औरों से आगे: भाग 1

लेखक- प्रसून भार्गव

‘‘अंतर्जातीय विवाहों से हमारे आचारविचार में छिपी संकीर्णता खत्म हो जाती है. अंधविश्वासों व दकियानूसीपन के अंधेरे से ऊपर उठ कर हम एक खुलेपन का अनुभव करते हैं. विभिन्न प्रांतों की संस्कृति तथा सभ्यता को अपनाकर भारतीय एकता को बढ़ावा देते हैं…’’ अम्मां किसी से कह रही थीं.

मैं और छोटी भाभी कमरे से निकल रहे थे. जैसे ही बाहर बरामदे में आए तो देखा कि अम्मां किसी महिला से बतिया रही हैं. सुन कर एकाएक विश्वास होना कठिन हो गया. कल रात ही तो अम्मां बड़े भैया पर किस कदर बरस रही थीं, ‘‘तुम लोगों ने तो हमारी नाक ही काट दी. सारी की सारी बेटियां विजातियों में ब्याह रहे हो. तुम्हारे बाबूजी जिंदा होते तो क्या कभी ऐसा होता. उन्होंने वैश्य समाज के लिए कितना कुछ किया, उन की हर परंपरा निभाई. सब बेटाबेटी कुलीन वैश्य परिवारों में ब्याहे गए. बस, तुम लोगों को जो अंगरेजी स्कूल में पढ़ाया, उसी का नतीजा आज सामने है.

‘‘अभी तक तो फिर भी गनीमत है. पर तुम्हारे बेटेबेटियों को तो वैश्य नाम से ही चिढ़ हो रही है. बेटियां तो परजाति में ब्याही ही गईं, अब बेटे भी जाति की बेटी नहीं लाएंगे, यह तो अभी से दिखाई दे रहा है.’’

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बड़े भैया ने साहस कर बीच में ही पूछ लिया था, ‘‘तो क्या अम्मां, तुम्हें अपने दामाद पसंद नहीं हैं?’’

‘‘अरे, यह…यह मैं ने कब कहा. मेरे दामाद तो हीरा हैं. अम्मांअम्मां कहते नहीं थकते?हैं, मानो इसी घर के बेटे हों.’’

‘‘तो फिर शिकायत किस बात की. यही न कि वह वैश्य नहीं हैं?’’

2 मिनट चुप रह कर अम्मां बोलीं, ‘‘सो तो है. पर ब्राह्मण हैं, बस, इसी बात से सब्र है.’’

‘‘अगर ब्राह्मण की जगह कायस्थ होते तो?’’

‘‘न बाबा न, ऐसी बातें मत करो. कायस्थ तो मांसमछली खाते हैं.’’

धीरेधीरे घर के अन्य सदस्य भी वहां जमा होने लगे थे. ऐसी बहस में सब को अपनाअपना मत रखने का अवसर जो मिलता था.

‘‘क्या मांसमछली खाने वाले आदमी नहीं होते?’’ छोटे भैया के बेटे राकेश ने पूछा.

अम्मां जैसे उत्तर देतेदेते निरुत्तर होने लगीं. शायद इसीलिए उन का आखिरी अस्त्र चल गया, ‘‘मुझ से व्यर्थ की बहस मत किया करो. तुम लोगों को न बड़ों का अदब, न उन के विचारों का आदर. चार अक्षर अंगरेजी के क्या पढ़ लिए कि अपनी जाति ही भूलने लगे.’’

ऐसे अवसरों पर मझले भैया की बेटी स्मिता सब से ज्यादा कुछ कहने को उतावली दिखती थी, जो समाजशास्त्र की छात्रा थी. आखिर वह समाज के विभिन्न वर्गों को भिन्नभिन्न नजरिए से देखसमझ रही थी.

भैया भले ही कम डरते थे, पर भाभियां तो अपनेअपने बेटेबेटियों को आंखों के इशारों से तुरंत वहां से हटा कर दूसरे कामों में लगा देने को उतारू हो जाती थीं. जानती?थीं कि आखिर में उन्हें ही अम्मां की उस नाराजगी का सामना करना पड़ेगा. भाभियों के डर को भांपते हुए मैं ने सोचा, ‘आज मैं ही कुछ बोल कर देखूं.’

‘‘अम्मां, यह तो कोई बात न हुई कि उत्तर देते न बन पड़ा तो आप ने कह दिया, ‘व्यर्थ की बहस मत करो.’ राकेश ने तो सिर्फ यही जानना चाहा है कि क्या मांसमछली खाने वाले भले आदमी नहीं होते?’’

अम्मां हारने वाली नहीं थीं. उन्हें हर बात को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करना आता था. हारी हुई लड़ाई जीतने की कला में माहिर अम्मां ने झट बात बदल दी, ‘‘अरे, दुनिया में कुछ भी हो, मुझे तो अपने घर से लेनादेना है. मेरे घर में यह अधर्म न हो, बस.’’

मेरा समर्थन पा कर राकेश फिर पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, जो लोग मांसमछली खाते हैं, उन्हें आप वैश्य नहीं मानतीं. यदि कोई दूसरी जाति का आदमी वैश्य जैसा रहे तो आप उसे क्या वैश्य मान लेंगी?’’

‘‘फिर वही बहस. कह दिया, हम वैश्य हैं.’’

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कमरे में बैठी अपने स्कूल का पाठ याद करती रीना दीदी की 6 वर्षीय बेटी बोल उठी, ‘‘नहीं, नानीजी, हम लोग हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां ने उसे पास खींच कर पुचकारा. फिर बोलीं, ‘‘हां बेटा, हम हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां को समझ पाना बहुत कठिन था. कभी तो लगता था कि अम्मां जमाने के साथ जिस रफ्तार से कदम मिला कर चल रही हैं वह उन की स्कूली शिक्षा न होने के बावजूद उन्हें अनपढ़ की श्रेणी में नहीं रखता. औरों से कहीं आगे, समय के साथ बदलतीं, नए विचारों को अपनातीं, नई परंपराओं को बढ़ावा देतीं, अगली पीढ़ी के साथ ऐसे घुलमिल जातीं मानो वह उन्हीं के बीच पलीबढ़ी हों.

लेकिन कभीकभी जब वह अपने जमाने की आस्थाओं की वकालत कर के उन्हें मान्यता देतीं, अतीत की सीढि़यां उतर कर 50 वर्ष पीछे की कोठरी का दरवाजा खोल देतीं और रूढि़वादिता व अंधविश्वास की चादर ओढ़ कर बैठ जातीं तो हम सब के लिए एक समस्या सी बन जाती. शायद हर मनुष्य दोहरे व्यक्तित्व का स्वामी होता है या संभवत: अंदर व बाहर का जीवन अलगअलग ढंग से जीता है.

पिताजी उत्तर प्रदेश के थे और इलाहाबाद शहर में जन्मे व पलेबढ़े थे. बाद में नौकरी के सिलसिले में उन्होंने अनेक बार देशविदेश के चक्कर लगाए थे. कई बार अम्मां को भी साथ ले गए. लिहाजा, अम्मां ने दुनिया देखी. बहुत कुछ सीखा, जाना और अपनी उम्र की अन्य महिलाओं से ज्ञानविज्ञान व आचारविचारों में कहीं आगे हो गईं.

पिताजी विदेशी कंपनी में काम करते थे. ऊंचा पद, मानमर्यादा और हर प्रकार से सुखीसंपन्न, उच्चविचारों व खुले संस्कारों के स्वामी थे. अम्मां उन की सच्ची जीवनसंगिनी थीं.

वर्षों पहले हमारे परिवार में परदा प्रथा समाप्त हो गई थी. स्त्रीपुरुष सब साथ बैठ कर भोजन करते थे. यह सामान्य सी बात थी, पर 35-40 वर्ष पूर्व यह हमारे परिवार की अपनी विशेषता थी, जिसे कहने में गर्व महसूस होता था. हमें लगता था कि हमारी मां औरों से आगे हैं, ज्यादा समझदार हैं. परदा नहीं था, पर इस का तात्पर्य यह नहीं था कि आदर व स्नेह में कमी आ जाए.

भाभियों को घूमनेफिरने की पूरी स्वतंत्रता थी. यहां तक कि उन का क्लब के नाटकों में भाग लेना भी मातापिता को स्वीकार था.

इतना सब होते हुए भी अपने समाज के प्रति पिताजी कुछ ज्यादा ही निष्ठावान थे. ऐसा नहीं था कि वह देश या अन्य जातियों के प्रति उदासीन थे, पर शादीब्याह के मामले में उन्हें अंतर्जातीय विवाह उचित नहीं लगे. हम सब को भी उन्हीं के विचारों के फलस्वरूप अपने समाज के प्रति आस्था जैसे विरासत में मिली थी. शायद अम्मां ने तो कभी अपना विचार या अपना मत जानने की कोशिश नहीं की.

