हेमंत सोरेन की चुनौती और भाजपा

आजकल देश में एक तरह से राजनीतिक गृह युद्ध के हालात हैं. एक तरफ है केंद्र की सरकार, जिस का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है, तो वहीं दूसरी तरफ है देश के अनेक प्रदेशों के मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय राजनीतिक दल, साथ में कांग्रेस. भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाने के बाद यह टारगेट तय कर लिया है कि देशभर में भाजपा की सरकार ही होनी चाहिए और यह कोई दबीछिपी बात भी नहीं है. इस की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई दफा कर चुके हैं. अब जो सीन दिखाई दे रहा है, उस में प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा लगातार विपक्ष की सरकारों, मुख्यमंत्रियों और उन की गुड लिस्ट में शामिल लोगों को निशाने पर लेने की घटनाएं आम हैं.

यह देश देख चुका है कि किस तरह सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत प्रियंका गांधी और अनेक बड़े नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय का शिकंजा कसा गया और माहौल यह बना दिया है कि यही लोग सब से बड़े अपराधी हैं. हां, यह हो सकता है कि गलतियां हुई हों, अपराध भी हुए हों, मगर इन सब हालात से जो माहौल देश का बन रहा है, वह खतरनाक साबित हो सकता है. आज देशभर में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का एक बयान चर्चा में है कि अगर मैं अपराधी हूं, तो मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए.  उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस को एक तरह से नजरअंदाज किया है. यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसा टर्निंग पौइंट बन सकती है, जहां से देश का एक नया राजनीतिक राजमार्ग बन सकता है.  दरअसल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ईडी के समन के बाद तेवर कड़े कर के एक संदेश दिया है. वे चुनौती की मुद्रा में हैं और उसी अंदाज में विरोधियों पर पलटवार की भी तैयारी है. झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोरचा ने साफतौर पर ऐलान किया है कि अगर सरकार के साथ साजिश हुई, तो छोड़ेंगे नहीं.

4 नवंबर, 2022 को रांची में झारखंड मुक्ति मोरचा समर्थकों की जुटी भीड़ का भी अंदाज तल्ख था. झामुमो के निशाने पर प्रवर्तन निदेशालय, राज्यपाल और भाजपा है. समर्थकों को आंदोलन के आगाज का निर्देश दिया गया है. झारखंड मुक्ति मोरचा के कार्यकर्ता सभी जिला मुख्यालयों में सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और प्रदेशभर में यह संदेश दिया जा रहा है कि हेमंत सोरेन की सरकार को भारतीय जनता पार्टी कमजोर करने का काम कर रही है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने सभी जिला इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि कार्यकर्ता पूरी मजबूती के साथ प्रदर्शन में शामिल हों. अब जैसा कि सारा देश जानता है कि भारतीय जनता पार्टी के तेवर हमेशा आक्रामक रहते हैं. जब से देश में नरेंद्र मोदी की सरकार आई है और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह हैं, भाजपा हर मौके पर वार करने की हालत में रहती है.  यहां भी भाजपा के तेवर यह बता  रहे हैं कि हेमंत सोरेन से सत्ता हासिल करने के लिए और उन की छवि को खराब करने की कोशिश में भाजपा पीछे नहीं रहेगी. इधर भाजपा ने प्रखंड मुख्यालयों से आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है.

