Hindi Story : बेला फिर महकी

Hindi Story : मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

Hindi Story : भटकाव के बाद

Hindi Story : राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

Hindi Story : नैपकिंस का चक्कर

Hindi Story : शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

Hindi Story : नाव पर गाड़ी

Hindi Story : बाहर अदालत का चपरासी चिल्ला कर कह रहा था, ‘‘दिनेश शर्मा हाजिर हो…’’

दिनेश चुपचाप कठघरे में जा कर खड़ा हो गया. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने दस्तावेजों को देखना बंद कर उस की ओर निगाह दौड़ाई. एकबारगी तो वे भी चौंकीं, फिर मुसकरा कर उस की ओर गहरी निगाहों से देखने लगीं, मानो कह रही हों, ‘मु झे पहचानते हो न. देखो, मु झे देखो. मैं वही देहाती लड़की हूं, जिसे तुम ने अपने अहम के चलते ठुकरा दिया था. आज मैं कहां हूं और तुम कहां हो.

‘तुम्हें अपनी शहरी सभ्यता और पढ़ाईलिखाई का बड़ा घमंड था न, मगर तुम कुछ कर नहीं पाए. लेकिन मैं अपनी मेहनत के बल पर बहुत अच्छी हालत में हूं और तुम इंसाफ के फैसले के लिए मेरे सामने कठघरे में खड़े हो.’

‘आज तो सारा हिसाबकिताब चुकता कर देगी,’ दिनेश मन में सोच रहा था. मगर लक्ष्मी उसी गंभीरता का भाव लिए बैठी थीं.

दोनों तरफ के वकील बहस में उल झे थे. लक्ष्मी उन की दलीलों को ध्यान से सुनते हुए दिनेश को देख रही थीं.

मामला जमीन के एक पुश्तैनी टुकड़े को ले कर था, जिस पर दिनेश एक मार्केट बनाना चाहता था. इस के लिए उस ने बाकायदा नगरनिगम से नक्शा पास करा कर काम भी शुरू कर दिया था. मगर उस के एक रिश्तेदार ने उस पर अपना दावा करते हुए कोर्ट से स्टे और्डर ले कर मार्केट का काम रुकवा दिया था.

‘यह लक्ष्मी आज मु झे नहीं छोड़ने वाली. इस से इंसाफ की उम्मीद करना बेकार है…’ दिनेश बारबार यही सोच रहा था, ‘पिछली बेइज्जती का बदला यह इस रूप में लेगी और मेरी मिल्कीयत से मु झे ही अलग कर देगी.’

2 साल पहले की ही तो बात थी, जब दिनेश ने लक्ष्मी को देखा था. उन का रिश्ता तकरीबन तय हो चुका था और वह दोस्तों के साथ उसे देखने लक्ष्मी के गांव गया था.

पहली ही नजर में दिनेश को लक्ष्मी कालीकलूटी, गांव की गंवार लड़कियों के समान दिखी थी. उन दिनों दिनेश राज्य लोक सेवा आयोग की प्रतियोगिता की तैयारी करते हवाई सपने देखा करता था. फिल्मी हीरो की तरह रंगढंग थे उस के.

दिनेश मुंहफट तो था ही, सो वह वहीं बोल पड़ा था, ‘इस गांव की गंवार सी दिखने वाली लड़की से शादी कर के मु झे अपना स्टेटस खराब करना है क्या?’

लक्ष्मी के घर वाले सन्न रह गए थे. मगर लक्ष्मी दबी आवाज में बोल पड़ी थी, ‘तो इस के लिए आप पर दबाव कौन डाल रहा है?’

‘अरे, यह लड़की तो बोलती भी है,’ वह मजाकिया लहजे में हंसते हुए बोला था, ‘मैं तो सोचता था कि गांव की लड़कियों के जबान नहीं होती.’

‘क्यों, गांव की लड़कियों के जबान क्यों नहीं होगी?’ लक्ष्मी आखिरकार हिम्मत कर के बोल पड़ी थी, ‘फिर मैं ने तो इसी साल ग्रेजुएशन किया है.’

‘तो कौन सा तीर मार लिया है तुम ने,’ दिनेश शर्मा ऐंठते हुए बोला था, ‘कोई एसडीओ, कलक्टर तो नहीं बन गईं. तुम्हारे जैसी ग्रेजुएट शहरों में चप्पलें चटकाते 100-100 रुपए की मास्टरी करती फिरती हैं.’

वहां से वापस लौटने के बाद दिनेश कई दिनों तक लक्ष्मी की चटकारे ले कर चर्चा किया करता था कि कैसे वह एक गंवार लड़की के चंगुल से बालबाल बच गया कि कैसे उस ने एक बातूनी, जवाब देने वाली लड़की से पिंड छुड़ा लिया है.

समय गुजरता रहा. इस बीच दिनेश ने अनेक प्रतियोगिता परीक्षाएं दीं, मगर वह सब में नाकाम रहा. इस बीच उस ने एमए की परीक्षा भी पास कर ली, मगर ढंग की कोई नौकरी न मिलने पर उस ने मैडिकल स्टोर की दुकान खोल ली.

दुकान ठीक ढंग से चलती न थी. तब उस ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर एक मार्केट बनाना शुरू किया, ताकि उस से किराए के रूप में ही कुछ आमदनी हो सके. मगर इस बीच उस जमीन पर उस के एक रिश्तेदार ने अपना मुकदमा ठोंक दिया.

अब उस जमीन पर स्टे और्डर था और वह मुकदमेबाजी में फंस कर फटेहाल हो चुका था. फिर भी एक उम्मीद थी कि वह मुकदमा जीत जाएगा, मगर अब लक्ष्मी को देख कर उस की यह आस भी खत्म होती नजर आती थी.

अपना बयान दे कर दिनेश बु झे मन के साथ कठघरे से वापस लौटा और बैंच पर अपनी पत्नी सरला के नजदीक बैठ गया.

‘‘यह केस हम हार जाएंगे…’’ दिनेश बोला, ‘‘मजिस्ट्रेट के हावभाव से यही लग रहा है कि फैसला हमारे खिलाफ जाएगा.’’

‘‘अभी से उलटेसीधे विचार मन में नहीं लाइए…’’ सरला बोली, ‘‘बड़े पदों पर बैठे लोग बहुतकुछ देखते हैं. वे कभी भी नाइंसाफी नहीं होने देंगे.’’

‘‘ये सब फालतू की बातें हैं…’’ दिनेश  झुं झला कर बोला, ‘‘तुम्हें पता है, वहां मजिस्ट्रेट के पद पर कौन बैठा है?’’

‘‘मजिस्ट्रेट के पद पर कोई औरत बैठी है, तो इस से क्या हुआ. उसे भी सहीगलत की सम झ होगी.’’

‘‘अरे, वह और कोई नहीं, वही लक्ष्मी है, जिस की मैं कभी बेइज्जती कर चुका हूं. इसी लक्ष्मी की कहानी तो मैं तुम्हें सुनाता रहता हूं. मगर, आज देखो, वह कहां बैठी है और मैं कहां खड़ा हूं.’’

दिनेश की बात सुन कर सरला सन्न रह गई.

‘‘कहां तो यह भरोसा किया था कि जल्दी ही अपनी मार्केट का उद्घाटन कर दूंगा और कहां यह आफत सिर पर आ गिरी…’’ दिनेश बुदबुदाया, ‘‘अब फैसले का इंतजार क्या करना, वह तो मेरे खिलाफ जाना ही है.’’

तमाम सुबूतों की जांचपड़ताल करने और गवाहों की दलीलों को सुनने के बाद लक्ष्मी ने फैसला तैयार कर दिया था. लक्ष्मी का फैसला जान कर दिनेश ताज्जुब में पड़ गया, क्योंकि लक्ष्मी ने उस के हक में फैसला दिया था.

फैसला हो जाने के साथ ही अदालत का वह कमरा खाली हो चुका था. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी पहले ही अपने केबिन में जा चुकी थीं.

लेकिन मुकदमे में जीत के बावजूद पता नहीं क्यों दिनेश को कुछ हार जाने का भी अहसास हो रहा था. फैसला उस के हक में गया है, उसे जैसे यकीन ही नहीं हो रहा था.

‘‘अब वापस नहीं चलना है क्या?’’ सरला की बातों से दिनेश चौंका.

सरला कह रही थी, ‘‘अभी हमें जल्दी से ढेरों काम निबटाने हैं.’’

‘‘पता नहीं क्यों, मु झे इस फैसले पर अभी भी यकीन नहीं हो रहा…’’ वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘सचमुच सरला, मु झे ऐसा लग रहा है, मानो मैं जीत कर भी हार गया हूं.’’

‘‘वह भी गांव की एक गंवार लड़की से… क्यों?’’ सरला की इस बात से दिनेश का सिर  झुक सा गया.

‘‘यह आप नहीं, आप का अहंकार बोल रहा है,’’ सरला कहती गई, ‘‘और देखा जाए तो आज आप के अहंकार की हार हुई है. इसे स्वीकार कीजिए. समय और हालात हमेशा एक से नहीं रहते. यह तो बस मौका मिलने की बात है.’’

‘‘मैं एक बार लक्ष्मी से मिलना चाहता था.’’

‘‘तो मिल लीजिए न.’’

दिनेश ने चपरासी से मिन्नतें कर कहा कि वह मजिस्ट्रेट साहिबा से मिलना चाहता है.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने उसे मिलने की इजाजत दे दी थी.

दिनेश सरला के साथ  िझ झकते हुए लक्ष्मी के केबिन में दाखिल हुआ. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी अपनी कुरसी पर बैठी थीं. उन्होंने दोनों को कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया, फिर चपरासी को चाय लाने का और्डर दिया.

‘‘हम आप के बड़े आभारी हैं,’’ बमुश्किल दिनेश के बोल फूटे, ‘‘आप ने हमारे हक में फैसला दे कर हमें अनेक मुसीबतों से बचा लिया है.’’

‘‘इस में आभार जैसी कोई बात नहीं…’’ लक्ष्मी हंस कर बोलीं, ‘‘मैं ने अपना फैसला किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं किया है. सुबूतों और गवाहों के बयान के मुताबिक मैं ने अपना फैसला सिर्फ इंसाफ के पक्ष में दिया है. यही मेरा फर्ज है. मैं भी इस देश के कायदे और कानून से बंधी हूं, और उन का सम्मान करती हूं.’’

दिनेश शर्मा पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया. वह शर्म से गड़ा जा रहा था. उस ने बमुश्किल चाय की प्याली थाम रखी थी. लक्ष्मी उस के संकोच को तोड़ती हुई सी बोलीं, ‘‘पुरानी बातों को भूल जाइए शर्मा साहब. जिंदगी में अनेक हादसे घटते रहते हैं. इस से जिंदगी रुक नहीं जाती. आप चाय पीजिए.’’

‘‘हमें आप की बात सुन कर बहुत खुशी हुई…’’ सरला चाय का प्याला रखते हुए बोली, ‘‘अगले महीने मार्केट का उद्घाटन होना है. अगर आप उस दिन हमारे यहां आएंगी, तो हमारी खुशी दोगुनी हो जाएगी.’’

‘‘यह खुशी की बात है कि आप के मार्केट का उद्घाटन होने वाला है…’’ लक्ष्मी बोल रही थीं, ‘‘मु झे भी उस वक्त आप के यहां आने से खुशी होती, मगर मैं ने बताया न कि मैं कुछ कायदेकानून से बंधी हूं. उन में से एक कानून यह भी है कि मजिस्ट्रेट लोग उन लोगों के यहां के कार्यक्रमों में नहीं जाते, जिन के मुकदमे वे देखते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं…’’ सरला अपनी निश्छल हंसी बिखेरते हुए बोली, ‘‘आप कायदेकानून से बंधी हैं, इसलिए आप नहीं आ सकतीं. मगर हमारे साथ तो ऐसा कोई बंधन नहीं. हम तो आप के यहां आ ही सकते हैं?’’

‘‘शौक से आइए…’’ लक्ष्मी अपनी गहरी नजरों से दिनेश शर्मा को देखते हुए बोलीं, ‘‘मु झे बहुत खुशी होगी, मगर साथ में इन्हें भी लाना.’’

एक सम्मिलित हंसी के बीच दिनेश संकोच से गड़ गया. वह अपने बौनेपन के अहसास से दबा जा रहा था. उद्घाटन के दिन भी क्या वह अपने इसी छोटेपन के अहसास से घिरा रहेगा. हां, यही उस की सजा है, जिसे उसे भुगतना ही होगा.

उद्घाटन के दिन दिनेश शर्मा की खुशी देखते बनती थी. उस का सालों का देखा हुआ सपना जो साकार हो रहा था. शहर के बिजी इलाके में 8-8 दुकानों की मार्केट का मालिक होना माने रखता था. आज मार्केट का उद्घाटन हुआ था. सैकड़ों लोगों ने उस के द्वारा कराए गए इस भव्य कार्यक्रम में आ कर भोजन किया था.

एकएक कर सारे मेहमान विदा हो चुके थे. दिनेश एक कुरसी पर बैठा कुछ सोच रहा था. अचानक सरला उस के पास जा कर खड़ी हो गई. लाल रंग की बनारसी साड़ी और जड़ाऊ गहनों से लदीफदी थी वह. वह उसे एकटक देखता रह गया. उस के हाथ में लाल रंग के एक मखमली डब्बे में चांदी का एक छोटा सा दीया था.

‘‘चलना नहीं है क्या?’’ सरला बोली, ‘‘फिर हमें वहां जा कर लौटना भी तो है.’’

‘‘अब कहां जाना है?’’ वह हैरान होते हुए बोला.

‘‘अरे, मजिस्ट्रेट लक्ष्मी के घर पर,’’ सरला हंस कर बोली, ‘‘वे आप का इंतजार कर रही होंगी.’’

