Women’s Day Special- नए मोड़ पर: निवेदिता ने कैसे किया ससुराल का कायापलट

कुमुदिनी चौकाबरतन निबटा कर बरामदे में खड़ी आंचल से हाथ पोंछ ही रही थी कि अपने बड़े भाई कपूरचंद को आंगन में प्रवेश करते देख वहीं ठगी सी खड़ी रह गई. अर्चना स्कूल गई हुई थी और अतुल प्रैस नौकरी पर गया हुआ था.

कपूरचंद ने बरामदे में पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा, ‘‘अतुल के लिए लड़की देख आया हूं. लाखों में एक है. सीधासच्चा परिवार है. पिता अध्यापक हैं. इटावा के रहने वाले हैं. वहीं उन का अपना मकान है. दहेज तो ज्यादा नहीं मिलेगा, पर लड़की, बस यों समझ लो चांद का टुकड़ा है. शक्लसूरत में ही नहीं, पढ़ाई में भी फर्स्ट क्लास है. अंगरेजी में एमए पास है. तू बहुत दिनों से कह रही थी न कि अतुल की शादी करा दो. बस, अब चारपाई पर बैठीबैठी हुक्म चलाया करना.’’

कुमुदिनी ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ा. 6 साल हो गए उसे विधवा हुए. 45 साल की उम्र में ही वह 60 साल की बुढि़या दिखाई पड़ने लगी. कौन जानता था कि कमलकांत अकस्मात यों चल बसेंगे. वे एक प्रैस में प्रूफरीडर थे.

10 हजार रुपए पगार मिलती थी. मकान अपना होने के कारण घर का खर्च किसी तरह चल जाता था.

अतुल पढ़ाई में शुरू से ही होशियार न था. 12वीं क्लास में 2 बार फेल हो चुका था. पिता की मृत्यु के समय वह 18 वर्ष का था. प्रैस के प्रबंधकों ने दया कर के अतुल को 8 हजार रुपए वेतन पर क्लर्क की नौकरी दे दी.

पिछले 3 सालों से कुमुदिनी चाह रही थी कि कहीं अतुल का रिश्ता तय हो जाए. घर का कामकाज उस से ढंग से संभलता नहीं था. कहीं बातचीत चलती भी तो रिश्तेदार अड़ंगा डाल देते या पासपड़ोसी रहीसही कसर पूरी कर देते. कमलकांत की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों का आनाजाना बहुत कम हो गया था.

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कुमुदिनी के बड़े भाई कपूरचंद साल में एकाध बार आ कर उस का कुशलक्षेम पूछ जाते. पिछली बार जब वे आए तो कुमुदिनी ने रोंआसे गले से कहा था, ‘अतुल की शादी में इतनी देर हो रही है तो अर्चना को तो शायद कुंआरी ही बिठाए रखना पड़ेगा.’

कपूरचंद ने तभी से गांठ बांध ली थी. जहां भी जाते, ध्यान रखते. इटावा में मास्टर रामप्रकाश ने जब दहेज के अभाव में अपनी कन्या के लिए वर न मिल पाने की बात कही तो कपूरचंद ने अतुल की बात छेड़ दी. छेड़ क्या दी, अपनी ओर से वे लगभग तय ही कर आए थे.

कुमुदिनी बोली, ‘‘भाई, दहेज की तो कोई बात नहीं. अतुल के पिता तो दहेज के सदा खिलाफ थे, पर अपना अतुल तो कुल मैट्रिक पास है.’’

कपूरचंद ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था, पर अब अपनी बात रखते हुए बोले, ‘‘पढ़ाई का क्या है? नौकरी आजकल किसे मिलती है? अच्छेअच्छे डबल एमए जूते चटकाते फिरते हैं, फिर शक्लसूरत में हमारा अतुल कौन सा बेपढ़ा लगता है?’’

रविवार को कुमुदिनी कपूरचंद के साथ अतुल और अर्चना को ले कर लड़की देखने इटावा पहुंची. लड़की वास्तव में हीरा थी. कुमुदिनी की तो उस पर नजर ही नहीं ठहरती थी. बड़ीबड़ी आंखें, लंबे बाल, गोरा रंग, छरहरा शरीर, सरल स्वभाव और मृदुभाषी.

जलपान और इधरउधर की बातों के बाद लड़की वाले अतुल के परिवार वालों को आपस में सलाहमशवरे का मौका देने के लिए एकएक कर के खिसक गए. अतुल घर से सोच कर चला था कि लड़की में कोई न कोई कमी निकाल कर मना कर दूंगा. एमए पास लड़की से विवाह करने में वह हिचकिचा रहा था, पर निवेदिता को देख कर तो उसे स्वयं से ईर्ष्या होने लगी.

अर्चना का मन कर रहा था कि चट मंगनी पट ब्याह करा के भाभी को अभी अपने साथ आगरा लेती चले. कुमुदिनी को भी कहीं कोई कसर दिखाई नहीं दी, पर वह सोच रही थी कि यह लड़की घर के कामकाज में उस का हाथ क्या बंटा पाएगी?

कपूरचंद ने जब प्रश्नवाचक दृष्टि से कुमुदिनी की ओर देखा तो वह सहज होती हुई बोली, ‘‘भाई, इन लोगों से भी तो पूछ लो कि उन्हें लड़का भी पसंद है या नहीं. अतुल की पढ़ाई के बारे में भी बता दो. बाद में कोई यह न कहे कि हमें धोखे में रखा.’’

कपूरचंद उठ कर भीतर गए. वहां लड़के के संबंध में ही बात हो रही थी. लड़का सब को पसंद था. निवेदिता की भी मौन स्वीकृति थी. कपूरचंद ने जब अतुल की पढ़ाई का उल्लेख किया तो रामप्रकाश के मुख से एकदम निकला, ‘‘ऐसा लगता तो नहीं है.’’ फिर अपना निर्णय देते हुए बोले, ‘‘मेरे कितने ही एमए पास विद्यार्थी कईकई साल से बेकार हैं. चपरासी तक की नौकरी के लिए अप्लाई कर चुके हैं पर अधिक पढ़ेलिखे होने के कारण वहां से भी कोई इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाता.’’

निवेदिता की मां को भी कोई आपत्ति नहीं थी. हां, निवेदिता के मुख पर पलभर को शिकन अवश्य आई, पर फिर तत्काल ही वह बोल उठी, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो, मां.’’

शायद उसे अपने परिवार की सीमाएं ज्ञात थीं और वह हल होती हुई समस्या को फिर से मुश्किल पहेली नहीं बनाना चाहती थी.

कपूरचंद के साथ रामप्रकाश भी बाहर आ गए. समधिन से बोले, ‘‘आप ने क्या फैसला किया?’’

कुमुदिनी बोली, ‘‘लड़की तो आप की हीरा है पर उस के योग्य राजमुकुट तो हमारे पास है नहीं.’’

रामप्रकाश गदगद होते हुए बोले, ‘‘गुदड़ी में ही लाल सुरक्षित रहता है.’’

कुमुदिनी ने बाजार से मिठाई और नारियल मंगा कर निवेदिता की गोद भर दी. अपनी उंगली में से एक नई अंगूठी निकाल कर निवेदिता की उंगली में पहना दी. रिश्ता पक्का हो गया.

3 महीने के बाद उन का विवाह हो गया. मास्टरजी ने बरातियों की खातिरदारी बहुत अच्छी की थी. निवेदिता को भी उन्होंने गृहस्थी की सभी आवश्यक वस्तुएं दी थीं.

शादी के बाद निवेदिता एक सप्ताह ससुराल में रही. बड़े आनंद में समय बीता. सब ने उसे हाथोंहाथ लिया. जो देखता, प्रभावित हो जाता. अपनी इतनी प्रशंसा निवेदिता ने पूरे जीवन में नहीं सुनी थी पर एक ही बात उसे अखरी थी- अतुल का उस के सम्मुख निरीह बने रहना, हर बात में संकोच करना और सकुचाना. अधिकारपूर्वक वह कुछ कहता ही नहीं था. समर्पण की बेला में उस ने ही जैसे स्वयं को लुटा दिया था. अतुल तो हर बात में आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था.

पत्नी से कम पढ़ा होने से अतुल में इन दिनों एक हीनभावना घर कर गई थी. हर बात में उसे लगता कि कहीं यह उस का गंवारपन न समझा जाए. वह बहुत कम बोलता और खोयाखोया रहता.

1 महीने बाद जब निवेदिता दोबारा ससुराल आई तो विवाह की धूमधाम समाप्त हो चुकी थी.

इस बीच तमाशा देखने के शौकीन कुमुदिनी और अतुल के कानों में सैकड़ों तरह की बातें फूंक चुके थे.

कुमुदिनी से किसी ने कहा, ‘‘बहू की सुंदरता को चाटोगी क्या? पढ़ीलिखी तो है पर फली भी नहीं फोड़ने की.’’

कोई बोला, ‘‘कल ही पति को ले कर अलग हो जाएगी. वह क्या तेरी चाकरी करेगी?’’

किसी ने कहा, ‘‘पढ़ीलिखी लड़कियां घर के काम से मतलब नहीं रखतीं. इन से तो बस फैशन और सिनेमा की बातें करा लो. तुम मांबेटी खटा करना.’’

किसी ने टिप्पणी की, ‘‘तुम तो बस रूप पर रीझ गईं. नकदी के नाम क्या मिला? ठेंगा. कल को तुम्हें भी तो अर्चना के हाथ पीले करने हैं.’’

किसी ने कहा, ‘‘अतुल को समझा देना. तनख्वाह तुम्हारे ही हाथ पर ला कर रखे.’’

किसी ने सलाह दी, ‘‘बहू को शुरू से ही रोब में रखना. हमारीतुम्हारी जैसी बहुएं अब नहीं आती हैं, खेलीखाई होती हैं.’’

गरज यह कि जितने मुंह उतनी ही बातें, पड़ोसिनों और सहेलियों ने न जाने कहांकहां के झूठेसच्चे किस्से सुना कर कुमुदिनी को जैसे महाभारत के लिए तैयार कर दिया. वह भी सोचने लगी, ‘इतनी पढ़ीलिखी लड़की नहीं लेनी चाहिए थी.’

उधर अतुल कुछ तो स्वयं हीनभावना से ग्रस्त था, कुछ साथियों ने फिकरे कसकस कर परेशान कर दिया. कोई कहता, ‘‘मियां, तुम्हें तो हिज्जे करकर के बोलना पड़ता होगा.’’

कोई कहता, ‘‘भाई, सूरत ही सूरत है या सीरत भी है?’’

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कोई कहता, ‘‘अजी, शर्महया तो सब कालेज की पढ़ाई में विदा हो जाती है. वह तो अतुल को भी चौराहे पर बेच आएगी.’’

दूसरा कंधे पर हाथ रख कर धीरे से कान में फुसफुसाया, ‘‘यार, हाथ भी रखने देती है कि नहीं.’’

निवेदिता जब दोबारा ससुराल आई तो मांबेटे किसी अप्रत्याशित घटना की कल्पना कर रहे थे. रहरह कर नों का कलेजा धड़क जाता था और वे अपने निर्णय पर सकपका जाते थे.

