कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 3

‘बंटी के जाने के बाद, बंटी कहां जा रहा है?’ दादी मां ने आश्चर्य से पूछा. ‘बंटी को हम बोर्डिंग में भेज रहे हैं. कुछ दिनों से हम देख रहे हैं कि वह बिगड़ता जा रहा है. वहां रहेगा तो ठीक रहेगा,’ कहते हुए मुकेश ने उसे गोद में उठा लिया.

दादी मां ने विरोध जताते हुए कहा, ‘अभी तो बंटी बहुत छोटा है. इस समय तो उसे मां की गोद और पिता के साए की जरूरत है.’

‘मां, अब  वह समय गया जब सारी जिंदगी बच्चों को मांबाप के साए की जरूरत होती थी. आजकल बच्चों को अपने रास्ते खुद तलाश करने पड़ते हैं, तभी वे जीवन में आगे बढ़ते हैं. बंटी को गोद से उतारते हुए मुकेश ने कहा, ‘आज हमारा बेटा अपने पापा के साथ बाजार जाएगा और ढेर सारे खिलौने खरीदेगा.’

जाने वाले दिन सुबह बंटी दादी से विदा लेने आया था. वह कुछ उदास सा था, यह देख कर दादी का दिल भर आया. वह पोते को ले कर बाहर आ गईं. हरि गाड़ी निकाल चुका था. शालिनी बंटी का सामान रखवा रही थी. मुकेश बोले, ‘मां, हम बंटी को छोड़ कर रात तक वापस आ जाएंगे, तुम अपना ध्यान रखना. मैं ने हरि से कह दिया है कि वह तुम्हारे पास रहेगा.’

दादी मां ने कुछ जवाब नहीं दिया. उन की निगाहें तो बंटी पर लगी थीं, जो जाते वक्त उन से सट कर खड़ा हो गया था. पलकों से आंसू छलकने को थे. उन्होंने बंटी का हाथ पकड़ कर उसे गाड़ी में बैठा दिया. बंटी ने दादी की ओर देख कर नन्ही हथेली से अपने आंसू पोंछे और दादी ने अपने आंसू अपनी पलकों में समेट लिए और कुछ पलों के लिए मुंह फेर लिया.

गाड़ी चल पड़ी. शालिनी और बंटी हाथ हिला रहे थे. जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए, दादी मां देखती रहीं.

बंटी के जाने के बाद उस घर में फिर उन का मन नहीं लगा. शालिनी एवं मुकेश के आने पर उन्होंने अपना फैसला सुना दिया कि अब वह यहां नहीं रहेंगी. रुकने की कोई वजह ही नहीं थी. जिस के लिए वह आई थीं वही नहीं था, तो किस के लिए रुकतीं. उन के जाने का इंतजाम हो गया और वह चली गईं. शालिनी ने भी राहत की सांस ली.

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शालिनी के आफिस की मीटिंग सिंगापुर में थी. कंपनी की तरफ से कुछ लोगों का चुनाव किया गया. जिन्हें भेजा जाना था उन में शालिनी का भी नाम था. उस दिन वह बेहद खुश थी. यह बात वह मुकेश को बताना चाहती थी पर मुलाकात ही नहीं हो रही थी. मुकेश भी आजकल बेहद व्यस्त थे. रात में कब आते पता ही नहीं चलता. सुबह जब वह उठते तो शालिनी जा चुकी होती. एक सप्ताह ऐसे ही निकल गया. उस दिन रविवार था. दोनों एकसाथ सो कर उठे. चाय पीते वक्त शालिनी बोली, ‘मुकेश, हमारे आफिस से एक टूर सिंगापुर जा रहा है. उस में मेरा भी नाम है.’

मुकेश को अच्छा नहीं लगा. वह बोले, ‘शालिनी, तुम शायद भूल गई हो. बंटी के पेपर खत्म होने वाले हैं और हमें उसे लेने जाना है.’

‘बंटी को तुम ले आना. वह हरि के साथ रह लेगा. मैं इतना अच्छा मौका नहीं छोड़ सकती. अगर कंपनी को फायदा होता है तो समझो मेरा प्रमोशन पक्का है,’ कह कर वह उठ खड़ी हुई.

मुकेश अकेले ही गए और बंटी को ले आए पर बंटी के आने के पहले शालिनी जा चुकी थी. बंटी हरि के साथ अपना वक्त बिताता. उस दौरान मुकेश भी बहुत व्यस्त थे.

शाम को बहुत तेज बारिश हो रही थी. बंटी बरामदे में बौल खेल रहा था. हरि घर पर नहीं था. बारबार वह बौल में जोर से किक मारता, बौल बाहर जाती तो वह उठाने दौड़ पड़ता. जब तक हरि आया तब तक बंटी पूरा भीग चुका था. हरि को लगा कहीं बंटी बीमार न हो जाए तो फौरन ही उस के कपड़े बदलवा दिए. तब भी बंटी को जुकाम हो गया था. मुकेश जब आफिस से लौटै तो वह सो चुका था. दूसरे दिन बंटी को होस्टल जाना था. हरि ने उस की सारी तैयारी कर दी. वैसे भी हर बार यह काम उस के जिम्मे ही रहता था.

मुकेश बंटी को भेज कर लौटे तो काफी रात हो गई थी. वह बहुत थक गए क्योंकि बारिश के कारण रास्ता खराब हो गया था. दूसरे दिन आफिस जाने के समय उन के मोबाइल पर रिंग आई, ‘बंटी को कल से तेज बुखार है,’ बंटी के होस्टल से मैनेजर मि. राय का फोन था.

‘मैनेजर साहब, आप जानते हैं कि मैं कल रात को उसे छोड़ कर वापस आया हूं. इतनी जल्दी मैं दोबारा कैसे आ सकता हूं?’

‘जैसा आप ठीक समझें मि. मलहोत्रा, आप को सूचित करना हमारा फर्ज था. वैसे मैं ने डाक्टर को दिखा दिया है, उन्होंने दवा दे दी है. उसे वायरल फीवर है, 2-4 दिन में ठीक हो जाएगा.’

मुकेश के बिना पूछे ही बता कर फोन काट दिया. वायरल फीवर होने की बात सुन उन्हें राहत मिल गई थी. इस में 2-3 दिन में आराम हो जाता है. आफिस जाने के पहले होस्टल के मैनेजर के नाम एक चेक भेज दिया.

जैसेजैसे बंटी बड़ा होता गया उस का घर आना धीरेधीरे कम होता गया था. इस बार आया तो मोबाइल का टूथ इयर पीस पूरे समय कान में लगाए रहता या कंप्यूटर के आगे बैठा घंटों चैटिंग करता रहता. मुकेश और शालिनी के होने न होने का उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. अपने में ही मस्त रहता. जब जितने पैसे की जरूरत होती अपने मम्मीपापा को बता देता. उसे पैसे मिल जाते.

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स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही उच्च शिक्षा के लिए बंटी ने आस्ट्रेलिया जाने का फैसला किया. 4 साल बाद वह वहीं नौकरी भी करने लगा. मुकेश शालिनी का बहुत मन था कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले एक बार वह इंडिया आ जाता पर वह नहीं आया. हां, यह जरूर कहता था कि मैं आप लोगों को यहां बुलाना चाहता हूं. कुछ दिन यहां रहना, बहुत मजा आएगा.

