Hindi Story : विश्वास – एक मां के भरोसे की कहानी

Hindi Story : दोपहर के 2 बजे थे. शिवानी ने आज का हिंदी अखबार उठाया और सोफे पर बैठ कर खबरों पर सरसरी नजर दौड़ाने लगी. हत्या, लूटमार, चोरी, ठगी और हादसों की खबरें थीं. जनपद में ही बलात्कार की 2 खबरें थीं. एक 10 साला बच्ची से पड़ोस के एक लड़के ने बलात्कार किया और दूसरी 15 साला लड़की से स्कूल के ही एक टीचर ने किया बलात्कार. पता नहीं क्या हो रहा है? इतने अपराध क्यों बढ़ रहे हैं? कहीं भी सिक्योरिटी नहीं रही. अपराधियों को पुलिस, कानून व जेल का जरा भी डर नहीं रहा.

बलात्कार की खबरें पढ़ कर शिवानी मन ही मन गुस्सा हो गई. यह कैसा समय आ गया है कि किसी भी उम्र की औरत या बच्ची महफूज नहीं है. बच्चियों से भी बलात्कार. इन बलात्कारियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए, जो ये भविष्य में ऐसे घिनौने अपराध करने के काबिल ही न रहें.

शिवानी की नजर दीवार पर लगी घड़ी पर पड़ी. दोपहर के ढाई बज रहे थे. अभी तक मोनिका स्कूल से नहीं लौटी थी? स्कूल से डेढ़ बजे छुट्टी होती है. आधा घंटा घर लौटने में लगता है. अब तक तो मोनिका को घर आ जाना चाहिए था.

शिवानी के पति कमलकांत एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर थे. उन की 8 साला एकलौती प्यारी सी बेटी मोनिका शहर के एक मशहूर मीडियम स्कूल में तीसरी क्लास में पढ़ रही थी. पढ़ने में होशियार मोनिका बातें भी बहुत प्यारीप्यारी करती थी.

शादी के बाद कमलकांत ने शिवानी से कहा था, ‘देखो शिवानी, हमें अपने घर में केवल एक ही बच्चा चाहिए. हम उसी को अच्छी तरह पाल लें, अच्छी तालीम दिला दें, चाहे वह लड़का हो या लड़की. यही गनीमत होगी. उस के बाद हमें दूसरे बच्चे की चाह नहीं करनी है.’

शिवानी भी पति के इस विचार से सहमत हो गई थी. वह खुद एमए, बीऐड थी, पर बेटी के लिए उस ने नौकरी करना ठीक न समझा और एक घरेलू औरत बन कर रह गई.

शिवानी के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहां रह गई मोनिका? सुबह साढ़े 7 बजे वह आटोरिकशा में बैठ कर गई थी. 5 बच्चे और भी जाते हैं उस के साथ. मोनिका सब से पहले बैठती है और सब से बाद में उतरती है.

आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल पिछले साल से बच्चों को ले जा रहा था, पर कभी लेट ही नहीं हुआ. लेकिन 2 दिन से श्यामलाल बीमार पड़ा था. कल उस का भाई रामपाल आया था आटोरिकशा ले कर.

तब शिवानी ने पूछा था, ‘आज तुम्हारा भाई श्यामलाल कहां रह गया?’

‘उसे 3 दिन से बुखार है. उस ने ही मुझे भेजा है,’ रामपाल ने कहा था.

पहले भी 2-3 बार रामपाल ही बच्चों को ले कर गया और छोड़ कर गया था. वह भी शहर में आटोरिकशा चलाता था.

आज शिवानी को खुद पर गुस्सा आ रहा था. वह रामपाल का मोबाइल नंबर लेना भूल गई थी. मोबाइल नंबर लेना न तो कल ध्यान रहा और न ही आज. अगर उस के पास रामपाल का मोबाइल नंबर होता, तो पता चल जाता कि देर क्यों हो रही है. पता नहीं, वह पढ़ीलिखी समझदार होते हुए भी ऐसी बेवकूफी क्यों कर गई?

शिवानी के मन में एक डर समा गया और वह सिहर उठी. उस का रोमरोम कांप उठा. दिल की धड़कनें मानो कम होती जा रही थीं. उस ने धड़कते दिल से श्यामलाल का मोबाइल नंबर मिलाया.

‘हैलो… नमस्कार मैडम,’ उधर से श्यामलाल की आवाज सुनाई दी.

‘‘नमस्कार. तुम्हारा भाई रामपाल अभी तक मोनिका को ले कर घर नहीं आया. पौने 3 बज रहे हैं. पता नहीं कहां रह गया वह? मेरे पास तो रामपाल का मोबाइल नंबर भी नहीं है?’’

‘इतनी देर तो नहीं होनी चाहिए थी. स्कूल से घर तक आधे घंटे से भी कम का रास्ता है. मैं ने उस का फोन मिलाया, तो फोन नहीं लग रहा है. पता नहीं, क्या बात है?

‘सुबह मैं ने उस से कहा था कि बच्चों को छोड़ कर सीधे घर आ जाना. डाक्टर के पास जाना है. दवा लानी है. 3 दिन से बुखार नहीं उतर रहा है,’ श्यामलाल बोला.

‘‘मुझे बहुत चिंता हो रही है. बेचारी मोनिका पता नहीं किस हाल में होगी?’’ शिवानी रोंआसा हो कर बोली.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने मोनिका की क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची की मम्मी को मोबाइल मिला कर कहा, ‘‘हैलो… मैं शिवानी बोल रही हूं…’’

‘कहिए शिवानीजी, कैसी हैं आप?’ उधर से एक औरत की मिठास भरी आवाज सुनाई दी.

‘‘क्या आप की बेटी मुनमुन स्कूल से आ गई है?’’

‘हां, वह तो 2 बजे से पहले ही आ गई थी. क्यों, क्या बात हुई?’

‘‘हमारी मोनिका अभी तक घर नहीं आई है.’’

‘यह क्या कह रही हैं आप? एक घंटा होने को है. आखिर कहां रह गई वह? आजकल का समय भी बहुत खराब चल रहा है. रोजाना अखबार में बच्चियों के बारे में उलटीसीधी खबरें छपती रहती हैं. हम अपने बच्चों को इन लोगों के साथ भेज तो देते हैं, पर इन का कोई भरोसा नहीं. किसी के मन का क्या पता…

‘आप पुलिस में रिपोर्ट तो लिखवा ही दीजिए. देर करना ठीक नहीं है.’

यह सुनते ही शिवानी का दिल बैठता चला गया. उस के मन में एक हूक सी उठी और वह रोने लगी. उस ने स्कूल में फोन मिलाया. उधर से आवाज सुनाई दी, ‘जय भारत स्कूल…’

‘‘मैं शिवानी बोल रही हूं. हमारी बेटी मोनिका तीसरी क्लास में पढ़ती है. वह अभी तक घर नहीं पहुंची. स्कूल में कोई बच्ची तो नहीं रह गई? छुट्टी कब हुई थी?’’

‘यहां तो कोई बच्ची नहीं है. छुट्टी ठीक समय पर डेढ़ बजे हुई थी. आप की बेटी किस तरह घर पहुंचती है?’

‘‘एक आटोरिकशा से. आटोरिकशा चलाने वाला श्यामलाल बीमार था, तो उस का भाई रामपाल आटोरिकशा ले कर आया था.’’

‘बाकी बच्चे घर पहुंचे या नहीं?’

‘‘जी हां, सभी पहुंच गए. बस, मेरी बेटी नहीं पहुंची.’’

‘आप पुलिस में सूचना दीजिए. इतनी देर से बच्ची घर नहीं पहुंची. कुछ तो गड़बड़ जरूर है. आजकल किस पर विश्वास करें? कुछ पता नहीं चलता कि इनसान है या शैतान?’

यह सुन कर शिवानी की आंखों से बहते आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. लग रहा था, मानो जिस्म की ताकत निकलती जा रही हो.

शिवानी ने कमलकांत को मोबाइल फोन मिलाया.

‘हैलो…’ उधर से कमलकांत की आवाज सुनाई दी.

‘‘मोनिका अभी तक स्कूल से नहीं आई,’’ शिवानी ने रोते हुए कहा.

‘क्या कह रही हो… 3 बज चुके हैं. आखिर कहां रह गई वह? आटोरिकशा वाले का नंबर मिलाया?’ कमलकांत की डरी सी आवाज सुनाई दी.

‘‘आज भी उस का भाई रामपाल आया था. उस का नंबर मेरे पास नहीं है. श्यामलाल ने कहा है कि रामपाल का फोन नहीं मिल रहा है. सभी बच्चे अपने घरों में पहुंच चुके हैं, पर हमारी मोनिका अभी तक नहीं आई,’’ कहतेकहते शिवानी सिसकने लगी.

‘शिवानी, मैं घर आ रहा हूं. अभी पुलिस स्टेशन पहुंच कर रिपोर्ट लिखवाता हूं,’ कमलकांत की चिंता में डूबी गुस्साई आवाज सुनाई दी.

15 मिनट बाद ही कमलकांत घर पहुंच गए. शिवानी सोफे पर कटे पेड़ की तरह गिरी हुई सिसक रही थी.

‘‘शिवानी, अपनेआप को संभालो. हम पर अचानक जो मुसीबत आई है, उस का मुकाबला करना है. मैं अब पुलिस स्टेशन जा रहा हूं,’’ कहते हुए कमलकांत कमरे से बाहर निकले.

तभी घर के बाहर एक आटोरिकशा आ कर रुका.

उसे देखते ही कमलकांत चीख उठे, ‘‘अबे, अब तक कहां मर गया था?’’

शिवानी भी झटपट कमरे से बाहर निकली. कमलकांत ने देखा कि रामपाल के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी. चेहरे पर भी मारपिटाई के निशान थे.

मोनिका आटोरिकशा से उतर रही थी. रामपाल ने मोनिका का बैग उठाया. शिवानी ने मोनिका को गोद में उठा कर इस तरह गले लगा लिया, मानो सालों बाद मिली हो.

कमलकांत ने मोनिका से पूछा, ‘‘बेटी, तुम ठीक हो?’’

‘‘हां पापा, मैं ठीक हूं. अंकल को सड़क पर पुलिस ने मारा,’’ मोनिका बोली.

कमलकांत व शिवानी चौंके. वे दोनों हैरानी से रामपाल की ओर देख रहे थे.

‘‘रामपाल, क्या बात हुई? यह चोट कैसे लगी? आज इतनी देर कैसे हो गई? हम तो परेशान थे कि पता नहीं आज क्या हो गया, जो अब तक मोनिका घर नहीं आई,’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘चिंता करने की तो पक्की बात है, साहबजी. रोजाना तो बेटी 2 बजे तक घर आ जाती थी और आज साढ़े 3 बज गए. इतनी देर तक जब बेटी या बेटा घर न पहुंचे, तो घबराहट तो हो ही जाती है,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘तुम्हें चोट कैसे लगी?’’ शिवानी ने हैरानी से पूछा.

आटोरिकशा के एक पहिए में पंक्चर हो गया. पंक्चर लगवाने में आधा घंटा लग गया. आगे चौक पर जाम लगा था. कुछ लोग प्रदर्शन कर किसी मंत्री का पुतला फूंक रहे थे. कुछ देर वहां हो गई. मैं इधर ही आ रहा था. मैं जानता था कि आप को चिंता हो रही होगी…’’ कहतेकहते रामपाल रुका.

‘‘फिर क्या हुआ? मोनिका कह रही है कि तुम्हें पुलिस ने मारा?’’ कमलकांत ने पूछा.

‘‘मोनिका बेटी ठीक कह रही है. मोटरसाइकिल पर स्टंट करते हंसतेचीखते हुए 3 लड़के आ रहे थे. मुझे लगा कि वे आटोरिकशा से टकरा जाएंगे, तो मैं ने तेजी से हैंडल घुमाया. एक दुकान के बाहर एक मोटरसाइकिल खड़ी थी. वह मोटरसाइकिल से हलका सा टकरा गया और मोटरसाइकिल पर बैठा तकरीबन 5 साल का बच्चा गिर गया. गिरते ही बच्चा रोने लगा.

‘‘दुकान से पुलिस का एक सिपाही कुछ सामान खरीद रहा था. वह वरदी में था, बच्चा व मोटरसाइकिल उसी की थी.

‘‘मैं ने आटोरिकशा से उतर कर सिपाही से हाथ होड़ कर माफी मांगी. उस ने मुझे गाली देते हुए 4-5 थप्पड़ मार दिए. इतना ही नहीं, मेरी गरदन पकड़ कर जोर से धक्का दिया, तो मेरा सिर आटोरिकशा से टकरा गया और खून निकलने लगा.

‘‘पास में ही एक डाक्टर की दुकान थी. मैं ने वहां पट्टी कराई और सीधा यहां आ रहा हूं,’’ रामपाल के मुंह से यह सुन कर कमलकांत और शिवानी के गुस्से का ज्वारभाटा शांत होता चला गया.

