शादी को बेचैन इन कुंआरों की कौन सुनेगा

यों तो लड़कियों की घटती तादाद और बढ़ता लिंगानुपात एक अलग मुद्दा है, लेकिन देश के करोड़ों युवाओं को शादी के लिए लड़कियां क्यों नहीं मिल रही हैं, जान कर हैरान रह जाएंगे आप…

23 दिसंबर, 2023 को देव उठानी के दिन विष्णु सहित दूसरे देवीदेवता पांवड़े चटकाना तो दूर की बात है ढंग से अंगड़ाई भी नहीं ले पाए थे कि नीचे धरती पर कुंआरों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि अब यदि सचमुच में उठ गए हो तो हमारी शादी कराओ. बस, यह उन्होंने नहीं कहा कि अगर नहीं करवा सकते तो नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दो.

ताजा हल्ला भारत भूमि के राज्य महाराष्ट्र के सोलापुर से मचा जहां सुबहसुबह कोई 50 कुंआरे सजधज कर लकदक दूल्हा बने घोड़ी पर बैठे बैंडबाजा, बरात के साथ डीएम औफिस की तरफ कूच कर रहे थे.

आजकल ऊपर विष्णुजी के पास सृष्टि के दीगर कामकाज जिन में अधिकतर प्रोटोकाल वाले हैं, कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं इसलिए वे शादी जैसे तुच्छ मसले पर कम ही ध्यान दे पाते हैं जबकि उन्हें भजन, आरती गागा कर उठाया इसी बाबत जाता है कि हे प्रभु, उठो और सृष्टि के शुभ कार्यों के साथसाथ विवाह भी संपन्न कराओ जो रोजगार के बाद हर कुंआरे का दूसरा बड़ा टास्क है. इन युवाओं ने समझदारी दिखाते हुए शादी कराने का अपना ज्ञापन कलैक्टर को दिया, जो सही मानों में विष्णु का सजीव प्रतिनिधि धरती पर कलयुग में होता है.

ज्ञापन के बजाय विज्ञापन जरूरी

उम्मीद कम ही है कि ऊपर वाले देवता तक इन कुंआरों की करुण पुकार और रोनाधोना पहुंचा होगा. रही बात नीचे के देवता कि तो वह बेचारा मन ही मन हंसते हुए ज्ञापन ही ले सकता है. अगर थोड़ा भी संवेदनशील हुआ तो इन्हें इशारा कर सकता है कि भाइयो, ज्ञापन के बजाय विज्ञापन का सहारा लो और मेरे या ऊपर वाले के भरोसे मत रहो नहीं तो जिंदगी एक अदद दुलहन ढूंढ़ने में जाया हो जाएगी और इस नश्वर संसार से तुम कुंआरे ही टैं बोल जाओगे.

यह मशवरा भी उन के मन में ही कहीं दब कर रह गया होगा कि मर्द हो तो पृथ्वीराज बनो और अपनी संयोगिता को उठा कर ले जाओ. तुम ने सुना नहीं कि वीर भोग्या वसुंधरा चर्चा में बैचलर मार्च सोलापुर के इन दूल्हों की फौज को राह चलते लोगों ने दिलचस्पी और हैरानी से देखा.

कुछ को इन कुंआरे दूल्हों से तात्कालिक सहानुभूति भी हुई लेकिन सब मनमसोस कर रह गए कि जब ऊपर वाला ही इन बदनसीबों की नहीं सुन रहा तो हमारी क्या बिसात. हम तो खुद की जैसेतैसे कर पाए थे और अभी तक उसी को झांक रहे हैं. यह बात इन दीवानों को कौन सम?ाए कि भैया, मत पड़ो घरगृहस्थी के झमेले में, पछताना ही है तो बिना लड्डू खाए पछता लो. न समझ सकते न बचा सकते मगर यह भी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है कि जो आदमी खुदकुशी और शादी पर उतारु हो ही आए उसे ब्रह्माजी भी नहीं समझ और बचा सकते क्योंकि यह भाग्य की बात है. रही बात इन दीवानों की तो इन के बारे में तो तुलसीदास बहुत पहले उजागर कर गए हैं कि जाको प्रभु दारुण दुख देई, ताकी मति पहले हर लेई.

राहगीरों ने दर्शनशास्त्र के ये कुछ चौराहे क्रौस किए और इन दूल्हों में दिलचस्पी ली तो पता चला कि इन बेचारों को लड़कियां ही नहीं मिल रहीं और जिन को जैसेतैसे मिल जाती हैं वे इन्हें सड़े आम जैसे बेरहमी से रिजैक्ट कर देती हैं क्योंकि इन के पास रोजगार नहीं है.

जागरूक होती लड़कियां मुमकिन है कि यह नजारा देख कर कुछकुछ लोगों को वह प्राचीन काल स्मरण हो आया हो जब लड़कियां चूं भी नहीं कर पाती थीं और मांबाप जिस के गले बांध देते थे वे सावित्री की तरह उस के साथ जिंदगी गुजार देती थीं. फिर बेरोजगार तो दूर की बात है लड़का लूला, लंगड़ा, अंधा, काना हो तो भी वे उसे ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है…’ वाले गाने की तर्ज पर उसी के लिए तीज और करवाचौथ जैसे व्रत करती रहती थीं. और तो और अगले जन्म के लिए भी उसी लंगूर को बुक कर लेती थीं.

जमाना बदल गया मगर अब जमाना और लड़कियां दोनों बदल गए हैं. लड़कियां शिक्षित, सम?ादार और स्वाभिमानी तथा जागरूक हो चली हैं. लिहाजा, उन्हें किसी ऐरेगिरे, तिरछेआड़े के गले नही बांधा जा सकता. पहले की लड़कियों को गऊ कहा जाता था. वे जिंदगीभर उसी खूंटे से बंधी रहती थीं जिस से पेरैंट्स बांध देते थे. मगर अब लड़कियां खुद खूंटा ढूंढ़ने लगी हैं यानी अपने लिए सुयोग्य वर तलाशने लगी हैं क्योंकि वे किसी की मुहताज नहीं हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं.

बेरोजगार जीवनसाथी उन की आखिरी प्राथमिकता भी नहीं है इसलिए समझ यह जाना चाहिए कि सोलापुर जैसे बैचलर मार्च दरअसल, बेरोजगारी के खिलाफ एक मुहिम है जिस के तहत दुलहन की आड़ में सरकार से रोजगार या नौकरी मांगी जा रही होती है. ऐसे मार्च देश के हर इलाके में देखने को मिल जाते हैं जहां इन कुंआरों का दर्द फूटफूट कर रिस रहा होता है.

कोई सस्ता तमाशा नहीं कर्नाटक की ब्रह्मचारीगलु पद्यात्रा ऐसा ही दर्द मार्च के महीने में कर्नाटक के मांड्या जिले से एक लड़के का फूटा था. सोलापुर में जिसे बैचलर मार्च कहा गया वह वहां ब्रह्मचारीगलु पद्यात्रा के खिताब से नवाजा गया था. इस यात्रा में करीब 60 कुंआरे लड़के 120 किलोमीटर की पद्यात्रा कर चामराजनगर जिले में स्थित महादेश्वर मंदिर पहुंचे थे. तब मानने वालों ने मान लिया था कि यह कोई सस्ता तमाशा या पब्लिसिटी स्टंट नहीं है बल्कि हकीकत में इन लड़कों के पास कोई नौकरी नहीं है. कुछकुछ जानकारों ने इस पद्यात्रा का आर्थिक पहलू उजागर करते हुए यह निष्कर्ष दिया था कि शादी योग्य इन लड़कों के पास कोई सलीके की नौकरी नहीं है और मूलतया ये पद्यात्री किसान परिवारों से हैं.

समस्या का दूसरा पहलू यह समझ आया था कि नए दौर की युवतियां शादी के बाद गांवों में नहीं रहना चाहतीं और खेतीकिसानी अब घाटे का धंधा हो चला है जिस में आर्थिक निश्चिंतता नहीं है इसलिए लड़की तो लड़की उस के पेरैंट्स भी रिस्क नहीं उठाते.

कर्नाटक ही नहीं बल्कि हर इलाके के किसानपुत्र इस से परेशान हैं और खेतखलिहान छोड़ कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं. जितना वे गांव में अपने नौकरों को देते हैं उस से भी कम पैसे में खुद शहर में छोटीमोटी नौकरी कर लेते हैं ताकि शादी में कोई अड़चन पेश न आए.

लड़कियों को नहीं भाते ये लड़के इस बात की पुष्टि करते मांड्या के एक किसानपुत्र कृष्णा ने मीडिया को बताया भी था कि मुझे अब तक लगभग 30 लड़कियां रिजैक्ट कर चुकी हैं. वजह मेरे पास खेती कम है जिस से कमाई भी ज्यादा नहीं होती. यह एक गंभीर समस्या है जिस के बारे में खुलासा करते सोलापुर के ज्योति क्रांति परिषद जिस के बैनर तले बैचलर मार्च निकाला गया था के मुखिया रमेश बरास्कार बताते हैं कि महाराष्ट्र के हर गांव में 25 से 30 साल की उम्र के 100 से 150 लड़के कुंआरे बैठे हैं.

संगठित हो रहे कुंआरे हरियाणा के कुंआरे भी यह और इस से मिलतीजुलती मांगें उठाते रहे हैं लेकिन कोई हल कहीं से निकलता नहीं दिख रहा और न आगे इस की संभावना दिख रही. अब अच्छी बात यह है कि जगहजगह कुंआरे इकट्ठा हो कर सड़कों पर आ रहे हैं. अपने कुंआरेपन को ले कर उन में कोई हीनभावना या शर्मिंदगी नहीं दिखती तो लगता है कि समस्या बहुत गंभीर होती जा रही है लेकिन उस के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखा रहा.

एक अंदाजे के मुताबिक देश में करीब 5 करोड़, 63 लाख अविवाहित युवा हैं लेकिन उन पर युवतियों की संख्या महज 2 करोड़, 7 लाख है. लड़कियों की घटती तादाद और बढ़ता लिंगानुपात एक अलग बहस का मुद्दा है लेकिन महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और मध्य प्रदेश के जो युवा संगठित हो कर प्रदर्शन कर रहे हैं वे बेरोजगार, अर्धबेरोजगार और किसान परिवारों के हैं जिन का मानना है कि अगर अच्छी नौकरी या रोजगार हो तो छोकरी भी मिल जाएगी. ऊपर वाला तो सुनता नहीं इसलिए ये लोग नीचे वाले से आएदिन गुहार लगाते रहते हैं.

सरकार मस्त, जनता त्रस्त

जब सरकार ही धर्म और हिंदुमुसलिम के नाम पर बनती हो, तो आम जनता की चिंता कोई क्यों करेगा…

अंबाला कैंट में जनरल अस्पताल के गेट के सामने अकसर ऐक्सीडैंट होते रहते हैं. एक गेट के बिलकुल सामने तिराहा है तो दूसरे गेट के सामने चौराहा है. वहां पर न तो सिगनल लाइट्स हैं, न ही स्पीड ब्रेकर और न ही ट्रैफिक पुलिस खड़ी रहती है.

बेशक अस्पताल के एक गेट के पास पुलिस का कैबिन है, लेकिन इस में पुलिस का कोई व्यक्ति नजर नहीं आता.

