Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 2

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

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अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

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‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

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‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 2

लेखिका- डा. शशि गोयल

‘‘चल री चल,’’ कह कर रानी काकी ने बच्चा ले लिया. वह तो पड़ोस की कांता का बच्चा था. वह बरतन करने जाती थी. कभीकभी वह रख लेती, ‘‘अरे, कहां लिए डोलेगी. छोड़ जा मेरे पास.’’

कांता को 2-3 घंटे लगते, तब तक वह चौराहे पर आ जाती. कभी देर हो जाती तो रानी काकी कांता से कह देती, ‘‘अरे, पार्क में ले गई थी. सब बच्चे खेल रहे थे.’’

आज की घटना से रानी काकी का दिल जोर से धड़क उठा. वह तो नक्षत्र सीधे थे, नहीं तो मर लेती. उसे अपने पास अफीम भी रखनी पड़ती थी, नहीं तो सारे दिन रिरियाते बच्चों को कहां तक संभाले. बच्चा सोता रहे. जरा सा हिलते ही जरा सी अफीम चटा दो… कई घंटे की हो गई छुट्टी.

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मगर, रानी काकी जब बच्चे को कंधे पर लगाएलगाए थक जाती है, तो श्यामा ताई की झोंपड़ी में ही सुस्ताने आ जाती है. वहीं सत्ते ने सुना कि क्वार्टर की मास्टरनी का बच्चा भी कभीकभी उस की नौकरानी दे देती है. मास्टरनी स्कूल में पढ़ाए और सारा दिन बच्चा रानी काकी की बहन के पास रहे. 1-2 दिन उसे भी रानी काकी लाई, पर उस का रंगरूप गरीबों का सा बनाना पड़ा. कुछ भी हो, इतने साफसुथरे रंगरूप का सलोना बच्चा ले कर पकड़ी जाती तो मैले कपड़े पहनाने, मिट्टी का लेप लगाना सब भारी पड़ता… और अब खुद का ही छठा महीना चल रहा है… बच्चा गोद ले कर चलने में उपदेश ज्यादा मिलते हैं, ‘‘एक पेट में, एक गोद में, भीख मांगती घूम रही है. शर्मलिहाज है कुछ… क्या भिखारी बनाएगी इन्हें भी…’’

अब पैसा देना हो तो दो, उपदेश चाहिए नहीं… सारा दिन हाड़ पेल के क्या दे दोगी 100 रुपए रोज, पर यहां तो 500 रुपए तक मिल जाते हैं. कपड़ेलत्ते अलग… सर्दी में कंबल, ऊनी कपड़े… ऐसी दयामाया तो रखती नहीं, उपदेश दे रही हैं.

एक बार तो श्यामा ताई फंस ही गई. सर्किल के मंदिर पर मकर संक्रांति पर एक के बाद एक दानदाता आ रहे थे. खिचड़ी की पोटली सरकाई कि फटने लगी. वह पीछे बैंच पर रख कर उन के नीचे कंबलकपड़े बांध कर सरका रही थी कि एक संस्था की बहनजी कंबल बांटती आईं और बोलीं, ‘‘अरे, यहां तो बहुत कंबल बंटे हैं. देखो, एकएक के पास कितने कंबल हैं.’

वे बहनजी मुंह फाड़े देख रही थीं. ‘कहांकहां’ कहते हुए श्यामा ताई ने ही बात संभाली, ‘‘अरे, सब के हैं. अकेले मेरे तो नहीं हैं. सब रखवा गए हैं…’’

श्यामा को एक बार में 5 कंबल मिल गए थे, जो एकदम दिख रहे थे. वे बहनजी तो चली गईं, पर सब भिखारी श्यामा पर पिल पड़े.

रात को श्यामा ताई का लड़का मोपेड पर आता था. जींस और टीशर्ट पहने हुए. सर्दी में जैकेट. उस की जेब में काला चश्मा रहता, जिसे कभीकभी सत्ते लगा कर देखता और झोंपड़ी में लटके आईने में अपनी शक्ल देखता. वह लड़का सारी चिल्लर और कपड़े ले जाता. खर्चे के लिए श्यामा ताई के पास कुछ पैसे छोड़ जाता. श्यामा देने में नानुकर करती, तो लड़का धमकाता कि कुटाई कर देगा और कई बार कर भी देता था और सब छीन कर ले जाता था.

सत्ते उस समय यही सोचता कि वह भी ऐसे कपड़े पहन कर घूमेगा. श्यामा ताई तो बूढ़ी हो जाएगी, इसलिए मन ही मन मनाता कि बूढ़ी के बेटे का ऐक्सिडैंट हो जाए तो हमारा पैसा हमारा होगा. कैसे वह मोपेड को तेजी से चलाता है. कभीकभी वह भी उस लड़के के साथ मोपेड पर घूम आता, पर अब फुरसत मुश्किल से मिलती है. कोई न कोई दिन रहता है देवीदेवताओं का तो श्यामा ताई शाम को भी सब को लाइन में बिठा देती?है. पहले बस मंगलवार को हनुमान के मंदिर जाते थे तो बूंदी से थैली भर जाती थी और बाकी दिन शाम 6 बजे के बाद नहाधो कर अच्छे कपड़े पहन कर सब पार्क में जाते थे और खेलते थे, पर अब तो हर दिन मंदिर में भीड़ रहती है.

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वीरवार को साईं बाबा की तसवीर तश्तरी पर लगा कर चौराहे पर भागते हैं. लोग हाथ तो जोड़ते ही हैं, श्रद्धा से पैसे भी चढ़ा देते हैं. सोमवार को शंकर या किसी देवी और बुधवार को गणेश के मंदिर में.

‘‘शनिवार को छोटीछोटी बालटी ले कर दौड़ते रहते हैं. तेल जमा करना होता है. श्यामा ताई थोड़ा तेल अपने पास रखती है, बाकी पास में ठेले पर समोसेकचौड़ी वाले को बेच आती है. पैसे उस ने गद्दे के नीचे जेब बना कर छिपाने शुरू कर दिए हैं.

