आमतौर पर लोगों को बचपन से एक ही बात सिखाई जाती है कि मंदिर जाओ, जोत जला कर धूपबत्ती करो और फिर भगवान से जो भी मांगो वह मिल जाएगा. सवाल उठता है कि अपने मतलब के लिए मंदिर जा कर फलफूल और प्रसाद चढ़ा कर भगवान से इस तरह मांगने वालों को हम क्या कहेंगे? रिश्वत के नाम पर कुछ फलफूल, अगरबत्ती, मिठाई और सिक्के दे कर क्या आप भगवान से अपनी बात मनवा लेंगे? कभी नहीं.

रिश्वत देना तो वैसे भी अपराध होता है. फिर यहां इसे अपराध क्यों न माना जाए? बिना किसी मतलब के कौन है जो मंदिरों के चक्कर लगाता है? यह तो एक तरह का कारोबार बन गया है. कुछ हासिल करना है तो पूजा करने पहुंच जाओ या घर में ही आंख बंद कर के भगवान की मूर्ति के आगे अपनी बात दोहराते रहो.

हमें बचपन से कर्म यानी काम करने की सीख क्यों नहीं दी जाती है? अपनी मेहनत, लगन और काबिलीयत से मनचाही चीज हासिल करने की सलाह क्यों नहीं दी जाती है? कर्म की अहमियत क्यों नहीं समझाई जाती है? कामकाजी बनने से बढ़ कर कामयाबी के लिए और क्या चाहिए? बचपन से बच्चों को कर्मप्रधान बनने के बारे में सिखाया क्यों नहीं जाता है?

कितने ही लोग दिनरात मंदिर में पूजापाठ में लगे रहते हैं. कभी सावन, कभी नरक चतुर्दशी, कभी पूर्णमासी, कभी नवरात्र, कभी मंगलवार, कभी शनिवार और इसी तरह कितने ही खास दिन आते रहते हैं यानी पूजा के लिए जरूरी दिनों की कोई कमी नहीं है. इन सब के पीछे चाहे काम का कुछ भी नुकसान क्यों न हो जाए, सब चलता है.

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