न भूल सका कि इसी बैंक गारंटी की वजह से मेरा यह नर्सिंग होम स्थापित हो पाया जोकि बाद में नई ऊंचाइयों तक पहुंचा.

रामकरण अंकल का बेटा गजेश एक तेजतर्रार, महत्त्वाकांक्षी नौजवान था जिसे पिता ने जोड़तोड़ कर के डिगरी कालिज में तकनीशियन की नौकरी दिलवा दी थी. रामकरण अंकल द्वारा बैंक गारंटी दिए जाने के बाद गजेश का मेरे नर्सिंग होम में आनाजाना बहुत बढ़ गया और अपने कालिज के बजाय वह अपना आधा दिन मेरे नर्सिंग होम में गुजारता था. वैसे इस के पीछे भी एक कारण था जो मुझे बाद में पता चला था, और वह था अनीता से उस का अफेयर. जी हां, इसी अनीता से जिस के आज के फोन के बाद मैं अपने अतीत में झांकने को मजबूर हुआ हूं. अनीता गजेश की रिश्तेदारी में ही एक खूबसूरत मृगनयनी थी जो उसी डिगरी कालिज से एम.फिल. कर रही थी, जिस में गजेश तकनीशियन था. अपने पिता के पैसे के बल पर मोटरसाइकिल पर घूमने और अकड़ कर रहने वाले गजेश पर अनीता ऐसी फिदा हुई कि वह अपने घर वालों के सख्त विरोध के बावजूद गजेश के साथ प्रेम बंधन में बंध गई. मुझे तो बाद में पता चला कि यह प्रेम की लता भी मेरे ही नर्सिंग होम में पलीबढ़ी और परवान चढ़ी थी. और प्रेम का यह खेल तब शुरू होता था जब मैं दोपहर में खाना खाने घर जाता था. गजेश तब मेरे वापस आने तक अनीता को वहीं नर्सिंग होम में ही बुला लेता था और दोनों कबूतर की तरह तब तक गुटरगूं करते रहते थे.

मुझे जब यह सब पता चला तो बुरा लगा था लेकिन गजेश की खुशी को ही उस समय मैं ने अपनी खुशी समझा और रामकरण अंकल पर दबाव बना कर मैं ने उन दोनों के प्रेम को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया था. दरअसल, अनीता के घर वालों की जिद को देखते हुए रामकरण अंकल ने भी गजेश की शादी कहीं और करने का मन बना लिया था. और गजेश को भी अपनी इज्जत का वास्ता दे कर तैयार कर लिया था, जबकि अनीता के घर वाले अपनी एम.फिल. कर रही बेटी के भविष्य को देखते हुए मात्र एक तकनीशियन और वह भी सिर्फ एक स्नातक, को उस के लायक न मानते थे. गजेश महत्त्वाकांक्षी था और अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते एक बार वह शेयर बाजार में 50 हजार की रकम डुबो चुका था. इस के बाद भी गजेश ने 2-3 ऐसे बिजनेस अपने पुराने दोस्तों के साथ मिल कर किए थे जिस का ‘कखग’ भी वह नहीं जानता था. नतीजा उस घुड़सवार जैसा ही हुआ था जो पहली बार घुड़सवारी करता है.

इस तरह अपने पिता के लगभग 2 लाख रुपए गजेश डुबो चुका था. मजे की बात यह है कि मेरे साथ लगभग आधा दिन गुजारने वाले गजेश ने अपने इन कारनामों को भी मुझ से छिपा कर अंजाम दिया था. मुझे तो तब पता चला जब तकाजे वाले गजेश को ढूंढ़ते हुए मेरे नर्सिंग होम के चक्कर लगाते नजर आए. एक दिन मैं ने गजेश को अपने पास बैठा कर कहा था, ‘यह सब क्या है गजेश, अगर तुम्हें कोई काम करना ही था तो पहले मुझ से सलाह ले ली होती. बड़े होने के नाते कुछ अनुभव तो मैं भी रखता हूं, कोई अच्छी सलाह ही तुम्हें देता.’ गजेश ने उस दिन अपनी महत्त्वाकांक्षा फिर मेरे सामने दोहराई थी कि वह सारी उम्र तकनीशियन बन कर नहीं सड़ना चाहता है, बल्कि किसी व्यापार के जरिए धन कमा कर बहुत बड़ा आदमी बनना चाहता है. उस की योजना के बारे में पूछने पर गजेश ने मुझे बताया था कि यह शहर विस्तार के पथ पर अग्रसर है तो क्यों न हम इस नर्सिंग होम को ‘अस्पताल शृंखला’ के रूप में फैलाएं.

एक बार तो मैं ने गजेश की योजना को उस की कल्पना की कोरी उड़ान बता कर नजरअंदाज कर दिया लेकिन जब उस ने यह बताया कि वह शहर से 10 किलोमीटर दूर एक नई निर्माणाधीन कालोनी में सस्ते में जगह ले चुका है और अगर मैं अपना नाम दे कर अनीता को साथ ले कर इस दिशा में कदम उठाऊं तो भविष्य में उस के लिए बहुत अच्छा रहेगा. इस प्रस्ताव पर मैं ने गंभीरता से सोचा था. एक तो मैं अपनी स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट था, दूसरे, रामकरण अंकल के एहसानों का कुछ बदला चुकाने का मौका देख कर मैं ने हामी भर दी. तुरंत युद्धस्तर पर भवननिर्माण का काम शुरू हो गया और अब से ठीक 5 साल पहले वह घड़ी भी आ गई थी जब विधिवत ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ अस्तित्व में आया था, जिस का मैनेजिंग डायरेक्टर मैं ने अनीता को बनाया था.

बस, यहीं से शुरू होती है मेरी चाहत की कहानी, कदम दर कदम धोखे की, जो आज इस अंजाम पर पहुंची है. गजेश के साथ यह तय हुआ कि मैं अनीता को अपने साथ रख कर डेढ़ साल तक उसे अस्पताल मैनेजमेंट के गुर सिखाऊंगा जिस से कि वह सबसेंटर को पूरी तरह संभाल सके और मैं घूमघूम कर अपनी शाखाओं को संभालता रहूंगा. मैं शुरू से ही अपने इस काम में पूरे उत्साह से लग गया. अपने हर डाक्टर को अनीता से मिलवाया, किस को कैसे हैंडल करना है, इस के गुर बताए, यहां तक कि मैं खुद परदे के पीछे हो गया और सामने परदे पर अनीता की छवि पेश करने लगा.

मुझ पर उसे आगे बढ़ाने का जैसे जनून सा सवार हो गया था. मैं चाहने लगा था कि दुनिया अनीता को शहर की नंबर वन बिजनेस लेडी के रूप में जाने, क्योंकि उस ने मुझे अपनी यही चाहत बताई थी और उस की चाहत को पूरा करना मैं ने अपना लक्ष्य बना लिया था. अनीता की ओर से मुझे पहला धक्का तब लगा जब 6 महीने बाद उस ने यह बताया कि वह गर्भवती है. न जाने क्यों पहली बार मैं अपने को ठगा सा महसूस करने लगा. कहां तो मैं कल्पना कर रहा था कि साल भर में वह मेरे कंधे से कंधा मिला कर इस अस्पताल शृंखला को आगे बढ़ाने में मेरी मदद करेगी और कहां अभी से वह परिवार बढ़ाने में ही अपना सुख देख रही है, जबकि उस की बड़ी बच्ची अभी मात्र डेढ़ साल की ही थी.

हालांकि मुझे यह सोचने का हक नहीं था मगर उस से भावनात्मक रूप से शायद मैं इतना जुड़ गया था कि अपने सिवा किसी और से उस के रिश्ते को भी नकारने लगा था. अब तक अनीता सिर्फ दोपहर तक ही मेरे साथ रहती थी, जबकि मैं चाहता था कि वह सुबह से शाम तक मेरे साथ रहे और अस्पताल के संचालन में मेरी तरह वह भी पूरी डूब जाए. मैं ने किसी तरह से यह कड़वा घूंट हजम किया ही था कि अनीता ने एक नई योजना बना ली. उस के कहने पर मैं ने अपनी अस्पताल शृंखला को कंप्यूटरी- कृत किया और अब वह चाहती थी कि स्वयं कंप्यूटर सेंटर जा कर कंप्यूटर सीखे. मैं ने उसे समझाया कि अभी तुम अस्पताल में 5-6 घंटे ही दे पाती हो, कंप्यूटर सीखने जाओगी तो यह समय और भी कम हो जाएगा, और फिर तुम्हें कंप्यूटर सीख कर करना भी क्या है. लेकिन उस की जिद के आगे मेरी एक न चली और अब अस्पताल में उस का समय केवल 2 घंटे का ही रह गया. मैं ने दिल को यह सोच कर तसल्ली दी कि 6 महीने बाद तो अनीता मुझे पूरा समय देगी ही, लेकिन तभी उस ने एक बेटी को जन्म दिया और 3 महीने के लिए वह घर बैठ गई.

शहर में पहला फैशन डिजाइनिंग कोर्स खुला तो अनीता ने नर्सिंग होम के कामों में मुझे सहयोग करने के बजाय 2 साल का डिजाइनिंग कोर्स करने की जिद पकड़ ली और मैं ने उस की यह इच्छा भी पूरी की. धीरेधीरे मैं उस के इस नए काम में इतना डूब गया कि मेरे मिलने वाले मजाक में मुझे टेलर मास्टर कहने लगे. ड्रेस डिजाइनिंग के कोर्स में अनीता के फर्स्ट आने के जनून में मैं इतना खो गया कि अब अपने अस्पताल को एक जूनियर सर्जन के हवाले कर के अनीता के साथ घूमता, कभी उसे क्लास में ले जाता तो कभी प्रेक्टिकल के लिए कपड़ा, धागे, सलमेसितारे लेने बाजार के चक्कर काटने लग जाता. नतीजा, मेरा बिजनेस घट कर आधा रह गया, लेकिन मैं न चेता क्योंकि तब मुझ पर अनीता का नशा छाया हुआ था. मेरी एकमात्र चाहत यही थी कि अनीता जिस क्षेत्र में भी जाए, नंबर वन रहे और वह दुनिया से कहे कि देखो, यह वह इनसान है जिस के कारण आज मैं तरक्की की बुलंदी पर हूं. जब वह एकांत में मुझे यह श्रेय दे कर कहती कि मैं उस का सबकुछ हूं तो मैं फूला नहीं समाता था. और इसी तरह की एक भावनात्मक घड़ी में एकदिन वह समर्पित भी हो गई. आखिर वह दिन आया जब अनीता को डिजाइनिंग सेंटर द्वारा आयोजित एक शानदार समारोह में बेस्ट फैशन डिजाइनर की उपाधि हासिल हुई.

मुझे धक्का तो उस दिन लगा जब मुझे उस समारोह में अपने साथ ले जाने लायक उस ने न समझा. अगले दिन के अखबार भी मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. शहर की बेस्ट फैशन डिजाइनर अनीता ने अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने पति को दिया, जिन के ‘मार्गदर्शन’ और ‘सहयोग’ के बिना वह यह उपलब्धि हासिल न कर पाती. उस दिन मुझे पहली बार लगा कि मैं सिर्फ एक सीढ़ी मात्र हूं जिस पर पैर रख कर अनीता सफलता के पायदान चढ़ना चाहती है और इस काम में उस के पति गजेश का उसे पूरा समर्थन हासिल है. होता भी क्यों न. मुझ जैसा एक काठ का उल्लू जो उसे मिल गया था, जिस के बारे में वह समझ चुकी थी कि मैं उस की किसी भी इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकता था.

