न्याय: क्या उस बूढ़े आदमी को न्याय मिला?

लेखक- Dheeraj Pundir

राजीव अदालत के बाहर पड़ी लकड़ी की बेंच पर खामोश बैठा अपनी बारी का इंतजार करतेकरते ऊंघने लगा था. बड़ी संख्या में लोग आजा रहे थे. कुछ के हाथों में बेड़ियां थीं, जो कतई ये साबित नहीं करती थीं कि वे मुजरिम ही थे.

कुछ राजीव जैसे हालात के सताए गलियारे में बैठे ऊंघ रहे थे. उन में बहुत से चेहरे जानेपहचाने थे, जिन को अपनी वहां एक बरस की आवाजाही के दौरान वह देखता आ रहा था. इतना जरूर था कि कुछ चेहरे दिखाई देना बंद हो जाते और उन की जगह नए चेहरे शामिल हो जाते. ऐसा लगता जैसे कोई मेला था, जहां लोगों की आवाजाही कोई बड़ा मसला नहीं थी.

रहरह कर वादियों, प्रतिवादियों को पुकारा जाता और वे उम्मीद के अतिरेक में दौड़ कर अंदर जाते. उन में से जो  खुशनसीब होते, लौटते वक्त उन के चेहरे पर मुसकान होती, वरना अमूमन लोग मुंह लटकाए नाउम्मीद ही लौटते नजर आते.

बात बस इतनी सी थी कि एक साल पहले औफिस से घर लौटते वक्त रास्ते में पड़ी लावारिस लाश के बारे में उस ने थाने को इत्तिला दे दी थी. तब से वह निरंतर मानवता की अपनी बुरी आदत को कोसता अदालत की हाजिरी भर रहा था.

भीतर चक्कर लगा आने के लिए जैसे ही वह उठा, सामने से शरीर का भार अपनी लाठी पर लिए वह बूढ़ा आता दिखा, जिसे राजीव एक साल से लगातार देखता आ रहा था.

वक्त की मार से उस का शरीर झुकताझुकता 90 अंश के कोण पर आ टिका कथा. आंखें चेहरे के सांचे में धंस गई थीं और शरीर की त्वचा सिकुड़ कर झुर्रियों में तबदील हो गई थी.

बूढ़े को देख कर राजीव को हर बार यही ताज्जुब होता कि उस की सांसें आखिर कहां अटकी हुई हैं और क्या न्याय की अपुष्ट उम्मीद ही उस को इतनी शक्ति दे रही थी कि तकरीबन 100 बरस की उम्र के बावजूद वह बेसहारा इस कभी न खत्म होने वाले सिलसिले से जूझ रहा था. चर्चा थी कि बूढ़े की कोई औलाद और नजदीकी रिश्तेदार भी न था.

बूढ़ा लोगों की भीड़ के बीच से अपने शरीर का बोझ ढोता सा धीरेधीरे चला आ रहा था. लोग उस की बगल से ऐसे निकल जाते जैसे वह अदृश्य हो. किसी को उस पर तरस न आता कि जरा सा सहारा दे कर उसे उस की मंजिल तक पहुंचा दे. शायद हर कोई उस बूढ़े की तरह ही असहाय था. उन मुकदमों के कारण जो शायद अंतहीन थे. रोज की तरह सब विचार छोड़ कर राजीव ने बूढ़े को सहारा दे कर बैंच पर बैठा दिया.

राजीव उस बूढ़े और उस के मसले से खूब परिचित था.64 साल पहले दर्ज जमीन के जिस मुकदमे की पैरवी करने बरसों से लगातार आ रहा था उस का औचित्य क्या बचा था, राजीव की समझ से परे था.

हुआ यों था कि बूढ़े का एकलौता 12 बिस्से का जमीन का रकबा उस के पड़ोसी ने अपने खेत में मिला लिया था. तब वह जवान हुआ करता था. पहले तो उस ने लट्ठ के जोर से जमीन छुड़ाने की सोची, मगर कुछ समझदार लोगों ने कहा, “देश में गरीब मजलूम के लिए कानून है, अदालत है, वहां जाओ. क्यों आफत गले डालते हो. कहीं चोट लग गई तो जेल हो जाएगी और कामधंधे से जाओगे सो अलग.”

उसे बात कुछ तर्कसंगत लगी. उस ने मुकदमा दायर कर दिया. उम्मीद करते जवानी गुजर गई. वकील की फीस का पाईपाई का हिसाब पास था, वह भी जमीन की कीमत से ऊपर पहुंच गया. मगर बात न्याय की ठहरी, इसलिए हार नहीं मानी.

बूढ़े को इत्मीनान से वहीं बैठा छोड़ कर राजीव बूढ़े के वकील के पास पहुंचा, जो कि कहीं निकलने को ही था.

“वह बूढ़ा आया है. आप का क्लायंट,” राजीव ने बताया.

“इस बूढ़े की…” लोगों की बातों में मशगूल वकील शायद कोई कड़वी बात कहतेकहते अचानक चुप हुआ, फिर अपने सहायक से कहा, “आज उस का फैसला आ जाएगा. उसे थमा कर जान छुड़ा,” कह कर वकील लोगों से हाथ मिला कर बड़ी तेजी से निकल गया.

राजीव वापस उस बूढ़े के पास लौटा. बूढ़े के कान के पास मुंह कर के ऊंची आवाज में उस ने बूढ़े को बताया कि वकील को सूचित कर दिया है. तभी उस ने सुना कि हरकारा पेशी के लिए पुकार लगा रहा था, “राजीव कुमार वल्द हरिसिंह हाजिर हों…”

प्रतिदिन की तरह 50 रुपए अर्दली की भेंट कर वह जज साहब के समक्ष हाजिर हुआ. जज साहब ने बस चंद बोल कहे, “तुम बरी किए जाते हो और ताकीद रहे कि एक नेक शहरी का फर्ज निभाते हुए भविष्य में भी अगर ऐसा वाकिया पेश आए तो कानून को इत्तला जरूर करोगे.”

न चाहते हुए भी हामी भर कर राजीव चल पड़ा मन में सोचता हुआ कि कोई मरता है मरे कभी दरियादिली के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

तभी उसे जज साहब की आवाज सुनाई दी. वे कह रहे थेे, “बूढ़े की फाइल निकालो.”

अनायास ही राजीव के कदम जड़ हो गए. मन में घूम रहे सब विचार नेपथ्य में गुम हो गए. उसे वकील की कही बात याद थी, “आज उस का फैसला आ जाएगा.”

घर लौटने की इच्छा छोड़ कर वह एक तरफ दीवार के पास खड़ा हो गया.

जज साहब ने बूढ़े की फाइल पर सरसरी नजर डाली और पेशकार की तरफ देख कर पूछा, “वादी अदालत के समक्ष हाजिर है?”

“नहीं हुजूर, वादी बहुत बूढ़ा है. पांव पर खड़ा नहीं हो सकता, मगर वह बाहर बैंच पर लेटा है.”

सुन कर जज साहब के चेहरे पर दया के भाव आ गए, फिर संभाल कर पूछा,

“सब सुबूत दुरुस्त हैं?”

पेशकार ने हां में सिर हिलाया.

“तब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं. लिहाजा, अदालत फैसला सुनाती है कि जिस जमीन के टुकड़े पर बूढ़े ने अपना दावा पेश किया था, वह टुकड़ा उसी का है. प्रतिपक्ष को इस ताकीद के साथ कि बूढ़े को परेशान न किया जाए फैसला बूढ़े के हक में सुनाया जाता है… और साथ ही, पुलिस को आदेश जारी किया जाता है कि चूंकि वादी बूढ़ा हो चुका  है, इसलिए मौके पर जा कर उसे जमीन पर कब्जा दिलाया जाए.”

इतना कह कर जज साहब उठ कर चले गए.

राजीव को अपने बरी होने से कहीं ज्यादा बूढ़े के मुकदमे की खुशी थी. फिर यह सोच कर वह गंभीर हो गया कि फैसला मुफीद ही सही, मगर 64 बरस बाद क्या अब भी उस का औचित्य जस का तस है.

राजीव बाहर आया कि बूढ़े को खुशखबरी दे. उस ने देखा कि वह बैंच पर इत्मीनान से सो रहा है. सुकुन की नींद जैसे उसे फैसले के अपने पक्ष में आने का पूर्वाभास हो.

राजीव ने जमीन पर उकड़ू बैठ कर बूढ़े का कंधा पकड़ कर धीरे से हिलाया, तो पहले से बेजान शरीर एक तरफ लुढ़क गया. वह मर चुका था बिना यह जाने कि देश के कानून ने कितनी दरियादिली दिखा कर 64 साल बाद उस की जमीन का मालिकाना हक वापस लौटाया था.

