नमामि: भाग 2

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लेखिका- मधुलता पारे

अगले दिन डोरबैल बजी. कल्पना मन ही मन बड़ी खुश हुई कि रामवती ने वक्त की कीमत तो सम झी, पर जब दरवाजा खोला तो रामवती की जगह एक दुबलीपतली सांवले रंग की चमकदार आंखों वाली लड़की खड़ी थी. सलोना, पर आकर्षक चेहरा. बाल खूबसूरती से बंधे हुए.

‘‘आंटीजी, मु झे मम्मी ने काम करने के लिए भेजा है. शाम को तो मम्मी ही आएंगी.’’

‘‘तुम रामवती की बेटी नमामि हो? वह क्यों नहीं आई?’’ कल्पना को अपना सवाल ही बेतुका लगा, पर जबान थी कि फिसल गई.

नमामि का जवाब भी वही था, ‘‘मम्मी सोनू का डब्बा बना रही हैं.’’

नमामि बड़े सलीके से सधे हुए हाथों से काम करती जा रही थी. सुबह के

9 बजे तक उस ने काम पूरा कर लिया था. इस के बाद वह चली गई.

कल्पना तो कुछ ही देर में उस की कायल हो गई. उस की एक चिंता दूर हो गई कि उसे काम नहीं करना पड़ेगा. आराम से औफिस जा सकेगी. सोनू ने नमामि को चुन कर कोई भूल नहीं की.

कल्पना समय से औफिस के लिए निकल गई. नमामि का शांत और आकर्षक चेहरा उस के जेहन में रहरह कर आ रहा था. बस में बैठने के बाद भी वह उसी चेहरे में खोई थी कि अचानक कल्पना की सोच में कुछ दृश्य आने लगे.

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ब्याह कर आई कल्पना बहुत से नातेरिश्तेदारों के बीच बैठी थी. अचानक बड़ी दीदी की आवाज ने चुप्पी तोड़ी, ‘राजेश के लिए तो बहुत सी गोरी लड़कियों के रिश्ते आए थे, पर बाबूजी को तो कल्पना ही पसंद आई. सांवली है, पर क्या किया जा सकता है.’

बड़ी दीदी के शब्दों से कल्पना निराशा से भर गई थी. बाद में भी बड़ी दीदी उसे अकसर ताने मारती रहती थीं, पर बाबूजी, मांजी और राजेश ने उस के रंग को ले कर कभी कोई सवाल नहीं किया था, बल्कि मांजी का साथ ही हमेशा उस की ढाल बना रहा था. बरसों बीते गए. कल्पना अपनी गृहस्थी में रम गई है.

श्रेया के जन्म के बाद नौकरी व घर में तालमेल बनाए रखने में कल्पना के अनुशासित स्वभाव की बड़ी अहमियत रही. अब कल्पना की जिंदगी भी

2 शहरों के बीच कभी इधर तो कभी उधर डोल रही थी.

अचानक मांजी की तबीयत खराब होने के चलते कल्पना को छुट्टी लेनी पड़ी. 15 दिनों के बाद जब कल्पना वापस आई तो सब से पहले रामवती याद आई. पड़ोसन से पूछा तो पता चला कि रामवती ने आजकल काम करना छोड़ दिया है. नमामि के बारे में भी उसे कोई जानकारी नहीं थी.

थकहार कर कल्पना ने खुद ही काम करने की ठानी. 2 घंटे में काम खत्म करने के बाद हाथ में चाय का कप ले कर बैठी तो सारी परेशानियां जैसे धुआंधुआं हो गईं. उस ने तय किया कि अब महरी के  झमेले में नहीं पड़ेगी. काम ही कितना है, खुद ही निबटा लेगी.

‘‘कल्पतरू मैडम हैं क्या?’’ दरवाजे पर किसी की आवाज आई. जा कर देखा तो मिताली थी. उस के औफिस की साथी, जो उस के ही महल्ले में 10-12 घर छोड़ कर रहती थी.

‘‘अभी 2 घंटे पहले ही आई हूं. लो, चाय पी लो,’’ कहते हुए कल्पना मिताली के लिए किचन से चाय बना कर ले आई. दोनों बातों में खो गईं.

मिताली के जाने के बाद कल्पना के दिमाग में फिर पुराने दिनों की रेल चलने लगी. पापा ने कितने चाव से कल्पतरू नाम रखा था, पर वह कल्पतरू से कब कल्पना बन गई, उसे पता ही नहीं चला. कल्पतरू नाम केवल स्कूलकालेज और औफिस के रजिस्टर तक ही सीमित रहा. ससुराल में भी सब उसे कल्पना ही बुलाते हैं.

अचानक बड़ी दीदी उस के खयालों में खड़ी हो गईं, जो शुरुआत में तो उस की नौकरी के भी खिलाफ थीं, पर बाबूजी के सामने उन्हें चुप रहना पड़ा था. धीरेधीरे कल्पना के बरताव से उन की सोच बदलती गई. नौकरी के साथ घर को भी उस ने इतनी अच्छी तरह संभाल लिया था कि नौकरीपेशा औरतों को ले कर सब लोगों में जो शंका थी, वह दूर हो गई, खासकर दीदी में भी उस ने यह बदलाव महसूस किया.

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पापा अकसर कहते थे, ‘बिटिया ने तो सब की सोच का कायाकल्प कर के अपना नाम सच साबित कर दिया.’

एक दिन कल्पना औफिस से लौट रही थी कि रास्ते में रामवती मिल गई.

‘‘कैसी हो रामवती? नमामि कैसी है?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं… उस लड़की ने तो मेरी नाक कटवा दी.’’

कल्पना ने सवालिया निगाहों से उस की ओर देखा, तो वह रास्ते में ही शुरू हो गई,

‘‘बीबीजी, अब वह कह रही है कि शादी नहीं करेगी और अगर जबरदस्ती की तो कुछ खा कर मर जाएगी.’’

‘‘पर, सोनू से तो उस की सगाई हो गई है न और वह तो तुम्हारे घर में ही रहता है.’’

