लेखक : विजया वासुदेवा
असगर ने तरन्नुम का हाथ दबाया, ‘‘मेरे दोस्त अपने घर में मुझे मेहमान रखने की इजाजत नहीं देंगे.’’
‘‘पर मैं तो मेहमान नहीं, आप की बीवी हूं,’’ तरन्नुम ने मरियल आवाज में दोहराया.
‘‘उन की पहली शर्त ही कुंआरे को रखने की थी और ऐसी जल्दी भी क्या थी. मैं ने लिखा था कि घर मिलते ही बुला लूंगा,’’ असगर का दबा गुस्सा बाहर आया.
‘‘हमारी शादी को 8 महीने हो गए. तब से अभी तक अगर अपना घर नहीं मिला तो क्या किराए का भी नहीं मिल सकता था,’’ तरन्नुम ने खीज कर पूछा. उसे दिल ही दिल में बहुत बुरा लग रहा था कि शादी के चंद महीने बाद ही वह खास औरताना अंदाज में मियांबीवी वाला झगड़ा कर रही थी.
‘‘ठीक है,’’ असगर ने कहा, ‘‘अब तुम दिल्ली आ ही गई हो तो घरों की खोज भी कर लो. तुम्हें खुद ही पता लग जाएगा कि घर ढूंढ़ना कितना आसान है,’’ होटल में आ कर भी तरन्नुम महसूस कर रही थी कहीं कुछ है जो असगर को सामान्य नहीं होने दे रहा.
अगले दिन असगर जब दफ्तर चला गया तब तरन्नुम ने अपनी सहेली रीता अरोड़ा को फोन किया और अपनी घर न मिलने की मुश्किल बताई. रीता ने कहा कि वह शाम को अपने परिचितों, मित्रों से बातचीत कर के कुछ इंतजाम करेगी.
दूसरे दिन रीता अपनी कार ले कर तरन्नुम को लेने आई. रास्ते से उन्होंने एक दलाल को साथ लिया जो विभिन्न स्थानों में उन्हें मकान दिखाता रहा. शाम होने को आई लेकिन अभी तक जैसा घर तरन्नुम चाहती थी वैसा एक भी नहीं मिला. कहीं घर ठीक नहीं लगा तो कहीं पड़ोस तरीके का नहीं. अगर दोनों ठीक मिल गए तो आसपास का माहौल बेतुका. दलाल को छोड़ते हुए रीता ने घर के बारे में पूरी तरह अपनी इच्छा समझाई.
दलाल ने कहा 2-3 दिन के अंदर ही ऐसे कुछ घर खाली होने वाले हैं तब वह खुद ही उन्हें फोन कर के सही घर दिखाएगा.
असगर तरन्नुम से पहले ही होटल आ गया था. थकी, बदहवास तरन्नुम को देख कर उसे बहुत अफसोस हुआ. फोन पर चाय का आदेश दे कर बोला, ‘‘कहां मारीमारी फिर रही हो? यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’
‘‘वाह, जब शादी की है तो घर भी बसा कर दिखा देंगे. आप हमारे लिए घर नहीं खोज सके तो क्या. हम ही आप को घर ढूंढ़ कर रहने को बुला लेंगे,’’ तरन्नुम खुशी से छलकती हुई बोली.
‘‘चलो, यही सही,’’ असगर ने कहा, ‘‘चायवाय पी कर नहा कर ताजा हो लो फिर घर पर फोन कर देना. अभी अब्बू परेशान हो रहे होंगे. उस के बाद नाटक देखने चलेंगे. और हां, साड़ी की जगह सूट पहनना. तुम पर बहुत फबता है.’’
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असगर की इस बात पर तरन्नुम इठलाई, ‘‘अच्छा मियांजी.’’
रात देर से लौटे, दिन भर की थकान थी, इतना तो तरन्नुम कभी नहीं घूमी थी. पर अब रात को भी उसे नींद नहीं आ रही थी. कल देखे जाने वाले घरों के बारे में वह तरहतरह के सपने संजो रही थी. उस का अपना घर, उस का अपना खोजा घर.
नाश्ते के बाद असगर दफ्तर चला गया. तरन्नुम रीता के इंतजार में तैयार हो कर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी. उस का मन सुबह से ही किसी भी चीज में नहीं लग रहा था. होटल भला घर हो सकता है कभी? उसे लग रहा था जैसे वह मुसाफिरखाने में अपने सामान के साथ बैठी अपनी मंजिल का इंतजार कर रही है और गाड़ी घंटों नहीं, हफ्तों की देर से आने का सिर्फ ऐलान ही कर रही है और हर पल उस की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है.
