Serial Story- अब जाने दो उसे: भाग 2

शाम कालिज से वापस आया तो खटखट की आवाज से पूरा घर गूंज रहा था. लपक कर पीछे बरामदे में गया. लकड़ी का बुरादा उड़उड़ कर इधरउधर फैल गया था. सोम का खाली दिमाग लकड़ी के बेकार पड़े टुकड़ों में उलझा पड़ा था. मुझे देख लापरवाही से बोला, ‘‘भाई, कुछ खिला दे. सुबह से भूखा हूं.’’

‘‘अरे, 5 घंटे कालिज में माथापच्ची कर के मैं आया हूं और पानी तक पूछना तो दूर खाना भी मुझ से ही मांग रहा है, बेशर्म.’’

‘‘भाई, शर्मबेशर्म तो तुम जानो, मुझे तो बस, यह कर लेने दो, बाबूजी का फोन आया है कि सुबह 10 बजे चल पड़ेंगे दोनों. शाम 4 बजे तक सारी कायापलट न हुई तो हमारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

अपनी मस्ती में था सोम. लकड़ी के छोटेछोटे रैक बना रहा था. उम्मीद थी, रात तक पेंट आदि कर के तैयार कर देगा.

लकड़ी के एक टुकड़े पर आरी चलाते हुए सोम बोला, ‘‘भाई, मांबाप ने इंजीनियर बनाया है. नौकरी तो मिली नहीं. ऐसे में मिस्त्री बन जाना भी क्या बुरा है… कुछ तो कर रहा हूं न, नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर.’’

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मुझे उस पल सोम पर बहुत प्यार आया. सोम को नीलू से गहरा जुड़ाव है, बातबेबात वह नीलू को भी याद कर लेता.

नीलू बाबूजी के स्वर्गवासी दोस्त की बेटी है, जो अपने चाचा के पास रहती है. उस की मां नहीं थीं, जिस वजह से वह अनाथ बच्ची पूरी तरह चाचीचाचा पर आश्रित है. बी.ए. पास कर चुकी है, अब आगे बी.एड. करना चाहती है. पर जानता हूं ऐसा होगा नहीं, उसे कौन बी.एड. कराएगा. चाचा का अपना परिवार है. 4 जमातें पढ़ा दीं अनाथ बच्ची को, यही क्या कम है. बहुत प्यारी बच्ची है नीलू. सोम बहुत पसंद करता है उसे. क्या बुरा है अगर वह हमारे ही घर आ जाए. बचपन से देखता आ रहा हूं उसे. वह आती है तो घर में ठंडी हवा चलने लगती है.

‘‘कड़क चाय और डबलरोटी खाखा कर मेरा तो पेट ही जल गया है,’’ सोम बोला, ‘‘इस बार सोच रहा हूं कि मां से कहूंगा, कोई पक्का इंतजाम कर के घर जाएं. तुम्हारी शादी हो जाए तो कम से कम डबल रोटी से तो बच जाएंगे.’’

सोम बड़बड़ाता जा रहा था और खातेखाते सभी रैक गहरे नीले रंग में रंगता भी जा रहा था.

‘‘यह देखो, यह नीले रंग के छोटेछोटे रैक अचार की डब्बियां, नमक, मिर्च और मसाले रखने के काम आएंगे. पता है न नीला रंग कितना ठंडा होता है, सासबहू दोनों का पारा नीचा रहेगा तो घर में शांति भी रहेगी.’’

सोम मुझे साफसाफ अपने मनोभाव समझा रहा था. क्या करूं मैं? कितनी जगह आवेदन दिया है, बीसियों जगह साक्षात्कार भी दे रखा है. सोचता हूं जैसे ही सोम को नौकरी मिल जाएगी, नीलू को बस, 5 कपड़ों में ले आएंगे. एक बार नीलू आ जाए तो वास्तव में हमारा जीवन चलने लगेगा. मांबाबूजी को भी नीलू बहुत पसंद है.

दूसरी शाम तक हमारा घर काफी हलकाफुलका हो गया था. रसोई तो बिलकुल नई लग रही थी. मांबाबूजी आए तो हम गौर से उन का चेहरा पढ़ते रहे. सफर की थकावट थी सो उस रात तो हम दोनों ने नमकीन चावल बना कर दही के साथ परोस दिए. मां रसोई में गईं ही नहीं, जो कोई विस्फोट होता. सुबह मां का स्वर घर में गूंजा, ‘‘अरे, यह क्या, नए बरतन?’’

‘‘अरे, आओ न मां, ऊपर चलो, देखो, हम ने तुम्हारे आराम के लिए कितनी सुंदर जगह बनाई है.’’

आधे घंटे में ही हमारी हफ्ते भर की मेहनत मां ने देख ली. पहले जरा सी नाराज हुईं फिर हंस दीं.

‘‘चलो, कबाड़ से जान छूटी. पुराना सामान किसी काम भी तो नहीं आता था. अच्छा, अब अपनी मेहनत का इनाम भी ले लो. तुम दोनों के लिए मैं लड़कियां देख आई हूं. बरसात से पहले सोचती हूं तुम दोनों की शादी हो जाए.’’

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‘‘दोनों के लिए, क्या मतलब? क्या थोक में शादी करने वाली हो?’’ सोम ने झट से बात काट दी. कम से कम नौकरी तो मिल जाए मां, क्या बेकार लड़का ब्याह देंगी आप?’’

चौंक उठा मैं. जानता हूं, सोम नीलू से कितना जुड़ा है. मां इस सत्य पर आंख क्यों मूंदे हैं. क्या उन की नजरों से बेटे का मोह छिपा है? क्या मां की अनुभवी आंखों ने सोम की नजरों को नहीं पढ़ा?

‘‘मेरी छोड़ो, तुम भाई की शादी करो. कहीं जाती हो तो खाने की समस्या हो जाती है. कम से कम वह तो होगी न जो खाना बना कर खिलाएगी. डबलरोटी खाखा कर मेरा पेट दुखने लगता है. और सवाल रहा लड़की का, तो वह मैं पसंद कर चुका हूं…मुझे भी पसंद है और भाई को भी. हमें और कुछ नहीं चाहिए. बस, जाएंगे और हाथ पकड़ कर ले आएंगे.’’

अवाक् रह गया मैं. मेरे लिए किसे पसंद कर रखा है सोम ने? ऐसी कौन है जिसे मैं भी पसंद करता हूं. दूरदूर तक नजर दौड़ा आया मैं, कहीं कोई नजर नहीं आई. स्वभाव से संकोची हूं मैं, सोम की तरह इतना बेबाक कभी नहीं रहा जो झट से मन की बात कह दूं. क्षण भर को तो मेरे लिए जैसे सारा संसार ही मानो गौण हो गया. सोम ने जो नाम लिया उसे सुन कर ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन ही निकाल ली हो.

Serial Story- अब जाने दो उसे: भाग 1

मुझे नाकारा और बेकार पड़ी चीजों से चिढ़ होती है. जो हमारे किसी काम नहीं आता फिर भी हम उसे इस उम्मीद पर संभाले रहते हैं कि एक दिन शायद वह काम आए. और जिस दिन उस के इस्तेमाल का दिन आता है, पता चलता है कि उस से भी कहीं अच्छा सामान हमारे पास है. बेकार पड़ा सामान सिर्फ जगह घेरता है, दिमाग पर बोझ बनता है बस.

अलमारी साफ करते हुए बड़बड़ा रहा था सोम, ‘यह देखो पुराना ट्रांजिस्टर, यह रुकी हुई घड़ी. बिखरा सामान और उस पर कांच का भी टूट कर बिखर जाना…’ विचित्र सा माहौल बनता जा रहा था. सोम के मन में क्या है, यह मैं समझ नहीं पा रहा था.

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मैं सोम से क्या कहूं, जो मेरे बारबार पूछने पर भी नहीं बता रहा कि आखिर वजह क्या है.

‘‘क्या रुक गया है तुम्हारा, जरा मुझे समझाओ न?’’

सोम जवाब न दे कर सामान को पैर से एक तरफ धकेल परे करने लगा.

‘‘इस सामान में किताबें भी हैं, पैर क्यों लगा रहे हो.’’

सोम एक तरफ जा बैठा. मुझे ऐसा भी लगा कि उसे शर्म आ रही है. संस्कारों और ऊंचे विचारों का धनी है सोम, जो व्यवहार वह कर रहा है उसे उस के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं माना जा सकता क्योंकि वह ऐसा है ही नहीं.

‘‘कल किस से मिल कर आया है, जो ऐसी अनापशनाप बातें कर रहा है?’’

सोम ने जो बताया उसे सुन कर मुझे धक्का भी लगा और बुरा भी. किसी तांत्रिक से मिल कर आया था सोम और उसी ने समझाया था कि घर का सारा खड़ा सामान घर के बाहर फेंक दो.

‘‘खड़े सामान से तुम्हारा क्या मतलब है?’’

‘‘खड़े सामान से हमारा मतलब वह सामान है जो चल नहीं रहा, बेकार पड़ा सामान, जो हमारे काम में नहीं आ रहा वह सामान…’’

‘‘तब तो सारा घर ही खाली करने वाला होगा. घर का सारा सामान एकसाथ तो काम नहीं न आ जाता, कोई सामान आज काम आ रहा है तो कोई कल. किताबों को पैरों से धकेल कर बाहर फेंक रहे हो. ट्रांजिस्टर में सैल डालोगे तो बजेगा ही… क्या तुम ने पूरी तरह समझा कि वह तांत्रिक किस सामान की बात कर रहा था?’’

‘‘हमारे घर का वास्तु भी ठीक नहीं है,’’ सोम बोला, ‘‘घर का नकशा भी गलत है. यही विकार हैं जिन की वजह से मुझे नौकरी नहीं मिल रही, मेरा जीवन ठहर गया है भाई.’’

सोम ने असहाय नजरों से मुझे देखा. विचित्र सी बेचैनी थी सोम के चेहरे पर.

‘‘अब क्या घर को तोड़ कर फिर से बनाना होगा? नौकरी तो पहले से नहीं है… लाखों का जुगाड़ कहां से होगा? किस घरतोड़ू तांत्रिक से मिल कर आए हो, जिस ने यह समझा दिया कि घर भी तोड़ दो और घर का सारा सामान भी बाहर फेंक दो.’’

