
हरदयाल अपनी योजना और भी विस्तार में समझाता, लेकिन तभी चौधरी साहब ने उसे टोक कर मुख्य मुद्दे पर बात करना जरूरी समझा.
आने वालों में अध्यापक ज्ञानेंद्र, वकील सुरेंद्रनाथ, सरपंच मोतीलाल, नेता ज्वालाप्रसाद और रमन उपस्थित थे. हरदयाल एक दूसरे सिलसिले में वहां आया था.
बात रमन ने ही शुरू की, ‘‘चौधरी साहब, अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है. हम ने पूरे जिले की नाका चुंगियों का ठेका लिया है. ट्रैफिक से चुंगी वसूल करते हैं. 10 प्रतिशत पार्टी के दफ्तर को देते हैं…’’
‘‘रुकिए, सारी बातें समझदारी के साथ स्पष्ट करनी चाहिए. ऐसा करते हैं, हरदयालजी, आप सब 11 तारीख को हम से मिलना, जो भी उचित होगा, तय कर लेंगे,’’ चौधरी साहब ने रमन की बात बीच में ही काट दी.
हरदयाल चुपचाप उठ कर बाहर चला गया.
‘‘अरे भाई, तुम लोगों में इतनी भी बुद्धि नहीं है कि कोई अन्य बाहरी आदमी बैठा है. ठीक है, आगे कहो.’’
‘‘आगे क्या कहें? 20 प्रतिशत आप के खाते में डाल देते हैं. 20 प्रतिशत सरकारी कामकाज के लिए, खानेपिलाने के लिए रख छोड़ते हैं. बकाया 50 प्रतिशत में हम 4 लोग भागीदार हैं.’’
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‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या? वह ज्ञानीशंकर का लड़का नर्मदा अकड़ रहा है. 100-50 लड़के इकट्ठे कर लिए हैं और लड़नेमरने को आमादा है.’’
‘‘ठीक है, ठीक है, कुछ फूल उसे भी भेंट कर दो.’’
‘‘नहीं, चौधरी साहब, वह हरिश्चंद्र की औलाद बनता है. ऐसे लेनेदेने से तो नहीं टूटेगा. और भी जलील करेगा सब के आगे.’’
‘‘चांदी का जूता बहुत भारी होता है, नरेंद्रजी.’’
‘‘चौधरी साहब, नर्मदा अक्खड़- मिजाज और सनकी नौजवान है. उस ने अपना बहुमत बना लिया है. तब तो एक ही उपाय है. उसे साफ कर दिया जाए.’’
‘‘छि:छि:, कैसी छोटी बातें करते हो. ऐसे सनकी और जिद्दी आदमियों की हमें बहुत जरूरत है. मैं कल तहसील आऊंगा खुद नर्मदा से बातें करूंगा. और कुछ?’’
अध्यापक ज्ञानेंद्र ने अपनी बात कही, ‘‘चौधरी साहब, हम ने जिले के परमिट आप की राय के अनुसार ही वितरित किए थे. सेठ भगवानदास को सीमेंट का परमिट दिया गया. मुंशी प्यारेलाल भजनलाल फर्म को मिट्टी का तेल, गोवर्धनप्रसाद को सौफ्ट कोक, अली मुहम्मद को गैस आदि के ठेके दिए गए. हम ने वसूली के लिए चक्कर भी लगाए, लेकिन अधिकांश ने कहा कि उन्होंने अपना धन आप को दे दिया है. यदि ऐसा है तो हमारा हिस्सा दिलवा दीजिए.’’
‘‘देखो, मास्टर ज्ञानेंद्रजी. जब तुम एक निजी पाठशाला में मास्टरी करते थे तो चेहरे पर झुर्रियां थीं, आंखों में गड्ढे थे और कुरतापाजामा में पैबंद लगे थे. तुम्हारी पत्नी क्षयरोग की मरीज लगती थी और बच्चे ऐसे लगते थे जैसे सीधे अनाथाश्रम से आए हों.
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‘‘तुम 350 रुपए और मुट्ठीभर इज्जत ले कर बीमार जिंदगी से लड़ रहे थे. मैं ने तुम्हें सड़क से उठा कर मकान में रखा, मकान में दुकान लगवाई, दुकान में चक्की लगवाई, चक्की की कमाई से तुम्हारी रोटियां चल रही हैं.
‘‘चुनाव में तुम्हें विधान सभा का सदस्य बनाने के लिए 1 लाख रुपए खर्च किए हमारे 2 आदमी किशन और रमेश चुनाव युद्ध में काम आ गए. हम ने उन्हें तालाब में फिंकवा कर मामला रफादफा कर दिया. तुम अच्छे वोटों से जीते, तुम्हारा नाम भी हुआ.
‘‘अब रही हिसाबकिताब की बात. भाई मास्टर, पहले मुझे अपने 1 लाख रुपए निकालने हैं. 20-20 हजार रुपए मृत व्यक्तियों के रिश्तेदारों को देने हैं. अभी तो सिर्फ 80 हजार ही वसूल हुए हैं. आप लोग 60 हजार रुपए का प्रबंध कर के मुझे दिलवा दो. फिर चाहो तो मेरा हिस्सा भी तुम खा जाना.
‘‘गांधी, नेहरू जैसे बड़े नेता भी तो चुपचाप सब देखते थे. हिस्सेपट्टे से दूर रहते थे. मेरे पास तो ईमानदारी की कमाई ही बहुत है,’’ चौधरी साहब ने पैर सोफे से नीचे लटका दिए.
‘‘चौधरी साहब, यह तो ठीक है कि अब मेरा पक्का मकान है, लोगबाग इज्जत से देखते हैं, सेहत सुधर गई है, लेकिन राजनीति से इस का कुछ लेनादेना नहीं है.
मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.
पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.
यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’
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मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.
रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.
लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.
मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’
डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.
अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.
इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’
मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’
दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’
अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’
लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.
सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.
जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.
घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.
मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’
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एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’
वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’
खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.
दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’
तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.
सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’
मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.
मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.
उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’ दीदी से कुछ जवाब देते न बना.
मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’
समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?
और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.
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एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’
बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.
अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’
‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’
खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.
मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’
मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.
आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’
भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’
एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’
आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.
खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.
मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’
कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.
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घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.
प्रमोद ने अपने घर में झाड़ूपोंछा करने वाली लड़की संजू से कहा था कि अगर वह अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग करने वाली किसी स्टूडैंट को जानती है और जिसे पार्टटाइम नौकरी की जरूरत है, तो उसे ले आए.
संजू 3 दिन बाद जिस लड़की को लाई, वह कद में कुछ कम ऊंची, पर गठा हुआ बदन, गोल चेहरा, रंग साफ, बाल बौबकट थे, जो उस के गोल चेहरे को खूबसूरत बना रहे थे. पहनावे से वह आम लड़की दिखती थी. उस की उम्र का अंदाजा लगाना भी मुश्किल था.
जो भी हो, प्रमोद को अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग जानने वाले की जरूरत थी, इसलिए उस ने ज्यादा पूछताछ किए बिना ही उस लड़की को अपने दफ्तर में टाइपिस्ट का काम दे दिया.
उस लड़की ने अपना नाम जानकी बहादुर बताया था. शक्ल से वह किसी उत्तरपूर्वी प्रदेश की लगती थी.
बाद में प्रमोद ने नाम से अंदाजा लगाया कि जानकी बहादुर नेपाल से आए किसी परिवार की लड़की है. उसे उस लड़की की राष्ट्रीयता से कुछ लेनादेना नहीं था, इसलिए इस ओर ध्यान भी नहीं दिया.
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शुरूशुरू में प्रमोद जानकी को डिक्टेशन देता था, ज्यादातर ईमेल, बिजनैस लैटर लिखवाता था. चूंकि वह कौमर्स की छात्रा थी, तो लैटर का कंटैंट समझने में उसे मुश्किल नहीं हुई, लेकिन टाइपिंग में स्पैलिंग की गलतियां होती थीं. हो सकता है कि वह प्रमोद का अंगरेजी उच्चारण समझ न पाती हो या फिर हिंदी मीडियम से कौमर्स करने के चलते कौमर्स के तकनीकी अंगरेजी शब्द उस के लिए अजनबी थे, इसलिए प्रमोद उस को डिक्टेशन न दे कर खुद चिट्ठियां लिख कर देने लगा.
1-2 महीने में ही प्रमोद को यह देख कर बेहद हैरानी हुई कि अब उस लड़की द्वारा टाइप की गई चिट्ठियों में से गलतियां नदारद थीं.
एक दिन जानकी ने प्रमोद से कहा, ‘‘सर, क्या आप मुझे फुलटाइम के लिए दफ्तर में रख सकते हैं?’’