अचानक शिवानी के मन में दया उमड़ी. उस ने हमदर्दी जताते हुए कहा, ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. तुम्हें चोट भी लग गई.’’

‘‘मैडमजी, मुझे अपनी चोट का जरा भी दुख नहीं है. मगर मोनिका बेटी को जरा भी चोट लग जाती या कुछ हो जाता, तो मुझे बहुत दुख होता. आप अपने बच्चे को हमारे साथ किसी विश्वास से भेजते हैं. हमारा भी तो यह फर्ज बनता है कि हम उस विश्वास को बनाए रखें, टूटने न दें,’’ रामपाल ने कहा.

‘‘रुको रामपाल, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘शुक्रिया मैडमजी, चाय फिर कभी. घर पर भैया इंतजार कर रहे होंगे. बहुत देर हो चुकी है. मुझे उन को भी ले कर डाक्टर के पास जाना है. आप भैया को मोबाइल पर सूचना दे दो कि मोनिका घर आ गई है. उन को भी चिंता हो रही होगी,’’ रामपाल ने कहा और आटोरिकशा ले कर चल दिया.

Hindi Kahani : इनसान बना दिया

Hindi Kahani : परदेश में जब कोई अपने देश, अपनी भाषा का मिल जाए, तो कितना अच्छा लगता है. वे दोनों उत्तर भारत से थे. दोनों की नौकरी एक ही कंपनी में थी. वे दोनों अमेरिका में नए थे. जल्दी दोस्ती हो गई. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदल गई.

दोनों शादी करना चाहते थे, पर डरते थे कि उन के घर वाले नहीं मानेंगे. फिर दोनों ने अपने घर वालों को बताया. दोनों के घर वाले नहीं माने. दोनों परिवारों ने एक ही बात कही कि दूसरे धर्म में शादी नहीं कर सकते.

अरशद और आशा ने साफ कह दिया कि उन्हें धर्म से कोई मतलब नहीं, बस इनसान अच्छा होना चाहिए.

अरशद के घर वालों ने रास्ता निकाला, ‘‘ऐसा करो कि उसे मुसलिम बनने के लिए राजी कर लो, फिर तुम्हारा निकाह हो सकता है.’’

अरशद ने सवाल किया, ‘‘वह अपना धर्म माने और मैं अपना, तो इस में हर्ज ही क्या है?’’

अरशद के अब्बा अडिग रहे, ‘‘नहीं, दूसरे धर्म की लड़की से निकाह नहीं हो सकता. यह हराम है.’’

जब आशा को यह बात बताई, तो वह तुरंत तैयार हो गई. प्यार में डूबी आशा हर शर्त पर शादी करने के लिए राजी थी.

आशा ने एक तरकीब बताई, ‘‘मैं मुसलिम बन कर तुम से निकाह कर लेती हूं. मुझे कौन सा मंदिर या मसजिद जाना है?’’

अरशद भी प्यार में अंधा था. वह तो बस किसी तरह शादी करना चाहता था. बस, अमेरिका में ही उन दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई. अरशद के कुछ रिश्तेदार भी थे शादी में. मसजिद में निकाह हो गया. आशा अब आयशा हो गई.

शादी के बाद कुछ दिनों के लिए वे दोनों भारत आए. लड़के के घर वालों ने नई बहू को प्यार से अपना लिया.

आयशा अपने घर वालों के पास भी गई. कुछ रूठनेमनाने के बाद उन लोगों ने भी अरशद को स्वीकार कर लिया.

दोनों छुट्टियां बिता कर अमेरिका चले गए, अपनेअपने काम में लग गए. दोनों सुखी थे. दोनों के बीच धर्म नहीं आया. 2 प्यारेप्यारे बच्चे हुए. दोनों बेटों के नाम मुसलिम रखे गए. इस पर आयशा को किसी तरह का एतराज नहीं हुआ.

वे समयसमय पर भारत आते. सब ठीक चल रहा था. अरशद को आयशा की आस्था से कोई फर्क नहीं पड़ता था. आयशा को पिता के साथ बच्चों का कभी मसजिद जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

फिर आया वह दौर, जब लोगों की नौकरियां जाने लगीं. डर के मारे अच्छेअच्छों के होश गुम हो गए. अपनी नौकरी बचाने के लिए ‘अल्लाहभगवान’ से प्रार्थना करने लगे.

अरशद और आयशा भी अपनेअपने तरीके से अल्लाह और भगवान को याद करने लगे. वही जो बचपन में सिखाया गया था. दोनों ने डर के मारे न जाने क्याक्या मन्नतें मान लीं. रोजाउपवास से ले कर चादर चढ़ाने और चारों धाम की यात्रा तक की मन्नत मान डाली.

डर ऐसी ही चीज होती है. इनसान जब पहली बार डरा, तो धर्म का जन्म हुआ था. फिर समयसमय पर आए सुधारकों ने इनसान को डराया. प्रलय

का डर, जन्नत का खौफ, दोजख का डर और उस से बचने के लिए भगवान या ईश्वर की शरण. फिर इस में कमियां आती गईं. हर मुसीबत के लिए अलगअलग देवता. तरहतरह के आडंबर. लोगों की आस्था बढ़ने लगी, क्योंकि कमजोर इनसानों की तादाद बढ़ती गई थी.

इसी तरह अरशद और आयशा की आस्था और धर्म में दिलचस्पी बढ़ती गई, पर अपनेअपने धर्म में.

अब आयशा बच्चों को मसजिद नहीं जाने देना चाहती थी और अरशद बच्चों का मंदिर जाना नापसंद करने लगा था. वे दोनों अपने बच्चों को अपनेअपने धर्म की सीख देना चाहते थे.

घर में एक तनाव भरा माहौल बन गया था. शादी के 12 साल बाद धर्म ने इन दोनों के बीच दरार डाल दी थी. दोनों को अपना धर्म अच्छा लगने लगा, क्योंकि नौकरी बचाने से ले कर तरक्की दिलाने का सारा क्रेडिट वे दोनों अपनीअपनी मन्नतों को देने लगे थे.

दोनों प्रेमी, पतिपत्नी अब दुश्मन से बनते जा रहे थे. दोनों अब छुट्टियां भी अपनेअपने परिवार वालों के साथ धर्मकर्म में बिताते. दोनों के घर वाले सलाह देते, ‘अलग हो जाओ. बच्चे अपने पास रखो.’

लेकिन दोनों के बीच अभी भी कुछ था, जो उन्हें अलग नहीं होने दे रहा था.

कभीकभी अरशद आयशा को समझाता, ‘‘देखो, मैं तुम्हारी आस्था को कभी मना नहीं करता. तुम को जो पूजापाठ करनी है करो, पर बच्चों को मुसलिम रहने दो.’’

आयशा ने बात काटी, ‘‘बच्चे मेरे भी हैं, तो क्यों न हिंदू बनें?’’

अरशद समझाते हुए बोला, ‘‘यह बात हम बच्चों पर छोड़ दें कि जब वे बड़े हो जाएं, जो चाहें धर्म अपनाएं.’’

आयशा ने पलटवार किया, ‘‘और तब तक तुम उन को मसजिद ले कर जाओ, ताकि वे मुसलिम बनें.’’

‘‘वे अगर मसजिद जाएंगे तो मंदिर भी जाएंगे, पूजापाठ भी सीखेंगे,’’ अरशद परेशान हो कर बोला.

‘‘यह कैसे होगा? हिंदू रिवाज और मुसलिम रिवाज एकसाथ सीखेंगे, तो बच्चे कंफ्यूज हो जाएंगे,’’ आयशा बोली.

अकसर उन दोनों की बहस का खात्मा ऐसे ही होता था. धीरेधीरे उन दोनों का सारा समय बच्चों का धार्मिक बनने के अपनेअपने हथकंडे आजमाने में निकल जाता. बच्चों को इतना धार्मिक साहित्य पढ़ाया कि वे बोर हो गए.

धीरेधीरे यह बहस झगड़े में बदलने लगी. बच्चे सुन न लें, इसलिए वे शांत हो जाते. आज तो तूफान ही आ गया, जब अरशद ने बच्चों के ‘खतना’ करने की बात कही. उस का मानना था कि इस से बीमारियां नहीं होतीं.

यह सुनते ही आयशा तो फट पड़ी, ‘‘तुम बच्चों पर मुसलिम होने की मुहर लगाना चाहते हो.’’ शोर सुन कर बच्चे भी बाहर आ गए. वे भी रोजरोज के झगड़ों से तंग आ गए थे.

बडे़ बेटे ने अपनी बात रखी, ‘‘मम्मीडैडी, आप रोजरोज धर्म के लिए क्यों लड़ते हैं? हम दोनों ने जितना धार्मिक साहित्य पढ़ा, सब एक ही तरह की बात बताते हैं कि झूठ न बोलें. किसी का मन मत दुखाओ. दुखियों की सेवा करो. भलाई करो. बुरे काम मत करो.

‘‘रहा पूजा या इबादत का तरीका. आडंबर हमें पसंद नहीं. रीतिरिवाज हमें नहीं चाहिए. आप दोनों अपनेअपने धर्म के लिए लड़ रहे हैं, जिसे आप ने या आप के बापदादा ने कभी नहीं देखा…’’

फिर कुछ देर रुक कर बड़ा बेटा थोड़ा संभल कर बोला, ‘‘मम्मीडैडी, आप हम दोनों को एक अच्छा इनसान बनने दीजिए, हिंदूमुसलिम नहीं.’’

बच्चे के मुंह से ये बातें सुन कर अरशद और आयशा को अपनी बातें याद आ गईं. जब वे अपने मांबाप से शादी करने की इजाजत मांग रहे थे और सिर्फ अच्छा इनसान होने की बात कहते थे. आज उन के बच्चों ने उन्हें फिर से इनसान बना दिया था.

Short Story : नसबंदी – क्या वाकई उस की नसबंदी हो पाई?

Short Story : साल 1976 की बात रही होगी. उन दिनों मैं मेडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजीडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में आपातकाल का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कोहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था, और इसे अन्य सभी आपरेशन के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. लक्ष्य पूरा न होने पर वेतन वृद्धि और उन्नति रोकने की चेतावनी दे दी गई थी. हम लोगों की ड्यूटी अकसर गावों में आयोजित नसबंदी कैंप में भी लग जाया करती थी.

कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें प्रेरक का काम दे दिया गया था और निर्धारित कोटा न पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के उद्देश्य से वृद्धों को भी वे पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे.

कुछ व्यक्ति तो बहुत युवा रहते थे, जिन का आपरेशन करने में अनर्थ हो जाने की आशंका बनी रहती थी. कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. रोगियों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी.

बुजुर्ग शिक्षकों की स्थिति बेहद खराब थी. उन से प्रेरक का काम हो नहीं पाता था, लेकिन अवकाशप्राप्ति के पूर्व कर्तव्यहीनता के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि यदि कोई रोगी स्वयं टपक पड़े तो  प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके शिक्षक की आरजूमिन्नत से शायद काम बन जाए. जनसंख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का यह तरीका कितना उपयुक्त था, यह तो आपातकाल के विश्लेषकों का विषय है.

एक दिन हमारे आउटडोर में एक ग्रामीण बुजुर्ग एक नवयुवक को दिखाने लाए. उस युवक का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वह अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. हाइड्रोसिल बड़ा तो नहीं था, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.

चाचा आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.

आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिन बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.

आपरेशन के 2 दिन पहले मुझे खोजते हुए चाचा मेरे आवास तक पहुंच गए. वे मिठाई का एक डब्बा भी साथ लाए थे, जिसे मैं ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर धीरे से उन्होंने पूछा कि रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, साथ में नसबंदी भी करवा देना चाहते हैं.

जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने का आग्रह किया. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.

मेरे यह कहने पर कि अनुमति के लिए तो उसे हस्ताक्षर करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वह उसे समझा कर करवा लेंगे.

आपरेशन सफल होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे. मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.

उस दिन रात को मुझे अस्पताल से लौटते समय रास्ते में रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. मुझे देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.

सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उस से कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरत छोड़ दे.

आश्चर्य जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से तीन बच्चे?’’

‘‘तुम्हारे और किस के?’’

मेरे इस उत्तर को सुन कर वह हैरान रह गया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से…?

“अभी तो छेंका हुआ है और फिर 6 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. इसीलिए चाचा को उस ने अपनी इस बीमारी के बारे बताया था, तो वे यहां लेते आए.’’

अब चौंकने की बारी मेरी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और रहस्य जानने की इच्छा होने लगी.

मेरे पूछने पर उस ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.

वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ की खेती है. यह चाचा उस के स्वर्गवासी पिता के सब से बड़े भाई हैं. बीच में 4 बूआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं.

चाचा के 4 लड़के हैं. सबों की शादी, बालबच्चे हैं. वह अपने पिता की अकेली संतान है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर दुर्घटना में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं.

चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन आईए में 2 बार फेल कर जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेती में जुट गया. चाचा घर के मुखिया हैं. गांव में उन की अच्छी धाक है.

पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वह शादी होने के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?

कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’

थोड़ा सकपकाते हुए वह बोला, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’

पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए, तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’

थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के हिस्से में ही जाएगा.’’

मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि मुझ से यह सब क्यों पूछा जा रहा है.

बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कक्ष में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया. रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. गांव में झगड़ा हो गया है.

‘‘मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे लौट आएंगे. यदि कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार वह कर ले क्या?’’

‘‘तब तो और अच्छी बात है, तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.

इस पूरी बात से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वे इसे निःसंतान बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की संपत्ति को अपने बेटों के लिए रखना चाहते थे.

मैं ने ठान लिया कि मुझे इस अनर्थ से इसे बचाना होगा. साथ ही, मैं उस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.

सवेरे अस्पताल में मेरे कक्ष के आगे रमेश मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था. मैं ने फिर से परीक्षण का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे ब्लड की रिपोर्ट के अनुसार खून ज्यादा बहने का भी खतरा है.

‘‘इतना छोटा हाइड्रोसिल तो दवा से भी ठीक हो जाएगा. अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं तो हरगिज मत जाना.

‘‘इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा,’’ झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा की यह परची लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ.

‘‘बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है. चाचा के निकलने के पहले ही तुम वहां पहुंच जाओगे.’’

मेरी बात उस ने मान ली. सामान बटोर कर उसे जाते  देख मुझे तसल्ली हुई.

बात आईगई हो गई. प्रोन्नति पाते हुए, विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में मैं रिटायरमैंट के बाद अपने निजी अस्पताल के माध्यम से मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.

एक दिन एक अर्द्धवयस्क व्यक्ति एक बूढ़ी को दिखाने मेरे कक्ष में दाखिल हुआ. वह बूढ़ी धवल वस्त्र में, तुलसी की माला पहनी हुई, साध्वी सी लग रही थीं.

अपना परिचय देते हुए उस पुरुष ने 28 साल पहले की वह घटना याद दिलाई.

याद दिलाते ही सारी घटना मेरी आंखों के सामने तैर गई और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जग गई.

रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन न करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली.

चाचा उसे बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. उस ने वहां से भाग कर किसी तरह जान बचा ली. हल्ला था कि चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वह पार्टीपौलिटिक्स में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी ले ली थी.

उन दिनों, उस गांव में आयोजित नसबंदी कैंप में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. संपन्न किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए उत्सुकतावश वहां का हाल पूछा.

रमेश ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा, बल्कि छोटा शहर बन गया है. पहले वर्षा अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जेनरेटर, पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सभी का पलायन हो गया है. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़ा संपन्न हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’

आश्चर्य प्रकट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं आ कर बसूंगा.’’

सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर, डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया है.

‘‘शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक न रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.

“सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और मुसीबत है. इंज्यूरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी लोग डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. दो बैद्यकी पास किए हुए डाक्टर हैं, वे ही अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.

‘‘हम लोगों को बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उन की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा महिलाओं को हो गई थी. 2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था.

‘‘मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर, अपने मातापिता की स्मृति में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई कि वे औनेपौने दाम में सबकुछ बेच कर विदेश चले गए.’’

शहर के नजदीक, इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर भी क्या सकता था?

बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’

उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए संपत्ति का बंटवारा वे नहीं चाहते थे. मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के हस्ताक्षर के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम संपत्ति आई.’’

मां अब तक आंखें बंद कर चुपचाप सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. मुझे बेटी की तरह मानते थे. बैंक का कागज, लगान का कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस वगैरह आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन का सम्मान करते हुए जहां वे कहते, हस्ताक्षर कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवा लिया, पता नहीं.

‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है, और डाक्टर साहब, किए का फल यहीं इसी लोक में मिलता है.

“वह है तो मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे जरा भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में हिस्से का बंटवारा हो गया है. उन के खेतघर वगैरह सब चौपट हो गए हैं. उन के बालबच्चे भी कोई काम करने लायक नहीं निकले. एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है. वहीं एक तो घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है.

‘‘कहने में मुझे शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई है. मुझे कोई बैरभाव नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का कर्तव्य सदा निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 3 साल बड़ा है. हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी है. उस को हम लोगों ने कृषि सामान की दुकान खुलवा दी है.’’

फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.

‘‘दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न ही बुरा करो. आखिर में तीसरी बात, स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. स्वस्थ व्यक्ति ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं.

आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं कराया है, लेकिन अब कराना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है. उस के 3 बच्चे भी हैं- एक बेटे और 2 बेटी. सभी सैटल हो चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही बंध्याकरन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’

मेडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर वह अपनी मां को दिखाने यहां आया है. उस की मां लगभग 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया गया.

छुट्टी होने के बाद खुशीखुशी मांबेटा दोनों धन्यवाद देने मेरे कक्ष में आए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया, फिर उस समय आपरेशन न करने और कड़ी हिदायत देने का कारण जानने की जिज्ञासा प्रकट की.

मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी प्रलोभन भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.

‘‘उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें निःसंतान बना कर तुम्हारे हिस्से की संपत्ति हड़पने की योजना बना रहे थे.’’

मेरी बात सुन कर दोनों ही हैरान रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया. आप तो मेरे लिए…”

मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बड़ी हैं, पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. लेकिन मुझे खुशी है कि एक चिकित्सक का सामाजिक दायित्व निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं सफल हो पाया.’’

लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट

Hindi Story : चाय की दुकान – यहां हर खबर मिलती है

Hindi Story : हर तरह की खबरें बगैर किसी फीस के. न कोई इंटरनैट और न ही कोई टैलीविजन या रेडियो, पर खबरें बिलकुल टैलीविजन के जैसी मसालेदार. सब से मजेदार बात तो यह है कि वहां पर पुरानी से पुरानी खबरें सुनाने वाले भी आप को हमेशा मिल जाएंगे, भले ही वे आप के जन्म से पहले की ही क्यों न हों, जैसे कि वे उन के मैमोरी कार्ड में सेव हों.

इन्हीं खबरीलाल में से एक हैं बादो चाचा. उन के पास तो समय ही समय है. कोई भी घटना वे ऐसे सुनाते हैं मानो आंखों देखी बता रहे हों. गांव के हर गलीनुक्कड़, चौकचौराहे पर मिल जाएंगे. आप उन से इस नुक्कड़ पर मिल कर जाएं और अगले नुक्कड़ पर आप से पहले वे पहुंचे रहते हैं. वे किस रास्ते से जाते हैं आज तक कोई नहीं जान पाया.

इमरान ने जब से होश संभाला है तब से उन्हें वैसा का वैसा ही देख रहा है. बाल तो उन के 20 साल पहले ही पक चुके थे, पर उन की शारीरिक बनावट में आज भी कोई बदलाव या बुढ़ापेपन की झलक नहीं दिखती है, मानो उन के लिए समय रुक गया हो. कोई कह नहीं सकता कि वे नातीपोते वाले हैं. सुबहसुबह रघु चाचा की चाय की दुकान पर चाय प्रेमियों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया. यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह शहर के किसी रैस्टौरैंट में. वहां व्यंजन पसंद करने में कम से कम आधा घंटा लगता है, और्डर को सर्व होने में कम से कम आधा घंटा लगेगा, यह तो मेनू कार्ड में खुद लिखा होता है और फिर उस के बाद कोई समय सीमा नहीं. आप जब तक खाएं और जब तक बैठें आप की मरजी. खाएं या न खाएं, पर सैल्फी ले कर लोगों को बताएं जरूर कि सोनू विद मोनू ऐंड थर्टी फाइव अदर्स एट ओस्मानी रैस्टौरैंट.

यहां भी कुछ ऐसा ही नजारा रहता है. 5 रुपए की चाय पी कर लोग साढ़े 3 रुपए का अखबार पढ़ते हैं और फिर देशदुनिया के साथ पूरे गांव और आसपास के गांवों की कहानियां चलती हैं बगैर किसी समय सीमा के. सब को पता होता है कि घर के बुजुर्ग चाय की दुकान पर मिल जाएंगे, विद अदर्स. हमेशा की तरह बादो चाचा की आकाशवाणी जारी थी, ‘‘यह हरी को भी क्या हो गया है, बड़ीबड़ी बच्चियों को पढ़ने के लिए ट्रेन से भेजता है. वे अभी साइकिल से स्टेशन जाएंगी और फिर वहां से लड़कों की तरह ट्रेन पकड़ कर बाजार…

‘‘पढ़लिख कर क्या करेंगी? कलक्टर बनेंगी क्या? कुछ तो गांव की मानमर्यादा का खयाल रखता. मैट्रिक कर ली, अब कोई आसान सा विषय दे कर घर से पढ़ा लेता.’’ इसी के साथ शुरू हो गई गरमागरम चाय के साथ ताजा विषय पर परिचर्चा. सब लोगों ने एकसाथ हरी चाचा पर ताने मारने में हिस्सा लिया.

कोई कहता कि खुद तो अंगूठाछाप है, अब चला है भैया बेटियों को पढ़ाने, तो कोई कहता कि पढ़ कर वही चूल्हाचौका ही संभालेंगी, इंदिरा गांधी थोड़े न बन जाएंगी. अगले दिन बादो चाचा चाय की दुकान पर नहीं दिखे, पता चला कि पोती को जो स्कूल में सरकारी साइकिल के पैसे मिलने वाले हैं, उसी की रसीद लाने गए हैं.

इमरान को कल हरी चाचा पर मारे गए ताने याद आ गए. जब वह बचपन में साइकिल चलाना सीखता था तो उस समय उस की ही उम्र की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और यही बादो चाचा और गांव के कुछ दूसरे बुजुर्ग उन पर ताने मारते नहीं थकते थे और आज वे अपनी ही पोती के लिए साइकिल के पैसे के लिए रसीद लाने गए हैं.

अगले दिन इमरान ने पूछा, ‘‘कल आप आए नहीं बादो चाचा?’’ वे कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं बेटा, जगमला… मेरी पोती 9वीं जमात में चली गई है. उसी को साइकिल मिलने वाली है. उसी की रसीद लाने गया था. परेशान हो गया बेटा. कोई साइकिल का दुकानदार रसीद देने को तैयार ही नहीं था. सब को कमीशन चाहिए. पहले ही अगर चैक मिल जाए तो इतनी परेशानी न हो.

‘‘यह सरकार भी न, पहले रसीद स्कूल में जमा करो, फिर जा कर आप को चैक मिलेगा. जब साइकिल के पैसे देने ही हैं तो दे दो, रसीद क्यों मांगते हो? उन पैसों का कोई भोज थोड़े न कर लेगा, साइकिल ही लाएगा. आजकल के बच्चेबच्चियों को भी पता है कि सरकार उन्हें पैसे देती है वे खरीदवा कर ही दम लेते हैं, चैन से थोड़े न रहने देते हैं.’’ ‘‘हां चाचा, पर जगमला तो लड़की है. वह साइकिल चलाए, यह शोभा थोड़े न देगा,’’ इमरान ने ताना मारा.

‘‘अरे नहीं बेटा, उस का स्कूल बहुत दूर है. नन्ही सी जान कितना पैदल चलेगी. स्कूलट्यूशन सब करना पड़ता है, साइकिल रहने से थोड़ी आसानी होगी. और देखो, आजकल जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. पढ़ेगी नहीं तो अच्छे रिश्ते भी नहीं मिलेंगे.’’ ‘‘पर, आप ही तो कल हरी चाचा की बेटी के बारे में कह रहे थे कि पढ़ कर कलक्टर बनेगी क्या?’’ इमराने ने फिर ताना मारा.

इस बार बादो चाचा ने कोई जवाब नहीं दिया. इमरान ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चाचा, जैसा आप अपनी पोती के बारे में सोचते हो, वैसा ही दूसरों की बेटियों के बारे में भी सोचा करो. याद है, मेरे बचपन में आप ताने मारते थे जब मेरे साथ गांव की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और आज खुद अपनी पोती की साइकिल खरीदने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हो.

‘‘समय बदल रहा है चाचा, अपनी सोच भी बदलो. गांव में अगर साधन हों तो बच्चियां ट्रेन से पढ़ने क्यों जाएंगी? मजबूरी है तभी तो जा रही हैं. अभी ताने मारते हो और भविष्य में जब खुद पर आएगी तो उसी को फिर सराहोगे. ‘‘क्या पता हरी चाचा की बेटी सच में कलक्टर बन जाए. और नहीं तो कम से कम गांव में ही कोचिंग सैंटर खोल ले, तब शायद आप की जगमला को इस तरह बाजार न जाना पड़े…’’

तभी बीच में सत्तो चाचा कहने लगे, ‘‘लड़कियों की पढ़ाईलिखाई तो सिर्फ इसलिए है बेटा कि शादी के लिए कोई अच्छा सा रिश्ता मिल जाए, हमें कौन सा डाक्टरइंजीनियर बनाना है या नौकरी करवानी है. ‘‘आजकल जिस को देखो, अपनी बहूबेटियों को मास्टर बनाने में लगा हुआ है. उस के लिए आसानआसान तरीके ढूंढ़ रहा है. नौकरी करेंगी, मर्दों के साथ उठनाबैठना होगा, घर का सारा संस्कार स्वाहा हो जाएगा. यह सब लड़कियों को शोभा नहीं देता.’’