हंसी आने लगी थी मुझे.

मां और बाबूजी कुछ दिन से घर पर नहीं हैं. सोम उन का ज्यादा लाड़ला है. शायद उदास हो गया हो, इसलिए बारबार जीवन ठहर जाने का गिला कर रहा है. मैं क्या करूं, समझ नहीं पा रहा था.

‘‘तुम्हें नीलू से मिले कितने दिन हो गए हैं? जरा फोन करना उसे, बुलाना तो, अभी तुम्हारा जीवन चलने लगेगा,’’ इतना कह मैं ने मोबाइल उठा कर सोम की तरफ उछाल दिया.

‘‘वह भी यहां नहीं है, अपनी बूआ के घर गई है.’’

मुझे सोम का बुझा सा स्वर लगा. कहीं यही कारण तो नहीं है सोम की उदासी का. क्या हो गया है मेरे भाई को? क्या करूं जो इसे लगे कि जीवन चलने लगा है.

सुबहसुबह मैं छत पर टहलने गया. बरसाती में सामान के ढेर पर नजर पड़ी. सहसा मेरी समझ में आ गया कि खड़ा सामान किसे कहते हैं. भाग कर नीचे गया और सोम को बुला लाया.

‘‘यह देख, हमारे बचपन की साइकिलें, जिन्हें जंग लगी है, कभी किसी काम में नहीं आने वालीं, सड़े हुए लोहे के पलंग और स्टूल, पुराना गैस का चूल्हा, यह पुराना टीवी, पुराना टूटा टेपरिकार्डर और यह साइकिल में हवा भरने वाला पंप…इसे कहते हैं खड़ा सामान, जो न आज काम आएगा न कल. छत का इतना सुंदर कोना हम ने बरबाद कर रखा है.’’

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आंखें फैल गईं सोम की. मां और बाबूजी घर पर नहीं थे सो बिना रोकटोक हम ने घर का सारा कबाड़ बेच दिया. सामान उठा तो छत का वह कोना खाली हो गया जिसे हम साफसुथरा कर अपने लिए छोटी सी आरामगाह बना सकते थे.

नीचे रसोई में भी हम ने पूरी खोज- खबर ली. ऊपर वाली शैल्फ पर जला हुआ पुराना गीजर पड़ा था. बिजली का कितना सामान जमा पड़ा था, जिस का उपयोग अब कभी होने वाला नहीं था. पुरानी ट्यूबें, पुराने हीटर, पुरानी इस्तरी.

हम ने हर जगह से खड़ा सामान निकाला तो 4 दिन में घर का नकशा बदल गया. छत को साफ कर गंदी पड़ी दीवारों पर सोम ने आसमानी पेंट पोत दिया. प्लास्टिक की 4 कुरसियां ला कर रखीं, बीच में गोल मेज सजा दी. छत से सुंदर छोटा सा फानूस लटका दिया. जो खुला भाग किसी की नजर में आ सके वहां परदा लगा दिया, जिसे जरूरत पड़ने पर समेटा भी जा सके और फैलाया भी.

‘‘एक हवादार कमरे का काम दे रहा है यह कोना. गरमी के मौसम में जब उमस बढ़ने लगेगी तो यहां कितना आराम मिला करेगा न,’’ उमंग से भर कर सोम ने कहा, ‘‘और बरसात में जब बारिश देखने का मन हो तो चुपचाप इसी कुरसी पर पसर जाओ…छत की छत, कमरे का कमरा…’’

सोम की बातों को बीच में काटते हुए मैं बोल पड़ा, ‘‘और जब नीलू साथ होगी तब और भी मजा आएगा. उस से पकौड़े बनवा कर खाने का मजा ही कुछ और होगा.’’

मैं ने नीलू का नाम लिया इस पर सोम ने गरदन हिला दी.

‘‘सच कह रहे हो भाई, नीचे जा कर देखो, रसोई भी हलकीफुलकी हो गई है… देख लेना, जब मां आएंगी तब उन्हें भी खुलाखुला लगेगा…और अगर मां ने कबाड़ के बारे में पूछा तो क्या कहेंगे?’’

‘‘उस सामान में ऐसा तो कोई सामान नहीं था जिस से मां का काम रुकेगा. कुछ काम का होता तब तो मां को याद आएगा न?’’

मेरे शब्दों ने सोम को जरा सा आश्वासन क्या दिया कि वह चहक कर बोला, ‘‘भाई क्यों न रसोई के पुराने बरतन भी बदल लें. वही प्लेटें, वही गिलास, देखदेख कर मन भर गया है. मेहमान आएं तो एक ही रंग के बरतन मां ढूंढ़ती रह जाती हैं.’’

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सोम की उदासी 2 दिन से कहीं खो सी गई थी. सारे पुराने बरतन थैले में डाल हम बरतनों की दुकान पर ले गए. बेच कर, थोड़े से रुपए मिले. उस में और रुपए डाल कर एक ही डिजाइन की कटोरियां, डोंगे और प्लेटें ला कर रसोई में सजा दीं.

हैरान थे हम दोनों भाई कि जितने रुपए हम एक पिक्चर देखने में फूंक देते हैं उस से बस, दोगुने ही रुपए लगे थे और रसोई चमचमा उठी थी.

Short Story- अपने हिस्से की ईमानदारी

लेखक: मंजर इमाम

प्रस्तुति: कलीम उल्लाह

नादिर गुलशन इकबाल के एक शानदार मकान में रहता था. उस के पास बहुत पैसा था. वह कोई काम नहीं करता था. बस, जरूरतमंद लोगों को पैसे ब्याज पर देता था. इस काम से उसे अच्छीखासी आमदनी थी और उस से बहुत आराम से गुजारा होता था. नादिर का कहना था कि यही उस का बिजनैस है और बिजनैस से मुनाफा लेना कोई बुरी बात नहीं है.

कर्ज के तौर पर दिए गए पैसों का ब्याज वह हर महीने वसूल करता था. नादिर ने पैसे वसूल करने के लिए कुछ कारिंदे भी रखे हुए थे. अगर कोई आदमी पैसे देने में आनाकानी करता था तो कारिंदे गुंडागर्दी पर उतर आते थे, कर्जदार के हाथपैर तोड़ देते थे और कभीकभी गोलियां भी मार देते थे. नादिर ने आसपास के थानेदारों को पटा रखा था.

एक दिन नादिर का दोस्त अकरम अपने एक परिचित युवक नोमान को ले कर उस के पास आया. नोमान एक शरीफ आदमी लग रहा था. उस के चेहरे से दुख और परेशानी झलक रही थी.

अकरम ने नादिर से नोमान का परिचय कराया और कहा, ‘‘नादिर भाई, ये आजकल कुछ परेशानी में फंसे हुए हैं. आप इन की मदद कर दीजिए. नोमान आप का पैसा जल्द वापस कर देंगे. इन का होजरी का कारोबार है.’’

‘‘अच्छा, कितने पैसों की जरूरत है आप को?’’ नादिर ने पूछा.

नोमान ने कहा, ‘‘नादिर भाई, मुझे 5 लाख की जरूरत है. मैं ने आज तक किसी से कर्ज नहीं लिया, लेकिन इस बार मजबूर हो

गया हूं.’’

‘‘लेकिन अकरम,’’ नादिर ने अपने दोस्त की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘इस बंदे की जमानत कौन लेगा?’’

‘‘नादिर साहब,’’ नोमान बोला, ‘‘मैं एक शरीफ आदमी हूं. सदर में मेरी दुकान और अल आजम स्क्वायर में मेरा फ्लैट है. मैं आप के पैसे ले कर कहीं भागूंगा नहीं.’’

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‘‘आप भाग ही नहीं सकते,’’ नादिर हंसते हुए बोला, ‘‘खैर, 5 लाख के लिए आप को हर महीने 50 हजार ब्याज देना पड़ेगा, आप को मंजूर है?’’

नोमान ने 50 हजार ब्याज देने से इनकार कर दिया. लेकिन अकरम के कहने पर नादिर 30 हजार महीना ब्याज पर राजी हो गया. नादिर ने कहा कि ब्याज की रकम कम करना उस के नियम के खिलाफ है लेकिन नोमान एक अच्छा आदमी लग रहा है, इसलिए इतनी छूट दे दी.

नादिर के दोस्त अकरम ने कहा, ‘‘नादिर भाई, मैं ने आप दोनों को मिलवा दिया है. अब जो भी मामला है, वह आप दोनों का है. आप हर तरह से तसल्ली करने के बाद इन्हें पैसा दें. फिर इन्होंने मूल रकम या ब्याज दिया या नहीं या आप ने इन के साथ कोई ज्यादती की, मुझे इस से कोई लेनादेना नहीं. आगे आप दोनों जानें.’’

‘‘ठीक है यार, मैं तुझ पर कोई इलजाम नहीं लगाऊंगा. अब यह मेरा मामला है, लेकिन मैं नोमान का मकान जरूर देखूंगा.’’ नादिर ने अकरम से कहा.

नोमान तुरंत बोला, ‘‘क्यों नहीं नादिर भाई, आप जब चाहें मकान देख लें बल्कि आप शुक्रवार को आ जाएं, मैं घर पर ही रहूंगा. दोनों एक साथ बैठ कर चाय पिएंगे.’’

अपनी संतुष्टि के लिए नादिर शुक्रवार को नोमान का घर देखने पहुंच गया. नोमान का फ्लैट बहुत अच्छा था. नोमान ने नादिर को देख कर फौरन फ्लैट का दरवाजा खोल दिया और कहा, ‘‘वेलकम नादिर भाई, मैं तो समझ रहा था कि शायद आप ने यूं ही कह दिया. आप तशरीफ नहीं लाएंगे.’’

‘‘क्यों नहीं आऊंगा. हमारे धंधे में जबान की बहुत अहमियत होती है. जो कह दिया, सो कह दिया.’’ नादिर बोला.

नोमान ने नादिर को ड्राइंगरूम में बिठा दिया. नादिर को पूरी तरह तसल्ली हो गई कि उस का पैसा कहीं नहीं जाएगा. वैसे भी नोमान शरीफ आदमी दिखाई दे रहा था.

