क्षमादान: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

क्षमादान- भाग 1: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

टैक्सी से उतरते हुए प्राची के दिल की धड़कन तेज हो गई थी. पहली बार अपने ही घर के दरवाजे पर उस के पैर ठिठक गए थे. वह जड़वत खड़ी रह गई थी.

‘‘क्या हुआ?’’ क्षितिज ने उस के चेहरे पर अपनी गहरी दृष्टि डाली थी.

‘‘डर लग रहा है. चलो, लौट चलते हैं. मां को फोन पर खबर कर देंगे. जब उन का गुस्सा शांत हो जाएगा तब आ कर मिल लेंगे,’’ प्राची ने मुड़ने का उपक्रम किया था.

‘‘यह क्या कर रही हो. ऐसा करने से तो मां और भी नाराज होंगी…और अपने पापा की सोचो, उन पर क्या बीतेगी,’’ क्षितिज ने प्राची को आगे बढ़ने के लिए कहा था.

प्राची ने खुद को इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था. उस ने क्षितिज की बात मानी ही क्यों. आधा जीवन तो कट ही गया था, शेष भी इसी तरह बीत जाता. अनवरत विचार शृंखला के बीच अनजाने में ही उस का हाथ कालबेल की ओर बढ़ गया था. घर के अंदर से दरवाजे तक आने वाली मां की पदचाप को वह बखूबी पहचानती थी. दरवाजा खुलते ही वह और क्षितिज मां के कदमों में झुक गए. पर मीरा देवी चौंक कर पीछे हट गईं.

‘‘यह क्या है, प्राची?’’ उन्होंने एक के बाद एक कर प्राची के जरीदार सूट, गले में पड़ी फूलमाला और मांग में लगे सिंदूर पर निगाह डाली थी.

ये भी पढ़ें- अग्निपरीक्षा: श्रेष्ठा की जिंदगी में क्या तूफान आया?

‘‘मां, मैं ने क्षितिज से विवाह कर लिया है,’’ प्राची ने क्षितिज की ओर संकेत किया था.

‘‘मैं ने मना किया था न, पर जब तुम ने मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर ही लिया है तो यहां क्या लेने आई हो?’’ मीरा देवी फुफकार उठी थीं.

‘‘क्या कह रही हो, मां. वीणा, निधि और राजा ने भी तो अपनी इच्छा से विवाह किया था.’’

‘‘हां, पर तुम्हारी तरह विवाह कर के आशीर्वाद लेने द्वार पर नहीं आ खड़े हुए थे.’’

‘‘मां, प्रयत्न तो मैं ने भी किया था, पर आप ने मेरी एक नहीं सुनी.’’

‘‘इसीलिए तुम ने अपनी मनमानी कर ली? विवाह ही करना था तो मुझ से कहतीं, अपनी जाति में क्या लड़कों की कमी थी. अरे, इस ने तो तुम से तुम्हारे मोटे वेतन के लिए विवाह किया है. मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि तुम ने मां का दिल दुखाया है, तुम कभी चैन से नहीं रहोगी,’’ और इस के बाद वह ऐसे बिलखने लगीं जैसे घर में किसी की मृत्यु हो गई हो.

‘‘मां,’’ बस, इतना बोल कर प्राची अविश्वास से उन की ओर ताकती रह गई. मां के प्रति उस के मन में बड़ा आदर था. अपना वैवाहिक जीवन वह उन के श्राप के साथ शुरू करेगी, ऐसा तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अनजाने ही आंखों से अश्रुधारा बह चली थी.

‘‘ठीक है मां, एक बार पापा से मिल लें, फिर चले जाएंगे,’’ प्राची ने कदम आगे बढ़ाया ही था कि मीरा देवी फिर भड़क उठीं.

ये भी पढ़ें- सनक

‘‘कोई जरूरत नहीं है यह दिखावा करने की. विवाह करते समय नहीं सोचा अपने अपाहिज पिता के बारे में, तो अब यह सब रहने ही दो. मैं उन की देखभाल करने में पूर्णतया सक्षम हूं. मुझे किसी की दया नहीं चाहिए,’’ मीरा देवी ने प्राची का रास्ता रोक दिया.

‘‘कौन है. मीरा?’’ अंदर से नीरज बाबू का स्वर उभरा था.

‘‘मैं उन्हें समझा दूंगी कि उन की प्यारी बेटी प्राची अपनी इच्छा से विवाह कर के घर छोड़ कर चली गई,’’ वह क्षितिज को लक्ष्य कर के कुछ बोलना ही नहीं चाहती थीं मानो वह वहां हो ही नहीं.

‘‘चलो, चलें,’’ आखिर मौन क्षितिज ने ही तोड़ा. वह सहारा दे कर प्राची को टैक्सी तक ले गया और प्राची टैक्सी में बैठी देर तक सुबकती रही. क्षितिज लगातार उसे चुप कराने की कोशिश करता रहा.

‘‘देखा तुम ने, क्षितिज, पापा को पक्षाघात होने पर मैं ने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी की. आगे की पढ़ाई सांध्य विद्यालय में पढ़ कर पूरी की. निधि, राजा, प्रवीण, वीणा की पढ़ाई का भार, पापा के इलाज के साथसाथ घर के अन्य खर्चों को पूरा करने में मैं तो जैसे मशीन बन गई थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. निधि, राजा और वीणा ने नौकरी करते ही अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. तब तो मां ने दोस्तों, संबंधियों को बुला कर विधिविधान से विवाह कराया, दावत दीं. पर आज मुझे देख कर उन की आंखों में खून उतर आया. आशीर्वाद देने की जगह श्राप दे डाला,’’ आक्रोश से प्राची का गला रुंध गया और वह फिर से फूटफूट कर रोने लगी.

ये भी पढ़ें- Serial Story: खुशी का गम

‘‘शांत हो जाओ, प्राची. हमारे जीवन का सुखचैन किसी के श्राप या वरदान पर नहीं, हमारे अपने नजरिए पर निर्भर करता है,’’ क्षितिज ने समझाना चाहा था, पर सच तो यह था कि मां के व्यवहार से वह भी बुरी तरह आहत हुआ था. अपने फ्लैट के सामने पहुंचते ही क्षितिज ने फ्लैट की चाबी प्राची को थमा दी और बोला, ‘‘यही है अपना गरीबखाना.’’