समय के साथ सभी मान्यताएं बदल रही थीं. फिर भी मेरा मन मानता था, ‘यदि आज पिताजी जिंदा होते तो शायद उन की पोतियां स्वयं वर चुन कर गैरजाति में न ब्याही जातीं.’ लेकिन यह भी लगता?था, ‘यदि उन्हें दुख होता तो यह उन की संकीर्णता का द्योतक होता है,’ और हो सकता है, जिस रफ्तार से वह समय के साथसाथ चले और समय के साथसाथ बदलने की वकालत करते रहे थे, शायद ऐसे विवाहों को सहर्ष स्वीकर कर लेते.

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आज वह नहीं हैं. अम्मां का अपना मत क्या है, वह स्वयं नहीं जानतीं. जो हो रहा?है, उन्हें कहीं अनुचित नहीं लग रहा. परंतु पिताजी का खयाल आते ही इन विवाहों को ले कर उन का मन कहीं कड़वा सा हो जाता है. प्रतिक्रियास्वरूप उन के अंतर्मन का कहीं कोई कोना उन्हें कचोटने लगता है. शायद वह उन की अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं है, बल्कि पिताजी के विचारों के समर्थन का भावनात्मक रूप है.

5-6 बरस पहले कनु का सादा सा ब्याह और अब रिंकू के ब्याह का उत्सव कैसा विपरीत दृश्य था. कनु ने जब कहा था, ‘‘मैं सहपाठी राघवन से ब्याह करूंगी और वह भी अदालत में जा कर.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनोखा बदला: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- अनोखा बदला: भाग 1

मधुरा ने विवेक के सामने अपनेआप को संयत रखा और उत्पल को खोजना शुरू किया. पुराने संपर्कों के माध्यम से मधुरा ने आसानी से उत्पल की आईडी खोज निकाली. उस ने उत्पल से कांटैक्ट किया.

अपने सर्किल में बाहुबली की छवि बनाता जा रहा उत्पल मधुरा की आवाज सुन कर रो पड़ा. दोनों के बीच बातें फिर से शुरू हो गईं.

उत्पल अब तक कुंआरा था. मधुरा की जगह किसी और को देने के बारे में वह सोच भी नहीं पाता था. बस जिस्मानी जरूरत जब बहुत ज्यादा आवाज देने लगती तो निराशा में पैसों के बल पर अपना बिस्तर रातभर के लिए सजा लेता था, लेकिन जो खालीपन उस के दिल में था, उस का इलाज वह कैसे करता?

मधुरा ने उस को अपनी सारी कहानी धीरेधीरे सुनानी शुरू कर दी. बाद में उस ने अपनी बहन और मां को भी सबकुछ बता दिया. वे भी सन्न रह गईं, मगर मधुरा के मना करने के चलते किसी ने विवेक से कुछ नहीं कहा.

समय बीतता रहा. एक दिन विवेक ने मधुरा के सामने प्रस्ताव रखा कि अपनी शादी की छठी सालगिरह किसी दूसरे शहर में चल कर मनाई जाए. मधुरा राजी हो गई. दोनों अपने बेटे को ले कर होटल में पहुंचे.

खास मौके के लिए मधुरा भी सजीधजी और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. रात पिंकू को जल्दी सुला कर विवेक ने मधुरा को अपनी बांहों में भर लिया और चूमने लगा, तभी कमरे का दरवाजे झटके से खुला और 4 नकाबपोश अंदर घुस आए.

मधुरा की चीख निकल गई. शोर से पिंकू भी जाग कर रोने लगा, लेकिन बदमाशों ने उन सब को गन पौइंट पर ले कर लूटपाट शुरू कर दी.

रुपयों से भरा पर्स, मोबाइल फोन वगैरह अपने बैग में भरने के बाद 3 बदमाश एक तरफ खड़े हो गए.

विवेक को लगा कि अब वे लोग चले जाएंगे, लेकिन चौथे ने मधुरा का हाथ पकड़ा और उसे अपने सीने से लगा लिया.

विवेक बौखला कर चिल्ला उठा. वह मधुरा को ले कर काफी पजेसिव था, भले ही उस का खुद का स्वभाव कैसा भी हो.

मधुरा उस बदमाश के चंगुल से छूटने के लिए छटपटाने लगी. विवेक उसे बचाने के लिए आगे बढ़ा तो बाकी 2 बदमाशों ने उसे पकड़ कर बांध दिया और मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. एक बदमाश पिंकू को अपनी गोद में ले कर दूसरे कमरे में चला गया.

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मधुरा कहती रही, ‘‘मैं अपने गहने खुद तुम्हें दे दूंगी, मुझे छोड़ दो,’’ लेकिन उसे पकड़े बदमाश के कानों में कोई आवाज मानो जा ही नहीं रही थी. वह मधुरा को खींचता हुआ बाथरूम में ले गया.

अंदर से मधुरा के रोनेचिल्लाने की आवाजें आती रहीं. विवेक अपने बंधनों में मजबूर कसमसाता, आंसू बहाता रहा.

आधा घंटे बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और मधुरा के साथ अंदर गया बदमाश अपने कपड़ों को थामे बाहर आया और आननफानन उन्हें पहन कर साथियों के साथ भाग गया.

उन बदमाशों के जाने के बाद होटल का कोई स्टाफ वहां आया तो उस ने विवेक के बंधन खोले.

विवेक बेतहाशा भाग कर बाथरूम के अंदर गया. वहां मधुरा जमीन पर बेहाल मिली. उस का सारा मेकअप बिखर चुका था और कपड़े यहांवहां बिखरे पड़े थे. विवेक उस से लिपट कर बैठ गया और रोने लगा.

पूरे होटल का स्टाफ बाहर जमा हो चुका था और दूसरे लोगों की भीड़ थी. मैडिकल जांच, पुलिस, मीडिया का दौर शुरू हो गया. अंदाजन पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियां भी कीं, लेकिन असली मुजरिम उस की पकड़ में नहीं आ सके.

धीरेधीरे विवेक अवसाद में जाने लगा. बारबार थाने के चक्कर लगाने में उस की माली हालत बिगड़ने लगी. कई बार तो नौकरी पर भी बन आती. कुछ दिनों तक खूब शोर करने के बाद मीडिया भी अचानक शांत होता गया.

इसी बीच एक दिन मधुरा को उलटियां आने लगीं. चैकअप करने के बाद डाक्टर ने बताया कि बच्चा ठहर गया है. विवेक अपनी नसबंदी करा चुका था. वह समझ गया कि यह बच्चा उसी बदमाश लुटेरे का है.

विवेक ने बच्चे को गिराने की बात की तो मधुरा ने यह कह कर एतराज जताया कि यह बच्चा उस का अंश है, चाहे जैसे भी पेट में आया हो.

जचगी का समय नजदीक आतेआते उन का घर कलह से भरने लगा और आखिरकार आपसी समझौते के आधार पर उन्होंने तलाक ले लिया.

पिंकू को मां के साथ रहने की इजाजत मिल गई. मधुरा उसे ले कर मायके चली आई और वहीं बच्चे को जन्म दिया.

इस के कुछ महीने बाद मधुरा ने उत्पल से शादी कर ली. सुहागरात के समय मधुरा सेज पर लेटी थी और उत्पल प्यार से उस का सिर सहला रहा था. पास ही पालने में उस का नवजात बेटा सोया था.

उत्पल ने मधुरा से कहा, ‘‘यह मेरा बच्चा है, लेकिन तुम्हारा पहला बेटा पिंकू भी मेरे लिए बेटे जैसा ही रहेगा… उसे मैं कभी पराया नहीं समझूंगा.’’

मधुरा ने मुसकरा कर उत्पल की ओर देखा और उसे अपने बगल में लिटा कर बत्ती बुझा दी.

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दरअसल, यह सब उन दोनों का ही प्लान था जो मधुरा ने विवेक की धोखेबाजी का बदला लेने के लिए बनाया था. उस रात होटल में उत्पल ही अपने साथियों के साथ मधुरा व विवेक के कमरे में घुसा था और मधुरा के साथ बलात्कार करने का नाटक किया, जबकि बाथरूम में मधुरा उसे संबंध बनाने में पूरा सहयोग दे रही थी और विवेक को तड़पाने के लिए चिल्ला रही थी.

इस मामले का उत्पल और उस के दोस्तों से दूरदूर तक कोई लिंक नहीं होने के चलते पुलिस ने जांच उधर मोड़ी ही नहीं. होटल के 1-2 कर्मचारी, जो उत्पल के इस प्लान को जानते थे, वे उस के जानने वाले थे इसलिए उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला.

