Hindi Family Story: मकान मालकिन – क्यों थीं प्रभा देवी आंटी खड़ूस?

Hindi Family Story: ‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था.

पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था.

होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है,

2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया.

राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं.

आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के  पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं.

आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैसे टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’ थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया.

आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया.

‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’

आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी.

उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’

वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है.

उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’

तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था.

मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’

राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’

इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई. Hindi Family Story

Best Hindi Story: किसना का दर्द – महल्ला आवारा औरतों का

Best Hindi Story: झारखंड का एक बड़ा आदिवासी इलाका है अमानीपुर. जिले के नए कलक्टर ने ऐसे सभी मुलाजिमों की लिस्ट बनाई, जो आदिवासी लड़कियां रखे हुए थे. उन सब को मजबूर कर दिया गया कि वे उन से शादी करें और फिर एक बड़े शादी समारोह में उन सब का सामूहिक विवाह करा दिया गया.

दरअसल, आदिवासी बहुल इलाकों के इन छोटेछोटे गांवों में यह रिवाज था कि वहां पर कोई भी सरकारी मुलाजिम जाता, तो किसी भी आदिवासी घर से एक लड़की उस की सेवा में लगा दी जाती. वह उस के घर के सारे काम करती और बदले में उसे खानाकपड़ा मिल जाता.

बहुत से लोग तो उन में अपनी बेटी या बहन देखते, मगर उन्हीं में से कुछ अपने परिवार से दूर होने के चलते उन लड़कियों का हर तरह से शोषण भी करते थे.

वे आदिवासी लड़कियां मन और तन से उन की सेवा के लिए तैयार रहती थीं, क्योंकि वहां पर ज्यादातर कुंआरे ही रहते थे, जो इन्हें मौजमस्ती का सामान समझते और वापस आ कर शादी कर नई जिंदगी शुरू कर लेते. मगर शायद आधुनिक सोच को उन पर रहम आ गया था, तभी कलक्टर को वहां भेज दिया था. उन सब की जिंदगी मानो संवर गई थी.

मगर यह सब इतना आसान नहीं था. मुखिया और कलक्टर का दबदबा होने के चलते कुछ लोग मान गए, पर कुछ लोग इस के विरोध में भी थे. आखिरकार कुछ लोग शादी के बंधन में बंध गए और लड़कियां दासी जीवन से मुक्त हो कर पत्नी का जीवन जीने लगीं.

मगर 3 साल बाद जब कलक्टर का ट्रांसफर हो गया, तब शुरू हुआ उन लड़कियों की बदहाली का सिलसिला. उन सारे मुलाजिमों ने उन्हें फिर से छोड़ दिया और  शहर जा कर अपनी जाति की लड़कियों से शादी कर ली और वापस उसी गांव में आ कर शान से रहने लगे.

तथाकथित रूप से छोड़ी गई लड़कियों को उन के समाज में भी जगह नहीं मिली और लोगों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया. ऐसी छोड़ी गई लड़कियों से एक महल्ला ही बस गया, जिस का नाम था ‘किस बिन पारा’ यानी आवारा औरतों का महल्ला.

उसी महल्ले में एक ऐसी भी लड़की थी, जिस का नाम था किसना और उस से शादी करने वाला शहरी बाबू कोई मजबूर मुलाजिम न था. उस ने किसना से प्रेम विवाह किया था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. पर समय के साथ वह भी उस से ऊब गया, तो वहां से ट्रांसफर करा कर चला गया.

किसना को हमेशा लगता था कि उस की बेटी को आगे चल कर ऐसा काम न करना पड़े. वह कोशिश करती कि उसे इस माहौल से दूर रखा जाए.

लिहाजा, उस को किसना ने दूसरी जगह भेज दिया और खुद वहीं रुक गई, क्योंकि वहां रुकना उस की मजबूरी थी. आखिर बेटी को पढ़ाने के लिए पैसा जो चाहिए था. बदलाव बस इतना ही था कि पहले वह इन लोगों से कपड़ा और खाना लेती थी, पर अब पैसा लेने लगी थी. उस में से भी आधा पैसा उस गांव की मुखियाइन ले लेती थी.

उस दिन मुखियाइन किसना को नई जगह ले जा रही थी, खूब सजा कर. वह मुखियाइन को काकी बोलती थी.

वे दोनों बड़े से बंगले में दाखिल हुईं. ऐशोआराम से भरे उस घर को किसना आंखें फाड़ कर देखे जा रही थी.

तभी किसना ने देखा कि एक तगड़ा 50 साला आदमी वहां बैठा था, जिसे सब सरकार कहते थे. उस आदमी के सामने सभी सिर झुका कर नमस्ते कर रहे थे.

उस आदमी ने किसना को ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर रूमाल से मोगरे का गजरा निकाल कर उस के गले में डाल दिया. वह चुपचाप खड़ी थी.

सरकार ने उस की आंखों में एक अजीब सा भाव देखा, फिर मुखियाइन को देख कर ‘हां’ में गरदन हिला दी.

तभी एक बूढ़ा आदमी अंदर से आया और किसना से बोला, ‘‘चलो, हम तुम्हारा कमरा दिखा दें.’’

किसना चुपचाप उस के पीछे चल दी. बाहर बड़ा सा बगीचा था, जिस के बीचोंबीच हवेली थी और किनारे पर छोटे, पर नए कमरे बने थे.

वह बूढ़ा नौकर किसना को उन्हीं बने कमरों में से एक में ले गया और बोला, ‘‘यहां तुम आराम से रहो. सरकार बहुत ही भले आदमी हैं. तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है…’’

किसना ने अपनी पोटली वहीं बिछे पलंग पर रख दी और कमरे का मुआयना करने लगी.

दूसरे दिन सरकार खुद ही उसे बुलाने कमरे तक आए और सारा काम समझाने लगे. रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक उन की सेवा में रहना था.

किसना ने भी जमाने भर की ठोकरें खाई थीं. वह तुरंत समझ गई कि यह बूढ़ा क्या चाहता है. उसे भी ऐसी सारी बातों की आदत हो गई थी.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘हम अपना काम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सरकार, आप को शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

कुछ ही दिनों में किसना सरकार के रंग में रंग गई. उन के लिए खाना बनाती, कपड़े धोती, घर की साफसफाई करती और उन्हें कभी देर हो जाती, तो उन का इंतजार भी करती. सरकार भी उस पर बुरी तरह फिदा थे. वे दोनों हाथों से उस पर पैसा लुटाते.

एक रात सरकार उसे प्यार कर रहे थे, पर किसना उदास थी. उन्होंने उदासी की वजह पूछी और मदद करने की बात कही.

‘‘नहीं सरकार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ किसना बोली.

‘‘देख, अगर तू बताएगी नहीं, तो मैं मदद कैसे करूंगा,’’ सरकार उसे प्यार से गले लगा कर बोले.

किसना को उन की बांहें किसी फांसी के फंदे से कम न लगीं. एक बार तो जी में आया कि धक्का दे कर बाहर चली जाए, पर वह वहां से हमेशा के लिए जाना  चाहती थी. उसे अच्छी तरह मालूम था कि यह बूढ़ा उस पर जान छिड़कता है. सो, उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘सरकार, मेरी बेटी बहुत बीमार है. इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत है. मैं पैसा कहां से लाऊं? आज फिर मेरी मां का फोन आया है.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘नहीं सरकार, मुझे आप से पैसे नहीं चाहिए… मुखियाइन मुझे मार देगी. मैं पैसे नहीं ले सकती.’’

सरकार ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुखियाइन को कौन बताएगा? मैं तो नहीं बताऊंगा.’’

‘‘एक लाख रुपए चाहिए.’’

‘‘एक… लाख…’’ बड़ी तेज आवाज में सरकार बोले और उसे दूर झटक दिया. किसना घबरा कर रोने लगी.

‘‘अरे… तुम चुप हो जाओ,’’ और सरकार ने अलमारी से एक लाख रुपए निकाल कर उस के हाथ पर रख दिए, फिर उस की कीमत वसूलने में लग गए.

बेचारी किसना उस सारी रात क्याक्या सोचती रही और पूरी रात खुली आंखों में काट दी.

शाम को जब सरकार ने किसना को बुलाने भेजा था, तो वह कमरे पर नहीं मिली. चिडि़या पिंजरे से उड़ चुकी थी. आखिरी बार उसे माली काका ने देखा था. सरकार ने भी अपने तरीके से ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली.

उधर किसना पैसा ले कर कुछ दिनों तक अपनी सहेली पारो के घर रही और कुछ समय बाद अपने गांव चली गई.

किसना की सहेली पारो बोली, ‘‘किसना, अब तू वापस मत आना. काश, मैं भी इसी तरह हिम्मत दिखा पाती. खैर छोड़ो…’’

किसना ने अपना चेहरा घूंघट से ढका और बस में बैठते ही भविष्य के उजियारे सपनों में खो गई. इन सपनों में खोए 12 घंटों का सफर उसे पता ही नहीं चला. बस कंडक्टर ने उसे हिला कर जगाया, ‘‘ऐ… नीचे उतर, तेरा गांव आ गया है.’’

किसना आंखें मलते हुए नीचे उतरी. उस ने अलसाई आंखों से इधरउधर देखा. आसमान में सूरज उग रहा था. ऐसा लगा कि जिंदगी में पहली बार सूरज देखा हो.

आज 30 बसंत पार कर चुकी किसना को ऐसा लगा कि जैसे जिंदगी में ऐसी सुबह पहली बार देखी हो, जहां न मुखियाइन, न दलाल, न सरकार… वह उगते हुए सूरज की तरफ दोनों हाथ फैलाए एकटक आसमान की तरफ निहारे जा रही थी. आतेजाते लोग उसे हैरत से देख रहे थे, तभी अचानक वह सकुचा गई और अपना सामान समेट कर मुसकराते हुए आगे बढ़ गई.

किसना को घर के लिए आटोरिकशा पकड़ना था. तभी सोचा कि मां और बेटी रोशनी के लिए कुछ ले ले, दोनों खुश हो जाएंगी. उस ने वहां पर ही एक मिठाई की दुकान में गरमागरम कचौड़ी खाई और मिठाई भी ली.

किसना पल्लू से 5 सौ का नोट निकाल कर बोली, ‘‘भैया, अपने पैसे काट लो.’’

दुकानदार भड़क गया, ‘‘बहनजी, मजाक मत करिए. इस नोट का मैं क्या करूंगा. मुझे 2 सौ रुपए दो.’’

‘‘क्यों भैया, इस में क्या बुराई है.’’

‘‘तुम को पता नहीं है कि 2 दिन पहले ही 5 सौ और एक हजार के नोट चलना बंद हो गए हैं.’’

किसना ने दुकानदार को बहुत समझाया, पर जब वह न माना तो आखिर में अपने पल्लू से सारे पैसे निकाल कर उसे फुटकर पैसे दिए और आगे बढ़ गई.

अभी किसना ढंग से खुशियां भी न मना पाई थी कि जिंदगी में फिर स्याह अंधेरा फैलने लगा. अब क्या करेगी? उस के पास तो 5 सौ और एक हजार के ही नोट थे, क्योंकि इन्हें मुखियाइन से छिपा कर रखना जो आसान था.

रास्ते में बैंक के आगे लगी भीड़ में जा कर पूछा तो पता लगा कि लोग नोट बदल रहे हैं. किसना को तो यह डूबते को तिनके का सहारा की तरह लगा. किसी तरह पैदल चल कर ही वह अपने घर पहुंची.

बेटी रोशनी किसना को देखते ही लिपट गई और बोली, ‘‘मां, अब तुम यहां से कभी वापस मत जाना.’’

