विधवा रहू्ंगी पर दूसरी औरत नहीं बनूंगी

लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

यादगार: आखिर क्या हुआ कन्हैयालाल के मकान का?

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

वर्लपूल : कुछ ऐसी ही थी मेरी जिंदगी

गंदी बस्ती में रहने वाला मैं एक गरीब कवि था. रोज के 50-100 रुपए भी मिल जाएं तो मेरे लिए बहुत थे. उस के लिए मैं रेडियो केंद्र तक रेकौर्डिंग के लिए जाता था.

मैं कर्ज में डूबा हुआ था. मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे थे. यहां से कुछ ही दूरी पर समुद्र था, लेकिन मैं वहां कभी नहीं जा पाता था. पूरा दिन लेखन कर के मैं ऊब रहा था. बेरोजगारी तनमन में कांटे की तरह चुभ रही थी.

2 महीने का बिजली का बिल भरना बाकी था. अपना खाना तो मैं बना लूंगा, लेकिन उस के लिए गैस तो चाहिए, जो खत्म होने के कगार पर थी.

अच्छा है कि घरसंसार का बोझ नहीं है. अगर मर भी गया तो कोई बात नहीं है. जब भी आईने में खुद को देखता हूं, एक लाचार, बेढंगा और बुझा हुआ शख्स नजर आता है. किसी को मेरी जरूरत नहीं है और पैसों की इस दुनिया में रहने की मेरी कोई औकात नहीं है, इस बात का अब मुझे भरोसा हो गया है.

क्लासमेट हेमू मेरी गरीबी का पता लगाते हुए एक दिन अचानक से मेरे दरवाजे पर आ धमका. उस ने बड़ी तसल्ली से मेरा हालचाल पूछा. उस के शब्द सुन कर मुझे थोड़ी हिम्मत मिली.

हेमू को लगता था कि खानदानी जायदाद का क्या करोगे. आराम भी करोगे तो कितना? लेकिन मैं रोज रेडियो पर कार्यक्रम करता, फिर भी हेमू के गले में मोटी सोने की चेन जैसी चेन खरीदना मेरे लिए नामुमकिन था.

मुझे पता है कि हेमू औरतों के बजाय मर्दों की तरफ ज्यादा खिंचता है, इसलिए उस से थोड़ा डर भी लगता था. लेकिन मैं बदहाली में जी रहा हूं, यह जान कर वह आजकल बारिश में टपकने वाले घर में आने लगा था. उस की कार मेरे बदहाल घर के सामने बिलकुल शोभा नहीं देती थी.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो तुम? तबीयत ठीक नहीं है क्या? पैसों की जरूरत है क्या?’’ हेमू ने यह पूछ कर मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘है तो, लेकिन…’’

‘‘कितना चाहिए?’’ यह सवाल उस ने ऐसे पूछा कि एक कवि मांग कर भी कितना मांगेगा? बड़ी रकम मांगने की तुम्हारे पास हिम्मत नहीं है.

‘‘फिलहाल तो हजार रुपए से काम हो जाएगा. नौकरी लगने के बाद सौदो सौ कर के वापस कर दूंगा. सच बोल रहा हूं.’’

यह सुन कर हेमू जोरजोर से हंसने लगा. जैसे भालू शहद को देख कर ललचाता है, वैसे ही वह मेरी तरफ देखते हुए उस ने अपना इरादा बताया, ‘‘वापस क्यों करना, ये लो पैसे… अब मेरे लिए एक काम करो… थोड़ी देर… आंधा घंटे के लिए तुम मुझे अपनी पत्नी समझना. तुम मर्द हो, यही मेरे लिए काफी है…’’

मेरी धड़कनें बढ़ गईं. उस वक्त पैसा मेरी जरूरत थी, पर उस तरह का काम करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था.

तभी हेमू कड़क आवाज में बोला, ‘‘तुम मिडिल क्लास वाले केवल सोचते रहते हो. इतना सोचना छोड़ दे. यहां आ, मेरे पास…’’ इस के बाद उस ने मुझे कुछ बोलने नहीं दिया. वह मेरे बिलकुल पास आ चुका था. अब इस बात को मैं कैसे बताऊं? यह कोई प्यार नहीं, बल्कि मजबूरी थी.

हेम को जो करना था, उस ने किया. उस ने पैसे दिए और चला गया.

इस के बाद मैं रोने लगा. मेरे मांबाप की मौत काफी समय पहले हो चुकी है. मेरा कोई सगासंबंधी भी नहीं बचा था. हम जैसे लोग फुटपाथ पर सोते हैं, जहां कोई भी हमारा इस्तेमाल कर सकता है.

हालात किसी को कुछ भी करने को मजबूर कर सकते हैं, यह मुझे आज समझ आ गया. यह वर्लपूल बहुत भयानक हादसे की तरह है. नहाने के बाद भी मैं खुद को माफ नहीं कर पा रहा था.

बाद में मुझे पार्टटाइम नौकरी मिल गई और पैसे की तंगी कम हो गई. लेकिन इस देश में अमीर लोग बड़ी आसानी से हम जैसे गरीबों की मर्दानगी छीन सकते हैं और हम पर मुहर लग जाती है कि गरीब अपना पेट भरने के लिए यह सब करते हैं.

कुछ लोग इसे हमारे ऊपर दाग समझते हैं. इसे कलंक बताने के बजाय गरीबों की मजबूरी और लाचारी को समझना होगा..

नो बौल विद फ्री हिट : प्यार की सच्ची कहानी

कोलकाता से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर समीर ने कुछ  ही दिन पहले नौकरी जौइन की थी. वह वहां के गार्डन रीच वर्कशौप में ट्रेनिंग ले रहा था जो रक्षा मंत्रालय के अधीन भारत सरकार का एक उद्यम है. वहां जहाज निर्माण से ले कर उन के रखरखाव की भी सुविधा है.

कोलकाता के मटियाबुर्ज महल्ला में स्थित गार्डन रीच वर्कशौप देश का जहाज बनाने का प्रमुख कारखाना है. यह मुख्य शहर से दूर है. समीर झारखंड के धनबाद शहर का रहने वाला है, जिसे कोल कैपिटल औफ इंडिया भी कहा जाता है. यही उस की एक साल की ट्रेनिंग थी. कोलकाता में वह धर्मतल्ला में एक कमरे के फ्लैट में एक अन्य युवक के साथ शेयर कर के रहता था.

मटियाबुर्ज धर्मतल्ला से लगभग 13 किलोमीटर दूर है. इस का भी एक इतिहास है, अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने अंगरेजों के चंगुल से भाग कर यहीं आ कर शरण ली थी. मटियाबुर्ज बहुत गंदा इलाका था और वहां मुख्यता: अनस्किल्ड लेबर ही रहते थे. ज्यादातर मजदूर बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश से आते हैं.

समीर वर्कशौप जाने के लिए फ्लैट से थोड़ी दूर पैदल चल कर धर्मतल्ला बस स्टौप से सुबह 8 बजे की बस पकड़ता था. 9 बजे तक उसे औफिस पहुंचना होता था. उस के फ्लैट से कुछ दूरी पर स्थित एक फ्लैट से एक युवती भी रोज उसी बस को पकड़ती थी.

शुरू में तो समीर को उस में कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन लगातार एक ही स्टैंड से रोज बस पकड़ने, एक ही बस में आनेजाने से समीर का उस युवती के प्रति खासा आकर्षण हो गया था.

वैसे, दोनों में कभी कोई बातचीत नहीं हुई थी, पर कभीकभी नजरें चुरा कर समीर उसे देख लेता था. वह गेहुएं रंग के चेहरे वाली भोलीभाली युवती थी. कभीकभी भीड़ के कारण यदि उसे सीट नहीं मिलती तो वह उस युवती के बगल वाली लेडीज सीट पर जा बैठता था. तब वह युवती थोड़ा और सिमट कर खिड़की से बाहर देखने लगती थी. कभी वह उसे देखती तो समीर झट से अपनी आंखें दूसरी ओर फेर लेता.

समीर उस से बातचीत करना चाहता था पर खुद पहल न कर पाया. उस युवती ने भी उस से आगे बढ़ कर कभी हायहैलो तक न की.

एक दिन अचानक बसों की हड़ताल हो गई. सुबह तो समीर और उस युवती को बस मिल गई थी, पर लौटते वक्त बसें नहीं चल रही थीं. तो समीर अपने बौस की कार से घर आ रहा था. कंपनी की गाड़ी थी, ड्राइवर चला रहा था. कार में पीछे की सीट पर समीर अपने बौस और कंपनी के एक और अफसर के साथ बैठा था तभी समीर ने खिद्दीरपुर बस स्टौप पर उस युवती को देखा. पहले तो उसे संकोच हुआ पर उस ने साहस कर बौस से उस युवती को लिफ्ट देने की विनती की.

बौस ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, कोई चक्कर चल रहा है क्या?’’

समीर बोला, ‘‘नो सर, मैं तो उस का नाम भी नहीं जानता. बस, काफी दिनों से हम दोनों एक ही बस पकड़ते हैं. आज तो उसे बस मिलने से रही और टैक्सी की भी डिमांड इतनी ज्यादा है कि वह भी उसे शायद न मिले.’’

ड्राइवर ने कार रोक कर हौर्न बजाया पर युवती ने उन की ओर देखा ही नहीं. तभी समीर ने खिड़की से बाहर सिर निकाल कर आवाज दी. ‘‘हैलो मैडम, आप ही को बोल रहा हूं. आज कोई बस नहीं मिलने वाली और टैक्सी की भी किल्लत है. हमारी कार में बैठ जाएं, बौस हमें धर्मतल्ला स्टौप पर ड्रौप कर देंगे.’’