रात को लड़का आ कर तेल मांगता तो श्यामा ताई थोड़े से तेल को दिखा देती, ‘‘अब क्या लोग तेल ले कर चलते हैं. वे तो मंदिर में चढ़ाते हैं. रखा है बालटी में.’’

भुनभुनाता लड़का बोतल में तेल डाल कर चिकनाए पैसे थैली में डाल कर चला जाता. पानी में डाल कर रखे सिक्कों को श्यामा ताई कपड़े से रगड़रगड़ कर पोंछ देती.

‘‘ताई, हलदीतेल देना,’’ कहते हुए सत्ते ने पैर की पट्टी खोली.

‘‘क्या हुआ?’’ श्यामा ताई ने कहते हुए हलदीतेल निकाल कर दिया, ‘किसी से टकरा गया क्या?’

Mother’s Day Special: सपने में आई मां

Mother’s Day Special- सपने में आई मां: भाग 1

लेखिका- डा. शशि गोयल

सुबह 10 बजे के आसपास वे सब सड़क के नुक्कड़ के पेड़ के नीचे बनी तिरपाल वाली झोंपड़ी में आ जाते थे. वे उस के अंदर रखे फटे और गंदे कपड़े पहनते थे.

श्यामा ताई एक कटोरे में कोयला पीस कर मिलाई मिट्टी तैयार रखती थी. वे अपने हाथपैरों में मल कर सूखे कपड़े से पोंछ लेते तो संवलाया, मटमैला सा शरीर हो जाता और सभी अपनेअपने ठिकानों पर पहुंच जाते.

सत्ते के हाथ में गंदा सा फटा कपड़ा रहता. बड़ा चौराहा था. चौराहे पर जो बच्चों वाली गाड़ी दिखती, उस पर जाना उसे अच्छा लगता. गाड़ी पर कपड़ा फेरता, रिरियाती हुई आवाज निकालता, ‘‘देदे… मां कुछ पैसे… भैयाजी…’’

कोईकोई तो उसे झिड़क भी देता, ‘‘गाड़ी और गंदी कर देगा, भाग…’’ तो वह सारी दीनता चेहरे पर ला कर… गाड़ी में देखता जाता… उत्सुकता रहती कि बच्चे क्या कर रहे हैं, उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं.

ज्यादातर बच्चे मोबाइल फोन पर लगे होते. उस की ओर एक आंख देखते और फिर उन की उंगलियां तेजी से मोबाइल फोन पर चलने लगतीं.

सत्ते का हाथ बारबार माथे को छू कर उन्हें सलाम करता. कभीकभी बच्चों के हाथ में अधखाए चिप्स के पैकेट होते, जिन्हें खाखा कर वे अघाए होते तो उसे पकड़ा देते. कभीकभी बर्गर वगैरह भी मिल जाते, जिन्हें वह झाड़ी के पास बैठ कर खा जाता. श्यामा ताई न देख ले. सनी, जुगल, रुकमा उस के दोस्त थे, वे भी आ जाते.

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श्यामा ताई वहीं पेड़ के नीचे से उन पर निगाह रखती थी. कम से कम 50 गज की दूरी थी, पर वह देख लेती कि किस ने नोट दिया या सिक्के. पांचों लड़कों पर निगाह रखती, ‘‘टांग तोड़ दूंगी. अपाहिज बना कर बिठा दूंगी. कोशिश भी मत करना मुझे धोखा देने की.’’

श्यामा ताई जब चाहती, साहबों की सी बोली बोलने लगती और चाहे जब वह झोंपड़पट्टी की बोली बोलने लगती. उस में चुनचुन कर गालियां होतीं. साथ ही, सत्ते की मरी मां के लिए भी न जाने कितनी बद्दुआएं होतीं कि अपना बोझा उस के सिर छोड़ गई और बदले में उसे पालना पड़ रहा है.

सत्ते को नहीं याद कि वह कब और कैसे श्यामा ताई के पास आया और उस ने अपने को जुगल, नन्हे, सन्नी, रुकमा के साथ पाया. वे सब भी उसी झोंपड़ी में सोते थे.

नन्हे पता नहीं कहां चला गया. श्यामा ताई ने उस का चूल्हे की लकड़ी से हाथ जला दिया था. उस ने समझा, श्यामा ताई देख नहीं रही है और सच

में ताई कुछ देर झोंपड़ी में लेट गई थी, पर उसे पता नहीं था कि वह लेटी जरूर थी, पर बदकिस्मती थी नन्हे की या खुशकिस्मती कि उस ने 5 रुपए वाली स्टिक वाली आइसक्रीम खरीद कर वहीं झाड़ी के पीछे बैठ कर खाई थी. पर श्यामा ताई फटरफटर चप्पल सरकाती आ पहुंची और खींच कर ले गई झोंपड़ी में, ‘‘चमड़ी उधेड़ दूंगी… रोटी कौन खिलाएगा,’’ गुस्से में जलती लकड़ी नन्हे के हाथ पर धर दी, ‘‘काट डालूंगी… अगर आगे से ऐसा किया.’’

बिलबिला कर रहा गया नन्हे. उस की चीख सुन कर जुगल, सनी, रुकमा और सत्ते एकदूसरे से चिपक कर रो रहे थे. जब दोबारा उस की पीठ की ओर लकड़ी उठाई तो चारों श्यामा ताई से चिपक कर रोने लगे थे, ‘ताई नहीं, ताई नहीं, अब नहीं खाएगा.’

पर, दूसरे दिन नन्हे सुबह से ही नहीं दिखा. उस के बाद कभी नहीं दिखा. कभीकभी सत्ते उसे ढूंढ़ता गाडि़यों में झांकता रहता कि शायद कोई साहब या मेमसाहब उसे ले गई हों. वह साहब के बच्चों के साथ हो. कभी तो वह उसे ही साहब बना देखता. सपने तो अपने लिए भी कभीकभी वह देखता था. कभी मोटरसाइकिल का, कभी लंबी गाड़ी में बैठा श्यामा ताई को भीख देता.