दिनेश अनचाहे भाव के साथ उठ खड़ा हुआ.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने अपने पति आनंद के साथ उन का स्वागत किया. उस के पति आनंद शहर की यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे.

‘‘लक्ष्मी ने आप के बारे में मु झे सबकुछ पहले ही बता दिया है,’’ आनंद हंसते हुए बोले, ‘‘चलिए, आप ने इन्हें नकारा, तो मु झे ये मिल गईं.’’

‘‘मैं अपने किए पर वाकई बहुत शर्मिंदा हूं…’’ दिनेश बमुश्किल बोल पा रहा था, ‘‘मु झे अब अपनी गलती का अहसास हो रहा है, इसलिए अब मु झे और शर्मिंदा न कीजिए.’’

‘‘फिर भी आप को आगे का हाल जानने की उत्सुकता तो होगी ही,’’ लक्ष्मी उन्हें देखते हुए बोलीं, ‘‘उस दिन की घटना के बाद मैं पहले तो खूब रोई, फिर जीजान से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गई. पहली बार तो नाकामी मिली, मगर दूसरी बार में मेरा चयन राज्य लोक सेवा आयोग के लिए हो गया. इस के बाद तो मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.’’

‘‘सिर्फ एक बार,’’ लक्ष्मी के पति आनंद मुसकरा कर बोले, ‘‘शादी के समय को छोड़ कर.’’

एक सम्मिलित हंसी वहां गूंज उठी. मिठाइयों की प्लेट सजाते हुए लक्ष्मी ने दिनेश को देखा. वह नजरें चुरा रहा था.

सरला अपने साथ लाए चांदी के दीपक को वहीं बैठक में जला चुकी थी. उस की रोशनी में वह खो सी गई थी.

‘‘क्या करती लक्ष्मी बहन, मैं आप के लिए कुछ नहीं कर सकती, आप कायदेकानूनों से जो बंधी हैं.’’

‘‘किस कानून से…’’

‘‘यही कि आप हम से उपहार नहीं स्वीकार कर सकतीं, क्योंकि आप ने हमारा मामला देखा है.’’

फिर एक सम्मिलित हंसी गूंजी.

दिनेश किसी से नजरें नहीं मिला पा रहा था. विदा लेते वक्त लक्ष्मी ने उसे दोबारा देखा.

‘क्या अजीब बात है…’ लक्ष्मी ने सोचा, ‘कभीकभी गाड़ी को भी नदी पार कराने के लिए नाव पर चढ़ाया जाता है और तब उसे अपने छोटेपन का पता चलता है. चलो जो हुआ, अच्छा ही हुआ. किसी का अहंकार तो टूटा.’

Funny Story : भैयाजी का चुनावी कन्फैशन

Funny Story : मेरे मोबाइल फोन पर उन के मैसेज बारबार रहे थे कि मेरा वोट मेरी आवाज है. मैं अपनी आवाज को किसी के पास बिकने दूं. पर दूसरी ओर भैयाजी बराबर कह रहे थे कि रे लल्लू, मेरा वोट केवल और केवल उन की आवाज है. वे मेरी आवाज खरीदने के बाद ही संसद में अपनी आवाज उठाने लायक हो पाएंगे. मैं ने उन के मैसेज को इग्नोर कर इस बार भी मान लिया कि मेरा वोट उन की ही आवाज है.

वैसे दोस्तो, मेरे पास बेचने को अब मेरी आवाज बोले तो मेरा वोट ही बचा है. बाकी तो मेरा सबकुछ बिक चुका है, देश की संपत्तियों की तरह. सो, चुनाव के दिनों में उसे बेच कर कुछ दिन मैं भी हलकीफुलकी मस्ती कर लेता हूं.

अब के फिर चुनाव केड्राई डेको भी मुझे तर रखने वाले भैयाजी को वोट डालने के बाद मैं उन के घर गया उन का धन्यवाद करने. धन्य हों ऐसे भैयाजी, जोड्राई डेको भी अपने वोटरों को ड्राई नहीं रहने देते. उन को तर रखने का इंतजाम वे पहले ही कर देते हैं.

ऐसे भैयाजी जनता को बहुत सत्कर्मों के बाद मिलते हैं. हम ने पिछले जन्म में पता नहीं ऐसे क्या सत्कर्म किए थे, जो इस जन्म में हमें ऐसे ही खानदानी भैयाजी मिले.

भैयाजी केड्राई डेका कर्ज उतारने मैं उन के घर गया, तो वे अंधेरे कमरे में बैठे थे. राजमुजरा या राजमुद्रा में, वे ही जानें. पहले तो मैं ने सोचा कि चुनाव की थकान निकाल रहे होंगे. चुनाव के दिनों में तो जो नेता लोहे का भी हो तो वह भी थकान से चूरचूर हो जाए.

अपने भैयाजी तो ठहरे हाड़मांस के. इतने दिनों तक जागे, नींद आई. सोएसोए भी जागते रहते, जागतेजागते ही सोए रहते. जितना नेता चुनाव के दिनों में दिनरात एक करते हैं, इतना जो कोई साधारण से साधारण जीव स्वर्ग पाने के लिए करे तो उसे मोक्ष प्राप्त करने से कोई रोक पाए.

मैं ने उन के कमरे की दीवारों से आंखकान लगाए, तो भीतर अपने भैयाजी की आवाज सुनाई दी, भैयाजी दिखाई दिए. उन के चारों ओर मच्छर गुनगुना रहे थे. उन्होंने अपने आगे संविधान रखा था और खुद संविधान के आगे घुटने टेके क्षमायाचना की मुद्रा में.

तब पहली बार पता चला कि नेता भी किसी के आगे घुटने टेकते हैं, वरना मैं तो सोचता था कि नेता सभी को अपने आगे घुटने टिकवाते हैं.

भैयाजी हाथ जोड़े संविधान के आगे घुटने टेके कह रहे थे, ‘हे संविधान, चुनाव के दिनों में जो मैं ने अपने मौसेरे भाइयों को भलाबुरा कहा, मैं तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए उन से माफी मांगता हूं. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं अपने मौसेरे भाइयों को जो मैं ने इस चुनाव में कहा, कभी कहता. इस अपराध के लिए वे मुझे माफ करें.

चुनाव के दिनों में जो मैं ने दिवंगत नेताओं को भलाबुरा कहा, मैं तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए उन से माफी मांगता हूं. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं अपने दिवंगत नेताओं को जो मैं ने इस चुनाव में कहा, कभी कहता. इस अपराध के लिए वे मुझे माफ करें.

हे संविधान, चुनाव के दिनों में जो मैं ने जनता को लुभाने, रिझाने पटाने के लिए उन को झूठे आश्वासन दिए, तुम्हें साक्षी मान कर उस के लिए मैं दिल की गहराइयों से जनता से माफी मांगता हूं. ये मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. जो रोटी के बदले मुझे कुरसी की भूख होती, तो मैं भोलीभाली जनता को जो मैं ने इस चुनाव में झाठी गारंटियां दीं, कभी देता. इस अपराध के लिए झूठे आश्वासन हेतु मुझे माफ करें.

हे संविधान, झू बोलना हर पार्टी के, हर किस्म के नेता के अधिकार क्षेत्र में आता है. जनता से झू बोलना उस का मौलिक अधिकार है. जनता को छलना, दलना उस का पहला फर्ज है. पर चुनाव के दिनों में स्वयंमेव हर नेता को झू बोलने का विशेषाधिकार प्राप्त हो जाता है.

इस महापर्व में नेता के हजार झू भी माफी लायक होते हैं. दरअसल, इन दिनों उसे खुद पता नहीं होता कि वह जो बोल रहा है, क्या बोल रहा है. चुनाव के दिनों में जो मन में आए, बोलना उस का धर्म होता है, क्योंकि इन दिनों वह केवल और केवल अपने प्रचारी धर्म का पालन कर रहा होता है. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. इस अपराध के मेरा झू मुझे माफ करे.

हे संविधान, तुम मुझे समाज में जातिगत, धार्मिक, सांस्कृतिक प्रदूषण को फैलाने के दोष से दोषमुक्त करना.

मैं मानता हूं कि प्रदूषणों में सब से खतरनाक प्रदूषण जातिगत प्रदूषण होता है. पर क्या करूं, इन प्रदूषणों को समाज में फैलाने पर ही कोई अच्छा नेता बन पाता है.

समाज में जातिगत, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाए बिना स्वस्थ राजनीति हो ही नहीं सकती. यह मेरी नहीं, कुरसी की मांग थी. इस अपराध के लिए जाति, धर्म मुझे माफ करे.

हे संविधानहे संविधान…’  

Family Story : वसीयत

Family Story : सो एक पढ़ालिखा नौजवान था. उसे इसी साल नौकरी मिल गई थी. उस ने तय किया कि वह अपना 23वां जन्मदिन मनाने के लिए गांव जाएगा.

गांव में अब सोम के लिए अपना कहने को बस एक चाचाजी ही रह गए थे. वह शुक्रवार की शाम को दफ्तर से सीधा बसअड्डे गया था. गांव और चाचाजीइसी खुशी में डूब कर सोम खुशीखुशी गांव की बस में बैठ गया.

4 घंटे का सफर तय कर के सोम गांव में चुका था. वहां कर उस का मन हराभरा हो गया.

इस बार सोम 7-8 महीने बाद गांव आया था. गांव की सड़क पर उसे कुछ जानेपहचाने से चेहरे दिखाई दिए. सोम ने बहुत इज्जत के साथ उन्हें नमस्ते किया, मगर वे सभी उसे अजीब सी नजरों से घूरते रहे.

उन को नजरअंदाज कर सोम कुछ आगे बढ़ा, तो फिर से वही बात हुई. सोम ने एक परिचित से खुद ही आगे बढ़ कर पूछ लिया कि आखिर माजरा क्या है?

‘‘अपने रंगीनमिजाज चाचाजी के पास जाओ, तब मालूम होगा,’’ उस आदमी ने सोम को टका सा जवाब दिया और आगे बढ़ गया.

सोम हैरत में था. यह कैसी पहेली थी, वह समझ ही नहीं पा रहा था.

यही सोचतेसोचते सोम घर भी गया. चाचाजी आराम से नीम की छांव तले खाट पर अखबार पढ़ रहे थे.

चाचाजी को देखते ही सोम का मन अपार स्नेह से भर उठा. उस ने चाचाजी के पैर छुए, तभी एक औरत कमरे से बाहर आई. एकदम चाचाजी की हमउम्र. वह अनजान थी, फिर भी सोम ने उन्हें नमस्ते किया.

सोम सवालिया निगाहों से उस औरत को देखता रहा, तभी चाचाजी ने उस की उत्सुकता को शांत कर दिया, ‘‘बेटे सोम, ये आप की चाची हैं उमा. हम दोनों ने 3 दिन पहले ही मंदिर में ब्याह कर लिया है.’’

अपनी हैरानी को दबा कर सोम ने बहुत ही आदर से उन को दोबारा नमस्ते किया. वे खूब हंसमुख थीं.

आशीर्वाद देती रहीं. सोम अब एकदम खामोश हो गया. पलभर के भीतर ही वह समझ गया कि इतनी देर पहले तक रास्ते में हरेक उसे इस तरह से घूर क्यों रहा था.

मतलब, चाचाजी तो बेचारे बुरे फंस गए. 10 बीघा खेत. अलग से 3 बीघा में आम का बाग. इन नईनवेली चाचीजी ने तो चाचाजी को बेवकूफ बना दिया है.

सोम आगे कुछ और सोचता कि एक मधुर आवाज आई, ‘‘सोम बेटा, यह लो शरबत पी लो.’’

सोम थका हुआ तो था ही, वह उस शरबत को गटागट पी गया. उस ने इतना बेहतरीन और लाजवाब शरबत आज तक नहीं पिया था.

चाचीजी ने एक गिलास और दिया. सोम वह भी पी गया.

‘‘शुक्रिया चाचीजी,’’ सोम ने इस शब्द को चबा कर कहा, मगर वे तो इतनी सरल कि तब भीखुश रहो बेटाकह कर भीतर चली गईं.

कुछ पल के लिए एकदम सन्नाटा सा छा गया था. सोम मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि चाचीजी ने भी बढि़या हाथ मारा है. करोड़ों के मालिक हैं चाचाजी. उसी पल सोम के मन में एक दूसरा विचार भी कौंध गया. ऐसा विचार जो आज तक सोम के मन में नहीं आया था.

आज जिंदगी में पहली बार सोम इस खेत और बगीचे में अपने हिस्से को भी गिनने लगा था.

मतलबी सोम सब भूल गया था. चाचाजी का इतना त्याग, ऐसा बलिदान, उसे इस समय कुछ याद नहीं रहा. एक कार हादसे में सोम के मातापिता और चाचीजी नहीं रहे थे.

स्कूल से लौट कर आया सोम सब जानने के बाद अपने चाचाजी से लिपट गया था.

‘‘चाचाजी, अब आप एक और चाची तो नहीं लाओगे …?’’ 10 साल का सोम अपने 40 साल के चाचाजी से भीख मांग रहा था.

‘‘नहीं बेटा, मैं कभी नहीं करूंगा दूसरी शादी,’’ कह कर चाचाजी ने सोम को अपनी गोद में भर लिया था.

उस दिन के बाद से सोम के लिए माता और पिता दोनों चाचाजी हो गए थे. सोम ने होस्टल में पढ़ने की जिद की, तो चाचाजी ने 10वीं जमात के बाद उस की यह तमन्ना पूरी करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब तक भी उस की बेरोजगारी में उस के बैंक खाते में चाचाजी ही रुपए भेजते थे.

मगर, शहर का पानी पी कर सोम मतलबी सा हो गया था. अब वह अपनी यारीदोस्ती में मगन रहता था.

अपनी नौकरी में वह बिजी रहता था. यह सोच कर कि चाचाजी के साथ तो पूरा का पूरा गांव है, अब उन की परवाह क्या करना?