पहले तो वह संकोच कर रही थी, पर बाद में समीर के कहने पर वह आ कर ड्राइवर की बगल वाली सीट पर थैंक्स कह कर बैठ गई. पिछली सीट पर तो 3 लोग पहले से ही बैठे थे.

धर्मतल्ला स्टौप पर उतर कर समीर और उस युवती ने बौस को थैंक्स कहा. समीर का भी थैंक्स करते हुए वह अपने घर की ओर चल दी. समीर सोच रहा था कि आज वह थैंक्स के अलावा और कुछ भी बात करेगी, पर ऐसा नहीं हुआ. समीर मन ही मन चिढ़ गया और उस ने भी आगे कुछ नहीं कहा. दोनों अपनेअपने घर की ओर चल दिए.

लेकिन अगले दिन बस स्टौप पर समीर ने उस युवती से गुडमौर्निंग कहा तो उस ने होंठों ही होंठों में कुछ कहा और मुसकरा कर सिर झुका कर बस का इंतजार करने लगी. इसी तरह कुछ दिनों तक समीर गुडमौर्निंग कहता और वह होंठ फड़फड़ा कर धीरे से गुडमौर्निंग का जवाब दे देती.

एक बार 2 दिनों से वह युवती बस स्टौप पर नहीं मिली तो समीर का मन बेताब हो गया. तीसरे दिन जब वह मिली तो समीर ने अपने पुराने अंदाज में गुडमौर्निंग कहा. युवती आज खुल कर मुसकराई और उस ने धीरे से गुडमौर्निंग कहा. बस आई और दोनों बस में चढ़े, लेकिन युवती से कोई बात नहीं हो पाई.

अगले दिन जब समीर को युवती की बगल वाली सीट पर बैठने का मौका मिला तो वह उस से पूछ बैठा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? आप इधर बीच में 2 दिन नहीं आई थीं.’’

‘‘ऐसे ही, घर में कुछ काम था,’’ युवती ने जवाब दिया.

समीर बोला, ‘‘अच्छा, अपना नाम तो बताएं. मेरा नाम समीर है.’’

फिर दोनों हंस पड़े. दरअसल, समीर की शर्ट की जेब पर उस का आईडी कार्ड टंगा था, जिसे युवती ने पहले ही देख लिया था. अगले दिन बस स्टौप पर समीर ने फिर उस का नाम पूछा तो वह बोली, ‘‘समझ लें, जिस का कोई नाम नहीं होता उसे क्या कहते हैं…’’

‘‘उसे तो अनामिका कहते हैं,’’ समीर बोला. इस बीच कोई लेडी पैसेंजर आ गई और समीर को सीट छोड़नी पड़ी. उस ने खड़ा होते हुए कहा, ‘‘तब तो तुम्हारा नाम अनामिका होना चाहिए.’’

अब दोनों में थोड़ीबहुत बातचीत होने लगी थी और कुछ मेलजोल भी बढ़ गया था. कुछ हफ्ते बाद एक दिन औफिस से समीर को जल्दी छुट्टी मिली तो वह बस से लौट रहा था कि रास्ते से अनामिका भी उसी बस में चढ़ी. दोपहर में बस में उतनी भीड़ नहीं थी तो वह भी समीर के बगल वाली सीट पर बैठ गई और पूछा, ‘‘आज का दिन वर्कशौप में कैसा रहा? इस समय तो कभी तुम्हें लौटते देखा नहीं है.’’

समीर बोला, ‘‘आज तो बौस ने मुझे सरप्राइज दिया है. उन्होंने कहा कि बाकी 2 महीने की ट्रेनिंग रांची के मैरिन इंजन प्लांट में लेनी है. कंपनी की एक फैक्टरी वहां भी है और टे्रनिंग के बाद मेरी पोस्टिंग भी उसी फैक्टरी में होगी. 3-4 दिनों में जाना होगा.’’

अनामिका बोली, ‘‘चलो, अच्छी बात है. तुम्हारी ट्रेनिंग पूरी होने जा रही है. यहां मेरे औफिस में भी मेरे ट्रांसफर की बात चल रही है.’’

अगले दिन समीर को वर्कशौप नहीं जाना था, फिर भी वह रोज की तरह बस स्टौप पर अनामिका से मिलने पहुंच गया. पर आज वह नहीं आई थी. दूसरे दिन वह समीर को उसी स्टौप पर मिली तो उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है, मैं कल भी यहां आया था पर तुम नहीं मिलीं?’’

अनामिका बोली, ‘‘कल लड़के वाले मुझे देखने आए थे, इसलिए औफिस नहीं जा सकी थी.’’

समीर ने निराश होते हुए बस ‘ओह’ कहा और चुप हो गया.

अनामिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

समीर के ‘कुछ नहीं’ कहते ही बस आ गई और अनामिका चढ़ते हुए बोली, ‘‘शाम को 4 बजे वाली बस से लौटूंगी.’’

हालांकि अनामिका ने उसे शाम को स्टौप पर मिलने को नहीं कहा था, पर समीर वहां मौजूद था. शायद अनामिका की भी यही इच्छा रही होगी. उस के बस से उतरते ही समीर बोला, ‘‘चलो, आज बगल वाले कौफी हाउस में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

अनामिका सहर्ष तैयार हो गई. दोनों ने साथ बैठ कर कौफी पी. वहां समीर ने पूछा, ‘‘कल तुम्हें लड़के वाले देखने आए थे न? तो मेरा विकेट तो डाउन हो गया न. मैं क्लीन बोल्ड हो गया.’’

अनामिका बोली, ‘‘नहीं. वह नो बौल थी. तुम आउट होने से बच गए.’’

‘‘क्या मतलब?’’ कहते हुए समीर के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

‘‘उन्होंने मुझे रिजैक्ट कर दिया,’’ अनामिका बोली.

‘‘पर ऐसा क्यों किया. जो भी हो, मेरे लिए तो अच्छा ही है. मुझे नो बौल पर एक और चांस तो मिला.’’

अनामिका बोली, ‘‘एक और चांस नहीं, फ्री हिट का मौका भी मिला है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ समीर ने पूछा तो वह बैग से एक लिफाफा निकाल कर समीर की ओर बढ़ाती हुई बोली,

‘‘यह देखो, आज मुझे भी ट्रांसफर और्डर मिला है. मेरी पोस्टिंग भी रांची में हुई है, हुआ न नो बौल विद फ्री हिट.’’ और दोनों हंसते हुए कौफी हाउस से निकल पड़े.

सदमा : मन्नू भाई और बालकनी वाली डौली

रविवार की अलसाई सुबह थी. 9 बज रहे थे, मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई अधखुली आंखें लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए अपने फ्लैट की बालकनी में जा पहुंचे और पूरा मुंह खोल कर एक बड़ी सी उबासी ली. तभी उन की नजर सामने पड़ी. उन का मुंह खुला का खुला रह गया.

दरअसल, मन्नू भाई के सामने के फ्लैट, जो तकरीबन 6 महीने से बंद पड़ा हुआ था, की बालकनी में 40-45 साल की एक खूबसूरत औरत खड़ी थी. गुलाबी रंग का गाउन पहने वह अपने गीले बालों को बारबार तौलिए से पोंछते हुए कपड़े सुखा रही थी.

वह औरत पूरी तरह से बेखबर अपने काम में मगन थी, लेकिन मन्नू भाई पूरी तरह से चौकस, अपनी आंखों को खोल कर नयन सुख लेने में मशगूल थे.

‘चांद का टुकड़ा हमारे घर के सामने और हमें खबर तक नहीं’, मन्नू भाई मन ही मन बुदबुदाए.

‘‘अजी कहां हो, चाय ठंडी हो रही है,’’ तभी उन की पत्नी शशि की तेज आवाज आई.

मन्नू भाई तुरंत संभल गए.

‘‘हां, आया,’’ कह कर उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘इसे भी अभी ही आना था.’ फिर से मन्नू भाई ने सामने बालकनी की ओर देखा, पर वहां अब कोई नहीं था.

‘इतनी जल्दी चली गई,’ सोचते हुए बुझे मन से मन्नू भाई अंदर कमरे में आ गए और चाय पीने लगे.

मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई एक सरकारी महकमे में थे. घर में सुंदर, सुशील पत्नी शशि, 2 प्यारे बच्चे, एक मिडिल क्लास खुशहाल परिवार था मन्नू भाई का. पर ‘मन्नू भाई’ तबीयत से जरा रूमानी थे. या यों कहिए कि आशिकमिजाज. उन की इसी आदत की वजह से वे कालेज में कई बार पिटतेपिटते बचे थे.

औरतों से बात करना उन्हें बड़ा भाता था. दफ्तर में साथ काम करने वाली औरतें भी उन से इसलिए जरा दूर ही रहती थीं. अपनी पत्नी उन्हें ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ लगती थी.

मन्नू भाई खाने के भी बड़े शौकीन थे. इसी वजह से ‘तोंद’ बाहर निकल आई थी, जिसे ‘बैल्ट’ के सहारे सही जगह टिकाए रखने की नाकाम कोशिश वे बराबर करते रहते थे.

सिर पर अब चंद ही बाल बचे थे. नएनए शैंपू, तेल और खिजाब के अंधाधुंध इस्तेमाल से खोपड़ी असमय ही चांद की शेप में आ गई थी, फिर भी वे अपनेआप को किसी ‘फन्ने खां’ से कम नहीं समझते थे.

हर जानपहचान वाली औरत को देखते ही मुसकरा कर नमस्कार करना, आगे बढ़ कर उस का हालचाल पूछना उन की दिनचर्या में शामिल था.