पीछे हरकारा आवाज दे रहा था, “नेकीराम वल्द बिशनसिंह निवासी मोहनपुर हाजिर हो.”

इस बात से बेखबर कि  न्याय की बाट जोहते बूढ़े की हाजिरी का वक्त कहीं ओर मुकर्रर हो गया था.

विधवा रहू्ंगी पर दूसरी औरत नहीं बनूंगी

लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

यादगार: आखिर क्या हुआ कन्हैयालाल के मकान का?

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

वर्लपूल : कुछ ऐसी ही थी मेरी जिंदगी

गंदी बस्ती में रहने वाला मैं एक गरीब कवि था. रोज के 50-100 रुपए भी मिल जाएं तो मेरे लिए बहुत थे. उस के लिए मैं रेडियो केंद्र तक रेकौर्डिंग के लिए जाता था.

मैं कर्ज में डूबा हुआ था. मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे थे. यहां से कुछ ही दूरी पर समुद्र था, लेकिन मैं वहां कभी नहीं जा पाता था. पूरा दिन लेखन कर के मैं ऊब रहा था. बेरोजगारी तनमन में कांटे की तरह चुभ रही थी.

2 महीने का बिजली का बिल भरना बाकी था. अपना खाना तो मैं बना लूंगा, लेकिन उस के लिए गैस तो चाहिए, जो खत्म होने के कगार पर थी.

अच्छा है कि घरसंसार का बोझ नहीं है. अगर मर भी गया तो कोई बात नहीं है. जब भी आईने में खुद को देखता हूं, एक लाचार, बेढंगा और बुझा हुआ शख्स नजर आता है. किसी को मेरी जरूरत नहीं है और पैसों की इस दुनिया में रहने की मेरी कोई औकात नहीं है, इस बात का अब मुझे भरोसा हो गया है.

क्लासमेट हेमू मेरी गरीबी का पता लगाते हुए एक दिन अचानक से मेरे दरवाजे पर आ धमका. उस ने बड़ी तसल्ली से मेरा हालचाल पूछा. उस के शब्द सुन कर मुझे थोड़ी हिम्मत मिली.

हेमू को लगता था कि खानदानी जायदाद का क्या करोगे. आराम भी करोगे तो कितना? लेकिन मैं रोज रेडियो पर कार्यक्रम करता, फिर भी हेमू के गले में मोटी सोने की चेन जैसी चेन खरीदना मेरे लिए नामुमकिन था.

मुझे पता है कि हेमू औरतों के बजाय मर्दों की तरफ ज्यादा खिंचता है, इसलिए उस से थोड़ा डर भी लगता था. लेकिन मैं बदहाली में जी रहा हूं, यह जान कर वह आजकल बारिश में टपकने वाले घर में आने लगा था. उस की कार मेरे बदहाल घर के सामने बिलकुल शोभा नहीं देती थी.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो तुम? तबीयत ठीक नहीं है क्या? पैसों की जरूरत है क्या?’’ हेमू ने यह पूछ कर मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘है तो, लेकिन…’’

‘‘कितना चाहिए?’’ यह सवाल उस ने ऐसे पूछा कि एक कवि मांग कर भी कितना मांगेगा? बड़ी रकम मांगने की तुम्हारे पास हिम्मत नहीं है.

‘‘फिलहाल तो हजार रुपए से काम हो जाएगा. नौकरी लगने के बाद सौदो सौ कर के वापस कर दूंगा. सच बोल रहा हूं.’’

यह सुन कर हेमू जोरजोर से हंसने लगा. जैसे भालू शहद को देख कर ललचाता है, वैसे ही वह मेरी तरफ देखते हुए उस ने अपना इरादा बताया, ‘‘वापस क्यों करना, ये लो पैसे… अब मेरे लिए एक काम करो… थोड़ी देर… आंधा घंटे के लिए तुम मुझे अपनी पत्नी समझना. तुम मर्द हो, यही मेरे लिए काफी है…’’

मेरी धड़कनें बढ़ गईं. उस वक्त पैसा मेरी जरूरत थी, पर उस तरह का काम करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था.

तभी हेमू कड़क आवाज में बोला, ‘‘तुम मिडिल क्लास वाले केवल सोचते रहते हो. इतना सोचना छोड़ दे. यहां आ, मेरे पास…’’ इस के बाद उस ने मुझे कुछ बोलने नहीं दिया. वह मेरे बिलकुल पास आ चुका था. अब इस बात को मैं कैसे बताऊं? यह कोई प्यार नहीं, बल्कि मजबूरी थी.

हेम को जो करना था, उस ने किया. उस ने पैसे दिए और चला गया.

इस के बाद मैं रोने लगा. मेरे मांबाप की मौत काफी समय पहले हो चुकी है. मेरा कोई सगासंबंधी भी नहीं बचा था. हम जैसे लोग फुटपाथ पर सोते हैं, जहां कोई भी हमारा इस्तेमाल कर सकता है.

हालात किसी को कुछ भी करने को मजबूर कर सकते हैं, यह मुझे आज समझ आ गया. यह वर्लपूल बहुत भयानक हादसे की तरह है. नहाने के बाद भी मैं खुद को माफ नहीं कर पा रहा था.

बाद में मुझे पार्टटाइम नौकरी मिल गई और पैसे की तंगी कम हो गई. लेकिन इस देश में अमीर लोग बड़ी आसानी से हम जैसे गरीबों की मर्दानगी छीन सकते हैं और हम पर मुहर लग जाती है कि गरीब अपना पेट भरने के लिए यह सब करते हैं.

कुछ लोग इसे हमारे ऊपर दाग समझते हैं. इसे कलंक बताने के बजाय गरीबों की मजबूरी और लाचारी को समझना होगा..

स्नेहदान: क्या चित्रा अपने दिल की बात अनुराग से कह पायी

चित्रा बिस्तर पर लेट कर जगजीत सिंह की गजल ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ सुन रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह अपना दुपट्टा संभालती हुई उठी और दरवाजा खोल कर सामने देखा तो चौंक गई. उसे अपनी ही नजरों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस के सामने बचपन का दोस्त अनुराग खड़ा है.

चित्रा को देखते ही अनुराग हंसा और बोला, ‘‘मोटी, देखो तुम्हें ढूंढ़ लिया न. अब अंदर भी बुलाओगी या बाहर ही खड़ा रखोगी.’’

चित्रा मुसकराई और उसे आग्रह के साथ अंदर ले कर आ गई. अनुराग अंदर आ गया. उस ने देखा घर काफी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ है और घर का हर कोना मेहमान का स्वागत करता हुआ लग रहा है. उधर चित्रा अभी भी अनुराग को ही निहार रही थी. उसे याद ही नहीं रहा कि वह उसे बैठने के लिए भी कहे. वह तो यही देख रही थी कि कदकाठी में बड़ा होने के अलावा अनुराग में कोई अंतर नहीं आया है. जैसा वह भोला सा बचपन में था वैसा ही भोलापन आज भी उस के चेहरे पर है.

आखिर अनुराग ने ही कहा, ‘‘चित्रा, बैठने को भी कहोगी या मैं ऐसे ही घर से चला जाऊं.’’

चित्रा झेंपती हुई बोली, ‘‘सौरी, अनुराग, बैठो और अपनी बताओ, क्या हालचाल हैं. तुम्हें मेरा पता कहां से मिला? इस शहर में कैसे आना हुआ…’’

अनुराग चित्रा को बीच में टोक कर बोला, ‘‘तुम तो प्रश्नों की बौछार गोली की तरह कर रही हो. पहले एक गिलास पानी लूंगा फिर सब का उत्तर दूंगा.’’

चित्रा हंसी और उठ कर रसोई की तरफ चल दी. अनुराग ने देखा, चित्रा बढ़ती उम्र के साथ पहले से काफी खूबसूरत हो गई है.

पानी की जगह कोक के साथ चित्रा नाश्ते का कुछ सामान भी ले आई और अनुराग के सामने रख दिया अनुराग ने कोक से भरा गिलास उठा लिया और अपने बारे में बताने लगा कि उस की पत्नी का नाम दिव्या है, जो उस को पूरा प्यार व मानसम्मान देती है. सच पूछो तो वह मेरी जिंदगी है. 2 प्यारे बच्चे रेशू व राशि हैं. रेशू 4 साल का व राशि एक साल की है और उस की अपनी एक कपड़ा मिल भी है. वह अपनी मिल के काम से अहमदाबाद आया था. वैसे आजकल वह कानपुर में है.

अनुराग एक पल को रुका और चित्रा की ओर देख कर बोला, ‘‘रही बात तुम्हारे बारे में पता करने की तो यह कोई बड़ा काम नहीं है क्योंकि तुम एक जानीमानी लेखिका हो. तुम्हारे लेख व कहानियां मैं अकसर पत्रपत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूं.