आज सोम को अपने हिस्से की जायदाद भी चाची की झोली में जाती दिख रही थी.

इतनी देर में नई चाजीजी खूब सारा नाश्ता ले कर गईं.

‘‘कल आप का जन्मदिन है सोम, आज से ही हम लोग जश्न शुरू करते हैं,’’ कह कर चाचीजी उस की प्लेट
में गुलाबजामुन, पकौड़े रखने लगीं.

सोम को तो इस धोखे से सदमा सा लग गया था कि तभी चाचीजी ने एक फाइल चाचाजी को थमा दी.

‘‘अरे हां सोम बेटा, यह लो जमीन के सारे कागज. सारी जायदाद और मकान, सब तुम को दे दिया है बेटे. मुझे तो उमा ने सहारा दे दिया है. वे एक कारोबारी हैं.

3-4 महीने से गांव में सर्वे कर रही थीं. हम को ऐसा लगा मानो कुदरत ने मिला दिया हो.

‘‘गांव वाले विरोध कर रहे हैं, मगर हम शादी के बंधन में बंध गए हैं,’’ सोम अपने चाचाजी की बात सुन रहा था.

चाचाजी आगे बताने लगे, ‘‘तुम्हारी चाची उमा कन्नड़ हैं और एकदम स्वाभिमानी. अब 3-4 दिन के बाद मैं भी इस के साथ कर्नाटक जा रहा हूं. जिस गांव ने हमें 3 दिन भी सहन नहीं किया, वहां आगे भी कौन सा संबंध रखा जाएगा, यह मैं जानता हूं.

‘‘तुम्हारी चाची ने ही कहा है कि उन के पास अपने कारोबार से कमाया हुआ इतना पैसा है कि एक पाई भी किसी से नहीं चाहिए. यह संभालो अपनी विरासत,’’ कह कर चाचाजी ने सोम को एक गुलाबजामुन खिला दिया.

सोम ने यह सुना, तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

उमा चाची, आप तो बहुत महान हो,’ सोम ने मन ही मन कहा.

‘‘बेटा, अभी तो एक मैनेजर है, जो सब देखभाल कर रहा है. आगे भी सब हो जाएगा. अगर चाहो तो नौकरी की जगह अपनी जमीन भी संभाल सकते हो,’’ उमा चाची ने बाहर कर सोम से कहा.

उमा चाची की यह बात सुन कर सोम का मन हुआ कि उन के पैरों की धूल को माथे पर सजा ले.

इस के बाद चाचाचाची बैंगलुरु चले गए और वहीं बस गए.

सोम आज भी हर साल 3-4 बार उन से मिलने जरूर जाता है. उस ने उमा चाची से स्वाभिमान और सचाई का अनूठा सबक सीखा है.

Love Story : मजहब की दीवार

Love Story : अदालत में आज सुबह से ही काफी चहलपहल नजर आ रही थी. शहर के वकील और मीडिया के लोगों का जमावड़ा अदालत के आसपास लग गया था. वहां की चाय और पनवाड़ी की गुमटियों पर लोगों की जबान पर एक ही चर्चा थी.

दरअसल, आज के दिन एक अंतर्धार्मिक शादी को ले कर उपजे झगड़े का फैसला जो आने वाला था.

गोरखपुर के रहने वाले गुलजार ने अदालत में याचिका दाखिल कर यह गुहार लगाई थी कि उस की पत्नी आरती को उस के मांबाप बंधक बनाए हुए हैं.

पुलिस सिक्योरिटी के बीच अदालत में मौजूद गुलजार के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. उस ने जिस आरती से आज से 2 साल पहले प्यार की पेंगें बढ़ाई थीं, उसे वह हर कीमत पर अपना जीवनसाथी बनाए रखना चाहता था, पर मजहब की दीवार उसे ऐसा करने से रोक रही थी.

25 साल के मेकैनिक गुलजार को 2 साल पहले का वाकिआ याद आ गया था.

उस दिन गुलजार अपने गैराज में आई एक मोटरसाइकिल की मरम्मत का काम कर रहा था, थोड़ी दूर पड़ोस में रहने वाली 19 साल की आरती स्कूल बस के आने का इंतजार कर रही थी.

वैसे तो एक ही महल्ले में रहने के चलते वे एकदूसरे से अनजान नहीं थे, पर गुलजार का ध्यान गाड़ी की मरम्मत के बजाय आरती को देखने में ज्यादा लग रहा था.

उस दिन जब आधा घंटे से ज्यादा का वक्त निकल जाने के बाद भी आरती की बस नहीं आई, तो गुलजार से रहा नहीं गया. आखिरकार उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज तुम्हारी बस नहीं आई आरती?’’

‘‘हां गुलजार, बस नहीं आई. आज से ही तिमाही इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं,’’ आरती ने जवाब दिया.

‘‘अगर कोई एतराज न हो, तो मैं तुम्हें मोटरसाइकिल से स्कूल छोड़ दूं?’’ गुलजार ने आरती से पूछा.

‘‘गुलजार, तुम अगर मुझे स्कूल छोड़ दोगे, तो मैं वक्त पर पहुंच कर इम्तिहान दे पाऊंगी.’’

गुलजार के मन की मुराद पूरी हो गई. आरती की ‘हां’ मिलते ही वह खुशी के मारे उछल पड़ा. उस दिन वह अपनी मोटरसाइकिल पर आरती को बिठा कर स्कूल छोड़ने चला गया.

मोटरसाइकिल पर आरती की छुअन पा कर गुलजार के शरीर में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. स्कूल के गेट पर आरती को जैसे ही मोटरसाइकिल से उतारा, तो गुलजार की नजरें आरती से दोचार हुईं. बस, वह उसे देखता ही रह गया.

जवानी की दहलीज पर कदम रख रही आरती की खूबसूरती उसे पहली नजर में ही भा गई. आरती ने भी गुलजार को प्यारभरी नजरों से देख कर ‘थैंक्स’ कहा और ‘बाय’ करते हुए स्कूल गेट से भीतर चली गई.

गुलजार वैसे तो हाईस्कूल तक ही पढ़ा था, पर स्कूल आतेजाते बच्चों को देख कर वह बहुत खुश होता था. वह गाडि़यों की मरम्मत के काम के अलावा जरूरतमंद लोगों की मदद भी करता था. महल्ले के सब लोग उसे प्यार करते थे.

उस दिन आरती को स्कूल छोड़ कर आए गुलजार पर आरती के रूपरंग का नशा इस कदर छा चुका था कि वह अपनी सुधबुध खो बैठा. वह अब रोज आरती के स्कूल जाने के वक्त उस का दीदार करने समय से पहले ही गैराज पहुंचने लगा था.

आरती भी गुलजार की नजरों से अनजान नहीं थी. वह भी उस के मोहपाश में बंध चुकी थी.

एक दिन मौका पा कर गुलजार ने आरती से अपने प्यार का इजहार करते हुए कह दिया, ‘‘आरती, आई लव यू. मैं तुम से बेइंतिहा मुहब्बत करता हूं.’’

आरती गुलजार की सादगी पर फिदा हो चुकी थी. वह भी मन ही मन गुलजार से प्यार करने लगी थी.

जब गुलजार ने अपने प्यार का इजहार किया, तो आरती भी अपनेआप को रोक न सकी और उस ने भी शरमाते हुए इजहार का जवाब देते हुए कह दिया, ‘‘आई लव यू टू.’’

इस के बाद तो उन दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. जब भी मौका मिलता, वे दोनों शहर के एक बड़े पार्क में बैठ कर अपने दिल की बातें कहते और एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें खाते.

मगर गुलजार और आरती का प्यार जमाने की नजरों से ज्यादा दिन छिप नहीं सका. उन के प्यार की कहानी आरती के घर वालों को पता चल गई, तो उस पर नजर रखी जाने लगी.

अब आरती छिपछिप कर गुलजार से मिलने लगी. दोनों शादी तो करना चाहते थे, मगर मजहब की दीवार उन के प्यार में सब से बड़ी रुकावट बन रही थी. हर वक्तहिंदूमुसलिम का राग अलापने वाले समाज के कुछ लोगों की नजर में उन का प्यार लव जिहाद के अलावा कुछ नहीं था. आरती के पापा को भी यह रिश्ता किसी भी हालत में मंजूर नहीं था.

घर वालों की तमाम बंदिशों के बावजूद भी गुलजार और आरती का मिलना बंद नहीं हो पाया, तो घर वालों ने आरती की स्कूल की पढ़ाई ही बंद करा दी. स्कूल जाना बंद होने की वजह से आरती अपने ही घर में कैद हो कर रह गई. दोनों बेचैन रहने लगे.

मौका मिलते ही वे कभी छिप कर मिल लेते, तो कभी मोबाइल फोन पर बातचीत कर तसल्ली कर लेते. जब कभी आरती के घर वालों को इस बात का पता चलता, तो वे उस की जम कर पिटाई करते.

अपने परिवार का सब से लाड़ला गुलजार खान अपने अब्बू और अम्मी के साथ रहता है. घर में बड़े भाई जावेद के अलावा एक छोटी बहन भी थी. बड़े भाई के निकाह के बाद अब्बू गुलजार के निकाह के लिए लड़की तलाश रहे थे, तभी उन के कानों तक भी गुलजार और आरती के इश्क की कहानी आ गई.

अब्बा ने गुलजार को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘देख बेटा, आजकल हालात वाकई ठीक नहीं हैं. अलगअलग मजहब के लड़कालड़की की शादी को ‘लव जिहाद’ का नाम दे कर बहुत सख्ती की जा रही है.

‘‘अगर तू ने उस लड़की से निकाह कर लिया, तो हमारे परिवार को लोग छोड़ेंगे नहीं. तेरी छोटी बहन का निकाह भी तो मुझे करना है.’’

अब्बा की समझाइश का गुलजार पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मैं हर हाल में आरती से ही शादी करूंगा.’’

बेटे के तेवर देख कर अब्बा ने गुलजार को आरती के साथ निकाह करने की बेमन से इजाजत दे दी थी, मगर आरती के घर वालों की मंजूरी मिलने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी.

मन मार कर एक दिन गुलजार के अब्बा आरती के पापा राकेश के पास शादी की बात करने गए, तो राकेश ने उन्हें भलाबुरा कहा और सख्त हिदायत देते हुए कहा, ‘‘अपने बेटे को समझ लो, वरना उस के हाथपैर तोड़ देंगे.’’

गुलजार के अब्बा खून का घूंट पी कर घर आ गए. गुलजार ने शहर के वकील से मिल कर सलाह ली और आरती के साथ एक प्लान बना कर शादी करने का फैसला कर लिया.

वे दोनों कोर्टमैरिज के लिए अर्जी देने एसडीएम कोर्ट पहुंचे, लेकिन वहां पर आरती के पापा के दोस्त सोनू ने उन्हें देख लिया.

घर आ कर सोनू ने राकेश को यह बात बता दी. आरती की इन हरकतों की वजह से समाज में राकेश की बदनामी हो रही थी. वे एक सरकारी दफ्तर में मुलाजिम थे. उन का संयुक्त परिवार था, जिस में पत्नी, एक बेटा, 2 बेटियां, मातापिता की जिम्मेदारी उन के कंधों पर थी. उन की जातिबिरादरी में लवमैरिज करना बड़ी बात तो नहीं थी, पर एक विधर्मी लड़के से शादी करना बहुत बड़ा गुनाह था.

ऐसा होने पर कानून के साथसाथ उन के धर्म के लोग उन का समाज में जीना मुश्किल कर देते. यही सोच कर वे आरती को समझा रहे थे, मगर वह यह सब समझने को तैयार नहीं थी.

आरती के घर वालों का एकएक दिन तनाव में गुजर रहा था. उस दिन आरती के पापा आगबबूला हो गए और गुस्से में आरती को जमीन पर धकेल दिया.

आरती को चोट लगने के चलते उठनेबैठने में दिक्कत होने लगी, तो उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां पर ऐक्सरे रिपोर्ट में पता चला कि आरती की कमर की हड्डी में फ्रैक्चर आ गया है.

आरती अस्पताल में महीनेभर भरती रही और उसे पूरी तरह ठीक होने में 6 महीने का समय लग गया. आरती के दादादादी सामाजिक रीतिरिवाजों का वास्ता दे कर उसे खूब समझाते, मगर उस पर इस का कोई असर नहीं पड़ता था. वह तो अपने मनमंदिर में गुलजार के प्यार का दीया जलाए बैठी थी.

एक दिन गुलजार ने आरती को फोन पर कहा, ‘‘आरती, यहां हमारी शादी मुमकिन नहीं है.’’

‘मगर, क्यों गुलजार?’ आरती ने चिंता जाहिर करते हुए पूछा.

‘‘मध्य प्रदेश की सरकार ने एक कानून बनाया है, जिस के तहत शादी के लिए धर्म परिवर्तन करना कानूनन अपराध माना गया है,’’ गुलजार ने आरती को समझाते हुए कहा.

‘मतलब, मुहब्बत भी सरकार से पूछ कर करनी होगी…’ आरती ने नाराजगी के साथ कहा.

‘‘लेकिन आरती, तुम चिंता मत करो. मैं ने इस का भी हल निकाल लिया है,’’ गुलजार बोला.

‘कैसा हल निकाला है? मुझे तो अब डर लगने लगा है,’ आरती बोली.

‘‘हम दोनों भाग कर मुंबई चलते हैं, वहां पर कोर्ट में शादी कर लेंगे. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा, तो वापस जबलपुर आ जाएंगे,’’ गुलजार ने कहा.

एक साल की लंबी जद्दोजेहद में आरती और गुलजार बुरी तरह टूट चुके थे. दोनों यह बात अच्छी तरह समझ चुके थे कि जबलपुर में शादी करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.