17 फरवरी, 2023 को रात के करीब 10 बज कर 50 मिनट क्योंकि पेशैंट से हम 11 बजे ही मिल सकते थे, इसलिए टाइम पास करने के लिए हम अस्पताल के गेट से बाहर निकलते हैं और बड़ी मुश्किल से सड़क पार कर के दूसरी ओर चाय पीने के लिए जाते हैं क्योंकि अस्पताल में कोई कैंटीन या चाय तक की एक छोटी सी रेहड़ी तक नहीं जबकि इतना बड़ा अस्पताल है जहां हजारों पेशैंट हैं. हर पेशैंट के साथ कम से कम 2 लोग तो आते ही होंगे. उन्हें बाहर सड़क पार जाना होता है, जिस में बहुत जोखिम है.

हम बैठे चाय पी रहे थे कि अचानक जोर की आवाज के साथ सामने आग के गोले से दिखे. हम ने देखा एक बुलेट को एक कार ने इतनी जोर से टक्कर मारी कि बुलेट बीच में 2 टुकड़े हो गई और कार का आगे का हिस्सा पूरी तरह डैमेज हो गया.

हादसों का शहर

बुलेट सवार दोनों लड़कों को उसी समय अस्पताल के अंदर ले जाया गया जहां उन्हें सीरियस बता कर चंडीगढ़ पीजीआई रैफर किया गया. उस से कुछ दिन पहले भी एक मोटरसाइकिल सवार को एक ट्रक काफी दूर तक घसीटता ले गया और उस की मौत हो गई.

उद्योगपति नवीन जिंदल ने इस अस्पताल का जीर्णोद्धार करवा कर दिल्ली से हार्ट स्पैशलिस्ट यहां बुलवाए ताकि मरीजों का इलाज अच्छे से अच्छा हो. मगर क्या महज सर्जरी ही पेशैंट्स के लिए काफी है? कभी पेशैंट का चायकौफी का मन करता है, कभी जो साथ में रहता है या कभी कोई मिलनेजुलने आता है तो उस के लिए चायपानी की आवश्यकता होती है. इन सब के लिए बड़ी न सही छोटी सी कैंटीन तो होनी ही चाहिए. हर समय हाईवे रोड को पार कर के दूसरी तरह चायपानी के लिए जाना कितना खतरनाक है यह वहां आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं से समझ जा सकता है.

जिंदल साहब अकसर निगरानी रखते हुए वहां चक्कर भी लगाते रहते हैं तो क्या उन्हें ये सब दिखाई नहीं देता? क्या इन हादसों की खबर उन्हें नहीं होती? क्या उन्हें इतना भी ज्ञान नहीं कि चौक पर अर्थात् चौराहे पर ट्रैफिक लाइट्स और ट्रैफिक पुलिस का होना आवश्यक नहीं है?

जब रात को यह हादसा हुआ तो अगले दिन सुबह 11 बजे के बाद वहां पर 2 पुलिस वाले तैनात दिखे जोकि केवल चालान काट रहे थे या किसी को रोक कर अपनी जेबें भरने का जुगाड़ कर रहे थे. लेकिन 2 दिन बाद फिर पुलिस वहां से गायब नजर आई.

पुलिस के कारनामे

आएदिन इस तरह के पुलिस के कारनामे सुनने को मिलते हैं कि पुलिस ने रोका और चालान न काट कर क्व500 ले कर छोड़ दिया. इस का क्या अर्थ है? क्या वह दोषी व्यक्ति फिर से वही गलती नहीं करेगा? जरूर करेगा क्योंकि वह जानता है कि क्व200-400 दे कर मामला रफादफा हो जाएगा. इसी कारण देश की आधी आबादी हैलमेट नहीं पहनती, स्कूटर, मोटरसाइकिल के पूरे कागज नहीं रखते, लाइसैंस नहीं बनवाती इत्यादि. इस वजह से हमारे कुछ भ्रष्ट पुलिस वालों की जेबें भरी रहती हैं.

यह मामला केवल अंबाला के उस एरिया का ही नहीं उस से आगे आइए अंबाला सिविल अस्पताल से ले कर यमुनानगर की तरफ आते हुए थाना छप्पर तक हर चौराहे का यही हाल है और इसी तरह से ही कई जगह और भी देखा गया है. बाकी देश का भी यही हाल है. आधे से ज्यादा लोग इसे ऊपर वाले की कृपा मान लेते हैं और कुछ वहां भीड़ में चीखचिल्ला कर भड़ास निकाल लेते हैं पर कभी ही कोई संबंधित अफसर को एक पत्र जनता की असुविधा पर लिखता है.

वसूल सको तो वसूल लो

जहां भी टोल टैक्स बैनर बना है, वहां पूरा स्टाफ रहता है ताकि टोल पूरा वसूल हो. जनता से पूरा टैक्स वसूल करना सरकार का हक है तो उस जनता की सुरक्षा सरकार का क्या फर्ज नहीं है? सरकार को बख्शा नहीं जाना चाहिए.

अकसर सुनते हैं कि रोड ऐक्सीडैंट में कोई न कोई मारा गया, किसी को ट्रक कुचल गया, किसी को बस कुचल गई और कभी फुटपाथ पर कोई कार वाला कार चढ़ा गया. जब कोई गरीब या साधारण जना मरता है तो किसी को कानोंकान खबर नहीं होती. लेकिन अगर किसी ऐक्सीडैंट में किसी अमीर के कुत्ते को भी चोट आ जाए तो हरजाना भरना पड़ता है, विक्टिम पर केस भी दर्ज किया जा सकता है.

क्या कोई जानता है इन रोजमर्रा के ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार कौन है? इन ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार सरकार या अन्य लोग भी उस बाइक चालक या कार, बस वाले को या शराब पी कर गाड़ी चलाने वाले को ही जिम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन हर ऐक्सीडैंट के पीछे यह सचाई नहीं होती.

सुरक्षित नहीं सड़कें

माना कि सरकार ने बहुत से ब्रिज बनवाए, अधिकतर शहरों से बाहर ही हाई वे बना कर शहर का क्राउड कम किया, सड़कें भी काफी हद तक चौड़ी और नई बनाई हैं. सड़कें बना तो दीं, लेकिन क्या सड़कें सुव्यवस्थित ढंग से हैं अर्थात् उन की सुव्यवस्था है?

कहने का तात्पर्य यह है कि क्या हर सड़क पर स्ट्रीट लाइट है? क्या सड़कों के किनारे बनती दुकानों को दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है? क्या हर चौराहे से पहले स्पीड ब्रेकर या रिफ्लैक्टर है? क्या हर चौराहे पर लाल, पीली और हरी बत्ती यानी ट्रैफिक सिगनल लाइट है? क्या हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस तैनात है?

नहीं. तो फिर उन हाईवे और सड़कों को बड़ा बनाने का क्या फायदा क्योंकि जितनी सड़क स्मूद होंगी, चौड़ी होंगी व्हिकल उतना ही तेज रफ्तार से चलेंगे.

घटनाओं का जिम्मेदार कौन

अगर स्पीड ब्रेकर नहीं तो कम से कम रिफ्लैक्टर तो हों, जिन से आती हुई गाड़ी को दूर से अंदेशा हो जाए कि वहां कुछ अवरोधक हो सकता है, इसलिए स्पीड कम करनी चाहिए. लेकिन अधिकतर देखा गया है कि न स्पीड ब्रेकर, न ट्रैफिक सिगनल लाइट्स, न ही कोई ट्रैफिक वाला चोराहे पर होता है, जोकि हादसे का कारण बन जाता है.

केवल सड़कें चौड़ी कर देने से कुछ नहीं होगा, उन सड़कों पर सिगनल लाइट्स, स्पीड ब्रेकर भी अवश्य होने चाहिए.

इन सब ऐक्सीडैंट्स का जिम्मेदार कौन है? क्या सड़क पर स्पीड ब्रेकर न होने इन ऐक्सीडैंट्स के लिए जिम्मेदार नहीं? क्या उस चौराहे पर सिगनल लाइट नहीं होनी चाहिए थी?

हमारे देश का सिस्टम इतना ढीला क्यों है? इसलिए कि शासक अपनी कार्यशैली के कारण नहीं धर्म, पूजा, हिंदूमुसलिम के नाम पर बनती है. चुनाव आते ही मंदिरों की साजसज्जा चालू हो जाती है, सड़कों को दुरुस्त करने की फुरसत ही नहीं रहती क्योंकि वोट और सत्ता जब इन से नहीं मिलेगी तो कोई क्यों चिंता करेगा.

क्या जनता कभी अपनी जिम्मेदारी समझोगी?

सीमा कनौजिया – भद्दे डांस, चुटकुलिया बातचीत को किया मशहूर

Society News in Hindi: सोशल मीडिया (Social Media) पर इन्फ्लुएंसर (Influencer) सीमा कनौजिया अपने क्रिंज कंटैंट (cringe content) को ले कर खासा चर्चित रहती है. वह रील्स (Reels) के खेल को अच्छे से जानती है. स्किल्स (Skills) न होने के बावजूद उसे यह अच्छे से पता है कि सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की कमी नहीं जो उस के कंटैंट को पसंद कर ही लेंगे.

आज जिस को देखो वह मोबाइल फोन में आंखें गड़ाए बैठा रहता है. यह भी नहीं है कि लोग मोबाइल में कुछ नौलेजिबल कंटैंट देख रहे हों. वे देख रहे होते हैं नाली मे लेटते हुए आदमी को, वे देखते हैं मैट्रो में अजबगजब डांस करते हुए युवकयुवतियों को, वे देखते हैं भीड़भाड़ वाली मार्केट में घुस कर डांस व अजीबअजीब हरकतें करते युवाओं को.

इन सब से भी इन का पेट नहीं भरता तो ये लोग कच्ची हरीमिर्च खाने वाले और अपनी छाती पीटते हुए लोगों को देखते हैं. यही है आजकल का कंटैंट और इस तरह के कंटैंट को सोशल मीडिया की भाषा में क्रिंज कंटैंट कहते हैं.

असल में, क्रिंज कंटैंट का मतलब होता है कुछ ऐसी चीजें या वीडियो जिन्हें देख कर लोग अजीब महसूस करते हैं. इस तरह के कंटैंट आमतौर पर भद्दे डांस, चुटकुलिया बातचीत होते हैं. इन क्रिंज कंटैंट्स को देख कर लोग अनकम्फर्टेबल फील करते हैं. हालांकि इसे लोग मनोरंजन का एक साधन ही मानते हैं.
एक समय पर टिकटौक पर ऐसे वीडियोज खूब वायरल हुए थे, जिन्हें देख कर लोग क्रिंज फील करते थे. आजकल यही क्रिंज कंटैंट एक बार फिर अलगअलग सोशल प्लेटफौर्म्स पर वायरल हो रहे हैं.

इंडिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो क्रिंज कंटैंट पेश करते हैं, जैसे भुवन बाम (बीबी की वाइन्स), आशीष चंचलानी, कैरीमिनाटी, पुनीत सुपस्टार, जोगिंदर (थारा भाई जोगिंदर), दीपक कलाल, पूजा जैन (डिंचेक पूजा), एम सी स्टैन और सीमा कनौजिया.

लेकिन बात अभी यहां सीमा कनौजिया की करें तो वह अपनी वीडियोज में आखिर किस तरह का कंटैंट पेश करती है जो लोगों को क्रिंज लगता है. इंस्टाग्राम पर उस के डांस और दुलहन की तरह सजते हुए कई वीडियोज आप को देखने को मिल जाएंगे.