उस की सब इच्छाएं मैं ने पूरी कीं और जब श्रेय लेने की बारी आई तो पतिदेव सामने आ गए. अब मैं अंदर ही अंदर घुटने लगा, किसी से कुछ कह सकता नहीं था क्योंकि मैं ने अपनी बीवी तक को इस जनून के चलते पिछले 3 साल से अनदेखा कर रखा था और हमारे बीच के संबंध तनावपूर्ण नहीं तो कम से कम मधुर भी नहीं रह गए थे. वह पढ़ीलिखी समझदार औरत थी लेकिन सबकुछ देखजान कर भी चुप थी, तो वजह अनीता का रामकरण अंकल की बहू होना था, जिसे वह अपने पिता के समान ही मानती थी. अनीता की बेवफाई से टूटा मैं अपने दर्द किस के साथ बांटता, क्योंकि घरपरिवार, नातेरिश्तेदार, यारदोस्त सब तो मुझ से दूर हो गए थे. ऐसे मौके पर मैं नशे की गोलियों का सहारा लेने लगा.

डाक्टर होने की वजह से मुझे ये गोलियां सहज उपलब्ध थीं. धीरेधीरे हालत यह हो गई कि मैं अस्पताल में सुबह ही नशे में गिरतापड़ता पाया जाने लगा. घर पर भी नशे की झोंक में अनीता का गुस्सा मैं अपने बीवीबच्चों पर निकालने लगा और धीरेधीरे बच्चे मुझ से दूर होने लगे. नशे की मेरी लत अब और भी बढ़ गई थी. तभी एक दिन सुबह उठने पर मुझे लगा कि मेरे दाएं हाथ ने लकवे के कारण काम करना बंद कर दिया है, मैं अपाहिज हो गया. 2 दिन तो मैं ने शौक की स्थिति में गुजारे लेकिन फिर इसे ही अपनी नियति मान कर काम पर आना शुरू कर दिया. नए रखे कारचालक की मदद से कार में बैठ कर अस्पताल आ जाता. सर्जरी के लिए तो अब मैं पूरी तरह से अपने जूनियर सर्जन पर निर्भर हो गया, लेकिन दिल में फिर भी एक चाह थी कि शायद अब अनीता आएगी और गंभीरतापूर्वक अस्पताल को संभालेगी.

मेरी यह हसरत कभी पूरी न हो पाई. हां, मेरी बीमारी का सहारा ले कर अस्पताल में गजेश की दखलंदाजी बढ़ती गई. उस दिन तो हद ही हो गई जब एक पार्टी में मेरे सीनियर डा. हेमेंद्र ने मेरा परिचय किन्हीं मि. सिंघवी से ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ के रूप में करवाया तो सिंघवी अविश्वास से मेरी तरफ देखते हुए कहने लगे कि उस के मालिक तो मेरे दोस्त मि. गजेश हैं, ये कौन हैं? दूसरा झटका मुझे गजेश के पड़ोसी वर्माजी ने यह पूछ कर दिया कि और आप भी गजेशजी के अस्पताल में कार्यरत हैं? मैं दंग रह गया. अपने ही अस्पताल में मैं अपरिचित हो गया. मेरी आंखें खुलीं, लेकिन अभी भी अनीता के प्यार के खुमार ने जकड़ रखा था मुझे, हालांकि वह अब मुझ से खिंची सी रहने लगी थी. इसी दौरान मेरे अस्पताल में एक मरीज की मौत को ले कर हंगामा मच गया. शहर के सभी अखबारों ने इस घटना को नमकमिर्च लगा कर छापा. इस घटना के बाद मेरे रहेसहे व्यापारिक संबंध भी कन्नी काटने लगे और व्यावसायिक दृष्टि से मैं धरातल पर आ गया. अब अनीता ने नजरें बिलकुल फेर लीं और खुलेआम मेरी बरबादी का जिम्मेदार वह मुझे ही बताने लगी.

उस वक्त तो मेरी हैरानी की सीमा न रही जब उस ने मुझे कहा कि पिछले कई सालों से उस के पति गजेश ने अस्पताल को संभाल रखा था, वरना तुम्हारी वजह से तो यह अस्पताल चलने से पहले ही बंद हो जाता. आज शाम को एक छोटी सी बात पर गजेश बदतमीजी पर उतर आया और मेरे कर्मचारियों के सामने वह चिल्ला- चिल्ला कर कहने लगा कि पिछले कई सालों से मैं तुम्हें सहन कर रहा हूं. यह सुन कर मैं सन्न रह गया, लेकिन फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘मेरे दोस्त, तुम वाकई मुझे सहन कर रहे हो तो अब कोई मजबूरी नहीं है मुझे सहन करने की, अब तो मैं अपाहिज हो चुका हूं.’ गजेश चीख कर बोला, ‘तू मुझ से कह दे, मैं कल से तेरे अस्पताल में झांकूंगा भी नहीं.’

मैं ने कहा, ‘कल किस ने देखा है, मैं आज ही कह रहा हूं,’ वह तुरंत मुड़ा और निकल गया वहां से, जैसे कि वह यहां से जाने का बहाना ही तलाश रहा हो. उस के जाने के घ्ांटे भर बाद अनीता का फोन आया, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी स्कीम के तहत किया. तुम्हें मेरा शरीर पाना था सो वह तुम पा गए. तुम इनसान नहीं, हैवान हो. मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’ अनीता के कहे ये शब्दमुझे अतीत की इन कड़वी यादों में झांकने को मजबूर कर रहे थे और मैं अब भी यही सोच रहा हूं कि प्लान से मैं चला या गजेश, हैवान मैं हुआ या गजेश, उत्तर आप ही दें, न्याय आप ही करें.

लेखक-  डा. पी.के. सरीन

Hindi Story : जानलेवा चुनौती

Hindi Story : यह कहानी बंटवारे से पहले अंगरेजी राज की है. उस समय लोगों के स्वास्थ्य बहुत अच्छे हुआ करते थे. बीड़ीसिगरेट, वनस्पति घी का प्रयोग नहीं हुआ करता था. उस जमाने के लोग बहुत निडर होते थे. हत्या, डकैती की कोई घटना हो जाती थी तो पुलिस और जनता उस में रुचि लिया करती थी. गांवों में पुलिस आ जाती तो पूरे गांव में खबर फैल जाती कि थाना आया हुआ है.

एक अंगरेज डिप्टी कमिश्नर इंग्लैंड से रावलपिंडी स्थानांतरित हो कर आया था. जब भी कोई नया अंगरेज अधिकारी आता तो उसे उस इलाके की पूरी जानकारी कराई जाती थी, जिस से वह अच्छा कार्य कर के अपनी सरकार का नाम ऊंचा कर सके. उस अंगरेज डिप्टी कमिश्नर को बताया गया कि भारत में अनोखी घटनाएं होती हैं, जिन में डाके और चोरियां शामिल हैं. अपराधियों की खोज करना बहुत कठिन होता है. कई घटनाएं ऐसी होती हैं कि सुन कर हैरानी होती है.

नए अंगरेज डिप्टी कमिश्नर ने एसपी से कहा कि मेरे बंगले पर 24 घंटे पुलिस की गारद रहती है साथ ही 2 खूंखार कुत्ते भी. इस के अलावा मेरे इलाके में पुलिस भी रहती है. रात भर लाइट जलती है, क्या ऐसी हालत में भी चोर मेरे घर में चोरी कर सकता है?

एसपी ने जवाब दिया कि ऐसे में भी चोरी की संभावना हो सकती है. अंगरेज डिप्टी कमिश्नर ने कहा, ‘‘मैं इस बात को नहीं मानता, इतनी सावधानी के बावजूद कोई चोरी कैसे कर सकता है?’’

एसपी ने कहा, ‘‘अगर आप आजमाना चाहते हैं तो एक काम करें. एक इश्तहार निकलवा दें, जिस में यह लिखा जाए कि अंगरेज डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर अगर कोई चोरी कर के निकल जाए, तो उसे 500 रुपए का नकद ईनाम दिया जाएगा. अगर वह पुलिस या कुत्तों द्वारा मारा जाता है तो अपनी मौत का वह स्वयं जिम्मेदार होगा. अगर वह मौके पर पकड़ा या मारा नहीं गया तो पेश हो कर अपना ईनाम ले सकता है. उसे गिरफ्तार भी नहीं किया जाएगा और न ही कोई सजा दी जाएगी.’’

डिप्टी कमिश्नर ने एसपी की बात मान ली. इश्तहार छपा कर पूरे शहर में लगा दिए गए. इश्तहार निकलने के 2 महीने बाद यह बात उड़तेउड़ते चकवाल गांव भी पहुंची. उस जमाने में गांवों के लोग शाम को चौपालों पर एकत्र हो कर गपशप किया करते थे. चकवाल की एक ऐसी चौपाल पर अमीर नाम का आदमी बैठा हुआ था, जो 10 नंबरी था.

उस ने वहीं डिप्टी कमिश्नर के इश्तहार वाली बात सुनी. उस ने लोगों से पूछा कि 2 महीने बीतने पर भी वहां चोरी करने कोई नहीं आया क्या? एक आदमी ने उसे बताया कि पिंडी से आए एक आदमी ने बताया था कि उस बंगले में किसी की हिम्मत नहीं है जो चोरी कर सके. वहां चोरी करने का मतलब है अपनी मौत का न्यौता देना.

अमीर ने उसी समय फैसला कर लिया कि वह उस बंगले में चोरी जरूर करेगा. अंगरेज डिप्टी कमिश्नर को वह ऐसा सबक सिखाएगा कि वह पूरी जिंदगी याद रखेगा. उस ने अपनी योजना के बारे में सोचना शुरू कर दिया.

कुत्तों के लिए उस ने बैलों के 2 सींग लिए और देशी घी की रोटियों का चूरमा बना कर उन सींगों में इस तरह से भर दिया कि कुत्ते कितनी भी कोशिश करें, रोटी न निकल सकें. उस जमाने में रेल के अलावा सवारी का कोई साधन नहीं था. गांव के लोग 30-40 मील तक की यात्रा पैदल ही कर लिया करते थे.

चूंकि अमीर 10 नंबरी था इसलिए कहीं बाहर जाने से पहले इलाके के नंबरदार से मिलता था. इसलिए अमीर सुबह जा कर उस से मिला, जिस से उसे लगे कि अमीर गांव में ही है. चकवाल से रावलपिंडी का रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था. अमीर दिन में ही पैदल चल कर डिप्टी कमिश्नर की कोठी के पास पहुंच गया.
उस ने संतरियों को कोठी के पास ड्यूटी करते हुए देखा. बंगले के बाहर की दीवार आदमी की कमर के बराबर ऊंची थी. बंगले के अंदर संतरों के पेड़ थे, और बड़ी संख्या में फूलों के पौधे भी थे.