किसना उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘अब तेरी मां कहीं नहीं जाएगी.’’

बेटी के सो जाने के बाद किसना ने अपनी मां को सारा हाल बताया. उस की मां ने पूछा, ‘‘अब आगे क्या करोगी?’’

किसना ने कहा, ‘‘यहीं सिलाईकढ़ाई की दुकान खोल लूंगी.’’

दूसरे दिन ही किसना अपने पैसे ले कर बैंक पहुंची, मगर मंजिल इतनी आसान न थी. सुबह से शाम हो गई, पर उस का नंबर नहीं आया और बैंक बंद हो गया.

ऐसा 3-4 दिनों तक होता रहा और काफी जद्दोजेहद के बाद उस का नंबर आया, तो बैंक वालों ने उस से पहचानपत्र मांगा. वह चुपचाप खड़ी हो गई.

बैंक के अफसर ने पूछा कि पैसा कहां से कमाया? वह समझाती रही कि यह उस की बचत का पैसा है.

‘‘तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं. तुम्हें अपनी आमदनी का जरीया बताना होगा.’’

बेचारी किसना रोते हुए बैंक से बाहर आ गई. किसना हर रोज बैंक के बाहर बैठ जाती कि शायद कोई मदद मिल जाए, मगर सब उसे देखते हुए निकल जाते.

तभी एक दिन उसे एक नौजवान आता दिखाई पड़ा. जैसेजैसे वह किसना के नजदीक आया, किसना के चेहरे पर चमक बढ़ती चली गई. उस के जेहन में वे यादें गुलाब के फूल पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह ताजा हो गईं. कैसे यह बाबू उस का प्यार पाने के लिए क्याक्या जतन करता था? जब वह सुबहसुबह उस के गैस्ट हाउस की सफाई करने जाती थी, तो बाबू अकसर नजरें बचा कर उसे देखता था.

वह बाबू किसना को अकसर घुमाने ले जाता और घंटों बाग में बैठ कर वादेकसमें निभाता. वह चाहता कि अब हम दोनों तन से भी एक हो जाएं. किसना अब उसे एक सच्चा प्रेमी समझने लगी और उस की कही हर बात पर भरोसा भी करती थी, मगर किसना बिना शादी के कोई बंधन तोड़ने को तैयार न थी, तो उस ने उस से शादी कर ली, मगर यह शादी उस ने उस का तन पाने के लिए की थी.

किसना का नशा उस की रगरग में समाया था. उस ने सोचा कि अगर यह ऐसे मानती है तो यही सही, आखिर शादी करने में बुराई क्या है, बस माला ही तो पहनानी है. उस ने आदिवासी रीतिरिवाज से कलक्टर और मुखिया के सामने किसना से शादी कर ली, लेकिन उधर लड़के की मां ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया था.

एक दिन बिना बताए किसना का बाबू कहीं चला गया. इस तरह वे दोनों यहां मिलेंगे, किसना ने सोचा न था.

जब वह किसना के बिलकुल नजदीक आया, तो किसना चिल्ला कर बोली, ‘‘अरे बाबू… आप यहां?’’

वह नौजवान छिटक कर दूर चला गया और बोला, ‘‘क्या बोल रही हो? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं तुम्हारी किसना हूं? क्या तुम अब मुझे पहचानते भी नहीं हो? मुझे तुम्हारा घर नहीं चाहिए. बस, एक छोटी सी मदद…’’

‘‘अरे, तुम मेरे गले क्यों पड़ रही हो?’’ वह नौजवान यह कहते हुए आगे बढ़ गया और बैंक के अंदर चला गया.

अब तो किसना रोज ही उस से दया की भीख मांगती और कहती कि बाबू, पैसे बदलवा दो, पर वह उसे पहचानने से मना करता रहा.

ऐसा कहतेकहते कई दिन बीत गए, मगर बाबू टस से मस न हुआ.

आखिरकार किसना ने ठान लिया कि अब जैसे भी हो, उसे पहचानना ही होगा. उस ने वापस आ कर सारा घर उलटपलट कर रख दिया और उसे अपनी पहचान का सुबूत मिल गया.

सुबह उठ कर किसना तैयार हुई और मन ही मन सोचा कि रो कर नहीं अधिकार से मांगूंगी और बेटी को भी साथ ले कर बैंक गई. उस के तेवर देख कर बाबू थोड़ा सहम गया.

उसे किनारे बुला कर किसना बोली, ‘‘यह रहा कलक्टर साहब द्वारा कराई गई हमारी शादी का फोटो. अब तो याद आ ही गया होगा?’’

‘‘हां… किसना… आखिर तुम चाहती क्या हो और क्यों मेरा बसाबसाया घर उजाड़ना चाहती हो?’’

किसना आंखों में आंसू लिए बोली, ‘‘जिस का घर तुम खुद उजाड़ कर चले आए थे, वह क्या किसी का घर उजाड़ेगी, रमेश बाबू… वह लड़की जो खेल रही है, उसे देखो.’’

रमेश पास खेल रही लड़की को देखने लगा. उस में उसे अपना ही चेहरा नजर आ रहा था. उसे लगा कि उसे गले लगा ले, मगर अपने जज्बातों को काबू कर के बोला, ‘‘हां…’’

किसना तकरीबन घूरते हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारी ही बेटी है, जिसे तुम छोड़ आए थे.’’

रमेश के चेहरे के भाव को देखे बिना ही बोली, ‘‘देखो रमेश बाबू, मुझे तुम में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं एक नई जिंदगी जीना चाहती हूं. अगर इन पैसों का कुछ न हुआ, तो लौट कर फिर वहीं नरक में जाना पड़ेगा.

‘‘मैं अपनी बेटी को उस नरक से दूर रखना चाहती हूं, नहीं तो उसे भी कुछ सालों में वही कुछ करना पड़ेगा, जो उस की मां करती रही है. अपनी बेटी की खातिर ही रुपया बदलवा दो, नहीं तो लोग इसे वेश्या की बेटी कहेंगे.

‘‘अगर तुम्हारे अंदर जरा सी भी गैरत है, तो तुम बिना सवाल किए पैसा बदलवा लाओ, मैं यहीं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’

रमेश ने उस से पैसों का बैग ले लिया और खेलती हुई बेटी को देखते हुए बैंक के अंदर चला गया और कुछ घंटे बाद वापस आ कर रमेश ने नोट बदल कर किसना को दे दिए और कुछ खिलौने अपने बेटी को देते हुए गले लगा लिया.

तभी किसना ने आ कर उसे रमेश के हाथों से छीन लिया और बेटी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर बोली, ‘‘रमेश बाबू… चाहत की अलगनी पर धोखे के कपड़े नहीं सुखाए जाते…’’ और बेटी के साथ सड़क की भीड़ में अपने सपनों को संजोते हुए खो गई. Best Hindi Story

Hindi Kahani: क्लेम – परमानंद और बाढ़ का मुआवजा

Hindi Kahani: जब आंखें खुलीं, तो परमानंद ने देखा कि दिन निकल आया था. रात को सोते समय उस ने सोचा था कि सुबह वह जल्दी उठेगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल थी, वरना कुछ कमाई हो जाती. वैसे, आज के समय तांगा कौन लेता है? सभी तेज भागने वाली सवारी लेना चाहते हैं. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से कुछ उम्मीद बंधी थी, पर सिर भारी हो रहा था. बुखार सा लग रहा था. इच्छा हुई, आराम कर ले, पर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और उस का रुस्तम? उस का क्या होगा?

परमानंद जल्दी से उठा और रुस्तम को चारापानी डाल कर तैयार होने के लिए चल दिया. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटा कर उस ने तांगा तैयार किया और सड़क पर जा पहुंचा. जल्दी ही सवारी भी मिल गई.

2 लोगों ने हाथ दिखा कर उसे रोका. उन में एक अधेड़ था और दूसरा नौजवान.

‘‘कलक्ट्रेट चलना है?’’ अधेड़ आदमी ने पूछा.

‘‘जी, चलेंगे,’’ परमानंद बोला.

‘‘क्या लोगे? पहले तय कर लो,

नहीं तो बाद में  झंझट करोगे,’’ नौजवान ने कहा.

‘‘आप ही मुनासिब समझ कर दे दीजिएगा. झंझट किस बात का?’’

‘‘नहींनहीं, पहले तय हो जाना चाहिए. हम 30 रुपए देंगे. चलना है

तो बोलो, नहीं तो हम दूसरी सवारी देखते हैं.’’

‘‘ठीक है साहब,’’ परमानंद बोला.

‘‘और देखो, कलक्ट्रेट के भीतर पहुंचाना होगा. बीच में ही मत छोड़ देना.’’

‘‘गांधी मैदान का भाड़ा ही 30 रुपए होता है. भीतर अंदर तक तो 50 रुपए होगा.’’

‘‘देखो, हम ने जो कह दिया, सो कह दिया. चलना है तो चलो,’’ नौजवान की आवाज सख्त थी.

परमानंद इनकार करने ही जा रहा था कि बुजुर्ग ने तांगे पर चढ़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तुम 40 रुपए ले लेना. हम भी तो परेशानी में पड़े हैं.’’

अब परमानंद इनकार न कर सका. उस के सिर का दर्द बढ़ता जा रहा था और वह तकरार के मूड में नहीं था.

‘‘ठीक है, 40 रुपए ही सही,’’ परमानंद ने धीरे से कहा. तांगा सड़क पर सरपट दौड़ने लगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से सड़क खाली सी थी. रुस्तम भी रात के आराम से तरोताजा हो कर तेजी से दौड़ रहा था.

दोनों सवारी आपस में बातें कर रहे थे. पता चला, वे एक परिवार के नहीं हैं, बल्कि अलगअलग परिवारों से हैं. शायद दूर का रिश्ता हो. दोनों बाढ़ के नुकसान के अनुदान के सिलसिले में कलक्टर साहब के दफ्तर जा रहे थे.

थोड़ा आगे जाने पर सड़क की दूसरी ओर एक गिरजाघर दिखाई पड़ा. परमानंद ने देखा कि अंधेड़ ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से सिर झुकाया.

नौजवान ने हैरानी से पूछा, ‘‘आप ईसाई गिरजाघर को प्रणाम करते हैं?’’

अधेड़ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, किस देवी या देवता का आशीर्वाद मिल जाए और काम बन जाए?’’

वे अधेड़ बता रहे थे, ‘‘इस क्लेम को पाने के लिए मैं 50-60 हजार रुपए खर्च कर चुका हूं. क्लेम 2 लाख रुपए का किया है. अपने एकमंजिला मकान को दोमंजिला दिखाया है. खेती का नुकसान भी दोगुना दिखाया है,’’ और एक लंबी आह भरते हुए उन्होंने आगे जोड़ा, ‘‘देखें, कितना पास होता है और मिलता क्या है?’’

नौजवान ने हामी भरी, ‘‘मैं ने भी अपना नुकसान खूब बढ़ाचढ़ा कर दिखाया है. मुखिया तो मानता ही न था. 30 हजार रुपए दे कर उसे किसी तरह मनाया. मुलाजिम और चपरासी के हाथ अलग से गरम करने पड़े.

‘‘और कलक्ट्रेट में तो खुलेआम लूट है. सभी मुंह खोले रहते हैं. बिना पैसा लिए कोई काम ही नहीं करता. फाइल आगे बढ़ाने के लिए हर बार चपरासी को चढ़ावा देना पड़ता है. लगता है कि सभी बाढ़ और सूखे के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहते हैं.’’