‘‘तुम दफ्तर का और क्या काम कर सकती हो?’’
‘‘आप जो भी करने को कहेंगे?’’
‘‘और कालेज?’’
‘‘मैं प्राइवेट पढ़ाई कर रही हूं.’’
‘‘ठीक है…’’ फिर प्रमोद ने उस से पूछा, ‘‘हिंदी की टाइपिंग कर सकोगी?’’
‘‘10-15 दिन में सीख लूंगी,’’ जानकी ने बड़े यकीन के साथ कहा.
प्रमोद के पास इस बात पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं थी, क्योंकि 2-3 महीनों में वह काम के प्रति उस की लगन देख कर हैरान था.
जानकी न तो दफ्तर बंद होते ही घर भागती थी और न ही उस ने कभी बहाना किया कि सर, मेरे पास काम बहुत है, या फिर 5 बज गए हैं.
बौस को और क्या चाहिए? बस, ज्यादा से ज्यादा काम और अच्छे ढंग से किया गया काम.
देखते ही देखते प्रमोद जानकी पर पूरी तरह निर्भर हो गया. वह न केवल दफ्तर के कामों में माहिर हो गई, बल्कि प्रमोद ने दफ्तर के बाहर का काम भी उसे सौंप दिया. स्टेशनरी खरीदना, और्डर भेजना, रिसीव करना, हिसाबकिताब रखना वगैरह. वह एकएक पैसे का हिसाब रखती थी और सच पूछो तो उस से हिसाब मांगने की प्रमोद को कभी जरूरत नहीं पड़ी.
एक बार प्रमोद गंभीर रूप से बीमार पड़ गया था. जानकी जानती थी कि उस का शहर में अपना कोई नहीं है, तो वह एक हफ्ते तक अस्पताल में रातदिन एक नर्स की तरह उस की देखभाल करती रही.
प्रमोद ने इस दौरान दफ्तर में अपना काम जानकी को करने को कहा, तो उस ने बड़ी खुशी से उसे स्वीकारा और निभाया.
अस्पताल में प्रमोद ने जानकी से पूछा था, ‘‘मेरे लिए जो तुम इतना कर रही हो, क्या
इस के लिए तुम ने अपने मम्मीपापा से पूछा था?’’
‘‘हां सर, रात में अस्पताल में रहने के लिए जरूर पूछा था.’’
अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने प्रमोद से कहा था, ‘‘उम्र ज्यादा होने के चलते आप का शरीर पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है, इसलिए अभी कुछ समय और आराम की जरूरत है. कुछ दिन आप दफ्तर के कामों में मत पडि़ए.’’
डाक्टर की सलाह मान कर प्रमोद ने दफ्तर से 3-4 महीने की छुट्टी लेने का निश्चय किया. वह अपने बेटे के पास बेंगलुरु जाना चाहता था. पर इतने लंबे समय तक दफ्तर कौन संभालेगा?
प्रमोद ने कुछ सोच कर स्टाफ की मीटिंग बुलाई और बात की.
प्रमोद जानकी को जिम्मेदारी सौंपना चाहता था, पर उस ने जैसे ही उस का नाम लिया, स्टाफ की दूसरी लड़कियां भड़क गईं.
‘‘सर, वह जूनियर है,’’ एक लड़की बोली,
‘‘आप को यह जिम्मेदारी मिसेज दीक्षित को देनी चाहिए, जो पिछले
10 साल से इस दफ्तर में काम कर रही हैं,’’ दूसरी लड़की बोली.
‘‘सर, जानकी को दफ्तर में आए डेढ़ साल ही हुआ है और आप उस को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहते हैं?’’ तीसरी लड़की ने कहा.
‘‘वह नेपाली है…’’ एक और लड़की बोली.
अब प्रमोद से सहन नहीं हुआ. डाक्टर ने कहा था कि तनाव से बचना, ब्लडप्रैशर बढ़ सकता है. पर यह आखिरी वाक्य उसे गाली जैसा लगा, तो उसे कहना पड़ा, ‘‘तो क्या हुआ? हमारी संस्था के प्रति उस की निष्ठा आप सब से कहीं ज्यादा है. वह संस्था को अपना समझ कर काम करती है, केवल तनख्वाह के लिए नहीं…’’
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प्रमोद लैक्चर दे रहा था और स्टाफ सिर झुकाए सुन रहा था.
5 बजे दफ्तर बंद हुआ, तो मिसेज दीक्षित प्रमोद के पास आईं.
‘‘सर, मुझे आप से एक बात कहनी है,’’ मिसेज दीक्षित बोलीं.
‘‘उम्मीद है, तुम्हारी परेशानी सुन कर मेरा ब्लडप्रैशर नहीं बढ़ेगा,’’ प्रमोद ने कहा.
‘‘सर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं,’’ मिसेज दीक्षित ने कहा.
‘‘नहीं, बोलो,’’ प्रमोद बोला.
वे थोड़ी देर तक चुप रहीं. शायद सोचती रहीं कि बोलें कि न बोलें. फिर उन्होंने लंबी सांस ली और कहा, ‘‘सर, यह किसी के खिलाफ शिकायत नहीं है, पर आप को बताना जरूरी है. सर, जानकी जिस रेलवे कालोनी में रहती है, मैं भी वहीं रहती हूं. उस का और मेरा क्वार्टर दूर नहीं है.
‘‘सर, आप बुरा मत मानना. जानकी के पिता शराबी हैं. उन के घर में आएदिन लड़ाई होती रहती है. उधार की शराब पीपी कर उन पर इतना कर्ज हो गया है कि कर्ज देने वाले हर दिन उन के दरवाजे पर खड़े रहते हैं, गालीगलौज करते हैं. कालोनी वाले इस बात की शिकायत रेलवे मंडल अधिकारी से भी कर चुके हैं…’’
प्रमोद ने मिसेज दीक्षित की बात काट कर कहा, ‘‘तो इन बातों का हमारे दफ्तर से क्या संबंध है? या फिर जानकी का क्या संबंध है? ये बातें तो मैं भी जानता हूं.’’
‘‘जी…?’’ मिसेज दीक्षित की आंखें हैरानी से फैल गईं.
प्रमोद ने उन से कहा, ‘‘वह कुरसी खींच लीजिए और बैठ जाइए.’’
प्रमोद का दफ्तर एक अमेरिकी मिशनरी के पुराने बंगले में था. उस मिशनरी के लौट जाने के बाद प्रमोद की संस्था ने उस को खरीद लिया था. आधे में दफ्तर और आधे में उस का घर.
पत्नी की मौत के बाद प्रमोद अकेला ही कोठी में रहता था और संस्था चलाता था. संस्था प्रकाशन का काम करती थी और प्रमोद उस का संपादक था. सारे प्रकाशन की जिम्मेदारी उस पर ही थी.
प्रमोद ने मिसेज दीक्षित से कहा, ‘‘जानकी ने खुद मुझे अपने परिवार के बारे में बताया है. आज से 40 साल पहले जानकी के पिता उस की मां को भगा कर भारत में लाए थे.
‘‘वे नेपाल से सीधे जबलपुर कैसे पहुंच गए, यह वह भी अपनेआप में एक दिलचस्प कहानी है. पहले वे रेलवे के किसी अफसर के यहां खाना बनाते थे और उसी के गैस्ट हाउस में रहते थे.
‘‘परिवार में लड़ाईझगड़े तो तब शुरू हुए, जब जानकी की मां ने हर साल लड़कियों को जन्म देना शुरू किया. यह सिलसिला तभी रुका, जब एक दिन जानकी के पिता अचानक नेपाल भाग गए. उन की पत्नी अपनी 3 छोटीछोटी बेटियों के साथ जबलपुर में रह गईं.
‘‘वैसे, जबलपुर में नेपालियों की आबादी कम नहीं है. इन की वफादारी और ईमानदारी के चलते जहां भी चौकीदार की जरूरत पड़ती है, वहां ये लोग ही आप को मिलेंगे.
‘‘हां, अब होटलों में चाइनीज फूड बनाने वाले भी नेपाली मिलने लगे हैं. ऐसे ही दूर के एक रिश्तेदार ने 3 बच्चियों की मां को सहारा दिया. उस का अपना छोटा सा ढाबा था. बच्चियों को सिखाया गया कि उसे ‘मामा’ कहो.
‘‘बच्चियों के वे मामा समझदार थे. उन्होंने बिना देर किए तीनों लड़कियों को सरकारी स्कूल में भरती कर दिया.
‘‘मामा के साथ यह परिवार खुशीखुशी दिन बिता रहा था कि कुछ सालों बाद जानकी के पिता एक और नेपाली लड़की को ले कर जबलपुर आ टपके.