अपने ही अतीत के बारे में सोचतेसोचते मुकेश कब सो गए उन्हें पता ही नहीं चला. शाम गहराने लगी ?आसमान में कालेकाले बादल छाने से मौसम कुछ अच्छा था, सो शालिनी ने बाहर बरामदे में नौकर से चेयर लगवा ली थी. फिर पुराने अलबम उठा कर ले आई और खोलखोल कर मुकेश को दिखाने लगी. नौकरी में थे तो कभी इतनी फुरसत ही नहीं मिली कि बैठ कर फोटो देखते.

अपने विवाह की तसवीरें, नन्हे बंटी की तस्वीरें देखतेदेखते बहुत देर हो गई तो दोनों भीतर आ गए. नौकर ने पूछा, ‘साहब, खाना लगा दूं?’ तो मुकेश बोले, ‘बंटी का फोन आने वाला है. उस से बात करने के बाद हम खाना खाएंगे.’ इस के बाद तो देर तक दोनों बंटी के फोन का इंतजार करते रहे पर फोन नहीं आया. तभी शालिनी को याद आया कि हो सकता है कि बेटे ने मेल किया हो. बहुत दिन से चैक नहीं किया. मेल बाक्स में गई तो देखा बंटी का छोटा सा नोट था.’

‘‘हाय मौम, डैड, आई एम वेरी बिजी, सो आई एम नाट कमिंग, आई एम सेंडिंग यू द चेक.’’

बंटी का लैटर पढ़ कर शालिनी सन्न खड़ी रह गई थी. लगा, इतने दिनों से वह एक भ्रम में जी रही थी. भ्रम में जीवन जिया जा सकता है पर उस के टूटने का आघात झेलना कितना मुश्किल होता है यह आज महसूस हुआ.

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डाक्टर का सख्त निर्देश था कि ऐसी कोई भी बात नहीं होनी चाहिए जिस से मुकेश को सदमा पहुंचे. यह सोच कर फीकी सी हंसी उस के चेहरे पर आ गई. यही तो माडर्न युग की त्रासदी है. पहले संयुक्त परिवार होते थे, कई बच्चे होते थे. उन में से 1-2 पढ़ने या कमाने बाहर निकल भी गए तो घर खाली नहीं होता था. अकेलापन छू भी नहीं पाता था, पर एकल परिवार संस्कृति की वजह से आज जीवन संध्या व्यतीत करने वाले प्राय: हर परिवार के दरवाजे पर अकेलापन देखने को मिलता है.

कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 1

चारों ओर पानी और गहन अंधकार फैला है. तभी पानी का तेज रेला आया और शालिनी का हाथ उन के हाथ से छूट गया. घबराहट से वह पसीनेपसीने हो गए. चीखने की कोशिश की पर आवाज जैसे गले में फंस गई थी, ऐसा महसूस कर के अपने सीने में उन्होंने तेज दबाव महसूस किया, फिर असहनीय दर्द, साथ ही नींद खुल गई. वह बुरी तरह से तड़फने लगे, बहुत भयंकर स्वप्न देखा था.

उन की हरकत से बगल में सोई शालिनी की नींद खुल गई. देखा तो सीने पर हाथ रखे मुकेश कराह रहे हैं. अपने पारिवारिक डाक्टर को शालिनी ने फोन लगाया. उस समय डाक्टर नर्सिंग होम में थे. वह बोले, ‘‘मुकेश को फौरन यहां ले आओ.’’

शालिनी ने बरामदे में सोए हरि को जोर से पुकारा. मालकिन की घबराई हुई आवाज सुन कर वह भागाभागा आया.

‘‘हरि, तुम जल्दी से गाड़ी निकालो, मैं साहब को ले कर आती हूं,’’ कह कर शालिनी मुकेश को उठाने की कोशिश में लगी. समय की गंभीरता समझ हरि जैसे आया था उन्हीं पैरों से वापस लौट कर चला गया और गाड़ी निकालने लगा.

डा. खन्ना ने मुकेश को आई.सी.यू. में एडमिट कर लिया. पूरे स्टाफ में हलचल मच गई. तत्काल सारी चिकित्सा सुविधाएं मिल गईं. पास खड़ी शालिनी का घबराहट के कारण बुरा हाल था, काफी देर बाद स्थिति काबू में आई. मुकेश खतरे से बाहर हैं, यह जान कर शालिनी ने राहत की सांस ली. 4 दिन अस्पताल में रहने के बाद डिस्चार्ज के समय डाक्टर ने शालिनी को समझाते हुए कहा, ‘‘मुकेश को माइनर अटैक आया था. दूसरा झटका जानलेवा सिद्ध हो सकता है इसलिए भविष्य में बहुत सावधानी रखने की जरूरत है.’’

घर आ कर भी मुकेश आंखें बंद किए शांत बैठे रहे. शालिनी ने गौर से उन की ओर देखा. इन 4 दिनों में वह कितने झटक गए हैं, जैसे महीनों से बीमार रहे हों. डाक्टर की सलाह के मुताबिक चलना बेहद जरूरी है.

नहा कर शालिनी सीधे रसोई में आ कर नाश्ता तैयार करने लगी. बहुत दिनों के बाद आज वह रसोई में आई थी. हरि को आवाज दी और उस की मदद से नाश्ता तैयार करने लगी. कई वर्षों से हरि इस घर में था और घर के सारे काम वही संभालता था. उस की मदद के बिना घर का एक पत्ता भी नहीं हिलता था. शालिनी और मुकेश प्राय: हर काम के लिए उस पर आश्रित थे.

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नाश्ता ले कर शालिनी मुकेश के पास आ गई. पलंग के सिरहाने तकिए का सहारा ले कर वह आंखें बंद कर बैठे थे. शालिनी ने मेज पर नाश्ता रखा तो आहट से उन्होंने अपनी आंखें खोलीं और बोले, ‘‘शालिनी, आज मेरा बंटी से बात करने का बहुत मन कर रहा है.’’

‘‘मुकेश, मैं कई बार कोशिश कर चुकी पर फोन लगता ही नहीं है. वैसे मुझे लगता है कि वह खुद ही फोन करेगा. मैं ने उसे आने को कहा है. हो सकता है आने की सोच रहा हो,’’ दलिया में चीनी डालते हुए शालिनी ने कहा तो बंटी के आने की कल्पना से ही दोनों खुश हो गए.

बंटी को आस्ट्रेलिया में रहते 4 साल हो गए हैं. जब से वह गया उस का आना ही नहीं हुआ, पहले पढ़ाई के कारण और उस के बाद नौकरी के कारण. मुकेश की तबीयत के बारे में तो उसी दिन शालिनी ने अस्पताल ले जाते वक्त बता दिया था. दोनों को उम्मीद थी कि अब आए बिना कैसे रहेगा.

