हरिराम- भाग 2: शशांक को किसने सही राह दिखाई

शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था. कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.

रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा. ‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’

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‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’ ‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.

दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.

लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए. खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.

उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई. शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.

हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला. ‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले. शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.

‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’ शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.

‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’ ‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’

‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’ अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.

शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई. एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.

‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.

शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की. ‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.

शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी. ‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.

‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’ ‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.

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दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’

दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना. ‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.

‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था. ‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.

‘‘यों ही बैठी हूं.’’ ‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’

एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी. शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.

‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’ ‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.

शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी. ‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’

शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया. ‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’

रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’

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पुनर्मरण- भाग 2: शुचि खुद को क्यों अपराधी समझती थी?

बचपन से ही मैं दबंग स्वभाव की थी. मम्मी और पापा दोनों ही नौकरी में थे. घर पर मैं और मुझ से छोटा भाई बस, हम दोनों ही रहते. मां ने यही सिखाया था कि कभी अन्याय न करना और न सहना. हमेशा सच का साथ देना. मेरा पूरा परिवार खुले विचारों का था. मेरी परवरिश इस तरह के माहौल में हुई तो जाहिर है मैं रूढि़यों को न मानने वाली और हमेशा सही का साथ देने वाली बन गई.

बी. एड. में मैं ने प्रवेश लिया था. पहला साल था कि विभु के घर से विवाह के लिए रिश्ता आ गया. मैं शादी से कतरा रही थी पर मां ने समझाया, ‘शुचि, विभु प्रवक्ता है. यानी एक पढ़ालिखा इनसान. तेरा भी पढ़ाई में रुझान ज्यादा है. शादी कर ले, वह तुझे अच्छी तरह समझेगा और जितना पढ़ना चाहेगी पढ़ाएगा भी.’

शादी के बाद जब मैं विभु के घर पहुंची तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गई कि विभु बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. विभु ने शादी की रात में ही मुझ से कह दिया था, ‘शुचि, मैं पूजापाठ करता हूं, पर तुम से इतना वादा करता हूं कि तुम्हें यह सब करने के लिए मैं कभी बाध्य नहीं करूंगा. हां, जहां जरूरत होगी वहां साथ जरूर रखूंगा.’

उन दिनों मेरी बी. एड. की परीक्षा चल रही थी, नवरात्र का समय था. सुबह विभु उठ कर शंख, घंटी से पूजा करते. मेरी आदत सुबहसुबह उठ कर पढ़ने की थी. इस शोर से मैं पढ़ नहीं पाती. आखिर मैं ने विभु से कह दिया. उस दिन से विभु मौन पूजा करने लगे. बल्कि मां को भी सुबह जोर से मंत्रोच्चारण करने को मना कर दिया.

हमारा जीवन एक खुशहाल जीवन कहा जा सकता है. शादी के शुरुआती दिनों में हम जहां भी घूमने जाते वहां के मंदिरों में जरूर जाते. मैं तटस्थ ही रहती थी, कभी भी विभु को इस के लिए मना नहीं करती. आखिर अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सभी को हक है. जब मैं अपना खाली समय पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताती तो विभु भी नहीं बोलते. हमारे प्यार के बीच एक आपसी समझौता हम दोनों ने कर रखा था.

4 वर्ष बाद त्रिशंक पैदा हुआ. बी.एड. के बाद मैं नौकरी करने लगी थी. त्रिशंक दादी के पास रहता और उस का बचपन दादी की परी, बेताल और धार्मिक किस्सेकहानियों में बीता. इसी कारण वह बचपन से धर्म के मामले में संकीर्ण हो गया.

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आदित्य के समय तक मैं ने नौकरी छोड़ दी. अपना पूरा समय मैं बच्चों और परिवार में बिताती. बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे. एक ने कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की, दूसरा अमेरिकन बैंक में लग गया. दोनों ही विदेश चले गए. बड़े ने मेरी देखी हुई लड़की से शादी की परंतु छोटे ने विदेश मेें अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह कर लिया. उस के विवाह में हम सब गए थे. मांजी खूब बड़बड़ाई थीं पर विभु नाराज नहीं हुए थे.

विभु का रिटायरमेंट करीब था. मेरे पास भी समय था. बच्चों के बाहर बसने से मेरे लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया था, सो मैं समाजसेवा से जुड़ गई.

एक दिन बैठेबैठे यों ही विभु के मुंह से निकल गया, ‘शुचि, हमारी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं. चलो, तीर्थ कर आएं.’