शक्ति प्रदर्शन की इस कवायद से राजनीतिक टकराव की बैकग्राउंड तैयार हो रही है.  हालात की गंभीरता को देखते हुए राजधानी में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं. ईडी के क्षेत्रीय कार्यालय और राजभवन की सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ाई गई है. उठ खड़ा होगा  संवैधानिक संकट जैसे हालात झारखंड समेत देश के कुछ राज्यों में बन रहे हैं, इस सिलसिले में कहा जा सकता है कि आने वाले समय में संवैधानिक संकट खड़े होने का डर है.  सच तो यह है कि चाहे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या प्रवर्तन निदेशालय, उन का इस्तेमाल नैतिक रूप से ईमानदारी से किया जाना चाहिए, ताकि कोई भी यह न कह सके कि उन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है.  ऐसा पहले कई दफा हुआ है, जिस का सब से बड़ा उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं, जिन्होंने हमेशा कानून पर आस्था जाहिर की है और हर एक कार्यवाही को सम्मान के साथ स्वीकार किया है. यह भी सच है, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की कई सरकारें भ्रष्टतम आचरण कर रही हैं, अनेक बड़े घोटाले का खेल जारी है. ऐसे में अगर केंद्रीय एजेंसियां शिकंजा कस रही हैं, तो नैतिकता के नाम पर आप विरोध कैसे कर सकते हैं? नतीजतन, आंदोलन के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष के अपनेअपने मुद्दे हैं.

भाजपा, ईडी और राजभवन के खिलाफ आंदोलन का आह्वान कर विरोधी दल शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं. उधर भाजपा ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए घेराबंदी तेज की है.  देश और प्रदेश की जनता आज दुविधा में है कि वह राज्य सरकार के पक्ष में खड़ी हो या केंद्र सरकार के पक्ष में. आवाम प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो के खिलाफ झारखंड मुक्ति मोरचा के हेमंत सोरेन के पक्ष में खड़ी हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यवाही के पक्ष में. ऐसे में आने वाला समय संवैधानिक संकट का आगाज कर रहा है.

तेजस्वी यादव: भाजपा के लिए खतरा

राज्य के मोकामा और गोपालगंज विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव राष्ट्रीय जनता दल के लिए बेहद खास थे. जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा के अलग होने के बाद ये पहले चुनाव थे. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि राजद एक भी सीट न जीते, जिस से उस की साख पर बट्टा लग सके. इस के लिए भाजपा ने राजद नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मामा साधु यादव और मामी इंदिरा यादव को अपनी तरफ मिला लिया था. वह भाजपा की बी टीम की तरह से काम कर रहे थे. इस के बाद भी राजद ने उपचुनाव में मोकामा सीट पर जीत हासिल कर ली. तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘‘गोपालगंज सीट पर भी हम ने भाजपा के वोटों में सेंधमारी की है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में हमें 40,000 वोटों से हार मिली थी, जबकि उपचुनाव में सहानुभूति वोट के बाद भी केवल 1,700 वोटों से हारे हैं.

‘‘इस से इस बात का प्रमाण भी मिल गया है कि तेजस्वी यादव ने अब अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. अब बिहार में राजद ही भाजपा को रोकने का काम कर सकती है.’’

33 साल के तेजस्वी यादव को 2 बार बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिल चुका है. राजनीतिक जानकार तेजस्वी यादव को बिहार के भविष्य का नेता मान रहे हैं. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अपना वजूद खो बैठी है. नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी कोई बन नहीं पाया है. नीतीश कुमार अब बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा रहे हैं. कांग्रेस बिहार में अपने को मजबूत नहीं कर पा रही और भाजपा भी अपने बलबूते कुछ चमत्कार नहीं कर पा रही है. ऐसे में बिहार में सब से मजबूत पार्टी राजद के रूप में सामने है. ट्वैंटी20 क्रिकेट सा धमाल जिस तरह से 20 ओवर के क्रिकेट मैच में दमदार खिलाड़ी आखिरी ओवर तक रोमांच बना कर रखता है, कभी हिम्मत नहीं हारता है, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हारी बाजी अपने नाम कर लेते हैं. जिस भाजपा और जद (यू) गठबंधन ने तेजस्वी यादव को सत्ता से बाहर किया था, मौका मिलते ही तेजस्वी यादव ने उस बाजी को पलट कर वापस सत्ता में हिस्सेदारी कर ली.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 10 नवंबर, 1989 को हुआ था. वे राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे हैं. तेजस्वी यादव क्रिकेट खेलना भी जानते हैं. उन्होंने दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए आईपीएल भी खेला है. दिसंबर, 2021 में दिल्ली की एलेक्सिस से उन की शादी हुई थी. तेजस्वी और एलेक्सिस दोनों एकदूसरे को 6 साल से जानते थे और पुराने दोस्त थे. तेजस्वी यादव को महज 26 साल की उम्र में बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. तब वे डेढ़ साल तक नीतीश कुमार की 2015 वाली सरकार में बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे थे.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी राजद को मजबूत किया. वे कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़े. राजद सब से बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के चलते नीतीश कुमार और भाजपा ने मिल कर सरकार बनाई. उस समय तेजस्वी यादव बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 10 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार और भाजपा में अलगाव हो गया. इस के बाद नीतीश कुमार और राजद का तालमेल हुआ, जिस के बाद तेजस्वी यादव को दोबारा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं.

