Family Story : मदरसे की एक रात – उस रात आखिर क्या हुआ

Family Story : मौलाना राशिद मदरसे में अपने काम में मशगूल थे कि तभी उन के कमरे में बुरके में लिपटी एक औरत 20 सालकी खूबसूरत लड़की के साथ दाखिल हुईं .

मौलाना राशिद ने उन्हें गौर से देख कर पूछा, ‘‘बाहर दरवाजे पर कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जी, कोई नहीं है?’’ कह कर वह औरत चुप हो गई.

‘‘कहिए, क्या काम है आप को?’’ मौलाना राशिद ने पूछा.

‘‘जी, यह मेरी बेटी है. इसे मैं ने गोद लिया है. सोचती हूं कि इसे अपने पैरों पर खड़ा कर के इस की शादी करा दूंगी. आप की नेक दुआओं से इस की जिंदगी संवर जाएगी. मुझे किसी दूसरे पर एतबार नहीं है. क्या आप के मदरसे में पढ़ाने के लिए कोई नौकरी है?’’

मदरसे की शर्तों को मानने पर उस लड़की को वहां रख लिया गया. तकरीबन 60 साल की उम्र पूरी कर रहे मौलाना राशिद तकरीबन 20 साल से शहर से लगे एक गांव में मदरसा चला रहे थे. मदरसा खूब फलफूल रहा था.

बीवी की मौत के बाद मौलाना राशिद मदरसे के एक कमरे में रहते थे. मदरसे में ही होस्टल का इंतजाम था, जहां गरीब लड़कियां रहती थीं.

मौलाना राशिद ने वहां के नेताजी के कहने पर एक गांव की विधवा को वार्डन पद पर रखा था, इसलिए उन्हें खानेपीने का सामान व दूसरी सुविधाएं आसानी से मिल जाती थीं.

‘‘जरा सुनिए,’’ मौलाना राशिद ने आवाज दी.

‘‘जी,’’ कह कर वह लड़की पलटी.

‘‘आप मुझे ‘चाचा’ कह सकती हैं. मैं तुम्हें ‘आरजू’ कह कर ही बुलाऊंगा,’’ मौलाना राशिद ने हंसते हुए कहा.

वह लड़की शरमा कर अपनी जमात की ओर बढ़ गई.

‘‘शमा, तुम्हारा चेहरा पीला सा लग रहा है. क्या बात है? तबीयत तो ठीक है न?’’ आरजू ने एक लड़की से पूछा.

‘‘जी, मुझे अपनी तबीयत ठीक नहीं लग रही है.’’

‘‘मैं मौलाना साहब से कह कर तुम्हें छुट्टी दिलवा देती हूं.’’

आरजू ने मौलाना से इस बाबत बात की. मौलाना ने खुद उस का इलाज कराने की बात कह कर डाक्टर को फोन किया.

‘जी मौलाना, उसे वार्डन के साथ अस्पताल भेज दीजिए. मैं देख लूंगा,’ कह कर डाक्टर ने फोन रख दिया.

नेताजी के दोस्त डाक्टर रमेश मदरसे की सभी लड़कियों का इलाज करते थे. इस के एवज में उन्हें नेताओं की सरपरस्ती और काफी रकम मिलती थी.

‘‘अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है. ये गोलियां खिला दो, ठीक हो जाएगी.’’ डाक्टर ने वार्डन से कहा.

2-3 दिन के आराम के बाद शमा ठीक हो गई और मदरसे में जाने लगी. जब भी मौका मिलता, मौलाना राशिद आरजू को अपने औफिस के कमरे में बिठा लेते और बातचीत करते.

मौलाना की बातचीत, हंसमुख स्वभाव के चलते आरजू भी उन के पास बैठ कर समय गुजारती. मौलाना राशिद ने वार्डन को आरजू को उन के करीब लाने की पेशकश की.

वार्डन ने आरजू पर डोरे डालने शुरू कर दिए. जब भी मौका मिलता, वह आरजू से मौलाना राशिद की तारीफ करती. अनजान आरजू भी मौलाना से घुलनेमिलने लगी थी.

वार्डन ने मौलाना राशिद को बताया, ‘‘नेताजी ने होस्टल से नई उम्र की किसी सुंदर लड़की को रात में बुलाया है. अगर आप कहें तो मैं किसी को भेज दूं?’’

‘‘तुम खुद साथ ले कर जाओ. पैसों का लालच दे देना. आधे पैसे उसे दे कर सुबह होने के पहले ही अपने कमरे में सुला लेना ताकि किसी को शक न हो.’’

होस्टल की लड़कियों पर महीने की 2-4 रातें कयामत बन कर आतीं और वे मदरसे के अहाते से निकल कर मजबूरी में अपने जिस्म का सौदा करातीं. उन्हें इतना डरा दिया जाता था कि उन के मुंह से आवाज तक नहीं निकलती थी.

बड़े लोगों, नेताओं की हवस की भूख मिटाने के लिए मदरसे का इस्तेमाल काफी लंबे समय से चल रहा था, जिस की किसी को कानोंकान खबर नहीं थी.

आरजू को मदरसे में बच्चों को पढ़ाते हुए एक साल पूरा होने को आया था. वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. लड़कियां दहशत में जी कर पढ़ाई कर रही थीं. वे न घर पर, न बाहर जबान खोल सकती थीं. कुछ लड़कियां यतीम थीं, जिन्हें पढ़ाई के लिए सरकार की ओर से रखा गया था.

वार्डन को एक  दिन की छुट्टी दे कर मौलाना राशिद ने आरजू को सारी जिम्मेदारी सौंप दी. नियमानुसार दिनरात उसे मदरसे में ही गुजारनी थी.

दिन तो कट गया, अब रात भी गुजारनी थी. खाना खा कर सब लड़कियां सो गईं. मौलाना राशिद के अंदर का शैतान जाग गया. उस की कई दिनों से आरजू के गदराए बदन पर नजर थी.

‘‘आरजू,’’ कहते हुए किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी.

आरजू ने दरवाजा खोला. सामने मौलाना राशिद को देख कर वह बोली, ‘‘जी चाचा.’’

‘‘मेरे पेट में दर्द हो रहा है. जरा गरम पानी से सेंक दो.’’

‘‘जी,’’ कह कर वह खामोश हो गई.

‘‘मैं अपने कमरे में हूं,’’ कह कर मौलाना राशिद लौट गए.

आरजू पास ही बने कमरे में गई तो देखा कि मौलाना बिस्तर पर करवटें लेते हुए कराह रहे थे.

‘‘दरवाजे को बंद कर दो. किसी ने देख लिया तो बेवजह का शक करेगा.’’

दरवाजा बंद कर आरजू मौलाना का गरम पानी की बोतल से पेट सेंकने लगी. मौलाना उस का हाथ पकड़ कर पेटदर्द की जगह बता रहे थे.

आधा घंटे बाद मौलाना ने कहा, ‘‘टेबल पर केतली में चाय रखी है. अभी गरम होगी. एक कप मुझे दे दो और एक कप तुम ले लो.’’

आरजू ने चाय केतली से निकाल कर एक कप मौलाना को दिया, दूसरा कप खुद ले लिया.

‘‘पानी देना,’’ मौलाना ने कहा. आरजू ने देखा कि वहां रखा पानी का जग खाली था.

‘‘मैं अंदर से लाती हूं,’’ कह कर आरजू पानी लेने चली गई.

इसी बीच मौलाना ने तकिए के नीचे से एक पुडि़या निकाल कर उस के कप में मिला दी.

आरजू ने पानी ला कर दिया.

चाय पी कर वह फिर मौलाना का पेट सेंकने लगी.

कुछ देर बाद आरजू को बेहोशी छाने लगी. वह बिस्तर पर ही गिर गई. मौलाना ने उठ कर उसे अपने बगल में लिटाया.

थोड़ी ही देर में मौलाना ने आरजू के कोरे बदन पर गुनाह की एक लकीर खींच दी.

जब आरजू को सुबह होश आया तो उस ने उठ कर अपनेआप को सिर्फ कुरती में पाया. सलवार, जो उस की आबरू का कवच थी, एक तरफ पड़ी सिसक रही थी.

आरजू ने अपने कपड़े संभाले और बिना कुछ कहे मदरसे के गेट के बाहर चली गई.

Social Story : एक्सीडैंट – आखिर क्या थी हरनाम सिंह की गलती

Social Story : सड़क पर ज्यादा भीड़ को देख कर हरनाम सिंह ने ट्रक की रफ्तार कम कर दी. सारी रात ट्रक चलाते रहने के चलते वह बुरी तरह थक गया था. उस की इच्छा थी कि वह किसी ढाबे में चायनाश्ता कर के कुछ देर वहीं आराम करे. शहर खत्म होते ही सड़क खाली पा कर हरनाम सिंह ने ट्रक की रफ्तार फिर बढ़ा दी. उसे सड़क के बीचोंबीच एक मोपैड सवार जाता दिखाई दिया. उस ने साइड मांगने के लिए हौर्न बजाया. हौर्न की आवाज सुन कर मोपैड सवार ने पलट कर देखा और किनारे होने के बजाय मोपैड की रफ्तार बढ़ा दी.

हरनाम सिंह ने देखा कि वह एक 15-16 साल का लड़का था, जो साइड देने के बजाय ट्रक से मुकाबला करने के मूड में दिख रहा था.

हरनाम सिंह का वास्ता ऐसे शरारती लड़कों से पड़ता रहता था. उस पर गुस्सा आने के बजाय हरनाम सिंह के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उसे देख कर हरनाम सिंह को अपने बेटे की याद आ गई. वह भी बहुत शरारती था. हरनाम सिंह धीमी रफ्तार से ट्रक चलाता रहा.

मोपैड सवार को ट्रक से आगे निकलने में काफी मजा आ रहा था. ट्रक को काफी फासले पर देख कर उस ने खुशी में अपना दाहिना हाथ उठा कर हिलाया.

तेज रफ्तार और दाहिना हाथ हैंडल से हट जाने के चलते वह लड़का बैलैंस नहीं रख सका और सिर के बल पथरीली सड़क पर जा गिरा.

हरनाम सिंह मोपैड सवार का ऐसा भयंकर अंजाम देख सकते में आ गया. उस का ट्रक तेज रफ्तार से दौड़ रहा था. एक सैकंड की भी चूक उस लड़के की जान ले सकती थी.

तेज रफ्तार के बावजूद ट्रक घिसटते हुए घायल मोपैड सवार से कुछ पहले ही रुक गया. अचानक ब्रेक लगने के चलते पिछली सीट पर सोया क्लीनर भानु गिरतेगिरते बचा.

‘‘क्या हुआ उस्ताद?’’ भानु ने घबरा कर पूछा, ‘‘गाड़ी क्यों रोक दी?’’

‘‘उस्ताद के बच्चे, जल्दी से नीचे उतर,‘‘ कह कर हरनाम सिंह नीचे उतरा.

वह लड़का बुरी तरह घायल था. उस का सिर किसी नुकीले पत्थर से टकरा कर फट गया था. उस ने कराह कर एक बार आंखें खोलीं और हरनाम सिंह की ओर देखने लगा, जैसे जान बचाने के लिए कह रहा हो.

हरनाम सिंह दुविधा में पड़ गया. आसपास कोई घर भी नहीं था, जहां से मदद की उम्मीद की जा सके. उस ने 1-2 कारों को रोक कर मदद मांगने की कोशिश की, लेकिन मदद करना तो दूर, किसी ने रुकने की भी जरूरत नहीं समझी.

‘‘घबरा मत बेटा…’’ हरनाम सिंह ने उस लड़के को दिलासा दी, ‘‘मैं तुझे अस्पताल ले कर चलता हूं.’’

‘‘मरने दो उस्ताद. क्यों फालतू के झंझट में पड़ते हो?’’ भानु ने समझाने की कोशिश की, ‘‘यह कोई अपनी गाड़ी से तो नहीं टकराया है.’’ यह सुन कर हरनाम सिंह का खून खौल उठा. उसे ऐसा लगा कि यह बात उस के अपने बेटे के लिए कही गई हो. उस की इच्छा भानु को एक जोरदार थप्पड़ मारने की हुई, लेकिन समय की नजाकत को देख कर उस ने खुद पर काबू पा लिया.

‘‘बकवास मत कर…’’ हरनाम सिंह दहाड़ा, ‘‘इसे ट्रक पर चढ़ाने में मेरी मदद कर.’’

उन दोनों ने मिल कर उस घायल लड़के को ट्रक की पिछली सीट पर लिटा दिया. सीट खून से रंगती जा रही थी. हरनाम सिंह ने खून का बहाव रोकने के लिए अपनी पगड़ी उतार कर लड़के के सिर पर बांध दी.