‘‘उन्होंने एक रेलवे अफसर को खुश कर उन के रिटायरमैंट के पहले रेलवे अस्पताल में मरीजों को खाना खिलाने की नौकरी पा ली. इतना ही नहीं, नौकरी के साथ रेलवे क्वार्टर भी मिल गया. उधर जानकी अपनी मां और बहनों के साथ अपने दूर के रिश्तेदार के साथ रह कर बड़ी हो रही थी.
‘‘जानकी की मां को खबर मिली कि जिस लड़की को उस के पति नेपाल से लाए थे, वह उन्हें छोड़ कर वापस नेपाल चली गई है. ढलती उम्र और अकेलेपन ने जानकी के पिता को अपने परिवार में लौटने के लिए मजबूर कर दिया.
‘‘लेकिन अब जबलपुर के हवापानी ने जानकी की मां को काफी समझदार बना दिया था. उन में सम्मान की भावना जाग चुकी थी और वे जान चुकी थीं कि उन का और उन की लड़कियों का फायदा किस के साथ रहने में है. लिहाजा, उन्होंने घर जाने से इनकार कर दिया.
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‘‘इस से उन के पति की मर्दानगी को गहरी ठेस लगी और वे अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए शराबी बन गए और रेलवे अस्पताल के एक सूदखोर काले खां से उधार पैसा ले कर वे शराब पीने लगे.
‘‘यह सब जानकी की मां से देखा न गया. पति की घर वापसी हुई, पर वे उन की लत न छुड़ा सकीं.
‘‘नशे की हालत में जानकी के पिता अपनी पत्नी को कोसते हैं, तो वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं. बेटियां अपने मांबाप में बीचबचाव करती हैं. कालोनी वाले तमाशे का मुफ्त मजा लेते हैं.
‘‘ऐसे माहौल में जानकी की मां का जिंदगी बिताना क्या आप के दिल में हमदर्दी पैदा नहीं करता मिसेज दीक्षित? अगर कोई कीचड़ से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, तो क्या हमें अपना हाथ बढ़ा कर उसे बाहर नहीं निकालना चाहिए?’’
मिसेज दीक्षित भरे गले से बोलीं, ‘‘सौरी सर.’’
चौधरी जगत नारायण राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी थे. सामने वाले को कैसे पटखनी देनी है और कैसे अपना उल्लू सीधा करना है, वह भलीभांति जानते थे. इसीलिए तो वह भ्रष्टाचार में लिप्त हो कर हजारों डकार जाते, किसी को खबर तक न होती.
दरबार जमा हुआ था. सबकुछ निश्चित कर लिया गया था. अब किसी को कोई परेशानी नहीं थी. पंडित गिरधारीलाल की समस्या का समाधान हो चुका था. रजब मियां के चेहरे पर भी संतुष्टि के भाव थे.
हां, कल्लू का मिजाज अभी ठीक नहीं हुआ था. उस ने भरे दरबार में चौधरी साहब की शान में गुस्ताखी की थी. नरेंद्र तो आपे से बाहर भी हो गया था, किंतु चौधरी साहब ने सब संभाल लिया था.
चौधरी जगतनारायण खेलेखाए घाघ आदमी थे. जानते थे कि वक्त पर खोटा सिक्का भी काम आ जाता है. फिर दूध देने वाली गाय की तो लात भी सही जाती है. उन्होंने बड़ी मीठी धमकी देते हुए कल्लू को समझाया था, ‘‘कल्लू भाई, थूक दो गुस्सा. धंधे में क्रोध से काम नहीं चलता. हम तो तुम्हारे ग्राहक हैं. ग्राहक से गुस्सा करना तो व्यवसाय के नियमों में नहीं आता.’’
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‘‘लेकिन चौधरी साहब, मैं अपने इलाके का शेर हूं, कुत्ता नहीं. कोई दूसरा गीदड़ मेरी हद में आ कर मेरा हक छीने, यह मुझे बरदाश्त नहीं होगा. वह रशीद का बच्चा, उस का तो मैं पोस्टमार्टम कर ही दूंगा.’’
‘‘कल्लू के मुंह से कौर छीनना इतना आसान तो नहीं है, जितना आप लोगों ने समझ लिया है. आज का फैसला आप के हाथ में है. लेकिन आगे का फैसला मैं अपनी मरजी से लिखूंगा. और हां, यह भी आप लोगों को बता दूं कि अपना आदमी जब बागी हो जाता है तो कहीं का नहीं छोड़ता.’’
‘‘तू क्या कर लेगा? तीन कौड़ी का आदमी. जानता नहीं जुम्मन की लंबी जबान काट कर फेंक दी थी. हरिशंकर आज भी जेल की चक्की पीस रहा है. कृपाराम मतवाला कुत्ते की मौत मरा था. आखिर, तू समझता क्या है अपनेआप को? चिड़ीमार कहीं का.
‘‘दोचार चूहे इधरउधर मार लिए तो बड़ा भेडि़या समझने लगा है अपनेआप को. सुन, हम राजनीति करते हैं. कोई भाड़ नहीं झोेंकते. तुझ जैसे तीन सौ पैंसठ घूमते हैं झाडू लगाते हुए. चल फूट यहां से,’’ नरेंद्र ने एक फूहड़ सी गाली बकी.
चौधरी साहब ने उसे रोक दिया, ‘‘नहीं नरेंद्र, कहने दो उसे, जो वह कहना चाहता है. उसे भी अपनी बात कहने का हक है. भई, देश में लोकतंत्र है. लोकतंत्र के तहत किसी को उचितअनुचित कुछ भी कहने से रोका नहीं जा सकता. बोलने दो इसे. यह समाजवाद का जमाना है. इसे कुछ गलत लगा है. इसे अपने दर्द को कहने का पूरापूरा हक है. फिर यह हमारा आदमी है. यह हमारे लिए कुछ भी सोचे, हम इस का बुरा नहीं सोच सकते.’’
‘‘हां, हरीश. तुम ध्यान रखना कल्लू भाई का. इसे जब भी कोई जरूरत हो तो उसे पूरी करना. इस समय इसे गुस्सा है. जब यह शांत हो जाएगा तो समझ जाएगा कि कौन अपना है, कौन पराया,’’ चौधरी साहब गांधीवादी मुद्रा में बुद्धआसन लगाए हुए थे.
लेकिन कल्लू एकदम चिकना घड़ा था. वह अपनी हैसियत जानता था. वह यह भी जानता था कि चौधरी साहब के बिना उस का गुजारा नहीं और यह भी मानता था कि अपनेआप को अधिक सस्ता और सुगम बनाने से इनसान की औकात घटती है.
अब चौधरी साहब का दबदबा था. जिस का दबदबा हो उसी के साथ रहने में लाभ था. फिर कल्लू तेजी से घूम कर बाहर निकल गया.
इधर नरेंद्र चौधरी साहब को राजनीति समझा रहा था, ‘‘आप ने बहुत मुंह लगा रखा है उस घटिया आदमी को. उसे न तो बोलने का शऊर है, न ही उठनेबैठने की तमीज. उस दिन धर्मदास को ही दरवाजे पर धक्का मार दिया और फिर पिस्तौल भी निकाल ली. वह तो अच्छा हुआ कि मनोहरलालजी आ गए और बात संभल गई. नहीं तो गजब हो जाता.’’
‘‘अरे, कुछ भी गजब नहीं होता. इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई तो मारने वालों पर कौन सा गजब टूट पड़ा? वही अदालत- कचहरी के चक्कर, वकीलों की तहरीरें, न्यायविदों की दलीलें. मुलजिम आनंद करते रहे. उन की रक्षा और देखभाल पर लाखों रुपया पानी की तरह बहाया जाता रहा. अब उच्चतम न्यायालय ने उन में से एक को बरी भी कर दिया है. बाकी को फांसी पर लटका दिया जाएगा. इस से क्या होगा? क्या पंजाब में अब शांति है.
‘‘जुलियस रिबेरो को पद्मश्री से अलंकृत कर दिया गया तो क्या उन की राइफलों में नई गोलियां आ गईं? पंजाब सरकार बरखास्त हो गई तो क्या आतंकवाद दब गया. सबकुछ वैसा ही चल रहा है.
‘‘राजनीति की शतरंज की चालें चली जाती रहेंगी और घाघ मुहरों के घर बदलते रहेंगे, पर मुहरे वही रहेंगे. धर्मनिरपेक्ष समाजवाद, लोकतंत्रीय संविधान, बीस सूत्री कार्यक्रम सब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम भी अपनी जगह ठीक हैं.