‘‘मैं ने तो तुम्हें अपने बारे में सब बता दिया,’’ अनुराग बोला, ‘‘तुम सुनाओ कि तुम्हारा क्या हालचाल है?’’

इस बात पर चित्रा धीरे से मुसकराई और कहने लगी, ‘‘मेरी तो बहुत छोटी सी दुनिया है, अनुराग, जिस में मैं और मेरी कहानियां हैं और थोड़ीबहुत समाजसेवा. शादी करवाने वाले मातापिता रहे नहीं और करने के लिए अच्छा कोई मनमीत नहीं मिला.’’

अनुराग शरारत से हंसते हुए बोला, ‘‘मुझ से अच्छा तो इस दुनिया में और कोई है नहीं,’’ इस पर चित्रा बोली, ‘‘हां, यही तो मैं भी कह रही हूं,’’ और फिर चित्रा और अनुराग के बीच बचपन की बातें चलती रहीं.

बातों के इस सिलसिले में समय कितना जल्दी बीत गया इस का दोनों को खयाल ही न रहा. घड़ी पर नजर पड़ी तो अनुराग ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, रात होने को आई. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

चित्रा बोली, ‘‘तुम भी कमाल करते हो, अनुराग, आधुनिक पुरुष होते हुए भी बिलकुल पुरानी बातें करते हो. तुम मेरे मित्र हो और एक दोस्त दूसरे दोस्त के घर जरूर रुक सकता है.’’

अनुराग ने हाथ जोड़ कर शरारत से कहा, ‘‘देवी, आप मुझे माफ करें. मैं आधुनिक पुरुष जरूर हूं, हमारा समाज भी आधुनिक जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि यह समाज एक सुंदर सी, कमसिन सी, ख्यातिप्राप्त अकेली कुंआरी युवती के घर उस के पुरुष मित्र की रात बितानी पचा सके. इसलिए मुझे तो अब जाने ही दें. हां, सुबह का नाश्ता तुम्हारे घर पर तुम्हारे साथ ही करूंगा. अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना.’’

यह सुन कर चित्रा भी अपनी हंसी दबाती हुई बोली, ‘‘जाइए, आप को जाने दिया, लेकिन कल सुबह आप की दावत पक्की रही.’’

अनुराग को विदा कर के चित्रा उस के बारे में काफी देर तक सोचती रही और सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. सुबह जब आंख खुली तो काफी देर हो चुकी थी. उस ने फौरन नौकरानी को बुला कर नाश्ते के बारे में बताया और खुद तैयार होने चली गई.

आज चित्रा का मन कुछ विशेष तैयार होने को हो रहा था. उस ने प्लेन फिरोजी साड़ी पहनी. उस से मेलखाती माला, कानों के टाप्स और चूडि़यां पहनीं और एक छोटी सी बिंदी भी लगा ली. जब खुद को आईने में देखा तो देखती ही रह गई. उसी समय नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, अनुराग साहब आए हैं.’’

चित्रा फौरन नीचे उतर कर ड्राइंग रूम में आई तो देखा कि अनुराग फोन पर किसी से बात कर रहे हैं. अनुराग ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और फोन उस के हाथ में दे दिया. वह आश्चर्य से उस की ओर देखने लगी. अनुराग हंसते हुए बोला, ‘‘दिव्या का फोन है. वह तुम से बात करना चाहती है.’’

अचानक चित्रा की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले लेकिन उस ने उधर से दिव्या की प्यारी मीठी आवाज सुनी तो उस की झिझक भी दूर हो गई.

दिव्या को चित्रा के बारे में सब पता था. फोन पर बात करते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार एकदूसरे से बातें कर रही हैं. थोड़ी देर बाद अनुराग ने फोन ले लिया और दिव्या को हाय कर के फोन रख दिया.

‘‘चित्रा जल्दी नाश्ता कराओ. बहुत देर हो रही है. मुझे अभी प्लेन से आगरा जाना है. यहां मेरा काम भी खत्म हो गया और तुम से मुलाकात भी हो गई.’’

अनुराग बोला तो दोनों नाश्ते की मेज पर आ गए.

नाश्ता करते हुए अनुराग बारबार चित्रा को ही देखे जा रहा था. चित्रा ने महसूस किया कि उस के मन में कुछ उमड़घुमड़ रहा है. वह हंस कर बोली, ‘‘अनुराग, मन की बात अब कह भी दो.’’

अनुराग बोला, ‘‘भई, तुम्हारे नाश्ते व तुम को देख कर लग रहा है कि आज कोई बहुत बड़ी बात है. तुम बहुत अच्छी लग रही हो.’’

चित्रा को ऐसा लगा कि वह भी अनुराग के मुंह से यही सुनना चाह रही थी. हंस कर बोली, ‘‘हां, आज बड़ी बात ही तो है. आज मेरे बचपन का साथी जो आया है.’’

नाश्ता करने के बाद अनुराग ने उस से विदा ली और बढि़या सी साड़ी उसे उपहार में दी, साथ ही यह भी कहा कि एक दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए एक छोटी सी भेंट है. इसे बिना नानुकर के ले लेना. चित्रा ने भी बिना कुछ कहे उस के हाथ से वह साड़ी ले ली. अनुराग उस के सिर को हलका सा थपथपा कर चला गया.

चित्रा काफी देर तक ऐसे ही खड़ी रही फिर अचानक ध्यान आया कि उस ने तो अनुराग का पता व फोन नंबर कुछ भी नहीं लिया. उसे बड़ी छटपटाहट महसूस हुई लेकिन वह अब क्या कर सकती थी.

दिन गुजरने लगे. पहले वाली जीवनचर्या शुरू हो गई. अचानक 15 दिन बाद अनुराग का फोन आया. चित्रा के हैलो बोलते ही बोला, ‘‘कैसी हो? हो न अब भी बेवकूफ, उस दिन मेरा फोन नंबर व पता कुछ भी नहीं लिया. लो, फटाफट लिखो.’’

इस के बाद तो अनुराग और दिव्या से चित्रा की खूब सारी बातें हुईं. हफ्ते 2 हफ्ते में अनुराग व दिव्या से फोन पर बातें हो ही जाती थीं.

आज लगभग एक महीना होने को आया पर इधर अनुराग व दिव्या का कोई फोन नहीं आया था. चित्रा भी फुरसत न मिल पाने के कारण फोन नहीं कर सकी. एक दिन समय मिलने पर चित्रा ने अनुराग को फोन किया. उधर से अनुराग का बड़ा ही मायूसी भरा हैलो सुन कर उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने अनुराग से पूछा, ‘‘क्या बात है, अनुराग, सबकुछ ठीकठाक तो है. तुम ने तो तब से फोन भी नहीं किया.’’

इतना सुन कर अनुराग फूटफूट कर फोन पर ही रो पड़ा और बोला, ‘‘नहीं, कुछ ठीक नहीं है. दिव्या की तबीयत बहुत खराब है. उस की दोनों किडनी फेल हो गई हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है कि अगर एक सप्ताह में किडनी नहीं बदली गई तो दिव्या नहीं बच पाएगी… मैं हर तरह की कोशिश कर के हार गया हूं. कोईर् भी किडनी देने को तैयार नहीं है. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? मेरा व मेरे बच्चों का क्या होगा?’’

चित्रा बोली, ‘‘अनुराग, परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा. मैं आज ही तुम्हारे पास पहुंचती हूं.’’

शाम तक चित्रा आगरा पहुंच चुकी थी. अनुराग को देखते ही उसे रोना आ गया. वह इन कुछ दिनों में ही इतना कमजोर हो गया था कि लगता था कितने दिनों से बीमार है.

आशियाना: क्या सुजाता और सुजल का सपना हुआ सच?

बगीचे के बाहर वाली रेलिंग के सहारे पानीपुरी से ले कर बड़ापाव तक तमाम तरह के ठेले और गाडि़यां लगी रहती थीं, जो बड़ी सड़क का एक किनारा था. यहां बेशुमार गाड़ियों का आनाजाना और लालपीले सिगनल जगमगाते रहते थे.

अपार्टमैंट के भीतर कुछ दुकानें, औफिस और रिहाइशी फ्लैट थे. वर्माजी यहां एक फ्लैट में अकेले रहते थे. वे एक बैंक में मैनेजर थे. उन के लिए संतोष की बात यह थी कि उन का बैंक भी इसी कैंपस में था, इसलिए उन्हें दूसरों की तरह लोकल ट्रेन में धक्के नहीं खाने पड़ते थे.

सालभर पहले वर्माजी की पोस्टिंग यहां हुई थी. यहां की बैंकिंग थोड़ी अलग थी. गांवकसबों में लोन मांगने वालों की पूरी वंशावली का पता आसानी से लग जाता था.