प्राची ने चारों ओर निगाह डाली, घूम कर देखा और मुसकरा दी. डबल बेडरूम वाला छोटा सा फ्लैट बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था.

अस्तित्व- भाग 2: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘नहीं सहन होता तो चली जाओ यहां से, जहां अच्छा लगता है वहां चली जाओ. क्यों रह रही हो फिर यहां.’

‘चली जाऊं, छोड़ दूं, उम्र के इस पड़ाव पर, आप को बेशक यह कहते शर्म नहीं आई हो, पर मुझे सुनने में जरूर आई है. इस उम्र में चली जाऊं, शादी के 30 साल तक सब झेलती रही, अब कहते हो चली जाओ. जाना होता तो कब की सबकुछ छोड़ कर चली गई होती.’

तनु तड़प उठी थी. जिंदगी का सुख प्रणव ने केवल भौतिक सुखसुविधा ही जाना था. पूरी जिंदगी अपनेआप को मार कर जीना ही अपनी तकदीर मान जिस के साथ निष्ठा से बिता दी, उसी ने आज कितनी आसानी से उसे घर से चले जाने को कह दिया.

‘हां, आज मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए. अब तक पूरी जिंदगी प्रणव के हिसाब से ही जी है, यह भी सही.’ सारी रात तनु ने इसी सोच के साथ बिता दी.

शादी के बाद कितने समय तक तो तनु प्रणव का व्यवहार समझ ही नहीं पाई थी. किस बात पर झगड़ा होगा और किस बात पर प्यार बरसाने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता. कालिज से आने में देर हो गई तो क्यों हो गई, घरबार की चिंता नहीं है, और अगर जल्दी आ गई तो कालिज टाइम पास का बहाना है, बच्चों को पढ़ाना थोड़े ही है.

दुनिया की नजर में प्रणव से आदर्श पति और कोई हो ही नहीं सकता. मेरी हर सुखसुविधा का खयाल रखना, विदेशों में घुमाना, एक से एक महंगी साडि़यां खरीदवाना, जेवर, गाड़ी, बंगला, क्या नहीं दिया लेकिन वह यह नहीं समझ सके कि सुखसुविधा और खुशी में बहुत फर्क होता है.

तनु की विचारशृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी…मैं इन की बिना पसंद के एक रूमाल तक नहीं खरीद सकती, बिना इन की इच्छा के बालकनी में नहीं खड़ी हो सकती, इन की इच्छा के बिना घर में फर्नीचर इधर से उधर एक इंच भी सरका नहीं सकती, नया खरीदना तो दूर की बात… क्योंकि इन की नजर में मुझे इन चीजों की, इन बातों की समझ नहीं है. बस, एक नौकरी ही है, जो मैं ने छोड़ी नहीं. प्रणव ने बहुत कहा कि सोसाइटी में सभी की बीवियां किसी न किसी सोशल काम से जुड़ी रहती हैं. तुम भी कुछ ऐसा ही करो. देखो, निमिषा भी तो यही कर रही है पर तुम्हें क्या पता…पहले हमारे बीच खूब बहस होती थी, पर धीरेधीरे मैं ने ही बहस करना छोड़ दिया.

ये भी पढ़ें- भला सा अंत: भाग 2

आज मैं थक गई थी ऐसी जिंदगी से. बच्चों ने तो अपना नीड़ अलग बना लिया, अब क्या इस उम्र में मैं…हां…शायद यही उचित होगा…कम से कम जिंदगी की संध्या मैं बिना किसी मानसिक पीड़ा के बिताना चाहती हूं.

प्रणव तो इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह की उड़ान से अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए फ्रैंकफर्ट चले गए. उन के जाने के बाद तनु ने रात में सोची गई अपनी विचारधारा पर अमल करना शुरू कर दिया. अभी तो रिटायरमेंट में 5-6 वर्ष बाकी हैं इसलिए अभी क्वार्टर लेना ही ठीक है, आगे की आगे देखी जाएगी.

तनु को क्वार्टर मिले आज कई दिन हो गए, लेकिन प्रणव को वह कैसे बताए, कई दिनों से इसी असमंजस में थी. दिन बीतते जा रहे थे. प्रोफेसर दीप्ति, जो तनु के ही विभाग में है और क्वार्टर भी तनु को उस के साथ वाला ही मिला है, कई बार उस से शिफ्ट करने के बारे में पूछ चुकी थी. तनु थी कि बस, आजकल करती टाल रही थी.

सच तो यह है कि तनु ने उस दिन आहत हो कर क्वार्टर के लिए आवेदन कर दिया था और ले भी लिया, पर इस उम्र में पति से अलग होने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी. यह उस के मध्यवर्गीय संस्कार ही थे जिन का प्रणव ने हमेशा ही मजाक उड़ाया है.

ऐसे ही एक महीना बीत गया. इस बीच कई बार छोटीमोटी बातें हुईं पर तनु ने अब खुद को तटस्थ कर लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि प्रणव के विस्फोट का एक बहाना उस ने स्वयं ही उसे थाली में परोस कर दे दिया है.

कालिज से मिलने वाली तनख्वाह बेशक प्रणव ने कभी उस से नहीं ली और न ही बैंक मेें जमा पैसे का कभी हिसाब मांगा पर तनु अपनी तनख्वाह का चेक हमेशा ही प्रणव के हाथ में रखती रही है. वह भी उसे बिना देखे लौटा देते हैं. इतने वर्षों से यही नियम चला आ रहा है.

तनु ने जब इस महीने भी चेक ला कर प्रणव को दिया तो उस पर एक नजर डाल कर वह पूछ बैठे, ‘‘इस बार चेक में अमाउंट कम क्यों है?’’

पहली बार ऐसा सवाल सुन कर तनु चौंक गई. उस ने सोचा ही नहीं था कि प्रणव चेक को इतने गौर से देखते हैं. अब उसे बताना ही पड़ा,  ‘‘अगले महीने से ठीक हो जाएगा. इस महीने शायद स्टाफ क्वार्टर के कट गए होंगे.’’

अभी उस का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, ‘‘स्टाफ क्वार्टर के…किस का…तुम्हारा…कब लिया…क्यों लिया… और मुझे बताया भी नहीं?’’