नैपकिन मुकेश की गोद में डाल कर शालिनी ने दलिया का कटोरा हाथ में पकड़ाया तो उन्होंने बच्चे की तरह बुरा सा मुंह बनाया. शालिनी बोली, ‘‘दवाइयों के कारण तुम्हारे मुंह का स्वाद बिगड़ गया है पर दवाइयां खानी हैं तो नाश्ता करना पडे़गा,’’ और इसी के साथ चम्मच से उन्हें खुद खिलाने लगी.

मुकेश नाश्ता कर दवा ले कर सो गए तो शालिनी उन के पास बैठेबैठे अतीत की गलियों में खो गई. उसे लगा कि मुकेश की इस हालत के लिए बहुत कुछ दोष खुद उस का ही था.

उसे किचन में जाना बिलकुल पसंद नहीं था. बहुत मजबूरी होती तभी वह किचन में कदम रखती. कभी मुकेश किसी खास खाने की फरमाइश करते तो वह कहती, ‘हम जैसे लोगों की सुविधा के लिए ही तो बडे़ होटल खुल रहे हैं, जिन के पास समय की कमी है, होटल में आर्डर दो और खाना हाजिर.’ इस से एक तो पसंद का खाना मिल जाता, दूसरे, किचन में सामान नहीं फैलता. ड्राइंगरूम में बैठ कर खाना खा लो, उस के बाद कचरा सीधे डस्टबिन में.

मुकेश एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी से रिटायर  हुए थे. अपनी मेहनत से वह कंपनी में बडे़ ओहदे तक पहुंचे थे. आज उन के पास वह सबकुछ था जिस की कामना कर उन्होंने नौकरी शुरू की थी. अच्छा बैंक बैलेंस, बडे़ शहर में खुद का बड़ा सा बंगला, कदम से कदम मिला कर चलने वाली पत्नी, विदेश में नौकरी कर रहा बेटा…सबकुछ तो था, पर पता नहीं क्यों इतना सब होते हुए भी उन की जिंदगी में एक सूनापन अपनी जगह बनाता जा रहा है.

नौकरी में थे तो व्यस्तता की वजह से सामाजिक संबंध बनाने की न कभी जरूरत महसूस हुई और न कभी समय मिला. कभीकभी मन में विचार आते, इस से अच्छी जिंदगी तो पिताजी की थी. जब तक वह जिंदा रहे लोगों की महफिलें घर में सजी रहीं.

मुकेश के पिता निखिलेशजी बहुत बडे़ सामाजिक कार्यकर्त्ता और जनप्रतिनिधि थे. खानदानी दौलत के साथसाथ ईमानदारी की दौलत भी उन्हें विरासत में मिली थी. समाज में मानसम्मान भी बहुत था. मां लता सरल सहज स्वभाव की विदुषी महिला थीं. छोटा भाई दिनेश कालिज की पढ़ाई के साथसाथ पिता के नक्शेकदम पर चल कर राजनीति की दुनिया में प्रवेश कर चुका था.

मुकेश राजनीति की दुनिया से सैकड़ों कदम दूर रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने में लगे थे. परिवार से दूर रह कर उन की शिक्षा हुई थी. फिर दिल्ली में ही एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी शुरू कर अपने कैरियर की ऊंचाई पाने के लिए जीजान से जुट गए.

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विवाह की उम्र हुई तो मातापिता ने विवाह के लिए जोर डालना शुरू कर दिया. मुकेश का सोचना था कि अगर मैं ने परिवार वालों की इच्छा से शादी की तो जिंदगी की वे ऊंचाइयां हासिल नहीं कर सकूंगा, जिन की चाहत है. निखिलजी और लता ये बात जानते थे इसलिए उसे अपनी पसंद की लड़की से शादी करने की छूट मिल गई.

मुकेश ने अपने दोस्त विनोद से इस मामले में राय ली तो सब से पहले उस ने सवाल किया कि क्या तुम ने कोई लड़की पसंद की है? मुकेश ने भोलेपन से नहीं में जवाब दिया तो वह खिलखिला कर हंस पड़ा और बोला, ‘लगता है यह काम भी मुझे ही करना पडे़गा.’

दूसरे दिन विनोद ने मुकेश को अपने आफिस बुलाया. लंच में वह वहां पहुंच गया. पहुंचते ही विनोद ने उस का परिचय अपने नजदीक खड़ी शालिनी से कराया. गोरीछरहरी काया की स्वामिनी शालिनी पहली नजर में  मुकेश को भा गई. उसे लगा, जिस लड़की की उसे वर्षों से तलाश थी वह यही है. विनोद उस के परिवार वालों को अच्छी तरह से जानता था. उस ने मध्यस्थता का काम कर दोनों परिवारों को मिला कर विवाह तय करवा दिया.

विवाह के पहले शालिनी की मां के मन में मुकेश के परिवार को ले कर एक दुविधा थी कि जहां पूरा परिवार परंपरावादी है वहां आधुनिक सुखसुविधाओं में पली उन की बेटी शालिनी निभा पाएगी या नहीं, पर मुकेश से मिल कर उन की सारी शंकाएं मिट गईं. मुकेश पढ़ाई के सिलसिले से प्राय: घर से बाहर ही रहे थे. महत्त्वाकांक्षी विचारों वाले खूबसूरत व्यक्तित्व के धनी मुकेश ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. उन्हें वह हर दृष्टि से शालिनी के अनुरूप लगे. धूमधाम से विवाह संपन्न हो गया. घर में पहली शादी होने की वजह से बहुत मेहमान जमा हुए थे. अखिलेशजी ने सभी को विशेष आग्रह कर के बुलाया था. कितने दिनों के बाद घर में खुशी का मौका आया तो सभी बेहद खुश थे.

दूर के रिश्तेदारों की विदाई होने के बाद अब केवल खास मेहमान बचे थे. विवाह के 5वें दिन सुबहसुबह लता नाश्ते की व्यवस्था करने किचन में गईं तो देख कर आश्चर्य में पड़ गईं. उन्होंने देखा कि नहाधो कर तैयार नई बहू गैस के पास खड़ी थी. नवेली दुलहन इस समय यहां क्या कर रही है और कपडे़ भी इस तरह के पहने हैं जैसे कहीं जा रही हो. उन्होंने पूछा, ‘तुम यहां क्या कर रही हो, बहू? अभी तो तुम्हारा रसोई प्रवेश का दस्तूर भी नहीं हुआ. रामू से कह देतीं, वह नाश्ता तैयार कर देता.’

‘मैं आज आफिस जा रही हूं,’ शालिनी की आवाज में कुछ रुखाई थी.

‘पर आज से ही, अभी तो घर मेें मेहमान हैं, वे सब क्या कहेंगे,’ लता ने समझाने का प्रयास किया.

‘मैं घर में बोर हो जाती हूं, मांजी, फिर आफिस में जरूरी मीटिंग भी है, इसलिए मेरा जाना जरूरी है,’ कहते हुए अपना सैंडविच और काफी का मग उठा कर शालिनी वहां से चली गई.

अखिलेशजी को पता चला तो उन्हें अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह चुप रहे पर शाम को उन्होंने शालिनी को अपने पास बुलाया और प्यार से समझाया तो वह बोली, ‘पापा, मैं ने मुकेश के साथ शादी इस शर्त पर की थी कि बाद में नौकरी नहीं छोडूंगी.’

