लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अम्मी और अब्बू की सिर्फ तसवीर ही देखी थी ज़ीनत ने. उन का प्यार कैसा होता है, इस का उसे एहसास ही नहीं था. अम्मी और अब्बू के एक सड़क दुर्घटना में मारे जाने के बाद मामी और मामू ही ज़ीनत का सहारा थे.

मामू ने ज़ीनत को पढ़ायालिखाया और इस लायक बनाया कि बडी हो कर वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो सके और मामू का सहारा बने.

मामू की माली हालत अच्छी नहीं थी. एक कमरे के मकान के बाहर एक छोटा सा खोखा रख रखा था मामू ने. उस में बिसातखाने का सामान रख कर बेचते थे.

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जो औरतें सामान खरीदने आतीं, वे इतना मोलभाव करतीं कि किसी चीज़ पर मिलने वाला मुनाफ़ा कम हो जाता. वैसे भी, मामू को बाहर की औरतों से बहुत लगाव महसूस होता था. वे चाहते थे कि औरतें उन के खोखे पर आ कर उन से बातें करती ही रहें. उन की इसी कमज़ोरी का लाभ  चालाक औरतें खूब उठाती थीं. वे मामू से खूब रसीली बातें करतीं और सामान सस्ते में खरीद लेतीं.

घर में 5 लोग थे - मामू, मामी, उन के 2 बच्चे और एक ज़ीनत. इन सब का खर्च चलाने की ज़िम्मेदारी ज़ीनत के कंधों पर ही थी. इसीलिए ज़ीनत शहर के ही एक स्कूल में कम्प्यूटर पढ़ाने का काम करने लगी थी.

ज़ीनत के मामू जितने लापरवाह किस्म के थे, मामी उतनी ही सख्त मिज़ाज़.

"मैं तो कहती हूं कि घर में अगर लड़की हो तो उस पर एक नज़र टेढ़ी ही रखनी चाहिए और घर की अंदरूनी बातों में लड़की जात को ज़्यादा शामिल नहीं करना चाहिए," मामी ने पड़ोस में रहने वाली शकीला से कहा और शकीला ने हां में हां मिलाई.

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