यहां हालात उलट थे. कर्जदार के बारे में पता लगाना टेढ़ी खीर थी. जाली दस्तावेज का डर अलग. नौकरी को खतरा न हो, इसलिए वर्माजी कर्ज देते वक्त जांचपड़ताल कर फूंकफूंक कर कदम रखते थे.

नौकरी और नियमों की ईमानदारी के चलते अकसर उन्हें यहांवहां की खाक छाननी पड़ती थी. हफ्तेभर की थकान के बाद रविवार को अखबार, कौफी मग, और उन की बालकनी में लटका चिडि़यों का घोंसला और सामने पड़ने वाला बगीचा उन में ताजगी भर देता था.

उसी बगीचे में चकवाचकवी का एक जोड़ा था सुजल और सुजाता का. दोनों पास ही गिरगांव चौपाटी की एक कंपनी में काम करते थे. सुजल तो अपने पूरे परिवार के साथ भीमनगर की किसी चाल में रहता था. सुजाता वापी से 7-8 साल पहले यहां पढ़ाई करने आई थी. तभी से कांदिवाली के एक फ्लैट में रहती थी.

पहली बार उन दोनों का परिचय भी इसी कंपनी में इंटरव्यू के दिन ही हुआ था. दोनों सैक्शनों में 1-1 पद था. इंटरव्यू  के बाद वेटिंग रूम में सुजल ने पूछा था, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं? कौन से ग्रुप में इंटरव्यू है?’

‘जी, मेरा नाम सुजाता है. मेरा बी गु्रप है.’

‘अच्छा. दोनों एक गु्रप में नहीं हैं. मैं टैक्निकल विंग में हूं.’

‘हम सहयोगी हो सकते हैं. मतलब, बातचीत कर के अपना तनाव कम कर सकते हैं.’

‘हां, एकदूसरे को पसीना पोंछने की सलाह तो दे ही सकते हैं.’

यह सुनते ही सुजाता के चेहरे पर एक मुसकराहट थिरक गई.

आखिरकार शाम 5 बजे लिस्ट लग गई. लिस्ट के मुताबिक सुजाता और सुजल को नौकरी मिल गई थी. सुजल ने हाथ आगे बढ़ाया तो सुजाता ने भी गरमजोशी से हाथ मिला कर इस खुशखबरी का इजहार किया.

पहले परिचय में पता चल गया था कि सुजाता गुजराती परिवार से थी और सुजल मराठी परिवार से.

सैक्शन भले ही अलग थे, पर रास्ते दोनों के एक ही थे. सुबह तो दोनों अलगअलग जगहों से औफिस पहुंचते, पर शाम को लौटते वक्त एकसाथ लोकल ट्रेन से आते.

धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. हफ्तेभर की थकान दूर करने रविवार की शाम इसी बगीचे में गुजारते. फिर रात को किसी रैस्टोरैंट में साथ खाते और फिर अपनेअपने घर चले जाते.

एक दिन सुजल ने सुजाता के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. सुजाता ने सुजल से कहा कि पहले एक फ्लैट खरीदने के बारे में सोचना चाहिए.

यह सुनते ही सुजल के मन में मरीन ड्राइव की रोशनी तैर गई. उस ने जल्दी ही हाउसिंग लोन की फाइल वर्माजी के बैंक में लगा दी.

पहली नजर में सारे कागजात सही लग रहे थे. दोनों की तनख्वाह भी अच्छी थी. अगले दिन वर्माजी उन के औफिस में जांच करने गए.

सिक्योरिटी वाले ने पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘मिस्टर ऐंड मिसेज सुजल क्या यहां नौकरी करते हैं?’’

गार्ड हंसा और बोला, ‘‘अरे साहब, अभी दोनों की शादी नहीं हुई है. शायद जल्दी ही हो जाए.’’

यह सुन कर वर्माजी उलटे पैर लौट आए. तय दिन पर दोनों ही लोन के बारे में जानने पहुंचे.

वर्माजी बोले, ‘‘आप ने इनकम जोड़ कर दिखाई है, जबकि आप तो अभी पतिपत्नी नहीं हैं.’’

‘‘सर, हमारी सगाई हो चुकी है. 2 महीने बाद शादी है, तब तक फ्लैट का काम हो जाएगा,’’ सुजल ने कहा.

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘आप के पास आज की तारीख में 2 रास्ते हैं. अभी एक छोटा फ्लैट ले लो. अगर बड़ा फ्लैट चाहिए तो शादी के बाद आओ.’’

सुजल ने उन से कहा, ‘‘हम दोनों अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं. परिवार वाले इस विवाह के लिए सहमत तो हो गए हैं, पर शर्त यह है कि हम पारंपरिक रूप से विवाह करें. आप चाहें तो हमारे परिवारों से मिल कर जांच लें.’’

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘मिस्टर सुजल, इस सीट पर बैठ कर हम सिर्फ कागजात देखते हैं, भावुकता में फैसला नहीं ले सकते. जिस दिन सारे कागजात पूरे हो जाएं, आप आ जाएं.’’

सुजल ने पूछा, ‘‘सर, माफ करना, पर एक सवाल है. बड़ी रकम डकार कर फरार होने वाले बड़े लोगों के क्या बैंक ने कागजात देखे?’’

‘‘यह सब मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है,’’ वर्माजी बोले.

वे दोनों चुपचाप बैंक से बाहर आ गए.

उस रात वर्माजी को नींद नहीं आई. पता नहीं, वे क्यों उन की बातों से परेशान थे. रविवार को भी वे बेचैन रहे. सोमवार को बैंक जाते ही उन्होंने सुजल से शाम को बैंक में मिलने को कहा.

सुजल और सुजाता के पहुंचते ही वर्माजी ने कहा, ‘‘इस समस्या का एक समाधान है.

कल ही तुम दोनों कोर्ट मैरिज कर परसों चैक ले जाओ. परंपरागत शादी बाद में करते रहना.

कोर्ट मैरिज का प्रमाणपत्र बैंक को दिखाना है.’’

यह सुनते ही उन दोनों ने वर्माजी को धन्यवाद दिया और चहचहाते हुए बाहर आ गए.

शापित: आखिर रश्मि अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहना चाहती थी

‘‘रश्मि, कहां हो तुम?

‘‘भई यह करेलों का मसाला तो कच्चा ही रह गया है.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर भूपिंदर हंसते हुए बोला, ‘‘सतीशजी जिस दिन कुक नहीं आती हैं, ऐसा ही कच्चापक्का खाना बनता है.’’

ये सब बातें करतेकरते भूपिंदर यह भी भूल गया था कि आज रश्मि कोई नईनवेली दुलहन नहीं है, बल्कि सास बनने वाली है और आज जो खाने की मेज पर मेहमान बैठे हैं वे उस की होने वाली बहू के मातापिता हैं.

मम्मी के हाथों में करेले पकड़ाते हुए आदित्य बोला, ‘‘क्या जरूरत थी सोनाक्षी के मम्मीपापा को घर पर बुलाने की? ‘‘आप को पता है न वे कैसे हैं?’’

जैसे ही आदित्य बाहर आया तो भूपिंदर बोला, ‘‘भई, यह आदित्य तो अब तक मम्मा बौय है, सोनाक्षी को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’’

आदित्य भी बिना लिहाज करे बोला, ‘‘मैं ही नहीं पापा, सोनाक्षी भी मम्मा गर्ल ही बनेगी.’’

तभी रश्मि खिसियाते हुए डाइनिंगटेबल पर फिर से करेलों की प्लेट ले कर आ गई. नारंगी और हरी तात कौटन की साड़ी में रश्मि बहुत ही सौम्य और सलीकेदार लग रही थी. खाना अच्छा ही बना हुआ था और डाइनिंगटेबल पर बहुत सलीके से लगा भी हुआ था, परंतु भूपिंदर फिर भी कभी नैपकिन के लिए तो कभी नमकदानी के लिए रश्मि को टोकता ही रहा.

माहौल में इतना अधिक तनाव था कि अच्छेखासे खाने का जायका खराब हो गया था. खाने के बाद भूपिंदर सतीश को ले कर ड्राइंगरूम में चला गया तो पूनम मीठे स्वर में रश्मि से बोली, ‘‘खाना बहुत अच्छा बना था और लगा भी बहुत सलीके से था.’’

‘‘परंतु लगता है भाईसाहब कुछ ज्यादा ही परफैक्शनिस्ट हैं.’’

रश्मि की बड़ीबड़ी शरबती आंखों में आंसू दरवाजे पर ही अटके हुए थे, उन्हें पीते हुए धीरे से बोली, ‘‘पूनमजी पर मेरा आदित्य अपने पापा से एकदम अलग हैं… हम आप की सोनाक्षी को कोई तकलीफ नहीं होने देंगे.’’

पूनम अच्छी तरह समझ सकती थी कि रश्मि के मन पर क्या बीत रही होगी.