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‘‘कल्लू भाई की अपनी राजनीति है, अपना पैंतरा है, लेकिन वह हमारे लिए काम का आदमी है. बड़ा जीवट वाला आदमी है. देखो, उस दिन कालीप्रसाद को बुलाने भेजा तो उसे गिरेबान पकड़ कर घसीटता हुआ ले आया. कालीप्रसाद जैसे धाकड़ और झगड़ालू आदमी के गिरेबान पर हाथ डालना कोई हंसीखेल नहीं है, नरेंद्र.’’
चौधरी साहब आ गए नेताओं वाली भाषण मुद्रा में. लेकिन तभी चपरासी बुद्धा अंदर आया. बोला, ‘‘साहब, दिल्लीपुरा के ठाकुर लोग आए हैं.’’
चौधरी साहब ने उन्हें अंदर भेजने का संकेत किया. कीमती खादी के कपड़ों में झकाझक तड़कभड़क के साथ 5 विशिष्ट व्यक्तियों ने प्रवेश किया.
चौधरी साहब का इशारा समझ कर सभी साथी बाहर खिसक गए. कुछ देर तक कुशलक्षेम चलता रहा.
‘‘साहब, वह आप का पुलिसिया कुत्ता था, अब वह कैसा है?’’
‘‘अरे भाई, किस पुलिसिए कुत्ते की बात कर रहे हो. उस के बाद तो मैं 7 कुत्ते बदल चुका.’’
अभ्यागतों में रमन नामक सदस्य भी था. वह सोचने लगा, ‘कुत्ते नहीं हुए, चप्पलें हो गईं. 1 साल में 7 कुत्ते बदल डाले.’
उधर चौधरी साहब पूछताछ करने लगे, ‘‘हरदयालजी, वह आप के भतीजे की बहू का कुछ चक्कर था… मामला सिमट गया कि नहीं?’’
‘‘नहीं, साहब. उस में कुछ गड़बड़ हो गई. हम समझे थे कि बलात्कार का मामला दर्ज कराएंगे. बहू पढ़ीलिखी है. साहस के साथ कह देगी कि दुर्गा ने उस के साथ जबरदस्ती की.
‘‘लेकिन बहू पहले दिन ही अदालत में घबरा गई और रोने लगी. वकीलों ने जिरह कर उसे और भी बौखला दिया. फिर बाद में कुछ मामला बना भी तो गवाह बिक चुके थे.
‘‘मुरली बाबू ने कुछ टुकड़े फेंक कर उन्हें खरीद लिया, लेकिन चौधरी साहब, एक बाजी जिच भी हो गई तो क्या अगली मात तो हम ही देंगे.’’
‘‘वह कैसे?’’ चौधरी साहब ने दोनों पैर सोफे पर खींच लिए. तभी अवधनारायण ने उठ कर उन की धोती ठीक कर दी.
हरदयाल अपना नक्शा समझाने लगे, ‘‘ ‘अपनी धरती’ अखबार का संपादक है न, शंभूप्रसाद. वह अपना यार है. कुछ मामला उस से बना है. उसी के आदमियों ने कुछ तसवीरें खींची हैं. गुलजार रेस्तरां में शराब पीते हुए, मालतीमाधवी के साथ रंगरलियां मनाते हुए, मार्क्सवादी नेता अर्जुनकुमार के साथ शतरंज खेलते हुए. बस, उन्हीं सब तसवीरों के आधार पर एक कहानी बन गई. यही फिल्म उस की असलियत खोल कर रख देगी.’’
सतपाल गहरी नींद में सोया हुआ था. उस की पत्नी उर्मिला ने उसे जगाने की कोशिश की. वह इतनी ऊंची आवाज में बोली थी कि साथ में सोया उस का 5 साला बेटा जंबू भी जाग गया था. वह डरी निगाहों से मां को देखने लगा था. ‘‘क्या हो गया? रात को तो चैन से सोने दिया करो. क्यों जगाया मुझे?’’ सतपाल उखड़ी आवाज में उर्मिला पर बरस पड़ा.
‘‘बाहर गेट पर कोई खड़ा है. जोरजोर से डोर बैल बजा रहा है. पता नहीं, इतनी रात को कौन आ गया है? मुझे तो डर लग रहा है,’’ उर्मिला ने घबराई आवाज में बताया. ‘‘अरे, इस में डरने की क्या बात है? गेट खोल कर देख लो. तुम सतपाल की घरवाली हो. हमारे नाम से तो बड़ेबड़े भूतप्रेत भाग जाते हैं.’’
‘‘तुम ही जा कर देखो. मुझे तो डर लग रहा है. पता नहीं, कोई चोरडाकू न आ गया हो. तुम भी हाथ में तलवार ले कर जाना,’’ उर्मिला ने सहमी आवाज में सलाह दी. सतपाल ने चारपाई छोड़ दी. उस ने एक डंडा उठाया. गेट के करीब पहुंच कर उस ने गेट के ऊपर से झांक कर देखा, तो कांप उठा. बाहर उस की छोटी बहन खड़ी सिसक रही थी.
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सतपाल ने हैरानी भरे लहजे में पूछा, ‘‘अरे लाली, तू? घर में तो सब ठीक है न?’’
लाली कुछ नहीं बोल पाई. बस, गहरीगहरी हिचकियां ले कर रोने लगी. सतपाल ने देखा कि लाली के चेहरे पर मारपीट के निशान थे. सिर के बाल बिखरे हुए थे.
सतपाल लाली को बैडरूम में ले आया. वह बारबार लाली से पूछने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्या हुआ कि उसे आधी रात को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा? उर्मिला ने बुरा सा मुंह बनाया और पैर पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई. उसे लाली के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थी.
लाली की शादी आज से 10 साल पहले इसी शहर में हुई थी. तब उस के मम्मीपापा जिंदा थे. लाली का पति दुकानदार था. काम अच्छा चल रहा था. घर में लाली की सास थी, 2 ननदें भी थीं. उन की शादी हो चुकी थी. लाली के पति अजय ने उसे पहली रात को साफसाफ शब्दों में समझा दिया था कि उस की मां बीमार रहती हैं. उन के प्रति बरती गई लापरवाही को वह सहन नहीं करेगा.
लाली ने पति के सामने तो हामी भर दी थी, मगर अमल में नहीं लाई. कुछ दिनों बाद अजय ने सतपाल के सामने शिकायत की.
जब सतपाल ने लाली से बात की, तो वह बुरी तरह भड़क उठी. उस ने तो अजय की शिकायत को पूरी तरह नकार दिया. उलटे अजय पर ही नामर्दी का आरोप लगा दिया.
अजय ने अपने ऊपर नामर्द होने का आरोप सुना, तो वह सतपाल के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. अपनी डाक्टरी जांच करा कर रिपोर्ट उस के सामने रखी, तो सतपाल को लाली पर बेहद गुस्सा आया. उस ने डांटडपट कर लाली को ससुराल भेज दिया. लाली ससुराल तो आ गई, मगर उस ने पति और सास की अनदेखी जारी रखी. उस ने अपनी जिम्मेदारियों को महसूस नहीं किया. अपने दोस्तों के साथ मोबाइल पर बातें करना जारी रखा.
आखिरकार जब अजय को दुकान बंद कर के अपनी मां की देखभाल के लिए घर पर रहने को मजबूर होना पड़ा, तब उस ने अपनी आंखों से देखा कि लाली कितनी देर तक मोबाइल फोन पर न जाने किसकिस से बातें करती थी. एक दिन अजय ने लाली से पूछ ही लिया कि वह इतनी देर से किस से बातें कर रही थी?
पहले तो लाली कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई, पर जब अजय गुस्से से भर उठा, तो लाली ने अपने भाई सतपाल का नाम ले लिया. उस समय तो अजय खामोश हो गया, क्योंकि उसे मां को अस्पताल ले जाना था. जब वह टैक्सी से अस्पताल की तरफ जा रहा था, तब उस ने सतपाल से पूछा, तो उस ने इनकार कर दिया कि उस के पास लाली का कोई फोन नहीं आया था.
अजय 2 घंटे बाद वापस घर में आया, तो लाली को मोबाइल फोन पर खिलखिला कर बातें करते देख बुरी तरह सुलग उठा था. उस ने तेजी से लपक कर लाली के हाथ से मोबाइल छीन कर 4-5 घूंसे जमा दिए. लाली चीखतीचिल्लाती पासपड़ोस की औरतों को अपनी मदद के लिए बुलाने को घर से बाहर निकल आई.
अजय ने उसी नंबर पर फोन मिलाया, जिस पर लाली बात कर रही थी. दूसरी तरफ से किसी अनजान मर्द की आवाज उभरी. अजय की आवाज सुनते ही दूसरी तरफ से कनैक्शन कट गया.
अजय ने दोबारा नंबर मिला कर पूछने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ से मोबाइल स्विच औफ हो गया. अजय ने लाली से पूछा, तो उस ने भी सही जवाब नहीं दिया.