‘मैं नौकरी करने के लिए मना नहीं कर रहा हूं पर इस घर के कुछ नियमकानून हैं और उन का पालन करना सभी सदस्यों के लिए जरूरी है,’ उन्होंने कुछ कठोरता से कहा तो शालिनी वहां से चली गई.

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चंद दिनों में ही उन लोगों को पता चल गया था कि बहू अपनी मनमर्जी से चलने वाली आजाद  खयालों की लड़की है. किसी भी तरह की रोकटोक उसे पसंद नहीं है और यहां का माहौल उसे रास नहीं आएगा. जल्दी ही शालिनी के पैर भारी हो गए तो वह और भी परेशान हो गई. वह कुछ दिन के लिए मायके आ गई. अपनी गर्भावस्था के ज्यादातर दिन उस ने वहीं गुजारे. डिलीवरी होने के बाद बच्चे को ले कर शालिनी ससुराल आई तो पहला पोता होने की वजह से कई दिन तक खुशियां मनाई गईं.

उन्हीं दिनों मुकेश का ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गया तो शालिनी की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अपना ट्रांसफर भी चंडीगढ़ करवा लिया और पति के साथ आ गई. दादादादी की पोता खिलाने की साध अधूरी ही रह गई…पर क्या करते.

ट्रस्ट एक प्रयास :भाग 3

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

‘‘बिलकुल, तभी तो तुम ने मुझ से कल की सारी बातें छिपाईं,’’ उन के दुखी स्वर से मैं और दुखी थी.

‘‘मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी. बस, इसलिए मैं ने आप को कुछ नहीं बताया,’’ मैं रो पड़ी.

‘‘नैना, मैं पराया नहीं हूं, तुम्हारा अपना…’’ वह आगे नहीं बोल पाए. मैं उन के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी थी.

कुछ ही दिन बाद…

‘‘नैना, तैयार रहना, आज कहीं खास जगह चलना है, ठीक 5 बजे,’’ कह कर आलोक ने फोन रख दिया. मैं ने घड़ी देखी तो 4 बज रहे थे.

मैं धीरेधीरे तैयार होने लगी. अपनी शक्ल शीशे में देखी तो चौंक गई. लग ही नहीं रहा था कि मेरा चेहरा है. गुलाबी रंगत गायब हो गई थी. आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे. कितने ही दिनों से खुद को शीशे में देखा ही नहीं था. सारा दिन भाइयों की बातें ध्यान में आती रहतीं. भाइयों का तो दुख था ही उस पर बाऊजी से मिल न पाने का गम भीतर ही भीतर दीमक की तरह मुझे खोखला करता जा रहा था.

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आलोक दुखी न हों इसलिए उन से कुछ न कह कर मैं अपना सारा दुख डायरी में लिखती जा रही थी. बचपन से ही मुझे डायरी लिखने का शौक था. पता नहीं अब शादी से पहले की डायरी किस कोने में पड़ी मेरी तरह जारजार आंसू बहाती होगी. शादी के बाद वह डायरी बाऊजी के पास ही रह गई थी.

‘‘आलोक, हम कहां जा रहे हैं?’’ मैं आलोक के साथ कार में बैठी हुई थी.

‘‘बस, नैना, कुछ देर और फिर सब पता चल जाएगा,’’ आलोक हंस कर बोले.

कार धीरेधीरे शहर से बाहर लेकिन एक खुली जगह पर जा रुकी. मैं हैरानपरेशान कार में बैठी रही. समझ नहीं पा रही थी कि आखिर आलोक चाहते क्या हैं. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि सामने खड़ी कार से जिस व्यक्ति को उतरते देखा तो उन्हें देख कर मैं एकदम चौंक पड़ी. मुझ से रहा न गया और मैं भी कार से बाहर आ गई.

‘‘आओ, नैना बिटिया,’’ वर्मा चाचाजी बोले.

‘‘नमस्ते, चाचाजी, आप यहां?’’

‘‘हां, बेटी, अब तो यहां आना लगा ही रहेगा.’’

‘‘आलोक, प्लीज, क्या छिपा रहे हैं आप लोग मुझ से?’’

‘‘नैना, क्या छिपाने का हक सिर्फ तुम्हें ही है, मुझे नहीं.’’

‘‘आलोक, मैं ने आप से क्या छिपाया है?’’ मैं हैरान थी.

‘‘अपना दुख, अपने जज्बात, छिपाए या नहीं वह तो अलमारी में रखी तुम्हारी डायरी पढ़ ली वरना तुम्हारा चेहरा तो वैसे ही सारा हाल बता रहा है. तुम ने क्या सोचा, मुझे कुछ खबर नहीं है?’’

नजरें नीची किए मैं किसी अपराधी की तरह खड़ी रही लेकिन यह समझ अभी भी नहीं आया था कि यहां क्या यही सब कहने के लिए लाए हैं.

‘‘आलोक, बेटा, अब नैना को और परेशान मत करो और सचाई बता ही डालो.’’

‘‘नैना, यह जमीन का टुकड़ा, जहां हम खडे़ हैं, अब से तुम्हारा है.’’

‘‘लेकिन, आलोक, हमारे पास तो अच्छाखासा मकान है, फिर यह सब?’’

‘‘नैना, यह जमीन तुम्हारे बाऊजी ने दी है,’’ चाचाजी भावुक हो कर बोले और फिर बताते चले गए, ‘‘हरिश्चंद्र (बाऊजी) को तुम्हारे विवाह से बहुत पहले ही यह आभास होने लगा था कि बहुओं ने तुम्हें दिल से कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कई साल पहले यह प्लाट बुक किया था जिस की भनक उन्होंने किसी को भी नहीं लगने दी. उन्होंने अपने प्लाट और फिक्स्ड डिपोजिट की नामिनी तुम्हें बनाया था. जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मुझे सब कागजात दे दिए और तुम्हें देने के लिए कहा. क्या पता था कि वह अचानक हमें यों छोड़ जाएंगे. मैं ने आलोक को वे सब कागजात, एक डायरी और तसवीरें, जो तुम्हारे बाऊजी ने तुम्हें देने को बोला था, क्रिया के बाद भिजवा दीं. आगे आलोक तुम्हें बताएगा.’’

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मैं ने प्रश्नसूचक नजरों से आलोक को देखा, ‘‘नैना, याद है जब तुम रजिस्ट्रार आफिस से लौटी थीं तो मैं ने एक पैकेट की बात की थी. लेकिन तुम ने ध्यान नहीं दिया तो उत्सुकतावश मैं ने खोल लिया था, जानती हो उस में क्या था, प्लाट के कागजात के अलावा… तुम्हारी शादी से पहले की डायरी…

‘‘मैं नहीं जानता था कि तुम बचपन से ही इतनी भावुक थीं. उस मेें तुम ने एक सपने का जिक्र किया था. बस, वही सपना पूरा करने का मैं ने एक छोटा सा प्रयास किया है.’’