‘‘अब नहीं रहता. जिस दिन उसे पता चला कि नमामि उस से प्यार नहीं करती, वह उसी दिन अपने घर चला गया.’’

कल्पना अपने ही सवाल में उल झते हुए घर पहुंच गई.

एक रविवार को कल्पना जाड़े की धूप का मजा ले रही थी. इस बार राजेश आ गए थे. कुछ सामान लाने वे बाजार गए थे. अचानक उस की नजर रास्ते से गुजरती रामवती की दूसरी बेटी शिवानी पर पड़ी. कभीकभी नमामि के साथ वह भी उस का हाथ बंटाने आ जाती थी. इसी वजह से कल्पना उसे जानती थी.

कल्पना ने हाथ के इशारे से शिवानी को बुलाया और बिना कोई भूमिका बांधे सीधा सवाल कर दिया, ‘‘नमामि क्यों सोनू से शादी नहीं करना चाहती?’’

‘‘आंटीजी, एक दिन सोनू ने उस के चेहरे की ओर देखते हुए कहा था कि मैं ही हूं, जो तुम जैसी काली लड़की से शादी के लिए तैयार हो गया हूं. मेरे लिए तो एक से बढ़ कर एक लड़कियों की लाइन लगी थी?’’

शिवानी के जाने के बाद कल्पना ने अपने खराब नल की शिकायत हार्डवेयर दुकान वाले गज्जू भैया से की और शाम तक किसी प्लंबर को भेजने के लिए कहा.

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शाम को घर की डोरबैल बजी. देखा तो बाहर 2 लड़के खड़े थे.

‘‘हमें गज्जू भैया ने भेजा है,’’ उन में से एक छोटा लग रहा था, ने कहा, ‘‘आप का नल ठीक करना है?’’

अनजान लोगों को देख कल्पना के मन में शक हुआ.

‘‘मैं जरा पता कर के बताती हूं,’’ इतना कह कर कल्पना ने हाईवेयर की दुकान में फोन लगाया. वहां से दुकान के मालिक ने बताया कि उस ने ही उन्हें भेजा है. वे दोनों भाई उसी की दुकान में काम करते हैं.

कल्पना ने उन्हें अंदर बुलाया. एक थोड़ा चंचल था, साथ ही बातों में

भी तेज था. दूसरा थोड़ा गंभीर लग रहा था. गोराचिट्टा, सुंदर और नीली आंखों वाला.

‘‘कहां तक पढ़े हो?’’ कल्पना ने यों ही पूछा.

‘‘हम ने तो अपने पिताजी से यह काम सीखा है. घर में थोड़ी मदद हो जाए इसलिए करते हैं. बड़ा वाला

5 साल से काम कर रहा है. उस की शादी भी हो गई?है.’’

थोड़ी देर में उस ने नल बदल दिया. सामान की परची दिखा कर पैसे ले लिए. बात आईगई हो गई.

एक दिन कल्पना औफिस से आ कर बैठी ही थी कि रामवती आ गई. वह बड़ी खुश दिख रही थी.

‘‘अरे रामवती, बड़ी खुश दिख रही हो, क्या बात है? नमामि कैसी है?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘अरे बीबीजी, मैं ने तो पिछले महीने उस का ब्याह कर दिया है.’’

‘‘कहां और किस से?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘अरे बीबीजी, आप के यहां नल ठीक कर आया था न, वही मेरा दामाद मनोज. नमामि का दूल्हा.’’

‘‘पर, तुम्हें कैसे पता कि वह मेरे घर आया था?’’

‘‘अरे बीबीजी, उस ने बताया था. आप के महल्ले में ही तो दुकान है उस की. हम लोग अकसर आप की बात करते रहते हैं.

‘‘पर, इतनी जल्दी तुम्हें इतना सुंदर लड़का कैसे मिल गया?’’

उसे तो नमामि ने ही पसंद किया. सोनू को जवाब जो देना था,’’ रामवती ने कहा.

रामवती की बातें सुन कर कल्पना को आज शांति का अहसास हुआ. उस सांवले रंग की दुबलीपतली लड़की ने पूरे समाज को जवाब दे दिया था.

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समर्पण: भाग 1

उन की बातों से आहत आलोक यह तय नहीं कर पा रहा था कि उम्र के इस पड़ाव पर वह अपने अंतर्मन की आवाज सुने या अपनी परिस्थितियों से समझौता कर मंत्रीजी का साथ दे.

अचानक रात के 2 बजे टेलीफोन की घंटी बजी तो रीता ने आलोक की तरफ देखा. वह उस समय गहरी नींद में था. वैसे भी आलोक मंत्री दीनानाथ के साथ 4 दिन के टूर के बाद रात के 11 बजे घर लौटा था. 1 महीने बाद इलेक्शन था, उस का मंत्रीजी के साथ काफी व्यस्त कार्यक्रम था.

कोई चारा न देख कर रीता ने अनमने मन से फोन उठाया. जब तक वह कुछ कह पाती, उधर से मंत्रीजी की पत्नी का घबराया स्वर सुनाई दिया, ‘‘आलोक, मंत्रीजी की तबीयत ठीक नहीं है. शायद हार्टअटैक पड़ा है. जल्दी किसी डाक्टर को ले कर पहुंचो.’’

‘‘जी मैम, वह तो सो रहे हैं.’’

‘‘अरे, सो रहा है तो उसे जगाओ न, प्लीज. और हां, जल्दी से वह किसी डाक्टर को ले कर यहां पहुंचे.’’

‘‘अभी जगाती हूं,’’ कह कर रीता ने फोन रख दिया.

आलोक को जगा कर रीता ने वस्तुस्थिति बताई तो उस ने झटपट शहर के मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ डा. नीरज सक्सेना को फोन मिलाया पर वह नहीं मिले, वह दिल्ली गए हुए थे.

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उन के बाद डा. सीताराम का शहर में नाम था. आलोक ने उन्हें फोन मिलाया. वह मिल गए तो उन्हें मंत्रीजी की सारी स्थिति बताते हुए उन से जल्द से जल्द वहां पहुंचने का आग्रह किया.

