
लेखक- शिव अवतार पाल
मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.
‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.
‘‘वायरल फीवर है.’’
‘‘कब से?’’
‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.
‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’
‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’
‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.
‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’
वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.
अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.
अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.
बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.
6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.
वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.
‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’
‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘
‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’
मयंक तिलमिला कर रह गया.
‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’
‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’
मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.
मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’
‘ये तुम्हारा काम है.’
‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’
इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.
मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.
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‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया.
उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे.
‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा.
‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं.
‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.
‘‘आग लगे मुए नए जमाने को. शर्म नहीं आती अपनी पोशाक देख कर? न गला, न बांहें, न पल्ला, न दुपट्टा और चली हैं दादी की हंसी उड़ाने,’’ ऋचा और रीमा को आंखों से ही घुड़क दिया. वे दोनों चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं.
लगभग 2 साल पहले सपना ने अपने पति रामेश्वर बाबू को एक दुर्घटना में गंवा दिया था. श्यामा दादी ने अपना बेटा खोया था और परिवार ने अपना कर्णधार. दर्द की इस सांझी विरासत ने परिवार को एक सूत्र में बांध दिया था.
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‘‘चायनाश्ते का पूरा प्रबंध है या नहीं? पहली बार ससुराल से लौट रही है हमारी मोहिनी. और हां, बेटी की नजर उतारने का प्रबंध जरूर कर लेना,’’ दादी ने लाड़ जताते हुए कहा था.
‘‘सब प्रबंध है, अम्मां. आप तो सचमुच हाथपैर फुला देती हैं. नजर आदि कोरा अंधविश्वास है. पंडितों की साजिश है,’’ सपना अनचाहे ही झल्ला गई थी.
‘‘बुरा मानने जैसा तो कुछ कहा नहीं मैं ने. क्या करूं, जबान है, फिसल जाती है. नहीं तो मैं कौन होती हूं टांग अड़ाने वाली?’’ श्यामा दादी सदा की तरह भावुक हो उठी थीं.
‘‘अब तुम दोनों झगड़ने मत लगना. शुक्र मनाओ कि सबकुछ शांति से निबट गया नहीं तो न जाने क्या होता?’’ मोहिनी के बड़े भाई रमन ने बीचबचाव किया तो उस की मां सपना और दादी श्यामा तो चुप हो गईं पर उस के मन में बवंडर सा उठने लगा. क्या होता यदि मोहिनी के विवाह के दिन ऊंट दूसरी करवट बैठ जाता? वह तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा था. उस की यादों में तो आज भी सबकुछ वैसा ही ताजा था.
‘भैया, ओ भैया. कहां हो तुम?’ रतन इतनी तीव्रता से दौड़ता हुआ घर में घुसा था कि सभी भौचक्के रह गए थे. वह आंगन में पड़ी कुरसी पर निढाल हो कर गिरा था और हांफने लगा था.
‘क्या हुआ?’ बाल संवारती हुई अम्मां कंघी हाथ में लिए दौड़ी आई थीं. रमन दहेज के सामान को करीने से संदूक में लगवा रहा था. उस ने रतन के स्वर को सुन कर भी अनसुना कर दिया था.
शादी का घर मेहमानों से भरा हुआ था. सभी जयमाला की रस्म के लिए सजसंवर रहे थे. सपना और रतन के बीच होने वाली बातचीत को सुनने के लिए सभी बेचैन हो उठे थे. पर रतन के मुख से कुछ निकले तब न. उस की आंखों से अनवरत आंसू बहे जा रहे थे.
‘अरे, कुछ तो बोल, हुआ क्या? किसी ने पीटा है क्या? हाय राम, इस की कनपटी से तो खून बह रहा है,’ सपना घबरा कर खून रोकने का प्रयत्न करने लगी थीं. सभी मेहमान आंगन में आ खड़े हुए थे.
श्यामा दादी दौड़ कर पानी ले आई थीं. घाव धो कर मरहमपट्टी की. रतन को पानी पिलाया तो उस की जान में जान आई.
‘मेरी छोड़ो, अम्मां, रमन भैया को बुलाओ…वहां मैरिज हाल में मारपीट हो गई है. नशे में धुत बराती अनापशनाप बक रहे थे.’’
सपना रमन को बुलातीं उस से पहले ही रतन के प्रलाप को सुन कर रमन दौड़ा आया था. रतन ने विस्तार से सब बताया तो वह दंग रह गया था. वह तेजी से मैरिज हाल की ओर लपका था उस के मित्र प्रभाकर, सुनील और अनिल भी उस के साथ थे.
रमन मैरिज हाल पहुंचा तो वहां कोहराम मचा हुआ था. करीने से सजी कुरसियांमेजें उलटी पड़ी थीं. आधी से अधिक कुरसियां टूटी पड़ी थीं.
‘यह सब क्या है? यहां हुआ क्या है, नरेंद्र?’ उस ने अपने चचेरे भाई से पूछा था.
‘बराती महिलाओं का स्वागत करने घराती महिलाओं की टोली आई थी. नशे में धुत कुछ बरातियों ने न केवल महिलाओं से छेड़छाड़ की बल्कि बदतमीजी पर भी उतर आए,’ नरेंद्र ने रमन को वस्तुस्थिति से अवगत कराया था.
रमन यह सब सुन कर भौचक खड़ा रह गया था. क्या करे क्या नहीं…कुछ समझ नहीं पा रहा था.
‘पर बराती गए कहां?’ रमन रोंआसा हो उठा था. कुछ देर में स्वयं को संभाला था उस ने.