आगे गंगा किनारे एक मंदिर था. उन्होंने तांगा रुकवाया, उतर कर बगल की दुकान से तमाम तरह की मिठाइयां खरीदीं और मंदिर में प्रवेश किया.

जब वे वापस आए, तो नौजवान ने कहा, ‘‘इतनी सारी मिठाइयां चढ़ाने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘सुना नहीं… जितनी ज्यादा शक्कर डालोगे, हलवा उतना ही मीठा होगा. लंबाचौड़ा क्लेम है, चढ़ावा तो बड़ा करना ही होगा. पंडितजी ने कहा है कि जितना ज्यादा चढ़ावा चढ़ाओगे, तो जल्दी फल मिलेगा.’’

इस बाढ़ में तो परमानंद ने अपना सबकुछ खो दिया है. उस का सारा परिवार, उस की प्यारी पत्नी, उस के 2 छोटेछोटे बच्चे, उस का बूढ़ा पिता. सब को इस बाढ़ ने निगल लिया था. एक छोटा सा मिट्टी का घर था, गंगा किनारे सरकारी जमीन पर. सबकुछ, सारे लोग, घर का सारा सामान, रात के अंधेरे में गंगा में समा गए. कुछ भी नहीं बचा.

यह तो रुस्तम की मेहरबानी थी कि वह बच गया, नहीं तो वह भी गंगा की भेंट चढ़ गया होता. पता नहीं, जानवरों को कैसे आने वाली मुसीबत का पता चल जाता है? शायद उसी के चलते उस दिन रुस्तम, जो बाहर बंधा था, रस्सी तोड़ कर जोरों से हिनहिनाते हुए भाग खड़ा हुआ. परमानंद उस के पीछे दौड़ा. दौड़तेभागते वे दूर निकल गए.

रुस्तम लौटने को तैयार ही नहीं था, इसलिए परमानंद भी वहीं रह गया. जब वह लौटा, तो सबकुछ खत्म हो गया था. तेज धारा के कटाव से उस का घर गंगा में बह गया था. तब उस के जीने की इच्छा भी मर गई थी. वह तो जिंदा रहा सिर्फ रुस्तम के लिए, जो उस का घोड़ा नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा था. वह उस का बेटा था और अब तो उस की जिंदगी बचाने वाला भी.

‘‘जरा जल्दी चलो, दिनभर ले लोगे क्या?’’ नौजवान ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘पहले ही इतनी देरी हो गई है.’’

तांगा तेजी से भाग रहा था… और दिनों से कहीं ज्यादा तेज.

‘क्या उड़ा कर ले चलें? तांगा ही तो है, मोटरगाड़ी नहीं,’ परमानंद ने मन ही मन कहा, पर उन लोगों को खुश रखने के लिए उस ने घोड़े को ललकारा, ‘‘चल बेटा, अपनी चाल दिखा. साहब लोगों को देर हो रही है.’’

लेकिन उस ने चाबुक नहीं उठाया. वह रुस्तम को कभी भी नहीं मारता था.

जल्दी ही वे दोनों कलक्ट्रेट पहुंच गए. अधेड़ ने सौ का नोट निकाला, ‘‘बाकी के 60 रुपए दे दो भाई.’’

छुट्टे के नाम पर परमानंद के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी.

‘‘मैं छुट्टे कहां से लाऊं?’’ उस ने आसपास नजर दौड़ाई. छुट्टे पैसे देने वाला उसे कोई न दिखा.

‘‘छुट्टे ले कर चलना चाहिए न?’’ नौजवान बोला. अपने बटुए से उस ने

30 रुपए निकाले, ‘‘मेरे पास तो बस यही छुट्टे हैं.’’

‘‘ले लो भाई. आज ये ही रख

लो. बाकी फिर कभी ले लेना,’’ अधेड़ ने कहा.

परमानंद ने वे 30 रुपए ले लिए. पहली सवारी में ही घाटा. फिर उस ने रुस्तम को देखा और उस की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘चलो, तेरे लिए चारापानी का इंतजाम तो हो गया.’’

परमानंद सोच रहा था कि बाढ़ के अनुदान का अधिकार इन लोगों से ज्यादा तो उस का था. उस का इन लोगों से ज्यादा नुकसान हुआ था, पर वह कोई क्लेम नहीं कर सका था. घूस देने के लिए उस के पास पैसे न थे. जमीनजायदाद न थी. उस का घर मिट्टी का था, जो सरकारी जमीन पर बना था. मुखिया 10 हजार रुपए मांग रहा था. मुलाजिम की मांग अलग थी और कलक्ट्रेट का खर्च अलग. कहां से लाता वह यह सब? बाढ़ में सबकुछ खो देने के बाद उसे कुछ भी मुआवजा नहीं मिला.

किसी ने सुझाया था, ‘रुस्तम को बेच दो.’

ऐसा परमानंद कैसे कर सकता था? कोई अपने बेटे को बेच सकता है भला? उस ने अपने रुस्तम को प्यार से थपथपाया, ‘‘मेरा क्लेम तो तू ही है. मेरी सारी जरूरतों को तू ही पूरा करता है.’’

रुस्तम ने गरदन हिला कर सहमति जताई. गले में बंधी घंटियां बज उठीं और परमानंद के कानों में मधुर संगीत गूंज उठा. Hindi Kahani

Story In Hindi: जुम्मन के मन की बात – दर्द ए दिल

Story In Hindi: अब्बू और अम्मी के राज में भी सभी तरह की बातें करते थे, पर कभी मन की बात नहीं कर सके. वैसे भी बाप के होटल में गुजारा करने वालों की कोई  सुनता नहीं. जवानी फूटी तो बगल और नाक के नीचे वाले हिस्सों में छोटेछोटे बाल उगने शुरू हुए, तो स्कूल और कालेज की लड़की सहपाठी से ईलू टाइप मन की बात कहने की इच्छा बलवती हुई, पर बेरोजगारों की जब ऊपर वाला नहीं सुनता तो लड़की सहपाठी क्या खाक सुनेगी. यह विचार मन में आते ही जुम्मन चचा के मन के उपवन में मन की बात दफन हो कर रह गई.

डिगरी हासिल होने पर घर वालों से यूपीएससी की तैयारी करने की मन की बात शेयर करना चाहते थे, कम आमदनी वाले पिता सुलेमान दर्जी के सामने मन की मरजी वाली अर्जी दायर नहीं कर पाए. नतीजतन, सरकारी दफ्तर में चपरासी बन कर रह गए.

आप को पता ही है कि मुलाजिम से अफसर तक सब की सुनने वाले की बात भला कोई सुनता है क्या?

हालत और हालात के चलते बातों की खेती करने वाले जुम्मन चचा के अंदर का हुनर मरने सा लगा. नौकरी लगी नहीं कि निकाह के लिए रिश्ते आने शुरू हो गए.

पतली, कमसिन और हसीन बेगम की इच्छा पालने वाले जुम्मन मियां शर्म और हया के चलते इस बार भी घर वालों से मन की बात कह सकने में नाकाम रहे. नतीजतन, भारीभरकम दहेज के साथ पौने 3 गुना भारीभरकम वजन वाली बेगम से उन का कबूलनामा पढ़वा दिया गया.

निकाह के बाद मन की बात करना तो दूर मन की बात सोचना भी चचा जुम्मन के लिए दूभर हो गया. दफ्तर और घरेलू कामों की दोहरी जिम्मेदारी जो मिल गई थी. पिछले 22 साल से जुम्मन की घरगृहस्थी में एमन बेगम की बात ही कही, सुनी और मानी जाने लगी.

एक दिन की बात है. चचा जुम्मन सूजे हुए चेहरे के साथ लंगड़ाते हुए ‘अल्प संसद’ के उपनाम से मशहूर असलम की चाय दुकान पर पहुंचे. ढुलमुल अर्थव्यवस्था की तरह चचा की अवस्था को देख कर ‘कब, कहां, कैसे’ के संबोधन के साथ मुफ्त का अखबार पढ़ने और चाय की चुसकी के बीच खबरों का स्थानीय पोस्टमार्टम करने वाले बुद्धिजीवी पूछ बैठे, ‘‘अरे, यह क्या हो गया चचाजान?’’

जुम्मन चचा ने गहरी सांस लेते हुए जवाब दिया, ‘‘अब क्या बताऊं भाई, कल दोपहर में तुम्हारी चाचीजान के लिए चाय बनाई थी…’’

‘‘तो क्या चाय सही नहीं बनने के चलते चाची ने खातिरदारी कर डाली?’’ भीड़ में से किसी ने चुटकी ली.

जुम्मन चचा खीजते हुए बोले, ‘‘बिना बात के बेतिया मत बनो यार. पूरी बात सुनते नहीं कि लहेरिया सराय बन बीच में लहराने लगते हो.’’

‘‘मोकामा की तरह मौन हो कर चुपचाप सुन नहीं सकते क्या भाई…’’ मामले की गंभीरता देखते हुए असलम चाय वाले ने अपनी बात रखी.

असलम की बात सुन कर सभी खामोशी से जुम्मन चचा की ओर मुखातिब हुए.

‘‘हां तो मैं बची हुई चाय को सुड़क रहा था कि घर की दीवार पर टंगे ससुराल से मदद से मिले 24 इंच वाले एलईडी पर अचानक छप्पन इंच वाले सज्जन प्रकट हो गए यानी न्यूज चैनल पर संयुक्त राष्ट्र में पीएम के मन की बात का लाइव प्रसारण होने लगा.

‘‘कार्यक्रम देख कर मेरे मन के अंदर भी कई बातें एकसाथ उफान मारने लगीं. यह सोच कर मेरा मन मुझे धिक्कारने लगा कि एक हमारे पीएम साहब हैं, जो संयुक्त राष्ट्र से अपने मन की बात कर रहे हैं. और एक मैं हूं, जो खुद के घर में भी मन बात नहीं कर सकता. कार्यक्रम देखते हुए मुझे प्रेरणा और हौसले का बूस्टर डोज मिला.

‘‘चाय की आखिरी चुसकी के साथ मन ही मन प्रण किया कि आज मैं भी हर हाल में मन की बात कह कर रहूंगा. फिर क्या, टीवी बंद कर बेगम के सामने मैं मन की बात करने लगा. उस के 22 साल के इमोशनल अत्याचार और ससुराल वालों की दखलअंदाजी वाली ट्रैजिडी पर खुल कर मन की बात कहने लगा.

‘‘अभी मेरे मन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तुम्हारी चाची ने जम कर मेरी सुताई कर दी… कल दोबारा मुझे घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा…’’

चाय के गिलास से निकल रही भाप को चेहरे के सूजन क्षेत्र की ओर ले जाते हुए जुम्मन चचा ने अपना पूरा दर्द सुनाया.

‘ओह…’ एकसाथ हमदर्दी के कई स्वर चाय दुकान पर गूंज उठे.

‘‘लेकिन भाई, कल का कार्यक्रम देख कर मुझे एक बात की सीख जरूर मिल गई… यही कि पीएम की नकल नहीं करनी चाहिए…’’ जुम्मन चचा की बात पूरी होने से पहले ही बैंच पर बैठे उस्मान ने जोश में आ कर अपनी बात कही.

‘‘अरे नहीं मियां…’’ लंबी सांस लेते हुए जुम्मन चचा बोले, ‘‘अगर बेगम साथ न हो, तो बंदा संयुक्त राष्ट्र में भी मन की बात कर सकता है और अगर बेगम साथ हो, तो घर के अंदर भी मन की बात करना मयस्सर नहीं…’’ Story In Hindi

Hindi Family Story: लालच – पायल का सच

Hindi Family Story: नीचे से ऊपर तक पानी में भीगे जोगवा को घर के भीतर घुसते देख कर सुखिया चिल्लाई, ‘‘बाहर देह पोंछ कर अंदर नहीं आ सकते थे? सीधे घर में घुस आए. यह भी नहीं सोचा कि घर का पूरा फर्श गीला हो जाएगा.’’