आदित्य और सोनाक्षी दोनों रोहिणी के जयपुर गोल्डन हौस्पिटल में डाक्टर हैं. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और जैसेकि आजकल होता है परिवार ने उन की पसंद पर सहमति की मुहर लगा दी थी. आज विवाह की आगे की बातचीत के लिए पूनम और सतीश आदित्य के घर खाने पर आए थे. भूपिंदर का यह रूप उन्हें अंदर तक हिला गया था. आदित्य का गुस्सा भी उन से छिपा नही था.

रास्ते में पूनम से रहा न गया, तो सतीश से बोली, ‘‘सबकुछ ठीक है, पर क्या तुम्हें लगता है कि आदित्य ठीक रहेगा अपनी सोनाक्षी के लिए?’’

‘‘उस के पापा उस की मम्मी को कितना बेइज्जत करते हैं. लड़का वही देख कर बड़ा हुआ है. मुझे तो डर है कि कहीं आदित्य भी सोनाक्षी के साथ ऐसा ही व्यवहार न करे.’’

सतीश बोला, ‘‘देखो हम सोनाक्षी को सब बता देंगे, उस की जिंदगी है, फैसला भी उसी का होगा.’’

उधर रश्मि को लग रहा था कि कहीं भूपिंदर के व्यवहार के कारण सोनाक्षी और आदित्य के विवाह में रुकावट न आ जाए.

आदित्य सोनाक्षी के मम्मीपापा के जाते ही भूपिंदर पर उबल पड़ा, ‘‘क्या जरूरत थी आप को सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने ऐसा व्यवहार करने की?’’

भूपिंदर बोला, ‘‘घर मेरा है, मैं जो चाहूं करूं. इतनी ही दिक्कत है तो अलग रह सकते हो.’’

तभी आदित्य ने दरवाजे पर खटखट की, तो रश्मि मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आ

जा, खटखट क्यों कर रहा है.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, पापा का यह व्यवहार और तुम्हारा चुपचाप सब सहन करना मुझे अंदर तक आहत कर जाता है. आज मैं सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने आंख भी नहीं उठा पाया हूं. गुलाम बना कर रखा हुआ है इन्होंने हमें.’’

रश्मि आदित्य के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘आदित्य शिखा तेरी छोटी बहन तो गोवा में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और तू बेटा शादी के बाद अलग घर ले लेना.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी और आप? मैं क्या इतना स्वार्थी हूं कि आप को अकेला छोड़ कर चला जाऊंगा?’’

रश्मि उदासी से बोली, ‘‘मैं तो शापित हूं, इस साथ के लिए बेटा. पर मैं बिलकुल नहीं चाहती कि तुम या सोनाक्षी ऐसे डर के साथ जिंदगी व्यतीत करो.’’

आदित्य का हौस्पिटल जाने का समय हो गया था. आज उस की नाइट शिफ्ट थी. फिर रश्मि आंखें बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर. आदित्य की शादी की उस के मन में कितनी उमंगें थीं. मगर वो अच्छी तरह जानती थी. हर बार गहनेकपड़ों के लिए उसे भूपिंदर

के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा. भूपिंदर कितनी लानत भेजेगा और साथ ही साथ वह यह भी जोड़ेगा कि उस ने आदित्य की मैडिकल की पढ़ाई में क्व25 लाख खर्च किए हैं.

रश्मि का कितना मन करता था कि वह अपनी पसंद के कपड़े ले, परंतु भूपिंदर ही उस के लिए कपड़े खरीदता था, क्योंकि उस के हिसाब से रश्मि को तमीज ही नहीं है अच्छे कपड़े खरीदने की.

रश्मि के वेतन की पाईपाई का हिसाब भूपिंदर ही रखता था. जब कोई भी रश्मि के कपड़ों की तारीफ करता तो भूपिंदर छूटते ही बोलता, ‘‘मैं जो खरीदता हूं अन्यथा यह तो दलिद्र ही खरीदती और पहनती है.’’

रिश्तेदारों और पड़ोसियों को लगता था कि भूपिंदर जैसा शाहखर्च कौन हो सकता है, जो अपनी बीवी का वेतन उस के गहनेकपड़ों पर ही खर्च करता है. आजकल के जमाने में ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो अपनी पत्नी के वेतन से घर खर्च चलाते हैं. रश्मि कैसे समझाए किसी को, गहने, कपड़ों से अधिक महत्त्व सम्मान का होता है.

यह जरूर था कि भूपिंदर अपने काम का पक्का था, इसलिए दिनदूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था. इस तरक्की के साथसाथ उस का अहम भी सांप के फन की तरह फुफकारने लगा था. शादी के कुछ वर्षों के बाद ही रश्मि के कानों में भूपिंदर के अफेयर की बातें पड़ने लगी थीं. पर जब भी अलग होने की सोचती तो आदित्य और शिखा का भविष्य दिखने लगता. कैसे पढ़ा पाएगी वह दोनों बच्चों को दिल्ली जैसे शहर की इस विकराल महंगाई में. नालायक ही सही पर सिर पर बाप का साया तो रहेगा.

रश्मि के हथियार डालते ही भूपिंदर उस पर और हावी हो गया था. रातदिन वह रश्मि को कोंचता रहता था पर अब उस हिमशिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

घर 3 कोणों में बंट गया था, एक पाले में रश्मि, आदित्य और दूसरे पाले में था भूपिंदर. शिखा आज के दौर की स्मार्ट लड़की थी इसलिए वह किसी भी पाले में नहीं थी, वह अपने हिसाब से पाला बदलती रहती थी. आदित्य बेहद ही संवेदनशील युवक था. रातदिन के तनाव का प्रभाव आदित्य पर पड़ रहा है. 30 वर्ष की कम उम्र में ही उसे पाइपर टैंशन रहने लगी थी.

आदित्य जैसे ही अस्पताल पहुंचा, सोनाक्षी वहीं खड़ी थी. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘आदित्य, कल ड्यूटी के बाद मुझे तुम से जरूरी बात करनी है. आदित्य को पता था कि सोनाक्षी क्या कहना चाहती है.

सुबह आदित्य और सोनाक्षी जब कैंटीन में आमनेसामने थे तो सोनाक्षी बोली, ‘‘आदित्य देखो मुझे गलत मत समझना पर मैं  ऐसे माहौल में ऐडजस्ट नहीं कर सकती हूं. क्या हम विवाह के बाद अलग फ्लैट ले कर रह सकते हैं?’’

आदित्य बोला, ‘‘सोना, मुझे मालूम है तुम अपनी जगह सही हो, पर मैं अपनी मम्मी को अकेले उस घर में नहीं छोड़ सकता हूं.’’

सोनाक्षी बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहना चाहें, तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

जब आदित्य ने यह बात घर पर बताई तो भूपिंदर गुस्से से आगबबूला हो उठा. गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारा तो यही होना था गोबर गणेश. जो लड़का मां का पल्लू पकड़ कर चलता है वह बीवी के इशारों पर ही नाचेगा.’’

आदित्य बोला, ‘‘पापा आप चिंता न करो. आप को मुझे से और मम्मी से बहुत प्रौब्लम है न तो मैं मम्मी को भी अपने साथ ले जाऊंगा. ऐसा लगता है, घर घर नहीं है एक जेल है और हम सब कैदी.’’

भूपिंदर दहाड़ उठा, ‘‘हां यह जेल है न तो रिहाई की भी कीमत है. अपनी मम्मी को क्या ऐसे ही ले कर चला जाएगा वह मेरी पत्नी है और सुन लड़के, तेरी पढ़ाई पर क्व25 लाख खर्च हुए हैं, पहले वे वापस दे देना और फिर अपनी मम्मी को रिहा कर ले जाना.’’

आदित्य के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी और भूपिंदर न चाहते हुए भी जोरशोर से तैयारी में जुटा था.

जब नवयुगल हनीमून से वापस आ जाएंगे तो वह अलग फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे. आदित्य किसी भी कीमत पर अपनी मम्मी को अकेले उस यातनागृह में नहीं छोड़ना चाहता था. इसलिए आदित्य ने किसी तरह से क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया था.

विवाह बहुत धूमधाम से संपन्न हो गया. 14 दिन बाद आदित्य और सोनाक्षी सिंगापुर से घूम कर लौट आए थे. आदित्य ने मां को सूचित कर दिया था कि वह अपना सारा सामान ले कर उन के पास आ जाए.

मगर रश्मि का फोन आया कि आदित्य रविवार को एक बार घर आ जाए. उस के बाद ही वह आदित्य के पास रहने आ जाएगी. आदित्य को लग रहा था कि शायद मम्मी को निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है या फिर पापा उन्हें ताने मार रहे होंगे.