जब आलोक मंत्रीजी के घर पहुंचा तो उसी समय डा. सीताराम भी अपनी गाड़ी से उतर रहे थे. उन्हें देखते ही मंत्रीजी की पत्नी बोलीं, ‘‘अरे, आलोक, इन्हें क्यों बुला लाए, इन्हें कुछ आता भी है…इन के इलाज से मुन्ने का साधारण बुखार भी महीने भर में छूटा था.’’

यह सुन कर डा. सीताराम भौचक्के से रह गए, पर आलोक ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘मैम, इन को चैक कर लेने दीजिए.’’

‘‘अरे, यह क्या चैक करेंगे. हमारे साहब की सिफारिश पर ही इन्हें डाक्टरी में दाखिला मिला था. वरना इन की औकात ही क्या थी?’’

‘‘डाक्टर साहब सर के परिचितों में से हैं. कम से कम इन्हें मंत्रीजी का प्राथमिक उपचार तो कर लेने दें. उस के बाद आप जहां चाहेंगी उन्हें ले जाएंगे. ऐसी स्थिति में कई बार थोड़ी सी देर भी जानलेवा सिद्ध हो जाती है,’’ आलोक गिड़गिड़ा उठा था.

‘‘ठीक है, आ जाओ,’’ मंत्री की पत्नी ने ऐसे कहा जैसे वह डाक्टर पर एहसान कर रही हैं.

डा. सीताराम निरपेक्ष भाव से मंत्रीजी को चैक करने लगे पर ऐसे समय में मंत्रीजी की पत्नी का यह व्यवहार आलोक की समझ से परे था. यह सच है कि डा. सीताराम हृदयरोग विशेषज्ञ नहीं हैं पर हर रोग पर उन की अच्छी पकड़ है. पिछले वर्ष ही उन्होंने अपना 10 बेड का एक नर्सिंग होम भी खोला है. वैसे भी एक डाक्टर, चाहे वह स्पेशलिस्ट हो या न हो, किसी भी बीमारी में शुरुआती उपचार दे कर मरीज की जान पर आए खतरे को टाल तो सकता ही है.

डा. सीताराम ने मंत्रीजी का चैकअप कर तुरंत इंजेक्शन लगाया तथा कुछ आवश्यक दवाएं लिख कर मंत्रीजी को अपने नर्सिंग होम में भरती करने की सलाह दी. भरती होते ही उन का इलाज शुरू हो गया, उन्हें सीवियर अटैक आया था.

इसी बीच आलोक ने दिल्ली फोन कर दिया और वहां से विशेषज्ञ डाक्टरों की एक टीम चल दी पर जब तक वह टीम पहुंची, डा. सीताराम के इलाज से मंत्रीजी की हालत काफी स्थिर हो चुकी थी. दिल्ली से आए डाक्टरों ने उन की सारी रिपोर्ट देखी तथा हो रहे इलाज पर अपनी संतुष्टि जताई.

उधर मंत्रीजी बीमारी के चलते अपनी इलेक्शन रैली न कर पाने के कारण बेहद परेशान थे. डाक्टर ने उन्हें आराम करने की सलाह दी और उन से यह भी कह दिया कि आप के लिए इस समय स्वस्थ होना जरूरी है. मंत्रीजी के लिए स्वास्थ्य के साथसाथ चुनाव जीतना भी जरूरी था. वैसे भी चुनाव से पहले के कुछ दिन नेता के लिए जनममरण की तरह महत्त्वपूर्ण होते हैं.

आखिर अस्पताल से ही मंत्रीजी ने सारी व्यवस्था संभालने की सोची. उन्होंने अपने भाषण की संक्षिप्त सीडी तैयार करवाई तथा आयोजित सभा में उस को दिखाने की व्यवस्था करवाई, इस के साथ ही सभा की जिम्मेदारी उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी को सौंपी.

चुनाव में इस बात का काफी जोरशोर से प्रचार किया गया कि जनता की दुखतकलीफों के कारण उन्हें इतना दुख पहुंचा है कि हार्टअटैक आ गया जिस की वजह से वह आप के सामने नहीं आ पा रहे हैं पर आप सब से वादा है कि ठीक होते ही वह फिर आप की सेवा में हाजिर होंगे तथा आप के हर दुखदर्द को दूर करने में एड़ीचोटी की ताकत लगा देंगे.

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चुनाव प्रचार के साथसाथ मंत्रीजी की कंडीशन स्टेबल होते ही उन के टेस्ट होने शुरू हो गए. डाक्टर की सलाह के अनुसार उन्होंने स्टे्रस टेस्ट करवाया. इस की रिपोर्ट आने पर चिंता और बढ़ गई. अब ऐंजियोग्राफी करवाई गई तो पता चला कि उन की 3 धमनियों में से एक 95 प्रतिशत, दूसरी 80 प्रतिशत तथा तीसरी 65 प्रतिशत अवरुद्ध है अत: बाई- पास करवाना होगा.

इस बीच चुनाव परिणाम भी आ गया. इस बार वह रिकार्ड मतों से जीते थे. उन की पार्टी भी दोतिहाई बहुमत की ओर बढ़ रही थी. उन का मंत्री पद पक्का हो गया था. एक फ्रंट तो उन्होंने जीत लिया था, अब दूसरे फ्रंट पर ध्यान देने की सोचने लगे.

डा. सीताराम उन्हें बधाई देने आए तथा स्वास्थ्य की ओर पूरा ध्यान देने के लिए कहते हुए आपरेशन के लिए चेन्नई के अपोलो अस्पताल का नाम लिया था.

‘‘यार, मुझे क्यों मरवाना चाहते हो. पता है, यह इंडिया है, यहां तुम्हारे जैसे ही डाक्टर भरे पड़े हैं. अगर मरीज बच गया तो उस की किस्मत… आखिर आरक्षण की बैसाखी थामे कोई कैसे योग्य डाक्टर या सर्जन बन सकता है.’’