बंगले के चारों ओर लंबेलंबे बरामदे थे, बरामदे के 4-4 फुट चौड़े पिलर थे. अमीर को अंदर जा कर कोई भी चीज चुरानी थी और यह साबित करना था कि भारत में एक ऐसी भी जाति है, जो बहुत दिलेर है और जान की चिंता किए बिना हर चैलेंज कबूल करने के लिए तैयार रहती है.

जब आधी रात हो गई तो वह बंगले की दीवार से लग कर बैठ गया और संतरियों की गतिविधि देखने लगा. जिन सींगों में घी लगी रोटियों का चूरमा भरा था, उस ने वे सींग बड़ी सावधानी से अंदर की ओर रख दिए.

वह खुद दीवार से 10-12 गज दूर सरक कर बैठ गया. कुत्तों को घी की सुगंध आई तो वे सींगों में से चूरमा निकालने में लग गए. फिर दोनों कुत्ते सींगों को घसीटते हुए काफी दूर अंदर ले गए.

अब अमीर ने संतरियों को देखा, वे 4 थे. बरामदे में इधर से उधर घूमते हुए थोड़ीथोड़ी देर के बाद एकदूसरे को क्रौस करते थे. संतरी रायफल लिए हुए थे और उन्हें ऐसा लग रहा था कि 2 महीने से भी ज्यादा बीत चुके हैं. अब किसी में यहां आने की हिम्मत नहीं है. वैसे भी वह थके हुए लग रहे थे.

अमीर दीवार फांद कर पौधों की आड़ में बैठ गया. वह ऐसे मौके की तलाश में था जब संतरियों का ध्यान हटे और वह बरामदे से हो कर अंदर चला जाए. उसे यह मौका जल्दी ही मिल गया. क्रौस करने के बाद जब संतरियों की पीठ एकदूसरे के विपरीत थी, अमीर जल्दी से कूद कर बरामदे के पिलर की आड़ में खड़ा हो गया.

अमीर फुर्तीला था. दौड़ता हुआ ऐसा लगता था, मानो जहाज उड़ा रहा हो. उसे यकीन था कि काम हो जाने के बाद अगर वह बंगले के बाहर निकल गया तो संतरियों का बाप भी उसे पकड़ नहीं पाएगा.

दूसरा अवसर मिलते ही वह कमरे का जाली वाला दरवाजा खोल कर कमरे में पहुंच गया. लकड़ी का दरवाजा खुला हुआ था. चारों ओर देख कर वह बंगले के बीचों बीच वाले कमरे के अंदर पहुंचा. उस ने देखा कमरे के बीच में बहुत बड़ा पलंग था. उस पर एक ओर साहब सोया हुआ था और दूसरी ओर उस की मेम सो रही थी. मध्यम लाइट जल रही थी.

कमरे में लकड़ी की 2-3 अलमारियां थीं, चमड़े के सूटकेस भी थे. उस ने एक सूटकेस खोला, उस में चांदी के सिक्के थे. उस ने एकएक कर के सिक्के अपनी अंटी में भरने शुरू कर दिए. जब अंटी भर गई तो उस ने मजबूती से गांठ बांध ली. वह निकलने का इरादा कर ही रहा था कि उस की नजर सोई हुई मेम के गले की ओर गई, जिस में मोतियों की माला पड़ी थी.

मध्यम रोशनी में भी मोती चमक रहे थे. उस ने सोचा अगर यह माला उतारने में सफल हो गया तो चैलेंज का जवाब हो जाएगा. मेम और साहब गहरी नींद में सोए हुए थे. उस ने देखा कि माला का हुक मेम की गरदन के दाईं ओर था. उस ने चुपके से हुक खोलने की कोशिश की. हुक तो खुल गया, लेकिन मेम ने सोती हुई हालत में अपना हाथ गरदन पर फेरा और साथ ही करवट बदल कर दूसरी ओर हो गई.

अब माला खुल कर उस की गरदन और कंधे के बीच बिस्तर पर पड़ी थी, अमीर तुरंत पलंग के नीचे हो गया. 5 मिनट बाद उसे लगा कि अब मेम फिर गहरी नींद में सो गई. उस ने पलंग के नीचे से निकल कर धीरेधीरे माला को खींचना शुरू कर दिया. माला निकल गई. उस ने माला अपनी लुंगी की दूसरी ओर अंटी में बांध ली.

अमीर जाली वाले दरवाजे की ओट में देखता रहा कि संतरी कब इधरउधर होते हैं. उसे जल्दी ही मौका मिल गया. वह जल्दी से खंभे की ओट में खड़ा हो कर बाहर निकलने का मौका देखने लगा. कुत्ते अभी तक सींग में से रोटी निकालने में लगे हुए थे.

उसे जैसे ही मौका मिला, वह दीवार फांद कर बाहर की ओर कूद कर भागा. संतरी होशियार हो गए और जल्दबाजी में अंटशंट गोलियां चलाने लगे. लेकिन उन की गोली अमीर का कुछ नहीं बिगाड़ सकीं. वह छोटे रास्ते से पगडंडियों पर दौड़ता हुआ रात भर चल कर अपने घर पहुंच गया.

बाद में अमिर को पता लगा कि गोलियों की आवाज सुन कर मेम और साहब जाग गए थे. जागते ही उन्होंने कमरे में चारों ओर देखा. सिक्कों की चोरी को उन्होंने मामूली घटना समझा. लेकिन जब मेम साहब ने अपनी माला देखी तो उस ने शोर मचा दिया. वह कोई साधारण माला नहीं थी, बल्कि अमूल्य थी.

एसपी साहब और नगर के सभी अधिकारी एकत्र हो गए. उन्होंने नगर का चप्पाचप्पा छान मारा, लेकिन चोर का पता नहीं लगा. अंगरेज डिप्टी कमिश्नर हैरान था कि इतनी सिक्योरिटी के होते हुए चोरी कैसे हो गई. उस ने कहा कि चोर हमारी माला वापस कर दे और अपनी 5 सौ रुपए के इनाम की रकम ले जाए. साथ में उसे एक प्रमाणपत्र भी मिलेगा.

इश्तहार लगाए गए, अखबारों में खबर छपाई गई लेकिन 6 माह गुजरने के बाद भी चोर सामने नहीं आया. दूसरी तरफ मेमसाहब तंग कर रही थी कि उसे हर हालत में अपनी माला चाहिए. माला की फोटो हर थाने में भिजवा दी गई. साथ ही कह दिया गया कि चोर को पकड़ने वाले को ईनाम दिया जाएगा.

उधर अमीर चोरी के पैसों से अपने घर का खर्च चलाता रहा, उस समय चांदी का एक रुपया आज के 2-3 सौ से ज्यादा कीमत का था. अमीर के घर में पत्नी और एक बेटी थी, बिना काम किए अमीर को घर बैठे आराम से खाना मिल रहा था. उस ने सोचा, पेश हो कर अपने लिए क्यों झंझट पैदा करे, हो सकता है उसे जेल में डाल दिया जाए.

उस की पत्नी ने माला को साधारण समझ कर एक मिट्टी की डोली में डाल रखा था. एक दिन उस ने उस माला के 2 मोती निकाले और पास के एक सुनार के पास गई. उस ने सुनार से कहा कि उस की बेटी के लिए 2 बालियां बना दे और उन में एक मोती डाल दे. सुनार ने उन मोतियों को देख कर अमीर की पत्नी से कहा, ‘‘यह मोती तो बहुत कीमती हैं. तुम्हें ये कहां से मिले?’’

उस ने झूठ बोलते हुए कहा, ‘‘मेरा पति गांव के तालाब की मिटटी खोद रहा था, ये मोती मिट्टी में निकले हैं. मैं ने सोचा बेटी के लिए बालियां बनवा कर उस में ये मोती डाल दूं, इसलिए तुम्हारे पास आई हूं.’’ सुनार ने उस की बातों पर यकीन कर के बालियां बना दीं. उस ने अपनी बेटी के कानों में बालियां पहना दीं.

दुर्भाग्य से एक दिन अमीर की बेटी अपने घर के पास बैठी रो रही थी. तभी एक सिपाही जो किसी केस की तफ्तीश के लिए नंबरदार के पास जा रहा था, उस ने रास्ते में अमीर के घर के सामने लड़की को रोते हुए देखा. देख कर ही वह समझ गया कि किसी गरीब की बच्ची है, मां इधरउधर गई होगी. इसलिए रो रही होगी.

लेकिन जब उस की नजर बच्ची के कानों पर पड़ी तो चौंका. उस की बालियों में मोती चमक रहे थे. उसे लगा कि वे साधारण मोती नहीं हैं. उस ने नंबरदार से पूछा कि यह किस की लड़की है. उस ने बता दिया कि वह अमीर की लड़की है, जो दस नंबरी है.

हवलदार को कुछ शक हुआ. उस ने पास जा कर मोतियों को देखा तो वे मोती फोटो वाली उस माला से मिल रहे थे. जो थाने में आया था.

उस ने अमीर को बुलवा कर कहा कि वह बच्ची की बालियां थाने ले जा रहा है, जल्दी ही वापस कर लौटा देगा. थाने ले जा कर उस ने चैक किया तो वे मोती मेम साहब की माला के निकले. अमीर पहले से ही संदिग्ध था, नंबरी भी. उसे थाने बुलवा कर पूछा गया कि ऊपर से 10 मोती उसे कहां से मिले. सब सचसच बता दे, नहीं तो मारमार कर हड्डी पसली एक कर दी जाएगी.

पहले तो अमीर थानेदार को इधरउधर की बातों से उलझाता रहा, लेकिन जब उसे लगा कि बिना बताए छुटकारा नहीं मिलेगा तो उस ने पूरी सचाई उगल दी. उस के घर से माला भी बरामद कर ली गई.

थानेदार बहुत खुश था कि उस ने बहुत बड़ा केस सुलझा लिया है, अब उस की पदोन्नति भी होगी और ईनाम भी मिलेगा. अमीर को एसपी रावलपिंडी के सामने पेश किया गया. साथ ही डिप्टी कमिश्नर को सूचना दी गई कि मेम साहब की माला मिल गई है.

डीसी और मेम साहब ने उन्हें तलब कर लिया. मेम साहब ने माला को देख कर कहा कि माला उन्हीं की है. डिप्टी कमिश्नर ने अमीर के हुलिए को देख कर कहा कि यह चोर वह नहीं हो सकता, जिस ने उन के बंगले पर चोरी की है. क्योंकि उस जैसे आदमी की इतनी हिम्मत नहीं हो सकती कि माला गले से उतार कर ले जाए.

एसपी ने अमीर से कहा कि अपने मुंह से साहब को पूरी कहानी सुनाए. अमीर ने पूरी कहानी सुनाई और बीचबीच में सवालों के जवाब भी देता रहा. उस ने यह भी बताया कि सोते में मेम साहब ने अपनी गरदन पर हाथ भी फेरा था. डिप्टी कमिश्नर ने उस की कहानी सुन कर यकीन कर लिया, साथ ही हैरत भी हुई.

उन्होंने कहा, ‘‘तुम ने हमें बहुत परेशान किया है, अगर तुम उसी समय हमारे पास आ जाते तो हमें बहुत खुशी होती, लेकिन हम चूंकि वादा कर चुके हैं, इसलिए तुम्हें तंग नहीं किया जाएगा. हम तुम्हें सलाह देते हैं कि बाकी की जिंदगी शरीफों की तरह गुजारो.’’