‘‘माफ करना नादिर भाई, आज बेगम घर पर नहीं हैं, इसलिए आप को मेरे हाथ की चाय पीनी पड़ेगी.’’

‘‘अरे, इस की जरूरत नहीं है,’’ नादिर बोला.

‘‘यह तो हो ही नहीं सकता,’’ नोमान ने कहा, ‘‘मैं अभी हाजिर हुआ.’’

नोमान अंदर किचेन की तरफ चला गया. इस दौरान नादिर फ्लैट का निरीक्षण करता रहा. चाय और नमकीन आदि से निपटने के बाद नोमान ने पूछा, ‘‘तो फिर आप ने क्या फैसला किया?’’

‘‘ठीक है,’’ नादिर ने हामी भरी, ‘‘मुझे आप की तरफ से इत्मीनान हो गया है. मैं कल आऊंगा पैसे ले कर.’’

नोमान ने उस का शुक्रिया अदा किया और कहा, ‘‘यकीन करें, अगर इतनी जरूरत न होती तो मैं कभी पैसे नहीं लेता.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ नादिर मुसकरा दिया, ‘‘हम जैसों को जरूरत में ही याद किया जाता है. अब मैं चलता हूं.’’

नादिर अपने घर वापस आ गया. उस ने अपने दोस्त अकरम को फोन कर दिया, जिस ने नोमान का परिचय कराया था, ‘‘हां भाई, मुझे बंदा ठीक लगा. घर भी देख लिया है उस का. उसे कल पैसे दे दूंगा.’’

दूसरे दिन शाम को नादिर 5 लाख रुपए ले कर नोमान के घर पहुंच गया. दस्तक के जवाब में एक युवती ने दरवाजा खोला. वह एक सुंदर औरत थी. नादिर के अंदाज के अनुसार उस की उम्र 28-30 साल थी. वह प्रश्नसूचक नजरों से नादिर को देख रही थी.

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‘‘मुझे नोमान से मिलना है,’’ नादिर ने कहा, ‘‘मेरा नाम नादिर है.’’

‘‘ओह! आप नादिर साहब हैं. नोमान ने मुझे आप के बारे में बताया था. मैं उन की मिसेज अंबर हूं. आप अंदर आ जाएं. नोमान शावर ले रहे हैं. मैं उन्हें बता देती हूं.’’

नादिर अंदर जा कर बैठ गया, उसी ड्राइंगरूम में जहां कल बैठा था. नोमान की पत्नी अंदर चली गई. नादिर को वह स्त्री बहुत अच्छी लगी थी. वैसे तो वह बहुत ज्यादा सुंदर नहीं थी, लेकिन उस में एक खास किस्म की कशिश जरूर थी. नादिर ने बहुत कम औरतों में ऐसा आकर्षण देखा था.

कुछ देर बाद नोमान की पत्नी अंबर चाय आदि ले कर आई और नादिर से बोली, ‘‘ये लें, चाय पिएं. नोमान आ रहे हैं.’’

वैसे तो अंबर चाय दे कर चली गई थी, लेकिन नादिर के लिए वह अभी तक उसी ड्राइंगरूम में थी. उस के बदन की खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था. नादिर उस स्त्री से बहुत प्रभावित हुआ.

कुछ देर बाद नोमान नहा कर आ गया. दोनों ने बहुत गर्मजोशी से हाथ मिलाया. नादिर बोला, ‘‘नोमान, मैं तुम्हारे 5 लाख रुपए ले आया हूं.’’

फिर उस ने अपनी जेब से नोटों की गड्डी निकाल कर मेज पर रख दी.

नोमान ने कहा, ‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, मैं अभी आया.’’

‘‘तुम कहां चल दिए,’’ नादिर ने पूछा.

‘‘पहचान पत्र की फोटो कौपी लेने,’’ नोमान ने बताया.

‘‘अरे, रहने दो,’’ नादिर बेतकल्लुफी से बोला, ‘‘उस की जरूरत नहीं है.’’

फिर कुछ देर बाद वह चला गया.

नादिर लड़कियों और औरतों का शिकारी था. उसे अंदाजा हो गया था कि नोमान की पत्नी अंबर को हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं होगा. उस ने अंबर की आंखों के इशारे देख लिए थे, जो बहुत सामान्य लगते थे, लेकिन नादिर जैसे लोगों के लिए इतना ही बहुत था.

नादिर को एक महीने तक इंतजार करना था. उस ने नोमान से कहा था, ‘‘आप मेरे पास आने का कष्ट न करें. मैं स्वयं ही ब्याज की किस्त लेने आ जाया करूंगा. कुछ गपशप भी हो जाएगी और चाय भी चलती रहेगी.’’

ब्याज की किस्त वसूल करने के सिलसिले में नादिर बहुत कठोर था. वह मोहलत देने का विरोधी था. अगर वह मोहलत देता भी था, तो रोजाना के हिसाब से जुरमाना भी वसूल करता था. नादिर के साथ उस के गुंडे भी होते थे, इसलिए कोई इनकार नहीं करता था.

नादिर अपने समय पर नोमान के घर ब्याज की रकम लेने के लिए पहुंच गया. नोमान किसी काम से बाहर गया हुआ था. घर पर सिर्फ उस की बीवी थी. उस ने नादिर को प्रेमपूर्वक घर के अंदर बुला लिया. फिर उस के लिए चाय बना कर ले आई और खुद भी उस के सामने बैठ गई. चाय पीने के दौरान उस ने कहा, ‘‘नादिर साहब, अगर इस बार नोमान को पैसे देने में कुछ देर हो जाए तो बुरा तो नहीं मानेंगे.’’

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‘‘क्यों, खैरियत तो है?’’ नादिर ने पूछा.

‘‘कहां खैरियत, मेरी अम्मी बीमार हैं. नोमान ने इस बार के पैसे उन के इलाज में लगा दिए,’’ अंबर ने बताया.

‘‘अरे चलें, कोई बात नहीं, उस से कह देना फिक्र न करे.’’

‘‘नोमान कह रहे थे कि आप रोजाना के हिसाब से जुरमाना भी वसूल करते हैं,’’ नोमान की पत्नी बोली.

‘‘अरे, उस की फिक्र न करें. ऐसा होता तो है लेकिन यह उसूल, नियम सब के साथ नहीं होता. अपने लोगों को छूट देनी पड़ती है,’’ नादिर ने अपने लोगों पर खास जोर दिया.

नोमान की पत्नी अंबर मुसकरा दी. उस की मुसकराहट देख कर नादिर का दिल खुश हो गया. फिर चाय की प्याली समेटते हुए अंबर का हाथ नादिर के हाथ से टकरा गया. नादिर के पूरे वजूद में जैसे करंट सा दौड़ गया.

‘‘मुझे पैसों की ऐसी कोई जल्दी नहीं है,’’ नादिर ने चलते हुए कहा, ‘‘और नोमान को जुरमाना देने की भी जरूरत नहीं है.’’

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया, हमारा कितना खयाल रखते हैं,’’ अंबर गंभीरता से बोली.

नादिर मदहोशी जैसी स्थिति में अपने घर वापस आ गया. शुरुआत हो गई थी. वह सोचने लगा काश! नोमान के पास कभी पैसे न हों और वह इसी तरह उस के घर जाता रहे.

10 दिन गुजर गए. नोमान की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला. नादिर सोचने लगा, ‘हो सकता है उस की सास की तबीयत ज्यादा खराब हो गई हो या कुछ इसी तरह की बात हो.’

नादिर स्थिति जानने के बहाने नोमान के फ्लैट पर पहुंच गया. दस्तक के जवाब में एक अजनबी आदमी ने दरवाजा खोला और प्रश्नसूचक नजरों से नादिर को देखने लगा.

‘‘मुझे नोमान से मिलना है,’’ नादिर ने कहा.

‘‘नोमान?’’ उस ने आश्चर्य से दोहराया, फिर तत्काल बोला, ‘‘अच्छा, आप शायद पिछले किराएदार की बात कर रहे हैं.’’

‘‘पिछला किराएदार?’’ नादिर को बड़ा आश्चर्य हुआ.

‘‘जी भाई, वह तो 3 दिन हुए फ्लैट खाली कर के चले गए,’’ उस ने बताया.

‘‘कहां गए हैं?’’ नादिर ने पूछा.

‘‘सौरी, मुझे यह नहीं मालूम,’’ उस ने जवाब दिया.

नादिर गुस्से से कांपता हुआ उस बिल्डिंग से बाहर आ गया. यह पहला मौका था कि किसी ने उस को इस तरह धोखा दिया था. उस ने एस्टेट एजेंट से मालूम करने की कोशिश की लेकिन वह भी यह नहीं बता सका कि नोमान ने कहां मकान लिया.

नादिर के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. अगर नोमान की बीवी अंबर उस के हाथ लग जाती तो फिर यह कोई नुकसानदायक सौदा नहीं होता. लेकिन कमबख्त नोमान तो अपनी पत्नी और सामान के साथ गायब था.

नोमान ने यह भी नहीं बताया था कि सदर में उस की दुकान कहां है. फिर भी वह पूरे सदर में उस को तलाश करेगा. बस, यही एक सहारा था. लेकिन उसे उम्मीद नहीं थी कि वहां नोमान मिल जाएगा. ऐसा ही हुआ भी, सदर में नोमान नहीं मिला. लेकिन नादिर ने हिम्मत नहीं हारी. उस ने नोमान की तलाश जारी रखी. वह सोच रहा था कि नोमान कभी न कभी तो मिलेगा ही, शहर को छोड़ कर कहां जाएगा.

फिर एक दिन आखिर नोमान की पत्नी अंबर मिल ही गई. वह एक स्टोर से कुछ सामान खरीद रही थी. नादिर उस के बराबर में जा कर खड़ा हो गया. अंबर ने चौंक कर नादिर की तरफ देखा, ‘‘आप नादिर हैं न?’’ उस ने पूछा.

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‘‘हां, मैं नादिर हूं और तुम्हारा पति कहां है?’’

‘‘पति? कौन पति?’’ अंबर ने आश्चर्य से पूछा.

नादिर बोला, ‘‘मैं नोमान की बात कर रहा हूं.’’

‘‘वह मेरा पति नहीं है,’’ अंबर बोली.