तनु से जवाब देते नहीं बना. बहुत मुश्किल से टूटेफूटे शब्द निकले,  ‘‘एकडेढ़ महीना हो गया…मैं बताना चाह रही थी…लेकिन मौका ही नहीं मिला…वैसे भी अब मैं उसे वापस करने की सोच रही हूं…’’

‘‘एक महीने से तुम्हें मौका नहीं मिला…मैं मर गया था क्या? यों कहो कि तुम बताना नहीं चाहती थीं…और जब लिया है तो वापस करने की क्या जरूरत है…रहो उस में… ’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं ने रहने के लिए नहीं लिया…’’

‘‘फिर किसलिए लिया है?’’

‘‘उस दिन आप ने ही तो मुझे घर से निकल जाने को कहा था.’’

ये भी पढ़ें- काश, आपने ऐसा न किया होता: भाग 2

‘‘तो गईं क्यों नहीं अब तक…मैं पूछता हूं अब तक यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप की वजह से नहीं गई. समाज क्या कहेगा आप को कि इस उम्र में अपनी पत्नी को निकाल दिया…आप क्या जवाब देंगे…आप की जरूरतों का ध्यान कौन रखेगा?’’

‘‘मैं समाज से नहीं डरता…किस में हिम्मत है जो मुझ से प्रश्न करेगा और मेरी जरूरतों के लिए तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है…जिस के मुंह पर भी चार पैसे मारूंगा…दौड़ कर मेरा काम करेगा…मेरा खयाल कर के नहीं गई…चार पैसे की नौकरी पर इतराती हो. अरे, मेरे बिना तुम हो क्या…तुम्हें समाज में लोग मिसिज प्रणव राय के नाम से जानते हैं.’’

तनु का क्रोध आज फिर अपना चरम पार करने लगा, ‘‘चुप रहिए, मैं ने पहले ही कहा था कि अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. ’’

‘‘कौन कहता है कि बरदाश्त करो…अब तो तुम ने मकान भी ले लिया है. जाओ…चली जाओ यहां से…मैं भूल गया था कि तुम जैसी मिडिल क्लास को कोठीबंगले रास नहीं आते. तुम्हारे लिए तो वही 2-3 कमरों का दड़बा ही ठीक है.’’

तनु इस अपमान को सह नहीं पाई और तुरंत ही अंदर जा कर अपना सूटकेस तैयार किया और वहां से निकल पड़ी. आंखों में आंसू लिए आज कोठी के फाटक को पार करते ही तनु को ऐसा लगा मानो कितने बरसों की घुटन के बाद उस ने खुली हवा में सांस ली है.

ये भी पढ़ें- हमसफर: भाग 2

अस्तित्व- भाग 3: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

ये भी पढ़ें- एक भावनात्मक शून्य: भाग 1

ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

ये भी पढ़ें- मरीचिका: वरूण को प्रकृति और मानवता की सेवा का परिणाम कुछ ऐसे मिला

तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

ये भी पढ़ें- हीरो: क्या समय रहते खतरे से बाहर निकल पाई वह?

‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लग जाती है.

क्षमादान- भाग 2: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

प्राची ड्राइंगरूम में पड़े सोफे पर पसर गई. मन का बोझ कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मन अजीब से अपराधबोध से पीडि़त था. पता नहीं क्षितिज से विवाह का उस का फैसला सही था या गलत? हर ओर से उठते सवालों की बौछार से भयभीत हो कर उस ने आंखें मूंद लीं तो पिछले कुछ समय की यादें उस के मन रूपी सागरतट से टकराने लगी थीं.

‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार,’ उस दिन प्राची ने अपने जन्मदिन का केक काट कर मोमबत्तियां बुझाई ही थीं कि पूरा कमरा इस गीत की धुन से गूंज उठा था. क्षितिज ने ऊपर लगा बड़ा सा गुब्बारा फोड़ दिया था. उस में से रंगबिरंगे कागज के फूल उस के ऊपर और पूरे कमरे में बिखर गए थे. उस के सभी सहकर्मियों ने करतल ध्वनि के साथ उसे बधाई दी थी और गीत गाने लगे थे.

जन्मदिन की चहलपहल, धूमधाम के बीच शाम कैसे बीत गई थी पता ही नहीं चला था. अपने सहकर्मियों को उस ने इसी बहाने आमंत्रित कर लिया था. उस की बहन वीणा और निधि तथा भाई राजा और प्रवीण में से कोई एक भी नहीं आया था. प्रवीण तो अपने कार्यालय के काम से सिंगापुर गया हुआ था पर अन्य सभी तो इसी शहर में थे.

ये भी पढ़ें- ग्रहण हट गया: भाग 1

सभी अतिथियों को विदा करने के बाद प्राची निढाल हो कर अपने कक्ष में पड़ी सोच रही थी कि चलो, इसी बहाने सहकर्मियों को घर बुलाने का अवसर तो मिला वरना तो इस आयु में किस का मन होता है जन्मदिन मनाने का. एक और वर्ष जुड़ गया उस की आयु के खाते में. आज पूरे 35 वसंत देख लिए उस ने.

अंधकार में आंखें खोल कर प्राची शून्य में ताक रही थी. अनेक तरह की आकृतियां अंधेरे में आकार ले रही थीं. वे आकृतियां, जिन का कोई अर्थ नहीं था, ठीक उस के जीवन की तरह.

‘प्राची, ओ प्राची,’ तभी मां का स्वर गूंजा था.

‘क्या है, मां?

‘बेटी, सो गई क्या?’

‘नहीं तो, थक गई थी, सो आराम कर रही हूं. मां, राजा, निधि और वीणा में से कोई नहीं आया,’ प्राची ने शिकायत की थी.

‘अरे, हां, मैं तो तुझे बताना ही भूल गई. राजा का फोन आया था, बता रहा था कि अचानक ही उस के दफ्तर का कोई बड़ा अफसर आ गया इसलिए उसे रुकना पड़ गया है. वीणा और निधि को तो तुम जानती ही हो, अपनी गृहस्थी में कुछ इस प्रकार डूबी हैं कि उन्हें दीनदुनिया का होश तक नहीं है,’ मां ने उन सब की ओर से सफाई दी थी.

‘फिर भी थोड़ी देर के लिए तो आ ही सकती थीं.’