अजय का गुस्से से भरा चेहरा भयानक होने लगा. उस के जबड़े भिंचने लगे. वह ऐसी आशिकमिजाजी कतई सहन नहीं करेगा. लाली घबरा उठी. उसे लगा कि अगर वह अजय के सामने रही और किसी दोस्त का फोन आ गया, तो यकीनन उस की खैरियत नहीं. उस ने उसी समय जरूरी सामान से अपना बैग भरा और अपने मायके आ गई.
लाली ने घर आ कर अजय और उस की मां पर तरहतरह के आरोप लगा कर ससुराल जाने से मना कर दिया. कई महीनों तक वह अपने मायके में ही रही. अजय भी उसे लेने नहीं आया. इसी तनातनी में एक साल गुजर गया. आखिरकार अजय ही लाली को लेने आया. उस ने शर्त रखी कि लाली को मन लगा कर घर का काम करना होगा. वह पराए मर्दों से मोबाइल फोन पर बेवजह बातें नहीं करेगी.
सतपाल ने बहुत समझाया, मगर लाली नहीं मानी. लाली का तलाक हो गया. सतपाल ने उस के लिए 2 लड़के देखे, मगर वे उसे पसंद नहीं आए.
दरअसल, लाली ने शराब का एक ठेकेदार पसंद कर रखा था. उस का शहर की 4-5 दुकानों में हिस्सा था. वह शहर का बदनाम अपराधी था, मगर लाली को पसंद था. काफी अरसे से लाली का उस ठेकेदार जोरावर से इश्क चल रहा था. जोरावर सतपाल को भी पसंद नहीं था, मगर इश्क में अंधी लाली की जिद के सामने वह मजबूर था. उस की शादी जोरावर से करा दी गई.
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जोरावर शराब के कारोबार में केवल 10 पैसे का हिस्सेदार था, बाकी 90 पैसे दूसरे हिस्सेदारों के थे. उस की कमाई लाखों में नहीं हजारों रुपए में थी. वह जुआ खेलने और शराब पीने का शौकीन था. वह लाली को खुला खर्चा नहीं दे पाता था. अब तो लाली को पेट भरने के भी लाले पड़ गए. उस ने जोरावर से अपने खर्च की मांग रखी, तो उस ने जिस्म
बेच कर पैसा कमाने का रास्ता दिखाया. लाली ने मना किया, तो जोरावर ने घर में ही शराब बेचने का रास्ता सुझा दिया. अब लाली करती भी क्या. अपना मायका भी उस ने गंवा लिया था. जाती भी कहां? उस ने शराब बेचने का धंधा शुरू कर दिया. उस का जवान गदराया बदन देख कर मनचले शराब खरीदने लाली के पास आने लगे. उस का कारोबार अच्छा चल निकला.
जोरावर को लगा कि लाली खूब माल कमा रही है, तो उस ने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया. लाली ने पैसा देने से इनकार कर दिया. उस रात दोनों में झगड़ा हुआ. लाली जमा किए तमाम रुपए एक पुराने बैग में भर कर घर से भाग निकली. जोरावर ने देख लिया था. वह भी पीछेपीछे तलवार हाथ में लिए भागा. वह किसी भी सूरत में लाली से रुपए लेना चाहता था.
जोरावर नशे में था. उस के हाथों में तलवार चमक रही थी. वह उस की हत्या कर के भी सारा रुपया हासिल करना चाहता था. लाली बदहवास सी भागती हुई सड़क पर आ गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो जोरावर तलवार लिए उस की तरफ भाग रहा था. उस ने बचतेबचाते सड़क पार कर ली.
लेकिन जब जोरावर सड़क पार करने लगा, तो वह किसी बड़ी गाड़ी की चपेट में आ गया और मारा गया. रात के 3 बज रहे थे. किसी ने भी जोरावर की लाश की तरफ ध्यान तक नहीं दिया.
सतपाल के यहां आ कर लाली ने रोतेसिसकते अपनी दुखभरी दास्तान सुनाई, तो सतपाल की भी आंखें भर आईं. मगर उसी पल उस ने अपनी बहन की गलतियां गिनाईं, जिन की वजह से उस की यह हालत हुई थी. ‘‘हां भैया, अजय का कोई कुसूर नहीं है. मैं ने ही अपनी गलतियों की सजा पाई है. अजय ने तो हर बार मुझे समझाने, सही रास्ते पर लाने की कोशिश की थी, इसलिए अब भी मैं अजय के पास ही जाना चाहती हूं,’’ लाली ने इच्छा जाहिर की.
‘‘अब तुझे वह किसी भी हालत में नहीं अपनाएगा. उस ने तो दूसरी शादी भी कर ली होगी,’’ सतपाल ने अंदाजा लगाया. ‘‘बेशक, उस ने शादी कर ली हो. उस के घर में नौकरानी बन कर रह लूंगी. मुझे अजय के घर जाना है, वरना मैं खुदकुशी कर लूंगी,’’ लाली ने अपना फैसला सुना दिया.
सतपाल बोला, ‘‘ठीक है लाली, पहले तू 4-5 दिन यहीं आराम कर.’’ एक हफ्ते बाद सतपाल ने लाली
को मोटरसाइकिल पर बैठाया और दोनों अजय के घर की तरफ चल दिए. अजय घर पर अकेला ही सुबह का नाश्ता तैयार कर रहा था. सुबहसवेरे लाली को अपने भाई सतपाल के साथ आया देख वह बुरी तरह भड़क उठा.
दोनों को धक्के मार कर घर से बाहर निकालते हुए अजय ने कहा, ‘‘अब तुम लोग मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने आए हो. चले जाओ यहां से. अब तो मेरी मां भी मर चुकी है. मेरी पत्नी तो बहुत पहले मर चुकी थी. अब मेरा कोई नहीं है.’’
सतपाल ने लाली को घर चलने को कहा, तो वह वहीं पर रहने के लिए अड़ गई. सतपाल अकेला ही घर चला गया. लाली सारा दिन भूखीप्यासी वहीं पर खड़ी रही. रात को अजय वापस आया. लाली को खड़ा देख वह बेरुखी से बोला, ‘‘अब यहां खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है.’’
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‘‘अजय, मैं ने तो अपनी गलतियों को पहचाना है और मैं तुम्हारी सेवा करने का मौका एक और चाहती हूं.’’ मगर अजय ने उस की तरफ ध्यान नहीं दिया और घर का दरवाजा बंद कर लिया. अगली सुबह अजय ने दरवाजा खोला, तो लाली को बाहर बीमार हालत में देख चौंक उठा. वह बुरी तरह कांप रही थी. वह उसे तुरंत डाक्टर के पास ले गया. बीमार लाली को देख कर अजय को लगा कि ठोकर खा कर लाली सुधर गई है, इसलिए उस ने उसे माफ कर दिया.
आज फिर जाहिदा को देखने आया लड़का शकील मुंह बना कर बाहर निकल गया. उस के साथ आए उस के मांबाप ने घर लौट कर लड़की पसंद नहीं आने का जवाब भिजवा दिया.
पिछले तकरीबन 5-6 सालों से यही सिलसिला चल रहा था. इस बीच 17 लड़के वालों ने जाहिदा पर ‘नापसंद’ की मुहर लगा दी थी.
लेकिन आज तो जाहिदा का सब्र जवाब दे गया. लड़के वालों के घर से बाहर निकलते ही वह भाग कर अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ी कई घंटों तक रोती रही.
जाहिदा की बेवा मां शरीफन उस के लिए काबिल दूल्हा ढूंढ़ढूंढ़ कर थक गई थीं. जो भी लड़का आता जाहिदा का सांवला रंग देख कर उलटे पैर लौट जाता. नौबत यहां तक आ गई थी कि 10वीं जमात फेल और आटोरिकशा चलाने वाले लड़कों तक ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया था.
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साइकिल रिपेयर करने की दुकान से परिवार पालने वाले जाहिदा के अब्बा नासिर खां की मौत के बाद बेवा हुई शरीफन ने बामुश्किल अपनी 3 बेटियों को पालपोस कर बड़ा किया था. उन्होंने सिलाईकढ़ाई कर के जैसेतैसे 2 बेटियों अंजुम और जरीना की शादी भी की लेकिन सब से बड़ी बेटी जाहिदा का रिश्ता तय करने में उन्हें बहुत मुश्किलें आ रही थीं. उस का सांवला रंग हमेशा रिश्ता होने में आड़े आ जाता था.
हर बार नापसंद किए जाने के बाद जाहिदा को गहरा सदमा लगता और वह घंटों तक रोती रहती.