मधुरा के मांबाप को इस सारे प्लान के बारे में कुछ पता नहीं था, पर अब उन्हें उत्पल की जाति या ठेकेदारी नजर नहीं आ रही थी. उन की अपनी नजरों में मधुरा अब दूषित हो चुकी थी और ऊंची जाति का अहम तो ऐसा है कि घर की बेटीबहू को त्याग देना आम बात है.

विवेक अब अकेला है और अंदर से काफी टूट चुका है. कल तक उस के अगलबगल घूमने वालियां फिलहाल उसे भाव नहीं दे रहीं. विवेक अपने बेटे से भी कम ही मिल पाता है. उसे उस की करनी की भरपूर सजा मिल गई है, वहीं मधुरा अब संतुष्ट है और नए परिवार के साथ जिंदगी को नए सिरे से शुरू कर चुकी है.

अनोखा बदला: भाग 1

मधुरा के मांबाप को उत्पल का ठेकेदार परिवार से होना नहीं सुहाया था. उन की नजर में ठेकेदारी गुंडों का काम था. मधुरा उन्हें समझाती रह गई कि अगर उत्पल को गुंडई ही दिखानी होती तो वह उसे कब का उठा कर ले गया होता. अपराधियों और पुलिस से ले कर जिले के नेताओं तक के बीच उस के बापदादा का बढि़या उठनाबैठना था.

एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क मधुरा के पिता उत्पल से कहां तक लड़ते? वैसे भी मधुरा के पिता पंडित थे और उत्पल पिछड़ी जाति का था और तभी वह ठेकेदारी का काम भलीभांति कर सकता था.

उत्पल दिल का बहुत अच्छा था. पढ़ाई के दिनों में कंप्यूटर हार्डवेयर ट्रेनिंग सैंटर में हुई मधुरा और उस की भेंट ने उन्हें देखतेदेखते कैसे जोड़ दिया, उन को खुद भी पता नहीं चला था. उस ने मधुरा को केवल मन से अपनाया था, तन से वे दोनों बिलकुल दूर थे, मगर मधुरा के पिता नहीं माने और उस की शादी अपने ही दफ्तर के एक साथी के बेटे विवेक से करा दी जो किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर था.

उत्पल छटपटा कर रह गया, लेकिन उस ने मधुरा की शादी में कोई खलल नहीं डाला. मधुरा ने अपनी मां की खुदकुशी की धमकी के चलते उत्पल से वादा जो ले लिया था कि वह कोई गलत कदम नहीं उठाएगा.

ससुराल आने के बाद मधुरा को विवेक का बरताव भी अच्छा लगने लगा. दिनभर के सीधेसरल स्वभाव और रात को बिस्तर पर मधुरा के जिस्म का तारतार झनझना देने वाला विवेक मधुरा को उस का बीता कल भुलाने में बहुत मददगार रहा था.

इस के अलावा आम लड़कियों की तरह मधुरा ने भी अपने पति से अपने प्रेमी का कभी कोई जिक्र नहीं किया.

शादी के 2 साल बाद मधुरा और विवेक के प्यार की निशानी पिंकू के आने के बाद मधुरा की जिंदगी खुशियों से भर चुकी थी. हां, कभीकभार उत्पल जब सपनों में आ जाता तो मधुरा जाग कर सिसक जरूर पड़ती थी.

उस दिन विवेक का जन्मदिन था. उन दोनों को अपने नए फ्लैट में शिफ्ट हुए 6 महीने ही हुए थे. भाइयों में रोजरोज होने वाले झगड़ों के चलते विवेक के पिता ने जायदाद का बंटवारा कर दिया था, जिस से मिले रुपयों से विवेक ने अपने पिता का घर छोड़ नया फ्लैट ले लिया था.

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मां की बीमारी के चलते मधुरा मायके गई हुई थी लेकिन विवेक के जन्मदिन पर अचानक आ कर उसे सरप्राइज देना था.

बीती रात विवेक ने बहुत ही उदास लहजे में कह दिया था, ‘तुम्हारे बिना मुझे मेरा जन्मदिन मरणदिन सा लगेगा.’

पिंकू को शाम तक के लिए अपनी छोटी बहन को सौंप कर मधुरा दोपहर को ही अपने फ्लैट पर आ गई. हाथ में केक का डब्बा और मिठाई थी.

डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोल मधुरा अंदर दाखिल हुई. उस ने सोच रखा था कि जैसे ही विवेक घर आएगा, वह केक और मिठाई के साथ उस के सामने तैयार मिलेगी.

मधुरा अपने कमरे की तरफ बढ़ी, लेकिन नजदीक जातेजाते अंदर से आ रही कुछ आवाजों ने उसे चौंका दिया. एक आवाज विवेक की थी और दूसरी भी किसी जानीपहचानी औरत की.

‘विवेक आज जल्दी घर आ गया क्या? और शायद किसी को बुला भी रखा है,’ मधुरा ने सोचा, लेकिन मन के किसी कोने ने उसे अपनी पदचाप छिपा कर ही आगे बढ़ने की सलाह दी. उस ने ऐसा ही किया.

खिड़की से कमरे के अंदर झांकते ही मधुरा का सिर चकरघिन्नी की तरह नाचने लगा. बिस्तर पर विवेक अपने स्कूल की ही एक शादीशुदा महिला टीचर नलिनी के संग मधुरा के विश्वास को भी बुरी तरह मसल रहा था.

तकरीबन 40 साला नलिनी विवेक से कम से कम 5 साल बड़ी थी और अकसर उन के?घर आती थी. वह ऐसी निकलेगी, यह मधुरा ने सपने में भी नहीं सोचा था. उस के मुंह से कोई आवाज न निकल सकी. उस का बदन जैसे सुन्न पड़ गया था. आंसू बहाती फटीफटी आंखों से वह सारा मंजर देखती रही.

‘‘साइज… स्टैमिना… विवेक… उफ… तुम मुझे… पागल बना कर मानोगे अपने प्यार में…’’ धौंकनी की तरह चलती सांसों के बीच नलिनी किसी तरह बोल पा रही थी. उस की उंगलियां विवेक की शर्ट चीरफाड़ कर उस की पीठ में घुसने को उतावली लग रही थीं.

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विवेक भी सुपरफास्ट ट्रेन बनता चला गया. जल्दी ही मिलीजुली तेज सिसकारियों का दौर शुरू हुआ और फिर सबकुछ शांत पड़ गया.

‘‘समीज तो पसीने से पूरी भीग गई तुम्हारी. थोड़ी देर पंखे के नीचे सूखने के लिए डाल दो…’’ विवेक ने शरारत भरे लहजे में कहा. उस का संकेत समझ नलिनी ने उसे प्यार से गाल पर थपकी दी और कोई तौलिया मांगा. विवेक ने सीधे खूंटी पर टंगा मधुरा का तौलिया उतार कर उसे दे दिया.

मधुरा का रोमरोम जल रहा था. वह चुपचाप वहां से निकल गई. खिड़की पर लगे परदे और अपने उन्माद में डूबे होने के चलते वे दोनों उसे देख नहीं पाए थे.

मधुरा कालोनी के पार्क में जा कर बैठ गई. केकमिठाई के डब्बे रास्ते में कहांकहां छूटते गए, उसे कोई होश नहीं था. घंटे बीतते रहे, शाम हो आई. इस बीच कई बार विवेक का फोन भी आ कर मिस होता रहा. हर रिंग मधुरा को विवेक के आज दिखे नए रूप की धमक लग रही थी. मधुरा ने वापस अपने मायके की बस पकड़ ली.

मायके पहुंचने के बाद रात को नींद मधुरा की आंखों से दूर ही रही. विवेक से एक बार बात हुई भी तो उस से तबीयत खराब होने की बात कह कर पीछा छुड़ा लिया. शुक्र था कि विवेक की अपनी सास या साली से कोई बात नहीं हुई, वरना मधुरा के आज फ्लैट पर आने का राज खुल जाता.

मधुरा रो रही थी और अपने मांबाप को कोस रही थी. उसे आज उत्पल की याद फिर से बहुत ज्यादा सताने लगी. वह फैसला नहीं ले पा रही थी कि आखिर करे तो क्या करे?

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में

कसूर किस का था : दूसरा भाग

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था

राजन का फोन आते ही राधिका होटल जाने के लिए तैयार हो गई. गाड़ी में बैठते ही वह पुरानी यादों में खो गई. जब वह 19 साल की थी, तभी एक अमीर कारोबारी ने अपने बेटे के लिए उसे पसंद कर लिया था. पर उस का पति मेहुल देर रात की पार्टियों का दीवाना था. वह शराब भी पीता था.