रानी काकी पीछे बस्ती में से आती थी. ज्यादातर गोद में बच्चा होता. गंदे कपड़ों से ढके उस बच्चे के लिए वह पैसे मांगती. सत्ते हैरानी से देखता कि रानी काकी की गोद का बच्चा बदलता रहता था. एक दिन तो रुकमा को भी बच्चा दिया. रानी काकी ने बच्चे को ले कर भीख मांगना सिखाया… साहब, मेरा कोई नहीं है. हमारी मैया मर गई है. यह भूखा है. दूध के लिए पैसे चाहिए…’’

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सच में रुकमा को कई बार अपनी अम्मां याद आई. उसे अपने गांवघर की एक झलक याद है. उस के घर के सामने पीपली देवी का मंदिर था, बस इतना याद है. घर में कई लोग थे. बूआ थी, दादी थी, अम्मां लंबा घूंघट निकाले रहती थी. इतना ही याद है. बूआ और दादी के साथ पीपली देवी के मेले में झूला झूलतेझूलते कब वह श्यामा ताई की गोद में पहुंच गई, उसे याद नहीं… ‘अम्मांअम्मां’ चिल्लाती रह जाती. ज्यादा रोती तो श्यामा ताई दवा चटा कर सुला देती.

अब तो कई साल हो गए. उसे बस धुंधली सी याद है.

जिस दिन रुकमा बच्चे को ले कर घूमी, उस दिन उसे काफी पैसे मिल गए, पर साथ ही बड़ी मुश्किल हो गई. पता नहीं, एक बहनजी को रुकमा पर ज्यादा ही दया आ गई, ‘‘चल, नन्हे से बच्चे को कैसे पालेगी. चल, आश्रम में चल. वहां तेरा भी इंतजाम हो जाएगा और बच्चे का भी. बैठ गाड़ी में,’’ कहते हुए बहनजी ने गाड़ी किनारे कर ली.

रुकमा सिटपिटा गई. उस का मन हुआ कि बैठ जाए गाड़ी में. श्यामा ताई से तो अच्छी रहेगी, पर पता नहीं कब रानी काकी आ खड़ी हुई, ‘‘कौन तू? क्यों ले जा रही है छोरी को तू… मैं सब जानती हूं. अनाथ से धंधा कराएगी.’’

कहां बहनजी पुलिस को सूचना दे कर उसे ले जाना चाहती थी, कहां लेने के देने पड़ रहे थे. रानी काकी बहनजी को पुलिस में ले जाने लगी. बहनजी की दयामाया काफूर हो गई. वह चुपचाप गाड़ी में बैठ चली गई.

बदलते जमाने का सच: भाग 1

‘‘हैलो,’’ प्रियांशु ने मुसकरा कर नैनी की ओर देखा.

‘‘हैलो,’’ नैनी भी उसे देख कर मुसकराई.

‘‘तुम्हारा प्रोजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा लैपटौप खराब हो गया है. ठीक होने के लिए दिया है. एक घंटे के लिए अपना लैपटौप दोगे मुझे?’’

‘‘क्यों नहीं, कब चाहिए?’’ प्रियांशु ने पूछा.

‘‘कल दोपहर में आ कर ले जाऊंगी. लंच भी तुम्हारे साथ करूंगी. संडे है न, कोई न कोई नौनवैज तो बनाओगे ही.’’

‘‘बिलकुल. क्या खाना पसंद करोगी, चिकन या मटन?

‘‘जो तुम्हें पसंद हो. वैसे, तुम्हारा प्राजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘हां, देखना चाहोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. कल आने के बाद,’’ नैनी ‘बायबाय’ कहते हुए चली गई. प्रियांशु भी अपने र्क्वाटर पर लौट आया.

प्रियांशु और नैनी एक कंपनी में साथसाथ काम करते थे. उन के क्वार्टर भी अगलबगल में थे. दोनों अभी कुंआरे थे. साथसाथ काम करने के चलते अकसर उन में बातचीत होती रहती थी. दोनों के विचार मिलते थे और दोस्ती के लिए इस से ज्यादा चाहिए भी क्या.

दूसरे दिन प्रियांशु मटन ले कर लौटा ही था कि नैनी आई.

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‘‘बहुत जल्दी आ गई तुम नैनी?’’ प्रियांशु ने लान में रखी कुरसी पर बैठने का इशारा किया और खुद मटन रखने रसोईघर में चला गया.

‘‘तुम्हारा हाथ बंटाने पहले आ गई,’’ कह कर नैनी मुसकराई.

नैनी की यही अदा प्रियांशु को उस का दीवाना बनाए हुई थी.

‘‘अभी चाय ले कर आता हूं, फिर इतमीनान से खाना बनाएंगे,’’ कह कर प्रियांशु रसोईघर में चला गया.

प्रियांशु के पिताजी किसान थे. उस से बड़ी एक बहन थी जिस की शादी हो चुकी थी. उस से एक छोटा भाई महीप था जो मैडिकल इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. पिता के ऊपर काफी कर्ज हो गया था.

अब प्रियांशु कर्ज चुकाने और छोटे भाई महीप को पढ़ाने का खर्चा उठा रहा था. पिताजी उस की शादी में तिलक की एक मोटी रकम वसूलना चाहते थे. रिश्ते तो कई जगह से आए थे, पर उन की डिमांड ज्यादा होने के चलते कहीं शादी तय नहीं हो पा रही थी. इधर उस की बहन अपनी ननद के लिए लड़का ढूंढ़ रही थी. उस की ननद नाटे कद की थी और किसी तरह मैट्रिक पास हो गई थी. रंगरूप साधारण था, पर प्रियांशु के पिताजी की डिमांड को उस के समधी पूरा करने के लिए तैयार हो गए थे.