‘‘तू लड़के की मोपैड ले कर पीछेपीछे आ,’’ हरनाम सिंह ने भानु से कहा और ट्रक ले कर शहर की ओर चल पड़ा.

ज्यादा खून बह जाने के चलते वह लड़का बेहोश हो चुका था. हरनाम सिंह की जगह कोई दूसरा ड्राइवर होता, तो शायद उस घायल लड़के को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गया होता, लेकिन हरनाम सिंह अपने दयालु स्वभाव के चलते उसे अस्पताल तक तो ले कर आया ही, भूखाप्यासा रह कर लड़के की हालत जानने के लिए बेचैन रहा. भानु भी उस के करीब ही बैठा रहा.

‘‘कैसी हालत है डाक्टर साहब?’’ हरनाम सिंह ने आपरेशन थिएटर से डाक्टर को बाहर निकलते देख कर पूछा.

‘‘कुछ कहा नहीं जा सकता…’’ डाक्टर ने बताया, ‘‘खून बहुत ज्यादा बह गया है और उस के ग्रुप का खून नहीं मिला तो…’’

हरनाम सिंह को एक झटका सा लगा, ‘तो क्या मेरी मेहनत बेकार हो जाएगी…’ यह सोच कर वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप मेरा खून ले लीजिए.’’

डाक्टर ने अचरज से उसे देखा और कहा, ‘‘आइए सरदारजी, आप का खून टैस्ट किए लेते हैं.’’ हरनाम सिंह का खून लड़के के ग्रुप का ही निकला. उस का खून उस लड़के को दे दिया गया.

कुछ ही समय बाद वह लड़का खतरे से बाहर हो गया, लेकिन उसे होश नहीं आया था. हरनाम सिंह ने अपने दिल में एक अजीब सी खुशी महसूस की. एक्सीडैंट का मामला होने के चलते अस्पताल वालों ने पुलिस में खबर कर दी थी. सूचना पा कर जांच के लिए काशीनाथ नामक एक रिश्वतखोर इंस्पैक्टर अस्पताल पहुंच गया. वह रिश्वत लेने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता था.

वह बयान लेने के लिए हरनाम सिंह के पास पहुंचा, ‘‘क्या नाम है तेरा?’’ उस इंस्पैक्टर ने हरनाम सिंह को घूरते हुए पूछा, ‘‘कहां जा रहा था? लड़के को टक्कर कैसे मार दी?’’

ड्राइवर होने के चलते हरनाम सिंह ऐसे पुलिस वालों के घटिया बरताव से परिचित था. उसे गुस्सा तो बहुत आया, पर खुद पर काबू रखा. उस ने पूरी घटना सचसच बता दी.

इंस्पैक्टर काशीनाथ पर हरनाम सिंह की शराफत का कोई असर नहीं पड़ा. वह तो कुछ रकम झटकने की तरकीब सोच रहा था.

‘‘जानता है, अस्पताल के सामने ट्रक खड़ा करना मना है…’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ धमकी भरी आवाज में बोला, ‘‘तेरा चालान काटना पड़ेगा.’’

‘‘गलती हो गई साहबजी…’’ हरनाम सिंह गिड़गिड़ा कर बोला, ‘‘उस समय लड़के की जान बचाना जरूरी था.’

‘‘एक तो तू ने नियम तोड़ा है, ऊपर से मुझ से बहस कर रहा है,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ घुड़क कर बोला.

हरनाम सिंह ने पुलिस वाले से उलझना ठीक नहीं समझा. उस ने धीरे से कहा, ‘‘ठीक है, काटिए मेरा चालान.’’

काशीनाथ का धूर्त दिमाग फौरन सक्रिय हो उठा, ‘यह ड्राइवर जरूरत से ज्यादा सीधासादा है…’ उस ने सोचा और कड़क आवाज में कहा, ‘‘ट्रक ले कर कहां जा रहा था? क्या है ट्रक में?’’ ‘‘सीमेंट है साहब. आगे नदी पर बांध बन रहा है, वहीं पर जा रहा था…’’ हरनाम सिंह ने जानकारी देते हुए कहा, ‘‘मेहरबानी कर के मेरी जल्दी छुट्टी कीजिए. मैं बहुत लेट हो गया हूं. अगर समय पर नहीं पहुंचा तो…’’

‘‘ट्रक ले कर थाने चल,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ उस की बात काट कर बोला.

‘‘क्या…’’ यह सुन कर हरनाम सिंह जैसे आसमान से गिरा, ‘‘थाने क्यों साहब? मैं ने क्या किया है?’’

‘‘क्या सुना नहीं तू ने…’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ डपट कर बोला, ‘‘ट्रक ले कर थाने चल.’’

कुछ ही समय बाद हरनाम सिंह व भानु थाने में थे. इंस्पैक्टर काशीनाथ जानता था कि ट्रक वाले कानूनी पचड़ों में फंस कर समय बरबाद करने के बजाय कुछ लेदे कर मामला निबटाना बेहतर समझते हैं. ऐसी ही योजना बना कर वह हरनाम सिंह को थाने में लाया था.

‘‘अब बोल, क्या इरादे हैं तेरे?’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ ने उसे इस अंदाज से घूरा, जैसे कसाई बकरे को देखता है.

‘‘कैसे इरादे साहब?’’ हरनाम सिंह की समझ में कुछ नहीं आया, ‘‘आप चालान कीजिए. जो जुर्माना होगा, मैं भरने को तैयार हूं. मेहरबानी कर के जल्दी कीजिए. अगर मैं समय पर वहां नहीं पहुंचा, तो मेरा भारी नुकसान हो जाएगा,’’ हरनाम सिंह बोला.

‘‘अबे, कुछ खर्चापानी दे, तभी जा सकता है तू यहां से,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ बेशर्मी से बोला.

हरनाम सिंह के सब्र का बांध टूट गया, ‘‘क्यों खर्चापानी दूं? एक इनसान की जान बचा कर मैं ने क्या जुर्म किया है? तुम पुलिस वाले हो या लुटेरे.’’

एक ट्रक ड्राइवर को इस तरह से ऊंची आवाज में बात करते देख इंस्पैक्टर काशीनाथ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने डंडा उठा कर हरनाम सिंह की बेरहमी से पिटाई शुरू कर दी. अपने साहब की मदद करने के लिए दूसरे सिपाही भी आ गए.

हरनाम सिंह पर चारों तरफ से लातघूंसों और डंडों की बौछार होने लगी. उस की दिल दहला देने वाली चीखों से पूरा थाना गूंज उठा. क्लीनर भानु एक ओर खड़ा थरथर कांप रहा था.

24 घंटे से भी ज्यादा समय से भूखाप्यासा हरनाम सिंह खून देने के चलते पहले ही कमजोर हो चुका था. वह पुलिस वालों की मार ज्यादा देर तक सहन न कर सका और पिटतेपिटते बेहोश हो गया.

इस के बाद इंस्पैक्टर काशीनाथ भानु की ओर पलटा और उस से पूछा, ‘‘लिखना जानता है?’’ सूखे पत्ते की तरह कांपते भानु ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा ही लिख दे,’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ धमकी भरी आवाज में भानु से बोला, ‘‘नहीं तो तेरी हालत तेरे उस्ताद से भी बुरी बनाऊंगा.’’ भानु ने अपने उस्ताद के अंजाम से डर कर वही लिखा, जो इंस्पैक्टर काशीनाथ चाहता था. उस ने लिखा कि एक्सीडैंट हरनाम सिंह की गलती से हुआ था. उस ने लापरवाही से ट्रक चलाते हुए मोपैड सवार लड़के को टक्कर मार दी थी.

कुछ लोगों की फितरत सांप जैसी होती है. उन्हें कितना भी दूध पिलाओ, लेकिन वे जहर ही उगलते हैं. घायल लड़के का बाप उन्हीं में से एक था. उस ने सारी हकीकत जानने के बावजूद अपने बेटे को जीवनदान देने वाले की मदद करने की बात तो दूर, रिश्वत की रकम में हिस्सा पाने के लिए हरनाम सिंह के खिलाफ झूठी रिपोर्ट कर दी.

हरनाम सिंह के मुंह पर पानी डाल कर उसे होश में लाया गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है सरदारजी?’’ इंस्पैक्टर काशीनाथ ने पूछा.

हरनाम सिंह चुप रहा.

इंस्पैक्टर काशीनाथ बेचैन हो उठा. वह जल्दी से जल्दी मामला निबटा देना चाहता था. देर होने से बात बिगड़ सकती थी. उस ने हरनाम सिंह से 10 हजार रुपए की रिश्वत मांगी.

पुलिस की मार से हरनाम सिंह पहले ही टूट चुका था. उसे यह जान कर सदमा लगा कि जिस लड़के की उस ने जान बचाई थी, उस का बाप भी इस धूर्त पुलिस वाले का साथ दे रहा है. उस ने कानूनी चक्कर में फंस कर समय बरबाद करने के बजाय रिश्वत दे कर जान छुड़ाना बेहतर समझा.

ड्राइवर हरनाम सिंह ने अपने ट्रक के थोड़े पुराने 2 टायर बेच कर और अपने पास से कुछ पैसा मिला कर 10 हजार रुपए जुटाए और इंस्पैक्टर काशीनाथ के हवाले कर दिए.

थाने से हाईवे तक पहुंचने के लिए अस्पताल के सामने से हो कर गुजरना पड़ता था. अस्पताल के फाटक पर वही डाक्टर खड़ा था, जिस ने उस घायल लड़के का इलाज किया था. हरनाम सिंह ने ट्रक वहीं रोक दिया.

‘‘अब वह लड़का कैसा है डाक्टर साहब?’’ हरनाम सिंह ने ट्रक पर बैठेबैठे पूछा. डाक्टर ने हरनाम सिंह को पहचान लिया, ‘‘वह एकदम ठीक है. अब उसे होश भी आ गया है, लेकिन आप को क्या हो गया है? आप की यह हालत…’’ हरनाम सिंह ने डाक्टर की बात का कोई जवाब नहीं दिया और ट्रक आगे बढ़ा दिया

Funny Story : कवि सम्मेलन और रात्रिभोज

Funny Story : देशप्रदेश में हमेशा की भांति काव्य संसार की सहज अनुप्रास छटा छाई है. शहर में 3-दिवसीय कविता विमर्श था. प्रथम दिवस संध्या 7 बजे से 11 बजे तक कार्यक्रम में रोहरानंद बहैसियत  आम व कवि उपस्थित हुआ. सब से पहले, समकालीन कविता क्या शै है, वरिष्ठतम कवियों ने हमें बताया. फिर शुरू हुआ अथिति कवियों का काव्यपाठ. अंत में जिस बात का इंतजार था, वही हुआ, रात्रिभोज.

रोहरानंद को जीवन में पहली बार कवि होने का लाभ मिला, मगर… डिनर में लंबी लाइन थी. कविगण  पंक्तिबद्ध एकदूसरे के पीछे  अनुशासित खड़े थे, हाथों में प्लेट थामने को आतुर.

एक अकवि मित्र ने कहा, “चलिए, पंक्ति में स्थान ग्रहण करें.”

मगर रोहरानंद का कविमन इस के लिए तैयार न था. कवि अर्थात विशिष्ट प्राणी. अगर कवि हो कर आम आदमी की भांति लाइन में खाना अर्थात डिनर का लुत्फ़  उठाया, तो क्या खाक कवि हुए ? नहींनहीं, भले खाना घर जा कर खाऊंगा, मगर निरीह आम आदमी सा पंक्तिबद्ध श्रृंखला में, साधारण मनुष्य सा, मैं भोजन नहीं ग्रहण कर सकता?

आयोजकों ने बड़ी गलती की है, मेरे कविमन को ठेस पहुंचाई है. या फिर आयोजक यह समझते हैं कि मैं कवि नहीं हूं, आम आदमी हूं? कोई भेड़बकरी…

रोहरानंद ने कहा, “पंक्ति ख़त्म हो जाएगी, तब डिनर का आनंद लेंगे.”

अकवि मित्र ने चिंता जताई, “भैया, यहां शर्म छोड़िए, कौन जानता है तुम कवि हो, कहीं भोजन सामग्री खत्म हो गई तो?”

रोहरानंद मुसकराया, “ नहींनहीं, आतुर  न हो मित्र. थोड़ी ही देर में लंबी पंक्ति हवा की भांति चंहुओर व्याप्त हो जाएगी.  भोजन फिर ग्रहण कर लेंगे.”