अब पढ़िए आगे…

धीरेधीरे मेहुल बंटी के साथ शराब पीने लगा. वह उस की कोल्ड ड्रिंक के साथ ‘चीयर्स’ करता. ड्राइवर से शराब मंगवाता. नौकरों व बावर्ची से कह कर खाने में तरहतरह की चीजें बनवाता.

राधिका को यह सब बहुत अखरने लगा था. यही तो वह उम्र होती है, जब बच्चा अपने मांबाप को अपना रोल मौडल मान कर उन की नकल करता है, अच्छीबुरी आदतों को अपनाता है.

राधिका देखती कि जब मेहुल टाइम से घर नहीं आता, तब बंटी कोल्ड ड्रिंक से भरा गिलास अपने हाथों में ले कर कहता, ‘‘चलो मम्मी, आज दारू पार्टी हो जाए? रघु काका, आप मेरे लिए चीज ब्रैड और फ्रैंचफ्राई बनाओ.’’

राधिका खून का घूंट पी कर रह जाती. वह अपना दुखदर्द किस से बांटती? मायके में तो किसी की भी हिम्मत नहीं थी, जो मेहुल की आंखों में आंखें डाल कर बातें कर सके.

पर उस दिन राधिका ने भी कुछ सोच लिया था… रात 2 बजे मेहुल के मोबाइल फोन पर बात करनी चाही, तो वह स्विच औफ मिला. तकरीबन ढाई बजे मेहुल का फोन आया, ‘बैडरूम का दरवाजा खोलो.’

गुस्से में आ कर राधिका ने भी कह दिया, ‘मेहुलजी, आज यह दरवाजा नहीं खुलेगा. आप को जहां जाना है, चले जाइए… रोजरोज आप की देर से शराब पी कर आने की आदत से मैं तंग आ गई हूं… इस से बंटी पर भी गलत असर पड़ता है…’

पहले तो मेहुल प्लीजप्लीज करता रहा, फिर बोला, ‘मैं केवल बंटी से मिलना चाहता हूं. राधिका, एक बार दरवाजा खोलो… मैं उसे प्यार कर के चला जाऊंगा…’

राधिका ने न जाने क्या सोच कर गेट खोल दिया. अब तो वह राधिका पर आंखें तरेरने लगा, ‘मेरे घर से मुझे ही निकालती है… मुझे पता था, तेरा बाप दलाल है. 50-50 रुपए के लिए तुम लोगों से धंधा कराता है.

‘‘तेरे बाप की औकात थी इतने बड़े घर में तेरी शादी कराने की… वह तो मेरे बाप की भलमनसाहत है, जो तू यहां पर आ गई, नहीं तो किसी कोठे पर…’

ये सारे शब्द पिघले सीसे की तरह राधिका के कानों में पड़ रहे थे. वह फटी आंखों से मेहुल को देखने लगी. अपनी बेबसी पर उस की आंखें छलक पड़ीं.

बंटी, जो अब 7 साल का हो गया था, कच्ची नींद से उठ गया था और देख रहा था कि पापा गुस्से से मम्मी पर बरस रहे थे. मम्मी रो रही थीं. वह डरासहमा सब देखसुन रहा था.

सुबह 7 बजे स्कूल जाना होता है, इसलिए राधिका ने किसी तरह अपने को संभाला. जैसेतैसे सबकुछ भुला कर उसे सुला दिया. वह खुद रातभर तकिया भिगोती रही. उस की आंखों से दूरदूर तक नींद का नामोनिशान नहीं था. सोचती रही, ‘कैसे इस इनसान के साथ पूरी जिंदगी बिताऊं? जो मर्द अपनी औरत को इज्जत की निगाह से नहीं देखता, उस के बच्चे की नजर में भी उस औरत की कोई इज्जत नहीं रह जाती.’

चाहे पिता के घर में कुछ भी न था, शांति तो थी… रूखासूखा खा कर पढ़ाई करने में ही अपने 18 साल गुजार दिए थे. 19वें साल में उस के भावी ससुर ने उसे मेहुल के लिए पसंद कर लिया था. उस की बेमिसाल खूबसूरती ही आज उस के लिए शाप बन गई.

कालेज में बहुत से लड़के राधिका को अपनी गर्लफ्रैंड बनाना चाहते थे, पर उसे सिर्फ पढ़ाई से ही सरोकार था. शायद इसलिए किसी लड़के की उस से बात करने की हिम्मत न होती थी. वह कालेज में ‘हार्टलैस’ के नाम से मशहूर थी.

घर में काम के सिलसिले से जुड़े कई लोग मेहुल से मिलने आते थे. एक सुबह डोरबैल की आवाज पर राधिका ने अनमनी सी हो कर खुद दरवाजा खोला. सामने एक 30-32 साला नौजवान को अपनी ओर एकटक निहारते पाया. आंखें चार हुईं. पता नहीं, राधिका को क्या हुआ… उस गरमाहट को वह सह न सकी और तुरंत वहां से हट गई.

कारोबार से जुड़े लोगों में से वह भी एक था. वह बुझीबुझी सी अपने काम में लग गई. अकसर लोग बाहर से भी आते ही रहते थे. कभी किसी से मिलना होता था, तो मेहुल खुद बुला कर मिला देता था.

इस बार भी मेहुल बोला, ‘‘राधिका, इन से मिलो, ये हैं रोलिंग मिल के मालिक राजन. दिल्ली से आते हैं… और राजनजी, इन से मिलिए… ये हमारी बैटर हाफ हैं.’’

दोनों ने एकदूसरे से हाथ जोड़ कर नमस्ते किया. राजन ने गौर से राधिका को देखा, पर उस ने ध्यान नहीं दिया.

एक दिन राजन ऐसे ही किसी काम से आया था, पर जाते वक्त एक अपना विजिटिंग कार्ड थमा कर चला गया.

उस कार्ड के पीछे एक नोट लिखा था, ‘टाइम मिलने पर फोन कीजिएगा, मैं इंतजार करूंगा…’

पढ़ कर राधिका कुछ घबरा सी गई. न चाहते हुए भी उस ने शाम को डरतेडरते फोन किया, ‘हैलो, मैं राधिका… आप … राजनजी?’

‘हांहां, मैं राजन ही बोल रहा हूं. मैं कब से आप के फोन का इंतजार कर रहा था. आप बुरा मत मानिए… एक बात बोलूं… आप बहुत खूबसूरत हैं.’

‘थैंक्स…’ वह बोली.

‘प्लीज, मना मत कीजिएगा. क्या कल हम शाम को एकएक कप कौफी पी सकते हैं?’

राधिका चाह कर भी मना न कर सकी.

कौफी पीते वक्त बारबार राजन की ओर नजरें उठतीं, तो उसे अपनी ओर ही देखता पाती. वह शरमा कर सिर झुका लेती.

‘राधिकाजी, जब से मैं ने आप को देखा है, मैं रातभर सो नहीं पाता. जी चाहता है कि बस आप को ही देखता रहूं… दिनरात… हर पल… आप की मुसकराहट बहुत दिलकश है.’

यह सुन कर राधिका का दिल झूम उठा. शर्म से पलकें झुक गईं. होंठों पर एक लुभावनी मुसकान आ गई.

उस दिन के बाद से ही वे एकदूसरे से मिलने लगे. कभी कोई रैस्टोरैंट, तो कभी कोई शौपिंग मौल. कभी मल्टीप्लैक्स सिनेमाहाल, कभी किसी पार्क में, ताकि मेहुल या किसी पर राज न खुले… इसलिए मिलने के लिए अलगअलग जगह तय कर लेते थे.

मिलने पर राधिका को अजीब सी घबराहट होती थी, पर उस की इस घबराहट में भी एक खुशी थी.

(क्रमश:)

राजन का राधिका से मिलने का क्या मकसद था? क्या मेहुल को इस बात का पता चला?  पढ़िए अगले अंक में…

कसूर किस का था : पहला भाग

‘हैलो राधिका, तुम ठीक 8 बजे होटल पहुंच जाना.’

‘‘ओके… राजन. आप भी टाइम से आ जाना.’’

‘जो हुक्म मेरी मलिका. बंदा समय पर हाजिर हो जाएगा.’

‘‘आप भी न, कुछ भी कह देते हो,’’ शरमा कर, मुसकराते हुए राधिका ने मोबाइल फोन काट दिया.