तेजस्वी से डरती है भाजपा जिस तरह से लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में भाजपा के बढ़ते रथ को बिहार में रोका था और उसे अपने बल पर सत्ता में नहीं आने दिया था, वही काम अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की राजनीति को खत्म करने के लिए भाजपा ने उन्हें चारा घोटाले में फंसाया था, वैसे ही अब तेजस्वी यादव को आईआरसीटी घोटाला मामले में फंसाने का काम हो रहा है. भाजपा समझ रही है कि अगर तेजस्वी यादव को रोका नहीं गया, तो उसे बिहार में सत्ता नहीं मिलेगी.

आईआरसीटी घोटाला मामले में तेजस्वी यादव के वकीलों ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के खिलाफ सीबीआई व ईडी का गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया. आईआरसीटी घोटाला मामले में सुनवाई के दौरान तेजस्वी यादव के वकीलों ने कहा कि विपक्ष के नेता होने के नाते केंद्र सरकार के गलत कामों का विरोध करना उन का फर्ज है. कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम को फटकारते हुए कहा कि वे सार्वजनिक रूप से बोलते वक्त जिम्मेदाराना बरताव करें और उचित शब्दों का इस्तेमाल करें. आईआरसीटी घोटाला साल 2004 में संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान का है. रेलवे बोर्ड ने उस वक्त रेलवे की कैटरिंग और रेलवे होटलों की सेवा को पूरी तरह निजी क्षेत्र को सौंप दी थी. इस दौरान झारखंड के रांची और ओडिशा के पुरी के बीएनआर होटल के रखरखाव, संचालन और विकास को ले कर जारी टैंडर में अनियमितताएं किए जाने की बातें सामने आई थीं.

यह टैंडर साल 2006 में एक प्राइवेट होटल सुजाता होटल को मिला था. आरोप है कि सुजाता होटल के मालिकों ने इस के बदले लालू प्रसाद यादव के परिवार को पटना में 3 एकड़ जमीन दी थी, जो बेनामी संपत्ति थी. इस मामले में भी लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत 11 लोग आरोपी हैं. सीबीआई ने जुलाई, 2017 में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव समेत 11 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. इस के बाद सीबीआई की एक विशेष अदालत ने जुलाई, 2018 में लालू प्रसाद यादव और अन्य के खिलाफ दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था. मामा का लिया सहारा तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भाजपा उन के मामा साधु यादव का प्रयोग भी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव तेजस्वी का विरोध कर रहे हैं. परिवार का होने के कारण तेजस्वी यादव उन के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 75 विधायकों के साथ राजद सब से बड़ी पार्टी बनी थी. उपचुनाव में एक सीट पर जीत मिलने के बाद उस के विधायकों की संख्या 76 हो गई है. दूसरी तरफ भाजपा ने वीआईपी पार्टी के 3 विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर लिया था. इस के बाद भाजपा 77 विधायकों के साथ बिहार की पहले नंबर की पार्टी बन गई थी. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 4 विधायकों के पाला बदलते ही बिहार में राजद के पास विधानसभा में विधायकों की संख्या 80 हो गई है.