ऊटपटांग हरकतों के लिए चर्चित

बात करें अगर सीमा कनौजिया के वीडियोज की तो जहां कहीं भी कोई लड़की ऊटपटांग हरकतें करती हुई नजर आए तो समझ जाना चाहिए कि वह लड़की कोई और नहीं, बल्कि सीमा कनौजिया ही है.
वैसे, सीमा की एक खास पहचान भी है. वह पहचान है मुंह घुमा के ‘है है है है’ करते रहना, वह भी बेमतलब में, फालतू में. उस का यह ‘है है…’ करना अच्छेखासे इंसान को इरिटेट करने का दम रखता है. साथ ही, किसी भी व्यक्ति को गुस्सा दिला सकता है.

इस के अलावा उस का बेतुका डांस आप के सिरदर्द का कारण बन सकता है. उस के डांस और गाने के बीच में कोई तालमेल नहीं होता. तालमेल तो छोड़िए, उस के डांस में डांस ही नहीं.

वैसे तो टिकटौक के समय सीमा के बहुत से अजीबोगरीब वीडियोज वायरल हुए थे, जिन में कभी वह किचन में खाना बनाते हुए दिखती है और फिर एकदम से नाचने लगती है तो कभी किचन में खाना बनाते हुए कहती है, ‘है है, फ्रैंड्स लोग. आज मैं ने परांठे बनाए हैं, आओ खा लो. फ्रैंड्स लोग आज मैं भंडारे में जा रही हूं. क्या आप ने कभी भंडारे में खाना खाया है?’ कभी वह तरबूज और आम खाते हुए वीडियो बनाती है, वह भी भद्दे तरीके से.

वह इस से भी बाज नहीं आती तो गुसलखाने में कपड़े धोते हुए दिख जाती है तो कभी बरतन साफ करते हुए दिखती है. इतना ही नहीं, इन सब कामों को करते हुए वह हैलो फ्रैंड्स ‘है है है’ करना नहीं भूलती. उस के इस तरह के कंटैंट को ही लोग क्रिंज कहते हैं.

पब्लिक में ठुमके

आजकल लोग सीमा कनौजिया की एक वायरल वीडियो के बारे में बात कर रहे हैं. यह वीडियो दिल्ली मैट्रो की है. इस में सीमा मशहूर बौलीवुड गाने ‘अनदेखी अनजानी…’ पर डांस कर रही है. पहले वह मैट्रो के अंदर ठुमके लगाती है, फिर बाहर आ जाती है और प्लेटफौर्म पर नाचने लगती है. वीडियो में दिख रहा है कि कैसे उस के पीछे खड़े लोग उस का डांस देख कर हैरान हो रहे हैं. कई लोग तो उस का डांस देख कर अपनी हंसी तक नहीं रोक पा रहे हैं.

सीमा के इस डांस को देख कर कई लोगों ने कमैंट किया-

जिस में एक यूजर ने लिखा, ‘‘ये कौन सी बीमारी है.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘कृपया कोई इस को पागलखाने में डालो.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘ये नहीं सुधरने वाली.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘इसे कौन सा दौरा पड़ता है. मैं जा रहा हूं पुलिस स्टेशन कंप्लेन करवाने. मुझे सोशल पर मानसिक रूप से बहुत सताया गया है.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘मिरगी की बीमारी है, चप्पल सुंघाओ.’’

एक दूसरी वीडियो में सीमा रेलवे प्लेटफौर्म पर बौलीवुड के गाने ‘मेरा दिल तेरा दीवाना…’ पर लेटलेट कर डांस कर रही है. सीमा ने अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर यह डांस वीडियो अपलोड किया था. इस वायरल वीडियो पर लोग तरहतरह के रिऐक्शन दे रहे हैं. कोई उस लड़की का ‘कौन्फिडैंस’ देख कर हैरान है तो कोई उसे अपने ‘दिमाग का इलाज’ कराने की सलाह दे रहा है.

एक यूजर ने लिखा, ‘‘कोई इसे उठा कर पटरी पर फेंक दो.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘इस ने तो लेटलेट कर पूरा प्लेटफौर्म ही साफ कर दिया है.’’

एक और यूजर ने लिखा, ‘‘जिगर होना चाहिए पब्लिकली ऐसा डांस करने के लिए.’’

सीमा के इस वीडियो पर एक यूजर ने लिखा, ‘‘ईजी लगता है, ईजी लगता है, आर्ट है आर्ट ऐसा क्रिंज कंटैंट बनाना.’’

एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘‘कौन्फिडैंस होना चाहिए इतना बकवास डांस करने के लिए.’’एक अन्य यूजर ने कमैंट किया, ‘‘किसकिस को ये बावली या पागल लगती है, लाइक करो.’’

उस की एक और वीडियो है जिस में वह फेरीवाले को अपना वीडियो दिखा रही है. हालांकि, वह फेरीवाला उस की वीडियो में इंटरैस्ट नहीं ले रहा. ऐसी ही उस की कई और वीडियोज हैं जिन में वह बस घर के घरेलू काम करती हुई नजर आती है. वह अपने एक वीडियो में भद्दी तरह से खाना खाती हुई भी दिखती है. अगर कोई उस की यह वीडियो देख ले तो बिना खाना खाए ही टेबल से उठ जाएगा.

उस की फौलो लिस्ट की बात करें तो सीमा के इंस्टाग्राम पर 4 लाख 62 हजार से ज्यादा फौलोअर्स हैं. उस की 2 हजार 3 सौ पोस्ट हैं. इन सभी पोस्ट में सब से ज्यादा उस की बेहूदा हरकतें करती हुई वीडियोज हैं जिन का कोई सिरपैर नहीं है. ये वीडियोज उस के यूट्यूब चैनल पर भी अपलोड हैं.

वह अकसर फैशन शो में रैंप वाक करती हुई दिखाई देती है. इस के अलावा वह मेकअप आर्टिस्ट के शो में चीफ गेस्ट के तौर पर भी जाती है और अपनी स्किन पर मेकअप भी करवाती है. इस तरह वह उन का प्रमोशन कर के भी पैसा छापती है.

असल में, क्रिंज कंटैंट क्रिएटर केवल यह चाहते हैं कि लोग उन के द्वारा बनाए गए कंटैंट पर हंसें. उन्हें क्रिंज कंटैंट बनाने के लिए यही लोग प्रेरित करते हैं. आखिर, उन्हें पहचान मिल रही है. पैसा मिल रहा है फिर क्यों भला वे इस फेम को खोना चाहेंगे. ऐसे में हम और आप लोगों को ही इस तरह का कंटैंट देखना बंद करना होगा. आखिर हमारे पास भी तो खाली समय और फ्री डेटा नहीं है.

अगर हम कहें कि लोग आखिर क्रिंज कंटैंट क्यों बनाते हैं तो इस का जवाब बहुत साफ और सरल है. बारबार क्रिंज कंटैंट को देखना ही इन्हें बनाने वालों को बढ़ावा देता है. इसी कारण कंटैंट क्रिएटर क्रिंज कंटैंट बनाते हैं. वे बेवकूफ नहीं हैं, उन्हें पता है कि वे क्या कर रहे हैं. सच तो यह है कि वे बहुत स्मार्ट हैं. वे जानते हैं कि जनता जो देखती है वह बिकता है. हमारी आबादी एक अरब से ज्यादा है और लोग हर तरह के कंटैंट देखते हैं.

क्रिंज कंटैंट का कंज्यूमर

लोकप्रियता और पहचान एक बात है, पैसा बिलकुल दूसरी बात है. अब जब घटिया कंटैंट सच में पैसा कमाने का मौका बन रहा है तो क्या कोई इस मौके को छोड़ेगा? कोई इस तरह के मौके को अपने हाथ से जाने देगा? सभी लोग कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. साथ ही, वे सोशल फेम भी चाहते हैं. इसीलिए लोग क्रिंज कंटैंट से पैसा कमाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं. कोई भी टैलेंट को इम्पोर्टेंस नहीं देता है. सभी पैसे के पीछे भाग रहे हैं जिस के कारण वे क्रिंज कंटैंट लोगों के सामने परोस रहे हैं और पैसा कमा रहे हैं.

इस के पीछे एक सामाजिक कारण भी है. वह है दूसरों के अजीब और शर्मनाक पल देख कर लोगों को खुशी मिलती है. इस के अलावा, एक टर्म है ‘शाडेनफ्रूड.’ यह एक जरमन शब्द है जिस का अर्थ है दूसरों के दुर्भाग्य या शर्मिंदगी में खुशी या मनोरंजन की तलाश करना. यह ज्यादा से ज्यादा कंटैंट देखने के लिए एक प्रेरणा हो सकता है.

दिमाग नहीं लगाना पड़ता

आखिर क्रिंज कंटैंट पर ज्यादा व्यूज क्यों आते हैं, इस का कारण है कि इस तरह के कंटैंट में जो दिखाया जाता है, कई बार हम वह सभी करना चाहते हैं लेकिन सोशल प्रैशर की वजह से हम यह सब नहीं कर पाते हैं. इस के अलावा हम लोग अपने दोस्तों से वाहवाही लूटना चाहते हैं. बहुत सारे लोग हैं जो कम समय में ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. यही लोग आजकल क्रिंज कंटैंट का सहारा ले रहे हैं. इस में ज्यादा दिमाग भी नहीं लगाना पड़ता या यह कहें कि दिमाग घर छोड़ कर ही आना होता है.

ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि युवाओं को ऊटपटांग हरकतें करना, जैसे अपने ऊपर नाली का पानी डालना, चीखनाचिल्लाना, उलटापुलटा डांस करना वगैरहवगैरह करना ही पसंद आ रहा है. वे लोग ऐसा ही कंटैंट देखना चाहते हैं और क्रिंज कंटैंटर को इस से पैसा भी मिलता है. इसलिए काफी लोग क्रिंज कंटैंट बना रहे हैं.

क्रिंज कंटैंट की बढ़ती संख्या को देखते हुए इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट (आईआईएम) उदयपुर ने ‘क्रिंज कंटैंट की स्टडी के लिए एक टीम बनाई है. यह टीम कंटैंट बनाने वाले लोगों पर नजर रखेगी. आईआईएम उदयपुर की इस स्टडी में यह भी पता लगाया जाएगा कि रियल लाइफ में इन क्रिएटर्स को लोग कितना मानते हैं.

आईआईएम उदयपुर की यह स्टडी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, महाराष्ट्र के सांगली, पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर, आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम, राजस्थान के उदयपुर और असम के लाखीपुर में की जाएगी.

अभी तक आईआईएम की टीम के मुताबिक सफलता और फेम पाना छोटे शहरों के इन क्रिएटर्स का लक्ष्य होता है, इसलिए वे क्रिंज कंटैंट बनाने से भी नहीं कतराते हैं क्योंकि ऐसा करने से लोग उन्हें याद रखते हैं.

बुढ़ापे पर भारी पड़ती बच्चों की शिक्षा, क्या है हल

Society News in Hindi: मई जून में बच्चों की बोर्ड परीक्षाओं (Board Exam) के परिणाम आने के साथ ही मां बाप का आर्थिक मोर्चे पर इम्तिहान शुरू हो जाता है. जुलाई से शिक्षासत्र (Session) शुरू होते ही अभिभावकों (Parents) में ऐडमिशन दिलाने की भागदौड़ शुरू हो जाती है. बच्चे को किस कोर्स में प्रवेश दिलाया जाए? डिगरी या प्रोफैशनल कोर्स (Professional Course) बेहतर रहेगा या फिर नौकरी की तैयारी कराई जाए? इस तरह के सवालों से बच्चों समेत मांबाप को दोचार होना पड़ता है. शिक्षा के लिए आजकल सारा खेल अंकों का है. आगे उच्च अध्ययन के लिए बच्चों और अभिभावकों के सामने सब से बड़ा सवाल अंकों का प्रतिशत होता है. 10वीं और 12वीं की कक्षाओं में अंकों का बहुत महत्त्व है. इसी से बच्चे का भविष्य तय माना जा रहा है. नौकरी और अच्छा पद पाने के लिए उच्चशिक्षा (Higher Education) का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है.