मगर, दोनों मित्र बेचैन थे. जिस तरह राजनीतिक दल के नेता आलाकमान की बात अंतिम मानते हैं, दोनों ने हथियार डाल समर्पण कर दिया. और सचमुच रोहरानंद ने देखा, भीड़ हट गई है. भोजन सामग्री आजाद है. वह अकवि मित्र की ओर देख कर मुसकराया.

“आओ दोस्तो, अब मौका सम्मान का है. कोई पंक्ति नहीं. हम पंक्तिबद्ध हो लें.” रोहरानंद के साथ मित्रगण भोजन की और बढ़े मानो युद्ध के मैदान की ओर सेना चल पड़ी. सहजता से सलाद, कढ़ी, चावल, रोटी, दाल और पापड़ को प्लेट को युद्ध भूमि में उतार रोहरानंद भोजन का आनंद लेने लगा. थोड़ी देर में भोज्य सामग्री की सादगी की  उसे अनुभूति हुई. आज कवि होने का सच्चा लाभ उठा रहा है. अगर वह कवि न होता तो क्या इरेक्टर्स होस्टल में आयोजित समकालीन कविता पर केंद्रित विमर्श में सम्मिलित हो पाता? क्या उसे आमंत्रण मिलता? तो कवि होने की गर्वानुभूति उसे होने लगी.

“आह, क्या कढ़ी है… वर्षों बाद ऐसी कठोर रोटी मिली है. तोड़ने पर टूटती नहीं,”

अकवि मित्र ने कहा, “हाय, मेरा दांत,”

रोहरानंद ने सहानुभूतिपूर्वक उस की ओर देखा, “क्यों, क्या हुआ?”

“रोटी चबाते मेरा दांत हिल गया.”

“देखा… कवि के मित्र होने का लाभ. तुम्हें डाक्टर के पास जाने की दरकार नहीं, एकाध रोटी और लो, दांत बाहर आ जाएगा.”

रोहरानंद ने गौर किया. प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम बल्कि राष्ट्रीय  मगर उपस्थिति मात्र अस्सी से सौ की. यहां भोजन आम कवियों के लिए था, विशिष्ट और मुख्य अतिथि सहित अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नदारद. रोहरानंद को समझते देर नहीं लगी- वरिष्ठतम और उस के जैसे कवियों की व्यवस्था अलगअलग की गई है ताकि दूरी और सम्मानभाव बना रहे.

रोहरानंद को पहली दफा कवि होने पर गर्व की अनुभूति सिर चढ़ कर बोलने लगी. कवि होने के लाभ ही लाभ आंखों के समक्ष आसमान के सितारों की तरह झिलमिलाने लगे.

कार्यक्रम  पुलिस के एक बड़े अधिकारी के इंट्रेस्ट पर संभव हुआ था. रोहरानंद कईकई बार सोचता था- ऐसा एकाध कार्यक्रम हो, मगर अर्थाभाव के कारण कभी कार्यक्रम संभव नहीं हुआ. हुआ भी तो इतना उम्दा. रोहरानंद ने मन ही मन संकल्प लिया किसी भांति  साहब के सन्निकट पहुंचना होगा. संबंध मधुर बना लिए तो आनंद ही आनंद और कवि होने का लाभ ही लाभ.

साहब कवि हैं और विशाल हृदय भी. वे दृष्टिपारखी भी हैं. अगर  मैं सन्निकट पहुंचा तो मेरी कविता कमल की भांति और व्यक्तित्व चांदसितारे की भांति खिल उठेगा. और फिर कवि होने का लाभ मैं दोनों हाथों से उठाऊंगा. राम की दृष्टि में निरीह निषाद राज क्या आए, उसे ससम्मान रामायण में स्थान मिला. रोहरानंद  साहब की दृष्टि में आ गया, तो कविता की किताबों और कवि सम्मेलनों में स्थान प्राप्त कर अमर हो जाऊंगा.

रोहरानंद सम्मेलन से लौट आया. रातभर नींद ही नहीं आई.

भविष्य का सवाल था. एक अदद उच्च  अधिकारी या आईएएस अथवा राजनीतिक कवि विभूति के सान्निध्य के बगैर कवि होने का न लाभ मिलेगा, न कविधर्म निभाने का मौका. रोहरानंद कब बड़ा कवि बनेगा? वह रातभर रास्ता ढूंढता रहा ढूंढता रहा. मगर खोज अभी खत्म नहीं हुई है. रोहरानंद को कविता की देवी पर आस्था है – कभी न कभी उसे भी एक उच्च अधिकारी का राज्याश्रय मिलेगा और वह भी कवि होने का लाभ उठाएगा.

Short Story : छिछोरेपन की क्रीम – क्या थी इस की असलियत

Short Story : दरअसल, इन दिनों रमेश भी साथ वाले कपिलजी की वजह से अपने काले होते चेहरे को ले कर कुछकुछ परेशान था. भाई साहब, आप औफिस में अपना चेहरा चाहे कितना ही क्यों न ढक कर रखें, पर कालिख यहांवहां से उड़ कर कमबख्त चेहरे पर वैसे ही आ कर बैठ जाती है जैसे फूल पर मधुमक्खियां.

जैसे हिरन शिकारी के जाल में एक बार फंस जाता है और उस के बाद वह उस जाल से निकलने की जितनी कोशिश करता है, उतना ही उस जाल में उलझता चला जाता है, ठीक उसी तरह से रमेश भी हिरन की तरह शिकारीरूपी बाजार में आई काले चेहरे को गोरा करने वाली क्रीमों के जाल में एक बार जो फंसा तो उस के बाद बाजार की गोरेपन की क्रीमों के जाल से निकलने की जितनी कोशिश की, उतना ही उस जाल में उलझता चला गया.

जब रमेश गोरेपन की क्रीमों के बाजार के जाल से निकलने के बजाय उस में उलझताउलझता थक गया कि तभी कपिलजी सामने से अपना काला चेहरा लिए आ धमके.

दरअसल, जब कपिलजी को लगा कि उन का चेहरा अब पूरी तरह से काजल की कोठरी में रहतेरहते काला हो गया है तो वे रमेश के पास काले चेहरे को गोरा करने की सलाह लेने आए.

गोरेपन की क्रीमों के जाल में रमेश को उलझा हुआ देखने के बाद भी वे उस की पीड़ा की परवाह किए बिना बोले, ‘‘यार, मैं देख रहा हूं कि आजकल तेरा काला चेहरा कुछकुछ गोरा हो रहा है. इन दिनों काले चेहरे पर किस बाबा की गोरेपन की क्रीम लगा रहा है तू?’’

रमेश ने अपने मन की पीड़ा को दबाए हुए उस काले चेहरे वाले दोस्त से कहा, ‘‘दोस्त, स्वदेशी गोरेपन की क्रीम से अपने भक्तों का चेहरा गोरा करने वाले तो आजकल अपना ही चेहरा काला किए रोज जेलों की हवा खा रहे हैं. ऐसे में सूझ नहीं रहा कि…’’

रमेश ने गोरेपन की क्रीमों के तमाम ब्रांडों को कोसते हुए कहा तो कपिलजी बोले, ‘‘बस यार, देश को बहुत खा लिया अब. बहुत मुंह काला कर लिया. अब तो अपने ही काले चेहरे से घिन आने लगी है. अब तो मरते हुए बस एक ही इच्छा बाकी है कि मरूं तो गोरा चेहरा ले कर मरूं.’’

कपिलजी ने जिस पीड़ा से कहा तो उन के चेहरे से लगा कि उन के मन में चेहरा काला होने का कहीं न कहीं मलाल जरूर है वरना यों ही कोई अपने काले चेहरे को नहीं कोसता, आदमी को यों ही अपने काले चेहरे से घिन नहीं आती.

चलो, मरते हुए ही सही, उन्हें अपने चेहरे के कालेपन का अहसास तो हुआ. दोस्तो, मरते हुए ही सही जो कोई अपने काले चेहरे को गोरा करने की सोचे तो उस चेहरे को काला चेहरा नहीं कहना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे सुबह का भूला जब शाम को घर आ जाए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते.

‘‘तो यह गोरेपन की क्रीम कैसी रहेगी?’’ पूछने के तुरंत बाद कपिलजी ने अपनी सदरी की जेब से अखबार में छपा छिछोरेपन… सौरी, गोरेपन की क्रीम का इश्तिहार निकाल कर गोरेपन की क्रीमों के जाल में उलझे रमेश के आगे दरी की तरह बिछा दिया.

रमेश ने गौर से इश्तिहार पढ़ा. क्रीम वाली कंपनी ने सीना तान कर दावा किया था कि चेहरे पर किसी भी वजह से, किसी भी तरह के, कैसे भी दाग हों, हफ्तेभर में साफ. साफ न हों तो पूरे 10 लाख रुपए का इनाम. उस क्रीम के इश्तिहार की बगल में गोरेपन की क्रीम की प्रामाणिकता के लिए बीसियों ऐसे लोगों के फोटो क्रीम लगाने से पहले और उस कंपनी की गोरेपन की क्रीम लगाने के बाद के नामपते समेत छपे थे, जिन्होंने इसे अपने कालिख सने चेहरे पर मला था और

7 दिन बाद ही उन के चेहरे का कालापन यों गोरा हो गया था कि उन्हें भी अपने चेहरे को पहचानने में मुश्किल हो रही थी कि यह चेहरा उन का ही है या स्वर्ग के किसी देवता का. उन के चेहरे की कालिख यों गायब थी ज्यों गधे के सिर से सींग.

दोस्तो, देश में काले चेहरे को गोरा करने के नाम पर जितना काले चेहरे वालों को तो छोडि़ए गोरे चेहरे वालों तक को ठगा जा सकता है, उतना किसी और चेहरे वालों को नहीं.

हम अपने चेहरे को गोरा करने के लिए अनादिकाल से चेहरे पर क्याक्या नहीं मलते आए हैं. आज भी देश में हर कोई चाहता है कि उस का चेहरा चांद से भी गोरा हो, इसीलिए देश में काले चेहरों के उद्धार के लिए एक से एक गोरेपन की क्रीमों ने अपनी पतली कमर कसी हुई है.

अपने काले चेहरे को गोरा करतेकरते भले ही चेहरे वालों की कमर ढीली हो जाए तो हो जाए, पर गोरेपन की क्रीम बेचने वाले अपनी कमर जरा भी ढीली नहीं होने देते.

गोरेपन की क्रीमों का बाजार आटे के बाजार से भी ज्यादा तेजी से फलफूल रहा है. आदमी को रोटी मिले या न मिले, पर वह अपने चेहरे को हर हाल में गोरा बनाए रखना चाहता है. आदमी को पानी मिले या न मिले, पर वह अपने चेहरे को गोरा बनाए रखना चाहता है तभी तो पाउडर के नाम पर सड़ा आटा मजे से बिक रहा?है.

अब तो सड़क से ले कर संसद तक जिसे देखिए, जहां देखिए, सब सारे काम छोड़ कर अपने चेहरे को चमकाने वाली क्रीमों को अपनी हैसियत के हिसाब से पाउच खरीद कर गोरा बनाने में जुटे हैं.

आखिर रमेश ने कपिलजी का मन रखने के लिए उन्हें अखबार में छपी गोरेपन की क्रीम को लगाने पर मुहर लगा दी तो मुसकराते हुए, गुनगुनाते हुए अपने रास्ते हो लिए.

हफ्तेभर बाद वे मिले तो उन का चेहरा देख कर रमेश दंग रह गया. उन के चेहरे पर बुढ़ापे में भी कीलमुंहासे निकल आए थे. उन के चेहरे की तो छोडि़ए, उन की हरकतें तक अजीबोगरीब थीं. रमेश परेशान. बंदे ने गोरेपन की क्रीम के पैक में बंद चेहरे पर गोरेपन की क्रीम के बदले किस गैंड़े का गोबर मल लिया था?

‘‘बंधु, यह क्या मल लिया चेहरे पर?’’ रमेश ने खुल कर हंसना चाहा, पर नकली दोस्त पर सच्चे दोस्त को हंसना नहीं चाहिए, इसलिए वह मन ही मन हंसा.

‘‘गोरेपन की क्रीम और क्या…’’ जब कपिलजी ने कहा तो रमेश सब समब गया कि बंदा असली बाजार की नकली गोरेपन की क्रीम का शिकार हो गया है.