‘‘क्या?’’ नादिर हैरान रह गया, ‘‘तो फिर कौन है?’’

‘‘बाहर आएं, बताती हूं,’’ अंबर बोली.

वह नादिर को ले कर स्टोर से बाहर आ गई.

‘‘हां, अब बताओ, तुम क्या कह रही थीं?’’ नादिर ने कहा.

‘‘मैं कह रही थी कि नोमान मेरा पति नहीं बल्कि कोई भी नहीं है. उस ने मुझे इस नाटक के लिए किराए पर लिया था. मैं एक कालगर्ल हूं. मेरा तो यही काम है. उस ने मुझे 25 हजार रुपए दिए थे. नोमान ने मुझ से कहा था कि मुझे उस की बीवी का रोल करना है. मैं ने अपनी ड्यूटी की. उस से मेहनताना

लिया, खेल खत्म. उस का रास्ता अलग,

मेरा अलग.’’

‘‘क्या तुम मुझे उस समय नहीं बता सकती थीं कि तुम उस की बीवी होने का नाटक कर रही हो?’’ नादिर ने गुस्से से पूछा.

‘‘नादिर साहब, हर धंधे का अपनाअपना उसूल होता है. मैं ने उसे जबान दी थी, फिर आप को यह सब कैसे बताती?’’ अंबर बोली.

‘‘अब वह कहां है?’’ नादिर बोला.

‘‘यह मैं नहीं जानती. मैं ने उस से अपना मेहनताना ले लिया था, अब वह कहीं भी जाए. मेरा उस से कोई लेनादेना नहीं है. हां, आप भी मेरा मोबाइल नंबर ले लें, अगर कभी आप को मेरी जरूरत पड़ जाए तो मैं हाजिर हो जाऊंगी.’’

नादिर अपने आप पर लानत भेजता हुआ घर वापस चला गया. आज जिंदगी में पहली बार उस ने बुरी तरह धोखा खाया था. और वह भी ऐसा जिस की चोट बरसों महसूस होती रहेगी. आखिर 5 लाख कम तो नहीं होते.

Serial Story: प्यार में दी खुद की कुरबानी- भाग 1

जैसलमेर रियासत के मंत्री महबूब खान की बेटी रेशमा ठाकुर विजय सिंह से इतनी प्रभावित हुई कि उस ने उन से शादी करने का फैसला कर लिया. लेकिन महबूब खान ने रेशमा से शादी के लिए सैनिक पठान खान और ठाकुर विजय सिंह के बीच युद्ध कराने की ऐसी शर्त रखी कि…

उन दिनों रेगिस्तान में पानी कुंओं से निकाल कर पीया जाता था. उसी पानी से पशुधन के साथ गांव, कस्बों एवं

नगरों के लोगों की भी प्यास बुझती थी. युवतियां एवं बहुएं कुएं से पानी भर कर घर ले जाती थीं. दिनरात लोग पानी के जुगाड़ में रहते थे.

शाहगढ़ के कुंए के पनघट पर बारात रुकी थी. बारात दीनगढ़ के जागीरदार ठाकुर मोहन सिंह की थी. मोहन सिंह 500 बारातियों के साथ शाहगढ़ के ठाकुर खेतसिंह की बेटी दरियाकंवर से ब्याह रचाने आए थे.

जानी डेरा (बारात के रुकने का स्थान) कुंए के पनघट के पास था. पनघट पर गांव की महिलाएं सिर पर मटके रख कर पानी ले जा रही थीं. बारात में तमाम गांवों के ठाकुर, जागीरदार आए हुए थे. इस बारात में जैसलमेर रियासत के तमाम गांवों के ठाकुर शामिल हुए थे. ठाकुर मोहन सिंह ने अपनी शादी में तिजौरियों के मुंह खोल दिए थे.

दीनगढ़ में 7 दिन तक लगातार खुला रसोड़ा चला. गलीगली में खातिरदारी हुई. सारा दीनगढ़ नाचगाना, रागरंग में डूब गया था. प्रभावशाली और अत्यधिक धनी व्यक्ति ऐसे अवसर पर धन बहाने में अपनी शानोशौकत समझता है. मोहनसिंह ने भी यही किया था. दीनगढ़ दुर्ग से बारात शाहगढ़ के लिए रवाना हुई. सोने की मोहरे उछाली गईं. मार्ग के दोनों ओर भीड उमड़ पड़ी.

सब से आगे रियासत के नामीगिरामी मांग ठाहार शहनाई नौबत बाजे बजाते निकले. फिर मंगल कलश ले कर बालिकाएं. पीछे मंगल गीत गाती महिलाएं. उन के बाद सजेधजे घोड़ों पर राज्य के हाकिम, ठाकुर, अमीर उमराव चल रहे थे. उन के पीछे तमाम बाराती ऊंटों पर सवार थे.

बारात के पड़ावों की जगह पहले से तय थीं. वहीं खानेपीने और रागरंग का पूरा इंतजाम था. सारे रास्ते बाराती हो या कोई और सब के लिए रसोड़ा खुला था. रास्ते के गांवों में जबरदस्त हलचल थी. दूरदूर से लोग बारात देखने आ रहे थे.

दोपहर बाद बारात शाहगढ़ पहुंची तो उस का भव्य स्वागत हुआ. बारातियों, घोड़ों और ऊंटों को पानी की परेशानी न हो इसलिए उसे पनघट के पास ठहराया गया. खानेपीने की अच्छी व्यवस्था थी. ऊंटघोड़ों के लिए कोठाखेली भर दी गई थीं. जितना पानी कम पड़ता उतना ही कुएं से खींच कर भर दिया जाता था.

दिन अस्त होने को था. बारात में हमीरगढ़ के ठाकुर विजय सिंह भी पधारे थे. विजय सिंह की उम्र यही कोई 22-23 बरस थी. विजय सिंह के पिता सुल्तान सिंह का थोड़े समय पूर्व निधन हो चुका था.

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पिता के निधन के बाद विजय सिंह को हमीरगढ़ का ठाकुर घोषित किया गया था. गौर वर्ण विजय सिंह का बलिष्ठ सुंदर साहसी युवक था. वह अस्त्रशस्त्र चलाने के साथ मल्लयुद्ध में भी निपुण था. हमीरगढ़ के आसपास बीस कोस में विजय सिंह जैसा कोई योद्धा नहीं था. ऐसा योद्धा बारात में हो और उस की चर्चा न हो यह संभव नहीं था.

विजय सिंह की वीरता और ताकत की जो बातें शाहगढ़ के जानी डेरे में हो रही थीं. वह शाहगढ़ के लोगों ने भी सुनी. उन्होंने यह बातें अपने घर जा कर भी सुनाई. तब बलिष्ठ ठाकुर विजय सिंह की शाहगढ़ में भी चर्चा होने लगी. यह चर्चा रेशमा ने भी सुनी. रेशमा शाहगढ़ के ठाकुर खेतसिंह की पुत्री दरियाकंवर की सहेली थी.

रेशमा के पिता महबूब खान जैसलमेर रियासत में मंत्री थे. महबूब खान भी दिलेर व ताकतवर व्यक्ति थे. वह शाहगढ़ के रहने वाले थे और रियासत के उन गिनेचुने व्यक्तियों में थे, जो राजा के करीबी थे.

रेशमा और दरियाकंवर हमउम्र थीं, साथ ही खास सहेलियां भी. दोनों अलगअलग जातिधर्म की जरूर थीं मगर दोनों धर्म से ऊपर इंसान को महत्त्व देती थीं.

रेशमा मानती थी कि जब जीव जन्म लेता है, उस समय वह किसी धर्म का नहीं होता. जीव का जन्म जिस घर में होता है उसे उसी धर्म से जोड़ दिया जाता है. राजपूत के घर पैदा हुआ तो राजपूत कहलाता है, मुसलमान के घर पैदा हुआ तो मुसलिम कहलाएगा.

रेशमा ने ठाकुर विजय सिंह की बहादुरी के चर्चे सुने तो उस का मन उन्हें देखने को व्याकुल हो उठा. रेशमा का घर ‘जानी डेरे’ के पास ही था. उस के दिलोदिमाग पर विजय सिंह से मिलने का भूत सवार हो गया. वह अपनी 2-3 सहेलियों के साथ दरियाकंवर के घर से अपने घर आ गई. वहां रेशमा और उस की सखियों के अलावा कोई नहीं था.

रेशमा ने अपने छोटे भाई के हाथ एक पत्र विजय सिंह के पास भेजा. विजय सिंह ने पत्र पढ़ा और जानी डेरे से बाहर आ कर पास वाले घर की ओर देखा, तो उन्हें झरोखे में एक खूबसूरत नवयौवना बैठी दिखाई दी. वह बला की खूबसूरत थी. गोरी अप्सरा सी सुंदरी, पीली चुनर ओढे़ केशर की बेटी जैसी. अस्त होते सूरज की किरणों ने उस पर अपनी आभा बिखेर कर पीला रंग चढ़ा दिया था.

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ठाकुरसा ने आंखें मलीं. फिर देखा. सच! एकदम सच! ठाकुर विजय सिंह की आंखों से रेशमा की आंखें चार हुईं, तो दोनों का निगाहें हटाने का मन नहीं हो रहा था. विजय सिंह के रूपयौवन एवं बलिष्ठ शरीर पर रेशमा पहली नजर में ही मर मिटी. रेशमा ने मन ही मन तय कर लिया कि यही उस के सपनों का राजकुमार है. शादी करूंगी तो इसी से वरना ताउम्र कुंवारी रह लूंगी. किसी और से ब्याह नहीं करूंगी. रेशमा ने हाथ से इशारा किया तो ठाकुरसा उस के आकर्षण में बंधे उस के पास चले आए. रेशमा की सखियां दूसरे कक्ष में छिप गई थीं.

रेशमा ने विजय सिंह को बिठाया. दोनों आमनेसामने बैठे थे. मगर बोल किसी के मुंह से फूट नहीं रहे थे. काफी देर तक दोनों अपलक एकदूसरे को निहारते रहे. फिर हिम्मत कर के रेशमा के मुंह से कोयल सी मीठी वाणी निकली, ‘‘आप का स्वागत है, हुकुम.’’