जोगवा को सुखिया की बात पर गुस्सा तो आया, पर उसे चुप रहने का इशारा कर के वह कोने में पड़े एक पीढ़े पर बैठ गया.

पलभर खोजी नजरों से चारों ओर देख कर जोगवा ने अपनी धोती थोड़ी ढीली की और उस की कमर में बंधा मिट्टी का लोंदा फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘यह क्या है?’’ सुखिया ने धीमी आवाज में पूछा.

‘‘मालिक के कुएं में बालटी गिर गई थी. उसे निकालने के लिए जब मैं कुएं में उतरा, तो यह चीज हाथ लगी. मैं सब की नजरों से छिपा कर ले आया हूं,’’ जोगवा बोला.

मिट्टी के उस लोंदे को टटोल कर सुखिया ने पूछा, ‘‘पर यह है क्या?’’

जोगवा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान फैल गई. उस ने कहा,

‘‘तुम देखोगी, तो खुशी से पागल हो जाओगी… सम झी?’’ इतना कह कर उस ने कोने में रखे घड़े के पानी से कीचड़ में लिपटी उस चीज को रगड़रगड़ कर साफ किया, तो उस के हाथ में एक पायल  झलकने लगी.

‘‘अरे सुखिया, देख यह चांदी की है. कितनी मोटी और वजनदार है. असली चांदी की लगती है,’’ जोगवा अपनी खुशी संभाल नहीं पा रहा था.

चांदी की पायल देख कर सुखिया खुशी से  झूम उठी. वह जोगवा का सिर सहलाते हुए बड़े प्यार से बोली, ‘‘क्या इस की जोड़ी नहीं थी?’’

‘‘पानी के अंदर तो लगा था कि कुछ और भी है, पर तब तक मेरा दम घुटने लगा और मैं पानी के अंदर से ऊपर आ गया,’’ जोगवा ने बताया.

सुखिया जोगवा की कमर में हाथ डाल कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘सुनोजी, मेरा मन कहता है कि तुम इस की जोड़ी जरूर ला दोगे. देखो न, यह मेरे पैर में कितनी अच्छी लग रही है…’’ सुखिया पायल को एक पैर में पहन कर बोली, ‘‘मैं इसे पहन कर अपने मायके जाऊंगी और जो लोग तुम्हें भुक्खड़ कह कर खुश होते थे, तुम्हारा मजाक उड़ाते थे, उन्हें दिखा कर बताऊंगी कि मेरा घरवाला कंगाल नहीं है. इस से तुम्हारी इज्जत और भी बढ़ जाएगी.’’

‘‘ठीक है, मैं एक बार और कुएं में उतरूंगा. पर दिन के उजाले में नहीं, बल्कि रात के अंधेरे में… जब सारा गांव गहरी नींद में सोया होगा,’’ जोगवा बोला, तो सुखिया के होंठों पर हंसी फैल गई.

आखिरकार रात हो गई. सारा गांव सन्नाटे में डूबा हुआ था. गहरी नींद में सोए गांव को देख कर जोगवा घर से बाहर निकला. उस के पीछेपीछे सुखिया भी रस्सी ले कर निकली. दोनों धीरेधीरे मालिक के घर की ओर बढ़े.

कुएं के करीब पहुंचने पर दोनों ने पलभर रुक कर इधरउधर देखा. कहीं कुछ नहीं था. सुखिया ने कुएं में रस्सी डाल दी.

कुएं में उतरने से पहले जोगवा सुखिया से बोला कि वह रस्सी को अपनी कमर में लपेट ले, ताकि हाथ से अचानक छूटने का खतरा न रहे.

सुखिया ने वैसा ही किया. रस्सी के एक छोर को अपनी कमर से लपेट कर उस ने दोनों हाथों से उसे कस कर पकड़ लिया.

जोगवा रस्सी के सहारे धीरे-धीरे कुएं के अंधेरे में गुम हो गया. वह अथाह पानी में जोर लगा कर अंदर धंसता चला गया. कीचड़ से भरे तल को उस ने रौंद डाला. कंकड़पत्थर और न जाने क्याक्या उस के हाथ में आए, पर पायल जैसी कोई चीज हाथ न लगी.

जब जोगवा का दम घुटने लगा, तब जल्दीजल्दी हाथपैर मार कर वह पानी की सतह पर आया और कुएं का कुंडा पकड़ कर दम लेने लगा.

सुखिया को कुएं के भीतर से जोगवा के पानी के ऊपर उठने की आहट मिली, तो उस की बांछें खिल उठीं. वह रस्सी के हिलने का इंतजार करने लगी. लेकिन जब अंदर से कोई संकेत नहीं मिला, तब वह निराश हो गई.

कुछ देर दम भरने के बाद जोगवा फिर पानी में घुसा. इधर अंधेरे में कुछ दूरी पर कुत्तों के भूंकने की आवाजें सुनाई पड़ीं.

सुखिया का कलेजा कांप उठा. उस ने कुएं में  झुक कर जोगवा को आवाज लगाई, पर कुएं से उसी की आवाज लौट आई. उस का जी घबराने लगा.

तभी अचानक मालिक के मकान का दरवाजा खुला. लालटेन की धीमी रोशनी कुएं के चबूतरे पर पड़ी.

‘‘कौन है? वहां कौन खड़ा है?’’ दरवाजे के पास से कड़कदार आवाज आई.

मालिक की आवाज सुन कर सुखिया का दिल दहल उठा. उस के हाथपैर कांपने लगा.

दहशत में न जाने कैसे सुखिया की कमरे से बंधी रस्सी छूट कर हाथ में आ गई और हाथ से छूट गई. जोगवा के ऊपर आने का सहारा कुएं के अंधेरे में गुम हो गया.

मालिक लालटेन ले कर कुएं तक आए. वहां उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ा. इधरउधर  झांक कर वे लौट गए.

इधर जोगवा ने पानी से ऊपर आ कर जैसे ही रस्सी पकड़ कर दम लेना चाहा, तो रस्सी ऊपर से आ कर उस की देह में सांप की तरह लिपट गई.

रस्सी उस के लिए नागफांस बन गई और वह पानी में डूबनेउतराने लगा. हाथपैर मारना मुहाल हो गया. धीरेधीरे पानी में उठने वाला हिलोर शांत हो गया.

सुखिया अंधेरे में गिरतीपड़ती घर पहुंची. डर से उस का पूरा शरीर कांप रहा था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी. मालिक के हाथों जोगवा के पकड़े जाने के डर ने उसे रातभर सोने नहीं दिया.

पौ फटते ही मालिक के कुएं के पास भीड़ जमा हो गई. सुखिया को किसी ने आ कर जब जोगवा के डूब जाने की खबर दी, तो वह पछाड़ खा कर गिर पड़ी. गांव वालों ने जोगवा की लाश को कुएं से निकाल कर आंगन में रख दिया.

सुखिया रोतेरोते जब जोगवा की लाश के पास गई, तो उस की आंखें उस के हाथ में दबी किसी चीज पर अटक गईं. सुखिया ने जोगवा के हाथ को अपने हाथ में ले कर जब पायल की रुन झुन की आवाज सुनी, तो उस का कलेजा फट गया. उस चीज को मुट्ठी में भींच कर सुखिया दहाड़ मार कर रोने लगी. उस के लालच ने जोगवा की जान ले ली थी. Hindi Family Story

Story In Hindi: चिट्ठी आई है – सैंट की खुशबू से सराबोर लिफाफा

Story In Hindi: ‘‘मनोज बाबू, आप की बैरंग चिट्ठी है.’’

‘‘हमारी बैरंग चिट्ठी,’’ हम ने चुभती हुई निगाहों से रामकिशोर डाकिए की ओर देखा. उस ने अपनी साइकिल के हैंडल पर टंगे हुए झोले में से पत्रों, मनीआर्डर फार्मों का बंडल निकाला और एक बंद लिफाफा निकाल कर हमारी नाक के सामने कर दिया.

‘‘देख लीजिए, आप का ही नामपता लिखा है,’’ रामकिशोर ने कहा. फिर लिफाफा अपनी नाक के पास ले जा कर जोर से सांस खींची और अपनी दाहिनी आंख दबा कर बोला, ‘‘सैंट की खुशबू आ रही है.’’

हम ने लिफाफा उस के हाथ से ले कर उलटपलट कर देखा. लिफाफे पर भेजने वाले का नामपता नहीं था. हम लिफाफे का एक कोना फाड़ने लगे.

‘‘ऊंहूं, पहले 10 रुपए बैरंग चार्जेज दीजिए और मुझे चलता कीजिए,’’ उस ने लिफाफे पर हाथ रखा.

‘‘देता हूं, देता हूं…पहले तनिक देखने तो दो.’’

‘‘आप लिफाफा मुझे दीजिए. मैं इसे खोल देता हूं. आप इस के खत को देख लें. अगर आप के मतलब का हो तो रख लेना वरना मैं पोस्ट आफिस को ‘लेने से इनकारी है’, लिख कर वापस कर दूंगा.’’

रामकिशोर ने एक पिन की सहायता से धीरेधीरे लिफाफा खोला और फिर खत निकाला.

हम ने खत के पहले पन्ने पर नजर डाली, लिखा था :

‘माई डियर, डियर मनोजजी.’ खत की लिखावट जनाना थी. हमारा दिल तेजी से धड़कने लगा. हम ने जल्दी से खत को तह कर के लिफाफे समेत पैंट की जेब में ठूंस लिया.

‘‘हां हां, मेरा ही है,’’ कहने के साथ ही पर्स से 10 का नोट निकाल कर रामकिशोर की ओर बढ़ाया. फिर घर के दरवाजे की ओर देखा और जल्दी से सड़क पर जाते रिकशे को हाथ दे कर रोका.

‘‘चलो,’’ हम ने रिकशा वाले से चलने को कहा.

पार्क के सुनसान कोने में पड़े एक बैंच पर बैठ कर हम ने खत निकाला. इधरउधर सावधानी से देखा. बैंच के आसपास वाले पेड़ों पर नजर डाली कि कहीं कोई उन पर चढ़ा हुआ न हो. कोई नहीं था. यह तसल्ली होने पर हम ने पत्र खोला और पढ़ने लगे :

‘माई डियर, डियर डियर मनोजजी,

प्यार भरा नमस्कार. मेरा तो जी चाहता है कि डियर डियर से ही सारा पत्र भर दूं, क्योंकि आप हो ही इतने डियर…’

हम खत पढ़ते गए. पूरा खत शहद में डूबा हुआ था. एकएक शब्द मिसरी की डली मालूम होता था. लगता था लिखने वाली ने दिल निकाल कर खत में समेट दिया है. जब से उस ने हमें जौगिंग करते हुए अपनी ही टांगों में उलझ कर गिरते देखा है, उस के दिल में हमारे गिरने, संभलने और गिरने की अदा उतर गई है. उसे सपने में भी हम इसी तरह गिरते- संभलते दिखाई देते हैं.

हमें ऐसी कोई घटना याद नहीं आ रही थी क्योंकि हम जौगिंग करते ही नहीं फिर गिरनासंभलना कैसा? हां, एक बार बीच सड़क पर फेंके गए केले के छिलके पर हमारा पांव जरूर फिसला था. शायद उसे ही इस हसीना ने जौगिंग समझ लिया हो.