आज का रविवार बड़ा खुशनुमा गुजरा. मन्नू भाई ने बच्चों को डांटा नहीं. पत्नी के हाथ के खाने की जी खोल कर तारीफ की. घर वाले हैरान थे कि आज हो क्या रहा है. असली बात तो मन्नू भाई ही जानते हैं. जब सुबह की इतनी खूबसूरत शुरुआत हो, तो दिन तो अच्छा गुजरना ही था.

सोमवार की सुबह मन्नू भाई तैयार हो कर दफ्तर जाने को निकले, इस से पहले वे 4 चक्कर बालकनी के लगा आए थे. कपड़े जरूर सूख रहे थे, पर वह कहीं नजर नहीं आई. वे मन मसोस कर दफ्तर जाने की तैयारी करने लगे.

‘‘आज आप बारबार बालकनी में क्यों जा रहे हैं? कुछ हुआ है क्या?’’ शशि 2-3 बार सवाल पूछ चुकी थी.

बिना कोई जवाब दिए मन्नू भाई नीचे उतर आए, देखा कि स्कूटर पंचर है. घड़ी की ओर नजर डाली, 9 बज चुके थे. बस से जाने का समय निकल चुका था.

मन्नू भाई ने शशि को फोन मिलाया, ‘‘शशि, कार की चाबी भेज दो. स्कूटर पंचर है.’’

‘‘अच्छा…’’ शशि ने अपनी कामवाली बाई रेणु को चाबी दे कर कहा, ‘‘जा रेणु, नीचे साहब को चाबी दे आ.’’

तभी मन्नू भाई की आंखें खुशी से चमकने लगीं. बाहर गेट पर वह कल वाली ‘पड़ोसन’ खड़ी थी.

आदत के मुताबिक, वे लंबेलंबे डग भरते हुए ठीक उस के सामने जा पहुंचे, ‘‘जी नमस्ते, मैं मन्नू भा… मन्नू…’’ फिर वे संभल कर बोले, ‘‘आप के सामने वाले फ्लैट में रहता हूं. लगता है, आप यहां नई आई हैं.’’

खुले हुए कटे बाल, गोरा रंग… वह चुस्त ड्रैस पहने हुए थी. मन्नू भाई खुशी के मारे कांपने लगे, ‘सिंगल ही है.’ वह बोली, ‘‘हैलो, मैं डौली. जी हां, मैं यहां पर 2-4 दिन पहले ही शिफ्ट हुई हूं.’’

अब तक आंखों से पूरा मुआयना कर चुके मन्नू भाई बोले, ‘‘आप क्या कहीं जा रही हैं. मैं छोड़ देता हूं.’’

‘‘साहब, चाबी…’’ बिना बाई की ओर देखे ही मन्नू भाई ने हाथ बढ़ा कर चाबी ले ली. बाई मुंह बिचकाते हुए चली गई. ‘‘हां, मार्केट तक जाना है. कोई टैक्सी भी नहीं दिख रही,’’ वह बोली.

‘‘अरे, मैं उसी तरफ जा रहा हूं. आइए चलिए,’’ कार का दरवाजा खोल कर बड़े मीठे लहजे में मन्नू भाई ने कहा.

उस औरत ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओके थैंक्स,’’ बोल कर वह आगे वाली सीट पर बैठ गई. मन्नू भाई का दिल बल्लियों उछलने लगा. अपने चार बालों पर हाथ फेरा, बैल्ट से पैंट को ऊपर खींच कर जीत की मुसकान के साथ वे स्टेयरिंग पर बैठ गए.

रास्ते में उन्होंने सब पता कर लिया. वह औरत डौली किसी बैंक में अफसर थी. मुंबई से वह अभी यहां प्रमोट हो कर आई थी.

इतने में मार्केट आ गया. ‘थैंक्स’ कह कर वह मुसकराते हुए अपने बैंक की तरफ बढ़ गई और मन्नू भाई… वे तो खुशी के मारे पगला गए, उन की उम्मीद से परे डौली लिफ्ट ले कर उन के साथ आई थी. अभी तक कार में उस के परफ्यूम की महक मौजूद थी.

एक गहरी सांस ले कर मन्नू भाई एक रोमांटिक गाना गुनगुनाते हुए अपने दफ्तर की ओर बढ़ गए.

आजकल मन्नू भाई सुबह जल्दी उठ जाते. शशि हैरान थी. धक्के देदे कर उठाने पर भी उठने वाले उन के पति अपनेआप ही सुबह जल्दी उठ जाते और सुबह की चाय वे बालकनी में बैठ कर ही पीते.

शशि के आते ही वे अखबार में मुंह दे कर बैठ जाते और उस के जाते ही आधा अखबार नीचे सरका कर ‘नयन सुख’ लेने में मशगूल हो जाते.

डौली कभी कपड़े सुखाती, कभी चाय पीती, कभी यों ही दिख ही जाती थी. अब तो गाहेबगाहे मन्नू भाई उसे लिफ्ट भी दे दिया करते थे. जिंदगी में कभी इतनी बहार भी आएगी, यह मन्नू भाई ने सोचा भी न था.

15 दिन मौज से बीते. आज रविवार था. बच्चे जिद कर रहे थे कि आज शाम को घूमने चलेंगे. खुश होते हुए मन्नू भाई ने वादा किया, ‘‘हां, शाम को पक्का चलेंगे.’’

शाम को वे अपनी पत्नी शशि और दोनों बच्चों को ले कर चौपाटी, जो उन के घर के पास ही ‘मिनी शौपिंग माल’ था, पहुंच गए. खाने के शौकीन मन्नू भाई सीधे गोलगप्पे की दुकान पर पहुंचे, ‘‘चल भई खिला दे सब को,’’ और्डर मार कर वे गपागप ‘गोलगप्पे’ खाने में जुट गए.

अभी 4-5 ही खाए थे कि देखा सामने से डौली चली आ रही थी. ‘‘हैलो मन्नूजी,’’ उस ने पास आ कर मुसकरा कर बोला. पत्नी की सवालिया नजरें ताड़ कर मन्नू भाई ने संभल कर बोला, ‘‘जी, नमस्ते.’’

गोलगप्पे वाला तब तक एक और गोलगप्पा मन्नू भाई की ओर बढ़ा कर बोला, ‘‘साहब, यह लो.’’

तभी सामने से एक नौजवान लड़का और एक हैंडसम सा अधेड़ आदमी डौली के पास आ कर खड़े हो गए.

गोलगप्पे वाले से गोलगप्पा ले कर मन्नू भाई ने जैसे ही मुंह में रखा, डौली बोली, ‘‘मन्नूजी, ये हैं मेरे पति और यह मेरा बेटा.’’

इतना सुनते ही गोलगप्पा मन्नू भाई के गले में फंस गया. बड़े जोर का ‘ठसका’ लगा और गोलगप्पे का पानी नाकमुंह से बहने लगा. पानी तीखा था. आंख, नाक, मुंह सब में जलन होने लगी. वे खांसने लगे. इतनी जोर का झटका लगा कि वे अचानक सदमे में आ गए. शशि दौड़ कर पानी ले आई और बोली, ‘‘कितनी बार कहा है कि जरा धीरे खाओ, पर सुनते कहां हो…’’

‘‘जी, मैं इन की पत्नी शशि, ‘‘उस ने डौली से कहा.

‘‘आप से मिल कर खुशी हुई,’’ डौली बोली.

‘‘चलो मम्मी…’’ डौली का बेटा बोला.

‘‘चलो डार्लिंग.’’

डौली ने एक हाथ से बेटे का, दूसरे हाथ से पति का हाथ थामा और बोली, ‘‘बाय मन्नूजी, अपना ध्यान रखना.’’

‘‘कौन थी ये? ये आप को कैसे जानती है?’’ मन्नू भाई की पत्नी शशि सवालों के गोले दाग रही थी और वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े डौली को जाते हुए देख रहे थे.

कितना बड़ा सदमा पहुंचा था उन्हें, सिर्फ और सिर्फ उन का मन ही जानता था. क्या समझा था उन्होंने डौली को और वह… क्या निकली, उन के प्यार का फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया. रस्तेभर मन्नू भाई चुप रहे. दूसरे दिन सवेरे फिर शशि ने धक्के देदे कर उठाया, ‘‘दफ्तर नहीं जाना क्या?’’ वह फिर हैरान थी. उस की समझ में कुछ नहीं आया.

मन्नू भाई थकहार कर बिस्तर से उठ ही गए, तैयार हो कर स्कूटर की चाबी ले कर जाने लगे.

शशि बोली, ‘‘आज कार नहीं ले जाओगे क्या?’’

वीरान आंखों से मन्नू भाई ने बालकनी की ओर देखा. शीशे का दरवाजा बंद था, फिर मुंह लटका कर चल दिए. वे शशि को कैसे बताते कि उन्हें कितना बड़ा सदमा लगा है. अब न जाने कितने दिन लगेंगे उन्हें इस सदमे से बाहर आने में.

तिगनी का नाच : खूबसूरत लड़कियों की चालबाजी

साहेबान, लोग कहते हैं कि खूबसूरत लड़कियां तो अच्छेअच्छों को तिगनी का नाच नचा देती हैं. एक समय था, जब हम इस बात से बिलकुल सहमत नहीं थे. हमारा मानना था कि मर्द लोग औरतों को तिगनी का नाच नचाते हैं. लेकिन पिछले दिनों हमारे दफ्तर में जो तमाशा हुआ था, उस की बदौलत हमें आज यकीन करना पड़ रहा है कि औरतें मर्दों को न केवल तिगनी का नाच नचा सकती हैं, बल्कि चाहें तो वे पूरी दुनिया पर राज भी कर सकती हैं.