नैनी के पिताजी की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. कोई भाई नहीं था. मां ने उस की पढ़ाई के लिए कौनकौन से पापड़ न बेले थे. बाद में उस ने ऐजुकेशन लोन ले कर पढ़ाई पूरी की थी. अब लोन चुकाना और मां की देखभाल की जिम्मेदारी उस पर थी.

प्रियांशु जब रसोईघर में गया था तब उस का मोबाइल फोन बाहर ही छूट गया था. अचानक फोन बजने लगा तो नैनी ने प्रियांशु को पुकारा, पर चाय बनाने में बिजी होने के चलते उस की आवाज प्रियांशु के कानों तक न पहुंची.

नैनी ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई. कोई औरत थी.

‘‘हैलो, आप कौन बोल रही हैं?’’ नैनी ने पूछा.

‘प्रियांशु कहां है? मैं उन की बहन बोल रही हूं. आप कौन हैं?’

‘‘मैं प्रियांशु की कलीग हूं, बगल में ही रहती हूं.’’

‘अच्छा, तुम नैनी हो क्या?’

‘‘हां जी, आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ नैनी ने हैरान हो कर पूछा.

‘प्रियांशु ने बताया था. अब तुम उस का पीछा करना छोड़ दो. उस की शादी मेरी ननद से तय हो गई है,’ उधर से एक तीखी आवाज आई.

‘‘अच्छा जी… प्रियांशु अभी रसोईघर में हैं. वे आ जाते हैं तो उन्हें आप को फोन करने के लिए कहती हूं,’’ नैनी ने अपनेआप को संभालते हुए कहा.

प्रियांशु ने अपनी बहन की ननद के बारे में कुछ दिनों पहले बताया था. वह कुछ परेशान सा लग रहा था. उस की बातों से लग रहा था कि उस की बहन अपनी ननद के लिए उस के पीछे पड़ी थी. कहती थी कि यह शादी हो जाती है तो उसे मुंहमांगा दहेज मिलेगा. साथ ही, उस की ननद हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी, पर प्रियांशु को यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं था.

नैनी यह तो नहीं जानती थी कि प्रियांशु से उस का क्या रिश्ता है, पर उन दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता था. प्रियांशु जब कभी औफिस से गैरहाजिर होता था तो वह उसे बहुत याद करती. आज उसे पता चला कि प्रियांशु ने घर में उस की चर्चा की है, पर इस संबंध में उस ने कभी कुछ बताया न था. अभी वह इसी उधेड़बुन में थी कि प्रियांशु आ गया.

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‘‘तुम्हारा फोन था. बधाई, तुम्हारी शादी तय हो गई,’’ नैनी ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा.

प्रियांशु चाय की ट्रे लिए खड़ा था. लगा, गिर जाएगा. किसी तरह अपनेआप को संभालते हुए वह बैठा. यह सुन कर उस का मन बैठता चला गया. तो क्या सच ही उस की शादी तय हो गई? क्या यह उस की बहन की चाल तो नहीं? अगर ऐसा है तो जरूर ही उस की ननद होगी. पर वे लोग उस से बिना पूछे ऐसा कैसे कर सकते हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो? बहन से पूछ लो कि कब सगाई है. मुझे तो ले नहीं चलोगे. कहोगे तब भी मैं न चलूंगी. तुम्हारी बहन ने चेताया है, तुम्हारा पीछा छोड़ दूं,’’ नैनी बोल रही थी. वह सुन रहा था. लंच का सारा मजा किरकिरा हो गया था.

दूसरे दिन प्रियांशु गांव में था. उस ने पिताजी के पैर छुए.

‘‘अच्छा हुआ कि तू आ गया बेटा. अब हम कर्ज से जल्दी ही उबर जाएंगे. तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है सरला से. वही तुम्हारी बहन की ननद. कद में तुम से थोड़ी छोटी जरूर है, पर घर के कामों में माहिर है. सुशील इतनी कि हर कोई उस के स्वभाव की तारीफ करता है. तुम्हारी बहन का भी काफी जोर था.’’

Short Story: गुलाब यूं ही खिले रहें

शादी की शहनाइयां बज रही थीं. सभी मंडप के बाहर खड़े बरात का इंतजार कर रहे थे. शिखा अपने दोनों बच्चों को सजेधजे और मस्ती करते देख कर बहुत खुश हो रही थी और शादी के मजे लेते हुए उन पर नजर रखे हुए थी. तभी उस की नजर रिया पर पड़ी जो एक कोने में गुमसुम सी अपनी मां के साथ चिपकी खड़ी थी. रिया और शिखा दूर के रिश्ते की चचेरी बहनें थीं. दोनों बचपन से ही अकसर शादीब्याह जैसे पारिवारिक कार्यक्रमों में मिलती थीं. रिया को देख शिखा ने वहीं से आवाज लगाई, ‘‘रिया…रिया…’’

शायद रिया अपनेआप में ही खोई हुई थी. उसे शिखा की आवाज सुनाई भी न दी. शिखा स्वयं ही उस के पास पहुंची और चहक कर बोली, ‘‘कैसी है रिया?’’

रिया ने जैसे ही शिखा को देखा, मुसकरा कर बोली, ‘‘ठीक हूं, तू कैसी है?’’

‘‘बिलकुल ठीक हूं, कितने साल हुए न हम दोनों को मिले, शादी क्या हुई बस, ससुराल के ही हो कर रह गए.’’

शिखा ने कहा, ‘‘आओ, मैं तुम्हें अपने बच्चे से मिलवाती हूं.’’

रिया उन्हें देख कर बस मुसकरा दी. शिखा को लगा रिया कुछ बदलीबदली है. पहले तो वह चिडि़या सी फुदकती और चहकती रहती थी, अब इसे क्या हो गया? मायके में है, फिर भी गम की घटाएं चेहरे पर क्यों?