आने वाले दिनों में भाजपा और राजद के बीच सीटों को ले कर सांपसीढ़ी का यह खेल चलता रहेगा. लेकिन इस में तेजस्वी यादव भारी न पड़ जाएं, इस के लिए भाजपा उन की मजबूत घेराबंदी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव इस में सब से बड़ा मोहरा बन रहे हैं. आने वाले दिनो में बिहार में बड़ा उलटफेर हो सकता है, जिस के बाद बिहार में सरकार चलाने के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार की जरूरत खत्म हो सकती है. राजद के साथ कुल

80 विधायक हैं. कांग्रेस और वाम दल तो पहले से ही महागठबंधन में हैं. इस से संख्या कुलमिला कर 114 है. अगर तेजस्वी यादव कहीं जीतनराम मांझी के 4 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायकों को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब रहे, तो उन के साथ विधायकों की कुल संख्या 121 हो जाएगी, जो नीतीश कुमार के लिए खतरनाक हो जाएगा. आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं. यह भाजपा के लिए खतरा है. वह तेजस्वी यादव में मंडल युग का लालू प्रसाद यादव वाला असर देख रही है.

महाराष्ट्र: संजय राउत जेल से लौटे- अदालत का इंसाफ और नरेंद्र मोदी

अब तो देश के सामने सबकुछ खुला खेल फर्रुखाबादी की तरह साफसाफ है. महाराष्ट्र में शिव सेना नेता संजय राउत की गिरफ्तारी और तकरीबन 100 दिन की जेल और अदालत से रिहाई. सब से बड़ी बात अदालत की टिप्पणी से साफ है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और अमित शाह का गृह मंत्रालय किस तरह काम कर रहा है. अगर हम लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बात करें, तो आज का समय एक काले अंधेरे की तरह है और देश की जनता अगर इस का अपने मतदान के माध्यम से रास्ता नहीं निकालेगी, तो आखिर में डंडा देश की आम जनता की पीठ पर ही पड़ने वाला है.

शिव सेना सांसद संजय राउत 100 दिन बिता कर एक विजेता की भूमिका में जेल से आ गए हैं. उन की वापसी पर शिव सेना समर्थकों ने जगहजगह ‘टाइगर इज बैक’, ‘शिव सेना का बाघ आया’ जैसे पोस्टर लगाए और यह संदेश दे दिया है कि चाहे कोई कितना जुल्म कर ले, शिव सेना और संजय राउत झुकने वाले नहीं हैं. दरअसल, शिव सेना नेता संजय राउत को प्रवर्तन निदेशालय ने पात्रा चाल घोटाले में मनी लौंड्रिंग से जुड़े मामले में इस साल जुलाई महीने में गिरफ्तार किया था. जेल से बाहर आने के बाद संजय राउत ने अपने घर के बाहर मीडिया से चर्चा की. उन्होंने कहा कि उन की सेहत ठीक नहीं है. अपनी कलाई की ओर इशारा करते हुए संजय राउत ने कहा, ‘‘3 महीने बाद यह घड़ी पहनी है. यह भी कलाई पर ठीक से नहीं आ रही है.’’

जेल में बिताए दिनों को इस से बेहतर दर्दभरे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता. इस से पहले संजय राउत ने बाला साहब ठाकरे की समाधि शिवाजी पार्क पहुंच कर उन्हें नमन किया और यह संदेश दे दिया कि आने वाले समय में उन की दिशा क्या होगी. दूसरी तरफ उन्होंने शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात की. इस मौके पर उद्धव ठाकरे ने साफसाफ कहा कि केंद्र की जांच एजेंसियां किसी पालतू की तरह काम कर रही हैं. संजय राउत नजीर बन गए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की खुल कर आलोचना करने वाले संजय राउत ने जेल से बाहर आते ही अपने तेवर दिखा दिए और कहा, ‘वे नहीं जानते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती मुझे गिरफ्तार कर के की है. यह उन के राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी गलती साबित होगी.’