आलोक और भी पता नहीं क्याक्या बताते चले गए. मेरी आंखों से आंसू बह निकले. लेकिन आज आंसू खुशी के थे, इस एहसास से भरे हुए थे कि मेरा वह सपना जो मैं ने बाऊजी की लिखी हुई एक कहानी ‘ट्रस्ट : एक छोटा सा प्रयास’ से संजोया था, सच बन कर, एक हकीकत बन कर मेरे सामने खड़ा हुआ है.

उन की उस कहानी का नायक अपना सारा जीवन समाजसेवा में लगा देता है. वह एक ऐसे ट्रस्ट का निर्माण करता है जिस का उद्देश्य अपंग और अपनों से ठुकराए, बेबस, लाचार, बेसहारा लोगों की मदद करना होता है. लेकिन मदद के नाम पर केवल रोटी, कपड़ा या आश्रय देना ही उस का उद्देश्य नहीं होता, वह उन में स्वाभिमान भी जागृत करना चाहता है.

बाऊजी से मुझे क्या नहीं मिला. अच्छी परवरिश, अच्छी शिक्षा, संस्कार, प्यार, आत्मविश्वास और अब एक अच्छे जीवनसाथी का साथ.

चाचाजी ने बताया कि आलोक ने अपनी तरफ से भी बहुत बड़ी रकम ट्रस्ट के लिए दी है. वह चाहते तो प्लाट या बैंक के पैसे अपने इस्तेमाल में ले लेते लेकिन मेरा दुख देख उन्होंने इस कार्य को अंजाम दिया.

‘‘आलोक, आप एक अच्छे जीवनसाथी हैं यह तो मैं जानती थी लेकिन इतने अच्छे इनसान भी हैं, यह आज पता चला.’’

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‘‘अब यह तुम्हारा नहीं हमारा सपना है,’’ आलोक ने कहा, ‘‘हम अपने चेरिटेबल ट्रस्ट का नाम ‘प्रयास’ रखेंगे. कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा और सटीक लगा यह नाम,’’ नैना बोली, ‘‘सच ही तो है, जरूरतमंदों की मदद के लिए जितना भी प्रयास किया जाए कम होता है.’’

ट्रस्ट का एक मतलब जहां विश्वास होता है तो दूसरा मतलब अब हमारी जिंदगी का उद्देश्य बन चुका था. यानी कि मानव सेवा. जैसेजैसे हम इस उद्देश्य के निकट पहुंचते गए वैसेवैसे ही मेरे भीतर के दुख दूर होते गए.

आज भी मां और बाऊजी की तसवीरें ‘प्रयास’ के आफिस में हमें आशीर्वाद देती प्रतीत होती हैं. उन दोनों ने मुझे अपनाया और एक पहचान दी. वे दोनों ही मेरे परिवार और मेरी नजरों में अमर हैं. वे हमारे दिलोें में सदा जीवित रहेंगे. मैं, आलोक और मेरी दोनों बेटियां, आन्या और पाखी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं हर दिन, हर पल लेकिन फूलों से नहीं बल्कि ट्रस्ट  ‘प्रयास’ के रूप में.

ट्रस्ट एक प्रयास : भाग 1

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

हम सब अपनीअपनी जिंदगी में कितने ही सपने देखते हैं. कुछ टूटते हैं तो कुछ पूरे भी हो जाते हैं. बस, जरूरत है तो मात्र ‘प्रयास’ की. कई बार सिर्फ एक शब्द जिंदगी के माने बदल देता है. मेरी जिंदगी में भी एक शब्द ‘ट्रस्ट’ ने जहां मेरा दिल तोड़ा वहीं उसी शब्द ने मेरे सब से खूबसूरत सपने को भी साकार किया.

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

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मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

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खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

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बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

ट्रस्ट एक प्रयास : भाग 2

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

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मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

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कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

ट्रस्ट एक प्रयास

प्रोजैक्ट-भाग 3: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

2-3 पैग पीने के बाद रंजीत ने कहा, ‘इस शहर में किसी चीज की जरूरत हो, तो मुझे बताइएगा. आप की हर ख्वाहिश पूरी होगी. और फिर उसी ने हमें बताया कि समीर की पत्नी शालिनी का चालचलन कुछ ठीक नहीं है. काम के बोझ के चलते वह अपनी बीवी को पूरा वक्त नहीं दे पाता, औफिस में भी ओवरटाइम करता है. और उधर इस के घर में हर रोज नएनए लोगों का आनाजाना लगा रहता है. इस बारे में समीर को जरा भी खबर नहीं है. एकदो बार तो मैं भी जा चुका हूं. आप का भी अगर मूड हो तो बताइएगा.‘

फिर दूसरा अफसर अपनी सफाई में बोला, ‘हम उस की बातों में आ गए और अगले दिन औफिस में समीर का प्रोजैक्ट सलैक्ट करने के बाद जब हम अपने रूम में आए, तो हमारे पीछेपीछे रंजीत भी 2 व्हिस्की की बोतल ले कर रूम में आ गया. और जब हम पीने बैठे तो उस ने बातोंबातों में कहा, ‘समीर दोपहर 3 बजे की ट्रेन से नोएडा जा रहा है, इस से अच्छा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा, मैं तुम दोनों को उस के घर तक छोड़ दूंगा. और समीर के जाने के बाद शालिनी को भी तो अपने घर आने वाले खास मेहमानों का इंतजार रहेगा ही न,‘ कहते हुए उसी ने हमें समीर के घर तक अपनी गाड़ी से छोड़ा.

अब तक उन दोनों की बातों से सबकुछ स्पष्ट हो गया. उन की बातें सुन कर समीर का खून खौलने लगा था, तभी बौस बोले, ‘रंजीत ने समीर के साथ ऐसा क्यों किया? वह तो औफिस में इस का सीनियर है.‘

‘असली प्रोब्लम ही यही है सर कि वह मेरा सीनियर है, फिर भी पिछले 3 सालों से हर साल कंपनी से आने वाले अफसरों ने आज तक उस का कोई प्रोजैक्ट सलैक्ट नहीं किया. और इस बार आप ने यह काम मुझे सौंप दिया, तो उस ने इसे अपनी तौहीन समझते हुए मुझ से बदला लेने के लिए यह सब खेल खेला,‘ बौस की बात काटते हुए समीर ने अपना पक्ष रखा, तो बौस की आंखों के आगे जो भी धुंधला था सब साफ हो गया.

बौस ने पुलिस को रंजीत पर कड़ी कार्यवाही करने के निर्देश दिए और उन दोनों अफसरों की शिकायत कंपनी के हैड औफिस में कर दी, जिस के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

अपने आसपास के लोगों से भी हमें उतना ही सचेत रहने की आवश्यकता है, जितना अनजान अजनबियों से. शायद, यह बात अब शालिनी और समीर दोनों की समझ आ चुकी थी.

प्रोजैक्ट-भाग 2: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शाम 4 बजे के आसपास शालिनी किचन में चाय बना रही थी कि डोरबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा, तो वह भौचक्की रह गई. सामने वही 2 अफसर खड़े थे, जो थिएटर में समीर के बौस के साथ मौजूद थे. उन्हें हिलते हुए देख शालिनी को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि वे दोनों शराब के नशे में हैं. वह तो उन्हें बाहर से ही रवाना करने वाली थी, लेकिन वे अंदर आ गए तो उस ने उन्हें अनमने मन से बैठने की कह कर खुद किचन में चली गई.