जब आदित्य और सोनाक्षी घर पहुंचे तो देखा घर पर मरघट सी शांति छाई हुई थी. आदित्य ने देखा मां बहुत थकीथकी लग रही थीं.

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कमाल करती हो, तुम आज भी पापा के कारण निर्णय नहीं ले पा रही हो. आप चिंता मत करो, मैं ने क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया है.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटे तेरे पापा को 5 दिन पहले लकवा मार गया था.

‘‘रातदिन वह बिस्तर पर ही रहते हैं, अब बता उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ कर कैसे आ सकती हूं और तुम लोगों से बात करे बिना मैं भूपिंदर को ले कर तुम्हारे घर कैसे आ सकती थी?’’

इस से पहले आदित्य कुछ कहता सोनाक्षी बोल उठी, ‘‘मम्मी, आप यहीं रहिए, हमारा फ्लैट तो बहुत छोटा है.’’

‘‘पापा की अच्छी तरह देखभाल नहीं हो पाएगी, हम एक के बजाय 2 नर्स ड्यूटी पर लगा देंगे. फिर मम्मी मैं घर पर भी हौस्पिटल जैसा माहौल नहीं चाहती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, नर्स का इंतजाम मैं कर दूंगा. आप चलो यहां से, बहुत कर लिया आप ने पापा के लिए.’’

रश्मि बोली, ‘‘आदित्य बेटा तू मेरी चिंता मत कर… पर मैं भूपिंदर को इस हाल

में छोड़ कर नहीं जा सकती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कब तक तुम पापा के कारण जिंदगी से दूर रहोगी.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, तू खुश रह, मैं तो इस साथ के लिए शापित हूं, पहले मानसिक यातना भोगती थी अब अकेलापन भोगने के लिए शापित हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी यह शापित जीवन आप ने खुद ही चुना है, अपने लिए. सामने खुला आकाश है पर आप को इस पिंजरे में रहना ही पसंद है,’’ कह कर आदित्य क्व20 लाख मेज पर रख कर तीर की तरह निकल गया.

तमाचा : क्या सानिया ले पाई अपना बदला

सानिया की सहेलियों को उस से जलन हो रही थी. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सानिया का रिश्ता इतने बड़े घर में हो जाएगा.

सानिया के अब्बा एक मामूली से फोटोग्राफर थे, जबकि उस के होने वाले ससुर एक बड़े बिजनेसमैन थे. सानिया को उस की सास ने एक शादी में देखा था और तभी उसे पसंद कर लिया था. फिर जल्दी ही उस का रिश्ता भी तय हो गया.

आज सानिया की शादी थी. लाल जोड़े में उस का हुस्न और निखर आया था. सभी सहेलियां उसे घेर कर बैठी थीं और हंसीमजाक कर रही थीं.

‘‘सानिया, तुझे पति नहीं लखपति मिल रहा है,’’ सानिया की खास सहेली रिंकी ने कहा.

‘‘काश, हमें भी कोई ऐसा ही मोटा मुरगा मिल जाए, तो जिंदगी ऐश से कटे,’’ टीना ने अपने दिल पर हाथ रख कर कहा.

‘‘रुपएपैसे का लालच मुझे नहीं है. मैं तो सिर्फ यह चाहती हूं कि मेरा होने वाला पति तनमन से मेरा हो, सिर्फ मेरा,’’ सानिया ने धीरे से कहा.

‘‘जब वह तुम से शादी कर रहा है, तो तुम्हारा ही हुआ न,’’ रिंकी ने कहा.

‘‘शादी करना और सिर्फ बीवी का हो कर रहने में फर्क है रिंकी डियर,’’ सानिया ने कहा.

‘‘अच्छा, अपने विचार अपने पास रख,’’ रिंकी ने कहा, तो सभी सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ीं.

शादी के बाद जब सानिया अपनी ससुराल पहुंची, तो वहां की शानोशौकत देख कर वह भी सोचने पर मजबूर हो गई कि आखिर उस की सास ने उसे ही क्यों चुना? यह ठीक था कि वह शक्लसूरत से अच्छी थी, पर उस जैसी तो और भी बहुत होंगी.

शादी के बाद कुछ दिन तो हंसीखुशी से बीत गए. उस का पति नादिर अपने मांबाप का एकलौता बेटा था, इसलिए उसे लाड़प्यार से पाला गया था.

नादिर अपना ज्यादा समय घर से बाहर ही गुजारता था. सानिया इस बारे में कभी पूछती, तो नादिर कह देता कि काम के सिलसिले में उसे बाहर रहना पड़ता है. एक दिन सानिया की तबीयत कुछ खराब थी. उस ने नादिर से कहा कि वह उसे डाक्टर को दिखा लाए, तो नादिर ने कहा कि वह अकेली चली जाए, क्योंकि उसे कुछ जरूरी काम है.

सानिया डाक्टर को दिखाने चली गई. रास्ते में अचानक सानिया ने एक सिनेमाहाल के पास नादिर को एक लड़की के साथ घूमते देखा. वह वहां का नजारा देख कर सबकुछ समझ गई.

सानिया की हालत अजीब हो गई. किसी तरह वह घर वापस आई. शाम को जब नादिर आया, तो सानिया ने पूछा, ‘‘आज आप कहां थे?’’

‘‘मैं काम के सिलसिले में बाहर गया था,’’ नादिर ने साफ झूठ बोला.

‘‘मैं ने अपनी आंखों से आप को एक लड़की के साथ कहीं घूमते देखा था,’’ सानिया बोली.

‘‘ओह… तो तुम ने देख लिया,’’ नादिर ने लापरवाही से कहा.

‘‘कौन थी वह?’’ सानिया ने पूछा.

‘‘किसकिस के नाम पूछोगी? मैं बाहर क्या करता हूं, इस से तुम्हें क्या लेना? तुम्हें बीवी का हक तो मिल रहा है न,’’ नादिर ने कहा.

‘‘तुम्हारे इस रूप के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती थी,’’ सानिया ने कहा.

‘‘जैसे तुम दूध की धुली हो. शादी से पहले क्याक्या गुल खिलाए होंगे, कौन जानता है,’’ नादिर ने बेशरमी से कहा.

‘‘अगर मैं यह कहूं कि मैं दूध की धुली हूं, तो…’’ सानिया ने कहा.

‘‘इस का क्या सुबूत है तुम्हारे पास?’’ नादिर ने पूछा.

सानिया ने नादिर के सवाल का जवाब नहीं दिया. उस ने तय किया कि वह अपने सासससुर को नादिर की हरकतों के बारे में सबकुछ बताएगी. आखिर उन्हें भी तो मालूम होना चाहिए कि उन का बेटा घर के बाहर क्याक्या गुल खिलाता है.

रात को सानिया दूध ले कर सासससुर के कमरे की तरफ गई. ‘‘कहीं सानिया को नादिर की हरकतों का पता न चल जाए,’’ ससुर की आवाज सुन कर सानिया के कदम दरवाजे पर ही ठहर गए.

‘‘पता चल जाएगा, तो कौन सी कयामत आ जाएगी. आखिर हम एक गरीब घर की लड़की इसीलिए तो लाए हैं. उसे अपनी जबान बंद रखनी होगी. उस का काम सिर्फ इस घर का वारिस पैदा करना है,’’ सास ने कठोर आवाज में कहा.

सासससुर की बातें सुन कर सानिया हैरान रह गई. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इतने ऊंचे घराने के लोगों के खयाल इतने नीचे होंगे.

उस की सेवा, त्याग और प्यार का उन की नजरों में कोई मोल नहीं था. ऊपर से तो वह शांत थी, लेकिन उस के दिलोदिमाग में एक तूफान मचा था.

‘मैं भी दिखा कर रहूंगी कि मैं क्या कर सकती हूं,’ सानिया ने मन ही मन सोचा.

धीरेधीरे समय गुजरने लगा. इस बीच सानिया कई बार अपने मायके भी गई, लेकिन उस ने अपने मांबाप से कुछ नहीं कहा. सानिया मां बनने वाली है, यह मालूम होते ही पूरे घर में खुशी छा गई. गोद भराई की रस्म के लिए लोगों को बुलाया गया. सानिया कीमती जोड़े और जेवरों से लदी बैठी थी.

गोद भराई की रस्म के बाद सास ने सानिया की बलाएं ली और उसे गले लगाया. ‘‘बहुत जल्द तू इस घर को वारिस देने वाली है. मेरे बेटे का चिराग इस घर को रोशन करेगा. मैं दादी बनूंगी,’’ सास ने खुश होते हुए कहा.

‘आप दादी जरूर बनेंगी और इस घर को वारिस भी जरूर मिलेगा, लेकिन वह आप के बेटे का चिराग नहीं होगा.  इस राज भरी बात को तो सिर्फ मैं ही जानती हूं कि इस बच्चे का बाप आप का बेटा नहीं, कोई और है. यह करारा तमाचा आप लोगों के मुंह पर लगा कर मैं ने अपना बदला ले लिया है,’ सानिया ने कुटिलता से मुसकराते हुए सोचा.