ढेर सारी प्यार भरी बातों और न भूलनेभुलाने की कसमों के बाद खत के अंत में उस ने केवल ‘आप के दर्शनों की प्यासी’ ही लिखा था. नामपता उस ने इसलिए नहीं लिखा था कि वह अभी गुमनाम रहना चाहती थी. पहली ही चिट्ठी में ज्यादा खुल जाना उसे खल रहा था.

रामकिशोर डाकिया के इंतजार में अपने घर के बाहर हम बेचैनी से टहल रहे थे. उस के आने से पहले ही हम लंच के बहाने घर आ गए थे. दूर से हमें उस की साइकिल नजर आई. हमारे घर से 12 घर दूर रामकिशोर ने अपनी साइकिल एक बिजली के खंबे के साथ टिकाई और अपने हाथ में खतों का बंडल लिए उस घर की डाक देने को बढ़ा. हम तेजी से उस के पास पहुंचे.

रामकिशोर ने शर्माजी के घर के आगे लगे लेटर बाक्स में डाक डालनी चाही मगर डाक कुछ ज्यादा होने से उस छोटे से लैटर बाक्स में समा नहीं रही थी. उस ने शर्माजी की ‘काल बेल’ बजाई और साथ वाले घर का पत्र डालने चला गया.

‘‘अरे, मनोज बाबू, आप,’’ शर्माजी घर से बाहर आ गए, ‘‘कहिए, क्या काम है जो आप ने घंटी बजाई है.’’

‘‘शर्माजी, घंटी मैं ने नहीं पोस्टमैन ने बजाई है,’’ हम ने जल्दी से बताया, ‘‘मैं तो अपनी डाक पूछने चला आया था.’’

‘‘कोई खास डाक है क्या?’’ शर्माजी अपनी डाक संभालते हुए बोले.

‘‘जी, नहीं. लंच के बाद आफिस जा रहा था. सोचा, कोई डाक हो तो देखता चलूं.’’

‘‘आज आप की कोई डाक नहीं है,’’ रामकिशोर ने बताया और खंभे के साथ लगी साइकिल पर सवार हो कर निकल गया.

हम गरदन झुका कर वापस हुए.

पूरे एक सप्ताह से हमारे नाम कोई बैरंग चिट्ठी नहीं आई थी. इसलिए बेचैनी बढ़ी हुई थी. दफ्तर के काम में भी दिल नहीं लगता था. कुछ न कुछ गलती हो जाती और बड़े साहब की टेढ़ी निगाह के सामने आंखें झुकानी पड़ जाती थीं. उस दिन भी किसी बैरंग चिट्ठी के मिलने की उम्मीद लिए हम रिकशे में बैठ घर को चल दिए.

घर के दरवाजे पर रामकिशोर एक लंबा सा लिफाफा लिए खड़ा था और लीना के ताऊजी उस के साथ बहस में उलझे हुए थे.

लिफाफे को देखते ही हम समझ गए कि आज फिर बैरंग चिट्ठी आई है. हम जल्दी से रिकशा वाले को किराया थमा कर पोस्टमैन की ओर बढ़े.

‘‘मैं किसी और का खत आप को नहीं दे सकता,’’ रामकिशोर कह रहा था.

‘‘अरे, मनोज हमारा बच्चा है और फर्ज कर लो वह 4-6 महीने को शहर से कहीं बाहर गया हो तो क्या तुम सिरे से उस की डाक दोगे ही नहीं? फिर यह कौन सा रजिस्टर्ड पत्र है, बैरंग ही तो है. लाओ, इधर करो जी,’’ ताऊजी हलके गुस्से भरे स्वर में बोले.

‘‘लाओ, पत्र मुझे दो…मैं आ गया हूं,’’ हम ने रामकिशोर से कहा और 10-10 के 2 नोट उस की ओर बढ़ाए.

रामकिशोर ने लिफाफा हमारे हवाले किया.

‘‘क्षमा करना ताऊजी, हमें किसी की डाक किसी और को देने के आदेश नहीं हैं. गाइड में यही बताया गया है.’’

‘‘अरे, जाओ. किस के सामने गाइड की बात करते हो. मैं ने तो स्वयं 5 बार गाइड देखी है,’’ ताऊ ने होंठ सिकोड़े, ‘‘उस का वह गाना… ‘आज फिर मरने की तमन्ना है…’’’

‘‘ताऊजी, मैं फिल्म ‘गाइड’ की बात नहीं…पोस्टल गाइड की बात कर रहा हूं,’’ रामकिशोर ने अपनी साइकिल संभाली.

‘‘मनोज बेटे, जरा यह लिफाफा दिखाना. मेरा एक ड्राफ्ट तुम्हारे पते पर आने वाला है. बैरंग खत रजिस्ट्री से ज्यादा हिफाजत से आता है. इसलिए मैं ने उस ड्राफ्ट को बैरंग डाक से भेजने को बोला था,’’ कह कर ताऊजी ने लिफाफा लेने को हाथ बढ़ाया.

‘‘ताऊजी, आफिस का एक गोपनीयपत्र मेरे घर के पते पर आने वाला था और मैं भेजने वाले आफिस के डिस्पैचर की ‘हैंड राइटिंग’ पहचानता हूं. यह मेरे लिए ही है.’’

‘‘अरे वाह, लिफाफा खोले बगैर कैसे कह सकते हो?’’ ताऊजी ने जरा जोर दे कर कहा.

हम ने थोड़ा पीछे हट कर लिफाफा खोला और पत्र निकाल कर उस का एकएक पन्ना अलग करना चाहा ताकि ताऊजी को तसल्ली हो जाए कि उन का ड्राफ्ट नहीं है.

अचानक खत के पन्नों में से कोई फोटो निकल कर ताऊजी के पैरों के पास जा गिरा. इस से पहले कि हम वह फोटो उठाते ताऊजी ने झुक कर फोटो पर हाथ डाल दिया और हमारा कलेजा हलक में आ फंसा. आंखों तले अंधेरा छा गया. उस हसीना ने अपना जो फोटो इस खत के साथ भेजा था वह अब ताऊजी के कब्जे में था. अब जो तूफान ताऊजी और लीना घर में उठाएंगे, उस का अंदाजा कर के हमारे पांव लड़खड़ा गए. खैर, अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालते हुए हम ताऊजी के साथ ड्राइंग रूम तक आए और सोफे में धंस गए.

लीना पानी का गिलास ले कर ड्राइंग रूम में आई तो गिलास को मुंह से लगाए चोर निगाहों से हम ने ताऊजी की ओर देखा. वह फोटो देख रहे थे और हम उस तूफान को देख रहे थे जो अभी आने वाला था.

‘‘हा हा हा…’’ ताऊजी जोर से हंस रहे थे, ‘‘अरे, देखो बेटी, इस का गोपनीयपत्र,’’ ताऊजी ने फोटो मेज पर रख दिया.

हम ने धड़कते दिल से फोटो पर नजर डाली. वह बड़ेबड़े बालों वाली एक कुतिया का फोटो था. हमारी तो जान में जान आ गई. दिमाग ने तेजी से काम करना शुरू कर दिया. हम ने जल्दी से पत्र के पन्नों को जेब में ठूंसा.

लीना ने फोटो को उलटपलट कर देखा और बोली, ‘‘क्या अब कुत्तेबिल्ली पालने की ठानी है? मैं कहे देती हूं आप के कुत्तेबिल्लियों के लिए एक पैसा घरखर्च में से नहीं दूंगी और न यहां गंदगी फैलाने दूंगी.’’

‘‘आप से पैसे मांग कौन रहा है,’’ हम काफी हद तक संभल गए थे, ‘‘यह फोटो तो अपने बड़े साहब के लिए है. वह कुत्ते को खरीदना चाहते हैं. वह अपने बेटे को जन्मदिन पर सरप्राइज गिफ्ट देना चाहते हैं. इसलिए पत्र व्यवहार हमारे घर के पते पर हो रहा है.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ लीना ने लंबी सांस छोड़ी.

उस कुतिया के फोटो को ऊपर की जेब के हवाले कर हम सोफे से उठे और जल्दी से आफिस की राह पकड़ी.

इस घटना के 2 दिन बाद आफिस से घर लौटा तो लीना एक लिफाफा हमारी आंखों के सामने लहरा कर बोली, ‘‘10 रुपए निकालो. आप की यह बैरंग चिट्ठी आई है.’’

लिफाफे पर नजर डालते ही हमें अपनी सांस रुकती हुई महसूस हुई. हमें वह सुंदर लिखावट कोई जहरीली नागिन सी लहराती लग रही थी, सोफे पर हम किसी बुत की तरह बैठे एकटक लीना के हाथ में पकड़े लिफाफे को देख रहे थे.

‘‘अरे, क्या हुआ आप को?’’ लीना ने लिफाफा डाइनिंग टेबल पर डाल दिया और जल्दी से हमारे माथे पर हाथ रखा फिर नब्ज पर हाथ रख कर बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

लीना ने पानी का गिलास भर कर हमारे सामने रखा.

हम ने एक ही सांस में गिलास खाली कर के मेज पर रखा और फिर लिफाफे पर हाथ डालना चाहा.

‘‘ऊंहूं,’’ लीना ने लिफाफा परे खींच लिया, ‘‘पहले 10 का नोट.’’

लीना की आवाज में शोखी और होंठों पर मीठी मुसकान थी. लीना चूहेबिल्ली का खेल खेल रही थी. हम जानते थे अभी आवाज की शोखी किसी शेरनी की दहाड़ में बदल जाएगी. होंठों की मुसकान ज्वालामुखी का रूप धारण कर लेगी.

हम ने डरतेडरते जेब से पर्स निकाल कर टेबल पर डाल दिया. लीना ने पर्स में से 100 का नोट खींच लिया और लिफाफा हमारे सामने डाल दिया.

पहले से खोले गए लिफाफे में से हम ने खत निकालना चाहा, लेकिन लिफाफे में से कुछ न निकला. हम ने लिफाफे में झांक कर देखा और कहा, ‘‘इस में… तो…खत…नहीं है.’’

‘‘हां, मैं ने भी लिफाफा खोल कर देखा था. यह खाली था.’’

‘‘लिफाफा खाली था?’’ हम ने अविश्वास से पूछा.

‘‘हां, बिलकुल खाली था,’’ लीना ने हाथ में पकड़े नोट से खेलते हुए कहा.

‘‘सच कहती हो?’’

‘‘हां. खत शायद इस में डाला ही नहीं गया था.’’

हम ने खाली लिफाफा जेब में डाल लिया और लीना से बोले, ‘‘बड़े साहब को बता दूंगा कि लिफाफे में इस बार खत नहीं निकला.’’

दूसरे दिन हम आफिस में जल्दी जाने का बहाना लगा कर निकले और पोस्ट आफिस पहुंच गए. रामकिशोर एक मेज पर बैठा अपने सामने रखी डाक को क्रम से लगा रहा था और छोटेबड़े बंडल बनाबना कर उन पर रबड़ बैंड कस रहा था. कुछ देर बाद वह बाहर आया और अपनी साइकिल पर डाक का झोला टांगने लगा.

‘‘रामकिशोरजी,’’ हम ने अपने स्वर में शहद घोला.

‘‘अरे, मनोज बाबू, आप,’’ रामकिशोर ने मुड़ कर हमारी ओर देखा, ‘‘कहिए, कैसे आना हुआ?’’

‘‘रामकिशोरजी, आप ने कल जो बैरंग लिफाफा लीना को दिया था उस में खत नहीं था.’’

‘‘खत तो था,’’ रामकिशोर ने बतलाया.