राधिका ने तैयार हो कर गुनगुनाते हुए, आईने में अपनेआप को गौर से ऊपर से नीचे तक देखा. उस का खूबसूरत बदन अभी तक सांचे में ढला हुआ था, तभी तो राजन उसे बांहों के घेरे में ले कर हमेशा कहते, ‘फिगर से आप की उम्र का पता ही नहीं चलता जानेमन…’ और शरारत से हंसने लगते.

तब राधिका थोड़ा शरमा कर रह जाती और कहती, ‘आप भी न…’

नीले रंग की खूबसूरत साड़ी में चांदी के रंग की कारीगरी का काम, नए जमाने का ब्लाउज, जिस का भार पीछे बंधी डोरी ने संभाल रखा था. बालों को हेयर ड्रैसर ने बड़े ही खूबसूरत ढंग से संवार कर 2 लटों को सामने निकाल दिया था.

राधिका के गोरगोरे रुई से भी नरम हाथों पर लोगों की नजर बरबस ही उठ जाती थी.

राधिका को याद है कि पिछली पार्टी में मेघना भटनागर ने कहा भी था, ‘राधिकाजी, आप को तो फिल्म इंडस्ट्री में होना चाहिए था. आप तो इतनी खूबसूरत हो कि आप को छूने से भी डर लगता है. एकदम कांच की गुडि़या सी लगती हो आप.’

ऐसी बातें पहले राधिका को अंदर तक गुदगुदा जाती थीं, लेकिन अब वह सुन कर केवल मुसकरा देती है.

राधिका ने साड़ी से मैच करती ज्वैलरी पहन कर फाइनल टच और फाइनल लुक दिया और मोबाइल फोन और मैचिंग पर्स ले कर बंगले से बाहर आ गई, जहां ड्राइवर पहले से ही हाथ बांधे अपनी ड्यूटी के लिए खड़ा था.

राधिका मैडम को आते देख ड्राइवर ने गाड़ी का पिछला गेट खोला. राधिका ने बैठते ही कहा, ‘‘होटल ताज चलो.’’

‘‘जी मेम साहब,’’ कह कर ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी. गाड़ी अब बंगले से निकल कर खाली सड़क पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगी.

राधिका का दिमाग भी उस दौड़ में शामिल हो गया. बस फर्क इतना था कि गाड़ी की रफ्तार आगे जा रही थी और राधिका का दिमाग पिछली यादों की ओर रफ्तार पकड़ रहा था. बात तब की है, जब राधिका का 12वीं जमात का रिजल्ट निकला था.

वह फर्स्ट क्लास से पास हुई थी. वह चाहती थी कि वह आगे और पढ़े. उस ने सीपीटी का फार्म भी ले लिया था, लेकिन घर की माली हालात ठीक नहीं थी. 5 भाईबहनों में वह सब से बड़ी थी. उस के बाद पल्लव, जिस ने 10वीं जमात का बोर्ड इम्तिहान दिया था और पल्लवी ने 8वीं जमात का. फिर नकुल और तन्वी थे, जो छठी और चौथी क्लास में पढ़ते थे.

मां घरेलू थीं, सिर्फ कपड़े सीनेपिरोने का काम जानती थीं और पिताजी रेलवे में टीटी थे. जैसेतैसे घर का गुजारा और उन लोगों की पढ़ाई का खर्चा निकल पाता था.

पिताजी की इच्छा थी कि वे राधिका की शादी कर दें, क्योंकि वह तनी खूबसूरत थी कि जहां भी जाती, वहां कोई भी उस का दीवाना हो जाता था. दोनों पतिपत्नी को रातभर इसी चिंता में नींद नहीं आती थी.

राधिका की खूबसूरती पर फिदा हो कर 3 चावल मिलों के मालिक केतन सहाय ने अपने बेटे मेहुल के लिए बिना दानदहेज के शादी की बात चलाई.

राधिका के पिता ने उसे स्वीकार कर लिया और धूमधाम से शादी हो गई. पैसों की कमी में पलीबढ़ी राधिका इतने ऐशोआराम देख कर दंग रह गई. वह बहुत खुश थी. उस के मांबाप भी अपनी बेटी की खुशियों को सराहने लगे.

मेहुल चूंकि एक बड़ा कारोबारी का लड़का था, विदेश से एमबीए कर के आया था, उस का ज्यादा से ज्यादा समय कामकाज और यारदोस्तों में ही बीतता.

मेहुल को राधिका पहली नजर में ही भा गई थी. जब मेहुल ने प्यार से राधिका को देखा, तो हलकी गुलाबी साड़ी में उस का रंग और भी गुलाबी हो उठा था. वह लाज से सिमटी जा रही थी. सभी दोस्त मेहुल से मानो जल रहे थे.

मेहुल भी स्मार्ट और अच्छे नैननक्श का था, पर राधिका के सामने उन्नीस ही था. पर वह राधिका से प्यार तो बहुत करता था, वह उस की खूबसूरती पर कुछ नहीं बोल पाता था. वह आएदिन पार्टी करता रहता था, जिस में सिगरेटशराब व शबाब का जोर होता था और पार्टियां भी देर रात तक चलती थीं.

हाई सोसाइटी में उठनेबैठने वाले मेहुल के यारदोस्त भी वैसे ही थे. हर समय पीनेपिलाने की ही बातें चलती थीं. शुरुआत में तो राधिका नईनवेली होने के नाते पसंद न होते हुए भी ऐसी पार्टियों में शामिल हो जाती थी, पर उसे ऐसी पार्टियां कभी भी अच्छी नहीं लगी थीं.

धीरेधीरे राधिका ने ऐसी हाई प्रोफाइल पार्टियों में जाना छोड़ दिया. घर की पार्टियों में 2-4 बार अपना चेहरा दिखा कर चली आती. बाहर की पार्टियों में केवल मेहुल जाता था. उसे लौटने में कभी सुबह के 2 बजते, तो कभी 3 या 4. पहले तो वह गुस्सा हो जाती थी, मेहुल से बोलचाल बंद कर देती थी या कुछ शिकायत कर देती थी.

एक बार फिर ऐसा ही हुआ. राधिका मेहुल से नाराज थी, तभी मेहुल ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा, तो एक पल के लिए वह सकुचाई, मुंह से एक भभका निकला, उस की गंध से उसे उलटी सी होने लगी. वह हटने लगी, तो मेहुल ने उसे झट से अपने बदन से सटा लिया. सीने से लगा कर वह दीवानों की तरह उसे चूमने लगा.

राधिका उस की बांहों से निकलने के लिए छटपटा रही थी. मेहुल कह रहा था, ‘यार, माफ भी कर दो. कल से जल्दी आ जाऊंगा. राधिका, तुम बेहद खूबसूरत हो… मैं वादा करता हूं… कभी लेट नहीं होऊंगा.’

शराबी की जबान और कुत्ते की टेढ़ी पूंछ का जैसे कभी कोई भरोसा नहीं होता, वैसे ही पीनापिलाना मेहुल की आदत में शुमार हो गया था. जितनी नफरत राधिका को शराबसिगरेट, देर रात की पार्टियों से थी, उतनी ही नफरत उसे अपनेआप से भी होने लगी थी.

इधर बंटी के पैदा होने के बाद राधिका उस के पालनेपोसने में लग कर अपने को बिजी रखने लगी.

पहले तो मेहुल सिर्फ बाहर से ही शराब पी कर आता था, पार्टियां करता था, लेकिन सासससुर की मौत के बाद तो जैसे पूरा मैखाना घर में ही खोल लिया. अब वही मेहता ऐंड मेहता संस एकलौता मालिक जो हो गया था.

(क्रमश:)

कसूर किस का था : तीसरा भाग

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था
राधिका राजन से मिलने होटल गई. बीच रास्ते में वह पुरानी यादों में खो गई कि कैसे 19 साल की उम्र में उस की शादी अमीर मेहुल से हो गई. मेहुल शराब पीता था, कभीकभी तो अपने बेटे के साथ बैठ कर भी. राधिका को यह पसंद नहीं था. उस की नजदीकियां राजन के साथ बढ़ने लगीं.
अब पढि़ए आगे…

एक दिन दोपहर को बंटी राधिका के मोबाइल फोन पर गेम खेल रहा था, तभी मोबाइल फोन की घंटी बजी.

राधिका बंटी के हाथ से मोबाइल फोन लेने गई, तो उस ने देने से मना कर दिया. प्यार से, फिर झल्ला कर छीनने गई, तो बोला, ‘‘आप एक नंबर की…’’

इस से आगे राधिका ने जो सुना, तो लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में नंगा कर दिया. उस के सोचनेसमझने की ताकत खत्म हो गई. वह बहुत ही दुखी हो गई. उन्हीं नाजुक व कमजोर लमहों में वह राजन के और करीब आ गई.