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‘जाएंगे कहां? बात अधिक न बढ़ जाए इस डर से हम ने उन्हें सामने के दोनों कमरों में बंद कर के ताला लगा दिया,’ नरेंद्र ने क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोल कर नजरें झुका ली थीं.
‘यह क्या कर दिया तुम ने. क्या तुम नहीं जानते कि मैं ने कितनी कठिनाई से पाईपाई जोड़ कर मोहिनी के विवाह का प्रबंध किया था. तुम लोग क्या जानो कि पिता के साए के बिना जीवन बिताना कितना कठिन होता है,’ रमन प्रलाप करते हुए फूटफूट कर रो पड़ा था.
‘स्वयं को संभालो, रमन. मैं क्या मोहिनी का शत्रु हूं? तुम ने यहां का दृश्य देखा होता तो ऐसा नहीं कहते. तुम्हें हर तरफ फैला खून नजर नहीं आता? यदि हम करते इन्हें बंद न तो न जाने कितने लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते,’ नरेंद्र, उस के मित्र प्रभाकर, सुनील और अनिल भी उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयत्न करने लगे थे.
किसी प्रकार साहस जुटा कर रमन उन कमरों की ओर गया जिन में बराती बंद थे. उसे देखते ही कुछ बराती मुक्के हवा में लहराने लगे थे.
‘तुम लोगों का साहस कैसे हुआ हमें इस तरह कमरों में बंद करने का,’ कहता हुआ एक बराती दौड़ कर खिड़की तक आया और गालियों की बौछार करने लगा. एक अन्य बराती ने दूसरी खिड़की से गोलियों की झड़ी लगा दी. रमन और उस के साथी लेट न गए होते तो शायद 1-2 की जान चली जाती.
दूल्हा ‘राजीव’ पगड़ी आदि निकाल ठगा सा बैठा था.
‘समझ क्या रखा है? एकएक को हथकडि़यां न लगवा दीं तो मेरा नाम सुरेंद्रनाथ नहीं,’ वर के पिता मुट्ठियां हवा में लहराते हुए धमकी दे रहे थे.
चंद्रा गार्डन नामक इस मैरिज हाल में घटी घटना का समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया था. समस्त मित्र व संबंधी घटनास्थल पर पहुंच कर विचारविमर्श कर रहे थे.
चंद्रा गार्डन से कुछ ही दूरी पर जानेमाने वकील और शहर के मेयर रामबाबू रहते थे. रमन के मित्र सुनील के वे दूर के संबंधी थे. उसे कुछ न सूझा तो वह अनिल और प्रभाकर के साथ उन के घर जा पहुंचा.
रामबाबू ने साथ चलने में थोड़ी नानुकुर की तो तीनों ने उन के पैर पकड़ लिए. हार कर उन को उन के साथ आना ही पड़ा.
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लेखक- शिव अवतार पाल
एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.
‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’
‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’
‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’
‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’
‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’
‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’
‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’
‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’
उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.
मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.
अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.
बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.
वह 4 साल का हो गया था.
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रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.
‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’
‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’
‘फोन तो रिसीव कर लेती.’
‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’
‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.
‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’
‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’
‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’
‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’
‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.
‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’
‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’
पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.
दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.
अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो डिं्रक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.
पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’
थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले,
‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’
मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.
सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.
बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.
वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.
‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’
‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’
‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’
‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’
‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया.
मयंक ने उस का माथा चूम लिया.
कावेरी सन्न रह गई. लगा, उस के पैरों की शक्ति समाप्त हो गई है. कहीं गिर न पड़े इस डर से सामने पड़ी कुरसी पर धम से बैठ गई. 27 साल के बेटे को जो बताना था वह बता चुका था और अब मां की पेंपें सुनने के लिए खड़े रहना उस के लिए मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं था.
फिर मां के साथ इतना लगाव, जुड़ाव, अपनापन या प्यार उस के मन में था भी नहीं जो अपनी कही हुई भयानक बात की मां के ऊपर क्या प्रतिक्रिया है उस को देखने के लिए खड़ा हो कर अपना समय बरबाद करता.
कावेरी ने उस की गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज सुनी और कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर निढाल सी फैल गई. जीतेजागते बेटे से यह बेजान लकड़ी की बनी कुरसी उस समय ज्यादा सहारा दे रही थी. काम वाली जशोदा आटा पिसवाने गई थी. अत: जब तक वह नहीं लौटती अकेले घर में इस कुरसी का ही सहारा है.
पति का जब इंतकाल हुआ तो बेटा 8वीं में था. कावेरी को भयानक झटका लगा पर उस में साहस था. सहारा किसी का नहीं मिला, मायके वालों में सामर्थ्य ही नहीं थी, ससुराल में संपन्नता थी पर किसी के लिए कुछ करने का मन ही नहीं था.
वह समझ गई थी कि अब अपनी नाव को आप ही खींच कर किनारे पर लाना है. पति के फंड का पैसा ले कर मासिक ब्याज खाते में जमा किया. बीमा का जो पैसा मिला उस से आवासविकास का यह घर खरीद लिया. ब्याज जितना आता खाना और बेटे की पढ़ाई हो जाती पर कपड़ा, सामाजिकता, बीमारी आदि सब कैसे हो? उस का उपाय भी मिल गया. पड़ोस में एक प्रकाशक थे, पाठ्यक्रम की किताबें छापते थे. उन से मिल कर कुछ अनुवाद का काम मांग कर लाई. उस से जो आय होती उस का काम ठीकठाक चल जाता. अब अभाव नहीं रहा.