उस दिन सोमवार था. दफ्तर में कदम रखने पर हमें अपनी एडवरटाइजिंग एजेंसी के गिनेचुने चेहरे ट्यूबलाइट की तरह चमकते दिखाई दिए. हम से रहा नहीं गया. हम ने तुरंत अपने दफ्तर के सुपरस्टार कन्हई चपरासी से पूछा, ‘‘क्यों भैया कन्हई, आज सभी के चेहरों पर बोनस मिलने वाली खुशी क्यों दिखाई दे रही है?’’

कन्हई ने फौरन अपने तंबाकू खाने से काले पड़े दांत दिखाए और बोला, ‘‘अविनाश बाबू, आज दफ्तर में दिल्ली वालों की जबान में ‘टोटा’, यूपी वालों की जबान में ‘छमिया’ और बिहार वालों की जबान में ‘कट्टो’ काम करने आ रही है.’’

दफ्तर में काम करने वाली लड़कियों का आनाजाना लगा ही रहता था, इसलिए हम ने कन्हई की बात को हलके तौर पर लिया और अपने काम में लग गए.

ठीक 11 बजे कन्हई की ‘छमिया’ ने दफ्तर में कदम रखा. उस पर नजर पड़ते ही हमें अपने दिल की धड़कन रुकती सी महसूस हुई. सही में ‘कट्टो’ थी वह. लंबा कद, दूध जैसा रंग, सेब जैसे गाल, रसभरे होंठ, बड़ीबड़ी आंखें, कमर तक लंबे बाल और बदन की नुमाइश करते मौडर्न कपड़े.

उसे देखते ही हमें यकीन करना पड़ा कि उस का बस चलता, तो वह पूजा भट्ट की तरह शरीर पर पेंट करा कर दफ्तर आती. दफ्तर की डिगनिटी मेनटेन रखने के लिए उस ने मजबूरी में कपड़े पहने थे.

उस का डैस्क मेरे डैस्क के सामने था, लिहाजा उस पर बैठने के लिए वह थोड़ा झुक गई. उस का झुकना था कि उस के उभार न चाहते हुए भी हमारी आंखों में गड़ कर रह गए.

यह नजारा देख कर हमारा कलेजा मुंह को आने में एक पल भी नहीं लगा. काफी देर तक हम चुपचाप बैठे रहे और अपनी तख्ती जैसी सपाट बीवी को पानी पीपी कर कोसते रहे. वह ‘छमिया’ की तरह हरीभरी क्यों नहीं थी? वह एक तख्ती की तरह क्यों थी?

ऐसी बात नहीं थी कि उस ‘छमिया’ के अंग प्रदर्शन से बस हमारी ही हालत पतली हुई थी. हम से ज्यादा बुरी हालत तो चौबेलालजी की थी. वे रहरह कर सांप की तरह जीभ बाहर निकाल कर अपने सूखे होंठों को तर कर रहे थे.

‘छमिया’ के अंग प्रदर्शन से दिलीप का चश्मा ही चटक गया था. वे अपने बैग से फौरन दूसरा चश्मा नहीं निकालते, तो शायद उन्हें टूटे चश्मे से ही पूरा दिन गुजारना पड़ जाता. ‘छमिया’ की जवानी की नुमाइश ने मीना को हीन भावना के गहरे कुएं में धकेल दिया था, क्योंकि वह भी हमारी बीवी की तरह तख्ती जैसी थी.

ठीक 12 बजे ‘डाकू हलाकू’ ने दफ्तर में कदम रखा. साहेबान, हमारे अन्नदाता बौस दफ्तर में इसी नाम से जाने जाते हैं. उन का चेहरा विलेन अमरीश पुरी की तरह लगता था, लेकिन उस दिन उन की निगाह झुक कर काम कर रही ‘छमिया’ के उभारों पर पड़ी, तो उन का चेहरा कौमेडियन जौनी लीवर की तरह दिखाई देने लगा. उन्होंने फौरन ‘छमिया’ को चैंबर में आने का आदेश दिया.

‘छमिया’ बड़ी अदा से उठी. उस ने हाथों से ही अपना हुलिया ठीक किया और कूल्हे मटकाते हुए ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर में घुस गई.

उस की चाल देख कर एक बार तो हमारा भी मन हुआ कि हम अपनी मानमर्यादा को भूल कर उसे वहीं दबोच लें और फिर ‘इंसा का तराजू’ फिल्म शूट कर डालें.

पर चूंकि हम डालडा घी की पैदाइश थे, इसलिए हम ने अपने मन को जबरन मारा और अपने काम में लग गए. 15 मिनट बाद ‘छमिया’ ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर से बाहर आई, तो लुटीपिटी दिखाई दे रही थी. उस के सलीके से प्रैस किए कपड़ों पर जगहजगह से सिलवटें दिखाई दे रही थीं.

सीट पर बैठते ही वह भुनभुनाई, ‘‘यह भी कोई बात हुई. काम 2 लोगों का और तनख्वाह एक की. सैक्रेटरी वाला काम कराना था, तो तनख्वाह भी उसी हिसाब से देनी थी…’’

अगले दिन भी यही किस्सा हुआ. ‘छमिया’ ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर से भुनभुनाते हुए बाहर आई और अपनी सीट पर बैठ कर बड़बड़ाई, ‘‘नहीं चलेगा. बिलकुल नहीं चलेगा. तनख्वाह एक जने की और काम 2 जनों का. इस टकलू को तिगनी का नाच न नचाया, तो मेरा नाम भी नताशा नहीं.’’

चूंकि हमारे अन्नदाता के हम पर ढेरों एहसान थे, इसलिए हम उन के फेवर में बोले, ‘‘मैडम, हमारे बौस ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. वे चाहें तो तुम्हें चींटी की तरह मसल सकते हैं.’’

हमारी इस बात पर ‘छमिया’ खूंटा तुड़ी गाय की तरह हमारे करीब आई और भौंहों को सींगों के आकार में ढालते हुए बोली, ‘‘कितने की शर्त लगाते हो?’’

हमारा उस से शर्त लगाने का कोई इरादा नहीं था, फिर भी न जाने कैसे हमारे मुंह से निकल गया, ‘‘सौसौ रुपए की. आप ने हमारे अन्नदाता को तिगनी का नाच नचाया, तो सौ रुपए हमारी तरफ से और उन्होंने आप को चींटी की तरह मसल…’’

‘‘मुझे मंजूर है…’’ हमारी बात पूरी होने से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘‘कल आप सौ रुपए तैयार रखना.’’

हम जानते थे कि इस जंग में हार सरासर ‘छमिया’ की होगी, इसलिए हम ने अगले दिन सौ रुपए तैयार रखने का वादा फौरन कर दिया. अगले दिन ‘छमिया’ ने दफ्तर में कदम रखा, तो हमारा दिल मानो धड़कना बंद हो गया. उस कमबख्त ने सच में सौ रुपए हमारी जेब से निकलवाने की सोच रखी थी.

मिनी स्कर्ट और चुस्त टौप में उस की जवानी फूटफूट कर बाहर आ रही थी. उस का डैस्क हमारे डैस्क के सामने था, इसलिए जब वह अपनी जगह पर बैठी, तो हमारी सांसें गले में फंसने लगीं.

हम ने तुरंत पानी के गिलास का सहारा लिया, वरना दफ्तर में यकीनन एंबुलैंस बुलानी पड़ जाती. जैसेतैसे हम ने अपना ध्यान उस की चिकनी टांगों से हटाया और अपने काम में बिजी हो गए. ठीक समय पर ‘डाकू हलाकू’ दफ्तर में आया और ‘छमिया’ को इशारा कर के अपने चैंबर में चला गया.

‘छमिया’ अपनी जगह से उठ कर हमारे सामने आई और हाथ फैला कर बोली, ‘‘जल्दी से सौ रुपए निकालो.’’

हम किसी अडि़यल घोड़े की तरह बिदके, ‘‘पहले ‘डाकू हलाकू’ को तिगनी का नाच तो नचाओ.’’

‘‘मैं वही काम करने जा रही हूं…’’ ‘छमिया’ बड़े सब्र से बोली, ‘‘थोड़ी देर बाद तुम्हारे साहब तुम्हारे सामने बिना कपड़ों के आ गए, तो मेरे खयाल से यह तिगनी का नाच ही होगा?’’

‘‘बिलकुल होगा…’’ हमारा सिर हैंडपंप के हत्थे की तरह हिला, ‘‘लेकिन यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’

‘‘बहाने मत बनाओ और सौ रुपए का नोट निकाल लो.’’

‘‘सौ रुपए निकालने में हमें कोई हर्ज नहीं है…’’ हम बड़ी उदारता से बोले, ‘‘लेकिन मोहतरमा, हमें पता तो चले कि आप यह तमाशा दिखाने में कैसे कामयाब होंगी?’’

‘‘देखो, मेरे पास क्लोरोफार्म है…’’ ‘छमिया’ बोली, ‘‘तुम्हारे अन्नदाता जब मुझ से सैक्रेटरी वाला काम लेंगे, तब मैं उन्हें किसी तरीके से क्लोरोफार्म सुंघा दूंगी. उन के बेहोश होने के बाद मैं उन के सारे कपड़े अपने कब्जे में करूंगी और फिर कुछ फाइलों में आग लगा कर यहां से रफूचक्कर हो जाऊंगी.’’

हम ‘छमिया’ को यों देखने लगे, मानो वह वाकई यह काम करने जा रही है. थोड़ी देर बाद हमारे मुंह से निकला, ‘‘सारी बात समझ में आ गई, लेकिन फाइलों को आग लगाने वाली बात…’’

‘‘आग लगने पर ही तो तुम्हारा टकलू बिना कपड़ों के बाहर आएगा…’’ वह खीज कर बोली, ‘‘अब तुम मेरा कीमती समय बरबाद न करो और जल्दी से सौ रुपए निकालो.’’