‘‘अपनी क्रीम तो दिखाना…’’

‘‘अपने चेहरे पर लगानी है क्या? देखो दोस्त, तुम भले ही मेरी जान ले लो, पर इस क्रीम में से एक रत्तीभर भी क्रीम न दूंगा. गोरेपन की क्रीम अपनीअपनी, दोस्ती पक्की,’’ कपिलजी आधी बदतमीजी, पूरे होशोहवास में करते हुए बोले तो रमेश को उन पर रोना आया. बड़ी मिन्नतें करने के बाद उन से गोरेपन की क्रीम ले कर ध्यान से उस में मिलाए गए सामान को पढ़ा तो पता चला कि वह क्रीम गोरेपन की नहीं, बल्कि छिछोरेपन की थी.

Short Story : मीनू – एक सच्ची कहानी

Short Story : बात उन दिनों की है, जब मैं मिलिटरी ट्रेनिंग के लिए 3 एमटीआर मडगांव, गोवा गया हुआ था. कुछ दिनों के लिए मिलिटरी अस्पताल, पणजी में मैं अपने पैरदर्द के इलाज के लिए रुका हुआ था.

एक दिन यों ही मैं अपने एक दोस्त साजन के साथ कंडोलिम बीच की तरफ घूमने निकला था. पहले हम मिलिटरी अस्पताल से बस ले कर फैरी टर्मिनल पहुंचे. फिर हम ने पंजिम का मांडोवी दरिया फैरी से पार किया. फिर वहां से हम दोनों कंडोलिम बीच के लिए बस में बैठ गए.

आप को बता दूं कि कंडोलिम बीच पंजिम से 13 किलोमीटर दूर है. साथ ही, यह भी बता दूं कि पणजी को ही आम बोलचाल में पंजिम कहा जाता है.

खैर, हम बस में सवार हो चुके थे. हम 3 सवारी वाली सीट पर बैठ गए थे. तीसरी सवारी कोई और थी. वह मर्द था.

मेरा दोस्त साजन शीशे की तरफ वाली सीट पर बैठ गया था. मैं बीच वाली सीट पर बैठ गया.

अचानक मेरी नजर हम से अगली सीट पर बैठी लड़की पर गई. उस पर सिर्फ एक ही सवारी बैठी थी. वह 18-19 साल की लड़की थी. उस का रंग सांवला था. उस के हाथ में गोवा मैडिकल कालेज और अस्पताल का कार्ड था. कार्ड पर उस का नाम मीनू लिखा हुआ था.

मैं ने अचानक ही पूछ लिया, ‘‘आप जीएमसी से आ रही हैं?’’

उस ने कहा, ‘‘हां.’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं भी इलाज के लिए जीएमसी में जाता रहता हूं.’’

मैं ने एकदम पूछ लिया, ‘‘आप को क्या हुआ है?’’

वह बोली, ‘‘छाती में दर्द है.’’

मैं ने अफसोस में कहा, ‘‘ओह.’’

फिर उस ने पूछा, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘हम भारतीय सेना में हैं. मैं अपने दोस्त साजन को कंडोलिम बीच दिखाने ले जा रहा हूं.’’

वह लड़की मेरे साथ बात करने में खुशी महसूस कर रही थी, इसलिए मैं बातें जारी रखना चाहता था. फिर मैं ने पूछा, ‘‘क्या आप भी कंडोलिम बीच पर जा रही हैं?’’

उस ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं, रास्ते में मेरा गांव है. मैं वहां जा रही हूं.’’

अब मीनू मुझे अपनी सी लगने लग गई थी. मैं भी उस के सपने देखने लगा था. उस की भावनाएं भी शायद कुछ ऐसी ही होंगी. उस उम्र में हर लड़कालड़की के मन में अपने एक जीवनसाथी की तलाश रहती है.

मीनू बोली, ‘‘आगे आ जाइए.’’

उस के साथ वाली सीट खाली थी. वह फिर बोली, ‘‘आप को बात करने में दिक्कत आ रही है, आगे आ जाइए.’’

मेरा दोस्त साजन बोला, ‘‘जाओ, आगे चले जाओ.’’

मैं आगे जा कर मीनू के साथ वाली सीट पर बैठ गया.

वह बोली, ‘‘तुम्हारा दोस्त अकेला रह गया. उसे भी बुला लो.’’

मैं ने साजन से आगे आने के लिए कहा. पर उस ने कहा कि कोई बात नहीं, आप अपनी बातें करो.

मैं ने मीनू को अपनेपन से कहा, ‘‘आप भी हमारे साथ बीच पर चलो. हमें भी बीच घुमा लाओ.’’

उस ने कहा, ‘‘जी नहीं, मैं नहीं जा सकती. मेरा घर जाना जरूरी है.’’

इतने में कंडक्टर आ गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘2 टिकट कंडोलिम बीच के और एक टिकट…’’

उस के गांव का नाम मेरे मुंह में ही रह गया. उस ने बात मेरे मुंह से छीनते हुए कहा, ‘‘3 टिकट कंडोलिम बीच…’’

फिर वह मेरी तरफ मुंह घुमा कर बोली, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारे साथ ही चलती हूं. जल्दी वापस आ जाएंगे.’’

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

हम जल्दी ही कंडोलिम बीच पहुंच गए. हम वहां पर घूमे, खाना खाया और इधरउधर की बातें कीं.

मैं ने मीनू से पूछा, ‘‘आप के पिताजी क्या काम करते हैं?’’

उस ने जवाब दिया, ‘‘मेरे डैडी मजदूरी करते हैं. मेरी मम्मी घरों में बरतन धोने का काम करती हैं. मैं एक गारमैंट्स स्टोर पर काम करती हूं और साथ में बरतन धोने का काम भी करती हूं.’’

मीनू ने यह भी बताया कि एक उस की बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है और पणजी में अपने पति के साथ रहती है. उस के मम्मीडैडी कोल्हापुर से यहां आ कर बसे हुए हैं. बिना संकोच किए उस ने सबकुछ साफसाफ बता दिया था.

उस समय मेरी उम्र 23 साल थी और उस की उम्र 19 साल थी. उम्र का अंतर ठीक था.

मैं ने पूछा, ‘‘आप कितना पढ़ीलिखी होंगी?’’

उस ने बताया कि वह एसएससी पास है.

वैसे, मेरी पढ़ाई उस से काफी ज्यादा थी, पर चूंकि हमारे दिल मिल चुके थे, इसलिए सबकुछ ठीक लग रहा था. फिर हम एक होटल में कुछ देर के लिए रुके. हम एक हो गए थे.

अब हमें लौटना था. मैं चाहता था कि मेरे बाकी आर्मी के दोस्त भी अपनी भाभी को देख लें. मैं बहुत जोश में था. अब मैं अकेला नहीं था. मैं ने उस से कहा कि मेरे साथ मिलिटरी अस्पताल चले. वह बोली, ‘‘ठीक है.’’

मीनू मेरे साथ मिलिटरी अस्पताल आई. मैं ने अपने दोस्तों को उन की भाभी दिखाई. उस ने खुद हमारे कर्नल साहब से बात की. उस के बाद वह वापस चली गई.

एक दिन बाद ही मुझे मडगांव सैंटर जाना था. मैं ने मीनू को वहां का पता लिख कर दे दिया था.

मैं मडगांव सैंटर चला गया था. मीनू की बहुत याद आ रही थी. उस का खत आ गया. वह भी उदास थी. वह मुझ से मिलना चाहती थी. उस ने लिखा कि मैं उस को जीएमसी, पणजी में 10 तारीख को 12 बजे मिलूं.

मैं ने उसे जवाब दिया कि मैं भी बहुत उदास हूं. मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आ रही है. मैं जीएमसी, पणजी आ रहा हूं. वहां मेरे पैर का आपरेशन है. आप से भी मिल लूंगा.

उस के आने के एक दिन पहले मेरे पैर का आपरेशन हो गया था. मैं वार्ड में भरती था. जब उस ने मेरा नाम ले कर इनक्वायरी पर पता किया, तो स्टाफ ने मुझ से मिला दिया. मिलने के लिए उसे कम समय दिया गया था.

मैं ने उसे बताया कि मैं परमानैंट डिसएबल्ड हो गया हूं. अब मुझे नौकरी छोड़नी होगी और मजबूरन अपने घर पंजाब जाना होगा.

मुझे नौकरी छूट जाने का गम था. मन में बहुत सी बातें घूम रही थीं कि बिना नौकरी के मेरा कैसे गुजारा होगा, मीनू को कहां रखूंगा. क्या करूं? वापस अपने घर पंजाब चला जाऊं या यहीं रह कर कुछ कामधंधा करूं?

वह मुझ से मिल कर जल्दी चली गई. मैं और उदास हो गया था. उस के अगले दिन मैं अपने मडगांव सैंटर चला गया.

एक हफ्ते बाद टांके कटवाने के लिए जीएमसी आया था और टांके कटवा कर वापस मडगांव सैंटर चला गया था. नौकरी से डिस्चार्ज के कागज तैयार हो गए थे. पैंशन नहीं लगी थी, क्योंकि मैडिकल बोर्ड ने डिसएबल्टी की वजह ट्रेनिंग नहीं लिखी थी.

मैं अपने घर पंजाब नहीं जाना चाहता था. जिस के साथ मैं नई जिंदगी बसाने के सपने देख रहा था, उसे कैसे छोड़ कर जाता. नौकरी छोड़ कर गरीब मातापिता को कैसे मुंह दिखाता. पैसे से हाथ खाली थे. कोई छोटामोटा कमरा या घर भी तो किराए पर नहीं ले सकता था. सेहत भी ठीक नहीं थी, जिस वजह से कोई काम भी नहीं कर सकता था.

मैं ने सोचा कि कोई न कोई काम करने की कोशिश करनी चाहिए. कर्नल साहब की सिफारिश पर मुझे एक पैट्रोल पंप पर नौकरी मिल गई. पहले ही दिन काम कर के देखा था. शरीर साथ नहीं दे रहा था. मन भी उदास था.

शाम को बस में बैठ कर मैं मीनू के गांव की तरफ चल पड़ा. उस के गांव उतर कर मैं वहीं बैठ गया. वहां से उस के गांव जाने के लिए थोड़ा पैदल रास्ता था. कदम आगे जाने से रुक गए थे. मन कोई फैसला नहीं ले पा रहा था कि क्या करूं.

इतने में वापसी की बस आ कर रुकी. मैं बिना कुछ सोचे ही उस बस में बैठ गया. वहां से पणजी, पणजी से मडगांव सैंटर पहुंच गया. अगले दिन रेलवे का टिकट वारंट लिया और वापस अपने घर पंजाब के लिए चल पड़ा उदास मन ले कर.

आज मेरी उम्र 50 साल से ऊपर हो गई है. उस को मैं एक पल के लिए भी नहीं भूल पाया हूं. मीनू के साथ बिताया एकएक पल मुझे ऐसे याद रहता है, जैसे कल की ही बात हो.

(यह कहानी एक सच्ची घटना पर लिखी गई है. पात्रों के नाम व जगह बदल दी गई है)  

Family Story : हस्ताक्षर – आखिर कैसे मंजू बनी मंजूबाई?

Family Story : मंजू आईने में अपने गठीले बदन को निहार रही थी और सोच रही थी कि बिना कलह के दो रोटी भी खाओ, तो सेहत अच्छी हो ही जाती है. वह अपने चेहरे के सामने आए बालों को हाथों से सुलझा कर, अपनी बड़ीबड़ी आंखें में तैरते हुए सपनों को देखने की कोशिश कर रही थी. अभी भी उस के चेहरे पर चमक बाक़ी थी. फिर वह याद करने लगी थी…  कैसे वह मंजू से मंजूबाई बन गई थी. जब शादी कर के इस घर में आई थी, तब उस की सास कितनी खुश हुई थीं.  वे उस की सुंदर काया देख कर घरघर कहती फिरतीं थीं, ‘मेरी बहू बहुत ही खूबसूरत है. वह लाखों में एक है.’

और फिर एक दिन सासुमां ने उसे समझाया था, ‘अब बहू, तुम्हें ही मेरे लल्ला को सुधारना है. थोड़ाबहुत उसे पीने की आदत है.’

‘सुनिए जी, आप शराब पीना बंद कर दीजिए. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ मैं ने पति की बांहों में सिमट कर मनाने की कोशिश की थी.

कुछ दिनों तक उस का पीना कुछ कम हुआ, लेकिन जल्द ही वह पुरानी आदत के कारण पीने लगा था. फिर तो वह मेरी सुनता ही नहीं था. जब मना करती, वह भड़क जाता. उस दिन, पहली बार अपने पति से पीटी गई थी. मैं खूब रोई थी.