अमीर ने वादा किया कि अब वह कभी चोरी नहीं करेगा. वह एक साधू का चेला बन गया और उस की बात पर अमल करने लगा. लेकिन कहते हैं कि चोर चोरी से जाए, पर हेराफेरी से नहीं जाता. वह छोटीमोटी चोरी फिर भी करता रहा. धीरेधीरे उस में शराफत आती गई.

Hindi Story : जिंदगी

Hindi Story : चायनाश्ते और खाने का भी बढि़या इंतजाम है. मतलब, जेब से कुछ खर्च नहीं, फोकट में घूमना हो जाएगा. बस, पार्टी का झंडा भर साथ में ले कर चलना है. मंत्रीजी के प्रताप से मुफ्त में रेलगाड़ी में जाना है.’ मंगरू कुछ कहता, उस से पहले महेंद्र ने उस के कान में मंत्र फूंका था, ‘लगे हाथ किशना से भी मिल लेना. सुना है, गांधी मैदान में कोई होटल खोले बैठा है.’ बात तो ठीक थी. कितने दिन से मंगरू का मन कर रहा था कि बेटे किशना से मिल आए. मगर मौका ही हाथ नहीं लग रहा था, इसलिए वह नेताजी की रैली में शामिल होने के लिए तैयार हो गया था. गाड़ी से उतरते वक्त मंगरू ने जेब में से परची निकाल कर देखी. हां, यही तो पता दिया था किशना का. मगर टे्रन कमबख्त इतनी लेट थी कि दोपहर के बजाय रात 7 बजे पटना स्टेशन पहुंची थी. अब इस समय उसे कहां खोजेगा वह कि उस की जेब में रखा मोबाइल फोन घनघनाने लगा. मंगरू ने लपक कर मोबाइल फोन निकाला और तकरीबन चिल्लाने वाले अंदाज में बोला, ‘‘हां बबुआ, स्टेशन पहुंच गया हूं. अब कहां जाना है?’’

‘स्टेशन से बाहर निकल कर आटोस्टैंड पर आ जाइए,’ किशना बोल रहा था, ‘वहीं से गांधी मैदान के लिए आटोरिकशा पकड़ लेना. 5 मिनट में पहुंचा देगा.’ अपना झोला, लाठी और पोटली संभाल कर मंगरू बाहर निकला. बाहर रेलवे स्टेशन दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था. हजारोंलाखों की भीड़ इधरउधर आजा रही थी. उस ने झोले को खोल कर देखा. पार्टी का झंडा सहीसलामत था. एक जोड़ी कपड़ा, गमछा और चनेचबेने भी ठीकठाक थे. किशना की मां ने कुछ पकवान बना कर उस के लिए बांध कर रख दिए थे. आटोरिकशा में बैठा मंगरू आंख फाड़े भागतीदौड़ती, खरीदारी करती, खातीपीती भीड़ को देखता रहा कि ड्राइवर ने उसे टोका, ‘‘आ गया गांधी मैदान. उतरिए न बाबा.’’ आटोस्टैंड की दूसरी तरफ गांधी मैदान के विशाल परिसर को उस ने नजर भर निहारा, ‘बाप रे,’ इतना बड़ा मैदान. बेटे किशना का होटल किधर होगा.’ एक बार फिर मोबाइल घनघनाया, ‘हां, आप गेट के पास ही खड़े रहिए…’ किशना बोल रहा था, ‘मैं आप को लेने वहीं आ रहा हूं.’ मंगरू मैदान के किनारे लोहे के विशाल फाटक के पास खड़ा ही था कि उसे किशना आता दिखा. उसे देख वह लपक कर उस के पास पहुंचा. पैर छूने के बाद किशना ने उसी मैदान में रखी हुई एक बैंच पर बिठा दिया. ‘‘कहां है तुम्हारा होटल?’’ अधीर सा होते हुए मंगरू बोला, ‘‘बहुत मन कर रहा है तुम्हारा होटल देखने का.’’ ‘‘वह भी देख लीजिएगा,’’ किशना कुछ बुझे स्वर में बोला, ‘‘चलिए, पहले कुछ चायनाश्ता तो करवा दूं आप को. ‘‘और हां, वह रहा आप की पार्टी का पंडाल. सुना है, तकरीबन 20 लाख रुपए खर्च हुए हैं पंडाल बनाने में. भोजनपानी और रहने का अच्छा इंतजाम है.’’ एक जगह पूरीसब्जी का नाश्ता करा और चाय पिला कर किशना बोला,

‘‘अब चलिए आप को पंडाल दिखा दूं.’’ ‘‘अरे, रात में तो वहीं रहना है…’’ मंगरू जोश में था, ‘‘आखिर उसी के लिए तो आया हूं. बाकी तुम्हारा गांधी मैदान बहुत बड़ा है.’’ ‘‘शहर भी तो बहुत बड़ा है बाऊजी,’’ किशना बिना लागलपेट के बोला, ‘‘इस शहर में ढेरों मैदान हैं. मगर उन में रात के 10 बजे के बाद कोई नहीं रह सकता. पुलिस पहरा देती है. भगा देती है लोगों को.’’ ‘‘देखो, तुम्हारी माई ने तुम्हारे खाने के लिए कुछ भेजा?है…’’ मंगरू झोले में से पोटली निकालते हुए बोला, ‘‘वह तो थोड़े चावलदाल भी दे रही थी कि लड़का कुछ दिन घर का अनाज पा लेगा. लेकिन मैं ने ही मना कर दिया कि इसे ढो कर कौन ले जाए.’’ ‘‘अच्छा किया आप ने जो नहीं लाए…’’ किशना की आवाज में लड़खड़ाहट सी थी, ‘‘यह शहर है. यहां सबकुछ मिलता है. बस, खरीदने की औकात होनी चाहिए.’’ ‘‘सब ठीक चल रहा है न?’’ ‘‘सब ठीक चल रहा है. कमाई भी ठीकठाक हो जाती है.’’ ‘‘तभी तो हर महीने 2-3 हजार रुपए भेज देते हो.’’ ‘‘भेजना ही है. अपना घर मजबूत रहेगा, तो हम बाहर भी मजबूत रहेंगे. जो काम मिला, वही कर रहा हूं. बाकी नौकरी कहां मिलती है.’’ ‘‘अरे, यह क्या,’’ मंगरू चौंका. एक ठेले के पास 2-4 लड़के कुछकुछ काम कर रहे थे और वहां ग्राहकों की भीड़ लगी थी. एक कड़ाही में पूरी या भटूरे तल रहा था. दूसरा उन्हें प्लेटों में छोले, अचार और नमकमिर्चप्याज के साथ ग्राहकों को दे रहा था. तीसरा जूठे बरतनों को धोने में लगा था, जबकि चौथा रुपएपैसे का लेनदेन कर रहा था. इधर एक तरफ से अनेक ठेलों की लाइनें लगी हुई थीं, जिन पर इडलीडोसा, लिट्टीचोखा, चाटपकौड़े, मोमो, मैगी, अंडेआमलेट और जाने क्या कुछ बिक रहा था. ‘‘यही है हमारा होटल बाऊजी…’’ फीकी हंसी हंसते हुए किशना बोल रहा था, ‘‘ठेके के साइड में पढि़ए. लिखा है ‘किशन छोलाभटूरा स्टौल’. इसी होटलरूपी ठेले से हम 5 जनों का पेट पल रहा है. ‘‘इतना बड़ा गांधी मैदान है. थक जाने पर यहीं कहीं आराम कर लेते हैं.

और रात के वक्त चारों तरफ सूना पड़ जाने पर यह सड़क, यह जगह बहुत बड़ी दिखने लगती है. सो, कहीं भी किसी दुकान के सामने चादर बिछा कर सो जाते हैं.’’ ‘‘यह भी कोई जिंदगी हुई?’’ मंगरू ने पूछा. ‘‘हां बाऊजी, यह भी जिंदगी ही है. बड़े शहरों में लाखों लोग ऐसी ही जिंदगी जीते हैं.’’ ‘‘और वह तुम्हारी पढ़ाई, जिस के पीछे तुम ने पटना में रह कर 7 साल लगाए, हजारों रुपए खर्च हुए.’’ ‘‘आज की पढ़ाई सिर्फ सपने दिखाती है, नौकरी या कामधंधा नहीं देती. मैं ने आप की जिंदगी को नजदीक से देखाजाना है. बस उसे अपनी जिंदगी में उतार लिया और जिंदगी आगे चल पड़ी. यही नहीं, मेरे साथ मेरे 4 साथियों की जिंदगी भी पटरी पर आ गई, नहीं तो यहां लाखों बेरोजगार घूम रहे हैं.’’ मंगरू एकटक कभी किशना को तो कभी गांधी मैदान को देखता रहा. ‘‘यह एक कार्टन है बाऊजी, जिस में आप लोगों के लिए नए कपड़े हैं. छोटे भाईबहनों के लिए खिलौने हैं. इसे साथ ले जाना.’’ थोड़ी देर के बाद किशना मंगरू को गांधी मैदान के पास लगे पार्टी के पंडाल में पहुंचा आया. वहां एक तरफ पुआल के ऊपर दरियां बिछी थीं, जिन पर हजारों लोग लेटे या बैठे हुए थे. पर मंगरू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह वहीं अनमना सा लेट गया, चुपचाप.

Hindi Story : दर्पण

Hindi Story : ‘‘आजकल बड़ा लजीज खाना भेजती हो बेगम,’’ आफिस से आ कर जूते खोलते हुए सुजय ने कहा. ‘‘क्यों, अच्छा खाना न भेजा करूं,’’ मैं ने कहा, ‘‘इन दिनों कुकिंग कोर्स ज्वाइन किया है. सोचा, रोज नईनई डिश भेज कर तुम्हें सरप्राइज दूं.’’ ‘‘शौक से भेजिए सरकार, शौक से. आजकल तो सभी आप के खाने की तारीफ करते हैं,’’ सुजय ने हंस कर कहा. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘सभी कौन?’’ ‘‘अरे भई, अभी आप यहां किसी को नहीं जानती हैं. हमें यहां आए दिन ही कितने हुए हैं. जब एक बार पार्टी करेंगे तो सब से मुलाकात हो जाएगी. यहां ज्यादातर अधिकारी मैस में ही खाना खाते हैं.

हां, मैं तुम्हें बताना भूल गया था कि निसार भी पिछले हफ्ते ट्रांसफर पर यहीं आ गया है. उसे मेरी सब्जियां बहुत पसंद आती हैं. एक दिन कह रहा था कि जब ठंडे खाने में इतना मजा आता है तो गरम कितना लजीज होगा,’’ सुजय मेरे खाने की तारीफों के पुल बांध रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘यह निसार क्या सरनेम हुआ?’’ ‘‘वह निसार नाम से गजलें लिखता है, वैसे उस का नाम निश्चल है,’’ सुजय ने बताया. ‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं चुप हो गई पर चाय के उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे. ‘‘तुम्हें याद नहीं क्या मौली? हमारी शादी में भी निसार आया था.’’ ‘‘हूं, याद है,’’ अतीत की यादें आंधी की तरह दिल के दरवाजे में प्रवेश करने लगी थीं. मुंह दिखाई की रस्म शुरू हो चुकी थी. घर के सभी बड़े, ताऊ, चाचा, मामी, मामा कोई भी उपहार या गहना ले कर आता और पास बैठी छोटी ननद मेरा घूंघट उठा देती. बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्रणाम में मैं हाथ जोड़ देती थी. इतना सब करने पर भी मेरी पलकें झुकी ही रहतीं. घूंघट की ओट से अब तक बीसियों अनजान चेहरे देख चुकी थी. अचानक स्टेज के पास निश्चल को देखा तो हैरत में पड़ गई. सोचा, कोई दोस्त होगा, पर वह जब पास आया तो वही अंदाज. ‘भाभी, ऐसे नहीं चलेगा.