‘‘मंत्रीजी, आप जिस दिन बीमार पड़े थे, उस दिन जब आप के पी.ए. के कहने पर मैं आप के इलाज के लिए घर पहुंचा था तब भाभीजी ने भी मुझे बहुत बुराभला कहा था पर उस समय मुझे बुरा नहीं लगा, क्योंकि मुझे लगा कि वह आप को ले कर परेशान हैं किंतु आप के द्वारा भी वही आरोप. जबकि आप जानते हैं कि आरक्षण की वजह से मुझे मेडिकल में प्रवेश अवश्य मिला था पर मुझे गोल्डमेडल अपनी योग्यता के कारण मिला है. यहां तक कि मेरा नर्सिंग होम आरक्षण के कारण नहीं वरन मेरी अपनी योग्यता की वजह से चल रहा है. सरकारी नौकरी में भले कोई आरक्षण के बल पर ऊंचा उठ जाए पर प्राइवेट में अपनी योग्यता के आधार पर ही उसे शोहरत मिल पाती है. और तो और आप को भले ही आरक्षण के कारण मंत्रिमंडल में जगह मिली हो, पर क्या आप में वह योग्यता नहीं है जो एक मंत्री में होनी चाहिए?’’ आखिर डा. सीताराम बोल ही उठे, उन के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.

‘‘तुम तो बुरा मान गए बंधु. मेरी बात और है, मुझे तो सिर्फ बोलना पड़ता है, बोलने से किसी को नुकसान नहीं होता. पर यहां भावनाओं में बहने के बजाय वस्तुस्थिति को समझो. अमेरिका में कोई अच्छा अस्पताल हो तो बताओ. तुम्हें भी अपना पारिवारिक डाक्टर बना कर ले जाऊंगा.’’

‘‘मंत्रीजी, आप इलाज के लिए अमेरिका जा सकते हैं, पर दूसरे सब तो नहीं जा सकते. अगर आरक्षण आप की नजर में इतना ही खराब है तो इसे बंद क्यों नहीं करा देते,’’ स्वभाव के विपरीत डा. सीताराम आज चुप न रह सके.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

भला सा अंत: भाग 1

लेखिका- रेणु दीप

मनमौजी काली जब मन आता रानी को अपने निश्छल प्रेम की बूंदों से भिगो देता और मन आता तो दुत्कार देता. बेचारी रानी काली के स्वभाव से दुखी तो थी ही, साथ ही उस का फक्कड़पन उसे भीतर तक तोड़ देता. फिर भी जीवन पथ पर अकेली कठिनाइयों से जूझती रानी हर बार अपने ही दिल के हाथों हार जाती.

रविवार की सुबह मरीजों की चिंता कम रहती है. अत: सुबह टहलते हुए मैं रानी के घर की ओर चल दिया. वह एक शिशु रोगी के उपचार के बारे में कल मुझ से बात कर रही थी इसलिए सोचा कि आज उस बारे में रानी के साथ तसल्ली से बात हो जाएगी और काली के साथ बैठ कर मैं एक प्याला चाय भी पी लूंगा.

मैं काली के घर के दरवाजे पर थपकी देने ही वाला था कि घर के भीतर से आ रही काली की आवाज को सुन कर मेरे हाथ रुक गए.

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‘‘रानी प्लीज, इस गजरे को यों बेकार मत करो, कितनी मेहनत से फूलों को चुन कर मैं ने मालिन से कह कर तुम्हारे लिए यह गजरा बनवाया है. बस, एक बार इसे पहन कर दिखा दो. आज बरसों बाद मन में पुरानी हसरत जागी है कि एक बार फिर तुम्हें फूलों के गजरे से सजा देखूं.

‘‘मैं तुम्हारे इस रूप को सदासदा के लिए अपनी आंखों में कैद कर लूंगा और जब हम 80 साल के हो जाएंगे तब मन की आंखों से मैं तुम्हारे इस सजेधजे रूप को देख कर खुश हो लूंगा.’’

काली की बातें सुन कर मुझे हंसी आ रही थी. यह काली भी इतना उग्र हो गया कि 20 साल का बेटा होने को आया लेकिन इस का शौकीन मिजाज अभी तक बरकरार है.

‘‘आप यह क्या बचकानी बातें कर रहे हैं? अब क्या इन फूलों से बने गजरे पहनने व सजने की मेरी उम्र है? जब आशीष की बहू आएगी तब उसे रोज नए गहनों से सजानाधजाना,’’ रानी ने हंसते हुए काली से कहा था.

‘‘तो तुम ऐसे नहीं मानोगी. लाओ, मैं ही तुम्हें गजरों से सजा देता हूं,’’ कहते हुए शायद काली रानी को जबरन फूलों से सजा रहा था और वह उन्मुक्त हो कर जोरों से खिलखिला रही थी.

रानी का यह खिलखिला कर हंसना सुन मन भीतर तक सुकून से भर गया था.

उन दोनों को इस प्यार भरी तकरार के बीच छेड़ना अनुचित समझ मैं उन के घर के दरवाजे तक पहुंच कर भी वापस लौट गया था. मेरा मनमयूर कब अतीत में उड़ कर चला गया, मुझे एहसास तक नहीं हुआ था.

काली मेरा बचपन का अंतरंग मित्र था. रानी उस की पत्नी थी. काली, रानी और मैं, हम तीनों एक अनाम, अबूझ रिश्ते में जकड़े हुए थे. काली के घर छोड़ कर जाने के बाद मैं ने ही रानी को मानसिक संबल दिया था. वह किसी भी तरह मेरे लिए सगी छोटी बहन से कम नहीं थी.

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16 साल की कच्ची उम्र में रानी मेरे पड़ोस वाले मकान में काली के साथ ब्याह कर आई थी. ब्याह कर आने के बाद रानी ने काली की गृहस्थी बहुत सुगढ़ता से संभाली लेकिन काली ने उसे पत्नी का वह मान- सम्मान नहीं दिया जिस की वह हकदार थी.

काली एक फक्कड़, मस्तमौला स्वभाव का इनसान था. मन होता तो महीनों रानी को सिरआंखों पर बिठा कर उस की छोटी से छोटी इच्छा पूरी करता. उसे दुनिया भर का हर सुख देता. सुंदर कपड़ों और गहनों में सजेसंवरे उस के अपूर्व रूपरंग को निहारता और फिर मेरे पास आ कर रानी की सुंदरता और मधुर स्वभाव की प्रशंसा करता.