दरअसल, आज देश के हर नागरिक के लिए सोचने वाली बात है कि क्या हम तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं? अगर हम महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर डालें तो यह साफ है कि जो भी घट रहा है, मानो उस की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है. उद्धव ठाकरे का शरद पवार और कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर सत्तासीन होना केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को रास नहीं आया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विधायकों को तोड़ दिया गया. यह सच सारे देश ने देखा है और यह लोकतंत्र की हत्या से कम नहीं कहा जा सकता.

मगर एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद महाराष्ट्र की सत्ता और शिव सेना का नाम और निशान खोने वाले उद्धव ठाकरे के लिए यह राहत का सबब है. पहले अंधेरी पूर्व उपचुनाव में जीत और अब संजय राउत की रिहाई ने उन्हें बड़ी राहत दी है. दशहरे की रैली में बड़ी तादाद में लोगों को जुटाने के बाद से ही उद्धव ठाकरे गुट आक्रामक अंदाज में नजर आ रहा है. शायद आज की नरेंद्र मोदी सरकार की विचारधारा यह मानती है कि जो विरोधी हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाए. चाहे बिहार हो या फिर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड हर प्रदेश में भाजपा आक्रामक है और उस के नेता चाहते हैं कि विरोधी खत्म हो जाएं, मगर वे भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की खूबसूरती विपक्ष से ही होती है.

सब से बड़ी बात यह कि भाजपा भी कभी विपक्ष में थी. अगर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता चाहते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कहां होती, यह शायद अंदाजा लगाया जा सकता है. अब चूंकि संजय राउत जेल से निकल आए हैं, लिहाजा वे चुप तो बैठेंगे नहीं. उन का हर वार नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार पर ज्यादा होगा, ताकि भविष्य की राजनीति में खलबली मची रहे.

नीतीश कुमार: प्रधानमंत्री पद की ‘पदयात्रा’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक तरह से मानो तलवार खींच ली है. वे लगातार राहुल गांधी से ले कर अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से मिल रहे हैं. उन की इस भेंटमुलाकात का सिलसिला एक तरह से ‘प्रधानमंत्री पद’ हासिल करने के लिए पदयात्रा के समान है.

नीतीश कुमार के पास 17 साल के मुख्यमंत्री पद का गौरवशाली इतिहास है और देशभर में उन की अलग पहचान भी है. मगर यह भी सच है कि बीच में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर के अपनी छवि और भविष्य पर सवालिया निशान भी लगा लिया है.

इस ‘पदयात्रा’ के पड़ाव यह सच है कि नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग हो कर कांग्रेसी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ तालमेल कर के भाजपा को और सब से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को धोखा दिया है.

घटनाक्रम बता रहा है कि आज के सत्तासीन केंद्र के ये नेता विपक्ष और दूसरी पार्टियों को एक तरह से खत्म कर देना चाहते हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का एक बड़ा चेहरा देश के सामने आया है और वे लगातार देश के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं और सब को एकजुट कर रहे हैं.

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी यानी माकपा के दफ्तर में पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार ने पत्रकारों से कहा कि यह समय वाम दलों, कांग्रेस और सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर के एक मजबूत विपक्ष बनाने का है.

6 सितंबर, 2022 को नीतीश कुमार अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के लिए उन के आवास पर पहुंचे. इस मौके पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और जनता दल (यू) के नेता संजय झा भी मौजूद थे.

अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर के बताया कि मेरे घर पधारने के लिए नीतीश कुमार का शुक्रिया.

नीतीश कुमार ने उन के साथ देश के कई गंभीर विषयों पर चर्चा की. उन्होंने अपने ट्वीट में बताया कि उन के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, आपरेशन लोटस, खुलेआम विधायकों की खरीदफरोख्त कर चुनी सरकारों को गिराना, भाजपा सरकार में बढ़ता निरंकुश भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई.