आप को मुंह दिखाई के समय आंखें भी दिखानी होंगी. कहीं भेंगीवेंगी आंख वाली तो नहीं?’ कह कर किसी ने घूंघट उठाना चाहा तो आवाज सुन कर मेरा मन हुआ कि आंखें खोल कर पुकारने वाले को देख तो लूं, पर संकोचवश पलक झपक कर रह गए थे. ‘अरे, दुलहन, दिखा दो अपनी आंखें वरना तुम्हारा यह देवर मानने वाला नहीं,’ किसी बूढ़ी औरत का स्वर सुन कर मैं ने आंखें खोल दीं. ऐसा लगा जैसे शिराओं में खून जम सा गया हो. तो यह निश्चल और सुजय आपस में रिश्तेदार हैं. मन ही मन सोचती मैं कई वर्ष पीछे लौट गई थी. निश्चल और कोई नहीं, मेरे स्कूल के दिनों का सहपाठी था जो रिकशे में मेरे साथ जाता था. सारे बच्चे मिल कर धमा- चौकड़ी मचाते थे. इत्तेफाक से कालिज में भी वह साथ रहा और 2-3 बार हमारा पिकनिक भी साथ ही जाना हुआ था. पता नहीं क्यों निश्चल की आंखों की भाषा पढ़ कर हमेशा ऐसा लगता था जैसे उस की आंखें कुछ कहनासुनना चाहती हैं. तब कहां पता था कि एक दिन पापा मेरे रिश्ते के लिए उसी का दरवाजा खटखटाने पहुंचेंगे. निश्चल का बायोडाटा काफी दिनों तक पापा की जेब में पड़ा रहा था. वह उस समय न्यूयार्क में कंप्यूटर इंजीनियर था. 2 महीने बाद भारत आने वाला था. घर वालों को फोटो पसंद आ चुकी थी. बस, जन्मपत्री मिलानी बाकी थी. हरसंभव कोशिशों के बाद भी जन्मपत्री नहीं मिली थी. चूंकि निश्चल के मातापिता जन्मपत्री में विश्वास करते थे इसलिए शादी टल गई थी. उन्हीं दिनों वैवाहिक विज्ञापन के जरिए सुजय से शादी की बात चली. सुजय से जन्मपत्री मिलते ही शादी की रस्म पूरी होगी. ‘‘क्या सोच रही हो, मौली?’’ सुजय की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. ‘‘कुछ नहीं,’’ होंठों पर बनावटी हंसी लाते हुए मैं ने कहा.

निश्चल कुछ ज्यादा मजाकिया स्वभाव का है. उस की बातों का बुरा नहीं मानना तुम. वैसे भी बेचारा अकेला है. न्यूयार्क में किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली थी पर वह छोड़ कर चली गई…’’ उदार हृदय, पति बताते रहे और मैं हूं, हां करती चाय के कप से उड़ती हुई भाप देखती रही. निरीक्षण भवन में सुजय ने पार्टी का इंतजाम कराया था. खाने की प्लेट हाथ में लिए मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगी थी. रात के अंधेरे में मकानों की रोशनी आसमान में चमकते सितारों सी जगमगा रही थी. ‘‘आप बिलकुल नहीं बदलीं,’’ किसी ने पीछे से आवाज दी. निश्चल को देख कर मैं चौंक कर बोली, ‘‘आप ने मुझे पहचान लिया?’’ ‘‘लो, जिस के साथ बचपन से जवान हुआ उसे न पहचानने की क्या बात है. तब आप संगमरमर की तरह गोरी थीं, आज दूध की तरह सफेद हैं,’’ निश्चल ने कहा. ‘‘पर समय के साथ शक्ल और यादें दोनों बदल जाती हैं,’’ मैं ने यों ही कह दिया. ‘‘आप गलत कह रही हैं. समय का अंतराल यहां नहीं चल पाया. आप 13 साल पहले भी ऐसी ही थीं,’’ निश्चल ने हंसते हुए कहा तो शर्म से मेरी पलकें झुक गई थीं. तभी किसी को अपने आसपास यह कहते सुना, ‘‘ओहो, इस उम्र में भी क्या ब्लश कर रही हैं आप?’’ सुन कर मेरे गाल लाल हो गए थे. प्लेट रख कर हाथ धोने के बहाने दर्पण में अपना चेहरा देख कर मैं खुद ही शरमा गई थी. जब से निश्चल ने मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े, मेरी जिंदगी ही बदल गई. जेहन में बारबार यह सवाल उठते कि क्यों कहा निश्चल ने मुझे संगमरमर की तरह गोरी और दूध की तरह सफेद…तब तो चौराहे की भीड़ की तरह मुझे छोड़ कर निश्चल ने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं और अपना रास्ता ही बदल लिया था.

अब, जब हमारे रास्ते अलग हो गए, मंजिलें बदल गईं फिर उस कहानी को याद दिलाने की जरूरत किसलिए? मुझे किसी से भी किसी बात की शिकायत नहीं है, न क्षोभ न पछतावा, पर नियति ने क्यों मेरी जिंदगी में उस व्यक्ति को सामने खड़ा कर दिया जिस को मैं ने बचपन से चाहा. मैं सोच नहीं पाती, क्यों मन बारबार संयम का बांध तोड़ना चाहता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उस से मुलाकात का कोई रास्ता ही न रह जाए. क्लब में तो हर हफ्ते ही मुलाकात होती है. उस पर भी अगर संतोष कर लिया जाए तो ठीक लेकिन गुस्सा तो मुझे अपने ऊपर इसलिए आता था कि जिस का अब जिंदगी से कोई वास्ता नहीं तो फिर क्यों मन उस चीज को पाना चाहता है. क्यों तिरछी बौछार में भीगने की चाहत है, क्या मैं समझती नहीं, निश्चल की आंखों की भाषा? सोचसोच कर मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी. मुलाकातों का सिलसिला अपने आप चलता जा रहा था. अपनी भांजी की शादी में जाना था. व्यस्तताओं के चलते सुजय दिल्ली आ कर मुझे प्लेन में बैठा गए थे. वहीं निश्चल को भी प्लेन में बैठा देख कर मैं हैरान थी कि अचानक उस का कार्यक्रम कैसे बन गया था, मैं समझ नहीं पा रही थी. प्लेन में कई सीटें खाली पड़ी थीं. निश्चल मेरे पास ही आ कर बैठ गया. धरती से हजारों मील ऊपर क्षितिज को अपने बहुत पास देख कर मन पुलकित हो रहा था या निश्चल का साथ पा कर, यह मैं समझ नहीं पा रही थी.

एक दिन पेट में तेज दर्द से अचानक तबीयत खराब हो गई. फोन कर के डाक्टर को घर पर बुला लिया था. उन्होंने ब्लड टेस्ट, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख कर कहा था कि आपरेशन करना पड़ेगा. डाक्टर ने ब्लड का इंतजाम करने को कहा क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप ‘ओ पाजिटिव’ था. ‘‘अब क्या होगा?’’ मैं घबरा गई. ‘‘होना क्या है, कोई न कोई दाता तो मिल ही जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा. ‘‘यहां कौन है? अभी तो हम ने किसी को खबर भी नहीं दी है,’’ सुजय ने कहा. मैं ने निश्चल को फोन मिलाया. ‘‘क्या कोई खास बात, आप परेशान लग रही हैं, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर निश्चल ने फोन रख दिया. 10 मिनट के बाद ही निश्चल मेरे सामने था. उस को देखते ही सुजय ने कहा, ‘‘ब्लड का इंतजाम करना पड़ेगा.’’ निश्चल तुरंत अपना ब्लड टेस्ट कराने चला गया और लौट कर बोला, ‘‘सुनो, तुम्हारा और मेरा एक ही ब्लड गु्रप है.’’ ‘‘काश, घर वाले जन्मपत्री की जगह ‘ब्लड गु्रप’ मिला कर शादी करने की बात सोचते तब तो मैं जरूर ही तुम्हें कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकालता.’’ अवाक् सी मैं निश्चल को देखती रह गई. शर्म से मेरे गाल लाल हो गए.

सुजय ने हंस कर कहा, ‘‘फिर तो हम घाटे में रहते.’’ आपरेशन के बाद होश में आने में कई घंटे लग गए थे. पानीपानी कहते हुए मैं ने आंखें खोलीं तो सामने निश्चल को देखा. मेरी आंखें सुजय को तलाश रही थीं. मुझे देख कर निश्चल ने कहा, ‘‘सुजय सब को फोन करने गया है कि आपरेशन ठीक हो गया और होश आ गया है, लेकिन पता है भाभी, आपरेशन के बाद से अब तक सुजय ने एक बूंद पानी तक नहीं पिया है, क्योंकि आप को भी पानी नहीं देना है. वैसे आप को तो ड्रिप चढ़ाई जा रही है,’’ रूमाल से मेरे होंठों को गीला कर के निश्चल बाहर सुजय के इंतजार में खड़ा रहा. निश्चल के कहे शब्दों से मैं अंदर तक हिल गई. जिस दर्पण में भावुक, टूट कर चाहने वाले इनसान का प्रतिबिंब हो उसे मैं खंडित करने की सोच भी नहीं सकती. अगर उस में जरा सी दरार आ जाए तो वह बेकार हो जाता है. अपने मन के दर्पण को मैं खंडित नहीं होने दूंगी. ‘खंडित दर्पण नहीं बनूंगी मैं,’ मन ही मन बुदबुदा रही थी. सुजय की मेरे प्रति आस्था ने मेरी दिशा ही बदल दी. जरा सी दरार जो दर्पण को खंडित कर देती है उस से मैं अपने को संयत कर पाई.

लेखक- मंजरी सक्सेना

Hindi Story : छिपकली – क्या कविता छिपकली को लक्ष्मी का अवतार मानती थी

Hindi Story : कविता की यह पहली हवाई यात्रा थी. मुंबई से ले कर चेन्नई तक की दूरी कब खत्म हो गई उन्हें पता ही नहीं चला. हवाई जहाज की खिड़की से बाहर देखते हुए वह बादलों को आतेजाते ही देखती रहीं. ऊपर से धरती के दृश्य तो और भी रोमांचकारी लग रहे थे. जहाज के अंदर की गई घोषणा ‘अब विमान चेन्नई हवाई अड्डे पर उतरने वाला है और आप सब अपनीअपनी सीट बेल्ट बांध लें,’ ने कविता को वास्तविकता के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया.

हवाई अड्डे पर बेटा और बहू दोनों ही मातापिता का स्वागत करने के लिए खड़े थे. बेटा संजू बोला, ‘‘मां, कैसी रही आप की पहली हवाई यात्रा?’’