मुझ से काली के जीवन का कोई पहलू अछूता नहीं था. यहां तक कि मूड में होने पर रानी के साथ बिताए हुए अंतरंग क्षणों की वह बखिया तक उधेड़ कर रख देता. काली खानेपीने का भी बहुत शौकीन था. वह जब भी घर पर होता, रसोई में स्वादिष्ठ पकवानों की महक उड़ती रहती. हम दोनों के घर के बीच बस, एक दीवार का फासला था इसलिए काली के साथ मुझे भी आएदिन रानी के हाथ के बने स्वादिष्ठ व्यंजनों का आनंद मिला करता.

अच्छे मूड में काली, रानी को जितना सुखसुकून देता, मूड बिगड़ने पर उस से दोगुना दुख भी देता. गुस्सा होने के लिए छोटे से छोटा बहाना उस के लिए काफी था. अत्यधिक क्रोध आने पर वह घर छोड़ कर चला जाता और हफ्तों घर वापस नहीं आता था. काली की मां अपने बेटे के इस व्यवहार से बेहद दुखी रहा करती और रानी उस के वियोग में रोरो कर आंखें सुजा लेती.

वैसे काली की कपड़ों की एक दुकान थी लेकिन उस के मनमौजी होने की वजह से दुकान आएदिन बंद रहा करती और आखिर वह हमेशा के लिए बंद हो गई.

काली ज्योतिषी का धंधा भी करता था और इस ठग विद्या का हुनर उस ने अपने पिता से सीखा था. उस का दावा था कि उसे ज्योतिष में महारत हासिल है. लोगों के हाथ, मस्तक की रेखाएं तथा जन्मकुंडली देख कर वह उन के भूत, भविष्य और वर्तमान का लेखाजोखा बता देता तो लोग खुश हो कर उसे दक्षिणा में मोटी रकम पकड़ा जाते. शायद यही वजह थी कि कपड़े की दुकान पर मेहनत करने के बजाय उस ने लोगों को ठगने के हुनर को अपने लिए बेहतर धंधा समझा.

काली जब तक घर में रहता पैसों की कोई कमी नहीं रहती लेकिन उस के घर से जाने के बाद घरखर्च बड़ी मुश्किल से चलता, क्योंकि तब आमदनी का एकमात्र जरिया पिता की पेंशन रह जाती थी जो बहुत थोड़ी सी उस को मिलती थी.

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रानी की जिंदगी की गाड़ी हंसतेरोते आगे बढ़ती जा रही थी. बेटे के सनकी स्वभाव की वजह से बहू को रोते देख उस की सास का मन भीतर तक ममता से भीग जाया करता. वह अपनी तरफ से बहू को हर सुख देने की कोशिश करतीं लेकिन अपने बाद उस की स्थिति के बारे में सोचतीं तो भय से कांप उठती थीं.

रानी ने आगे पढ़ने का निश्चय किया तो उस की सास ने कहा, ‘अच्छा है, आगे पढ़ोगी तो व्यस्त रहोगी. इधरउधर की बातों में मन नहीं भटकेगा. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करो.’

मैं ने भी रानी को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. सो, उस ने पढ़ना शुरू कर दिया और 12वीं कक्षा में वह प्रथम श्रेणी में पास हुई. बहू की इस सफलता पर सास ने सभी रिश्तेदारों में लड्डू बंटवाए.

रानी मुझ से तथा मेरे डाक्टरी के पेशे से बहुत प्रभावित थी. वह खाली समय में घंटों मेरे क्लीनिक में बैठ कर मुझे रोगियों के उपचार में व्यस्त देखा करती और चिकित्सा संबंधी ढेरों प्रश्न मुझ से पूछती.

काली के आएदिनों के झगड़े से वह बहुत उदास रहने लगी तो एक दिन मुझ से बोली, ‘भाई साहब, आजकल वह मुझे बहुत दुख देते हैं. मूड अच्छा होने पर तो उन से बढि़या कोई दूसरा इनसान नहीं मिलेगा लेकिन मूड खराब होने पर बहाने ढूंढ़ढूंढ़ कर मुझ से लड़ते हैं. मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. मेरी जिंदगी में उन की बहुत अहमियत है. जब वह मुझ से गुस्सा हो जाते हैं तो मन होता है कि मैं आत्महत्या कर लूं.’

घोर निराशा के उन क्षणों में मैं ने रानी को समझाया था, ‘काली बहुत मनमौजी स्वभाव का फक्कड़ इनसान है लेकिन वह मन का बहुत साफ है. तुम काली को अपने जीवन में इतनी अहमियत मत दो कि उस के खराब मूड का असर तुम्हारे दिमाग और शिक्षा पर पड़े. निर्लिप्त रहो, व्यस्त रहो. 12वीं में तुम्हारे पास विज्ञान विषय था, क्यों न तुम एम.बी.बी.एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करो. डाक्टर बन कर तुम आत्मनिर्भर बन जाओगी. पैसों की तंगी नहीं रहेगी. काली को अपनी जिंदगी की धुरी मानना बंद कर दो, अपनी जिंदगी अपने बल पर जीना सीखो.’

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मेरी सलाह मान कर रानी ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी जोरशोर से शुरू कर दी. उस की मेहनत रंग लाई और वह प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई. मैं ने और उस की सास ने उस के इस काम में भरपूर सहयोग दिया और वह अपने ही शहर के प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में जाने लगी.