‘वीणा तो फोन पर यह कह कर हंस रही थी कि इस बुढ़ापे में दीदी को जन्मदिन मनाने की क्या सूझी?’ यह कह कर मां खिलखिला कर हंसी थीं.

मां की यह हंसी प्राची के कानों में सीसा घोल गई थी. वह रोंआसी हो कर बोली, ‘पहले कहना चाहिए था न मां कि तुम्हारी प्राची को वृद्धावस्था में जन्मदिन मनाने का साहस नहीं करना चाहिए.’

ये भी पढ़ें- अस्तित्व: भाग 3

‘अरे, बेटी, मैं तो यों ही मजाक कर रही थी. तू तो बुरा मान गई. 35 वर्ष की आयु में तो आजकल लोग जीवन शुरू करते हैं,’ मां ने जैसे भूल सुधार की मुद्रा में कहा, ‘इस तरह अंधेरे में क्यों बैठी है. आ चल, उपहार खोलते हैं. देखेंगे किस ने क्या दिया है.’

मां की बच्चों जैसी उत्सुकता देख कर प्राची उठ कर दालान में चली आई. अब मां हर उपहार को खोलतीं, उस के दाम का अनुमान लगातीं और एक ओर सरका देतीं.

‘मां, डब्बे पर देखो, नाम लिखा होगा,’ प्राची बोली थी.

‘मेरा चश्मा दूसरे कमरे में रखा है. ले, तू ही पढ़ ले,’ उन्होंने डब्बा और उस पर लिपटा कागज दोनों प्राची की ओर बढ़ा दिए थे.

‘क्षितिज गोखले,’ प्राची ने नाम पढ़ा और चुप रह गई थी. मां दूसरे उपहारों में व्यस्त थीं. नाम के बाद एक वाक्य और लिखा हुआ था, ‘प्यार के साथ, संसार की सब से सुंदर लड़की के लिए.’ अनजाने ही प्राची का चेहरा शर्म से लाल हो गया था.

‘यह देख, कितना सुंदर बुके है…पर सच कहूं, बुके का पैसा व्यर्थ जाता है. कल तक फूल मुरझा जाएंगे, फिर फेंकने के अलावा क्या होगा इन का?’

‘मां, फूलों की अपनी ही भाषा होती है. कुछ देर के लिए ही सही, अपने सौंदर्य और सुगंध से सब को चमत्कृत करने के साथ ही जीवन की क्षणभंगुरता का उपदेश भी दे ही जाते हैं,’ प्राची मुसकराई थी.

‘तुम्हारे दार्शनिक विचार मेरे पल्ले तो पड़ते नहीं हैं. चलो, आराम करो, मुझे भी बड़ी थकान लग रही है,’ कहती हुई मां उठ खड़ी हुई थीं.

सोने से पहले हर दिन की तरह उस दिन भी अपने पिता नीरज बाबू के लिए दूध ले कर गई थी प्राची.

‘बेटी, बड़ी अच्छी रही तेरे जन्मदिन की पार्टी. बड़ा आनंद आया. हर साल क्यों नहीं मनाती अपना जन्मदिन? इसी बहाने तेरे अपाहिज पिता को भी थोड़ी सी खुशी मिल जाएगी,’ नीरज बाबू भीगे स्वर में बोले थे.

प्राची पिता का हाथ थामे कुछ देर उन के पास बैठी रही थी.

‘कोई अच्छा सा युवक देख कर विवाह कर ले, प्राची. अब तो राजा, प्रवीण, वीणा और निधि सभी सुव्यवस्थित हो गए हैं. रहा हम दोनों का तो किसी तरह संभाल ही लेंगे.’

ये भी पढ़ें- एहसास

‘क्यों उपहास करते हैं पापा. मेरी क्या अब विवाह करने की उम्र है? वैसे भी अब किसी और के सांचे में ढलना मेरे लिए संभव नहीं होगा,’ वह हंस दी थी. नीरज बाबू को रजाई उढ़ा कर और पास की मेज पर पानी रख प्राची अपने कमरे में आई तो आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था.

शायद 5 वर्ष हुए होंगे, जब उस के सहपाठी सौरभ ने उस के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था. बाद में उस के मातापिता घर भी आए थे पर मां ने इस विवाह के प्रस्ताव को नहीं माना था.

‘बेटा समझ कर तुम्हें पाला है. अब तुम प्रेम के चक्कर में पड़ कर विवाह कर लोगी तो इन छोटे बहनभाइयों का क्या होगा?’ मां क्रोधित स्वर में बोली थीं.

सौरभ ने अपने लंबे प्रेमप्रकरण का हवाला दिया तो वह भी अड़ गई थी.

‘मां, मैं ने और सौरभ ने विवाह करने का निर्णय लिया है. आप चिंता न करें. मैं पहले की तरह ही परिवार की सहायता करती रहूंगी,’ प्राची ने दोटूक निर्णय सुनाया था.

‘कहने और करने में बहुत अंतर होता है. विवाह के बाद तो बेटे भी पराए हो जाते हैं, फिर बेटियां तो होती ही हैं पराया धन,’ और इस के बाद तो मां अनशन पर ही बैठ गई थीं. जब 3 दिन तक मां ने पानी की एक बूंद तक गले के नीचे नहीं उतारी तो वह घबरा गई और उस ने सौरभ से कह दिया था कि उन दोनों का विवाह संभव नहीं है.

उस के बाद वह सौरभ से कभी नहीं मिली. सुना है विदेश जा कर वहीं बस गया है वह. इन्हीं खयालों में खोई वह नींद की गोद में समा गई थी.

Serial Story: स्वप्न साकार हुआ- भाग 1

लेखिका-  साधना श्रीवास्तव

रात में रसोई का काम समेट कर आरती सोने के लिए कमरे में आई तो देखा, उस के पति डा. विक्रम गहरी नींद में सो रहे थे. उन के बगल में बेटी तान्या सो रही थी. आरती ने सोने की कोशिश बहुत की लेकिन नींद जैसे आंखों से कोसों दूर थी. फिर पति के चेहरे पर नजर टिकाए आरती उन्हीं के बारे में सोचती रही.