इसी दौरान गुलजार ने एक पत्रिका में मुंबई के यूथ इंडिया ग्रुप के बारे में पढ़ा, तो ग्रुप से जुड़े वकील सुभाष के बारे में जानकारी हुई. उस ने सुन रखा था कि यूथ इंडिया गु्रप इस तरह की शादी कराने में मदद करता है.

उम्मीद की किरण दिखते ही उन दोनों ने मुंबई जाने का प्लान बनाया और एक दिन ट्रेन के जरीए जबलपुर से मुंबई के लिए भाग निकले.

गुलजार और आरती ने मुंबई पहुंच कर यूथ इंडिया ग्रुप के वकील सुभाष को अपनी पूरी कहानी सुनाई.

दोनों की कहानी सुन कर सुभाष ने अपने ग्रुप की एडवाइजर कंचन को उन की मदद करने को कहा.

कंचन की मदद से उन दोनों ने बांद्रा कोर्ट में पहुंच कर शादी कर ली. बाकायदा बीएमसी में शादी का रजिस्ट्रेशन कराया और शादी करने की जानकारी स्पीड पोस्ट के जरीए घर वालों के अलावा अपने शहर के पुलिस थाने में भेज दी गई.

इधर आरती के घर से भाग जाने से उस के घर वालों की अपने इलाके में बदनामी हो रही थी. लिहाजा, घर वालों ने शहर के पुलिस स्टेशन में उस की गुमशुदगी दर्ज करा दी.

आरती के घर वालों ने एक संगठन हिंदू सेना के जरीए पुलिस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. यह संगठन अपने को धर्म का हिमायती बता कर एक हिंदू लड़की से मुसलिम लड़के की शादी को लव जिहाद का नाम दे कर नए कानून की दुहाई दे रहा था.

प्रेम विवाह की राह कांटों से भरी हुई थी. परेशानियां अभी तक उन का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

आंदोलनकारियों के दबाव में शहर की पुलिस आरती के भाई को ले कर मुंबई पहुंच गई. कागजी कार्यवाही पूरी कर पुलिस दोनों को वापस ले आई.

ट्रेन में सफर के दौरान ही पुलिस आरती के बयान नोट करती रही और आरती का भाई गुलजार को रास्तेभर धमकाता रहा.

शहर के पुलिस स्टेशन पहुंचने पर आंदोलन कर रहे कुछ लोगों के साथ आरती के घर वालों ने भी गुलजार और आरती को खूब डरायाधमकाया, मगर आरती और गुलजार अपनी बात पर कायम रहे.

आरती के भाई ने उन से कोर्टमैरिज से संबंधित सभी कागजात छीन लिए और आरती को अपने घर ले गया.

इधर पुलिस स्टेशन में पुलिस ने गुलजार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. पुलिस स्टेशन के दारोगा गुलजार से बोले, ‘‘यह इश्कमुहब्बत का चक्कर छोड़ो और आरती को उस के हाल पर छोड़ दो, वरना जेल में सड़ते रहोगे.’’

लेकिन प्यार के रंग में डूबे गुलजार ने दारोगा से साफसाफ कह दिया, ‘‘सर, मैं आरती से बेपनाह मुहब्बत करता हूं. उस से मैं ने शादी भी की है. मैं किसी भी कीमत पर उस से जुदा नहीं हो सकता.’’

दारोगा ने 2 बेंत गुजलार की पीठ पर जमाते हुए कहा, ‘‘जब तुम्हें गांजा रखने के झूठे केस में जेल भेज देंगे, तब तुम्हारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी और यह प्यार का भूत भी उतर जाएगा.’’

गुलजार ने जब दारोगा की बात मानने से इनकार कर दिया, तो उसे पुलिस स्टेशन में बुरी तरह से पीटा गया, जिस से वह बेहोश हो गया. बाद में उसे अस्पताल में भरती करा दिया गया.

जब गुलजार की तबीयत ठीक हो गई, तो पुलिस ने इस ताकीद के साथ उसे छोड़ दिया कि वह अब आरती और उस के घर का रुख भूल कर भी न करे.

पुलिस ने जैसे ही आरती को उस के घर वालों को सौंपा, तो उन्होंने आरती को खूब डरायाधमकाया, मगर आरती ने भी बेफिक्र हो कर कह दिया, ‘‘हम दोनों अपनी जान दे देंगे, मगर एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते.’’

जब घर वालों को लगा कि आरती उन की बात मानने वाली नहीं है, तो उन्होंने उसे ननिहाल भेज दिया.

आरती का ननिहाल उत्तर प्रदेश के एक गांव में था, जहां पहुंचना इतना आसान नहीं था. ननिहाल में भी उस के मामा आरती पर कड़ी नजर रखते थे. मोबाइल फोन पापा ने पहले ही छीन लिया था. ऐसी सूरत में आरती और गुलजार का हाल बुरा था.

गुलजार को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. गुलजार और आरती का इश्क इतने कड़े इम्तिहान ले रहा था, मगर दोनों हार मानने को तैयार नहीं थे.

तकरीबन एक हफ्ते बाद आरती ने मौका मिलते ही मामा के फोन से गुलजार को फोन कर के बताया, ‘‘मुझे यहां पर बंधक बना कर रखा गया है. मौत भी मुझे गले लगाने को तैयार नहीं है. एक दिन फांसी का फंदा लगाने की भी कोशिश की, मगर मामा ने दरवाजा तोड़ कर मुझे बचा लिया.’’

यह सुन कर गुलजार का दिल दहल गया. उस ने आरती को हिम्मत देते हुए कहा, ‘आरती, तुम ने यह कदम उठाने से पहले यह क्यों नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकता. थोड़ा सब्र करो आरती.’

गुलजार ने एक बार फिर यूथ इंडिया ग्रुप के सुभाष से मदद की गुहार लगाई. सुभाष ने गुलजार के शहर के एक नामी एडवोकेट के जरीए कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कोर्पस रिट) लगाने का सुझाव दिया.

हैबियस कोर्पस कानून में ऐसा इंतजाम है, जिस के तहत कोई भी किसी को गैरकानूनी ढंग से बंधक बनाए जाने की शिकायत कर सकता है.

गुलजार की तरफ से वकील ने हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की. इस के बाद अदालत ने आरती को पेश करने का निर्देश शहर के एसपी को दे दिया. आननफानन ही पुलिस ने आरती के घर वालों को उसे जल्द कोर्ट में पेश करने को कहा.

आखिरकार कोर्ट के आदेश पर आरती को उस के ननिहाल से शहर लाया गया. कोर्ट में पेश होने के पहले की रात आरती ने पुलिस स्टेशन में भी गुलजार के साथ ही रहने की बात कही, मगर पुलिस ने रात होने पर आरती को उस के पापा के दोस्त के घर भेज दिया.

वहां पर भी आरती को फिर से डराधमका कर बयान बदलने के लिए काफी दबाब बनाया गया. दूसरे दिन सुबह आरती को पुलिस की कस्टडी में कोर्ट में पेश किया गया.

‘और्डर… और्डर…’ अदालत की कार्यवाही शुरू की जाए.

जैसे ही गुलजार के कानों में जज की कुरसी पर बैठी मजिस्ट्रेट की आवाज गूंजी, तो वह यादों के सफर से वापस लौट आया.

अदालत में सुनवाई के दौरान सरकारी वकील इस शादी का विरोध कर रहे थे. उन का कहना था कि यह शादी गैरकानूनी है. गुलजार ने आरती को बहलाफुसला कर धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर किया है. लिहाजा, आरती को उस के मातापिता को सौंप दिया जाए.

गुलजार के वकील ने अदालत से दरख्वास्त की, ‘‘मी लौर्ड, आरती को अपनी बात कहने की इजाजत दी जाए.’’

‘‘इजाजत है.’’

अदालत का आदेश मिलते ही थोड़ी ही देर में आरती कठघरे में खड़ी हो गई. सब की नजरें उसी पर टिकी हुई थीं.

गुलजार का दिल भी जोरों से धड़क रहा था. उसे डर था कि आरती इस समय उस के घर वालों की कैद में है. ऐसे में वह अपने बयान से मुकर गई, तो उस के सपने शीशे की तरह टूट जाएंगे.

गुलजार इस बात से भी चिंतित था कि मध्य प्रदेश में लव जिहाद से संबंधित कठोर कानून बना है. मध्य प्रदेश देश के उन राज्यों में से एक है, जहां पर धर्म परिवर्तन को ले कर कानून बनाया गया है, जिस के मुताबिक शादी और किसी दूसरे कपट से भरे तरीके से किए गए धर्मांतरण के मामले में 10 साल की कैद और एक लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है.

आरती ने अपने दिल को मजबूत करते हुए अदालत को बताया, ‘‘मैं अब 21 साल की हूं और मैं ने गुलजार से अपनी मरजी से शादी कर इसलाम धर्म कबूल किया है. मुझे कभी भी धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर नहीं किया गया. मैं ने जो भी कदम उठाया है, वह अपनी मरजी से उठाया है.

‘‘मेरे घर वाले मुझे जबरदस्ती ननिहाल ले गए थे. वहां मुझे सताया गया और बंधक बना कर रखा गया. मैं पूरे होशोहवास में आप के सामने कह रही हूं. मैं गुलजार के साथ ही रहूंगी.’’

मजिस्ट्रेट ने आरती की बात को ध्यान से सुना और कुछ देर बाद कोर्ट ने कहा, ‘‘आरती ने अपने बयान में साफ कर दिया है कि उस ने याचिका लगाने वाले से शादी की थी और वह हर हाल में उस के साथ रहना चाहती है. उस की उम्र को ले कर भी किसी तरह का कोई विवाद नहीं है. अंतर्धार्मिक जोड़े को विवाह या लिवइन रिलेशनशिप में रहने का हक है.’’

मजिस्ट्रेट ने आरती और गुलजार को एकसाथ रहने का अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘पुलिस इस जोड़े को प्रोटैक्शन दे और घरपरिवार के लोग भी उन के इस फैसले का सम्मान करें.’’

अदालत का फैसला आते ही गुलजार की आंखें खुशी से नम हो गईं. उस ने अपने हाथ ऊपर उठाते हुए अदालत का शुक्रिया अदा किया.

समाज ने जिस प्रेमी जोड़े को दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया था, अदालत के इस फैसले ने साबित कर दिया कि प्यारमुहब्बत में धर्म की दीवार बाधक नहीं बन सकती.

इस फैसले के बाद जैसे ही आरती गुलजार के करीब आई, तो दोनों एकदूसरे के गले लग गए और उन की आंखों से बरबस आंसू निकल आए.

Family Story : नादान

Family Story : गुस्से से बिफरते हुए दारोगा ने दुष्यंत का कौलर कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैं तेरे खिलाफ ऐसा केस बनाऊंगा कि तू इस जन्म में तो जेल से बाहर आने से रहा. तू इनसान है या हैवान… तुझे जरा भी दया नहीं आई अपनी ही बीवी को जलाते हुए… अरे, वह तेरे दुखसुख की साथी थी.’’

इस पर दुष्यंत गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ‘‘साहब, मेरा यकीन कीजिए… मैं ने कुछ नहीं किया… उस ने खुद ही यह सब किया है.’’

लेकिन दारोगा रोज ऐसे केस देखता था. लोग कहीं 2 महीने की दुलहन, तो कहीं 4 महीने की दुलहन को दहेज के लिए जला देते थे. हर बार बच्चियों को जला हुआ देख कर उस का खून खौल जाता था. उसे बहुत दुख होता था. उस की भी 2 बेटियां थीं.

सरकारी अस्पताल के आईसीयू रूम के बाहर खड़े लोगों को लगातार अंदर से चीखने की आवाज आ रही थी, जो काफी दर्दभरी थी. कमजोर दिल के लोग सुनते तो घबरा ही जाते.

अंदर दुष्यंत की पत्नी दीपा, जो जल चुकी थी, की पट्टियां बदली जा रही थीं, जो काफी दर्दनाक काम था. अकसर पट्टी के साथ चमड़ी भी उखड़ने लगती, जिस से पीड़ा होती थी, लेकिन इंफैक्शन से बचाने के लिए पट्टी बदलना और दवा लगाना भी जरूरी था.

सभी के चेहरे दुखी और मन बेचैन थे. दारोगा बयान लेने के लिए आया था, लेकिन पीडि़ता इस हालत में नहीं थी कि अभी बयान दे सके. वह चाहता था कि जल्द से जल्द बयान ले ले, ताकि कोई उस के बयान को प्रभावित न कर सके, लेकिन दर्द और जलन से परेशान वह बयान देने की हालत में नहीं थी. आखिर कितनी देर तक दारोगा इंतजार करता, वह चला गया.

दुष्यंत अपनी पत्नी दीपा के साथ हुई घटना को ले कर परेशान था और अब दारोगा की बातों ने उस को खुद अपने भविष्य को ले कर परेशान कर दिया था. वह जानता था कि अगर दीपा को कुछ हो गया, तो उसे जेल जाने से कोई भी नहीं बचा सकता.

गलती किस की है और किस की नहीं, इस के कोई माने नहीं हैं. अब इतनी जल्दी उसे इन सब चीजों से छुटकारा नहीं मिलने वाला है. आखिर वह कहां से लाएगा सुबूत कि उस ने कुछ गलत नहीं किया है.

इधर अस्पताल भले ही सरकारी था, लेकिन फिर भी कदमकदम पर पैसों का खर्च था. सरकारी सुविधा नाम की थी. हर काम के लिए इन लोगों को ‘सुविधा शुल्क’ चाहिए था और वह भी मुंहमांगा. न करने का मतलब यह कि अपने मरीज को ज्यादा तकलीफ देना.

पैसा मिलने पर ही उन के दिल भी पसीजते थे, वरना चाहे मरीज दर्द से चीखपुकार कर मर जाए, इन के दिल पत्थर के हो जाते थे.