वास्तव में हुआ भी अप्रत्याशित ही. हाथों की मेहंदी छूटी नहीं थी कि निवेदिता कमर कस कर घर के कामों में जुट गई. झाड़ू लगाना और बरतन मांजने जैसे काम उस ने अपने मायके में कभी नहीं किए थे पर यहां वह बिना संकोच के सभी काम करती थी.

महल्ले वालों ने पैंतरा बदला. अब उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘गौने वाली बहू से ही चौकाबरतन, झाड़ूबुहारू शुरू करा दी है. 4 दिन तो बेचारी को चैन से बैठने दिया होता.’’

सास ने काम का बंटवारा कर लेने पर जोर दिया, पर निवेदिता नहीं मानी. उसे घर की आर्थिक परिस्थिति का भी पूरा ध्यान था, इसीलिए जब कुमुदिनी एक दिन घर का काम करने के लिए किसी नौकरानी को पकड़ लाई तो निवेदिता इस शर्त पर उसे रखने को तैयार हुई कि अर्चना की ट्यूशन की छुट्टी कर दी जाए. वह उसे स्वयं पढ़ाएगी.

अर्चना हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी. छमाही परीक्षा में वह अंगरेजी और संस्कृत में फेल थी. सो, अतुल ने उसे घर में पढ़ाने के लिए एक सस्ता सा मास्टर रख दिया था. मास्टर केवल बीए पास था और पढ़ाते समय उस की कई गलतियां खुद निवेदिता ने महसूस की थीं. 800 रुपए का ट्यूशन छुड़ा कर नौकरानी को 500 रुपए देना महंगा सौदा भी नहीं था.

निवेदिता के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि अर्चना भी खुश थी. एक महीने में ही अर्चना की गिनती क्लास की अच्छी लड़कियों में होने लगी. जब सहेलियों ने उस की सफलता का रहस्य पूछा तो उस ने भाभी की भूरिभूरि प्रशंसा की.

थोड़े ही दिनों में महल्ले की कई लड़कियों ने निवेदिता से ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया. कुमुदिनी को पहले तो कुछ संकोच हुआ पर बढ़ती हुई महंगाई में घर आती लक्ष्मी लौटाने को मन नहीं हुआ. सोचा बहू का हाथखर्च ही निकल आएगा. अतुल की बंधीबंधाई तनख्वाह में कहां तक काम चलता?

गरमी की छुट्टियों में ट्यूशन बंद हो गए. इन दिनों अतुल अपनी छुट्टी के बाद प्रैस में 2 घंटे हिंदी के प्रूफ देखा करता था. एक रात निवेदिता ने उस से कहा कि वह प्रूफ घर ले आया करे और सुबह जाते समय ले जाया करे. कोई जरूरी काम हो तो रात को घूमते हुए जा कर वहां दे आए. अतुल पहले तो केवल हिंदी के ही प्रूफ देखता था, अब वह निवेदिता के कारण अंगरेजी के प्रूफ भी लाने लगा.

निवेदिता की प्रूफरीडिंग इतनी अच्छी थी कि कुछ ही दिनों स्थिति यहां तक आ पहुंची कि प्रैस का चपरासी दिन या रात, किसी भी समय प्रूफ देने आ जाता था. अब पर्याप्त आय होने लगी.

अर्चना हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास हुई तो सारे स्कूल में धूम मच गई. स्कूल में जब यह रहस्य प्रकट हुआ कि इस का सारा श्रेय उस की भाभी को है तो प्रधानाध्यिपिका ने अगले ही दिन निवेदिता को बुलावा भेजा. एक अध्यापिका का स्थान रिक्त था. प्रधानाध्यिपिका ने निवेदिता को सलाह दी कि वह उस पद के लिए प्रार्थनापत्र भेज दे. 15 दिनों के बाद उस पद पर निवेदिता की नियुक्ति हो गई. निवेदिता जब नियुक्तिपत्र ले कर घर पहुंची तो उस की आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलक आए.

निवेदिता अब दिन में स्कूल की नौकरी करती और रात को प्रूफ पढ़ती. घर की आर्थिक दशा सुधर रही थी, पर अतुल स्वयं को अब भी बौना महसूस करता था. प्यार के नाम पर निवेदिता उस की श्रद्धा ही प्राप्त कर रही थी.

एक रात जब अतुल हिंदी के प्रूफ पढ़ रहा था तो निवेदिता ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘सुनो.’’ अतुल का हृदय धकधक करने लगा.

‘‘अब आप यह प्रूफ संशोधन छोड़ दें. पैसे की तंगी तो अब है नहीं.’’

अतुल ने सोचा, ‘गए काम से.’ उस के हृदय में उथलपुथल मच गई. संयत हो कर बोला, ‘‘पर अब तो आदत बन गई है. बिना पढ़े रात को नींद नहीं आती.’’

निवेदिता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वही तो कह रही हूं. अर्चना की इंटर की पढ़ाई के लिए सारी किताबें खरीदी जा चुकी हैं, आप प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में इंटर का फौर्म भर दें.’’

अतुल का चेहरा अनायास लाल हो गया. उस ने असमर्थता जताते हुए कहा, ‘‘इतने साल पढ़ाई छोड़े हो गए हैं. अब पढ़ने में कहां मन लगेगा?’’

निवेदिता ने उस के निकट खिसक कर कहा, ‘‘पढ़ते तो आप अब भी हैं. 2 घंटे प्रूफ की जगह पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ लेने से बेड़ा पार हो जाएगा. कठिन कुछ नहीं है.’’

अतुल 3-4 दिनों तक परेशान रहा. फिर उस ने फौर्म भर ही दिया. पहले तो पढ़ने में मन नहीं लगा, पर निवेदिता प्रत्येक विषय को इतना सरल बना देती कि अतुल का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

साथी ताना देते. कोईकोई उस से कहता कि वह तो पूरी तरह जोरू का गुलाम हो गया है. यही दिन तो मौजमस्ती के हैं पर अतुल सुनीअनसुनी कर देता.

इंटर द्वितीय श्रेणी में पास कर लेने के बाद तो उस ने स्वयं ही कालेज की संध्या कक्षाओं में बीए में प्रवेश ले लिया. बीए में उस की प्रथम श्रेणी केवल 5 नंबरों से रह गई.

कुमुदिनी की समझ में नहीं आता था कि बहू ने सारे घर पर जाने क्या जादू कर दिया है. अतुल के पिता हार गए पर यह पढ़ने में सदा फिसड्डी रहा. अब इस की अक्ल वाली दाढ़ निकली है.

बीए के बाद अतुल ने एमए (हिंदी) में प्रवेश लिया. इस प्रकार अब तक पढ़ाई में निवेदिता से जो सहायता मिल जाती थी, उस से वह वंचित हो गया. पर अब तक उस में पर्याप्त आत्मविश्वास जाग चुका था. वह पढ़ने की तकनीक जान गया था. निवेदिता भी यही चाहती थी कि वह हिंदी में एमए करे अन्यथा उस की हीनता की भावना दूर नहीं होगी. अपने बूते पर एमए करने पर उस का स्वयं में विश्वास बढ़ेगा. वह स्वयं को कम महसूस नहीं करेगा.

वही हुआ. समाचारपत्र में अपना एमए का परिणाम देख कर अतुल भागाभागा घर आया तो मां आराम कर रही थी. अर्चना किसी सहेली के घर गई हुई थी. छुट्टी का दिन था, निवेदिता घर की सफाई कर रही थी. अतुल ने समाचारपत्र उस की ओर फेंकते हुए कहा, ‘‘प्रथम श्रेणी, द्वितीय स्थान.’’

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और इस से पहले कि निवेदिता समाचारपत्र उठा कर परीक्षाफल देखती, अतुल ने आगे बढ़ कर उसे दोनों हाथों में उठा लिया और खुशी से कमरे में नाचने लगा.

उस की हीनता की गं्रथि चरमरा कर टूट चुकी थी. आज वह स्वयं को किसी से कम महसूस नहीं कर रहा था. विश्वविद्यालय में उस ने दूसरा स्थान प्राप्त किया है, यह गर्व उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था.

निवेदिता का चेहरा पहले प्रसन्नता से खिला, फिर लज्जा से लाल हो गया. आज पहली बार, बिना मांगे, उसे पति का संपूर्ण प्यार प्राप्त हुआ था. इस अधिकार की वह कितने दिनों से कामना कर रही थी, विवाह के दिन से ही. अपनी इस उपलब्धि पर उस की आंखों में खुशी का सागर उमड़ पड़ा.

Women’s Day Special- अपना घर: भाग 2

उस की मां लीला आज के जमाने की आधुनिक महिला लग रही थीं. छोटी बहन मासूमा भी बेहद खूबसूरत थी. पिता अजय बेहद सीधेसादे व्यक्ति लग रहे थे.

जिया, अभिषेक की मां और बहन के सामने कहीं भी नहीं ठहरती थी पर उस का भोलापन, सुलझे हुए विचार और सादगी ने अभिषेक को आकर्षित कर लिया था. जिया के किरदार में कहीं भी कोई बनावटीपन नहीं था. जहां अभिषेक को अपनी मां में प्लास्टिक के फूलों की गंद आती थी, वहीं जिया से उसे असली फूलों की महक आती थी.

अपने पिता को उस ने हमेशा एडजस्टमैंट करते हुए देखा था. वह खुद ऐसा नहीं करना चाहता था, इसलिए हर हाल में अपनी मां का लाड़ला, हर बात मानने वाला अभिषेक किसी भी कीमत पर अपनी जीवनसाथी के चुनाव की बागडोर मां को नहीं देना चाहता था.

जिया ने कमरे में प्रवेश किया. जहां अभिषेक प्यारभरी नजरों से उस की तरफ देख रहा था, वहीं लीला और मासूमा उस की तरफ अचरज से देख रही थीं. उन्हें जिया में कोई खूबी नजर नहीं आ रही थी. अजय को जिया एक सुलझे विचारों वाली लड़की नजर आई जो उन के परिवार को संभाल कर रख सकेगी. लीला ने अभिषेक की तरफ देखा पर उस के चेहरे पर खुशी देख कर चुप हो गईं.

जिया को लीला ने अपने हाथों से हीरे का सैट पहना दिया पर उन के चेहरे पर कहीं कोईर् खुशी नहीं थी. जिया को यह बात समझ आ गई थी कि वह बस अभिषेक की पसंद है. अपने घर में जगह बनाने के लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

2 माह बाद उस के विवाह की तारीख तय हो गई. दुलहन के लिबास में जिया बेहद खूबसूरत लग रही थी. अभिषेक और उस की जोड़ी पर लोगों की नजरें ही नहीं ठहर रही थीं. लीला भी आज बहुत खुश लग रही थीं. कन्यादान करते हुए जिया के मां और पापा के आंखों में आंसू थे. वह उन के घर की रौनक थी. बिदाई पर अजय ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘बहू नहीं बेटी ले कर जा रहे हैं.’’

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जिया ने कुछ दिनों में यह तो समझ लिया था कि इस घर में बागडोर लीला के हाथों में है. यह घर लीला का घर है और वह घर उस के मांपापा का घर था पर उस का घर कहां है? इस सवाल का जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था.