‘‘अरे, तेरी मां तो बादलों को देखने में इतनी मस्त थीं कि इन्हें यह भी याद नहीं रहा कि मैं भी इन के साथ हूं,’’ दीप बोले.

‘‘मांजी की एक इच्छा तो पूरी हो गई. अब दूसरी इच्छा पूरी होने वाली है,’’ बहू जूही बोली.

‘‘कौन सी इच्छा?’’ कविता बोलीं.

‘‘मां, आप अंदाजा लगाओ तो,’’ संजू बोला, ‘‘अच्छा पापा, आप बताओ, मां की वह कौन सी इच्छा थी जिस की वह हमेशा बात करती रही थीं.’’

‘‘नहीं, मैं अंदाजा नहीं लगा पा रहा हूं क्योंकि तेरी मां की तो अनेक इच्छाएं हैं.’’

इसी बातचीत के दौरान घर आ गया था. संजू ने एक बड़ी सी बिल्ंिडग के सामने कार रोक दी.

‘‘उतरो मां, घर आ गया. एक नया सरप्राइज मां को घर के अंदर जाने पर मिलने वाला है,’’ संजू ने हंसते हुए कहा.

लिफ्ट 10वीं मंजिल पर जा कर रुकी. दरवाजा खोल कर सब अंदर आ गए. घर देख कर कविता की खुशी का ठिकाना न रहा. एकदम नया फ्लैट था. फ्लैट के सभी खिड़कीदरवाजे चमकते हुए थे. बाथरूम की हलकी नीली टाइलें कविता की पसंद की थी. रसोई बिलकुल आधुनिक.

संजू बोला, ‘‘मां, तुम्हारी इच्छा थी कि अपना घर बनाऊं और उस घर में जा कर उसे सजाऊं. देखो, घर तो एकदम नया है, चाहे किराए का है. अब तुम इसे सजाओ अपनी मरजी से.’’

कविता पूरे घर को प्रशंसा की नजर से देखती रही फिर धीरे से बालकनी का दरवाजा खोला तो ठंडी हवा के झोंके ने उन का स्वागत किया. बालकनी से पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे. सामने पीपल का विशालकाय वृक्ष था जिस के पत्ते हवा में झूमते हुए शोर मचा रहे थे. आसपास बिखरी हरियाली को देख कर कविता का मन खुशी से झूम उठा.

संजू और जूही दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं और सुबह काम पर निकल जाते तो रात को ही वापस लौटते. सारा दिन कविता और दीप ही घर को चलाते. कविता को नया घर सजाने में बहुत मजा आ रहा था. इमारत भी बिलकुल नई थी इसलिए घर में एक भी कीड़ामकोड़ा और काकरोच नजर नहीं आता था, जबकि मुंबई वाले घर में काकरोचों की भरमार थी. पर यहां नए घर की सफाई से वह बहुत प्रभावित थी. गिलहरियां जरूर उन की रसोई तक आतीं और उन के द्वारा छिड़के चावल के दाने ले कर गायब हो जाती थीं. उन गिलहरियों के छोटेछोटे पंजों से चावल का एकएक दाना पकड़ना और उन्हें कुतरते देखना कविता को बहुत अच्छा लगता था.

उस नई इमारत में कुछ फ्लैट अभी भी खाली थे. एक दिन कविता को अपने ठीक सामने वाला फ्लैट खुला नजर आया. सुबह से ही शोरगुल मचा हुआ था और नए पड़ोसी का सामान आना शुरू हो चुका था. देखने में सारा सामान ही पुराना सा लग रहा था. कविता को लगा, आने वाले लोग भी जरूर बूढे़ होंगे. खैर, कविता ने यह सोच कर दरवाजा बंद कर लिया कि हमें क्या लेनादेना उन के सामान से. हां, पड़ोसी जरूर अच्छे होने चाहिए क्योंकि सुबहशाम दरवाजा खोलते ही पहला सामना पड़ोसी से ही होता है.

शाम होतेहोते सबकुछ शांत हो गया. उस फ्लैट का दरवाजा भी बंद हो गया. अब कविता को यह जानने की उत्सुकता थी कि वहां कौन आया है. रात को जब बेटाबहू आफिस से वापस लौटे तब भी सामने के फ्लैट का दरवाजा बंद था. बहू बोली, ‘‘मां, कैसे हैं अपने पड़ोसी?’’

‘‘पता नहीं, बेटा, मैं ने तो केवल सामान ही देखा है. रहने वाला अभी तक कोई नजर नहीं आया है. पर लगता है कोई गांव वाले हैं. पुरानापुराना सामान ही अंदर आता दिखाई दिया है.’’

‘‘चलो मां,   2-4 दिन में पता लग जाएगा कि कौन लोग हैं और कैसे हैं.’’

एक सप्ताह बीत गया. पड़ोसियों के दर्शन नहीं हुए पर एक दिन उन के घर से आता हुआ एक काकरोच कविता को नजर आ गया. वह जोर से चिल्लाईं, ‘‘दीप, दौड़ कर इधर आओ. मारो इसे, नहीं तो घर में घुस जाएगा. जल्दी आओ.’’

‘‘क्या हुआ? कौन घुस आया? किसे मारूं? घबराई हुई क्यों हो?’’ एकसाथ दीप ने अनेक प्रश्न दाग दिए.

‘‘अरे, आओगे भी या वहीं से प्रश्न करते रहोगे. वह देखो, एक बड़ा सा काकरोच अलमारी के पीछे चला गया.’’

‘‘बस, काकरोच ही है न. तुम तो यों घबराई हुई हो जैसे घर में कोई अजगर घुस आया हो.’’

‘‘दीप, तुम जानते हो न कि काकरोच देख कर मुझे घृणा और डर दोनों लगते हैं. अब मुझे सोतेजागते, उठतेबैठते यह काकरोच ही नजर आएगा. प्लीज, तुम इसे निकाल कर मारो.’’

‘‘अरे, भई नजर तो आए तब तो उसे मारूं. अब इतनी भारी अलमारी इस उम्र में सरकाना मेरे बस का नहीं है.’’

‘‘किसी को मदद करने के लिए बुला लो, पर इसे मार दो. मुझे हर हालत में इस काकरोच को मरा हुआ देखना है.’’

‘‘तुम टेंशन मत लो. रात को काकरोचमारक दवा छिड़क देंगे…सुबह तक उस का काम तमाम हो जाएगा.’’

दीप ने बड़ी मुश्किल से कविता को शांत किया.

शाम को काकरोचमारक दवा आ गई और छिड़क दी गई. सुबह उठते ही कविता ने एक सधे हुए जासूस की भांति काकरोच की तलाश शुरू की पर मरा या जिंदा वह कहीं भी नजर नहीं आया. कविता की अनुभवी आंखें सारा दिन उसी को खोजती रहीं पर वह न मिला.

अब तो अपने फ्लैट का दरवाजा भी कविता चौकन्नी हो कर खोलती पर फिर कभी काकरोच नजर नहीं आया.

एक दिन खाना बनाते हुए रसोई की साफसुथरी दीवार पर एक नन्ही सी छिपकली सरकती हुई कविता को नजर आई. अब कविता फिर चिल्लाईं, ‘‘जूही, संजू…अरे, दौड़ कर आओ. देखो तो छिपकली का बच्चा कहां से आ गया.’’

मां की घबराई हुई आवाज सुन कर दौड़ते हुए बेटा और बहू दोनों रसोई में आए और बोले, ‘‘मां, क्या हुआ?’’

‘‘अरे, देखो न, वह छिपकली का बच्चा. कितना घिनौना लग रहा है. इसे भगाओ.’’

‘‘मां, भगाना क्या है…इसे मैं मार ही देता हूं,’’ संजू बोला.

‘‘मारो मत, छिपकली को लक्ष्मी का अवतार मानते हैं,’’ जूही बोली.

‘‘और सुन लो नई बात. अब छिपकली की भी पूजा करनी शुरू कर दो.’’

‘‘तुम इसे भगा दो. मारने की क्या जरूरत है,’’ कविता भी बोलीं.

झाड़ू उठा कर संजू ने उस नन्ही छिपकली को रसोई की खिड़की से बाहर निकाल दिया.

कविता ने चैन की सांस ली और काम में लग गईं.

अगले दिन सुबह कविता चाय बनाने जब रसोई में गईं तो बिजली का बटन दबाते ही सब से पहले उसी छिपकली के दर्शन हुए जो गैस के चूल्हे के पास स्वच्छंद घूम रही थी. कविता को लगा वह फिर से चिल्लाएं…पर चुप रह गईं क्योंकि सुबह सब मीठी नींद में सो रहे थे. कविता ने उस छोटी सी छिपकली को झाड़ू से भगाया तो वह तेजी से रसोई की छत पर चढ़ गई.

अब कविता जब भी रसोई में जातीं तो उन का पूरा ध्यान छिपकली के बच्चे की ओर लगा रहता. खानेपीने का सब सामान वह ढक कर रखतीं. धीरेधीरे वह छिपकली का बच्चा बड़ा होने लगा और 10-15 दिनों के भीतर ही पूरी छिपकली बन गया.

मां के तनाव को देख कर संजू बोला, ‘‘मां, मैं इस छिपकली को मारने के लिए दवाई लाता हूं. रात को गैस के पास डाल देंगे और सुबह तक उस का काम तमाम हो जाएगा.’’

‘‘तुम्हें क्या कह रही है छिपकली जो तुम उस को मारने पर तुले हो,’’ जूही बोली, ‘‘अरे, छिपकली घर में रहेगी तो घर साफ रहेगा. वह कीड़ेमकोड़े और काकरोच आदि खाती रहेगी.’’

‘‘तुम छिपकली के पक्ष में क्यों बात करती हो? क्या पुराने जन्म का कोई रिश्ता है?’’ संजू ने चुटकी ली.

‘‘कल एक पुजारी भी मुझ से कह रहा था कि छिपकली को नहीं मारना चाहिए. छिपकली रहने से घर में लक्ष्मी का आगमन होता है,’’ दीप बोले.

‘‘पापा, आप भी अपनी बहू के सुर में सुर मिला रहे हैं…आप दोनों मिल कर छिपकलियां ही पाल लो. इसी से यदि घर में जल्दी लक्ष्मी आ जाए तो मैं अभी से रिटायर हो जाता हूं,’’ संजू बोला.

उन की इस बहस में छिपकली कहीं जा कर छिप गई. जूही बोली, ‘‘देखो, आज सुबहसुबह ही हम सब ने छिपकली को देखा है. देखें आज का दिन कैसा बीतता है.’’

सारा दिन सामान्य रूप से बीता. शाम को जब जूही आई तो दरवाजे से ही चिल्ला कर बोली, ‘‘मां, एक बहुत बड़ी खुशखबरी है. मैं आज बहुत खुश हूं, बताओ तो क्यों?’’

‘‘प्रमोशन मिल गया क्या?’’

‘‘नहीं. इस से भी बड़ी.’’

‘‘तुम्हीं बताओ.’’

‘‘मां, एक तो डबल प्रमोशन और उस पर सिंगापुर का एक ट्रिप.’’

‘‘देखा, सुबह छिपकली देखी थी न,’’ दीप बोले.

‘‘बस, पापा, आप भी. अरे, जूही का प्रमोशन तो होने ही वाला था. सिंगापुर का ट्रिप जरूर एक्स्ट्रा है,’’ संजू बोला.