‘‘जी, धन्यवाद.’’ विजय सिंह ने कहा.

‘‘आज शाहगढ़ में तो आप के ही चर्चे हैं. दोपहर में जब से बारात आई है, तब से सब के मुंह पर आप की वीरता के ही किस्से हैं. ऐसे में मैं भी आप से मिलने को व्याकुल हो गई. तभी छोटे भाई के साथ संदेश भिजवाया था मिलने को?’’ रेशमा बोली.

‘‘आप ने बुलाया और हम चले आए. अब बताएं क्या कुछ कहना है?’’ ठाकुर सा ने कहा.

‘‘मेरी बचपन से एक ही तमन्ना है कि मैं अपना जीवनसाथी स्वयं चुनूं. मैं आप से ब्याह करना चाहती हूं…’’ एक ही सांस में कह गई रेशमा. विजय सिंह उसे देखते रह गए. उन से कुछ कहते नहीं बन रहा था. तभी रेशमा बोली, ‘‘आप राजपूत हैं और मैं मुसलमान. मगर प्यार करने वाले जातिधर्म नहीं देखते. मैं ने मन से आप को पति मान लिया है. अब आप को जो फैसला लेना हो लीजिए. मगर इतना जरूर ध्यान रखना कि मैं शादी करूंगी तो सिर्फ आप से. वरना जीवनभर कुंवारी रहना पसंद करूंगी. दुनिया के बाकी सब मर्द आज से मेरे भाई बंधु?’’ रेशमा ने लरजते होठों से कहा.

Serial Story: प्यार में दी खुद की कुरबानी- भाग 2

रेशमा की बात सुन कर विजय सिंह अजमंजस में पड़ गए. वह तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या जवाब दें रेशमा को. वह तो मन से उन्हें पति मान चुकी है. मृगनयनी रेशमा की सुंदरता पर वह भी मर मिटे थे. ऐसी सुंदरी उन्होंने अब तक नहीं देखी थी.

ठाकुर सा चकित थे, इस छोटे से गांव शाहगढ़ में इतनी सुंदर लड़की. वह भी सब से अलग. इस में कुछ तो है. यह मुसलमान और मैं राजपूत ठाकुर. धर्म की दीवार आड़े आ रही थी. इस कारण ठाकुर सा ने अगली सुबह तक जवाब देने को कहा और विदा ले कर जानी डेरे पर आ गए.

विजय सिंह के जानी डेरे लौटते ही रेशमा की सहेलियां रेशमा के पास आ गईं. वह उदास सी थी. सोच रही थी कि अगर विजय सिंह ने उस का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो वह कैसे जिएगी उन के बिना.

रेशमा की यह हालत उस की सहेलियों ने देखी तो धापू बोली, ‘‘रेशमा तुम्हारा हंसता चेहरा ही अच्छा लगता है. तुम्हारे चेहरे पर यह उदासी अच्छी नहीं लगती. भरोसा रखो. सब ठीक ही होगा.’’

‘‘धापू, तुम्हें बता नहीं सकती दिल खोल कर कि मैं आज एक पहर में ही कैसे ठाकुरसा के प्यार में पगला गई. अगर ठाकुर सा ने प्यार स्वीकार न किया तो कल इस समय तक मैं शायद जिंदा नहीं रहूंगी. मैं उन से इतनी मोहब्बत करने लगी हूं कि शायद किसी ने कभी किसी से नहीं की होगी?’’

रेशमा ने दिल की बात कही. तब धापू और अगर सहेलियों ने रेशमा को दिलासा दी कि सब ठीक होगा. उसे उस का सच्चा प्यार जरूर मिलेगा. इस के बाद सहेलियां रेशमा को दिलासा देती हुई शादी वाले घर ले गईं.

दूल्हे मोहनसिंह की शादी दरियाकंवर से हो गई. चंवरी में खूब चांदी के सिक्के और सोने की मोहरें उछाली गईं. शादी धूमधाम से संपन्न हो गई. दरियाकंवर को प्रियतम के रूप में मोहन मिल गया. वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी. वहीं रेशमा बीतती हर घड़ी के साथ उदास होती जा रही थी. उसे यह सवाल परेशान कर रहा था कि ठाकुर सा विजय सिंह उसे क्या जवाब देंगे. अगर ठाकुर सा ने उस का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो… रेशमा सारी रात इसी उधेड़बुन में रही.

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सुबह का सूरज निकला. रेशमा नहाधो कर तैयार हुई. नहाने के बाद रेशमा का रूप सौंदर्य निखर उठा. वह ताजे गुलाब सा खिल रही थी. सब लोग बारात की विदाई में जुट गए. उधर विजय सिंह ने अपने कुछ खास ठाकुरों से रेशमा के प्रेम प्रस्ताव के बारे में बात की.

विजय सिंह ने उन्हें बताया कि वह बहुत सुंदर हैं. उस की सुंदरता पर मैं भी मर मिटा हूं. मगर दोनों के मिलन में बांधा है दोनों का धर्म. वह मुसलिम है.

विजय सिंह को ठाकुरों ने कहा कि प्यार करने वाले जा%E

Serial Story: प्यार में दी खुद की कुरबानी- भाग 3

एक तरफ बेटी का प्यार. वहीं दूसरी तरफ उन का स्वयं का दिया पठान को वचन. वह रात भर सोच कर भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके.

सुबह उन्होंने अपनी बेगम और बेटी रेशमा को एकांत कक्ष में बुला कर बात की. महबूब खान ने रेशमा से कहा, ‘‘बेटी, मेरे कई बार प्राण जातेजाते बचे थे. जानती हो, प्राण मेरे अंगरक्षक सैनिक पठान ने अपनी जान पर खेल कर बचाए.

‘‘मैं ने उस के इन वीरता भरे कदमों से खुश हो कर उसे वचन दिया है कि रेशमा से उस का विवाह करूंगा. अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ में है. तुम चाहो तो मेरा वचन कायम रह सकता है. अगर मैं वचन नहीं निभा सका तो मैं प्राण दे दूंगा?’’ कहतेकहते महबूब खान की आंखें भर आईं.

रेशमा कहे भी तो क्या. वह तो मन से विजय सिंह को अपना सर्वस्व मान चुकी थी. ऐसे में वह अपने पिता के वचन का मान कैसे रखती. अगर पिता के वचन का मान रखती तो उस का प्यार विजय सिंह उसे धोखेबाज ही कहता. रेशमा ने विजय सिंह के सामने उन की प्रशंसा सुन कर प्रेम प्रस्ताव रखा था. उस के प्रेम प्रस्ताव को विजय सिंह ने स्वीकार भी कर लिया था और उस से शादी का वादा किया था.

अब यदि वह पिता के वचन को निभाते हुए पठान से ब्याह करती है तो विजय सिंह के दिल पर क्या गुजरेगी. वह गुमसुम बैठी सोचती रही. वह कुछ नहीं बोली. तब महबूब खान ने कहा, ‘‘कुछ तो बोल बेटी. इस धर्मसंकट से निकलना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं विजय सिंह को अपने मन से पति मान चुकी हूं. वह भी मुझ से प्रेम करते हैं और मुझ से विवाह करना चाहते हैं. विजय सिंह के अलावा इस धरती पर जितने मनुष्य हैं वह सब मेरे भाईबंधु हैं. अब आप ही फैसला करें कि बेटी की विजय से शादी करेंगे या उस का मरा मुंह देखेंगे?’’ रोते हुए रेशमा एक ही सांस में कह गई.

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महबूब खान अपनी पुत्री रेशमा की जिद से भलीभांति वाकिफ थे. वह समझ गए कि रेशमा ने जो मन में ठान लिया, वही करेगी. वह किसी की नहीं सुनेगी. ऐसे में महबूब खान ने बेटी से कहा, ‘‘बेटी, विजय सिंह और पठान में मल्लयुद्ध और अस्त्रशस्त्र से लड़ाई होगी. इस में जो जीतेगा उस से तुझे विवाह करना पड़ेगा.’’

‘‘अब्बू, मैं आप से कह चुकी हूं कि मैं ने अपना प्रियतम चुन लिया है. ऐसे में अब आप क्यों शर्त रख रहे हैं कि मल्लयुद्ध और तलवार से लड़ाई में जो जीतेगा उस से विवाह करना होगा. मैं मन से ठाकुर सा को पति मान चुकी हूं. इस जन्म में तो वहीं मेरे पति होंगे.’’

बेटी की बात सुन कर महबूब खान के तनबदन में आग लग गई. वह गुस्से से आंखें निकालते हुए बोले, ‘‘तेरी बकवास बहुत सुन चुका. तू जानती नहीं कि तू एक खान की बेटी है और अपने इसलाम धर्म में ही शादी कर सकती है. मेरे लाड़प्यार ने तुझे बिगाड़ दिया है. इसलिए तू एक राजपूत से शादी करने पर अड़ी है. अगर तेरा प्रियतम ठाकुर मेरे सैनिक पठान से जीतेगा तभी उस से शादी करूंगा. वरना कभी नहीं…समझी.’’

रेशमा ने अपने अब्बा का गुस्सा आज पहली बार देखा था. वह समझ गई कि अब तो अपनी सच्ची चाहत के बूते ही वह अपने प्रियतम को पा सकती है.

महबूब खान ने ऊंट सवार हमीरगढ़ भेज कर ठाकुर विजय सिंह को समाचार भिजवाया कि अगर रेशमा को चाहते हो और शादी करनी है तो अस्त्रशस्त्र ले कर कजली तीज के रोज शाहगढ़ पहुंच जाना. खुले मैदान में पठान खान से मल्लयुद्ध व तलवारबाजी का युद्ध करना होगा.

इस युद्ध में अगर तुम जीते तो रेशमा तुम्हारी और अगर पठान जीता तो रेशमा उस की होगी. समय पर शाहगढ़ पहुंच जाना. अगर नहीं आए तो रेशमा का पठान से विवाह कर दिया जाएगा.

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विजय सिंह समाचार मिलते ही अस्त्रशस्त्र से लैस हो कर अपने 2 राजपूत साथियों के साथ शाहगढ़ के लिए रवाना हो गए. कजली तीज में 4 दिन का समय बाकी था. ठाकुर सा घोड़े पर सवार हो कर अपने साथियों के साथ शाहगढ़ की राह चल पड़े. कजली तीज से एक रोज पहले ही वह शाहगढ़ पहुंच गए.