अभी कल की ही बात थी, जिया ने ड्राइंगरूम में थोड़ा सा बदलाव करने की कोशिश करी, तो लीला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘जिया, तुम अभिषेक की बीवी हो, इस घर की बहू हो, पर इस घर को मैं ने बनाया है, इसलिए अपने फैसले और अपने अधिकार अपने कमरे तक सीमित रखो.’’

जिया चुपचाप खड़ी सुनती रही. अभिषेक से जब भी उस ने इस बारे में बात करनी चाही, उस ने हमेशा यही जवाब दिया कि जिया उन्हें थोड़ा समय दो. उन्होंने सब कुछ हमारी खुशी के लिए ही करा है.

जिया अपने मनोभावों को चाह कर भी न समझा पाती थी. खुश रहना उस की आदत थी और हारना उस की फितरत में नहीं था.

देखते ही देखते 1 साल बीत गया. आज जिया की शादी की पहली वर्षगांठ थी. उस ने अभिषेक के लिए घर पर पार्टी करने का प्लान बनाया. उस ने अपने सभी दोस्तों को निमंत्रण भेज दिया. तभी दोपहर में जिया ने देखा, लीला की किट्टी पार्टी का गु्रप आ धमका.

जिया ने लीला से कहा, ‘‘मां, आज मैं ने अपने कुछ दोस्तों को आमंत्रित किया है.’’

लीला ने जवाब में कहा, ‘‘जिया तुम्हें पहले मुझ से पूछ लेना चाहिए था…’’ मैं तो अब कुछ नहीं कर सकती हूं. तुम अपने दोस्तों को कहीं और बुला लो.’’

जिया उठ खड़ी हुई. अपने अधिकारों की सीमा रेखा समझती रही. मन ही मन उस ने एक निर्णय ले लिया.

जिया ने शाम की पार्टी के लिए घर के बदले होटल का पता अपने सभी दोस्तों को व्हाट्सऐप कर दिया. अभिषेक को भी वहीं बुला लिया. अभिषेक ने जिया को पीली व लाल कांजीवरम साड़ी और बेहद खूबसूरत झुमके उपहार में दिए, जिया जैसी सुलझे विचारों वाली जीवनसाथी पा कर अभिषेक बेहद खुश था.

जिया को अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी पर फिर भी कभीकभी वह चंदेरी के परदे उसे मुंह चिढ़ाते थे. अभिषेक उसे हर तरह से खुश रखता था पर वह कभी जिया की अपनी घर की इच्छा को नहीं समझ पाया था.

जिया को अपने घर को अपना कहने का या महसूस करने का अधिकार नहीं था. वह उस की जिंदगी का वह खाली कोना था जिसे कोई भी नहीं समझ पाया था. न उस के अपने मातापिता, न अभिषेक और न ही उस के सासससुर. जिया ने धीरेधीरे इस घर में सभी के दिल में जगह बना ली थी. लीला भी अब उस से खिंचीखिंची नहीं रहती थीं. मासूमा की मासूम शरारतों का वह हिस्सा बन गई थी.

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आज चारों तरफ खुशी का माहौल था. दीवाली का त्योहार वैसे भी अपने साथ खुशी, हर्षोल्लास और अनगिनत रंग ले कर आता है. पूरे घर में पेंट चल रहा था, जब अभिषेक परदे बदलने लगा तो अचानक जिया बोली कि रुको और फिर भाग कर चंदेरी के परदे ले आई.

इस से पहले कि अभिषेक कुछ बोलता, लीला बोल उठीं, ‘‘जिया ऐसे परदे मेरे घर पर नहीं लगेंगे.’’

जिया प्रश्नसूचक नजरों से अभिषेक को देख रही थी. उसे लगा वह कुछ बोलेगा कि मां यह जिया का भी घर है पर अभिषेक कुछ न बोला. जिया का खराब मूड देख कर बोला, ‘‘इतना क्यों परेशान हो. परदे ही तो हैं.’’

पहली बार जिया की आंखों में आंसू आए. अभिषेक आंसुओं को देख कर और चिढ़ गया.

आजकल जिया का ज्यादातर समय औफिस में बीतता था. अभिषेक ने महसूस किया कि वह अपने फोन पर ही लगी रहती है और उसे देखते ही घबरा कर मोबाइल रख देती है. अभिषेक जिया को सच में प्यार करता था, वह जिया से पूछना चाहता था पर उसे डर था कहीं सच में जिया के जीवन में उस की जगह किसी और ने तो नहीं ले ली है.

एक शाम को अभिषेक ने जिया से कहा, ‘‘जिया, चलो तुम शुक्रवार की छुट्टी ले लो, कहीं आसपास घूमनेफिरने चलते हैं.’’

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जिया ने अनमने से कहा, ‘‘नहीं अभिषेक बहुत काम है औफिस में.’’

Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

संतोषी के मरद की  आवाज़ सुनते ही सहम गयी थी गौरी ,आत्मा का दर्द एक बार फिर ताज़ा हो आया था ,पहले तो छत पर ही दुबक गयी ,आँखों और मुट्ठियों को किसके भीचें ,अपने शरीर को छोटा और छोटा करते हुए पर। मिठ्ठू वाली बात ने उसके बाल सुलभ मन को थोड़ा कमज़ोर किया था पर अपनी भावनाओं पर काबू पाना शायद स्त्री जाति में प्राकृतिक गुण ही तो है.

गिद्ध ,बाज़ और मक्खी की नाक और नज़र बड़ी पैनी होती है वे अपने शिकार को सूँघ ही लेते हैं.

संतोषी का मरद भी छत पर जा पहुंचा ,उसकी आहट जान सिहर उठी थी गौरी,उसकी सिहरन अभी खत्म भी न हो पायी थी कि एक पंजा उसकी पीठ को सहलाने लगा ,गौरी अभी बच्ची थी उसका डर भी स्वाभाविक था ,पर आज जैसे ही गिद्ध ने अपनी चोंच आगे बढ़ा कर शिकार करने चाहा ,गौरी ने प्रतिरोध किया पर उसका शक्ति प्रदर्शन एक पुरुष के सामने कहाँ चलने वाला था.

अपने आपको नर्क में गिरता देख गौरी ने चाचा की कलाई पर पूरी शक्ति से काटा , एक बारगी कराह तो उठा था चाचा,पकड़ ढीली हुयी तो गौरी बेतहाशा भागी और ऐसी भागी की नीचे की सीढ़ियों की जगह छत से सीधे नीचे ही आ गिरी .

कितनी चोट लगी थी ,कितनी नहीं ,गौरी को उसका गम नहीं था पर ज़मीन पर पड़े हुए जब उसकी नज़रें छत की और गयी तो उसने चाचा को अपनी और देखता हुआ पाया और गौरी के मन में एक संतोष सा उभर आया था कि आज उसने अपनी रक्षा कर ली है.

गांव में हल्ला हो गया कि गौरी छत से गिर गयी है ,और सबसे पहले चाचा ने ही गौरी को गोद में उठाया था उसके स्पर्श में भी एक गिजगिजाहट महसूस कर रही थी वो पर पीठ में आयी चोट के कारण प्रतिरोध करते न बनता था ,

चाचा अम्मा पापा को पता नहीं क्या मनगढ़ंत कहानी बता रहा था और वो भी चाचा की बात को सच ही मान रहे थे .

पैर में आयी चोट के कारण पैर में प्लास्टर करवाना पड़ा था पर उस दिन की घटना के बाद चाचा दुबारा गौरी को छूने  हिम्मत नहीं कर पाया था.

इस घटना ने गौरी को मर्दों के प्रति अनिच्छा सी भर दी थी ,वह जब भी कोई मर्द देखती तो गौरी को यही लगता कि उसकी नज़रें उसके अंगों को टटोल रही हैं और वो अंदर तक सिहर जाती और अपने दायरे में ही सिमट कर रह जाती.

गौरी का स्कूल जाना  पैर पर प्लास्टर होने के कारण फिलहाल बंद हो गया था,पर फिर भी गौरी ने घर से ही पढाई जारी रखी और जब इम्तेहान आये तो पापा आधी बोरी हल्दी की गांठे मास्साब के घर पहुंचा आये थे जिसका नतीजा ये हुआ कि अगले दिन  मास्साब खुद ही घर आकर कॉपी लिखवाकर ले गए, गौरी से.

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गौरी ने कॉपी में जो भी लिखा था वह पास होने के लिए काफी था पर वो ज़ख्म जो चाचा ने गौरी के मन पर दे दिया था वो तो भरने का नाम ही नहीं ले रहा था.

पापा का मसाले और गल्ले का काम और बढ़ चला था ,उनके सामान को  बाज़ार तक ले जाने और फिर वहां से वापिस लाने के लिए उन्हें एक सहायक की ज़रूरत थी क्योंकि छोटा भाई अभी  छोटा था और इस लायक नहीं था कि उनके काम में सहायक हो सके.

इसलिए पापा ने एक लड़का काम के लिए रख लिया उसका नाम पारस था ,बाजार वाले दिन वो पापा के साथ ही आता जाता और थोड़ा बहुत घर के कामों में माँ को भी सहायता करता ,बेहद ही हँसमुख था वो,सबको हँसाता पर गौरी को कभी हँसी नहीं आती.

एक जीवन का पत्थर की मूर्ति में बदलना आरम्भ हो चुका था. पारस और गौरी दोनों हमउम्र थे ,इसलिए दोनों में बातचीत भी हो जाती थी ,गौरी के पैरों का प्लास्टर कटने से पहले ,एक  सुंदर फूल की आकृति उकेरी थी उसने गौरी के पैर पर चढ़े सफ़ेद प्लास्टर पर.

“अरे वाह तुम तो कलाकार भी हो”माँ ने कहा

माँ की इस बात पर बच्चों की तरह हँस दिया था पारस.

प्लास्टर काटा जा चुका था और गौरी पहले की तरह ही स्कूल आने जाने लगी थी,पर मुस्कान अब भी उसके होठों से अंजान रिश्ता ही कायम कर हुए थी.

पारस की मौजूदगी गौरी को अच्छी लगने लगी थी ,गौरी के मन में चाचा की गंदी हरकतों की वजह से पुरूष के प्रति जो नफरत भरी हुयी थी ,पारस के आने के बाद वह कम हो गयी थी.

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अब किसी दिन अगर पारस काम पर नहीं आता तो गौरी को अच्छा नहीं लगता ,और उसके आने पर वो उसे पापा के साथ काम करते हुए कनखियों से देखती रहती.

