उत्तर प्रदेश: लोकतंत्र में विरोध के स्वर को दबाने के लिए मारी गोली

– शैलेंद्र सिंह  

लोकतंत्र में विरोध करने का संविधान में अधिकार दिया गया है. समय के साथसाथ तानाशाही सरकारों को यह पसंद नहीं आ रहा है. विरोध के स्वर को दबाने के लिए अब सरकारें किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गई हैं. केवल विपक्षी दलों की आवाज को ही नहीं, बल्कि मीडिया के स्वर को भी दबाया जा रहा है.

राजनीतिक पत्रिका ‘कारवां’ ने जब किसान आंदोलन और अलगअलग मुद्दों पर निष्पक्ष लेखों को छापा, तो राष्ट्रद्रोह जैसे मुकदमे लगा कर आवाज को दबाने का काम किया गया. कई तरह की धमकियां भी मिलीं.

सुलतानपुर की रहने वाली रीता यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काले झंडे दिखाए, तो जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद बदमाशों ने उन की बोलैरो जीप को रोक कर पैर पर गोली मार दी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब मुख्यमंत्री बनने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में गए, तो समाजवादी पार्टी की नेता पूजा शुक्ला ने उन्हें काले झंडे दिखाए, जिस के बाद पूजा को न केवल जेल भेजा गया, बल्कि उन का उत्पीड़न भी किया गया.

प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाने वाली 35 साल की रीता यादव संतोष यादव की पत्नी हैं. वे सुलतानपुर जिले के चांदा क्षेत्र के लालू का पूरा सोनावा गांव की रहने वाली हैं.

16 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘पूर्वांचल ऐक्सप्रैसवे’ का लोकार्पण करने के लिए सुलतानपुर पहुंचे थे. सुलतानपुर जिले के अरवलकीरी में रीता यादव ने प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाया. रीता यादव उस समय समाजवादी पार्टी में थीं.

प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाने के आरोप में पुलिस ने रीता यादव को जेल भेज दिया था. कुछ दिन जेल में रहने के बाद रीता यादव को जमानत पर रिहाई मिल गई थी. जेल से रिहा होने के बाद रीता यादव को समाजवादी पार्टी में कोई खास तवज्जुह नहीं मिली.

17 दिसंबर, 2021 को रीता यादव ने लखनऊ में कांग्रेस जिलाध्यक्ष अभिषेक सिंह राणा से मुलाकात की और कांग्रेस जौइन कर ली. कांग्रेस में उन की मुलाकात प्रियंका गांधी से भी हुई.

रीता यादव ने साल 2022 के विधानसभा चुनाव में सुलतानपुर की चांदा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी. इस की तैयारी के सिलसिले में वे पोस्टरबैनर छपवाने सुलतानपुर गई थीं. सोमवार, 3 जनवरी, 2022 को वे अपनी बोलैरो जीप से गांव लौट रही थीं. शाम के तकरीबन साढ़े 6 बजे का समय था. रास्ते में बाइक सवार 3 लोगों ने जीप को ओवरटेक कर के रोक लिया.

रीता यादव का कहना है, ‘‘मैं पोस्टरबैनर बनवाने गई थी. वहां से घर जा रही थी. रास्ते में हाईवे पर लंभुआ के पास 3 लोगों ने ओवरटेक कर के मेरी गाड़ी को रोका और गाली देते हुए जान से मारने की धमकी दी.

‘‘मेरे ड्राइवर की कनपटी पर पिस्टल लगा दी. मैं ने जब उन्हें तमाचा मारा, तो उन्होंने मेरे पैर पर गोली मार दी और भाग निकले.’’

कांग्रेस ने लगाया आरोप

इस घटना के बाद रीता को लंभुआ सीएचसी अस्पताल पहुंचाया गया. सूचना मिलते ही सीओ सतीश चंद्र शुक्ल सीएचसी पहुंचे और घायल रीता और उन के चालक से पूछताछ की. वहां से रीता यादव को सुलतानपुर जिला अस्पताल पहुंचा दिया गया.

कांग्रेस ने इस मामले को ले कर भाजपा को घेरा है. कांग्रेस ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को ट्विटर पर टैग करते हुए लिखा कि ‘लड़कियों को लड़ने से आप की पार्टी के जंगलराज में भाड़े के गुंडे रोक रहे हैं. महिलाओं की साड़ी खींचने वाले कायरों से इसी कायरता की उम्मीद है. बेटियों की एकजुटता से डरे कायर अब उन पर गुंडे छोड़ रहे हैं’.

सुलतानपुर पुलिस इस मामले को पूरी तरह से संदिग्ध मान रही है. पुलिस अधिकारी विपुल कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि मामले की जांच चल रही है. रीता यादव पुलिस के कुछ सवालों के जवाब नहीं दे पा रही हैं.

पुलिस का कहना है कि किसी बोलैरो जीप को बाइक सवार कैसे रोक सकते हैं? अगर उन की कोई दुश्मनी थी, तो रीता यादव को पैर पर गोली क्यों मारते?

रीता यादव का मामला आगे किस करवट बैठेगा, यह देखने वाली बात होगी, पर यह बात सच है कि विरोध के स्वर को दबाने के लिए अलगअलग तरह से कोशिश की जा रही है.

कई बार राजनीतिक दलों के अंधभक्त समर्थक भी खुद से ऐसे काम करते हैं. ‘हिदुत्व’ व ‘गौरक्षा’ के नाम पर तमाम मौब लिंचिंग की घटनाएं भी हुई हैं.

एक तरफ ‘धर्म संसद’ में भड़काने वाले बयान दिए जाते हैं और सरकार किसी भी तरह की कानूनी कार्यवाही नहीं करती है, वहीं दूसरी तरफ सामान्य विरोध पर गोली मारने जैसी घटनाएं घट रही हैं, जो सरकार के माथे पर कलंक जैसी हैं.

सियासत : इत्र, काला धन और चुनावी शतरंज

शैलेंद्र सिंह

गांवदेहात की एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘कहता तो कहता, सुनता ब्याउर’. इस का मतलब है कि कहने वाला तो जैसा है वैसा है ही, सुनने वाला भी अपना दिमाग नहीं इस्तेमाल करता. वह भी झूठ को सच मान लेता है.

कुछ इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश की ‘इत्र नगरी’ कन्नौज में इत्र और गुटके का कारोबार करने वाले पीयूष जैन के यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा. पीयूष जैन पर टैक्स न अदा करने और काला धन रखने का आरोप लगा. उन के यहां से बहुत सारा पैसा नकदी के रूप में मिला.

इस को ले कर राजनीति होने लगी. भारतीय जनता पार्टी के नेता पीयूष जैन को समाजवादी पार्टी का नेता बताते हुए कहते हैं कि ‘समाजवादी इत्र बनाने वाले कारोबारी के घर से काला धन निकला है’.

इस के बाद केवल छोटेमोटे लोकल नेता ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक इस का जिक्र करने लगते हैं. एक तरह से ‘इत्र’ की खुशबू को काले धन की ‘बदबू’ में बदल दिया जाता है. झूठ बोलने में न तो कहने वाला कुछ संकोच कर रहा है और न समझने वाला अपना दिमाग लगाना चाह रहा है.

क्या भारतीय जनता पार्टी का यह ‘मिथ्या प्रचार’ कामयाब हो गया? वैसे, किसी ने यह जानने और समझने की कोशिश नहीं की कि पीयूष जैन कौन हैं? उन का समाजवादी पार्टी के साथ किसी भी तरह का संबंध है भी या नहीं? समाजवादी इत्र किस ने बनाया था?

पीयूष जैन के जरीए समझा जा सकता है कि सोशल मीडिया के जमाने में राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाली आईटी सैल किस तरह से सच को झूठ में बदल सकती है. ऐसा अकेले पीयूष जैन के ही साथ नहीं हुआ है, बल्कि बहुत सारे ऐसे नेताओं के साथ हुआ है, जो भाजपा और उस की विचारधारा के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं.

इस का एक बहुत बड़ा उदाहरण कांग्रेस नेता राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी को आईटी सेल की ताकत ने ‘पप्पू’ में बदल दिया. इस दिशा में बहुत सारे नाम हैं, जिन्हें आईटी सैल ने हीरो से विलेन बना दिया.

याद रहे कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी वहां पर केंद्र सरकार की एजेंसियों ने ममता बनर्जी पर शिकंजा कसने की कवायद की थी, पर पश्चिम बंगाल की जनता ने केंद्र की ‘डबल इंजन’ सरकार को धो डाला था.

अब कन्नौज के रहने वाले पीयूष जैन पर आते हैं. उन का कुसूर इतना था कि वे उस महल्ले में रहते हैं, जहां समाजवादी पार्टी के विधायक पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी रहते हैं. वे दोनों ही जैन हैं और इत्र व गुटके के कारोबार से जुड़े हैं. जैसे ही पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा और तथाकथित काला धन मिला, भाजपा की आईटी सैल ने पीयूष जैन को सपा विधायक पुष्पराज जैन के रूप में बदनाम करना शुरू कर दिया.

छापा और बरामदगी

यह बात सच है कि पीयूष जैन के घर से जो पैसा बरामद हुआ, वह आंखें खोल देने वाला था. पर इस छापे में मिली रकम से 2 बातें भी साफ होती हैं कि सरकार नोटबंदी के बाद जिस काले धन के खत्म होने की बात कर रही थी, वह सही नहीं है. नोटबंदी से काले धन को रोकने में कोई मदद नहीं मिली, उलटे छोटे कारोबारी खत्म हो गए, क्योंकि अगर काले धन पर लगाम लग गई होती तो पीयूष जैन के यहां से इतना पैसा नहीं निकलता.