उस बार जो काली घर छोड़ कर गया तो 1 साल तक लौट कर नहीं आया. सुनने में आया कि वह बनारस में अपनी ज्योतिष विद्या का प्रदर्शन कर अपने दिन मजे से गुजार रहा था. कतिपय कारणों से जिस का भला हो गया उस ने काली को ज्योतिष का बड़ा जानकार माना. अनगिनत लोग उस के शिष्य बन गए थे तथा समाज में उसे बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता था. वह जिस रास्ते से गुजर जाता, लोग उस के पैरों पर झुकते नजर आते.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

मैं… मैं…

देश की छोड़ो, वह तो बहुत बड़ी चीज है. इंसान भी मैं मैं मैं कर रहा है. देश के प्रधानमंत्री हो या राज्य के मुख्यमंत्री! मुंह से सिर्फ मैं मै ही निकल रहा है. प्रधानमंत्री इत्ते ऊंचे पद पर पहुंच गए हैं मगर हम नहीं कहते. अमेरिका गए, ऑस्ट्रेलिया गए, जापान और नेपाल गए कहीं भी हम, हमारा देश हमारी मातृभूमि नहीं कहा. कहा तो सिर्फ, मैं मैं मैं .जिसमें कुछ भी सत्य समाहित नहीं है. देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच गए इतने बड़े ज्ञानी धुरंधर मगर मैं मैं मैं.

मैं सोचता हूं आखिर इंसान मे,- मैं मैं आया कहां से ? हर साधु महात्मा ज्ञानी यही कहता है कभी मैं मैं मैं मत करो, यह अज्ञान का प्रतीक है.मगर मुझे कोई भी नहीं मिलता जो मैं मैं मैं नहीं करता हो .

एक बड़े साहित्यकार फेसबुक पर हैं .मै उनकी कृपा दृष्टि पाने उनकी हर एक स्टेट्स पर लाइक करता हूं .आंखें मूंद कर बिना पढ़े लाइक करता .मैं सोचता मेरी लाइक से कभी तो पिघलेंगे. मैं अनवरत नाटक करता रहा. मगर उन्होंने कभी मेरी और झांका तक नहीं .मैं फोटो अपलोड करूं या कुछ लिखूं, कभी लाइक नहीं किया, मैं तरस गया एक लाइक के लिए.

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एक दिन उनके स्टेटस पर किसी क्षुब्ध आदमी ने विपरीत टिप्पणी कर दी .मैंने सोचा, आज मै को परखूंगा .मैंने उस टिप्पणी के खिलाफ टिप्पणी की .और चुपचाप इंतजार करने लगा. आश्चर्य, मै मैं पिघलने लगा, मेरी टिप्पणी को साहित्यकार ने लाइक किया । मैं समझ गया, वहां एक मैं नहीं, मैं मैं का साम्राज्य है.

हर जगह मैं मै है .हमारे एक मित्र हैं कहते हैं- एक बच्चे में भी मैं मै होता है .जिसको आप ने पैदा किया है, उसमें भी मैं मैं होता है, वह भी आपकी बेवजह मैं मैं को स्वीकार नहीं करता, उसका मैं में जागृत हो  उठता है . वे बड़े ज्ञानी पुरुष है . मैं देखता हूं वे हर किसी के मैं में को बड़ी चतुराई से शांत करते हैं . बात मनवानी हो तो चार बार रोहरा जी… रोहरा जी करते हैं .इतने मीठे स्वर में कि मैं समझ जाता हूं वे मेरे मै को जागृत करके अपनी मै की संतुष्टि करना चाहते हैं .

एक शख्स इतने पहुंचे हुए मै हैं की दावा करते हैं, दुनिया के किसी भी महिला को ज्यादा नहीं आधा एक घंटा अकेले बात करने का वक्त दिया जाए मैं उसे काबू में कर लूंगा. पहले मै, जब वह यह  कहते, तो मन ही मन हंसता, मगर तीन-चार प्रकरण अपनी आंखों से देखें, मैं डर गया .यह आदमी है या सम्मोहन का जानकार. वह कहता है कुछ मोहनी या सम्मोहन नहीं होता, यह बातों का मायाजाल है .मैं… मैं …बस उसके मैं… मैं… को पकड़ता हूं, सहलाता  हूं ,उत्सर्जित करता हूं बस…

शहर में एक प्रखर अखबार नवीस है. मैं… मैं… उनका विश्वामित्र की तरह नाक पर बैठा रहता है .लोग उक्त पंडित जी की मैं मैं को उनके क्रोध के कारण आंखें बंद करके सुनते रहते हैं. कौन अग्नि कुंड में हाथ डाले ? बहुतेरे बड़े पदों में हैं । पैसे वाले हैं . लोग उनकी मैं में को सिर्फ इसलिए सहते हैं की पद है रुपया है . मैं भी तब ही सर चढकर बोलता है जब उसे सत्ता का धन का रस्सा पकड़ में आ जाता है. लोग बड़े समझदार होते हैं, जानते हैं इनसे मुंह लगाना फिजूल हैसो आत्मसमर्पण कर देते हैं.

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ऐसे लोगों में आपका यह शुद्र लेखक भी है.मैं अपनी यह योग्यता पहचानता नहीं था.जब कभी किसी सत्ताधारी से साबका पड़ता, मै सरेंडर कर जाता उसकी हर गलत बात में भी हां में हां मिलाता .कभी विनम्रता से बात काटता, मगर दुबारा अड़ते ही मै आत्मसमर्पण कर जाता. किसी धनपति के यहां भी यही स्थिति होती, मैं उसकी हर सही-गलत बात की हां में हां कहता.

मैं यह मानता हूं की धनाढृय आदमी का, अपना मैं होता है. वह कभी भी मुझ जैसे साधारण लेखक की मैं में को स्वीकार नहीं कर सकता.

मेरे एक ज्ञानी मित्र ने मेरी इस चलाकी को पकड़ा और हंस-हंस कर मित्रों को बताता .मैं दांत निकाल कर हंसता मुस्कुराता .मैं भी अनेक प्रकार के होते हैं .मैं एक दुर्लभ एक सहज मै. मेरा में सरल किस्म का है .मेरी प्रकृति के लोग सुखी रहते हैं, समन्ववादी . मगर जकड़ने वाला मै मैं खतरनाक होता है .जो इसकी जद में आते हैं, वह उन्हें निगल जाता है .मैं कहां नहीं है. संसार का निर्माण, संहार और पालन करने वालों मैं भी मैं मैं और मैं है .

उनकी तीनों देवियों में भी, मैं मैं मै है .वेदों में, स्मृतियों में, महाभारत में भी तो मैं मै ही मिलता है. सारी लड़ाई और अस्तित्व  मैं को लेकर ही है . यह मेरा घर है, यह मेरी जमीन, यहां का मै मालिक,यह मेरी बपौती.