हालांकि ‘छमिया’ का मनसूबा सिक्काबंद था, फिर भी हमें ‘डाकू हलाकू’ पर सौ फीसदी यकीन था. लिहाजा, हम ने अपने बटुए से सौ रुपए निकाले और ‘छमिया’ के हवाले कर दिए.

‘छमिया’ ने सौ का नोट अपनी गुप्त जेब में ठूंसा और हाई हील के सैंडिल ठकठका कर ‘डाकू हलाकू’ के चैंबर में घुस गई.

पौने घंटे बाद छमिया बाहर आई. अपना अंगूठा दिखा कर जब उस ने अपनी जीत की तसदीक की, तो हमारा दिल सौ रुपए के गम में डूबने सा लगा. उस समय ‘छमिया’ के हाथ में एक पौलीथिन बैग था. उस ने बैग में रखे हमारे अन्नदाता के कपड़े दिखाए और वहां से फुर्र हो गई.

तभी हमें अपने अन्नदाता के चैंबर से धुआं बाहर निकलता दिखाई दिया. चूंकि हम जानते थे कि हमारे बौस बेहोशी की हालत में पड़े होंगे, इसलिए हम फौरन अपनी जगह से उठे और उन के चैंबर की तरफ बढ़ गए. इस से पहले कि हम चैंबर का दरवाजा खोल पाते ‘आगआग’ का शोर मचा कर ‘डाकू हलाकू’ अपने चैंबर से बाहर निकल आए. यकीनन छमिया ने उन्हें कम मात्रा में क्लोरोफार्म सुंघाया था.

उस समय वाकई उन की हालत देखने लायक थी. लिहाजा, सभी के मुंह से एक चीख सी निकल गई.

‘डाकू हलाकू’ के जब होशोहवास जागे, तो वे मारे शर्म के छलांगें मार कर स्टोररूम में घुस गए.

साहेबान, ऐसी बात नहीं है कि इस तमाशे में सारा कुसूर ‘डाकू हलाकू’ का था. हम उन्हें जरा भी दोष नहीं देंगे. पर हम इतना जरूर कहेंगे कि मुंह बंधा कुत्ता कभी शिकार नहीं करता. ‘छमिया’ ने डबल तनख्वाह के लालच में भड़काऊ कपड़े पहन कर उन के मुंह खून लगाया था. छमिया यह सब नहीं करती, तो यह तमाशा भी नहीं होता.

आज की तारीख में हमें अन्नदाता ‘डाकू हलाकू’ से पूरी हमदर्दी है, फिर भी तमाशे के दौरान उन की हालत देख कर हम यही कहेंगे कि जिस औरत ने ‘डाकू हलाकू’ को भरे दफ्तर में नंगा कर दिया, वह कोशिश करे तो क्या नहीं कर सकती.

बोली : ठाकुर ने लगाई ईमानदार अफसर की कीमत

नौकर गणेश ने आ कर ठाकुर सोहन सिंह से घबराते हुए कहा, ‘‘हुजूर, थानेदार साहब आए हैं.’’

‘‘क्या कहा, थानेदार साहब आए हैं…’’ चौंकते हुए सोहन सिंह बोले, ‘‘उन्हें बैठक में बिठा दे. मैं अभी आया.’’

‘‘अच्छा हुजूर,’’ कह कर गणेश चला गया.

ठाकुर सोहन सिंह सोचते रह गए कि थानेदार राम सिंह आज उन की हवेली में क्यों आए हैं?

इस क्यों का जवाब उन के पास नहीं था, मगर थानेदार साहब का हवेली में आना कई बुरी शंकाओं को जन्म दे गया.

जब राम सिंह इस थाने के थानेदार बन कर आए थे, तब ठाकुर सोहन सिंह बड़े खुश हुए थे कि नया थानेदार किसी ठाकुर घराने का ही है और ठाकुर होने के नाते वे उन से हर तरह का फायदा उठाते रहेंगे. जैसा कि वे अब तक हर थानेदार से उठाते रहे हैं.

जिस दिन राम सिंह ने इस थाने का काम संभाला, उसी दिन ठाकुर सोहन सिंह अपने आदमियों के साथ उन का स्वागत करने थाने में पहुंच गए थे.

वहां जा कर उन्होंने कहा था, ‘हुजूर, इस थाने में आप का स्वागत है. मैं इस गांव का ठाकुर सोहन सिंह हूं.’

‘हां, मुझे मालूम है,’ थानेदार राम सिंह ने बेरुखी से जवाब दिया था.

‘हुजूर, इस गांव में आप किसी तरह की तकलीफ मत उठाना,’ ठाकुर सोहन सिंह उन के रूखेपन की परवाह न करते हुए बोले थे.

‘तकलीफ किस चिडि़या का नाम है? हम पुलिस वालों के शब्दकोश में यह नाम नहीं होता है,’ थानेदार राम सिंह के लहजे में वही अकड़ थी. वे बोले, ‘कहिए, किसलिए आए हैं आप लोग?’

नया थानेदार इस तरह की बेरुखी से सवाल पूछेगा, इस की सोहन सिंह को जरा भी उम्मीद न थी, इसलिए वे शालीनता से बोले थे, ‘बस, आप के दर्शन करने आए हैं हुजूर. आप से भेंटमुलाकात हो जाए और फिर आप का भी काम चलता रहे, साथ में हमारा भी.’

‘कहने का मतलब क्या है आप का?’ थानेदार राम सिंह गुस्से से उबल पड़े.

‘मतलब यह है हुजूर कि हम तो आप से दोस्ती बढ़ाने आए हैं. दोस्ती का रंग खूब निखरे, इस के लिए यह छोटा सा तोहफा लाए हैं,’ एक आदमी से सूटकेस ले कर थानेदार को देते हुए वे बोले, ‘लीजिए हुजूर, हमारी तरफ से तोहफा.’

‘क्या है इस में?’ थानेदार राम सिंह ने पूछा.

‘कहा न, उपहार…’ होंठों पर दिखावटी हंसी बिखेरते हुए ठाकुर सोहन सिंह ने कहा.

‘देखिए ठाकुर साहब, गांव का आदमी होने के नाते मैं आप की इज्जत करता हूं…’ थानेदार राम सिंह जरा नरम पड़ते हुए बोले, ‘आप घूस दे कर मुझे खरीदने की कोशिश मत कीजिए. चुपचाप यह सूटकेस उठाइए और बाहर चले जाइए.’

उस दिन थानेदार की ऐसी धमकी सुन कर ठाकुर सोहन सिंह का खून अंदर ही अंदर खौल उठा था, मगर वे बोले कुछ नहीं थे.

इस थाने में अभी तक जितने भी थानेदार आए थे, उन सब को ठाकुर सोहन सिंह ने खरीद लिया था. फिर पूरे गांव में उन का दबदबा था. मगर उस दिन वे चुपचाप सूटकेस उठा कर चलते बने थे. उस दिन वे इस थानेदार को खरीद नहीं सके थे, इसी का उन्हें मलाल हो रहा था.

थोड़े दिनों में ही थानेदार राम सिंह की ईमानदारी की छाप थाने में फैल चुकी थी.

गांव का ठाकुर होने के चलते सोहन सिंह का पूरे गांव में दबदबा था. लोगों से जमीनें हड़पना उन का धंधा था. कहने को आजकल सरकार ने राजेरजवाड़े सब छीन लिए हैं, मगर ठाकुर सोहन सिंह का अब भी उस इलाके में दबदबा था.

गरीब गांव वालों को ठाकुर सोहन सिंह कर्ज देते थे. कर्ज न चुकाने पर वे उन की जमीन हड़प लेते थे और फिर उन्हें बंधुआ मजदूर बना लेते थे.

जिस दिन ठाकुर सोहन सिंह को थाने से बाहर किया गया, उस की चर्चा पूरे गांव में फैल गई थी. लिहाजा, लोग अब खुल कर सांस लेने लगे थे.

मगर आज अचानक थानेदार राम सिंह का ठाकुर सोहन सिंह की हवेली में आना कई बुरी शंकाओं को जन्म दे गया, इसलिए झटपट तैयार हो कर बैठक में वे आ कर हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘‘पधारिए हुजूर, हमें ही बुला लिया होता. आप ने आने की तकलीफ क्यों की?’’

‘‘ठाकुर साहब, आप के ही गांव के गणपत ने आप के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई है,’’ थानेदार राम सिंह बिना किसी भूमिका के बोले.

यह सुन कर ठाकुर सोहन सिंह ने घबराते हुए पूछा, ‘‘मगर रिपोर्ट क्यों लिखाई उस ने?’’

‘‘आप ने उस की जमीन जबरदस्ती हड़प ली है…’’ थानेदार राम सिंह ने बेफिक्र हो कर कहा, ‘‘सुना है, गांव के गरीब किसानों को आप कर्ज देते हैं और बदले में वे अपनी जमीनें गिरवी रखते हैं. आप उन्हें दारू पिला कर कागज पर उन से अंगूठे का निशान लगवा लेते हैं.’’

‘‘नहीं हुजूर, यह झूठ है. उस से तो पूरे होशोहवास में अंगूठे का निशान लगवाया था,’’ ठाकुर सोहन सिंह की बात में गुस्सा था.