वहीं नीतीश कुमार ने कहा कि हमारी कोशिश क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट करने की है. अगर सभी क्षेत्रीय पार्टियां मिल जाएं, तो यह बहुत बड़ी बात होगी और हम मिल कर देश के लिए एक मौडल तैयार करने पर काम कर रहे हैं.

इस से पहले नीतीश कुमार ने कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी और यह संदेश दे दिया कि वे एक ऐसी पदयात्रा पर निकल पड़े हैं, जो आने वाले समय में उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सकती है.

दशहरा रैली: लोकतंत्र का खेत

महाराष्ट्र में शिवसेना को लेकर  जिस तरह की खैघचमखैच देश में देखी है वह राजनीतिक इतिहास का विषय बन गई है. यह सारा देश जानता है कि शिवसेना की स्थापना बाला साहब ठाकरे ने की थी और वर्तमान शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे हैं. मगर अदृश्य संरक्षण में एकनाथ शिंदे ने बगावत करके जहां महाराष्ट्र में अपनी सरकार बना ली वहीं चाहते हैं कि शिवसेना पर भी अधिकार बन जाए. बाला साहब के उत्तराधिकारी के रूप में उद्धव ठाकरे का कोई नाम लेवा भी ना हो. मगर यह सब दिवास्वप्न तो हो सकता है मगर हकीकत नहीं बन पाया. इसका एक उदाहरण आज देश के सामने है दशहरा रैली के रूप में.

लगभग 50 वर्षों से बालासाहेब ठाकरे विजयादशमी के दिन रैली किया करते थे और देश को संबोधित करते थे. एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए तो यह प्रयास शुरू हो गया कि शिवसेना पर आ रहा करके उसकी पहचान जो दशहरा रैली से जुड़ी हुई है खत्म कर दी जाए.

मगर,बंबई उच्च न्यायालय ने उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना को मध्य मुंबई के शिवाजी पार्क में पांच अक्तूबर को वार्षिक दशहरा रैली के आयोजन की  अनुमति आखिरकार दे दी.

सच्चाई यह है कि है कि शिवसेना वर्षों से शिवाजी पार्क ( शिव – तीर्थ) में दशहरा रैली का आयोजन करती रही है, लेकिन इस साल मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे नीत शिवसेना के धड़े द्वारा भी दशहरे के दिन (पांच अक्तूबर को ) उसी मैदान में रैली आयोजित करने की अनुमति मांगे जाने के बाद यह कानूनी विवादों में घिर गया था .न्यायमूर्ति आरडी धनुका और न्यायमूर्ति कमल खाटा की खंडपीठ ने आदेश में कहा – दशहरा रैली आयोजित करने की अनुमति नहीं देने का बीएमसी का आदेश स्पष्ट रूप से कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है. बाला साहेब ठाकरे नीत शिवसेना गुट और उसके सचिव अनिल द्वारा बृहन्नमुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के आदेश को चुनौती दी थी. पीठ ने कहा कि हमारे विचार में बीएमसी ने साफ मन से फैसला नहीं लिया है.

जैसा कि सारा देश जानता है बाला साहब ठाकरे शिवसेना की स्थापना के साथ ही दसरा उत्सव पर रैली किया करते थे इसी सत्य को उच्च न्यायालय ने भी मान लिया‌ और कहा – याचिकाकर्ता को अतीत में शिवाजी पार्क में दशहरा रैली करने की अनुमति मिलती रही है.

दशहरा रैली को रोकना अनुमति नहीं देना स्पष्ट रूप से कानून का दुरुपयोग का मामला है इस और भी न्यायालय में टिप्पणी की गई.