‘‘क्या बात है राधिका, तुम इतनी चुपचुप और खाईखोई सी क्यों लग रही हो? किसी ने तुम्हें कुछ कहा क्या?’’

‘‘कुछ नहीं…’’ कहतेकहते भी राधिका का गला भर्रा गया. फिर वह हंसते हुए कहने लगी, ‘‘देखो, मैं एकदम ठीक तो हूं. मुझे क्या हुआ है?’’

‘‘मैं इस खोखली हंसी के पीछे के दर्द को साफसाफ महसूस कर रहा हूं. मुझे हैरानी होती है कि इतनी प्यारी और खूबसूरत आंखों में भी आंसुओं का इतना गहरा समंदर भी समा सकता है… क्या बात है? तुम्हारे इन आंसुओं से मुझे बहुत दर्द पहुंचता है. तुम मेरी जान हो, मेरी सबकुछ हो. मैं तुम्हें एक पल के लिए भी उदास नहीं देख सकता.’’

राधिका ने सुबकतेसुबकते राजन को दोपहर में घटी घटना के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.

‘‘तो यह बात है… बच्चे जो देखतेसुनते हैं, वही सीखते हैं… दिल से मत लगाओ. बच्चा है यार…

‘‘तुम्हें पता है कि आज मैं ने तुम्हारे लिए यह गिफ्ट लिया है. जरा खोल कर तो देखो, कैसा है?’’

‘‘इस की क्या जरूरत थी? तुम से दिल की बातें कर के मन हलका हो जाता है. बस…’’

‘‘बस… और कुछ नहीं?’’ टेढ़ी आंखों से राजन ने कहा, तो राधिका शरमा गई.

‘‘क्या तुम मेरी प्रेमिका बनोगी राधिका?’’

राधिका ने चौंक कर राजन की ओर देखा, तो उस की आंखों में सिर्फ प्यार और प्यार ही नजर आ रहा था. अब राधिका हैरत से अपनी आंखों में भर आए आंसू पोंछने लगी. होंठ लरजने लगे.

बहुत मिन्नतें करने पर राधिका ने गिफ्ट का रैपर खोला. हीरे के 2 टौप्स थे.

‘‘बहुत ही खूबसूरत हैं.’’

गिफ्ट तो मेहुल भी ढेरों लाता था, पर उस में गरूर था. वह खुश हो कर कह बैठी, ‘‘राजन, मुझे इस घुटन से कहीं दूर ले चलो…’’

राजन भी उसे दूसरे शहर ले जाने को तैयार था. वह तुरंत बोला, ‘‘हां चलो, कब चलोगी राधिका? मैं तुम्हें अपने साथ हमेशा के लिए ले जाऊंगा…’’ कह कर उस ने राधिका को अपनी बांहों में भर लिया.

राधिका अब भी खोईर् हुई थी. बाहर तेज बारिश हो गई थी. अचानक बिजली कड़की और उस ने दोनों हाथों से कस कर राजन को जकड़ लिया.

जब 2 जवां दिल मिल रहे हों, तो सभी जगह बहार ही बहार दिखाई देती है. बारिश की धुन में प्यार का संगीत था. राजन उसे अपने सीने से लगा कर दीवानों की तरह चूमने लगा. एक पल के लिए वह सकुचाई, पर जब वह दिल ही हार चुकी, तो इनकार कैसा…?

एक शाम राधिका चुपचाप राजन के साथ मुंबई चली आई. आते वक्त राधिका एक चिट्ठी लिख कर छोड़ आई थी. लिखा था, ‘मैं इस घुटनभरी जिंदगी को जीतेजीते तंग आ गई हूं. अब मुझे आजादी से जीना है. सांस लेना है.’

उस वक्त राधिका ने अपने बच्चे के बारे में भी नहीं सोचा. पर वह तो राजन के प्यार में पगलाई हुई थी. उसे उस वक्त जो ठीक लगा किया. यह भी नहीं सोचा कि मेहुल और घर वालों पर क्या बीतेगी.

राजन को पा कर राधिका को लगा कि सारे जहान की खुशियां मिल गई हों. उन लोगों ने 2-4 महीने विदेश में ही बिता दिए. वापस आ कर राजन अपना मुंबई का कारोबार संभालने में लग गया और राधिका अपने फ्लैट को सजानेसंवारने में जुट गई. दिनरात ख्वाबों जैसे बीत रहे थे.

राधिका को कभी बंटी की याद आती, तो दिल में कुछ चटक जाता, गले में कुछ फांस जैसा अटक जाता था, लेकिन वह अपने सिर को झटक देती और दिल को बच्चे की तरह झुनझुना पकड़ा कर समझा लेती थी.

राधिका व राजन अकसर होटलों में ही डिनर लेते थे. वहां जो भी राधिका को देखता, तो उसे बस देखता ही रह जाता.

राजन ने राधिका के लिए काफी मौडर्न कपड़े खरीदे थे. बहुत ही नानुकर के बाद वह उन्हें पहनती थी.

‘‘अरे बाबा, यही तो आजकल का फैशन है. चलो बेबी, पहनो. जल्दी से रैड ड्रैस पहन कर आओ. मैं बाहर कार में तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. देखूं तो सही, मेरी जान इन कपड़ों में कैसी लगती है,’’ राजन कहता.

थोड़ा घबराते हुए राधिका ने वह ड्रैस पहनी. जब उस ने खुद को आईने में देखा, तो अपने बदले लुक और जंचते कपड़ों के साथ बढ़ती दोगुनी खूबसूरती पर यकीन नहीं हुआ.

देर होने पर राजन खुद ही बैडरूम में चला आया. जब राधिका को लाल रंग की ड्रैस में देखा, तो देखता ही रह गया, ‘‘हाय, स्वीट हार्ट. क्या हौट लग रही हो? अब तो मैं तुम्हें खा जाऊंगा.’’

राधिका के गाल शर्र्म से और भी गुलाबी हो गए.

डिनर करते वक्त कितने लोगों ने पलटपलट कर ललचाई नजरों से देखा, तो राधिका घबराई सी उस ड्रैस में असहज हो उठी थी. पर धीरेधीरे उसे ऐसे कपड़े पहनने की आदत हो गई.

कोलकाता की राधिका और मुंबई की राधिका में जमीनआसमान का फर्क हो गया. मजे से जिंदगी गुजर रही थी. तभी एक दिन राजन दफ्तर से बहुत घबराया सा घर वापस आया.

‘‘गजब हो गया,’’ राजन बोला.

‘‘क्या हुआ?’’ राधिका ने पूछा.

(क्रमश:)

कसूर किस का था : आखिरी भाग

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था:
मेहुल की शराब पीने की लत के चलते राधिका राजन के नजदीक आ गई. वह अपने पति का घर छोड़ कर उस के साथ रहने लगी. थोड़े दिन तक तो सब ठीक रहा, पर बाद में राजन का असली रूप सामने आया. वह उसे अपने काम के लिए दूसरों को परोसना चाहता था. इस तरह वह धीरेधीरे कालगर्ल बन गई. एक दिन राधिका किसी से मिलने होटल गई. वहां उस के सामने उस का बेटा आ गया. वह घबरा कर वापस हो ली.
अब पढ़िए आगे…

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कसूर किस का था? (पहला भाग)

कसूर किस का था? (दूसरा भाग)

कसूर किस का था? (तीसरा भाग)

कसूर किस का था? (चौथा भाग)

‘‘ठीक है, उन्हें चाय वगैरह सर्व करो. मैडम अभी तैयार हो कर आ रही हैं,’’ कह कर राजन कमरे से बाहर आ गया.

राधिका ने जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, सामने नजर पड़ते ही ऐसे तड़प उठी, जैसे भूल से जले तवे पर हाथ रख दिया हो.

वह घबरा कर वापस जाने लगी, तभी उस के कानों में अमृत घोलती

एक आवाज गूंजी, ‘‘मम्मी, मैं आप का बंटी… आप को कहांकहां नहीं ढूंढ़ा हम ने? आखिरकार आप मिल ही गईं,’’ इतना कह कर वह राधिका से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगा.

बंटी रोतेरोते ही कहने लगा, ‘‘मम्मी, आप के बगैर पापा ने भी अपनी कैसी हालत बना ली है, कितने साल बीत गए… आप के बगैर जीते हुए. अब मैं एक पल भी आप के बगैर नहीं रह सकता. प्लीज मम्मी, घर लौट चलो. आप को लिए बगैर मैं यहां से नहीं जाऊंगा.’’

जब होटल में राधिका ने बंटी को देखा, जो बिलकुल मेहुल की शक्ल पाए हुए था. उसे लगा कि उस ने ममता के रिश्ते में भी तेजाब घोल दिया. अगर उस की शक्ल हूबहू न होती, तो वह तो… उस के आगे वह नहीं सोच पाई.