इमोशनल अत्याचार : खतरनाक मोड़ पर रक्षिता की जिंदगी

रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था.

अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी. दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे.

रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’

उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया.

‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा.

दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया. रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो.

एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’

‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’

यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं.

वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी.

पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था.

उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे. अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.

पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं.

लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी.

धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी. उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा.

नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था.

अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी.

नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई. दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से.

उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी.

लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’

यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

समझौता: रामेश्वर ने अपने हक से किया समझौता

‘‘क्या करूं, वह मेरी बचपन की सहेली है,’’ अनसुना करते हुए दुर्गा बोली.

‘‘देख दुर्गा, आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तू मानमल की लुगाई से कभी नहीं मिलेगी…’’ एक बार फिर समझाते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘बोलती है और कभीकभार हलवापूरी भी भिजवा देती है. बड़ा प्रेम दिखाने लगी है आजकल उस से.’’

‘‘अरे, मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो प्रेम से रहना चाहिए,’’ दुर्गा एक बार फिर समझाते हुए बोली.

‘‘बड़ी आई प्रेम दिखाने वाली…’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘वहां उस का प्रेम कहां गया था, जब मानमल ने अपना रास्ता बंद किया? हम ने थाने में रपट लिखवा दी. अदालत में पेशी चल रही है. वह हमारा दुश्मन है, फिर भी उन से प्रेम जताती है.’’

‘‘देखो, वह अदालती दुश्मनी है…’’ समझाते हुए दुर्गा बोली, ‘‘यह क्यों नहीं समझते कि वह पैसे वाला है. हम से ऊंची जात का भी है.’’

‘‘हम से ऊंची जात का हुआ तो क्या हुआ. क्या हम ढोर हैं. देख दुर्गा, कान खोल कर अच्छी तरह सुन ले. अब तू उस दुश्मन की औरत से नहीं बोलेगी और न ही मिलेगी.’’

‘‘झगड़ा तुम्हारा मानमल से है, उस की औरत से तो नहीं है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘मानमल और उस की लुगाई क्या अलगअलग हैं?’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘है तो उस की लुगाई.’’

‘‘झगड़ा झगड़े की जगह होता है. तुम मत बोलो, मैं तो बोलूंगी.’’

‘‘रस्सी जल गई, मगर ऐंठन नहीं गई,’’ रामेश्वर गुस्से से बोला.

‘‘तुम एक बात कान खोल कर सुन लो. तुम्हारा लाड़ला मांगीलाल, जो 12वीं में पढ़ रहा है और मानमल का लड़का भी 12वीं जमात में मांगीलाल के साथ पढ़ रहा है. दोनों में गहरी दोस्ती है. वे साथसाथ स्कूल जाते हैं और आते भी हैं. मुझे तो रोक लोगे, उसे कैसे रोकोगे?’’

‘‘अरे, तुम मांबेटे दोनों मिल कर दुश्मन से कहीं मुकदमे को हरवा न दो,’’ शक जाहिर करते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो मांगीलाल के बापू, वैसा नहीं है. हम में मुकदमे संबंधी कोई बात नहीं होती…’’ एक बार फिर दुर्गा बोली, ‘‘हमारे बीच घरेलू बातें

ही होती हैं.’’

‘‘मतलब, तुम उस से मिलनाजुलना बंद नहीं करोगी?’’ रामेश्वर ने पूछा और कहा, ‘‘जैसी तेरी मरजी. अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगा.’’

इस के बाद रामेश्वर झल्लाते हुए घर से बाहर निकल गया.

यह कहानी जिस गांव की है उस गांव का नाम है रिंगनोद जो पिंगला नदी के किनारे बसा हुआ है. एक जमाना था जब यह नदी 12 महीने बहती रहती थी. उस जमाने में इस नदी में पुल नहीं बना हुआ था, इसलिए शहर जाने के लिए नदी में से हो कर जाना पड़ता था. मगर आज तो यह नदी गरमी आतेआते सूख जाती है. अब तो इस के ऊपर बड़ा पुल बन गया है, तो गांव शहर से पूरी तरह जुड़ गया है.

इसी गांव के रहने वाला रामेश्वर जाति से अनुसूचित है और मानमल बनिया है. उस की गांव में किराने की दुकान के साथ खेती भी है. वह ज्यादा पैसे वाला है, इसलिए अच्छा दबदबा है. रामेश्वर के पास केवल खेती है.

वह इसी पर ही निर्भर है. बापदादा के जमाने से दोनों के खेत असावती रोड पर पासपास हैं. जावरा से सीतामऊ तक कंक्रीट की रोड बन गई है, जो उन के खेत के पास से ही निकली है. इसी सड़क से लगा हुआ एक रास्ता है, जो दोनों की सुविधा के लिए था. दोनों का अपने खेत पर जाने के लिए यही एक रास्ता था.

रामेश्वर के खेत थोड़े से अंदर थे और मानमल के खेत सड़क से लगे हुए थे. उस रास्ते को ले कर अभी तक दोनों में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, मगर जब से पक्का रोड बना है, तब से मानमल के भीतर खोट आ गया. वह अपनी जमीन पर होटल खोलना चाहता था. अगर वह दीवार बना कर निकलने का गलियारा देता, जो होटल के लिए कम जमीन पड़ती इसलिए उस ने अपनी दबंगता के बल पर जहां से रामेश्वर के खेत शुरू होते हैं, वहां रातोंरात दीवार खिंचवा दी.

रामेश्वर ने एतराज किया कि इस जमीन पर उस का भी हक है. बापदादा के जमाने से यह रास्ता बना हुआ है. मगर मानमल बोला था, ‘‘देख रामेश्वर, यह सारी जमीन मेरी है.’’

‘‘तेरी कैसे हो गई भई?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मेरी जमीन सड़क से शुरू होती है और जो सड़क से शुरू हुई वह मेरी हुई न,’’ मानमल ने कहा.

‘‘मगर, मैं अब कहां से निकलूंगा?’’

‘‘यह तुझे सोचना है. अरे, बापदादा ने गलती की तो इस की सजा क्या मैं भुगतूंगा?’’

‘‘देखो मानमलजी, आप बड़े लोग हो. मैं आप से जरा नीचा हूं. इस का यह मतलब नहीं है कि नाजायज कब्जा कर लें.’’

‘‘अरे, आप की जमीन है तो

कागज दिखाओ? मेरी तो यहां दीवार बनेगी.’’

‘‘मैं दीवार नहीं बनने दूंगा,’’ विरोध जताते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘कैसे नहीं बनने देगा. जमीन मेरी है. इस पर चाहे मैं कुछ भी करूं, तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?’’

‘‘मतलब, तुम दीवार बनाओगे और मेरा रास्ता रोकोगे?’’

‘‘पटवारी ने भी इस जमीन का मालिक मुझे बना रखा है.’’

‘‘देखो, मैं आखिरी बार कह रहा हूं, तुम यहां दीवार मत बनाओ.’’

‘‘मैं तो दीवार बनाऊंगा… तुझ से जो हो कर ले.’’

‘‘ठीक है, मैं तुझे कोर्ट तक खींच कर ले जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है, ले जा.’’

फिर मानमल के खिलाफ रामेश्वर ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी. पुलिस ने चालान बना कर कोर्ट में पेश कर दिया. कोर्ट ने फैसला आने तक जैसे हालात थे, वैसे रहने का आदेश दिया.

पुलिस ने मुकदमा कायम कर दिया. पूरे 5 साल हो गए, पर कोई फैसला न हो पाया. तारीख पर तारीख बढ़ती गई. दोनों परिवारों में पैसा खर्च होता रहा.

रामेश्वर इस मुकदमे से टूट गया. पैसा अलग खर्च हो रहा था और मानमल फैसला जल्दी न मिले, इसलिए पैसे दे कर तारीखें आगे बढ़वाता रहा ताकि रामेश्वर टूट जाए और मुकदमा हार जाए.

मगर रामेश्वर की जोरू दुर्गा मानमल की लुगाई से संबंध बढ़ा रही है. उस के घर भी काफी आनाजाना करती है. कभीकभार मिठाइयां भी खिला रही है, जबकि रामेश्वर और मानमल एकदूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे, बल्कि कोर्ट में जब भी तारीख लगती थी और मानमल से उस का सामना होता था, तब मानमल उसे देख कर हंसता था. यह जताने की कोशिश करता था कि मुकदमा लड़ने की हैसियत नहीं है, फिर भी लड़ रहा है.