जब वह सभी रिश्तेदारों से मिली तो उसे मालूम हुआ कि रिया की उस के पति से तलाक की बात चल रही है. वह सोचने लगी, ‘ऐसा क्या हो गया, शादी को इतने वर्ष हो गए और अब तलाक?’ उस से रहा न गया इसलिए मौका ढूंढ़ने लगी कि कब रिया अकेले में मिले और कब वह इस बारे में बात करे.

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शिखा ने देखा कि शादी में फेरों के समय रिया अपने कमरे में गई है तो वह भी उस के पीछेपीछे चली गई. शिखा ने कुछ औपचारिक बातें कर कहा, ‘‘मेरी प्यारी बहना, बदलीबदली सी क्यों लगती है? कोई बात है तो मुझे बता.’’

पहले तो रिया नानुकर करती रही, लेकिन जब शिखा ने उसे बचपन में साथ बिताए पलों की याद दिलाई तो उस की रुलाई फूट पड़ी. उसे रोते देख शिखा ने पूछा, ‘‘क्या बात है, पति से तलाक क्यों ले रही है, तुझे परेशान करता है क्या?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं, वे तो बहुत नेक इंसान हैं.,’’ रिया ने जवाब दिया.

‘‘तो फिर क्या बात है रिया, तलाक क्यों?’’ शिखा ने पूछा.

रिया के नयनों की शांत धारा सिसकियों में बदल गई, ‘‘कमी मुझ में है, मैं ही अपने पति को वैवाहिक सुख नहीं दे पाती.’’ मुझे पति के पास जाना भी अच्छा नहीं लगता. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं, लेकिन मेरा अतीत मेरा पीछा ही नहीं छोड़ता.’’

‘‘कौन सा अतीत?’’

आज रिया सबकुछ बता देना चाहती थी, वह राज, जो बरसों से घुन की मानिंद उसे अंदर से खोखला कर रहा था. जब उस ने अपनी मां को बताया था तो उन्होंने भी उसे कितना डांटा था. उस की आधीअधूरी सी बात सुन कर शिखा कुछ समझ न पाई और बोली, ‘‘रिया, मैं तुम्हारी मदद करूंगी, मुझे सचसच बताओ, क्या बात है?’’

रिया उस के गले लग खूब रोई और बोली, ‘‘वे हमारे दूर के रिश्ते के दादा हैं न गांव वाले, किसी शादी में हमारे शहर आए थे और एक दिन हमारे घर भी रुके थे. मां को उस दिन डाक्टर के पास जाना था. मां को लगा कि दादा हैं इसलिए मुझे भाई के भरोसे घर में छोड़ गईं. जब भैया खेलने गए तो दादा मुझे छत पर ले गए और…’’ कह कर वह रोने लगी.

उस की बात सुन कर शिखा की आंखों में मानो खून उतर आया. उस के मुंह से अनायास ही निकला, ‘‘राक्षस, वहशी, दरिंदा और न जाने कितनी युवतियों को उस ने अपना शिकार बनाया होगा. तुम्हें मालूम है वह बुड्ढा तो मर चुका है. उस ने सिर्फ तुम्हें ही नहीं मुझे भी अपना शिकार बनाया था. मैं एक शादी में गई थी. वह भी वहां आया हुआ था. मेरी मां मुझे शादी के फेरों के समय कमरे में अकेली छोड़ गई थीं. सभी लोग फेरों की रस्म में व्यस्त थे. उस ने मौका देख मेरे साथ बलात्कार किया. मात्र 15 वर्ष की थी मैं उस वक्त, जब मेरे चीखने की आवाज सुनाई दी तो मेरी मां दौड़ कर आईं और पिताजी ने उन दादाजी को खूब भलाबुरा कहा, लेकिन रिश्तेदारों और समाज में बदनामी के डर से यह बात छिपाई गईं.’’

‘‘वही तो,’’ रिया कहने लगी, ‘‘मेरी मां ने तो उलटा मुझे ही डांटा और कहा कि यह तो बड़ा अनर्थ हो गया. बिन ब्याहे ही यह संबंध. न जाने अब कोई मुझ से विवाह करेगा भी या नहीं.

‘‘जैसे कुसूर मेरा ही हो, मैं क्या करती. उस समय सिर्फ 15 वर्ष की थी, इस लिए समझती भी नहीं थी कि बलात्कार क्या होता है, लेकिन शादी के बाद जब भी मेरे पति नजदीक आए तो मुझे बारबार वही हादसा याद आया और मैं उन से दूर जा खड़ी हुई. जब वे मेरे नजदीक आते हैं तो मुझे लगता है एक और बलात्कार होने वाला है.’’

शिखा ने पूछा, ‘‘तो फिर वे तुम से जबरदस्ती तो नहीं करते?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ रिया बोली.

‘‘तब तो तुम्हारे पति सच में बहुत नेक इंसान हैं.’’

‘‘मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण वे दुख की जिंदगी जिएं इसलिए मैं ने ही उन से तलाक मांगा है. मैं तो उन्हें वैवाहिक सुख नहीं दे पाती पर उन्हें तो आजाद करूं इस बंधन से.’’

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‘‘ओह, तो यह बात है. मतलब तुम मन ही मन उन्हें पसंद तो करती हो?’’

‘‘हां,’’ रिया बोली, ‘‘मुझे अच्छे लगते हैं वे, किंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘तुम ने मुझे अपना सब से बड़ा राज बताया है, तो क्या तुम मुझे एक मौका नहीं दोगी कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं. देखो रिया, मेरे साथ भी यह हादसा हुआ लेकिन मांपिताजी ने मुझे समझा दिया कि मेरी कोई गलती नहीं, पर तुम्हें तो उलटा तुम्हारी मां ने ही कुसूरवार ठहरा दिया. शायद इसलिए तुम अपनेआप को गुनाहगार समझती हो,’’ शिखा बोली.