‘‘मगर लिफाफा तो खाली था. शायद लीना ने खत निकाल लिया है,’’ हम ने मरी आवाज में कहा.

‘‘लीना ने नहीं…वह खत मैं ने निकाल लिया था,’’ रामकिशोर ने अपनी बुशर्ट की जेब में से तह किया हुआ पत्र निकाल हमारे हाथ पर रख दिया, ‘‘जब लीनाजी बैरंग खत के हर्जाने के 10 रुपए लेने अंदर गईं तो मैं ने फुर्ती से लिफाफा खोला, पत्र निकाला और फिर से बंद कर दिया था.’’

‘‘शाबाश, रामकिशोर. तुम ने मुझे बहुत बड़ी मुश्किल से बचा लिया,’’ हम ने कहा. जी चाहता था रामकिशोर को गले लगा लूं.

‘‘यह तो मेरा फर्ज था,’’ रामकिशोर ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मैं आप का शुक्रिया अदा नहीं कर सकता,’’ हम ने जेब से पर्स निकाला.

‘‘यहां नहीं, मनोज बाबू…शुक्रिया शाम को चौक के ‘ब्ल्यू मून’ रेस्तरां मेें अदा करें.’’

उस के बाद तो मेरे बैरंग खतों की वसूली उसी रेस्तरां में होने लगी. वहां न लीना का डर था न उस के ताऊजी का, न किसी और का. जब भी हमारा कोई बैरंग पत्र आता रामकिशोर डाकखाने में हर्जाना भर देता और शाम को बैरंग चार्जेज वसूल कर लेता.

अब पत्रों में प्यार सी मिठास और बढ़ गई थी. मगर अब तक वह हसीना मिलने की जो जगह लिखती वह कभी वहां न मिलती और उस से अगले खत में न आने पर माफी मांगी जाती.

उस दिन आफिस में काम ज्यादा होने के कारण हम देर से रेस्तरां में पहुंचे थे. एक मेज के सामने रामकिशोर दरवाजे की ओर पीठ किए अपने किसी दोस्त के साथ बैठा था. उन दोनों के सामने चाय की प्यालियों के साथ नमकीन की प्लेटें थीं.

हम उन को डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे इसलिए उन के पीछे वाली मेज पर विपरीत दिशा में मुंह कर के बैठ गए.

बैरे से हम ने कोल्ड डिं्रक की बोतल मंगवा ली और हम रामकिशोर के मित्र के जाने का इंतजार करने लगे. उस के दोस्त के सामने हम बैरंग खत नहीं लेना चाहते थे.

‘‘राम, तुम्हारे बकरे का क्या हाल है?’’ रामकिशोर के दोस्त ने उस की पीठ पर हाथ मारा.

‘‘अरे, गोपाल क्या बताऊं… रोजरोज बेचारा छुरी के नीचे आ ही जाता है,’’ और फिर इसी के साथ धीरे से ही ही ही कर के हंस दिया.

‘‘और तुम्हारे इनाम की रकम भी तो बढ़ती जाती होगी,’’ गोपाल ने चम्मच से नमकीन मुंह में डालते हुए कहा.

‘‘हां, यार…दशहरेदीवाली पर बख्शीश देने के बजाय भाषण झाड़ा करता था कि तुम्हें महकमे से पगार मिलती है फिर लोगों से त्योहारों का इनाम क्यों मांगते हो? तुम्हारी शिकायत हो सकती है,’’ रामकिशोर ने पिछली दीवाली पर हमारे कहे शब्दों को दोहराया और हमारे लहजे/उच्चारण की नकल उतारी, ‘‘और अब उस रकम से कई गुना ज्यादा बैरंग चार्जेज डिपार्टमेंट को और चोरीछिपे खतों को पहुंचाने का इनाम मुझे दिया जाता है.’’

‘‘मगर प्यारे, यह कमाल मेरी जनाना हैंड राइटिंग का भी तो है वरना ऐसे प्यार में डूबे खत किसी लड़की से लिखवा सकते थे,’’ गोपाल कह रहा था, ‘‘मगर यार, वह प्रेमी को पत्र लिखने की कला वाली पुस्तक समाप्त होने को है.’’

‘‘कोई बात नहीं, उस का दूसरा भाग बाजार से ले लो,’’ रामकिशोर ने जेब से पर्स निकाला.

हम ने चुपचाप उठ कर काउंटर पर बिल चुकाया और रेस्तरां से बाहर हो गए.

4 दिन बाद रामकिशोर एक मोटा सा बैरंग लिफाफा ले कर घर आया.

‘‘50 रुपए इस बैरंग खत का हर्जाना महकमे को भरना होगा,’’ रामकिशोर ने लिफाफे से अपनी हथेली खुजाई.

‘‘वापस कर दो. लिख दो कि लेने से इनकारी है,’’ हम ने रामकिशोर पर पलट वार किया. Story In Hindi

Best Hindi Kahani: अलीशेर – एक मुसलमान जो रामलीला में बनता था राम

Best Hindi Kahani: मेला वाली बारी में रामलीला का मेला था. वह जगह बहुत साफसुथरी और हरीभरी थी. चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़नुमा भीटे और लंबेलंबे खड़े पेड़ थे. बीच में एक सुंदर तालाब था. एक तरफ रामलीला वाली जगह थी, जहां रामलीला करने वाले लोग राम, लक्ष्मण, सीता और रावण आदि का स्वांग करते थे.

पहले गांव का हिसाब ही अलग था. राम का रोल कोई भी गोराचिट्टा लड़का अदा कर लेता था और सीता का रोल भी कोई कमसिन लड़का, जिसे दाढ़ीमूंछ न आई हो, अदा करता.

इस में हिंदू या मुसलमान होने के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था. जो भी अच्छी तरह रामलीला का पाठ याद कर उस का सही स्वांग कर लेता, उसे वह रोल दे दिया जाता था. लोग इसे सिर्फ नाटक समझते थे और उसे नाटक की तरह करते थे.

हां, राम का रोल हमेशा अलीशेर अदा करते थे. समय के हिसाब से हर रोल आगेपीछे हो जाते थे या बदल दिए जाते थे, लेकिन अलीशेर को हमेशा रामलीला में राम बनाया जाता था, क्योंकि अलीशेर एक खूबसूरत जवान थे और उन्हें राम का पाठ जबानी याद था. जब सिर पर मुकुट लगाए वह स्टेज पर आते तो लोग मोहित हो जाते थे.

एक बार तो ऐसा भी हुआ कि राम और रावण दोनों का पाठ करने वाले मुसलमान ही थे, क्योंकि जिन लोगों को नौकरी मिल गई, वे शहर चले गए और गांव में एक मेहमान की तरह आने लगे.

लेकिन बाद में गांव का माहौल बदलने लगा. मुसलमानों का एक तबका रामलीला में मुसलिम नौजवानों व बच्चों के शामिल होने का विरोध करने लगा. मुल्लों ने फतवा जारी कर के इसे मजहब के खिलाफ बताया. फतवे में रामलीला में भाग लेना तो दूर इसे देखना भी गलत कहा गया.

इस फतवे का लोगों पर बुरा असर पड़ा. रात में रामलीला देखने वालों की संख्या कुछ कम हो गई. फिर भी रामलीला देखने के लिए मुसलमान बच्चे जाते रहे, लेकिन चोरीछिपे, खुलेआम नहीं.

अलीशेर के डीलडौल का गांव में कोई नौजवान नहीं था और उस पर वर्षों का अभ्यास, सारे पाठ जबानी याद. अत: जब भी राम का रोल उन्हें दिया गया, बिना रोकटोक के उन्होंने कर दिया. उन्होंने मुल्लेमौलवियों के फतवे की परवाह नहीं की और न उन्हें मुसलिम बिरादरी से बाहर कर दिए जाने का डर था. वे इसे गांव की इज्जत वाली बात मान कर एक कलाकार की तरह रामलीला में भाग लेते रहे.

वे हफ्ते में केवल जुमा की नमाज पढ़ते थे, वे भी आखिरी कतार में क्योंकि रामलीला के दिनों में वे मुसलमानों के बीच एक अच्छाखासा तमाशा बन जाते थे. कोईकोई तो उन्हें मसजिद में ही छेड़ देता, ‘‘अरे भाई रामचंद्रजी, आप यहां कैसे? रामचंद्रजी मुसलमान तो थे नहीं.’’ कोई दूसरा कहता, ‘‘अब तो इन्हें मंदिर में भी जगह नहीं मिलेगी…’’

वे चुपचाप किसी का जवाब दिए बगैर मसजिद से बाहर निकल जाते. उन्हें रामचंद्रजी का रोल एक खेल सा लगता और यह खेल वे गांव की इज्जत के लिए खेलते थे ताकि सारे इलाके में उन के गांव की धूम मच जाए.

कुछ दिनों के बाद हिंदुओं में एक नई पार्टी उभरी, जिस का नाम था ग्राम युवक संघ. उस ने सब से पहला काम यह किया कि अलीशेर को हमेशा के लिए रामलीला मंडली से बाहर निकाल दिया, क्योंकि वे मुसलमान थे और उन की जगह एक हिंदू को रखा गया.

अलीशेर तो कहीं के भी न रहे. मुसलमानों के बीच तो पहले ही मजाक विरोधी काम करने वाले के रूप में नफरत की निगाह से देखे जाते थे. अब बचे हिंदू, सो उन्होंने भी अलीशेर को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया. अब वे जाते भी तो किधर जाते. जहां जाते लोग उन का मजाक उड़ाते, ‘बेटा न राम के, न रहीम के… किधर जाओगे? बेहतर है, कलमा पढ़ कर दोबारा मुसलमान बन जाओ…’ या इसी तरह कुछ लोग कहते, ‘यार, तुम हिंदू हो जाओ. पहले भी तो तुम्हारे बापदादा हिंदू ही थे,’ अलीशेर इन तमाम बातों का जवाब केवल खामोशी से देते.

अलीशेर खानदानी जमींदार थे, लेकिन उन के चाचा के लड़कों ने चकबंदी में उन की अच्छी जमीन हथिया ली. बदले में उन्हें जो जमीन मिली, वह ऊसर थी. गरीबी की वजह से धीरेधीरे वह जमीन भी बिक गई.

अब उन्हें कोई सहारा नहीं था, इसलिए गांव में लोगों के गायबैल चराने लगे. इस के बदले उन्हें नाश्ता और खाना मिलने लगा. इस के अलावा वे गांव में फेरी भी लगाने लगे. वे कभी अमरूद, कभी कटहल और कभी गुड़ की ‘लकठो’ मिठाई बेचते.

गांव के बच्चों ने उन का नाम रखा था ‘राम मियां.’ बस वे इसी नाम से मशहूर हो गए. गांव के चाहे जिस छोर पर पूछिए, लोग बता देंगे. राम मियां के बाद महल्ले का नाम बताना जरूरी नहीं था.

जब उस दिन रामलीला का मेला लगा तो अलीशेर को बहुत बुरा लगा. कारण कि वह हिंदू लड़का जो राम बना था, लड़कियों जैसी आवाज में रामजी का संवाद बोलने लगा. खैर, अब तो वे बिलकुल इन चीजों से अलग हो चुके थे.

अलीशेर ने रामलीला मेले में तसवीरों की दुकान लगाने का निश्चय किया. कारण कि यदि तसवीर की कीमत 10 रुपए होगी, तो वह मेले में आसानी से 20 रुपए में बिक जाएगी.

बनारस जा कर अलीशेर ने बहुत सारी तसवीरें खरीदीं. राम की तसवीर, कृष्ण की तसवीर, गुरुनानक देव की तसवीर, दरगाह अजमेर शरीफ की तसवीर, मक्कामदीना की तसवीर और कुछ फिल्मी अभिनेताओं की तसवीरें. जब मेला आरंभ हुआ तो उस दुकान पर बच्चों की भीड़ लग गई. एकएक कर के सारी तसवीरें बिक गईं.