‘‘ठाकुर साहब, ठंडे दिमाग से बात कीजिए,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘माफ करें थानेदार साहब,’’ नरम पड़ते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘गुस्सैल स्वभाव है न, इसलिए…’’

‘‘अपना स्वभाव बदलिए. लोगों के साथ प्रेम से रहना सीखिए,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘देखिए ठाकुर साहब, आप गांव के इज्जतदार आदमी हैं. मैं नहीं चाहता कि गांव का साधारण सा आदमी आप पर कीचड़ उछाले… मेरा इशारा समझ गएन आप?’’

‘‘हां हुजूर, सबकुछ समझ गया…’’ मन में खुश होते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘यह केस रफादफा कर दें, तो मेहरबानी होगी.’’

‘‘मैं ने उस की रिपोर्ट रोजनामचे में नहीं लिखी है, क्योंकि आप की इज्जत का सवाल था,’’ थानेदार राम सिंह ने कहा.

‘‘बहुत अच्छा किया आप ने. आप ने हमारी आपसदारी की लाज रख ली.’’

‘‘पुलिस की नौकरी में आपसदारी नहीं चलती है ठाकुर साहब…’’ सोहन सिंह को नीचा दिखाने के अंदाज में थानेदार राम सिंह ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं आप की मदद करूं और आप मेरी करें, इस बात को समझते हैं न आप?’’

‘‘समझ गया हुजूर, सब समझ गया,’’ फिर सोहन सिंह तिजोरी में से सौसौ की गड्डियां निकाल कर देते हुए बोले, ‘‘लीजिए हुजूर.’’

‘‘समझिए, आप का काम हो गया,’’ गड्डियों को जेब में रखते हुए थानेदार साहब अदा से बोले, ‘‘आप सोच रहे होंगे कि मैं ने यह सब उस दिन क्यों नहीं लिया?’’

‘‘मैं सब समझ गया हुजूर?’’

‘‘क्या समझ गए?’’

‘‘यही कि आप जनता की नजरों में ईमानदार बने रहना चाहते थे…’’ खुश होते हुए ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘मगर हुजूर, आप के काम करने का तरीका अनोखा लगा.’’

‘‘हां ठाकुर साहब, जनता में छवि बनाने के लिए ढोंग का सहारा तो लेना ही पड़ता है…’’ थानेदार राम सिंह बोले, ‘‘फिर आप भी जानते हैं, आजकल थानों की बोली लगती है. मैं इस थाने की बोली 6 लाख रुपए की लगा कर आया हूं. लिहाजा, अब मुझे 6 लाख रुपए का इंतजाम करना पड़ेगा. इसलिए तस्कर, चोर और बदमाशों से रिश्ते रखने पड़ेंगे.’’

‘‘वाह हुजूर, वाह. तब तो आप भी हमारी ही बिरादरी के हैं.’’

‘‘हां ठाकुर साहब, हमारी बिरादरी एक है. अब चलने की इजाजत दें,’’ कह कर थानेदार साहब चले गए.

थानेदार के जाते ही ठाकुर सोहन सिंह खुशी से झूम उठे और अपने नौकर गणेश से बोले, ‘‘अरे, ओ गणेश…’’

‘‘हां हुजूर, कहिए…’’ पास आ कर गणेश बोला.

‘‘थानेदार क्या कह गया, सुना कुछ तू ने?’’

‘‘क्या कह गया हुजूर?’’

‘‘अरे, वह भी इस थाने की बोली लगा कर आया है. अब उस से घबराने की कोई जरूरत नहीं…’’ खुशी से ठाकुर सोहन सिंह बोले, ‘‘ईमानदार के वेश में वह भी बेईमान निकला,’’ इतना कह कर वे अलमारी में से शराब की बोतल निकालने लगे.

स्नेहदान: क्या चित्रा अपने दिल की बात अनुराग से कह पायी

चित्रा बिस्तर पर लेट कर जगजीत सिंह की गजल ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ सुन रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह अपना दुपट्टा संभालती हुई उठी और दरवाजा खोल कर सामने देखा तो चौंक गई. उसे अपनी ही नजरों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस के सामने बचपन का दोस्त अनुराग खड़ा है.

चित्रा को देखते ही अनुराग हंसा और बोला, ‘‘मोटी, देखो तुम्हें ढूंढ़ लिया न. अब अंदर भी बुलाओगी या बाहर ही खड़ा रखोगी.’’

चित्रा मुसकराई और उसे आग्रह के साथ अंदर ले कर आ गई. अनुराग अंदर आ गया. उस ने देखा घर काफी सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ है और घर का हर कोना मेहमान का स्वागत करता हुआ लग रहा है. उधर चित्रा अभी भी अनुराग को ही निहार रही थी. उसे याद ही नहीं रहा कि वह उसे बैठने के लिए भी कहे. वह तो यही देख रही थी कि कदकाठी में बड़ा होने के अलावा अनुराग में कोई अंतर नहीं आया है. जैसा वह भोला सा बचपन में था वैसा ही भोलापन आज भी उस के चेहरे पर है.

आखिर अनुराग ने ही कहा, ‘‘चित्रा, बैठने को भी कहोगी या मैं ऐसे ही घर से चला जाऊं.’’

चित्रा झेंपती हुई बोली, ‘‘सौरी, अनुराग, बैठो और अपनी बताओ, क्या हालचाल हैं. तुम्हें मेरा पता कहां से मिला? इस शहर में कैसे आना हुआ…’’

अनुराग चित्रा को बीच में टोक कर बोला, ‘‘तुम तो प्रश्नों की बौछार गोली की तरह कर रही हो. पहले एक गिलास पानी लूंगा फिर सब का उत्तर दूंगा.’’

चित्रा हंसी और उठ कर रसोई की तरफ चल दी. अनुराग ने देखा, चित्रा बढ़ती उम्र के साथ पहले से काफी खूबसूरत हो गई है.

पानी की जगह कोक के साथ चित्रा नाश्ते का कुछ सामान भी ले आई और अनुराग के सामने रख दिया अनुराग ने कोक से भरा गिलास उठा लिया और अपने बारे में बताने लगा कि उस की पत्नी का नाम दिव्या है, जो उस को पूरा प्यार व मानसम्मान देती है. सच पूछो तो वह मेरी जिंदगी है. 2 प्यारे बच्चे रेशू व राशि हैं. रेशू 4 साल का व राशि एक साल की है और उस की अपनी एक कपड़ा मिल भी है. वह अपनी मिल के काम से अहमदाबाद आया था. वैसे आजकल वह कानपुर में है.

अनुराग एक पल को रुका और चित्रा की ओर देख कर बोला, ‘‘रही बात तुम्हारे बारे में पता करने की तो यह कोई बड़ा काम नहीं है क्योंकि तुम एक जानीमानी लेखिका हो. तुम्हारे लेख व कहानियां मैं अकसर पत्रपत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूं.

‘‘मैं ने तो तुम्हें अपने बारे में सब बता दिया,’’ अनुराग बोला, ‘‘तुम सुनाओ कि तुम्हारा क्या हालचाल है?’’

इस बात पर चित्रा धीरे से मुसकराई और कहने लगी, ‘‘मेरी तो बहुत छोटी सी दुनिया है, अनुराग, जिस में मैं और मेरी कहानियां हैं और थोड़ीबहुत समाजसेवा. शादी करवाने वाले मातापिता रहे नहीं और करने के लिए अच्छा कोई मनमीत नहीं मिला.’’

अनुराग शरारत से हंसते हुए बोला, ‘‘मुझ से अच्छा तो इस दुनिया में और कोई है नहीं,’’ इस पर चित्रा बोली, ‘‘हां, यही तो मैं भी कह रही हूं,’’ और फिर चित्रा और अनुराग के बीच बचपन की बातें चलती रहीं.

बातों के इस सिलसिले में समय कितना जल्दी बीत गया इस का दोनों को खयाल ही न रहा. घड़ी पर नजर पड़ी तो अनुराग ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, रात होने को आई. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

चित्रा बोली, ‘‘तुम भी कमाल करते हो, अनुराग, आधुनिक पुरुष होते हुए भी बिलकुल पुरानी बातें करते हो. तुम मेरे मित्र हो और एक दोस्त दूसरे दोस्त के घर जरूर रुक सकता है.’’

अनुराग ने हाथ जोड़ कर शरारत से कहा, ‘‘देवी, आप मुझे माफ करें. मैं आधुनिक पुरुष जरूर हूं, हमारा समाज भी आधुनिक जरूर हुआ है लेकिन इतना नहीं कि यह समाज एक सुंदर सी, कमसिन सी, ख्यातिप्राप्त अकेली कुंआरी युवती के घर उस के पुरुष मित्र की रात बितानी पचा सके. इसलिए मुझे तो अब जाने ही दें. हां, सुबह का नाश्ता तुम्हारे घर पर तुम्हारे साथ ही करूंगा. अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना.’’

यह सुन कर चित्रा भी अपनी हंसी दबाती हुई बोली, ‘‘जाइए, आप को जाने दिया, लेकिन कल सुबह आप की दावत पक्की रही.’’

अनुराग को विदा कर के चित्रा उस के बारे में काफी देर तक सोचती रही और सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. सुबह जब आंख खुली तो काफी देर हो चुकी थी. उस ने फौरन नौकरानी को बुला कर नाश्ते के बारे में बताया और खुद तैयार होने चली गई.

आज चित्रा का मन कुछ विशेष तैयार होने को हो रहा था. उस ने प्लेन फिरोजी साड़ी पहनी. उस से मेलखाती माला, कानों के टाप्स और चूडि़यां पहनीं और एक छोटी सी बिंदी भी लगा ली. जब खुद को आईने में देखा तो देखती ही रह गई. उसी समय नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, अनुराग साहब आए हैं.’’