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में महंगाई चरम पर है और मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों के भविष्य को ले कर की जाने वाली चिंता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. अभिभावकों को शिक्षा में हो रहे भेदभाव के साथ साथ बाजारीकरण की मार को भी झेलना पड़ रहा है. ऊपर से हमारी शिक्षा व्यवस्था में वर्णव्यवस्था भी एक खतरनाक पहलू है.

गहरी निराशा

सीबीएसई देश में शिक्षा का एक प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है पर राज्यस्तरीय बोर्ड्स की ओर देखें तो पता चलता है कि देश में 12वीं क्लास के ज्यादातर छात्र जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं वहां हालात ठीक नहीं है.

हाल ही बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 12वीं के नतीजों ने राज्य में स्कूली शिक्षा पर गहराते संकट का एहसास कराया है. यहां पर कुल छात्रों में सिर्फ 34 प्रतिशत उत्तीर्ण हुए. इस साल 13 लाख में से 8 लाख से ज्यादा फेल होना बताता है कि स्थिति बेहद खराब है. छात्रों के मां बाप गहरी निराशा में हैं.

देश में करीब 400 विश्वविद्यालय और लगभग 20 हजार उच्चशिक्षा संस्थान हैं. मोटेतौर पर इन संस्थानों में डेढ़ करोड़ से ज्यादा छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इन के अलावा हर साल डेढ़ से पौने 2 लाख छात्र विदेश पढ़ने चले जाते हैं.

हर साल स्कूलों से करीब 2 करोड़ बच्चे निकलते हैं. इन में सीबीएसई और राज्यों के शिक्षा बोर्डस् स्कूल शामिल हैं. इतनी बड़ी तादाद में निकलने वाले छात्रों के लिए आगे की पढ़ाई के लिए कालेजों में सीटें उपलब्ध नहीं होतीं, इसलिए प्रवेश का पैमाना कट औफ लिस्ट का बन गया. ऊंचे मार्क्स वालों को अच्छे कालेज मिल जाते हैं. प्रवेश नहीं मिलने वाले छात्र पत्राचार का रास्ता अपनाते हैं या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू कर देते हैं.

सीबीएसई सब से महत्त्वपूर्ण बोर्ड माना जाता है. इस वर्ष सीबीएसई में 12वीं की परीक्षा में करीब साढे़ 9 लाख और 10वीं में 16 लाख से ज्यादा बच्चे बैठे थे. 12वीं का परीक्षा परिणाम 82 प्रतिशत रहा, इसमें 63 हजार छात्रों ने 90 प्रतिशत अंक पाए, 10 हजार ने 95 प्रतिशत.

कुछ छात्रों में से करीब एक चौथाई को ही ऐडमिशन मिल पाता है. बाकी छात्रों के लिए प्रवेश मुश्किल होता है. 70 प्रतिशत से नीचे अंक लाने वालों की संख्या लाखों में है जो सब से अधिक है. इन्हें दरदर भटकना पड़ता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय की बात करें तो नामांकन की दृष्टि से यह दुनिया के सब से बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है. लगभग डेढ़ लाख छात्रों की क्षमता वाले इस विश्वविद्यालय के अंतर्गत 77 कालेज और 88 विभाग हैं. देशभर के छात्र यहां प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं पर प्रवेश केवल मैरिट वालों को ही मिल पाता है. यानी 70-75 प्रतिशत से कम अंक वालों के लिए प्रवेश नामुमकिन है.

सब से बड़ी समस्या कटऔफ लिस्ट में न आने वाले लगभग तीनचौथाई छात्रों और उन के अभिभावकों के सामने रहती है. उन्हें पत्राचार का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है या फिर नौकरी, कामधंधे की तैयारी शुरू करनी पड़ती है.

मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए कुरबानी देने को तैयार हैं. जुलाई में शिक्षासत्र शुरू होते ही अभिभावकों में ऐडमिशन की भागदौड़ शुरू हो जाती है. कोचिंग संस्थानों की बन आती है. वे मनमाना शुल्क वसूल करने में जुट जाते हैं और बेतहाशा छात्रों को इकट्ठा कर लेते हैं. वहां सुविधाओं के आगे मुख्य पढ़ाई की बातें गौण हो जाती हैं.

ऐसे में मांबाप के सामने सवाल होता है कि क्या उन्हें अपना पेट काट कर बच्चों को पढ़ाना चाहिए? मध्यवर्गीय मां बाप को बच्चों की पढ़ाई पर कितना पैसा खर्च करना चाहिए?

आज 10वीं, 12वीं कक्षा के बच्चे की पढ़ाई का प्राइवेट स्कूल में प्रतिमाह का खर्च लगभग 10 से 15 हजार रुपए है. इस में स्कूल फीस, स्कूलबस चार्ज, प्राइवेट ट्यूशन खर्च, प्रतिमाह कौपीकिताब, पैनपैंसिल, स्कूल के छोटेमोटे एक्सट्रा खर्च शामिल हैं.

मांबाप का इतना खर्च कर के अगर बच्चा 80-90 प्रतिशत से ऊपर मार्क्स लाता है, तब तो ठीक है वरना आज बच्चे की पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं समझा जाता. यह विडंबना ही है कि गुजरात में बोर्ड की परीक्षा में 99.99 अंक लाने वाले छात्र वर्शिल शाह ने डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनने के बजाय धर्र्म की रक्षा करना ज्यादा उचित समझा. उस ने संन्यास ग्रहण कर लिया.

बढ़ती बेरोजगारी

यह सच है कि शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी देश के युवाओं को लील रही है. पिछले 15 सालों के दौरान 99,756 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के हैं. ये हालात बताते हैं कि देश की शिक्षा व्यवस्था कैसी है. 12वीं पढ़ कर निकलने वाले छात्रों के अनुपात में कालेज उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे में छात्रों को आगे की पढ़ाई के लिए ऐडमिशन नहीं मिल पाता. छात्र और उन के मां बाप के सामने कितनी विकट मुश्किलें हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद बेरोजगारी की समस्या अधिक बुरे हालात पैदा कर रही है. देश की शिक्षाव्यवस्था बदल गई है. आज के दौर में पढ़ाई तनावपूर्ण हो गई है. अब देश में शिक्षा चुनौतीपूर्ण, प्रतिस्पर्धात्मक हो चुकी है और परिणाम को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा है. बच्चों को पढ़ानेलिखाने के लिए मांबाप पूरी कोशिश करते हैं. छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिए दबाव रहता है. कई बार ये दबाव भाई, बहन, परिवार, शिक्षक, स्कूल और समाज के कारण होता है. इस तरह का दबाव बच्चे के अच्छे प्रदर्शन के लिए बाधक होता है.

जहां तक बच्चों का सवाल है, कुछ बच्चे शैक्षणिक तनाव का अच्छी तरह सामना कर लेते हैं पर कुछ नहीं कर पाते और इस का असर उन के व्यवहार पर पड़ता है.

असमर्थता को ले कर उदास छात्र तनाव से ग्रसित होने के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं या कम मार्क्स ले कर आते हैं. बदतर मामलों में तनाव से प्रभावित छात्र आत्महत्या का विचार भी मन में लाते हैं और बाद में आत्महत्या कर लेते हैं. इस उम्र में बच्चे नशे का शिकार भी हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में मांबाप की अपेक्षा भी होती है कि बच्चे अच्छे मार्क्स ले कर आएं, टौप करें ताकि अच्छे कालेज में दाखिला मिल सके या अच्छी जौब लग सके.

दुख की बात है कि हम एक अंधी भेड़चाल की ओर बढ़ रहे हैं. कभी नहीं पढ़ते कि ब्रिटेन में 10वीं या 12वीं की परीक्षाओं में लड़कों या लड़कियों ने बाजी मार ली. कभी नहीं सुनते कि अमेरिका में बोर्ड का रिजल्ट आ रहा है. न ही यह सुनते हैं कि आस्ट्रेलिया में किसी छात्र ने 99.5 फीसदी मार्क्स हासिल किए हैं पर हमारे यहां मई जून के महीने में सारा घर परिवार, रिश्तेदार बच्चों के परीक्षा परिणाम के लिए एक उत्सुकता, भय, उत्तेजना में जी रहे होते हैं. हर मां बाप, बोर्ड परीक्षा में बैठा बच्चा हर घड़ी तनाव व असुरक्षा महसूस कर रहा होता है.

कर्ज की मजबूरी

मैरिट लिस्ट में आना अब हर मांबाप, बच्चों के लिए शिक्षा की अनिवार्य शर्त बन गई है. मांबाप बच्चों की पढ़ाई पर एक इन्वैस्टमैंट के रूप में पैसा खर्र्च कर रहे हैं. यह सोच कर कर्ज लेते हैं मानो फसल पकने के बाद फल मिलना शुरू हो जाएगा पर जब पढ़ाई का सुफल नहीं मिलता तो कर्ज मांबाप के लिए भयानक पीड़ादायक साबित होने लगता है.

मध्यवर्गीय छात्रों के लिए कठिन प्रतियोगिता का दौर है. इस प्रतियोगिता में वे ही छात्र खरे उतरते हैं जो असाधारण प्रतिभा वाले होते हैं. पर ऐसी प्रतिभाएं कम ही होती हैं. मध्यवर्ग में जो सामान्य छात्र हैं, उन के सामने तो भविष्य अंधकार के समान लगने लगता है. इस वर्ग के मां बाप अक्सर अपने बच्चों की शैक्षिक उदासीनता यानी परीक्षा में प्राप्त अंकों से नाराज हो कर उन के साथ डांट डपट करने लगते हैं.

उधर निम्नवर्गीय छात्रों के मां बाप अधिक शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं. कामचलाऊ शिक्षा दिलाने के बाद अपने व्यवसाय में हाथ बंटाने के लिए लगा देते हैं.

एचएसबीसी के वैल्यू औफ एजुकेशन फाउंडेशन सर्वेक्षण के अनुसार, अपने बच्चों को विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए तीन चौथाई मां बाप कर्ज लेने के पक्ष में हैं. 41 प्रतिशत लोग मानते हैं कि अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना सेवानिवृत्ति के बाद के लिए उन की बचत में योगदान करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है.

एक सर्वे बताता है कि 71 प्रतिशत अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए कर्ज लेने के पक्ष में हैं.

अब सवाल यह उठता है कि मां बाप को क्या करना चाहिए?

मांबाप को देखना चाहिए कि वे अपने पेट काट कर बच्चों की पढ़ाई पर जो पैसा खर्च कर रहे हैं वह सही है या गलत. 10वीं और 12वीं कक्षा के बाद बच्चों को क्या करना चाहिए,  इन कक्षाओं में बच्चों के मार्क्स कैसे हैं? 50 से 70 प्रतिशत, 70 से 90 प्रतिशत अंक और 90 प्रतिशत से ऊपर, आप का बच्चा इन में से किस वर्ग में आता है. अगर 90 प्रतिशत से ऊपर अंक हैं तो उसे आगे पढ़ाने में फायदा है. 70 से 80 प्रतिशत अंक वालों पर आगे की पढ़ाई के लिए पैसा खर्च किया जा सकता है. मगर इन्हें निजी संस्थानों में प्रवेश मिलता है जहां खर्च ज्यादा है और बाद में नौकरियां मुश्किल से मिलती हैं. इसी वर्ग के बच्चे बिगड़ते भी हैं और अनापशनाप खर्च करते हैं.