‘‘तुम कहो तो मैं तुम्हारे पति से बात करूं इस बारे में?’’

‘‘नहींनहीं, तुम ऐसा कभी न करना,’’ रिया ने कहा.

‘‘अच्छा नहीं करूंगी, लेकिन अभी हम 3-4 दिन तो हैं यहां शादी में, तो चलो, मैं तुम्हें काउंसलर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘वह, क्यों?’’ रिया ने पूछा

‘‘तुम मेरा विश्वास करती हो न, तो सवाल मत पूछो. बस, सुबह तैयार रहना.’’

अगले दिन शिखा सुबह ही रिया को एक जानेमाने काउंसलर के पास ले गई. काउंसलर ने बड़े प्यार से रिया से सारी बात पूछी. एक बार तो रिया झिझकी, लेकिन शिखा के कहने पर उस ने सारी बात काउंसलर को बता दी. यह सुन कर काउंसलर ने रिया के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘देखो बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, जो तुम ने अपनी मां की बात मान कर यह राज छिपाए रखा, लेकिन इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं. तुम अपनेआप को दोषी क्यों समझती हो? क्या हो गया अगर किसी ने जोरजबरदस्ती से तुम से संबंध बना भी लिए तो?’’

रिया बोली, ‘‘मां ने कहा, मैं अपवित्र हो गई, अब मुझे अपनेआप से ही घिन आती है. इसलिए मुझे अपने पति के नजदीक आना भी अच्छा नहीं लगता.’’

काउंसलर ने समझाते हुए कहा, ‘‘लेकिन इस में अपवित्र जैसी तो कोईर् बात ही नहीं और इस काम में कुछ गलत भी नहीं. यह तो हमारे समाज के नियम हैं कि ये संबंध हम विवाह बाद ही बनाते हैं.

‘‘लेकिन समाज में बलात्कार के लिए तो कोई कठोर नियम व सजा नहीं. इसलिए पुरुष इस का फायदा उठा लेते हैं और दोषी लड़कियों को माना जाता है. बेचारी अनखिली कली सी लड़कियां फूल बनने से पहले ही मुरझा जाती हैं. अब तुम मेरी बात मानो और यह बात बिलकुल दिमाग से निकाल दो कि तुम्हारा कोई दोष है और तुम अपवित्र हो. चलो, अब मुसकराओ.’’

रिया मुसकरा उठी. शिखा उसे अपने साथ घर लाई और बोली, ‘‘अब तलाक की बात दिमाग से निकाल दो और अपने पति के पास जाने की पहल तुम खुद करो, इतने वर्ष बहुत सताया तुम ने अपने पति को. अब चलो, प्रायश्चित्त भी तुम ही करो.’’

रिया विवाह संपन्न होते ही ससुराल चली गई. उस ने अपने पति के पास जाने की पहल की और साथ ही साथ काउंसलर ने भी उस का फोन पर मार्गदर्शन किया. उस के व्यवहार में बदलाव देख उस के पति भी आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने रिया को एक दिन अपनी बांहों में भर कर पूछा, ‘‘क्या बात है रिया, आजकल तुम्हारा चेहरा गुलाब सा खिला रहता है?’’

वह जवाब में सिर्फ मुसकरा दी और बोली, ‘‘अब मैं सदा के लिए तुम्हारे साथ खिली रहना चाहती हूं, मैं तुम से तलाक नहीं चाहती.’’

उस के पति ने कहा, ‘‘थैंक्स रिया, लेकिन यह मैजिक कैसे?’’

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वह बोली, ‘‘थैंक्स शिखा को कहो. अभी फोन मिलाती हूं उसे,’’ कह कर उस ने शिखा का फोन मिला दिया.

उधर से शिखा ने रिया के पति से कहा, ‘‘थैंक्स की बात नहीं. बस, यह ध्यान रखना कि गुलाब यों ही खिले रहें. ’’

Valentine’s Special- हरिनूर: भाग 1

‘‘अरे, इस बैड नंबर8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

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शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिलकर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. ब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’ तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था.

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तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजालेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

सबसे बड़ा सुख: भाग 1

अपनी आलीशान कोठी में ऊपर की मंजिल की खिड़की के पास खड़ी कमला की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. वे अपने अश्रुपूरित नेत्रों से बारबार फाटक को निहार रही थीं, जहां से उन का पोता राजू रोताबिलखता होस्टल भेजा गया था.

नन्हे पोते की चीखें अभी तक उन के कानों में गूंज रही थीं. मां की रोबीली फटकार तथा पिता का निर्विकार चेहरा देख वह चीख कर बोला था, ‘अब मैं कभी आप के पास नहीं आऊंगा. बस, होस्टल ही मेरा घर होगा.’ फिर दादी का आंचल पकड़ कर उन से लिपट कर बोला, ‘दादी, मैं आप को बहुत प्यार करता हूं. आप जरूर मेरे पास आओगी, यह मैं जानता हूं क्योंकि इस घर में एक आप ही तो हो जो मुझे प्यार करती हो. मैं यह भी जानता हूं कि आप की भी इस घर में कोईर् सुनता नहीं है. आप को भी किसी दिन ये लोग घर से निकाल देंगे.’

8 वर्षीय पोते की बातें उन के अंतर्मन को उद्वेलित कर रही थीं.

कमला के पति सफल व्यवसायी थे. उन्होंने अपनी मेहनत तथा लगन से अपार संपत्ति उपार्जित की थी. उन के केवल एक पुत्र था, ब्रजेश, जिस के लालनपालन में उन्होंने कोई कमी नही की थी. मां की ममता तथा पिता के प्यारभरे संरक्षण ने ब्रजेश को भी एक सफल व्यवसायी बना दिया था. उस की पत्नी एक कर्नल की बेटी थी, जिस की रगरग में पिता का दबंग स्वभाव तथा अनुशासन समाया हुआ था. अनुशासन ने उस के ममत्व को भी धराशायी कर दिया था.