दुष्यंत को हर चीज से नफरत होने लगी थी. यह बात वह अच्छी तरह से जानता था कि वह एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुका है, जहां से उस का निकलना तकरीबन नामुमकिन है.

रातभर अस्पताल की बैंच पर करवट बदलते और मच्छरों से जूझते हुए दुष्यंत की अपनी तबीयत भी कुछ नासाज हो चुकी थी. उस की सास कमला, जो अस्पताल में उस के साथ ही थीं, अस्पताल के बाहर से कागज के कप में चाय ले कर आई थीं.

पता नहीं क्यों दुष्यंत को अपनी सास कमला पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था, लेकिन वह फिर सोच रहा था कि आखिर इस सब में उन की गलती भी क्या है. जो भी किया है, वह दीपा ने किया है.

कमला भी अपनी बेटी के इस कांड से शर्मिंदा थीं. वे जानती थीं कि दुष्यंत कभी भी अपनी पत्नी को जला कर मारने की कोशिश नहीं करेगा, लेकिन वे मां थीं. करें तो क्या करें.

अगले दिन दारोगा फिर दीपा का बयान लेने के लिए आया. दारोगा को देखते ही दुष्यंत का चेहरा उतर जाता था. वह दारोगा की अनापशनाप बातों और बेइज्जती का घूंट चुपचाप पी जाता था. इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी नहीं था.

दारोगा सामने वाली बैंच पर ही बैठ कर डाक्टर का इंतजार कर रहा था, ताकि डाक्टर से इजाजत ले कर दीपा का बयान ले सके.

डाक्टर किसी और मरीज के औपरेशन में बिजी थे, तो उन के आने में समय लगना था.

दारोगा कुछ देर तो अपने मोबाइल फोन को चलाता रहा, फिर सामने उस की नजर दुष्यंत पर गई. उस का दीनहीन चेहरा देख कर उस ने अपने मन में गाली दी और सोचने लगा, ‘देखने में कितना शरीफ और मासूम है. क्या ऐसा हो सकता है कि यह अपनी बीवी को जिंदा जलाए?

‘‘लेकिन जब तक इस की बीवी बयान नहीं दे देती, तब तक सच और झूठ का पता नहीं चल सकता. बहुत बार जो मासूम दिखता है, वही असली अपराधी रहता है.’

दारोगा ने दुष्यंत को अपने पास बुलाया और पूछा, ‘‘मुझे सचसच बता, आखिर तू ने ऐसा क्यों किया?’’

दुष्यंत एक फीकी और दर्दभरी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘साहब, जब आप पहले ही मान बैठे हैं कि मैं अपराधी हूं, तो मेरे कहने और नहीं कहने से क्या फर्क पड़ जाएगा…

‘‘लेकिन, यह सच है कि मैं ने कुछ नहीं किया और मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि दीपा अपने साथ ऐसा कर लेगी, वरना हम दोनों में झगड़ा होने के बाद मैं इसे छोड़ कर बाहर नहीं जाता. मैं तो झगड़ा टालने के लिए इसे छोड़ कर गया था,’’ इतना कहतेकहते वह रोने लगा.

दारोगा भी आखिर इनसान था. वह जानता था कि मर्द की जिंदगी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जो वह किसी से नहीं बता पाता है और दुख अपने अंदर ही पाले रहता है.

‘‘आखिर कोई तो वजह रही होगी, जो तेरी बीवी ने आग लगा ली?’’ दारोगा का सवाल बदल गया.

बैंच पर बैठे दुष्यंत ने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया और जैसे हार मान कर बोला, ‘‘सब से बड़ी वजह मेरी गरीबी है… अगर मेरे पास पैसा होता या कोई बड़ी नौकरी होती, तो मैं यह नौबत ही नहीं आने देता.

‘‘मैं गुजरात में हीरा छिलाई कारखाने में काम करता हूं. रातदिन डबल ड्यूटी करने पर घरखर्च भेजने के बाद कुछ पैसों का जुगाड़ कर लिया था, ताकि यहां पर आ कर कोई छोटीमोटी दुकान खोल कर हमेशा के लिए यहीं बस जाऊं, क्योंकि इतने बड़े शहर में रहना मुमकिन नहीं है.

‘‘वहां खर्च बहुत ज्यादा है, उस के मुकाबले कमाई कम है. इतना हाड़ तोड़ने के बाद जब मैं ने कुछ पैसा बचाया था, तो दीपा को लग रहा था कि वहां पर बहुत कमाई है, तो हम दोनों को वहीं पर चल कर रहना चाहिए.

‘‘बताओ साहब, मैं तो शेयरिंग रूम में रहता हूं. कभीकभी फैक्टरी में ही सो जाता हूं. मैं औरत जात को कहां रखता? वहां पर तो आलम यह है कि अगर रूम में 2 लोग सोते हैं, तो 2 लोगों को बाहर रहना पड़ता है, क्योंकि रूम बहुत छोटा है.

‘‘दीपा की जिद थी कि हम दोनों गुजरात चलेंगे और मेरी जिद थी कि यहीं पर एक छोटीमोटी दुकान खोल कर चैन से जिएंगे. हमारा इसी बात को ले कर झगड़ा हुआ था.

‘‘हां, मैं ने उसे डांटा था, लेकिन मैं कहां गलत था? वह मेरी मजबूरियां समझने को तैयार ही नहीं थी. आखिर मैं जब तक जवान हूं, तब तक डबल ड्यूटी कर लूंगा और उस के बाद जब शरीर साथ नहीं देगा, तब क्या करूंगा?

‘‘मांबाप हैं नहीं कि घर से कोई बड़ा सहारा मिलेगा. आप ने मेरा टूटाफूटा घर तो देखा ही है. ससुराल वाले भी पैसे से इतने मजबूत नहीं हैं कि वहां से कुछ मदद मिल जाए.

‘‘साहब, गरीबी बहुत बड़ी बीमारी है. हर कदम पर परेशानी और बेइज्जती झेलनी पड़ती है. कहा जाता है कि मर्द औरत पर जुल्म करता है, लेकिन मर्द कितने जुल्म खुद सहता है, यह कोई नहीं जानता है,’’ कहने के साथसाथ दुष्यंत फफकफफक कर रोने लगा.

दारोगा को दुष्यंत के साथ हमदर्दी होने लगी, लेकिन उसे तो अपनी ड्यूटी करनी ही थी. पहले के बजाय अब उस की बोली में कुछ नरमी थी, क्योंकि कहीं न कहीं उस का मन कह रहा था कि दुष्यंत गुनाहगार नहीं है, लेकिन दीपा के बयान से ही सबकुछ साफ हो पाएगा.

उस दिन भी दीपा इस हालत में नहीं थी कि वह बयान दे सके, इसलिए दारोगा को खाली हाथ ही जाना पड़ा.

इधर अस्पताल का खर्च बढ़ता ही जा रहा था. दुष्यंत के पास अपनी देह के सिवा अब कुछ नहीं बचा था. जितनी भी जमापूंजी थी, सब खर्च हो चुकी थी, लेकिन दीपा की हालत अब पहले से बेहतर थी.

जलने वाले दिन तो दुष्यंत दीपा को ध्यान से देख भी नहीं पाया था, लेकिन चौथे दिन अब उस की हालत थोड़ी ठीक थी. पट्टियां बदलते समय पहली दफा दीपा को देख कर दुष्यंत डर गया, क्योंकि उस के बाल सारे जल चुके थे. छाती और बाजू का हिस्सा भी थोड़ाबहुत जल चुका था. दीपा काफी भयानक लग रही थी.

दुष्यंत सिहर गया. वह तुरंत कमरे से बाहर निकल गया और जा कर रोने लगा. सास कमला दूर से सब देख
रही थीं. उन की अनुभवी आंखें सारी बातों को महसूस कर रही थीं, लेकिन वे बेबस थीं.

दुष्यंत अब अस्पताल वालों को ‘सुविधा शुल्क’ देने की हालत में नहीं था. लिहाजा, बहुत सारे काम तो अस्पताल के स्टाफ वाले नहीं करते थे. बहुत मुश्किल से जीहुजूरी करने पर एकाध नर्स आती थी, लेकिन दुष्यंत को मदद के लिए साथ में रहना पड़ता था.

खैर, 5वें दिन दारोगा बयान लेने के लिए आया. दीपा ने वही सबकुछ बताया, जो दुष्यंत कह रहा था. दारोगा को पहले ही अंदाजा हो गया था कि इस औरत ने तुनकमिजाजी में अपना घर और खुद को फूंक लिया है और अपनी जिंदगी नरक बना ली है, लेकिन उसे तो अपनी ड्यूटी करनी ही थी. वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकता था, लेकिन ऐसे लोगों का परिवार उजड़ते और बिखरते देख कर उसे दुख भी होता था.

लेकिन दारोगा को इस बात की खुशी थी कि कम से कम दुष्यंत तो बेकुसूर है, क्योंकि वह जानता था कि एक बार किसी को अपराध में लंबी सजा हो जाने के बाद जवानी तो जेल में ही कट जाती है और बुढ़ापा बाहर घिसटने के लिए बच जाता है, लेकिन अच्छा हुआ कि दुष्यंत के साथ ऐसा कुछ नहीं होगा.

फिर भी बयान लेने के बाद दारोगा दीपा से यह कहना नहीं भूला, ‘‘तुम ने अपनी थोड़ी सी नादानी में अपने घर को आग लगा दी और अपनी जिंदगी को भी तुम ने ऐसा कर लिया. न तुम पहले जैसी जिंदगी जी पाओगी और न ही अब पति का पहले जितना प्यार ही पा सकोगी, क्योंकि तुम ने उसे तन, मन और धन तीनों से तोड़ दिया है.

‘‘तुम्हारा इलाज कराने में उस ने अपनी सारी जमापूंजी गंवा दी है. सोचो कि तुनकमिजाजी में तुम ने क्याक्या खो दिया है… वह तो तुम्हारे सुख के लिए ही तुम से लड़ रहा था…

‘‘तुम ने अपने शरीर को ही नहीं जलाया है, बल्कि अपनी खुशियों के साथसाथ अपने पति की जिंदगीभर की कमाई, उस की खुशियां, उस की जिंदगी में भी आग लगा दी है… कोशिश करना कि आगे सब ठीक रहे.’’

इतना कहने के बाद दारोगा ने दुष्यंत के पास जा कर उस के कंधे पर अपना हाथ रखा और बोला, ‘‘कई बार हमें उन लोगों के साथ भी कठोर होना पड़ता है, जो बेकुसूर होते हैं.’’

दीपा फफक कर रोने लगी और बोली, ‘‘आप सही कह रहे हैं. मैं ने अपनी जिंदगी को नरक बना लिया है और खुद तो जली ही, अपनी खुशियां भी जला डाली हैं.’’

उधर कमरे में खड़ा दुष्यंत भी रो रहा था. अब पतिपत्नी के बीच कोई भी झगड़ा नहीं था. कुछ बचा ही नहीं था, जिस पर झगड़ा किया जा सके. सारी खुशियां, सारे सपने उस आग में झुलस कर रह गए थे और उस के भद्दे निशान दीपा के पूरे शरीर पर थे.

लेखिका – रेखा शाह

Short Story : कसक

Short Story : चांदनी रात में मैं छत पर लेटा हुआ था. आंखें आसमान में झिलमिलाते तारों को टटोल रही थीं और दिमाग में भूली यादें खलबली मचाए हुए थीं.

इन यादों में उन जवान लड़कियों और औरतों की यादें भी शामिल थीं, जिन के जिस्मों से मैं गहराई से जुड़ा रहा और जो अब जिंदगी में कभी देखने को भी नहीं मिल सकेंगी. उन के जिस्मों ने मेरे दिल को भी कहीं अधिक गहराई से छुआ था.

कैंप नंबर 2 की डिस्पैंसरी में मेरा तबादला हुआ था. उन दिनों, रहने के लिए मुझे जगह की बड़ी किल्लत थी. कितने ही लोग रायपुर और दुर्ग से रोजाना भिलाई आतेजाते थे. कुछ दिन तो मुझे भी दुर्ग से भिलाई आना पड़ा, उस के बाद महकमे की तरफ से हम 2 क्लर्कों को एक क्वार्टर मिल गया था. मेरा डिस्पैंसरी में क्लर्क का काम था, दवा की परची बनाना और उस में लिखी दवाओं का लेखाजोखा रखना.

मैं कई दिनों से देख रहा था कि एक लड़की जल्दी आ कर भी औरतों की कतार में पीछे लगती और अपनी परची को ज्यादातर गुम कर देती. हर बार मुझे नई परची बनानी पड़ती. झुंझला कर मैं कभी डांट भी देता, तो वह मुसकरा देती. तब अचानक मैं छोटा पड़ जाता और इस तरह गुस्सा भी मिट जाता.

तब मैं यह सब हंसीठिठोली, चुहलबाजी या छिछोरापन, कुछ भी नहीं जानता था. न मन में कोई ज्वार उठता था, न किसी तरह के खयाल ही जागते थे. तब तक औरत के जिस्म के लिए मेरे मन में कोई मोह या खिंचाव नहीं था. जिस्म या दिल के किसी तरह के स्वाद की परख या पहचान भी नहीं थी. इस तरह मुसकराने, हंसने, इठलाने और चाहने का मतलब भी मैं नहीं जानतासमझता था.

पर एक दिन दिल में यह खयाल उठा कि आखिर देखूं तो सही कि उसे कौन सी बीमारी है? परची देखी तो ताज्जुब करता रह गया. आज जुकामखांसी की दवा तो कल बुखार की, तो शाम को पेटदर्द की.

‘‘क्या देख रहे हैं बाबूजी?’’ पहली बार उस ने मुंह में धोती का पल्लू दबाते हुए मुझ से पूछा था.

उस की यह अदा मेरे दिल में बुरी तरह गड़ सी गई. अचानक मैं अजीब सी मस्ती से भर उठा. शरारती मुसकान इस तरह देखने का मेरा पहला तजरबा था.