दूसरी बात यह कि भाजपा सरकार ने यह दावा भी किया था कि जीएसटी के बाद टैक्स चोरी खत्म हो गई है या न के बराबर रह गई है, पर यहां भी वह मात खा गई.

बहरहाल, पीयूष जैन को टैक्स चोरी के आरोप में अहमदाबाद की जीएसटी इंटैलिजैंस टीम ने 50 घंटे की लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार किया. उन्हें सीजीएसटी ऐक्ट की धारा-69 के तहत गिरफ्तार कर पूछताछ के लिए कानपुर से अहमदाबाद ले जाया गया.

सर्विस ऐंड सर्विसेज टैक्स के अफसरों ने बताया कि छापामारी में इत्र कारोबारी के घर के अंदर एक बड़ा तहखाना मिला और 16 बेशकीमती प्रोपर्टी के दस्तावेज मिले. इन में कानपुर में 4, कन्नौज में 7, मुंबई में 2, दिल्ली में एक और दुबई की 2 प्रोपर्टी के दस्तावेज शामिल हैं.

इस के अलावा 18 लौकर और 500 चाबियां मिलीं. कुलमिला कर शुरुआती 120 घंटे की कार्यवाही में पीयूष जैन के ठिकानों से 257 करोड़ रुपए नकद और कई किलो सोना बरामद हुआ.

पीयूष जैन के घर में इतने पैसे मिले कि नोट गिनने के लिए मशीनें लाई गईं. कुल 8 मशीनों के जरीए पैसे को गिना गया.

कैसे खुला काला सच

अहमदाबाद की जीएसटी टीम को पुख्ता जानकारी मिली थी कि कानपुर में एक ट्रांसपोर्ट बिजनैसमैन टैक्स चोरी करता है. दरअसल, अहमदाबाद में एक ट्रक पकड़ा गया था. इस ट्रक में जा रहे सामान का बिल फर्जी कंपनियों के नाम पर बनाया गया था. सभी बिल 50,000 रुपए से कम के थे. टीम ने उस ट्रांसपोर्टर के घर और दफ्तर पर छापा मारा. वहां पर डीजीजीआई को तकरीबन 200 फर्जी बिल मिले. वहीं से पीयूष जैन और फर्जी बिलों के कनैक्शन का पता लगा. इस के बाद पीयूष जैन के घर पर छापामारी की गई.

पीयूष जैन कन्नौज की मशहूर इत्र वाली गली में इत्र का कारोबार करते हैं. इन के मुंबई में भी औफिस हैं. इनकम टैक्स को इन की तकरीबन 40 से ज्यादा ऐसी कंपनियां मिली हैं, जिन के जरीए पीयूष जैन अपना इत्र कारोबार चला रहे थे. वे गुटके के कारोबार से भी जुड़े हैं. कानपुर के ज्यादातर पान मसाला बनाने वाले उन के ग्राहक हैं. वे पीयूष जैन से ही पान मसाला कंपाउंड खरीदते हैं. गुटके के बिजनैस का कारोबार बढ़ने की वजह से ही पीयूष जैन को कन्नौज छोड़ कर कानपुर जाना पड़ा.

पीयूष जैन के पिता महेश चंद्र जैन कैमिस्ट की अच्छी जानकारी रखते हैं और उन का कारोबार भी इत्र से न जुड़ा हो कर कैमिस्ट की कंपाउंडिंग से जुड़ा हुआ है. पीयूष जैन के एक और भाई हैं अमरीश जैन. वे दोनों ही भाई कभी कन्नौज तो कभी कानपुर के घर पर रहते हैं. इन के पिताजी महेश चंद्र जैन ज्यादातर कन्नौज के मकान में रहते हैं.

50 साल के पीयूष जैन एक बहुत ही लोप्रोफाइल बिजनैसमैन हैं, जो एक आम जिंदगी बिताते हैं. वे अभी भी स्कूटर पर चलते हैं. उन के घर से सोना और नकदी बरामद होने के बाद और टैक्स चोरी के आरोप में कोर्ट ने उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है.

जब पीयूष जैन के कानपुर वाले घर पर डीजीजीआई टीम की छापेमारी हुई, उस के बाद से उन का संबंध समाजवादी पार्टी और कन्नौज से समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन से जोड़ा जाने लगा. ऐसे में जब इस बात की पड़ताल की गई, तो पता चला कि पीयूष जैन और पुष्पराज जैन का आपस में कोई संबंध नहीं है. बस, इतना ही संबंध है कि वे दोनों एक ही जगह महल्ला छिपट्टी के रहने वाले हैं. वे दोनों जैन हैं और इत्र कारोबारी भी हैं. उन की आपस में न तो कोई रिश्तेदारी है और न ही कोई राजनीतिक संबंध.

समाजवादी इत्र को पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन ने लौंच किया था. इस से पीयूष जैन का कोई संबंध नहीं था. 60 साल के पुष्पराज जैन को कन्नौज में ‘परोपकारी’ और ‘राजनेता’ कहा जाता है. उन के पास एक पैट्रोल पंप और कोल्ड स्टोरेज यूनिट है. वे खेतीबारी से भी कमाई करते हैं और उन के पास मुंबई में भी घर और दफ्तर हैं. पुष्पराज जैन को साल 2016 में इटावाफर्रुखाबाद से एमएलसी के रूप में चुना गया था. वे प्रगति अरोमा औयल डिस्टिलर्स प्राइवेट लिमिटेड के सहमालिक हैं. उन के इस बिजनैस की शुरुआत उन के पिता सवाई लाल जैन ने साल 1950 में की थी.

पुष्पराज जैन और उन के 3 भाई कन्नौज में कारोबार चलाते हैं और एक ही घर में रहते हैं. उन के 3 भाइयों में से 2 भी मुंबई औफिस में काम करते हैं, जबकि तीसरा भाई उन के साथ कन्नौज में मैन्युफैक्चरिंग सैटअप पर काम करता है.

साल 2016 में पुष्पराज जैन के चुनावी हलफनामे के मुताबिक, पुष्पराज और उन के परिवार के पास 37.15 करोड़ रुपए की चल संपत्ति और 10.10 करोड़ रुपए की अचल संपत्ति है. उन का कोई आपराधिक रिकौर्ड नहीं है और उन्होंने कन्नौज के स्वरूप नारायण इंटरमीडिएट कालेज में 12वीं जमात तक पढ़ाई की है.

इन का है समाजवादी इत्र

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ‘इत्र नगरी’ कन्नौज से सांसद होने का सफर शुरू किया तो उन के साथ इत्र कारोबारी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी पार्टी में शामिल हो गए और धीरेधीरे उन की गिनती अखिलेश यादव के करीबी नेताओं में होने लगी. इस के बाद उन्होंने समाजवादी इत्र का निर्माण कर उसे लौंच किया और पार्टी से एमएलसी का चुनाव लड़ कर जीत हासिल की.

पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन शुरू से ही अपने पुश्तैनी घर पर रहे हैं और घर के पास ही इत्र का कारखाना लगाए हुए हैं, जहां से इत्र तैयार हो कर देशविदेश में भेजा जाता है.

पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी के बाद पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी सुर्खियों में आ गए. भाजपा के लोगों ने पीयूष जैन को ही समाजवादी पार्टी का नेता बताना शुरू कर दिया, तो अखिलेश यादव ने उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा ने पुष्पराज उर्फ पंपी जैन के घर छापा मारने के लिए कहा था, पर अफसर गलती से पीयूष जैन के घर पर छापा मार बैठे. पीयूष जैन के घर जो काला धन मिला है, उस से सपा का कोई मतलब नहीं है. यह सारा पैसा भाजपा के नेताओं का है. अफसरों की गलती से भाजपा का सच बाहर आ गया है.

अखिलेश यादव ने दावा किया कि भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार का असली निशाना पुष्पराज जैन थे, जिन्होंने हमारे लिए परफ्यूम बनाया था. उन्होंने (भाजपा) मीडिया के जरीए विज्ञापन दिया कि जिस पर छापा मारा गया, वह आदमी सपा का है. बाद में लोग सम?ा गए कि सपा के एमएलसी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. भाजपा के लोग ‘सपा के इत्र कारोबारी पर छापा’ को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगे. यह सब ‘डिजिटल इंडिया’ की गलती की तरह लग रहा था.

काले धन पर प्रधानमंत्री का निशाना

समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए काले धन के आरोपी पीयूष जैन को सपाई नेता साबित करने की लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कूद पड़े. नरेंद्र मोदी का भाषण देश के प्रधानमंत्री का भाषण होता है. इस के तथ्यों में गलतियां नहीं होनी चाहिए. पीयूष जैन और पुष्पराज जैन के बीच के फर्क को पीएमओ के लोग भी नहीं समझ पाए या उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदे के लिए इस फर्क को जानबूझ कर मिटाने का काम किया गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी का इशारे से जिक्र किया, जिस में 194 करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी बरामद हुई है और समाजवादी पार्टी पर सत्ता में अपने कार्यकाल के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ छिड़कने का आरोप लगाया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन पर मारे गए छापे का जिक्र किया और कहा कि उन्होंने (सपा) साल 2017 से पहले पूरे उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की इत्र बिखेर दी थी, जो सभी के सामने है, मगर अब वे अपना मुंह बंद रखे हुए हैं और के्रडिट लेने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं. नोटों का पहाड़, जिसे पूरे देश ने देखा है, यही उन की उपलब्धि और हकीकत है.

झूठ को सच में बदलने के लिए छापेमारी

बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस भाषण की आलोचना होने लगी. समाजवादी पार्टी ने भाजपा के इस झूठ को मुद्दा बना लिया. इस के बाद अचानक समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन के कारोबारी ठिकानों पर भी इनकम टैक्स वालों की छापेमारी होने लगी. इस को अखिलेश यादव ने पकडे़ गए झूठ को सच में बदलने की कोशिश बताया.