मुकदमा तो वे ही लड़ सकते हैं, जिन के पास पैसों की ताकत है.10 साल तक अगर और मुकदमा चलेगा तो जमीन बिक जाएगी. मुकदमा लड़ना हंसीखेल नहीं है. मानमल तो चाहता है कि रामेश्वर बरबाद हो जाए.

5 साल के मुकदमे ने रामेश्वर की कमर तोड़ दी. अब भी न जाने कितने साल तक चलेगा. वकील का घर भरना है. वह तो केवल खेती के ऊपर निर्भर है, जबकि मानमल के किराने की दुकान भी अच्छी चल रही है और भी न जाने क्याक्या धंधा कर रहा है. खेती भी उस से ज्यादा है, इसलिए मुकदमे के फैसले से वह निश्चिंत है.

मगर, रामेश्वर जब भी तारीख पर जाता है, तारीख आगे बढ़ जाती है और जब तारीख आगे बढ़ जाती है, तब मानमल मन ही मन हंसता है. उस की हंसी में बहुत ही गहरा तंज छिपा हुआ रहता है.

‘‘चाय पी लो,’’ दुर्गा चाय का कप लिए खड़ी थी. तब रामेश्वर अपनी सोच से बाहर निकला.

‘‘क्या सोच रहे थे?’’ दुर्गा ने पूछा.

‘‘इस मुकदमे के बारे में?’’ हारे हुए जुआरी की तरह रामेश्वर ने जवाब दिया.

‘‘बस सोचते रहना, पहले ही कोई समझौता कर लेते, तब ये दिन देखने को नहीं मिलते,’’ दुर्गा ने कहा.

रामेश्वर नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम जले पर नमक छिड़क रही हो? एक तो मैं इस मुकदमे से टूट गया हूं, फिर न जाने कब फैसला होगा. मानमल पैसा दे कर तारीख पर तारीख बढ़ाता जा रहा है और तुझे मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था,’’ दुर्गा ने सफाई दी.

‘‘तब क्या मतलब था तेरा? एक तो दुश्मन की औरत से बोलती हो… कितनी बार कहा है कि तुम उस से संबंध

मत बनाओ, मगर मेरी एक भी नहीं सुनती हो.’’

‘‘देखोजी, उस से संबंध बनाने से मेरा भी लालच है.’’

‘‘क्या लालच है?’’

‘‘जैसे आप टूट रहे हो न, वैसे मानमल भी चाहता है कि कोई बीच का रास्ता निकल जाए.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’

‘‘मानमल की जोरू बताती रहती है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘समझौता क्यों नहीं कर

लेता है? रास्ता क्यों बंद कर

रहा है?’’

‘‘वह रास्ता देने को

तैयार है.’’

‘‘जब वह देने को तैयार है, तब तारीखें क्यों बढ़वाता है? यह तो वही हुआ कि आप खावे काकड़ी और दूसरे को दे आकड़ी,’’ नाराजगी से रामेश्वर बोला.

‘‘आप कहें तो मैं उस की जोरू से बात कर के देखती हूं,’’ दुर्गा ने रामेश्वर को सलाह दी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है उस से बात करने की. अब तो अदालत से ही फैसला होगा…’’ इनकार करते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘तू औरत जात ठहरी. मानमल की चाल को तू क्या समझे.’’

‘‘ठीक है तो लड़ो मुकदमा और वकीलों का भरो पेट,’’ दुर्गा ने कहा, फिर उन के बीच सन्नाटा पसर गया.

रामेश्वर इसलिए नाराज है कि दुर्गा अपने दुश्मन की जोरू से पारिवारिक संबंध बनाए हुए है. दुर्गा इसलिए नाराज है कि हर झगड़ा अदालत से नहीं निबटा जा सकता है. थोड़ा तुम झुको, थोड़ा वह झुके. मगर मांगीलाल के पापा तो जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं.

मगर इसी बीच एक घटना घट गई.

मानमल और उस की पत्नी का अचानक उन के घर आना.

मानमल की जोरू बोली, ‘‘दुर्गा, हम इसलिए आए हैं कि हम दोनों जमीन

के जिस टुकड़े के लिए अदालत में

लड़ रहे हैं, उस का फैसला तो न जाने कब होगा.’’

‘‘हां बहन,’’ दुर्गा भी हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘‘अदालत में सालों लग जाते हैं फैसला होने में.’’

‘‘भाई रामेश्वर, हम आपस में मिल कर ऐसा समझौता कर लें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे,’’ मानमल समझाते हुए बोला.

‘‘कैसा समझौता? मैं समझा नहीं,’’ रामेश्वर नाराजगी से बोला.

‘‘तुम नाराज मत होना. मैं ने बहुत सोचसमझ कर यह फैसला लिया है कि तुम्हें 5 फुट जमीन का गलियारा देता हूं ताकि तुम्हें अपने खेत में आनेजाने के लिए कोई तकलीफ न पड़े…’’ समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘मैं 5 फुट छोड़ कर दीवार बना लेता हूं.’’

‘‘वाह मानमलजी, वाह, खूब फैसला लिया. मुझे इतना बेवकूफ समझ लिया कि बाकी की 10 फुट जमीन खुद रख रहे हो. मुझे आधी जमीन चाहिए,’’ रामेश्वर भी गुस्से से अड़ गया.

‘‘देखो नाराज मत होना. जिस जमीन के लिए तुम अदालत में लड़ रहे हो. अदालत देर से सही मगर फैसला मेरे पक्ष में देगी. मैं ने सारे सुबूत लगा रखे हैं, जबकि मैं अपनी मरजी से तुम्हें गलियारा दे रहा हूं, इसलिए ले लो वरना बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘देखोजी, इतना भी मत सोचो, कोर्ट का फैसला तो न जाने कब आएगा. अगर हमारे खिलाफ आएगा, तब हमें 5 फुट जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा,’’

दुर्गा समझाते हुए बोली.

‘‘हां भाई साहब, मत सोचो, जो हम दे रहे हैं वह कबूल कर लो…’’ मानमल की पत्नी ने प्रस्ताव रखते हुए कहा, ‘‘हम तो आप की भलाई की बात कर रहे हैं ताकि हमारे बीच अदालत का फैसला खत्म हो जाए.’’

‘‘मैं फायदे का सौदा कर रहा हूं रामेश्वर,’’ एक बार फिर समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘इस के बावजूद तुम्हें लगे कि कोर्ट के फैसले तक इंतजार करूं, तब भी मुझे कोई एतराज नहीं है,’’ कह कर मानमल ने गेंद रामेश्वर के पाले में फेंक दी.

रामेश्वर के लिए इधर खाई उधर कुआं थी. शायद मानमल को यह एहसास हो गया हो कि 15 फुट जमीन, जिस के लिए सारी लड़ाई है, वह खुद ही हार रहा हो, इसलिए फैसला आए उस के पहले ही यह समझौता कर रहा है. बड़ा चालाक है मानमल. यह इस तरह कभी हार मानने वाला नहीं है.

लगता है कि अपनी हार देख कर ही यह फैसला लिया हो. वह कचहरी के चक्कर काटतेकाटते हार गया है. इस ने अपनी जमीन पर होटल बना लिया है. जो चल भी रहा है. इस ने कहा भी है कि इस तरफ दीवार खींच कर पूरा इंतजाम करना चाहता है. तभी तो समझौता करने के लिए आगे आया है. इस में भी इस का लालच है.

उसे चुप देख कर मानमल एक बार फिर बोला, ‘‘अब क्या सोच रहे हो?’’

‘‘ठीक है, मुझे यह समझौता मंजूर है. यह घूंट भी पी लेता हूं,’’ कह कर रामेश्वर ने अपने हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मानमल खुशी से खिल उठा. उस ने रामेश्वर को गले से लगा लिया. फिर उन दोनों ने यह भी फैसला लिया कि अगली तारीख पर कोर्ट से मुकदमा वापस ले लेंगे. कोर्ट से दोनों के समझौते के मुताबिक कागज ले लेंगे. इस के बाद वे दोनों चले गए.

चुप्पी तोड़ते हुई दुर्गा बोली, ‘‘अच्छा हुआ जो समझौता कर लिया?’’

‘‘मानमल की गरज थी तो उस ने समझौता किया है?’’ चिढ़ कर रामेश्वर बोला.

‘‘उस की तो पूरी की पूरी जमीन हड़पने की योजना थी. मगर, यह सब मैं ने मानमल की बीवी को समझाया था.

‘‘उस ने ही मानमल को मनाया था. इसी वजह से मैं ने संबंध बनाए थे, आप के लाख मना करने के बाद भी. 5 फुट का गलियारा देने के लिए मैं ने ही मानमल की बीवी के सामने प्रस्ताव रखा था,’’ कह कर दुर्गा ने अपनी बात पूरी कर दी. रामेश्वर कोई जवाब नहीं दे पाया.  द्य

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