जशोदा को पूरे समय के लिए रख लिया. गाड़ी पटरी पर आ कर ठीकठाक चलने लगी. उस ने सोचा जीवन ऐसे ही कट जाएगा पर इनसान जो सोचता है उस के विपरीत करना ही नियति का काम है तो कावेरी के सपने भला कैसे पूरे होते.
अपने सपने पूरे नहीं होंगे इस का आभास तो बेटे के थोड़ा बडे़ होते ही कावेरी को होने लगा था. बेटा वैसे तो लोगों की नजरों में सोने का टुकड़ा है. पढ़ने में सदा प्रथम, कोई बुरी लत नहीं, बुरी संगत नहीं, रात में कभी देर से नहीं लौटता, पैसा, फैशनेबुल कपड़े या मौजमस्ती के लिए कभी मां को तंग नहीं करता पर जैसेजैसे बड़ा होता जा रहा था कावेरी अनुभव करती जा रही थी कि बेटे का रूखापन उस के प्रति बढ़़ता जा रहा था.
कोई लगाव, प्यार तो मां के प्रति बचा ही नहीं था. तेज बुखार में भी उठ कर बेटे को खाना बनाती और बेटा चाव से खा कर घर से निकल जाता. भूल कर भी यह नहीं पूछता कि मां, कैसी तबीयत है.
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कावेरी इन बातों को कहे भी तो कैसे? ऊपर को मुंह कर के थूको तो थूक अपने मुंह पर आ कर गिरता है. दुश्मन भी यह जान कर खुश होंगे कि बेटा उस के हाथ के बाहर है. दूसरी बात यह थी कि उस के मन में भय भी था कि पति का छोड़ा यह घर उन के पीछे बिना बिखरे टिका हुआ है. लड़ाईझगड़ा करे और बेटा घर छोड़ कर चला जाए तो एक तो घर घर नहीं रहेगा, दूसरी और बड़ी बात होगी कम उम्र की कच्ची बुद्धि ले घर से निकल वह अपना ही सर्वनाश कर लेगा.
बेटा कैसा भी आचरण क्यों न करे वह तो मां है. बेटे को सर्वनाश के रास्ते में नहीं धकेल सकती, अवहेलना अनादर सह कर भी नहीं. इन सब परिस्थितियों के बीच भी एक आशा की किरण टिमटिमा रही थी कि बेटा बिल्लू एम.बी.ए. कर एक बहुत अच्छी कंपनी में उच्च पद पर लग गया है. सुना है ऊंचा वेतन है. हां, यह जरूर है कि वेतन का बेटे ने एक 10 का नोट भी उस के हाथ पर रख कर नहीं कहा, ‘मां, यह लो, अपने लिए कुछ ले लेना.’
घर जैसे पहले वह चलाती थी वैसे ही आज भी चला रही है. अब तो बड़ेबड़े घरों से अति सुंदर लड़कियों के रिश्ते भी आ रहे हैं. कावेरी खुशी और गर्व से फूली नहीं समा रही. इन में से छांट कर एक मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाएगी तो घर का दरवाजा हंस उठेगा.
बहू उस के साथसाथ लगी रहेगी. बेटे से नहीं पटी तो क्या? पराई बेटी अपनी बेटी बन जाएगी पर बेटे ने उस की उस आशा की किरण को बर्फ की सिल्ली के नीचे दफना दिया और वह खबर सुना कर चला गया था जिस से उस के शरीर में जितनी भी शक्ति थी समाप्त हो गई थी और बेजान कुरसी ने उसे सहारा दिया.
आज कावेरी को पहली बार लगा कि जीवन उस के लिए बोझ बन गया है क्योंकि इनसान जीता है किसी उद्देश्य को ले कर, कोई लक्ष्य सामने रख कर. जिस समय पति की मृत्यु हुई थी तब भी उसे लगा था कि जीवन समाप्त हो गया पर उस को जीना पड़ेगा, सामने उद्देश्य था, लक्ष्य था, बेटा छोटा है, उस को बड़ा कर उस का जीवन प्रतिष्ठित करना है, उस का विवाह कर के घर बसाना है.
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मौत भी आ जाए तो उस से कुछ सालों की मोहलत मांग बेटे के जीवन को बचाना पड़ेगा पर आज तो सारे उद्देश्य की समाप्ति हो गई, जीवन का कोई लक्ष्य बचा ही नहीं पर बुलाने से ही मौत आ खड़ी हो इतनी परोपकारी भी नहीं.
जशोदा लौटी. आटे का कनस्तर स्टोर में रख कर साड़ी झाड़ती हुई आ कर बोली, ‘‘आंटी, नाश्ता बना लूं? भैया चला गया क्या? बाहर गाड़ी नहीं है.’’
‘‘रहने दे, मेरा मन नहीं है. तू कुछ खा ले फिर भैया का कमरा ठीक से साफ कर दे, आता ही होगा.’’
‘‘फिर कुछ हुआ? अरे, बिना खाए मर भी जाओ तो भी बेटा पलट कर नहीं देखने या पूछने वाला. तुम इतनी बीमार पड़ीं पर कभी बेटे ने पलट कर देखा या हाल पूछा?’’
‘‘बात न कर के कमरा साफ कर… आता ही होगा.’’
‘‘कहां गया है?’’
‘‘ब्याह करने.’’
इतना सुनते ही जशोदा धम से फर्श पर बैठ गई.
‘‘जल्दी कर, रजिस्ट्री में समय ही कितना लगता है…बहू ले कर आता होगा.’’