तकनीकी दक्षता जरूरी

कर्ज ले कर पढ़ाना जोखिम भरा है पर यदि पैसा हो तो जोखिम लिया जा सकता है. अगर 70, 60 या इस से थोड़ा नीचे अंक हैं तो बच्चे को आगे पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होगा पर शिक्षा दिलानी जरूरी होती है. यह दुविधाजनक घाटे का सौदा है.  इन छात्रों को सरकारी संस्थानों में प्रवेश मिल जाता है जहां फीस कम है.

36 से 50 प्रतिशत अंक वाले निम्न श्रेणी में गिने जाते हैं. इन बच्चों के मांबाप को चाहिए कि वे इन्हें अपने किसी पुश्तैनी व्यापार या किसी छोटी नौकरी में लगाने की तैयारी शुरू कर दें.

ऐसे बच्चों को कोई तकनीकी ट्रेंड सिखाया जा सकता है. कंप्यूटर, टाइपिंग सिखा कर सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में क्लर्क जैसी नौकरी के प्रयास किए जा सकते हैं. थोड़ी पूंजी अगर आप के पास है तो ऐसे बच्चों का छोटा मोटा व्यापार कराया जा सकता है.

शिक्षा के लिए मां बाप पैसों का इंतजाम कर्ज या रिश्तेदारों से उधार ले कर या जमीन जायदाद बेच कर करते हैं. यह कर्ज बुढ़ापे में मां बाप को बहुत परेशान करता है. ऐसे में कम मार्क्स वाले बच्चों के लिए आगे की पढ़ाई पर कर्ज ले कर खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है.

देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुले प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में कम अंकों वाले छात्रों को मोटा पैसा ले कर भर लिया जाता है पर यहां गुणवत्ता के नाम पर पढ़ाई की बुरी दशा है. एक सर्वे में कहा गया है कि देशभर से निकलने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा इंजीनियर काम करने के काबिल नहीं होते. केवल इंजीनियर ही नहीं, आजकल दूसरे विषयों के ग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट छात्रों के ज्ञान पर भी सवाल खड़े होते रहते हैं. प्रोफैशनलों की काबिलीयत भी संदेह के घेरे में है.

मां बाप को देखना होगा कि आप का बच्चा कहां है? किस स्तर पर है?

मध्यवर्ग के छात्र को प्रत्येक स्थिति में आत्मनिर्भर बनाना होगा क्योंकि मां बाप अधिक दिनों तक उन का बोझ नहीं उठा सकते.

शिक्षा का पूरा तंत्र अब बदल रहा है. मां बाप अब 12वीं के बाद दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम यानी पत्राचार के माध्यम से भी बच्चों को शिक्षा दिला सकते हैं. दूरस्थ शिक्षा महंगी नहीं है. इस माध्यम से आसानी से किसी भी बड़े व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में बहुत कम फीस पर प्रवेश लिया जा सकता है. कई छोटे संस्थान भी किसी विशेष क्षेत्र में कौशल को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. इस तरह यह पढ़ाई मां बाप के बुढ़ापे पर भारी भी नहीं पड़ेगी.

जागरूकता : पूजापाठी नहीं कामकाजी बनें

आमतौर पर लोगों को बचपन से एक ही बात सिखाई जाती है कि मंदिर जाओ, जोत जला कर धूपबत्ती करो और फिर भगवान से जो भी मांगो वह मिल जाएगा. सवाल उठता है कि अपने मतलब के लिए मंदिर जा कर फलफूल और प्रसाद चढ़ा कर भगवान से इस तरह मांगने वालों को हम क्या कहेंगे? रिश्वत के नाम पर कुछ फलफूल, अगरबत्ती, मिठाई और सिक्के दे कर क्या आप भगवान से अपनी बात मनवा लेंगे? कभी नहीं.

रिश्वत देना तो वैसे भी अपराध होता है. फिर यहां इसे अपराध क्यों न माना जाए? बिना किसी मतलब के कौन है जो मंदिरों के चक्कर लगाता है? यह तो एक तरह का कारोबार बन गया है. कुछ हासिल करना है तो पूजा करने पहुंच जाओ या घर में ही आंख बंद कर के भगवान की मूर्ति के आगे अपनी बात दोहराते रहो.

हमें बचपन से कर्म यानी काम करने की सीख क्यों नहीं दी जाती है? अपनी मेहनत, लगन और काबिलीयत से मनचाही चीज हासिल करने की सलाह क्यों नहीं दी जाती है? कर्म की अहमियत क्यों नहीं समझाई जाती है? कामकाजी बनने से बढ़ कर कामयाबी के लिए और क्या चाहिए? बचपन से बच्चों को कर्मप्रधान बनने के बारे में सिखाया क्यों नहीं जाता है?

कितने ही लोग दिनरात मंदिर में पूजापाठ में लगे रहते हैं. कभी सावन, कभी नरक चतुर्दशी, कभी पूर्णमासी, कभी नवरात्र, कभी मंगलवार, कभी शनिवार और इसी तरह कितने ही खास दिन आते रहते हैं यानी पूजा के लिए जरूरी दिनों की कोई कमी नहीं है. इन सब के पीछे चाहे काम का कुछ भी नुकसान क्यों न हो जाए, सब चलता है.

किराने की दुकान चलाने वाले 50 साल के आनंद दास बताते हैं, “मेरे एक दोस्त हैं जिन से कामकाज के लिए बात करने को मिलने के लिए बोलो तो कहेंगे कि अभी नहाधो कर मंदिर जाना है, वहां एक घंटे का समय पूजापाठ में लगेगा और फिर पंडित से मिल कर व्रतउपवास और कर्मकांड से जुड़ी कुछ जरूरी बात करनी है, कुछ दानदक्षिणा भी देनी है. वहां से निबट कर घर जाऊंगा और फिर नाश्ता करूंगा. इन सब में 2-3 घंटे तो लग ही जाएंगे.

“अपने दोस्त की ये बातें सुन कर मैं यही सोचता हूं कि इस इनसान के पास काम करने का समय कहां रह जाता होगा?”

काम से होता है सब हासिल

सच है कि इनसान जिंदगीभर तरक्की खोजता रहता है, पर शायद उसे यह नहीं मालूम कि आप अगर कर्मशील बनेंगे तो सब हासिल किया जा सकता है. इनसान को जिंदगी में अच्छा ज्ञान हासिल करना चाहिए, ताकि उस के बल पर वह हुनरमंद बन सके और अपनी गुजरबसर अच्छे तरीके से कर पाए. कामधंधे की तालीम ले कर, अपने हुनर में पक्का हो कर अगर इनसान मन लगा कर काम करेगा तो उसे मनचाहा फायदा जरूर मिलेगा.

हमारे काम या व्यापार को बढ़ाने के लिए दिमाग में अचानक आने वाले विचार को तुरंत अपने व्यवसाय पर लागू कर दें और फिर देखें कमाल. पैसों की बरसात होगी.

इस तरह से इनसान अपने ज्ञान और अपनी मेहनत के बल पर धन खूब कमा सकता है और मन की मुरादें पूरी कर सकता है. इस के उलट 3-4 घंटे मंत्रजाप, भजनकीर्तन, दिनरात धूपबत्ती कर के या पंडितों और बाबाओं के बताए उपाय आजमा कर वह कभी भी तरक्की के रास्ते पर आगे नहीं पहुंचता है.

मेहनत है असली दौलत

जो इनसान अपने घर से कमाई करने के लिए निकलेगा उस का धूप से तो वास्ता पड़ेगा, मगर जब वह मेहनत कर और धूलमिट्टी फांक कर घर आएगा तो भले ही उस का रंग सांवला हो जाए, मगर शरीर मजबूत और कारोबार में कामयाबी जरूर मिलेगी.

अकसर लोग ज्योतिषी से अपना भविष्य पूछने जाते हैं. वह बताता है कि आप के ग्रहनक्षत्र ठीक नहीं हैं और इन को साधारण उपायों द्वारा ठीक किया जा सकता है. ग्रहनक्षत्र ठीक होते ही आप का शरीर अच्छा काम करेगा, आप की योजनाएं सही रूप में कामयाब होंगी और आप खूब धन कमा सकेंगे. आप की इज्जत बढ़ेगी, आप का परिवार सुखी रहेगा और घर में खुशहाली आएगी.

याद रखिए कि ग्रहनक्षत्र खराब नहीं होते. यह तो ज्योतिषियों का धन ऐंठने का तरीका है. आप उन के बहकावे में आ कर उपाय करवाते हैं और अपने पास मौजूद रकम भी गंवा बैठते हैं. इस के उलट अपनी मेहनत पर यकीन रखिए और फिर देखिए नतीजा. कोई राहुकेतु आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा.

कर्म ही पूजा है

एक सैनिक जो महीनों तक सीमा की रक्षा करता है, वह किसी मंदिरमसजिद के चक्कर नहीं लगाता. उस का काम ही उसे इज्जत के काबिल बनाता है. इसी तरह किसी डाक्टर को कोई जरुरी सर्जरी करनी है, मगर वह उसे छोड़ कर यह कहे कि उस की पूजा का समय हो गया है या मंदिर जाए बिना वह सर्जरी नहीं करेगा, तो ऐसे डाक्टर को हम क्या कहेंगे?

याद रखें कि एक इनसान जो अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करता है, उसे किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं है. नौकरी वाले दफ्तर जाते हैं, किसान और मजदूर खेतों में जाते हैं, सिपाही लड़ाई के मैदान में जाते हैं, डाक्टर अस्पताल जाते हैं और वकील कोर्ट जाते हैं.

हर कोई अपनेअपने क्षेत्र में काम करता है. काम, जैसा कि हम सभी जानते हैं, वह है जो हमें अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए, अपने चहेतों की जरूरतों को पूरा करने के लिए करना जरूरी होता है.

जिंदगी की सच्ची सीख यह है कि हम क्या करते हैं और कितने बेहतर तरीके से करते हैं, लेकिन यह नहीं कि हम भगवान की पूजा करने में कितना समय देते हैं.

चंपारण में रहने वाले निकुंज कहते हैं, “हमारे गांव में 2 दोस्त रहते थे. एक गरीब मगर मेहनती लोहार था, जबकि दूसरा मंदिर का एक आलसी पुजारी था. उसे काम किए बिना खाने की आदत थी.

“पुजारी अकसर उस लोहार से मजाक में कहता था कि चाहे वह जितनी मेहनत कर ले भगवान सुख उसे ही देंगे, क्योंकि वह नियमित रूप से पूजा करता है.

“लोहार अपने रोजमर्रा के काम में इतना मस्त रहता था कि उसे कभी भी मंदिर जाने का समय नहीं मिल पाता था. इन दोनों की मुलाकात कभी किसी त्योहार के समय हो जाती थी. समय बीतने के साथ और सालों की कड़ी मेहनत के बाद लोहार गांव का सब से अमीर आदमी बन चुका था, जबकि पुजारी वैसे ही मांग कर या दान के रुपयों से गुजारा कर रहा था. वह बीमार भी रहने लगा था.

“इधर लोहार ने गांव में एक स्कूल खोला और इस के लिए एक छोटा सा समारोह रखा. वहां वह अपने पुराने दोस्त यानी उस पुजारी से मिला. जब लोहार से उस की कामयाबी के राज के बारे में पूछा गया तो उस ने सिर्फ चार शब्द कहे कि कर्म ही पूजा है.

“लोहार की बात सुन कर पहली दफा पुजारी को अपनी गलती का अहसास हुआ. उस की नजरों में लोहार का कद बहुत ऊंचा हो चुका था और अब उसे जिंदगी की हकीकत समझ में आ गई थी.