सपा नेता रामगोपाल यादव ने कहा कि जबजब चुनाव आता है, तो छापे मारने वाले अफसरों की गाडि़यों पर लिख दिया जाता है, ‘आल इलैक्शन ड्यूटी’. तो ये तो इलैक्शन ड्यूटी पर हैं. वे अपना काम कर रहे हैं. अगर वे प्रोफैशनली करना चाहते थे, तो चुनाव से ठीक पहले यह छापे क्यों मारे जा रहे हैं? इस से पहले क्या इनकम टैक्स विभाग सो रहा था? सरकारी एजेंसियां दबाव में भी काम कर रही हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को कितनी परेशानी उठानी पड़ी, पर जीत ममता की हुई, भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. उत्तर प्रदेश में भी यही होगा. जनता भाजपा को सबक सिखाने के लिए तैयार है.

पंजाब:  नवजोत सिंह सिद्धू  राजनीति के “गुरु”

सुरेशचंद्र रोहरा

पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और संपूर्ण देश में यह एक ऐसा प्रदेश है जहां प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नवजोत सिंह सिद्धू अपने ही सरकार को चैलेंज करते, पटखनी देते दिखाई देते हैं, और  बघिया उघरते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को ऐसा घेरते हैं, मानो, सिद्धू उन्हें फूटी आंख नहीं देखना चाहते मानो, सिद्धू प्रदेश अध्यक्ष नहीं कोई विपक्ष हों. दरअसल, जो राजनीति की नई मिसाल उन्होंने दिखानी शुरू की है उसका सार संक्षिप्त यही है कि आने वाले समय में पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता संदिग्ध नहीं रही.

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या यह सब कांग्रेस आलाकमान की सहमति से हो रहा है. जानबूझकर हो रहा है. पहली नजर में तो यह सब कांग्रेस के विपरीत मालूम पड़ता है मगर क्या इसमें कांग्रेस का हित है?

दरअसल,यह सब राजनीति के मैदान में देश कई दशक बाद देख रहा है. मजे की बात यह है कि यह सब कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका की नजरों के सामने हो रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का यह आपसी मल युद्ध पंजाब में कांग्रेस को रसातल की ओर ले जाएगा, तो इसका जिम्मेदार कौन है?

आज कांग्रेस के लिए देशभर में संक्रमण का समय नजर आ रहा है. कांग्रेस, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का ढोल पीट रही भाजपा के सामने निरंतर कमजोर होती चली जा रही है अथवा रणनीति के साथ कांग्रेस को खत्म करने का प्रयास चल रहा है. ऐसे में पंजाब जहां कांग्रेस की अपनी सरकार है और भाजपा तीसरे नंबर पर ऐसे में सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है या यह एक रणनीति के तहत हो रहा है.

वस्तुत: पंजाब में जैसी परिस्थितियां स्वरूप ग्रहण कर रही हैं उसे राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि धीरे-धीरे कांग्रेस हाशिए की ओर जा रही है. इसका एकमात्र कारण प्रदेश की कमान संभाल रहे नवजोत सिंह सिद्धू हैं. एक सवाल और भी है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू जैसा राजनीति का खिलाड़ी जानबूझकर ऐसा कर रहा है. क्या कांग्रेस आलाकमान ने उसे जानते समझते हुए खुली छूट दे रखी है कि कांग्रेस को कुछ इस तरह खत्म करना है या फिर आज जो परिदृश्य है उसमें नवजोत सिंह सिद्धू कुछ ऐसा खेल खेलने वाले हैं जो 2022  विधानसभा चुनाव में नया गुल खिलाएगा और कांग्रेस पुनः सत्ता में आ जाएगी? प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से जिस तरीके से नवजोत सिंह सिद्धू घोषणाएं कर रहे हैं महिलाओं को गैस सिलेंडर देंगे और 2000 रूपए प्रति माह देंगे यह सब इसी राजनीति का हिस्सा है. इसका परिणाम यह निकल सकता है कि सिद्धू पंजाब में राजनीति के नए “गुरु” के रूप में स्थापित हो जाएंगे.

धज्जियां उड़ाते सिद्धू

कांग्रेस पार्टी के निर्णय की धज्जियां उड़ाते प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हर रोज चर्चा में हैं. दो दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने चुटकी लेते हुए कहा, “दूल्हे के बिना कैसी बारात?” उन्होंने पिछले उथल-पुथल के दिनों का जिक्र करते हुए कहा कि संकट से बचने के लिए एक सही “मुख्यमंत्री” जरूरी था.

दरअसल, जब कांग्रेस आलाकमान ने यह स्पष्ट कर दिया  कि पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव सामूहिक रूप से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जो कांग्रेस का “दलित चेहरा” हैं के अलावा प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू (जाट चेहरा) और पूर्व पीपीसीसी प्रमुख सुनील जाखड़ (हिंदू चेहरा) के सामुहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो अपने स्वभाव या कहें रणनीति के तहत नवजोत सिंह सिद्धू चुप नहीं बैठे और जो कहना था कह डाला.

नवजोत सिंह सिद्धू ने बेअदबी मामले की जांच किए जाने में हुई देरी पर भी  मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी पर निशाना साध दिया. सिद्धू ने कहा – हर कोई घोषणा करता है, लेकिन यह संभव नहीं है. राजकोषीय घाटा देखिए. आर्थिक स्थिति के अनुसार घोषणा की जानी चाहिए.

कुल जमा नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर अपने आप में चर्चा का विषय बन गए हैं क्योंकि कांग्रेस में वर्तमान समय में यह परिपाटी नहीं रही है कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध जाकर  सार्वजनिक बयान किया जाए. मगर सिद्धू हर रोज कुछ न कुछ ऐसा कहते हैं जो विपक्ष नहीं कह पाता. इस तरह पंजाब में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ही विपक्ष की भूमिका भी निभा रहे हैं और सारा देश चटकारे ले करके यह सब देख सुन रहा है. आगामी विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी नंबर 1 और नवजोत सिंह सिद्धू नंबर दो पर रहेंगे. अर्थात क्या कांग्रेस की सरकार की वापसी होगी इस रणनीति के पीछे काम हो रहा है या फिर अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी में जिस तरह नगर निगम चुनाव में बढ़त हासिल की है चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ कर बाजी मार ले जाएगी यह सब समय के गर्भ में है.

एक टीवी चैनल के घोषणा पत्र में नवजोत सिंह सिद्धू ताल ठोक कर कह रहे हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी को क्या उन्होंने  बनाया है, नहीं, राहुल गांधी ने बनाया है.

कुल मिलाकर सार यह है कि सिद्धू चाहे जितना पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को राजनीति के तहत हाथों हाथ लेते हैंपर उसके पीछे सत्ता का संधान ही लक्ष्य है. देखना यह है कि अब पंजाब की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है.

प्रधानमंत्री सुरक्षा और फ़िल्मी कहानियां

सुरेशचंद्र रोहरा

नरेंद्र दामोदरदास मोदी प जब पंजाब गए  और वहां मौसम खराब होने के बाद जिस तरह उन्होंने रैली स्थल पर पहुंचने का प्रयास किया. इस बीच जो नौटंकी हुई वह सारे देश ने देखी है.

अब सवाल है सिर्फ प्रधानमंत्री की सुरक्षा के कथित हवाओं में उठे सवाल का, इसका जवाब शायद देश के उच्चतम न्यायालय के पास ही होगा या फिर देश की जनता के पास.

लाख टके का सवाल यह है  कि क्या वाकई हमारे देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा पंजाब में खतरे में पड़ गई थी. या फिर यह सब एक चुनावी ड्रामा मात्र है.

दरअसल, आज देश में  बड़े लोग बड़ी नौटंकियां खेलते हैं.हर छोटी-बड़ी बात को नाटकीयता के साथ प्रदर्शित करना क्या देश हित में है ? और शोध का विषय यह है कि जब से नरेंद्र दामोदरदास मोदी राजनीति के केंद्र में आए हैं ऐसा बारम बार कैसे हो जाता है. हमें यह भी याद रखना है कि 5 जनवरी के घटना क्रम के सप्ताह भर के भीतर ही चुनाव आयोग ने पंजाब सहित पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा कर दी है. इससे चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत और भी सजीव होकर हमारे सामने हैं.  आज देश की हर राजनीतिक पार्टी की  निगाह इन चुनावों पर है. और यह भी तथ्य सार्वजनिक है कि पांच राज्यों में चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी लगभग 50% महत्वपूर्ण राजनीतिक जगहों पर अपनी पहुंच दिखा और सभाएं ले चुके थे.

यह सबसे बड़ी हास्यास्पद स्थिति है कि कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री पर पाकिस्तान की तोपें चल जाती तो . जब पाकिस्तान वैसे ही छप्पन इंच से घबराया हुआ है तो भला वह क्या तोप चलाता और इस तरह का कायराना हमला पाकिस्तान या कोई भी देश भला क्यों करेगा.

कुल मिलाकर फिल्मों में जिस तरह कहानियां बनती हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सुरक्षा को लेकर भी कहानियां बुनी गई  हैं जो देश की राजनीति उबाल का बयास‌ बन गई है.

चुनाव रैली और यू टर्न

निसंदेह यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी बात का बतंगड़ बनाने में और बिगड़ी बात को बनाने में महारथी है.

चाणक्य ने जो जो कहा है शायद प्रधानमंत्री  ने उसे पूरी तरीके से घोट करके पी लिया है.