इमरान ने कहा, ‘‘चाचा, अगर सब आप की तरह सोचने लगे तो अपनी बहूबेटियों के लिए जो लेडीज डाक्टर ढूंढ़ते हो, वे कहां से लाओगे? घर की औरतें खेतों में जा कर मजदूरी करें, बकरियां चराएं, चारा लाएं, जलावन चुन कर लाएं, यह शोभा देता है आप को…

‘‘ऐसी औरतें आप लोगों की नजरों में एकदम मेहनती और आज्ञाकारी होती हैं पर पढ़ीलिखी, डाक्टरइंजीनियर या नौकरी करने वाली लड़कियां संस्कारहीन हैं.

‘‘क्या खेतखलिहानों में सिर्फ औरतें ही काम करती हैं? वहां भी तो मर्द रहते हैं. बचपन से देख रहा हूं कि चाची ही चाय की दुकान संभालती हैं. रघु चाचा की तो रात वाली उतरी भी नहीं होगी अभी तक. यहां भी तो सिर्फ मर्द ही रहते हैं और यहां पर कितनी संस्कार की बातें होती हैं, यह तो आप सब भी जानते हो.’’

यह सुन कर सब चुप. किसी ने कोई सवालजवाब नहीं किया. इमरान वहां से चला गया. 2 दिन बाद जब इमरान सुबहसुबह ट्रेन पकड़ने जा रहा था तो उस ने देखा कि स्टेशन जाने के रास्ते में जो मैदान पड़ता था वहां बादो चाचा अपनी पोती को साइकिल चलाना सिखा रहे थे.

चाचा की नजरें इमरान से मिलीं और वे मुसकरा दिए. चाय की दुकान पर कही गई इमरान की बातें उन पर असर कर गई थीं.

Hindi Short Story : बदलाव – रीमा की प्रमोद से क्या थी हसरत

Hindi Short Story : प्रमोद को सरकारी काम के सिलसिले में सुबह की पहली बस से चंड़ीगढ़ जाना था, इसलिए वह जल्दी तैयार हो कर बसस्टैंड पहुंच गया था.

प्रमोद टिकट खिड़की पर लाइन में खड़ा हो गया था. दूसरी लाइन, जो औरतों के लिए थी, में 23-24 साल की एक लड़की खड़ी थी.

बूथ पर बस पहुंचते ही टिकट मिलनी शुरू हो गई. लेकिन तब तक लाइन भी काफी लंबी हो चुकी थी. खैर, प्रमोद को तो टिकट मिल गई और बस में वह इतमीनान से सीट पर जा कर बैठ गया.

थोड़ी देर में वह लड़की भी प्रमोद के बगल की सीट पर आ कर बैठ गई. उन्हें 3 सवारी वाली सीट पर इकट्ठा नंबर मिल गया था.

साठस भरने के बाद बस अपनी मंजिल की ओर रवाना हुई. लड़की ने अपना ईयरफोन और मोबाइल फोन निकाला और गाने सुनने लगी. बीचबीच में झटके खा कर वह प्रमोद से टकराती भी रही.

बस जैसे ही शहर से बाहर निकली और सुबह की ठंडी हवा शरीर से टकराई तो प्रमोद 5 साल पहले की यादों में खो गया. उस दिन भी प्रमोद बस से दफ्तर के काम से चंडीगढ़ ही जा रहा था. बसअड्डा पहुंचने में उसे थोड़ी देर हो गई थी. उस दिन किसी नौकरी के लिए चंडीगढ़ में लिखित परीक्षा थी. पहली बस होने के चलते भीड़ बहुत ज्यादा थी. जहां एक ओर मर्दों की बहुत लंबी लाइन थी, वहीं दूसरी ओर औरतों की लाइन छोटी थी.

प्रमोद को यह अहसास हो चला था कि आज इस बस में शायद ही सीट मिले, लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है, यह सोच कर वह लाइन में खड़ा रहा.

तभी औरतों की लाइन में एक लड़की आ कर खड़ी हो गई. उम्र यही कोई 25 साल के आसपास. खुले बाल, पैंटटीशर्ट पहने, वह हाथ में एक बैग लिए हुए खड़ी थी. प्रमोद ने अपनी लाइन से बाहर आ कर उस लड़की से पूछा, ‘मैडम, आप कहां जाएंगी?’

उस लड़की ने प्रमोद की तरफ गौर से देखा, फिर कुछ सोच कर बोली, ‘चंडीगढ़.’ प्रमोद ने कहा, ‘मैं भी चंडीगढ़ ही जा रहा हूं, अगर आप मेरी थोड़ी मदद कर दें तो…’

वह लड़की बोली, ‘कहिए, मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’

प्रमोद ने 500 का एक नोट उसे थमाते हुए कहा, ‘आप मेरी भी एक टिकट चंडीगढ़ की ले कर मेरी मदद कर सकती हैं.’

‘ठीक है. आप बैठिए, मैं ले कर आती हूं,’ लड़की ने कहा.

प्रमोद बूथ पर लगी बस के पास आ कर खड़ा हो गया और थोड़ी देर में वह लड़की टिकट ले कर उस के पास आ गई. उन्हें अगले दरवाजे के बिलकुल साथ वाली 2 सवारियों की सीट मिली थी.

बस शहर से निकल पड़ी थी. प्रमोद ने उस लड़की का शुक्रिया अदा किया. बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो प्रमोद ने उस से पूछ लिया, ‘आप का क्या नाम है और चंडीगढ़ में क्या काम करती हैं?’

उस लड़की ने अपना नाम रीमा बताया और वह वहां एक फर्म में सेल्स ऐक्जिक्यूटिव थी. काम के सिलसिले में वह यहां आई थी. काम खत्म कर के वह वापस लौट रही थी.

प्रमोद ने उसे बताया कि वह यहां लोकल दफ्तर में काम करता है और सरकारी काम से महीने 2 महीने में उस का चंडीगढ़ आनाजाना लगा रहता है. बस चलती रही तो बातों का सिलसिला भी चलता रहा. रीमा ने बताया कि वह मूल रूप से पहाड़ी है. यहां चंडीगढ़ में किराए का मकान ले कर रह रही है. घर में मम्मीपापा और छोटी बहन हैं, जो गांव में रहते हैं. बड़ा भाई नोएडा में एक प्राइवेट फर्म में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.

प्रमोद ने बताया कि वह भी किराए का मकान ले कर रह रहा है. बीवीबच्चे सब गांव में हैं. महीने में 2-4 बार ही घर का चक्कर लग पाता है. अभी रिटायरमैंट में 12-13 साल का वक्त पड़ा है, इस के बाद ही जिंदगी शायद सैट हो पाए.

बातोंबातों में कब पेहवा आ गया, पता ही नहीं चला. बस वहां 15 मिनट के लिए रुकी. प्रमोद नीचे उतर कर चाय और सैंडविच ले आया. जब तक चाय पी तब तक बस चलने को तैयार हो गई.

बातों का सिलसिला फिर शुरू हो गया. उन दोनों ने घरपरिवार व दफ्तर तक की तमाम बातें कर लीं. एकदूसरे को टैलीफोन नंबर भी दे दिए. हालांकि प्रमोद की उम्र उस लड़की की उम्र से तकरीबन दोगुनी रही होगी, फिर भी उस ने उसे अपना दोस्त मान लिया था और उस से घर चलने को कहा था.

प्रमोद ने उसे बताया, ‘इस बार तो घर नहीं चल पाऊंगा, क्योंकि जरूरी काम है. अगली बार जब भी मैं यहां आऊंगा, तो सुबह नहीं शाम को आऊंगा. रातभर आप के यहां रुक कर जाऊंगा और अगर आप को हमारे यहां आना हो तो वैसा ही आप भी करना,’ इसी वादे के साथ वे दोनों रुखसत हुए.

प्रमोद ने सुबहसुबह चंडीगढ़ दफ्तर पहुंच कर काम निबटाया और वापस बस में बैठ कर घर की तरफ रवाना हुआ. बस रात के तकरीबन 10 बजे वापस पहुंची. बसअड्डे पर उतर कर प्रमोद अपने मकान में पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बजी, देखा तो रीमा का ही फोन था. उठाया तो रीमा ने पूछा, ‘घर पहुंच गए ठीकठाक?’

प्रमोद ने कहा, ‘हां, अभीअभी घर पहुंचा हूं.’

रीमा ने कहा, ‘चलो, ठीक है. नहाओधोओ, खाओपीयो, थक गए होगे,’ और फोन काट दिया.

अब रीमा से हफ्ते में एकाध बार तो फोन पर बात हो ही जाती थी. धीरेधीरे यह दोस्ती गहरी हो रही थी.

एक महीने बाद फिर से प्रमोद को दफ्तर के काम से चंडीगढ़ जाना पड़ रहा था. प्रमोद ने रीमा से बात की तो उस ने कहा, ‘आप शाम को ही आ जाओ. सुबह जल्दी उठने में दिक्कत नहीं होगी और इसी बहाने आप के साथ रहने का मौका मिल जाएगा.’

प्रमोद ने दोपहर की बस पकड़ी तो रात 8 बजे चंडीगढ़ उतार दिया. बसअड्डे पर रीमा स्कूटी लिए खड़ी थी. स्कूटी के पीछे बैठ प्रमोद उस के मकान पर चला गया. बहुत बढि़या घर था. रीमा ने घर में तमाम सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं.

प्रमोद चाय पीने के बाद नहाधो कर फ्रैश हो गया. रीमा ने भी समय से पहले खाना वगैरह तैयार कर लिया था. प्रमोद के पास आ कर जुल्फें झटका कर उस ने पूछा, ‘आप का मनपसंद ब्रांड कौन सा है…?’

प्रमोद कुछ अचकचा गया, फिर थोड़ी देर में वह बोला, ‘जो साकी पिला दे…’

रीमा ने विदेशी ब्रांड की बोतल ली और पैग बनाने शुरू कर दिए. 2-2 पैग लेने के बाद उन्होंने खाना खाया और पतिपत्नी की तरह प्यार कर के उसी बिस्तर पर सो गए.

प्रमोद सुबह उठा तो खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. रीमा भी जल्दी उठ गई थी. उसे भी दफ्तर जाना था. उन दोनों ने तैयार हो कर नाश्ता किया और अपनेअपने काम पर निकल गए.

अब इसी तरह से जिंदगी चलने लगी. रीमा जब भी प्रमोद के पास आती तो वह उसे होटल में रख लेता. जब भी छुट्टियां होतीं तो वे शिमला, मोरनी हिल्स, धर्मशाला जैसी कम दूरी की जगहों पर घूमने निकल जाते.

एक रात जब प्रमोद रीमा के घर पर सोने की तैयारी कर रहा था, तो उस के मन में यह सवाल उठा कि रीमा जवान है, खूबसूरत है, अच्छा कमाती है. यह तो नएनए कितने ही लड़कों के साथ दोस्ती कर सकती है, मौजमस्ती कर सकती है, फिर यह उस जैसे अधेड़ को क्यों पसंद करती है?

प्रमोद ने उस के बालों में उंगली घुमाते हुए पूछा, ‘रीमा, एक बात पूछूं, अगर आप बुरा न मानो तो…’

रीमा ने कहा, ‘मैं जानती हूं कि आप क्या पूछना चाहते हैं. आप यही जानना चाहते हैं न कि मैं यह सब अधेड़ उम्र के लोगों के साथ क्यों करती हूं, जबकि मेरे लिए जवान लड़कों की कोई कमी नहीं है?

‘मैं क्या हमारे यहां सब जवान लड़कियां यही करती हैं. इस की खास वजह यह है कि हम यहां वीकऐंड पर मौजमस्ती करना चाहती हैं. अधेड़ मर्द जिंदगी के हर तरह के रास्तों से गुजरे होते हैं. उन्हें हर तरह का अनुभव होता है. उन का अपना परिवार होता है, इसलिए वे चिपकू नहीं होते और जब जहां उन को कहा जाए वे दोस्ती वहीं छोड़ देते हैं. कमाई की नजर से भी ठीकठाक होते हैं.

‘नौजवान लड़के जिद्दी होते हैं. वे समझौता नहीं करते, बल्कि मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं. कभी नस काट लेते हैं तो कभी पागलों जैसी हरकतें करने लगते हैं. यही वजह है कि हम आप जैसों को पसंद करती हैं.’

प्रमोद और रीमा की दोस्ती तकरीबन 5 साल तक चली. उस के बाद रीमा ने शादी कर अपना घर बसा लिया और दिल्ली शिफ्ट हो गई.