ज्यादा पूजापाठ समय की बरबादी

दरअसल, हम खुद को ही इस बात से भरम में रखते हैं कि हमारी असली समस्या क्या है. हम नहीं जानते हैं कि हमारी परेशानी क्या है और उस परेशानी का हल क्या है. हम इस के बजाय मंदिरमसजिद के चक्कर लगाते हैं और पाते हैं कि वे चीजें काम नहीं आ रही हैं और कोई नतीजा नहीं निकल रहा है.

उदाहरण के लिए किसी को लोगों से बातचीत करने में शर्म आती है या वह इंगलिश नहीं बोल पाता, उसे डर या झिझक होती है और ऐसे में वह सुबहशाम पूजापाठ करे तो क्या उस की इस समस्या का हल हो जाएगा? नहीं, बल्कि उस की समस्या तो तभी हल होगी न जब वह लोगों से बातचीत करने की हिम्मत करेगा, किसी इंगलिश स्पीकिंग कोर्स में दाखिला लेगा और बोलने का अभ्यास करेगा.

इस के उलट अगर वह दिन का बहुत सारा समय पूजापाठ या भजनकीर्तन में लगाएगा, मंदिर की भीड़ में एक लोटा जल ले कर घंटों लाइन में लगा रहेगा या व्रतउपवास करेगा, तो कोई फायदा नहीं मिलेगा.

जाहिर है कि सुबहशाम पूजा करने के बाद भी ज्यादातर लोगों की जिंदगी और मन में कुछ खास बदलाव नहीं आता, इसलिए पूजापाठ के बजाय मेहनत करें.

बड़ी औरतों के शिकार कम उम्र के लड़के

योगिता 48 साल की एक बेहद खूबसूरत औरत है. उस का चेहरा देख कर कोई भी उस की असली उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता. अपने पति हरीश की अचानक हुई मौत के बाद से योगिता उस का पूरा कारोबार खुद ही संभाल रही है. कारोबार में योगिता को कोई बेवकूफ नहीं बना सकता. लेकिन उस में एक खास कमजोरी है, कम उम्र के लड़कों से दोस्ती करना. अपने स्टाफ में योगिता ज्यादातर 20 से 25 साल की उम्र के स्मार्ट व खूबसूरत कुंआरों को ही रखती है.

योगिता इस बारे में कहती है कि ऐसे लड़के जोशीले होते हैं. वे ज्यादा मेहनत से काम करते हैं और ईमानदार भी होते हैं. लेकिन खुद उस के स्टाफ के ही लोग दबी जबान में कुछ और ही कहते हैं. इन लोगों का मानना है कि योगिता आजाद तबीयत की औरत है और उसे अलगअलग मर्दों के साथ बिस्तरबाजी करने की आदत है.

इसी तरह नीलम एक मध्यवर्गीय औरत है. उस की उम्र 36 साल है और उस की शादी को तकरीबन 10 साल हो चुके हैं. वह 2 बच्चों की मां भी बन चुकी है, लेकिन अपनी भोली शक्लसूरत के चलते वह अभी भी काफी जवान व खूबसूरत नजर आती है.

नीलम के पति रमेश की पोस्टिंग दूसरे शहर में है, जहां से वह महीने में 1-2 बार ही घर आ पाता है. नीलम और दोनों बच्चे चूंकि घर में अकेले रहते थे, इसलिए रमेश ने एक 19 साल के लड़के सुनील को एक कमरा किराए पर दे दिया. वह स्नातक की पढ़ाई करने के लिए गांव से शहर आया था.

पति की गैरहाजिरी में नीलम अपना ज्यादातर समय सुनील के साथ ही गुजारने लगी. एक रात नीलम की जिस्मानी प्यास इस हद तक बढ़ गई कि उस ने बच्चों के सो जाने के बाद सुनील को अपने कमरे में ही बुला लिया.

सुनील कुछ देर तक तो झिझकता रहा, लेकिन नीलम के मस्त हावभाव आखिरकार उसे पिघलाने में कामयाब हो ही गए. फिर नीलम ने अपना बदन सुनील को सौंप दिया.

इस के बाद तो वे दोनों आएदिन मौका निकाल कर एकदूसरे के साथ सोने लगे. काफी दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर सुनील की असावधानी से उन का भांड़ा फूट गया. फिर तो सुनील को काफी बेइज्जत हो कर उस मकान से निकलना पड़ा.

दिनेश ने अपने घर में काम करने के लिए एक 18 साल का पहाड़ी नौकर रामू रखा हुआ था. लेकिन उस के काम से दिनेश खुश नहीं थे. रामू न केवल काम से जी चुराता था, बल्कि दिनेश ने 2-3 बार उसे अपने घर की छोटीमोटी चीजें चुराते हुए भी पकड़ा था.

दिनेश उसे निकालने की सोच रहे थे, लेकिन उस की पत्नी हेमलता ने रोक दिया. आखिरकार एक दिन दफ्तर में अचानक तबीयत खराब होने के चलते दिनेश दोपहर में ही घर आ गया. घर आ कर उस ने अपनी 34 साला बीवी हेमलता को बिना कपड़ों के बिस्तर पर नौकर के साथ सोए हुए देख लिया.

दरअसल, हेमलता दिनेश की दूसरी बीवी थी. अधिक उम्र के पति से जिस्मानी संतुष्टि न मिल पाने के चलते हेमलता ने अपने कम उम्र, लेकिन शरीर से तगड़े नौकर को ही अपना आशिक बना लिया था.

इस तरह की तमाम घटनाएं हमारे समाज की एक कड़वी सचाई बन चुकी हैं, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता.

कौन हैं ऐसी औरतें

 अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसे लड़कों को अपना शिकार बनाने वाली इन औरतों में समाज के हर तबके की औरतें शामिल हैं. इन में एक काफी बड़ा तबका माली रूप से अमीर और ज्यादा पढ़ीलिखी औरतों का है. ऐसी औरतें अपनी जिंदगी को अपनी मरजी से ही गुजारना चाहती हैं.

दूसरी बात यह भी है कि माली रूप से आत्मनिर्भर हो जाने के बाद लड़कियों में अपनी एक अलग सोच पैदा हो जाती है और वे शादी नामक संस्था को फालतू मानने लगती हैं.

जब सारी जरूरतें बगैर शादी किए ही पूरी होने लगें, तो फिर कोई खुद को एक बंधन में क्यों उलझाना चाहेगा? इस के अलावा ऐसी औरतें जवान लड़कों से संबंध कायम करने में सब से आगे हैं, जिन के पतियों के पास धनदौलत की तो कमी नहीं है. लेकिन अपनी बीवियों के लिए समय की कमी है.

इन दोनों के अलावा एक तबका ऐसा भी है, जो कि खुद पहल कर के लड़कों को अपने प्रेमजाल में फंसाने की कोशिश करता है. ये वे औरतें हैं, जो कि किसी मजबूरी के चलते आदमी के साथ का सुख नहीं पातीं.

परिवार में पैसे की कमी के चलते या ऐसी ही किसी दूसरी मजबूरी के चलते जिन लड़कियों की शादी समय से नहीं हो पाती और शरीर की भूख से परेशान हो कर जो मजबूरन किसी आदमी के साथ संबंध बना लेती हैं, उन्हें भी इसी तबके में रखा जा सकता है.

कम उम्र ही क्यों

यह एक सचाई है कि अगर कोई औरत खासकर वह 30-32 साल से ऊपर की है, अपनी इच्छा से किसी पराए मर्द से संबंध बनाने की पहल करती है, तो उस के पीछे खास मकसद जिस्मानी जरूरतों को पूरा करना होता है.

हकीकत यही है कि एक 30-35 साल की खेलीखाई और अनुभवी औरत को पूरा सूख अपने हमउम्र मर्द के साथ ही मिल सकता?है, जिसे बिस्तर के खेल का पूरा अनुभव हो. लेकिन कई औरतें ऐसी भी होती हैं, जो कि अनुभव व सलीके के बजाय केवल तेजी और जोशीलेपन पर कुरबान होती हैं.

स्टेटस सिंबल के लिए

 भारतीय समाज काफी तेजी से बदल रहा है. कभी अमीर लोग खूबसूरत लड़कियों को रखैल बना कर रखते थे, उसी तर्ज पर आजकल अमीर औरतों के बीच सेहतमंद जवान मर्द को बौडीगार्ड के रूप में रखना शान समझा जाने लगा है.

लेकिन वजह चाहे कोई भी हो, अपनी उम्र से छोटे लड़कों के साथ दोस्ती करना और उन के बदन का सुख लूटना ऊपरी तौर पर कितना भी मजेदार नजर आए, लेकिन हकीकत में यह बेहद खतरनाक है.

अब इस देश में जवानों का बोलना मना है

‘जय जवान, जय किसान’ का नारा भारत के प्रधानमंत्री रह चुके लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था. उन्होंने माना था कि देश जवानों और किसानों से चलता है. उस के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ के साथसाथ ‘जय विज्ञान’ को भी जोड़ा यानी टैक्नोलौजी की भी बातें होने लगीं. लेकिन आज ‘जय जवान, जय किसान’ और ‘जय विज्ञान’ से जुड़े तीनों समूहों का हाल बेहाल है.

जवानों को दिमागी रूप से पंगु बना कर उन के वेतनमान में बढ़ोतरी तो की गई, लेकिन उन की हालत भी एक नए गुलामों की तरह ही है. वहीं किसानों और मजदूरों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि उन की हालत और भी खराब होती जा रही है.

हमारे देश के वैज्ञानिकों और विज्ञान के छात्रों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में भौतिक शास्त्र व रसायन शास्त्र के बजाय ज्योतिष शास्त्र पढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है.

नई आर्थिक नीति लाने वाली कांग्रेस सरकार ने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ के सपनों को मटियामेट कर दिया.

कांग्रेस शासित नरसिंह राव व मनमोहन सिंह द्वारा नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद किसानों की जमीनें पूंजीपतियों को दी जाने लगीं. बड़े पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों पर दबाव बनाया गया कि वे नई तरह की खेती करें. इस नई खेती के चलते बहुत से किसान कर्ज के जाल में फंस कर खुदकुशी करने लगे.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 1995 से ले कर अब तक तकरीबन साढ़े 3 लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं, जबकि गैरसरकारी आंकड़े इस से भी ज्यादा हैं. सरकारी नीतियों ने इन किसानों को ‘जय किसान’ की जगह ‘मर किसान’ बना दिया.

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसानों की हालत सुधरी नहीं, बल्कि बदतर ही हुई और उन्हीं के शासन में जवानों के शव उठाने वाले ताबूत का घोटाला हो गया.

‘जय विज्ञान’ का नारा देने वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने श्रम कानूनों में संशोधन किया और ठेकेदारी प्रथा को लागू किया. मजदूरों को न्यूनतम वेतन से भी आधे पैसों पर काम करना पड़ रहा है और उन की मेहनत की कमाई लूट बन कर ठेकेदारों को मालामाल कर रही है. हालत यह हो गई कि सभी सरकारी दफ्तरों में फोर्थ क्लास के कर्मचारी ठेके पर रखे जाने लगे. यहां तक कि डाक्टर और मास्टर भी ठेकेदारी प्रथा के शिकार हो गए. यही हालत ‘श्रमेव जयते’ की भी है.