मैं अपने समय को कोस रही थी. गरीब मांबाप की बेटी, अपने समय को ही दोष दे कर रह जाती है. शराब की लत ने उसे बीमार कर दिया था. मैं रोज उस से लड़ती. यह लड़ाईझगड़ा मेरी पिटाई पर खत्म होता. आसपास वाले लोग तमाशा देखते. उन लोगों के लिए  यह सब मनोरंजन का साधन था. जबकि, मैं रोज मर और जी रही थी.

मैं उसे सुधार न सकी. देखतेदेखते मैं 2 बेटियों की मां बन गई थी. अब तो सुंदर त्वचा हडि्डयों से चिपक कर, बदसूरत और काली बन चुकी थी.

सासुमां  घर के सारा सामान व जेवरात बेच कर बीमार बेटे को बचाने में लग गई थीं. लेकिन गुरदे की बीमारी ने उस की जान ले ली. सासुमां अपने लल्ला के वियोग में ज्यादा दिन टिक नहीं पाईं.

कुछ जलने की बू आने लगी. तभी उसे याद आया, गैस पर दाल उबल रही थी. वह किचेन की तरह दौड़ पड़ी. जल्दीजल्दी कलछी से दाल को चला कर  चूल्हे से नीचे रख दी. पूरी तरह से नहीं जली थी.

काम से निबट कर  कमरे में खाट पर लेट गई और सोचने लगी, 2 बेटियों की अकेली मां…  बच्चों को पालने के लिए घरघर झाड़ूपोंछा करने लगी थी. बाद में प्राइवेट स्कूल में साफसफाई और झाड़ू लगाने का काम मिल गया . बेटियां उसी स्कूल में पढ़ने लगी थीं.

इन दिनों स्कूल में गरमी की छुट्टी चल रही थी. रिंकी और पिंकी नाश्ता करने के बाद इत्मीनान से सो रही थीं. मैं दोपहर का भोजन तैयार कर रही थी क्योंकि राघव आने वाला था. वह उसी स्कूल में बस का ड्राइवर है. जरूरत पड़ने पर वह मेरी मदद कर देता था. मेरी बेटी बीमार हो जाती थी, तो वह कई बार अस्पताल ले गया था. इतना ही नहीं, उन दिनों जब मैं काफी हताश और निराश थी तो उस ने आगे बढ़ कर सहारा दिया था. फिर कैसे हम दोनों एकदूसरे के दुखसुख के साथी बन गए, पता ही नहीं चला.

अब वह छुट्टियों में मेरे  घर कभीकभी आने लगा था. बच्चों के लिए टॉफियां और मिठाइयां ले कर आता. वह बच्चों के साथ घुलमिल गया था. बच्चे भी उसे अंकल अंकल करने लगे थे.

जब पेट की भूख शांत हुई तो तन की भूख मुझे सताने लगी. पति के साथ झगड़े के कारण असंतुष्ट ही रही. उस का भरपूर प्यार मिला नहीं. आखिर कब तक अकेली रहती. ऐसे में राघव का साथ मिला. वह भी अपनी पत्नी से दूर रहता है. वह इतना भी नहीं कमा पाता है कि हजार किलोमीटर दूर अपनी पत्नी के पास जल्दीजल्दी जा सके. शायद हम दोनों की तनहाइयां एकदूसरे को पास ले आई थीं.

जब कल शाम को बाजार से लौट रही थी तो पड़ोस की कांताबाई मिल गई थी. वह मेरी विपत्तियों  में अंतरंग सहेली बन चुकी थी. उसी ने मुझे शुरू में झाड़ूपोंछा का काम दिलाया था. मेरा हालचाल जानने के बाद  वह पूछने लगी थी, ‘राघव इन दिनों तुम्हारे घर ज्यादा ही आ रहा है?’

‘कांता, तुम तो जानती हो, वह बच्चों के पास आ जाता है, इसीलिए मैं मना नहीं कर पाती हूं.’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की थी.

‘मंजू, मैं तुम को बहुत पहले से जानती हूं. महल्ले वाले तुम दोनों के बारे में तरहतरह के किस्सेकहानियां गढ़ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि अगर तुम्हारे मन में उस के प्रति कुछ है,  तो तुम जल्दी से  कोई निर्णय ले लो. तुम अकेले कब तक रहोगी.’ उस ने मुझे समझाने की कोशिश की थी.

‘अरे कांता,  तुम भी मुझे नहीं समझ पाईं. मैं अब 2 बेटियों की मां हूं. तुम जो सोच रही हो ऐसा कुछ भी नहीं है. और ये महल्ले वालों का क्या है. उन्हें तो, बस, मनोरंजन होना चाहिए. उन को किसी के दुखसुख से क्या मतलब. वह मेरे साथ स्कूल में काम करता है. बच्चों से ज्यादा हिलमिल गया. बच्चों के बीमार होने पर उस ने कई बार मेरी मदद की है. बस, उस से अपनत्व हो गया है. लेकिन लोगों का क्या है, वे तो गलत निगाह से  देखेंगे ही न. उस के भी अपने बच्चे हैं.  इस बार लौकडाउन होने के कारण वह अपने घर नहीं जा सका है. वह अकेला रहता है, इसीलिए कभीकभी खाने के लिए उसे बुला लेती हूं,’ वह जरा बनावटी गुस्से में बोली थी.

‘मैं जानती थी कि तू कभी ऐसा नहीं करेगी,’ कांता संतुष्ट होते हुए बोली.

‘कांता, मैं विवाहबंधन को अच्छी तरह से झेल चुकी हूं. विवाह के बाद कितना सुख मिला है, वह भी तुझे मालूम है. सो, इस जन्म में तो विवाह करने से रही.’

यह सब कहते हुए मंजू की आंखों में आंसू तैरने लगे थे. कुछ रुक कर उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘रही बात महल्ले वालों की, जिस दिन मैं अपने पति से पीटी जाती थी, उस दिन भी ये लोग मजा लेते थे. लेकिन कभी भी मेरे दुखती रग पर मरहम लगाने नहीं आते थे. हां, वे नमक छिड़कने जरूर आते थे. मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देती. मुझे जो मरजी है, वही करूंगी. मैं लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देती.’ इस बार मंजू गुस्से से उबलने लगी थी.

कांता ने गहरी सांस ली और उसे समझाने लगी,  ‘मंजू, मैं जानती हूं. लेकिन समाज में रहना है तो लोगों पर ध्यान देना ही पड़ता है. लोग क्या सोच रहे हैं, हम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन हमारे बच्चों पर तो पड़ सकता है न.’

आज मैं सोच रही थी. जैसे ही राघव  मेरे पास आएगा, मैं उसे मना करूंगी कि अब तुम रोजरोज मत आया करो. महल्ले वाले किस्सेकहानियां गढ़ने लगे हैं. अब बच्चे भी बड़े होने लगे हैं. उन पर बुरा असर पड़ेगा. मैं यह भी सोच रही थी कि कैसे राघव को मना करूंगी. मुझे भी लग रहा है कि लोगों से बचने के लिए उसे आने से मना करना ही उचित होगा. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि  किसी की आने की आहट मिली.

सामने राघव खड़ा मुसकरा रहा था. आते ही मुझे बांहों में भर लिया था उस ने. न चाहते हुए भी मैं खुद को रोक नहीं पाई. उस के आलिंगन में खिंचती चली गई. उस ने मेरे होंठों पर चुबंन जड़ दिए. और मैं कुछ क्षणों के लिए सुख के सागर डुबती चली गई.

Short Story : महंगाई आज का “भगवान”!

Short Story : कहते हैं- हरि अनंत, हरि कथा अनंता. अगर आपके पास कुबुद्धि नहीं, सुबुद्धि है तो महंगाई के संदर्भ में शोध ग्रंथ तैयार करोगे तो आपका हृदय आनंद से विभोर हो उठेगा. जैसा कबीर दास ने बताया है अनहृदकारी. रोहरानंद से किसी खास मित्र ने कहा- ‘भैय्या ! महंगाई जी के संदर्भ में सारगर्भित बात, अगर अल्प शब्दों में कहना हो तो आप क्या कहेंगे.’

रोहरा नंद ने मंद मुस्कुराते हुए कहा, “भाई! महंगाई  तो मेरा परम सखा है, मैं तो स्वपन में भी उसको भजता रहता हूं. सच कहूं तो वह अगर कृष्ण है तो मैं गरीब सुदामा हूं .”

उसने व्यंग्य से कहा-“द्वापर में हुए थे भगवान कृष्ण, तुम महंगाई की समानता श्री कृष्ण से कर रहे हो. तुम बुरी तरह फंस सकते हो….”

रोहरानंद मुस्कुराया, – “भाई ! कृष्ण को आज आप श्री कृष्ण के विशेषण के साथ आचार – व्यवहार में ला रहे हो, आज उन्हें भगवान कह रहे हो…  द्वापर में उन्हें कौन जानता था कि वे ईश्वर है…”

” लगता है आपका ज्ञान अधूरा है…”  उन्होंने कहा

“ तो कृपया मुझे ज्ञान दीजिए.” रोहरनंद ने विनम्रता पूर्वक कहा.

” विदुर, भीष्म पितामह आदि महाभारत काल के महारथी उन्हें ईश्वर के रूप में ही समकालीन समय में सम्मान देते थे. बॉलीवुड की कोई भी सिनेमा अथवा दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक में  हमने यही देखा है.”

“इतिहास से, धर्मग्रंथों से छेड़छाड़ हमारे यहां साधारण बात है. तत्कालीन समय में चंद लोगों को श्री कृष्ण के अवतार की बात जानकारी में थी. वैसे ही आज महंगाई के संदर्भ में बहुत कम लोगों को ज्ञात है.” रोहरानंद ने बात का साधारणीकरण किया. मित्र गंभीर हो गए .उसे लगा कहीं मैं गलत तो नहीं. ऐसा तो नहीं कि मैं गलत राह पर होऊं.

“आखिर आज महंगाई का चहूं और बोल बाला है तो उसमें कुछ तो खास बात, देवत्व होगा. या हो सकता है, मैं बुराई बोलकर क्यों नरक का भागी बनूं.”रोहरानंद ने  पुनः हथौड़ी चलाई-” याद करो भाई ! महाभारत में अगर कर्ण श्री कृष्ण का सम्मान करता था तो दुर्योधन भला बुरा कहता था. भीष्म पितामह श्री कृष्ण को आसन देते थे तो उसके मामा कंस ने उन्हें कितना कष्ट पहुंचाने और हत्या का षड्यंत्र रचा था. कुछ ऐसी ही हमारी महंगाई जी के साथ आज हो रहा है बहुत चुनिंदा लोग ही महंगाई के महात्म्य को जान पाए हैं.”

मित्र गंभीर हो गया.उसे लगा,वह कहीं गलत तो नहीं. कहीं चूक तो नहीं हो रही .अगर भूल से वह महंगाई के दुष्प्रचार में लगा रहा तो इतिहास में वह खलनायक न बन जाए. और फिर महान आत्माओं की खिलाफत का दंड कई जन्म तक भुगतना पड़ता है .अश्वत्थामा की कहानी उसे स्मरण हो आई एक चुक और आज भी अश्वत्थामा दर्द भरी जिंदगी जी रहा है . वह मन ही मन भयभीत हो उठा.

उसके आगे महंगाई का देवत्व! विराट आकार में आकर खड़ा हो गया. उसे प्रतीत हुआ, जिस तरह अर्जुन महाभारत में युद्ध के दरम्यान किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए थे और गुरुजन, भाइयों, मित्रों को देखकर हथियार डाल दिए थे. महंगाई के त्रासदी के सामने संपूर्ण भारत वासियों ने हथियार डाल दिए हैं. त्राहि-त्राहि मची हुई है .जिस तरह महाभारत में दुर्योधन ने भरी सभा में द्रोपदी के चीर हरण का काम किया था. हमारी संसद में भी महंगाई की चीर- हरण का दुष्प्रयास विपक्ष ने करना चाहा. मगर जिसके साथ दैवीय शक्ति होती है, भला उसका आज तक कोई बिगाड़ हुआ है ? आखिर संसद में महंगाई का सम्मान बढ़ा कि नहीं .सरकार गंभीर खतरे में फंस गई थी. सत्ता का सिंहासन डोलायमान था.डोल रहा था. सारा देश शंकित था.

सरकार अब गयी कि तब गयी. मत विभाजन पर सरकार का जाना तय माना जाने लगा था. सभी चिंतित थे. मगर अचानक महंगाई का पक्ष किस तरह बनने लगा… विपक्ष का,  विपक्ष का सारा षड्यंत्र धरा का धरा रह गया . सरकार का बाल भी बांका नहीं हुआ. जय हो महंगाई की… प्रभु मेरी रक्षा करना… अपनी शरण धरौ प्रभु…. वह बुड़बुडा कर स्मरण करने लगा .

