मासिक धर्म या माहवारी कुदरत का दिया हुआ एक ऐसा तोहफा है, जो किसी लड़की या औरत के मां बनने का रास्ता पक्का करता है. इस की शुरुआत 10 साल से 12 साल की उम्र में हो जाती है, जो  45 साल से 50 साल तक बनी रहती है. इस के बाद औरतों में रजोनिवृत्ति हो जाती है. इस दौरान उन्हें हर महीने माहवारी के दौर से गुजरना होता है. अगर वे अपने नाजुक अंग की समुचित साफसफाई न करें, तो तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ सकती हैं.

हमारे समाज में आज भी माहवारी के 4-5 दिनों तक लड़कियों व औरतों के साथ अछूत जैसा बरताव किया जाता है. यही नहीं, ज्यादातर लड़कियां और औरतें इस दौरान परंपरागत रूप से कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और उसे धो कर ऐसी जगह सुखाती हैं, जहां किसी की नजर न पड़े.

सेहत के नजरिए से ये कपड़े दोबारा इस्तेमाल करने के लिए ठीक नहीं हैं. इस का विकल्प सैनिटरी नैपकिन हैं, लेकिन  महंगे होने की वजह से इन का इस्तेमाल केवल अमीर या पढ़ीलिखी औरतों तक ही सिमटा है.

आज भी देश के छोटेछोटे गांवों और कसबों की लड़कियां और औरतें सैनिटरी नैपकिन के बजाय घासफूस, रेत, राख, कागज या कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं.

एक सर्वे के मुताबिक, 80 फीसदी औरतें और स्कूली छात्राएं ऐसा ही करती हैं. इन में न सिर्फ अनपढ़, बल्कि कुछ कामकाजी पढ़ीलिखी औरतें भी शामिल हैं.

फिक्की लेडीज आर्गनाइजेशन की सदस्यों द्वारा किए गए सर्वे में ऐसी बातें सामने आई हैं. संस्था की महिला उद्यमियों ने गांवों और छोटे शहरों में स्कूली छात्राओं और महिला मजदूरों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सब्जी बेचने वाली औरतों से बात की. उन से पूछा गया कि वे सैनिटरी हाईजीन के बारे में क्या जानती हैं?

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