एकनाथ शिंदे को पहला झटका

भारतीय जनता पार्टी के अदृश्य संरक्षण में एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए हैं इसके साथ ही सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उन्हें सारा देश देख रहा है. उद्धव ठाकरे और शिवसेना के सामने अनेक अड़चनें खड़ी कर दी गई है यह सब कुछ सीधे-सीधे लोकतंत्र को कमजोर करने की तरह है कल्पना कीजिए कि अगर इस देश में न्यायालय स्वतंत्र ना हो तो क्या होता महाराष्ट्र में शिवसेना के दशहरा रैली के मसले को ही अगर हम इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाते हैं कि अगर एकनाथ शिंदे की चलती तो उद्धव ठाकरे को कदापि रैली की अनुमति नहीं दी जाती. आगे क्या होता आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उद्धव ठाकरे गुट की तरफ से एसपी चिनॉय ने बहस करते हुए हाई कोर्ट में यह कहा कि शिवसेना साल 1966 से शिवाजी पार्क में दशहरा रैली का आयोजन करती आई है. सिर्फ कोरोना काल के दौरान यह दशहरा रैली नहीं आयोजित हो पाई थी. अब कोरोना के बाद सभी त्यौहार मनाए जा रहे हैं. ऐसे में इस वर्ष हमको दशहरा रैली का आयोजन करना है जिसके लिए हमने अर्जी की है.  दशहरा रैली शिवसेना की कई दशक पुरानी परंपरा है जिसे कायम रखना हमारी जिम्मेदारी है. चिनॉय ने कहा कि हैरत वाली बात यह है कि अचानक एक और दूसरी अर्जी दशहरा रैली के लिए बीएमसी के पास आई है, जो गलत है.

दरअसल,लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी राजनीतिक दलों और संस्थाओं को अपनी मर्यादा कभी नहीं भूलनी चाहिए महत्वाकांक्षा  की लड़ाई में लोकतंत्र की खेत को चौपट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है.

बढ़ती महंगाई, बिचौलियों की कमाई

जनता अब ‘महंगाई डायन खाए जात है’ जैसे गाने भले ही न गा रही हो, पर बढ़ती महंगाई उसे परेशान जरूर कर रही है. महंगाई में खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों का बहुत ज्यादा असर पड़ता है. बढ़ती महंगाई से उपभोक्ता परेशान हैं और किसान बेहाल हैं.

उपभोक्ताओं द्वारा ज्यादा कीमत देने के बाद भी किसानों को फसल की लागत भी ढंग से नहीं मिल रही है. केंद्र की मोदी सरकार किसानों की आमदनी को दोगुना करने के अपने वादे को भूल गई है. सरकार कितने भी कृषि कानून बना ले, पर जब तक वह किसानों को उन की उपज के न्यूनतम मूल्य की गारंटी नहीं देगी, तब तक उन की हालत खराब रहेगी.

किसानों की मेहनत का फायदा उन्हें नहीं, बल्कि बिचौलियों को ही होगा. मंडी में निजी खरीदारों के टाई लगा लेने से किसानों की हालत में सुधार नहीं आएगा, न ही महंगाई घटेगी.

किसान फसल बो कर खेत तैयार करते हैं, बीज की बोआई के साथसाथ खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. अच्छी पैदावार के लिए तमाम तरह के उपाय करते हैं. छुट्टा जानवरों  से खेत की दिनरात देखभाल करते हैं.

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खेत से कटाई के बाद जब तक फसल महफूज जगह नहीं पहुंच जाती है, तब तक उन्हें चैन नहीं मिलता है. जब यह फसल तैयार हो कर मंडी पहुंचती है, तो मंडी में बैठे खरीदार उस की कम से कम कीमत लगाने की कोशिश करते हैं.

कोरोना के चक्कर में देशभर में हुई तालाबंदी के बाद फैस्टिवल सीजन में आलू की कीमत 60 रुपए से 80 रुपए प्रति किलोग्राम तक बाजार में थी. यह आलू किसान से सीजन के समय मुश्किल से  10 रुपए प्रति किलोग्राम खरीदा गया था. आलू की महंगाई पर सरकार बिचौलियों पर कड़ी कार्यवाही करने की जगह इस बात का इंतजार कर रही है कि दिसंबर महीने तक जब किसानों का नया आलू बाजार में आएगा, तब आलू की कीमत कम हो जाएगी.