वह थी भी बला की खूबसूरत. गोल चेहरा, बड़ी आंखें, उठे उभार और गठा हुआ जिस्म. साड़ी में भी वह बड़ी मादक लग रही थी. एकदम कमसिन कली. मन किया कि यहीं भींच दूं, पर कसमसा कर रह गया.

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यही देख रहा हूं कि तुम्हें कौन सी बीमारी है?’’

‘‘बीमारी की कुछ न पूछो बाबूजी, कुछ न कुछ हो ही जाता है, ‘‘कह कर वह शरमा गई.

उस से ज्यादा हैरानी मुझे तब हुई, जब एक दिन उस ने किसी डाक्टर से उस परची पर दवा नहीं लिखाई और उसे वैसे ही फेंक गई, तब मैं कुछ उलझन में फंस गया.

इस के बाद वह फिर कई दिनों तक नहीं दिखी. एक दिन आई भी तो पकी उंगली ले कर. डाक्टर ने बड़े अस्पताल में चीरा लगाने को लिख दिया. ऐसे जितने भी मरीज बड़े अस्पताल भेजने होते थे, उन्हें एक एंबुलैंस ले जाती थी.

मुझे भी वहीं कुछ काम था और डाक्टर इंदु भी वहीं जा रही थीं. डाक्टर ने मुझे अपने साथ अगली सीट पर बैठने को भी कहा, मगर मैं मना कर के पीछे ही बैठा, जहां वह लड़की अकेली बैठी थी. मुझे देख कर वह हौले से मुसकराई, तो मैं भी मुसकरा दिया.

गाड़ी के धक्कों से कई बार वह मेरे ऊपर गिरतेगिरते बची. उस के बदन की छुअन से मैं अजीब सी मस्ती में डूबने लगा.

वह बोली, ‘‘तुम चल रहे हो न बाबूजी, अपने सामने ठीक से चीरा लगवा दोगे तो मुझे संतोष होगा. अकेले मुझे बहुत डर लग रहा था. तुम्हें देख कर चली आई, नहीं तो लौट जाती.’’

‘‘हांहां, तुम बेफिक्र रहो, सब ठीक होगा,’’ मैं ने उसे दिलासा दिया.

‘‘तुम रहते कहां हो बाबूजी? कभी अपना घर दिखाओ न?’’ अचानक वह बोल उठी.

‘‘जरूर दिखाऊंगा, यही कैंप नंबर 2 में ही टिन वाला क्वार्टर है,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

मैं ने अपने सामने उस का चीरा लगवाया. उस ने कराह कर अपना सिर मेरी छाती से लगा दिया, तो मुझे बड़ा सुख मिला. हम दोनों साथसाथ ही वापस लौट आए.

इस के बाद तीसरे दिन जब वह दोबारा पट्टी कराने आई, तो उस के साथ उस का लोहार बाप भी था. दूर से ही दोनों ने हाथ जोड़ दिए. उस के बाप ने मेरा शुक्रिया अदा किया कि लड़की की उंगली मेरी वजह से जल्दी ठीक हो रही है.

मैं बड़ा खुश हुआ. पीछे खड़ी वह भी मुसकराती रही शर्म से, प्यार से और न जाने क्याक्या सोच कर.

इस के कुछ दिन बाद एक दोपहर को मैं ने उस से कहा, ‘‘चलो, आज तुम्हें अपना घर दिखा दूं.’’

‘‘आज नहीं, फिर कभी चलूंगी. पर हां, कैंप नंबर 2 के लिए तो तुम्हारा रास्ता हमारे क्वार्टर के सामने से हो कर जाता है न बाबूजी?’’

‘‘किधर से हो कर?’’

‘‘नाले पर से हो कर पहली लाइन में पहला ही क्वार्टर तो है सिरे पर,’’ इतना कह कर वह चली गई, क्योंकि कुछ मरीज आ गए थे.

शाम को जब मैं उधर से गुजरने लगा, तो उस ने हौले से कहा, ‘‘काका काम पर गए हैं. अम्मां देर से लौटेंगी. घर आ सकते हैं थोड़ी देर के लिए. मेरे सिवा और कोई नहीं है.’’

बिना झिझक खुला बुलावा पा कर मैं बहुत खुश हुआ, मानो उस के बुलावे का इंतजार ही कर रहा था. मैं बेखटके भीतर घुस कर सामने बिछे पलंग पर जा बैठा.

‘‘चाय पीएंगे?’’ वह बोली.

‘‘अरे नेकी और पूछपूछ… पर इस तरह मुझे डर लगता है. घर में कोई नहीं है. मैं तुम्हारा कुछ लगता नहीं और सब जानते हैं कि मैं यहीं अस्पताल में काम करता हूं.’’

‘‘मेरे बापूअम्मां बड़े ही सीधे हैं. बस, भाई जब शराब पी लेता है, तो घर में झगड़ा करता है. पर, तुम बेफिक्र रहो, कोई आ भी जाएगा, तो वह पूरी इज्जत करेगा.’’

‘‘मैं कुछ भी करूं, तब भी इज्जत करेगा? न जाने किस मस्ती की झोंक में यह कह कर मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और चूम लिया.

वह छटपटा कर एकदम अलग हट गई, ‘‘अरे, यह क्या करते हो?’’

मैं एक झटके से उस के क्वार्टर से बाहर निकल आया. चाय तो पीनी नहीं थी, लेकिन बातें की जा सकती थीं. पर अपने मन का डर ही मुझे भगा लाया.

फिर एक दोपहर उस ने खुद मेरे घर आने को कहा. उसे साथ ले कर मैं फौरन अपने क्वार्टर पर पहुंचा.

मेरे साथ के गांव से 3 मजदूर नौकरी की गरज से आ कर हफ्तों से वहीं जमे थे. हालांकि, मैं ने सुबह ही कह दिया था कि दोपहर को मेरे मेहमानों के आने के वक्त वे लोग कहीं बाहर चले जाएं. मगर वे तब तक वहीं ताश खेल रहे थे और दांत फाड़ रहे थे. बड़ा अजीब नजारा था. एक पल के लिए मुझ से न आगे बढ़ा गया, न पीछे हटा गया.

मुझे बहुत गुस्सा आया, जो जज्ब करतेकरते भी छलक ही गया, ‘‘रामू, मैं ने तुम से कल और आज सुबह भी क्या कहा था?’’

वे सब के सब हड़बड़ा कर चारपाइयों से उठ कर खड़े हो गए. ताश के पत्ते समेट कर एक तरफ फेंके और बाहर निकल गए.

तब वह भी गुमसुम भीतर घुस आई. लेकिन उसे भी यह सब अच्छा नहीं लगा. वह बोली, ‘‘मैं चली जाती हूं. मैं ने शायद ठीक नहीं किया, इस तरह यहां आ कर.’’

‘‘नहींनहीं, बैठो तुम. पता नहीं कहां से आ मरे ये बेवकूफ, जाहिल…’’ मैं गुस्से में बोला.

फिर मैं ने जबरन उसे कंधों से पकड़ कर बैठाया और भाग कर मिठाई ले आया. वह इनकार करती रही और जल्दी घर जाने की कहती रही. बड़ी मनुहार से उसे मिठाई खिलाई, पानी पिलाया, फिर दरवाजा बंद कर सांकल लगाई.

वह डर से सकपकाई. उस की नजर एक पल में मुझ से ले कर कमरे के सारे सामान पर डोल गई. मैं खाट पर उस से सट कर बैठ गया और उसे अपनी बाजुओं में भींच लिया.

मैं उसे चूमने लगा, तो वह छटपटाने लगी. मैं ने किसी जवान लड़की का नंगा जिस्म कभी देखा नहीं था. देखने की चाह में मैं पागल सा हुआ जा रहा था. मेरे हाथ उस की पिंडलियों पर फिसलने लगे, पर मैं खुद को बेहद ‘ठंडा’ महसूस कर रहा था. डर था कि कहीं कोई आ न जाए.

धीरेधीरे मैं उस की धोती को ऊपर सरकाने लगा था. पर, वह मना कर रही थी. उस की आंखों का रंग बदल रहा था, चेहरा अजीब सी गरमी से भर रहा था. वह बोली, ‘‘नहींनहीं, यह सब मत करो. यह सब शादी के बाद…’’

‘ओह, तो क्या यह मुझ से शादी करने का सपना देख रही है?’ मैं ने सोचा.

मैं अचानक कुछ समझ नहीं पा रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुन कर होश उड़ गए और सोचा, ‘कौन आ मरा इस वक्त?’

दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ मैं उस से बोला कि वह पिछले दरवाजे से बाहर निकल जाए. पर वह इस बात पर अड़ गई कि अकेली बाहर नहीं जाएगी.

मैं जब दरवाजे पर उसे ले कर पहुंचा, तो मेरे 3 साथी बाहर खड़े थे. बिना कुछ किए मौके पर रंगे हाथों पकड़े जाने की शर्मिंदगी और दुख लिए उन का सामना किया.

वे तीनों भीतर घुसे. उस लड़की ने घर तक पहुंचा देने की जिद की, तो मैं ने अपना माथा पकड़ लिया. उन्हें भीतर बैठने को कह कर उसे थोड़ी दूर तक पहुंचा कर लौटा.

आते ही कई सवाल, लानतमजामत और धमकियां भी सुननी पड़ीं, ‘‘तुम्हें इस तरह किसी लड़की को क्वार्टर में नहीं लाना चाहिए था… पड़ोस में परिवार हैं, कोई क्या सोचेगा. लोगों पर क्या असर पड़ेगा… हम शिकायत करेंगे. हमारे आदमियों को भगा दिया, रंगरलियां मनाने के लिए…’’ एक ने कहा.

अचानक मैं फट पड़ा, ‘‘वह मेरी दोस्त है. घर ले आया तो कौन सा आसमान फट पड़ा. 3 आदमी यहां कितने दिनों से रह रहे हैं. मैं ने तो कभी अपनी परेशानी की शिकायत नहीं की…’’

लेकिन मेरे साथी ने शिकायत कर ही दी. महकमे ने क्वार्टर और उस अस्पताल दोनों से ही मेरा तबादला कर दिया.

बाद में मैं उस से फिर कभी नहीं मिल सका. मगर अकसर वह मेरी यादों में तारे सी झिलमिला उठती है. जबतब अपनी उस पहली महबूबा से सुख और मजा न पाने का अफसोस दिल पर हावी हो उठता है.

उस गम को मिटाना मुमकिन नहीं था, क्योंकि उस की कसक बड़ी मीठी थी. हां, कहीं न कहीं यह संतोष जरूर था कि उसे बिगाड़ा नहीं, छला नहीं, रुलाया नहीं.

लेखक – जेएस वर्मा

Best Hindi Story : 5 प्रेमियों वाली प्रेमिका

Best Hindi Story : जानकी को मैं इसलिए भी ‘जानकीजी’ कह कर संबोधित करता था, क्योंकि वे मुझ से उम्र में 20 साल बड़ी थीं यानी मैं 35 साल का था और वे 55 साल की थीं. प्यार की पहल भी जानकीजी ने खुद की थी. उन्होंने ही मुझ से कहा था कि वे मुझे पसंद करती हैं और मैं जानकीजी के प्रेमजाल में फंस गया.

जानकीजी से मेरी पहली मुलाकात शहर के एक अस्पताल में तब हुई थी, जब मेरे पापा वहां कुछ दिनों के लिए भरती हुए थे. पापा की हालत काफी सीरियस थी, इसलिए मेरा मन बहुत अशांत था. मन को शांत करने की गरज से मैं वार्ड से बाहर वेटिंगरूम में आ कर बैठ गया.

वेटिंगरूम में पहले से बहुत सारे लोग मौजूद थे, जिन के मरीज वहां भरती थे. वेटिंगरूम के शोरशराबे के बीच मैं भी एक सीट पर जा कर बैठ गया. मन बहुत परेशान था, इतना परेशान कि कोई भी चेहरा देख कर मेरी परेशानी को पढ़ सकता था.

जानकीजी मेरे बगल वाली सीट पर बैठी थीं, इस का मुझे कोई अंदाजा नहीं था. मेरी बेचैनी को उन्होंने अच्छी तरह मेरे चेहरे से पढ़ लिया था.

‘‘आप का कोई भरती है यहां क्या?’’ जानकीजी ने मुझ से बात करने का सिलसिला शुरू किया.

‘‘जीहां, मेरे पापा भरती हैं. वे वार्ड नंबर 4 में हैं,’’ मैं ने पहली बार जानकीजी को नजर भर के देखा था.

‘‘घर से और कोई नहीं आया?’’

‘‘जी नहीं, घर में ज्यादा लोग नहीं हैं. जो हैं, उन के पास फुरसत नहीं है.’’

‘‘कोई नहीं, आजकल सभी का यही हाल है. मेरा पेशेंट वार्ड नंबर 5 में है. अगर आप को मेरी कैसी भी कोई हैल्प चाहिए, तो प्लीज बेझिझक मुझ से कह दीजिएगा,’’ जानकीजी ने मुझ से हमदर्दी जताई.

‘‘जी शुक्रिया.’’

‘‘शुक्रिया की कोई बात नहीं है. इनसान ही इनसान के काम आता है.’’

‘‘जी हां, यह तो है,’’ मेरे और जानकीजी के बीच बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ता, इस से पहले वार्डबौय ने आ कर जानकीजी को बताया कि उन्हें डाक्टर बुला रहे हैं.

जानकीजी वार्डबौय के साथ वहां से चली गईं. 10-15 मिनट बाद वे फिर वेटिंगरूम में आईं और मुझ से बोलीं कि उन का मन चाय पीने का है.

इतना कह कर जानकीजी मुझे भी अपने साथ अस्पताल की कैंटीन में ले गईं.