अलीशेर को अच्छा फायदा हुआ. बच्चे तो बच्चे होते हैं. उन्हें जो अच्छा लगा खरीद लिया. यदि अलीशेर से यह पूछा जाए कि कौन बच्चा कौन सी तसवीर ले गया, तो वे इस का जवाब नहीं दे सकते थे, क्योंकि भीड़ के आगे उन्हें अपनी तसवीरों को संभाल पाना भी मुश्किल हो गया था.

सूरज डूबने के बाद मेला उठने लगा. अलीशेर को दुकान से अच्छी आमदनी हुई. वह अपनी दुकान बंद कर के ज्यों ही नहर की पगडंडी पर पहुंचे, तो कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया, ‘‘अलीशेर मियां, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ एक ने कहा.

‘‘तुम ने हमारे बच्चों को मक्कामदीना और अजमेर शरीफ की तसवीरें क्यों दीं? आखिर उन को इस से क्या लेनादेना. वे मुसलमान तो हैं नहीं,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘अलीशेर भाई, आप ऐसे तो न थे. जरूर इस में किसी विदेशी देश का हाथ होगा. आप ही बताइए कि यदि आप के बच्चों को हम देवीदेवता की तसवीर दें, तो आप को कैसा लगेगा?’’ तीसरे ने कहा.

और इस के बाद कुछ लोगों का मुंह उन की तरफ चिल्लाते हुए दौड़ा, ‘मारोमारो…’ और फिर अलीशेर के ऊपर लाठियों का बरसना तब तक जारी रहा, जब तक वे मर नहीं गए. अलीशेर को अपनी सफाई में कुछ कहने का भी मौका नहीं दिया गया.

पुलिस की जांचपड़ताल के दौरान गांव के लोगों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. जिस गांव ने 10 साल तक अलीशेर को रामलीला में राम का पाठ करते हुए देखा था, उस दिन उस गांव का एक बच्चा भी उन्हें पहचान न सका. हां, एक पास के गांव का बच्चा, जो उस समय भी उन से खरीदी हुई तसवीर लिए उन्हें घूर रहा था, पुलिस के सामने आया और बोला, ‘‘मैं इन का नाम जानता हूं. इन का नाम है, राम मियां. सारे बच्चे इन्हें इसी नाम से पुकारते हैं.’’

बच्चे की बात सुनते ही पुलिस वाले को क्रोध आया और उस ने बच्चे को एक भद्दी सी गाली दी और कहा, ‘‘राम कब से मियां हो गए?’’

जो मरा उस का नाम एक सच था, जिस बच्चे ने उस का नाम बताया, वह भी एक सच था और पुलिस वाला, जिसे क्रोध आया, वह भी एक सत्य था. सबकुछ सच होते हुए भी एक आदमी की लाश लावारिस पड़ी थी, दूरदूर तक अजीब सी हवा बह रही थी. Best Hindi Kahani

Hindi Kahani: बूंदबूंद से घड़ा भरे – एक किसान की समझदारी

Hindi Kahani: मानस नदी के किनारे एक गांव बसा था राजपुरा. उस में आबाद 30 में से 25 घर छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों के थे. 2 घर दस्तकारों के और 3 खातेपीते किसानों के थे. वे खातेपीते किसान थे, रामसुख, हरदेव और सुखराम.

एक दिन उस गांव में एक नई और अजीब बात हुई. रामसुख शहर से ट्रैक्टर खरीद कर लाया था. नीले रंग का चमचमाता ट्रैक्टर जब गांव में आ कर रुका तो बच्चे खुशी के मारे उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए.

रामसुख ट्रैक्टर से नीचे उतरा ही था कि खेतों से लौटते हुए हरदेव से उस की मुलाकात हो गई.

रामसुख ने उसे ट्रैक्टर दिखाया और पूछा, ‘‘आप को कैसा लगा दादा?’’

‘‘बहुत अच्छा है, कितने में खरीदा?’’

‘‘तकरीबन साढ़े 6 लाख रुपए में पड़ा है.’’

कीमत सुन कर हैरानी से हरदेव की आंखें फैल गईं.

‘‘ऐसा है दादा कि 2 लाख रुपए तो मैं ने नकद दिए हैं, बाकी बैंक से कर्ज मिल गया है,’’ रामसुख ने बताया.

हरदेव की हैरानी फिर भी कम न हुई. उस की बराबर की हैसियत के रामसुख के पास 2 लाख रुपए नकद कहां से आ गए? उस के पास तो 50,000 रुपए भी जमा नहीं थे.

‘‘2 लाख रुपए क्या साहूकार से लिए हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने जमा किए हैं.’’

हरदेव को रामसुख की बात पर यकीन तो नहीं हुआ, किंतु उसी वक्त सारी बातें पूछना ठीक न समझ वह चुप हो गया.

रात में हरदेव ठीक से सो नहीं पाया. रामसुख के घर सारी रात मेला सा लगा रहा. गांव में लड्डू बांटे गए. हरदेव सवेरे उठा तो रात में ठीकसे सो न पाने के चलते उस का सिर भारी था. नहाने के लिए वह नदी की ओर जा ही रहा था कि रामसुख मिल गया. वह जुताई के लिए ट्रैक्टर लिए जा रहा था.

‘‘आओ दादा, बैठ कर चलते हैं,’’ रामसुख ने पुकारा. उस ने सहारा दे कर हरदेव को ट्रैक्टर पर बिठा लिया.

ट्रैक्टर खेतों की ओर चल दिया. कल वाला सवाल आज भी हरदेव के दिमाग में घूम रहा था. वह रामसुख से पूछ ही बैठा. ‘‘रामू, एक बात बता. तू ने 2 लाख रुपए जोड़े कैसे?’’

‘‘सीधी सी बात है दादा, बूंदबूंद कर के खाली घड़ा भर जाता है और बूंदबूंद टपकाते रहो तो भरा घड़ा भी खाली हो जाता है.’’

‘‘समझा कर बता. यों पहेलियां न बुझा,’’ हरदेव बोला.

‘‘बात अच्छी न लगे तो बुरा तो न मानोगे. इसी डर से मैं ने अब तक आप को नहीं कहा था.’’

‘‘कह, तेरी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘सच तो यह है कि हमारे गलत रीतिरिवाज हमें पनपने नहीं देते. मैं ने अपने को इन से बचा कर रखा और आप इन के शिकार हुए. मैं ने अपने पिता की मौत पर थोड़ा सा पैसा खर्च किया. लोगों की नाराजगी की परवाह नहीं की. भाई व बच्चों की शादी भी साधारण तरीके से कम खर्च में की. न ढेर सारे मेहमान बुलाए और न तरहतरह के पकवानों का भोज दिया.

‘‘झूठी शान और दिखावे के लिए शादियों में ढेर सारे गहने भी मैं ने नहीं चढ़ाए, न ही बैंडबाजे बजवाए. एक ओर मैं ने फालतू खर्च बंद किए, वहीं दूसरी ओर लगातार बचत की. बचत के रुपयों से मुझे ब्याज तो मिला ही, बैंक में मेरी साख भी बनी.

‘‘यही नहीं, खाद, बीज के लिए मुझे बैंक या साहूकार को ब्याज भी नहीं देना पड़ा. 2 लाख रुपए नकद देने के बाद भी अभी कुछ हजार रुपए मेरे बैंक खाते में जमा हैं.

‘‘उधर मेरे बराबर कमाई करने पर भी आप के पास रुपया इसलिए नहीं है कि आप ने अपने पिताजी का लंबाचौड़ा ‘मृत्युभोज’ किया. शादीब्याज खूब शान से किए. इन में दूरदूर के बहुत से मेहमान बुलाए. इस के लिए आप को साहूकार से कर्ज भी लेना पड़ा. फिर आप अपनी फसल वाजिब कीमत पर मंडी में बेचने के बजाय साहूकार को औनेपौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर हुए.

‘‘छोटेछोटे मौकों पर भी आप ने दिल खोल कर खर्च करने में अपनी शान समझी. इन से आप की आमद और खर्च बराबर होते रहे. बचत कुछ हुई नहीं. पैसे से पैसा नहीं बढ़ा.’’

‘‘हमारे देश में गरीबी होने की यह भी एक बड़ी वजह है कि हम दिखावों में अपनी गाढ़ी कमाई खर्च कर देते हैं. इसी कारण हम साहूकारों के हाथों लुटते रहते हैं. अमीर किसानों की देखादेखी गरीब किसानों व खेतिहर मजदूरों को भी अपना पेट काट कर और उधार ले कर ऐसे रीतिरिवाजों को निभाना पड़ता है. इसी वजह से हमारा दिखावा हमें बरबाद कर देता है.’’

‘‘तुम सच कहते हो रामसुख, अब मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ हरदेव ने सोचते हुए कहा.

हरदेव की आंखें तो खुलीं, पर खुलीं देर से. अब तक तो वह खेती की कमाई में रामसुख के बराबर था, पर अब वह पीछे रह जाएगा क्योंकि रामसुख ने अब तक की गई बचत के बल पर ट्रैक्टर खरीद लिया था. Hindi Kahani

Best Hindi Kahani: 50 लाख का इनाम – किसकी लगी लौटरी?

Best Hindi Kahani: ‘सर, हमारी मोबाइल कंपनी ने लकी ड्रा में आप को विजेता चुना है. मुंबई में होने वाले शानदार समारोह में आप को 50 लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा. कृपया उस के अग्रिम टैक्स और प्रोसैसिंग फीस के रूप में 25 हजार रुपए आज ही 11 बजे तक कंपनी के बैंक अकाउंट 18760… में जमा करा दें. अगर आप 11 बजे तक यह रकम जमा नहीं करा पाते हैं, तो यह इनाम किसी दूसरे शख्स को दे दिया जाएगा.’

कामता प्रसाद के मोबाइल फोन पर सुबहसुबह यह संदेश आया. उसे पढ़ कर वे खुशी से झुम उठे.

कामता प्रसाद के गांव से बैंक तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था. वे रुपए ले कर फौरन बैंक की ओर चल दिए. 11 बजे से पहले उन्होंने बैंक में रुपए जमा करा दिए.

कामता प्रसाद का बेटा रमन राजधानी के एक नामी इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता था. वह उसी दिन अपने एक दोस्त सुकेश के साथ गांव आ गया.

कामता प्रसाद ने जब 50 लाख का इनाम जीतने की बात बताई, तो वह बोला, ‘‘पिताजी, बैंक में रुपए जमा कराने से पहले आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?

‘‘जरा से पैसों के लालच में आपने अपनी पूंजी भी गंवा दी,’’ रमन ने अफसोस के साथ कहा.

‘‘क्या मतलब…?’’ कामता प्रसाद ने हैरानी से पूछा.

‘‘चाचाजी, कोई मोबाइल कंपनी इस तरह के इनाम नहीं बांटती है. यह ठगी का नया तरीका है, जिस में आप जैसे भोलेभाले लोग फंस जाते हैं,’’ सुकेश ने कहा.

ठगी की बात जान कर कामता प्रसाद परेशान हो उठे. सुकेश ने उन्हें समझाया, ‘‘आप परेशान मत होइए. मेरे मामाजी पुलिस इंस्पैक्टर हैं. हम लोग उन के साथ बैंक जा कर पता करते हैं.’’