इसीलिए 5 जनवरी को जब सड़क मार्ग से भी आगे बढ़ रहे थे और किसानों ने रास्ता रोका हुआ था तो उन्होंने जो कुछ कहा और किया उससे देश की राजनीति में एक जलजला सा आ गया. अगरचे  प्रधानमंत्री  कुछ भी नहीं करते और शालीनता पूर्वक वापस आ जाते तो शायद पंजाब और देश की पांच राज्यों के मतदाताओं पर ज्यादा गहरा असर पड़ता  उन्होंने अपनी यात्रा को सुरक्षा से जोड़कर जो यू-टर्न लिया उससे राजनीति में तो उबाल आ गया है मगर अब मतदाताओं के बीच सकारात्मक संदेश नहीं गया.

अखबारों और टीवी पर चाहे यह मामला कितना ही सुर्खियां बटोरता रहे मगर आम मतदाता तो यह मानने को तैयार नहीं की प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई सेंध लग गई.

उनके सड़क मार्ग से जाने, और जब गंतव्य स्थल तक नहीं पहुंच पाए तो राजनीति शुरू हो गई . अगर आप रैली में पहुंच जाते हैं तो कोई राजनीति नहीं होती! यह प्रश्न कोई नहीं उठाता की प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध लगी है. अपने ही देश की धरती में अपने ही किसानों जनता के बीच सुरक्षा का यह सवाल खड़ा करना बहतों की समझ से परे है. शायद यही कारण है कि आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मामला देश की सर्वोच्च अदालत उच्चतम न्यायालय  की देहरी तक पहुंच चुका है.

चुनाव और नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की भाजपा के लिए एक खासियत या फिर कहें लोक तंत्र के लिए सबसे बड़ी कमी यह है कि आप प्रधानमंत्री रहते हुए भी एक साधारण भाजपा कार्यकर्ता की तरह पार्टी के लिए वोट जुटाना चाहते हैं.जबकि यह भूल जाते हैं कि आप आज इस देश के प्रधानमंत्री हैं और एक गरिमामय पद पर हैं.

यही कारण है कि पंजाब सहित पांच राज्यों के महत्वपूर्ण चुनाव में प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी एक स्टार प्रचारक की भांति भारतीय जनता पार्टी का प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं. और ऐसे में पंजाब में जो कुछ ड्रामा हुआ उसका सीधा संबंध चुनाव से है जिस तरह संवेदनशील मुद्दा बना दिया गया कल को जब इस गुब्बारे से हवा निकलेगी तो क्या होगा?

गरीब बच्चों को क्यों नहीं पढ़ने देते?

गरीब और अनपढ़ लोगों से जब उन के बच्चों को स्कूल भेजने और पढ़ाने की बात कही जाती है, तो उन का यही जवाब होता है, ‘इन को कौन सा पढ़लिख कर कलक्टर बाबू बनना है. पढ़ाईलिखाई बड़े और पैसे वालों के लिए होती है. स्कूल जा कर समय खराब करने से अच्छा है कि मेहनतमजदूरी कर के दो पैसे कमाए जाएं. इस से घरपरिवार की मदद हो सकेगी. लड़की को दूसरे घर जाना है. पढ़ालिखा कर क्या फायदा?’

गरीब अनपढ़ लोगों को अपने हकों का पता नहीं होता है. पौराणिक किताबों और कहानियों में यह बारबार कहा गया कि दलित तबके के लिए पढ़ाईलिखाई नहीं है.

इस का असर यह है कि गरीब अनपढ़ अपने बच्चों को पढ़ने नहीं देते. बच्चे पढ़ सकें, इस के लिए जरूरी है कि मांबाप भी सजग हों और वे बच्चों को स्कूल भेजें, पर पौराणिक कहानियों ने हमारे दिमाग पर ऐसा असर किया है कि मांबाप जागरूक ही नहीं होना चाहते हैं.

आज भी एससी और एसटी तबके में लड़कों की पढ़ाईलिखाई तो खराब है ही, लड़कियों की पढ़ाईलिखाई और भी ज्यादा खराब हालत में है. 5वीं जमात के बाद स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में

यह तादाद सब से ज्यादा है. तकरीबन 42 फीसदी लड़कियां 5वीं जमात के बाद, 67 फीसदी लड़कियां 8वीं जमात के बाद और 77 फीसदी लड़कियां 10वीं जमात के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं.

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ऊंची तालीम में भी दलित तबके की लड़कियों की तादाद सब से कम है. आदिवासी और दलित तबके में लड़कियों की पढ़ाईलिखाई की हालत बहुत बुरी है. इस की सब से बड़ी वजह है कि 8वीं जमात के बाद लड़कियों को घर के कामकाज में ?ांक दिया जाता है, वहीं 10वीं जमात तक आतेआते ज्यादातर लड़कियों की शादी हो जाती है. यह भी देखा गया है कि जब लड़कियां पढ़लिख लेती हैं, तो वे घरपरिवार और समाज को मदद करने के लायक हो जाती हैं.

तालीम से दूर बड़ी आबादी

जब गरीब और अनपढ़ लोगों की बात होती है, तो उस में सब से बड़ा हिस्सा एससी और एसटी तबके का है. इन्हें दलित या अछूत कहा जाता है. ये लोग भारत की कुल आबादी का 18 से 20 फीसदी हैं.

साल 1850 से साल 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबेकुचले तबके के नाम से देखती थी. इन की कुल आबादी 32 करोड़ के करीब मानी जाती है. यह भारत की आबादी का एकचौथाई हिस्सा है.

पौराणिक जमाने से आज तक दबेकुचले तबके के साथ भेदभाव होता आ रहा है. इन को सब से ज्यादा पढ़ाईलिखाई के हक से दूर रखा जाता है. सदियों से इस तबके के मन में एक बात अंदर तक बैठ गई है कि पढ़ाईलिखाई पर इन लोगों का हक नहीं है.

सरकार ने संविधान के मुताबिक तालीम देने का इंतजाम तो कर दिया, लेकिन सरकारी तालीम का बुरा हाल कर दिया, जिस की वजह से सरकारी स्कूल में पढ़ने के बाद भी ये लोग सामान्य वर्ग का मुकाबला करने में बहुत पीछे हो जा रहे हैं.

1931-32 में गोलमेज सम्मेलन के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने ऐसे लोगों के लिए अलग सूची बनाई, जिस से उन के लिए अलग सरकारी योजनाओं को चला कर उस का फायदा उन को दिया जा सके.

आजादी के बाद संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया, जिस में भारत के 29 राज्यों की 1,108 जातियों के नाम शामिल किए गए थे. ऊंचनीच के हिसाब से यह समाज तमाम बिरादरी और जातियों में बंटा है.

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तकरीबन 2000 साल से चली आ रही जातीय व्यवस्था को आजादी के 70 सालों के बाद भी खत्म नहीं किया जा सका है. किसी न किसी रूप में यह कायम है. इन को कमजोर करने के लिए जातीय व्यवस्था के भीतर जातियों का बंटवारा किया जा रहा है, जिस से राजनीतिक दबाव को कम किया जा सके.

कमजोर पड़ते दलित मुद्दे

डाक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे नेताओं ने पढ़ाईलिखाई को पूरी अहमियत दी थी. दलित आंदोलन को शुरू कर के उन को हक और पहचान दिलाने के लिए काम किया. 20वीं सदी की शुरुआत में दलितों की सामाजिक, तालीम और माली तौर पर हालत बेहद खराब थी. डाक्टर भीमराव अंबेडकर की अगुआई में दलित आंदोलन से दलितों को कुछ फायदे हुए.

आजादी मिलने के बाद यह आंदोलन राजनीतिक सत्ता पाने में लग गया, जिस के चलते दलित जातियां तमाम बिरादरी में बंट कर कमजोर हो गई हैं, जिस से उन का दबाव कम हो गया है. इस वजह से आरक्षण का विरोध करने वाले लोग अब आरक्षण को खत्म करने की मांग करने लगे हैं.

शासन व्यवस्था के हर दर्जे में कुछ सीटें दलितों के लिए आरक्षित होती हैं. इस का फायदा अब दलितों के एक वर्ग में ही बांटा जा रहा है. सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भी दलितों के लिए आरक्षण होता है.

आजादी के बाद बने भारत के संविधान में दलित हितों के संरक्षण के लिए ये व्यवस्थाएं की गई हैं. 70 साल के बाद भी ये आधीअधूरी ही हैं. दलितों के एक खास तबके तक ही फायदा पहुंच पा रहा है.

अहमियत को नहीं समझ रहे

यह सही है कि दलितों का एक तबका पढ़लिख कर आगे बढ़ गया है. इस ने अपने रोजगार भी शुरू कर लिए हैं. दलित इंडियन चैंबर औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री भी बन गई है. इस के बाद अभी भी दलितों का एक तबका बहुत पीछे है.

आरक्षण की नीति उन्हीं को फायदा पहुंचाती आ रही है, जो इस का फायदा ले कर आगे बढ़ चुके हैं. दलितों में एक छोटा तबका ऐसा तैयार हो गया है, जो अमीर है. यह दलितों की आबादी का महज 10 फीसदी है.

दलितों का यह तबका सामाजिक तौर पर खुद को ऊंचे दर्जे का सम?ाने लगा है. इस का बाकी दलित आबादी से कोई सरोकार नहीं रह गया है.

शहरों की बात छोड़ दें, तो गांव में एक बड़ा तबका ऐसा है, जो अभी भी पढ़ाईलिखाई के चलते तरक्की से कोसों दूर है. गांव के ऐसे लोग केवल मजदूर बने हुए हैं, क्योकि दलित भूमिहीन हैं. ऐसे में नौकरी और खेती उन के पास नहीं हैं. वे केवल सरकारी सुविधाओं पर आश्रित हो गए हैं. वे खुद कुछ करना नहीं चाहते, जिस की वजह से उन की तरक्की नहीं हो पा रही है.

वे ‘वोटबैंक’ राजनीति का शिकार हो गए हैं. जमीन के मालिक न होने के बावजूद दलित भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसान की तरह नजर आता है. दलितों के पास जो थोड़ीबहुत जमीन है, गरीबी के चलते वह भी बिकती जा रही है.