उधर राधिका जब मेहुल को छोड़ कर चली गई थी, तब वह एकदम टूट सा गया था. वह उसे बहुत प्यार करता था. निराशा व हताशा से बेहाल मेहुल ने सारा कारोबार समेटा और बेंगलुरु की किसी अनाम जगह पर चला गया. अब वह अपने बेटे बंटी के लिए जी रहा था. सुबह उसे तैयार कर के स्कूल भेजता, फिर अपने दफ्तर जाता, जल्दी काम निबटा कर वह फिर घर लौटता.

धीरेधीरे सारे काम घर में मोबाइल फोन से ही करने लगा. बंटी को भी पापा का ढेर सारा प्यार पा कर लगा कि जैसे अपनी मम्मी को भूलने लगा है, पर वह भूला नहीं था.

कभीकभी बंटी पूछ ही बैठता, ‘पापा, मम्मी कहां गई हैं?’

तब मेहुल की बेबसी से आंखें भर आतीं, फिर मासूम बंटी को सीने से लगा कर रो पड़ता. उस ने सोचा कि ढूंढ़ा तो उसे जाता है, जो खो जाता है. जो खुद ही छिप गया हो, उसे ढूंढ़ कर क्यों परेशान करूं?

जैसे ही बंटी बड़ा हुआ, उस का भी एमबीए का कोर्स अभीअभी पूरा हुआ था. वह अपनी मम्मी की तलाश में लगा. वह पापा मेहुल को सैमिनार है बोल कर कोलकाता गया, जहां पहले मम्मीपापा के साथ रहता था बचपन में. वहीं से पता चला कि मम्मी मुंबई में हैं. शायद तभी से वह मुंबई में आ कर तलाश करने लगा.

एक दिन एक होटल में उस ने राजन के साथ राधिका को देखा. वहां से सारी जानकारी हासिल की. फिर अपनी मम्मी से मिलने का प्लान बनाया. और कुछ तो समझ में नहीं आया कि कैसे मिले?

वह राधिका को शर्मिंदा नहीं करना चाहता था. और कोई चारा भी तो नहीं था उस के पास, लेकिन अफसोस, मेहुल का हमशक्ल होने से बाजी पलट गई. उस की सूरत देखते ही राधिका लौट गई. वह तुरंत पहचान जो गई थी.

‘‘मम्मी, मेरी सूरत देख कर आप मुझे तुरंत पहचान गईं और आप लौट गईं. मम्मी, मेरा इरादा आप को परेशान करने का नहीं था. पापा भी आप के जाने के बाद एकदम टूट से गए हैं. वे तिलतिल कर मर रहे हैं.

‘‘मैं उन्हें ऐसे घुटतेतड़पते नहीं देख सकता था. उन्हें भी अपनी गलतियों का एहसास हो गया है. वैसे, वे मुझ पर जताते नहीं हैं कि वे दुखी हैं, मैं जानता हूं कि पापा आप को बहुत प्यार करते हैं और आप के बगैर अकेले जी रहे हैं. वे भी मेरे साथ आए हैं, बाहर खड़े हैं.’’

एक ही जगह मूर्ति सी खड़ी राधिका किस मुंह से मेहुल के सामने जाती? उस से नजरें मिलाती? उस ने बेजान, थके हाथों से बंटी को अपने से अलग किया. उस की आंखें पथरा सी गई थीं. लग रहा था कि उन आंखों में भावनाएं नहीं हैं.

इतने में मेहुल भी भीतर आ गया. कितना बीमार, थकाथका, लाचार सा लग रहा था. राधिका के दिल में कुछ टूटने, पिघलने लगा. मन दर्द से भर उठा. मेहुल का क्या कुसूर? पर वह इस कलंकित देह के साथ कैसे आगे बढ़ती?

राजन तो मेहुल को देख कर शर्म से पानीपानी हुए जा रहा था. दोस्त हो कर पीठ में छुरा घोंपने का अपराध जो किया था, इसलिए नजरें न मिला कर एक ओर सिर झुकाए खड़ा रहा.

मेहुल थके कदमों से राधिका के करीब आया और अपने दोनों हाथ जोड़ लिए. मेहुल ने कहा, ‘‘सच राधिका, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. मेरी ही नादानी की वजह से हमारा बच्चा हम दोनों की परवरिश नहीं पा सका, लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है.

‘‘हम दोनों मिल कर अब भी अपने बेटे बंटी को अच्छे संस्कार देंगे. उसे कारोबार में फलतफूलता देखेंगे. अभी तो उस की शादी करनी है. उन के प्यारेप्यारे बच्चों को गोद में खिलाना है.’’

‘‘नहीं मेहुल, यह अब कभी नहीं हो सकता… मैं चाह कर भी इस दलदल से बाहर नहीं आ सकती. मैं इस लायक ही नहीं रह गई हूं कि तुम्हारे साथ जा सकूं.’’

अपने भर आए गले को खंखारते हुए राधिका फिर बोली, ‘‘मेहुल, जब बदन का कोई अंग सड़ जाता है, तो उस को काट कर अलग कर दिया जाता है, नहीं तो पूरे जिस्म में जहर फैल जाता है. मैं अब वह दाग हूं, जिसे सिर्फ छिपाया और मिटाया जा सकता है, पर दिखाया नहीं जाता. प्लीज, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ कहतेकहते वह बुरी तरह कांपने व रोने लगी थी.

तब मेहुल ने राधिका का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘राधिका, मैं ने कहा था कि मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मेरे ही रूखे बरताव के चलते तुम्हें घर छोड़ने जैसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा. इस के लिए तुम अपनेआप को अकेले दोष मत दो. मुझे तुम मिल गईं, अब कोई मलाल नहीं.

‘‘मुझे समाज, रिश्तेदार किसी की कोई परवाह नहीं. देखो, तुम्हारे बेटे बंटी को, जिसे तुम ने 8 साल का नन्हे बंटी के रूप में देखा था, आज वह पूरा गबरू नौजवान बन गया है. एमबीए की डिगरी भी हासिल कर ली है.

‘‘मैं ने इस का तुम्हारी गैरहाजिरी में ठीक से तो लालनपालन किया है कि नहीं? कोई शिकायत हो तो बोलो?’’

मेहुल का गला भर आया था. आंखें गीली हो गई थीं.

कितना बड़ा कलेजा था मेहुल का. राधिका, जो शर्म, अपराध के बोझ तले दबी जा रही थी, वह भी सारी लाज भूल कर मेहुल की बांहों में समा गई. कभी सोचा भी नहीं था कि मेहुल से नफरत की जगह माफी मिलेगी. उस के चेहरे पर एक दृढ़ विश्वास की चमक थी.

राजन लुटापिटा सा एक ओर खड़ा ताकता ही रह गया.

कसूर किस का था : चौथा भाग

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कसूर किस का था? (पहला भाग)

कसूर किस का था? (दूसरा भाग)

कसूर किस का था? (तीसरा भाग)

 

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा था:

मेहुल से शादी होने के बाद राधिका अमीर घराने की बहू तो बन गई, पर पति के शराब पीने की आदत से वह परेशान थी. मेहुल बेटे को भी बिगाड़ रहा था. इस तरह वह राजन के करीब आ गई और उस के साथ दूसरे शहर में रहने लगी. राजन ने उस को रानी बना कर रखा. एक दिन वह मुसीबत में फंस गया.

अब पढ़िए आगे…

‘‘मैं ने 10 करोड़ के प्रोजैक्ट के लिए बैंक से 5 करोड़ का लोन पास करवाया था, लेकिन पिछला टैंडर पास नहीं होने से बैंक का मैनेजर लोन पास नहीं कर रहा है. कोटेशन वगैरह सब भर दिए गए हैं… समझ में नहीं आता कि क्या करूं…?

‘‘अगर मेरा यह करोड़ों का प्रोजैक्ट इस बार क्लियर नहीं हुआ, तो हम सड़क पर आ जाएंगे. हमारा दफ्तर, घर, मिल सबकुछ चला जाएगा. प्लीज राधिका, कुछ सोचो… कुछ करो…’’

अब बेचारी राधिका क्या करे… वह तो सिर्फ दिलासा व हौसला ही देती रही, ‘‘सब ठीक हो जाएगा राजन, तुम जा कर एक बार मैनेजर से फिर मिल लो.’’

‘‘नहीं राधिका, अब मिलने से कुछ नहीं होगा. हां, अब ठीक केवल एक शर्त पर हो सकता है… सुना है कि वह मैनेजर राहुल थोड़ा शराब और शबाब का रसिया है. अगर एक चांस ले लें तो शायद.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘अगर तुम राहुल को शीशे में उतार सको, तो…’’ राजन कहतेकहते नजरें नहीं मिला पा रहा था.