यह सब जानते हैं, यह संसार  क्षण भंगुर है. यह मै निरा बेझडपन है,मगर हर कोई मैं मैं मैं कर रहा है . साधु हो या महात्मा हो, मतदाता हो या नेता, अथवा अभिनेता सभी मै की परिक्रमा कर रहे हैं .और क्यों न करें, जब गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- मैं मृत्यु में भी हूं, जीवन में भी हूं, आग में भी हूं और पानी में भी .जब भगवान “मैं” को नहीं छोड़ सके, फिर हम आदम जात कैसे छोड़ सकते हैं.

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हमसफर: भाग 1

शादी में बस चंद दिन ही रह गए थे. पिछली बार जब पूजा अपने मंगेतर राहुल से मिली थी तो दोनों में यह तय हुआ था कि शादी के करीब होने से उन को अब मुलाकातों का सिलसिला रोक देना चाहिए. यह दुनियादारी के लिहाज से ठीक भी था.

इस आपसी फैसले को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि पूजा के पास राहुल का फोन आ गया. उस ने कहा, ‘‘पूजा, मैं आप से मिलना चाहता हं. कल शाम को 5 बजे मैं लाबेला कौफी हाउस में आप का इंतजार करूंगा. कुछ ऐसी बातें हैं जो शादी से पहले मेरे लिए आप को बतलाना बहुत जरूरी है.’’

‘‘क्या इन बातों को कहने के लिए शादी तक इंतजार नहीं हो सकता?’’

‘‘नहीं, ऐसी बातें शादी से पहले बतला देना जरूरी होता है.’’

मंगेतर के फोन से बेचैन पूजा को अगले दिन के इंतजार में रात भर नींद नहीं आई. आखिर क्या बतलाना चाहता था वह शादी से पहले उस को? अपने किसी अफेयर के बारे में तो नहीं? अगर इस तरह की कोई बात थी तो पहले की इतनी मुलाकातों में राहुल ने उस को क्यों नहीं बतलाई? अब जबकि शादी की तारीख बिलकुल सिर पर आ गई तो इस तरह की बात उस को बतलाने का क्या तुक और मकसद हो सकता था?

पूजा खुद से ही तरहतरह के सवाल लगातार पूछती रही.

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दूसरे दिन शाम को राहुल से मिलने के लिए घर से निकलते वक्त पूजा ने सुषमा भाभी को ही इस बारे में बतलाया. ‘लाबेला’ कौफी हाउस में पूजा पहले भी 2-3 बार राहुल के साथ बैठ चुकी थी. अत: उम्मीद के अनुसार राहुल कौफी हाउस में बाईं तरफ वाले कोने की एक मेज पर बैठा उस के आने का इंतजार कर रहा था.

टेबल की तरफ बढ़ती हुई पूजा तनाव और अनिश्चितता से घिर गई. बैठते ही बोली, ‘‘मैं सारी रात सो नहीं सकी. ऐसी क्या बात थी जो आप फोन पर नहीं कह सकते थे? मेरे मन में कई तरह के विचार आते रहे.’’

‘‘किस तरह के विचार?’’ राहुल ने पूछा. वह काफी थकाथका नजर आ रहा था.

‘‘मैं सोचती रही, शायद आप शादी से पहले अपने किसी अफेयर के बारे में मुझ से कुछ कहना चाहते हैं,’’ पूजा ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘एक लड़की होने के नाते आप इस से ज्यादा शायद सोच भी नहीं सकतीं.’’

‘‘फिर आप ही बतलाएं वह ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए आप शादी तक इंतजार नहीं कर सकते थे?’’

‘‘इंतजार में शायद बहुत देर हो जाती.’’

‘‘राहुल, आप की बातें पहेली जैसी क्यों हैं? जो भी आप कहना चाहते हैं खुल कर क्यों नहीं कहते?’’

‘‘अगर इस समय मैं आप से यह कहूं कि मैं आप से शादी नहीं कर सकता तो आप को कैसा लगेगा?’’ राहुल ने कहा.

‘‘मैं समझूंगी कि आप अच्छा मजाक कर लेते हैं.’’

‘‘मैं मजाक कभी नहीं करता,’’ राहुल ने कहा.

उस के शब्दों में छिपी संजीदगी से पूजा जैसे ठिठक सी गई. उसे सारी उम्मीदें और सपने बिखरते हुए लगे.

‘‘शादी से इनकार तो आप पहले दिन भी कर सकते थे, अब जब शादी की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. इस इनकार का मतलब?’’ सदमे की हालत में पूजा ने पूछा.

‘‘शायद अपनी झूठी और खोखली खुशियों की खातिर मैं आप की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता,’’ शून्य में देखते हुए राहुल ने कहा.

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‘‘बहुत खूब, आप को लगता है कि शादी के टूटने से मैं आबाद हो जाऊंगी,’’ पूजा ने कहा.

‘‘इनकार के पीछे की सचाई को जानने के बाद शायद आप को ऐसा ही लगे.’’

‘‘कैसी सचाई?’’

‘‘एक ऐसी सचाई जो पिछले 2 महीनों से मेरी अंतरात्मा को कचोट रही है. मैं आप को किसी धोखे में नहीं रखना चाहता. मुझे इस बात की भी परवा नहीं कि सच को जानने के बाद आप मुझ से नफरत करेंगी या हमदर्दी. असलियत यह है पूजा कि मैं एच.आई.वी. पोजिटिव हूं, मुझ को एड्स है. मौत मेरे काफी करीब है,’’ वीरान आंखों से पूजा को देखते हुए राहुल ने शांत स्वर में कहा.

पूजा को ऐसा लगा जैसे उस के सिर पर कोई बम फटा हो. गहरे सदमे की हालत में हक्कीबक्की सी वह राहुल के चेहरे को देखती रह गई. एक खौफ का सर्द एहसास पूजा को अपनी रगों में उतरता महसूस हुआ.

यह देख राहुल के अधरों पर एक फीकी मुसकराहट की रेखा खिंच गई. वह बोला, ‘‘अब मैं ने जब इस बदनाम और जानलेवा बीमारी का जिक्र आप से कर ही दिया है तो इस को ले कर जरूर आप के दिमाग में कुछ सवाल उठ रहे होंगे. सब से बड़ा सवाल तो यही होगा कि मुझ में ऐसी लाइलाज बीमारी आई कहां से? शायद आप को ऐसा लग रहा होगा कि मैं ने गंदी बाजारू औरतों से सेक्स संपर्क कर के इस बीमारी को अपने खून में दाखिल किया है. मगर ऐसा नहीं है. मैं ने कभी भी किसी औरत से सेक्स संपर्क नहीं किया. यह बीमारी तो उस संक्रामक खून का नतीजा है जो 2 वर्ष पहले एक एक्सीडेंट के बाद डाक्टरों की लापरवाही से मुझ को चढ़ा दिया गया था. मौत चुपके से मेरी धमनियों में उतर गई और मुझ को इस का पता भी नहीं चला.

‘‘मैं लगातार मौत के करीब जा रहा हूं, मगर मेरे घर के लोगों को मेरी बीमारी की कोई जानकारी नहीं. इसलिए जो हुआ उस में उन का जरा भी कुसूर नहीं. मैं भी असलियत को भूल कर कुछ समय के लिए स्वार्थी हो गया था मगर मेरी अंतरात्मा लगातार मुझ को कचोटती रही. यह शादी एक धोखे और पाप से ज्यादा कुछ नहीं होगी जो मैं नहीं करूंगा. इस के साथ ही उस एक बात को स्वीकार करने में मुझ को जरा भी हिचक नहीं कि आप को देखने और शादी की बात पक्की होने के बाद अपनी कल्पनाआें में मैं ने संपूर्ण जीवन जी लिया. मरने का शायद मुझे अब बहुत गम नहीं होगा.’’

जैसे ही राहुल ने अपनी बात खत्म की, खामोशी से सब सुन रही पूजा ने कहा, ‘‘आप ने अपनी बात तो कह दी, अपना फैसला भी सुना दिया लेकिन यह कैसे सोच लिया कि आप ने जो फैसला किया है वही मेरा फैसला भी होगा?’’

पूजा के शब्दों से हैरान राहुल खालीखाली नजरों से उस को देखने लगा.

पूजा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और बोली, ‘‘अगर आप में सच को कहने की हिम्मत है तो मुझ में भी सच का साथ देने की ताकत है. आप की जिंदगी का बाकी जितना भी सफर है उस में मैं आप को अकेला नहीं छोड़ूंगी. यह शादी हर हालत में होगी.’’

‘‘आप भावुकता में ऐसा कह रही हैं. आप को शायद ठीक से मालूम नहीं कि एड्स क्या है? लोग तो एड्स के शिकार व्यक्ति के पास भी नहीं फटकते और आप एक ऐसे व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हैं.’’

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‘‘मैं लोगों की तरह गलतफहमियों में नहीं जीती. एड्स किसी इनसान के साथ उठनेबैठने या उस के साथ खानेपीने से तो नहीं होता. शादी के बाद अगर हम पतिपत्नी के बजाय 2 दोस्तों की तरह रहेंगे और उन खास पलों से परहेज करेंगे जिन से इस बीमारी का दूसरे में जाने का अंदेशा होता है तो शादी के बंधन से हमें कोई भी समस्या नहीं होगी.

‘‘जिंदगी कितनी बाकी है? मौत कब आएगी, मेडिकल साइंस और डाक्टर इस की भविष्यवाणी नहीं कर सकते जो मौत कल आनी है उस के लिए आज की जिंदगी की कुर्बानी क्यों करें हम? जितना भी वक्त बचा है उसी में पूरी जिंदगी जीनी होगी अब आप को. मैं उस जिंदगी में आप की हमसफर रहूंगी, यह मेरा फैसला है,’’ राहुल के हाथ को अपने हाथों से दबाते पूजा ने दृढ़ स्वर में कहा.

पूजा के शब्दों से राहुल की उदास और बुझी आंखों में जिंदगी जीने की चमक आ गई.

पूजा ने राहुल के अंदर के विश्वास को बढ़ाने के लिए उस के हाथ को सहलाया ओर बोली, ‘‘जब मैं ने जिंदगी के सफर में आप का हमसफर बनने का फैसला कर लिया है तो एक वचन आप को भी मुझे देना होगा.’’

‘‘कैसा वचन?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘जैसे आप ने अब तक अपनी बीमारी को राज रखा है, शादी के बाद भी आप इस को ऐसे ही राज रखेंगे. इस के बारे में कभी भी अपनी जबान पर एक शब्द न लाएंगे.’’

‘‘इस से क्या होगा? मौत जैसेजैसे करीब होगी, बीमारी को लोगों से छिपाना आसान नहीं होगा. उन को कुछ तो जवाब देना ही होगा,’’ राहुल की आवाज में उदासी थी.

‘‘शादी के बाद वह सब देखना मेरा काम होगा. लोगों को क्या जवाब देना है, यह भी मैं ही देखूंगी. मगर आप किसी से कुछ नहीं कहेंगे.’’

‘‘अगर आप की ऐसी जिद है तो मैं वादा करता हूं कि मैं अपनी जबान पर कभी अपनी बीमारी का जिक्र नहीं लाऊंगा. मेरी कोशिश रहेगी कि मेरी बीमारी का राज मेरे साथ ही इस दुनिया से जाए,’’ राहुल ने कहा.

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एक सप्ताह बाद दोनों की शादी हो गई. शादी पूरी धूमधाम के साथ हुई. इस शादी के पीछे का भयानक सच उन दोनों के अलावा शादी में शामिल कोई भी तीसरा नहीं जानता था.

अग्नि के इर्दगिर्द शादी के फेरे लेते हुए दोनों के मस्तिष्क में कुछकुछ चल रहा था, मगर उन के चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

काश, आपने ऐसा न किया होता: भाग 1

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

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अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

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‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

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‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

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‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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