मोदी सरकार के आने के बाद देश में ऐसा माहौल बनाया गया कि जवान ही ‘देशभक्त’ हैं और उन्हीं की बदौलत हम सुरक्षित और जिंदा हैं. आप उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते, क्योंकि इस से उन का मनोबल गिरता है. वहां कोई भ्रष्टाचार नहीं है, जाति और धर्म का भेदभाव नहीं है. नतीजतन, ड्यूटी के बाद बैंक या एटीएम की लाइन में अपनी तकलीफ जाहिर करने पर भी किसी शख्स को ड्यूटी पर तैनात जवानों के साथ जोड़ कर देशभक्ति का पाठ पढ़ाते कुछ सिरफिरे मिल जाते हैं. झूठी देशभक्ति के जज्बे दिखा कर सही सवालों को हमेशा छिपाया गया है.

ऐसा नहीं है कि तेज बहादुर यादव का वीडियो वायरल होने से पहले मंत्रियों, अफसरों, मीडिया वालों को इस तरह के गलत बरताव का पता नहीं था. इस वीडियो के आने से पहले भी जवानों की खुदकुशी, डिप्रैशन, अफसरों के बुरे बरताव, छुट्टियां नहीं मिलने व अपने साथियों पर गोली चलाने की खबरें कई बार आ चुकी हैं. यहां तक कि वीके सिंह ने भी माना है कि सेना का जनरल रहते हुए रक्षा सौदों में उन्हें घूस का औफर मिला था. डीजल बेचने या दूसरे सामान की हेराफेरी के मामले भी आ चुके हैं. दबी जबान में औरतों के साथ होने वाली हिंसा की बातें भी सामने आती रही हैं.

तेज बहादुर यादव ने अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल साइट का इस्तेमाल किया, लेकिन यही बात सीमा सुरक्षा बल के अफसरों को नागवार गुजरी. वे इसे अनुशासनहीनता और तय की गई गाइडलाइंस का उल्लंघन मान रहे हैं.

यहां तक कि सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रह चुके जनरल प्रकाश सिंह का भी कहना है, ‘‘जवान ने नियमों का उल्लंघन किया है. कमांडैंट से शिकायत करनी चाहिए थी. डीआईजी, आईजी से शिकायत की जा सकती थी.’’

पूर्व महानिदेशक जनरल प्रकाश सिंह को यह डर है कि जवान इस तरह से करने लगेंगे, तो अनुशासन छिन्नभिन्न हो जाएगा.

तेज बहादुर यादव का कहना है कि इस की सूचना उस ने अपने कमांडैंट को पहले दी थी और बारबार कहने पर भी ऐक्शन नहीं लिया गया. क्या यही सब बातें ‘अनुशासनहीनता’ में आती हैं?

सीमा सुरक्षा बल के जम्मू फ्रंटियर के आईजी डीके उपाध्याय ने यह बयान दिया है कि वीडियो वायरल करने वाला जवान आदतन अनुशासनहीन है. उस के खिलाफ नशे में धुत्त रहने, सीनियर अफसरों के साथ बदसुलूकी करने, यहां तक कि सीनियर अफसर पर बंदूक तानने की शिकायतें आती रही हैं.

तेज बहादुर यादव का साल 2010 में कोर्ट मार्शल किया गया था, लेकिन उस के परिवार वालों को ध्यान में रखते हुए बरखास्त करने के बजाय 89 दिनों की कठोर सजा सुनाई गई.

इस तरह के आरोप के जवाब में तेज बहादुर यादव कहता है, ‘‘मुझे गोल्ड मैडल समेत 14 पदक मिल चुके हैं. मैं ने अपने कैरियर में कुछ गलतियां भी की हैं, लेकिन बाद में उन में सुधार भी किए हैं.’’

तेज बहादुर यादव के परिवार वालों का कहना है कि जब भी वे घर आते थे, तो खाने को ले कर शिकायत करते थे. उन की पत्नी शर्मिला यादव अफसरों को कठघरे में खड़ा करते हुए पूछती हैं, ‘‘मेरे पति दिमागी तौर पर बीमार या अनुशासनहीन थे, तो उन को देश के संवेदनशील इलाके में बंदूक क्यों थमाई गई?’’

तेज बहादुर यादव की ही तरह बाड़मेर के जागसा गांव के खंगटाराम चौधरी सीमा सुरक्षा बल में थे, जिन्होंने 30 दिसंबर को वीआरएस ले ली थी.

खंगटाराम कहते हैं, ‘‘जवानों को ऐसा खाना खाने को दिया जाता है, जिसे आम आदमी नहीं खा सकता है. उस खाने को जवान मजबूरी में खाते हैं.’’

खंगटाराम के पिता एसके चौधरी का कहना है, ‘‘पहले खुशी हुई थी कि बेटा फौज में गया है, लेकिन वहां की परेशानियों को देख कर लगता है कि अच्छा हुआ कि वह यहां आ गया है और अब साथ में खेती का काम करेगा, तो कम से कम भरपेट खाना तो खाएगा.’’

तेज बहादुर यादव द्वारा लगाए गए आरोप को जब मीडिया ने लोगों से जानने के लिए बात की, तो श्रीनगर में सुरक्षा बलों के कैंपों के आसपास रहने वाले लोगों ने कहा कि बाजार से आधे रेट पर पैट्रोल, डीजल, चावल, मसाले जैसी चीजें मिल जाती हैं.

फर्नीचर के एक दुकानदार ने बताया कि फर्नीचर खरीदने की जिन लोगों की जिम्मेदारी है, वे कमीशन ले कर उन लोगों को और्डर देते हैं, पैसों के लिए सामान की क्वालिटी से भी समझौता करने को तैयार हो जाते हैं.

तेज बहादुर यादव का वीडियो आने के बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, वायु सेना और सेना के जवानों ने भी अपनीअपनी बात रखी.

रोहतक के वायु सेना के एक पूर्व जवान ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर मौत की गुहार लगाई है, ताकि उसे जलालत भरी जिंदगी से छुटकारा मिल सके.

इस जवान का आरोप है कि वायु सेना के अफसरों को 14 हजार रुपए नहीं देने पर उसे कई झूठे आरोप लगा कर नौकरी से निकाल दिया.

इसी तरह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, मथुरा के जवान जीत सिंह ने मिलने वाली सुविधाओं में भेदभाव का आरोप लगाया है.

सेना के जवान यज्ञ प्रताप ने वीडियो जारी कर सेना के अफसरों पर आरोप लगाया है कि अफसर सैनिकों से कपड़े धुलवाते हैं, बूट पौलिश कराते हैं, कुत्ते घुमाने और मैडमों के सामान लाने जैसे काम करवाते हैं. यह खबर जब मीडिया में आ रही थी, तो उसी समय यह खबर भी आई कि बिहार के औरंगाबाद में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जवान बलवीर कुमार ने इंसास राइफल से अपने सहकर्मियों की हत्या कर दी.

पुलिस अधीक्षक सत्यप्रकाश ने घटना की जानकारी देते हुए बताया कि बलवीर कुमार ने छुट्टी पर जाने के लिए आवेदन किया था. उसे छुट्टी नहीं मिल पाई और दूसरे जवानों ने उस पर तंज कसा, तो गुस्से में आ कर उस ने गोलीबारी कर दी.

उसी दिन पुलवामा जिले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल  का जवान वीरू राम रैंगर ने खुद को गोली मार कर खुदकुशी करने की कोशिश की थी.

सेनाध्यक्ष ने जवानों से कहा है कि वे अपनी बात सोशल मीडिया पर नहीं उठाएं. उस के लिए सेना मुख्यालय, कमान मुख्यालय व निचले स्तर के कार्यालयों में शिकायत पेटी रखने की घोषणा की और कहा कि इन पेटियों के माध्यम से उठाए गए मुद्दों को मैं खुद देखूंगा.

हम सभी जानते हैं कि जेल, थानों या दूसरे दफ्तरों में इस तरह के बौक्स पहले से ही वहा रखे हैं और उन पर भी यही लिखा होता?है कि आप की पहचान गुप्त रखी जाएगी और इस को अधिकारी ही खोलेंगे. लेकिन हम इस तरह के बौक्स के परिणाम को भी जानते हैं.

सेना के दफ्तरों में शिकायत निवारण बौक्स अभी तक क्यों नहीं था? जवानों के दर्द को गृह मंत्रालय ने बेबुनियाद बता कर खारिज कर दिया है यानी कम शब्दों में कहा जाए, तो गृह मंत्रालय और अधिकारी जवानों को झूठा बता रहे हैं.

यह हैरानी की बात है कि तेज बहादुर यादव और इरफान ने वीडियो बना कर जो सुबूत सरकार और जनता तक पहुंचाए हैं, उन को सरकार मानने से इनकार कर रही है. क्या जवानों के साथ इस तरह का बरताव नहीं होता है?

ऐसा सवाल सोशल मीडिया पर आ जाने से पूंजीवादपरस्त मीडिया घराने भी इस मामले को उठाने के लिए मजबूर हुए. सीमा सुरक्षा बल के एक जवान इरफान ने 29 अप्रैल को वाराणसी में प्रैस कौंफ्रैंस कर के बताया था कि भारतबंगलादेश सीमा पर अधिकारी तस्करी कराते हैं और जो जवान मुंह खोलने की बात करता है, उसे फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है.

इरफान ने बताया कि 15 जनवरी, 2016 को 50 बंगलादेशी भारत में आना चाहते थे, तो उस ने घुसपैठ कराने से इनकार कर दिया. इसी बीच एक घुसपैठिए ने सीमा सुरक्षा बल के कमांडर को फोन कर के इरफान से बात कराई. कमांडर ने इरफान को सभी घुसपैठियों को आने देने के लिए आदेश दिया.

इरफान ने इस घटना की शिकायत जब अधिकारियों से की, तो उसे चुप रहने की नसीहत दी गई. 19 जनवरी की रात जब गेट खोला गया था, तो उस का वीडियो इरफान ने बनाया था. उस की शिकायत भी अधिकारियों से की गई, लेकिन कोई असर नहीं हुआ.

इरफान ने सीमा की बाड़ को काटते और जोड़ते हुए भी कुछ घुसपैठियों को पकड़ा था. उन लोगों ने भी कमांडर के आदेश पर ऐसा करने की बात कबूली थी. इस का वीडियो भी इरफान ने मीडिया के सामने दिखाया था.

इरफान का कहना है कि सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी सीमा पार तस्करी कराते हैं. साथ ही, उस ने यह भी बताया कि लंगर में बंगलादेशी घुसपैठियों को उस ने काम करते हुए देखा था और पूछने पर उसे बताया गया कि कमांडर ने रखा है.

इरफान आगे बताता है कि जब अधिकारियों के सामने तस्करी की कलई खोली थी, तो उसे कमरे में बंद कर के पीटा गया था और सिगरेट से दागा गया था. उस के बाद इरफान सीमा सुरक्षा बल की नौकरी छोड़ कर अपने गांव आ गया.

इरफान ने बताया कि अधिकारी उस के पीछे पड़े हुए हैं और उसे भगोड़ा घोषित करने की धमकी दे रहे हैं. वह सीमा सुरक्षा बल में नहीं जाना चाहता. उस के बाद इरफान के साथ क्या हुआ, किसी को नहीं पता है.

तेज बहादुर यादव, खंगटाराम, जीत सिंह या इरफान का न तो यह पहला मामला है और न ही आखिरी. ऐसा होता रहा है और होता रहेगा.