काम नहीं आ रहे संविधान के हक

सरकारी स्कूलों में आज दलितों की तादाद दूसरी जातियों के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन जैसेजैसे पढ़ाई आगे बढ़ती है, यह तादाद कम होती जा रही है. ये लोग सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां पढ़ाई का लैवल ज्यादा अच्छा नहीं होता.

इस वजह से इन को रोजगार भी घटिया दर्जे का ही मिलता है. जैसेजैसे आरक्षित नौकरियां और रोजगार के दूसरे मौके कम हो रहे हैं, वैसेवैसे इस तबके की निराशा और भी ज्यादा बढ़ती जा रही है.

साल 1997 से साल 2021 के बीच सरकारी नौकरियों में लाखों की कमी आई है, जिस की वजह से दलितों में भी रोजगार घटा है.

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संविधान ने दलितों को जो हक दिए हैं, वे उतने काम नहीं आ रहे जितना उम्मीद की जा रही थी. मिसाल के रूप में छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद यह आज तक कायम है. तमाम योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन उन का फायदा नहीं मिल रहा.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि दलित संगठन अब समाज में जागरूकता का काम करने की जगह राजनीति के जरीए सत्ता पाने में लग गए हैं.

वोट पाने के लिए अलगअलग तबके के लोगों को भी साथ लेना पड़ता है, जिस के चलते केवल दलित जागरूकता पर काम करना मुश्किल हो जाता है. इस की वजह से दलित मुद्दे कम होते जा रहे हैं. दलितों के लिए काम करने वाले दलों को भी दलित समाज की जगह सर्वसमाज की बात करनी पड़ रही है.

आज जरूरत इस बात की है कि गरीब और अनपढ़ लोग खुद सजग हों. अपने बच्चों को पढ़ने भेजें. जब वे पढ़लिख कर सम?ादार हो जाएंगे, तो अपना अच्छाबुरा सम?ाने लगेंगे.

जो लड़कियां स्कूल जाती हैं, वे कम उम्र में शादी नहीं करना चाहती हैं. वे अनपढ़ लोगों से बेहतर सोचती हैं. अपना और परिवार दोनों का भला करती हैं. इस वजह से गरीब और अनपढ़ लोगों को यह भूल जाना चाहिए कि पढ़लिख कर कौन सा कलक्टर बनना है. पढ़लिख कर ही अपने हक पता चल सकते हैं. वह जिंदगी में तरक्की का रास्ता है. अनपढ़ रह कर मजदूरी करने से अच्छा है कि पढ़लिख कर कोई हुनरमंद काम करें. इसी से जिंदगी में इज्जत मिलेगी.

ओमिक्रान और हमारी  निठल्ली सरकार!

पहली सुर्खी-

-अमेरिका, ब्रिटेन, चीन कई देशों में ओमिक्रान वायरस फैलता चला जा रहा है.

दूसरी सुर्खी-

भारत में भी कहीं-कहीं ओमिक्रान वायरस फैल रहा है अलर्ट जारी.

तीसरी सुर्खी – भारत में भी स्वास्थ्य विभाग ओमिक्रान

वायरस पर पैनी निगाह रखे हुए हैं रात का कर्फ्यू का राज्यों को सुझाव.

कोरोना की दो लहरें  हमारे देश और सारी दुनिया ने देखी हैं. जिसका डर था अपना स्वरूप बदल कर के कोरोना ने  के रूप में दुनिया को हलाकान शुरू कर दिया है. सारी दुनिया के चेहरे पर चिंता की  लकीरें स्पष्ट देखी जा सकती है. ऐसे में भारत में सब कुछ वैसा ही चल रहा है जैसा कि सामान्य दिनों में. हाल ही में विवाह उत्सव संपन्न हुए हैं उनमें ना तो किसी प्रोटोकॉल का पालन किया  गया और नहीं कहीं समझदारी दिखाई दी. यही नहीं केंद्र और राज्य सरकारें भी पूरी तरीके से आंख मूंदे हुए दिखाई दी. लोगों में जो एक जागरूकता मास्क को लेकर की होनी चाहिए वह भी कहीं दिखाई नहीं दी. यहां तक कि हमारे राजनेता सरकार में बैठे हुए नुमाइंदे प्रशासन में बैठे हुए अधिकारियों से जो सूझबूझ और जागरूकता की अपेक्षा थी वह भी कहीं नजर नहीं आई. ऐसे में यह सवाल आज फिर उठ खड़ा हुआ है कि कोरोना की भयंकर विभीषिका देखने के बाद भी अगर हमारे राजनेता सत्ता में बैठे हुए लोग अगर उदासीन हैं तो फिर दोषी कौन है.

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आज हम इस रिपोर्ट में यह महत्वपूर्ण मसला आपके समक्ष रख रहे हैं केंद्र हो या राज्य सरकारें कोरोना के मामले में क्या आप उन्हें समझदारी का परिचय देते हुए देखते हैं. क्या आपको एहसास है की सरकारी आखिर क्यों कुंभकरण निद्रा में सोए हुए हैं. और अगर कोरोना का यह दूसरा रूप ओमिक्रान

क्या गुल खिलाने जा रहा है और अगर अब इससे जन हानि होती है तो क्या  सरकार राज्य सरकारें और हमारे नेता जो निठल्ले बैठे हुए हैं दोषी नहीं माने जाएंगे.

देखते हुए भी आंखें बंद

आपको याद होगा कि जब कोरोना की पहली लहर आई थी प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने सब कुछ अपने हाथों में ले लिया और एक छत्र निर्णय लिया करते थे. सबसे पहले उन्होंने ही टेलीविजन पर आकर के अचानक ही लॉकडाउन का धमाका कर दिया था और सारे देश में हंगामा  बरपा हो गया था. दूसरी दफा जब आए तो खूब तालियां बजवाई दिए जलवाए. मगर उसके बाद जो हाहाकार मचा वह इतिहास में दर्ज हो चुका है.

हमारे देश में यही सबसे बड़ी खामी है कि हम लोग सब कुछ ईश्वर को छोड़ देते हैं, भाग्य पर छोड़ देते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर छुपा लेते हैं. हकीकत को नजरअंदाज करने के कारण भारत ने हमेशा बहुत ही तकलीफ है और कष्ट झेले हैं. आज लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद आज के आधुनिक युग में भी विज्ञान और जागरूकता को दरकिनार करते हुए हम शुतुरमुर्ग ही बने हुए हैं . कोरोना का बहु रुप ओमिक्रान धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैलता  चला जा रहा है. भारत की तैयारियों की बात करें तो देखते हैं कि सिर्फ बयानबाजी हो रही है. हम नजर रखे हुए हैं, हम राज्यों को सलाह दे रहे हैं, हम नाइट कर्फ्यू की बात कर रहे हैं. हम जमीनी हकीकत से बहुत दूर है हमें अपनी हॉस्पिटलों को जिस तरीके से तैयार करना चाहिए नहीं कर रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली से लेकर के किसी तहसील और गांव स्तर पर देखें तो कहीं भी कोई तैयारी हमें दिखाई नहीं देती. सिर्फ लोग इंतजार कर रहे हैं कि  ओमिक्रान चला आए और तब हम जागेंगे तब लोगों का इलाज करने का असफल प्रयास करेंगे और बाद में कहेंगे कि हमने बहुत कुछ किया.

दरअसल, सरकार में बैठे हुए हमारे निठल्ले नेता सिर्फ उद्घाटन और भूमि पूजन करने में पारंगत हैं. आज स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरीके से चुस्त-दुरुस्त करने का समय है उससे मुंह मोड़ा जा रहा है रात का कर्फ्यू लगा करके हमारे नेता हमारी सरकार क्या दिखाना चाहती है?

क्या ओमिक्रान वायरस रात को निकलता है? सरकार की सारी कवायद हंसी का पात्र है लोग अपने इन दिग्गदर्शक नेताओं पर हंसते हैं. कहते हैं धन्य हैं हमारे भाग्य विधाता!

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स्वास्थ्य इमरजेंसी अलर्ट क्यों नहीं

सीधी सी बात है- जब दुनिया भर में इस नए वायरस के आतंक से लोग परेशान हैं, लोग मर रहे हैं चर्चा का विषय बना हुआ है तो हमारे देश की सरकारी आंखें आंखें बंद करके क्यों सोई हुई है. क्यों नहीं देश में स्वास्थ्य हेल्थ इमरजेंसी अलर्ट कर दिया जाता. जिस तरीके से युद्ध के समय में देशभर में एक अलर्ट जारी कर दिया जाता है पूरी व्यवस्था देश की सुरक्षा में लग जाती है ऐसे में सब देखते समझते हुए भी स्वास्थ्य अलर्ट जारी नहीं करना अपने आप में एक गंभीर सवाल खड़ा करता है.  चाहिए कि देश का हर एक हॉस्पिटल इसके लिए तैयार किया जाए वहां बेड हो, गैस हो, वहां इस वायरस से मुकाबला करने के लिए सब कुछ सामान मेडिकल का उपलब्ध रहे. ताकि किसी की भी मृत्यु ना हो उसे इलाज मिल जाए. हमारे यहां नेता और सरकार प्रशासनिक अमला जानबूझकर के मानो अनदेखी कर रहा है और जब गांव गांव में घर घर में यह वायरस अपना आतंक दिखाना शुरू करेगा तब हक्का-बक्का यह शासन सिर्फ मीडिया में विज्ञापन जारी करना और बयान देने का काम करेगा.