हम दोनों ने एकएक चाय पी और साथ में एकएक समोसा भी खाया. चाय पीने के बाद मैं चाय का पेमेंट करने लगा, तो जानकीजी बोलीं, ‘‘यहां टोकन से चाय मिलती है और टोकन की पेमेंट मैं कर चुकी हूं.’’

मैं जानकीजी को ऐसे देखने लगा, जैसे मुझे उन का चाय पिलाना अच्छा नहीं लगा. उन्होंने जैसे मेरे मन को पढ़ा और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, अगली बार चाय का बिल तुम चुका देना.’’

मैं फिर कुछ नहीं बोला और चुपचाप जानकीजी के साथ कैंटीन से बाहर आ गया. उस के बाद हम दोनों अकसर साथ ही कैंटीन जाते और जोकुछ खानापीना होता, साथ ही खातेपीते.

मेरे पापा एक हफ्ते तक अस्पताल में रहे और जानकीजी का पेशेंट 5 दिनों में ही ठीक हो गया था.

जानकीजी ने मुझे कभी यह नहीं बताया कि उन का उन के मरीज से क्या रिश्ता है और मरीज औरत है या मर्द. मैं ने भी उन से इस बारे में कभी कुछ नहीं पूछा. वे मुझ से 2 दिन पहले अपने घर चली गईं. जाते समय मैं उन से नहीं मिल पाया था, क्योंकि उस समय मैं अस्पताल में नहीं था.

इन बीते 5 दिनों में मेरे और जानकीजी के बीच औपचारिक बातों के अलावा कोई दूसरी बात नहीं हुई. न हम ने अपने मोबाइल नंबर आपस में बदले और न ही एकदूसरे से यह जानने की कोशिश की कि कौन कहां रहता है या कौन क्या करता है.

जानकीजी का बरताव तो बढि़या था ही, रंगरूप, कदकाठी से भी वे सब को अपनी तरफ खींच लेती थीं. कुदरत ने उन्हें दरमियाने कद, गोरेचिट्टे और छरहरे बदन, काली कजरारीनशीली आंखें, होंठों तक पहुंचती पतलीलंबी नाक और गुलाब की पंखुडि़यों जैसे खूबसूरत होंठों के अलावा मधुर आवाज से भी नवाजा था.

अस्पताल से पापा को घर ले आने के बाद भी मैं जानकीजी को कभीकभी मन में याद कर लेता था.

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था और जानकीजी धीरेधीरे मेरे दिलोदिमाग और खयालों से ओझल हो रही थीं कि अचानक एक दिन उन से मेरा दोबारा आमनासामना हो गया.

मैं शहर के एक मौल से खरीदारी कर के अपनी बाइक लेने के लिए मौल की पार्किंग की तरफ आया कि सामने से आती जानकीजी ने अपनी चिरपरिचित मुसकान से मेरा स्वागत किया.

उस दिन वे बला की खूबसूरत लग रही थीं. जवान लड़कियों की तरह उन के चेहरे पर चमक थी. मुझे पहचानने में उन्होंने एक मिनट का भी समय नहीं लगाया.

‘‘हैलो, पहचाना मुझे?’’ चिडि़यों की तरह चहकती हुई आवाज में जानकीजी बोलीं.

‘‘क्यों नहीं, आप को कैसे भूल सकता हूं,’’ मेरा जवाब सुन कर वे जवान लड़कियों की तरह खिलखिला कर हंस पड़ीं और बोलीं, ‘‘हम ऐसे ही हैं. हम से जो एक बार मिल लेता है, वह हमेशा हमें याद रखता है. खैर, छोड़ो और यह बताओ कि कैसे हो?’’

‘‘मैं अच्छा हूं और आप…?’’

‘‘मैं भी अच्छी हूं. आप को देख कर और अच्छी हो गई,’’ जानकीजी के बात करने का लहजा मुझे अच्छा लगा.

‘‘खरीदारी करने निकले हो, वह भी अकेले ही?’’

‘‘आप भी तो अकेली हैं,’’ इस बार मैं ने भी मजाक कर दिया.

‘‘अकेले तुम, अकेले हम,’’ जानकीजी ने फिल्मी डायलौग बोल कर फिर मजाक किया, तो मेरी हंसी छूट गई.

वे बात बदल कर बोलीं, ‘‘अभी मेरे पास तकरीबन 45 मिनट हैं. उस के बाद मेरी किसी से मीटिंग है.

चलिए, तब तक साथ बैठ कर एकएक कप कौफी पीते हैं. इसी बहाने हमारी पहचान कुछ और गहरी हो जाएगी.’’

जानकीजी ने जितने अपनेपन से मुझे कौफी औफर की, उतनी ही शिद्दत से मैं ने उन के औफर को स्वीकार भी कर लिया.

म दोनों मौल की दूसरी मंजिल पर बने कौफीहाउस में आ गए. सीट पर बैठने से पहले ही जानकीजी ने मुझ से कहा, ‘‘यह कौफी मेरी तरफ से होगी, इस की पेमेंट मैं करूंगी.’’

जानकीजी की बात पर मैं कुछ न बोल कर बस मुसकरा दिया. वे सामने काउंटर पर चली गईं. उन्होंने 2 कौफी और स्नैक्स का और्डर दे कर गूगल पे से पेमेंट कर दी.

जानकीजी जब तक काउंटर पर रहीं, तब तक मैं उन्हें पीछे से देखता रहा. वे बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रही थीं. पतलेदुबले सुडौल जिस्म पर उन्होंने लाइट ग्रीन कुरता और डार्क ग्रीन प्लाजो पहना हुआ था, जो उन की खूबसूरती को और निखार रहा था.

मैं ने महसूस किया कि जानकीजी को पीछे से देख कर कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि वे अपनी उम्र के 55 साल पूरे कर चुकी होंगी. उन के चेहरे का गुलाबीपन, उन की चंचल शोख अदाएं, झील सी गहरी आंखें और चेहरे के हावभाव से वे अपनी उम्र को 1-2 नहीं, तकरीबन 12 से 15 साल कम कर चुकी थीं.

कुलमिला कर उन की चंचलता और फुरतीलापन मुझे बरबस ही उन की तरफ खींच रहा था और उन की सादगी दूसरे लोगों को अपनी तरफ मुड़ कर देखने के लिए मजबूर कर रही थी.

मैं देख रहा था, जो भी उन के करीब से गुजर रहा था, वह उन्हें एक बार नजर भर के जरूर देख रहा था. मैं तो पहले से ही उन की सादगी का कायल था, क्योंकि मुझे औरत का जरूरत से ज्यादा सजनासंवरना और क्रीमपाउडर लगाना बिलकुल भी पसंद नहीं था.

जानकीजी खुद ही छोटी ट्रे में 2 कप कौफी और स्नैक्स ले कर आईं और मेरे सामने वाली सीट पर बैठ गईं. वे मुझे देख कर मुसकरा रही थीं. बदले में मैं भी मुसकरा रहा था.

अस्पताल के बजाय मौल में मिलने का जानकीजी का अंदाज और तौरतरीका एकदम जुदा था. अस्पताल में वे जितनी शालीन और सरल नजर आ रही थीं, मौल में उतनी ही चंचल और शोख दिख रही थीं. उन के बात करने का अंदाज भी जुदा था.

‘‘कितना अजीब इत्तिफाक है कि हम दोनों की यह दूसरी मुलाकात है, पर अभी तक हम एकदूसरे का नाम भी नहीं जान पाए. मेरा नाम जानकी है, जानकी माथुर. मैं दीपांशा हाइट में रहती हूं. समाजसेवा का शौक है, कविताएं भी लिख लेती हूं. एक बेटी और एक बेटा है. दोनों की शादी कर दी है. दोनों विदेश में रहते हैं,’’ जानकीजी ने एक सांस में ही अपने बारे में मुझे सबकुछ बता दिया.

‘‘और आप के हसबैंड….?’’

हसबैंड का नाम सुनते ही जानकीजी का चेहरा एकदम फक्क पड़ गया. जैसे उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मैं उन से उन के हसबैंड के बारे में पूछ लूंगा.

इस से पहले कि उन के मन के भाव उभर कर उन के चेहरे पर ठहरते, उन्होंने खुद को संभाल लिया और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘हसबैंड का होना या न होना मेरे लिए कोई माने नहीं रखता है. कहने के लिए मेरे हसबैंड बिजनैसमैन हैं, पर मैं ने खुद अपनेआप को बनाया है.’’

जानकीजी के मन को पढ़ना या समझना इतना मुश्किल नहीं था. मैं समझ गया कि वे अपने हसबैंड के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती हैं, इसलिए मैं ने बात बदलते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम गणेश है. मैं एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट हूं. पत्नी ने 5 साल पहले मुझ से तलाक ले लिया है. 4 साल का एक बेटा है, जो अपनी मां के साथ ही रहता है.’’

मेरे बारे में जान कर जानकीजी के चेहरे पर अफसोस की क्षणिक लकीरें खिंची हुई दिखाई दीं. उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, ‘‘बीवी ने तलाक ले लिया, पर क्यों?’’

‘‘क्योंकि, मैं निहायत ही सरल और सादगीपसंद हूं, इसलिए मैं उन के फ्रेम में कहीं फिट नहीं हुआ. उन्हें आजकल के लड़कों की तरह तड़कभड़क से रहने वाला इनसान चाहिए था.

‘‘इसी बात को ले कर हमारे बीच आएदिन कहासुनी होती थी. इस बीच उन्होंने मुझ से तलाक मांगा. मैं भी रोजरोज की किचकिच से तंग आ गया था, इसलिए मैं ने भी उन्हें तलाक दे दिया.’’

‘‘पत्नी ने आप से तलाक ले लिया, फिर आप अपनी जरूरतों को कैसे मैनेज करते हैं?’’ अपनी बात कह कर जानकीजी हंसने लगीं. जरूरतों से जानकीजी का मतलब फिजिकल रिलेशन से था, जो मैं अच्छी तरह समझा रहा था.

मैं जानकीजी के इस सवाल का जवाब देने ही वाला था कि उन का फोन आ गया और वे फोन पर कुछ पल के लिए बिजी हो गईं.

जानकीजी की बातों से समझ में आ रहा था कि फोन उसी शख्स का है, जिस के साथ उन की मीटिंग थी. जानकीजी की बात खत्म होते ही मैं भी उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘अच्छा जानकीजी, आप अपनी मीटिंग कीजिए, मैं चलता हूं.’’

जानकीजी ने एक बार भी मुझे रुकने को नहीं कहा. बस, इतना कहा, ‘‘ठीक है, मैं ने अपना नंबर आप को दे दिया है. आप मुझे कभी भी फोन कर सकते हैं.’’

‘‘ओके,’’ इतना कह कर मैं वहां से चला आया.

नीचे आ कर मेरी मुलाकात राघव से हो गई. वह मेरा पुराना परिचित था.

‘‘यहां कैसे राघव…?’’ मैं ने पूछा.

‘‘किसी के साथ मीटिंग है.’’

‘‘ओके,’’ मैं ने राघव को ज्यादा कुरेदना नहीं चाहा, इसलिए हम दोनों अपनेअपने रास्ते चले गए.

पार्किंग से बाइक निकाल कर मैं अपने घर की तरफ चल दिया. बाइक पर चलते हुए मेरे जेहन में फिर से राघव का चेहरा घूम गया. दिमाग में एक ही सवाल गूंजने लगा कि मौल में राघव की मीटिंग किस से हो सकती है? कहीं उस की मीटिंग जानकीजी से ही तो नहीं है?

अगर राघव की मीटिंग जानकीजी से है, तो फिर जानकीजी राघव को कैसे जानती हैं और उन दोनों के बीच किस बात को ले कर मीटिंग होगी?

मेरे मन में यह भी खयाल आया, लेकिन अगले ही पल मैं ने उस खयाल को मन से छिटक दिया और अपना ध्यान बाइक चलाने में लगा दिया.

अगली सुबह एक खूबसूरत इमोजी के साथ जानकीजी का ‘गुड मौर्निंग’ लिखा मैसेज मेरे ह्वाट्सएप पर तैरने लगा. बदले में मैं ने भी उन्हें ‘वैरी गुड मौर्निंग’ का मैसेज भेज दिया. दिनभर हमारे बीच कोई बात नहीं हुई, लेकिन रात को तकरीबन 9 बजे जानकीजी का ‘गुड नाइट’ लिखा मैसेज मुझे मिला. तो मैं ने भी उन्हें ‘वैरी गुड नाइट’ का मैसेज लिख कर भेज दिया.

‘गुड मौर्निंग’ और ‘गुड नाइट’ के मैसेज के साथ धीरेधीरे जानकीजी अपनी निजी बातें भी मेरे साथ शेयर करने लगीं, जैसे उन्होंने आज नाश्ते में, लंच में और डिनर में क्या बनाया और क्या खाया. वे आज कहां गई थीं, किस के साथ गई थीं. आज उन्होंने कौन सी और किस रंग की ड्रैस पहनी है या उन के हसबैंड से उन की किस बात पर कहासुनी हुई.

धीरेधीरे मुझे भी जानकीजी की आदत लगने लगी. मैं भी उन्हें दिन में 1-2 बार किसी न किसी बहाने फोन कर लेता था. जिस दिन मैं उन्हें फोन नहीं कर पाता, उस दिन वे खुद मुझे फोन कर लेतीं.

फिर एक दिन जानकीजी का मन टटोलने के लिए कि उन के मन में मेरे लिए क्या है, मैं ने उन को फोन कर के कहा, ‘‘कल मेरा आप के घर की तरफ आना होगा. अगर आप की इजाजत हो तो…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही जानकीजी बोल पड़ीं, ‘ओह, तो हमारे घर आने के लिए तुम्हें हमारी इजाजत चाहिए. अरे, यह आप का घर है जनाब, आप शौक से आइए,’ उन्होंने शायराना अंदाज में कहा.