चित्रा फौरन नीचे उतर कर ड्राइंग रूम में आई तो देखा कि अनुराग फोन पर किसी से बात कर रहे हैं. अनुराग ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और फोन उस के हाथ में दे दिया. वह आश्चर्य से उस की ओर देखने लगी. अनुराग हंसते हुए बोला, ‘‘दिव्या का फोन है. वह तुम से बात करना चाहती है.’’

अचानक चित्रा की समझ में नहीं आया कि वह क्या बोले लेकिन उस ने उधर से दिव्या की प्यारी मीठी आवाज सुनी तो उस की झिझक भी दूर हो गई.

दिव्या को चित्रा के बारे में सब पता था. फोन पर बात करते समय ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे दोनों पहली बार एकदूसरे से बातें कर रही हैं. थोड़ी देर बाद अनुराग ने फोन ले लिया और दिव्या को हाय कर के फोन रख दिया.

‘‘चित्रा जल्दी नाश्ता कराओ. बहुत देर हो रही है. मुझे अभी प्लेन से आगरा जाना है. यहां मेरा काम भी खत्म हो गया और तुम से मुलाकात भी हो गई.’’

अनुराग बोला तो दोनों नाश्ते की मेज पर आ गए.

नाश्ता करते हुए अनुराग बारबार चित्रा को ही देखे जा रहा था. चित्रा ने महसूस किया कि उस के मन में कुछ उमड़घुमड़ रहा है. वह हंस कर बोली, ‘‘अनुराग, मन की बात अब कह भी दो.’’

अनुराग बोला, ‘‘भई, तुम्हारे नाश्ते व तुम को देख कर लग रहा है कि आज कोई बहुत बड़ी बात है. तुम बहुत अच्छी लग रही हो.’’

चित्रा को ऐसा लगा कि वह भी अनुराग के मुंह से यही सुनना चाह रही थी. हंस कर बोली, ‘‘हां, आज बड़ी बात ही तो है. आज मेरे बचपन का साथी जो आया है.’’

नाश्ता करने के बाद अनुराग ने उस से विदा ली और बढि़या सी साड़ी उसे उपहार में दी, साथ ही यह भी कहा कि एक दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए एक छोटी सी भेंट है. इसे बिना नानुकर के ले लेना. चित्रा ने भी बिना कुछ कहे उस के हाथ से वह साड़ी ले ली. अनुराग उस के सिर को हलका सा थपथपा कर चला गया.

चित्रा काफी देर तक ऐसे ही खड़ी रही फिर अचानक ध्यान आया कि उस ने तो अनुराग का पता व फोन नंबर कुछ भी नहीं लिया. उसे बड़ी छटपटाहट महसूस हुई लेकिन वह अब क्या कर सकती थी.

दिन गुजरने लगे. पहले वाली जीवनचर्या शुरू हो गई. अचानक 15 दिन बाद अनुराग का फोन आया. चित्रा के हैलो बोलते ही बोला, ‘‘कैसी हो? हो न अब भी बेवकूफ, उस दिन मेरा फोन नंबर व पता कुछ भी नहीं लिया. लो, फटाफट लिखो.’’

इस के बाद तो अनुराग और दिव्या से चित्रा की खूब सारी बातें हुईं. हफ्ते 2 हफ्ते में अनुराग व दिव्या से फोन पर बातें हो ही जाती थीं.

आज लगभग एक महीना होने को आया पर इधर अनुराग व दिव्या का कोई फोन नहीं आया था. चित्रा भी फुरसत न मिल पाने के कारण फोन नहीं कर सकी. एक दिन समय मिलने पर चित्रा ने अनुराग को फोन किया. उधर से अनुराग का बड़ा ही मायूसी भरा हैलो सुन कर उसे लगा जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने अनुराग से पूछा, ‘‘क्या बात है, अनुराग, सबकुछ ठीकठाक तो है. तुम ने तो तब से फोन भी नहीं किया.’’

इतना सुन कर अनुराग फूटफूट कर फोन पर ही रो पड़ा और बोला, ‘‘नहीं, कुछ ठीक नहीं है. दिव्या की तबीयत बहुत खराब है. उस की दोनों किडनी फेल हो गई हैं. डाक्टर ने जवाब दे दिया है कि अगर एक सप्ताह में किडनी नहीं बदली गई तो दिव्या नहीं बच पाएगी… मैं हर तरह की कोशिश कर के हार गया हूं. कोईर् भी किडनी देने को तैयार नहीं है. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? मेरा व मेरे बच्चों का क्या होगा?’’

चित्रा बोली, ‘‘अनुराग, परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा. मैं आज ही तुम्हारे पास पहुंचती हूं.’’

शाम तक चित्रा आगरा पहुंच चुकी थी. अनुराग को देखते ही उसे रोना आ गया. वह इन कुछ दिनों में ही इतना कमजोर हो गया था कि लगता था कितने दिनों से बीमार है.

कुंठा : महेश के मन में आखिर क्या थी कुंठा

महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’

जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस.

अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था.

पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है. पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

यह कह कर वह साथी चला गया. महेश ने देखा, तो वह बवासीर का मरीज था. महेश ने उसे नुसखे के मुताबिक समझा दिया और दवा दे दी. पर एक बात के लिए महेश दुविधा में पड़ गया कि उस मरीज के गुप्त भाग की शेविंग करनी थी.

उस की शेविंग कैसे की जाए? अब महेश को अफसोस होने लगा कि यह कैसी नौकरी में वह फंस गया. ड्यूटी उस की थी. उस से पूछा जाएगा.

महेश ने एक उपाय निकाला. मरीज को बुलाया. रेजर में ब्लेड लगा कर उस से कहा, ‘‘अंदर से दरवाजा बंद कर लो और पूरा समय ले कर शेविंग कर डालो.’’

उस मरीज ने हामी में सिर हिलाया और रेजर ले कर चला गया. महेश ने संतोष की सांस ली.

दूसरे दिन जब उस मरीज को औपरेशन के लिए जाना था, तब महेश ही ड्यूटी पर था. वह सोच रहा था कि सब ठीक हो. उस के सीनियर ने उस से पूछा, ‘‘क्या मरीज का ‘प्रीऔपरेटिव’ केयर फालो हुआ?’’

महेश ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

उस सीनियर ने स्क्रीन पर लगा कर मरीज की जांच की. महेश के पास आ कर वह चिल्लाया, ‘‘यह क्या है? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’

यह सुन कर महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे समझा दिया था.’’

वह सीनियर महेश पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हें खुद करना है और यह तय करना है कि मरीज को तुम्हारी लापरवाही के चलते कोई इंफैक्शन न हो.’’

महेश की बोलती बंद हो गई. अगले ही महीने उसे छुट्टी पर घर जाना था. उसे बड़ी कुंठा होने लगी कि यही सब जा कर घर पर बताऊंगा.

अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था. वह पूरी तरह हार मान कर सीनियर के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप को नंगा देखने में शर्म आती है और आप मुझ से उस के गुप्त भाग की शेविंग करने को कह रहे हैं.’’

वह सीनियर तुरंत मुड़ा और मरीज को आवाज दी. उस ने शेविंग का सामान उठाया और कमरे में चला गया. थोड़ी देर बाद वे दोनों बाहर आए.

सीनियर ने महेश से कहा, ‘‘मैं ने इस मरीज की शेविंग कर दी है. किसी लाचार की सेवा करना छोटा या घटिया काम नहीं होता. मैडिकल के प्रोफैशन में औरतमर्द या अंगगुप्तांग नहीं होता, बस एक मरीज होता है और उस का शरीर होता है. तो फिर इस शरीर की साफसफाई करने में किस बात की दिक्कत?’’

इतना कह कर सीनियर चला गया. कितनी आसानी से बिना किसी हीनभावना के उस ने सब कर दिया था. यह देख कर महेश को दुख होने लगा कि उस ने पहले ही ये सब क्यों नहीं किया? उस के अंदर कितनी कुंठा है. उस की नौकरी का असली माने तो यही था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक गया था.

सफर में हमसफर : सुमन की उस रात की कहानी

रात के तकरीबन 8 बजे होंगे. यों तो छोटा शहर होने पर सन्नाटा पसरा रहता है, पर आज भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच था, तो काफी भीड़भाड़ थी. वैसे तो सुमन के लिए कोई नई बात नहीं थी. यह उस का रोज का ही काम था.

‘‘मैडम, झकरकटी चलेंगी क्या?’’

सुमन ने पलट कर देखा. 3-4 लड़के खड़े थे.

‘‘कितने लोग हो?’’

‘‘4 हैं हम.’’

‘‘ठीक है, बैठ जाओ,’’ कहते हुए सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया.

सुमन ने एक ही नजर में भांप लिया था कि वे सब किसी कालेज के लड़के हैं. सभी की उम्र 20-22 साल के आसपास होगी. आज सुबह से सवारियां भी कम मिली थीं, इसलिए सुमन ने सोचा कि चलो एक आखिरी चक्कर मार लेते हैं, कुछ कमाई हो जाएगी और शकील चाचा को टैक्सी का किराया भी देना था.

अभी कुछ ही दूर पहुंच थे कि लड़कों ने आपस में हंसीमजाक और फब्तियां कसना शुरू कर दिया. तभी उन में से एक बोला, ‘‘यार, तुम ने क्या बैटिंग की… एक गेंद में छक्का मार दिया.’’

‘‘हां यार, क्या करें, अपनी तो बात ही निराली है. फिर मैं कर भी क्या सकता था. औफर भी तो सामने से आया था,’’ दूसरे ने कहा.

‘‘हां, पर कुछ भी कहो, कमाल की लड़की थी,’’ तीसरा बोला और सब एकसाथ हंसने लगे.