अजय मिश्रा, राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी और इतिहास का कटघरा

किसान आंदोलन के दरमियान अजय मिश्रा केंद्रीय गृह राज्य मंत्री सिर्फ इसलिए चर्चा में आ गए कि उनके सुपुत्र ने किसानों पर जीप चला दी, किसान मर गए लहुलुहान हो गए. और  मामला तूल पकड़ता चला गया. कहां तो नरेंद्र मोदी सरकार ने सोचा था कि किसान उनके दबाव प्रभाव के कारण भाग खड़े होंगे और कहां तो किसान चट्टान बनकर खड़े हो गए.

आज वस्तुत: सारी दुनिया जानती है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार किसानों की दृढ़ता के आगे आखिरकार चकनाचूर हो गई है और संसद में अपने तीनों कानून वापस ले लिए हैं. मगर अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी ब- हैसियत प्रधानमंत्री अभी भी किसानों के लिए मन में सकारात्मक भाव रखते हैं या फिर नकारात्मक.

आज हम इस रिपोर्ट में इसी पहलू पर दृष्टिपात करते हुए कुछ ऐसे तथ्य प्रकाश में ला रहे हैं जो यह दूध का दूध और पानी का पानी कर देगा की वर्तमान केंद्र सरकार जिसके प्रमुख नरेंद्र दामोदरदास मोदी हैं किसानों के प्रति आखिर उनके मन में क्या है. और आने वाले समय में ऊंट किस करवट बैठ सकता है.
अगर यह कहा जाए कि नरेंद्र मोदी एक दृढ़ निश्चय के शख्स हैं तो यह गलत नहीं होगा. मगर दृढ़ता भी ऐसी होनी चाहिए जो अपने देशवासियों के भले के लिए और उन्हें ताकत देने के लिए हो मगर दुर्भाग्य से नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने  अपने मंत्रिमंडल में जिस अजय मिश्रा को अभी तक “गृह राज्य मंत्री” के पद से नवाजा हुआ है यह तथ्य, यह सच यह बता रहा है कि मोदी सरकार की सोच में कहीं ना कहीं किसानों के प्रति सच्ची हमदर्दी नहीं है.

अगर आप किसानों के प्रति सद्भाव रखते हैं तो आपको सबसे पहले दागी अजय मिश्रा को गृह राज्य मंत्री पद से हटा देना चाहिए. क्योंकि आपके इस केंद्रीय मंत्री पर आक्षेप लग रहे हैं और मामला सीधे-सीधे गंभीर है. लाख टके का सवाल यह है कि अगर  आज केंद्र में कांग्रेस गवर्नमेंट ऐसा कर रही होती तो यह नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा के लोग इस्तीफा नहीं मांगते, राजनीति में दोहरा चरित्र कतई नहीं होना चाहिए.

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मंत्री को जेल जाना होगा..

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी संसद में अजय मिश्रा के मामले को लेकर के गंभीर दिखाई देते हैं. और किसानों के पक्ष में उन्होंने जैसे बयान दिए हैं और व्यवहार किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस पार्टी किसानों के सुख दुख में साथ खड़ी है और एक ऐतिहासिक लड़ाई लड़ रही है. इसी तारतम्य में राहुल गांधी ने एक बड़ी बात कही है कि अजय मिश्रा को जेल जाना होगा, चाहे उसके लिए 5 साल लग जाएं 10 साल या 15 साल.

राहुल गांधी का यह उद्घोष नरेंद्र मोदी सरकार के लिए उल्टी गिनती का स्वर बन गया है.
एकतरफ नरेंद्र मोदी देश और दुनिया में जब सामने आते हैं तो बड़ी मीठी मीठी बातें करते हैं ज्ञान की बातें करते हैं, ऐसा महसूस होता है मानो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पद पाकर के देश की जनता धन्य हो गई है. नरेंद्र मोदी जैसा ज्ञानी, संवेदनशील और काम करने वाला प्रधानमंत्री तो मिल ही नहीं सकता.
मगर दूसरी तरफ व्यवहार में देखें तो यह बिल्कुल उलट मिलता है. नरेंद्र मोदी जो कहते हैं वह करते नहीं है और करते हैं वह कहते नहीं हैं.

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अजय मिश्रा के मामले में जिस तरीके से नरेंद्र मोदी ने हठधर्मिता दिखाई है वह भारतीय राजनीति के इतिहास में  काले अक्षरों में दर्ज हो गई है. अजय मिश्रा गृह राज्य मंत्री होने के बावजूद कानून के शिकंजे में है और निसंदेह वह अपनी सजा तो पाएंगे. मगर नरेंद्र मोदी ने जिस तरीके से अजय मिश्रा को संरक्षण दिया है उसके कारण उन्हें स्वयं भी कभी इतिहास के कटघरे में खड़ा होना होगा, सफाई तो देनी ही होगी.

प्राइम मिनिस्टर का टि्वटर हैक करने का मतलब !

शनिवार 11-12 दिसंबर  की आधी रात प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के ट्विटर को हैक कर लिया गया. बहुत ही कम समय के लिए हैकर्स ने नरेंद्र मोदी के ट्विटर को हैक करके अपना संदेश प्रसारित कर दिया. इस रिपोर्ट में हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्यूटर हैकर्स पक्ष की बात करेंगे मगर इसके साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया है कि अगरचे लंबे समय तक देश और दुनिया के वीवीआइपी पर्सनालिटी के ट्विटर को हैक करके क्या कोई भविष्य में पूरी दुनिया में बवंडर ला सकता है, क्या यह संभव नहीं है?

फेंटेसी की दुनिया में अनेक किस्से कहानियां सच और ख्वाब बन करके जन चर्चा का विषय बनते रहे हैं. और आगे चलकर के कभी-कभी वह सच भी हो जाते हैं. ऐसा अनेक बार हुआ है.

ऐसे में यह बहुत कम समय का हमारे प्रधानमंत्री का ट्विटर हैक, हमें सोचने विचारने के लिए बहुत बड़ा विषय दे गया है कि आने वाले समय में सरकार और हमें सावधान रहना होगा. क्योंकि यह एक ऐसा माध्यम है जो मिनटों में संदेश पूरी दुनिया में फैला देता है और एक गलत संदेश लाखों करोड़ों लोगों की जान माल पर खतरा बन सकता है.

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अब जैसा कि होता है ट्विटर ने अपनी सफाई दे दी है प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी ट्विटर पर अपनी बात को रख दिया है मगर यह बात सब जान चुके हैं कि सोशल मीडिया का यह संजाल जितना हमें जानकारी देकर खुश तबियत करता है, उतना ही हमारी गर्दन भी अपने ही हाथों में रखता है.

नरेंद्र मोदी के टि्वटर हैक के पहले भी बड़ी हस्तियों के सोशल हैंडल को हैक किया जा चुका है उल्लेखनीय है कि माइक्रोब्लॉगिंग साइट पर एकसाथ ढेर सारे बड़े सिलेब्स का अकाउंट हैक होने का मामला सामने आया था- ऐपल, एलन मस्क, जेफ बेजोस, जॉन बिडेन, बराक ओबामा, उबर और माइक्रोसॉफ्ट को-फाउंडर बिल गेट्स तक के अकाउंट्स हैक हो गए थे .

पाठकों को याद दिला‌ दें कि हैकर्स ने कई अकाउंट्स से ट्वीट किए था और कहा कि उनकी ओर से भेजे गए बिटकॉइन्स को डबल कर दिया जाएगा.

अकाउंट्स की मदद से सोशल मीडिया यूजर्स से क्रिप्टोकरंसी बिटकॉइन भी उन्हें भेजने को कहा था हैक किए गए अकाउंट्स एक के बाद एक बढ़ते गए और ऐपल, एलन मस्क, जेफ बेजोस के बाद जॉन बिडेन, बराक ओबामा, उबर, माइक्रोसॉफ्ट को-फाउंडर बिल गेट्स और कई बिटकॉइन स्पेशलिटी फर्म्स के अकाउंट हैक हो गए.

सारी दुनिया जानती है की सोशल मीडिया को कभी भी कोई हैकर अपने हिसाब से कुछ समय के लिए हैंडिल कर सकता है मगर इस परिप्रेक्ष्य में कल्पना की जा सकती है कि अगर यह लंबे समय तक हुआ तो क्या होगा. क्या लंबे समय तक अगर कोई फितरती दिमाग कंट्रोल कर लेता है तो सारी दुनिया अस्त व्यस्त नहीं हो जाएगी उसका जवाबदेह कौन होगा.

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यह ट्यूटर हैक एक नमूना हो तो!

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का ट्विटर हैंडल हैक करने के बाद हैकर्स ने दो ट्वीट किए. पहला ट्वीट- शनिवार देर रात 2 बजकर 11 मिनट पर किया गया. जिसमें कहा गया,- ‘भारत ने आधिकारिक रूप से बिटक्वॉइन को कानूनी मान्यता दे दी है. सरकार ने 500 BTC खरीदे हैं और आम लोगों में बांट रही है. जल्दी करें भारत… भविष्य आज आया है!’

दो मिनट तक यह ट्वीट पीएम मोदी के ट्विटर हैंडल पर रहा. उसके बाद इसे डिलीट कर दिया गया.

इसके 3 मिनट बाद यानी 2 बजकर 14 मिनट पर पीएम मोदी के हैक किए गए ट्विटर हैडल से दूसरा ट्वीट किया गया, जिसमें पहले वाले ट्वीट की बातों को ही दोहराया गया. फिर कुछ ही मिनटों में उसे भी डिलीट कर दिया गया. हालांकि तब तक ट्विटर पर पीएम मोदी के ट्विटर अकाउंट से किए गए इन ट्वीट्स के स्क्रीनशॉट लेकर वायरल हो रहे थे.

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हम इस विशेष रिपोर्ट में सिर्फ यह कहना चाहते हैं की विज्ञान के दो पक्ष होते हैं अच्छा भी और बुरा भी. अच्छा तो सारी दुनिया आज देख रही है और इसमें बुराई भी देख रही है. मगर सोशल मीडिया को अगर कभी किसी ने लंबे समय तक अपने कब्जे में ले लिया और उसमें अपने फितरती दिमाग से संदेश प्रसारित करने लगे तो क्या होगा.