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‘‘बेटा नहीं दुश्मन है तुम्हारा. कब से सपने देख रही हो उस के ब्याह के.’’
‘‘सारे सपने पूरे नहीं होते. उठ, जल्दी कर.’’
‘‘कौन है वह लड़की?’’
‘‘मैं नहीं जानती, नौकरी करती है कहीं.’’
‘‘तुम भी आंटी, जाने क्यों बेटे के इशारे पर नाचती हो? अपना खाती हो अपना पहनती हो…उलटे बेटे को खिलातीपहनाती हो. सुना है मोटी तनख्वाह पाता है पर कभी 10 रुपए तुम्हारे हाथ पर नहीं रखे और अब ब्याह भी अपनी मर्जी का कर रहा है. ऐसे बेटे के कमरे की सफाई के लिए तुम मरी जा रही हो.’’
गहरी सांस ली कावेरी ने और बोली, ‘‘क्या करूं, बता. पहले ही दिन, नई बहू सास को बेटे से गाली खाते देख कर क्या सोचेगी.’’
‘‘यह तो ठीक कह रही हो.’’
जब बड़ी सी पहिए लगी अटैची खींचते बिल्लू के साथ टाइट जींस और टीशर्ट पहने और सिर पर लड़कों जैसे छोटेछोेटे बाल, सांवली, दुबलीपतली लावण्यहीन युवती को ले कर आया तब घड़ी ठीक 12 बजा रही थी. एक झलक में ही लड़की का रूखा चेहरा, चालचलन की उद्दंडता देख कावेरी समझ गई कि उसे अब पुत्र मोह को एकदम ही त्याग देना चाहिए. यह लड़की चाहे जो भी हो उस की या किसी भी घर की बहू नहीं बन सकती. पता नहीं बिल्लू ने क्या सोचा? बोला, ‘‘रीटा, यह मेरी मां है और मां यह रीटा.’’
जरा सा सिर हिला या नहीं हिला पर वह आगे बढ़ गई. कमरे में जा कर बिल्लू ने दरवाजा बंद कर लिया. हो गया नई बहू का गृहप्रवेश. और नई चमचमाती जूती के नीचे रौंदती चली गई थी वह कावेरी के वे सारे सपने जो जीवन की सारी निराशाओं के बीच बैठ कर देखा करती थी. सुशील बहू, प्यारेप्यारे पोतेपोती के साथ सुखद बुढ़ापे का सपना.
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जशोदा लौट कर रसोई की चौखट पर खड़ी हुई और बोली, ‘‘आंटी, यह औरत है या मर्द, समझ में नहीं आया.’’
जशोदा इतनी मुंहफट है कि उस की हरकतों से डरती है कावेरी. पता नहीं नई बहू के लिए और क्याक्या कह डाले. पहले दिन ही वह बहू के सामने बेटे से अपमानित नहीं होना चाहती. पर यह तो सच है कि अब उस को कुछ सोचना पड़ेगा. देखा जाए तो बेटे का जो बरताव उस के साथ रहा उस से बहुत पहले ही उस को अलग कर देना चाहिए था पर अनजान मोह से वह बंध कर रह गई.
‘‘अब तो मां के सहारे की उसे कोई जरूरत नहीं…अब क्यों साथ रहना.’’
जशोदा ने खाना बना कर मेज पर लगा दिया. न चाहते हुए भी कावेरी ने थोड़ी खीर बनाई. जशोदा फिर बौखलाई.
‘‘अब ज्यादा मत सिर पर चढ़ाओ.’’
‘‘नई बहू है, उसे तो पूरी खिलानी चाहिए. मीठा कुछ मंगाया नहीं, थोड़ी खीर ही सही.’’
‘‘अब तुम रहने दो. कहां की नई बहू? पैंट, जूता, बनियान में आई है, सास के पैर छूने तक का ढंग नहीं है. लगता है कि घाटघाट का पानी पी कर इस घाट आई है.’’
कंधे झटक जशोदा चली गई. थोड़ी देर में दोनों अपनेआप खाने की मेज पर आ बैठे. बेटा तो कुरतापजामा पहने था. बहू घुटनों से काफी ऊंचा एक फ्राक जैसा कुछ पहने थी और ऊपर का शरीर आधा नंगा था.
बेटे से एक शब्द भी बोले बिना कावेरी ने बहू को पारखी नजर से देखा. दोनों चुपचाप खाना खा रहे थे. उस के मुख पर भले घर की छाप एकदम नहीं थी और संस्कारों का तो जवाब नहीं. सास से एक बार भी नहीं कहा कि आप भी बैठिए. और तो और, खाने के बाद अपनी थाली तक नहीं उठाई और दरवाजा फिर से बंद हो गया.
घर का वातावरण एकदम बदल गया. यह स्वाभाविक ही था. घर में जब बहू आती है तो घर का वातावरण ही बदल जाता है. उसे भोर में उठने की आदत है. फ्रेश हो कर पहले चाय बनाती, आराम से बैठ कर चाय पीती, तब दिनचर्या शुरू होती. तब कभीकभी बेटा भी आ बैठता और चाय पीता, दोचार बातें न होती हों ऐसी बात नहीं, मामूली बातें भी होतीं पर अब तो साढ़े 8 बजे जशोदा चाय की टे्र ले कर दरवाजा पीटती तब दरवाजा खोल चाय ले कर फिर दरवाजा बंद हो जाता. खुलता 9 बजने के बाद फिर तैयार हो, नाश्ता करने बैठते दोनों और फौरन आफिस निकल जाते.