हमारे समाज में यह एक नया बदलाव आया है या आ रहा है. अच्छा है या बुरा है, यह तो अलग चर्चा की बात हो सकती है, लेकिन बदलाव हो रहा है.

जीरकपुर बसस्टैंड पर बस रुकी तो झटका लगा और प्रमोद यादों से वर्तमान में लौटा. साथ बैठी लड़की उस के कंधे पर सिर रख कर सो रही थी. प्रमोद ने उसे जगाया तो अपना बैग संभालते हुए वह बस से उतर गई. प्रमोद बस में बैठा कुछ सोच रहा था. थोड़ी देर में बस बसअड्डे की तरफ चल पड़ी थी.

Hindi Story – खो गई जीनत

Hindi Story : अम्मी और अब्बू की सिर्फ तसवीर ही देखी थी ज़ीनत ने. उन का प्यार कैसा होता है, इस का उसे एहसास ही नहीं था. अम्मी और अब्बू के एक सड़क दुर्घटना में मारे जाने के बाद मामी और मामू ही ज़ीनत का सहारा थे.

मामू ने ज़ीनत को पढ़ायालिखाया और इस लायक बनाया कि बडी हो कर वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो सके और मामू का सहारा बने.

मामू की माली हालत अच्छी नहीं थी. एक कमरे के मकान के बाहर एक छोटा सा खोखा रख रखा था मामू ने. उस में बिसातखाने का सामान रख कर बेचते थे.

जो औरतें सामान खरीदने आतीं, वे इतना मोलभाव करतीं कि किसी चीज़ पर मिलने वाला मुनाफ़ा कम हो जाता. वैसे भी, मामू को बाहर की औरतों से बहुत लगाव महसूस होता था. वे चाहते थे कि औरतें उन के खोखे पर आ कर उन से बातें करती ही रहें. उन की इसी कमज़ोरी का लाभ  चालाक औरतें खूब उठाती थीं. वे मामू से खूब रसीली बातें करतीं और सामान सस्ते में खरीद लेतीं.

घर में 5 लोग थे – मामू, मामी, उन के 2 बच्चे और एक ज़ीनत. इन सब का खर्च चलाने की ज़िम्मेदारी ज़ीनत के कंधों पर ही थी. इसीलिए ज़ीनत शहर के ही एक स्कूल में कम्प्यूटर पढ़ाने का काम करने लगी थी.

ज़ीनत के मामू जितने लापरवाह किस्म के थे, मामी उतनी ही सख्त मिज़ाज़.

“मैं तो कहती हूं कि घर में अगर लड़की हो तो उस पर एक नज़र टेढ़ी ही रखनी चाहिए और घर की अंदरूनी बातों में लड़की जात को ज़्यादा शामिल नहीं करना चाहिए,” मामी ने पड़ोस में रहने वाली शकीला से कहा और शकीला ने हां में हां मिलाई.

“हां, सही कहा आप ने और इसीलिए मैं ने अपनी बेटी सलमा का स्कूल जाना बंद करवा दिया है. अब 8वीं जमात तो पास हो ही गई है, आगे की पढ़ाई के लिए लड़कों वाले स्कूल में भेजना पड़ेगा और हम ने तो सुना है कि वहां लड़का और लड़की एकसाथ बैठते हैं.”

इसी सख्ती का नतीजा था कि ज़ीनत ने अपनेआप को बहुत सम्भाल रखा था और हमेशा ही सहमी सी रहती थी. इस सहमेपन के साथ जीतेजीते वह 30 साल की हो गई थी और अभी तक कुंआरी थी. ऐसा नहीं था कि उस के लिए शादी के पैगाम नहीं आए. पर भला मामू उस की शादी करा देते तो घर के लिए पैसे कौन लाता.

मामू, मामी की सोच यही थी कि जीनत इसी घर में ही रहती रहे और पैसे लाती रहे. मामू और मामी के दोनों लड़के भी अब जवान हो चले थे और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भरपूर समझते हुए कुछ पैसे जोड़े. कुछ पैसा बैंक से लोन लिया और अपने अब्बा की बिसातखाने की दुकान को अब एक बढ़िया मेकअप  सेंटर में तबदील कर दिया और दोनों खुद ही इसी काम में उतर आए थे.

ज़ीनत भी मेहनत से स्कूल में अपनी ड्यूटी पूरी करती और घर आ कर भी मामी  की रसोईघर में मदद करती.

ज़ीनत ने अपनी जवान होती भावनाओं को अच्छी तरह से काबू कर रखा था. पर फिर भी जवानी में किसी की तरफ झुकाव होना बड़ा ही स्वाभाविक होता है और ज़ीनत भी कोई अपवाद नहीं थी.

“अरे ज़ीनत मैडम, एक शायरी मैं ने लिखी है. ज़रा इस पर गौर तो फरमाइएगा,” ज़ीनत के साथ ही स्कूल में पढ़ाने वाले एक साथी टीचर ने कहा.

“अजी, आप की शायरी क्या सुनना. वह तो हमेशा की तरह अच्छी ही होती है. हां, अगर आप फिर भी अपनी और तारीफ़ सुनना  चाहते हैं तो आप सुना सकते है.

“किसी आशिक़ के कलेजे को जलाया होगा,

तब जा कर खुदा ने सूरज को बनाया होगा.”

“अरे वाह, भाई वाह, क्या बात है, बहुत ही उम्दा. लगता है सूरज से कुछ ज्यादा ही प्यार है आप को और तभी तो आप ने तखल्लुस भी सूरज ही रखा  है.”

“जी बिलकुल, सही कहा आप ने. इसीलिए मेरा नाम तो आफताब भले है पर मैं चाहता  हूं कि अब लोग  मुझे सूरज के नाम से ही पुकारें,”  आफताब  ने कहा.

“हां जी, तो ऐसी बात है. तो, अब मैं आप को सूरज के नाम से ही बुलाऊंगी,” ज़ीनत ने कहा.

दो  जवां दिलों के बीच प्यार को पनपने के लिए बहुतकुछ ख़ास की ज़रूरत नहीं होती. बस, थोड़ा सा अपनापन का पानी, ख़ूबसूरती की खाद और फिर प्यार के फल आने लगते हैं.

ज़ीनत को अपने साथ स्कूल में पढ़ाने वाले एक लड़के से प्यार हो गया था. वह लड़का कोई और नहीं, बल्कि आफताब या सूरज ही था.

आफताब एक सीधासादा लड़का था. वह ज़िंदगी से जूझ रहा था. फिर भी हमेशा मुसकराता रहता और अपनी ज़िंदगी के गम को शायरियों में कह कर उड़ा दिया करता. पर माली हालत की बात करें, तो आफताब की माली हालत ज़ीनत से तो बेहतर थी.

इस बार नए साल पर आफताब ने ज़ीनत को एक मोबाइल गिफ्ट कर दिया. ज़ीनत ने बहुत नानुकुर की, पर अफातब ने ऐसी दलील दी कि उसे चुप हो जाना पड़ा.

” देखिए मैडम, यह मैं आप को इसलिए गिफ्ट कर रहा हूं ताकि मैं आप को व्हाट्सऐप पर शायरियां भेज सकूं और आप उस की अच्छाइयां व कमियां मुझे बताएं, जिस से मुझे और बेहतर शायर बनने में मदद मिल सकेगी. क्या अब भी आप यह मोबाइल नहीं लेंगी,” आफताब ने कहा.

“ठीक है, ठीक है, ले लेती हूं. पर जब मैं अपने घर पर रहूंगी तब आप फोन नहीं करेंगे. हां, मैसेज के ज़रिए बात जरूर कर सकते हैं.”

“ठीक है, ज़ीनत जी.”

ज़ीनत और आफताब को एकदूसरे का साथ अच्छा लग रहा था और दोनों ही अपने आगे का जीवन एकदूसरे के साथ गुजारने की बात सोच रहे थे. पर हमेशा ही इंसान का सोचा हुआ कहां होता है?

इतना जीवन गुजरने के बाद एक बात तो ज़ीनत मन ही मन जान चुकी थी कि मामू और मामी उस की शादी जानकर नहीं करना चाहते और वे लोग यही चाहते है कि मैं उन के लिए बस ऐसे ही पैसे कमाती रहूं और वो लोग आराम से मज़े करते रहें. इसलिए, ज़ीनत इस बाबत मामी से खुद ही बात करने की बात सोचने लगी.

एक रात को आफताब ने कुछ शायरियां लिख कर ज़ीनत के मोबाइल पर भेजीं और पूछा कि कोई सुधार के गुंजाइश हो तो बताए. ज़ीनत ने सारी शायरियां पढ़ीं और उन का जवाब भी आफ़ताब को लिख दिया, फिर सो गई. सुबह उठी तो स्कूल के लिए देर हो रही थी, इसलिए जल्दी में ज़ीनत मोबाइल वहीँ अपने बिस्तर पर ही भूल गई.

“चलो फिर मैं आज तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूं,” अपनी बाइक की ओर इशारा करता हुआ आफताब बोला.

ज़ीनत पहले तो हिचकिचाई, क्योंकि गली के नुक्कड़ पर ही तो मामू की दुकान  है, बहुत मुमकिन है कि घर के लोग आफताब के साथ उसे देख लें. ‘देख लें तो देख लें, मैं कोई चोरी तो नहीं कर रही और फिर आज तो मुझे वैसे भी आफताब के बारे में बात करनी ही है,’ ऐसा सोच कर ज़ीनत ने बाइक पर जाने के लिए हां कर दी और आफताब के साथ बैठ कर चल दी.

कुछ देर बाद घर के सामने पहुंचने वाली थी ज़ीनत. उस ने आफताब से उसे वहीँ उतार देने को कहा और घर तक पैदल ही चली गई.

घर में अंदर का नज़ारा ही अलग था. मामू, उन का लड़का असलम और मामी एकसाथ बैठे हुए थे. सभी ज़ीनत को घूर रहे थे.

“अरे ज़ीनत बिटिया, बहुत थक गई होगी,” मामू ने कहा.

“हां मामू, स्कूल में काम ही इतना होता है. थोड़ीबहुत थकान आना तो लाजिमी ही है,” ज़ीनत ने कहा.

ज़ीनत का इतना कहना था कि मामी बिफर पड़ीं, “हांहां, थकान तो आएगी ही जब देररात तक किसी लड़के से चक्कर चलाया जाएगा.”

तुरंत ही ज़ीनत को याद आया कि आज वह अपना मोबाइल घर में ही भूल गई थी. और इसीलिए मामी ऐसा बोल रही हैं.

“वो… मामी, मैं आप से बात करने ही वाली थी आज,” ज़ीनत हकला गई.

“अरे, तू क्या बात करेगी. तू तो चक्कर चला रही है वह भी किसी गैरज़ात के लड़के के साथ?”

“अरे नहीं मामी, वह तो आफताब…”

“बता कौन है यह सूरज जो तुझ से अपनी मोहब्बत का इज़हार शेरोशायरी से कर रहा है और जिस का जवाब भी तू खूब वाहवाह कर के दे रही है? अरे, मैं कह रही हूं कि हमारी जात में कोई लड़के नहीं रह गए थे क्या जो तू किसी हिंदू लड़के से…”

“नहीं मामी, वह सूरज नहीं, आफताब है और हमारी ही जात का है. मैं खुद ही आज आप से अपनी शादी के बारे में बात करने वाली थी,” ज़ीनत सबकुछ बोलती चली गई.

“अरे, तू दोचार शब्द पढ़ क्या गई है, मुझे ही शब्दों के मतलब समझाने लगी है. और तू समझ क्या रही है, तू किसी भी जात वाले से शादी करने को कहेगी और हम कर देंगे? तुझे ऐसे ही हमारे लिए पैसे कमाने होंगे, भूल जा कि तेरी कभी शादी भी होगी,” मामी का पारा चढ़ चुका था.

“शादी तो मैं सूरज से ही करूंगी. और आप सब को बताना चाहूंगी कि मैं सूरज के बच्चे की मां बनने वाली हूं,” ज़ीनत ने यह बात सिर्फ इसलिए कह दी थी कि ऐसा सुन कर मामू और मामी के तेवर नरम हो जाएं. उस ने अपनी बात जारी रखते जुए कहा, “आप लोग नहीं मानोगे तो जबरदस्ती ही सही… देखती हूं कि मुझे कौन रोकता है.” ज़ीनत भी अड़ गई थी.

“मैं रोकूंगी तुझे, नमकहराम, हमारी नाक कटवाती है. महल्ले में हमारा जीना मुश्किल करना चाहती है,” मामी चिल्ला रही थीं.

ज़ीनत ने सोचा कि जब बात इतनी बढ़ ही चुकी है तो आफताब को भी फोन कर के यहीं बुला लेती हूं और इस गरज से उस ने  मामी के हाथ से अपने मोबाइल को छीन कर आफताब को फोन कर दिया.

“हां, तुम मेरे घर आ जाओ. सब लोग घर पर ही हैं. आमनेसामने बैठ कर बात हो जाएगी.”