जब कभी पापा को दुकान नहीं लगानी होती तो पारस घर में रहता ,एक दिन वह छत पर पतंग उडा रहा था ,और पतंग खूब हिचकोले लेकर मानो सूरज से ही बातें करना चाहती थी

“अरे ….कैसे इतनी ऊंची पतंग उडा लेते हो तुम” गौरी अपने छोटे भाई के साथ छत पर आते हुए बोली

“कोई भी उडा सकता है”

“कोई भी …..मतलब …मैं भी”

“हाँ..हाँ क्यों …नहीं ,देखो मैं तुम्हे सिखाता हूँ….देखो ..ये डोर ऐसे पकड़नी है …और जब पतंग आसमान की तरफ जाए तो थोड़ा डोर को ढीला करना …है और फिर थोड़ा डोर को खींचना है …..और बस” पारस ने गौरी को बताया

गौरी ने डोर उसके हाथ से ले ली और अपनी ही मस्ती में पतंग उड़ाने लगी ,पारस उसकी मदद कर रहा था जबकि गौरी के  छोटे भाई को नीचे रखा मांझा लेने भेज दिया था पारस ने

जैसे ही पारस ने अकेलापन पाया ,गौरी की पीठ से चिपक गया और फुसफुसा कर बोला “गौरी में तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ….और तुमसे शादी करना चाहता हूँ”

और पारस के हाथ गौरी के सीने पर जा पहुंचे गौरी के लिए पारस के मन में भी लगाव था पर अचानक से फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति ……..,गौरी के सामने मिठ्ठू और चाचा वाली घटना आँखों में उतर आई ,उसने  अपने को पारस की गिरफ्त से छुड़ाया तमतमाती हुयी नीचे चली आयी.

आसमान में पतंग डोर समेत लहराते हुए एक पीपल के पेड़ में जाकर अटक गयी थी.

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Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

बचपन में ही दानव के हाथों इस राजकुमारी को भी मसल दिया गया था.

बाप और बेटी के ठहाकों की आवाज़ें किचन तक आ रहीं थी,कभी रिया फुसफुसा कर कुछ कहती तो कभी ये धीरे से ये  कुछ कहते ,और फिर अनवरत हँसी का फव्वारा छूट पड़ता.

बापबेटी अपने हँसी के समंदर में गोते लगा ही रहे थे ,कि गौरी  भी कॉफी देने कमरे में गयी तो रिया  गौरी से लिपटते हुए बोली

“अरे….माँ कभी हमारे साथ भी बैठ लिया करो और थोड़ा हँस भी लिया करो ….

आप अपने होठों को कैसे सीये रहती हो  ,मेरा तो मुंह ही दर्द हो जाये और हाँ….माँ ….आपको तो अच्छे अच्छे जोक पर भी हँसी नहीं आती है ….कैसे माँ….तुम कभी हँसती क्यों नहीं हो….?”

रिया ने बात खत्म करी तो उसके समर्थन में ये भी उतर आये , और हसते रहने के महत्व पर पूरा लेक्चर ही दे डाला.

पर फिर भी गौरी चुप ही रही रिया ने  अपने पापा की ओर देखा पर गौरी के मौन ने सब कुछ कह डाला ,और शायद ये बात विराम भी समझ गए ,इसीलिये तुरंत ही बात बदलकर रिया से उसके कॉलेज की राजनीति पर बात शुरू कर दी.

रिया जब भी कॉलेज से घर आती तो घर में ऐसा ही माहौल रहता ,पर उसके मासूम सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं होता,भला अपनी खमोशी और उदासी का क्या कारण बताती वह ,और अगर बताती भी तो पता नहीं रिया का क्या रिएक्शन होता गौरी के प्रति, इसलिए वह खामोश ही थी.

गौरी  दोबारा जब कमरे में गयी तब तक रिया टीवी पर “टॉम और जैरी ” कार्टून फिल्म देख रही थी और ठहाके लगाकर हँस रही थी,गौरी को रिया ने खींचकर अपने पास बैठा लिया और शिकायती लहज़े में माँ से बोली

“हंसो न माँ ,देखो कितना अच्छा और मजेदार कार्टून आ रहा है ,अरे….तुम तो हँसती ही नहीं, मिस सीरियस ही बनी रहती हो”

“अरे ….क्या …हँसना और न हँसना…मेरे लिए अब तू आ गयी है ना यही सबसे बड़ी खुशी की बात है …” इतना कहकर गौरी किचन में आकर काम करने लगी.

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अपने ही ख्यालों में खोयी हुई  थी गौरी कि बाहर वाले कमरे से रिया की आवाज़ आयी जो अपने पापा के साथ मार्किट होकर आने की बात कह रही थी.

मोटरसाइकिल स्टार्ट होने की आवाज़ गौरी भी सुन सकती थी

” हाँ ….मिस सीरियस ही तो हूँ ….ज़िंदा हूँ …यही क्या कम है….”बुदबुदा उठी थी गौरी

गौरी ने किचन की खिड़की खोली ,सामने ही अमरुद का पेड़ था ,इस समय उस पर अमरुद भी फल हुए थे .

तभी तोतों का एक झुण्ड उड़ता हुआ आया और अमरुद के पेड़ को लगभग ढक ही लिया और सारे  तोते एक ही साथ अमरुद खाने में मगन हो गए.

ये देख गौरी को अपने मायके वाले ‘मिठ्ठू मियाँ’ की याद आ गयी और अतीत के पन्ने पलटने लगे कितने प्यार से तो पापा उसके लिए लाए थे ये तोता,और हाँ वो साथ में सुनहरा सा पिंजरा भी तो लाये थे ,जिसे देख कितना खुश हुई थी गौरी,पिंजरे में रख सारा दिन घूमती , खाने  को अमरुद और हरी मिर्च .

हरी मिर्च खाने से मिठ्ठू मियाँ  जल्दी ही राम राम बोलने लगेगा और संतोषी चाची वाला मिठ्ठू तो उनका नाम भी रटता था .

पर जब एक दिन संतोषी चाची का मिठ्ठू पिजरा खुला पाकर उड़ गया तबसे वे दुखी होकर यही कहने लगी

“अरे….इन पंछियन की जात तो बड़ी बेवफा होत है ,इनकी आँखिन में कोई प्यार ममता नाही ,एक बार उडि पावें ,फिर नाइ आवै के”

पर संतोषी चाची की इन बातों से गौरी सहमत ना होती ,उसे तो यही गुमान था कि चाहे जो कुछ हो पर उसका मिठ्ठू मियाँ तो उसको छोड़कर कहीं नहीं जा सकता.

मिठ्ठू मियाँ अब राम-राम भी बोलने लगा था और गौरी -गौरी भी ,स्कूल से आने पर गौरी अपने मिठ्ठू के पास ही जाती और खूब खेलने के बाद ही उसके पास से हटती थी.

पर उस दिन जब गौरी स्कूल से लौटी तो अम्मा और पापा भागे जा रहे थे ,गौरी के पूछने पर ये ही बताया कि गांव के कोने पर रहने वाले सरवन की मौत हो गयी है ,अभी बस वहीँ जाकर आते हैं तू घर पहुँच और रोटी पानी खा ले जाकर .

गौरी घर आयी तो मिठ्ठू मियाँ का पिंजरा खाली था, वह अपना बस्ता वहीँ गिरा कर दौड़ी और पिंजरा हाथ में ले मिठ्ठू-मिठ्ठू चिल्लाकर इधरउधर भागने लगी.

“अरे तेरा मिठ्ठू मेरे यहां उड़कर आ गया है,ले…ले आकर “संतोषी चाची के पति बोल रहे थे

“क्या….चाचा …मिठ्ठू तुम्हारे यहाँ आ गया है …कहाँ …है ,कहाँ है”कहते कहते चाचा के आँगन में आ गयी थी गौरी

“हाँ …वो देख …आँगन के कोने वाली दीवार के ऊपर”

“कहाँ ….मुझे तो नहीं दिखता”

चाचा गौरी के पीछे आकर खड़े हो गए थे और गौरी के कंधे पर हाथ रखकर बोलने लगे

“अरे ….ध्यान से देख गौ…री…”चाचा के मुंह से अस्फुट से स्वर निकल रहे थे  और उनका हाथ गौरी के हाथ से फिसलता हुआ उसके सीने तक जा पहुंचा.

अपने मिठ्ठू को अब भी ढूंढ रही थी गौरी पर अब उसके साथ चाचा कुछ ऐसा करने लगे जो उसे भी असहज हो रहा था.

क्या …ये वही काम है जो कुछ समय पहले उसके स्कूल के मास्टर ने संध्या के साथ किया था……पर वो संध्या तो मर गयी थी…..तब तो मैं भी मर जाऊंगी.

Women’s Day Special: टिट फौर टैट

पूरा जोर लगा दिया था गौरी ने ,पसीनेपसीने हो गयी ,कसमसाई भी ,चिल्लाई भी पर चाचा की गिरफ्त से आज़ाद न हो सकी .

ये बात किसी को भी बताने पर चाचा उसके छोटे भाई को मार देगा…. ऐसा बोलकर चाचा ने मासूम गौरी के मुँह पर ताला लगा दिया था

और ये ले तेरा मिठ्ठू …बिल्ली ने मार दिया था इसे मरा हुआ मिठ्ठू हाथ में ले रोती ही जा रही थी गौरी, सही कारण क्या है ये तो किसी को पता ही ना था .

अम्मा पापा यही सोच रहे थे कि मिठ्ठू के मरने से लड़की दुखी है तभी रोये जा रही है ,पर तेरह साल की गौरी को इतना तो आभास हो ही गया था कि जो भी उसके साथ हुआ है वो सही नहीं है.

वो अपना दुख कहती भी तो कैसे क्योंकि  एक तरफ तो किसी को भी बता देने पर चाचा द्वारा छोटे भाई को मार दिए जाने का डर था और दूसरी तरफ जब संध्या की वो वाली बात सभी लोगों को पता चली थी तो भी गांव वाले संध्या के माँ बाबूजी को अजीब नज़रों से देखते थे और फिर गांव वालों ने अपनी बातों से ऐसे ताने कसे कि संध्या के घर वालों को अपना सामान ले गांव ही छोड़ जाना पड़ा.

गौरी के पापा गांव की साप्ताहिक बाज़ार में मसाले और थोड़ा मोड़ा गल्ले की दुकान लगाते थे,कल  अचानक हुयी बारिश ने उनके मसालों को भिगो दिया था ,आज धूप हुयी तो माँ ने उन मसालों को छत के ऊपर सूखने को फैला दिया था और गौरी से यही छत पर  बैठने को कहा .

आज सरवन की तेरवीं थी ,घर के लोग उसके घर भोज में गए हुए थे,पता नहीं ये बात संतोषी चाची के आदमी को कैसे पता चल गयी

“गौरी….ओ ..गौरी …अरे कहा है रे तू …

देख तो तेरे लिए दूसरा मिठ्ठू लाया हूँ

Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

नीचे आकर गौरी छोटे भाई बाबू पर खूब चिल्लाई थी ,वो क्यों इतना गुस्सा कर रही थी किसी को पता नहीं था बस सबने ये ज़रूर देखा कि  थोड़ी देर के बाद पारस वहाँ से गर्दन नीची करके चला गया.

उस दिन के बाद पारस कभी नहीं वापस आया,पापा ने कुछ दिन तो इन्तज़ार किया फिर कहने लगे की “दो महीने से पगार भी नहीं दिया था पारस को , राम जाने काहे काम छोड़ कर भाग गया ,चलो कभी मैं ही उसके गाँव जाऊँगा तो उसका पता करूँगा”

पापा पारस के गांव गए भी पर वहां भी उसका कुछ पता नहीं चला .