पति के न रहने पर कमला ने अपने पोते राजू पर अपना समस्त प्यार उड़ेल दिया था. अब उसी को अपने से अलग करवाते देख उन का मन चीत्कार कर उठा था. बहू के वे शब्द, जो उस ने ब्रजेश तथा नौकरों के सामने कहे थे, कांटे के समान उन्हें चुभ रहे थे. जिस पोते के प्यार में डूब कर वे पति का गम भी भूल गई  थीं, उसी के प्रति ये शब्द सुनने पड़े, ‘यहां आप के लाड़प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. इस के चरित्र निर्माण के लिए होस्टल ही उचित स्थान है, यहां रह कर यह कुछ नहीं बन पाएगा.’

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उन का मन तो हुआ कि कह दें, इतना बड़ा व्यवसाय मेरे बेटे ने संभाला हुआ है, वह सबकुछ इसी घर की चारदीवारी में रह कर ही सीखा है, पर वे जानती थीं कि तब बहू नौकरों के सामने उन्हें जलील करने में देर नहीं करेगी और उन का बेटा मूकदर्शक ही बना रहेगा.

राजू के कुछ खिलौने तथा कपड़े छूट गए थे, उन को उन्होंने रोते हुए अपनी कीमती चीजों के संग रख दिया. सोचा, अब तो राजू की इन्हीं चीजों को देखदेख कर वे अतीत के उन आनंददायक क्षणों में पहुंच जाएंगी, जब राजू उन से लिपट कर अपनी नन्हीं बांहें उन के गले में डाल कर कहता था, ‘दादी, परी वाली कहानी सुनाओ न.’

राजू को गए 4 दिन बीत गए थे. उन्होंने खाने के कमरे में पैर नहीं रखा था. वहां पहुंच कर राजू की खाली कुरसी देख क्या वे अपनी रुलाई पर काबू पा सकेंगी? दोनों समय खाना कमरे में ही मंगवा लेती थीं. एक प्रकार से उन्होंने खुद को कमरे में कैद कर लिया था. जिस घर में राजू की खिलखिलाहट सुनाई पड़ती थी, वहां अब वीरानी सी फैली थी. बेटाबहू दोनों ही औफिस चले जाते थे. अब तो घर की दीवारें ही उन के संगीसाथी रह गए थे.

इधर, राजू के जाने के बाद से घर में चुप्पी छाई थी. ऐसा लगता था, इस शांति के बाद कुछ अनहोनी होने वाली है.

एक दिन वे बाहर निकलीं. उन की आंखें फाटक पर अटक गईं. अभी वे अपने को संतुलित करने की कोशिश कर ही रही थीं कि बहू की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘न भई, मैं उन से यह कहने नहीं जाऊंगी. वैसे भी मेरी कोई बात उन्हें अच्छी नहीं लगती. तुम्हीं चहेते हो. हम ने जो तय किया है, कह दो. मैं तो उन की नजरों में विष की डली हूं.’’

वे समझ न सकीं कि बेटाबहू किस विषय पर वार्त्तालाप कर रहे हैं. पर सोचा, 1-2 दिन में तो पता चल ही जाएगा.

दूसरे दिन बेटा उन के कमरे में आया. उन्हें लगा कि उन्हें दुखी देख शायद वह राजू को लेने जा रहा है और यही खुशखबरी सुनाने आया है.

ब्रजेश ने उन से आंखे चुराते हुए कहा, ‘‘मां, मैं देख रहा हूं कि राजू के जाने के बाद से तुम बहुत अकेलापन महसूस कर रही हो. तुम्हारी बहू और मैं औफिस चले जाते हैं. इधर मेरा बाहर जाने का कार्यक्रम बहुत बढ़ गया है. तुम्हारी बहू भी व्यवसाय में मेरी बहुत सहायता करती है. कभीकभी तो हम दोनों को ही बाहर जाना पड़ सकता है, ऐसे में तुम्हारी देखभाल करने वाला कोईर् नहीं रहेगा.

बदलाव: भाग 1

गांव से चलते समय उर्मिला को पूरा यकीन था कि कोलकाता जा कर वह अपने पति को ढूंढ़ लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कोलकाता में 3 दिन तक भटकने के बाद भी पति राधेश्याम का पता नहीं चला, तो उर्मिला परेशान हो गई. हावड़ा रेलवे स्टेशन के नजदीक गंगा के किनारे बैठ कर उर्मिला यह सोच रही थी कि अब उसे क्या करना चाहिए. पास ही उस का 10 साला भाई रतन बैठा हुआ था.

राधेश्याम का पता लगाए बिना उर्मिला किसी भी हाल में गांव नहीं लौटना चाहती थी. उसे वह अपने साथ गांव ले जाना चाहती थी. उर्मिला सहमीसहमी सी इधरउधर देख रही थी. वहां सैकड़ों की तादाद में लोग गंगा में स्नान कर रहे थे.

उर्मिला चमचमाती साड़ी पहने हुई थी. पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें थीं. उर्मिला का पहनावा गंवारों जैसा जरूर था, लेकिन उस का तनमन और रूप सुंदर था. उस के गोरे तन पर जवानी की सुर्खी और आंखों में लाज की लाली थी.

हां, उर्मिला की सखीसहेलियों ने उसे यह जरूर बताया था कि वह निहायत खूबसूरत है. उस के अलावा गांव के हमउम्र लड़कों की प्यासी नजरों ने भी उसे एहसास कराया था कि उस की जवानी में बहुत खिंचाव है.

सब से भरोसमंद पुष्टि तो सुहागसेज पर हुई थी, जब उस के पति राधेश्याम ने घूंघट उठाते ही कहा था, ‘तुम इतनी सुंदर हो, जैसे मेरी हथेलियों में चौदहवीं का चांद आ गया हो.’ उर्मिला बोली कुछ नहीं थी, सिर्फ शरमा कर रह गई थी. उर्मिला बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव की रहने वाली थी. उस ने 19वां साल पार किया ही था कि उस की शादी राधेश्याम से हो गई.