‘‘मां, देखो कुछ तो अच्छा हुआ,’’ जूही बोली, ‘‘आप इस छिपकली को घर में ही रहने दो.’’

‘‘अरे, आज इसी विषय पर पार्क में भी बात हो रही थी. मेरे एक परिचित बता रहे थे कि घर में मोरपंख रख दो तो छिपकली अपनेआप ही भाग जाती है,’’ दीप बोले.

‘‘चलो, कल को मोरपंख ला कर रख देना तो अपनेआप छिपकली चली जाएगी,’’ कविता बोलीं.

दूसरे दिन ही दीप बाजार से ढूंढ़ कर मोरपंख ले आए और एक खाली गुलदस्ते में उसे सजा दिया गया. पर छिपकली पर उस का कोई असर नहीं हुआ. वह पहले की तरह ही पूरे घर में घूमती रही. हर सुबह कविता को वह गैस के पास ही बैठी मिलती.

एक दिन दीप बहुत सारे आम ले आए और आइसक्रीम खाने की इच्छा जताई. कविता ने बड़ी लगन से दूध उबाला, उसे गाढ़ा किया, उस में आम मिलाए और ठंडा होने के लिए एक पतीले में डाल कर रख दिया. वह उसे जल्दी ठंडा करना चाहती थीं. इसलिए पतीला ढका नहीं बल्कि वहीं खड़ी हो कर उसे कलछी से हिलाती जा रही थीं और रसोई के दूसरे काम भी कर रही थीं. तभी फोन की घंटी बजी और वह उसे सुनने के लिए दूसरे कमरे में चली गईं.

अमेरिका से उन के छोटे बेटे का फोन था. वह बहुत देर तक बात करती रहीं और फिर सारी बातें दीप को भी बताईं. इसी में 1 घंटा बीत गया.

कविता वापस रसोई में गईं तो दूध ठंडा हो चुका था. उन्होंने पतीले को वैसे ही उठा कर फ्रीजर में रख दिया. रात को खाने के बाद कविता ने आइसक्रीम निकाली और संजू और जूही को दी. दीप ने रात में आइसक्रीम खाने से मना कर दिया और खुद कविता ने इसलिए आइसक्रीम नहीं खाई कि उस दिन उन का व्रत था. संजू और जूही ने आइसक्रीम की तारीफ की और सोने चल दिए. आधे घंटे के बाद ही उन के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आनी शुरू हो गईं. दोनों ही लगातार उलटियां किए जा रहे थे. कविता और दीप घबरा गए. एक मित्र की सहायता से दोनों को अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर बोला, ‘‘लगता है इन को फूड पायजिनिंग हो गई है. क्या खाया था इन दोनों ने?’’

‘‘खाना तो घर में ही खाया था और वही खाया था जो रोज खाते हैं. हां, आज आइसक्रीम जरूर खाई है,’’ कविता बोलीं.

‘‘जरूर उसी में कुछ होगा. शायद आम ठीक नहीं होंगे,’’  दीप बोले.

डाक्टर ने दोनों को भरती कर लिया और इलाज शुरू कर दिया. 2 घंटे बाद दोनों की तबीयत संभली. तब दीप बोले, ‘‘कविता, तुम घर जाओ. मैं रात भर यहीं रहता हूं.’’

घर आते ही कविता ने सब से पहले आइसक्रीम का पतीला फ्रिज से बाहर निकाला और सोने के लिए बिस्तर पर लेट गईं. 5 बजे आंख खुली तो उठ गईं. जा कर रसोई में देखा तो आइसक्रीम पिघल कर दूध बन चुकी थी. कविता ने पतीला उठा कर सिंक में उड़ेल दिया. जैसे ही सारा दूध गिरा वैसे ही उस में से मरी हुई छिपकली भी गिरी. छिपकली को देखते ही कविता का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और हाथ कांपने लगे. वह धम से जा कर सोफे पर बैठ गईं.

तभी दीप भी घर आ गए. उन्हें देखते ही कविता का रोना छूट गया. उन्होंने रोतेरोते पूरी बात बताई.

‘‘चलो, जो होना था हो गया,’’ दीप सांत्वना देते हुए बोले, ‘‘अब दोनों बच्चे ठीक हैं और 1 घंटे में डाक्टर उन्हें घर वापस भेज देगा.

‘‘संजू ने तो पहले ही दिन कहा था कि उसे मार दो. तुम और तुम्हारी बहू ही उसे पूज रहे थे.’’

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई मुझ से. अब बारबार उस की याद मत दिलाओ.’’

मम्मीपापा की बातें सुन कर संजू जोर से हंसा और बोला, ‘‘हां, तो पापा, कितनी लक्ष्मी घर से चली गई… अस्पताल का बिल कितने का बना?’’

संजू का व्यंग्य भरा मजाक सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

Hindi Story : दुश्मन – सोम अपने रिश्तेदारों को क्यों दुश्मन मानता था

Hindi Story : ‘‘कभी किसी की तारीफ करना भी सीखो सोम, सुनने वाले के कानों में कभी शहद भी टपकाया करो. सदा जहर ही टपकाना कोई रस्म तो नहीं है न, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदा निभाया ही जाए.’’

टेढ़ी आंख से सोम मुझे देखने लगा.

‘‘50 के पास पहुंच गई तुम्हारी उम्र और अभी भी तुम ने जीवन से कुछ नहीं सीखा. हाथ से कंजूस नहीं हो तो जबान से ही कंजूसी किस लिए?’’ बड़बड़ाता हुआ क्याक्या कह गया मैं.

वह चुप रहा तो मैं फिर बोला, ‘‘अपने चारों तरफ मात्र असंतोष फैलाते हो और चाहते हो तुम्हें संतोष और चैन मिले, कभी किसी से मीठा नहीं बोलते हो और चाहते हो हर कोई तुम से मीठा बोले. सब का अपमान करते हो और चाहते हो तुम्हें सम्मान मिले…तुम तो कांटों से भरा कैक्टस हो सोम, कोई तुम से छू भर भी कैसे जाए, लहूलुहान कर देते हो तुम सब को.’’

शायद सोम को मुझ से ऐसी उम्मीद न थी. सोम मेरा छोटा भाई है और मैं उसे प्यार करता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरा छोटा भाई सुखी रहे, खुश रहे लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे भाई के चरित्र में ऐसा कोई कारण नहीं जिस वजह से वह खुश रहे. क्या कहूं मैं? कैसे समझाऊं, इस का क्या कारण है, वह पागल नहीं है. एक ही मां के शरीर से उपजे हैं हम मगर यह भी सच है कि अगर मुझे भाई चुनने की छूट दे दी जाती तो मैं सोम को कभी अपना भाई न चुनता. मित्र चुनने को तो मनुष्य आजाद है लेकिन भाई, बहन और रिश्तेदार चुनने में ऐसी आजादी कहां है.

मैं ने जब से होश संभाला है सोम मेरी जिम्मेदारी है. मेरी गोद से ले कर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनने तक. मैं 60 साल का हूं, 10 साल का था मैं जब वह मेरी गोद में आया था और आज मेरे बुढ़ापे का सहारा बन कर वह मेरे साथ है मगर मेरी समझ से परे है.

मैं जानता हूं कि वह मेरे बड़बड़ाने का कारण कभी नहीं पूछेगा. किसी दूसरे को उस की वजह से दर्द या तकलीफ भी होती होगी यह उस ने कभी नहीं सोचा.

उठ कर सोम ऊपर अपने घर में चला गया. ऊपर का 3 कमरों का घर उस का बसेरा है और नीचे का 4 कमरों का हिस्सा मेरा घर है.

जिन सवालों का उत्तर न मिले उन्हें समय पर ही छोड़ देना चाहिए, यही मान कर मैं अकसर सोम के बारे में सोचना बंद कर देना चाहता हूं, मगर मुझ से होता भी तो नहीं यह कुछ न कुछ नया घट ही जाता है जो मुझे चुभ जाता है.

कितने यत्न से काकी ने गाजर का हलवा बना कर भेजा था. काकी हमारी पड़ोसिन हैं और उम्र में मुझ से जरा सी बड़ी होंगी. उस के पति को हम भाई काका कहते थे जिस वजह से वह हमारी काकी हुईं. हम दोनों भाई अपना खाना कभी खुद बनाते हैं, कभी बाजार से लाते हैं और कभीकभी टिफिन भी लगवा लेते हैं. बिना औरत का घर है न हमारा, न तो सोम की पत्नी है और न ही मेरी. कभी कुछ अच्छा बने तो काकी दे जाती हैं. यह तो उन का ममत्व और स्नेह है.

‘‘यह क्या बकवास बना कर भेज दिया है काकी ने, लगता है फेंकना पड़ेगा,’’ यह कह कर सोम ने हलवा मेरी ओर सरका दिया.

सोम का प्लेट परे हटा देना ही मुझे असहनीय लगा था. बोल पड़ा था मैं. सवाल काकी का नहीं, सवाल उन सब का भी है जो आज सोम के साथ नहीं हैं, जो सोम से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं.

स्वादिष्ठ बना था गाजर का हलवा, लेकिन सोम को पसंद नहीं आया सो नहीं आया. सोम की पत्नी भी बहुत गुणी, समझदार और पढ़ीलिखी थी. दोषरहित चरित्र और संस्कारशील समझबूझ. हमारे परिवार ने सोम की पत्नी गीता को सिर- आंखों पर लिया था, लेकिन सोम के गले में वह लड़की सदा फांस जैसी ही रही.

‘मुझे यह लड़की पसंद नहीं आई मां. पता नहीं क्या बांध दिया आप ने मेरे गले में.’

‘क्यों, क्या हो गया?’

अवाक् रह गए थे मां और पिताजी, क्योंकि गीता उन्हीं की पसंद की थी. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी और साल भर का बच्चा ले कर गीता सदा के लिए चली गई. पढ़ीलिखी थी ही, बच्चे की परवरिश कर ली उस ने.

उस का रिश्ता सोम से तो टूट गया लेकिन मेरे साथ नहीं टूट पाया. उस ने भी तोड़ा नहीं और हम पतिपत्नी ने भी सदा उसे निभाया. उस का घर फिर से बसाने का बीड़ा हम ने उठाया और जिस दिन उसे एक घर दिलवा दिया उसी दिन हम एक ग्लानि के बोझ से मुक्त हो पाए थे. दिन बीते और साल बीत गए. गीता आज भी मेरी बहुत कुछ है, मेरी बेटी, मेरी बहन है.

मैं ने उसे पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखने दिया. वह मेरी अपनी बच्ची होती तो भी मैं इसी तरह करता.

कुछ देर बाद सोम ऊपर से उतर कर नीचे आया. मेरे पास बैठा रहा. फिर बोला, ‘‘तुम तो अच्छे हो न, तो फिर तुम क्यों अकेले हो…कहां है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे?’’

मैं अवाक् रह गया था. मानो तलवार सीने में गहरे तक उतार दी हो सोम ने, वह तलवार जो लगातार मुझे जराजरा सी काटती रहती है. मेरी गृहस्थी के उजड़ने में मेरी तो कोई भूल नहीं थी. एक दुर्घटना में मेरी बेटीबेटा और पत्नी चल बसे तो उस में मेरा क्या दोष. कुदरत की मार को मैं सह रहा हूं लेकिन सोम के शब्दों का प्रहार भीतर तक भेद गया था मुझे.