मैं हंस दी तो वह भी हंस दिए. बोले, ‘मैं जानता हूं शुचि, तुम पूजापाठ में विश्वास नहीं रखती हो. पर मैं मजबूर हूं. बचपन से ही मां ने मेरे अंदर यह भावना बिठा दी है कि भगवान ही सबकुछ है. जो कुछ भी करो उसे सपर्पित कर के करो. बस, मैं यही कर रहा हूं.’

मैं ने अनायास ही पूछ लिया, ‘आप ने ईश्वर देखा है क्या?’

‘नहीं, पर मैं मानता हूं कि यह धरती, आकाश, परिंदे और वृक्षों को बनाने वाला ईश्वर है.’

विभु थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर बाहर टहलने चले गए. उन के ध्यान और योग को मैं अच्छा मानती थी. इन दोनों चीजों से व्यक्ति का मस्तिष्क और शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं.

जुलाई का महीना था. अपने तय कार्यक्रम के अनुसार हम हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक नजारों को देखते धार्मिक स्थानों पर घूमते हुए कटरा पहुंचे थे ताकि वैष्णोदेवी का स्थान देख कर दर्शन कर सकें. कई दिनों की लगातार थकावट से बदन का पोरपोर दुख रहा था. विभु को तभी सांस की तकलीफ होने लगी थी. बाणगंगा पर ही मैं ने जिद कर के उन के लिए घोड़ा करवा दिया ताकि उन की सांस की तकलीफ और न बढ़े.

घोड़े पर बैठ कर जब हम चले तो मुझे डर भी लग रहा था. यह घोड़े अजीब होते हैं. कितनी भी जगह हो पर चलेंगे एकदम किनारे. गजब की सधी हुई चाल होती है इन की. नीचे झांको तो कलेजा मुंह को आ जाए, गहरीगहरी खाइयां.

सवारी की वजह से हम जल्दी ही मंदिर देख कर नीचे वापस आ गए. हमारी इस यात्रा में पटना का एक परिवार भी शामिल हो गया. मेरा थकावट से बुरा हाल था. रात हो गई थी. लौटतेलौटते भूख भी लग रही थी और विश्राम करने की इच्छा भी हो रही थी.

पटना वालों ने बताया कि नीचे बाणगंगा के पास लंगर चलता है, चल कर वहीं भोजन करते हैं. घोड़े वाले ने कहा कि भोजन कर के चले चलिए तो रात में ही होटल पहुंच जाएंगे. फिर वहां आराम करिएगा.

लंगर में लोग खाने के लिए लाइन लगाए खड़े थे. सब तरफ हलवा बांटा जा रहा था. मैं ने गौर किया कि थालियां ठीक से धुली नहीं थीं फिर भी उन में खाना परोस दिया जा रहा था. थालियां ऐसे बांटी जा रही थीं मानो हाथ नहीं मशीन हो. मैं विभु के साथ हाथमुंह धो कर बैठ गई.

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‘चलो, दर्शन हो गए, अब घर चल कर एक हवन करा लेंगे.’

मैं होंठ दबा कर हंसी तो विभु ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. हवन का आशय मेरी समझ से दूसरा था. पिताजी ने ही एक बार समझाया था कि हवन के धुएं से पूरा घर साफ हो जाता है. कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं.

भोजन की लाइन में बैठ विभु उस समय काफी तरोताजा लग रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी थी. लंगर की यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है, जहां एक ही कतार में सेठ भी खाते हैं और उन के मातहत भी. यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है.

अचानक मुझे जोर की उबकाई आई. मैं उठ कर बाहर भागी. शायद कुछ न खाने की वजह से पेट में गैस बन गई थी. मैं मुंह धो कर हटी ही थी कि एक जोर का धमाका हुआ और  सारा वातावरण धुएं और धूल से भर गया. लोग जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगे, एकदूसरे पर गिरने लगे. विभु का ध्यान आते ही मैं पागलों की तरह उधर भागी पर वहां धुएं की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. 10 मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक और जोरदार धमाका हुआ. आतंकवादियों ने कहीं से गोले फेंके थे. मेरे पेट में जोर की ऐंठन हुई और लाख न चाहने के बावजूद मैं अचेत हो कर वहीं गिर पड़ी.

मुझे जब होश आया, भगदड़ कुछ थम गई थी. मैं जमीन पर एक तरफ पड़ी थी. प्रेस वाले और पुलिस वाले वहां मौजूद थे. मैं ने हिम्मत कर के उठने की कोशिश की. मैं जानना चाहती थी कि विभु कहां हैं. पर किस से पूछती, हर कोई अपने साथ वाले के लिए बेचैन था. लोग आपस में बात कर रहे थे कि आतंकवादियों ने कहीं से बम फेंका है जिस में लगभग 7 लोगों की जान चली गई है. कई गंभीर अवस्था में घायल पड़े हैं जिन्हें कटरा अस्पताल ले जाया जा रहा है.

उलटी गंगा- भाग 1: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

‘‘देशमें लाखों युवा बेरोजगार घूम रहे हैं. किसान आत्महत्या कर रहे हैं, देश बदहाली की ओर जा रहा है और यहां लोग फालतू की बातों में समय बरबाद कर रहे हैं. अरे, मैं पूछता हूं और कोई काम नहीं बचा है क्या इन औरतों के पास, जो मीटू मीटू का नारा लगाए जा रही हैं.

मैं पूछता हूं कि जिस समय इन का शोषण हुआ, तब क्यों नहीं आवाज उठाई, जो अब चिल्ला रही हैं? झूठा प्रचार कर रही हैं, षड्यंत्र रच रहीं पुरुषों के खिलाफ और कुछ नहीं या फिर हो सकता है फेम में रहने के लिए ये मीटू अभियान से जुड़ गई हों. बंद करो टीवी, कुछ नहीं रखा है इन सब में,’’  झल्लाते हुए योगेश ने खुद ही टीवी औफ कर दिया और फिर रिमोट को एक तरफ फेंकते हुए औफिस जाने के लिए तैयार होने लगा.

‘‘अच्छा, ये औरतें बकवास कर रही हैं और तुम सारे मर्द दूध के धुले हो, क्यों?’’ रोटी को तवे पर पटकती हुई नीलिमा कहने लगी, ‘‘हूं, स्वाभाविक भी है जिस समाज में महिला की चुप्पी को उस की शालीनता और गरिमामय व्यक्तित्व का मूलाधार माना जाता रहा हो, वहां शोषण के विरुद्ध उस की आवाज झूठी ही मानी जाएगी?’’ नीलिमा तलखी से बोली.

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‘‘मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं, पर अब

10-20 या 30 साल पुरानी बातों को कुरेदने का क्या मतलब है बताओ? जब उन के साथ ऐसा कुछ हुआ था तब क्यों नहीं आवाज उठाई थी

जो अब चिल्ला रही हैं, मैं यह कह रहा हूं,’’ शर्ट का बटन लगाते हुए योगेश बोला.

योगेश की बातों पर नीलिमा को हैरानी भी हुई और गुस्सा भी आया. बोली, ‘‘तुम्हें यह चीखनाचिल्लाना लगता है पर मुझे तो इस में एकदम सचाई नजर आ रही है योगेश. दरअसल, गलती सिर्फ मर्दों की ही नहीं, समाज की भी है, जहां प्रताडि़त होने के बाद भी लड़कियों को ही चुप रहने को कहा जाता है.

‘‘अगर औफिस में लड़कियां शोषण के प्रति आवाज उठाती हैं, तो नौकरी चली जाती है और घरेलू महिला ऐसा करे, इतनी उस की हिम्मत कहां. समाज में औरतों को बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है कि वे शर्म का चोला पहन कर रखें. मगर मर्दों के लिए खुली छूट क्यों? महिलाएं क्या पहनें क्या नहीं, यह उन की अपनी मरजी होनी चाहिए न कि दूसरों की. फिर वैसे भी शर्महया देखने वालों की आंखों में होती है योगेश, कपड़ों या आचरण में नही. लेकिन लद गया अब वह जमाना.

‘‘सच कहूं, तो मुझे बड़ी खुशी हो रही है यह देख कर कि भारत के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है जब पुरुष भयभीत दिखाई दे रहे हैं कि कहीं उन के वर्षों पूर्व किए गए गुनाह का पिटारा न खुल जाए,’’ गर्व से सिर ऊंचा कर नीलिमा बोली, ‘‘बहुत दे चुकी सीता अग्नि परीक्षा. अब राम की बारी है, क्योंकि स्त्री सिर्फ देह नहीं है, बल्कि उस में सांस और स्पंदन भी है और यह बात अब पुरुष को समझनी पड़ेगी कि औरत का भी अपना वजूद है. वह सिर्फ सहती नहीं, सोचती भी है.’’

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नीलिमा की लंबीचौड़ी बातें सुन योगेश का दिमाग भन्ना गया. अत:

झल्लाते हुए बोला, ‘‘बस हो गया… अब क्या भाषण ही देती रहोगी या खाना भी मिलेगा? वैसे भी आज मुझे देर हो गई है.’’

खाने की प्लेट योगेश के सामने रखती हुई नीलिमा बोली, ‘‘वैसे तुम क्यों इतना बौखला रहे हो? कहीं तुम ने भी तो किसी के साथ… डर तो नहीं रहे हो कि कहीं तुम्हारा भी कोई पुराना पाप न खुल जाए?’’

यह सुनते ही रोटी का कौर योगेश के गले में ही अटक गया. फिर किसी तरह हलक से रोटी को नीचे उतारते हुए बोला, ‘‘प… प… पागलों सी बातें क्यों कर रही हो तुम? मुझे क्यों बिना वजह इन सब में घसीट रही हो? करे कोई और भरे कोई…? मुझे तो बख्श दो और दुनिया जानती है कि मैं कैसा इंसान हूं. सफाई देने की कोई जरूरत नहीं है मुझे.’’

‘‘हूं, और दुनिया उन्हें भी जानती है जिन का पिटारा खुला… पता चले कि जनाब ने भी कभी किसी लड़की के साथ… मैं सिर्फ कह रही हूं,’’ खाने का डब्बा योगेश के सामने रखते हुए नीलिमा बोली.

नीलिका की बातों से योगेश तमतमा उठा. मन तो किया उस का कि खाने का डब्बा उठा कर फेंक दे और कहे कि हां, दुनिया के सारे मर्द खराब हैं. सिर्फ औरतें ही पावन पवित्र हैं. मगर उस की इतनी हिम्मत कहां, जो नीलिमा के सामने औरतों के खिलाफ कुछ बोले, क्योंकि आखिर वह महिलाओं की हमदर्द जो ठहरी. किसी शोषित महिला के बारे में कुछ सुना नहीं कि सखियों सहित मोरचा ले कर निकल पड़ती है.

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‘‘क्या अब अपने पति पर भी तुम्हें भरोसा नहीं रह गया और क्या मैं तुम्हें इतना गिरा हुआ इंसान लगता हूं जो ऐसी बातें बोल रही हो?’’

नीलिमा को लगा कि कहीं योगेश उस की बातों को दिल से न लगा बैठे, इसलिए खुद को शांत कर बोली, ‘‘अरे, मैं तो बस ऐसे ही बोल रही थी और क्या मैं तुम्हें नहीं जानती… चलो अब निकलो औफिस के लिए वरना कहोगे मैं ने ही देर करवा दी.’’

‘‘हूं, वैसे भी आज मेरी जरूरी मीटिंग है,’’ योगेश ने मुसकराते हुए कहा और फिर हमेशा की तरह बाय कह कर औफिस निकल गया. लेकिन उस के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं. डर तो उसे सताने ही लगा था अपने भविष्य को ले कर. सोच कर ही सिहर उठता कि अगर मीटू की चपेट में वह भी आ गया, तो क्या होगा. नीलिमा तो एक पल भी उसे बरदाश्त नहीं करेगी. और तो और उसे सजा दिलवाने में भी पीछे नहीं रहेगी. अपने बच्चों की नजरों में भी उस की छवि धूमिल पड़ जाएगी सो अलग. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा. समाज में बनीबनाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.

मीटिंग में भी योगेश बस यही सब सोचता रहा. औफिस के किसी काम में आज उसे मजा नहीं आ रहा था और न ही किसी स्टाफ को वह कुछ काम करने को कह रहा था वरना तो किसी को ठीक से सांस तक नहीं लेने देता. सब के सिर पर सवार रहता.

‘‘क्या बात है यार, आज बौस बड़े चुपचुप लग रहे हैं? न चीखना, न चिल्लाना, बस चुपचाप जा कर कैबिन में बैठ गए. गुडमौर्निंग बोला तो कोई जवाब भी नहीं दिया. कहीं इन पर भी किसी देवी ने मीटू का केस तो नहीं कर दिया?’’ ठहाके लगाते हुए संदीप ने कहा तो उस की बात पर औरों को भी हंसी आ गई.

‘‘सही कह रहा हूं यार वरना तो आते ही हमें घूरने लगते थे, मगर आज नजरें नीची किए किसी गहरी चिंता में डूबे हैं. क्या बात हो सकती है?’’ संदीप फिर बोला.

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‘‘हां यार, मुझे तो लगा था डांटने के लिए बुलाया है, पर कहने लगे कि उन्होंने मेरी छुट्टी मंजूर कर दी है,’’ नमन ने कहा, तो वहां बैठे सभी हैरान रह गए. क्योंकि मजाल थी जो किसी को वह बिना नाक रगड़ाए छुट्टी दे दे.

‘‘खैर, जाने दो न हमें क्या. हो गई होगी पत्नी से लड़ाई और क्या,’’ कह कर सभी अपनेअपने काम में लग गए.

भरे मन से जैसे ही योगेश घर पहुंचा, देखा नीलिमा किसी से फोन पर बातें कर रही

थी. जोरजोर से कह रही थी, ‘‘एकदम नहीं छूटना चाहिए वह इंसान. समझता क्या है? भेडि़या कहीं का. बड़ा संस्कारी बना फिरता था, पर चलन तो देखो. नातीपोता वाला हो कर ऐसे कुकर्म और वह भी अपनी बेटी समान लड़की से?’’

‘‘क्या हुआ?’’ धीरे से योगेश ने पूछा,

‘‘आ गए तुम? अभी मैं तुम्हें ही फोन

लगाने वाली थी. पता है, वे अमनजी अरे हमारे  पड़ोसी… उन पर किसी लड़की ने हैरेसमैंट का केस किया है. देखो, कितने संस्कारी बने फिरते थे.

‘‘मैं तो कहती हूं ऐसे इंसान का मुंह काला कर चौराहे पर खड़ा कर हजार जूते मारने चाहिए. पता है तुम्हें, उस की पत्नी तो यह बोलबोल कर चिल्लाए जा रही थी कि वह लड़की झूठी है.

रुह का स्पंदन- भाग 2

दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.

दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.

दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.

दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.

दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.

उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.

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सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.

पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.

सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.

घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.

काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.

सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.

सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.

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जरा सी आजादी- भाग 3: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

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नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

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‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

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आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

Serial Story: धनिया का बदला- भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे, आओ रे छंगा… गले लग जाओ हमारे… आज कितने बरसों के बाद तुम से मुलाकात हो रही है… कितने दुबले हो गए हो तुम… खातेवाते नहीं हो क्या?’’ बीरू ने अपने भाई से कहा.

‘‘हां भाई बीरू… तुम तो जानते हो… इस खेतीकिसानी का काम करने के बाद कमबख्त चूल्हाचौका तो होने से रहा हम से… दिनभर की मेहनत के बाद जो भी बन पड़ता है बना लेते हैं और खा कर सो जाते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं छंगा भैया… अब हम आ गए हैं… कामधाम में तुम्हारा हाथ बंटाएंगे और तुम्हारी भाभी तुम को खूब दूधमलाई खिलाएंगी… और ये तुम्हारी 2 भतीजियां हैं, इन के साथ खूब खुश रहोगे तुम भी और हम भी.

‘‘हम दोनों भाई मिल कर काम करेंगे, तो हमारी खेती सोना उगलेगी सोना,’’ कह कर एक बार फिर से बीरू ने छंगा को गले लगा लिया.

बीरू और छंगा दोनों जुड़वां भाई थे. उन के मांबाप की मौत पहले ही हो  चुकी थी.

बचपन से ही बीरू को शहर जाने का शौक था, इसलिए वह गांव की ही एक लड़की से शादी करने के बाद अपनी बीवी को ले कर शहर निकल गया था और खेतीबारी का काम अकेले छंगा के सिर पर आ गया था.

अभी तक छंगा ही इस पूरी खेतीबारी का मालिक था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि बीरू किसी दिन शहर को छोड़ कर गांव में भी रहने के लिए आ सकता?है, इसलिए उस ने बातोंबातों में ही बीरू से पूछा, ‘‘तो भैया… क्या शहर वाला मकान, जो किराए पर लिए थे, वह छोड़ दिए हैं आप?’’

‘‘अरे, हां रे… वह सब हम छोड़  के आए हैं… किराए का मकान, नौकरी, सबकुछ… अरे, जब गांव में ही अपनी इतनी सारी जमीन पड़ी हुई?है, तब किसी दूसरे की हांहुजूरी क्या करनी?’’ बीरू ने साफसाफ कह दिया था.

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अभी तक तो छंगा ही इस सारी खेती का मालिक बना बैठा था, पर अब अचानक से बीरू का वापस गांव में आ कर बसने की बात करना उसे बिलकुल सुहा नहीं रहा था.

बीरू की पत्नी का नाम धनिया था. सांवला रंग, तीखे नैननक्श, सांचे में ढला हुआ शरीर. उसे देखने से लगता ही नहीं था कि वह 2 बच्चों की मां है.

धनिया भी गांव में ही पलीबढ़ी थी, पर जब उसे बीरू अपने साथ ब्याह कर शहर ले गया, तो उस ने साड़ी पहनना सीख लिया था.

गांव की लड़की पर जब शहरीपन का रंग चढ़ गया, तो एक अलग किस्म की नजाकत आ गई थी धनिया में. अब जब वह साड़ी बांध कर उस पर खुली पीठ वाला तंग ब्लाउज पहन कर निकलती तो गांव के कुंआरे लड़के तो होश खो ही बैठते, बल्कि शादीशुदा और बूढ़े भी ललचाई नजरों से उसे घूरते रहते थे.

एक दिन की बात है. शाम के समय बीरू और धनिया खेत की तरफ टहलने के लिए निकले थे कि तभी किसी ने धनिया पर छींटाकशी की, ‘‘अरे, तू शहर की है गोरी या गांव की है छोरी. एक बार कलेजे से हमारे लग जा, तो मैं आज मना लूं होली…’’

‘‘तुम लोगों को शर्म नहीं आती इस तरह से एक औरत को छेड़ते हुए,’’ धनिया ने पलट कर देखा, तो 3-4 मनचलों का एक ग्रुप बैठा हुआ था.

बीरू को मामले को भांपने में देर नहीं लगी. उस की त्योरियां चढ़ गईं और मुट्ठियां भिंच गईं. वह आगे बढ़ा और उस ग्रुप में सब से आगे खड़े आदमी का कौलर पकड़ लिया और आननफानन में 1-2 घूंसे रसीद कर दिए.

इस से पहले कि लड़ाई आगे बढ़ती, वहां पर छंगा आ गया और हाथ जोड़ कर उन मनचलों के सरदार से माफी मांगने लगा.

‘‘पर छंगा, तुम इस से माफी क्यों मांग रहे हो? इस ने तो तुम्हारी भाभी को छेड़ा है…’’ बीरू बिफर रहा था.

‘‘अरे नहीं भैया, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी… ये तो यहां के बहुत भले लोग हैं. और वैसे भी ये यहां के होने वाले मुखिया हैं. इन से कोई झगड़ा मोल नहीं लेता है,’’ अभी छंगा बीरू को समझा ही रहा था कि मनचलों का सरदार, जिस का नाम कालिया था, गरज उठा, ‘‘छंगा, यह तुम्हारा भाई नहीं होता, तो आज यह अपनी टांगों पर चल कर अपने घर नहीं जा पाता.’’

‘‘कोई बात नहीं भैया… ये अभी नएनए आए हैं… आप के बारे में पता नहीं था… आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ छंगा ने बात को ज्यादा तूल नहीं दिया.

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अगले दिन छंगा बीरू को अपने खेत दिखाने ले गया. बीरू की खुशी का ठिकाना नहीं था, ‘‘अब तो दोनों भाई जम कर मेहनत करेंगे और इस जमीन से सोना उपजाएंगे,’’ कह कर बीरू ने खेत की मिट्टी उठा कर छंगा के माथे पर तिलक कर दिया और अपने माथे पर भी मिट्टी रगड़ ली थी.

‘‘ठीक है भैया, आप खेत में काम करो… हम जरा मुखियाजी के घर से खाद की बोरी उठा कर ले आते हैं,’’ कह कर छंगा वहां से चला गया.

बीरू तनमन से मेहनत करने में लग गया था और कोई फिल्मी गाने की धुन भी गुनगुना रहा था…

‘धांय’ की आवाज के साथ एक गोली ठीक बीरू के सीने में आ लगी थी और वह वहीं खेत में गिर गया.

गांव में लोग पीठ पीछे बहुतकुछ बातें कर रहे थे और सभी लोग मन ही मन हत्यारे को भी पहचान रहे थे, पर सामने किसी की भी कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि बीरू को गोली किस ने मारी है.

छंगा ने पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई. पुलिस ने छानबीन भी की, पर सुबूतों की कमी में पुलिस को मायूस ही लौटना पड़ा.

इस पूरी दुनिया में अब धनिया बेसहारा हो गई थी. वह सफेद साड़ी में बिना किसी साजसिंगार के सूनीसूनी फिरती थी.

‘‘भाभी… हम से आप का यह रूप नहीं देखा जाता… हम आप को ऐसे नहीं रहने देंगे,’’ छंगा की आवाज में दर्द था.

‘‘क्या करेंगे… जब हमारी किस्मत में ही विधवा का रूप लिखा है तो… ऊपर वाले की मरजी के आगे भला किस की चली है…’’

‘‘यह किस्मतविस्मत हम नहीं जानते… पर, सोचो भाभी… अभी तुम्हारे सामने पहाड़ सी जिंदगी है… 2 छोटी बेटियां हैं… और फिर गांव के मनचलों से बचने के लिए भी तो किसी के नाम का सहारा तो चाहिए न,’’ छंगा बोले जा रहा था.

धनिया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस की चुप्पी को छंगा ने हां समझा और पंचायत बुला कर धनिया  से शादी कर के उसे सहारा देने की  बात कही.

‘‘अगर इस मामले में धनिया को कोई एतराज नहीं है, तो हम पंचों को भला क्या एतराज होगा,’’ सरपंच ने कहा.

धनिया भी वहां मौजूद थी. गांव के मनचलों से बचने के लिए अगर उसे किसी के नाम का सहारा मिल रहा है, तो भला इस में बुराई ही क्या है, ऐसा सोच कर धनिया ने अपनी रजामंदी दे दी.

‘‘भाभी, तुम बच्चों को ले कर आराम से यहां सो जाओ, मैं बगल वाली कोठरी में जा कर सो जाता हूं,’’ छंगा  ने कहा.

धनिया अपनी बेटियों को सीने से लगा कर सोती और छंगा दूसरी कोठरी में सोता रहा.

दोनों की शादी को 2 महीने बीत गए थे, पर छंगा ने अपने बरताव से कोई ऐसा काम नहीं किया था, जिस से धनिया को कोई एतराज होता. बात करते समय भी धनिया के चेहरे की तरफ न देख कर बिना नजरें मिलाए ही बात करता था छंगा और जिस्मानी संबंध बनाने की बात भी उस के मन में नहीं आई थी.

छंगा धनिया की बेटियों को खूब प्यार देता था. जब भी वह शहर जाता तो उन के लिए मिठाई जरूर ले आता था और अपने पास बिठा कर बारीबारी से खिलाता था.

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छंगा का अपनी बेटियों के प्रति ऐसा प्यार देख कर धनिया के मन को भी संतोष मिलने लगा था.

कुछ दिनों के बाद अचानक ही धनिया को बुखार आ गया. बुखार बहुत तेज था. छंगा तुरंत ही धनिया को शहर के डाक्टर से दवा दिलवा कर लाया.

दवा खा कर धनिया को कुछ राहत तो मिली, पर उस का शरीर अकसर ढीला रहता और नींद उसे घेरे रहती. शायद बुखार के चलते बदन में कमजोरी आ गई होगी, ऐसा सोच कर वह निश्चिंत थी.

प्रेम ऋण- भाग 3: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

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अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

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‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

चेतावनी- भाग 3: मीना उन दोनों के प्रेमसंबंध में क्यों दिलचस्पी लेने लगी?

लेखक- अवनिश शर्मा

जीवन हमारी सोचों के अनुसार चलने को जरा भी बाध्य नहीं. अगले दिन दोपहर को संदीप के पिता की कोठी की तरफ जाते हुए अर्चना और मैं काफी ज्यादा तनावग्रस्त थे, पर वहां जो भी घटा वह हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छा था.

संदीप की मां अंजू व छोटी बहन सपना से हमारी मुलाकात हुई. अर्चना का परिचय मुझे उन्हें नहीं देना पड़ा. कालिज जाने वाली सपना ने उसे संदीप भैया की खास ‘गर्लफ्रेंड’ के रूप में पहचाना और यह जानकारी हमारे सामने ही मां को भी दे दी.

संदीप की जिंदगी में अर्चना विशेष स्थान रखती है, अपनी बेटी से यह जानकारी पाने के बाद अंजू बड़े प्यार व अपनेपन से अर्चना के साथ पेश आईं. सपना का व्यवहार भी उस के साथ किसी सहेली जैसा चुलबुला व छेड़छाड़ वाला रहा.

जिस तरह का सम्मान व अपनापन उन दोनों ने अर्चना के प्रति दर्शाया वह हमें सुखद आश्चर्य से भर गया. गपशप करने को सपना कुछ देर बाद अर्चना को अपने कमरे में ले गई.

अकेले में अंजू ने मुझ से कहा, ‘‘मीनाजी, मैं तो बहू का मुंह देखने को न जाने कब से तरस रही हूं पर संदीप मेरी नहीं सुनता. अगला प्रमोशन होने तक शादी टालने की बात करता है. अब अमेरिका जाने के कारण उस की शादी साल भर को तो टल ही गई न.’’

‘‘आप को अर्चना कैसी लगी है?’’ मैं ने बातचीत को अपनी ओर मोड़ते हुए पूछा.

‘‘बहुत प्यारी है…सब से बड़ी बात कि वह मेरे संदीप को पसंद है,’’ अंजू बेहद खुश नजर आईं.

‘‘उस के पिता बड़ी साधारण हैसियत रखते हैं. आप लोगों के स्तर की शादी करना उन के बस की बात नहीं.’’

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‘‘मीनाजी, मैं खुद स्कूल मास्टर की बेटी हूं. आज सबकुछ है हमारे पास. सुघड़ और सुशीललड़की को हम एक रुपया दहेज में लिए बिना खुशीखुशी बहू बना कर लाएंगे.’’

बेटे की शादी के प्रति उन का सादगी भरा उत्साह देख कर मैं अचानक इतनी भावुक हुई कि मेरी आंखें भर आईं.

अर्चना और मैं ने बहुत खुशीखुशी उन के घर से विदा ली. अंजू और सपना हमें बाहर तक छोड़ने आईं.

‘‘कोमल दिल वाली अंजू के कारण तुम्हें इस घर में कभी कोई दुख नहीं होगा अर्चना. दौलत ने मेरे बड़े बेटे का जैसे दिमाग घुमाया है, वैसी बात यहां नहीं है. अब तुम फोन पर संदीप को इस मुलाकात की सूचना फौरन दे डालो. देखें, अब वह सगाई कराने को तैयार होता है या नहीं,’’ मेरी बात सुन कर अब तक खुश नजर आ रही अर्चना की आंखों में चिंता के बादल मंडरा उठे.

संदीप की प्रतिक्रिया मुझे अगले दिन शाम को अर्चना के घर जा कर ही पता चली. मैं इंतजार करती रही कि वह मेरे घर आए लेकिन जब वह शाम तक नहीं आई तो मैं ही दिल में गहरी चिंता के भाव लिए उस से मिलने पहुंच गई.

हुआ वही जिस का मुझे डर पहले दिन से था. संदीप अर्चना से उस दिन पार्क में खूब जोर से झगड़ा. उसे यह बात बहुत बुरी लगी कि मेरे साथ अर्चना उस की इजाजत के बिना और खिलाफत कर के क्यों उस की मां व बहन से मिल कर आई.

‘‘मीना आंटी, मैं आज संदीप से न दबी और न ही कमजोर पड़ी. जब उस की मां को मैं पसंद हूं तो अब उसे सगाई करने से ऐतराज क्यों?’’ अर्चना का गुस्सा मेरे हिसाब से बिलकुल जायज था.

‘‘आखिर में क्या कह रहा था संदीप?’’ उस का अंतिम फैसला जानने को मेरा मन बेचैन हो उठा.

‘‘मुझ से नाराज हो कर भाग गया वह, आंटी. मैं भी उसे ‘चेतावनी’ दे आई हूं.’’

‘‘कैसी ‘चेतावनी’?’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘मैं ने साफ कहा कि अगर उस के मन में खोट नहीं है तो वह सगाई कर के ही विदेश जाएगा…नहीं तो मैं समझ लूंगी कि अब तक मैं एक अमीरजादे के हाथ की कठपुतली बन मूर्ख बनती रही हूं.’’

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‘‘तू ने ऐसा सचमुच कहा?’’ मेरी हैरानी और बढ़ी.

‘‘आंटी, मैं ने तो यह भी कह दिया कि अगर उस ने मेरी इच्छा नहीं पूरी की तो उस के जहाज के उड़ते ही मैं अपने मम्मीपापा को अपना रिश्ता उन की मनपसंद जगह करने की इजाजत दे दूंगी.’’

एक पल को रुक कर अर्चना फिर बोली, ‘‘आंटी, उस से प्रेम कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है जो मैं अब शादी करने को उस के सामने गिड़- गिड़ाऊं…अगर मेरा चुनाव गलत है तो मेरा उस से अभी दूर हो जाना ही बेहतर होगा.’’

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘दोस्ती और प्रेम के मामले में जो दौलत को महत्त्व देते हैं वे दोस्त या प्रेमी बनने के काबिल नहीं होते.’’

‘‘आप का बहुत बड़ा सहारा है मुझे. अब मैं किसी भी स्थिति का सामना कर लूंगी, मीना आंटी,’’ उस ने मुझे जोर से भींचा और हम दोनों अपने आंसुओं से एकदूसरे के कंधे भिगोने लगीं.

वैसे अर्चना की प्रेम कहानी का अंत बढि़या रहा. अपने विदेश जाने से एक सप्ताह पहले संदीप मातापिता के साथ अर्चना के घर पहुंच गया. अर्चना की जिद मान कर सगाई की रस्म पूरी कर के ही विदेश जाना उसे मंजूर था.

अगले दिन पार्क में मेरी उन दोनों से मुलाकात हुई. मेरे पैर छू कर संदीप ने पूछा, ‘‘मीना आंटी, मैं सगाई या अर्चना को अपने घर वालों से मिलाना टालता रहा, इस कारण आप ने कहीं यह अंदाजा तो नहीं लगाया कि मेरी नीयत में खोट था?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने आत्म- विश्वास के साथ झूठ बोला, ‘‘मैं ने जो किया, वह यह सोच कर किया कि कहीं तुम नासमझी में अर्चना जैसे हीरे को न खो बैठो.’’

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‘‘थैंक यू, आंटी,’’ वह खुश हो गया.

एक पल में ही मैं मीना आंटी से डार्लिंग आंटी बन गई. अर्चना मेरे गले लगी तो लगा बेटी विदा हो रही है.

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