दोपहर का लंच आफिस में, शाम को लौटते, ड्रेस बदलते फिर निकल जाते तो आधी रात को ही लौटते. बाहर ही रात का खाना खाते तो नाश्ता छोड़ घर में खाने का और कोई झंझट ही नहीं रहता. छुट्टी के दिन भी कार्यक्रम नहीं बदलता. नाश्ता कर दोनों घूमने चले जाते…रात खापी कर लौटते.
बहू से परिचय ही नहीं हुआ. बस, घर में रहती है तो आंखों में परिचित है, संवाद एक भी नहीं. खाना खाने के बाद ऐसे उठ जाती जैसे होटल में खाया हो. न थाली उठाती न बचा सामान समेट फ्रिज में रखती. कावेरी हैरान होती कि कैसे परिवार में पली है यह लड़की? संस्कार दूर की बात साधारण सी तमीज भी नहीं सीखी है इस ने और यह सब छोटीमोटी बातें तो बिना सिखाए ही लड़कियां अपनी सहज प्रवृत्ति से सीख जाती हैं. इस में तो स्त्रीसुलभ कोई गुण ही नहीं है…पता नहीं इस के परिवार वाले कैसे हैं, कभी बेटी की खोजखबर लेने भी नहीं आते?
कावेरी ने अब अपने को पूरी तरह समेट लिया है. जो मन में आए करो, मुझ से मतलब क्या? कुछ इस प्रकार के विचार बना लिए उस ने. सोचा था घर छोड़ ‘हरिद्वार’ जा कर रहेगी पर इस घर की एकएक चीज उस की जोड़ी हुई, सजाई हुई है. बड़ी ममता है इस सजीसजाई गृहस्थी के प्रति, फिर यह घर भी तो उस के नाम है…वह क्यों अपना घर छोड़ जाएगी…जाना है तो बहूबेटे जाएंगे.
जशोदा भी यही बात कहती है. इस समय उस का अपना कोई है तो बस, जशोदा है. महीने का वेतन और रोटीकपड़े पर रहने वाली जशोदा ही एकमात्र अपनी है…बहुत दिनों की सुखदुख की गवाह और साथी.
बेटे ने घर के लिए कभी पैसा नहीं दिया और आज भी नहीं देता है. कावेरी ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि ये लोग घर पर केवल नाश्ता ही तो करते हैं. बहू तो कमरे से बाहर आती ही नहीं है. कभीकभी चाय पीनी हो तो बेटा रसोई में जा कर चाय बना लेता है. 2 कप कमरे में ले जाते हुए मां को भी 1 कप चाय पकड़ा जाता है. बस, यही सेवा है मां की.
हमारे बौस ने सभी को सख्त हिदायत दे दी थी कि चाहे आसमान टूट पड़े या धरती उलट जाए, हर किसी को समय से कुछ पहले दफ्तर पहुंचना है.
मैं ने सुबह जल्दी दफ्तर जाने की तैयारी कर ली और श्रीमतीजी को पुकार लगाते हुए कहा, ‘‘सुनती हो, नाश्ता तो अभी बना नहीं होगा, कल रात का कुछ बचाखुचा है, तो वही गरम कर दो. मु झे दफ्तर के लिए थोड़ा जल्दी निकलना है.’’
श्रीमतीजी पास आ कर चौंकने की ऐक्टिंग करते हुए बोलीं, ‘‘अरे, इतनी जल्दी. ऐसा था तो रात वहीं दफ्तर
में क्यों नहीं रह गए…’’मैं ने भी उन्हीं के अंदाज में जवाब दिया, ‘‘रह तो जाता, अगर आज नया वाला सूट पहन कर न जाना होता. आज दफ्तर में एक बड़े अफसर ‘आकस्मिक छापा’ मारने वाले हैं.’’
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‘‘अब मु झे इतना भी मूर्ख मत सम झो. आकस्मिक का मतलब अचानक होता है, मैं क्या जानती नहीं. ‘आकस्मिक छापा’ उसे कहते हैं, जैसे शादी से पहले मेरे पिताजी ने तुम्हारे घर पर मारा था और रिश्ता टूटने की नौबत आ गई थी. ऐसे छापे का पहले से पता थोड़े ही होता है,’’ श्रीमतीजी ने घूरते हुए कहा.
मु झे सफाई देते हुए राज खोलना पड़ा, ‘‘आजकल की दफ्तरचालीसी तुम कभी नहीं सम झोगी. हैड औफिस में हर किसी के मुखबिर होते हैं, जो वहां की गुप्त सूचनाएं पहले ही बाहर कर देते हैं. हमारे बौस के तो हैड औफिस में 2 मुखबिर हैं.’’
श्रीमतीजी को कुछ यकीन हुआ और वे थोड़ा मायूसी के साथ बोलीं, ‘‘रात का बचा हुआ खाना तो मैं ने कुत्ते को डाल दिया था. तुम ने पहले नहीं बताया, वरना तुम्हारे लिए रख देती… मगर चिंता मत करो, मैं थोड़ी पूजा कर लूं, उस के बाद परांठे सेंक देती हूं… और फिर पूजा तो आज तुम ने भी नहीं की. ऐसे ही चले जाओगे क्या? चलो, पहले पूजा कर लो.’’
अपने कानों को हाथ लगा कर मैं ने कहा, ‘‘मैं कल कर लूंगा. कहीं ऐसा न हो कि पूजा के चक्कर में वहां दफ्तर में मेरी ही पूजा हो जाए… और यह परांठेवरांठे का चक्कर भी रहने ही दो. मैं दफ्तर की कैंटीन में ही कुछ खा लूंगा.’’