क्या पारस और चाचा एक ही सिक्के के दो पहलू ही नहीं हैं,जब जिसको मौका मिला ,नारी देह से खेलना चाहा, क्या एक पुरुष एक लड़की में सिर्फ एक ही चीज़ को खोजता है,अपने आप से कई सवाल और बदले में कई और सवाल.

युवा होती लड़कियों में अपने अंगों के प्रति एक जिज्ञासा भी होती है और अधिक से अधिक सुंदर दिखने की चाह भी .

गौरी में ये सारी जिज्ञासाएं मर चुकी थी,वह कभी दर्पण के सामने खड़ी होकर अपने को देखती तो यही सोचती कि इससे तो अच्छा हो कि ये अंग ही कट जाएँ , खत्म हो जाएं जिन्हें देखते ही मर्द लोग लार चुआने लगते है, न उन्हें रिश्ते नातों का भान रहता है और ना ही समाज की कोई चिंता ,उन्हें तो बस स्त्री की देह से ही सरोकार है,कहीं न कहीं सभी मर्दों के प्रति एक ही राय कायम कर ली थी गौरी ने.

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गांव की बाहरी सड़क को हाईवे में बदला जा रहा था ,काम जोर शोर से चल रहा था ,इसी नाते शहर से बाबू और इंजीनियर लोग गांव में आतेजाते रहते थे.

गांव के पास हाईवे का निर्माण होना सारे गांव के लिए  कौतूहल का विषय था ,सुबह शाम गांव वाले लोग अक्सर देखने पहुँच जाते कि सड़क निर्माण का काम कैसे होता है .

अपनी सहेलियों के बहुत कहने पर गौरी भी एक दिन हाईवे देखने चली गयी थी ,वहाँ पर एक सजीला सा नौजवान भी था जो तीन टांगों पर लगे एक दूरबीन नामक यंत्र से कुछ देखता था ,गांव की लड़कियों ने भी उस दूरबीन से झाँकने की  इच्छा प्रकट करी ,बारी बारी से सब लड़कियों ने उसमे झाँका,पर गौरी बुत बनी खड़ी रही.

उस सजीले नौजवान को बहुत कुछ अच्छा लग गया था गौरी में.

दो दिन बाद ही वह इंजीनियर  गौरी का हाथ मांगने ही उसके  घर चला आया.

“मैं आपकी बिटिया से शादी करना चाहता हूँ ”

“पर बेटा तुम तो शहर के इतने बड़े बाबू ,और हमारी बिटिया बारह तक ही पड़ी है ,तुम काहे ब्याह करोगे उससे”पापा ने चौककर कहा

“जी….वो बात सही है ,पर मैंने हमेशा गौरी की तरह ही सीधी सादी लड़की चाही है ,ताकि वो मेरे माँ और पापा का ध्यान रख सके” वो इंजीनियर बोला जिसका नाम विराम था

अम्मा पापा भी गौरी को एक बोझ ही मानते थे और बोझ सर से जितना जल्दी उतर जाए उतना अच्छा.

कहते हैं कि जोड़े स्वर्ग  से ही बनकर आते हैं ,कम से कम गौरी के संदर्भ में तो यही बात सही लग रही थी और सारे गांव वाले चकित थे कि गौरी की शादी शहर में वो भी एक इंजीनियर के साथ ,अब तो मोटर में ही घूमेगी गौरी.

और आखिर वो दिन भी आ गया जब गौरी की शादी विराम से हो गयी

खुद गौरी को भी समझ नहीं आया ये सब कैसे और अब हो गया ,एक गांव की लड़की अब इतने बड़े घर में रहेगी.

शहर में दोमंजिला मकान था , और गौरी नयी बहू , छम छम करती कभी इस कमरे तो कभी उस कमरे में पतंग सी लहराती फिरती

बडी भाभी मौका मिलते ही उझसे चुहलबाज़ी करने में पीछे न हटतीं,रात में क्या -क्या हुआ जैसी बातें पूछती और फिर गौरी के गाल पर एक प्यारी सी चपत लगाकर हँसती हुयी चली चली जातीं.

ये सच था कि गौरी के अंदर भी एक स्त्री के सारे गुण थे,एक लड़की का संसार जिसमे गुड्डे गुड़ियों के खेल होते है ,परियां होती हैं और हाँ एक सुंदर सजीला राजकुमार भी तो होता है जो अपनी राजकुमारी को घोड़े पर बिठा अपने देश को उड़ जाता है.

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जहाँ परियाँ होतीं हैं ,राजकुमार होता है वहां पर एक दानव भी तो होता है ना…..

वो दानव जो राजकुमारी को सोने के पिंजरे में बंद कर लेता है और तरह तरह के आघात करता है.

बचपन में ही दानव के हाथों इस राजकुमारी को भी मसल दिया गया था,कोमल मन और तन पर पड़े इस आघात से हमारी राजकुमारी गौरी ने भी अपने ह्रदय को सिर्फ जीवन चलाने भर का ही अधिकार दे रखा था अब ह्रदय में कोई भाव ,अनवरत हँसी ,मुस्कराहट ,प्रेम आदि के लिए कोई स्थान न था.

गौरी तो बस एक नदी की तरह बही जा रही थी ,एक ऐसी नदी जिसे अपना गंतव्य भी नहीं पता था ,उसे तो बस बहने के लिए ही बहना था

और ऐसे में रात की बातों को लेकर भी गौरी के मन में कोई उत्साह नहीं बचा था बल्कि जब भी विराम रात को उससे प्रेम करते ,उसे सहलाते ,चूमते तब अपने में ही सिमट जाती गौरी, कमल की तरह अपनी पंखुड़ियों को समेट लेती गौरी और  उसके अंग प्रत्यंग पत्थर की तरह सख्त हो जाते ,बंद आँखों में चाचा के गंदे स्पर्श की पुनरावृत्ति सी गुज़र जाती और उसके बाद वो सब असहय हो जाता गौरी के लिए और फिर विराम के साथ यात्रा में एक भी कदम आगे न बढ़ाया जाता उससे.

शुरुआत में जब ऐसा हुआ तो विराम ने सोचा कि गांव की सीधी सादी लड़की है ,शायद मन की झिझक के कारण मुझे रोक देती है और यह सोच अपने मन को मार लिया .

पर यह एक कुंवारी लड़की द्वारा किया जाने वाला अभिनय नहीं था बल्कि यह तो एक सच्चाई थी ,कली को खिलने से पहले ही मसला जा चुका था ,तितली के रंगीन परों पर तेज़ाब छिड़का जा चुका था. प्रेम में जब निरंतर पत्नी का सहयोग ना मिला तो वह बिफर पड़ा.

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“ये तुम इतना सती सावित्री बनने की कोशिश क्यों करती हो ,जो मैं कर रहा हूँ ये कोई गलत काम नहीं ,बल्कि प्रेम का एक मार्ग है और ये सब भी परिवार को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी है और फिर मैं तुम्हे भगाकर तो लाया नहीं जो तुम इतना शर्माती हो, शादी करी है मैंने तुमसे”

Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 4

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

गौरी चुपचाप सब सुन लेती ,बहस करने उसने सीखा नहीं था और सच बताने का मतलब था उसकी अपनी ही दुनिया में आग लगाना.

अपनी इस परेशानी को दोस्तों से भी विराम ने शेयर किया था , दोस्तों ने हसते हुए यही बताया कि तू उसकी शर्म को खत्म कर ,थोड़ा मोबाइल पर सेक्स वेक्स दिखाया कर ,कुछ दिन बाद सब नॉर्मल हो जायेगा.

रात को बिस्तर में विराम ने मोबाइल ऑन किया और  गौरी के बालों को सहलाते हुए मोबाइल पर एक पोर्न फिल्म चला दी ,विराम को लगा कि इससे गौरी की सोयी इच्छाएं जाग जाएंगी .

इच्छाएं अगर सोयी हो तो वे जाग सकती हैं पर उन इच्छाओं का क्या जो मर ही चुकी हों.

पति की खुशी के लिए मोबाइल पर आँखे गड़ाई रही गौरी पर उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई .

मन ही मन झुंझुला पड़े थे विराम ,मोबाइल बंद करके रख दिया  और करवट बदल कर लेट गए.

गौरी के मन पर जो कुठाराघात हुआ था उससे उसकी सम्वेदनाएँ ही तो मरी थी, बाकी तो वह एक सम्पूर्ण स्त्री थी और जब गौरी के स्त्रीत्व को  उसके जीवन पुरुष विराम का साथ मिला तो वह माँ बन गयी.

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एक माँ “माँ बनकर ही एक स्त्री पूर्ण होती है ” यही तो उसकी दादी अक्सर कहा करती थी

आब गौरी की समझ में आ गया था,नन्ही बिटिया की देखभाल में कब दिन पंख लगाकर उड़ने लगे उसे पता ही न चला.

विराम के घरवालों ने भी गौरी का खूब ध्यान रखा ,उनकी बहू ने लक्ष्मी को जन्म जो दिया था.

संवर की देखभाल के बाद शरीर की आभा देखते ही बनती थी गौरी की ,अपने आपको आईने में देखा ,पता नहीं कितने दिनों के बाद उसे कुछ अच्छा सा लगा ,मुस्कुराने की कोशिश भी करी पर असफल ही रही वो ,किसी ने मानो उसके होठों पर सिहरन आने से पहले ही उन्हें सी दिया हो और कह दिया हो कि नहीं गौरी नहीं तुझे तो हँसने का अधिकार ही नहीं है.

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बेटी रिया के जनम के आठ महीने हो चुके थे और अब तो विराम ने भी महीनो से गौरी से शारीरिक मिलन की कोई इच्छा नहीं ज़ाहिर करी थी बल्कि वे तो और भी शांत हो गए थे ,शायद काम ज्यादा था ,रोज़ ही देर रात गए आते और चुपचाप सो जाते.

सभी घर वालों का प्यार देख गौरी बहुत खुश थी ,एक अच्छा पति ,एक नन्ही बिटिया ,और जीने को क्या चाहिए था.

पर अपने पति का सेक्स में साथ न दे पाने और उन्हें संतुष्ट न कर पाने का मलाल गौरी को अब भी था,पर वो अपने स्वभाव से विवश थी वो स्वभाव जो उसने नही बनाया था बल्कि इस समाज ने उसे दिया.

गौरी को नींद नहीं आ रही थी,उसने हाथ लगाकर रिया को छुआ  तो पाया कि रिया ने बिस्तर गीला कर रखा था, उसका डायपर बदलना था सो गौरी उठने लगी ,बिजली नहीं थी ,विराम का मोबाइल उठाकर ,मोबाइल की टॉर्च जलाई और रिया का डायपर बदलकर जैसे ही मोबाइल की टॉर्च बंद करी तो मोबाइल पर एक वीडियो ,गौरी की उंगली के स्पर्श से प्ले होने लगा जिसे शायद विराम रात में देखते देखते ही सोये थे और उसका बैक बटन दबाना भूल गए थे और इसलिए टॉर्च जलने के बाद बंद करने के उपक्रम में वह वीडीयो चलने लगा था.