रोहरानंद मित्र के चेहरे के हाव-भाव देखता खड़ा था. वह समझ रहा था… उसकी बातों का गहरा असर हुआ है… अन्यथा यह मानुष इतनी जल्दी हार मानने वालों में नहीं…

मित्र सोच रहा है – सचमुच मैं पतित पापी हूं…मैंने महंगाई के संदर्भ में धृष्टता पूर्वक सोचा ही क्यों .मेरा पूर्व जन्म इसका कारक होगा. अच्छा है मुझे भाई रोहरानंद मिल गए. मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिये.’ वह शून्य में ताकता रहा, सोचता रहा- ‘जिस तरह भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ‘कर्मन्यावाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना’ के शब्दघोष के साथ  उन मित्रों, गुरु, भाइयों के संहार का ज्ञान दिया था. मेरे समक्ष भी महंगाई विराट रूप धारण करके खड़ी है. महंगाई कह रही है- ‘वत्स ! मेरी शरण में आओ, देखो मुझे, मुझमें समाहित हो जाओगे एक दिन. तुम मुझमें ही से तो अव तारित हुए हो… एक दिन मुझ में ही तिरोहित हो जाओगे. यह दुनिया, दुनिया का कण कण जो बिकता है मुझसे ही नि:सृत हुआ है और मुझमे ही समा जाएगा. मैं श्री महंगाई हूं . मैं कलयुग का अवतार हूं. मुझसे क्षुद्र कुछ नहीं,मुझसे विराट कुछ नहीं. जो मेरी छाया से जाता है, नष्ट हो जाता है, जो छाया में प्रविष्ट होता है, जीवन का सुख, संपदा प्राप्त करता है.”

वह अर्जुन की भांति घुटनों के बल बैठ गया. उसकी आंखों के आगे ईश्वरीय रूप में महंगाई खड़ी है .रोहरानंद अचंभित है .मित्र को क्या हो रहा है… कहीं उसने ज्यादा डोज तो नहीं दे दिया, जिसके कारण हेलुसीनेशन सन्निपात (मतिभ्रम )में चला गया हो…. रोहरानंद घबरा गया . कहीं मित्र को कुछ हो गया तो? उसने तत्काल मित्र को झकझोरा- मित्र ने उसकी ओर देखा और कहा- “भाई, तुमने मेरा जीवन धन्य कर दिया. देखों ! मेरे समक्ष महंगाई ईश्वरीय रूप में ज्ञान प्रसारित कर रही है.”

रोहरनंद आंखें फाड़कर देखने का प्रयत्न करने लगा. ऊपर नीचे, दाये बांये कहीं कुछ भी नहीं है. उसे लगा कहीं मुन्ना भाई लगे रहो के संजय दत्त की भांति इसे भी तो उस बीमारी ने नहीं जकड़ लिया .  इसे  गांधी की तरह महंगाई ईश्वरीय रूप में दृष्टिगोचर हो रही है. रोहरानंद ने आंखें फाड़ कर सखा की ओर देखा, ‘मित्र तुम ठीक कह रहे हो .’ उसे स्वीकार करना पड़ा . अन्यथा उसका अज्ञानी मित्र उस पर हंसता. मित्र ने महंगाई का श्री महंगाई के रूप में दर्शन प्राप्त कर ज्ञान प्राप्त कर लिया और वह महरूम रह जाए. यह उसे स्वीकार नहीं था. दोनों गले में बाहें डाले- हंसते, गाते, रोते चलते जाते .सभी समवेत गा रहे हैं -तंत्रीनाद कवित्त रस सरस-राग,रति रंग अनबूडे तिरे जे बूडे सब संग .

थोड़ी दूर पर एक माॅल पर महंगाई बैठा आनंद उठा रहा है. अपना भक्ति गीत मित्र  रोहरानंद  व अन्य लोगों के मुख से सुन उसे प्रसन्नता हुई. वह भाव- विभोर हो उठा. महंगाई माॅल से उतर कर उनके पास आया, उसकी आंखें भीग गई थी. गला भर आया था . खुशी के मारे कंठ से आवाज नहीं निकल रही .रोहरानंद ने मित्र को पहचान लिया. गायक दल थम गया . रोहरानंद ने कहा- “मित्र! अन्यथा न लेना, तुम्हारी स्तुति और भक्ति में बड़ा आनंद है .हम सब मानों दुनिया की सारी खुशियों से ओत – प्रोत हैं. तुम्हारी भक्ति हमारे जीवन का आधार बन गई है .हमें मना मत करना. हम पर दया बनाए रखना. अन्यथा हम इस संसार मैं जीव की भांति भटकते रहेंगे. हमें न जुगती मिलेगी न मुक्ति .” महंगाई श्री कृष्ण की भांति मुस्कुराया, – “ तथास्तु ” कह कर अंतर्ध्यान हो गया.

Social Story : खौफ के साए – सरकारी दफ्तरों में फैलती गुंडागर्दी

Social Story : मैं अपने चैंबर में जैसे ही दाखिल हुआ, तो वहां 2 अजनबी लोगों को इंतजार करते पाया. उन में से एक खद्दर के कपड़े और दूसरा पैंटशर्ट पहने हुए था. मैं ने अर्दली से आंखों ही आंखों में सवाल किया कि ये कौन हैं?

‘‘सर, ये आप से मिलने आए हैं. इन्हें आप से कुछ जरूरी काम है,’’ अर्दली ने बताया.

‘‘मगर, मेरा तो आज इस समय किसी से मिलने का कोई कार्यक्रम तय नहीं था,’’ मैं ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘साहब, हमें मुलाकात करने के लिए किसी से समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती. आप जल्दी से हमारी बात सुन लें और हमारा काम कर दें,’’ खद्दर के कपड़े वाले आदमी ने रोब से कहा.

‘‘मगर, अभी मेरे पास समय नहीं है. अच्छा हो कि आप कल दोपहर 12 बजे का समय मेरे सैक्रेटरी से ले लें.’’

‘‘पर, हमारे लिए तो आप को समय निकालना ही होगा,’’ दूसरा आदमी जोर से बोला.

‘‘आप कौन हैं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘मैं अपनी पार्टी का मंत्री हूं. जनता की सेवा करना मेरा फर्ज है,’’ खद्दर वाले आदमी ने कहा.

‘‘और मैं इन का साथी हूं. समाज सेवा मेरा भी शौक है,’’ दूसरा बोला.

मैं ने उन्हें गौर से देखा और सोचने लगा, ‘अजीब लोग हैं… मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तरह बिना इजाजत लिए दफ्तर में घुस आए और अब मुझ पर रोब झाड़ रहे हैं. इन के तेवर काफी खतरनाक लग रहे हैं. ये आसानी से टलने वाले नहीं लग रहे हैं. क्या मुझे इन की बात सुन लेनी चाहिए?’

मुझे चुप देख कर पैंटशर्ट वाले आदमी ने कहा, ‘‘साहबजी, परेशान न हों. हमें आप से एक सर्टिफिकेट चाहिए. मेरी बहन को इस की सख्त जरूरत है. एक खाली जगह के लिए अर्जी देनी है. इस सर्टिफिकेट से उस की नौकरी पक्की हो जाएगी.’’

‘‘यह तो मुमकिन नहीं है. जब उस ने हमारे यहां काम ही नहीं किया है, तो मैं उसे सर्टिफिकेट कैसे दे सकता हूं? यह गलत काम मुझ से नहीं हो सकेगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘सर, आजकल कोई काम न तो गलत है और न सही. समाज में रह कर एकदूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है. कीमत ले कर सब मुमकिन हो जाता है. आप को जो चाहिए, वह हम हाजिर कर देंगे.

‘‘यह देखिए, टाइप किया हुआ सर्टिफिकेट हमारे पास है. बस, इस पर आप के दस्तखत और मुहर चाहिए,’’ नेता टाइप आदमी ने कहा.

‘‘मैं ने कभी किसी को इस तरह का झूठा सर्टिफिकेट नहीं दिया है. आप किसी और से ले लो,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मगर, हमें तो आप से ही यह सर्टिफिकेट लेना है और अभी लेना है. बुलाइए अपने सैक्रेटरी को.’’

‘‘यह कैसी जोरजबरदस्ती है. आप लोग मेरे दफ्तर में आ कर मुझे ही धमका रहे हैं. आप को यहां आने के लिए किस ने कहा.

‘‘बेहतर होगा, अगर आप यहां से चले जाएं और मुझे मेरा काम करने दें. अभी यहां एक जरूरी मीटिंग होने वाली है,’’ यह बोलते हुए मैं कांप रहा था.

‘‘सोच लो साहब, एक लड़की के कैरियर का सवाल है. हम भी कभी तुम्हारे काम आ सकते हैं. आजकल हर बड़े आदमी को सियासी लोगों के सहारे की जरूरत पड़ती है.

‘‘अगर तुम ने हमारी बात न मानी, तो फिर हम तुम्हें चैन से बैठने नहीं देंगे. हमें तुम्हारे घर से आनेजाने का समय मालूम है और बच्चों के स्कूल जाने के समय से भी हम अच्छी तरह वाकिफ हैं,’’ उन की ये धमकी भरी बातें मेरे कानों पर हथौड़े मार रही थीं. मेरा सिर बोझिल हो गया. बदतमीजी की हद हो गई. ये तो अब आप से तुम पर आ गए. क्या किया जाए? क्या पुलिस को खबर कर दूं, पर उस के आने में तो देर लगेगी. फिर कुछ देर बाद हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘तुम लोग मुझे धमका कर गैरकानूनी काम कराना चाहते हो. मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा,’’ मैं ने घंटी बजा कर सैक्रेटरी को बुलाना चाहा. इस पर उन में से एक गरजा, ‘‘शौक से कराओ रिपोर्ट, लेकिन तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. थानेचौकी में तो हमारी रोज ही हाजिरी होती है.’’

इन लोगों की ऊंची आवाजों से दफ्तर में भी खलबली मच गई थी.

‘‘सर, क्या सौ नंबर डायल कर के पुलिस को बुलवा लूं?’’ सैक्रेटरी ने आ कर धीमे से पूछा.

‘‘नहीं, अभी इस की जरूरत नहीं है. तुम मीटिंग की तैयारी करो. मैं इन्हें अभी टालता हूं.’’

मैं फिर पानी पी कर और अपनी सांस को काबू में कर के उन की तरफ मुड़ा. अब मुझ पर भी एक अनजाना खौफ हावी था कि क्या होगा? कमरे के बाहर मेरा अर्दली सारी बातें सुन कर मुसकरा रहा था. उस के मुंह से निकला, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. सिट्टीपिट्टी गुम हो गई साहब की. 2 गुंडों ने सारा रोब हवा कर दिया.’ फिर वे दोनों उठ कर खड़े हो गए और जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘अगर हमारा काम नहीं किया, तो पछताओगे. यहां से घर जाना मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए. निशान तक नहीं मिलेगा, समझे.’

‘‘तुम लोग जो चाहे कर लेना, मगर मैं गलत काम नहीं करूंगा,’’ मैं ने भी आखिरी बार हिम्मत कर के यह वाक्य कह ही दिया.

‘अच्छा तो ठीक है. अब हम तुम्हारे घर शाम के 6 बजे आएंगे. सर्टिफिकेट टाइप करा कर लेते आना और मुहर भी साथ में लेते आना, वरना अंजाम के तुम खुद जिम्मेदार होगे,’ वे जाते हुए जोर से बोले.

मेरे मुंह से मुश्किल से निकला, ‘‘देखा जाएगा.’’ वे कमरे से बाहर चले गए थे, मगर मैं अपनी कुरसी पर बैठा खौफ से कांप रहा था कि अब क्या होगा? बाहर मेरा स्टाफ हंसीमजाक में मस्त था.

‘‘कल साहब दफ्तर नहीं आएंगे. घर पर रह कर उन गुंडों से बचने की तरकीबें सोचेंगे और हम मौजमस्ती करेंगे,’’ एक क्लर्क ने कहा.

तभी अर्दली ने अंदर आ कर पानी का गिलास रखते हुए पूछा, ‘‘चाय लाऊं, साहब?’’

‘‘नहीं… अभी नहीं.’’