अचानक फोन की घंटी से जैसे वह गहरी सोच से जाग उठी. रीता ने होटल की लौबी से फोन किया था. रीता की आवाज खुशी से खनक रही थी. तरन्नुम ने झटपट पर्स उठाया और लौबी में आ गई. रीता ने बाहर आतेआते कहा, ‘‘आज ही सुबह बिन्नी दी का फोन आया था. उन के पड़ोस में कोई मुसलिम परिवार है, उन्हीं की कोठी का ऊपरी हिस्सा खाली हुआ था. उस घर की मालकिन बिन्नी दी की खास सहेली हैं. उन्हीं की गारंटी पर तुम्हें घर देने के लिए तैयार हैं. जितना किराया तुम दे सकोगी उन्हें मंजूर होगा.’’
रीता और तरन्नुम पंचशील पार्क की उस कोठी में गए. तरन्नुम को गेट खोलते ही बहुत अच्छा लगा. घर के बाहर छोटा सा लेकिन बहुत खूबसूरत लौन, इस भरी गरमी में भी हराभरा नजर आ रहा था.
घंटी की आवाज सुनते ही हमउम्र जुड़वां 3 साल के नन्हे बच्चे, एक पमेरियन कुत्ता और नौकर चारों ही दरवाजे पर लपके. जाली के दरवाजे के अंदर से ही नौकर बोला, ‘‘आप कौन, कहां से तशरीफ ला रही हैं?’’
रीता ने कहा, ‘‘जा कर मालकिन से बोलो, बिन्नी दी ने भेजा है.’’
नौकर ने दरवाजा पूरा खोलते हुए कहा, ‘‘आइए, वे तो सुबह से आप का ही इंतजार कर रही हैं.’’
बैठक कक्ष सजाने वाले की नफासत की दाद दे रहा था जैसे हर चीज अपनी सही जगह पर थी. यहां तक कि खरगोश की तरह सफेद कुरतेपाजामे में उछलकूद मचाते बच्चे भी जैसे इस कमरे की सजावट का हिस्सा हों. उन्हें बैठे 5 मिनट ही बीते होंगे कि कमरे का परदा सरका, आने वाली को देख कर रीता झट से उठी, ‘‘हाय निकहत आपा, कितनी प्यारी दिख रही हैं आप इस फालसाई रंग में.’’
निकहत हंस दी, ‘‘आज ज्यादा ही सुंदर दिख रही हूं. गरज की मारी आ गई वरना तो बिन्नी के पास आ कर गुपचुप से चली जाती है, कभी भूले से भी यहां तशरीफ नहीं लाई.’’
‘‘क्यों बिन्नी के साथ ईद पर नहीं आई थी,’’ रीता ने सफाई देते हुए कहा.
‘‘पर अभी तो ईद भी नहीं और नया साल भी नहीं. खैर इनायत है, गरज से ही सही, आई तो,’’ निकहत ने कहा, ‘‘और सुनाओ, कैसा चल रहा है तुम्हारा कामकाज.’’
‘‘वहां से आजकल छुट्टी ले रखी है. इन से मिलिए, ये हैं मेरी सहेली तरन्नुम, रामपुर से आई हैं. इन के शौहर यहां पर हैं. अपना मकान है लेकिन किराएदार खाली नहीं कर रहे हैं. शादी को 8-10 महीने होने को आए लेकिन अब तक मियां का साथ नहीं हो पाया. किराए पर ढंग का घर मिल नहीं रहा और होटल में रहते 5-7 दिन हो गए. बिन्नी दी से बात की तो उन्होंने आप के घर का ऊपरी हिस्सा खाली होने की बात कही. सुनते ही मैं तुरंत इन्हें खींचती आप के पास ले आई.’’
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‘‘रामपुर में किस के घर से हैं आप?’’ निकहत ने पूछा.
‘‘वहां बहुत बड़ी जमींदारी है मेरे अब्बू की. क्या आप भी वहीं से हैं?’’ तरन्नुम ने पूछा.
‘‘नहीं, मैं तो कभी वहां गई नहीं. पिछले साल मेरे शौहर गए थे अपने दोस्त की शादी में. मैं ने सोचा शायद आप उन्हें जानती होंगी.’’
‘‘किस के यहां गए थे? रामपुर में हमारे खानदानी घर ही ज्यादातर हैं.’’
‘‘अब नाम तो मुझे याद नहीं होगा, क्या लेंगी आप…चाय या ठंडा? वैसे अब थोड़ी देर में ही खाना लग रहा है. आप को हमारे साथ आज खाना जरूर खाना होगा. हमारे साहब तो दौरे पर गए हैं. बच्चों के साथ 5-6 दिन से खिचड़ी, दलिया खातेखाते मुंह का स्वाद ही खराब हो गया.



