जब आंखें खुलीं, तो परमानंद ने देखा कि दिन निकल आया था. रात को सोते समय उस ने सोचा था कि सुबह वह जल्दी उठेगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल थी, वरना कुछ कमाई हो जाती. वैसे, आज के समय तांगा कौन लेता है? सभी तेज भागने वाली सवारी लेना चाहते हैं. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से कुछ उम्मीद बंधी थी, पर सिर भारी हो रहा था. बुखार सा लग रहा था. इच्छा हुई, आराम कर ले, पर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और उस का रुस्तम? उस का क्या होगा?
परमानंद जल्दी से उठा और रुस्तम को चारापानी डाल कर तैयार होने के लिए चल दिया. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटा कर उस ने तांगा तैयार किया और सड़क पर जा पहुंचा. जल्दी ही सवारी भी मिल गई.
2 लोगों ने हाथ दिखा कर उसे रोका. उन में एक अधेड़ था और दूसरा नौजवान.
‘‘कलक्ट्रेट चलना है?’’ अधेड़ आदमी ने पूछा.
‘‘जी, चलेंगे,’’ परमानंद बोला.
‘‘क्या लोगे? पहले तय कर लो,
नहीं तो बाद में झंझट करोगे,’’ नौजवान ने कहा.
‘‘आप ही मुनासिब समझ कर दे दीजिएगा. झंझट किस बात का?’’
‘‘नहींनहीं, पहले तय हो जाना चाहिए. हम 30 रुपए देंगे. चलना है
तो बोलो, नहीं तो हम दूसरी सवारी देखते हैं.’’
‘‘ठीक है साहब,’’ परमानंद बोला.
‘‘और देखो, कलक्ट्रेट के भीतर पहुंचाना होगा. बीच में ही मत छोड़ देना.’’
‘‘गांधी मैदान का भाड़ा ही 30 रुपए होता है. भीतर अंदर तक तो 50 रुपए होगा.’’
‘‘देखो, हम ने जो कह दिया, सो कह दिया. चलना है तो चलो,’’ नौजवान की आवाज सख्त थी.
परमानंद इनकार करने ही जा रहा था कि बुजुर्ग ने तांगे पर चढ़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तुम 40 रुपए ले लेना. हम भी तो परेशानी में पड़े हैं.’’