महबूब खान ने उन्हें एक तंबू में रोका. पठान भी शाहगढ़ आ गया था. महबूब खान ने विजय सिंह और पठान को मिलाया. दोनों एकदूसरे से इक्कीस थे. रेशमा को जैसे ही पता चला कि ठाकुर सा विजय सिंह आ गए हैं, तो उस ने अम्मी से कहा कि वह एक बार ठाकुर सा से मिलना चाहती है.

रेशमा को उस की अम्मी ने ठाकुरसा से एकांत में मिलवाया. विजय सिंह को देखते ही रेशमा उन के सीने से जा लिपटी और कस कर बांहों में भर कर सुबकते हुए बोली, ‘‘अब्बा हमारे प्यार की यह कैसी परीक्षा ले रहे हैं. अब क्या होगा?’’

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‘‘तुम चिंता मत करो रेशमा. अगर हमारा प्यार सच्चा है तो जीत हमारी ही होगी. प्रेमियों को हमेशा से ऐसी परीक्षा से गुजरना पड़ा है?’’ विजय सिंह ने रेशमा को दिलासा दी.

रेशमा बोली, ‘‘आप नहीं मिले तो मैं मर जाऊंगी?’’

‘‘रेशमा, ऐसा न कहो. सब ठीक होगा. मुझ पर विश्वास रखो.’’ ठाकुरसा ने कहा. इस के बाद थोड़ी देर तक दोनों प्रेमालाप करते रहे, फिर अलग हो गए.

Serial Story: प्यार में दी खुद की कुरबानी- भाग 4

रेशमा की आंखें आंसुओं से तर थीं. उस की हिचकियां बंधी थीं. अम्मी ने उसे संभाला और कक्ष में ले गईं. विजय सिंह को पता चल गया था कि पठान ने महबूब खान की कई बार जान बचाई थी. इस कारण उन्होंने पठान को बचन दिया था कि वे उस से अपनी बेटी रेशमा का विवाह कर के एहसानों का बदला चुकाएंगे.

रात में जब रेशमा और विजय सिंह के बीच बातें हो रही थी, तब पास के तंबू में सो रहे पठान ने सारी बातें सुन ली थीं. पठान को नींद नहीं आई. खड़का होने पर पठान ने देखा कि रेशमा अपनी अम्मा के साथ विजय सिंह से मिलने आई और उन के बीच का वार्तालाप भी सुन लिया था.

पठान की सब समझ में आ गया. वह जान गया कि रेशमा उस से नहीं ठाकुर सा विजय सिंह से प्रेम करती है. बस, पठान ने मन ही मन एक निर्णय कर लिया कि उसे रेशमा का दिल जीतने के लिए क्या करना है.

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अगले दिन कजली तीज का त्यौहार था. गांव की सुहागिनें एवं युवतियां सोलह शृंगार कर के झूले पर जाने से पहले उस मैदान में पहुंच गईं. जहां रेशमा को पाने के लिए 2 वीरों के बीच युद्ध होना था. तय समय पर शाहगढ़ के तमाम नरनारी उस मैदान में आ जमे थे. विजय सिंह ने केसरिया वस्त्र धारण किए और कुलदेवी को प्रणाम करने के बाद युद्ध मैदान में कूद गए.

पठान खान भी मैदान में आ गए. नगाड़े पर डंका बजते ही दोनों योद्धा आपस में भिड़ गए. मल्ल युद्ध में दोनों एकदूजे को परास्त करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाने लगे. मगर ताकत में दोनों बराबर थे. तय समय तक दोनों बराबरी पर छूटे.

तब महबूब खान ने कहा कि अब फैसला तलवार करेगी कि कौन रेशमा के लायक है, दोनों ने तलवारें और ढाल उठा लीं. रेशमा दिल थाम कर देख रही थी. तलवारबाजी शुरू होने से पहले दोनों वीरों ने रेशमा की तरफ देखा. रेशमा एकटक ठाकुरसा की तरफ ही देख रही थी. यह पठान से छिप न सका.

तलवारबाजी शुरू हुए थोड़ा समय ही गुजरा था कि पठान पस्त होने लगा. महबूब खान की समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है. तभी ठाकुर विजय सिंह की तलवार ने पठान का सीना चीर दिया. पठान गिर पड़ा.

महबूब खान के आदेश पर युद्ध रोक दिया गया. महबूब खान भाग कर रेशमा वगैरह के साथ युद्धस्थल पर रक्त रंजित पड़े पठान खान के पास पहुंचे. पठान ने कहा कि रेशमा के लायक विजय सिंह है.

महबूब खान ने पूछा, ‘‘ऐसा तुम क्यों कह रहे हो?’’

तब खून से लथपथ पड़े पठान ने कहा, ‘‘रेशमा और विजय सिंह एकदूसरे से प्रेम करते हैं. यह मैं ने कल रात में जाना. जब यह दोनों थोड़ी देर के लिए मिले. मैं ने इन की बातें सुनीं तो मुझे अहसास हुआ कि रेशमा मेरे साथ कभी खुश नहीं रह सकेगी. क्योंकि वह तो सिर्फ विजय सिंह से प्यार करती है.

अगर इस युद्ध में विजय सिंह की हार होती तो रेशमा जी नहीं पाती. मैं ने कल रात इन की बातें सुनने के बाद प्रण कर लिया था कि मुझे युद्ध में क्या करना है. मल्लयुद्ध में आप ने देखा कि हम दोनों ताकत में बराबर हैं, तो तलवारबाजी में भी हम बराबर ही रहते. मगर मुझे रेशमा की खुशी के लिए ठाकुरसा से यह युद्ध हारना जरूरी लगा.

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इसीलिए मैं ने ठाकुर सा पर प्राणघातक वार नहीं किया और उन्होंने मुझे कमजोर मान कर तलवार का वार सीने पर कर के मुझे घायल कर दिया. मुझे खुशी है कि ठाकुरसा को रेशमा जैसी प्यार करने वाली जीवनसाथी मिलेगी, जो मेरे नसीब में नहीं है. यदि मैं युद्ध में जीत भी जाता तो रेशमा का दिल कभी नहीं जीत पाता. इसलिए मैं युद्ध में हार गया.’’

इतना सुन कर ठाकुर विजय सिंह, रेशमा और महबूब खान व अन्य लोग एकदूसरे की तरफ देखते रह गए.

महबूब खान ने वैद्य को बुला कर पठान का ईलाज करने को कहा. वैद्य ने ईलाज शुरू किया, मगर तलवार ने सीने पर गहरा जख्म किया था. पठान ने मरतेमरते रेशमा के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘तुम मेरी बहन हो. इस भाई को भी इतना प्यार करना जितना विजय सिंह से करती हो. मेरा मरना सार्थक हो जाएगा?’’

कह कर पठान ने जोर की हिचकी ली और प्राण त्याग दिए. रेशमा ही नहीं विजय सिंह और वहां मौजूद सभी लोगों की आंखें नम हो गईं. रेशमा के प्यार के लिए पठान ने कुरबानी दे कर साबित कर दिया कि वह ठाकुर सा विजय सिंह से किसी भी तरह कम नहीं थे.

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पठान खान को वहीं पर कब्र बना कर दफना दिया गया. बाद में दोनों पठान की कब्र पर गए और फूल चढ़ा कर नवजीवन के लिए हमीरगढ़ प्रस्थान कर गए. रेशमा जब भी शाहगढ़ आती थी, पठान की कब्र पर जरूर जाती थी. फिर एक वक्त वह भी आया

जब रेशमा और ठाकुर सा भी अनंत सफर पर चले गए.

उसका गणित: कैसा था लक्ष्मी का गणित

मनोज हर दिन जिस मिनी बस में बैठता था, उसी जगह से लक्ष्मी भी बस में बैठती थी. आमतौर पर वे एक ही बस में बैठा करते थे, मगर कभीकभार दूसरी में भी बैठ जाते थे. उन दिनों उन के बस स्टौप से सिविल लाइंस तक का किराया 4 रुपए लगता था, मगर लक्ष्मी कंडक्टर को 3 रुपए ही थमाती थी. इस बात को ले कर उस की रोज कंडक्टर से बहस होती थी, मगर उस ने एक रुपया कम देने का जैसे नियम बना ही लिया था.

कभीकभार कोई बदतमीज कंडक्टर मिलता, तो लक्ष्मी को बस से उतार देता था. वह पैदल आ जाती थी, पर एक रुपया नहीं देती थी. लक्ष्मी मनोज के ही महकमे के किसी दूसरे सैक्शन में चपरासी थी. एक साल पहले ही अपने पति की जगह पर उस की नौकरी लगी थी.

लक्ष्मी का पति शंकर मनोज के महकमे में ड्राइवर था. सालभर पहले वह एक हादसे में गुजर गया था. लक्ष्मी की उम्र महज 25 साल थी, मगर उस के 3 बच्चे थे. 2 लड़के और एक लड़की.

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एक दिन मनोज पूछ ही बैठा, ‘‘लक्ष्मी, तुम रोज एक रुपए के लिए कंडक्टर से झगड़ती हो. क्या करोगी इस तरह एकएक रुपया बचा कर?’’ ‘‘अपनी बेटी की शादी करूंगी.’’

‘‘एक रुपए में शादी करोगी?’’ मनोज हैरान था. ‘‘बाबूजी, यों देखने में यह एक रुपया लगता है, मगर रोजाना आनेजाने के बचते हैं 2 रुपए. महीने के हुए

60 रुपए और सालभर के 730 रुपए. 10 साल के 7 हजार, 3 सौ. 20 साल के 14 हजार, 6 सौ.

‘‘5 सौ रुपए इकट्ठे होते ही मैं किसान विकास पत्र खरीद लेती हूं. साढ़े 8 साल बाद उस के दोगुने पैसे हो जाते हैं. 20 साल बाद शादी करूंगी, तब तक 40-50 हजार रुपए तो हो ही जाएंगे.’’ मनोज उस का गणित जान कर हैरान था. उस ने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं था. भले ही गलत तरीके से सही, मगर पैसा तो बच ही रहा था.