डा. विक्रम सिंह कितने सरल और उदार स्वभाव के हैं. इन के साथ विवाह हुए 6 माह बीत चुके हैं और इन 6 महीनों में वह उन्हें अच्छी तरह पहचान गई है. कितना प्यार और अपनेपन के साथ उसे रखते हैं. उसे तो बस, ऐसा लगता है जैसे एक ही झटके में किसी ने उसे दलदल से निकाल कर किसी महफूज जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है.

उस का अतीत क्या है? इस बारे में कुछ भी जानने की डा. विक्रम ने कोई जिज्ञासा जाहिर नहीं की और वह भी अभी कुछ कहां बता पाई है. लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि वह उन को धोखे में रखना चाहती है. बस, उन्होंने कभी पूछा नहीं इसलिए उस ने बताया नहीं. लेकिन जिस दिन उन्होंने उस के अतीत के बारे में कुछ जानने की इच्छा जताई तो वह कुछ भी छिपाएगी नहीं, सबकुछ सचसच बता देगी.

इसी के साथ आरती का अतीत एक चलचित्र की तरह उस की बंद आंखों में उभरने लगा. वह कहांकहां छली गई और फिर कैसे भटकतेभटकते वह मुंबई की बार गर्ल से डा. विक्रम सिंह की पत्नी बन अब एक सफल घरेलू औरत का जीवन जी रही है.

आज की आरती अतीत में मुंबई की एक बार गर्ल बबली थी. बार बालाओं के काम पर कानूनन रोक लगते ही बबली ने समझ लिया था कि अब उस का मुंबई में रह कर कोई दूसरा काम कर के अपना पेट भरना संभव नहीं है.

ये भी पढ़ें- अनुगामिनी: पति के हर दुख की साथी…

मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर तक, जिधर भी जाएगी, लोगों की पहचान से बाहर न होगी. अत: उस ने मुंबई छोड़ देने का फैसला किया. गुजरात के सूरत जिले में उस की सहेली चंदा रहती थी. उस ने उसी के पास जाने का मन बनाया और एक दिन कुछ जरूरी कपड़े तथा बचा के रखी पूंजी ले कर सूरत के लिए गाड़ी पकड़ ली.

सूरत पहुंचने से पहले ही बबली ने चंदा के यहां जाने का अपना विचार बदल दिया क्योंकि ताड़ से गिर कर वह खजूर पर अटकना नहीं चाहती थी. चंदा भी सूरत में उसी तरह के धंधे से जुड़ी थी.

बबली के लिए सूरत बिलकुल अजनबी व अपरिचित शहर था जहां वह अपने पुराने धंधे को छोड़ कर नया जीवन शुरू करना चाहती थी. इसीलिए शहर के मुख्य बाजार में स्थित होटल में एक कमरा किराए पर लिया और कुछ दिन वहीं रहना ठीक समझा ताकि इस शहर को जानसमझ सके.

बबली को जब कुछ अधिक समझ में नहीं आया तो कुकरी का 3 माह का कोर्स उस ने ज्वाइन कर लिया. इसी दौरान बबली सरकारी अस्पताल से कुछ दूरी पर संभ्रांत कालोनी में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगी. कोर्स सीखने के दौरान ही उस ने अपने मन में दृढ़ता से तय कर लिया कि अब एक सभ्य परिवार में कुक का काम करती हुई वह अपना आगे का जीवन ईमानदारी के साथ व्यतीत करेगी.

कुकरी की ट्रेनिंग के बाद बबली को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. जल्दी ही उसे एक मनमाफिक विज्ञापन मिल गया और पता पूछती हुई वह सीधे वहां पहुंची. दरवाजे की घंटी बजाई तो घर की मालकिन वसुधा ने द्वार खोला.

बबली ने अत्यंत शालीनता से नमस्कार करते हुए कहा, ‘आंटी, अखबार में आप का विज्ञापन पढ़ कर आई हूं. मेरा नाम बबली है.’

‘ठीक है, अंदर आओ,’ वसुधा ने उसे अंदर बुला कर इधरउधर की बातचीत की और अपने यहां काम पर रख लिया.

अगले दिन से बबली ने काम संभाल लिया. घर में कुल 3 सदस्य थे. घर के मालिक अरविंद सिंह, उन की पत्नी वसुधा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा बेटा राजन.

ये भी पढ़ें- Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन

बबली के हाथ का बनाया खाना सब को पसंद आता और घर के सदस्य जब तारीफ करते तो उसे लगता कि उस की कुकरी की ट्रेनिंग सार्थक रही. दूसरी तरफ बबली का मन हर समय भयभीत भी रहता कि कहीं किसी हावभाव से उस के नाचनेगाने वाली होने का शक किसी को न हो जाए. यद्यपि इस मामले में वह बहुत सजग रहती फिर भी 5-6 सालों तक उसी वातावरण में रहने से उस का अपने पर से विश्वास उठ सा गया था.

एक दिन शाम के समय परिवार के तीनों सदस्य आपस में बातचीत कर रहे थे. बबली रसोई में खाना बनाने के साथसाथ कोई गीत भी गुनगुना रही थी कि राजन की आवाज कानों में पड़ी, ‘बबलीजी, एक गिलास पानी दे जाना.’

गाने में मगन बबली ने गिलास में पानी भरा और हाथ में लिए ही अटकतीमटकती चाल से राजन के पास पहुंची और उस के होंठों से गिलास लगाती हुई बोली, ‘पीजिए न बाबूजी.’

राजन अवाक् सा बबली को देखता रह गया. वसुधा और अरविंद को भी उस का यह आचरण अच्छा न लगा पर वे चुप रह गए. अचानक बबली जैसे सोते से जागी हो और नजरें नीची कर के झेंपती हुई वहां से हट गई. बाद में उस ने अपनी इस गलती के लिए वसुधा से माफी मांग ली थी.

आगे सबकुछ सामान्य रूप से चलता रहा. बबली को काम करते हुए लगभग 2 माह बीत चुके थे. एक दिन शाम को वसुधा क्लब जाने के लिए तैयार हो रही थीं कि पति अरविंद भी आफिस से आ गए. वसुधा ने बबली से चाय बनाने को कहा और अरविंद से बोली, ‘मुझे क्लब जाना है और घर में कोई सब्जी नहीं है. तुम ला देना.’

ये भी पढ़ें- कबाड़: क्या यादों को कभी भुलाया जा सकता है?

Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 1

लेखक-  वीना टहिल्यानी

‘डैड इस समय घर में,’ यह सोच कर ही मिली का दिल बैठ गया. स्कूल से घर लौटने का सारा उत्साह जाता रहा. दिन के दूसरे पहर में, डैड का घर में होने का मतलब है वह बैठ कर पी रहे होंगे.

शराब पी लेने के बाद डैड और भी अजनबी हो जाते हैं. उन के मन के भाव उन की आंखों में उतर आते हैं. तब मिली को डैड से बहुत डर लगता है. सामने पड़ने में उलझन होती है.

मिली ने धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे की ओर डैड की पीठ थी. हाथ में गिलास थामे वह टेलीविजन देख रहे थे. दबेपांव मिली सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में पहुंच गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. बैग को कमरे में एक ओर पटका और औंधेमुंह बिस्तर पर जा पड़ी. कितनी देर तक मिली यों ही लस्तपस्त पड़ी रही.

अचानक मिली को हलका सा शोर सुनाई दिया तो वह चौंक कर उठ बैठी. शायद आंख लग गई थी. नीचे वैक्यूम क्लीनर के चलने की धीमी आवाज आ रही थी.

‘अरे हां,’ मिली के मुंह से अपनेआप बोल फूट पड़े, ‘आज तो फ्राइडे है… साप्ताहिक सफाई का दिन.’ उस ने खिड़की से नीचे झांका तो पोर्च  में मिसेज स्मिथ की छोटी कार खड़ी थी. डैड की गाड़ी गायब थी, शायद वह कहीं निकल गए थे.

मिली ने झटपट ब्लेजर हैंगर में टांगा. जूते रैक पर लगाए और गरम पानी के  बाथटब में जा बैठी.

नहाधो कर मिली नीचे पहुंची तो मिसेज स्मिथ डिशवाशर और वाशिंग मशीन लगा कर साफसफाई में लगी थी.

शुक्रवार को मिसेज स्मिथ के आने से मिली डिशवाशिंग से बच जाती है वरना स्कूल से लौट कर लंच के बाद डिशवाशर लगाना, बरतन पोंछना व सुखाना उसी का काम है.

मिली को बड़े जोर से भूख लग आई तो उस ने फ्रिज खोल कर अपनी प्लेट सजाई और माइक्रोवेव में उसे लगा कर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. सुरमई सांझ बिलकुल बेआवाज थी.

ऐसी खामोशी में मिली का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा और गुजरा समय कितना कुछ आंखों के आगे तिर आया.

बरसों बीत गए. मिली तब यही कोई 5 साल की रही होगी. सब समझते हैं कि मिली सबकुछ भूल चुकी है पर मिली कुछ भी तो नहीं भूल पाई है.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: मां हूं न

वह देश, वह शहर और उस की गलियां व घर और इन सब के साथ फरीदा अम्मां की यादें जुड़ी हैं. और उस के ढेरों साथी, बालसखा, उस की यादों में आज भी बने हुए हैं.

तब वह मिली नहीं, मृणाल थी. उस के हुड़दंग करने पर फरीदा अम्मां उसे लंबेलंबे बालों से पकड़तीं और उस की पीठ पर धौल जड़ देतीं. बचपन की बातें सोचते ही मिली को पीठ पर दर्द का एहसास होने लगा और अनायास ही उस का हाथ अपने बौबकट बालों पर जा पड़ा. डाइनिंग टेबल पर मुंह में फिश-चिप्स का पहला टुकड़ा रखते ही मिली की जबान को माछेरझोल का स्वाद याद हो आया और याद आ गईं कोलकाता की छोटीछोटी शामें, बाल आश्रम के गलियारों में गुलगपाड़ा मचाते हमजोली, नाराज होती फरीदा अम्मां, नन्हेमुन्नों को पालने में झुलाती, सुलाती वेणु मौसी.

तब लंबेलंबे गलियारों व बरामदों वाला बाल आश्रम ही उस का घर था. पहली बार स्कूल गई तो घर और आश्रम में अंतर का भेद खुला. साथ ही उसे यह भी पता चला कि उस के मातापिता नहीं थे, वह अनाथ थी.

उस दिन स्कूल से लौट कर अबोध मिली ने पहला प्रश्न यही पूछा था, ‘फरीदा अम्मां, मेरी मां कहां हैं?’

फरीदा बरसों से अनाथाश्रम में काम कर रही थीं. एक नहीं अनेक बार वह इस सवाल का पहले भी सामना कर चुकी थीं. मिली के इस प्रश्न से वह एक बार फिर दुखी व बेचैन हो उठीं. उन के उस मौन पर मिली ने अपने सवाल को नए रूप में दोहराया, ‘फरीदा अम्मां, मेरा घर कहां है? मां मुझे यहां क्यों छोड़ गईं?’

नन्हे सुहेल को गोद में थपकी देते हुए फरीदा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी…’

‘यह मजबूरी क्या होती है, अम्मां?’ उलझन में पड़ी मिली ने एक और प्रश्न किया.

मिली के एक के बाद एक प्रश्नों से फरीदा अम्मां झल्ला पड़ीं. तभी सुहेल जाग कर जोरजोर से रोने लगा था. सहम कर मृणाल ने अपना मुंह फरीदा की गोद में छिपा लिया और सुबकने लगी.

फरीदा ने पहले तो सुहेल को चुप कराया फिर मिली को बहलाया और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘रो मत, बिटिया…मैं जो हूं तेरी मां…चलोचलो, अब हम दोनों मिल कर तुम्हारी किताब का नया पाठ पढ़ेंगे…’

मृणाल को अब खेलतेखाते उठते- बैठते बस एक ही इंतजार रहता कि मां आएगी…उसे दुलार कर गोद में बिठाएगी. स्कूल तक छोड़ने भी चलेगी-सोहम की मां जैसे. विदुला की मम्मी तो उस का बस्ता भी उठा कर लाती हैं…उस की भी मां होतीं तो यही सब करतीं न…पर…पर…वह मुझे छोड़ कर गईं ही क्यों?