जब शालिनी चाय ले कर आई, तो उन्हें चाय का कप पकड़ाते हुए पूछा, ‘समीर ने बताया नहीं कि आप आने वाले हो, और आप ने घर कैसे पहचान लिया? आप तो किसी दूसरे शहर ‘दरअसल, उस दिन हम लोग थिएटर से लौटते समय इसी रास्ते से हो कर गए थे, तो बौस ने ही हमें बताया था कि यह समीर का घर है. बस इसीलिए इधर से गुजरते हुए सोचा कि आप को बधाई देते चलें,‘ एक अफसर बोला.

‘वैसे, आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जो आप ने समीर के प्रोजैक्ट को सलैक्ट किया. बहुत मेहनत की है उस ने इस पर,‘ शालिनी उन का अहसान जताते हुए बोली.‘अजी सलैक्ट तो उसी दिन कर लिया था जब आप को थिएटर में पहली दफा देखा था,‘ दूसरा अफसर बोला.

‘क्या मतलब…?‘ शालिनी तपाक से बोली‘जी, सच कहा है. जिसे ले कर वह गया है, वह तो कंपनी का प्रोजैक्ट है, लेकिन हमारा प्रोजैक्ट तो आप ही हो न भाभीजी,‘ कहते हुए उस ने शालिनी के हाथ पर झपट्टा मारा.

अब तक शालिनी उन की मंशा अच्छी तरह समझ चुकी थी. उस ने झटक कर अपना हाथ छुड़ाया और सीधे बाहर की ओर भागी. वे लड़खड़ाते हुए दरवाजे तक पहुंचे, तब तक शालिनी ने बाहर की कुंडी लगा कर उन्हें घर में बंद कर दिया.

बाहर निकल कर शालिनी ने मदद के लिए दाएंबाएं देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया. मोबाइल भी घर के अंदर छूट गया. तभी उसे सामने से एक आटोरिकशा आता दिखा, वह उस ओर दौड़ी. आटोरिकशा जब उस के पास आ कर रुका, तो वह भौंचक्की रह गई. उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन ये सच था.

उस आटोरिकशा में समीर ही बैठा हुआ था. शालिनी को इस हालत में देख समीर कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है. शालिनी ने उसे सारी बात बताई और उस के वापस लौट आने की वजह भी पूछी, तो समीर ने कहा, ‘स्टेशन पहुंचने पर मुझे मालूम चला कि गाड़ी 3 घंटे देरी से चल रही है, इसीलिए सोचा कि यहां भीड़भाड़ में रहने से अच्छा है, घर पर ही आराम किया जाए. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है,‘ कह कर उस ने मोबाइल निकाला और अपने बौस को फोन लगा कर इस पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया.

‘तुम लोग बाहर ही रुके रहो समीर, मैं जल्दी ही वहां पहुंचता हूं,’ कह कर बौस ने फोन रखा. उधर वे दोनों अफसर भद्दी गालियां देते हुए अंदर से लगातार दरवाजा पीट रहे थे. कुछ देर बाद सामने से बौस की कार आती दिखाई दी. पीछेपीछे पुलिस की जीप भी आ रही थी.

जब कार पास आ कर रुकी, तो बाहर निकल कर बौस ने कहा, ‘घबराओ मत समीर. ऐसे लोगों की अक्ल ठिकाने लगाना मुझे अच्छे से आता है. ये लोग समझते हैं कि अनजान शहर में हम कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के पर मुझे अच्छे से काटने आते हैं. पुलिस को मैं ने ही फोन किया है.’

पुलिस की जीप आ कर रुकी, तो झट से 4-5 पुलिस वाले बाहर निकले. समीर ने अपने घर की ओर इशारा किया, जिस में से उन दोनों अफसरों की भद्दी गालियों की आवाज आ रही थी. पुलिस ने दरवाजा खोला और उन दोनों को वहीं पर ही दबोच लिया और ले जा कर जीप में बिठाया.

बौस ने समीर से कहा, ‘शालिनी बेटी ने एक काम तो अच्छा किया कि इन्हें घर में बंद कर दिया, वरना आज अगर ये भाग जाते तो इन को पकड़ पाना थोड़ा मुश्किल होता, क्योंकि आज रात 9 बजे की फ्लाइट से ये दोनों मुंबई जाने वाले थे.‘

बौस ने आगे कहा, ‘दरअसल, गलती मेरी ही है, उस दिन थिएटर से लौटते  वक्त हम लोग इधर से गुजर रहे थे, तो मैं ने यों ही इन्हें कह दिया था कि हमारे औफिस में आप के सामने जो अपना प्रोजैक्ट पेश करेगा, उस समीर का घर यही है. लेकिन मुझे क्या पता था कि ये लोग शराब के नशे में अपना विवेक भूल कर ऐसी नीच हरकत कर बैठेंगे. इन्हें सिर्फ पुलिस को सौंपने से कुछ नहीं होगा. जब तक दोनों को नौकरी से न निकलवा दूं, मैं चैन की सांस नहीं लेने वाला. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है.

‘तुम लोग आओ, मेरी गाड़ी में बैठो. थाने चल कर शालिनी के बयान दर्ज करवाने हैं.‘

शालिनी और समीर दोनों कार में बैठे. बौस ने कार स्टार्ट कर आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘इन का तो अभी काम हो जाएगा, रही बात तुम्हारे प्रोजैक्ट की तो उस पर की गई तुम्हारी मेहनत मैं बेकार नहीं जाने दूंगा. उस के लिए मैं कंपनी से बात कर लूंगा. तुम थोड़ा धैर्य रखो. इन दोनों की तो शिकायत कर कंपनी से निकलवाऊंगा. साथ ही, इस प्रोजैक्ट के लिए अगले महीने की तारीख तय करने की कोशिश करूंगा.

‘और इस बार जाते वक्त शालिनी को भी साथ लेते जाना. यह भी घूम आएगी तुम्हारे साथ. वहां मीटिंग में बस 2-3 घंटे का ही काम होता है. फिर ऐश करना तुम लोग,‘ बौस ने यह कहा, तो शालिनी और समीर दोनों के चेहरे एक लंबी सी मुसकान ने दस्तक दे दी.

बौस ने गाड़ी को ब्रेक लगाया. पुलिस स्टेशन आ चुका था और पीछेपीछे पुलिस की वह जीप भी आ गई थी, जिस में वे दोनों अफसर मौजूद थे जो कि लाख मना करने के बावजूद शराब के नशे में ऊलजलूल बके जा रहे थे. उन की हरकत और मामले की गंभीरता को देखते हुए उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया गया.

‘फिलहाल तो ये दोनों अभी नशे में हैं. कल सुबह इन का नशा उतरते ही पूछताछ की जाएगी. उस के बाद ही स्थिति साफ हो पाएगी.

‘और हां.. इस दौरान अगर आप में से किसी की जरूरत पड़ी, तो आप को फोन कर दिया जाएगा. अभी आप लोग जा सकते हैं,‘ पुलिस ने शालिनी और समीर के बयान दर्ज कर के कहा. और फिर तीनों वहां से निकल गए.