लक्ष्मी को खूबसूरत कहा जा सकता था. कई मनचले बाबू और चपरासी उसे पाने को तैयार रहते, मगर वह किसी को भाव नहीं देती थी. लक्ष्मी का पति शराब पीने का आदी था. दिनभर नशे में रहता था. यही शराब उसे ले डूबी थी. जब वह मरा, तो घर में गरीबी का आलम था और कर्ज देने वालों की लाइन.

अगर लक्ष्मी को नौकरी नहीं मिलती, तो उस के मासूम बच्चों का भूखा मर जाना तय था. पैसे की तंगी और जिंदगी की जद्दोजेहद ने लक्ष्मी को इतनी सी उम्र में ही कम खर्चीली और समझदार बना दिया था.

एक दिन लक्ष्मी ने न जाने कहां से सुन लिया कि 10वीं जमात पास करने के बाद वह क्लर्क बन सकती है. बस, वह पड़ गई मनोज के पीछे, ‘‘बाबूजी, मुझे कैसे भी कर के 10वीं पास करनी है. आप मुझे पढ़ालिखा कर 10वीं पास करा दो.’’ वह हर रोज शाम या सुबह होते ही मनोज के घर आ जाती और उस की पत्नी या बेटाबेटी में से जो भी मिलता, उसी से पढ़ने लग जाती. कभीकभार मनोज को भी उसे झेलना पड़ता था.

मनोज के बेटाबेटी लक्ष्मी को देखते ही इधरउधर छिप जाते, मगर वह उन्हें ढूंढ़ निकालती थी. वह 8वीं जमात तक तो पहले ही पढ़ी हुई थी, पढ़नेलिखने में भी ठीकठाक थी. लिहाजा, उस ने गिरतेपड़ते 2-3 सालों में 10वीं पास कर ही ली. कुछ साल बाद मनोज रिटायर हो गया. तब

तक लक्ष्मी को लोवर डिविजनल क्लर्क के रूप में नौकरी मिल गई थी. उस ने किसी कालोनी में खुद का मकान ले लिया था. धीरेधीरे पूरे 20 साल गुजर गए. एक दिन लक्ष्मी अचानक मनोज के घर आ धमकी. उस ने मनोज और उस की पत्नी के पैर छुए. वह उसे पहचान ही नहीं पाया था. वह पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई थी. उस का शरीर भी भराभरा सा लगने लगा था.

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लक्ष्मी ने चहकते हुए बताया, ‘‘बाबूजी, मैं ने अपनी बेटी की शादी कर दी है. दामादजी बैंक में बाबू हैं. बेटी बहुत खुश है. ‘‘मेरे बड़े बेटे राजू को सरकारी नौकरी मिल गई है. छोटा बेटा महेश अभी पढ़ रहा है. वह पढ़ने में बहुत तेज है. देरसवेर उसे भी नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘क्या तुम अब भी कंडक्टर को एक रुपया कम देती हो लक्ष्मी?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘नहीं बाबूजी, अब पूरे पैसे देती हूं…’’ लक्ष्मी ने हंसते हुए बताया, ‘‘अब तो कंडक्टर भी बस से नहीं उतारता, बल्कि मैडम कह कर बुलाता है.’’ थोड़ी देर के बाद लक्ष्मी चली गई, मगर मनोज का मन बहुत देर तक इस हिम्मती औरत को शाबाशी देने का होता रहा.

हैप्पी बर्थडे: कैसे मनाया गया जन्मदिन

आज भोर में दादीमां की नींद खुल गई थी. पास ही दादाजी गहरी नींद में सो रहे थे. कुछ दिन पहले ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. अब ठीक थे, लेकिन कभीकभी सोते समय नींद की गोली खानी पड़ती थी. दादाजी को सोता देख दादीमां के होंठों पर मुसकान दौड़ गई. आश्वस्त हो कर फिर से आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर में उन्हें फिर से झपकी आगई.

अचानक गाल पर गीलेपन का एहसास हुआ. आंख खोल कर देखा तो श्वेता पास खड़ी थी.

गाल पर चुंबन जड़ते हुए श्वेता ने कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दादीमां.’’

‘‘मेरी प्यारी बच्ची,’’ दादीमां का स्वर गीला हो गया, ‘‘तू कितनी अच्छी है.’’

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‘‘मैं जाऊं, दादीमां? स्कूल की बस आने वाली है.’’

श्वेता ने दादाजी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘कैसे सो रहे हैं.’’

दादीमां को लगा कि सच में दादाजी बरसों से जाग रहे थे. अब कहीं सोने को मिला था.

सचिन ने प्रवेश किया. हाथ में 5 गुलाबों का गुच्छा था. दादीमां को गुलाब के फूलों से विशेष प्यार था. देखते ही उन की आंखों में चमक आ जाती थी.

चुंबन जड़ते हुए सचिन ने फूलों को दादीमां के हाथ में दिया और कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे.’’

‘हाय, तू मेरा सब से अच्छा पोता है,’’ दादीमां ने खुश हो कर कहा, ‘‘मेरी पसंद का कितना खयाल रखता है.’’

सचिन ने शरारत से पूछा, ‘‘दादीमां, अब आप की कितनी उम्र हो गई?’’

‘‘चल हट, बदमाश कहीं का. औरतों से कभी उन की आयु नहीं पूछनी चाहिए,’’ दादीमां ने हंस कर कहा.

‘‘अच्छा, चलता हूं, दादीमां,’’ सचिन बोला, ‘‘बाहर लड़के कालिज जाने के लिए इंतजार कर रहे हैं.’’

दादीमां आहिस्ता से उठीं, खटपट से कहीं दादाजी जाग न जाएं. वह बाथरूम गईं और आधे घंटे बाद नहा कर बाहर आ गईं और कपड़े बदलने लगीं.

बेटे तरुण ने नई साड़ी ला कर दी थी. दादीमां वही साड़ी पहन रही थीं.

‘हाय मां,’’ तरुण ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे. आज आप कितनी सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘चल हट, तेरी बीवी से सुंदर थोड़ी हूं,’’ दादीमां बहू के ऊपर तीर छोड़ना कभी नहीं भूलती थीं.

‘‘किस ने कहा ऐसा,’’ तरुण ने मां को गले लगाते हुए कहा, ‘‘मेरी मां से सुंदर तो तुम्हारी मां भी नहीं थीं. तुम्हारी मां ही क्यों, मां की मां की मां में भी कोई तुम्हारे जैसी सुंदर नहीं थीं.’’

‘‘चापलूस कहीं का,’’ दादीमां ने प्यार से चपत लगाते हुए कहा, ‘‘इतना बड़ा हो गया पर बात वही बच्चों जैसी करता है.’’

‘‘अब तुम्हारा तो बच्चा ही हूं न,’’ तरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मैं दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा हूं. पापाजी को क्या हो गया? अभी तक सो रहे हैं.’’

‘‘सो कहां रहा हूं,’’ दादाजी ने आंखें खोलीं और उठते हुए कहा, ‘‘इतना शोर मचा रहे हो, कोई सो सकता है भला.’’

‘‘पापाजी, आप बहुत खराब हैं,’’ तरुण ने शिकायती अंदाज में कहा, ‘‘आप चुपकेचुपके मांबेटे की खुफिया बातें सुन रहे थे.’’

‘‘खुफिया बातें कान में फुसफुसा कर कही जाती हैं. इस तरह आसमान सिर पर उठा कर नहीं,’’ दादाजी ने चुटकी ली.

‘‘क्या करूं, पापाजी, सब लोग कहते हैं कि मैं आप पर गया हूं,’’ तरुण ने दादाजी को सहारा देते हुए कहा, ‘‘अब आप तैयार हो जाइए. वसुधा आप लोगों के लिए कोई विशेष व्यंजन बना रही है.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ दादाजी ने प्रश्न किया.

‘‘पापाजी, कोई खास बात नहीं, कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान. इसलिए सब के जीवन में एक न एक दिन तो खासमखास होता ही है,’’ तरुण ने रहस्यमयी मुसकान से कहा.

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‘‘तू दर्शनशास्त्र कब से पढ़ने लगा,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘चलता हूं, पापाजी,’’ तरुण की आंखें मां की आंखों से टकराईं.

क्या सच ही इन को याद नहीं कि आज इन की पत्नी का जन्मदिन था जिस ने 55 साल पहले इन के जीवन में प्रवेश किया था? अब बुढ़ापा न जाने क्या खेल खिलाता है.

डगमगाते कदमों से दादाजी ने बाथरूम की तरफ रुख किया. दादीमां ने सहारा देने का असफल प्रयत्न किया.

दादाजी ने झिड़क कर कहा, ‘‘तुम अपने को संभालो. देखो, मैं अभी भी अभिनेता दिलीप कुमार की तरह स्मार्ट हूं. अपना काम खुद करता हूं. काश, तुम मेरी सायरा बानो होतीं.’’

दादाजी ने बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. अंदर से गाने की आवाज आ रही थी, ‘अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं.’

दादीमां मुसकराईं. बिलकुल सठिया गए हैं.

बहू वसुधा ने कमरे में आते ही कहा, ‘‘हाय मां, हैप्पी बर्थडे,’’ फिर उस की नजर साड़ी पर गई तो बोली, ‘‘तरुण सच ही कह रहे थे. इस साड़ी में आप खिल गई हैं. बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘तू भी कम नहीं है, बहू,’’ यह कहते समय दादीमां के गालों पर लाली आ गई.

जातेजाते वसुधा बोली, ‘‘मां, मैं खाना लगा रही हूं. आप दोनों जल्दी से आ जाइए. गरमागरम कचौरी बना रही हूं.’’

दादीमां का बचपन सीताराम बाजार में कूचा पातीराम में बीता था. अकसर वहां की पूरी, हलवा, कचौरी और जलेबी का जिक्र करती थीं. जिस तरह दादीमां बखान करती थीं उसे सुन कर सुनने वालों के मुंह में पानी आ जाता था.

वसुधा मेरठ की थी और उसे ये सारे व्यंजन बनाने आते थे. दादीमां को अच्छे तो लगते थे लेकिन उस की प्रशंसा करने में हर सास की तरह वह भी कंजूसी कर जाती थीं. शुरूमें तो वसुधा को बुरा लगता था. लेकिन अब सास को अच्छी तरह पहचान लिया था.