फिर एक दिन लंदन से ब्र्र्राउन दंपती एक बच्चा गोद लेने आए और उन्हें मिली उर्फ मृणाल पसंद आ गई. सारी औपचारिकताएं पूरी होने पर काउंसलर उसे पास बैठा कर सबकुछ स्नेह से समझाती हैं:

‘मिली, तुम्हारे मौमडैड आए हैं. वह तुम्हें अपने साथ ले जाएंगे, खूब प्यार करेंगे. खेलने के लिए तुम्हें ढेरों खिलौने देंगे.’

मिली चौंक कर चुपचाप सबकुछ सुनती रही थी. फरीदा अम्मां भी यही सब दोहराती रहीं पर मिली खुश नहीं हो पाई. बाहर से देख कर लगता, मिली बहल गई है पर भीतर ही भीतर तो वह बहुत भयभीत है.

ऐसा पहले भी हो चुका है, कुछ लोग आ कर अपना मनपसंद बच्चा अपने साथ ले जाते हैं. अभी कुछ महीने पहले ही कुछ लोग नन्ही ईना को ले गए थे. ईना कितनी छोटी थी, बिलकुल जरा सी. वह हंसीखुशी उन की गोद में बैठ कर हाथ हिलाती चली गई थी पर मिली तो बड़ी है. सब समझती है कि उस का सबकुछ छूट रहा था. फरीदा अम्मां, घर, स्कूल संगीसाथी.

ये भी पढ़ें- खुशियों के फूल: क्या था लिपि के पिता का विकृत चेहरा?

मृणाल का रोना फरीदा अम्मां सह नहीं पातीं. आतेजाते अम्मां उसे बांहों में भर कर गले से लगाती हैं, फिर जोर से खिलखिलाती हैं. मिली भी उन का भरपूर साथ देती है, आतेजाते उन की गोद में छिपती है, उन के आंचल से लिपटती है.

जाने का दिन भी आ गया. सारी काररवाई  पूरी हो गई. अब तो बस, नए देश, नए नगर जाना था.

चलने से पहले अंतिम बार फरीदा ने मृणाल को गोद में बैठा कर गले से लगाया तो मिली फुसफुसाते, गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘फरीदा अम्मां, जब मेरी असली वाली मां आएंगी तो तुम उन्हें मेरा पता जरूर दे देना…’ इतना कहतेकहते मिली का गला रुंध गया था.

मिली का इतना कहना था कि फरीदा अम्मां का सब्र का बांध टूट गया और दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपट कर रो पड़ी थीं.

आखिर फरीदा ने ही धीरज धरा. अपनी पकड़ को शिथिल किया. फिर आंचल से आंसू पोंछे. भरे गले से बच्ची को समझाया, ‘जा बेटी, जा…बीती को भूल जा…अब यही तेरे मातापिता हैं… बिलकुल सच्चे…बिलकुल सगे. तू तो बड़ी तकदीर वाली है बिटिया जो तुझे इतना अच्छा घर मिला, अच्छा परिवार मिला… यहां क्या रखा है? वहां अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी, खूब पढ़ेगी और बड़ी हो कर अफसर बनेगी…मेरी बच्ची यश पाए, नाम कमाए, स्वस्थ रहे, सुखी रहे, सौ बरस जिए…जा बिटिया, जा…मुड़ कर न देख, अब निकल ही जा…’ कहतेकहते फरीदा ने उसे गोद से उतारा और मिली उर्फ मृणाल की उंगली मिसेज ब्राउन को पकड़ा दी.

नई मां की उंगली पकड़ कर मिली, मृणाल से मर्लिन बन गई. नया परिवार पा कर कितना कुछ पीछे छूट गया पर यादें हैं कि आज भी साथ चलती हैं. बातें हैं कि भूलती ही नहीं.

घर के लाल कालीन पर पैर रखते ही मिली को लाल फर्श वाले बाल आश्रम के लंबे गलियारे याद आ जाते जिन पर वह यों ही पड़ी रहती थी…बिना चादरचटाई के. उन गलियारों की स्निग्ध शीतलता आज भी उस के पोरपोर में रचीबसी है.

मिली को शुरुआत में लंदन बड़ा ही नीरव लगा था. सड़कों पर कोलकाता जैसी भीड़ नहीं थी और पेड़ भी वहां जो थे हरे भरे न थे. सबकुछ जैसे स्लेटी. मिली को कुछ भी अपना न दिखता. दिल हरदम देश और अपनों के छूटने के दर्द से भरा रहता. मन करता कि कुछ ऐसा हो जाए जो फिर वह वापस वहीं पहुंच जाए.

ये भी पढ़ें- लिस्ट: क्या सच में रिया का कोई पुरुष मित्र था?

मौम उस का भरसक ध्यान रखतीं. खूब दुलार करतीं. डैड कुछ गंभीर से थे. कुछकुछ विरक्त और तटस्थ भी. उसे गोद लेने का मौम का ही मन रहा होगा, ऐसा अब अनुमान लगाती है मिली.

यहां सब से भला उस का भाई जौन है. उस से 8 साल बड़ा. खूब लंबा, ऊंचा, गोराचिट्टा. मिली ने उसे देखा तो देखती ही रह गई.

Mother’s Day Special: मोह का बंधन- भाग 1

लेखक- वनश्री अग्रवाल

वह अपने बेटे सुशांत के पास पहली बार जा रही थीं. 3 महीने पहले ही सुशांत का विवाह अमृता से हुआ था. दोनों बंगलौर में नौकरी करते थे और शादी के बाद से ही मां को बुलाने की रट लगाए हुए थे. एक हफ्ते पहले सुशांत ने अपने प्रोमोशन की खबर देते हुए मां को हवाई टिकट भेजा और कहा कि मां, अब तो आ जाओ. इस पर बीना उस का आग्रह न टाल सकीं. विमान में पहुंचने पर एअर होस्टेस ने सीट तक जाने में बीना की मदद की और सीटबेल्ट लगाने का उन से आग्रह किया. नियत समय पर विमान ने उड़ान भरी तो नीचे का दृश्य बीना को अत्यंत मोहक लग रहा था. छोटेछोटे भवन, कहीं जंगल तो कहीं घुमावदार सड़क और इमारतें…सभी खिलौने जैसे दिख रहे थे. कुछ देर बाद विमान बादलों को चीरता हुआ बहुत ऊपर पहुंच गया.