बौस ने उन दोनों को घर छोड़ते हुए कहा, ‘पुलिस स्टेशन से फोन आए, तो मुझे भी इत्तिला कर देना. मैं भी साथ चलूंगा.‘

अगले दिन सुबह फोन की घंटी के साथ ही समीर की आंख खुली. फोन पुलिस स्टेशन से था. बात कर के समीर ने शालिनी को जगाते हुए कहा, ‘सुनो डियर, पुलिस स्टेशन से फोन आया है. पुलिस ने उन दोनों से पूछताछ कर ली. सुबह साढे़ 10 बजे हमें पुलिस स्टेशन बुलाया है. तुम जल्दी से उठ कर तैयारी करो. मैं बौस को फोन मिलाता हूं,‘ शालिनी को जगा कर समीर ने अपने बौस को इस बारे में जानकारी दी. और फिर साढे़ 10 बजे तीनों पुलिस स्टेशन पहुंच गए.

उन तीनों को देख थानाधिकारी ने कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आइए.. आइए.. बैठिए, आप लोग किसी रंजीत नाम के शख्स को जानते हैं, जो कि आप ही के औफिस में काम करता है.’

‘हां… हां, बिलकुल, औफिस में वह मेरा सीनियर है,‘ समीर बोला.‘लेकिन, रंजीत का इस केस से क्या ताल्लुक…?‘ बौस ने आश्चर्यमिश्रित भाव से कहा.

‘‘आप लोग मुझे उस का पूरा पता और मोबाइल नंबर दीजिए. अभी पता चल जाएगा कि इस केस से उस का क्या ताल्लुक है,’ थानाधिकारी ने प्रतिउत्तर में कहा. और फिर आवाज लगाई, ‘हवलदार, उन दोनों नशेड़ियों को बाहर लाओ जरा.’

अब दोनों अफसर अपनी झुकी गरदन के साथ उन सब के सामने थे. उन दोनों को अपनी आंखों के सामनेपा कर बौस ने कहा, ‘तुम जैसे अफसरों को पहचानने में मुझ से चूक कैसे हो गई. मैं ने अपने 22 साल के कैरियर में अब तक इतने बेशर्म और घटिया किस्म के अफसर नहीं देखे.‘‘इस में हमारी कोई गलती नहीं है, हमें माफ कर दीजिए,‘ एक अफसर बौस की बात काटते हुए बोला.

‘गलती तुम्हारी नहीं, गलती तो मेरी है, जो तुम्हें उस दिन फिल्म देख कर लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले समीर के घर के बारे में बताया,‘ बौस ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है सर, दरअसल, उस दिन फिल्म देखने के बाद आप ने तो हमें होटल के गेट तक ही छोड़ा था, लेकिन जब हम अंदर गए तो आप के औफिस में काम करने वाला रंजीत रूम के आगे खड़ा हमारा इंतजार कर रहा था. रूम में जा कर हम ने कुछ देर बात की और फिर उस ने अपने बैग में से व्हिस्की की बोतल निकाल कर हमारी मानमनौव्वल की, तो हम ने भी हामी भर दी.

प्रोजैक्ट-भाग 1: समीर की शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शनिवार को ओवर टाइम करने के बावजूद भी समीर का काम पूरा नहीं हो पाया था. रविवार को छुट्टी थी और सोमवार को औफिस की मीटिंग में किसी भी हाल में उसे प्रोजैक्ट पेश करना था, इसलिए वह औफिस का काम घर पर ले आया था, ताकि कैसे भी कर के प्रोजैक्ट समय पर पूरा हो जाए.

लेकिन, घर पहुंचते ही उसे याद आया कि रविवार को वह अपनी पत्नी शालिनी के साथ फिल्म देखने जाने वाला है. और इस बार वह मना भी नहीं कर सकता था, क्योंकि अब की मैरिज एनिवर्सरी भी तो इसी रविवार को पड़ रही है.

पिछली बार की तरह इस बार वह अपने काम की वजह से शालिनी का मूड औफ नहीं करना चाहता था. रात के खाने के बाद वह शालिनी से यह कह कर अपने काम में जुट गया, ‘सौरी डियर.. आज थोड़ा काम निबटा लूं, कल पूरा दिन ऐंजौए करेंगे.‘

समीर के चेहरे पर काम का तनाव साफ झलक रहा था, जिसे चाह कर भी वह शालिनी से छुपा न सका. शालिनी उस की ओर करवट ले कर लेटी उसे देखती रही और लेटेलेटे कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगले दिन सुबह जब शालिनी तैयार हो कर समीर के सामने आई, तो वह उस की तारीफ किए बिना नही रह सका. अभी उस की तारीफ खत्म भी नहीं हुई थी कि शालिनी ने अपनी बंद मुट्ठी समीर की ओर बढ़ाई. समीर ने उस का हाथ थाम कर बंद मुट्ठी की एकएक कर उंगली खोली और मुट्ठी में बंद चमकीली सिंदूरदानी अपने हाथ में ले कर शालिनी की मांग भरी और उसे अपनी बांहों में भर लिया.

इस दौरान शालिनी को भी न जाने क्या शरारत सूझी, वह उस की पीठ पर अपनी उंगली फिराते हुए बोली, ‘बताओ, मैं ने क्या लिखा है?‘

‘तुम्हारा नाम,‘ शालिनी को अपनी बांहों में कसते हुए समीर ने कहा.‘बिलकुल गलत. अच्छा चलो, दोबारा लिखती हूं, अब ठीक से बताना.‘शालिनी  फिर से समीर की पीठ पर उंगली से कुछ लिखने लगी. अपनी पीठ पर घूमती शालिनी की उंगली के साथसाथ समीर ने अपना दिमाग भी घुमाना शुरू किया और फिर तपाक से बोला, ‘आई लव यू.‘

सही जवाब पा कर शालिनी के चेहरे पर मुसकान फैल गई, ‘आई लव यू टू मेरी जान, चलो, अब जल्दी से तैयार हो जाओ. याद है न, आज हम लोग फिल्म देखने जाने वाले थे,‘ समीर को याद दिला कर शालिनी अपने काम में बिजी हो गई.

शालिनी चाहती तो आज फिल्म देखने का प्रोग्राम कैंसिल भी कर सकती थी. उस की कोई खास इच्छा नहीं थी फिल्म देखने की और न ही थिएटर में उस के पसंद की कोई मूवी लगी थी. उसे तो बस कैसे भी कर के इस बार यह खास दिन समीर के साथ बिताना था.

हालांकि शालिनी अच्छी तरह से जानती थी कि इस बार समीर के लिए यह प्रोजैक्ट कितना माने रखता है. लेकिन फिर भी उस ने समीर की मरजी देखनी चाही और चुप रही.

शालिनी यह सब सोच ही रही थी कि समीर तैयार हो कर उस के सामने आ खड़ा हुआ. वह समीर को अपलक देखती रही, समीर नीचे से ऊपर तक बिलकुल टिपटौप था. बस चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था. तैयार होने बावजूद वह अपने चेहरे से काम का तनाव नहीं छुपा सका. अनमना सा समीर शालिनी को साथ ले कर चल पड़ा.