आफताब अभी ज्यादा दूर नहीं गया था. वह फ़ौरन  ही लौट पड़ा.

मामू ने ज़ीनत के विद्रोही सुर देखे, तो मामी को शांत कराने लगे. “ठीक है ज़ीनत, तुम्हारे फैसले को हमारी भी हां है. जैसा चाहो वैसा करो,” मामू ने कहा.

पर असलम को काटो तो खून नहीं, उसे यह बात कतई मंज़ूर नहीं हो पा रही थी कि किसी लड़के को घर बुला कर ज़ीनत खुद ही अपनी शादी की बात करे.

कुछ देर बाद ही आफताब वहां आ गया. अभी उस ने दरवाज़े के अंदर पहला कदम रखा ही था कि असलम उसे देख कर भड़क गया.

असलम ने तुरंत ही आफताब की शर्ट का कौलर पकड़ लिया और उस को ज़मीन पर गिरा कर लातघूसे चलाने  लगा.

आफताब को अचानक इस हमले की उम्मीद नहीं थी, इसलिए वह असलम का विरोध नहीं कर सका. अब तो मौक़ा देख कर  ज़ीनत के मामू ने भी असलम को मारना शुरू कर दिया. वे दोनों आफताब को मारते हुए बाहर ले आए. ज़ीनत आफताब को बचाने के लिए दौड़ी तो मामी ने उसे पकड़ लिया.

बाहर महल्ले के लोग जमा होने लगे थे.

“साले, दिनदहाड़े चोरी  करने घुसता है…स्साले. आज तुझे नहीं छोड़ेंगे,” असलम चीख रहा था.

एक चोर को पिटता देख कर जमा हुई भीड़ की हथेलियों में भी खुजली होने लगी थी बिना जाने कि सच क्या है. भीड़ ने भी बेतहाशा आफताब को मारना शुरू कर दिया.

ज़ीनत ने बड़ी कोशिशों से अपनेआप को मामी की गिरफ्त से आज़ाद किया और आफताब को बचाने दौड़ी. भीड़ अब भी आफताब को मारे जा रही थी. ज़ीनत आफताब तक पहुच ही नहीं पा रही थी. वह लगातार चीख रही थी, “मत मारो उसे. वह चोर नहीं हैं…” पर भीड़ तो खुद ही वकील होती है और खुद ही जज. इतने में ज़ीनत पिटते हुए आफताब से उसे बचाने की गरज से उस से जा चिपकी. पर उन्मादी भीड़ को वह दिखाई तक न दी और भीड़ लाठीडंडे बरसाती रही.

कुछ ही देर बाद ज़ीनत और आफताब के सिरों से खून की धारा निकल पड़ी थी और उन दोनों के शव  एकदूसरे से लिपटे पड़े थे.

भीड़ ने अपनी ताकत दिखाते हुए न्याय कर दिया था.

Hindi Story : हिम्मत – क्या माधुरी ने अतीत के बारे में अपने पति को बताया

Hindi Story : काफी सोचने के बाद माधुरी ने अपने और अशोक के बारे में पति आकाश को सबकुछ बता देने का फैसला किया. अशोक के रास्ते पर चलने से उसे बरबाद होने से कोई नहीं बचा सकता था. पति को सचाई बता देने से शायद वह उस की गलती माफ कर उसे स्वीकार कर सकता था.

माधुरी अपने मातापिता की एकलौती औलाद थी. उस के पिता एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे और किराए के मकान में रहते थे. उस की मां घरेलू थी. माधुरी के पिता के पास कोई जायदाद नहीं थी. उन का एक ही सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर बहुत बड़ी अफसर बने.

माघुरी भी अपने पिता का सपना पूरा करना चाहती थी. उस का सपना पूरा नहीं हुआ. जो कुछ भी हुआ, उस की कल्पना उस ने नहीं की थी.

स्कूल तक माधुरी ने खूब अच्छी तरह पढ़ाई की थी, मगर कालेज में जाते ही उस का मन पढ़ाई से हट गया था. इस की वजह यह थी कि कालेज में जाते ही अशोक से उस की आंखें लड़ गईं. वह बड़ा ही हैंडसम और स्मार्ट लड़का था.

मौका देख कर एक दिन अशोक ने माधुरी को आई लव यू कह दिया, तो माधुरी भी अपनेआप को रोक न सकी. उस ने अपने दिल की बात कह दी, ‘‘मैं भी तुम्हें प्यार करती हूं.’’ इस के बाद वे दोनों बराबर अकेले में मिलनेजुलने लगे. 6 महीने बाद एक दिन अशोक माधुरी को अपने घर ले गया.

अशोक ने माधुरी को बताया था कि शहर में वह अकेले ही किराए के मकान में रहता है. उस का परिवार गांव में रहता है. उस के पिता के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं है. उस के पिता हर महीने उसे 20 हजार रुपए भेजते हैं. माधुरी अशोक से बहुत प्रभावित थी. वह उस पर पूरा भरोसा भी करती थी, इसीलिए यह जानते हुए भी कि वह अकेला रहता है, वह उस के घर चली गई थी.

बंद कमरे में प्यारमुहब्बत की बातें करतेकरते अचानक अशोक ने माधुरी को अपनी बांहों में भर लिया. माधुरी ने विरोध किया, तो अशोक ने उसे यह कह कर यकीन दिला दिया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह उस से शादी कर लेगा. फिर माधुरी ने अशोक का कोई विरोध नहीं किया और अपनेआप को उस के हवाले कर दिया, फिर तो यह सिलसिला चल निकला.

अशोक का वादा झूठा था, इस का पता माधुरी को तब चला, जब वह पेट से हो गई. माधुरी ने शादी करने के लिए अशोक से कहा, तो वह अपने वादे से मुकर गया. उसे बच्चा गिरवा लेने की सलाह दी.

माधुरी किसी भी हाल में बच्चा नहीं गिराना चाहती थी. वह तो अशोक से शादी कर के बच्चे को जन्म देना चाहती थी.

माधुरी ने धमकी भरे लहजे में अशोक से कहा, ‘‘तुम मुझ से शादी नहीं करोगे, तो मैं पुलिस की मदद लूंगी. पुलिस को बताऊं गी कि शादी का झांसा दे कर तुम ने मेरी इज्जत से खिलवाड़ किया है.’’ ‘‘अगर तुम ऐसा करोगी, तो मैं भी चुप नहीं रहूंगा. पुलिस को बताऊंगा कि तुम धंधेवाली हो. जिस्म बेच कर पैसा कमाना तुम्हारा पेशा है. मुझ से तुम ने 5 लाख रुपए मांगे थे. मैं ने रुपए देने से मना कर दिया, तो मुझे ब्लैकमेल करना चाहती हो. ‘‘मैं सबकुछ साबित भी कर दूंगा. तुम सुबूत देखना चाहती हो, तो देख लो,’’ कहने के बाद अशोक ने जेब से एक लिफाफा निकाला और माधुरी को दे दिया. धड़कते दिल से माधुरी ने लिफाफा खोला, तो वह सन्न रह गई.

लिफाफे में 4 फोटो थे. पहले फोटो में वह अशोक के साथ हमबिस्तर थी और बाकी 3 फोटो में वह अलगअलग लड़कों के साथ थी. माधुरी हैरान हो कर फोटो देख रही थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अशोक उस के साथ ऐसा भी कर सकता है.

माधुरी को चुप देख कर अशोक ने ही कहा, ‘‘तुम यही सोच रही होगी कि फोटो में तुम मेरे अलावा दूसरे लड़कों के साथ कैसे हो, जबकि तुम मेरे सिवा कभी किसी मर्द के साथ सोई ही नहीं? ‘‘मैं जानता था कि दूसरी लड़कियों की तरह तुम भी आसानी से मेरी बात नहीं मानोगी, इसीलिए तुम्हें धंधेवाली साबित करना जरूरी था.

‘‘एक दिन मैं ने तुम्हारी चाय में बेहोशी की दवा मिला दी थी. तुम बेहोश हो गई, तो योजना के तहत बारीबारी से अपने 3 साथियों को सुलाया. उन के साथ फोटो खींचे और वीडियो फिल्म बनाई. ‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुन लो. फोटो और सीडी पाना चाहती हो, तो तुम्हें 3 लाख रुपए देने होंगे, नहीं तो तुम्हारे फोटो इंटरनैट पर डाल दूंगा. फिर तुम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाओगी.’’

माधुरी हैरान हो कर अशोक की बातें सुन रही थी. अशोक बोले जा रहा था, ‘‘अगर तुम एकसाथ 3 लाख रुपए नहीं दे सकती, तो एक साल तक तुम्हें मेरे साथ धंधेवाली वाला काम करना होगा.

‘‘जिस मर्द को मैं तुम्हारे पास भेजा करूंगा, उसे तुम्हें खुश करना होगा. एक साल बाद फोटो और सीडी मैं तुम्हें लौटा दूंगा.’’ माधुरी समझ गई कि वह अशोक के जाल में बुरी तरह फंस चुकी है. उस ने रोरो कर के उस से गुजारिश की कि वह उसे धंधेवाली बनने पर मजबूर न करे, मगर अशोक ने उस की एक न सुनी.

आखिरकार माधुरी ने सोचनेसमझने के लिए उस से एक हफ्ते का समय मांगा. 5 दिन बाद भी माधुरी को अशोक से छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने खुदकुशी करने का फैसला कर लिया. वह खुदकुशी करती, उस से पहले ही एक दिन अखबार में उस ने पढ़ा कि एक लड़की को ब्लैकमेल करने के आरोप में पुलिस ने अशोक को गिरफ्तार कर लिया है.

माधुरी ने राहत की सांस ली. अब वह पढ़ाई छोड़ कर जल्दी से शादी कर शहर से दूर चली जाना चाहती थी. इस के लिए एक दिन उस ने मां को बताया, ‘‘अब मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.’’ उस की मां समझदार थी. अपने पति से बात की और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. जल्दी ही माधुरी के लिए अच्छा लड़का मिल गया. फिर उस की शादी आकाश से हो गई.

आकाश कोलकाता का रहने वाला था. वह एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर था. उस के मातापिता नहीं थे. प्यार करने वाला पति पा कर माधुरी बहुत जल्दी अशोक को भूल गई. वैसे भी अशोक को 3 साल की सजा हुई थी. उस लड़की ने अदालत में अपना आरोप साबित कर दिया था.

माधुरी को यकीन था कि अशोक उस की जिंदगी में अब कभी नहीं आएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ. 3 साल बाद एक दिन अशोक ने उसे फोन किया और यह कह कर होटल में बुलाया कि अगर वह नहीं आएगी, तो उस के पति आकाश को उस की फोटो और सीडी दे देगा.

होटल के बंद कमरे में अशोक ने माधुरी के साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की, लेकिन सीडी और फोटो लौटाने की 3 साल पहले वाली शर्त उसे याद दिला दी.

माधुरी रुपए देने में नाकाम थी. वह पति से रुपए मांगती, तो क्या कह कर मांगती. माधुरी पति के साथ बेवफाई भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए अंजाम की परवाह किए बिना उस ने अशोक को अपना फैसला सुना दिया, ‘‘न तो मैं तुम्हें रुपए दूंगी और न ही पति के साथ बेवफाई करूंगी. तुम्हें जो करना है कर लो.’’

अशोक जल्दबाजी में कोई गलत कदम नहीं उठाना चाहता था, इसलिए उस ने माधुरी को फिर से सोचने के लिए 2 दिन का समय दिया. होटल से घर आ कर माधुरी तब से यह लगातार सोचने लगी. अब उसे कौन सा रास्ता चुनना चाहिए. सबकुछ पति को बता देना चाहिए या अशोक की बात मान कर धंधेवाली बन जाना चाहिए? आखिर में माधुरी ने पति को सचाई बता देने का फैसला किया.

आकाश शाम 7 अजे घर आया, तो वह अपनेआप को रोक न सकी. वह आकाश से जा कर लिपट गई और रोने लगी.

आकाश ने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और पूछा, ‘‘क्या बात है? तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं, इसलिए तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता.’’ माधुरी ने आकाश को अशोक के बारे में सब सचसच बता दिया. पति आकाश से माधुरी ने कुछ नहीं छिपाया.

आकाश बहुत समझदार था. वह रिश्ते को तोड़ने में नहीं जोड़ने में यकीन रखता था. किसी को उस की गलती की सजा देन में नहीं, बल्कि माफ कर उसे सुधारने में यकीन करता था. आकाश ने माधुरी को माफ कर दिया और उसे बांहों में भर कर कहा, ‘‘जो हुआ, उसे दुखद सपना समझ कर भूल जाओ. पुलिस में कई बड़े अफसरों से मेरी जानपहचान है. वे लोग अशोक का सही इंतजाम करेंगे. कोई जान नहीं पाएगा कि वह कहां चला गया. अब तुम किसी बात की चिंता मत करो.’’