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो राजन? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? तुम अपनी राधिका को सिर्फ एक लोन पास करने के लिए किसी पराए मर्द के बिस्तर में परोस रहे हो?’’ तकरीबन चिल्लाते हुए राधिका गुस्से से बोली,  ‘‘मुंबई में तो सैकड़ों कार्लगर्ल्स हैं. किसी को भी वहां भेज दो.’’

‘‘राधिका, मुझे माफ कर दो,’’ कह कर राजन ने राधिका की ओर प्यार से हाथ बढ़ाया, तो उस ने हिकारत भरी नजरों से घूर कर हाथ को छिटक दिया.

राजन अपनी सफाई में कह रहा था, ‘‘राधिका, मुझे यह कहना तो नहीं चाहिए था, पर मैं किसी कार्लगर्ल पर एकदम से भरोसा नहीं कर सकता. कब किस के सामने किस का राज फाश कर दे, कुछ कहा नहीं जा सकता.

‘‘मुझे यह सब कहते हुए बहुत शर्म महसूस हो रही है कि मैं अपनी जिंदगी को किसी और के बिस्तर पर सोने को मजबूर कर रहा हूं. हो सके, तो मुझे माफ कर देना…

‘‘मेरे पास अब खुदकुशी के सिवा कोई चारा नहीं है. मैं दिवालिया हो कर नहीं जी सकता.’’

अब राधिका के सामने इधर कुआं उधर खाई वाली हालत हो गई. जिस्म का सौदा कर राजन के कारोबार को बचाए या फिर जिस्म को बचा कर उस को मरता देखे? फिर इतने बड़े मुंबई शहर में अकेली, कैसे और कहां रहेगी? सब गिद्धों की तरह नोच डालेंगे… मेहुल के पास वापस मैं लौट नहीं सकती. आखिरकार उस ने अपने जमीर को मार कर ही यह कदम उठाया.

बैंक मैनेजर राहुल तो राधिका का इतना मुरीद हुआ कि उस ने यहां तक कह दिया, ‘‘राजन, आज से आप मेरे फैमिली फ्रैंड हुए. अब आप को कभी भी कोई दिक्कत हो, तो बेहिचक मुझे कह दीजिएगा.’’

बस वहीं से राधिका का कालगर्ल बनने का सफर शुरू हो गया. हर रात लिपपुत कर किसकिस के गुलिस्तां को महकाती फिरती, अब उसे याद नहीं है. राजन तरक्की की सीढि़यों को पार करता रहा…

राधिका कभी नफरत से पूछती, ‘‘राजन, तुम ने ऐसा क्यों किया? किस जन्म का बैर निकाला है तुम ने?’’

राजन बड़ी बेशर्मी से हंसने लगता. राधिका कभी जाने को मना करती, तो वह हाथ भी उठा देता था. ऐसी दहशतभरी जिंदगी जीतेजीते… यों ही  15 साल बीत गए.

राधिका ने यह बात अब अच्छी तरह से समझ ली थी कि औरत केवल खिलौना है. कभी उसे पैरों तले रौंदा जाता है, तो कभी उसे हाथों द्वारा मसलाकुचला जाता रहा है. उस ने राजन की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर अपना बसाबसाया घर उजाड़ दिया. कभी तनहाई में अपने बच्चे और मेहुल का अक्स उभरता, तो वह सिसक पड़ती.

राधिका अपनी यादों के दायरे से बाहर निकल आई. आज भी बाहर से कोई डैलिगेशन ग्रुप आया है, जिस में से एक को ‘ताज’ होटल में ठहराया गया है, जहां राधिका को अभी पहुंचना है.

ड्राइवर ने होटल ताज के सामने कार रोक दी. इठलाती, लहराती राधिका मैनेजर से रूम नंबर पूछ कर चल पड़ी. उस ने 205 नंबर रूम खटखटाया. अंदर से आवाज आई, ‘कम इन.’

दरवाजा बंद नहीं था, केवल ढलका हुआ था. हाथ लगते ही खुल गया. सामने फोन पर झुका कोई नौजवान रिसैप्शन में बात कर रहा था और एक 40-45 का रसिया किस्म का आदमी साथ खड़ा उसे समझा रहा था. हाथ के इशारे से सामने पड़े सोफे पर राधिका को बैठने को कहा और बोला, ‘‘आप जरा बैठिए… बंटी, रिसैप्शन में कुछ और्डर देना मेरे व मैडम के लिए. तुम तो कोल्ड ड्रिंक लेते हो, पर मैं और मैडम पनीरपकौड़ा और वैज कबाब लेंगे और व्हिस्की लेंगे. थैंक्स…’’

तभी वह नौजवान राधिका की तरफ मुड़ा. उसे देख कर राधिका कांप उठी. वह वहां एक पल भी रुक नहीं पाई, उलटे पैरों लौट गई… और वह आदमी ‘हैलो… हैलो, मैडम…’ कहता ही रह गया. वह नौजवान भी हैरान खड़ा रह गया.

राधिका अपनी नजरों में तो गिर ही चुकी थी, आज वह सरेबाजार नंगी भी हो गई. उस के झूठे सपनों का महल तहसनहस हो गया. उस की ऐसी भयानक तसवीर देख राधिका ने अपने दोनों कानों पर हथेलियां रखीं.

राधिका बहुत जोर से चीखी, ‘‘नहीं…’’ उस की हिचकियां बंधने लगीं. घर पर आवाज सुन कर सभी नौकरनौकरानियां मैडम राधिका के कमरे में आ गए. देखा कि मैडम ने गुस्से में मेकअप का सारा सामान जमीन पर फेंक दिया है. ड्रैसिंग का आईना तोड़ दिया है. वे सब डर कर कमरे से बाहर चले गए.

राजन से उसे जितना प्यार था, आज… उस से भी ज्यादा नफरत हो रही थी.

उस के मासूम और खूबसूरत मुखड़े पर परेशानी की लकीरें खिंच गईं. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली.

कभी सोचा न था कि उस का अतीत ऐसे शर्मनाक रूप से वर्तमान में सामने आएगा. उस ने अपना सिर बैड के किनारे पर जोर से दे मारा. वह 2 मर्दों द्वारा छली गई. एक ने उस के वजूद को पैरों तले रौंदा, तो दूसरे ने उस के जिस्म को इस्तेमाल करने का जरीया बनाया. पहले अपने लिए, फिर पैसों के लिए खुद ने भी नोचाखसोटा और दूसरो से भी नुचवा ही रहा है.

आज राधिका शौवर में घंटों खड़े हो कर अपने को भिगोती रही. बरसों से मन पर पड़े मैल की परतों को साबुन से रगड़रगड़ कर साफ करती रही… उसे आईने में अपनेआप को देखने में भी डर लग रहा था.

राधिका ने उस रात अपनेआप को बैडरूम में कैद कर लिया. कितनी बार दरवाजे पर दस्तक हुई. राजन की आवाज आ रही थी, ‘‘जानू, दरवाजा खोलो… मैं तुम्हारा राजन… नींद आ गई होगी… शायद थकी हुई हो.’’

पर कोई आवाज न पा कर राजन ने सोचा, ‘लगता है, वह सो गई है. जब वह सुबह उठेगी, तब बात करूंगा.’

दरवाजे को जोरजोर से खटखटाने से राधिका की नींद टूटी. कब वह सोई, उसे उस का एहसास ही नहीं हुआ. हड़बड़ा कर वह उठी और दरवाजा खोला.

‘‘अरे, रात में कैसे बेसुध सो गई थीं तुम? तुम्हें मेरा भी खयाल नहीं आया? और तुम ने खाना भी नहीं खाया? डिनर के लिए कितना दरवाजा खटखटाया, पर तुम ने दरवाजा खोला ही नहीं…. क्या हुआ मेरी जान?’’

राजन ने राधिका को बांहों में लेने की कोशिश की, तो वह पीछे हट गई. नफरत भरी निगाहों से उसे घूरा, तो हंसते हुए राजन का चेहरा अचानक सफेद सा पड़ गया. उस के हिकारत भरे चेहरे को राजन बखूबी समझ रहा था, इसलिए शर्मिंदा व बौखलाया हुआ सा बगलें झांकने लगा.

तभी सिक्योरिटी गार्ड ने आ कर कहा, ‘‘कोई साहब आए हैं. मैडम को पूछ रहे हैं.’’

(क्रमश:)

 राधिका से मिलने कौन आया था? होटल में किसे देख कर राधिका डर कर भाग आई थी? पढ़िए अगले अंक में…

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