वहां थिएटर में पहुंच कर वे गाड़ी पार्क कर के अंदर की ओर जाने लगे कि वहां पार्किंग में पहले से खड़ी एक ब्लैक कार को देख कर समीर चैंक गया और बोला, ‘अरे, बौस की गाड़ी, मतलब, बौस भी फिल्म देखने आए हुए हैं.‘

‘इतना बड़ा शहर है, इस कंपनी और इस कलर की गाड़ी किसी और की भी तो हो सकती है, क्या नंबर याद है तुम्हें बौस की गाड़ी का?‘ शालिनी ने पूछा.

नंबर को सुनते ही समीर बोला, ‘खैर, छोड़ो जो होगा देखा जाएगा. दोनों आगे बढे़ और थिएटर में अपनी सीट पर जा कर बैठ गए. फिल्म शुरू हो चुकी थी. फिल्म का शुरुआती सीन ही इतना सस्पैंस भरा था कि समीर की उत्सुकता बढ़ गई और उस के चेहरे से काम का तनाव जाता रहा.

इंटरवल में जब वह स्नैक्स लेने कैंटीन पहुंचा, तो भीड़ में अपने कंधे पर अचानक किसी का हाथ पाया. उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वही हुआ जिस बात का अंदेशा था. उस का बौस सोमवार की मीटिंग में आने वाले उन दोनों अफसरों के साथ फिल्म देखने पहुंचा हुआ था.

‘क्या बात है समीर अकेलेअकेले, पहले पता होता तो तुम्हें भी साथ ले आते हम लोग,‘ बौस ने मुसकराते हुए कहा.‘नहीं सर, मैं अकेला नहीं शालिनी भी साथ में है, वह वहां बैठी है. वैसे, आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. बस इसीलिए फिल्म दिखाने ले आया.‘

‘ओहो… कांग्रेचुलेशन समीर. और हां, मैडम कहां है भई, आज तो उन्हें भी बधाई देनी बनती है,‘ बौस ने ठहाका लगाते हुए कहा.समीर अपने बौस और उस के साथ आए दोनों अफसरों को शालिनी के पास ले आया. सब ने शालिनी को बधाई दी.

‘क्या लेंगे सर आप लोग ठंडा या गरम?‘ समीर ने पूछा.‘भई, तुम्हारी शादी की सालगिरह है, सिर्फ इतने से काम नहीं चलने वाला पूरी पार्टी देनी होगी.’समीर ने पार्टी के लिए हां भरी, तभी फिल्म शुरू हो गई, तो सभी अपनीअपनी सीटों पर जा कर बैठ गए.

फिल्म के खत्म होने पर समीर ने शालिनी को कुछ शौपिंग कराई. शहर की कई फेमस जगहों पर घुमाया, वहां सेल्फियां लीं और घर लौटते हुए खाना उसी होटल में खाया, जहां वे शादी से पहले कई बार एकसाथ गए थे.

रात गहराने लगी थी. घर पहुंच कर समीर सीधे अपने काम में जुट गया. फिर से उस के चेहरे पर वही काम का तनाव देख शालिनी समझ गई. कपड़े चेंज कर वह भी उस की मदद करने की मंशा से पास आ कर बैठ गई. उस ने भी कुछ हाथ बंटाया और देर रात तक समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को अंजाम तक पहुंचा ही दिया.

समीर अब काफी हलका महसूस कर रह था. उसे उम्मीद नहीं थी कि दिनभर की मौजमस्ती के बाद देर रात तक प्रोजैक्ट तैयार हो जाएगा. वह खुशी से उछल पड़ा. मदद के लिए शालिनी का शुक्रिया अदा करते हुए उसे अपनी बांहों में भर लिया.

शालिनी भी तो यही चाहती थी. उसे मालूम था कि जब तक काम पूरा नहीं होगा, समीर उस के पास नहीं आने वाला इसीलिए उस ने साथ लग कर उस के काम को अंजाम तक पहुंचाया.

‘थैंक यू सो मच डियर, तुम न होती तो सुबह हो जाती,‘ कहते हुए समीर ने शालिनी के गले पर नौनस्टोप एक बाद एक किस करने लगा.

शालिनी की सांसों की रफ्तार बढ़ने लगी. वह भी उस का साथ देते हुए बोली, ‘अब सुबह एकदूसरे की बांहों में ही होगी.‘ और समीर को कस कर अपनी बांहों में जकड़ लिया.

अगले दिन सुबह किचन में खटपट की आवाज से शालिनी की आंख खुली, तो चैंक गई. किचन में जा कर देखा तो हमेशा देर से उठने वाला समीर आज नहाधो कर नाश्ता बनाने लगा है.

‘क्यों मैडम पूरे 3 घंटे लेट उठी हो. लगता है, कल रात कुछ ज्यादा ही मेहनत कर ली थी,‘ शालिनी को देख कर समीर बोला.‘मेहनत न करती तो तुम्हारा प्रोजैक्ट कैसे पूरा होता.‘

‘मैं इस मेहनत की नहीं उस मेहनत की बात कर रहा हूं,‘ यह सुन कर शालिनी शरमा कर बाथरूम की ओर चल दी.जब तक वह बाहर निकली, तब तक समीर नाश्ता कर चुका था. और आज शाम थोड़ी देर से आने की कह कर वह औफिस के लिए निकल गया.

औफिस पहुंच कर जब उस ने मीटिंग में बौस के सामने अपना प्रोजैक्ट पेश किया, तो बौस ने बाहर से आए उन अफसरों के सामने उस प्रोजैक्ट को रखा.

कुछ देर की बातचीत, जांचपरख और नफानुकसान देखने के बाद समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को सलैक्ट करने का डिसीजन ले लिया गया.

बौस ने उसे अगले ही दिन लखनऊ से नोएडा जाने का टिकट थमाते हुए कहा, ‘2 दिन बाद कंपनी के हैड औफिस नोएडा में एक मीटिंग है, जिस में तुम्हें देशविदेश से आए लोगों के सामने इसी प्रोजैक्ट को एक बार फिर से पेश करना होगा. यह लो टिकट. कल दोपहर 3 बजे की ट्रेन है. अब तो दोदो पार्टियां बनती हैं.‘

‘जी सर जरूर, लौट के आने पर 2 नहीं 4 पार्टियां दे दूंगा एकसाथ,‘ समीर खुशीखुशी बोला.घर पहुंच कर समीर ने शालिनी को यह खुशखबरी दी. इस प्रोजैक्ट में उस ने भी तो अपना सहयोग दिया था. यह सुन कर वह भी बहुत खुश हुई. समीर ने जब बताया कि कल वह 2 दिन के लिए दोपहर 3 बजे की ट्रेन से कंपनी के काम से नोएडा जा रहा है, इसलिए पैकिंग कर देना. तब से शालिनी पैकिंग में जुट गई.

अगले दिन समीर शालिनी को काम खत्म होते ही जल्द लौट आने का वादा कर के निश्चित समय पर स्टेशन की ओर घर से निकल गया.

अंतत -भाग 3: जीत किस की हुई

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

 

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