मैं उठ कर बाहर की ओर चल दिया. श्रीमतीजी भी मायूसी के साथ मु झे बाहर तक छोड़ने आ गईं.
मैं ने अभी स्कूटर स्टार्ट किया ही था कि अचानक लुंगीबनियान पहने हमारा पड़ोसी इतनी जोर से छींका कि मु झे लगा, जैसे उस के मकान के साथसाथ मेरा मकान भी हिल कर रह गया है.
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‘‘अरे ठहरो,’’ श्रीमतीजी ने पीछे से मेरा स्कूटर खींच लिया और मैं लहरा कर गिरतेगिरते बचा.
‘‘अरे… रे… रे… यह क्या करती हो,’’ मैं घबरा कर स्कूटर को संभालते हुए बोला.
श्रीमतीजी मेरे कान में फुसफुसाईं, ‘‘सुना नहीं, कितनी जबरदस्त छींक है. बड़ा अपशकुन होता है, अगर चलते समय कोई इस तरह से छींक दे. तुम थोड़ी देर रुक जाओ.’’
‘‘अरे, मुझे देर हो जाएगी,’’ मैं ने कहा, मगर श्रीमतीजी ने आगे बढ़ कर स्कूटर की चाबी अपने कब्जे में ले ली और थोड़ा डर कर बोलीं, ‘‘मौके की नजाकत सम झो. दफ्तर में बड़ा अफसर आ रहा है और इधर इस ने छींक दिया.’’
मु झे रुकता देख पड़ोसी सारी बात सम झ गया और झेंपते हुए बोला, ‘‘चिंता मत कीजिए भाई साहब, मेरी छींक इतनी बुरी नहीं है, जितनी आप सम झ रहे हैं,’’ फिर वह हंसते हुए घर के अंदर चला गया.‘‘बेहया कहीं का…’’ श्रीमतीजी ने उस के लिए एक गाली निकाली और मु झ से बोलीं, ‘‘छींक तो छींक होती है. मेरी मानो तो तुम 10 मिनट रुक ही जाओ.’’‘‘अगर देर हो गई तो जरूर पछताना पड़ सकता है,’’ मैं ने कहा, मगर हमारी श्रीमतीजी नहीं मानीं.‘‘देखो, तुम्हारा कोई नुकसान हो गया तो वह मेरा ही नुकसान है. मैं तो बाबा रे, कोई खतरा मोल नहीं लूंगी. तुम थोड़ी देर ठहरो. मेरे पास टोनेटोटके वाली एक किताब है. उस में छींक की भी काट होगी. मैं अभी उस के मुताबिक उपाय कर देती हूं, फिर दिनभर मु झे चिंता नहीं रहेगी,’’ यह कह कर वे घर के अंदर चली गईं.
वह किताब पूरे आधे घंटे की तलाश के बाद ही मिल पाई, इस चक्कर में कुछ ऐसी चीजें भी मिल गई थीं, जो काफी समय से गुम थीं.
किताब मिलते ही श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘रोज काम में आने वाली चीज नहीं है न, इसलिए थोड़ी दब गई थी, लेकिन अब केवल 2 मिनट लगेंगे.’’
यह ‘2 मिनट’ कहना महंगा साबित हुआ और किताब में दिए गए टोटके का उपाय करने में श्रीमतीजी को 15-20 मिनट और लग ही गए. उस के बाद ही मु झे जाने की इजाजत मिल पाई.
समय तकरीबन रोज वाला ही हो चला था. मैं स्कूटर ले कर घर से ऐसे निकल भागा, जैसे दीवाली का रौकेट दियासलाई दिखाते ही बोतल से भाग छूटता है.
समय कम था, फिर भी मु झे यकीन था कि मैं 10 बजे से पहले दफ्तर पहुंच जाऊंगा.
चिडि़या की आंख की तरह मु झे केवल दफ्तर की बिल्डिंग दिखाई दे रही थी और इस चक्कर में एक चौराहे पर लालबत्ती भी मु झे दिखाई नहीं दी.
इस का पता मु झे तब चला, जब अचानक तेज रफ्तार से चल रही एक मोटरसाइकिल पर 2 पुलिस वाले मेरे स्कूटर के बगल में दिखाई दिए और सीटी बजा कर मु झे रुकने का इशारा करने लगे.
मु झे रुकना पड़ा. पुलिस वाले भी रुके और पास आते ही उन में से एक ने सवाल दागा, ‘‘क्यों बे, लालबत्ती भी तुझे दिखाई नहीं दी?’’
शरीफ आदमी तो पुलिस वालों को देख कर वैसे ही कुछ बोल नहीं पाता, फिर मु झ से तो जुर्म हो गया था. मैं हकलाने लगा. कुछ बोल कर और कुछ इशारों से उन्हें अपनी मजबूरी सम झाने की कोशिश करने लगा.
हमारे यहां पुलिस वालों के अंदर एक अच्छी बात यह पाई जाती है कि वे लोगों की मजबूरी सम झ जाते हैं. बस, उन के दिमाग के दयालु हिस्से को जगाने के लिए अपने पर्स की थोड़ी सी भाप उन तक पहुंचानी पड़ती है.
वे शरीफ पुलिस वाले थे. मेरा पर्स सूंघ कर उन्हें 100 रुपए के 2 नोटों की महक भा गई और वे मेरी उन मजबूरियों को भी सम झ गए, जो मैं ने उन को बताई ही नहीं थीं.
मु झ से ज्यादा चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने मु झे फौरन जाने के लिए कहा और मेरे जो 10-15 मिनट बरबाद हो गए थे, उन की भरपाई के लिए आगे पड़ने वाले एक ‘शौर्टकट’ के बारे में भी मु झे जानकारी दे दी.