क्या ये विराम हैं ……..हाँ विराम ही तो हैं…

गौरी की आँखें हैरत से फैल गयी थी. विराम इस वीडियो मे एक महिला के साथ संभोगरत थे और वह महिला पूरा साथ दे दे रही थी, और विराम द्वारा अपना ही वीडीयो बनाये जाने पर बनावटी नाराज़गी भी  ज़ाहिर कर रही थी ,और अब तो विराम के कहने पर उसने उत्तेजनात्मक सिसकियाँ भी भरना शुरू कर दी थी.

गौरी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली, वीडीयो की आवाजों से विराम हड़बड़ाकर जाग गए ,और लपककर मोबाइल गौरी के हाथों से छीन लिया.

शायद विराम शर्मिंदा थे पर एक पुरुष के अहंकार ने उनकी शर्म को क्रोध का जामा पहनाने मे देर न करी.

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“अरे…ऐसे क्या देख रही हो ….मैं एक जवान मर्द हूँ,मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं ,जब घर में खाना नहीं मिलेगा तो आदमी बाहर का ही खाना तो खायेगा न”.

हाँ पुरुष प्रधान इस दुनिया में  बाहर का खाना खाने का अधिकार पुरुष को ही ससम्मान दिया गया है ,महिला नज़र भी उठा ले तो वह पापी है

और इस दुनिया में चाचा जैसे  पुरुष भी हैं

विराम जैसे भी और पारस जैसे  भी

आँगन में बाप बेटी के ठहाको की आवाज़ें फिर से आने लागी थी ,गौरी भी  चाय लेकर वहां जा पहुंची,रिया माँ को देखकर फिर बोल पडी

“अरे…आओ माँ ….पर रोनी सूरत क्यों बना रखी है….

कभी मुस्करा भी दिया करो माँ….”

गौरी चाय कपों में डाल रही थी ,उसने एक नज़र विराम की तरफ देखा उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था ,गौरी ने मुस्करा दिया .

गुड़िया और गुड्डे ,दानव ,सजीला राजकुमार ,सोने का पिंजरा सभी को चीनी के साथ घोलती जा रही थी गौरी.

कोई स्त्री हँसने का अपना सहज स्वभाव यूँ ही नहीं भूलती, कोई स्त्री बात बात में यूँ ही नहीं ड़ो पड़ती जिस स्त्री ने बचपन में ही यौन उत्पीड़न को महसूस किया हो… वो अपने आप में ही सिमटकर रह जाती है और कभी खिल नहीं पाती, खुल नहीं पाती, बोल नहीं पाती हमारी गौरी की तरह.

Serial Story- कितने झूठ: भाग 2

‘‘हांहां, इतवार है न, कोई आ न जाए?’’ कह कर उस ने अलमारी से धुले व इस्तिरी किए हुए परदे निकाल कर महरी को दे दिए और वह दरवाजेखिड़कियों के परदे बदलने लगी.

अकसर इतवार के दिन उस की दृष्टि परदों पर चली जाती और वह सुधा से कह कर परदे बदलवा देता. वह कहता, ‘कोई आ न जाए?’

‘लेकिन हम घर पर रहेंगे ही कहां?’

‘मां के घर दोपहर का भोजन कर के हम सीधे यहां आ रहे हैं.’

‘आज तुम नाटक देखने नहीं चलोगे?’

‘नहीं, आज तो भीड़भाड़ होगी और टिकट भी नहीं मिलेगा.’

‘यह नाटक सिर्फ आज भर होगा.’

‘हफ्ते में एक दिन ही तो मिलता है. उस दिन भी तुम भागमभाग करने के लिए कहती हो.’

‘तुम ने पहले ही बता दिया होता तो मैं कल ही हो आती.’

‘आइंदा तुम शनिवार के दिन ड्रामा देख लिया करो.’

‘और इतवार के दिन?’

‘पूरा आराम.’

इतवार के दिन वह या तो मेहमानों या सुधा के साथ हंसबतिया लेता या फिर सारा दिन लेटा रहता. सुधा कोई न कोई नाटक पढ़ने लगती.

एक दिन उस ने सुधा से कह दिया, ‘तुम किसी नाटक में अभिनय क्यों नहीं कर लेतीं?’

‘कोई अच्छा नाटक मंचित होता है तो उसे दिखाने तो चलते नहीं, अभिनय करने दोगे तुम?’

‘सच, तुम अगर स्टेज पर काम करो तो मैं तुम्हारा नाटक देखने जरूर आऊंगा.’

‘लेकिन मुझे नाटक खेलना नहीं, देखना अच्छा लगता है. कालेज के दिनों में भी मैं हर नाटक देखने के लिए सब से आगे की सीट पर बैठती थी. लेकिन समय के चक्कर में सबकुछ छूटता चला गया.’’

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‘अब भी मैं तुम्हें जाने से तो मना नहीं करता.’

‘लेकिन तुम साथ तो चलना पसंद नहीं करते.’

‘जाने क्यों नाटक मुझे पसंद ही नहीं आते. हां, फिल्म कहो तो…’

‘चलो, फिल्म ही सही.’

‘मतलब, आज फिल्म देखे बगैर नहीं रहोगी?’

‘नहीं, अगर तुम नहीं चाहते तो…’

‘नहीं, हम चल रहे हैं.’

‘कपड़े बदल लूं.’

‘हांहां.’

झट उस ने वार्डरोब खोला. ‘कौन सी साड़ी पहनूं?’

‘कोई भी.’

‘नहीं. तुम बताओ न.’

‘वह फालसई रंग की साड़ी पहन लो.’

‘तुम्हें हल्के शेड्स पसंद हैं न?’

‘हां.’

वह झट हाथमुंह धो आई और कंघी उठा कर बाल संवारने लगी. उस ने उस के बालों की एकाध लट उस के गाल पर बिखेर दी औैर उस की छवि निहारने लगा.

सुधा प्रसन्न हो कर बोली, ‘जानते हो, जब भी तुम मुझे इस तरह सजानेसंवारने लगते हो तब मुझे बेहद खुशी होती है. तुम्हारी इच्छाएं पूरी होती रहीं तो मैं अपनी जिंदगी सार्थक समझ लूंगी.’

‘‘मैं जाऊं?’’ महरी की आवाज सुन कर उस की विचार तंद्रा टूटी. बोला, ‘‘तुम्हारा काम खत्म हो गया?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो जाओ.’’

‘‘एक बात कहूं, साहब?’’

‘‘कहो.’’

‘‘जब तक बीबीजी नहीं लौटतीं तब तक आप अपनी मां के पास क्यों नहीं चले जाते? यहां तो आप को खानेपीने की भी दिक्कत होती होगी.’’

‘‘मां के पास?’’ अरे, हां, मां के पास रसोई के वक्त चले जाओ तो मां नाराज होती हैं, ‘हफ्ते में एक दिन तो आते हो और तब भी दोचार घड़ी चैन से बैठ कर बातचीत भी नहीं करते.’

कभीकभी सुधा खाने के तुरंत बाद फिल्म के लिए निकल आती तो मां खीझ उठतीं.

वह झट नहा कर और फिर कपड़े बदल कर घर से निकलना ही चाहता था कि फिर आवाज आई, ‘‘बीबीजी, कपडे़.’’

उस ने दरवाजा खोला. सामने एक औरत एक छोकरे के साथ खड़ी थी, जिस के सिर पर एक टोकरा रखा था. उस में स्टील के बरतन आदि और कपड़ों की एक गठरी रखी थी.

वह बोली, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कहा था, कुछेक पुराने कपड़े निकाल कर रखूंगी.’’

‘‘वह तो नहीं है.’’

‘‘कहीं गई हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘कब आएंगी?’’

उस ने चीख कर कहना चाहा, ‘अब वह यहां नहीं आएगी. हां सिर्फ वह रहता है वह. कोई सुधा नहीं रहती.’ लेकिन वह बोला नहीं. चुप रहा. पुराने कपड़े वाली अपने छोकरे के साथ चली गई. उस ने सोचा, ‘अब और वह घर पर बैठा रहा तो कोई न कोई सुधा को पूछता हुआ चला आएगा और उस के अचानक चले जाने का एहसास दिलाता रहेगा. कितना बड़ा झूठ छोड़ गई है सुधा अपने पीछे. यहां न लौटने का निश्चय कर के भी वह इन सब लोगों को अपने लौटने का यकीन दिला गई है. यहां न होते हुए भी यहां होने का एक एहसास छोड़ गई है.’

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जब वह मां के यहां पहुंचा तब बूंदाबांदी होने लगी थी और बरामदे में बैठी मां तेजतर्रार आवाज में पिताजी को जलीकटी सुना रही थीं.

‘‘अब बस भी करो, मां,’’ आदर्श मां को समझा रही थी.

‘‘नहीं, मैं ने बहुत झेला है, अब और नहीं झेल सकती,’’ कह कर मां अपना पुराना राग अलापने लगीं जो वे कईर् बार सुना चुकी हैं.

पापा अब तक चुप थे. लेकिन अब भड़क उठे और किसी गरजतेबरसते बादल की तरह मां के इर्दगिर्द मंडराते हुए ऊंचनीच सुनाने लगे.

‘‘पापा, आज भैया के सामने तो चुप रहिए,’’ आदर्श गिड़डि़ाई.

‘‘अरे, तेरा भैया पराया थोड़े ही है. तू उसे डबल रोटी का उपमा खिला दे. आज मुझे इन से निबट लेने दे.’’

वह आदर्श के साथ दूसरे कमरे में चला गया. मां और पापा दोनों एकदूसरे से ऐसे झगड़ने लगते हैं जैसे अब वे एकदूसरे के साथ नहीं रह पाएंगे. लेकिन थोड़ी देर बाद वे फिर हंसनेबतियाने लगते हैं. अपने मांपापा का यह धूपछांही रंग उस की समझ में नहीं आता.

‘‘बात क्या हुई थी?’’

‘‘मां को एक लड़का पसंद आ गया और वे मेरे हाथ पीले करना चाहती हैं. लेकिन पापा चाहते हैं कि मैं कम से कम डिगरी तो ले लूं. लेकिन मां को डर है कि कहीं मैं भी तुम्हारी तरह प्रेमविवाह न कर लूं,’’ कहतेकहते आदर्श का चेहरा तमतमा आया.

उस ने आहत भाव से आदर्श को देखा.

Serial Story- कितने झूठ: भाग 3

‘‘कभीकभी लगता है, भैया, तुम ने अच्छा ही किया. तुम इस लड़ाईझगड़े से दूर रहे हो. ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन खटपट न होती हो.’’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया. सिर्फ मूकभाव से खिड़की से आसमान को देखने लगा. बाहर 2 बडे़बडे़ बादल आपस में टकराए. जोरों की गड़गड़ाहट हुई और मामूली सी झड़ी ने मूसलाधार बारिश का रूप ले लिया.

‘‘भैया, इस बार भी सुधा को नहीं लाए?’’उस ने अचकचा कर आदर्श की ओर देखा.

‘‘क्या बात है, भैया, तुम आज कुछ उदासउदास से हो?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. मां ने तुम्हें उपमा देने के लिए कहा था,’’ कह कर आदर्र्श चली गई.