आंदोलन: एक राकेश टिकैत से हारी सरकार

आजादी के लिए किए गए आंदोलन से ले कर बाकी आंदोलनों तक किसान मुख्य धुरी रहा, पर उसे कभी श्रेय नहीं दिया गया. 3 कृषि कानूनों को ले कर पहली बार किसानों की ताकत को स्वीकार किया गया है.

इस से पहले किसानों को तरहतरह से बदनाम करने की जुगत की गई. राकेश टिकैत को सोशल मीडिया पर ‘राकेश डकैत’ लिखा गया. पर एक साल तक लंबी लड़ाई लड़ कर किसानों ने साबित कर दिया कि सही तरह से सरकार का विरोध हो तो कोई भी लड़ाई जीती जा सकती है. ममता बनर्जी की तरह ही राकेश टिकैत ने भाजपा के ‘राजसूय यज्ञ’ को कामयाब होने से रोकने का काम किया.

कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर जब किसान नेता राकेश टिकैत ने आंदोलन शुरू किया, तो उस समय उन को सब से कमजोर नेता माना जा रहा था. यह पंजाब और हरियाणा के किसानों की लड़ाई मानी जा रही थी. उत्तर प्रदेश में इस को केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित माना जा रहा था.

पर, जैसेजैसे किसान आंदोलन आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे इस पर किसान नेता चौधरी राकेश टिकैत की पकड़ बढ़ती गई. 26 जनवरी, 2021 में जब किसानों ने ट्रैक्टर रैली की और लालकिले पर  झंडा उतारा गया, उस के बाद लगा कि किसान आंदोलन खत्म हो जाएगा. पर इस घटना के बाद से किसान आंदोलन की कमान पूरी तरह से राकेश टिकैत के हाथ आ गई.

राकेश टिकैत के खिलाफ सरकार ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता लामबंद होने लगे. इस से दुखी हो कर राकेश टिकैत की आंखों से आंसू निकल गए. राकेश टिकैत ने खुद को मजबूत करते हुए किसान आंदोलन को जारी रखने का ऐलान किया.

वहां से किसान आंदोलन की कमान राकेश टिकैत के पास आ गई. ऐसा लगा, जैसे पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट किसानों ने इस को अपनी बेइज्जती माना.

धीरेधीरे यह लड़ाई उत्तर प्रदेश के बाकी हिस्सों में फैलने लगी. भारतीय किसान यूनियन ने दिल्ली के बौर्डर के साथसाथ लखीमपुर खीरी, बाराबंकी, लखनऊ और पूरे उत्तर प्रदेश के किसानों को एकजुट करना शुरू किया. अब उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन का अगुआ बन गया था.

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आलोचनाएं दरकिनार

52 साल के राकेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन नामक संगठन के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. वे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष रह चुके महेंद्र सिंह टिकैत के दूसरे बेटे हैं.

साल 2020 में कृषि कानून के विरोध में गाजीपुर बौर्डर पर धरनाप्रदर्शन को ले कर राकेश टिकैत चर्चा में आए. उन्होंने मेरठ यूनिवर्सिटी से एमए की उपाधि हासिल की और साल 1992 में दिल्ली पुलिस में नौकरी की, लेकिन 1993-94 में लालकिले पर किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्होंने दिल्ली पुलिस की नौकरी छोड़ दी और भारतीय किसान यूनियन के सदस्य के रूप में विरोध में शामिल हो गए.

इस के बाद से ही राकेश टिकैत की किसान राजनीति तेजी से आगे बढ़ने लगी. उन्होंने साल 2018 में हरिद्वार (उत्तराखंड) से ले कर दिल्ली तक ‘किसान क्रांति’ यात्रा निकाली.

राकेश टिकैत की बढ़ती लोकप्रियता से डरे लोगों ने कभी उन को कांग्रेस का ‘दलाल’ कहा, तो कभी भाजपा का ‘दलाल’. कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ाई तेज करने के बाद भाजपा की आईटी सैल ने राकेश टिकैत का नया नामकरण ‘राकेश डकैत’ कर दिया.

उन के घरपरिवार और बच्चों के साथसाथ उन की जमीनजायदाद पर उंगली उठाई गई. पर राकेश टिकैत अपनी आलोचना से कभी डरे नहीं और कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी. जब केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का काम किया तो भी राकेश टिकैत ने कहा, ‘जब तक एमएसपी की गारंटी नहीं दी जाएगी, तब तक आंदोलन वापस नहीं होगा.’

राकेश टिकैत सम झदार नेता हैं. वे खेतीबारी से जुड़े हैं. उन्हें पता है कि किसान की उपज का लाभ बिचौलिए खा रहे हैं. किसान की पहली परेशानी खेती की उपज का सही दाम नहीं मिलना है. अगर एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी सरकार दे तो ही किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा.

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किसान सरकार से सही कीमत के लिए लड़ सकता है. अगर मंडी निजी क्षेत्रों में चली गई, तो किसान वहां अपनी लड़ाई नहीं लड़ पाएगा. ऐसे में एमएसपी पर गांरटी सब से जरूरी है.

किसानों से जुड़ी जनता

राकेश टिकैत नेता नहीं, बल्कि एक किसान हैं. यही वजह है कि वे दूसरे नेताओं जैसे दांवपेंच के माहिर नहीं हैं. वे 2 बार चुनाव लड़े और दोनों ही बार हार गए. इस हार को ले कर उन की आलोचना होती है और उन्हें कभी देश के किसानों का नेता नहीं माना गया.

इस के बाद भी राकेश टिकैत ने कभी इन बातों की परवाह नहीं की. वे किसानों के हित में अपनी आवाज को बुलंद करते रहे. कृषि कानूनों के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्हें वजनदार नेता नहीं माना गया था, पर धीरेधीरे वे किसान आंदोलन की धुरी हो गए.

यही वजह है कि किसान आंदोलन में राकेश टिकैत ने किसी भी सियासी पार्टी के नेताओं को आगे नहीं आने दिया. इस में उन्होंने केवल किसानों को ही जोड़ा और आंदोलन को मजबूत बनाया.

साल 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव है. किसान आंदोलन के चलते किसान सरकार से नाराज चल रहे थे. केंद्र सरकार की ‘किसान सम्मान निधि’ से भी किसान खुश नहीं थे, जिस की वजह से किसान और गांव के रहने वालों ने उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भाजपा को हराने का काम किया.

राकेश टिकैत की दूसरी बड़ी कामयाबी यह थी कि जब वे जहांजहां जाते थे, तो कृषि कानूनों के साथसाथ बढ़ रही महंगाई, बेरोजगारी पर बात करते थे. वे आंदोलन कर रहे लोगों

का समर्थन करते थे, खुल कर और पूरी बेबाकी से सरकार के खिलाफ बोलते थे, जिस की वजह से किसानों और गांव के लोगों के साथसाथ आम शहरी लोगों का भी समर्थन उन्हें मिलने लगा था.

राकेश टिकैत आम लोगों को किसानों की परेशानियों से जोड़ने लगे, जिस में कृषि कानूनों के अलावा महंगाई, खाद, डीजल, पैट्रोल और छुट्टा जानवरों की परेशानियां थीं. मीडिया में जितना कोई नेता नहीं छप रहा था, उस से कहीं ज्यादा जगह किसान आंदोलन को मिलने लगी.

सरकार की परेशानी की वजह यह थी कि किसान के मुद्दे सुर्खियां बन रह रहे थे. किसान आंदोलन को तमाम कोशिशों के बाद भी खालिस्तानी या देश विरोधी साबित नहीं किया जा सका. इतना ही नहीं, यह किसान आंदोलन धर्म के मुद्दे को भी प्रभावित कर रहा था. इस से यह डर लगने लगा था कि यह एक साल चल गया और इस से ज्यादा चला तो धर्म की राजनीति पिटने लगेगी. लोग धर्म से ज्यादा किसान राजनीति की बात करने लगे थे.

झुके भी पर हटे नहीं

किसान आंदोलन की राह में 2 बड़े मोड़ आए थे, जब लगा कि अब किसान आंदोलन खत्म करने का रास्ता सरकार को मिल गया. राकेश टिकैत ऐसे मुद्दों पर  झुकते दिखे, पर आंदोलन से पीछे नहीं हटे. लालकिले की घटना के बाद सारे किसान नेता आंदोलन छोड़ कर पीछे हट गए, इस के बाद भी राकेश टिकैत डटे रहे.

दूसरी घटना उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में घटी, जहां 4 किसानों को कार से कुचल कर मार दिया गया. राकेश टिकैत ने  झुक कर सरकार और प्रशासन की बात को माना, लेकिन यह साफ कर दिया कि किसान आंदोलन चलता रहेगा.

लोगों को लग रहा था कि सरकार इस की आड़ ले कर किसान आंदोलन को तोड़ देगी. राकेश टिकैत की कामयाबी यह थी कि उन्होंने किसान आंदोलन को हिंसक नहीं होने दिया.

यही वजह है कि किसानों की ताकत के आगे हिंदुत्व की ताकत कमजोर पड़ने लगी. पौराणिक सोच रखने वाले नेताओं को लगा कि किसान आंदोलन कहीं हिंदुत्व के मुद्दे को कमजोर न कर दे. कोई अलग धारा न बन जाए. इस से बेहतर है कि कृषि कानूनों को खत्म किया जाए.

साल 2022 में पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों को बहाना बना कर इस काम को किया गया, जिस से जनता को यह चुनावी स्टंट ही सम झ आता रहे. धर्म की हार की बात सामने ही न आ सके.