थोड़ी देर तक तो बीना बाहर देखती रहीं, फिर ऊब कर एक पत्रिका उठा ली और उस के पन्ने पलटने लगीं. तभी उन की नजर एक विज्ञापन पर पड़ी जो उन के ही बैंक की आवासीय ऋण योजना का था. साथ ही उस में छपे एक खुशहाल परिवार का चित्र देख कर उन्हें अपने घरसंसार का खयाल आ गया.

उसे बैंक में नौकरी करते हुए अब 15 साल बीत चुके हैं. परिवार में वह और उस के 3 बेटे हैं और अब तो 2 बहुएं भी आ गई हैं. बड़ा बेटा प्रशांत अमेरिका में कंप्यूटर इंजीनियर है. मंझला सुशांत बंगलौर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है. निशांत सब से छोटा है और लखनऊ में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है.

आज जब वह बच्चों की सफलता के बारे में सोचती हैं तो उन्हें अपने पति आनंद की कमी सहसा महसूस हो उठती है. आज वह जिंदा होते तो कितने खुश होते, अकसर यही खयाल मन में आता है. हृदयाघात ने 12 साल पहले आनंद को उन से छीन लिया था. बैंक की नौकरी, बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारी के बीच पति आनंद की कमी बीना को हमेशा महसूस होती रही पर अब जब बच्चे सक्षम हो कर उन से दूर चले गए हैं तब अकेलेपन का एहसास उन्हें अधिक सालने लगा है.

ये भी पढ़ें- रावण की शक्ल

कुछ साल पहले तक बीना यही सोच कर आश्वस्त हो जाया करती थीं कि यह स्थिति हमेशा के लिए थोड़े ही रहने वाली है. आफिस के सहकर्मी, नातेरिश्तेदार सभी सलाह देते कि अब तो बेटों की शादियां कर के भरेपूरे परिवार का आनंद उठाएं. इच्छा तो बीना की भी यही होती थी पर उन्हीं लोगों के अनुभवों के कारण उन की सोच बदलने लगी.

आफिस के मेहताजी का उदाहरण बीना को भीतर तक हिला गया था. अपने बेटे की शादी तय होने पर पूरे आफिस में मिठाई बांटते हुए उन्होंने कहा था कि अब वह रिटायरमेंट ले कर गृहस्थी का सुख भोगेंगे. बड़े चाव से उन्होंने सब को शादी का न्योता दिया और महल्ले भर में दिल खोल कर मिठाई बांटी पर महीना बीततेबीतते मेहताजी के चेहरे की चमक जा चुकी थी. पता चला कि अपना मकान उन्होंने उपहारस्वरूप जिस बेटेबहू के नाम कर दिया था, उन्होेंने ही अपने मातापिता को घर से निकालने में ज्यादा समय नहीं लगाया था.

उन की अपनी ननद सरिता की कहानी भी कम दुखदायी नहीं थी. उन के बेटे अमन को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजते समय बीना ने ही अपने बैंक  से ऋण की व्यवस्था करवाई थी. अमन जो एक बार गया तो अपनी बहन अमिता की शादी पर भी न आ सका. अमिता ने अपने गहनों के शौक के आगे मातापिता की तंग आर्थिक स्थिति की बिलकुल परवा न की. बीना ने सरिता जीजी को चेताने की दबी हुई सी कोशिश की थी पर बेटी के मोह के कारण उन्होंने अपनी हैसियत से बढ़ कर शादी में खर्च किया.

2 महीने बाद जीजाजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी. जीजी ने बच्चों को बुलावा भेजा, अमन तो आफिस से छुट्टी नहीं ले पाया और अमिता ने अपने विदेश भ्रमण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जरूरी न समझा. बीमार पिता तो कुछ दिनों में ठीक होने लगे पर जीजी को जो आघात मोह के बंधन के टूटने से लगा, उस से वह कभी उबर न सकीं.

आएदिन रिश्तों में आती कड़वाहट के किस्सों के चलते बीना ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि चाहे जो हो जाए, वह मोह के बंधनों में नहीं बंधेंगी. न होगा बंधन, न रहेगा उस के टूटने का भय और उस के नतीजे में होने वाली वेदना. यद्यपि बीना जानती थीं कि उन के बेटे उन्हें बहुत प्यार करते हैं पर कल किस ने देखा है. एक अनजान भविष्य के अनचाहे डर ने धीरेधीरे उन्हें स्वयं में एक तटस्थ नीरवता लाना सिखला दिया.

पारिवारिक बिखराव का एहसास बीना को पहली बार तब हुआ जब प्रशांत के लिए दिल्ली के एक संभ्रांत परिवार का रिश्ता आया. बीना के मन में नई उमंगें जागने लगीं पर प्रशांत की न्यूयार्क जा कर पढ़ाई करने की जिद के आगे उन्होंने सिर झुका दिया. वह मान तो गईं पर मन में कुछ बुझ सा गया.

ये भी पढ़ें- घरौंदा : दोराहे पर खड़ी रेखा की जिंदगी

पढ़ाई के बाद प्रशांत ने वहीं की एक फर्म में नौकरी का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया. आफिस में ही उस की मुलाकात जूही से हुई थी और उस ने विवाह करने का मन बना लिया. बीना ने भी स्वीकृति देने में देर नहीं की थी. शादी दिल्ली में हुई पर वीसा की बंदिशों के चलते 2 दिन बाद ही दोनों अमेरिका लौट गए. बीना के सारे अरमान उस के दिल में ही रह गए.

इस के साल भर बाद सुशांत ने एक दिन बताया कि उसे बंगलौर में नौकरी मिल गई है. सुन कर बीना थोड़ी अनमनी तो हुईं पर शीघ्र ही खुद को संयत कर के सुशांत को विदा कर दिया.

दीवाली पर सुशांत घर आया. बातोंबातों में उस ने अमृता का जिक्र किया कि दोनों ने मुंबई में एमबीए की पढ़ाई साथ में की थी और अब शादी करना चाहते हैं. बीना ने सहर्ष हामी भर दी.

Mother’s Day Special- बहू-बेटी: भाग 1

लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाडू बुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

ये भी पढ़ें- ममता के रंग

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: आंचल भर दूध

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 1

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

ये भी पढ़ें- बुद्धि का इस्तेमाल: भाग 2

‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

ये भी पढ़ें- छींक: भाग 2

घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें