Hindi Story: मास्टर मटरूराम

Hindi Story, लेखक – हरे राम मिश्र

दिल्ली के पहाड़गंज में बने उस चमचमाते होटल में, जहां मास्टर मटरूराम हर महीने की 28 तारीख को अपने कारोबार के सिलसिले में रात को रुकते थे, तीसरे फ्लोर के कमरा नंबर 2 में 19 साल की एक बेहद खूबसूरत बर्फ सी सफेद, गोरे बदन वाली लड़की जूली बिस्तर पर बिछी, पर सिकुड़न भरी सफेद चादर पर आड़ीतिरछी बिना कपड़ों के पड़ी हुई थी.

आखिर एक घंटे तक मास्टर मटरूराम द्वारा रौंदे जाने के बाद वह बेसुध हो कर अपनी बचीखुची ताकत को दोबारा इकट्ठा कर के अगली बार के लिए खुद को दिमागी और जिस्मानी तौर पर तैयार कर रही थी.

मास्टर मटरूराम जैसे कांइयां और पैसा वसूल सोच के शख्स, जो पूरी दुनिया को सिर्फ नफा और नुकसान के नजरिए से ही देखने का आदी था, ने बहुत ही दर्दनाक तरीके से किए गए सैक्स से जूली को अंदर तक हिला डाला था.

जूली इस बेइंतिहा दर्द को महसूस कर सकती थी. बेदर्दी से रौंदे जाने से उपजी थकान और दर्द से टूटते बदन से वह बेदम सी हो गई थी. वह मन ही मन बुदबुदा रही थी कि किस ‘कसाई’ से आज उस का पाला पड़ गया है.

जूली होटल के इस कमरे को छोड़ कर भागना चाहती थी, लेकिन अपने उस चचेरे भाई, जो इस धंधे में उस का ‘दलाल’ भी था, को धोखा नहीं दे सकती थी. यही ‘दलाल’ उस के लिए 30 फीसदी कमीशन पर अकसर अमीर ग्राहक का जुगाड़ कर देता था, जो अमूमन कौर्पोरेट कंपनियों के अफसरों से ले कर बड़े सरकारी मुलाजिम और नेता तक होते थे.

चूंकि उस के सिर पर दिल्ली के एक मंत्री का हाथ था. लिहाजा, पुलिस के लफड़े और बेगार में अपनी ‘सैक्स सेवा’ देने से वह बच जाती थी.

जूली हमबिस्तरी के लिए अकसर अमीर ग्राहक ही चुनती थी, क्योंकि अपनी कैंसर से पीडि़त मां के इलाज, जांच और दवा के लिए उसे अकसर बड़ी रकम का जुगाड़ करना होता था. जिस्म के बाजार में वह यह जान चुकी थी कि जवानी ढलते ही उसे कुत्ता भी नहीं सूंघेगा, इसलिए सेवा के बदले पूरा पैसा वसूल करना उस के दिमाग में भरा हुआ था.

खैर, होटल पहुंचते ही मास्टर मटरूराम ने अपने ड्राइवर अनोखेलाल तिवारी को पहले ही बाहर भेज दिया था. वह उन का बेहद ही खास कारिंदा था, जो अकसर उन की गैरहाजिरी में उन की फर्म का हिसाबकिताब भी देख लेता था और कभीकभी नकद रकम भी उन के घर तक ले आता था.

इस होटल में चखना, दारू और डिनर का इंतजाम अनोखेलाल ही करता था. मास्टर मटरूराम और अनोखेलाल की पहचान उन के टैंपो चलाने के दिनों से थी. दोनों साथ बैठ कर देशी ठर्रा पीते थे.

समय के साथ मास्टर मटरूराम नेता बन गए और अनोखेलाल मामूली ड्राइवर ही रह गया. भले ही दोनों हमउम्र थे, लेकिन उन के बीच विश्वास की डोर बहुत मजबूत थी.

मास्टर मटरूराम अनोखेलाल पर काफी भरोसा करते थे और अनोखेलाल ने कभी उस भरोसे को दागदार नहीं होने दिया था.

अनोखेलाल को ड्राइवर रखने का एक फायदा और था. अपने समाज की मीटिंग में सामने खड़ी जनता को मटरूराम बहुत दावे से बताते थे कि अपनी गुलामी के दिन अब जा चुके हैं. हमें अब ताकतवर होना है और उन्हें नौकर रखना है, जिन्होंने हम पर अब तक राज किया है.

हालांकि, असलियत यह थी कि अपनी जातबिरादरी के लोगों को मास्टर मटरूराम ने इसलिए ड्राइवर नहीं रखा, क्योंकि जात और समाज को यह नहीं जानना चाहिए कि मास्टर मटरूराम असल में क्या हैं, वरना सियासत में दिक्कत होती है. अपनी जात से एक खास दूरी सियासत में जमे रहने के लिए बहुत जरूरी होती है, ऐसा मास्टर मटरूराम का मानना था.

खैर, इसी कमरे में सफेद रोशनी से चमचमाते बिस्तर से कुछ ही दूरी पर रखे गए एक बड़े से सोफे पर एक सफेद वी कट कच्छा पहने मास्टर मटरूराम बैठ कर ह्विस्की पी कर उस का स्वाद ले रहे थे. वे 1-2 पैग से ज्यादा कभी नहीं पीते थे, लेकिन कम से कम 2 घंटे जरूर लगाते थे.

सामने रखी टेबल पर काजू और बादाम के साथ भुने हुए लहसुन और सामने पीसों में कटे हुए सेब, केला और प्याज की पकौड़ी की प्लेट सजी हुई थी. बस वे हर चुसकी के बाद चखना मुंह में भरते और आंखें मूंद कर दोनों के स्वाद का पूरा मजा लेते.

हालांकि, कमरे में ही बिना कपड़ों के लेटी जूली से मास्टर मटरूराम ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि क्या वह भी उन के साथ कुछ खानापीना चाहेगी?

इस मामले में मास्टर मटरूराम इस तरह से बरताव कर रहे थे, जैसे कमरे में कोई और मौजूद ही न हो या फिर उन्हें एक ‘धंधेवाली’ को तवज्जुह देने की कोई जरूरत नहीं है.

कमरे की सफेद रोशनी में गोरे और साफ चेहरे वाले मास्टर मटरूराम के चेहरे पर एक अलग किस्म की चमक दिख रही थी. उन्होंने गले में सोने की एक मोटी चेन भी पहन रखी थी, जो इस रोशनी में कुछ अलग ही चमक रही थी. अपनी चालढाल और बरताव में वे खुद को दबंग के तौर पर दिखाते थे.

शराब की चुसकी के बीच कुछ देर के बाद वे अपनी मूंछ भी मरोड़ते थे. उन के अपने इलाके में कुछ ऊंची जाति के लोग उन्हें एक खूनी मानते थे, जिस ने कम से कम एक ब्राह्मण की हत्या की है. हालांकि, इस का सच क्या है, इस पर किसी के पास कोई ठोस सुबूत नहीं था. पुलिस आज तक उन्हें पूछताछ के लिए भी नहीं बुला सकी थी.

उन के समाज के लोग यह मानते थे कि इस तरह जंजीर पहनने का मतलब इलाके के क्षत्रियों को यह बताना होता है कि हम आप को कुछ नहीं सम?ाते. हम भी इन क्षत्रियों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं.

हमारे समाज का नेता भी क्षत्रियों से कमतर बरताव किसी भी कीमत पर नहीं करता है. हम भी अब जमींदार हैं और कोई हमें टक्कर नहीं दे सकता.

शराब पीते हुए, उस की चुसकी के बीच अपने आई फोन से बीचबीच में किसी को तेज आवाज में मास्टर मटरूराम गंदीगंदी गालियां देते और फिर भुना काजू खाते. शायद यह उन के घर का केयरटेकर था, जो उन के जातसमाज से ही आता था. उस का काम उन के विदेशी कुत्ते की ढंग से देखभाल करना था, जिस में नाकाम होने पर वह मास्टर मटरूराम से गालियां सुन रहा था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम का महंगा विदेशी कुत्ता किसी देशी कुतिया के चक्कर में गेट से बाहर निकल कर भाग गया था, जिसे देशी कुत्तों ने नोंचनोंच कर घायल कर दिया था. इस तरह उन का कुत्ता करैक्टर का ‘लूज’ होता जा रहा था. लूज करैक्टर का कुत्ता घर की रखवाली नहीं कर सकता, ऐसा उन का मानना था.

जिस काम के लिए आज अचानक मास्टर मटरूराम को दिल्ली आना पड़ा था, वह खास काम था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम को एक ऐसा फोन आने की उम्मीद थी, जिस से उन्हें 50 लाख की तीसरी किस्त की सूचना मिलने वाली थी. 2 किस्त वे पहले ही ले चुके थे.

पैसा कल मिलना था. बस, फोन पर केवल जगह का फिक्स होना बाकी था, जिस के लिए वे दिल्ली के इस होटल में इंतजार और मजा कर रहे थे.

थोड़ा सुरूर में आने पर फोन पर ही वे अपनी किसी तथाकथित प्रेमिका को मसूरी ट्रिप पर ले चलने और ‘मस्ती’ करने के प्लान के बारे में भी बोलते थे.

मास्टर मटरूराम भले ही इन दिनों अपने इलाके के बड़े नेता बन चुके थे, लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन की 20 साल की जद्दोजेहद थी. यह एक ऐसे लड़के का उदय था, जो अपने परिवार के चमड़ा छीलने और संवारने के पुश्तैनी काम को छोड़ कर, कपड़ा सिलने के काम में शिफ्ट होता है.

हालांकि, यहां से भी मन उचटने पर वह टैंपो ड्राइवर बनता है. फिर टैंपो यूनियन का कार्यकर्ता और फिर अपनी ग्राम पंचायत का सदस्य बनने से ले कर सरपंच और जिला लैवल का नेता बन जाता है. ‘मास्टर’ शब्द उन के कपड़ा सिलने के समय का लोगों का दिया हुआ नाम था, जिसे उन्होंने अपने नाम के पहले जोड़ लिया था.

अपनी 20 साल की इस सियासी जिंदगी में मास्टर मटरूराम ने यह सीखा कि जातसमाज का नेता बनना आसान नहीं है. उन्होंने अपने पैर जमाने के लिए काफी मेहनत की थी.

उन के मुताबिक, समाज की समस्याओं को पहचानना, उस के खिलाफ लड़ाई का बीड़ा उठाना, भाषणों में उन्हें दोहराना ही समाज के भीतर किसी नेता के मशहूर होने का सब से बेहतर तरीका है.

उन का यह भी सोचना था कि समाज की समस्याओं पर बात करना, समस्याओं के हल करने के बारे में बात करना ही समाज में मजबूती दिलाता है. इस के साथ खुद को सामाजिक और पैसे के तौर पर मजबूत करने पर भी काम होना चाहिए. बिना पैसे की मजबूती के सियासी मजबूती का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि चुनाव में पैसा लगता है.

भले ही मास्टर मटरूराम 5वीं जमात से आगे स्कूल नहीं जा सके, लेकिन अपने अनुभव से यह सीख लिया कि जातसमाज का ‘विश्वास’ कैसे जीता जाता है. वे मानते थे कि कम बोलना भी अपने समाज पर असर जमाने का एक अच्छा तरीका होता है.

अपने शुरुआती दिनों में तकरीबन 3 साल तक टैंपो यूनियन के संगठन में बिताने के बाद मास्टर मटरूराम ने अपने समुदाय के लिए एक संगठन बनाया था. संगठन में इस नजरिए को मजबूत करने की बात हुई कि अपनी जातसमाज के लोग पहले राजा थे. अब हमें वह दौर फिर से वापस लाना है. अपने समाज को शासक बनाना है.

इस के लिए उन्होंने अपने समाज के किसी एक काल्पनिक देवता के नाम को गढ़ा और खुद को उस का वंशज घोषित किया, जो एक बड़ा काम करने के, अपने समाज के उद्धार के लिए इस धरती पर आ चुका था. ऐसा शख्स, जो समाज के लिए खटने और कुछ चमत्कार करने के लिए आया था.

शुरुआत में मास्टर मटरूराम के जातसमाज के लोगों ने उन के इस दावे पर कम ध्यान दिया, लेकिन कुछ समय बाद ऊंची जाति के लड़कों से ‘तूतूमैंमैं’ या सामान्य सी मारपीट के बाद इलाके के लोगों का ध्यान उन की तरफ गया. आखिर इन ब्राह्मण के लौंडों को पीटने की हिम्मत किसी आम कलेजे में नहीं हो सकती. यह उन की निगाह में संघर्ष की शुरुआत थी. और फिर, आम लोग उन के राजा बननेबनाने की बात में रुचि भी लेने लगे.

तकरीबन एक साल में ही मास्टर मटरूराम ने समाज से मिले चंदे पर एक कार खरीदी, कुछ पैसे भी जोड़े और अपने छोटे भाई को सीमेंटबालू की सप्लाई का एक कारोबार भी शुरू करवा दिया, जो चल निकला.

अपनी जातसमाज के लिए काम करते हुए मास्टर मटरूराम को इसी समाज से पहचान, पैसा, प्रचार सबकुछ मिला. सरपंच के अगले चुनाव में वे ब्राह्मणों के उम्मीदवार को हराते हुए सरपंच भी बने और कुछ साल के भीतर ही वे जिला पंचायत के सदस्य भी बन गए.

इलाके में ब्राह्मण ज्यादा नहीं थे, कोरियों की तादाद ज्यादा थी. ब्राह्मणों के मैदान से हटते ही कोरियों से इन के समुदाय का सीधा मुकाबला होने लगा.

इलाके में मास्टर मटरूराम की जातसमाज और कोरी, दोनों समुदायों की तादाद तकरीबन बराबर थी. मास्टर मटरूराम को लगने लगा कि वे एक दिन विधायक भी बन सकते हैं और कोरियों के दबदबे वाली इस सीट से उन्हें खदेड़ा जा सकता है.

मास्टर मटरूराम अपनी मुहिम में लग गए और ‘अपना वोट अपना समाज’ का नारा बुलंद करने लगे. उन की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी. आखिर कपड़ा सिलने वाला एक मामूली दर्जी, जिसे गांव में सब ‘मास्टर’ बोलते थे, आज अपने समाज की एक ऐसी हस्ती बन चुके थे, जिन्हें इलाके के सामाजिक संगठन, जातसमाज की पंचायतें अपने यहां बुला कर मंच पर ‘इज्जत’ देते थे.

ऐसा मास्टर, जो आम आदमी से अपनी जाति का अभिमान बन चुका था. अब समाज के लोग पुलिस थाने जाने से पहले उन का आशीर्वाद लेना जरूरी समझते थे.

हालांकि, मास्टर मटरूराम अब विधायक बनना चाहते थे. उन्हें इस के लिए पैसे की जरूरत भी थी.

लिहाजा, उन्होंने ठेकेदारी का काम भी शुरू किया. काम चल निकला. पैसे से मजबूत होने के साथ वे अपने समाज का बड़ा चेहरा पहले ही बन चुके थे. कई दलों में उन्हें अब समाज के नेता के तौर पर मंच पर बुलाया जाता था.

वे भाईचारा सम्मेलनों में शिरकत करते थे. वे मंच पर जाते भी थे तो इस नीयत से कि कोई पार्टी उन्हें टिकट दे कर उम्मीदवार बना दे. इस मुकाम पर पहुंचने में उन्होंने 25 साल का लंबा समय बिताया. अब उन की उम्र 44 साल हो गई थी.

चुनाव के समय कई पार्टियों के नेता उन से उन की जाति का वोट ट्रांसफर कराने के लिए मेलजोल रखते थे, क्योंकि उन की जेब में तकरीबन 10 से 15 हजार वोट ट्रांसफर कराने की ताकत आ गई थी, लेकिन इस के लिए वे बड़ी रकम भी लेते थे. वोटिंग के 3 दिन पहले वे तय करते थे कि किसे समर्थन देंगे.

पिछले 2 चुनाव में उन्होंने सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय विधायक से 10 लाख रुपए ले कर अपनी जाति के वोट ट्रांसफर करवाए थे. इस के लिए उन्होंने बड़ी चालाकी से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कौम का दुश्मन बता दिया था.

हालांकि, इस बार के चुनाव में उम्मीदवार उलटफेर कोरी ने मास्टर मटरूराम को 30 लाख दे कर उन दलितों के वोट हासिल किए, जिन्हें वे जात का दुश्मन नंबर 3 बता चुके थे.

इस बार मास्टर मटरूराम ने अपनी जातसमाज के लोगों को समझाया कि ब्राह्मण और क्षत्रियों को बेइज्जत करने के लिए इस बार रघु पांडे की जगह उलटफेर कोरी को सपोर्ट देना है. वे चुने जाने के बाद समाज के महल्लों में विकास का काम करवाएंगे. उन्होंने भाषण भी दिया और उलटफेर कोरी के लिए खूब प्रचार भी किया.

उन के भाषण में यह बात बहुत साफ थी कि समाज के लिए काम करने वाले लोगों को समाज का साथ मिलेगा. हालांकि, वह काम क्या था, जिस पर काम होना है, इस के बारे में सार्वजानिक तौर पर कभी उन्होंने कुछ भी नहीं कहा.

खैर, विधानसभा के चुनाव हुए. चुनाव में उलटफेर कोरी की जीत हुई. ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय के साथ आने, यादव समुदाय के खुले सहयोग के बावजूद 2 बार के विधायक रघु पांडे चुनाव हार गए.

पिछली बार मास्टर मटरूराम ने उन्हें समर्थन किया था, लेकिन इस बार वह समर्थन के एवज में मांगी गई बढ़ी रकम देने को तैयार नहीं हुए, लिहाजा मटरूराम ने नया लौजिक गढ़ कर 20 हजार वोट का ट्रांसफर करवा कर पूरा पाला बदल दिया.

चुनाव के बाद 2 साल बीते. मास्टर मटरूराम के जातसमाज के इलाकों में विधायक उलटफेर कोरी की तरफ से विकास का कोई काम नहीं हुआ. इस से जुड़ी जातसमाज के लोगों की शिकायतों पर भी मास्टर मटरूराम ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

हालांकि, इस इलाके के विकास के लिए वर्तमान विधायक उलटफेर कोरी ने पैस्टीसाइड बनाने वाली एक कंपनी को सरकार से कारखाना लगाने का करार करवा दिया. जब जगह को चुना गया, तो सब से पहले कारखाने से निकलने वाले कचरे और गंदे जहरीले पानी पर बात शुरू हुई. कुछ एनजीओ कार्यकर्ताओं ने इलाके में कारखाना लगाए जाने के खिलाफ स्लोगन लिखना शुरू कर दिया.

मास्टर मटरूराम के समुदाय के लोगों ने भी इस के खिलाफ धरनाप्रदर्शन शुरू कर दिया, क्योंकि कारखाने से जहरीले पानी की निकासी दलितों के गांव की तरफ होनी थी. तकरीबन 8,000 की आबादी सीधे इस की जद में थी.

मास्टर मटरूराम के जातसमाज के कुछ जोशीले नौजवानों ने कारखाने के बनने का काम मारपीट कर जबरिया रुकवा दिया. इस के खिलाफ इलाके के ऊंचे और पिछड़े समुदाय के कुछ लोग कारखाना बनने के पक्ष में खड़े हो गए.

वे लोग चाहते थे कि कारखाना लगे, ताकि जमीन का मोटा मुआवजा ले कर वे शहर में फ्लैट खरीद सकें, लेकिन मास्टर मटरूराम के गांव के लोग कारखाने से निकलने वाले जहरीले पानी और कचरे से काफी डरे हुए थे.

यही नहीं, इलाके के कोरी समुदाय के लोग इस प्रोजैक्ट का रुकना अपने समाज की बेइज्जती समझने लगे. इस के लिए विधायक के लोगों ने गांव में कारखाना लगाने का विरोध कर रहे लोगों पर हमला कर उन को जम कर पीटा. औरतों और लड़कियों को नंगा कर दिया गया. जब रोज हंगामा बढ़ने लगा, तो सरकार को भी दखल देने की जरूरत महसूस हुई.

मास्टर मटरूराम भी इस मारपीट के बाद आंदोलन में शामिल हो गए. उन्होंने इस आंदोलन को ‘दलित बनाम पिछड़ा’ एंगल दे दिया. लेकिन इस के पक्ष में खड़े ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कैसे और कहां सैट करें, यह तय नहीं कर पा रहे थे. फिर इन्हें भी दलित जातसमाज विरोधी घोषित किया गया.

क्षेत्र के कोरियों के बहिष्कार का ऐलान खुलेआम किया जाने लगा. कहा गया कि अब कोरियों, ब्राह्मणों और क्षत्रियों की फसल हमारे समाज के लोग नहीं काटेंगे.

पूरे क्षेत्र में हंगामा बढ़ने लगा. रोज के तनाव से हिंसा हुई और पुलिस फायरिंग में 2 लोग मारे गए.

अब राज्य सरकार को भी इस प्रोजैक्ट के पूरा होने में शक होने लगा. बातचीत के रास्ते समस्या के समाधान पर जोर दिया जाने लगा. स्थानीय प्रशासन ने इस के लिए कंपनी के अफसरों से ले कर एनजीओ के कार्यकर्ताओं तक की मीटिंग बुलाई.

जहरीले पानी से प्रभावित गांव के लोगों ने मटरूराम को इसलिए प्रतिनिधि चुना, क्योंकि वे समाज के नेता थे और समाज की बात ठीक से इस मीटिंग में रख सकते थे.

3 बार की मीटिंग बेनतीजा रही, लेकिन चौथी मीटिंग से पहले ही कंपनी के अफसरों ने एनजीओ कार्यकर्ताओं को मोटा फंड देने की बात कह कर आंदोलन से ही बाहर कर दिया. सब अपना सामान समेट कर रात में ही चले गए. कोरी समुदाय पहले से ही इस कारखाने के पक्ष में था, लिहाजा स्थानीय विधायक को भी मामले में शामिल किया गया. मीटिंग के बाहर ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज प्रोजैक्ट लगाए जाने के पक्ष में नारेबाजी कर रहे थे.

मास्टर मटरूराम इस बार की मीटिंग में फिर शामिल हुए. कुल 3 लोगों की मीटिंग हुई. यह तय हुआ कि कारखाने का कचरा नए रास्ते से गांव के बाहर बहने वाली नदी में मिलाया जाएगा.

अब यह दलितों की आबादी की तरफ नहीं जाएगा.

लेकिन मास्टर मटरूराम अपनी बात पर कायम रहे कि इस कारखाने से उन के समाज को क्या फायदा होगा और यह गांव में क्यों लगे? हवापानी सब जहरीले हो जाएंगे और बदले में हमारे समाज को कुछ मिलेगा भी नहीं. वे कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे.

काफी सोचविचार के बाद यह तय हुआ कि 3 करोड़ रुपए खर्च कर के मामला सैटल किया जाएगा. एक करोड़ विधायक उलटफेर कोरी को मिलेंगे.

50 लाख मास्टर मटरूराम लेंगे. 5 लाख पुलिस के और बाकी रकम जिले के प्रशासन को मिलेगी.

सब बाहर निकले और बताया कि सम?ाता हो गया है. यह कंपनी अपना डिजाइन बदलेगी. मास्टर मटरूराम ने कौम की जीत की घोषणा की. विधायकजी ने भीड़ के सामने हाथ जोड़े और अपनी गाड़ी से चले गए.

जिन समुदायों की जमीन का अधिग्रहण होना था, उन्हें भी खुशी हुई कि चलो, अब जमीन का बड़ा मुआवजा मिलेगा और शान से थार गाड़ी में घूमेंगे और शहर में जमीन खरीदेंगे. हालांकि, गांव के उन दलितों को इस सम?ाते में क्या मिला, इस बारे में कोई ठोस बात ही नहीं हुई.

कारखाना बनने लगा. मास्टर मटरूराम की जातसमाज के लोग कारखाने में मजदूर बने और उलटफेर कोरी के लोगों ने सीमेंटबालू मजदूर सप्लाई का काम शुरू कर दिया. सब को तय रकम की 2 किस्तें जल्द ही मिल गईं.

तकरीबन 3 महीने बाद उसी सौदे की तीसरी किस्त लेने के लिए मास्टर मटरूराम दिल्ली के इस होटल में रुके हुए थे. वे फोन का इंतजार कर रहे थे.

थोड़ी देर में उन्हें एक फोन आया कि कल 10 बजे बेनी स्टेडियम के बगल के फार्महाउस में मिलिए, काम हो जाएगा. यह नंबर 10 बजे चालू मिलेगा. ओके कह कर बात दोनों ओर से खत्म हुई.

मास्टर मटरूराम ने गिलास की बची ह्विस्की को एक सांस में पूरा पी लिया. गरम रोस्टेड चिकन खाया. पैसे मिलने की खुशी में उन का जोश ज्यादा बढ़ गया. मुंह साफ किया और अपने बैग से एक गोली निकाली और उसे चूसने लगे. इस के बाद वे फोन पर ही पोर्न मूवी देखने लगे.

5 मिनट के बाद अचानक मास्टर मटरूराम ने अपना जांघिया उतारा और जूली के ऊपर चढ़ गए. जूली के कटे होंठों से निकलते खून को वे चाटने लगे. शराब और चिकन में लगे मसाले की बास भरी महक से जूली का गला भर गया.

रात के 12 बजने वाले थे. पिछले आधे घंटे से वे जूली को रौंद रहे थे. यह राउंड जूली के लिए पहले से और ज्यादा दर्द देने वाला था. लेकिन मास्टर मटरूराम और ज्यादा जोश में आ चुके थे. अब वे जूली को रौंदने में लगे हुए थे.

आखिर मास्टर मटरूराम ने आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पैसे का इंतजाम जो कर लिया था. भले ही उस समाज को उन्होंने धोखा दिया था, जिस ने उन्हें एक मामूली टैंपो ड्राइवर से ऊपर उठा कर ‘हीरो’ बना दिया था.

मास्टर मटरूराम का मानना था कि जातसमाज वाले केवल चमत्कार को ही सिर झुकाते हैं, इसलिए उन्हें अपने समाज में मजबूत बने रहने के लिए बड़े चमत्कार करते रहना जरूरी था. यही उन की सियासत की समझ का कुल हासिल था, जहां धोखा, फरेब, ऐयाशी, भ्रष्टाचार सब जायज है, क्योंकि जातसमाज को सिर्फ चमत्कारी लोग ही चाहिए.

उस चमत्कार के पीछे कितना घना अंधेरा है, लोकतंत्र और समाज को निगलने वाला कितना बड़ा साम्राज्य है, कितनी ज्यादा गहरी कालिख है, यह किसी को जाननेसम?ाने में दिलचस्पी नहीं है.

खैर, अब रात के 2 बज रहे थे. मास्टर मटरूराम उसी बिस्तर पर निढाल हो कर नंगे ही सो गए. जूली भी वहीं पड़ी रही. सुबह के 5 बजे उस ने अपने कपड़े पहने, रिसैप्शन से बैग लिया और अंधेरी गलियों में गुम हो गई.

मास्टर मटरूराम ने अपनी कौम को जो धोखा दिया था, उस की कीमत लेने के लिए वे सुबह से ही 10 बजने का इंतजार करते हुए बादाम मिक्स बिसकुट के साथ चाय की चुसकी लेने लगे. तय समय पर उन्होंने अपना हिस्सा लिया और एक नई जूली के शिकार में इस बार गोवा चले गए.

हालांकि, इस पैस्टीसाइड कारखाने के जहरीले कचरे का बहाव मास्टर के जातसमाज के गांव की ओर ही हुआ, जिस पर अब कोई बोलने को तैयार नहीं था. उन लोगों ने जो भरोसा किया था, मास्टर मटरूराम ने उसे तारतार कर दिया था.

Social Story: गुनाहगार कौन?

Social Story: अब बबली को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था. मांबाप ने सोचा कि वह पढ़ाई से बचना चाहती है, पर बबली अब गुमसुम रहने लगी थी. वह डाक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब स्कूल जाने के नाम पर उसे कंपकंपी आती थी. एक दिन स्कूल से फोन आया कि बबली ने बड़ा कांड कर दिया है. आखिर क्या किया था बबली ने, जो वह पुलिस हिरासत में चली गई?

‘‘बबली, ओ बबली… उठ न बेटा, स्कूल के लिए लेट हो जाएगी. फिर पता है न, तेरे सर भी गुस्सा करेंगे. चल, उठ जल्दी से तैयार हो जा, मैं रसोई में नाश्ता बनाने जा रही हूं.’’

‘‘मम्मी, मुझे सोने दो न. आज मुझे स्कूल नहीं जाना है.’’

‘‘क्या हो गया है तुझे? पहले जब छोटी थी, कितना खुश होती थी स्कूल जाने के नाम पर. जैसेजैसे बड़ी होती जा रही है, मति मारी गई है. रोज का तेरा यही राग है, स्कूल नहीं जाना, स्कूल नहीं जाना. अगर स्कूल नहीं जाएगी तो बिना पढ़े ही डाक्टर बन जाएगी क्या? या नहीं बनना डाक्टर?’’

फिर बबली को चिढ़ाते हुए मम्मी ने आगे कहा, ‘‘चल, ठीक है. तुझे तो डाक्टर बनना नहीं, छुटकी बन जाएगी डाक्टर. तू सो जा आराम से,’’ कहते हुए वे वहां से जाने लगीं.

बबली उठ कर मां का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘‘किस ने कहा मुझे डाक्टर नहीं बनना… और छुटकी जब वकील बनना चाहती है, तो क्यों उसे आप जबरदस्ती डाक्टर बनाएंगी? डाक्टर तो मैं ही बनूंगी. लेकिन मम्मी, यह स्कूल अच्छा नहीं है, मुझे किसी और स्कूल में भेज दो.’’

‘‘बेटा, शहर का सब से अच्छा और सब से सस्ता स्कूल है. और तू कह रही है कि यह स्कूल अच्छा नहीं है. जानती भी है कि इस स्कूल में एडमिशन के लिए लोग तरसते हैं, क्योंकि बेशक इस स्कूल की फीस सब से कम है, ताकि हर मिडिल क्लास अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिला सके, लेकिन पूरे शहर में इस के मुकाबले का स्कूल नहीं है.

‘‘तुम दोनों बहनों का यहां एडमिशन हो गया, यह हमारी खुशकिस्मती है. चल, अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जा. मैं नाश्ता बना रही हूं. छुटकी तो तैयार भी हो चुकी है.’’

‘‘लेकिन, मम्मी…’’

‘‘बस, अब कोई बहस नहीं,’’ कहते हुए मां रसोई की ओर चल दीं.

बबली बेमन से उठ कर बाथरूम में घुस गई. तैयार हो कर वह बाहर निकली, तो इतने में पापा आ गए.

पापा रोज सुबहसुबह सब्जी मंडी जाया करते थे. वहां से बच्चों की पसंद की ताजा सब्जी और फल छांट कर ले आते और जब भी फल खिलाते खुद अपने हाथों से काट कर उन के मुंह में डालते थे. बच्चे भी जब तक पापा न खिलाएं, फल को हाथ तक नहीं लगाते थे.

दोनों बहनें पापा की लाड़ली जो ठहरीं, लेकिन पढ़ाई में दोनों एक से बढ़ कर एक होशियार. बड़ी वाली बबली बचपन से ही कहती थी, ‘‘पापा, मैं डाक्टर बनूंगी और छुटकी कहती है कि मैं तो काले कोट वाली वकील बनूंगी.’

पापा ने भी बच्चों की इच्छा पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शहर के सब से बड़े और नामी स्कूल में दोनों का एडमिशन कराया. बड़ी बेटी बबली अब 5वीं क्लास में है, जबकि छोटी बेटी छुटकी तीसरी क्लास में.

दोनों लड़कियों को मातापिता ने बताया था कि सब से पहले जा कर स्कूल के साथ बने मंदिर में माथा टेकना है और उस के बाद स्कूल में जाना है.

उस स्कूल के साथ लगते ही महादेव का बहुत ही प्राचीन मंदिर था. जब स्कूल बना तो मैनेजमैंट कमेटी द्वारा स्कूल के साथ ही एक महादेव का मंदिर भी बनवाया गया, ताकि बच्चों में भक्ति भावना का संचार हो.

बबली और छुटकी भी रोज मंदिर जाती थीं, लेकिन जैसेजैसे बबली बड़ी होती गई, वह स्कूल जाने से जी चुराने लगी, कभी पेटदर्द का बहाना, तो कभी सिरदर्द. उदास होने के साथसाथ वह चिड़चिड़ी भी होती जा रही थी. कुछ पूछो तो ‘कुछ नहीं’ कह कर बात को टाल देती थी.

लेकिन 10वीं क्लास तक आतेआते बबली की देह भी पलटने लगी. वैसे तो वह पहले से भी कमजोर और मुरझाई सी नजर आती, लेकिन इस के बावजूद उस का सीना उम्र और कदकाठी के मुताबिक कुछ ज्यादा ही भारी हो गया था.

मां इस बदलाव से हैरानपरेशान थीं. वे बबली से बातोंबातों में पूछती भी थीं, ‘‘मां अपनी बेटी की सब से करीबी सखी होती है. मां से कभी भी कोई परेशानी नहीं छिपानी चाहिए. कोई भी परेशानी हो, तो मुझ से बेझिझक कहना,’’ लेकिन बबली कभी कोई बात न करती थी, बस गुमसुम सी अपनी पढ़ाई में मस्त रहती.

लेकिन आज अचानक स्कूल से फोन आया, ‘‘जल्दी से स्कूल आइए, आप की बेटी बबली ने मंदिर के पुजारी का खून कर दिया है…’’

यह सुनते ही मातापिता के पैरों तले से जमीन निकल गई. वे दौड़ेदौड़े गए तो देखा कि मंदिर के अंदर की तरफ बने एक कमरे में खून से लथपथ पुजारी की लाश पड़ी थी. भांग घोंटने वाला भारी सा मूसल बबली के हाथ में था.

मंदिर में उस जगह प्रिंसिपल साहब, दूसरे टीचर और बहुत से छात्र जमा थे. लोग तरहतरह की अटकलें लगा रहे थे कि आखिर बबली ने पुजारी का खून क्यों किया?

इतने में सायरन बजाती हुई पुलिस की वैन आ गई, जिस में 2 लेडी कौंस्टेबल भी थीं.

एक पुलिस अफसर ने सभी को मंदिर खाली करने को कहा, तो सब वहां से बाहर आ गए. लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज कर कुछ जरूरी पूछताछ कर मंदिर को सील कर दिया गया और बबली को पुलिस वैन में बैठा कर ले गई.

बबली के पापा उसी समय अपने एक दोस्त के पास गए. उस से बातचीत कर के फौरन वकील को ले कर पुलिस स्टेशन गए, लेकिन कत्ल का केस था, तो ऐसे कैसे जमानत होती.

उस दिन शनिवार और अगले दिन इतवार था. 2 दिन तक कुछ नहीं हो सकता. सोमवार कोर्ट खुलने पर ही कोई कार्यवाही होगी. जवान होती लड़की पुलिस स्टेशन में अकेली, न जाने क्या हो, क्या न हो? मातापिता का कलेजा फटा जा रहा था. 2 रातें वहीं पुलिस स्टेशन के बाहर बैठ कर काटी उन लोगों ने.

आखिर सोमवार को कोर्ट खुला और केस चला. एक हफ्ते तक बचाव पक्ष का वकील अपनी दलीलें देता और अगले दिन की तारीख ले लेता, ताकि कोई तो सुराग मिले लड़की को बचाने का.

लेकिन इधर बबली मुंह खोलने को तैयार नहीं थी. जब भी पूछो कि यह क्यों और कैसे हुआ, तो एक ही बात कहती, ‘‘मैं ने मारा है पुजारी को और मुझे इस बात का कोई दुख नहीं. आप को जो भी सजा देनी है दे दो.’’

15 दिन के बाद जब बचाव पक्ष बचाव का कोई ठोस कारण न बता सका, तो जज ने फैसले की तारीख मुकर्रर कर दी.

आज सुनवाई का आखिरी दिन था. बचाव पक्ष का वकील अपनी कोशिशों से हार चुका था, ‘‘देखिए भाई साहब, मैं ने पूरी कोशिश की कि आप की बेटी को सजा न हो, लेकिन आप की बेटी ही जब साथ नहीं दे रही, तब मैं भी क्या कर सकता हूं. जब वह खुद ही कह रही है कि उस ने मारा है पुजारी को, तो मैं कैसे साबित करूं कि उस ने नहीं मारा.’’

वकील साहब की बात सुन कर बबली के मातापिता दोनों की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. उन्हें कुछ समझे नहीं आ रहा था कि बबली आखिर कुछ बोल क्यों नहीं रही है?

कोर्ट शुरू हुआ, केस की सुनवाई के लिए दोनों पक्षों को बुलाया गया. सामने जज साहब अपनी कुरसी पर बैठे थे. कोर्ट परिसर खचाखच भरा हुआ था, क्योंकि आज स्कूल के सभी टीचर और छात्र भी कोर्ट में आए हुए थे.

जज साहब ने बोलना शुरू किया, ‘‘पुजारी मर्डर केस का फैसला सुनाने से पहले अगर किसी पक्ष को कुछ कहना हो तो कह सकते हैं, वरना इस केस का फैसला अभी सुना दिया जाएगा.’’

इतना सुनते ही जैसे सरकारी वकील अपनी जगह पर खड़े हुए कि अचानक बबली की मम्मी के दिमाग में न जाने क्या सूझा कि वे छुटकी को ले कर बबली के सामने आ गईं और रोते हुए दोनों हाथ बांध कर बोलीं, ‘‘बबली… बेटा, तू सच क्यों नहीं बताती कि क्या हुआ था उस वक्त? पुजारी को किस ने, क्यों और कैसे मारा? तू उस वक्त वहां क्या करने गई थी?

‘‘देख, तेरे चुप रहने से तेरी छुटकी की जिंदगी पर भी असर पड़ेगा. लोग न जाने इस पर कैसेकैसे लांछन लगाएंगे. इस की कहीं शादी नहीं होगी. इस की जिंदगी बरबाद हो जाएगी…’’

इस तरह से मां के मुंह से बातें सुन कर और उन्हें रोताबिलखता देख कर बबली फूट पड़ी, ‘‘मैं अपनी छुटकी की जिंदगी हरगिज बरबाद नहीं होने दूंगी. मैं उसे किसी को आंख उठा कर भी नहीं देखने दूंगी. जो भी उस की तरफ बुरी नजर से देखेगा, आंखें निकाल लूंगी मैं उस की. कोई उसे छूना भी चाहेगा तो खत्म कर दूंगी उसे, जैसे मैं ने पुजारी को मारा है.

‘‘हां, मैं ने मारा है पुजारी को, क्योंकि वह मेरी तरह मेरी छुटकी को भी बरबाद करना चाहता था. भला, मैं अपनी छुटकी को कैसे भेज देती बरबादी के रास्ते पर…’’

बबली बोले जा रही थी कि बीच में सरकारी वकील बोल उठे, ‘‘जज साहब, जब सब सुबूत सामने आ चुके हैं, फैसला होने ही वाला है, तो अब इन बातों का क्या मतलब है? आप अपना फैसला सुनाइए.’’

लेकिन इधर बबली के बोलते ही ?ाट से बचाव पक्ष के वकील खड़े हो गए, ‘‘जज साहब, शायद मेरी क्लाइंट पुजारी के बारे में कुछ कहना चाहती है. मेरी आप से दरख्वास्त है कि फैसला सुनाने से पहले मेरी मुवक्किल को अपनी सफाई देने का एक मौका और दिया जाए, ऐसा न हो कि कानून के हाथों एक मासूम बेगुनाह को सजा हो जाए,’’ बचाव पक्ष के वकील ने जज से अपील की.

जज साहब ने बचाव पक्ष के वकील की रिक्वैस्ट पर गौर करते हुए बबली से कहा, ‘‘बेटा, अगर तुम अपने बचाव में कुछ कहना चाहती हो तो तुम्हें मौका दिया जाता है. अदालत कभी नहीं चाहेगी कि किसी बेगुनाह को सजा हो.’’

वकील ने कहा, ‘‘बबली बेटा, तुम ने कहा कि पुजारी छुटकी की जिंदगी बरबाद करना चाहते थे. भला पुजारी ऐसा क्यों करेंगे, जबकि वे तो इतने अच्छे इनसान थे? वे तो कितनी ही लड़कियों को आगे बढ़ाने के लिए पैसा खर्च दिया करते थे और कितनी ही गरीब लड़कियों के घर बसाए थे उन्होंने, तो भला वे किसी की जिंदगी कैसे बरबाद कर सकते थे?

‘‘लगता है कि तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है… जज साहब, मैं ऐसे देवता जैसे इनसान के खिलाफ इतनी घटिया बातें नहीं सुन सकता, इसलिए मैं कोर्ट से बाहर जाने की इजाजत चाहता हूं. न जाने यह लड़की उस महापुरुष के बारे में और क्याक्या कहेगी?’’

ऐसा कहते हुए वकील साहब कोर्ट से बाहर की ओर जाने लगे, तो बबली के पापा ने उन की तरफ हैरानी से देखा कि ये तो बचाव पक्ष के वकील हैं और ये उलटा बबली को ही गलत कहने लगे.

तब वकील साहब ने बबली के पापा को चुपचाप बैठे रहने का इशारा किया और खुद बाहर की तरफ चले गए.

इतने में उन्हें पीछे से आवाज आई, ‘‘रुकिए, वकील साहब…’’

वकील साहब ने पलभर रुक कर पीछे मुड़ कर देखा. बबली का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था, होंठ गुस्से में कांप रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे वह अभी किसी का खून कर देगी.

वकील साहब के रुकने पर बबली ने बोलना शुरू किया, ‘‘वकील साहब, आप भी उस देवता की काली करतूतें तो सुनते जाइए. क्या आप जानते हैं कि आप का वह देवता छोटीछोटी मासूम बच्चियों के साथ क्या करता था?

‘‘नहीं न… चलिए, मैं आप को बताती हूं, क्योंकि जो वह बाकी बच्चियों के साथ करता था, वही वो मेरे साथ भी करता था…’’

थोड़ी देर रुक कर बबली फिर बोली, ‘‘जब मैं छोटी थी, तो मंदिर में महादेव के दर्शन करने जाती तो देखती थी कि कभीकभी पुजारी किसी न किसी लड़की को अपने साथ चिपकाए हुए उस की पीठ पर हाथ फेर रहा होता था और उस से बातें कर रहा होता था. मुझे नहीं मालूम था कि वह ऐसा क्यों करता था और उन लड़कियों से क्याक्या बात करता था.

‘‘महादेव के मंदिर के अलावा दूसरी तरफ एक और मंदिर था. पुजारी अकसर वहीं बैठता था और उस मंदिर के अंदर जा कर एक और कमरा था, जहां अकसर अंधेरा रहता था. पुजारी कभीकभी बड़ी लड़कियों को कहता कि आज इस कमरे में मेरे गुरुजी के दर्शन करने जरूर आना. अगर कोई छोटी बच्ची गुरुजी के दर्शन करने को कहती, तो पुजारी मना कर देता था.

‘‘जब मैं तीसरी क्लास में थी, तब पुजारी मुझे भी कहता था कि आजा तुझे अंदर से अच्छा वाला प्रसाद दूंगा और मैं बर्फी के लालच में दूसरे मंदिर के अंदर चली जाती थी.

‘‘वहां पुजारी मुझे बर्फी का एक टुकड़ा देता और मुझे अपने साथ कस कर चिपका लेता था. लेकिन जब वह मुझे अपने साथ चिपकाता तो मुझे कुछ सख्त सा चुभता. मैं तब कुछ नहीं समझती थी.

‘‘लेकिन, जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई, समझ गई और जब मैं प्रसाद लेने के लिए मना करती तो भी वह मुझे जबरदस्ती अंदर ले जाता और कहता कि जो इस तरफ एक बार आ जाता है, वह फिर छोड़ नहीं सकता, वरना पाप चढ़ता है… और यह बात किसी को बताना नहीं, वरना पिता की मौत हो जाती है.

‘‘मैं डर की वजह से किसी से कुछ न कहती और उस तरफ मुझे जाना पड़ता, जिस से पुजारी रोज कभी मुझे गलत जगह छेड़ता, कभी मेरे सीने को जोर से दबाता, लेकिन 2 साल पहले की बात है कि एक दिन उस ने मुझ से कहा कि मैं स्कूल की छुट्टी के बाद उस के पास किसी को बिना बताए आ जाऊं.

‘‘जब मैं ने मना किया तो बोला तुम्हारी मरजी, पर अगर तुम्हारे पापा मर गए तो मुझे कुछ मत कहना. मैं तो बता दूंगा कि इस ने मेरी बात नहीं मानी.

‘‘और उस दिन उस ने मेरे साथ गलत काम किया और फिर जब भी मौका मिलता, मुझे पापा की मौत का डर दिखा कर गलत काम करता रहता,’’ कहतेकहते बबली फूटफूट कर रो पड़ी.

थोड़ी देर चुप रहने के बाद बबली दोबारा बोली, ‘‘एक दिन पुजारी मुझ से बोला कि मैं तुझ से बोर हो गया हूं, अब तू पुरानी हो गई है. अब कोई नई चीज चखने का मन कर रहा है. तू ऐसा कर आज अपनी बहन छुटकी को ले आ.’’

‘‘मैं ने मना किया, तो वह मुझे मेरी नंगी तसवीरें दिखाने लगा,’’ कहतेकहते बबली रोने लगी. थोड़ी देर बाद अपने आंसू पोंछते हुए बबली ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘पुजारी ने कहा कि अगर तू छुटकी को ले कर नहीं आएगी, तो पूरे शहर में तुम्हारी ये तसवीरें लग जाएंगी. उस के बाद क्या होगा वह तू खुद ही सोच ले…’’

‘‘वकील साहब, क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस वक्त मुझ पर क्या बीती होगी उस समय वे तसवीरें देख कर… मैं तो सन्न रह गई. मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. मैं परेशान हो गई कि क्या करूं और क्या न करूं.’’

‘‘पुजारी फिर से बोला कि क्या सोच रही हो, जल्दी से छुटकी को ले आ, वरना छुट्टी का समय खत्म हो जाएगा.

‘‘मैं सोचने लगी कि अगर छुटकी को लाती हूं तो उस की जिंदगी बरबाद और अगर नहीं लाती तो पूरे घर वालों की इज्जत और जिंदगी दांव पर है. फिर अचानक मेरी नजर भांग घोंटने वाले मूसल पर पड़ी.

‘‘मैं ने अपना दुपट्टा उठाया और गले में डालने के लिए इतनी जोर से लहराया कि एक पल्ला पुजारी के मुंह पर आ गया, जिस से एक पल के लिए उस की आंखें ढक गईं.

‘‘मैं ने झट से मूसल उठाया और आव देखा न ताव धड़ाधड़ पुजारी के सिर पर वार करना शुरू कर दिया. उसे संभलने का मौका भी न दिया और कुछ ही पल में पुजारी का शरीर शांत हो गया.

‘‘जैसे ही मैं ने देखा कि मेरे हाथ लहू से भर गए और पुजारी बेहोश जमीन पर पड़ा है, मैं ने दरवाजा खोला, तो देखा कि 3-4 लोग मंदिर में दर्शन करने आए हुए थे, क्योंकि कभीकभी बाहर के लोग भी मंदिर में दर्शन करने आ जाते थे.

‘‘मुझे ऐसे देख कर उन्होंने शोर मचा दिया. उस के बाद का तो आप को पता ही है. हां, मैं ने खून किया है पुजारी का, मैं गुनाहगार हूं, लेकिन मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है. आप को जो सजा देनी है, दीजिए.’’

जज साहब खामोश बैठे बबली की आपबीती सुन रहे थे. बबली के मुंह से ये सब बातें सुन कर स्कूल की दूसरी लड़कियों में भी हिम्मत आई और वे सब रोते हुए बोलीं, ‘जज साहब, बबली सही कह रही है. वह पुजारी हमारे साथ भी यही करता था और हमारी नंगी तसवीरें दिखा कर हमें मुंह बंद रखने की धमकी देता था.

‘जज साहब, बबली गुनाहगार नहीं है, गुनाहगार तो हम हैं, जिन्होंने उसे आज तक जिंदा छोड़ कर इतनी लड़कियों की जिंदगी बरबाद करने का मौका दिया.’

जज साहब हैरानपरेशान से उन सब लड़कियों की बातें सुन रहे थे और उन के चेहरों की तरफ देखे जा रहे थे.

अचानक मेज पर एक जोरदार थाप के साथ जज साहब बोले, ‘‘और्डर, और्डर… सभी अपनी जगह पर बैठ जाएं. सब को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा.’’

बचाव पक्ष के वकील ने कहा, ‘‘जज साहब, माफ कीजिए, मुझे कोर्ट से बाहर जाने का नाटक करना पड़ा. मुझे केवल शक ही नहीं, बल्कि यकीन था कि कहीं न कहीं कोई ऐसी बात है, जो बबली बता नहीं पा रही और बबली ने जो किया वह गलत भी नहीं किया, क्योंकि मैं बबली का पूरा रिकौर्ड छान चुका था.

‘‘ऐसी मासूम लड़की हत्या कैसे कर सकती है? जज साहब, सुबूत जो कुछ भी कह रहे थे, मेरा दिल उन्हें गवारा नहीं कर रहा था, इसलिए मुझे नाटक खेलना पड़ा.

‘‘अगर मैं यह नाटक न करता, तो बबली की जबान कभी उस का साथ न देती और कभी भी सचाई सामने
न आती.’’

इधर सारी लड़कियां भी बारबार यही कहने लगीं, ‘जज साहब, सजा हमें दीजिए, गुनाहगार तो हम हैं.’

जज साहब बोले, ‘‘सब शांति से बैठ जाएं…’’ सब के बैठने के बाद फिर जज साहब बोले, ‘‘माना कि बबली ने खून किया है, लेकिन बबली ने समाज के एक सड़े हुए अंग को काटा है.

‘‘और बच्चियो, न गुनाहगार आप हो और न ही बबली. गुनाहगार तो वह पुजारी था, गुनाहगार उस जैसे लोग होते हैं, बबली जैसे नहीं. आप सहम गई थीं, डर गई थीं, इसलिए वह शैतान अपनी मनमानी करता रहा. पहलेपहल बबली भी आप सब की तरह डर गई थी, लेकिन इस ने बाद में हिम्मत से काम लिया और आगे किसी और लड़की या बहन की जिंदगी को बरबाद होने से बचा लिया.

‘‘लिहाजा, अदालत बबली को कोई सजा नहीं देगी, बल्कि सभी बच्चियों, लड़कियों और औरतों से यही कहेगी कि ऐसे शैतानों का धरती पर जिंदा रहना ही गुनाह है.’’

सभी ने तालियां बजाते हुए बबली का कोर्ट से बाहर आ कर स्वागत किया और बबली अपनी छोटी बहन छुटकी और मां के गले लग गई.

Family Story: खुशी के रास्ते

Family Story: श्वेता एक दबंग चौधरी परिवार की बेटी थी और उस की शादी भी अच्छे खातेपीते घर में हुई थी. वह नौकरी नहीं करना चाहती थी, पर सास ने उसे नौकरी करने पर जोर दिया. वह कालेज में लैक्चरर हो गई. एक दिन गाड़ी खराब होने की वजह से श्वेता के पति का दोस्त युवराज उसे कालेज छोड़ने गया. फिर यह सिलसिला चल निकला. आगे क्या हुआ?

श्वेता चौधरी बचपन से ही ऐसे घर में पलीबढ़ी थी, जिस की चौधराहट की धमक पूरे इलाके में थी. उस के दादा चौधरी जबर सिंह की धाक भी उस समय पूरे इलाके में थी. वे खुद तो जिला पंचायत के सदस्य थे ही, अपने बेटे यानी श्वेता के पिता चौधरी समर सिंह को भी गांव का प्रधान बनवा रखा था. जिले के डीएम और एसपी के साथ उन की अच्छी उठबैठ थी, इसलिए सरकारी महकमे में भी उन की अच्छी पकड़ थी. वहां उन का काम बेरोकटोक होता था.

श्वेता को भी कभी किसी चीज की कोई कमी नहीं रही थी. उसे जो चीज पसंद आ जाती, उसे ले कर छोड़ती थी. वह बचपन से ही जिद्दी और मनमानी हो गई थी, बिलकुल अपने पापा और दादा की तरह दबंग.

जब श्वेता शादी के लायक हुई, तो उस ने अपने दादा जबर सिंह को चेताया, ‘‘दादाजी, मेरी शादी शहर में करना, मैं गांव में नहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मेरी लाडो, तू चिंता क्यों करती है? हम तेरे लिए गांव में लड़का ढूंढ़ेंगे ही नहीं. शहर के चौधरियों से मेरी खूब जानपहचान है, देखना, जल्दी ही तेरे लिए कोई अच्छा सा लड़का मिल जाएगा. लेकिन, एक परेशानी है…’’

‘‘वह क्या दादाजी?’’

‘‘बस, वह लड़का हमारी लाडो को पसंद आ जाए.’’

‘‘अरे दादाजी, आप भी मजाक करने से बाज नहीं आते,’’ इतना कह कर श्वेता दालान से घर के अंदर चली गई.

जबर सिंह मुसकराते हुए फिर से अपना हुक्का गुड़गुड़ाने लगे.

कुछ ही दिनों के बाद श्वेता की शादी दिल्ली के कनाट प्लेस के एक अमीर चौधरी परिवार में कर दी गई.

उस समय श्वेता कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से वनस्पति शास्त्र में पीएचडी कर रही थी और उस की थीसिस पूरी होने वाली थी.

श्वेता का पति हरबंस अपने घर के कारोबार को देखता था. कमला नगर में वह एक पेइंगगैस्ट चलाता था. 4 डंपर किराए पर चलाता था. ऐसे ही उस के और भी काम थे. कुलमिला कर उस की अच्छीखासी आमदनी थी और श्वेता को कोई कमी न थी. अपना हनीमून भी वे फ्रांस में मना कर आए थे.

कुछ दिनों के बाद श्वेता की पीएचडी भी पूरी हो गई. उस ने अपने शौक और रुतबे के लिए यह डिगरी ली थी. नौकरी करने का न उस का कोई मन था और न ही जरूरत. उस के परिवार की सात पुश्तों में से कभी किसी ने नौकरी नहीं की थी. नौकरी करना उस के खून में ही नहीं था.

श्वेता की सासू मां दमयंती पुराने जमाने की पढ़ीलिखी औरत थीं. जब वे इस घर में बहू बन कर आई थीं, तो उन की बड़ी चाह थी कि वे नौकरी करें, लेकिन हरबंस के बुजुर्गों ने उन की यह चाह पूरी नहीं होने दी थी.

उन का कहना था, ‘हमारे घर में कौन सी कमी है, जो हम बहू की कमाई खाएंगे… हम अपनी बहू से नौकरी कराएंगे, तो दुनिया हमारे मुंह पर थूकेगी.’

इसी दकियानूसी सोच के चलते दमयंती से यह मौका छीन लिया गया था, लेकिन अब दुनिया बदल चुकी थी. दमयंती अब घर की मालकिन थीं. वे चाहती थीं कि जो वे नहीं कर पाईं, वह उन की बहू कर के दिखाए.

उन्होंने सब के विरोध के बावजूद श्वेता को नौकरी करने के लिए बढ़ावा दिया, ‘‘श्वेता, समय बदल गया है.

अब हर पढ़ीलिखी औरत अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही है. तू ने तो पीएचडी कर रखी है.

घर में बैठ कर क्या करेगी? चार पैसे कमा कर लाएगी, तो घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तेरी इज्जत और रुतबा बढ़ेगा.’’

लेकिन श्वेता तो उलटे बांस बरेली को. उस की तो नौकरी करने की जरा भी इच्छा नहीं थी. हरबंस भी नहीं चाहता था कि श्वेता नौकरी करे. लेकिन इस समय घर में श्वेता और हरबंस की नहीं, बल्कि दमयंती की ज्यादा चलती थी.

दमयंती ने श्वेता पर नौकरी करने का दबाव बनाया, तो हरबंस और श्वेता को झुकना पड़ा. वह दिल्ली के ही एक डिगरी कालेज में लैक्चरर हो गई. उस का कालेज घर से महज 10 किलोमीटर दूर था.

लेकिन एक दिन ऐनवक्त पर श्वेता की कार खराब हो गई. हरबंस और ड्राइवर ने कार की खराबी ठीक करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. घर में दूसरी कार भी थी, लेकिन उसी समय हरबंस को भी कहीं जाना था.

अभी श्वेता कैब बुक करा कर कालेज जाने की सोच ही रही थी कि तभी हरबंस का दोस्त युवराज अपनी कार से वहां आ पहुंचा. वह अपने औफिस जा रहा था.

हरबंस को घर के बाहर परेशान हालत में खड़ा देख वह बोला, ‘‘यार हरबंस, क्या परेशानी है? हमारे रहते तू परेशान… यह कैसे हो सकता है यार…’’

‘‘नहीं, युवराज. ऐसी कोई बड़ी परेशानी नहीं है. कार खराब हो गई है. तेरी भाभी को कालेज जाना था और मुझे भी अभी निकलना है.’’

‘‘यार हरबंस, तू ने भी क्या बात कह दी… अरे यार, हम किसलिए हैं. तुझे न खटके तो श्वेता भाभी को मैं कालेज के गेट पर छोड़ दूंगा. मेरी कंपनी का औफिस भी उधर ही है.’’

‘‘अरे युवराज, ऐसा कुछ नहीं है. मैं अभी कैब बुक कर देता हूं. तुझे परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

तभी गेट पर खड़ी दमयंती बोली, ‘‘हरबंस, इस में गलत ही क्या है. युवराज शाम को श्वेता को उधर से लेता भी आएगा. ड्राइवर को तू ले जाना. दोस्तों पर इतना तो भरोसा करना ही पड़ता है.’’

‘‘मां, तुम नहीं जानतीं…’’ हरबंस कहना चाहता था कि ये दोस्त एक नंबर के बदमाश होते हैं. लेकिन युवराज के सामने वह यह बात गटक गया.

‘‘अरे, मैं सब जानती हूं. दुनिया देखी है मैं ने. बहू, जल्दी से आ. युवराज उधर ही जा रहा है. तुझे यह कालेज तक छोड़ देगा और वापस भी ले आएगा,’’ दमयंती ने भी बड़े विश्वास से और्डर सा देते हुए कहा.

हरबंस कुछ कहना चाहता था, लेकिन उस के होंठ फड़फड़ा कर रह गए. श्वेता तो गैरमर्द के साथ कार में बैठ कर बिलकुल भी नहीं जाना चाहती थी. लेकिन, सासू मां का आदेश और हरबंस की लाचारी देख वह युवराज की कार में पिछली सीट पर बैठ गई.

अब ऐसा अकसर होने लगा कि श्वेता युवराज की कार में बैठ कर जाने लगी. युवराज मजाकिया और मिलनसार स्वभाव का था. वह जल्दी ही श्वेता से हिलमिल गया.

श्वेता का संकोच भी जल्दी ही दूर हो गया. वह अब कार की पिछली सीट पर नहीं, बल्कि ड्राइविंग सीट की बगल वाली सीट पर बैठने लगी.

हरबंस को यह बात पसंद नहीं थी कि श्वेता आएदिन युवराज की कार में बैठ कर कालेज जाए, लेकिन उस की मां दमयंती उसे समझतीं, ‘‘बेटा, कौन से जमाने में जी रहे हो… बहू नौकरी करने घर से बाहर निकलेगी तो गैरमर्दों से बातें करेगी ही. क्या वह अपने कालेज में जवान लड़कों और आदमियों से बात नहीं करती?

उसे तो सब से मिलनाजुलना पड़ता ही है.

‘‘वह युवराज के साथ जा रही है, तो तेरा कार का खर्चा बच ही रहा है. उसे भागना ही होगा तो युवराज क्या किसी और के साथ भी भाग जाएगी.’’

‘‘मां, तुम यह कैसी अनापशनाप बातें कर रही हो?’’

‘‘हरबंस, मैं एक औरत हूं और एक औरत के दिल को अच्छी तरह समझती हूं. भागने वाली औरत को तू सात तालों में भी बंद कर दे, वह तेरे कहने से भी नहीं रुकेगी. न भागने वाली औरत कोठे से भी वापस आ जाती है.’’

हरबंस को अपनी मां की बातें बड़ी अजीब लग रही थीं. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अगर वह अपनी मां की बात न माने तो दकियानूसी और शक्की कहलाए और माने तो श्वेता को युवराज के साथ जाना बरदाश्त करना पड़े. वह चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा था.

अब तो युवराज श्वेता को ले जाने के लिए रोज उस के घर के सामने कार रोक देता और श्वेता भी पहले से ही सजधज कर उस की कार में जा बैठती. शर्म की दीवारें धीरेधीरे गिर चुकी थीं. आग और घी कब तक दूर रहते. युवराज और श्वेता इतने पास आ चुके थे कि अब उन का दूर रहना मुश्किल हो गया.

एक दिन श्वेता युवराज के साथ ही चली गई. वह घर वापस नहीं आई. हरबंस ने उसे फोन किया, तो उस की बातें सुन कर हरबंस के होश उड़ गए.

श्वेता ने बिना लागलपेट के कहा, ‘हरबंस, मेरा इंतजार मत करना. युवराज और मैं ने एक मंदिर में शादी कर ली है. अब मैं उस की हो गई हूं,’ कह कर श्वेता ने फोन काट दिया.

हरबंस के पैरों तले से जमीन निकल चुकी थी. उस ने श्वेता के नाम एक फ्लैट कर दिया था. इनकम टैक्स से बचने के लिए लाखों रुपए श्वेता के खाते में ट्रांसफर कर दिए थे. लाखों के गहने श्वेता के पास थे.

उस दिन हरबंस ने अपनी मां को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘‘मां, यह श्वेता से तुम्हारा नौकरी कराने का लालच ही था, जो आज हमें ले डूबा. तुम्हें ही पड़ी थी उस से नौकरी करवाने की.

‘‘मैं ने तो क्या, श्वेता ने भी नौकरी करने से मना किया था, लेकिन तुम पर तो मौडर्न बनने का भूत सवार था और फिर कार का खर्च बचाने के चक्कर में उसे युवराज के साथ भेजने लगीं. अब चखो बदनामी का मजा.’’

‘‘हरबंस, यह समझ ले कि जो हुआ, सही हुआ. तू एक औरत को नहीं समझता. अच्छा हुआ वह बहुत जल्दी और आसानी से चली गई, नहीं तो ऐसी औरतें अपने इश्क और आशिक के चक्कर में अपने पति की जान तक ले लेती हैं.’’

‘‘हां मां, आप सही कह रही हो. आजकल की घटनाओं को सुन कर तो रूह कांप जाती है. कहीं आदमी औरत के टुकड़े कर के फ्रिज में दफन कर रहा है, तो कहीं औरत आदमी के टुकड़े कर रही है. समझ में नहीं आता कि समाज को क्या होता जा रहा है…’’

‘‘बेटा, यह कोई नई बात नहीं है. यह तो हमेशा से होता आया है. बस, फर्क इतना है कि सोशल मीडिया के जमाने में ये बातें एकदम फैल जाती हैं.’’

हरबंस कारोबारी था. उस का दिमाग पैसे की ओर दौड़ता था. किसी तरह का घाटा उसे सहन न था. उसे श्वेता के जाने की इतनी चिंता नहीं थी, जितनी अपने पैसे, गहने और फ्लैट की चिंता थी. इन सब को पाने के लिए हरबंस ने बिरादरी के खास लोगों की पंचायत बुला ली.

पंचायत में श्वेता, युवराज और उन की तरफ के लोगों को भी बुलाया गया. सब को लगता था कि पंचायत हंगामेदार होगी और लंबी खिंचेगी. मजा और चटकारे लेने वाले तो यही चाह रहे थे, लेकिन श्वेता ने पंचायत ज्यादा देर तक न चलने दी.

श्वेता ने यह कह कर पंचायत खत्म करवा दी, ‘‘अब मैं युवराज की हूं और उस की ही रहूंगी. जोकुछ भी हरबंस ने मेरे नाम किया है, फ्लैट, 30 लाख रुपए, गहने, जेवरात, मैं उन सब को हरबंस को लौटाने को तैयार हूं. मुझे दौलत नहीं युवराज चाहिए.’’

कुछ पंचों ने विवाद बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन युवराज इतने से संतुष्ट था. हरबंस ने कहा, ‘‘मैं भी यही चाहता हूं कि श्वेता अब युवराज के पास ही रहे और मेरे पैसे वगैरह मुझे वापस कर दे. उस ने इस के लिए हामी भर दी है, तो मुझे पंचायत को आगे नहीं बढ़ाना है.’’

इस के बाद एक समझौतापत्र पर दस्तखत हो गए, तो पंचायत वहीं खत्म हो गई. कोर्टकचहरी के चक्कर काटने से दोनों बच गए. आसानी से फैसला हो जाने पर पंचों को भी कोई तवज्जुह नहीं मिली. वे खिसयाते हुए अपनेअपने घरों को चले गए.

लेकिन श्वेता के दादा और पिता जबर सिंह और समर सिंह ने युवराज को धौंसडपट देने की कोशिश की. श्वेता ने उन की शिकायत पुलिस से कर दी. पुलिस ने उन्हें अपनी भाषा में कानून का पाठ पढ़ा दिया.

युवराज और श्वेता अब भी हरबंस के घर के सामने से ही अपनी कार में बैठ कर निकलते हैं.

लेकिन कमाल की बात यह थी कि हरबंस अपनी दौलत वापस पा कर खुश था. उस के चेहरे पर रत्तीभर भी शिकन नहीं थी. श्वेता नाम का चैप्टर उस ने अपनी जिंदगी से ही निकाल दिया था. जल्दी ही हरबंस बड़े धूमधाम के साथ दूसरी बीवी ले आया.

ऐसे मामलों में बीवी के छोड़ जाने पर अकसर जहां पति डिप्रैशन में चला जाता है, लेकिन इस मामले में हरबंस के चेहरे की खुशी किसी की समझ में नहीं आ रही थी. वह दूसरी बीवी के साथ खुश था.

इस बात से श्वेता को भी मिर्ची लगी हुई थी. उसे यह उम्मीद नहीं थी कि हरबंस इतनी जल्दी दूसरी शादी कर लेगा. वह तो एक औरत की तरह सोचती थी कि हर मर्द की तरह हरबंस भी उस की याद में तड़पेगा, परेशान होगा, मजनूं की तरह पागल हो जाएगा.

लेकिन हरबंस ने जता दिया था कि यह नए जमाने का दस्तूर है, जिस में एक औरत के धोखा देने का मतलब गम में डूब जाना नहीं, बल्कि खुशी के रास्ते तलाशना है.

Hindi Story: आतंक

Hindi Story, लेखक – पुष्पेश कुमार ‘पुष्प’

दिवाकर आज सुबहसवेरे ही रामकिशन को खोजने आया था. घर पर दिवाकर को आया देख रामकिशन की पत्नी साधना के होशोहवास उड़ गए. आते ही दिवाकर ने पूछा, ‘‘रामकिशन कहां है?’’

साधना घबराई हुई आवाज में बोली, ‘‘वे घर पर नहीं हैं.’’

साधना का जवाब सुन कर दिवाकर ने उसे अजीब सी निगाहों से घूरा और तेज कदमों से बाहर निकल गया.

साधना दिवाकर को आया देख कर एक अनजाने डर से थरथर कांप रही थी. उस की सम झ में नहीं आ रहा था कि 15 साल बाद दिवाकर उस के घर पर क्यों आया है और आखिर उस का इरादा क्या है?

साधना के मन में तरहतरह के खयाल आने लगे, क्योंकि दिवाकर के भाई मनोज की हत्या उस के पति रामकिशन ने की थी. हत्या की वजह थी रामकिशन की फसल को मनोज द्वारा चोरीछिपे काटना.

साधना सोचने लगी कि क्या दिवाकर अपने भाई मनोज की हत्या का बदला लेने आया था? आखिर इतने सालों के बाद उस का पति जेल से बाहर आया है. उस का तो सबकुछ खत्म हो गया है. जीने की तमन्ना न होने के बावजूद वह जीना चाहता है. जिंदा लाश बना वह जिंदगी की नई किरण की तलाश में भटक रहा है.

इस सब के बीच दिवाकर का आना साधना को अच्छा नहीं लगा.

साधना अपनेआप को ताकत देते हुए सोचने लगी कि आज 15 साल बाद उस का पति घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाएगा. मटरपनीर की सब्जी और पूरियां उसे बहुत पसंद हैं, लेकिन दिवाकर का खयाल आते ही साधना का सारा जोश पलभर में ही छूमंतर हो गया.

तभी घर के भीतर से साधना की बूढ़ी सास ने पूछा, ‘‘कौन आया था साधना?’’

‘‘कोई नहीं मांजी… दिवाकर आया था,’’ साधना बोली.

दिवाकर तो चला गया था, लेकिन अपने पीछे डर का एक भयंकर नाग छोड़ गया था. साधना को वह नाग बारबार डरा रहा था.

साधना को घुटन सी महसूस हुई, तो उस ने घर के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल दीं, मानो इस उमस भरी गरमी से कुछ राहत मिले.

फिर अपने मन को शांत करते हुए साधना सोचने लगी कि रामकिशन के आते ही गरमगरम पूरियां तल देगी. सब्जी तो बना ही ली है.

रात को 10 बजे जब रामकिशन घर आया, तो साधना को लगा कि कमरे में मौजूद उमस अब खत्म हो गई है. वह तेज आवाज में बोली, ‘‘यह भी कोई घर आने का समय है… सारा दिन भूखेप्यासे कहां बैठे थे.’’

जेल जाने के पहले रामकिशन देर रात तक लोगों के साथ गपें लड़ाया करता था, लेकिन कभी साधना ने इस बात के लिए मना नहीं किया. रामकिशन सम झ नहीं पा रहा था कि आज साधना के बरताव में इतना बदलाव कैसे आ गया? लेकिन वह चुप ही रहा.

रामकिशन अब पहले जैसा जवान और फुरतीला नहीं रहा था. वह भीतर ही भीतर खोखला हो चुका था, मानो उस के शरीर में दीमक लग गया हो, जो धीरेधीरे उसे कमजोर करता जा रहा था. बीते पल उसे एक दुखांत नाटक जैसे लग रहे थे.

‘‘अब उठो भी… जाओ और हाथमुंह धो लो. मैं तुम्हारे लिए पूरियां तल रही हूं. मटरपनीर की सब्जी बनाई है,’’ साधना स्नेह में डूब कर बोली.

खाना खाने के बाद रामकिशन बिस्तर पर गिर गया. साधना पैर दबाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे पीछे दिवाकर आया था. आखिर क्या करने आया था वह? मैं तो कुछ सम झ ही नहीं पाई, लेकिन उस का आना मुझे ठीक नहीं लगा. न जाने उस के मन में क्या चल रहा था. वह मु झे घूर रहा था.’’

दिवाकर का नाम सुनते ही रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह उठ कर बैठ गया, मानो कमरे में उस का दम घुटने लगा हो. उसे बीती बातें याद आने लगीं, जब पुलिस उसे पकड़ कर ले जा रही थी, तो दिवाकर ने उसे रास्ते में रोक कर कहा था, ‘रामकिशन, कानून चाहे जो भी सजा दे, पर मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. मैं तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार करूंगा.

‘जब तक मैं तुम से अपने भाई का बदला नहीं ले लेता, मेरे मन की आग शांत नहीं होगी,’ दिवाकर की गुस्से से दहकती वे आंखें आज फिर उसे दहला गई थीं.

दिवाकर और रामकिशन के खेत एक ही साथ थे. दिवाकर का भाई मनोज उस की हर फसल को चोरीछिपे काट लेता था. उस ने कई बार मनोज को सम झाने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार मनोज इस बात से इनकार कर देता था. वह कहता था, ‘मैं तुम्हारी फसल क्यों काटूंगा? तुम्हारी फसल कौन काट कर ले जाता है, मैं क्या जानूं? चोरी कोई और करे और आरोप मु झ पर लगाते हो.

‘अपनी फसल की देखभाल क्यों नहीं करते? चोरी का आरोप लगा कर मु झे बदनाम मत करो,’ लेकिन मनोज अपनी आदत से बाज नहीं आ रहा था.

एक दिन गांव के सुरेश ने आ कर कहा था, ‘रामकिशन, तुम यहां हो और वहां मनोज तुम्हारी फसल को काट कर ले जा रहा है.’

यह सुनते ही रामकिशन गुस्से से कांप गया. वह फौरन अपने खेत की ओर भागा. सचमुच, मनोज उस की फसल काट कर ले जा रहा था. उस ने मनोज को ऐसा करने से रोका, लेकिन मनोज जबरदस्ती फसल ले जाने लगा.

रामकिशन ने मनोज को जोर से धक्का दिया. वह दूर जा गिरा. फिर दोनों में उठापटक होने लगी. थोड़ी ही देर में इस मामूली लड़ाई ने अचानक बड़ा रूप ले लिया. मनोज ने अपनी कमर से पिस्तौल निकाल ली.

रामकिशन अपने बचाव में उस से पिस्तौल छीनने लगा. इसी छीना झपटी में पिस्तौल से गोली चल गई और
सीधी मनोज के सीने में जा धंसी.

कुछ देर छटपटाने के बाद मनोज ने वहीं दम तोड़ दिया. यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. वह अपनेआप को संभालते हुए किसी तरह गांव की ओर चल पड़ा.

मनोज की मौत की खबर जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गई. जल्दी ही पुलिस आ गई और रामकिशन को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस के सामने रामकिशन ने कहा, ‘मैं ने मनोज की हत्या नहीं की, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए मैं उस से पिस्तौल छीनने लगा था. इसी बीच गोली चल गई और उस की मौत हो गई. मनोज चोरीछिपे मेरी फसल काट रहा था…’

यह सब सोचते हुए रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह बेचैन हो गया. उसे दिवाकर की कसम याद आ गई थी.

अब रामकिशन ने घर से बाहर निकलना भी बंद कर दिया. वह सारा दिन चोरों की तरह घर में छिपा रहता, लेकिन दिवाकर द्वारा छोड़ा गया डर का काला नाग उसे डरा जाता.

दिवाकर फिर दोबारा रामकिशन को खोजने नहीं आया. रामकिशन सोचता, ‘दिवाकर इतना कठोर नहीं हो सकता. मु झे मारने से क्या उस का भाई वापस आ जाएगा? गलती किसी की और सजा मु झे मिली. इस घटना के चलते मेरा पूरा परिवार ही बिखर गया. क्या उसे बेऔलाद साधना और मेरी बूढ़ी मां पर तरस नहीं आएगा? इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. मेरा तो वंश में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रहा…’ यह सब सोचने के बाद भी रामकिशन के मन में दिवाकर का डर बैठा हुआ था.

सुहानी चांदनी रात में आकाश में टिमटिमाते तारों की बरात को देख कर रामकिशन का मन खुली हवा में सांस लेने को मचल उठा और वह खुली हवा में सांस लेने के लिए घर से बाहर निकल पड़ा.

थोड़ी देर के बाद एक कठोर आवाज ने रामकिशन को बुरी तरह से चौंका दिया, ‘‘रामकिशन…’’

यह आवाज जानीपहचानी सी लग रही थी. रामकिशन ने मुड़ कर देखा, तो सामने दिवाकर पिस्तौल लिए खड़ा था.

यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और वह ‘धड़ाम’ से जमीन पर गिर गया.

‘‘रामकिशन, मैं ने कहा था न कि कानून तुम्हें जितनी सजा दे दे, लेकिन मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. आज वह दिन आ गया है. मैं कई दिनों से तुम्हारी खोज में था. जब तक मैं तुम्हें मौत की नींद नहीं सुला दूं, मेरे भाई की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी. तेरे मरने के बाद ही मेरे दिल में धधकती बदले की आग को ठंडक मिलेगी,’’ कहते हुए दिवाकर की आंखों में खून उतर आया था.

यह सुनते ही रामकिशन की घिग्घी बंध गई. उसे लगा मानो उस के सामने दिवाकर नहीं, बल्कि मौत खड़ी है.

रामकिशन काफी नरम आवाज में बोला, ‘‘दिवाकर, मैं पिछले 15 सालों तक जेल की कालकोठरी में रहा. इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. अब मेरे लिए इस दुनिया में बचा ही क्या है… मैं तो बस एक जिंदा लाश हूं. मैं ने तुम्हारे भाई की हत्या नहीं की. हत्या तो वह मेरी करना चाहता था, पर गलती से गोली उसे जा लगी. इस में मेरा कोई कुसूर नहीं है..’’

यह सुन कर दिवाकर का हाथ ठिठक गया और सोचने लगा, ‘क्या सचमुच रामकिशन जिंदा है? यह तो जिंदा लाश बन गया है. इस का तो पूरा परिवार ही बिखर गया है. क्या मनोज ने अपनी मौत का बदला नहीं ले लिया है? भला, मैं मरे हुए को क्यों मारूं? यह खुद ही तड़पतड़प कर मर जाएगा…’ दिवाकर को लगा मानो रामकिशन की बेबसी ने उसे पंगु बना दिया है.

दिवाकर ने एक गहरी सांस ले कर चांदनी रात में तारों से पटे आकाश को देखा. उसे लगा कि खुले आकाश की खूबसूरती वह पहली बार देख रहा था.

बेहोश रामकिशन को वहीं गिरा छोड़ कर दिवाकर पिस्तौल अपने हाथ में लिए घर की ओर चल पड़ा, तभी उस ने पीछे मुड़ कर रामकिशन की ओर देखा और बोला, ‘‘रामकिशन, मैं तु झे यों ही डराता रहूंगा और घुटघुट कर जीने को मजबूर कर दूंगा. मैं तेरी जिंदगी को नरक बना दूंगा.’’

उधर रामकिशन को घर आने में देरी होने पर साधना का मन किसी अनहोनी के डर से कांप उठा. साधना रामकिशन की खोज में निकल पड़ी.

बदहवास सी साधना चारों ओर देखती चली जा रही थी कि अचानक चांद की दूधिया रोशनी में उस की निगाह रामकिशन पर पड़ी, जो खेत में गिरा पड़ा था और दिवाकर अपने हाथ में पिस्तौल लिए चला जा रहा था.

यह देख कर साधना की चीख निकल पड़ी, ‘‘दिवाकर… अरे, मार दिया चांडाल ने…’’ वह तेज कदमों से भागती हुई बदहवास पड़े रामकिशन के ऊपर ‘धड़ाम’ से गिर गई.

साधना के गिरते ही रामकिशन ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और साधना को एकटक देखने लगा. अचानक उसे अपनेआप से नफरत होने लगी. वह सोचने लगा, ‘ऐसी बेइज्जती की जिंदगी जीने से अच्छा है कि मैं मर जाऊं…’

रामकिशन को लगा कि क्यों न वह दिवाकर से पिस्तौल छीन कर अपनेआप को गोली मार लेता…
यह सोचते हुए रामकिशन आकाश में टिमटिमाते तारों को देखता हुआ शून्य में खो गया.

Crime Story: तलाश एक कहानी की – क्या वृंदा ने मोहन को फंसाया

Crime Story: वृंदा की रचनाओं में एक कशिश थी जो उन्हें पढ़ने को मजबूर करती थी. कुरसी पर खाली बैठाबैठा बस सिगरेट के धुएं के छल्ले हवा में उड़ाए जा रहा था. कई दिनों से कोई अदद कहानी लिखने की सोच रहा था लेकिन किसी कहानी का कोई सिरा पकड़ में ही नहीं आ रहा था. कभी एक विषय ध्यान में आता, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा. लेकिन अंजाम तक कोई नहीं पहुंच रहा था. यह लिखने की बीमारी भी ऐसी है कि बिना लिखे रहा भी तो नहीं जाता.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर देखा तो अज्ञात नंबर.

‘‘हैलो.’’

‘‘जी हैलो, नमस्ते.’’

दूसरी ओर से आई आवाज किसी औरत की थी. मैं ने पूछा, ‘‘कौन मोहतरमा बोल रही हैं?’’

‘‘जी, मैं वृंदा कीरतपुर से. क्या मोहनजी से बात हो सकती है?’’

‘‘जी, बताइए. मोहन ही बोल रहा हूं.’’

‘‘जी, बात यह थी कि मैं भी कुछ कहानीकविताएं लिखती हूं. आप के दोस्त प्रीतम ने आप का नंबर दिया था. आप का मार्गदर्शन चाहती हूं.’’

‘‘क्या आप नवोदित लेखिका हैं?’’

‘‘हां जी, लेकिन लिखने की बहुत शौकीन हूं.’’

‘‘वृंदाजी,  आप ऐसा करें कि अभी आप लोकल के पत्रपत्रिकाओं में अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजें. जब आत्मविश्वास बढ़ जाए तो राष्ट्रीय स्तर की पत्रपत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजें. और हां, अच्छा साहित्य खूब पढ़ें.’’

यह कहते हुए वृंदा को मैं ने कुछ पत्रपत्रिकाओं के नामपते बता दिए.

उसे पत्रपत्रिकाओं में लिखने का तरीका भी बता दिया.

इस औपचारिक वार्त्तालाप के बाद मैं ने वृंदा का नंबर उस के नाम से सेव कर लिया. यह हमारा व्हाट्सऐप नंबर भी था. ‘माई स्टेटस’ पर उस की पोस्ट आने लगी.

कभीकभी मैं उस की पोस्ट देख और पढ़ लेता. इसी से पता चला कि वृंदा 2 बच्चों की मां है और किसी सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका है. वृंदा की पोस्ट में सुंदर, साहित्यिक कविताएं होतीं. मैं उन्हें पढ़ कर काफी प्रभावित होता. एक नवोदित रचनाकार इतनी सुंदर और ऐसी साहित्यिक रचनाएं लिखे तो गर्व होना स्वाभाविक था.

वृंदा की रचनाओं के विषय के अनुसार मैं ने उसे अमुकअमुक पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए प्रेषित करने की सलाह दी. कोई रचना मुझे ज्यादा ही पसंद आती तो मैं उस पर उसी के अनुरूप अपना कमैंट भी लिख भेजता.

धीरेधीरे वृंदा की रचनाएं रूमानियत के सांचे में ढलने लगीं. प्रेम के अलाव की तपिश में पकने लगीं. उन से इश्क का धुआं उठने लगा. मोहब्बत का माहौल बनने लगा. उन्हें पढ़ कर ऐसा एहसास होता कि वे दिल में उतर रही हैं. उन्हें पढ़ कर आनंद की अनुभूति तो होती, फिर भी मैं ऐसी रचनाओं पर अपने कमैंट देने से बचता.

एक दिन वृंदा ने अपनी कोई पुरस्कृत रचना मेरे व्हाट्सऐप पर प्रेषित की और उस पर मेरी टिप्पणी मांगी. रचना वाकई काबिलेतारीफ थी. मैं ने उस पर अपनी संतुलित टिप्पणी भेज दी.

इस के बाद मेरी रुचि वृंदा की रचनाओं में जाग्रत होने लगी. उस की रचनाओं में एक कशिश थी जो उन को पढ़ने को मजबूर करती थी. उन की रूमानियत दिल को छू लेती. उन को पढ़ कर कोई मुश्किल से ही अपनेआप को उन पर कमैंट देने से रोक सकता था. हर रचना ऐसी होती जैसे पढ़ने वाले के लिए ही लिखी गई हो. कई बार तो वृंदा की रचनाएं इतनी व्यक्तिगत होतीं कि उन्हें पढ़ कर लगता कि निश्चित ही वह किसी की मोहब्बत के सागर में गोते लगा रही है.

एक दिन मैं ने वृंदा को मैसेज भेजा, ‘‘वृंदा, इतनी भावना प्रधान रचनाएं कैसे लिख लेती हो?’’

जवाब तुरंत हाजिर था, ‘‘प्रेम.’’

इस ढाई आखर के ‘प्रेम’ के साथ 2 प्यारे इमोजी बने हुए थे. मैं अचंभित था कोई शादीशुदा महिला किसी अपरिचित व्यक्ति के सामने इतनी शीघ्रता से कैसे अपने प्रेम का प्रकटीकरण कर सकती है. मन में एकसाथ अनेक सवाल उठ खड़े हुए. कौन है वह खुशनसीब इंसान जिस के प्यार में वृंदा डूबी हुई है? क्या वह अपने परिवार में खुश नहीं जो उसे प्रेम की तलाश कहीं और करनी पड़ रही है? इस का पति भी तो इस की पोस्ट पढ़ता होगा? शायद नहीं. नहीं तो अब तक बवंडर हो गया होता. वृंदा की पोस्ट ही इतनी इश्किया थी.

अंत में जेहन में एक सवाल और उठा. यह वृंदा कहीं मुझ से तो… यह सोचते ही मेरे चेहरे पर मुसकान खिल उठी. आदमी की आदत है कि वह खयाली पुलाव पकापका कर खुश होता रहता है. इतनी खूबसूरत महिला को मुझ से इश्क हो जाए तो कहना ही क्या? तभी मुझे अपने परिवार का खयाल आया और मन में फूट रहे लड्डुओं में खटास उत्पन्न हो गई. लेकिन यह पहेली पहेली ही रही कि वृंदा किस पर फिदा है.

वृंदा के इश्किया मिजाज को देखते हुए अपना मन भी इश्किया हो उठा. अब मैं उस की पोस्ट पर कमैंट देते समय इश्किया शब्दों का प्रयोग करने लगा. इस कम्बख्त इश्क का मिजाज ही ऐसा होता है, न उम्र देखता है, न रंग देखता है. बस, सब को अपने रंग में रंग लेता है. बड़ेबड़े

रसूखदार, इज्जतदार इश्क के परवाने बन प्रेम की शमा में यों ही न भस्म हो बैठे.

हम भी इश्किया परवाने बन प्रेम की शमा पे परवाना बन जलने को बेचैन हो उठे.

हम ने भी शर्मलिहाज छोड़ वृंदा की पोस्टों पर एक से बढ़ कर एक इश्किया कमैंट दे मारे.

वृंदा समझ गई कि हम पर इश्क का भूत सवार हो रहा था. हमारा इश्किया भूत उतारने के मकसद से या फिर किसी और सिरफिरे को ठीक करने के लिए एक दिन उस ने एक चुटकुला पोस्ट किया, लड़का लड़की से- ‘क्या तुम्हारा कोई पुरुष मित्र है?’

लड़की- ‘हां, है.’

लड़का- ‘तुम इतनी खूबसूरत हो मोहतरमा कि तुम्हारे 2 पुरुष मित्र होने चाहिए.’

लड़की- ‘मेरे 3 पुरुष मित्र हैं और तुम्हें अपना पुरुष मित्र बना कर, मैं उन तीनों को धोखा देना नहीं चाहती.’

वृंदा ने उस चुटकुले के नीचे 3 हंसते हुए इमोजी भी बना रखे थे. मुझे लगा, यह मेरे लिए ही संकेत है और वृंदा के पहले से ही कुछ पुरुष मित्र हैं. मैं ने उस के इस चुटकुले पर कोई कमैंट तो नहीं लिखा लेकिन जैसे को तैसा जवाब देने की तर्ज पर 5 हंसते हुए इमोजी जवाब में भेज दिए.

किसी औरत के दिल को जलाने के लिए इस से बेहतर तरीका नहीं हो सकता. उस ने मेरे 5 इमोजी का अर्थ यह लगाया कि मेरी 5 महिला मित्र हैं. इस से आहत हो वृंदा ने अगले 2-3 दिनों तक कोई पोस्ट नहीं भेजी. लगता था वह सौतिया डाह से पीडि़त हो गई.

इस के बाद वृंदा की पोस्ट रूमानी होने के बजाय गमगीन और पलायनवादी हो गईं. वह अपनी पोस्ट के जरिए यह दर्शाने लगी कि वह दुनिया की सब से दुखी औरत है. घर में तो उसे एक क्षण का चैन नहीं, स्कूल में आ कर ही उसे कुछ राहत मिलती है. अब मैं उस की पोस्ट पढ़ तो लेता था लेकिन कमैंट देना बिलकुल बंद कर दिया क्योंकि जरूरी नहीं था कि उस की पोस्ट मेरे लिए थी.

एक दिन 10 बजे के आसपास वृंदा ने एक बड़ी ही दुखभरी पोस्ट प्रेषित की, ‘छोड़ जाऊंगी तेरे आसपास, मैं खुद को इस तरह, रोज तिनकेतिनके सा…’ यह ऐसी पोस्ट थी जिसे पढ़ कर किसी भी आशिक का दिल पिघल सकता था. लेकिन यहां तो आशिक का ही पता नहीं था. इसलिए मेरे लिए संवेदना प्रकट करने का कोई सवाल ही नहीं था. महबूबा महबूब के प्रेम से धोखा खा कर इतनी आहत नहीं होती है जितनी उस की उपेक्षा से.

वृंदा लगभग हर समय औनलाइन रहती थी लेकिन आज ‘माई स्टेटस’ पर अपनी यह दुखभरी पोस्ट 10 बजे के आसपास डाल कर औफलाइन हो गई. मैं यह सोच कर कि औफलाइन होने के अनेक कारण हो सकते हैं, अपने काम में व्यस्त हो गया.

एक बजे के आसपास किसी ने डोरबेल बजाई. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा तो मेरे होश उड़ गए. नीचे दरवाजे के सामने 2 पुलिसवाले खड़े थे. आखिर मेरे घर पुलिस क्यों आई थी, मैं ने तो अपनी जानकारी में कोई अपराध नहीं किया था. फिर पुलिस का मेरे घर पर क्या काम.

यही सब सोचता हुआ  मैं दरवाजा खोलने पहुंचा. दरवाजा खोलते ही उन में से एक बोला,

‘‘क्या आप ही मोहन सिंह हैं?’’

‘‘जी हां, बताइए.’’

‘‘आप को एक तफतीश के लिए कीरतपुर थाने बुलाया गया है. इंस्पैक्टर साहब को आप से कुछ सवालात करने हैं.’’

‘‘लेकिन मामला क्या है?’’

‘‘यह सब तो इंस्पैक्टर साहब ही बताएंगे. हम से तो यह कहा है कि आप को थाने ले आएं. आप तैयार हो कर हमारे साथ चलें.’’

पुलिस के मेरे घर आने की खबर पूरे महल्ले में आग की तरह फैल गई. हर कोई यह जानने को उत्सुक था कि मैं ने कौन सा अपराध किया है. इस से पहले कि मेरे घर पर मजमा लगता, मैं ने अपने परिवार का ढाढ़स बंधाया और उन 2 पुलिसवालों के साथ थाने की ओर चल पड़ा.

थाने में इंस्पैक्टर के सामने मुझे पेश किया गया. उन्होंने मुझ से पूछताछ शुरू की.

‘‘आप लेखक हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘क्याक्या लिखते हैं?’’

‘‘कहानी, कविता, व्यंग्य आदि.’’

‘‘और रूमानियतभरी बातें भी?’’ इंस्पैक्टर ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘‘जी, कहानी के हिसाब से.’’

‘‘और व्हाट्सऐप पर भी रूमानियत  का खूब तड़का लगाते हो,’’ इंस्पैक्टर ने कटाक्ष किया.

‘‘जी, मैं समझा नहीं.’’

‘‘अभी समझाता हूं. वैसे, आप बड़े सज्जन बनने की कोशिश कर रहे हैं. फिर यह क्या है?’’

यह कहते हुए इंस्पैक्टर ने वृंदा की पोस्ट और मेरे कमैंट्स की डिटेल मेरे सामने रख दी.

‘‘आप को पता है लेखक महोदय. आप के कमैंट्स के कारण वृंदा ने सुबह 11 बजे के आसपास जहर खा कर जान देने की कोशिश की. आप एक शादीशुदा महिला से प्रेम की पींग बढ़ा रहे थे. आप को शर्म आनी चाहिए अपनेआप पर. आप के खिलाफ वृंदा को आत्महत्या के लिए उकसाने का केस बनता है.’’

यह सुनते ही मेरी हालत पतली हो गई. फिर भी मैं ने हिम्मत जुटाते हुए पूछा, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, ऐसे कैसे हो सकता है, मैं तो आज तक उस से मिला भी नहीं?’’

‘‘देखिए, अभी तो व्हाट्सऐप डिटेल देखने के बाद शक के आधार पर आप को यहां बुलवाया गया है. अभी वृंदा बेहोशी की हालत में है. उस के होश में आने पर उस के बयान के आधार पर ही यह निर्णय लिया जाएगा कि आप को छोड़ें या गिरफ्तार करें. आप के सम्मान के कारण आप को लौकअप में बंद नहीं कर रहा हूं किंतु वृंदा के बयान होने तक आप पुलिस की निगरानी में थाने में ही रहेंगे.’’

स्पष्ट था, मेरी इज्जत का जनाजा पूरी तरह से निकल चुका था. मैं जानता था कि मेरा परिवार कितनी तकलीफ में होगा. नातेरिश्तेदारों और महल्ले वालों को भी भनक लग चुकी थी कि किसी औरत से प्रेमप्रसंग के मामले में मुझे थाने में बैठा कर रखा गया है. विरोधियों की तो बांछें ही खिल गई थीं. उन के लिए तो मैं काला सियार था.

लगभग 3 बजे शाम को वृंदा बयान देने के काबिल हुई. इंस्पैक्टर ने खुद अस्पताल जा कर उस से जहर खाने का कारण पूछा. मेरी सांसें अटकी हुई थीं कि वृंदा न जाने क्या बयान दे. अगर उस ने मेरा नाम भी ले लिया तो समझो मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जाना तय है. थाने में बैठेबैठे मेरा दिल कांप रहा था.

हवालात जाने का डर लगातार सता रहा था.

इंस्पैक्टर साहब वृंदा का बयान ले कर अस्पताल से थाने आए. मुझे देख कर मुसकराए और कहा, ‘‘मोहन बाबू, आप बच गए. हमें क्षमा करना जो आप को इतनी तकलीफ दी. वृंदा घरेलू कलह से तंग थी जिस के कारण उस ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की. अब आप घर जा सकते हैं. पुलिस आप को तंग नहीं करेगी.’’

‘‘लेकिन इंस्पैक्टर साहब, मेरे सम्मान पर जो आंच आई है, उस का क्या?’’

‘‘इस के लिए मैं मोहन बाबू आप से फिर से क्षमा चाहता हूं. लेकिन शक के आधार पर पुलिस को कई बार ऐसी कार्यवाही करनी पड़ती है. आप इस पर एक अच्छी सी कहानी लिख सकते हैं जिस से औरों को सबक मिले कि महिलाओं की पोस्ट पर कमैंट करने में सावधानी बरतें.’’

यह कह कर इंस्पैक्टर साहब मुसकराए. बदले में मैं भी मुसकरा पड़ा. कहानी लिखने की मेरी तलाश पूरी हो चुकी थी.

Romantic Story: मन से मन का जोड़ – क्या छवि मनोज के पास लौट सकी?

Romantic Story: मोती से मिल कर धागा और गंगाजल के कारण जैसे साधारण पात्र भी कीमती हो जाता है, वैसे ही छवि भी मनोज से विवाह कर इतनी मंत्रमुग्ध थी कि अपनी किस्मत पर गर्व करती जैसे सातवें आसमान पर ही थी. उस का नया जीवन आरंभ हो रहा था.

हालांकि अमरोहा के इतने बड़े बंगले और बागबगीचों वाला पीहर छोड़ कर गाजियाबाद आ कर किराए के छोटे से मकान में रहना यों आसान नहीं होता, मगर मनोज और उस के स्नेह की डोर में बंध कर वह सब भूल गई.

मनोज के साथ नई गृहस्थी, नया सामान, सब नयानया, वह हर रोज मगन रहती और अपनी गृहस्थी में कुछ न कुछ प्रयोग या फेरबदल करती. इसी तरह पूरे 2 साल निकल गए.

मगर, कहावत है ना कि ‘सब दिन होत न एक समान‘ तो अब छवि के जीवन में प्यार का प्याला वैसा नहीं छलक रहा था, जैसा 2 साल पहले लबालब रहता था.

यों तो कोई खास दिक्कत नहीं थी, मगर छवि कुछ और पहनना चाहती तो मनोज कुछ और पहनने की जिद करता. यह दुपट्टा ऐसे ओढ़ो, यह कुरता वापस फिटिंग के लिए दे दो वगैरह.

मनोज हर बात में दखलअंदाजी करता था, जो छवि को कभीकभी बहुत ही चुभ जाती थी. बाहर की बातें, बाहर के मामले तो छवि सहन कर लेती थी, मगर यह कप यहां रखो, बरतन ऐसे रखो वगैरह रोकटोक कर के मनोज रसोई तक में टीकाटिप्पणी से बाज नहीं आता था.

परसों तो हद ही हो गई. छवि पूरे एक सप्ताह तक बुखार और सर्दी से जूझ रही थी, मगर मनोज तब भी हर पल कुछ न कुछ बोलने से बाज नहीं आ रहा था. छवि जरा एकांत चाहती थी और खामोश रह कर बीमारी से लड़ रही थी, मगर मनोज हर समय रायमशवरा दे कर उस को इतना पागल कर चुका था कि वह पक गई थी.

तब तो हद पार हो गई, जब वह सहन नहीं कर सकी. हुआ यह था कि अपने फोन पर पसंदीदा पुराने गीत लगा कर जब किसी तरह वह रसोई में जा कर नाश्ता वगैरह तैयार करने लगी और मनोज ने आदतन बोलना शुरू कर दिया, ‘‘छवि, यह नहीं यह वाले बढ़िया गाने सुनो,‘‘ और फिर वह रुका नहीं, ‘‘छवि, यह भिंडी ऐसे काटना, वो बींस वैसे साफ करना, उस लहसुन को ऐसे छीलना,‘‘ बस, अब तो छवि ने तमतमा कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘ये लो, यह पकड़ो अपने घर की चाबी. यह रहा पर्स, यह रहे बचत के रुपए और यह रहे 500 रुपए, बस यही ले जा रही हूं… और जा रही हूं,‘‘ कह कर छवि ने बड़बड़ाते हुए बाहर आ कर रिकशा किया और सीधा बस स्टैंड चल दी.

बस तैयार खड़ी थी. छवि को सीट भी मिल गई. वह पूरे रास्ते यही सोचती रही, ‘‘अब इस टोकाटाकी करने वाले मनोज नामक व्यक्ति के पास कभी जाएगी ही नहीं, कभी नहीं.‘‘

महज 4 घंटे में वह पीहर पहुंच गई. वह पीहर, जहां वह पूरे 2 साल में बस एक बार पैर फिराने और दूसरी बार पीहर के इष्ट को पूजने गई थी.

पीहर में पहले तो उस को ऐसे अचानक देख पापामम्मी, चाचाचाची और चचेरे भाईबहन सब चैंक गए, मगर छवि ने बहाना बनाया, ‘‘वहां कोई परिचित अचानक बीमार हो गए हैं. मनोज को वहां जाना है. मुझे पहले से बुखार था, तो मनोज ने कहा कि अमरोहा जा कर आराम करो. बस जल्दी में आना पड़ा, इसलिए केवल यह मिठाई लाई हूं.‘‘

सब लोग खामोश रहे. मां सब समझ गई थीं. वे छवि को नाश्ता करा कर उस की अलमारी की चाबी थमा कर बोलीं, ‘‘जब से तुम गई हो, तुम्हारे पापा हर रोज 100 रुपए तुम्हारे लिए वहां रख देते हैं. यह लो चाबी और वो सब रुपए खुल कर खर्च करो.‘‘

यह सुन कर छवि उछल पड़ी और चाबी ले कर झटपट अपनी अलमारी खोल दी. उस में बहुत सी पोशाकें थीं और कुछ पर्स थे नोटों से भरे हुए.

छवि ने मां से पूछा, ‘‘पापा यहां रुपए क्यों रख रहे थे?‘‘

मां ने हंस कर कहा, ‘‘तुम हमारी सलोनी बिटिया कैसे कुशलता से अपना घर चला रही हो. हम को गर्व है, यह तो तुम्हारे लिए है बेटी.‘‘

‘‘अच्छा, गर्व है मुझ पर,‘‘ कह कर छवि आज सुबह का झगड़ा याद कर के मन ही मन शर्मिंदा होने लगी. उस को लगा कि मां कुछ छानबीन करेंगी, कुछ सवाल तो जरूर ही पूछ लेंगी, मगर उस को प्यार से सहला कर और आराम करो, ऐसा कह कर मां कुछ काम करने चली गईं. वह अलमारी के सामने अकेली रह गई, मगर अभी कुछ जरूरी काम करना था. इसलिए छवि सबकुछ भूल कर तुरंत दुनियादार बन गई. वहां तकरीबन 25,000 रुपए रखे थे. उस ने चट से एक सूची बना कर तैयार कर ली.

छवि फिलहाल तो कुछ खा कर सो गई, मगर शाम को बाजार जा कर उन रुपयों से पीहर में सब के लिए उपहार ले आई. बाजार में उस को अपनी सहेली रमा मिल गई. छवि और उस की गपशप भी हो गई. उस के गांव का बाजार बहुत ही प्यारा था. छोटा ही था, पर वहां सबकुछ मिल गया था.

उपहार एक से बढ़ कर एक थे. सब से उन उपहारों की तारीफ सुन कर कुछ बातें कर के वह उठ गई और फिर छवि ने रसोई में जा कर कुछ टटोला. वहां आलू के परांठे रखे थे. उस ने बडे़ ही चाव से खाए और गहरी नींद में सो गई. नींद में उस को रमा दिखाई दी. रमा से जो बातें हुईं, वे सब वापस सपने में आ गईं. छवि पर इस का गहरा असर हुआ.

सुबह उठ कर छवि वापस लौटने की जिद पर अड़ गई थी. मां समझ गईं कि शायद सब मामला सुलझ गया है. वे कभी भी बच्चों के किसी निर्णय पर टोकाटाकी नहीं करतीं थीं. वे ग्रामीण थीं, मगर बहुत ही सुलझी हुई महिला थीं. छवि को पीहर की मनुहार मान कर कम से कम आज रुकना पड़ा. वह कल तो आई और आज वापस, यह भी कोई बात हुई. सब की मानमनुहार पर छवि बस एक दिन और रुक गई.

उधर, मनोज को इतनी लज्जा आ रही थी कि उस ने ससुराल मे शर्म से फोन तक नहीं किया. मगर वह 2 दिन तक बस तड़पता ही रहा और उस के बाद फोन ले कर कुछ लिखने लगा.

‘‘छवि, पता है, तुम सब से ज्यादा शाम को याद आतीं. दिनभर तो मैं काम करता था, मगर निगोड़ी शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू हो जाती थी कि आखिर इस तनहा शाम का क्या किया जाए. तुम नहीं होती थीं, तो एक खाली जगह दिखती थी, कहना चाहिए कि बेचैनी और व्याकुलता से भरी. तब मैं एलबम उठा लेता था, इसे तुम्हारी तसवीरों से, उन मुलाकातों की यादों से, बातों से, तुम्हारी किसी अनोखी जिद और बहस को हूबहू याद करता और जैसेतैसे भर दिया करता था, वरना तो यह दैत्य अकेलापन मुझे निगल ही गया होता.

‘‘तुम होती थीं, तो मेरी शामों में कितनी चहलपहल, उमंग, भागमभाग, तुम्हारी आवाजें, गंध, शीत, बारिश, झगड़े, उमस या ओस सब हुआ करता था, मगर अब तो ढलती हुई शाम हर क्षण कमजोर होती हुई जिंदगी बन रही है कि जितना विस्मय होता है, उस से अधिक बेचैनी.

‘‘तुम्हारे बिना एक शाम न काटी गई मुझ से, जबकि मैं ने कोशिश भरसक की थी. परसों सुबह तुम नाराज हो कर चली गईं. मैं ने सोचा कि वाह, मजा आ गया. अब पूरे 2 साल बाद मैं अपनी सुहानी शाम यारों के साथ गुजार लूंगा. अब पहला काम था उन को फोन कर के कोई अड्डा तय करना. रवि, मोहित और वीर यह तीनों तो सपरिवार फिल्म देखने जा रहे थे. इसलिए तीनों ने मना कर दिया. अब बचा राजू. उसे फोन किया तो पता लगा कि वह अपनी प्रेमिका को समय दे चुका है. इतनी कोफ्त हुई कि आगे कोई कोशिश नहीं की.

‘‘बस, चैपाटी चला गया, मगर वहां तो तुम्हारे बिना कभी अच्छा लगता ही नहीं था. बोर होता रहा और कुछ फोटोग्राफी कर ली. बाहर कुछ खाया और घर आ गया.

‘‘घर आ कर ऐसा लगा कि घर नहीं है, कोई खंडहर है. बहुत ही भयानक लग रहा था तुम्हारे बिना, पर मेरे अहंकार ने कहा कि कोई बात नहीं, कल सुबह से शाम बहुत मजेदार होने वाली है और बस सोने की कोशिश करता रहा. करवट बदलतेबदलते किसी तरह नींद आ ही गई. सुबह मजे से चाय बनाई, मगर बहुत बेस्वाद सी लगी, फिर अकेले ही घर साफ कर डाला और दफ्तर के लिए तैयार हो गया.

‘‘अब नाश्ता कौन बनाता, बाहर ही सैंडविच खा लिए, तब बहुत याद आई, जब तुम कितने जायकेदार सैंडविच बनाती हो, यह तो बहुत ही रूखे थे.

‘‘मुझे अपने जीवन की फिल्म दिखाई देने लगी किसी चित्रपट जैसी, मगर नायिका के बगैर. मैं बहुत बेचैन हो गया. दफ्तर की मारामारी में मन को थोड़ा सा आराम मिला, मगर पलक झपकते ही शाम हो गई और दफ्तर के बाहर मैदान में हरी घास देख कर तुम्हारी फिर याद आ गई. 1-2 महिला मित्र हैं, उन को फोन लगाया, मगर वे तो अब अपनी ही दुनिया में मगन थीं. कहां तो 4 साल पहले तक वे कितनी लंबीलंबी बातें करती थीं और कहां अब वे मुझे भूल ही गई थीं.

अब क्या करता, फिर से एक उदास शाम को धीरेधीरे से रात में तबदील होता नहीं देख सकता, पर झक मार कर सहता रहा. मन ऐसा बेचैन हो गया था कि खाना तो बहुत दूर की बात पानी तक जहर लग रहा था. शाम के गहरे रंग में तारों को गिन रहा था, मगर तुम को न फोन किया और न तुम्हारा संदेश ही पढ़ा. तुम को जितना भूलना चाहता, तुम उतना ही याद आ रही थीं.

बस, इस तरह से दो शामों को रात कर के अपने ऊपर से गुजर जाने दिया. मेरा अहंकार मुझे कुचल रहा था, पर मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था. तुम हर पल मेरे सामने होतीं और मैं नजरअंदाज करना चाहता, यह भी मेरे अहंकार का विस्तार था.

अब तुम को लेने आ रहा हूं, तुम तैयार रहना, यह सब अपने फोन पर टाइप कर के मनोज ने छवि को भेज दिया. मगर 10 मिनट हो गए, कोई जवाब नहीं आया. 20 मिनट बीततेबीतते मनोज की आंखें ही छलक आईं. वह समझ गया कि अब शायद छवि कभी लौट कर नहीं आने वाली है, तभी दरवाजा खुला. मनोज चैंक गया, ‘‘ओह छवि, उसे पता रहता तो कभी दरवाजा बंद ही नहीं करता.’’

छवि ने हंस कर अपने फोन का स्क्रीन दिखाते हुए कहा, ‘‘वह बारबार यह संदेश पढ़ रही थी.‘‘

संदेश पढ़ कर तुम उड़ कर ही वापस आ गई, ‘‘हां… हां, पंख लगा कर आ गई,’’ यह सुन कर मनोज ने कुछ नहीं कहा. वह बडे़ गिलास में पानी ले आया और छवि को गरमागरम चाय भी बना कर पिला दी.

छवि ने अपने भोलेपन में मनोज को यह बात बता दी कि पीहर के बाजार में सहेली रमा मिली थी. रमा से बात कर के उस का मन बदल गया. वह उसे पूरे 2 साल बाद अचानक ही मिली थी. वह बता रही थी, ‘‘उस के पति सूखे मेवे का बड़ा कारोबार करते हैं. रोज उस को 5,000 रुपए देते हैं कि जहां मरजी हो खर्च करो. घरखर्च अलग देते हैं, पर कोई बात नहीं करते. कभी पूछते तक नहीं कि रसोई कैसे रखूं, कमरा कैसे सजाऊं, क्या पहनूं और क्या नहीं?

‘‘हर समय बस पैसापैसा यही रहता है दिमाग में. मुझे हर महीने पीहर भेज कर अपने कारोबारी दोस्तों के साथ घूमते हैं. मेरे मन की बात, मेरी कोई सलाह, मेरा कोई सपना, उन को इस से कुछ लेनादेना नहीं है. बस, मैं तो चैकीदार हूं, जिस को वे रुपयों से लाद कर रखते हैं.

‘‘सच कहूं, ऐसा लापरवाह जीवनसाथी है कि बहुत उदास रहती हूं, पर किसी तरह मन को मना लेती हूं. मगर यह सपाट जीवन लग रहा है.‘‘

यह सब सुन कर मुझे बारबार मनोज बस आप की याद आने लगी. मन ही मन मैं इतनी बेचैन हो गई कि रात सपने में भी रमा दिखाई दी और वही बातें कहने लगी. मैं समझ गई कि यह मेरी अंतरात्मा का संकेत है. रमा अचानक राह दिखाने को ही मिली, और मैं वापस आ गई.’’

‘‘पर छवि, तुम कम से कम रमा को कोई उचित सलाह तो देतीं. तुम तो सब को अच्छी राय देती हो. जब वह तुम को अपना राज बता रही थी छवि,‘‘ मनोज ने टोका, तो छवि ने कहा, ‘‘हां, हां, मैं ने उस को अपने दोनों फोन नंबर दे दिए हैं और गाजियाबाद आने का आमंत्रण दिया है.

‘‘साथ ही, उसे यह सलाह दी कि रमा, तुम मन ही मन मत घुटती रहो. मुझे लगता है, मातापिता, भाईबहन, पड़ोसन या किसी मित्र को अपना राजदार बना लो. अगर कोई एक भी आप को समझता है, तो अगर वह सलाह नहीं देगा, पर कम से कम सुनेगा तो, तब भी मन हलका हो जाता है. साहित्य से लगाव हो, तो सकारात्मक साहित्य पढ़ो. नई जगहों पर अकेले निकल जाओ, नई जगह को अपनी यादों में बसा कर उन को अपना बना लो.

‘‘आमतौर पर जब भी कभी किसी को ऐसी बेचैनी वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, अच्छी किताब और संगीत, वफादार मित्र साबित होते हैं वैसे समय में. और अकेले खूब घूमा करो, पार्क में या मौल में या हरियाली को दोस्त बना लो और यह भी सच है कि सब से बड़ा आनंद तो अपना काम देता है. झोंक देना स्वयं को, काम में. चपाती सेंकना और पकवान बनाना यह सब मन की सारी नकारात्मकता को खत्म करता है.‘‘

‘‘हूं, वाह, वाह, बहुत अच्छी दी सलाह,‘‘ कह कर मनोज ने गरदन हिला दी.

‘‘बहुत शुक्रिया,‘‘ शरारत से कह कर छवि ने मनोज को कुछ पैकेट थमा दिए. उन सब में मनोज के लिए उपहार रखे थे, जो छवि को पीहर से दिए गए थे.

छवि ने रुपयों से भरी अलमारी का पूरा किस्सा भी सुना दिया, तो मनोज ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘तब तो पिता के गौरव की हिफाजत करो. छवि, अब नाराज मत होना. ठीक है.‘‘

छवि ने प्रगट में तो होंठों पर हंसी फैला दी, पर वह मन ही मन कहने लगी, मगर, मुझे तो मजा आ गया, ऐसे लड़ कर जाने में तो बहुत आनंद है. नहीं, अब बिलकुल नहीं, मनोज ने उस के मन की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया दी. दोनों खिलखिला कर हंसने लगे.

Romantic Story: आखिरी टैलीग्राम – क्या शादी के बाद तनु अपने प्रेमी से मिल पाई

Romantic Story: प्लेन से मुंबई से दिल्ली तक के सफर में थकान जैसा तो कुछ नहीं था पर मां के ‘थोड़ा आराम कर ले,’ कहने पर मैं फ्रैश हो कर मां के ही बैडरूम में आ कर लेट गई. भैयाभाभी औफिस में थे. मां घर की मेड श्यामा को किचन में कुछ निर्देश दे रही थीं. कल पिताजी की बरसी है. हर साल मैं मां की इच्छानुसार उन के पास जरूर आती हूं. मैं 5 साल की ही थी जब पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. भैया उस समय 10 साल के थे. मां टीचर थीं. अब रिटायर हो चुकी हैं. 25 सालों के अपने वैवाहिक जीवन में मैं सुरभि और सार्थक के जन्म के समय ही नहीं आ पाई हूं पर बाकी समय हर साल आती रही हूं. विपिन मेरे सकुशल पहुंचने की खबर ले चुके थे. बच्चों से भी बात हो चुकी थी.

मैं चुपचाप लेटी कल होने वाले हवन, भैयाभाभी और अपने इकलौते भतीजे यश के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मां की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘ले तनु, कुछ खा ले.’’ पीछेपीछे श्यामा मुसकराती हुई ट्रे ले कर हाजिर हुई.

मैं ने कहा, ‘‘मां, इतना सब?’’ ‘‘अरे, सफर से आई है, घर के काम निबटाने में पता नहीं कुछ खा कर चली होगी या नहीं.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘मांएं ऐसी ही होती हैं, मैं जानती हूं मां. अच्छाभला नाश्ता कर के निकली थी और प्लेन में कौफी भी पी थी.’’ मां ने एक परांठा और दही प्लेट में रख कर मुझे पकड़ा दिया, साथ में हलवा.

मायके आते ही एक मैच्योर स्त्री भी चंचल तरुणी में बदल जाती है. अत: मैं ने भी ठुनकते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं इतना नहीं खाऊंगी और हलवा तो बिलकुल भी नहीं.’’ मां ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘यह डाइटिंग मुंबई में ही करना, मेरे सामने नहीं चलेगी. खा ले मेरी बिटिया.’’

‘‘अच्छा ठीक है, अपना नाश्ता भी ले आओ आप.’’

‘‘हां, मैं लाती हूं,’’ कह कर श्यामा चली गई. हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. भैयाभाभी रात तक ही आने वाले थे. मैं ने कहा, ‘‘कल के लिए कुछ सामान लाना है क्या?’’

‘‘नहीं, संडे को ही अनिल ने सारी तैयारी कर ली थी. तू थोड़ा आराम कर. मैं जरा श्यामा से कुछ काम करवा लूं.’’

दोपहर तक यश भी आ कर मुझ से लिपट गया. मेरे इस इकलौते भतीजे को मुझ से बहुत लगाव है. मेरे मायके में गिनेचुने लोग ही तो हैं. सब से मुधर स्वभाव के कारण घर में एक स्नेहपूर्ण माहौल रहता है. जब आती हूं अच्छा लगता है. 3 बजे तक का टाइम कब कट गया पता ही नहीं चला. यश कोचिंग चला गया तो मैं भी मां के पास ही लेट गई. मां दोपहर में थोड़ा सोती हैं. मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठ कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. इतने में डोरबैल बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला, श्यामा पास में ही रहती है. वह दोपहर में घर चली जाती है. शाम को फिर आ जाती है.

पोस्टमैन था. टैलीग्राम था. मैं ने उलटापलटा. टैलीग्राम मेरे नाम था. प्रेषक के नाम पर नजर पड़ते ही मुझे हैरत का एक तेज झटका लगा. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. अनिरुद्ध. मैं टैलीग्राम ले कर सोफे पर धंस गई. हमेशा की तरह कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था अनिरुद्ध ने, ‘‘तुम इस समय यहीं होगी, जानता हूं. अगर ठीक समझो तो संपर्क करना.’’

पता नहीं कैसे मेरी आंखें मिश्रित भावों की नमी से भरती चली गई थीं. ओह अनिरुद्ध. तुम्हें आज 25 साल बाद भी याद है मेरे पिताजी की बरसी. और यह टैलीग्राम. 3 दिन बाद 164 साल पुरानी टैलीग्राम सेवा बंद होने वाली है. अनिरुद्ध के पास यही एक रास्ता था आखिरी बार मुझ तक पहुंचने का. मेरा मोबाइल नंबर उस के पास है नहीं, न मेरा मुंबई का पता है उस के पास. तब यहां उन दिनों घर में भी फोन नहीं था. बस यही आखिरी तरीका उसे सूझा होगा. उसे यह हमेशा से पता था कि पिताजी की बरसी पर मैं कहीं भी रहूं, मां और भैया के पास जरूर आऊंगी और उस की यह कोशिश मेरे दिल के कोनेकोने को उस की मीठी सी याद से भरती जा रही थी. अनिरुद्ध… मेरा पहला प्यार एक सुगंधित पुष्प की तरह ही तो था. एक पूरा कालखंड ही बीत गया अनिरुद्ध से मिले. वयसंधि पर खड़ी थी तब मैं जब पहली बार मन में प्यार की कोंपल फूटी थी. यह वही नाम था जिस की आवाज कानों में उतरने के साथ ही जेठ की दोपहर में वसंत का एहसास कराने लगती. तब लगता था यदि परम आनंद कहीं है तो बस उन पलो में सिमटा हुआ जो हमारे एकांत के हमसफर होते, पर कालेज के दिनों में ऐसे पल हम दोनों को मुश्किल से ही मिलते थे. होते भी तो संकोच, संस्कार और डर में लिपटे हुए कि कहीं कोई

देख न ले. नौकरी मिलते ही उस पर घर में विवाह का दबाव बना तो उस ने मेरे बारे में अपने परिवार को बताया. फिर वही हुआ जिस का डर था. उस के अतिपुरातनपंथी परिवार में हंगामा खड़ा हो गया और फिर प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुजुर्गों के आदेश के आगे मुंह सिला खड़ा रह गया था. प्यार क्या योजना बना कर जातिधर्म परख कर किया जाता है या किया जा सकता है? और बस हम दोनों ने ही एकदूसरे को भविष्य की शुभकामनाएं दे कर भरे मन से विदा ले ली थी. यही समझा लिया था मन को कि प्यार में पाना जरूरी भी नहीं, पृथ्वीआकाश कहां मिलते हैं भला. सच्चा प्यार तो शरीर से ऊपर मन से जुड़ता है. बस, हम जुदा भर हुए थे.

उस की विरह में मेरी आंखों से बहे अनगिनत आंसू बाबुल के घर से विदाई के आंसुओं में गिन लिए गए थे. मैं इस अध्याय को वहीं समाप्त समझ पति के घर आ गई थी. लेकिन आज उसी बंद अध्याय के पन्ने फिर से खुलने के लिए मेरे सम्मुख फड़फड़ा रहे थे. टैलीग्राम पर उस का पता लिखा हुआ था, वह यहीं दिल्ली में ही है. क्या उस से मिल लूं? देखूं तो कैसा है? उस के परिवार से भी मिल लूं. पर यह मुलाकात हमारे शांतसुखी वैवाहिक जीवन में हलचल तो नहीं मचा देगी? दिल उस से मिलने के लिए उकसा रहा था, दिमाग कह रहा था पीछे मुड़ कर देखना ठीक नहीं रहेगा. मन तो हो रहा था, देखूंमिलूं उस से, 25 साल बाद कैसा लगता होगा. पूछूं ये साल कैसे रहे, क्याक्या किया, अपने बारे में भी बताऊं. फिर अचानक पता नहीं क्या मन में आया मैं चुपचाप स्टोररूम में चली गई. वहां काफी नीचे दबा अपना एक बौक्स उठाया. मेरा यह बौक्स सालों से यहीं पड़ा है. इसे कभी किसी ने नहीं छेड़ा. मैं ने बौक्स खोला, उस में एक और डब्बा था.

सामने अनिरुद्ध के कुछ पुराने पीले पड़ चुके, भावनाओं की स्याही में लिपटे खतों का 1-1 पन्ना पुरानी यादों को आंखों के सामने एक खूबसूरत तसवीर की तरह ला रहा था. न जाने कितनी भावनाओं का लेखाजोखा इन खतों में था. मुझे अचानक महसूस हुआ आजकल के प्रेमियों के लिए तो मोबाइल ने कई विकल्प खोल दिए हैं. फेसबुक ने तो अपनों को छोड़ कर अनजान रिश्तों को जोड़ दिया है.

सारा सामान अपनी गोद में फैलाए मैं अनगिनत यादों की गिरफ्त में बैठी थी जहां कुछ भी बनावटी नहीं होता था. शब्दों का जादू और भावों का सम्मोहन लिए ये खत मन में उतर जाते थे. हर शब्द में लिखने वाले की मौजूदगी महसूस होती थी. अनिरुद्ध ने एक पेपर पर लिखा था, ‘‘खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार. जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’’

मेरे होंठों पर एक मुसकराहट आ गई. आजकल के बच्चे इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पाएंगे. वे तो अपने प्रिय को मनाने के लिए सिर्फ एक आई लव यू स्माइली का सहारा ले कर बात कर लेते हैं. अनिरुद्ध खत में न कभी अपना नाम लिखता था न मेरा, इसी वजह से मैं इन्हें संभाल कर रख सकी थी. अनिरुद्ध की दी हुई कई चीजें मेरे सामने पड़ी थीं. उस का दिया हुआ एक पैन, उस का पीला पड़ चुका एक सफेद रूमाल जो उस ने मुझे बारिश में भीगे हुए चेहरे को साफ करने के लिए दिया था. मुझे दिए गए उस के लिखे क्लास के कुछ नोट्स, कई बार तो वह ऐसे ही कोई कागज पकड़ा देता था जिस पर कोई बहुत ही सुंदर शेर लिखा होता था.

स्टोररूम के ठंडेठंडे फर्श पर बैठ कर मैं उस के खत उलटपुलट रही थी और अब यह अंतिम टैलीग्राम. बहुत सी मीठी, अच्छी, मधुर यादों से भरे रिश्ते की मिठास से भरा, मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी पर कहां रख पाऊंगी भला, किसी ने देख लिया तो क्या समझा पाऊंगी कुछ? नहीं. फिर वैसे भी मेरे वर्तमान में अतीत के इस अध्याय की न जरूरत है, न जगह. फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं ने अंतिम टैलीग्राम को आखिरी बार भरी आंखों से निहार कर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मुझे उसे कहीं रखने की जरूरत नहीं है. मेरे मन में इस टैलीग्राम में बसी भावनाओं की खुशबू जो बस गई है. अब इसी खुशबू में भीगी फिरती रहूंगी जीवन भर. वह मुझे भूला नहीं है, मेरे लिए यह एहसास कोई ग्लानि नहीं है, प्यार है, खुशी है.

Family Story: लक्ष्मण रेखा – मिसेज राजीव कैसे बन गई धैर्य का प्रतिबिंब

Family Story: मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था. कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती. डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं. उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था. शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं. ‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी. पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया. ‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था. ‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है? ‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही. ‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’ ‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई. आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था. शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता. ‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’ ‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’ ‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था. ‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी. बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’ पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है. सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

Romantic Story: थोड़ी सी जमीन, सारा आसमान

Romantic Story: फरहा 5 सालों के बाद अपने शहर आ रही थी. प्लेन से बाहर निकलते ही उस ने एक लंबी सांस ली मानों बीते 5 सालों को इस एक सांस में जी लेगी. हवाईअड्डा पूरी तरह बदला दिख रहा था. बाहर निकल उस ने टैक्सी की और पुश्तैनी घर की तरफ चलने को कहा, जो हिंदपीढ़ी महल्ले में था.

5 सालों में शहर ने काफी तरक्की कर ली, यह देख फरहा खुश हो रही थी. रास्ते में कुछ मौल्स और मल्टीप्लैक्स भी दिखे. सड़कें पहले से साफ और चौड़ी दिख रही थीं. जींस और आधुनिक पाश्चात्य कपड़ों में लड़कियों को देख उसे सुखद अनुभूति होने लगी. कितना बदल गया है उस का शहर. उसे रोमांच हो आया.

रेहान सो चुका था. फरहा ने भी पीठ सीट पर टिका टांगों को थोड़ा फैला दिया. लंबी हवाईयात्रा की थकावट महसूस हो रही थी. आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया से वह अपने बेटे के साथ दिल्ली पहुंची थी. आना भी जरूरी था. 1 हफ्ते पहले ही अब्बू रिटायर हो कर अपने घर लौटे थे. अब सब कुछ एक नए सिरे से शुरू करना था. भले शहर अपना था पर लोग तो वही थे. इसी से फरहा कुछ दिनों के लिए अम्मांअब्बू के पास रहने चली आई थी ताकि घरगृहस्थी को नए सिरे से जमाने में उन की मदद कर सके.

तभी टैक्सी वाले ने जोर से ब्रेक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. उस ने देखा कि टैक्सी हिंदपीढ़ी महल्ले में प्रवेश कर चुकी है. बुरी तरह से टूटीफूटी सड़कों पर अब टैक्सी हिचकोले खा रही थी. उस ने खिड़की के शीशे को नीचे किया. एक अजीब सी बू टैक्सी के अंदर पसरने लगी. किसी तरह अपनी उबकाई को रोकते हुए उस ने झट से शीशा चढ़ा दिया. शहर की तरक्की ने अभी इस महल्ले को छुआ भी नहीं है. सड़कें और संकरी लग रही थीं. इन सालों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए छोटेछोटे घरों ने भूलभुलैया बना दिया था महल्ले को. उस के अब्बा का दोमंजिला मकान अलबत्ता सब से अलग दिख रहा था.

अब्बा और अम्मां बाहर ही खड़े थे.

‘‘तुम ने अपना फोन अभी बंद कर रखा है. राकेश तब से परेशान है कि तुम पहुंची या नहीं?’’ मिलते ही अब्बू ने पहले अपने दामाद की ही बातें कीं.

अचानक महसूस हुआ कि बंद खिड़कियों की दरारों से कई जोड़ी आंखें झांकने लगी हैं.

फ्रैश हो कर फरहा आराम से हाथ में चाय का कप पकड़े घर का, महल्ले का और रिश्तेदारों का मुआयना करने लगी.

एक 22-23 साल की लड़की सलमा फुरती से सारे काम निबटा रही थी.

‘‘कैसा लग रहा है अब्बू अपने घर में आ कर? अम्मां पहले से कमजोर दिख रही हैं. पिछले साल सिडनी आई थीं तो बेहतर थीं,’’ फरहा ने पूछा.

एक लंबी सांस लेते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कुछ भी नहीं बदला यहां. पर हां घर में बच्चे न जाने कितने बढ़ गए हैं… लोफर कुछ ज्यादा दिखने लगे हैं गलियों में. लड़कियां आज भी उन्हीं बेडि़यों में कैद हैं, जिन में उन की मांएं या नानियां जकड़ी रही होंगी. तुम्हारी शादी की बात अलबत्ता लोग अब शायद भूल चले हैं.’’

फरहा ने कमरे में झांका. नानीनाती आपस में व्यस्त दिखे.

‘‘अब्बू, मुझे लग रहा था न जाने रिश्तेदार और महल्ले वाले आप से कैसा व्यवहार करें. मुझे फिक्र हो रही थी आप की, इसलिए मैं चली आई. अगले हफ्ते राकेश भी आ रहे हैं.’’

फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोली, ‘‘फूफी के क्या हाल हैं?’’ और फिर फरहा अब्बू के पास आ कर बैठ गई.

‘‘अब छोड़ो भी बेटा. जो बीत गई सो बात गई. जाओ आराम करो. सफर में थक गई होगी,’’ कह अब्बू उठने लगे.

फरहा जा कर अम्मां के पास लेट गई. बीच में नन्हा रेहान नींद में मुसकरा रहा था.

पर आज नींद आ रही थी. कमरे में चारों तरफ जैसे यादों के फूल और शूल उग आए हों… जहां मीठी यादें दिल को सहलाने लगीं, वहीं कड़वी यादें शूल बन नसनस को बेचैन करने लगीं…

अब्बा सरकारी नौकरी में उच्च पद पर थे. हर कुछ सालों में तबादला निश्चित था. काफी छोटी उम्र से ही फरहा को होस्टल में रख दिया गया था ताकि उस की पढ़ाई निर्बाध चले. अम्मां हमेशा बीमार रहती थीं पर अब्बूअम्मां में मुहब्बत गहरी थी. अब्बू उस वक्त पटना में तैनात थे. उन्हीं दिनों फूफी उन के पास गई थी. अब्बू का रुतबा और इज्जत देख उस के दिल पर सांप लोट गया और फिर फूफी ने शुरू किया अब्बू के दूसरे निकाह का जिक्र, अपनी किसी रिश्ते की ननद के संग. अम्मां की बीमारी का हवाला दे पूरे परिवार ने तब खूब अपनापन दिखा, रजामंदी के लिए दबाव डाला था. अब्बू ने बड़ी मुश्किल से इन जिक्रों से पिंड छुड़ाया था. भला पढ़ालिखा आदमी ऐसा सोच भी कैसे सकता है. ये सारी बातें अम्मां ने फरहा को बड़ी होने पर बताई थीं. उसे फूफी और घर वालों से नफरत हो गई थी कि कैसे वे उस के वालिद और वालिदा का घर उजाड़ने को उतारू थे.

फरहा के घर का माहौल उस के रिश्तेदारों की तुलना में बहुत भिन्न था. उस के अब्बू की सोच प्रगतिशील थी. वह अकेली संतान थी और उस के अब्बू उस के उच्च तालीम के जबरदस्त हिमायती थे. उस से छोटी उस की चचेरी और मौसेरी बहनों का निकाह उस से पहले हो गया था. जब भी कोई पारिवारिक आयोजन होता उस के निकाह के चर्चे ही केंद्र में होते. यह तो अब्बू की ही जिद थी कि उसे इंजीरियरिंग के बाद नौकरी नहीं करने दी, बल्कि मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया.

जब वह इंजीनियरिंग के फाइनल वर्ष में था तो फूफी फिर घर आई थी. आते ही अम्मां से फरहा की बढ़ती उम्र का जिक्र शुरू कर दिया, ‘‘भाभी जान, मैं कहे देती हूं कि फरहा की उम्र इतनी हो गई है कि अब जानपहचान में उस के लायक कोई कुंआरा लड़का नहीं मिलेगा. भाईजान की तो अक्ल ही मारी गई है… भला लड़कियों को इतनी तालीम की क्या जरूरत है? असल मकसद उन की शादी है. अब देखो मेरा बेटा फीरोज कितना खूबसूरत और गोराचिट्टा है. जब से दुबई गया है खूब कमा भी रहा है… दोनों की जोड़ी खूब जमेगी.’’

बेचारी अम्मा रिश्तेदारों की बातों से पहले ही हलकान रहती थीं, फूफी की बातों ने उन के रक्तचाप को और बढ़ा दिया. वह तो अब्बूजी ने जब सुना तो फूफी को खूब खरीखटी सुनाई.

‘‘क्यों रजिया तुम ने क्या मैरिज ब्यूरो खोल रखा है… कभी मेरी तो कभी मेरी बेटी की चिंता करती रहती हो? इतनी चिंता अपने बड़े लाड़ले की की होती तो उसे 10वीं फेल हो दुबई में पैट्रोल पंप पर नौकरी नहीं करनी पड़ती. फरहा की तालीम अभी अधूरी है. मेरी प्राथमिकता उस की शादी नहीं तालीम है.’’

फूफी उस के बाद रुक नहीं पाई थी. हफ्तों रहने की सोच कर आने वाली फूफी शाम की ही बस से लौट गई.

सोचतेसोचते फरहा को कब नींद आ गई उसे पता नहीं चला.

सुबह रेहान की आवाज से उस की नींद खुली.

‘‘फरहा बाजी आप उठ गईं? चाय लाऊं?’’ मुसकराती सलमा ने पूछा.

चाय का कप पकड़े सलमा उस के पास ही बैठ गई. फरहा ने महसूस किया कि वह उसे बड़े ध्यान से देख रही है.

‘‘बाजी, अब तो आप सिंदूर लगाने लगी होंगी और बिंदिया भी? क्या आप अभी भी रोजे रखती हैं? क्या आप ने अपने नाम को भी बदल लिया है?’’

सलमा की इन बातों पर फरहा हंस पड़ी. बोली, ‘‘नहीं, मैं तो बिलकुल वैसी ही हूं जैसी थी. वही करती हूं जो बचपन से करती आ रही… तुम्हें ऐसा क्यों लगा?’’

‘‘जी, कल मैं जब काम कर लौटी तो महल्ले में सब पूछ रहे थे… आप ने काफिर से शादी की है?’’ सलमा ने मासूमियत से पूछा.

फरहा के अब्बू ने फूफी को तो लौटा दिया था. पर विवाद थमा नहीं था. आए दिन उस की तालीम बढ़ती उम्र और निकाह पर चर्चा होने लगी. धीरेधीरे अब्बू ने अपने पुश्तैनी घर आना कम कर दिया. फरहा अपनी मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए देश के सर्वश्रेष्ठ कालेज के लिए चुनी गई. अब्बू के चेहरे का सुकून ही उस का सब से बड़ा पारितोषिक था. कालेज में यों ही काफी कम लड़कियां थीं पर मुसलिम लड़की वह अकेली थी अपने बैच में. फरहा काफी होनहार थी. कालेज में बहुत सारी गतिविधियां होती रहती थीं और वह सब में काफी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती. सब उस के कायल थे.

इसी दौरान राकेश के साथ उसे कई प्रोजैक्ट पर काम करने को मिला. उस की बुद्धिमानी और शालीनता धीरेधीरे फरहा को आकर्षित करने लगी. संयोग से दोनों साथ ही समर इंटर्नशिप के लिए एक ही कंपनी के लिए चुने गए. नए शहर में उन 2 महीनों में दिल की बातें जबान पर आ ही गईं. दुनिया इतनी हसीं कभी न थी.

इंटर्नशिप के बाद फरहा 1 हफ्ते के लिए अब्बूअम्मां से मिलने दिल्ली चली गई. अब्बू की पोस्टिंग उस वक्त वहीं थी. अब्बू काफी खुश दिख रहे थे.

‘‘फरहा कुछ महीनों में तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो जाएगी. मेरे मित्र रहमान अपने सुपुत्र के लिए तुम्हारा हाथ मांग रहे हैं. मुझे तो उन का बेटा और परिवार सब बहुत ही पसंद है. पर मैं ने कह रखा है कि फैसला मेरी बेटी ही लेगी.’’

उस एक पल में फरहा की नसनस में तूफान सा गुजर गया. फिर खुद को संयत करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप जो फैसला लेंगे वह सही होगा अब्बूजी.’’

‘‘शाबाश बेटा, तुम ने मेरी लाज रख ली. सब कहते थे कि इतना पढ़लिख कर तुम भला मेरी बात क्यों मानोगी. मैं जानता था कि मेरी बेटी मुझ से अलग नहीं है. मैं कल ही रहमान को परिवार के साथ खाने पर बुलाता हूं.’’

सपना देखना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि नींद खुल गई. फरहा रात भर रोती रही.

बहते अश्कों ने बहुत सारे संशय सुलझा लिए. राकेश और वह नदी के 2 किनारे हैं. फरहा ने सोचा कि यह तो अच्छा हुआ कि उस ने अब्बूजी को अपनी भावनाओं के बारे में नहीं बताया. वैसे ही वे घरसमाज से लड़ मुझे उच्च तालीम दिला रहे हैं. अगर मैं ने एक हिंदू काफिर से ब्याह की बात भी की, तो शायद आने वाले वक्त में अपनी बेटीबहन को मेरी मिसाल दे उन से शिक्षा का हक भी छीना जाए. उसे सिर्फ अपने लिए नहीं सोचना चाहिए… फरहा मन को समझाने लगी.

दूसरे दिन ही रहमान साहब अपने सुपुत्र और बीबी के साथ तशरीफ ले आए. ऐसा लग रहा था मानो सिर्फ औपचारिकता ही पूरी हो रही है. सारी बातें पहले से तय थीं.

‘‘समीना, आज मुझे लग रहा है कि मैं ने फरहा के प्रति अपनी सारी जिम्मेदारियों को लगभग पूरा कर लिया है… आज मैं बेहद खुश हूं. निकाह फरहा की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही करेंगे. तभी सारे रिश्तेदारों को बताएंगे,’’ अब्बू अम्मां से कह रहे थे.

2 दिन बाद फरहा अपने कालेज अहमदाबाद लौट गई. लग रहा था राकेश मिले तो उस के कंधे पर सिर रख खूब रोए. पर राकेश सामने पड़ा तो वह भी बेहद उदास और उलझा हुआ सा दिखा. फरहा अपना गम भुला राकेश के उतरे चेहरे के लिए परेशान हो गई.

‘‘फरहा, मैं ने घर पर तुम्हारे बारे में बात की. पर तुम्हारा नाम सुनते ही घर में बवाल मच गया. मैं ने भी कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ किसी और से शादी कर ही नहीं सकता.

इस बार सब से लड़ कर आया हूं,’’ राकेश ने कहा तो फरहा ने भी कहा कि उस की हालत भी बकरीद पर हलाल होने वाले बकरे से बेहतर नहीं.

वक्त गुजरा. फरहा और राकेश दोनों की नौकरी दिल्ली में ही लगी. दोनों अब तक मान चले थे कि एक हिंदू लड़का और मुसलिम लड़की की शादी मुकम्मल हो ही नहीं सकती.

फरहा के निकाह की तारीख कुछ महीनों बाद की ही थी. एक दिन फरहा अपने अब्बू और अम्मां के साथ कार से गुड़गांव की तरफ जा रही थी कि सामने से आते एक बेकाबू ट्रक ने जोर से टक्कर मार दी. तीनों को गंभीर चोटें आईं. बेहोश होने से पहले फरहा ने राकेश को फोन कर दिया था.

अब्बू और अम्मां को तो हलकी चोटें आईं पर फरहा के चेहरे पर काफी चोटें आई थीं. नाक और ठुड्डी की तो हड्डी ही टूट गई थी. पूरे चेहरे पर पट्टियां थीं.

रहमान साहब और उन का परिवार भी आया हौस्पिटल उसे देखने. सब बेहद अफसोस जाहिर कर रहे थे. उस के होने वाले शौहर ने जब सब के सामने ही डाक्टर से पूछा कि क्या फरहा पहले की तरफ ठीक हो जाएगी तो डाक्टर ने कहा कि इस की उम्मीद बहुत कम है कि वह पहले वाला चेहरा वापस पा सकेगी. हां, शरीर का बाकी हिस्सा बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा… प्लास्टिक सर्जरी के बाद कुछ बदलावों के साथ वह एक नया चेहरा पा सकेगी, जिस में बहुत वक्त लगेगा.

वह दिन और आज का दिन रहमान परिवार फिर मिलने भी नहीं आया, अलबत्ता निकाह तोड़ने की खबर जरूर फोन पर दे दी.

दुख की घड़ी में उन का यों रिश्ता तोड़ देना बेहद पीड़ादायक था. अब्बू अम्मां उतना दुर्घटना से आहत नहीं हुए थे, जितना उन के व्यवहार से हुए. यह तो अच्छा था कि किसी रिश्तेदार को खबर नहीं हुई थी वरना और भद्द होती. फिलहाल, सवाल फरहा के ठीक होने का था. इस बीच राकेश उन का संबल बना रहा. हौस्पिटल, घर, औफिस और फरहा के अब्बू अम्मां सब को संभालता. वह उन के घर का एक सदस्य सा हो गया.

उस दिन अब्बू ने हौस्पिटल के कमरे के बाहर सुना, ‘‘फरहा प्लीज रो मत. तुम्हारी पट्टियां कल खुल जाएंगी. मैं हूं न. मैं तुम्हारे लिए जमीन आसमान एक कर दूंगा. जल्द ही तुम औफिस जाने लगोगी.’’

‘‘अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’ यह फरहा की आवाज थी.

‘‘बंदा सालों से इंतजार कर रहा है. अब तो मां भी हार कर बोलने लगी हैं कि कुंआरा रहने से बेहतर है जिस से मन हो कर लो शादी… पट्टियां खुलने दो… एक दिन मां को ले कर आता हूं.’’

राह के कांटे धीरेधीरे दूर होते गए. राकेश के घर वाले इतनी होनहार और उच्च शिक्षित बहू पा कर निहाल थे. उस के गुणों ने उस के दुर्घटनाग्रस्त चेहरे के ऐब को ढक दिया था. पहले से तय निकाह की तारीख पर ही दोनों की कोर्ट मैरिज हुई और फिर हुआ एक भव्य रिसैप्शन समारोह, जिस में दोनों तरफ के रिश्तेदारों को बुलाया गया. दोनों ही तरफ से लोग न के ही बराबर शामिल हुए. हां, दोस्त कुलीग सब शामिल हुए. कुछ ही दिनों के बाद राकेश की कंपनी ने उसे सिडनी भेज दिया. दोनों वहीं चले गए और खूब तरक्की करने लगे.

फरहा की शादी के बाद अब्बू एक बार अपने शहर, अपने घर गए थे. महल्ले के लोगों ने उन की खूब खबर ली. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन्हें डांटा भी. रात में उन के घर पर पथराव भी किया. किसी तरह पुलिस बुला अब्बू और अम्मां घर से निकल पाए थे.

‘‘अब्बूजी, आप किस से बातें कर रहे थे?’’ फरहा ने पूछा.

‘‘अरे, तुम्हारी फूफी जान थी. बेचारी आती रहती है मुझ से मदद लेने. बेटे तो उस के सारे नालायक हैं. कोई जेल में तो कोई लापता. बेचारी के भूखों मरने वाले दिन आ गए हैं,’’ अब्बूजी ने कहा.

‘‘फरहा उस रात हमारे घर पर इसी ने पथराव करवाया था… अपने लायक बेटों से. हम ने तुम्हारी शादी इस के बेटे से जो नहीं कराई थी. सारे महल्ले वालों को भी इस ने ही उकसाया था. बहुत साजिश की इस ने हिंदू लड़के से तुम्हारी शादी करने के हमारे फैसले के खिलाफ,’’ अम्मा ने हंसते हुए कहा.

‘‘यह जो सलमा है न. इस वर्ष वह 10वीं कक्षा की परीक्षा दे रही है. वह भी तुम्हारी तरह तालीमयाफ्ता होने की चाहत रखती है.’’

‘‘सिर्फ मैं ही क्यों महल्ले की हर लड़की आप के जैसी बनना चाहती है,’’ यह सलमा थी, ‘‘काश, सब के अब्बू आप के अब्बू जितने समझदार होते,’’ कह सलमा फरहा के गले लग गई.

Family Story: झुनझुना – आखिर क्यों रिना को गुस्सा नहीं आता था

Family Story: आत्मनिर्भर बनने के भाषण ने नेताओं जैसे गुणों वाले मेरे घर के 3 तेज बुद्धि वालों को और सयाना बना दिया. भाषण का असर किसी पर हुआ हो या न, इन 3 सयानों के चेहरों की चमक देखने वाली थी.

मैं चुप रही. कोरोना टाइम में चौबीसों घंटे सब को झेलझेल कर इन की नसनस पहचानने लगी हूं. रातदिन देख रही हूं सब को. सरकार सा हो गया है घर मेरा. करनाधरना कम, शोर ज्यादा.

मुझे अपना अस्तित्व किसी मूर्ख, गरीब जनता जैसा लगता है. एक जरूरी काम बताती हूं, तो ये दस जगह ध्यान भटकाने की कोशिश करते हैं. कोशिश रहती है कि कोई जिम्मेदारी इन के ऊपर न आए. कोरोनाकाल में आजकल हाउसहैल्प नहीं है, तो इन सयानों को घर के कामों में कम से कम ही हाथ बंटाना पड़े.

मयंक कहने लगे, “रीना, वैसे सब काम मैनेज हो ही रहा है न, तो अब तुम पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई हो. अब तो तुम्हें आशाबाई की भी जरूरत नहीं लगती न, प्राउड औफ़ यू, डिअर.”

मैं फुंफकारी, ”उस के बिना हालत खराब है मेरी. चुपचाप काम किए जा रही हूं, तो इस का मतलब यह नहीं कि बहुत अच्छा लग रहा है. तुम तीनों तो किसी काम को हाथ तक नहीं लगाना चाहते. पता नहीं कैसे इतने सौलिड बहाने देते हो कि चुप ही हो जाती हूं.‘’

मलय को अचानक कुछ याद आया, ”मौम, आप को पता है कि विपिन की मौम घर पर ही पिज़्ज़ा बेस बना लेती हैं. कल इंस्टाग्राम पर विपिन ने पिक डाली, तो मैं ने उस से पूछा था कि सब शौप्स तो बंद हैं, तुम्हें पिज़्ज़ा बेस कहां से मिल गया? मौम, उस ने गर्व से बताया कि उस की मम्मी को पिज़्ज़ा बेस घर पर बनाना आता है.”

मैं ने उसे घूरा तो उस ने टौपिक बदलने में ही अपनी भलाई समझी. पर, उस ने मेरी दुखती रग तो छू ही दी थी. सो, मैं शुरू हो गई, ”तुम लोग हाथ मत बंटाना, बस, मुझे यह बता दिया करो कि और घरों में क्याक्या बन रहा है. मलय, उस से यह पूछा कि उन के घर में भी कोई घर के कामों में हैल्प कर रहा है या नहीं? बस, मां को ही आत्मनिर्भर बनाना है सब को?”

मौली कम सयानी थोड़े ही है, एक कुशल नेता की तरह मीठे स्वर में मौके की नजाकत देख कर कहा, ”मलय, मौम कितना काम कर रही हैं आजकल, देखते हो न. अब ऐसे में उन से पिज़्ज़ा बेस भी बनाने की ज़िद न करो. मेरे भाई, मौम जो बनाती हैं, ख़ुशीख़ुशी खा लो. उन के हाथ में तो इतना स्वाद है, जो भी बनाती हैं, अच्छा ही होता है. मौम, आप को जिस चीज में मेहनत कम लगे, वही बनाया करो. हम तो वर्क फ्रौम होम में फंस कर आप की हैल्प नहीं कर पाते. लव यू, मौम,” ‘कहतेकहते उस ने मेरे गाल चूम लिए. और मैं एक गरीब जनता की तरह फिर सब के झांसे में आ कर, सब भूल दुगने जोश से काम करने लगी.

मौली ने एक झुनझुना पकड़ा ही दिया था. लौकडाउन शुरू होने पर मेरे मूर्ख बनने की जो प्रक्रिया शुरू हुई, वह ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मैं बारबार इन सयानी बातों में फंसती हूं. तीनों ने मुझे काफी समझाया. एक भाषण काफी नहीं था आत्मनिर्भर बनने का, 3 और सुने.

मयंक उन में से हैं जो ऐसे भाषण को काफी गंभीरता से लेते हैं. जो कह दिया गया, बस, वही करेंगे. बुद्धि गई तेल लेने. कई बार सोचती हूं, इतना ध्यान अगर अपने पिताजी के भाषणों पर दिया होता, तो पता नहीं आज क्या बन गए होते. सेल्स की नौकरी में कमाखा तो अभी भी रहे हैं, पर पिताजी के भाषण तो बेकार गए न.

उन्हें तो मयंक को डाक्टर बनाना था. आज लगता है अगर टीवी पर भाषण में सुनते कि डाक्टर बनना है तो मेहनत शायद कर लेते, पर पिताजी की बात में टीवी के भाषण जैसा दम थोड़े ही था. मयंक अकसर कहते हैं, ‘मुझ पर ऐसे भाषणों का असर कहां होता है. मुझे तो रोज बढ़ती महंगाई में खींचतान कर घर का बजट देखना पड़ता है.’ मैं समझ गई कि मुझे आत्मनिर्भर बनाने के लिए तीनों एड़ीचोटी का जोर लगा देंगे.

मुझे कोई शौक नहीं आत्मनिर्भर बनने का. नहीं हो रहा है मुझ से अब अकेले घर का काम. मुझे आशाबाई भी चाहिए, इन लोगों की हैल्प भी चाहिए. घर में रहरह कर सब का हर समय कोई न कोई शौक जागा करता है जिसे पूरा मुझे करना होता है. एक दिन मलय ने कहा, मौम, चलो, घर की सैटिंग कुछ चेंज करते हैं, एक चीज एक तरह से देखदेख कर बोर हो गए.”

मैं ने कहा, ‘हां, क्यों नहीं. चलो, झाड़ू ले आओ. सामान इधरउधर हटेगा, तो नीचे की सफाई भी हो जाएगी, वरना सामान रोज तो हटता नहीं है.”

फौरन एक नेता की तरह पलटी मार दी महाशय ने, ”मौम, इस से तो आप का काम और बढ़ जाएगा. छोड़ो, फिर कभी करते हैं.”

”नहींनहीं, काम क्या बढ़ना, तुम हैल्प करवा रहे हो न!”

”मौम, कुछ काम याद आ गया अचानक, लैपटौप पर बैठना पड़ेगा, फिर कभी करते हैं. सैटिंग इतनी भी बुरी नहीं है.”

मौली को एक दिन कहा, ”आज तुम डिनर बना लेना. पता नहीं, मन नहीं हो रहा है कुकिंग का, बोर हो गई रातदिन खाना बनाबना कर.”

मौली ने अपनी मनमोहक मुसकान से कहा, “हां, मौम, बना लूंगी.” फिर उस ने मेरी कमर में बांहें डालीं और मेरे साथ ही लेट गई और बोली, ”लाओ मौम, आप की कमर दबा दूं?”

मैं झट से उलटी हो गई, ”हां, दबा दो.” यह मौका छोड़ दूं, इतनी भी मूर्ख नहीं हूं मैं. ऐसे दिन बारबार तो आते नहीं कि कोई कहे, आओ, कमर दबा दूं. कुछ ही सैकंड्स बीते होंगें, मैं सुखलोक में पहुंची ही थी कि मौली का मधुर स्वर सुनाई दिया, “मौम, जब आप को ठीक लगे, एक शार्ट कट मारोगी?”

”क्या, फिर से बोलो, बेटा?”

”किसी दिन सिर्फ मटर पुलाव बनाओगी? रायता मैं बना लूंगी. बहुत दिन हो गए, मलय तो आप को बनाने नहीं देता, पूरा खाना चाहिए होता है उसे तो.‘’

”हां, ठीक है, बना दूंगी”

बेटी इतने प्यार से अपना कामधाम छोड़ कर मेरे साथ लेटी थी, मैं तो वारीवारी जा रही थी उस पर मन ही मन. थोड़ी देर बाद वह अपने रूम में चली गई. उस की फ्रैंड का फोन था, जातेजाते बोली, “टेक रैस्ट, मौम.”

थोड़ी देर बाद मैं ने यों ही लेटेलेटे मौली को सरप्राइज देने का मन बना लिया, कि मैं आज ही मटरपुलाव बना लूंगी उस की पसंद का, खुश हो जाएगी वह. और मैं ने डिनर में सचमुच खुद ही सब बना लिया. बीचबीच में मौली आ कर हैल्प औफर करती रही, मैं मना करती रही थी.

डिनर टेबल पर सब को हंसतेमुसकराते देख मुझे अचानक याद आया कि अरे, आज तो मेरा कुकिंग का मूड ही नहीं था. मौली पर जिम्मेदारी सौंपी थी डिनर की. और मैं ही उस के लिए मटरपुलाव, रायता और मलय के लिए स्टफ्ड परांठे बनाने में जुट गई. ओह, मूर्ख जनता फिर ठगी गई. मुझे मीठीमीठी बातों में फिर फंसा लिया गया. मुझे गुस्सा आ गया, कहा, ”मैं तुम लोगों से बहुत नाराज हूं, कोई मेरी हैल्प नहीं करता. बस, सब से डायलौग मरवा लो. मर जाऊंगी काम करतेकरते, तुम लोग, बस, लाइफ एंजौय करो.”

मयंक ने मुझे रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”मेरी रीनू, हम लोगों से गुस्सा हो ही नहीं सकती. अभी तो यह टैस्टी पुलाव खाने दो. एक बार औफिस में कपिल पुलाव लाया था, इतना बेकार था, सारे चावल के दाने चिपके हुए थे. और एक आज तुम्हारा बनाया हुआ पुलाव, देखो, कैसे खिलाखिला है एकएक दाना. वाह, खाना बनाना कोई तुम से सीखे. सच बताऊं, जो भी बनाती हो, शानदार होता है. वाह, ऐक्सीलैंट.”

मैं, हूं तो एक नारी ही न, तारीफ़ सुन कर सब भूल गई. दिल किया, अपनी जान निसार कर दूं सब पर. इतराते हुए पूछ बैठी, “कल क्या खाओगे, क्या बनाऊं?”

मलय ने मौका नहीं छोड़ा, फरमाइश सब से पहले की, ”मौम,छोलेभठूरे.”

”ओके, बनाऊंगी.”

फिर मौली कह बैठी, ”मौम, मेरी हैल्प तो नहीं चाहिए होगी न? कल मेरी कई वर्कशौप्स हैं दिनभर.”

मेरा मुंह उतरा, तो एक सयाने ने संभाल लिया, मलय ने कहा, ”मैँ करवा सकता हूं हैल्प, पर लंचटाइम में, तब तक आप मेरी हैल्प का वेट कर पाओगी, मौम?”

मैं ने थोड़ा झींकते हुए कहा, “मुझे किसी से कोई उम्मीद ही नहीं है कि मुझे हैल्प मिलेगी. यह कोरोना टाइम मेरी जान ले कर ही रहेगा. कोरोना से भले ही बच जाऊं, ये काम मुझे मार डालेंगे. बस, तुम लोग सुबह लैपटौप खोल लिया करो, बीचबीच में सोशल मीडिया पर घूम लिया करो, दोस्तों से बातें कर लिया करो. बस, यही करते हो और यही करते रहो तुम लोग.”

इतने में दूसरे सयाने ने माहौल में बातों की जादू की छड़ी घुमाने की कोशिश की. मयंक बोले, ”तुम बहुत दिन से नई वाशिंग मशीन लेने के लिए कह रही थीं न, आजकल सेल चल रही है. मैं ने देख ली है. चलो, तुम्हें दिखाता हूं. आओ, लैपटौप लाता हूं.” यह कह कर मयंक उठे. बच्चे भी नौटंकी करने लगे, बोले, मौम, देखो, पापा कितना ध्यान रखते हैं, आप के लिए नई वाशिंग मशीन आ रही है.”

मैँ क्या कहती, मुझे तो ऐसे ही घुमा दिया जाता है जैसे कि आजकल जनता किसी भी बात पर अपना हक़ जताने की कोशिश करे और उसे कोई झुनझुना हर बार पकड़ा दिया जाए. मैँ आजकल इन्हीं झुनझुनों में घूमती रहती हूं. वाशिंग मशीन का और्डर दे दिया गया.

आजकल कहीं बाहर तो निकल ही नहीं रहे हैं, तो सबकुछ औनलाइन ही तो आ रहा है. बस, काम करते रहो, कहीं आनाजाना नहीं. मेरे फ़्रस्ट्रेशन की कोई सीमा नहीं है आजकल. कब आशाबाई आएगी, कब मैँ चैन की सांस लूंगी. गुस्सा तब और बढ़ जाता है जब मैँ कहती हूं कि आशाबाई को बुला लेते हैं, तीनों एकसुर में कहते हैं, कि अरे, बिलकुल सेफ नहीं है उसे बुलाना. तुम हमें बताओ, किस काम में उस की हैल्प चाहिए.

मैँ जब हैल्प के लिए बताती हूं तो सब गायब हो जाते हैं. यह है आजकल मेरी हालत. तभी मैं खुद को मूर्ख जनता की तरह पाती हूं. जैसे ही आवाज उठाती हूं, झुनझुने पकड़ा दिए जाते हैं मुझे. तीनो ऐसे सयाने हैं कि घर के काम नहीं करने, बस, मौली तो मुंह बिसूर कर कहती है, “मौम, कहां आदत है, इतने काम…”

काम न करने पड़ें, इस के लिए सारे पैतरे आजमाए जा रहे हैं. वाशिंग मशीन आ गई. सब को लगा कि मैँ अब कुछ दिन तो उस में लगी रहूंगी, खुश रहूंगी. पर कितने दिन… काम थोड़े ही कम हो गए मेरे. एक रात को मैं ने अत्यंत गंभीर स्वर में कहा, ”कल सुबह उठते ही मुझे तुम तीनों से जरूरी बात करनी है.”

मेरे स्वर की गंभीरता पर तीनों चौंके, क्या हुआ? अभी बता दो.”

”परेशान हो चुकी हूं, सुबह ही बात करेंगे. मैँ कोई नौकर थोड़े ही हूं कि दिनरात, बस, काम ही करती रहूं,” कह कर मैँ पैर पटकते हुए सोने चली गई. अभी 10 ही बजे थे, पर आज मैँ बहुत थक गई थी.

मुझे आहट मिली कि तीनों एक रूम में ही बैठ गए हैं. मैं ने सोच लिया था कि कल मैँ तीनों को कोई काम न करने पर बुरी तरह डांटूंगी, लड़ूंगी, चिल्लाऊंगी. हद होती है कामचोरी की. और मैँ फिर जल्दी सो भी गई. सुबह उठी, तो भी मुझे रात का अपना गुस्सा और शिकायतें याद थीं. बैड पर लेटेलेटे सोचा कि आज बताती हूं सब को, कोई हैल्प नहीं करेगा तो मैं अकेले भी नहीं करने वाली सारे काम. हद होती है, सैल्फिश लोग.

तीनों अभी सोये हुए थे. मैं ने जैसे ही लिविंगरूम में पैर रखा, मेरी नजर कौर्नर की शैल्फ पर रखी अपनी मां की फोटो पर पड़ी. मेरी आंखें चमक उठीं. पास में जा कर फोटो को निहारती रह गई. ओह, किस ने रखी यह मेरी प्यारी मां की इतनी सुंदर फोटो यहां पर. मैं फोटो देखती रही. यह इन लोगों ने लगाई है रात में. लेकिन यह फोटो तो मेरी अलमारी में रहती है. ये बेचारे वहां से कैसे निकाल कर लाए होंगे कि आहट से मेरी आंख भी न खुली.

मैं ने फ्रेश हो कर अपनी मां को फोन मिला दिया और बताया कि रात को उन की फोटो कैसे तीनों ने मुझे सरप्राइज देने के लिए लगा दी है. मां को बहुत ख़ुशी हुई, तीनों को खूब प्यार व आशीर्वाद कहती रहीं. मैं सब भूल, अब, मां से इन तीनों की तारीफ़ क्यों किए जा रही थी, मुझे एहसास ही नहीं हुआ. मैं चाय पी ही रही थी कि तीनों उठे. मैं ने उन्हें थैंक्स कहा. वे मुसकराते हुए फ्रेश हो कर अपने काम में बिजी हो गए.

ब्रेकफास्ट मैं ने उन तीनों की पसंद का ही बनाया. जिस में मुझे एक्स्ट्रा टाइम लगा तो मुझे फिर अपने पर गुस्सा आने लगा. मेरा ध्यान फिर इस बात पर गया कि फिर मुझे रात में नाराज देख कर मां की फोटो का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है. अभी बताती हूं सब को, चालाक लोग…कैसे मेरा गुस्सा शांत किया, कितने तेज हैं सब. बताती हूं अभी. मैं ने सीरियस आवाज़ में कहा, ”आओ सब, जरा बात करनी है मुझे.”

तीनों ने आते हुए एकदूसरे को देख कर इशारे किए. मेरी आंखों से छिपा न रहा. फिर मौली और मलय को मैं ने मयंक को कुछ इशारा करते हुए देखा. मुझे पता है कि मेरे गुस्से से बचते हैं तीनों. वैसे तो मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता, पर, जब आता है तो मैं काफी मूड खराब करती हूं. हम चारों बैठ गए. मैं ने रूखी आवाज में कहा, “सब सामने ही रखा है, खुद ले लो. मेहमान तो हो नहीं कोई, कि परोसपरोस कर सब की प्लेट लगाऊं. और मुझे, तुम लोगों से यह कहना है कि अब से…”

मयंक ने मेरी बात पूरी नहीं होने दी, बहुत भावुक हो कर बोला, ”नहीं, पहले मुझे बोलने दो, रीनू. हम तीनों ने सोचा है कि हम हर बार कुछ भी खाने से पहले इतनी मेहनत कर के हमें खिलाने वाले को, तुम्हे, थैंक्स कहा करेंगे, थैंक्यू, रीनू, कितना करती हो तुम हम सबके लिए. बिना किसी की हैल्प के, इतने काम करना आसान नहीं है. वी लव यू, रीनू.”

”थैंक्यू मौम.”

बच्चों ने भी इतने प्यार से कहा कि मैं रोतेरोते रुकी. मन में आया, मैं ही ओवररिऐक्ट तो नहीं कर रही थी. बेचारे खाने से पहले मुझे थैंक्स बोल रहे हैं. किस के घर में यह सब होता है. ओह, कितने प्यारे हैं तीनों. देखते ही देखते मैं उन सब को प्यार से हर चीज सर्व कर रही थी. मेरी जबान से शहद टपक रही थी. मुझे फिर लच्छेदार बातों का एक झुनझुना पकड़ा दिया गया था, इस का एहसास मुझे बाद में फिर हुआ. मूर्ख जनता सी मैं एक बार फिर ठगी गई थी.

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