माधुरी की आंखों से निकलती आंसुओं की गरम बूंदों ने आकाश के सीने को नम कर दिया.

Hindi Story : अमानत – उस औरत ने दिखाया सच्चाई का आईना

Hindi Story : कानपुर सैंट्रल रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे प्लेटफार्म से उतर कर जैसे ही मैं सड़क पर आया, तभी मुझे पता चला कि किसी जेबकतरे ने मेरी पैंट की पिछली जेब काट कर उस में से पूरे एक हजार रुपए गायब कर दिए थे. कमीज की जेब में बची 2-4 रुपए की रेजगारी ही अब मेरी कुल जमापूंजी थी.

मुझे शहर में अपना जरूरी काम पूरा करने और वापस लौटने के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी. पूरे पैसे न होने के चलते मैं अपना काम निबटाना तो दूर ट्रेन का वापसी टिकट भी कैसे ले सकूंगा, यह सोच कर बुरी तरह परेशान हो गया.

इस अनजान शहर में मेरा कोई जानने वाला भी नहीं था, जिस से मैं कुछ रुपए उधार ले कर अपना काम चला सकूं.

हाथ में अपना सूटकेस थामे मैं टहलते हुए सड़क पर यों ही चला जा रहा था. शाम के साढ़े 5 बजने को थे. सर्दी का मौसम था. ऐसे सर्द भरे मौसम में भी मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया था.

मुझे बड़ी जोरों की भूख लग आई थी. मैं ने सड़क के किनारे एक चाय की दुकान से एक कप चाय पी कर भूख से कुछ राहत महसूस की, फिर अपना सूटकेस उठा कर सड़क पर आगे चलने के लिए जैसे ही तैयार हुआ कि तकरीबन 9 साल का एक लड़का मेरे पास आया और बोला, ‘‘अंकलजी, आप को मेरी मां बुला रही हैं. चलिए…’’

इतना कहते हुए वह लड़का मेरे बाएं हाथ की उंगली अपने कोमल हाथों से पकड़ कर खींचने लगा. मैं उस लड़के को अपलक देखते हुए पहचानने की कोशिश करने लगा, पर मेरी कोशिश बेकार साबित हुई. मैं उस लड़के को बिलकुल भी नहीं पहचान सका था.

अगले ही पल मेरे कदम बरबस ही उस लड़के के साथ उस के घर की ओर बढ़ चले. उस लड़के का घर चाय की उस दुकान से कुछ ही दूर एक गली में था . मैं जैसे ही उस के दरवाजे पर पहुंचा, तो उस लड़के की मां मेरा इंतजार करती नजर आई.

मैं ने तो उसे पहचाना तक नहीं, पर उस ने बिना झिझकते हुए पूछा, ‘‘आइए महेशजी, हम लोग आप के पड़ोसी गांव सुंदरपुर के रहने वाले हैं. यहां मेरे पति एक फैक्टरी में काम करते हैं.

‘‘मैं अभी डबलरोटी लेने दुकान पर गई थी, तो आप को पहचान गई. आप रामपुर के हैं न?

‘‘जब आप गांव से कसबे के स्कूल में पढ़ाने के लिए साइकिल से आतेजाते थे, तब मैं सड़क से लगी पगडंडी पर घास काटती हुई आप को हर दिन देखती थी. कभीकभी तो आप मेरे कहने पर मेरा घास का गट्ठर भी उठवा दिया करते थे.’’

पलभर में ही मैं उस लड़के की मां को पहचान गया था. 10 साल पहले की बात है, तब मैं गांव से साइकिल चला कर कसबे के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाया करता था.

उस समय शायद यह औरत तकरीबन 16-17 साल की थी. तब इस की शादी नहीं हुई थी. यह अकसर पगडंडियों पर अपने गांव की दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ घास काटती रहती थी.

उस समय की एक घटना मुझे अब भी याद है. एक दिन मैं ने उन सभी घास वालियों को बहुत भलाबुरा कहते हुए उन पर चोरी का इलजाम लगाया था.

हुआ यह था कि मुझे उस दिन स्कूल से तनख्वाह मिली थी. पूरे ढाई हजार रुपए थे तनख्वाह के. मैं ने एक लिफाफे में उन रुपयों को रखा और अपनी कमीज की ऊपरी जेब में डालते हुए साइकिल से घर चल पड़ा था. उस दिन कई जगहों पर बीचबीच में साइकिल की चेन उतर जाने से उसे चढ़ाते हुए मैं घर आया था.

घर आने पर पता चला कि मेरा रुपयों वाला लिफाफा साइकिल की चेन चढ़ाते समय रास्ते में कहीं गिर गया था.

मैं उसी समय साइकिल से रास्ते में अपना रुपयों वाला लिफाफा ढूंढ़ते हुए उन घास वालियों से जा कर पूछताछ करने लगा.

घास वालियों ने लिफाफा देखने से साफ इनकार कर दिया. मैं ने बारबार उन घास वालियों पर शक जताते हुए उन्हें बहुत ही बुराभला सुनाया था और तभी से नाराज हो कर फिर कभी उन के घास के गट्ठर को उठाने के लिए सड़क पर साइकिल नहीं रोकी.

मैं ने उस औरत के यहां रह कर कुछ रुपए उधार मांग कर अगले 3 दिनों में अच्छी तरह अपना काम पूरा किया था. उस औरत का पति बहुत अच्छे स्वभाव का था. वह मुझ से बहुत घुलमिल कर बातें करता था, जैसे मैं उस का कोई खास रिश्तेदार हूं.

3 दिनों के बाद जब मैं वापस जाने लगा, तो उस औरत का पति फैक्टरी के लिए ड्यूटी पर जा चुका था और छोटा बच्चा स्कूल गया था. घर में केवल वह औरत थी.

मैं ने सोचा कि चलते समय किराए के लिए कुछ रुपए उधार मांग लूं और घर जा कर रुपया मनीऔर्डर कर दूंगा.

मैं उस औरत के पास गया और उस से उधार के लिए बतौर रुपया मांगने ही वाला था कि तभी वह बोली, ‘‘भाई साहब, अगर आप बुरा न मानें, तो मैं आप की एक अमानत लौटाना चाहूंगी.’’

मैं उस औरत की बात समझा नहीं और हकलाते हुए पूछ बैठा, ‘‘कैसी अमानत?’’

उस ने मुझे पूरे ढाई हजार रुपए लौटाते हुए कहा, ‘‘सालों पहले आप ने एक दिन सभी घास वालियों पर रुपए लेने का जो इलजाम लगाया था, वह सच था.

‘‘जब आप साइकिल की चेन चढ़ा रहे थे, तो आप के रुपए का लिफाफा जमीन पर गिर पड़ा था और आप को रुपए गिरने का पता नहीं चला था. मैं ने दूसरी घास वालियों की नजर बचा कर वह लिफाफा उठा लिया था.

‘‘उस समय मेरे बापू की तबीयत बहुत ज्यादा खराब चल रही थी. दवा के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी और कहीं से कोई उधार भी देने को तैयार था.

‘‘मैं ने बापू की दवा पर वे रुपए खर्च करने के लिए झूठ बोल दिया कि मैं ने रुपयों का कोई लिफाफा नहीं उठाया है. फिर तो उन रुपयों से मैं ने अपने बापू का अच्छी तरह इलाज कराया और वे बिलकुल ठीक हो गए, उन की जान बच गई.

‘‘इस के बाद मुझे आज तक यह हिम्मत नहीं हुई कि सच बोल कर अपने झूठ का पछतावा कर सकूं.’’

मैं उन रुपयों को अपने हाथ में थामे हुए उस औरत की आंखों में झांकते हुए यह सोच रहा था कि वह झूठ जो कभी किसी की जान बचाने के लिए बोला गया था, झूठ नहीं कहा जा सकता. क्योंकि वह तो इस औरत ने सच की पोटली में अमानत के रुपए बतौर बांध कर अपने पाकसाफ दिल में महफूज रखा हुआ था.

मैं उस औरत के मुसकराते हुए चेहरे को एक बार फिर सच के आईने में झांकते हुए, उस के नमस्ते का जवाब देता हुआ तेज कदमों से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया.

Hindi Story : नास्तिक – श्वेता के साथ शादी के बाद क्या हुआ

Hindi Story : श्वेता के ससुराल जाने के बाद उस के मातापिता को अपना खाली घर काटने को दौड़ रहा था. श्वेता चुलबुली, बड़बोली और खुले दिल की लड़की थी. मम्मी के दिल में एक ही बात खटकती रहती थी कि श्वेता देवधर्म, कर्मकांड वगैरह नहीं मानती थी.

तरहतरह के पकवान हम कभी भी खा, बना सकते हैं, इस के लिए किसी त्योहार की जरूरत क्यों? दीवाली के व्यंजन तो पूरे साल मिलते हैं. हम कभी भी खरीद सकते हैं, इस में कोई समस्या नहीं है? श्वेता की सोच कुछ ऐसी ही थी. मातापिता को तो कभी कोई समस्या नहीं हुई, लेकिन उस की ससुराल वालों को होने लगी.

श्वेता का पति आकाश किसी सुपरस्टार की तरह दिखता था. औरतें मुड़मुड़ कर उसे देखती थीं और कहती थीं कि एकदम रितिक रोशन की तरह दिखता है. श्वेता की सहेलियां उस से जलती थीं. जिम जाने और खूबसूरत दिखने वाले पति के साथ श्वेता की शादीशुदा जिंदगी बहुत अच्छी बीत रही थी.

दोनों पर मिलन की एक अलग ही धुन सवार थी. लेकिन एक दिन आकाश ने उस से बोल ही दिया, ‘‘केवल मेरे मातापिता के लिए तुम रोज पूजा कर लिया करो… प्लीज. प्रसाद के रूप में नारियल बांटने में तुम्हें क्या दिक्कत है. नाम के लिए एक दिन व्रत रखा करो ताकि मां को तसल्ली हो कि उन की बहू सुधर गई है.’’

श्वेता गुस्से में बोली, ‘‘सुधर गई, मतलब…? नास्तिक औरतें बिगड़ी हुई होती हैं क्या? दबाव में आ कर भक्ति करना क्या सही है? ‘‘जब मुझे यह सब करना नहीं अच्छा लगता तो जबरदस्ती कैसी? मैं ने कभी अपने मायके में उपवास नहीं किया है. मुझे एसिडिटी हो जाती है इसलिए मैं कम खाती हूं, 2 रोटी और थोड़े चावल तो व्रत क्यों रखना?’’

श्वेता सच बोल रही थी. लेकिन इस बात से आकाश नाराज हो गया और धीरेधीरे उस ने श्वेता से बात करना कम कर दिया. जब भी श्वेता की जिस्मानी संबंध बनाने की इच्छा होती तो ‘आज नहीं, मैं थक गया हूं’ कहते हुए आकाश मना कर देता. ये सब बातें अब रोज की कहानी बन गई थीं.

‘‘तुम्हारा मुझ में इंटरैस्ट क्यों खत्म हो गया? तुम्हारी दिक्कत क्या है?’’ श्वेता ने आकाश से पूछा. बैडरूम में उस का खुला और गठीला बदन देख कर श्वेता का मन अपनेआप ही मचल जाता था, लेकिन आकाश ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘तुम पहले भगवान को मानने लगो, मां को खुश करो, उस के बाद हम अपने बारे में सोचेंगे…’’

‘‘मेरा भगवान, पूजापाठ में विश्वास नहीं है, यह सब मैं ने शादी से पहले तुम्हें बताया था. जब हम दोनों गोरेगांव के बगीचे में घूमने गए थे… तुम्हें याद है?’’

‘‘मुझे लगा था कि तुम बदल जाओगी…’’ ‘‘ऐसे कैसे बदल जाऊंगी. मैं

कोई मन में गुस्से की भावना रख कर नास्तिक नहीं बनी हूं, यह मेरा सालों का अभ्यास है.’’ धीरेधीरे श्वेता और उस की सास के बीच झगड़े होने लगे. श्वेता उन के साथ मंदिर तो जाती थी लेकिन बाहर ही खड़ी रहती थी, जिस पर झगड़े और ज्यादा बढ़ जाते थे.

एक बार सास ने कहा, ‘‘मंदिर के बाहर चप्पल संभालने के लिए रुकती है क्या? अंदर आएगी तो क्या हो जाएगा?’’ श्वेता ने भी तुरंत जवाब देते हुए कहा, ‘‘आप अपना काम पूरा करें, मुझे सिखाने की जरूरत नहीं है. मैं इन ढकोसलों को नहीं मानती.’’

सास घर लौट कर रोने लगीं, ‘‘मुझ से इस जन्म में आज तक किसी ने ऐसी बात नहीं की थी. ऊपर वाला देख लेगा तुम्हें,’’ ऐसा बोलते हुए सास ने पलभर में एक पढ़ीलिखी बहू को दुश्मन ठहरा दिया.