जाहिदा बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी होशियार थी. उस ने 10वीं जमात से ले कर बीएससी तक का इम्तिहान फर्स्ट डिविजन में पास किया था. उस की अम्मी शरीफन मामूली पढ़ीलिखी घरेलू औरत थीं. लेकिन वक्त की ठोकरों ने उन्हें मजबूत बना दिया था. गुजरे सालों में जाहिदा के रिश्ते में आ रही दिक्कतों की वजह से वे हमेशा फिक्र में डूबी रहती थीं.
कमरे से बेटी जाहिदा की सिसकियों की आ रही आवाज सुन कर शरीफन उस की फूटी किस्मत को कोस रही थीं.
तभी थोड़ी देर बाद अचानक कमरे से जाहिरा की आवाज सुनाई दी, ‘‘अम्मी, इधर आओ. मुझे आप से कुछ बात करनी है.’’
कमरे में झाड़ू लगाती अम्मी ने पूछा, ‘‘अरी बेटी, क्या बात है? थोड़ा रुक, मैं झाड़ू लगा कर आती हूं तेरे पास.’’
बहुत देर तक अम्मी को आते नहीं देख जाहिदा कमरे से धीरेधीरे चल कर उन के सामने आ कर खड़ी हो गई. बड़ी देर तक रोते रहने से उस की आंखें सूजी हुई थीं.
जाहिदा कहने लगी, ‘‘अम्मी, मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं तब तक शादी नहीं करूंगी जब तक मैं कोई बड़ा मुकाम हासिल न कर लूं.
‘‘मैं समाज को कुछ बन कर दिखाना चाहती हूं ताकि दकियानूसी सोच में जकड़ी इस कौम को पता चले कि तन की खूबसूरती के सामने काबिलीयत और मन की खूबसूरती में क्या फर्क है…’’
जाहिदा बोले जा रही थी, ‘‘अम्मी, लोग किसी इनसान के सांवले रंग पर उस को बेइज्जत क्यों करते हैं? क्या गोरा रंग होने से ही लड़की में सभी खूबियां आ जाती हैं?’’
फिर आखिर में जाहिरा ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘सुनो अम्मी, अब आप मेरे लिए रिश्ते देखना बंद कर दें. अब मेरी जिंदगी का एक ही मकसद है कि मुझे सरकारी अफसर बन कर दिखाना है. इस की तैयारी के लिए मुझे दिल्ली पढ़ाई करने जाना पड़ेगा.’’
अपने सामने खड़ी बेटी के इस फैसले से परेशान शरीफन ने कहा, ‘‘लेकिन बेटी, तू सोच तो सही कि आखिर मैं इतनी महंगी पढ़ाई के लिए इतने सारे पैसे कहां से लाऊंगी?’’
10-15 दिन तो पैसों के जुगाड़ की उधेड़बुन में गुजर गए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. एक दिन अचानक जयपुर सचिवालय में सैक्शन अफसर के पद पर काम कर रहे शरीफन के छोटे भाई शहजाद अली मिलने आए.
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शरीफन ने भाई को जाहिदा के फैसले के बारे में बताते हुए उन से मदद करने की गुजारिश की.
भानजी के बुलंद इरादों और लगन की बातें सुन कर शहजाद ने बहन से फौरन कहा, ‘‘आप बिलकुल बेफिक्र हो जाओ. जाहिदा बेटी की पढ़ाई की जिम्मेदारी अब उस के मामा की है. मैं सब संभाल लूंगा. देखना हमारा बेटी हमारे खानदान का नाम रोशन करेगी.’’
इस बीच 5 साल गुजर गए. एक दिन दोपहर बाद शरीफन के घर के सामने लालबत्ती लगी 2 कारों के साथ पुलिस और कई सरकारी जीपें आ कर रुकीं. पहली कार से एक गोराचिट्टा नौजवान उतर कर आगे आया और उस ने झुक कर शरीफन के पैर छू कर नमस्कार किया. तभी पिछली कार से उतर कर जाहिदा ने शरीफन को गले लगा लिया.
जाहिदा बोली, ‘‘अम्मी देखो, आप की बेटी एसडीएम बन गई है. मैं ने अपना मुकाम हासिल कर लिया है. लेकिन अभी मेरी उड़ान बाकी हैं.
‘‘अम्मी, ये हैं आप के दामाद सुरेश. ये यहां के जिला समाज कल्याण अधिकारी हैं,’’ जाहिदा ने पास खड़े अपने पति सुरेश का परिचय कराते हुए कहा.
थोड़ी देर रुक कर जाहिदा ने कहा, ‘‘अम्मी, अभी हमें पास के गांव में दौरे पर जाना है. इजाजत दें. बाद में वक्त निकाल कर मिलने आएंगे.’’
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शरीफन दूर जाती गाडि़यों के काफिले को बड़ी देर तक खड़ी देखती रहीं. अपनी बेटी की कामयाबी देख उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े.
सलिल ने बड़ी प्रसन्नता से बांड पर हस्ताक्षर कर के कम से कम 4 वर्ष तो वहीं रुकने का इंतजाम कर लिया था. शिक्षा के क्षेत्र में होने के कारण उन की इच्छा थी कि उन की पत्नी विनीता यानी विनी भी शिक्षा में ही रहे. काम तो करना ही था फिर इधरउधर भटकते हुए स्टोर, मौल अथवा किसी और जगह क्यों…. क्यों नहीं शिक्षा के क्षेत्र में? विनी ने न जाने कैसेकैसे स्कूल में एक साल पूरा किया…हरेक सांस में वह अपने स्वतंत्र होने की बात सोचती पर सलिल उस के निर्णय से बिलकुल खुश नहीं थे. वह कहते, ‘‘सीढ़ी पर चढ़ने के लिए पहला कदम ही मुश्किल होता है. जैसे एक साल गुजरा, 2-4 साल में तो आदी हो जाओगी इस वातावरण की.’’
विनी का दिल धड़क उठा. पति की नाराजगी उस से बहुत कुछ कह गई. वह कमजोर बन गई और चाहते हुए भी त्यागपत्र न दे सकी. छुट्टियों में भारत आ कर जब वह मां के गले मिली तो मानो उस की हिचकियों का बांध टूट कर मां के दिल में समा गया. मां भी क्या कर सकती थीं… इंगलैंड लौटने पर सलिल ने उसे खुशखबरी दी.
‘‘डोरिथी मेरे काम से इतनी खुश है कि उस ने मुझे प्रमोट करने का प्रस्ताव रखा है और अब हम अपना घर खरीदने जा रहे हैं.’’ इतनी जल्दी घर? यह सवाल मन में कौंधा पर वह कुछ बोली नहीं. प्रसन्नता और सफलता में डूबे पति का चेहरा निहारती रही. उस की अपनी क्या कीमत है? उस ने सोचा, सभी फैसले सलिल के ही तो होेते हैं. वह तो बस, कठपुतली या मशीन की भांति वही सब करती है जो सलिल चाहते हैं.
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बेमन से विनी बच्चों और सलिल के साथ घर देखने गई. डोरिथी ने ‘रिकमेंड’ किया था, वह बौस थी सलिल की और उसे अपने पास ही रखना चाहती थी. जल्दी ही वह पूरे परिवार सहित अपने घर में ‘शिफ्ट’ हो गई. घर सुंदर था, पूरे साजोसामान सहित बड़े ही कम ‘इंस्टालमेंट’ पर घर मिल गया था, जो सलिल की तनख्वाह से ही हर माह कटता रहेगा. अब तो उस के लिए अधिक कमाना और भी आवश्यक हो गया था. घर में आने के अगले दिन जैसे ही विनी ने सो कर उठने के बाद बेडरू म की खिड़की का परदा उठाया, उसे चक्कर आ गया. घर के ठीक सामने जेड खड़ी थी, किसी लड़के से चिपट कर. 2 मिनट वह सुन्न सी खड़ी देखती रही फिर लड़के के साथ जब जेड सामने वाले घर के अंदर चली गई तब वह टूटे हुए पैरों से घिसट कर पलंग पर आ पड़ी.
शनिवार छुट्टी का दिन था व अगले दिन रविवार…2 दिन की छुट्टियों में वह आसपास घूमफिर कर देखना चाहती थी. कार्नर शौप, शौपिंग मौल्स, लाइबे्ररी, सब के बारे में पता करना चाहती थी पर उस के तो पैर ही मानो बर्फ के हो गए थे. उस ने एक नजर सलिल पर डाली, जो चैन की नींद, प्रसन्नवदन सो रहे थे. धीरे से उठ कर उस ने स्वयं को संभालने की चेष्टा की. शीघ्र ही विनी को पता चला कि जेड उसी घर में रहती है, अपनी मां व अपनी 2 सौतेली छोटी बहनों के साथ. उस की मां का बौयफें्रड जब भी आता है, दोनों छोटी बहनों और उस की मां को अपने साथ बाहर ले जाता है. एक दिन विनी ने सुना, उस की मां का बौयफ्रेंड जेड को सब के साथ चलने के लिए कह रहा था और वह चिल्ला रही थी :
‘नहीं, तुम मेरे पिता नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती.’ कुछ देर बाद ही गाड़ी जेड के सिवा सब को ले कर फर्राटे से निकल गई और जेड का दोस्त उसे ले कर अपने से चिपटाते हुए घर में घुस गया.