मैं ने उन का शुक्रिया अदा किया और वहां से छूट भागा. आगे चल कर मैं ने अपना स्कूटर उन के बताए छोटे रास्ते पर मोड़ दिया.
भले ही वह रास्ता ऊबड़खाबड़ था, लेकिन उस समय स्कूटर के टायरों से कहीं ज्यादा चिंता मु झे दफ्तर पहुंचने की सता रही थी.
मैं ताबड़तोड़ चला जा रहा था कि अचानक एक साइकिल वाला मेरे सामने आ गया. उसे बचाने के लिए मैं ने स्कूटर 90 डिगरी के कोण पर बाईं ओर मोड़ दिया और फिर तो अचानक वहां पर जलजला सा आ गया.
बाईं ओर एक बहुत बड़ा गड्ढा था. उस में घुसते हुए मेरा स्कूटर फुटबाल की तरह उछल कर सीधा किनारे चल रहे एक अधेड़ सज्जन से जा टकराया.
उसे किसी ने बताया था कि उस दिन जिलाधिकारी न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई करेंगे. जब वह उस के न्यायालय में पहुंची तो समीर मुकदमे की कोई फाइल देख रहा था. वह न्यायालय में खड़ी थी किंतु समीर ने उसे नहीं देखा और वह झट न्यायालय के कमरे से बाहर आ गई. फिर अपने घर पहुंची. अब उस ने सोचा कि वह उस के आवास में जा कर मिलेगी. जब वह उस के आवास पहुंची तो फिर चपरासी ने स्लिप मांगी. उसे लगा, वह तो लड़की है, लोग जाने उस के बारे में क्याक्या सोचने लगें, इसलिए उस से बिना मिले ही वापस घर लौट आई.
समीर को जिला में पदस्थापित हुए 4 महीने से अधिक हो गए थे, किंतु उन दोनों की मुलाकात नहीं हुई थी. अब तक मनोविज्ञान पर प्रीति की लिखी पुस्तक ‘आने वाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ को छापने के लिए दिल्ली का पाठ्यपुस्तकों से संबंधित एक प्रकाशक तैयार हो गया था. पुस्तक की पांडुलिपि उस ने प्रकाशक को सौंप दी थी जो अब मुद्रण के लिए भेजी जा चुकी थी.
अगले महीने उस की प्रतियां तैयार हो कर आ जाने वाली थीं और पुस्तक का विमोचन उस के कालेज के हौल में होना तय हुआ था. प्रिंसिपल के आग्रह पर जिलाधिकारी समीर ने भी विमोचन समारोह में आना स्वीकार कर लिया था और उसी के हाथों उस की पुस्तक का विमोचन होना था.
काम की बहुत ज्यादा व्यस्तता के कारण समीर का ध्यान इस ओर नहीं गया था कि इस की लेखिका वही प्रीति है जो कभी दिल्ली में उस के साथ मनोविज्ञान में एमए कर रही थी. पिं्रसिपल साहब खुद इन्विटेशन ले कर गए थे और प्रीति ने उन से कभी समीर की चर्चा नहीं की थी.
प्रीति यह सोच कर काफी उत्सुक और रोमांचित थी कि उस की पुस्तक का विमोचन समीर के हाथों होगा और उसी के द्वारा वह सम्मानित की जाएगी. वह सोच रही थी कि वह क्षण कैसा होगा जब वह पहली बार इतने दिनों के बाद समीर के सामने जाएगी. आज वह दिन आ ही गया था.
रात में उसे नींद ठीक से नहीं आई थी. बारबार उसे समीर की बातें, उस के साथ घंटों मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर हुई चर्चाएं याद आ रही थीं. उस समय समीर उस से बारबार कहता था कि वह आईएएस बन कर समाज की सेवा करना चाहता है और अब उस की मनोकामना पूरी हो गईर् थी. उस ने जो सोचा था उसे वह मिल गया था.
क्या समीर की शादी हो गई है या अभी भी वह कुंआरा है, यह प्रश्न भी उस के मन में बारबार कौंध रहा था. वह सोच रही थी कि यदि समीर की शादी हो गई है तो उस की पत्नी कैसी होगी. यदि समीर ने उसे देख कर पुरानी बातों को कुरेदना शुरू किया तो उस की पत्नी की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं वह उस के संबंधों को ले कर आशंकित तो न हो जाएगी.
उस के मन में पहली बार इतना उत्साह था. दिल में हलचल थी. वहीं, अंदर से समीर से मिलने का एक मधुर एहसास भी था. उस ने अपनी सब से अच्छी साड़ी निकाली और पहली बार अपना इतनी देर तक शृंगार किया. आज सच में वह काफी सुंदर लग रही थी.
पुस्तक विमोचन समारोह के लिए कालेज के हौल को काफी सजाया गया था. शहर के कई गणमान्य व्यक्तियों को भी बुलाया गया था. दूसरे कालेजों के शिक्षक और कई विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया था. सब के खानेपीने का इंतजाम पुस्तक के प्रकाशक की ओर से था.
वह कालेज रिकशा से जाती थी, किंतु आज प्रिंसिपल ने उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी ड्राइवर के साथ भेजी थी और कालेज के एक जूनियर लैक्चरर को भी साथ लगा दिया था.
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जब वह कालेज के हौल में पहुंची तो अधिकतर मेहमान आ चुके थे. लाउडस्पीकर पर कोई पुराना संगीत काफी कम आवाज में बज रहा था. पुस्तक विमोचन की सारी आवश्यक तैयारियां कर ली गई थीं. अब जिलाधिकारी के आने की प्रतीक्षा थी.