अगले दिन मैं जानकीजी के घर उन से मिलने पहुंच गया. इतना बड़ा घर और जानकीजी घर में बिलकुल अकेली थीं. उन्हें अकेला देख कर मुझे हैरानी इसलिए नहीं हुई, क्योंकि वे पहले ही मुझे बता चुकी थीं कि उन के दोनों बच्चे विदेश में रहते हैं और पति बिजनैस के सिलसिले में ज्यादातर शहर से बाहर
रहते हैं.

उस दिन जानकीजी बला की खूबसूरत लग रही थीं. धानी रंग की सूती साड़ी में लिपटा उन का छरहरा सुडौल जिस्म और उस में से झांकता गोरा रंग मानो ऐसा लग रहा था, जैसे हरियाली की ओट से उगते सूरज की लालिमा झांक रही हो.

‘‘गणेशजी, क्या पीना पसंद करोगे? चाय या फिर कौफी?’’ जानकीजी ने मेरे ध्यान को अपनी तरफ से भटकाते हुए मुझ से पूछा.

‘‘कुछ भी, जो आप को पसंद हो.’’

उन्होंने 2 कप कौफी बनाई और मेज पर रख कर वे मेरे बराबर में बैठ गईं.

‘‘आप इतने बड़े घर में अकेली कैसे रह लेती हैं? आप को अकेलापन कचोटता नहीं है?’’ मैं ने ऐसे ही पूछ लिया.

‘‘जैसे आप अकेले रह लेते हैं, वैसे ही हम भी अकेले रह लेते हैं,’’ मेरे सवाल के जवाब में जानकीजी ने कहा.

हमारे बीच कुछ पल के लिए चुप्पी छाई रही, जिसे तोड़ते हुए जानकीजी बोलीं, ‘‘आप 5 साल से अकेले हैं. आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘बस, ऐसे ही. कोई पसंद ही नहीं आया.’’

‘‘अच्छा, एक बात बताओ कि तुम्हें कैसी लेडी पसंद है?’’

जानकीजी के इस सवाल पर मैं कुछ पल के लिए चुप रहा, फिर बोला, ‘‘मुझे सादगी में लिपटी हुई औरत पसंद है.’’

जानकीजी खिलखिला कर हंस पड़ीं और बोलीं, ‘‘अच्छा… कहीं तुम्हें हम से प्यार तो नहीं हो गया ?’’

‘‘मतलब…?’’

‘‘मतलब यही कि हम भी तो तुम्हारी पसंद की तरह साधारण, सहज और शालीन हैं. हमें भी तो ज्यादा सजनेसंवरने का शौक नहीं है.’’

जानकीजी के इस जवाब के सामने मेरे मन का प्रेमी चोर बस मुसकरा कर रह गया. यही उन के लिए मेरे प्यार की मानो रजामंदी थी.

हमारी कौफी खत्म हो चुकी थी. बस, मैं वहां से जाने की सोच ही रहा था कि अचानक जानकीजी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर मेरी आंखों में आंखें डाल कर बोलीं, ‘‘तुम अच्छे लगते हो. हमें तुम से प्यार हो गया है,’’ कहते हुए जानकीजी ने बच्चों की तरह मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया, जो मुझे अच्छा लगा.

वे अपने हाथों की उंगलियों से कंघे की तरह मेरे सिर के बालों को सहलाने लगीं, फिर उन्होंने अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए. फिर क्या था, मैं ने भी अपना प्यार जानकीजी पर लुटा दिया.

मुझे याद नहीं कि हम कितने मिनट तक एकदूसरे के आगोश में सिमटे रहे. प्यार की कहानियां और किस्से सुने और पढ़े जरूर थे, लेकिन प्यार का मतलब क्या होता है, यह मैं पहली बार महसूस कर रहा था.

हालांकि, मेरी शादी हो चुकी थी, पर वह एक सामाजिक बंधन था, जिस में बिना कोशिश, बिना जोरजबरदस्ती और बिना शर्त सबकुछ अपना होता है. लेकिन किसी से प्यार कर के उसे पा लेने का अलग ही मजा होता है.

प्यारमुहब्बत के नाम पर जानकीजी मेरा पहला प्यार थीं. खुशी के मारे मैं फूला नहीं समा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे जानकीजी के रूप में दुनिया की सब से नायाब चीज मुझे मिल गई हो.

मैं जानकीजी के प्यार की गहराई में डूबता चला गया. उन के सिवा मुझे अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. मेरे खयालों में सिर्फ और सिर्फ वे ही रहने लगी थीं.

हमारे प्यार की दुनिया अभी पूरी तरह से बस भी नहीं पाई थी कि एक दिन अचानक राघव से मुलाकात हो गई.

राघव ने मुझ से लंबीचौड़ी बातें न कर के सीधेसीधे कहा, ‘‘गणेश, आप जानकीजी को कितना जानते हैं?’’

मैं ने राघव के सवाल का जवाब देने के बजाय उलटा उस से ही सवाल कर दिया कि वह किस जानकीजी की बात कर रहा है?

इस पर राघव ने कहा, ‘‘मैं उन्हीं जानकीजी की बात कर रहा हूं, जिन जानकीजी से तुम कुछ दिन पहले मौल में मिले थे. उस के बाद तुम उन के घर भी गए थे.’’

‘‘यह बात तुम से किस ने कही कि मैं जानकीजी से मिला था?’’

‘‘जानकीजी ने मुझे खुद बताया है कि आप की उन से बातचीत और मुलाकात होती रहती है.’’

राघव की बात सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया.

मुझे खामोश देख कर राघव ने कहा, ‘‘गणेशजी, अगर जानकीजी के साथ आप का प्यारव्यार का कोई चक्कर चल रहा है, तो सावधान हो जाइए, क्योंकि जानकीजी अच्छी औरत नहीं हैं. वे किसी एक की नहीं हैं. उन्होंने हमारे जैसे कइयों को अपने प्रेमजाल में फंसा रखा है.’’

‘‘कइयों का मतलब…?’’

‘‘मतलब यही कि जानकीजी जितनी सीधी, सहज और सरल लगती हैं, उतनी सीधी वे हैं नहीं. वे दिलफेंक और आशिकमिजाज औरत हैं.

‘‘मैं भी उन की मीठीमीठी बातों में आ कर उन्हें दिल दे बैठा था. लेकिन जब मेरी मुलाकात जानकीजी के एक और प्रेमी आशुतोष से हुई, तो पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ था.

‘‘मुझे लगा कि आशुतोष झूठ बोल कर जानकीजी को बदनाम कर रहा है, लेकिन जब उस ने मुझे जानकीजी के साथ अपने प्यार के कुछ सुबूत दिखाए, तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई.

‘‘फिर मैं ने एक दिन खुद जानकीजी को एक दूसरे लड़के के साथ एक रैस्टोरैंट में देखा, तो मेरा दिमाग खराब हो गया. मैं ने जानकीजी से कहा, ‘इस उम्र में यह सब क्या चल रहा है? यह लड़का कौन है? क्या रिश्ता है इस से आप का?’

‘‘तब उन्होंने कहा कि वह उन का दोस्त है. मैं ने उन से फिर पूछा कि ऐसे उन के और कितने दोस्त हैं?

‘‘मेरी इस बात पर वह लड़का मेरे ऊपर भड़क गया और मुझे उलटासीधा बोलने लगा. हम दोनों के बीच जब कहासुनी बढ़ गई, तब जानकीजी मुझ से बोलीं कि मुझे इस तरह उन से नहीं बोलना चाहिए था. बस, उसी दिन से मुझे जानकीजी से नफरत हो गई और मैं ने उन से किनारा कर लिया.’’

‘‘लेकिन, जानकीजी तो पढ़ीलिखी सभ्य, सुशील और शादीशुदा औरत हैं, फिर वे ऐसा क्यों करेंगी?’’ मैं ने पूछा, तो राघव बोला, ‘‘यह तो मैं भी नहीं समझ पाया, क्योंकि कोई भी इनसान प्यार करता भी है, तो किसी एक से करता है. लेकिन जानकीजी के तो 2-3 प्रेमियों से मैं खुद मिल चुका हूं. और उन के अगले प्रेमी शायद आप होंगे.’’

राघव की बातें सुन कर मेरा दिमाग चकरा गया. जानकीजी को ले कर मैं जो भी सपने देख रहा था, वे सब टूट कर चकनाचूर हो गए. मैं ने 2 दिनों तक जानकीजी को फोन ही नहीं किया.

इन 2 दिनों में जानकीजी ने मुझे कई मैसेज भेजे और 2-3 बार फोन भी किया, पर मैं ने उन के किसी मैसेज का कोई जवाब नहीं दिया और न ही उन का फोन रिसीव किया, क्योंकि उन के लिए मेरे अंदर नाराजगी भरी हुई थी.

तीसरे दिन जानकीजी ने जब मुझे लगातार 3-4 बार फोन किया, तो मैं ने उन का फोन रिसीव कर लिया.

‘लगता है कि आप हम से नाराज हो?’ जानकीजी ने फोन पर कहा, पर मैं चुपचाप उन का फोन सुनता रहा. जवाब में कुछ नहीं बोला.

‘लगता है कि तुम्हें राघव ने हमारे खिलाफ भड़काया है, क्योंकि हम ने राघव से तुम्हारा जिक्र किया था. क्या कहा राघव ने तुम से?’

‘‘यही कि आप उस से प्यार करती हो,’’ जो मेरे मन में भरा हुआ था, मैं ने बिना भूमिका बनाए जानकीजी से बोल दिया.

जानकीजी बनावटी हंसी हंस कर बोलीं, ‘राघव ने जो कहा, उसे तुम ने सच मान लिया.’

‘‘जानकीजी, प्लीज… आप बात को घुमाइए मत. बस, बता दीजिए कि सच क्या है?’’

‘गणेशजी, हमें अफसोस है कि तुम्हें हमारे प्यार पर भरोसा नहीं है. रही बात राघव की, तो राघव ने हमारे बारे में तुम से क्या कहा, उस के लिए तुम कुछ भी सोचने के लिए आजाद हो, हमारे बारे में तुम्हें जो सोचना है सोच लो, जो भी राय बनानी हो बना लो, पर हम आप को अपनी सफाई नहीं देंगे,’ इतना कह कर जानकीजी ने फोन काट दिया.

पहली बार जानकीजी ने मेरे साथ ऐसा गलत बरताव किया कि उन्होंने दोटूक बात कह कर फोन काट दिया, जो मुझे अच्छा नहीं लगा, इसलिए मैं ने भी उन्हें वापस फोन नहीं किया.

मुझे उम्मीद थी कि जानकीजी का गुस्सा जब शांत हो जाएगा, तब वे मुझे फोन कर के अपनी गलती की माफी मांगेंगी, लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं.

एक हफ्ते बाद जब मेरा मन नहीं माना, तो मैं ने जानकीजी को फोन किया. उन्होंने मेरा फोन तो रिसीव कर लिया, पर उन्होंने कोई खुशी जाहिर नहीं की. मैं ने उन से कहा कि मैं उन से मिलना चाहता हूं, वह भी उन के घर पर.

पर जानकीजी ने यह कह कर कि वे अभी मुझ से मिल नहीं पाएंगी, क्योंकि वे कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर आई हुई हैं, फोन काट दिया.

मैं भी अपना फोन काटने ही वाला था कि जानकीजी की आवाज सुन कर चौंक गया.

‘और बताओ, रितेश कैसे हो?’

रितेश नाम सुन कर मैं समझ गया कि भूलवश उन का फोन कट नहीं पाया है. मैं जानकीजी की बातें सुनने लगा. वे किसी रितेश नाम के लड़के से बात कर रही थीं.

मुझे एक और झटका लगा. मैं समझ गया कि जानकीजी ने मुझ से झूठ बोला है. वे कहीं बाहर नहीं गई हैं, बल्कि अपने घर पर ही हैं.

मैं उन की और रितेश की सचाई जानने के लिए उन के घर चला गया. अचानक ही मुझे अपने घर में देख कर जानकीजी के हाथ के तोते उड़ गए.

‘‘क्या हुआ…? आप मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं? और यह कौन है? इस का नाम रितेश है न?’’

जानकीजी की बगल में बैठे एक लड़के को देख कर मैं ने पूछा, तो वे नाराजगी जताते हुए बोलीं, ‘‘गणेशजी, आप बिना फोन किए आ गए. यहां आने से पहले फोन तो करना चाहिए था न.’’

‘‘फोन करता तो आप की हकीकत का पता कैसे चलता.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’ जानकीजी मेरे ऊपर एकदम भड़क गईं.

‘‘जानकीजी, चोर कितना भी शातिर क्यों न हो, पर वह अपनी चोरी का एक न एक सुबूत छोड़ ही देता है. आप ने एक गलती कर दी. मुझ से फोन पर बात करने के बाद आप अपना फोन काटना भूल गईं, जिस से आप का शहर से बाहर जाने वाला झूठ पकड़ा गया. आप के फोन ने बता दिया कि आप अपने नए दोस्त रितेश के साथ अपने ही घर में रोमांस कर रही हैं.

‘‘जानकीजी, नफरत हो गई है आप से और आप की इस घिनौनी हकीकत से. आखिर आप के इस मासूम चेहरे के पीछे प्यार के नाम पर और कितने लोगों को बेवकूफ बनाने का सच छिपा हुआ है? क्यों कर रही हैं इस उम्र में यह सब? आखिर क्या चाहिए आप को? किस चीज की कमी है आप के पास?’’

मेरे किसी भी सवाल का जानकीजी के पास कोई जवाब नहीं था. हां, उन के चेहरे की हवाइयां जरूर उड़ गई थीं. पर, मुझे नहीं लगता कि उन के ऊपर मेरी किसी बात का कोई असर हुआ होगा, क्योंकि प्यार करना उन की आदत नहीं फितरत थी.

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