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विनी का धैर्य जवाब देने लगा. अपने बच्चों को कैसे इस वातावरण में रख सकेगी? अब तो जेड ने यहां पर भी बदतमीजी शुरू कर दी थी. वह उस की बेटी को चिल्लाचिल्ला कर ‘बिच’ बोलती, गालियां बकती, ‘गो बैक टू योर इंडिया…’ और न जाने क्याक्या.
विनी व सलिल बच्चों को समझाते रहते थे. भारत से सलिल के मातापिता भी बच्चों की देखभाल के लिए वहीं आ गए थे. 4 बेडरूम वाले इस घर में जगह ठीकठाक ही थी अत: इस जेड नामक अशांति के अलावा सब ठीक ही चल रहा था. अब कभीकभी जेड अपने बौयफें्रड के साथ निकल कर दरवाजे की घंटी दबा जाती, कभी उस के बेटे कुणाल को साइकिल चलाते हुए देख कर जूता मार देती, फिर दोनों खिलखिला कर मजाक करते, गालियां देते निकल जाते. अब तो यह रोज का कार्यक्रम बन गया था और अनमनी सी विनी बच्चों के लिए हर क्षण भयभीत बनी रहती. जेड की बदतमीजी हद से अधिक बढ़ जाने से उसे स्कूल से निकाल दिया गया था. अब स्कूल में शांति थी परंतु घर में तो वही अशांति बन कर उस के समक्ष रहती थी. वह कपड़ों की तरह लड़के बदलती और उन के साथ घूमती रहती.
विनी को उस की मां पर आश्चर्य होता, मानो कोई सरोकार ही नहीं. साल दर साल गुजरते रहे और सबकुछ उसी प्रकार चलता रहा. जेड और परिपक्व दिखाई देने लगी थी. हर साल छुट्टियों में विनी अपने पूरे परिवार सहित मुंबई आती. इस साल सलिल के मातापिता ने बच्चों को अपने साथ दिल्ली ले जाने और उन की बूआ के पास कुछ दिन ठहरने का प्रस्ताव रखा. सलिल को भी उस की बहन बारबार बुलाती थीं, सो सलिल, बच्चे एवं उस के मातापिता दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे जबकि विनी को 2 दिन बाद की टिकट मिली थी. वह मुंबई हवाई अड्डे पर उतरी तो वहां जेड को देख कर आश्चर्य से उस का मुंह खुला रह गया. हवाई जहाज से उतरते समय जेड का पैर न जाने कैसे फिसल गया था और वह किसी चीज से उलझ कर औंधेमुंह जा गिरी थी. खून से लथपथ उस को देखते ही विनी उस के पास जा पहुंची. अचानक ही ढेरों सवाल उस के जेहन में कुलबुलाने लगे. उस के साथ कोई नहीं था, कैसे और क्यों वह यहां अकेले आई थी?
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भारत और भारतीयों के लिए मन मेें ढेरों कटुता भरे हुए वह यहां आखिर करने क्या आई थी? इस सवाल को मन में रख कर विनी ने हवाई अड्डे के प्रबंधकों से जेड के साथ स्वयं भी अस्पताल चलने का आग्रह किया. विनी के भाईभाभी उसे लेने पहुंचे हुए थे, वह भी विनी के साथ अस्पताल पहुंचे. जेड का काफी खून निकल गया और उसे खून की जरूरत थी. जब विनी को पता चला कि जेड का ब्लड ग्रुप ‘बी पौजिटिव’ है तो उस ने डाक्टरों से प्रार्थना की कि वे उस का खून ले लें क्योंकि उस का भी वही ग्रुप था. देखते ही देखते विनी का खून जेड की नसों में दौड़ने लगा. जेड अब भी बेहोश थी. विनी ने अस्पताल में अपना टेलीफोन नंबर लिखवा कर प्रार्थना की कि कृपया घायल की स्थिति से उसे अवगत कराया जाए. अस्पताल में बहुत सी औप- चारिकताएं पूरी करनी थीं, सो विनी को बताना पड़ा कि वह उसे किस प्रकार जानती है और फार्म पर अपने हस्ताक्षर भी किए.
दूसरे दिन जब जेड को होश आया तब विनी उस के सामने ही थी. अब जेड के आश्चर्य का ठिकाना न था. उस के आंसुओं के आवेग को विनी ने बहुत मुश्किल से बंद कराया, फिर जो जेड ने बताया वह और भी चौंका देने वाला था.
जेड को अभी कुछ दिन पहले ही पता चला था कि वह एक भारतीय पिता की बेटी है और उस के पिता कहीं मुंबई में ही थे. उन का पता ले कर अपनी मां की सहायता से जेड भारत आई थी. पिता से मिलने की उत्सुकता ने मानो उस में पंख लगा दिए थे. अस्पताल के अधिकारी उस के पिता को सूचित कर चुके थे. जेड, विनी का हाथ पकड़े पश्चात्ताप के आंसुओं से अपना मुख भिगोती रही और विनी शब्दहीन रह कर उसे सांत्वना देती रही. जेड के पिता बेटी से मिलने विनी की मौजूदगी में ही आए थे. साथ उन की पत्नी और 2 बच्चे भी थे. भावावेश में आ कर उन्होंने जेड को अपने सीने से चिपटा लिया पर जेड की तेज तर्रार आंखों ने उन की पत्नी की उदासीनता को भांप लिया.
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‘‘आई जस्ट वांटेड टू सी यू डैड,’’ जेड हिचकियों के बीच बोली. वह जानती थी कि उस परिवार में उस का मन से स्वागत नहीं किया जाएगा. पिता के जाने के बाद उस ने एक प्रश्नवाचक दृष्टि विनी पर डाली. विनी ने उस का हाथ थपथपा कर सांत्वना दी. अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वह उसे अपने घर ले गई, जहां जेड के पिता उस से मिलने कई बार आए.
अतीत के गलियारों में भटकना छोड़ कर जेड अब विनी के बेहद करीब आ गई थी, इतनी कि विनी के गले से चिपट गई. ‘‘आई वांट टू बी लाइक यू…. मैम,’’ पश्चात्ताप के आंसुओं ने जेड के दिलोदिमाग में अविश्वसनीय परिवर्तन भर दिया था.
कंठ अवरुद्ध होने के कारण जेड ने घूम कर विनी की ओर अपनी पीठ कर ली और तेजी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली.
महज 70-80 घरों वाले उस छोटे से गांव के छोटे से घर में मातम पसरा हुआ था. गिनती के कुछ लोग मातमपुरसी के लिए आए हुए थे. 28 साल की जवान मौत के लिए दिलासा देने के लिए लोगों के पास शब्द नहीं थे. मां फूटफूट कर रो रही थी. जब वह थक जाती तो यही फूटना सिसकियों में बदल जाता. बाप के आंसू सूख चुके थे और वह आसमान में एकटक देखे जा रहा था. ज्यादा लोग नहीं थे. वैसे भी गरीब के यहां कौन जाता है.
‘‘पर, विजय ने खुदकुशी क्यों की?’’ एक आदमी ने पूछा.
‘‘पता नहीं… उस ने 3 साल पहले इंजीनियरिंग पास की थी. नौकरी नहीं मिली शायद इसीलिए,’’ पिता ने जैसेतैसे जवाब दिया.
‘‘सुरेश, तुम तो उस के बचपन के दोस्त हो. तुम से तो वह अपने दिल की हर बात कहता था. क्या तुम वजह जानते हो?’’ उस आदमी ने पास खड़े नौजवान से पूछा जो चुपचाप अपने दोस्त की मौत पर आंसू बहा रहा था.
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‘‘चाचा, इस सिस्टम, इन सरकारों ने जो सपने दिखाने के कारखाने खोले हैं यह मौत उसी का नतीजा है.
‘‘आप को याद होगा कि 10 साल पहले जब विजय ने इंटर पास की थी, तब वह इस गांव का पहला लड़का था जो 70 फीसदी अंक लाया था. सारा गांव कितना खुश था.
‘‘गांव के टीचरों ने भी अपनी मेहनत पर पहली बार फख्र महसूस करते हुए उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी थी. तब क्या पता था कुकुरमुत्ते की तरह खुले ये कालेज भविष्य नहीं सपने बेच रहे हैं.