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राकेश टिकैत ने किसान आंदोलन में मंदिरों की भूमिका पर सवाल उठाए थे. ऐसे में किसान और धर्म आमनेसामने न आ जाएं और धर्म को नुकसान न हो, इस कारण कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया. इस का श्रेय किसानों की एकजुटता को जाता है, जो अपने बलबूते लड़ाई लड़ते रहे और जीत हासिल की.

किसान की एक नजर खेती पर और दूसरी राजनीति पर – राकेश टिकैत, किसान नेता कृषि कानूनों के वापस होने के बाद पहली बार राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ आए और इको गार्डन धरना स्थल पहुंच कर अपनी राय रखी. कुछ सवालों के जवाब उन्होंने अपने ही अंदाज में दिए :

कृषि कानूनों के वापस होने के बाद किसान आंदोलन को क्या खत्म माना जा रहा है?

किसान आंदोलन खत्म नहीं हुआ है. हमारा आंदोलन चलता रहेगा. यह आंदोलन अब पूरे देश में चल रहा है. किसानों ने तय किया है कि जब तक एमएसपी पर सरकार कानून बना कर गांरटी नहीं देगी, तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा.

सारे देश के किसानों को एमएसपी के जरीए खेती की उपज की सही कीमत दिलानी है. एमएसपी का फायदा पूरे देश के किसानों को मिलना चाहिए. पहले सरकार यह गांरटी दे.

क्या कृषि कानूनों के वापस लेने के पीछे उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनाव हैं?

किसान देश की सब से बड़ी ताकत है. कृषि कानूनों को वापस ले कर सरकार ने केवल एक मांग मानी है. किसानों के लिए जरूरी है कि उन की दूसरी मांगें भी मानी जाएं. किसान आंदोलन में सैकड़ों किसान शहीद हुए हैं. हम अपने किसान भाइयों के बलिदान को बेकार नहीं जाने देंगे.

किसान के लिए खाद, बीज, सिंचाई, डीजल, पैट्रोल की कीमतें और खेती की उपज की सही कीमत दी जाए, जिस से उन्हें राहत मिले. छुट्टा जानवरों की परेशानी से नजात दिलाई जाए.

इस आंदोलन को तकरीबन एक साल हो गया है. आप ने किसानों को कैसे इस आंदोलन से जोड़ कर रखा?

सरकार किसानों की जमीन बड़ी कंपनियों को देने की तैयारी में थी. यह बात किसान सम झ गया था. किसान कभी भी अपने सम्मान का सौदा नहीं कर सकता. कंपनी का राज आने से किसान ही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी परेशान होते. जनता की रोटी बड़े लोगों की तिजोरी में कैद हो जाती. यह बात किसान सम झ गए हैं. इस के साथ में शहरी लोग भी सम झ गए हैं, तभी पूरे देश में किसान आंदोलन को समर्थन मिलने लगा.

सरकार लोगों को लड़ाने और तोड़ने का काम करती है. इन लोगों ने आंदोलन में शामिल हुए सिख समाज के लोगों को खालिस्तानी बता दिया और मुसलमानों को पाकिस्तानी. उत्तर प्रदेश के किसानों को केवल जाट बता दिया.

इन्होंने उत्तर प्रदेश के भीतर हिंदूमुसलिम दंगे कराए. ये लोग हरियाणा के अंदर गए तो वहां जाट और गैरजाट की राजनीति की. गुजरात के भीतर पटेल और गैरपटेल की राजनीति की.

इस तरह की घटनाओं के पीछे किस तरह के लोगों की सोच आप को दिखती है?

हम तो किसानों को यही सलाह देते हैं कि आरएसएस के लोग बेहद खतरनाक हैं. इन से बच कर रहो. बहुत से लोग सोचते हैं कि उन का बेटा पढ़लिख कर कलक्टर बनेगा. अब ऐसा नहीं होगा.

सरकार ने पिछले दरवाजे से बिना परीक्षा के ही आईएएस बनाने की तैयारी कर ली है. बिना परीक्षा के ही लगभग 40 लोगों को आईएएस बना दिया गया है, अभी 300 के करीब और बनेंगे.

किसानों को सजग रहना चाहिए. अपनी एक आंख दिल्ली पर तो दूसरी आंख खेती पर रखें. उत्तर प्रदेश सरकार गुंडागर्दी कर रही है. जिला पंचायत के चुनाव में सब ने देखा है. अब विधानसभा चुनाव में भी यही हो सकता है.

अखिलेश और जयंत क्या गुल खिलाएंगे!

आगामी 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनावी समर कि अब रणभेरी बजने वाली है कि उससे पहले चुनावी बिसात का बिछना शुरू हो गया है. जिसमें सबसे पहले बाजी मारी है समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोक दल पार्टी के जयंत चौधरी ने. इन दोनों युवा नेताओं की युति जैसे ही एक मंच पर आई उत्तर प्रदेश की राजनीति मैं मानो एक भूचाल सा आ गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी उनकी भारतीय जनता पार्टी और दूसरी तरफ अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए बेताब प्रियंका गांधी बड़े ही गंभीर भाव से इस गठबंधन को लेकर के गंभीर दिखाई दे रहे हैं.

परिणाम स्वरूप उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसा माहौल बनता दिखाई दे रहा है जिसमें अखिलेश यादव और जयंत चौधरी धीरे धीरे आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं. क्योंकि उनकी रैली में जिस तरह लोगों की भीड़ उमड़ रही है वह अपने आप में संकेत दे रही है कि कुछ नया गुल खिलने जा रहा है. दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश ने जो नए आयाम गढ़े हैं उनके पक्ष में कहा जा सकता है कि आने वाले चुनाव में जहां योगी आदित्यनाथ का व्यक्तित्व और उनके काम करने की शैली और साथ देश के भविष्य को देखते हुए राजनीति की सत्ता किस करवट बैठेगी यह सब देखने लायक होगा. इस बीच प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए जो राजनीतिक बिसात बिछाई है वह भी कम दिलचस्प नहीं है उन्होंने यह घोषणा करके सभी को चकित कर दिया है कि कांग्रेस अबकी बार अपने दम पर चुनाव लड़ने जाएगी.

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इस रिपोर्ट में हम आपको कुछ ऐसे तथ्य बताने जा रहे हैं जो आपको चकित कर देंगे की उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्या कुछ ऐसा भी होने जा रहा है जो किसी ने कभी कुछ सोचा ही नहीं था.

ऐसा भी होगा, किसने सोचा था?

कहते हैं, राजनीति में कभी कोई ना हमेशा के लिए मित्र होता है और ना ही हमेशा के लिए बैरी या शत्रु. यह तथ्य बारंबार भारतीय राजनीति के चरित्रों में भी हमने देखा है.

अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के प्रथम पंक्ति के नेता हैं जो एक समय मुख्यमंत्री रहे हैं और जिनके पास मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक थाती है. जब आप मुख्यमंत्री थे उस समय काल को याद करें तो उस दरमियान समाजवादी पार्टी के विशाल कुनबे में जो महाभारत हुआ उसके परिणाम स्वरूप समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया.  दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी की  राष्ट्रीय पहचान मायावती ने एक समय में मुख्यमंत्री के रूप में जिस तरीके से सत्ता का संचालन किया तो जन भावना उनके विपरीत हो गई. फलस्वरूप आप भी राजनीति की मुख्यधारा से हाशिए पर चली गई.

ऐसे में और क्या नया होना था आखिर भाजपा के सामने पूरा मैदान खाली था. प्रदेश में भारी बहुमत के साथ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी की छवि के बूते  योगी आदित्यनाथ की सरकार आ गई मगर 5 वर्षों के कार्यकाल में योगी आदित्यनाथ की छवि जहां एक  कार्यशील शख्सियत की है वहीं दूसरी तरफ अतिवाद के कारण लोगों में नाराजगी भी देखी जा रही है.

परिवर्तन देश की जनता की फितरत है चाहे कितना ही अच्छा हो जनता सत्ता को ताश के पत्तों की तरह फेंटती रहती है. इन परिस्थितियों के बीच यह कहना आसान नहीं की आगामी चुनाव में उत्तर प्रदेश में क्या होने जा रहा है मगर एक आम वोटर और नागरिक होने के नाते उत्तर प्रदेश का आम मतदाता यह भली-भांति जानता है कि चुनाव में वोट किस करवट बैठने जा रहा है.

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समाजवादी और लोकदल

अखिलेश यादव राजनीति के मैदान में एक मंजे हुए खिलाड़ी के रूप में उत्तर प्रदेश में अब अपना स्थान बना चुके हैं. दरअसल, कोई भी शख्स जब 5 वर्ष तक मुख्यमंत्री रह लेता है तो वह प्रदेश की नब्ज को बहुत कुछ समझने लगता है और जब कोई शख्स 5 साल तक सत्ता में रहने  के बाद सत्ता से बाहर हो जाता है और लोगों के बीच रहता है तो वह कमजोर नहीं होता. अखिलेश यादव के साथ भी कुछ ऐसा ही है इन दिनों प्रदेश में जो राजनीतिक हवाएं चल रही हैं उसमें अखिलेश यादव का हंसमुख चेहरा और जयंत चौधरी की गंभीर मुद्रा नया गुल खिलाने के लिए तैयार है. जिस तरीके से इनकी रैलियों में लाखों लोग जुट रहे हैं और इन नेताओं को सुन रहे हैं उससे भारतीय जनता पार्टी और उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भी चिंतित है. यही कारण है कि उन्होंने समाजवादी पार्टी की लाल टोपी पर तल्ख टिप्पणी करते हुए उसे प्रदेश के लिए खतरा बताया है. अब देखना यह रोचक होगा  कि “लाल टोपी” भाजपा के लिए खतरा है अथवा योगी आदित्यनाथ के लिए या फिर नरेंद्र दामोदरदास मोदी के लिए.

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