जहां वह बैठा था, खिड़की से वहां तक बौछार आने लगी थी और वह उस हलकी सी फुहार से भीग कर एक सुखद झुरझुरी सी लेने लगा. सुधा से मुलाकात के प्रथम महीनों से भी वह ऐसी ही सुखद झुरझुरी से भर उठा था.

खंजन सी आंखें, चौड़ा चेहरा, दरमियाना कद, गोरीचिट्टी, हंसे तो हरसिंगार के फूल झड़ जाएं. किसी पार्टी में उस की एक झलक पा कर वह उसे पाने के लिए उन्मत्त सा हो उठा था. किसी तरह परिचय कर के उस ने उस से पहले दोस्ती की और फिर शादी करने का प्रस्ताव रख दिया था. लेकिन मां बौखला उठी थीं. जहर खा कर मरने की धमकी देने लगी थीं.

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पर वह अपने निर्णय से डिगा नहीं और पापा ने कह दिया था कि उस से संबंध जोड़ने से पहले तुम्हें हमारे साथ संबंध तोड़ना पड़ेगा.

विवश हो उस ने कोर्टमैरिज कर ली थी. उस शादी में सिर्फ सुधा के मांबाप और रिश्तेदार शामिल हुए थे. उस के घर वालों की तरफ से कोई नहीं आया था. एक साल तक वह उन से अपनेआप को बेहद कटाकटा सा महसूस करता रहा था. फिर जब उसे निमोनिया हो गया था तो मां दौड़ीदौड़ी आईर् थीं और उस की तीमारदारी में लग गई थीं. उस के बाद हर इतवार को यहां आ कर दोपहर का भोजन करने का सिलसिला चालू हुआ था.

‘‘यह लो उपमा, मां ने तुम्हारे लिए ही बनाया है,’’ आदर्श ने उसे एक प्लेट देते हुए कहा.

उपमा खातेखाते उस ने पूछा, ‘‘हर्ष कहां गई है?’’

‘‘ट्यूशन पढ़ने.’’

‘‘और नवीन?’’

‘‘क्रिकेट मैच खेलने. मैं ने तो बहुत कहा कि बारिश के आसार हैं, मत जाओ. मगर वह माना ही नहीं.’’

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वह धीरेधीरे उपमा खाने लगा. लेकिन लग रहा था जैसे वह दूर कहीं खोया हुआ है.

‘‘तुम खुश तो हो न, भैया?’’

‘‘हूं, क्यों, क्या बात है?’’

‘‘नहीं, यों ही पूछा.’’

उस ने अर्थभरी दृष्टि से देख कर पूछा, ‘‘तुम्हें सुधा तो नहीं मिली थी?’’

‘‘मिली तो थीं.’’

वह उठ कर व्यग्रभाव से टहलने लगा और बारबार आदर्श को जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखने लगा.

‘भैया, मैं ने तुम्हें परेशान कर दिया?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ कह रही थी वह?’’

‘‘पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’

‘‘किस दिन?’’ तपाक से उस ने पूछा.

‘‘जिस दिन तुम दोनों नवीनचंद्र के बेटे की शादी में गए थे.’’

‘‘यह तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘फिर तो सुधा ने तुम्हें सबकुछ बता दिया होगा?’’

‘‘सुधा ने जो कुछ बताया वह बाद में बताऊंगी. पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’

‘‘उस दिन, हम दोनों सजधज कर नवीनचंद्र के बेटे की पार्टी में गए थे और हमें जिस युवक ने आइसक्रीम ला कर दी, सुधा उसी को एकटक देखने लगी. वैसे, वह युवक था भी स्मार्ट और गोराचिट्टा. उस की कालीकाली आंखें बेहद चमक रही थीं और उस के घने काले बाल देख कर ऐसा लगता था जैसे उस ने कनटोप पहन लिया हो,’’ कहतेकहते वह अचानक रुक गया. एक क्षण के बाद फिर बोला, ‘‘वह आइसक्रीम दे कर चला गया और हाल में दूसरों को आइसक्रीम देने लगा. लेकिन मैं ने गौर किया कि सुधा की नजरें बारबार उसी को ढूंढ़ रही हैं. जब वह दोबारा हमारे पास आइसक्रीम ले कर आया तो हम ने उसे मना कर दिया. लेकिन सुधा उस से एक और मांग बैठी. वह लेने चला गया.

‘‘मैं ने सुधा से पूछ लिया, ‘तुम इसे जानती हो?’’’

‘‘वह जैसे घबरा गई. ‘नहीं, नहीं तो.’

‘‘मैं ने सोचा, वाकई शायद नहीं जानती होगी और मैं अपने मित्र के साथ बातचीत करने लगा. वह भी अपनी सहेली के साथ गपें मारने लगी. इतने में वही युवक आइसक्रीम ले आया और सुधा की सहेली उसे देख कर जैसे चहक उठी, अरे, यह तो तेरा जीवन है.

‘‘युवक शायद परेशान हुआ. ‘आप कुछ लेंगी?’ उस ने सुधा की सहेली से पूछा. ‘मेरे लिए भी एक आइसक्रीम ला दीजिए.’ वह युवक चला गया.

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‘‘‘सुधा, तू तो कहती थी कि…यह जीवन कहां से आ गया?’

‘‘मैं ने उन की बातचीत के यही टुकड़े सुने. मेरे अंदर कुछ दरक सा उठा. मैं सोचने लगा, न जाने आज तक सुधा कितने झूठ बोलती रही है मुझ से. मुझे कुछ भरभरा कर बहता हुआ सा महसूस हुआ. फिर भी मैं ने उस से कुछ नहीं कहा. सोचा, घर चल कर उस से पूछूंगा कि यह जीवन कौन है? कब से जानती है वह उसे? लेकिन घर पहुंचते ही मेरा विचार बदल गया और मैं ने सोचा कि देखें कब तक वह इस झूठ पर परदा डाले रखती है.

‘‘मेरे मन में एक ज्वालामुखी सा धधक रहा था और मैं उस के फटने की आशंका से चुप रह गया. अंदर ही अंदर घुटता रहा. लेकिन मैं ने कुछ नहीं कहा. 2 दिन संवादहीन स्थिति को जीते हुए बीत गए और ऐसा लगा जैसे हम दोनों के बीच शीशे की दीवार बन गईर् है. आखिर तीसरे दिन सुधा ने वह शीशे की दीवार तोड़ दी और मुझे ऐसा लगा जैसे कांच के अनगिनत टुकड़े मेरे सारे बदन में चुभ गए हैं.

‘‘सुधा ने मुझ से कहा, ‘तुम अंदर ही अंदर क्यों घुट रहे हो, यह मैं जानती हूं. चाहा था जिस बात पर परदा पड़ता आया है वह तुम्हें बताऊं ही नहीं, लेकिन अब बगैर बताए रह नहीं सकती. एक छोटे झूठ की वजह से हमारे बीच जो यह दरार सी पड़ गई है वह शायद मेरे सच बताने से पट जाए. वैसे, उम्मीद कम है. लेकिन फिर भी मैं आज सारी हकीकत बता देती हूं.

Serial Story- कितने झूठ: भाग 4

‘‘ ‘जिस ने मुझे आइसक्रीम दी थी वह जीवन नहीं, उस का भाई है. वह युवक भी हूबहू जीवन जैसा लगता है, वैसा ही स्मार्ट, गोराचिट्टा, चमकती आंखें और कनटोप जैसे घने काले बाल. जीवन मेरे साथ कालेज में पढ़ता था. उसे स्टेज का बहुत शौक था. कालेज के हर ड्रामे में वह जरूर हिस्सा लेता था और मैं उस की थर्राती आवाज के जादू से सम्मोहित थी. जब भी उस का नाटक होता तब मैं सब से आगे जा कर बैठ जाती थी और नाटक खत्म होने के बाद सब से पहले उसे फूल भेंट कर उस के अभिनय व उस की थर्राती आवाज की प्रशंसा  कि या करती थी.’

‘‘मुझे कुछ चुभ सा गया. मैं ने तड़प कर कहा, ‘ऐसा ही था तो उस से तुम ने शादी क्यों नहीं कर ली?’

‘‘उस ने बेलाग शब्दों में कहा, ‘शायद कर भी लेती, अगर डिगरी लेने जाते वक्त मोटरसाइकिल दुर्घटना में उस की मृत्यु न हो गई होती.’

‘जीवन जिंदा नहीं है?’

‘नहीं.’

‘यह बात तुम ने मुझे पहले क्यों नही बताई?’

‘‘उस ने कोई जवाब नहीं दिया. वह होंठ भींच कर दबे स्वर में सुबकने लगी. उस के पास जा कर न तो मैं ने उस की पीठ सहला कर उस के आंसू ही पोंछे और न सांत्वना के दो शब्द ही कहे. वह बैठी सुबकती रही और मैं बैठा सोचता रहा, ‘पिछले 8 सालों से यह औरत अपने पहले प्रेमी की थर्राती आवाज से सम्मोहित हो कर उस की स्मृतियां संजोए मेरे साथ जीने का नाटक करती रही है. यह मक्कार है. यह झूठी है. अब इस झूठ के साथ और मैं नहीं रह सकता.’’’

‘‘फिर?’’ आदर्श ने पूछा.

‘‘अगले दिन शनिवार था और हर शनिवार को वह मायके जाती थी. उस ने सवेरे ही पूछा ‘आज मैं मायके जाऊं?’

‘‘ ‘हां, हां,’ मैं ने कहा.

‘‘ ‘सिकंदराबाद से 2 दिनों के लिए आज मेरी बहन आ रही है. मैं 2 दिन मायके रह आऊं?’

‘‘ ‘जैसा तुम चाहो.’’’

‘‘और उस के बाद न वह आई और न तुम ने उसे बुलाया?’’ आदर्श ने पूछा.

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उस ने जवाब नहीं दिया. परदा सरसराया. किसी की परछाई सी देख कर वह पूछ बैठा, ‘‘अंदर कोई है क्या?’’

‘‘कोई नहीं, हवा से परदा हिल गया होगा.’’उस ने समझा शायद भ्रम हुआ होगा.

‘‘सुधा ने तुम्हें क्या बताया?’’

‘‘यह रक्षा कौन है?’’

‘‘रक्षा?’’ उस ने अचकचा कर पूछा और चकित भाव से आदर्श को देखा, ‘‘तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘फिर क्यों पूछती हो?’’

‘‘क्या यह सच है कि रक्षा की आंखें खंजन जैसी और चेहरा चौड़ा है. वह गोरीचिट्टी है और उस का कद दरमियाना है और वह जब हंसती थी तो हरसिंगार के फूल झड़ते थे.’’

‘‘हां.’’

‘‘और वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ती थी और तुम उस से बेहद प्यार करते थे.’’

‘‘हांहां,’’ उस ने खीझ कर कहा.

‘‘और वह अपने मांबाप के साथ इंगलैंड चली गई?