कामता प्रसाद को समझबुझ कर रमन और सुकेश उसी समय शहर की ओर चल दिए. सुकेश के मामा देवांशु राय पुलिस स्टेशन में ही थे. पूरी बात सुन कर वे फौरन बैंक की ओर चल दिए.

बैंक मैनेजर ने अपने कंप्यूटर पर उस अकाउंट की जांच की, फिर बोला, ‘‘इस खाते में औनलाइन बैंकिंग होती है. इस में आज सुबह से 5 आदमियों ने 25-25 हजार की रकम जमा कराई है और यह सारी रकम थोड़ी ही देर बाद निकाल ली गई है.’’

‘‘इस का मतलब है कि कई लोग इस ठगी के शिकार हुए हैं,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा.

‘‘जी हां, इस खाते की पिछली जानकारी बता रही है कि इस में पिछले कई दिनों से 25-25 हजार की रकम जमा हो रही है और वह थोड़ी ही देर में औनलाइन ट्रांसफर कर दी जाती है,’’ मैनेजर ने बताया.

‘‘क्या आप हमें इस के खाताधारी का पता दे सकते हैं?’’ रमन ने कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ मैनेजर ने खाताधारी का पता प्रिंट कर के दे दिया.

रमन इंस्पैक्टर देवांशु राय की ओर मुड़ते हुए बोला, ‘‘अंकल, मुझे पूरी उम्मीद है कि यह पता फर्जी होगा, लेकिन फिर भी वहां चल कर एक बार जांच कर लेनी चाहिए.’’

‘‘ठीक है,’’ देवांशु राय ने सिर हिलाया, फिर मैनेजर से बोले, ‘‘आप यह खाता फ्रीज कर दीजिए.’’

‘‘आप चिंता मत कीजिए,’’ मैनेजर ने कहा.

रमन और सुकेश इंस्पैक्टर देवांशु राय के साथ उस पते पर चल दिए. जैसा कि अंदाजा था, वह पता फर्जी निकला.

‘‘अंकल, जिस मोबाइल फोन से एसएमएस आया था, उस के दफ्तर में चल कर पता करना चाहिए कि यह नंबर किस का है,’’ रमन ने अपनी राय दी.

‘‘ओके,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा.

वहां से पता चला कि यह नंबर सिविल लाइंस में रहने वाले गिरिजा कुमार का था. वहां से सभी लोग सीधे गिरिजा कुमार के घर पहुंचे. वे तकरीबन 55 साल के शख्स थे.

इंस्पैक्टर देवांशु राय ने उन्हें मोबाइल नंबर बताते हुए पूछा, ‘‘मिस्टर गिरिजा कुमार, इस मोबाइल नंबर से आज सुबह आप ने किसकिस को एसएमएस किया था?’’

‘‘इंस्पैक्टर साहब, यह मोबाइल नंबर मेरा नहीं है,’’ गिरिजा कुमार ने कहा.

‘‘यह कैसे हो सकता है. मोबाइल कंपनी ने हमें बताया है कि पिछले हफ्ते यह सिम कार्ड आप ने खरीदा है,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा.

‘‘जरूर कोई गलतफहमी हुई है.

मैं ने पिछले हफ्ते इस कंपनी का सिम कार्ड जरूर खरीदा था, लेकिन उस का नंबर दूसरा है,’’ गिरिजा कुमार ने अपना मोबाइल नंबर दिखाते हुए कहा.

‘‘इस का मतलब है कि आप ने एक नहीं, 2 सिम कार्ड खरीदे हैं. आप की भलाई इसी में हैं कि दूसरा मोबाइल भी चुपचाप हमारे हवाले कर दें,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय की आवाज सख्त हो गई.

‘‘इंस्पैक्टर साहब, मेरा विश्वास कीजिए. मैं ने एक सिम कार्ड ही खरीदा है,’’ गिरिजा कुमार ने मजबूती से अपनी बात रखी.

रमन ने इंस्पैक्टर देवांशु को अलग ले जा कर कहा, ‘‘अंकल, ये शख्स शरीफ आदमी मालूम पड़ते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्होंने सिम कार्ड खरीदते समय जो आईडी दी हो, उस पर ही दूसरा सिम कार्ड बेच दिया गया हो.’’

‘‘ऐसा हो भी सकता है, लेकिन इस की जांच कैसे की जाए? हमारे पास इस समय और कोई सूत्र भी तो नहीं है,’’ इंस्पैक्टर देवांशु ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘जिन लोगों ने उस खाते में 25-25 हजार रुपए जमा करवाए हैं, अगर उन से किसी तरह संपर्क हो सके तो पता लगाया जा सकता है कि उन को एमएमएस किस मोबाइल नंबर से आया था. उस के बाद शायद हमें कोई और सूत्र मिल सके,’’ रमन ने अपना विचार बताया.

‘‘उन सब के संपर्क सूत्र बैंक मैनेजर से मिल सकते हैं,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा. वे गिरिजा कुमार के पास आए और बोले, ‘‘फिलहाल तो हम आप के खिलाफ कोईर् कार्यवाही नहीं कर रहे हैं, लेकिन आप शक के घेरे में हैं, इसलिए बिना पुलिस की इजाजत के शहर से बाहर मत जाइएगा.’’

इस के बाद सभी लोग बैंक मैनेजर के पास वापस आए. मैनेजर ने कहा, ‘‘जिन लोगों ने पैसे जमा किए हैं, उन के  पते तो नहीं हैं, लेकिन मोबाइल नंबर जरूर मिल जाएंगे. क्योंकि फार्म में मोबाइल नंबर का कौलम होता है.’’

‘‘इतना ही काफी होगा,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा, तो मैनेजर ने सारे फार्म मंगवा दिए. इंस्पैक्टर ने उन में से 5 लोगों के नंबर नोट कर लिए.

इंस्पैक्टर देवांशु राय ने उन नंबरों पर फोन किया, तो पता चला कि उन में से 2 लोगों को उसी नंबर से एसएमएस आया था, जिस से कामता प्रसाद को फोन आया था. बाकी 3 लोगों को दूसरे नंबरों से एसएमएस आया था. इस समय वे सारे नंबर स्विच औफ चल रहे थे.

‘‘अंकल पता कीजिए, अगर इन सारे नंबरों के सिम कार्ड एक ही दुकान से बेचे गए हैं, तो सम?िए कि हम अपराधियों तक पहुंच गए हैं,’’ रमन ने अपनी राय दी.

‘‘वह कैसे?’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने हैरानी से पूछा.

‘‘आप पता तो कीजिए,’’ रमन ने जोर देते हुए कहा.

इंस्पैक्टर देवांशु राय ने पुलिस स्टेशन आ कर पूछताछ कराई, तो रमन का अंदाजा सही निकला. ये सारे नंबर न केवल एक ही कंपनी के थे, बल्कि उन के सिम कार्ड भी एक ही शोरूम से बेचे गए थे. वे रमन और सुकेश को ले कर उस शोरूम में पहुंच गए.

रमन के कहने पर उन्होंने शोरूम के मालिक को उन नंबरों को नोट कराते हुए कहा, ‘‘इन नंबरों के सिम कार्ड खरीदने के लिए जो फार्म भरे गए थे, आप उन्हें अभी मंगवाइए.’’

शोरूम के मालिक ने थोड़ी ही देर में फार्म मंगवा दिए. रमन ने उन्हें देखते हुए कहा, ‘‘ये सारे फार्म एक ही हैंडराइटिंग में भरे गए हैं. क्या आप बता सकते हैं कि इन्हें आप के किसी मुलाजिम ने भरा है या कस्टमर ने खुद भरा है?’’

शोरूम के मालिक ने उन फार्मों को गौर से देखा, फिर बोला, ‘‘यह हमारे मुलाजिम रमेश की हैंडराइटिंग है.’’

‘‘आप अभी रमेश को बुलवाइए,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने कहा. वे रमन की बात सम?ा गए थे.

रमेश के आने पर इंस्पैक्टर देवांशु राय ने उसे वे फार्म दिखाते हुए पूछा, ‘‘यह फार्म तुम ने भरे हैं?’’

‘‘जी,’’ रमेश ने हां में सिर हिलाया.

‘‘तुम ने क्यों भरे हैं?’’

‘‘ग्राहकों की मदद के लिए ज्यादातर फार्म हम लोग ही भरते हैं.’’

‘‘इन फार्मों के साथ ग्राहकों के जो आईडी लगे हैं, वे तुम कहां से लाए थे?’’ रमन ने पूछा.

‘‘इन्हें ग्राहकों ने खुद ही दिया था,’’ रमेश ने कहा.

‘‘इन मोबाइल नंबरों का इस्तेमाल अपराध के लिए किया गया है. तुम्हारी भलाई इसी में है कि सचसच बता दो, वरना तुम्हें भी इन अपराधों में शामिल माना जाएगा,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने सख्त लहजे में कहा.

‘‘जी, मैं सच कह रहा हूं.’’

‘‘मिस्टर रमेश, हमें शक है कि आप ने किन्हीं दूसरे ग्राहकों के आईडी को

इन सिम कार्डों को बेचने में इस्तेमाल किया है, इसलिए मेरा कहना मानिए और पुलिस के साथ सहयोग कीजिए,’’ रमन ने अपनी आंखें रमेश के चेहरे पर गड़ाते हुए कहा.

यह सुन कर रमेश घबरा उठा. थोड़ी सख्ती करने पर उस ने कबूल कर लिया कि जो ग्राहक इस दुकान से सिम कार्ड खरीदते थे, उन के ही आईडी की फोटोकौपी करवा कर उस ने 2-2 हजार रुपए में ये सिम कार्ड एक शख्स को बेचे थे, पर उसे उस शख्स का नाम और पता नहीं मालूम था.

‘‘तुम्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि तुम ने कितना खतरनाक काम किया है,’’ इंस्पैक्टर देवांशु राय ने रमेश पर गुस्से से भरी नजर डाली, फिर अफसोस के साथ बोले, ‘‘अगर उस शख्स का नाम या पता मालूम होता, तो उसे पकड़ा जा सकता था, लेकिन अब तो कुछ भी नहीं हो सकता.’’

‘‘अभी भी बहुतकुछ हो सकता है,’’ रमन हलका सा मुसकराया, फिर रमेश

से बोला, ‘‘इस शोरूम में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. जिन दिनों ये सिम कार्ड बेचे गए, क्या उन दिनों की रेकौर्डिंग

देख कर तुम उस आदमी को पहचान सकते हो?’’

‘‘जी, मैं तुरंत पहचान लूंगा,’’ रमेश ने पछतावे के साथ कहा.

रमेश ने रेकौर्डिंग देख कर उस आदमी को पहचान लिया. इंस्पैक्टर देवांशु राय ने रेकौर्डिंग की एक कौपी ले ली, फिर अपने बड़े अफसर से बात कर उस आदमी का फोटे न्यूज चैनलों पर चलवा दिया.

थोड़ी ही देर में इंस्पैक्टर देवांशु राय के पास एक आदमी का फोन आ गया कि यह अपराधी उस के पड़ोस में रहता है.

इंस्पैक्टर देवांशु राय ने उस का पता नोट कर तुरंत वहां छापा मार कर उसे गिरफ्तार कर लिया. उस के घर से भारी मात्रा में नकदी बरामद हुई. थोड़ी सख्ती होते ही उस ने कबूल कर लिया कि इनाम का एसएमएस भेज कर उस ने काफी लोगों को ठगा था.

इंस्पैक्टर देवांशु राय ने उस आदमी को जेल भेज दिया. अपने पैसे वापस मिलने पर कामता प्रसाद ने रमन और सुकेश को जी भर कर आशीर्वाद दिया. Best Hindi Kahani

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