‘‘यह तो आप लोग भी जानते हैं कि विजय के परिवार के पास 8 एकड़ जमीन ही थी. दाखिले के समय विजय के पिताजी ने अपनी बरसों की जमापूंजी लगा दी. उस के अगले साल भी जैसेतैसे जुगाड़ हो ही गया. पर आखिरी 2 साल के लिए उन्हें अपनी 2 एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी.
‘‘सभी को यह उम्मीद थी कि इंजीनियरिंग होते ही 4-6 महीने में विजय की नौकरी लग जाएगी. कालेज भी नामीगिरामी है और कैंपस सिलैक्शन के लिए भी कई कंपनियां आती हैं. कहीं न कहीं जुगाड़ हो ही जाएगा.
‘‘यह किसे पता था कि आने वाली सभी कंपनियां प्रायोजित होती हैं और उन्हीं छात्रों को चुनती हैं जिन का नाम कालेज प्रशासन देता है.
‘‘कालेज प्रशासन भी उन्हीं छात्रों के नाम देता है जो उन के टीचरों से कालेज टाइम के बाद कोचिंग लेते हैं.
‘‘विजय अपने घर के हालात को बखूबी जानता था. वह फीस ही मुश्किल से भर पाता था, ऐसे में कोचिंग लेना उस के लिए मुमकिन नहीं था. ऊपर से दिक्कत यह कि उस के पास होने के एक साल पहले से उन प्रायोजित कंपनियों ने भी आना बंद कर दिया था. शायद दूसरे कालेज वालों ने ज्यादा पैसे दे कर उन्हें बुलवा लिया था.
‘‘इतने सारे इंजीनियरों के इम्तिहान पास करने के बाद सरकार के खुद के पास नौकरी के मौके नहीं थे. विजय को अपने लैवल की नौकरी मिलती कैसे?
‘‘पिछले 3 सालों से उस क्षेत्र की कोई कंपनी नहीं बची थी जहां पर विजय ने नौकरी के लिए अर्जी न दी हो. अब तो हालत यह हो गई थी कि उन कंपनियों के सिक्योरिटी गार्ड और चपरासी भी उसे पहचानने लगे थे. दूर से ही उसे देख कर वे हाथ जोड़ कर मना कर दिया करते थे.
‘‘एक दिन एक साधारण सी फैक्टरी का सिक्योरिटी गार्ड गेट पर नहीं था तो विजय मौका देख कर उस के औफिस में घुस गया और वहां बैठे उस के मालिक को अर्जी देते हुए नौकरी की गुजारिश करने लगा.
‘‘तब उस के मालिक ने कहा, ‘मेरी फैक्टरी में इंजीनियर, सुपरवाइजर, मैनेजर सबकुछ वर्कर ही है जो 50 किलो की बोरियां अपने कंधों पर उठता भी है, 200 किलो का बैरल धकाता भी है और प्रोडक्शन के लिए मशीनों को औपरेट भी करता है. शायद तुम अपनी डिगरी के चलते ये सब काम न कर पाओ.
मैं तो सरकार को सलाह दूंगा कि वह इंजीनियर बनाने के बजाय मल्टीपर्पज वर्कर बनाने के लिए इंस्टीट्यूट खोले. यह देश के फायदे में होगा.’
‘‘कारखानों, कंपनियों और सरकारी महकमों में चपरासी तक की नौकरी न मिलते देख विजय ने टीचर बनने की सोची. पर मुसीबतों ने उस का साथ यहां भी नहीं छोड़ा. सरकारी स्कूलों में उसे अर्जी देने की पात्रता नहीं थी. प्राइवेट स्कूलों में जब इंटरव्यू के लिए वह गया तो सभी इस बात से डरे हुए थे कि जब उसे अपनी फील्ड की नौकरी मिलेगी तो वह स्कूल की नौकरी बीच में ही छोड़ देगा और स्कूल के बच्चों का भविष्य अधर में लटक जाएगा.
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‘‘गांव के रीतिरिवाजों के मुताबिक, विजय की शादी भी उस के इंजीनियरिंग में दाखिला लेते ही तय कर दी गई थी. लड़की पास ही के गांव की थी. विजय जब भी गांव आता तो उस से मिलने जरूर जाता था.
‘‘विजय के इंजीनियर बनने के साथ ही उस ने भी अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली थी. पर पिछले 3 सालों से विजय का कुछ होता न देख कर लड़की के घर वालों ने कहीं और शादी करने का फैसला ले लिया.
‘‘उस लड़की ने भी विजय को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि वह जानबूझ कर जद्दोजेहद की दुनिया में नहीं जा सकती.
‘‘उस लड़की ने कहा था, ‘याद करो विजय, हम ने सुखद भविष्य के जो भी सपने देखे हैं उन में कोई संघर्ष नहीं है तो मैं अब कैसे संघर्षों को चुन सकती हूं? मैं आंखों देखी मक्खी नहीं निगल सकती.’
‘‘विजय गांव वापस आ कर खेती इसलिए भी नहीं कर सकता था, क्योंकि 2 एकड़ खेती बिकने का कुसूरवार वह अपनेआप को मानता था. वैसे भी बची हुई 6 एकड़ खेती से 3 लोगों का खर्चा निकलना मुश्किल ही था. विजय चाहता था अगर वह परिवार की कुछ मदद न कर सके तो कोई बात नहीं, पर कम से कम परिवार के लिए बोझ न बने.
‘‘मैं उसे फोन लगा कर रोज बातें किया करता था ताकि उस की हिम्मत बनी रहे. पर पिछले 15 दिनों से हालात बहुत खराब हो गए थे. जिन लोगों के साथ वह रूम शेयर कर के रहता था उन्होंने 6 महीने से पैसा न दे पाने के चलते रूम से निकाल दिया था. मैं हजार 5 सौ रुपए की मदद जरूर करता था पर वह मदद पूरी नहीं पड़ती थी.
‘‘पेट भरने के लिए वह अकसर रात में सब्जी मंडी बंद होने के बाद चला जाता था और विक्रेताओं द्वारा फेंकी गई सड़ी हुई सब्जियों और फलों के अच्छे हिस्से निकाल कर खा लेता था.
‘‘लेकिन परसों हुई घटना ने न सिर्फ उस की उम्मीदों को तोड़ दिया था, बल्कि तथाकथित इनसानियत पर से भी उस का थोथा विश्वास हमेशा के लिए उठ गया था.
‘‘रूममेट्स द्वारा निकाले जाने के बाद विजय अलगअलग फुटपाथों पर अपनी रातें बिताया करता था. परसों वह ऐसे ही किसी फुटपाथ के किनारे बैठा था. पिछले 2 दिनों से सड़ी हुई सब्जियों के अलावा उस ने कुछ खाया भी नहीं था.
‘‘तभी एक बड़ी सी कार में से एक अमीर औरत उतरी. उस के हाथों में कुछ रोटियां थीं. वह अपनी पैनी निगाहों से कुछ खोज रही थी. उसे सामने कुछ ही दूरी पर एक काला कुत्ता दिखाई पड़ा. शायद वह उसी को खोज रही थी. उस औरत ने उस कुत्ते को अपनी तरफ बुलाने की बहुत कोशिश की. रोटियां शायद वह उस काले कुत्ते को खिलाना चाहती थी.
‘‘कुत्ते ने उस औरत की तरफ देखा जरूर, पर आया नहीं. शायद उस का पेट भरा हुआ था. हार कर वह औरत उन रोटियों को वहीं रख वापस अपनी गाड़ी की तरफ चली गई.
‘‘जब विजय ने देखा कि कुत्ता रोटी नहीं खा रहा?है तो उस ने वह रोटी खुद के खाने के लिए उठा ली. कार में बैठते समय उस औरत ने सारा कारनामा देखा तो वह तुरंत कार में से उतर कर आई और विजय से रोटी छीनते हुए बोली, ‘यह रोटी मैं ने शनि महाराज की पूजा के लिए बनाई है और इसे काले कुत्ते के खाने से ही मेरी शनि बाधा दूर होगी, तुम जैसे आवारा के खाने से नहीं.’
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‘‘भूखा विजय कब तक सिस्टम से, समाज से और अपनी भूख से इंजीनियरिंग की डिगरी के दम पर लड़ता? आखिरकार उस ने जिंदगी से हार मान ली और पानी में डूब कर खुदकुशी कर ली.’’
मातमपुरसी के लिए आए सब लोग चुप थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसे कुसूरवार समझें. बिना भविष्य की योजनाएं लिए चल रही सरकारों को या पकवानों के साथ पेट भर कर एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सपने बेचने वाले अफसरों को या उन भोलेभाले लोगों को जो इन छलावों में आ कर अपना आज तो खराब कर ही रहे हैं, भविष्य के बुरे नतीजों से भी बेखबर हैं.