तभी जिलाधिकारी समीर के आने का माइक पर अनाउंसमैंट हुआ. समीर के स्टेज पर पहुंचते ही सभी उपस्थित मेहमान उस के सम्मान में खड़े हो गए. प्रिंसिपल ने समीर का स्टेज पर स्वागत किय??ा और उन्हें अपनी बगल में विशेष अतिथि के रूप में बैठाया. ठीक उस के बगल में प्रीति भी बैठी हुई थी. प्रीति ने समीर को देख कर हाथ जोड़े तो वह अप्रत्याशित रूप से उस को स्टेज पर देख कर विस्मित होते हुए बोला, ‘‘अरे तुम, प्रीति?…यहां?’’
‘‘क्या आप एकदूसरे को पहचानते हैं?’’ प्रिंसिपल ने पूछा.
‘‘हम दोनों ने एक ही साथ दिल्ली में एक ही कालेज से साइकोलौजी में एमए किया है.’’
‘‘लेकिन प्रीति ने यह कभी नहीं बताया,’’ प्रिंसिपल ने अब प्रीति की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘क्यों प्रीति, इतना बड़ा राज तुम छिपाए हुए हो. मुझे तो कम से कम बताया होता.’’
प्रीति प्रिंसिपल को क्या बताती कि उस ने कई बार समीर से मिलने की कोशिश की थी लेकिन कुछ संकोच, कुछ झिझक और परिस्थितियों ने उसे उस से नहीं मिलने दिया और चाह कर भी वह समीर से अपने संबंधों को अपने सहकर्मियों के साथ साझा न कर पाई.
‘‘समीर तुम से मिलने की मैं ने बहुत बार कोशिश की, लेकिन मिल नहीं पाई,’’ वह सकुचाते हुए धीरे से बोली.
‘‘अब यह बहानेबाजी न चलेगी प्रीति. फंक्शन के बाद मैं तुम्हारे घर पर आऊंगा. मां कैसी हैं?’’
सुनते ही प्रीति की आंखें नम होने लगीं और वह इस का कोई जवाब नहीं दे पाई तो प्रिंसिपल ने मामले की नाजुकता को समझते हुए, बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘इत्मीनान से इस संबंध में बातें होंगी. अभी हम लोग पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम शुरू करते हैं.’’
पुस्तक का विमोचन करते हुए समीर ने प्रीति की सादगी, नम्रता और उस के कोमल भावों की विस्तृत चर्चा करते हुए अपने कालेज के दिनों की यादों को सब के साथ साझा करते हुए कहा कि प्रीति कालेज में एक ऐसी लड़की थी जिस से हमारे प्रोफैसर भी बहुत प्रभावित थे. प्रीति को साइकोलौजी पर जितनी पकड़ है उतनी बहुत कम लोगों को होती है. हमें गर्व है कि इस शहर में हमारे बीच प्रीति जैसी एक विदुषी हैं.’’
समीर की बातों से पूरा हौल तालियों से गड़गड़ाने लगा तब प्रीति ने महसूस किया कि समीर, जिस के बारे में उस ने सोचा था कि वह उसे भूल गया है, बिलकुल उस की थोथी समझ थी. उस के दिल में उस के प्रति अभी भी उतना ही लगाव और प्रेम है जितना कालेज के दिनों में हुआ करता था.
फंक्शन के बाद समीर ने उस से उस का फोन नंबर लिया और उस के घर की लोकेशन नोट करते हुए कहा कि इस रविवार को वह उस के साथ ही लंच करेगा. अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए उस ने रविवार को इंतजार करने के लिए कहा.
फंक्शन के बाद उस के सभी सहकर्मी उस को आंखें फाड़ कर देख रहे थे. समीर ने सभी लोगों के बीच जिस प्रकार प्रीति की प्रशंसा की थी और सम्मान दिया था उस का किसी को भी अनुमान नहीं था. प्रीति ने घर आ कर पूरे घर को साफ किया, ड्राइंगरूम में सोफे को करीने से लगाया और घर के बाहर पड़े हुए गमलों को ठीक से लगाया और उन में पानी दिया.
मां के गुजर जाने के बाद प्रीति अंदर से काफी टूट गई थी. घर में कोई नहीं था और उस का जीवन अकेलेपन के दौर से गुजर रहा था, इसलिए पूरा घर ही अस्तव्यस्त पड़ा हुआ था. किंतु समीर ने जब से कहा था कि रविवार को उस के घर आ कर उस के साथ लंच करेगा उस के शरीर में एक नया ही उत्साह पैदा हो गया था, मनमयूर नाचने लगा था और जीवन के प्रति एक नया नजरिया पैदा हो गया था.
रविवार को सुबह से ही प्रीति समीर के लिए लंच की तैयारी में लगी हुई थी. इस बीच फोन पर उस ने प्रयागराज से नीलम को भी बुला लिया था. वह पुस्तक विमोचन समारोह में कुछ जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण नहीं आ पाई थी. नीलम भी समीर से मिलने के लिए उत्साहित थी. एक लंबे समय के बाद तीनों एकसाथ एक टेबल पर मिलने वाले थे.
समीर ने उसे फोन पर सूचना दी थी कि वह रविवार को 2 बजे के बाद आएगा, उसे एक जरूरी मीटिंग में शामिल होना है क्योंकि जिले में सोमवार को सीएम का दौरा होने वाला था. किंतु वह उस दिन 12 बजे ही आ गया.