शाम को आकाश के आने के बाद श्वेता बोली, ‘‘मैं मायके जा रही हूं, मुझे लेने मत आना. जब मेरा मन करेगा तब आऊंगी. लेकिन अभी से कुछ तय नहीं है. मायके ही जा रही हूं, कहीं भाग नहीं रही हूं. नहीं तो कुछ भी झूठी अफवाहें उड़ेंगी.’’ आकाश उस की तरफ देखता रह गया. उस की तीखी और करारी बातों से उसे थोड़ा डर लगा.

श्वेता अपने अमीर मातापिता के साथ जा कर रहने लगी. मां को यह बात अच्छी नहीं लगी, लेकिन श्वेता ने कहा, ‘‘आप थोड़ा धीरज रखो. आकाश को मेरे बिना अच्छा नहीं लगेगा.’’ आखिर वही हुआ. 15-20 दिन बीतने के बाद उस का फोन आना शुरू हो गया. पत्नी का मायके में रहने का क्या मतलब है? यह सोच कर वह बेचैन हो रहा था. उस का किया उस पर ही भारी पड़ गया. मां के दबाव में आ कर वह भगवान को मानता था.

श्वेता ने फोन काट दिया इसलिए आकाश ने मैसेज किया, ‘मुझे तुम से बात करनी है, विरार आऊं क्या?’ श्वेता के मन में भी प्यार था और उस ने झट से हां कह दिया.

श्वेता ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें भगवान को मानने के लिए कभी मना नहीं किया. पूजाअर्चना, जो तुम्हें करनी है जरूर करो, लेकिन मुझे मेरी आजादी देने में क्या दिक्कत है. तुम्हारी मां को समझाना तुम्हारा काम है. अब तुम बोल रहे हो इसलिए आ रही हूं. अगर फिर कभी मेरी बेइज्जती हुई तो मैं हमेशा के लिए ससुराल छोड़ दूंगी… इस तरह से श्वेता ने अपनी नास्तिकता की आजादी को हासिल कर लिया.

Hindi Story : अनोखा सबक – टीकाचंद के किस बात से दारोगाजी हैरान रह गए

Hindi Story : सिपाही टीकाचंद बड़ी बेचैनी से दारोगाजी का इंतजार कर रहा था. वह कभी अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखता, तो कभी थाने से बाहर आ कर दूर तक नजर दौड़ाता, लेकिन दारोगाजी का कहीं कोई अतापता न था. वे शाम के 6 बजे वापस आने की कह कर शहर में किसी सेठ की दावत में गए थे, लेकिन 7 बजने के बाद भी वापस नहीं आए थे. ‘शायद कहीं और बैठे अपना रंग जमा रहे होंगे,’ ऐसा सोच कर सिपाही टीकाचंद दारोगाजी की तरफ से निश्चिंत हो कर कुरसी पर आराम से बैठ गया.

आज टीकाचंद बहुत खुश था, क्योंकि उस के हाथ एक बहुत अच्छा ‘माल’ लगा था. उस दिन के मुकाबले आज उस की आमदनी यानी वसूली भी बहुत अच्छी हो गई थी. आज उस ने सारा दिन रेहड़ी वालों, ट्रक वालों और खटारा बस वालों से हफ्ता वसूला था, जिस से उस के पास अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उन पैसों में से टीकाचंद आधे पैसे दारोगाजी को देता था और आधे खुद रखता था.

सिपाही टीकाचंद का रोज का यही काम था. ड्यूटी कम करना और वसूली करना… जनता की सेवा कम, जनता को परेशान ज्यादा करना. सिपाही टीकाचंद सोच रहा था कि इस आमदनी में से वह दारोगाजी को आधा हिस्सा नहीं देगा, क्योंकि आज उस ने दारोगाजी को खुश करने के लिए अलग से शबाब का इंतजाम कर लिया है.

जिस दिन वह दारोगाजी के लिए शबाब का इंतजाम करता था, उस दिन दारोगाजी खुश हो कर उस से अपना आधा हिस्सा नहीं लेते थे, बल्कि उस दिन का पूरा हिस्सा उसे ही दे देते थे. रात के तकरीबन 8 बजे तेज आवाज करती जीप थाने के बाहर आ कर रुकी. सिपाही टीकाचंद फौरन कुरसी छोड़ कर खड़ा हो गया और बाहर की तरफ भागा.

नशे में चूर दारोगाजी जीप से उतरे. उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. आंखें नशे से बुझीबुझी सी थीं. उन की हालत से तो ऐसा लग रहा था, जैसे उन्होंने शराब पी रखी हो, क्योंकि चलते समय उन के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. उन के होंठों पर पुरानी फिल्म का एक गाना था, जिसे वे बड़े रोमांटिक अंदाज में गुनगुना रहे थे. दारोगाजी गुनगुनाते हुए अंदर आ कर कुरसी पर ऐसे धंसे, जैसे पता नहीं वे कितना लंबा सफर तय कर के आए हों.

सिपाही टीकाचंद ने चापलूसी करते हुए दारोगाजी के जूते उतारे. दारोगाजी ने सामने रखी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिए और फिर पैरों को ऐसे अंदाज में हिलाने लगे, जैसे वे थाने में नहीं, बल्कि अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे हों. दारोगाजी ने अपनी पैंट की जेब में से एक महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला और फिल्मी अंदाज में सिगरेट को अपने होंठों के बीच दबाया, तो सिपाही टीकाचंद ने अपने लाइटर से दारोगाजी की सिगरेट जला दी.

‘‘साहबजी, आज आप ने बड़ी देर लगा दी?’’ सिपाही टीकाचंद अपनी जेब में लाइटर रखते हुए बोला. दारोगाजी सिगरेट का लंबा कश खींच कर धुआं बाहर छोड़ते हुए बोले, ‘‘टीकाचंद, आज माहेश्वरी सेठ की दावत में मजा आ गया. दावत में शहर के बड़ेबड़े लोग आए थे. मेरा तो वहां से उठने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मजबूरी में आना पड़ा.

‘‘अच्छा, यह बता टीकाचंद, आज का काम कैसा रहा?’’ दारोगाजी ने बात का रुख बदलते हुए पूछा. ‘‘आज का काम तो बस ठीक ही रहा, लेकिन आज मैं ने आप को खुश करने का बहुत अच्छा इंतजाम किया है,’’ सिपाही टीकाचंद ने धीरे से मुसकराते हुए कहा, तो दारोगाजी के कान खड़े हो गए.

‘‘कैसा इंतजाम किया है आज?’’ दारोगाजी बोले. ‘‘साहबजी, आज मेरे हाथ बहुत अच्छा माल लगा है. माल का मतलब छोकरी से है साहबजी, छोकरी क्या है, बस ये समझ लीजिए एकदम पटाखा है, पटाखा. आप उसे देखोगे, तो बस देखते ही रह जाओगे. मुझे तो वह छोकरी बिगड़ी हुई अमीरजादी लगती है,’’ सिपाही टीकाचंद ने कहा.

उस की बात सुन कर दारोगाजी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई. ‘‘टीकाचंद, तुम्हारे हाथ वह कहां से लग गई?’’ दारोगाजी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले.

दारोगाजी के पूछने पर सिपाही टीकाचंद ने बताया, ‘‘साहबजी, आज मैं दुर्गा चौक से गुजर रहा था. वहां मैं ने एक लड़की को अकेले खड़े देखा, तो मुझे उस पर कुछ शक हुआ. ‘‘जिस बस स्टैंड पर वह खड़ी थी, वहां कोई भला आदमी खड़ा होना भी पसंद नहीं करता है. वह पूरा इलाका चोरबदमाशों से भरा हुआ है.

‘‘उस को देख कर मैं फौरन समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है. उस के आसपास 2-4 लफंगे किस्म के गुंडे भी मंडरा रहे थे. ‘‘मैं ने सोचा कि क्यों न आज आप को खुश करने के लिए उस को थाने ले चलूं. ऐसा सोच कर मैं फौरन उस के पास जा पहुंचा.

‘‘मुझे देख कर वहां मौजूद आवारा लड़के फौरन वहां से भाग लिए. मैं ने उस लड़की का गौर से मुआयना किया. ‘‘फिर मैं ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘कौन हो तुम? और यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह मुझे घूरते हुए बोली, ‘यहां अकेले खड़ा होना क्या जुर्म है?’ ‘‘उस का यह जवाब सुन कर मैं समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है और आसानी से कब्जे में आने वाली नहीं.

‘‘मैं ने नाम पूछा, तो वह कहने लगी, ‘मेरे नाम वारंट है क्या?’ ‘‘वह बड़ी निडर छोकरी है साहब. मैं जो भी बात कहता, उसे फौरन काट देती थी.

‘‘मैं ने उसे अपने जाल में फंसाना चाहा, लेकिन वह फंसने को तैयार ही नहीं थी. ‘‘आसानी से बात न बनते देख उस पर मैं ने अपना पुलिसिया रोब झाड़ना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से उस पर मेरे रोब का असर हुआ. मैं ने उस पर 2-4 उलटेसीधे आरोप लगा दिए और थाने चलने को कहा, लेकिन थाने चलने को वह तैयार ही नहीं हुई. ‘‘मैं ने कहा, ‘थाने तो तुम्हें जरूर चलना पड़ेगा. वहां तुम से पूछताछ की जाएगी. हो सकता है कि तुम अपने दोस्त के साथ घर से भाग कर यहां आई हो.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह बौखला गई और मुझे धमकी देते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे थाने ले जा कर तुम बहुत पछताओगे, मेरी पहुंच ऊपर तक है.’ ‘‘छोकरी की इस धमकी का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसी धमकी सुनने की हमें आदत सी पड़ गई है…

‘‘पता नहीं, आजकल जनता पुलिस को क्या समझती है? हर कोई पुलिस को अपनी ऊंची पहुंच की धमकी दे देता है, जबकि असल में उस की पहुंच एक चपरासी तक भी नहीं होती. ‘‘मैं धमकियों की परवाह किए बिना उसे थाने ले आया और यह कह कर लौकअप में बंद कर दिया कि थोड़ी देर में दारोगाजी आएंगे. पूछताछ के बाद तुम्हें छोड़ दिया जाएगा.

‘‘जाइए, उस से पूछताछ कीजिए, बेचारी बहुत देर से आप का इंतजार कर रही है,’’ सिपाही टीकाचंद ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा. दारोगाजी के होंठों पर मुसकान तैर गई. उन की मुसकराहट में खोट भरा था. उन्होंने टीकाचंद को इशारा किया, तो वह तुरंत अलमारी से विदेशी शराब की बोतल निकाल लाया और पैग बना कर दारोगाजी को दे दिया.

दारोगाजी ने कई पैग अपने हलक से नीचे उतार दिए. ज्यादा शराब पीने से उन का चेहरा खूंख्वार हो गया था. उन की आंखें अंगारे की तरह लाल हो गईं. वह लुंगीबनियान पहन लड़खड़ाते कदमों से लौकअप में चले गए. सिपाही टीकाचंद ने फुरती से दरवाजा बंद कर दिया और वह बैठ कर बोतल में बची हुई शराब खुद पीने लगा.

दारोगाजी को कमरे में घुसे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि उन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं. सिपाही टीकाचंद ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो दारोगाजी उस के ऊपर गिर पड़े. उन का हुलिया बिगड़ा हुआ था.

थोड़ी देर पहले तक सहीसलामत दारोगाजी से अब अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. उन का सारा मुंह सूजा हुआ था. इस से पहले कि सिपाही टीकाचंद कुछ समझ पाता, उस के सामने वही लड़की आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘देख ली अपने दारोगाजी की हालत?’’ ‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को. सरकार तुम्हें यह वरदी जनता की हिफाजत करने के लिए देती है, लेकिन तुम लोग इस वरदी का नाजायज फायदा उठाते हो,’’ लड़की चिल्लाते हुए बोली.

लड़की एक पल के लिए रुकी और सिपाही टीकाचंद को घूरते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी बदतमीजी का मजा मैं तुम्हें वहीं चखा सकती थी, लेकिन उस समय तुम ने वरदी पहन रखी थी और मैं तुम पर हाथ उठा कर वरदी का अपमान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यह वरदी हमारे देश की शान है और हमें इस का अपमान करने का कोई हक नहीं. पता नहीं, क्यों सरकार तुम जैसों को यह वरदी पहना देती है?’’ लड़की की इस बात से सिपाही टीकाचंद कांप उठा.

‘‘जातेजाते मैं तुम्हें अपनी पहुंच के बारे में बता दूं, मैं यहां के विधायक की बेटी हूं,’’ कह कर लड़की तुरंत थाने से बाहर निकल गई. सिपाही टीकाचंद आंखें फाड़े खड़ा लड़की को जाते हुए देखता रहा.

दारोगाजी जमीन पर बैठे दर्द से कराह रहे थे. उन्होंने लड़की को परखने में भूल की थी, क्योंकि वह जूडोकराटे में माहिर थी. उस ने दारोगाजी की जो धुनाई की थी, वह सबक दारोगाजी के लिए अनोखा था.

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