थोड़ी देर बाद दादाजी और दादीमां बाहर आ कर कुरसी पर बैठ गए. उन के आने की आवाज सुन कर वसुधा ने कड़ाही चूल्हे पर रख दी.

सूजी का मुलायम खुशबूदार हलवा पहले दादीजी ने खाना शुरू किया. कचौरी के साथ वसुधा ने दहीजीरे के आलू बनाए थे.

दादाजी 2 कचौरियां खा चुके थे. दादीमां ने दादाजी से हलवे की तारीफ में कहा, ‘‘शुद्ध घी में बनाया है न… बना तो अच्छा है लेकिन हजम भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अरे वाह, तुम ने तो और ले लिया,’’ दादाजी ने निराश स्वर में कहा.

उन दोनों की बातें सुन कर वसुधा हंस पड़ी, ‘‘पापा, मैं फिर बना दूंगी.’’

दिल का दौरा पड़ जाने से दादाजी को काफी परहेज करना व करवाना पड़ता था. दिन में दादीमां की दोनों बहनों व उन के परिवार के लोग फोन पर जन्मदिन की बधाई दे रहे थे. उन के भाईभाभी का कनाडा से फोन आया. बहुत अच्छा लगा दादीमां को. वह बहुत खुश थीं और दादाजी मुसकरा रहे थे.

रात को तो पूरा परिवार जमा था. बेटी और दामाद भी उपहार ले कर आ गए थे. खूब हल्लागुल्ला हुआ. लड़के-लड़कियां फिल्मी धुनों पर नाच रहे थे. तरुण अपने बहनोई से हंसीमजाक कर रहा था तो वसुधा अपनी ननद के साथ अच्छेअच्छे स्नैक्सबना कर किचन से भेज रही थी. बस, मजा आ गया.

‘‘दादीमां, आप का बर्थडे सप्ताह में कम से कम एक बार अवश्य आना चाहिए,’’ सचिन ने दादीमां से कहा, ‘‘काश, मेरा बर्थडे भी इसी तरह मनाया जाता.’’

दादीमां ने अचानक कहा, ‘‘आज मुझे सब लोगों ने बधाई दी. बस, एक को छोड़ कर.’’

‘‘कौन, मां?’’ तरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यह गुस्ताखी किस ने की?’’ सचिन ने कहा.

‘‘इन्होंने,’’ दादीमां ने पति की ओर देख कर कहा.

दादाजी एकदम गंभीर हो गए. ‘‘क्या कहा? मैं ने बधाई नहीं दी?’’

दादाजी अभी तक गुदगुदे दीवान पर सहारा ले कर बैठे थे कि अचानक पीछे लुढ़क गए. शायद धक्का सा लगा. ऐसे कैसे भूल गए. सब का दिल दहल गया.

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‘‘हाय राम,’’ दादीमां झपट कर दादाजी के पास गईं. लगभग रोते हुए बोलीं, ‘‘आंखें खोलो. मैं ने ऐसा क्या कह दिया?’’

दादाजी को शायद फिर से दिल का दौरा पड़ गया, ऐसा सब को लगा. दादीमां की आंखें नम हो गईं. उन्होंने कान छाती पर लगा कर दिल की धड़कन सुनने की कोशिश की. एक कान से सुनाई नहीं दिया तो दूसरा कान छाती पर लगाया.

‘‘हैप्पी बर्थडे,’’ दादाजी ने आंखें खोल कर मुसकरा कर कहा, ‘‘अब तो कह दिया न.’’

‘‘यह भी कोई तरीका है,’’ दादीमां ने आंसू पोंछते हुए कहा. अब उन के होंठों पर हंसी लौट आई थी.

सब हंस रहे थे. ‘‘तरीका तो नहीं है,’’ दादाजी ने उठते हुए कहा, ‘‘लेकिन याद तो रहेगा न.’’

‘‘छोड़ो भी,’’ दादीमां ने शरमा कर कहा.

‘‘वाह, इसे कहते हैं 18वीं सदी का रोमांस,’’ सचिन ने ताली बजाते हुए कहा.

फिर तो सारा घर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

Serial Story- और तो सब ठीकठाक है: भाग 3

‘‘हाउसिंग बोर्ड का मकान कर्ज पर लिया है. राजवैद्य चक्रपाणिजी के आयुर्वेदिक उपचार से मुझे स्वास्थ्य लाभ हुआ है. चुनाव में भी लोगों को मेरे चरित्र पर विश्वास था. मैं समझता हूं कि इस चुनाव में किसी का कुछ खर्च नहीं हुआ. क्या प्रमाण है आप के पास? क्या खर्च किया है आप ने?’’

‘‘छि:छि:, उग्र होने से स्वास्थ्य बिगड़ता है, मेरे भाई. सुनो, जिन लोगों को चुनाव से पहले वारुणी की बोतलें वितरित कीं, उन की रसीदें चाहिए क्या? 3 महल्लों में हैंडपंप लगवाए हैं, उन की रसीद चाहिए क्या? 3 हजार कंबल खरीद कर बांटे गए, उन की रसीद चाहिए क्या? कैसी बच्चों जैसी बातें करते हो? बिना खर्चपानी के कोई चुनाव नहीं जीतता. एक प्राइमरी स्कूल के मास्टर की इतनी हस्ती नहीं होती कि वह विधान सभा का चुनाव जीत ले. क्या तुम्हारी सात पुश्तों में भी किसी ने ऐसा सम्मान प्राप्त किया था?

‘‘भाई मेरे, अब तुम सरकार हो, कानून हो, शहर के मालिक हो. तुम किसी को भी जेल में बंद करा सकते हो. किसी को भी जेल से छुड़वा सकते हो. शहर के जुए के अड्डे, रंडियों के कोठे, शराब की भट्ठियां सब तुम्हारी मरजी से चलती हैं.

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‘‘मुगल शासनकाल में बादशाह विभिन्न प्रांतों के लिए अलगअलग सूबेदार नियुक्त करता था. वह सूबेदार अपने इलाके का राजा होता था. तुम भी अपने इलाके के राजा हो. किसी का भी तबादला करा सकते हो, नियुक्ति करा सकते हो, निलंबित करा सकते हो. तुम्हारे एक इशारे पर कोई भी पिट सकता है, हवालात में बंद हो सकता है या भगाया जा सकता है. क्या मदरसे की मास्टरी में तुम्हारा यही रोब था?’’

‘‘लेकिन चौधरी साहब, पेट बड़ा हो जाने से खुराक भी ज्यादा हो जाती है. आप ने हमारा पेट बड़ा किया है तो हमें खुराक भी बड़ी चाहिए.’’

‘‘पुलिस विभाग आप के लिए छोड़ दिया है. खाओ और खाने दो. शहर के गुंडेबदमाशों का दोहन करो, लाटरी, जुआ, शराब, चिट आदि की सदाबहार खेती को संभालो.’’

‘‘फिर भी आप को हम सब का हिस्सा तो देना ही होगा. आप जबरदस्ती हमारा हिस्सा हजम नहीं कर सकते.’’

‘‘फिर ठीक है, समझ लो, मैं ने सब कुछ हजम कर लिया. अब आप को जो करना है कर लेना.’’

‘‘समझ लीजिए, चौधरी साहब. आप को यह सौदा महंगा पड़ेगा.’’

‘‘जाओ, मास्टर. राजनीति में ऐसी धमकियां तो हमारा नाश्तापानी हैं. हां, लेकिन हाथपैर संभाल कर वार करना.’’

सभी लोग उत्तेजित से निकल गए. नेताजी ने चपरासी से कहा, ‘‘अंदर कोई नहीं आए. जरा रामदुलारी को भेज देना. कंठ बड़ा चटक रहा है.’’

दूसरे दिन तहसील में होहल्ला मचा हुआ था. वकील सुरेंद्रनाथ, नेता ज्वालाप्रसाद और नरेंद्र का कत्ल हो गया था. रात में 8-10 डाकू आए थे गांव में.

सब से पहले गल्ला फकीर मरा. वह पागल था. पुराने कुएं की जगत पर सोया था. होहल्ला सुन कर डाकुओं के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया. एक घोड़े की लगाम भी पकड़ ली. तभी आग के एक शोले ने उसे जमीन पर लिटा दिया. एक ही चीख में ठंडा हो गया वह पागल. उस की कहीं चर्चा भी नहीं हुई.

फिर डाकुओं ने ढूंढ़ढूंढ़ कर तीनों व्यक्तियों को मारा. संयोगवश मास्टर ज्ञानेंद्र किसी काम से शहर गए थे. सरपंच होतीलाल को पेचिश लग गई थी. वह सरकारी अस्पताल का लाल पानी पीने के लिए गांव से बाहर ही थे. शायद इसीलिए शहीद होतेहोते बच गए.

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सरकारी टेलीफोन की घंटियां घनघना उठीं. नेता, अभिनेता, पत्रकार, फोटोग्राफर आदि की लाइनें लगने लगीं. पुलिस हरकत में आ गई.

दूरदूर तक डाकुओं का पीछा किया गया. उन की धूल भी हाथ न लगी, लेकिन पुलिस को तो कुछ न कुछ करना ही था. 30 आदमियों को गिरफ्तार किया गया. गांवतहसील में कुछ नारेबाजियां हुईं. फिर सबकुछ शांत हो गया.

दूसरे दिन शाम को मास्टर ज्ञानेंद्र चुपचाप आए डरेसहमे से. चौधरी साहब ने उन का स्वागत किया. अंदर के निजी कक्ष में कुछ भेद की बातें हुईं. कुछ देर बाद मास्टर ज्ञानेंद्र कुछ संतुष्ट से, कुछ खुश से बाहर निकले.

ज्ञानेंद्र ने गांव संभाल लिया था. अब उन के मकान की दूसरी मंजिल का काम संगमरमर से हो रहा था. कुछ नई शक्लसूरतें गांव में दिखाई दे रही थीं.

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फिर एक दिन चौधरी साहब गांव में आए. सब को आश्वस्त किया. लोग उन से सहमे हुए थे, डरे हुए थे. और तो सब ठीकठाक था. सब जगह शांति थी. लोग अपनेअपने कामों में लग गए थे.

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