कुछ दिन से देख रहा हूं कि सोम रोज शाम को कहीं चला जाता है. अच्छा लगा मुझे. कार्यालय के बाद कहीं और मन लगा रहा है तो अच्छा ही है. पता चला कुछ भी नया नहीं कर रहा सोम. हैरानपरेशान गीता और उस का पति संतोष मेरे सामने अपने बेटे विजय को साथ ले कर खडे़ थे.

‘‘भैया, सोम मेरा घर बरबाद करने पर तुले हैं. हर शाम विजय से मिलने लगे हैं. पता नहीं क्याक्या उस के मन में डाल रहे हैं. वह पागल सा होता जा रहा है.’’

‘‘संतान के मन में उस की मां के प्रति जहर घोल कर भला तू क्या साबित करना चाहता है?’’ मैं ने तमतमा कर कहा.

‘‘मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए, विजय मेरा बेटा है तो क्या उसे मेरे साथ नहीं रहना चाहिए?’’ सफाई देते सोम बोला.

‘‘आज बच्चा पल गया तो तुम्हारा हो गया. साल भर का ही था न तब, जब तुम ने मां और बच्चे का त्याग कर दिया था. तब कहां गई थी तुम्हारी ममता? अच्छे पिता नहीं बन पाए, कम से कम अच्छे इनसान तो बनो.’’

आखिर सोम अपना रूप दिखा कर ही माना. पता नहीं उस ने क्या जादू फेरा विजय पर कि एक शाम वह अपना सामान समेट मां को छोड़ ही आया. छटपटा कर रह गया मैं. गीता का क्या हाल हो रहा होगा, यही सोच कर मन घुटने लगा था. विजय की अवस्था से बेखबर एक दंभ था मेरे भाई के चेहरे पर.

मुझे हारा हुआ जुआरी समझ मानो कह रहा हो, ‘‘देखा न, खून आखिर खून होता है. आ गया न मेरा बेटा मेरे पास…आप ने क्या सोचा था कि मेरा घर सदा उजड़ा ही रहेगा. उजडे़ हुए तो आप हैं, मैं तो परिवार वाला हूं न.’’

क्या उत्तर देता मैं प्रत्यक्ष में. परोक्ष में समझ रहा था कि सोम ने अपने जीवन की एक और सब से बड़ी भूल कर दी है. जो किसी का नहीं हुआ वह इस बच्चे का होगा इस की भी क्या गारंटी है.

एक तरह से गीता के प्रति मेरी जिम्मेदारी फिर सिर उठाए खड़ी थी. उस से मिलने गया तो बावली सी मेरी छाती से आ लगी.

‘‘भैया, वह चला गया मुझे छोड़ कर…’’

‘‘जाने दे उसे, 20-22 साल का पढ़ालिखा लड़का अगर इतनी जल्दी भटक गया तो भटक जाने दे उसे, वह अगर तुम्हारा नहीं तो न सही, तुम अपने पति को संभालो जिस ने पलपल तुम्हारा साथ दिया है.’’

‘‘उन्हीं की चिंता है भैया, वही संभल नहीं पा रहे हैं. अपनी संतान से ज्यादा प्यार दिया है उन्होंने विजय को. मैं उन का सामना नहीं कर पा रही हूं.’’

वास्तव में गीता नसीब वाली है जो संतोष जैसे इनसान ने उस का हाथ पकड़ लिया था. तब जब मेरे भाई ने उसे और बच्चे को चौराहे पर ला खड़ा किया था. अपनी संतान के मुंह से निवाला छीन जिस ने विजय का मुंह भरा वह तो स्वयं को पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा होगा न.

संतोष के आगे मात्र हाथ जोड़ कर माफी ही मांग सका मैं.

‘‘भैया, आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं? शायद मेरे ही प्यार में कोई कमी रही जो वह…’’

‘‘अपने प्यार और ममता का तिरस्कार मत होने दो संतोष…उस पिता की संतान भला और कैसी होती, जैसा उस का पिता है बेटा भी वैसा ही निकला. जाने दो उसे…’’

‘‘विजय ने आज तक एक बार भी नहीं सोचा कि उस का बाप कहां रहा. आज ही उस की याद आई जब वह पल गया, पढ़लिख गया, फसल की रखवाली दिनरात जो करता रहा उस का कोई मोल नहीं और बीज डालने वाला मालिक हो गया.’’

‘‘बच्चे का क्या दोष भैया, वह बेचारा तो मासूम है…सोम ने जो बताया होगा उसे ही मान लिया होगा…अफसोस यह कि गीता को ही चरित्रहीन बता दिया, सोम को छोड़ वह मेरे साथ भाग गई थी ऐसा डाल दिया उस के दिमाग में…एक जवान बच्चा क्या यह सच स्वीकार कर पाता? अपनी मां तो हर बेटे के लिए अति पूज्यनीय होती है, उस का दिमाग खराब कर दिया है सोम ने और  फिर विजय का पिता सोम है, यह भी तो असत्य नहीं है न.’’

सन्नाटे में था मेरा दिलोदिमाग. संतोष के हिलते होंठों को देख रहा था मैं. यह संतोष ही मेरा भाई क्यों नहीं हुआ. अगर मुझे किसी को दंड देने का अधिकार प्राप्त होता तो सब से पहले मैं सोम को मृत्युदंड देता जिस ने अपना जीवन तो बरबाद किया ही अब अपने बेटे का भी सर्वनाश कर रहा है.

2-4 दिन बीत गए. सोम बहुत खुश था. मैं समझ सकता था इस खुशी का रहस्य.

शाम को चाय का पहला ही घूंट पिया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘ताऊजी, मैं अंदर आ जाऊं?’’

विजय खड़ा था सामने. मैं ने आगेपीछे नजर दौड़ाई, क्या सोम से पूछ कर आया है. स्वागत नहीं करना चाहता था मैं उस का लेकिन वह भीतर चला ही आया.

‘‘ताऊजी, आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा?’’

चुप था मैं. जो इनसान अपने बाप का नहीं, मां का नहीं वह मेरा क्या होगा और क्यों होगा.

सहसा लगा, एक तूफान चला आया हो सोम खड़ा था आंगन में, बाजार से लौटा था लदाफंदा. उस ने सोचा भी नहीं होगा कि उस के पीछे विजय सीढि़यां उतर मेरे पास चला आएगा.

‘‘तुम नीचे क्यों चले आए?’’

चुप था विजय. पहली बार मैं ने गौर से विजय का चेहरा देखा.

‘‘मैं कैदी हूं क्या? यह मेरे ताऊजी हैं. मैं इन से…’’

‘‘यह कोई नहीं है तेरा. यह दुश्मन है मेरा. मेरा घर उजाड़ा है इस ने…’’

सोम का अच्छा होने का नाटक समाप्त होने लगा. एकाएक लपक कर विजय की बांह पकड़ ली सोम ने और यों घसीटा जैसे वह कोई बेजान बुत हो.

‘‘छोडि़ए मुझे,’’ बहुत जोर से चीखा विजय, ‘‘बच्चा नहीं हूं मैं. अपनेपराए और अच्छेबुरे की समझ है मुझे. सभी दुश्मन हैं आप के, आप का भाई आप का दुश्मन, मेरी मां आप की दुश्मन…’’

‘‘हांहां, तुम सभी मेरे दुश्मन हो, तुम भी दुश्मन हो मेरे, तुम मेरे बेटे हो ही नहीं…चरित्रहीन है तुम्हारी मां. संतोष के साथ भाग गई थी वह, पता नहीं कहां मुंह काला किया था जो तेरा जन्म हुआ था…तू मेरा बच्चा होता तो मेरे बारे में सोचता.’’

मेरा बांध टूट गया था. फिर से वही सब. फिर से वही सभी को लहूलुहान करने की आदत. मेरा उठा हुआ हाथ विजय ने ही रोक लिया एकाएक.

‘‘रहने दीजिए न ताऊजी, मैं किस का बेटा हूं मुझे पता है. मेरे पिता संतोष हैं जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है, जो इनसान मेरी मां की इज्जत करता है वही मेरा बाप है. भला यह इनसान मेरा पिता कैसे हो सकता है, जो दिनरात मेरी मां को गाली देता है. जो जरा सी बात पर दूसरे का मानसम्मान मिट्टी में मिला दे वह मेरा पिता नहीं.’’

स्तब्ध रह गया मैं भी. ऐसा लगा, संतोष ही सामने खड़ा है, शांत, सौम्य. सोम को एकटक निहार रहा था विजय.

‘‘आप के बारे में जो सुना था वैसा ही पाया. आप को जानने के लिए आप के साथ कुछ दिन रहना बहुत जरूरी था सो चला आया था. मेरी मां आप को क्यों छोड़ कर चली गई होगीं मैं समझ गया आज…अब मैं अपने मांबाप के साथ पूरापूरा न्याय कर पाऊंगा. बहुत अच्छा किया जो आप मुझ से मिल कर यहां चले आने को कहते रहे. मेरा सारा भ्रम चला गया, अब कोई शक नहीं बचा है.

‘‘सच कहा आप ने, मैं आप का बच्चा होना भी नहीं चाहता. आप ने 20 साल पहले भी मुझे दुत्कारा था और आज भी दुत्कार दिया. मेरा इतना सा ही दोष कि मैं नीचे ताऊजी से मिलने चला आया. क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि आप यह कह दें कि आप मेरे पिता ही नहीं… अरे, रक्त की चंद बूंदों पर ही आप को इतना अभिमान कि जब चाहा अपना नाम दे दिया, जब चाहा छीन लिया. अपने पुरुष होने पर ही इतनी अकड़, पिता तो एक जानवर भी बनता है. अपने बच्चे के लिए वह भी उतना तो करता ही है जितना आप ने कभी नहीं किया. क्या चाहते हैं आप, मैं समझ ही नहीं पाया. मेरे घर से मुझे उखाड़ दिया और यहां ला कर यह बता रहे हैं कि मैं आप का बेटा ही नहीं हूं, मेरी मां चरित्रहीन थी.’’

हाथ का सामान जमीन पर फेंक कर सोम जोरजोर से चीखने लगा, पता नहीं क्याक्या अनापशनाप बकने लगा.

विजय लपक कर ऊपर गया और 5 मिनट बाद ही अपना बैग कंधे पर लटकाए नीचे उतर आया.

चला गया विजय. मैं सन्नाटे में खड़ा अपनी चाय का प्याला देखने लगा. एक ही घूंट पिया था अभी. पहले और दूसरे घूंट में ही कितना सब घट गया. तरस आ रहा था मुझे विजय पर भी, पता नहीं घर पहुंचने पर उस का क्या होगा. उस का भ्रम टूट गया, यह तो अच्छा हुआ पर रिश्ते में जो गांठ पड़ जाएगी उस का निदान कैसे होगा.

‘‘रुको विजय, बेटा रुको, मैं साथ चलता हूं.’’

‘‘नहीं ताऊजी, मैं अकेला आया था न, अकेला ही जाऊंगा. मम्मी और पापा को रुला कर आया था, अभी उस का प्रायश्चित भी करना है मुझे.’’

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