‘‘यहां उन की दुकान नहीं चल रही थी, और उन की आर्थिक स्थिति बेहद बिगड़ी हुई थी. वे लोग चुपचाप अपनी दुकान बेच कर इंगलैंड चले जाना चाहते थे, ताकि रक्षा के पिता को यहां किसी के यहां ताबेदारी न करनी पड़े.

‘‘और रक्षा तुम्हें यह आश्वासन दे कर चली गई थी कि वह तुम्हें इंगलैंड बुला लेगी और उस ने तुम्हें इंगलैंड बुला लेने के बजाय वहीं किसी यूरोपियन से ब्याह कर लिया और तुम बेहद टूट गए. तुम अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सके और नौकरी कर ली. फिर एक पार्टी में अचानक सुधा की एक झलक पा कर तुम बेचैन हो उठे. उस का परिचय पा कर तुम ने उस से मेलजोल बढ़ा लिया और उस से शादी करने के लिए तुम तैयार हो गए. महज इसलिए कि सुधा की शक्ल कुछकुछ रक्षा से मिलती है. खंजन जैसी आंखें…’’

उस ने आदर्श की बात बीच में ही काट दी और बोला, ‘‘यह सब तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘लेकिन मैं ने तो उसे कभी कुछ नहीं बताया. उसे यह सब कैसे मालूम हुआ?’’ यह कहने के साथ वह उठ कर चहलकदमी करने लगा.

‘‘एक दिन घर की सफाई करते वक्त उसे तुम्हारे सारे खतोकिताबत, फोटो, डायरियां आदि मिल गई थीं.’’

‘‘फिर भी उस ने मुझ से कुछ नहीं पूछा?’’

लेकिन आदर्श अपनी ही रौ में कहती गई, ‘‘क्या यह सच नहीं है कि तुम ने सुधा को सुधा के रूप में नहीं, रक्षा के रूप में स्वीकारा था. उसे रक्षा के सांचे में ढालते रहे. रक्षा की तरह हलके शेड्स के कपड़ों में सजनेसंवरने के लिए उसे बाध्य करते रहे. पहले तो वह सोचती रही कि वह तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रही है और उस का जीवन सार्थक हो गया है लेकिन तुम अतीत के एक कालखंड को फिर जीने के लिए लालायित थे. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है और उस में कोई दूसरा जी उठा है.’’

वह बैठ गया और आंखें नीची किए सिर्फ उंगलियां चटकाने लगा.

‘‘उस ने अंगरेजी में एक कहानी पढ़ी थी, जिस में एक पति, जो कलंदर था, अपनी पत्नी को रीछ की खाल ओढ़ा कर उस का खेल दिखा कर अपनी जीविका जुटाता है. उसे भी ऐसा ही लगा जैसे वह किसी दूसरे की खाल ओढ़ कर तुम्हारी पत्नी होने का अभिनय कर रही है.’’

आदर्श की बातें सुन कर वह अजीब सी झेंप से भर उठा. वह उठ कर खिड़की के पास चला गया. बारिश थम गई थी और बादल छंट चुके थे. आसमान धुले कपड़े की तरह साफ चमक रहा था. इतने में कोई आवाज सुन कर वह मुड़ा. आदर्श वहीं बैठी थी, ‘‘वह उलटी कौन कर रहा है?’’

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‘‘शायद सुधा भाभी होंगी.’’

‘‘क्या, सुधा यहां आई हुई है, तुम ने पहले क्यों नहीं बताया?’’ वह बाथरूम की तरफ दौड़ा. बाथरूम के बाहर झुकी सुधा उलटी कर रही थी और मां उस की पीठ सहला रही थीं.इतने में हड़बड़ाए हुए पापा आए, ‘‘अरे भई, क्या हुआ इसे? बेटा, डाक्टर को तो फोन करो.’’

मां बोली, ‘‘न बेटा, फोन मत करना. विकास के पापा, अब तुम दादा बनने वाले हो. मुंह मीठा करो…’’

Serial Story- कितने झूठ: भाग 1

वह सुधा को मोबाइल मिला कर पूछने ही वाला था कि मां के यहां चल रही हो या नहीं. लेकिन उस ने सोचा कि अगर उसे मां के यहां चलना होता तो वह खुद न फोन कर देती. हर इतवार की दोपहर का भोजन वे दोनों मां के यहां ही तो करते हैं. मां हर इतवार को तड़के ही उठ जाती हैं और उन के लिए स्पैशल खाना बनाने लगती हैं.

जब भी वह सुधा के साथ जाता है, खाने की मेज तरहतरह के पकवानों से सजी रहती है और मां उसे ठूंसठूंस कर खिलाती हैं. अगर वह इत्तफाक से जा नहीं पाता है तो उस दिन वे टिफिन कैरियर में सारा खाना भर कर उस के यहां चली आती हैं और उसे खिलाने के बाद ही खुद खाती हैं. आज भी मां उस के लिए खाना बनाने लग गई होंगी. उस ने मां को फोन किया, उधर से पापा बोल रहे थे, ‘‘हैलो, कौन, विकास?’’

‘‘हां, मैं आज…’’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करता, उधर से मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘आज तुम आ रहे हो न?’’

‘‘हां, मां.’’

‘‘मैं तो घबरा गई थी कि कहीं तुम आने से इनकार न कर दो.’’

‘‘लेकिन मां, सुधा अभी मायके से नहीं लौटी.’’

‘‘नहीं लौटी तो तुम आ जाना. आ रहे हो न?’’

‘‘हां मां,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

तब तक’’ गैस पर चाय उफन कर बाहर आई और गैस बुझ गई.हड़बड़ा कर उस ने गैस बंद कर दी और चाय छान कर एक कप में उड़ेलने लगा. कप लबालब भर गया. अरे, यह तो 2 जनों की चाय बना बैठा. अब उसे अकेले ही पीनी पड़ेगी. वह बैठ कर चाय पीने लगा.

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‘सब्जी ले लो, सब्जी’, गली में आवाज गूंजी.अखबार उठा कर वह सुर्खियां पढ़ने लगा. अचानक दरवाजे की घंटी बज उठी. वह उठा और उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने सब्जी वाली खड़ी थी. उस ने पूछा, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’

‘‘अभी नहीं आईं.’’

?‘‘कब आ रही हैं?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘मुझ से तो कहा था कि दोचार दिनों में आ जाऊंगी, लेकिन आज पूरे 15 दिन हो गए.’’

‘‘हां.’’

‘‘साहब, आप खाना कहां खाते हो?’’

‘‘होटल में.’’

‘‘जरा हाथ बढ़ा देना,’’ सब्जी वाली बाई ने कहा.उस ने झल्ला उठाने में उस की मदद कर दी.

‘‘बगैर औरत के कितनी तकलीफ होती है यह तो सोचती ही नहीं आजकल की औरतें. शादी के बाद कैसा मायके का मोह? सच मानोगे, साहब, गौने के बाद मैं सिर्फ 2 बार गई हूं मायके और वह भी भैयाबापू के कूच कर जाने की खबर पा कर. और यहां, ऐसा महीना नहीं गुजरता जब बीबीजी मायके न जाती हों,’’ सब्जी वाली ने कहा.

उस ने कहना चाहा, ‘सच तो यह है कि अब हमारा निवाह नहीं होता और सुधा मुझे हमेशाहमेशा के लिए छोड़ कर चली गई है.’ लेकिन उसी पल उस ने सोचा कि इस सब्जी वाली से यह सब कहने की क्या जरूरत है. जब

सुधा उसे कुछ नहीं बता गई, तो वह क्यों बताए?

इसी बीच, तरन्नुम में आवाज लगाता हुआ सामने से फूल वाला आता दिखाई दिया. अब यह भी छूटते ही सुधा के बारे में पूछने लगेगा. उस का जी चाहा कि वह दरवाजा बंद कर अंदर चला जाए और किसी को जवाब ही न दे. सुधा इन सब लोगों से बोल तो ऐसे गई है जैसे वह लौटी आ रही है.

‘‘बीबीजी आ गईं, साहब?’’ फूल वाले ने फूल देते हुए कहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘कब आ रही हैं?’’

उस ने झुंझला कर कहना चाहा, ‘पूछो जा कर उसी से,’ लेकिन वह बोला, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘इस बार बहुत दिन लगा दिए.’’

वह सिर्फ दांत कटकटाता रह गया. उस ने मुड़ कर दरवाजा बंद करना चाहा कि महरी सामने खड़ी थी, ‘‘चौकाबरतन कर दूं, साहब?’’

‘‘हांहां.’’

महरी ने चौके से 2-4 बरतन समेटे और मिनटों में मांज कर रसोई साफ कर दी. फिर झाड़ू ले कर बरामदा साफ करने लगी. वह कूड़ा बटोरती हुई बोली, ‘‘बीबीजी ने इस बार कुछ ज्यादा दिन नहीं लगा दिए?’’

‘‘हां.’’

‘‘वापस तो आएंगी न?’’

‘‘हां,’’ कह कर फिर अचकचा कर उस ने पूछा, ‘‘सुना, तूने दूसरा आदमी कर लिया है.’’

‘‘लेकिन अब पछता रही हूं, बाबू. इस से पहला वाला आदमी अच्छा था. यह मर्दुआ तो रोज रात को पी कर आता है और लातोंघूसों से पीटने लगता है. उस के पीटने का भी कोई गम नहीं है, बाबू. लेकिन जब वह पूछने लगता है कि बोल तेरा पहला आदमी कैसा था, तुझे कैसे प्यार करता था. औरतें अपने पहले आदमी को भूल नहीं पातीं. जरूर तू अपने पहले आदमी को याद करती होगी. सचसच बता, याद करती है न? झूठ बोलती हूं तो सच उगलवाना चाहता है और सच बोलती हूं तो उसे गवारा नहीं होता. इस झूठ और सच के बीच में मैं जैसे अधर में लटकी हुई जी रही हूं. सोचती हूं कि न मैं ने पहले आदमी को छोड़ा होता और न दूसरा आदमी कर लिया होता. अपने ही गलत निर्णयों के एहसासों से बिंधी हुई हूं मैं,’’ कह कर सुबकने लगी.

उस ने अपनी दृष्टि खिड़की की तरफ फेर ली. आसमान में कालेकाले बादल छा गए थे व सुबह बेहद उदास, भीगी और उमसभरी हो उठी थी.

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‘‘मैं तो अपना ही दुखड़ा ले बैठी. तुम अपनी सुनाओ, बाबू? इन 15 दिनों में तुम बीबीजी से मिले तो होगे?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने खोखले स्वर में कहा.

‘‘एक ही शहर में रहते  हुए?’’ चकित भाव से महरी ने पूछा, ‘‘बीबीजी ने फोन भी नहीं किया?’’

उस ने नकारात्मक सिर हिला दिया.

‘‘बीबीजी से आप का कोई झगड़ा हुआ था, साहब?’’

‘‘नहीं तो,’’ वह व्यग्रभाव से उठ कर टहलने लगा.

‘‘वही तो…मैं भी घरघर घूमती हूं. ऐसा घर नहीं देखा जहां मियांबीवी न झगड़ते हों. लेकिन आप दोनों को तो मैं ने कभी उलझते हुए नहीं देखा.’’ फिर कमरे को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आज ये परदे बदल दूं?’’

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