सुमन ने अपने ड्राइविंग मिरर से देखा कि वे सब बात तो आपस में कर रहे थे, पर निगाहें उसी की तरफ थीं. उस ने ऐक्सलरेटर बढ़ाया कि जल्दी ही मंजिल पर पहुंच जाएं. पता नहीं, क्यों आज सुमन को अपनी अम्मां का कहा एकएक लफ्ज याद आ रहा था.

पिताजी की हादसे में मौत हो जाने के चलते उस के दोनों बड़े भाइयों ने मां की जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया था. सुमन ग्रेजुएशन भी पूरी न कर पाई थी, मगर रोजरोज के तानों से तंग आ कर वह भाइयों का घर छोड़ कर अपने पुराने घर में अम्मां को साथ ले कर रहने आ गई, जहां से अम्मां ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी और उस बंगले को भाईभाभी के लिए छोड़ दिया.

ऐसा नहीं था कि भाइयों ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, पर सिर्फ एक दिखावे के लिए. अम्मां और सुमन आ तो गए उस मकान में, पर कमाई का कोई जरीया न था. कितने दिनों तक बैठ कर खाते वे दोनों?

मुनासिब पढ़ाई न होने के चलते सुमन को नौकरी भी नहीं मिली. तब पिताजी के करीबी दोस्त शकील चाचा ने उन की मदद की और बोले, ‘तुम पढ़ने के साथसाथ आटोरिकशा भी चला सकती हो, जिस से तुम्हारी पैसों की समस्या दूर होगी और तुम पढ़ भी लोगी.’

पर जब सुमन ने अम्मां को बताया, तो वे बहुत गुस्सा हुईं और बोलीं, ‘तुम्हें पता भी है कि आजकल जमाना कितना खराब है. पता नहीं, कैसीकैसी सवारियां मिलेंगी और मुझे नहीं पसंद कि तुम रात को सवारी ढोओ.’ ‘ठीक है अम्मां, पर गुजारा कैसे चलेगा और मेरे कालेज की फीस का क्या होगा? मैं रात के 8 बजे के बाद आटोरिकशा नहीं चलाऊंगी.’

कुछ देर सोचने के बाद अम्मां ने हां कर दी. अब सुमन को आटोरिकशा से कमाई होने लगी थी. अब वह अम्मां की देखभाल अच्छे से करती और अपनी पढ़ाई भी करती.

सबकुछ ठीक से चलने लगा, पर आज का मंजर देख कर सुमन को लगने लगा कि अम्मां की बात न मान कर गलती कर दी क्या? कहीं कोई ऊंचनीच हो गई, तो क्या होगा…

तभी अचानक तेज चल रहे आटोरिकशा के सामने ब्रेकर आ जाने से झटका लगा और सुमन यादों की परछाईं से बाहर आ गई.

‘‘अरे मैडम, मार ही डालोगी क्या? ठीक से गाड़ी चलाना नहीं आता, तो चलाती क्यों हो? वही काम करो, जो लड़कियों को भाता है,’’ एक लड़के ने कहा.

तभी दूसरा बोला, ‘‘बैठ यार रोहित. ठीक है, हो जाता है कभीकभी.’’

‘‘सौरी सर…’’ पसीना पोंछते हुए सुमन बोली. अभी वे कुछ ही दूर चले थे कि उन में से चौथा लड़का बोला, ‘‘हैलो मैडम, मैं विकास हूं. आप का क्या नाम है?’’

सुमन ने डरते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुमन है.’’

‘‘पढ़ती हो?’’

‘‘बीए में.’’

‘‘कहां से?’’

‘‘जेएनयू से.’’

‘‘ओह, तभी मुझे लग रहा है कि मैं ने आप को कहीं देखा है. मैं वहां लाइब्रेरी में काम करता हूं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘अच्छा… पर मैं ने तो आप को कभी नहीं देखा,’’ सुमन बेरुखी से बोली.

तभी सारे लड़के खिलखिला कर हंस दिए. रोहित बोला, ‘‘क्या लाइन मार रहा है? ऐ लड़की, जरा चौराहे से लैफ्ट ले लेना, वहां से शौर्टकट है.’’ चौराहे से मुड़ते ही सुमन के होश उड़ गए. वह रास्ता तो एकदम सुनसान था.

सुमन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘पहले वाला रास्ता तो काफी अच्छा था, पर यह तो…’’

‘‘नहीं, हम को तुम उसी रास्ते से ले चलो,’’ रोहित बोला. अब तो सुमन का बड़ा बुरा हाल था. उस के हाथपैर डर से कांप रहे थे.

आज सुमन को अम्मां की एकएक बात सच होती दिख रही थी. अम्मां कहती थीं कि इतिहास में औरतें दर्ज कम, दफन ज्यादा हुई हैं. वे रहती पिंजरे में ही हैं, बस उन के आकार और रंग अलग होते हैं. समाज को औरतों का रोना भी मनोरंजन लगता है. हम औरतों को चेहरे और जिस्म के उतारचढ़ाव से देखा और पहचाना जाता है, इसलिए तुम यह फैसला करने से पहले सोच लो…

तभी पीछे से उन में से एक लड़के ने अपना हाथ सुमन के कंधे पर रखा और बोला, ‘‘जरा इधर से राइट चलना. हमें पैसे निकालने हैं.’’ सुमन की तो जैसे सांस ही हलक में अटक गई. उस का पूरा शरीर एक सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ा गया.

सुमन ने कहा, ‘‘आप लोगों ने आटोरिकशा नहीं खरीदा है. मैं अब झकरकटी में ही छोड़ूंगी, नहीं तो मैं आप सब को यहीं उतार कर वापस चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे वापस चली जाओगी तुम?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘क्या बोला?’’ सुमन ने अपनी आवाज में भारीपन ला कर कहा.

‘‘अरे, मैं यह कह रहा हूं कि इतनी रात को सुनसान जगह में हम सभी कहां भटकेंगे. हमें आप सीधे झकरकटी ही छोड़ दो,’’ रोहित बोला.

‘‘ठीक है… अब आटोरिकशा सीधा वहीं रुकेगा,’’ सुमन बोली.

सुमन के जिंदा हुए आत्मविश्वास से उन का सारा डर पानी में पड़ी गोलियों की तरह घुल गया. उसे लगा कि उस के चारों ओर महकते हुए शोख लाल रंग खिल गए हों और वह उन्हें दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती है. अभी तो उस के सपनों की उड़ान बाकी थी, फिर भी उस ने दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया और सामने दिखे एटीएम पर आटोरिकशा रोक दिया. विकास हैरानी से सुमन के चेहरे पर आतेजाते भाव को अपलक देखे जा रहा था. सुमन इस से बेखबर गाड़ी का मिरर साफ करती जा रही थी. वह पैसा निकाल कर आ गया और सभी फिर चल पड़े.

बमुश्किल एक किलोमीटर ही चले होंगे, तभी सुमन को सामने खूबसूरत सफेद हवेली दिखाई दी. आसपास बिलकुल वीरान था, पर एक फर्लांग की दूरी पर पान की दुकान थी और मैच भी अभीअभी खत्म हुआ था. भारत की जीत हुई थी. सब जश्न मना कर जाने की तैयारी में थे.

सुमन ने हवेली से थोड़ी दूर और पान की दुकान से थोड़ा पहले आटोरिकशा रोक दिया. सभी वहां झूमते हुए उतर गए, पर विकास वहीं खड़ा उसे देख रहा था.

सुमन गुस्से से बोली, ‘‘ऐ मिस्टर… क्या देख रहे हो? क्या कभी लड़की नहीं देखी?’’

‘‘देखी तो बहुत हैं, पर तुम्हारी सादगी और हिम्मत का दीवाना हो गया यह दिल…’’ विकास बोला.

उन सब लड़कों ने खूब शराब पी रखी थी. तभी उस में से एक लड़के ने पीछे मुड़ कर देखा कि विकास वहीं खड़ा है और उसे पुकारते हुए सभी उस के पास वापस आने लगे.

यह देख सुमन घबरा गई. उधर पान वाला भी दुकान पर ताला लगा कर जाने वाला था.

सुमन तेजी से पलट कर जाने लगी, मगर विकास ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया और घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

यह सुन कर सारे दोस्त ताली बजाने लगे. गहराती हुई रात और चमकते हुए तारों की झिलमिल में विकास की आंखों में सुमन को प्यार की सचाई नजर आ रही थी.

पता नहीं, क्यों सुमन को विकास पर ढेर सारा प्यार आ गया. शायद इस की वजह यह रही होगी कि बचपन से एक लड़की प्यार और इज्जत से दूर रही हो.

सुमन अपने जज्बातों पर काबू पाते हुए बोली, ‘‘चलो, कल कालेज में मिलते हैं. तब तक तुम्हारा नशा भी उतर जाएगा.’’

तभी उन में से एक लड़का बोला, ‘‘सुमन, हम ने शराब जरूर पी रखी है, पर अपने होश में हैं. हम इतने नशे में भी नहीं हैं कि यह न समझ पाएं कि औरत का बदन ही उस का देश होता है और हमारे देश में हमेशा से औरतों की इज्जत की जाती रही है. चंद खराब लोगों की वजह से सारे लोग खराब नहीं होते.’’

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो… कल मिलते हैं कालेज में.’’

इस के बाद सुमन ने आटोरिकशा स्टार्ट किया, मगर उसे ऐसा लग रहा था जैसे चांदसितारे और बदन को छूती ठंडी हवा उस के प्यार की गवाह बन गए हों और वह इस छोटे से सफर में मिले हमसफर के ढेरों सपने संजोए और खुशियां बटोरे अपने घर चल दी.

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