जब किसान अपनी खेती की जमीन को तथाकथित तरक्की के लिए पूंजीपतियों को नहीं देना चाहते, तो इन्हीं जवानों को भेजा जाता है कि जाओ तुम ‘देशभक्त’ होने का परिचय दो. मजदूर जब अपनी मांगों को ले कर धरनाप्रदर्शन करते हैं या आदिवासी, दलित अपनी जीविका के साधन की मांग करते हैं, तो इन्हीं ‘देशभक्तों’ द्वारा उन का कत्लेआम कराया जाता है. उस समय इन जवानों को ‘देशभक्त’ का तमगा दे दिया जाता है.

जब यही ‘देशभक्त’ जवान अपनी मांगों को उठाते हैं, तो इन को भगोड़ा, अनुशासनहीन, नशेड़ी बना कर सजा मुकर्रर की जाती है. ये जवान उन्हीं मजदूरकिसान के बेटे हैं, जिन पर अफसरों के कहने पर वे लाठियां और गोलियां बरसाते हैं.

अफसरों का वर्ग अलग होता है. वे सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, नौकरशाहों के घरों से आते हैं, जिस की न तो जमीन जाती है और न ही जान. इस समाज में जवान, किसान और विज्ञान से जुड़े तीनों समूहों को मिल कर लड़ना होगा, तभी वे जीत सकते हैं, नहीं तो किसी दिन किसान मारा जाएगा, जवान मारा जाएगा और विज्ञान को टोकरी में फेंक दिया जाएगा.

खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

जानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

1. कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

फसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

2. चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

प्रदूषण बढ़ने की वजह से सरकार ने खेतों में कचरा जलाने पर पाबंदी लगा दी है. उत्तर भारत में हालात ज्यादा खराब हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के खेतों में कचरा जलाने वाले किसानों से 15000 रुपए तक जुर्माना वसूलने व खेती का कचरा निबटाने के लिए मशीनें मुहैया कराने का आदेश दिया है. अब सरकार को ऐसी मशीनों पर दी जाने वाली छूट बढ़ानी चाहिए.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

3. ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

4. पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

मासिक धर्म : उन खास दिनों में सफाई

मासिक धर्म या माहवारी कुदरत का दिया हुआ एक ऐसा तोहफा है, जो किसी लड़की या औरत के मां बनने का रास्ता पक्का करता है. इस की शुरुआत 10 साल से 12 साल की उम्र में हो जाती है, जो  45 साल से 50 साल तक बनी रहती है. इस के बाद औरतों में रजोनिवृत्ति हो जाती है. इस दौरान उन्हें हर महीने माहवारी के दौर से गुजरना होता है. अगर वे अपने नाजुक अंग की समुचित साफसफाई न करें, तो तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ सकती हैं.

हमारे समाज में आज भी माहवारी के 4-5 दिनों तक लड़कियों व औरतों के साथ अछूत जैसा बरताव किया जाता है. यही नहीं, ज्यादातर लड़कियां और औरतें इस दौरान परंपरागत रूप से कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और उसे धो कर ऐसी जगह सुखाती हैं, जहां किसी की नजर न पड़े.

सेहत के नजरिए से ये कपड़े दोबारा इस्तेमाल करने के लिए ठीक नहीं हैं. इस का विकल्प सैनिटरी नैपकिन हैं, लेकिन  महंगे होने की वजह से इन का इस्तेमाल केवल अमीर या पढ़ीलिखी औरतों तक ही सिमटा है.

आज भी देश के छोटेछोटे गांवों और कसबों की लड़कियां और औरतें सैनिटरी नैपकिन के बजाय घासफूस, रेत, राख, कागज या कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं.

एक सर्वे के मुताबिक, 80 फीसदी औरतें और स्कूली छात्राएं ऐसा ही करती हैं. इन में न सिर्फ अनपढ़, बल्कि कुछ कामकाजी पढ़ीलिखी औरतें भी शामिल हैं.

फिक्की लेडीज आर्गनाइजेशन की सदस्यों द्वारा किए गए सर्वे में ऐसी बातें सामने आई हैं. संस्था की महिला उद्यमियों ने गांवों और छोटे शहरों में स्कूली छात्राओं और महिला मजदूरों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सब्जी बेचने वाली औरतों से बात की. उन से पूछा गया कि वे सैनिटरी हाईजीन के बारे में क्या जानती हैं?

कसबों में स्कूली बच्चियों से पूछने पर यह बात सामने आई कि कई लड़कियां हर महीने इन खास दिनों में स्कूल ही नहीं जातीं. कई मामलों में तो लड़कियों ने 5वीं जमात के बाद इस वजह से पढ़ाई ही छोड़ दी.

गांवदेहात की 38 फीसदी लड़कियां माहवारी होने की वजह से 5वीं जमात के बाद स्कूल छोड़ देती हैं. 63 फीसदी लड़कियां इस दौरान स्कूल ही नहीं जातीं. 16 फीसदी स्कूली बच्चियों को सैनिटरी नैपकिन की जानकारी नहीं है. 93 फीसदी पढ़ीलिखी व कामकाजी औरतें भी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करतीं.

चूंकि यह निहायत निजी मामला है और स्कूली छात्राओं में झिझक ज्यादा होती है, इसलिए महिला और बाल विकास के कार्यकर्ताओं द्वारा इस संबंध में स्कूलों में जा कर इन खास दिनों में बरती जाने वाली साफसफाई के बारे में समझाना चाहिए.

फिक्की लेडीज आर्गनाइजेशन द्वारा अनेक स्कूलों में नैपकिन डिस्पैंसर मशीनें लगाई गई हैं. इन मशीनों से महज 2 रुपए में नैपकिन लिया जा सकता है.

मध्य प्रदेश के कई स्कूलों में भी एटीएम की तरह सैनिटरी नैपकिन की मशीनें लगाई गई हैं, जहां 5 रुपए का सिक्का डालने पर एक नैपकिन निकलता है. ये सभी वे स्कूल हैं, जहां केवल लड़कियां ही पढ़ती हैं.

अगर माहवारी के दिनों में पूरी साफसफाई पर ध्यान न दिया जाए, तो पेशाब संबंधी बीमारियां हो सकती हैं. राख, भूसे जैसी चीजें इस्तेमाल करने के चलते औरतों को कटाव व घाव हो सकते हैं. लंबे समय तक ऐसा करने से बांझपन की समस्या भी हो सकती है.

सर्वे के दौरान कुछ ऐसे परिवार भी मिले, जहां एक से ज्यादा औरतें माहवारी से होती दिखाई दीं. सासबहू, मांबेटी, बहनबहन, ननदभाभी जब एकसाथ माहवारी से होती हैं और अपने अंगों पर लगाए गए कपड़ों को धो कर सुखाती हैं, तो बाद में यह पता लगाना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि कौन सा कपड़ा किस का इस्तेमाल किया हुआ था? ऐसे में अगर ठीक से कपड़ा नहीं धुला, तो दूसरी को इंफैक्शन हो सकता है.

माहवारी के दौरान गर्भाशय का मुंह खुला होता है. इन दिनों अगर साफसफाई का ध्यान नहीं रखा जाए, तो इंफैक्शन होने का खतरा रहता है.

माहवारी के दिनों में घरेलू कपड़े के पैड के बजाय बाजारी पैड का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि कपड़े के पैड की तुलना में बाजारी पैड नमी को ज्यादा देर तक सोखता है, घाव नहीं करता व दाग लगने के डर से बचाता है.

माहवारी के दिनों में नहाना बहुत जरूरी है, खासकर प्रजनन अंगों की साफसफाई का ध्यान रखना चाहिए. पैंटी को भी रोजाना बदलना चाहिए.

माहवारी के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले बाजारी पैड को कागज में लपेट कर कूड़ेदान में डालें. इन्हें पानी के साथ न बहाएं और न ही खुले में डालें.

इस में कोई शक नहीं है कि अच्छी या नामीगिरामी कंपनियों के सैनिटरी नैपकिन काफी महंगे आते हैं. एक दिन में 4-5 पैड लग जाते हैं. यह खर्च उन के बजट से बाहर है. इस के अलावा उन्हें दुकान पर जा कर इसे खरीदने में भी शर्म आती है.

लड़कियों और औरतों की सेहत की खातिर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली कंपनियों को अनुदान दे कर इस की लागत इतनी कम कर दें कि एक या 2 रुपए में वह मिलने लगे. यह औरतों और लड़कियों की भलाई की दिशा में एक अच्छा कदम होगा.

समाज को है सोच बदलने की जरूरत

अमेरिका के चुनावी माहौल में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की खबरें कुछ कम हो गईं पर असलियत यही है कि लिंग, रंग, जाति, रेस के मिश्रण से बना महान अमेरिका न केवल आज अपनी गलतियों को उजागर करने में लगा हुआ है, लगातार उन में सुधार भी करना चाह रहा है. भारत में भी आज यही स्थिति है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से दक्षिणी अमेरिका से विधिवत या गैरकानूनी आए लोगों का भय दिखा कर वोट लिए हैं वैसा ही भारत में होता रहा है. यहां कभी बंगलादेशियों को तो कभी पाकिस्तानियों को ले कर देशभक्ति का गुणगान कर वोटरों को अपने पक्ष में वोट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. डोनाल्ड ट्रंप की काली जनता के खिलाफ बोलने की खुल्लमखुल्ला हिम्मत तो नहीं हुई पर जब वे औरतों और लैटिनों के खिलाफ बोलते थे तो उस के पीछे अश्वेतों के प्रति जहर भी छिपा रहता था. यह जहर बहुत से गोरों के मन में सदियों से भरा है, वे अश्वेतों को आज भी गुलाम समझते हैं.

यही भारत में हो रहा है. यहां ‘दलित लाइव्स मैटर’ जैसे आंदोलन की जरूरत है क्योंकि यहां आज भी गलीगली, गांवगांव में, 1932 के अंबेडकर-गांधी पैक्ट के बावजूद, दलित गरीब, बीमार, अंधविश्वासी, बेसहारा, भूखे और शोषित हैं.

आरक्षण का लाभ भारत की जनसंख्या के बहुत छोटे से हिस्से को मिला. वह अपनी पहचान व आत्मविश्वास को नहीं बना पाया और इसी कारण उस का अर्थव्यवस्था में वह योगदान नहीं हो रहा जो उस की मेहनत, योग्यता, उपयोगिता आदि से संभव है. दलितों, पिछड़ों, शक की निगाहों से देखे जाने वाले अल्पसंख्यक मुसलिमों, सभी अन्य वंचित आदिवासी जातियों व धर्मों की औरतों को यदि अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में नहीं लाया गया तो देश कभी वांछित तरक्की नहीं कर पाएगा. यह तभी संभव है जब धर्म के अंधविश्वास, जो इन जातियों, वर्गों व ऊंचे शक्तिशाली संपन्न वर्गों के बीच दीवारें खड़ी करते हैं, तोड़े जाएं. भारत में दलित व मुसलिम रंग या शारीरिक बनावट में अलग नहीं हैं, यह एक सुखद बात है. पर इस के बावजूद उन के साथ भेदभाव होता है तो धार्मिक कारणों से. दलितों और पिछड़ों को धर्मजनित वर्णव्यवस्था अलग करती है और मुसलमानों को इसलाम व उस पर बने पाकिस्तान व बंगलादेश.

चीन और अमेरिका यदि सफल हुए तो इसलिए कि उन्होंने सभी रंगों, जातियों, औरतों को दुनिया के अन्य समाजों के मुकाबले बराबरी का ज्यादा हक दिया. भारत को उन्नति की सीढ़ी पर अगला कदम रखना है तो समाज की सोच बदलनी होगी. देश को अलगाववादी सोच पर हमला करना होगा और अलगाववाद केवल कश्मीर में ही नहीं है, हमारे दिलों में भी बैठा है, यह हमें पैदाइशी गुणों के रूप में मिल रहा है.

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