राधेश्याम भी गांव का रहने वाला था. उर्मिला के गांव से 10 किलोमीटर दूर उस का गांव था. उस के पिता गांव में मेहनतमजदूरी कर के परिवार का पालनपोषण करते थे. उर्मिला 7वीं जमात तक पढ़ी थी, जबकि राधेश्याम मैट्रिक फेल था. वह शादी के 2 साल पहले से कोलकाता में एक प्राइवेट कंपनी में चपरासी था.

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शादी के लिए राधेश्याम ने 10 दिनों की छुट्टी ली थी, लेकिन उर्मिला के हुस्नोशबाब के मोहपाश में ऐसा बंधा कि 30 दिन तक कोलकाता नहीं गया. जब घर से राधेश्याम विदा हुआ, तो उर्मिला को भरोसा दिलाया था, ‘जल्दी आऊंगा. अब तुम्हारे बिना काम में मेरा मन नहीं लगेगा.’

उर्मिला झट से बोली थी, ‘ऐसी बात है, तो मुझे भी अपने साथ ले चलिए. आप का दिल बहला दिया करूंगी. नहीं तो वहां आप तड़पेंगे, यहां मैं बेचैन रहूंगी.  उर्मिला ने राधेश्याम के मन की बात कही थी. लेकिन उस की मजबूरी यह थी कि 4 दोस्तों के साथ वह उर्मिला को रख नहीं सकता था.

सच से सामना कराने के लिए राधेश्याम ने उर्मिला से कहा, ‘तुम 5-6 महीने रुक जाओ. कोई अच्छा सा कमरा ले लूंगा, तो आ कर तुम्हें ले चलूंगा.’ राधेश्याम अंगड़ाइयां लेती उर्मिला की जवानी को सिसकने के लिए छोड़ कर कोलकाता चला गया.

फिर शुरू हो गई उर्मिला की परेशानियां. पति का बिछोह उस के लिए बड़ा दुखदाई था. दिन काटे नहीं कटता था, रात बिताए नहीं बीतती थी. तिलतिल कर सुलगती जवानी से उर्मिला पर उदासीनता छा गई थी. वह चंद दिन ससुराल में, तो चंद दिन मायके में गुजारती.

साजन बिन सुहागन उर्मिला का मन न ससुराल में लगता, न मायके में. मगर ऐसी हालत में भी उस ने अपने कदमों को कभी बहकने नहीं दिया था. पति की अमानत को हर हालत में संभालना उर्मिला बखूबी जानती थी, इसलिए ससुराल और मायके के मनचलों की बुरी कोशिशों को वह कभी कामयाब नहीं होने देती थी.

ससुराल में सासससुर के अलावा 2 छोटी ननदें थीं. मायके में मातापिता के अलावा छोटा भाई रतन था. उर्मिला ने जैसेतैसे बिछोह में एक साल काट दिया. मगर उस के बाद वह पति से मिलने के लिए उतावली हो गई. हुआ यह कि कोलकाता जाने के 6 महीने तक राधेश्याम ने उसे बराबर फोन किया. मगर उस के बाद उस ने फोन करना बंद कर दिया. उस ने रुपए भेजना भी बंद कर दिया.

राधेश्याम को फोन करने पर उस का फोन स्वीच औफ आता था. शायद उस ने फोन नंबर बदल दिया था. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राधेश्याम ने एकदम से परिवार से संबंध क्यों तोड़ दिया?

गांव के लोगों को यह शक था कि राधेश्याम को शायद मनपसंद बीवी नहीं मिली, इसलिए उस ने घर वालों व बीवी से संबंध तोड़ लिया है. लेकिन उर्मिला यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थी. वह तो अपने साजन की नजरों में चौदहवीं का चांद थी. राधेश्याम जिस कंपनी में नौकरी करता था, उस का पता उर्मिला के पास था. राधेश्याम के बाबत कंपनी वालों को रजिस्टर्ड चिट्ठी भेजी गई.

15 दिन बाद कंपनी का जवाब आ गया. चिट्ठी में लिखा था कि राधेश्याम 6 महीने पहले नौकरी छोड़ चुका था. सभी परेशान हो गए. कोलकाता जा कर राधेश्याम का पता लगाने के सिवा अब और कोई रास्ता नहीं था. उर्मिला का पिता अपंग था. कहीं आनेजाने में उसे काफी परेशानी होती थी. वह कोलकाता नहीं जा सकता था.

उर्मिला का ससुर हमेशा बीमार रहता था. जबतब खांसी का दौरा आ जाता था, इसलिए वह भी कोलकाता नहीं जा सकता था. हिम्मत कर के एक दिन उर्मिला ने सास के सामने प्रस्ताव रखा, ‘अगर आप कहें, तो मैं अपने भाई रतन के साथ कोलकाता जा कर उन का पता लगाऊं?’

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परिवार के लोगों ने टिकट खरीद कर रतन के साथ उर्मिला को हावड़ा जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. राधेश्याम जिस कंपनी में काम करता था, सब से पहले उर्मिला वहां गई. वहां के स्टाफ व कंपनी के मैनेजर ने उसे साफ कह दिया कि 6 महीने से राधेश्याम का कोई अतापता नहीं है. उस के बाद उर्मिला वहां गई, जहां राधेश्याम अपने 4 दोस्तों के साथ एक ही कमरे में रहता था. उस समय 3 ही दोस्त थे. एक गांव गया हुआ था.

तीनों दोस्तों ने उर्मिला का भरपूर स्वागत किया. उन्होंने उसे बताया कि 6 महीने पहले राधेश्याम यह कह कर चला गया था कि उसे एक अच्छी नौकरी और रहने की जगह मिल गई है. मगर सचाई कुछ और थी.

‘कैसी सचाई?’ पूछते हुए उर्मिला का दिल धड़कने लगा.

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