मैं ने घड़ी देखी, तो दोपहर का डेढ़ बजने वाला था यानी लंच का समय हो गया था. मैं ने सैक्रेटरी को बुला कर मीटिंग टलवा दी और अपनी हिफाजत की तरकीबें सोचने लगा, ‘जब तक बड़े साहब से बात न कर लूं, पुलिस में रिपोर्ट कैसे कराऊं. वे दौरे पर बाहर गए हैं, 2 दिन बाद आएंगे, तभी कोई कार्यवाही की जा सकती है.

‘अब सरकारी दफ्तरों में भी गुंडागर्दी फैलनी शुरू हो गई है. डराधमका कर गलत काम कराने, अफसरों को फंसाने और ब्लैकमेल करने की साजिशें हो रही हैं. हम जैसे उसूलपसंद लोगों के लिए तो अब काम करना मुश्किल हो गया है,’ सोचते हुए मेरी उंगलियां घर के फोन का नंबर डायल करने लगीं.

मैं ने बीवी से कहा, ‘‘सतर्क रहना और बच्चों को घर से बाहर न जाने देना. हो सकता है कि शाम को मेरे घर पहुंचने से पहले कोई घर पर आए. कह देना, साहब घर पर नहीं हैं.’’

‘‘पर, बात क्या है, बताइए तो सही?’’ बीवी ने मेरी आवाज में घबराहट महसूस कर के पूछा.

‘‘कुछ नहीं, तुम परेशान न हो. मैं समय पर घर आ जाऊंगा. गेट अंदर से बंद रखना.’’ फिर मैं ने अपने दोस्त धीर को फोन कर के सारी घटना उसे बता दी और उसे घर पर पूरी तैयारी से आने को कहा. ठीक साढ़े 5 बजे मैं दफ्तर से घर के लिए अपनी गाड़ी से चल दिया. मेरे साथ अर्दली और क्लर्क भी थे. वे लोग जिद कर के साथ हो लिए थे कि मुझे घर तक छोड़ कर आएंगे. उन की इच्छा को मैं टाल भी न सका. सच तो यह है कि उन की मौजूदगी ने ही मेरी हिम्मत बढ़ा दी. रास्ते भर मेरी नजरें इधरउधर उन बदमाशों को ही तलाशती रहीं कि कहीं किसी तरफ से वे निकल न आएं और मेरी गाड़ी रोक कर मेरे ऊपर हमला न कर दें.

मैं ठीक 6 बजे घर पहुंच गया. वहां सन्नाटा छाया था. मैं ने दरवाजे की घंटी बजाई.

अंदर से सहमी सी आवाज आई, ‘‘कौन है?’’

‘‘दरवाजा खोलो. मैं हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ देर बाद मेरी आवाज पहचान कर बीवी ने दरवाजा खोला.

‘‘तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आप के फोन ने मुझे चिंता में डाल दिया था. फिर 2 फोन और आए. कोई आप को पूछ रहा था कि क्या साहब दफ्तर से आ गए? आखिर माजरा क्या है?’’ बीवी ने पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं.’’

‘‘अगर कुछ नहीं है, तो आप के चेहरे पर खौफ क्यों नजर आ रहा है और आवाज क्यों बैठी हुई है?’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और बैग मेज पर रख कर अंदर सोफे पर लेट गया. कुछ ही देर में धीर भी आ गया. उस ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यार, घबराओ नहीं. मैं ने सब बंदोबस्त कर दिया है. अब वे तुम्हारे पास कभी नहीं आएंगे. हमारे होते हुए किस की हिम्मत है कि तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ सके.

‘‘रात में यहां 2 लोगों की ड्यूटी निगरानी के लिए लगा दी है. वे यहां का थोड़ीथोड़ी देर बाद जायजा लेते रहेंगे.’’

‘‘जरा तफसील से बताओ कि तुम ने क्या इंतजाम किया है?’’ मैं ने धीर से कान में फुसफुसा कर पूछा.

धीर ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं उस खद्दरधारी बाबूलाल के ठिकाने पर हो कर आ रहा हूं. उसी के इलाके का एक दादा रमेश भी मेरे साथ था.

‘‘रमेश ने बाबूलाल को देखते ही कहा, ‘हम तो साहब के घर पर तुम्हारा इंतजार कर रहे थे और तुम यहां मौजूद हो.’

‘‘बाबूलाल रमेश को देख कर ढेर हो गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. फिर माफी मांगते हुए वह बोला, ‘साहबजी, मुझ से गलती हो गई, जो मैं आप के दोस्त के दफ्तर चला गया और उन को धमका आया. उमेश ने मुझ पर ऐसा काम करने का दबाव डाला था. मैं उस की बातों में आ गया था. अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी.’

‘‘आज के जमाने में सेर पर सवा सेर न हो, तो कोई दबता ही नहीं है. जब उसे मेरी ताकत का अंदाजा हो गया, तो वह खुद डर गया, इसलिए वह अब कभी तुम्हारे पास नहीं आएगा.

‘‘तुम बेफिक्र रहो और कल से ही रोज की तरह दफ्तर जा कर अपना काम करो. कोई बात हो, तो मुझे फोन कर देना.’’ धीर की तसल्ली भरी बातों ने मेरा सारा खौफ मिटा दिया. अब मैं अपनेआप को पहले जैसा रोबदार अफसर महसूस कर रहा था.

मेरी बीवी और बच्चों के चेहरे भी खिल उठे थे. दूसरे दिन जब मैं घर से दफ्तर के लिए निकला, तो हर चीज हमेशा की तरह ही थी. डर की कोई परछाईं भी नजर नहीं आ रही थी. आज अपने चैंबर में बैठा हुआ मैं महसूस कर रहा था कि खौफ तो आदमी के अंदर ही पनपता है, बाहर तो केवल उस की परछाइयां ही फैलती हुई लगती हैं.

Short Story : कर्मकांडों के नाम पर दावतें

Short Story : शोकाकुल मीना, आंसुओं में डूबी, सिर घुटनों में लगाए बैठी थी. उस के आसपास रिश्तेदारों व पड़ोसियों की भीड़ थी. पर मीना की ओर किसी का ध्यान नहीं था. सब पंडितजी की कथा में मग्न थे. पंडितजी पूरे उत्साह से अपनी वाणी प्रसारित कर रहे थे- ‘‘आजकल इतनी महंगाई बढ़ गई है कि लोगों ने दानपुण्य करना बहुत ही कम कर दिया है. बिना दान के भला इंसान की मुक्ति कैसे होगी, यह सोचने की बात है. शास्त्रोंपुराणों में वर्णित है कि स्वयं खाओ न खाओ पर दान में कंजूसी कभी न करो. कलियुग की यही तो महिमा है कि केवल दानदक्षिणा द्वारा मुक्ति का मार्ग खुद ही खुल जाता है. 4 दिनों का जीवन है, सब यहीं रह जाता है तो…’’ पंडितजी का प्रवचन जारी था.

गैस्ट हाउस के दूसरे कक्ष में भोज का प्रबंध किया गया था. लड्डू, कचौड़ी, पूड़ी, सब्जी, रायता आदि से भरे डोंगे टेबल पर रखे थे. कथा चलतेचलते दोपहर को 3 बज रहे थे. अब लोगों की अकुलाहट स्पष्ट देखी जा सकती थी. वे बारबार अपनी घड़ी देखते तो कभी उचक कर भोज वाले कक्ष की ओर दृष्टि उठाते.

पंडितजी तो अपनी पेटपूजा, घर के हवन के समाप्त होते ही वहीं कर आए थे. मनोहर की आत्मा की शांति के लिए सुबह घर में हवन और 13 पंडितों का भोजन हो चुका था. लोगों यानी रिश्तेदारों आदि ने चाय व प्रसाद का सेवन कर लिया था पर मीना के हलक के नीचे तो चाय का घूंट भी नहीं उतरा था. माना कि दुख संताप से लिपटी मीना सुन्न सी हो रही थी पर उस के चेहरे पर थकान, व्याकुलता पसरी हुई थी. ऐसे में कोई तो उसे चाय पीने को बाध्य कर सकता था, उसे सांत्वना दे कर उस की पीड़ा को कुछ कम कर सकता था. पर, ये रीतिपरंपराएं सोच व विवेक को छूमंतर कर देती हैं, शायद.

इधर, पंडितजी ने मृतक की तसवीर पर, श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प अर्पित करने के लिए उपस्थित लोगों को इशारा किया. पुष्पांजलि के बाद लोग जल्दीजल्दी भोजकक्ष की ओर बढ़ चले थे. देखते ही देखते हलचल, शोर, हंसी आदि का शोर बढ़ता गया. लग रहा था कि कोई उत्सव मनाया जा रहा है. ‘‘अरे भई, लड्डू तो लाना, यह कद्दू की सब्जी तो कमाल की बनी है. तुम भी खा कर देखो,’’ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘कचौड़ी तो एकदम मथुरा शहर में मिलने वाली कचौडि़यों जैसी बनी है वरना यहां ऐसा स्वाद कहां मिलता है.’’

ये सब रिश्तेदार और परिचितजन थे जो कुछ ही समयपूर्व मृतक की पत्नी से अपनी संवेदना प्रकट कर, अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे.

मैं विचारों के भंवर में फंसी, उस रविवार को याद करने लगी जब मीना अपने पति मनोहर व बच्चों के साथ मौल में शौपिंग करती मिली थी. हर समय चहकती मीना का चेहरा मुसकान से भरा रहता. एक हंसताखेलता परिवार जिस में पतिपत्नी के प्रेमविश्वास की छाया में बच्चों की जिंदगी पल्लवित हो रही थी. अचानक वह घातक सुबह आई जो दफ्तर जाते मनोहर को ऐक्सिडैंट का जामा पहना कर इस परिवार से बहुत दूर हमेशा के लिए ले गई.

मीना अपने घर पति व बच्चों की सुखी व्यवस्था तक ही सीमित थी. कहीं भी जाना होता, पति के साथ ही जाती. बाहरी दुनिया से उसे कुछ लेनादेना नहीं था. पर अब बैंक आदि का कार्य…और भी बहुतकुछ…

मेरी विचारशृंखला टूटी और वर्तमान पर आ गई. अब कैसे, क्या करेगी मीना? खैर, यह तो उसे करना ही होगा. सब सीखेगी धीरेधीरे. समय की धारा सब सिखा देगी.

तभी दाहिनी ओर से शब्द आए, ‘‘यह प्रबंध अच्छा किया है. किस ने किया है?’’

‘‘यह सब मीना के भाई ने किया है. उस की आर्थिक स्थिति सामान्य सी है. पर देखो, उस ने पूरी परंपरा निभाई है. यही तो है भाई का कर्तव्य,’’ प्रत्युत्तर था.

3 दिनों पूर्व की बातें मुझे फिर याद हो आई थीं. भोजन प्रबंध का जिम्मा मैं ने व मेरे पति ने लेना चाहा था. तब घर के बड़ों ने टेढ़ी दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाला था, ‘तुम क्या लगती हो मीना की? 2 वर्षों पुरानी पहचान वाली ही न. यह रीतिपरंपरा का मामला है, कोई मजाक नहीं. क्या हम नहीं कर सकते भोज का प्रबंध? पर यह कार्य मीना के मायके वाले ही करेंगे. अभी तो शय्यादान, तेरहवीं का भोज, पंडितों को दानदक्षिणा, पगड़ी रस्म आदि कार्य होंगे. कृपया आप इन सब में अपनी सलाह दे कर टांग न अड़ाएं.’

‘और क्या, ये आजकल की पढ़ीलिखी महिलाओं की सोच है जो पुराणों की मान्यताओं पर भी उंगली उठाती हैं,’ उपस्थित एक बुजुर्ग महिला का तीखा स्वर उभरा. इस स्वर के साथ और कई स्वर सम्मिलित हो गए थे.

मेरे कारण मीना को कोई मानसिक क्लेश न पहुंचे, इसीलिए मैं निशब्द हो, चुप्पी साध गई थी. पर आज एक ही शब्द मेरे मन में गूंज रहा था, यहां इस तरह गम नहीं, गमोत्सव मनाया जा रहा है. मीना व उस के बच्चों के लिए किस के मन में दर्द है, कौन सोच रहा है उस के लिए? चारों तरफ की बातें, हंसीभरे वाक्य- एक उत्सव ही तो लग रहे थे.

Social Story : लक्ष्मी ने कैसे लिया इज्जत का बदला

Social Story : ‘‘अरे ओ लक्ष्मी…’’ अखबार पढ़ते हुए जब लक्ष्मी ने ध्यान हटा कर अपने पिता मोड़ीराम की तरफ देखा, तब वह बोली, ‘‘क्या है बापू, क्यों चिल्ला रहे हो?’’ ‘‘अखबार की खबरें पढ़ कर सुना न,’’ पास आ कर मोड़ीराम बोले.

‘‘मैं तुम्हें नहीं सुनाऊंगी बापू?’’ चिढ़ाते हुए लक्ष्मी अपने बापू से बोली. ‘‘क्यों नहीं सुनाएगी तू? अरे, मैं अंगूठाछाप हूं न, इसीलिए ज्यादा भाव खा रही है.’’

‘‘जाओ बापू, मैं तुम से नहीं बोलती.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, तू तो नाराज हो गई…’’ मनाते हुए मोड़ीराम बोले, ‘‘तुझे हम ने पढ़ाया, मगर मेरे मांबाप ने मुझे नहीं पढ़ाया और बचपन से ही खेतीबारी में लगा दिया, इसलिए तुझ से कहना पड़ रहा है.’’

‘‘कह दिया न बापू, मैं नहीं सुनाऊंगी.’’ ‘‘ऐ लक्ष्मी, सुना दे न… देख, दिनेश की खबर आई होगी.’’

‘‘वही खबर तो पढ़ रही थी. तुम ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.’’ ‘‘अच्छा लक्ष्मी, पुलिस ने उस के ऊपर क्या कार्यवाही की?’’

‘‘अरे बापू, पुलिस भी तो बिकी हुई है. अखबार में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. सब लीपापोती है.’’ ‘‘पैसे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता है बेटी,’’ कह कर मोड़ीराम ने अफसोस जताया, फिर पलभर रुक कर बोला, ‘‘अरे, मरना तो अपने जैसे गरीब का होता है.’’

‘‘हां बापू, तुम ठीक कहते हो. मगर यह क्यों भूल रहे हो, रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का भी अंत हुआ, फिर दिनेश जैसा आदमी किस खेत की मूली है,’’ बड़े जोश से लक्ष्मी बोली. मगर मोड़ीराम ने कहा, ‘‘वह जमाना गया लक्ष्मी. अब तो जगहजगह रावण और कंस आ गए हैं.’’

‘‘अरे बापू, निराश मत होना. दिनेश जैसे कंस को मारने के लिए भी किसी न किसी ने जन्म ले लिया है.’’ ‘‘यह तू नहीं, तेरी पढ़ाई बोल रही है. तू पढ़ीलिखी है न, इसलिए ऐसी बातें कर रही है. मगर यह इतना आसान नहीं है. जो तू सोच रही है. आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है.’’

‘‘देखते जाओ बापू, आगेआगे क्या होता है,’’ कह कर लक्ष्मी ने अपनी बात कह दी, मगर मोड़ीराम की समझ में कुछ नहीं आया, इसलिए बोला, ‘‘ठीक है लक्ष्मी, तू पढ़ीलिखी है, इसलिए तू सोचती भी ऊंचा है. मैं खेत पर जा रहा हूं. तू थोड़ी देर बाद रोटी ले कर वहीं आ जाना.’’ ‘‘ठीक है बापू, जाओ. मैं आ जाऊंगी,’’ लक्ष्मी ने बेमन से कह कर बात को खत्म कर दिया.

मोड़ीराम खेत पर चला गया. लक्ष्मी फिर से अखबार पढ़ने लगी. मगर उस का ध्यान अब पढ़ने में नहीं लगा. उस का सारा ध्यान दिनेश पर चला गया. दिनेश आज का रावण है. इसे कैसे मारा जाए? इस बात पर उस का सारा ध्यान चलने लगा. उस ने खूब घोड़े दौड़ाए, मगर कहीं से हल मिलता नहीं दिखा. काफी सोचने के बाद आखिरकार लक्ष्मी ने हल निकाल लिया. तब उस के चेहरे पर कुटिल मुसकान फैल गई.

दिनेश और कोई नहीं, इस गांव का अमीर किसान है. उस के पास ढेर सारी खेतीबारी है. गांव में उस की बहुत बड़ी हवेली है. उस के यहां नौकरचाकर हैं. खेत नौकरों के भरोसे ही चलता है. रकम ले कर ब्याज पर पैसे देना उस का मुख्य पेशा है. गांव के जितने गरीब किसान हैं, उन को अपना गुलाम बना रखा है. गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना उस का काम है. पूरे गांव में उस की इतनी धाक है कि कोई भी उस के खिलाफ नहीं बोलता है.

इस तरह इस गांव में दिनेश नाम के रावण का राज चल रहा था. उस के कहर से हर कोई दुखी था. ‘‘लक्ष्मी, रोटियां बन गई हैं, बापू को खेत पर दे आ,’’ मां कौशल्या ने जब आवाज लगाई, तब वह अखबार एक तरफ रख कर मां के पास रसोईघर में चली गई.

लक्ष्मी बापू की रोटियां ले कर खेत पर जा रही थी, मगर विचार उस के सारे दिनेश पर टिके थे. आज के अखबार में यहीं खबर खास थी कि उस ने अपने फार्म पर गांव के मांगीलाल की लड़की चमेली की इज्जत लूटी थी. गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई थी, मगर ऊपरी जबान से कोई कुछ नहीं कह रहा था कि चमेली की इज्जत दिनेश ने ही लूटी है. जब लक्ष्मी खेत पर पहुंची, तब बापू खेत में बने एक कमरे की छत पर खड़े हो कर पक्षी भगा रहे थे, वह भी ऊपर चढ़ गई. देखा कि वहां से उस की पूरी फसल दिख रही थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बापू, रोटी खाओ. लाओ, गुलेल मुझे दो, मैं पक्षी भगाती हूं.’’ ‘‘ले बेटी संभाल गुलेल, मगर किसी पक्षी को मार मत देना,’’ कह कर मोड़ीराम ने गुलेल लक्ष्मी के हाथों में थमा दी और खुद वहीं पर बैठ कर रोटी खाने लगा.

लक्ष्मी थोड़ी देर तक पक्षियों को भगाती रही, फिर बोली, ‘‘बापू, आप ने यह कमरा बहुत अच्छा बनाया है. अब मैं यहां पढ़ाई करूंगी.’’ ‘‘क्या कह रही है लक्ष्मी? यहां तू पढ़ाई करेगी? क्या यह पढ़ाई करने की जगह है?’’

‘‘हां बापू, जंगल की ताजा हवा जब मिलती है, उस हवा में दिमाग अच्छा चलेगा. अरे बापू, मना मत करना.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, मैं ने आज तक मना किया है, जो अब करूंगा. अच्छा पढ़ लेना यहां. तेरी जो इच्छा है वह कर,’’ हार मानते हुए मोड़ीराम बोला.

लक्ष्मी खुश हो गई. उस का कमरा इतना बड़ा है कि वहां वह अपनी योजना को अंजाम दे सकती है. इस मकान के चारों ओर मिट्टी की दीवारें हैं और दरवाजा भी है. एक खाट भीतर है. रस्सी और बिजली का इंतजाम भी है. फसलें जब भरपूर होती हैं, तब बापू कभीकभी यहां पर सोते हैं. मतलब वह सबकुछ है, जो वह चाहती है. इस तरह दिन गुजरने लगे. लक्ष्मी दिन में आ कर अपने खेत वाले कमरे में पढ़ाई करने लगी, क्योंकि इस समय फसल में अंकुर फूट रहे थे, इसलिए बापू भी खेत पर बहुत कम आते थे. पढ़ाई का तो बहाना था, वह रोजाना अपने काम को अंजाम देने के लिए काम करती थी.

अब लक्ष्मी सारी तैयारियां कर चुकी थी, फिर मौके का इंतजार करने लगी. इसी दौरान बापू का उस ने पूरा भरोसा जीत लिया था. इसी बीच एक घटना हो गई.

बापू के गहरे दोस्त, जो उज्जैन में रहते थे, उन की अचानक मौत हो गई. तब बापू 13 दिन के लिए उज्जैन चले गए. तब लक्ष्मी का मिशन और आसान हो गया. लक्ष्मी का खेत ऐसी जगह पर था, जहां कोई भी बाहरी शख्स आसानी से नहीं देख सकता था. अब वह आजाद हो गई, इसलिए इंतजार करने लगी दिनेश का. बापू के न होने के चलते लक्ष्मी अपना ज्यादा समय खेत में बने कमरे पर बिताने लगी. सुबह कालेज जाती थी, दोपहर को वापस गांव में आ जाती थी. और फिर खेत में फसल की हिफाजत के बहाने पक्षियों को भगाती और खुद अपने शिकार का इंतजार करती.

अचानक लक्ष्मी का शिकार खुद ही उस के बुने जाल में आ गया. वह कमरे की छत पर बैठ कर गुलेल से पक्षियों को भगा रही थी, तभी गुलेल का पत्थर उधर से गुजर रहे दिनेश को जा लगा. दिनेश तिलमिलाता हुआ पास आ कर बोला, ‘‘अरे लड़की, तू ने पत्थर क्यों मारा?’’ ‘‘अरे बाबू, मैं ने तुम पर जानबूझ कर पत्थर नहीं मारा. खेत में बैठे पक्षियों को भगा रही थी, अब आप को लग गया, तो इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘चल, नीचे उतर. अभी बताता हूं कि तेरी क्या गलती है?’’ ‘‘मैं कोई डरने वाली नहीं हूं आप से. आती हूं, आती हूं नीचे,’’ पलभर में लक्ष्मी कमरे की छत से नीचे उतर गई, फिर बोली, ‘‘हां बाबू, बोलो. कहां चोट लगी है तुम्हें? मैं उस जगह को सहला दूंगी.’’ ‘‘मेरे दिल पर,’’ दिनेश उस का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हाथ छोड़ बाबू, किसी पराई लड़की का हाथ पकड़ना अच्छा नहीं होता है,’’ लक्ष्मी ने हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश की. ‘‘हम जिस का एक बार हाथ पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं,’’ दिनेश ने उस का हाथ और मजबूती से पकड़ लिया.

लक्ष्मी ने देखा कि उस ने खूब शराब पी रखी है. उस के मुंह से शराब का भभका आ रहा था. लक्ष्मी बोली, ‘‘यह फिल्मी डायलौग मत बोल बाबू, सीधेसीधे मेरा हाथ छोड़ दे.’’ ‘‘यह हाथ तो अब हवेली जा कर ही छूटेगा… चल हवेली.’’

‘‘अरे, हवेली में क्या रखा है? आज इस गरीब की कुटिया में चल,’’ लक्ष्मी ने जब यह कहा, तो दिनेश खुद ही कमरे के भीतर चला आया. उस ने खुद दरवाजा बंद किया और पलंग पर बैठ गया. ज्यादा नशा होने के चलते उस की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे. लक्ष्मी बोली, ‘‘जल्दी मत कर. मेरी झोंपड़ी भी तेरे महल से कम नहीं है. देख, अब तक तो तू ने हवेली की शराब पी, आज तू झोंपड़ी की शराब पी कर देख. इतना मजा आएगा कि तू आज मस्त हो जाएगा.’’

इस के बाद लक्ष्मी ने पूरा गिलास उस के मुंह में उड़ेल दिया. हलक में शराब जाने के बाद वह बोला, ‘‘तू सही कहती है. क्या नाम है तेरा?’’ ‘‘लक्ष्मी. ले, एक गिलास और पी,’’ लक्ष्मी ने उसे एक गिलास और शराब पिला दी. इस बार शराब के साथ नशीली दवा थी. वह चाहती थी कि दिनेश शराब पी कर बेहोश हो जाए, फिर उस ने 2-3 गिलास शराब और पिला दी. थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया. जब लक्ष्मी ने अच्छी तरह देख लिया कि अब पूरी तरह से दिनेश बेहोश है, इस को होश में आने में कई घंटे लगेंगे, तब उस ने रस्सी उठाई, उस का फंदा बनाया और दिनेश के गले में बांध कर खींच दिया. थोड़ी देर बाद ही वह मौत के आगोश में सो गया.

लक्ष्मी ने पलंग के नीचे पहले से एक गड्ढा खोद रखा था. उस ने पलंग को उठाया और लाश को गड्ढे में फेंक दिया. लक्ष्मी ने गड्ढे में रस्सी और शराब की खाली बोतलें भी हवाले कर दीं. फिर फावड़ा ले कर वह मिट्टी डालने लगी.

मिट्टी डालते समय लक्ष्मी के हाथ कांप रहे थे. कहीं दिनेश की लाश जिंदा हो कर उस पर हमला न कर दे. जब गड्ढा मिट्टी से पूरा भर गया, तब उस ने उस जगह पर पलंग को बिछा दिया. फिर कमरे पर ताला लगा कर वह जीत की मुसकान लिए बाहर निकल गई.

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