सरकार को बिचौलियों से पूछना चाहिए कि 10 रुपए प्रति किलोग्राम का आलू उपभोक्ता को 60 रुपए से 80 रुपए प्रति किलोग्राम में क्यों बिक रहा है? ट्रैजिडी यह देखिए कि जिस आलू की बोआई में किसानों ने अपनी पूरी मेहनत, समय और लागत लगाई, उस को इस  के हिसाब से कुछ नहीं मिला. जिस बिचौलिए ने केवल भंडारण किया, वह कई गुना कमाई करने में कामयाब रहा.

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आलू की कहानी हर साल

यह बात केवल आलू की ही नहीं है, बल्कि किसान के खेतों में तैयार हर फसल का यही हाल है. जैसे ही किसान के खेत में फसल तैयार होती है, वैसे ही बाजार में उस के दाम कम हो जाते हैं. यही वह ट्रैजिडी है, जो किसान को मुनाफा नहीं कमाने देती.

नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते से उत्तर प्रदेश की मंडियों में यहां के किसानों के खेतों से तैयार आलू पहुंचने लगे हैं. 20 नवंबर तक तकरीबन 2,500 क्विंटल नया आलू बाजार में आ चुका है, जिस से फुटकर बाजार में आलू की कीमत गिरने लगी है.

उत्तर प्रदेश उद्यान विभाग के उद्यान निदेशक एसबी शर्मा कहते हैं, ‘प्रदेश का उत्पादित नया आलू अच्छी मात्रा में दिसंबर महीने तक बाजार में आ जाएगा. अभी ज्यादातर आलू पंजाब, हरियाणा और गुजरात से आ रहा है. जैसेजैसे किसान अपना नया आलू बाजार में लाएंगे, वैसेवैसे आलू की कीमत घट जाएगी.’

उत्तर प्रदेश में आलू की खुदाई नवंबर महीने के दूसरे हफ्ते से शुरू हो जाती है. कानपुर, फर्रुखाबाद, आगरा, कन्नौज, हाथरस और फिरोजाबाद की मंडियों में 20 नवंबर से 25 नवंबर तक नया आलू मंडियों तक पहुंच जाता है.

किसान अच्छी कीमत पाने के चक्कर में आलू की खुदाई कुछ समय पहले ही कर देते हैं, जिस की वजह से आलू में पानी की मात्रा ज्यादा होती है और यह खाने में पसंद नहीं किया जाता है. इस के मुकाबले पुराना आलू ज्यादा बिकता है.

किसानों का यही आलू सस्ते में खरीद कर बिचौलिए भंडारण कर लेते हैं. बाद में जब किसानों का आलू बिक जाता है, तो बिचौलिए अपने आलू की कीमत बढ़ा देते हैं. आलू की इस कहानी से किसान और बिचौलिए के फायदेनुकसान और लागत की बात साफ दिख रही है.

कमोबेश यही हालत दूसरी फसलों की भी होती है. बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि हर प्रदेश में ऐसे ही हालात हैं.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 40 किलोमीटर दूर इटौंजा में किसान रामफल सब्जी की खेती करते हैं. वे बताते हैं, ‘हमारे यहां से बैगन 5 रुपए से 7 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिका और दुबग्गा की सब्जी मंडी में वही बैगन 25 रुपए से 30 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा था. इस में न तो बिचौलिया किसी भी तरह का भंडारण का बोझ ढो रहा है और न ही कोई लागत लगा रहा है, इस के बाद भी वह  5 गुना तक का मुनाफा कमा रहा है.

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‘यही हाल मटर, धनिया, टमाटर और भिंडी का होता है. बिचौलिए के मुनाफे से आम आदमी और किसान दोनों ठगे जा रहे हैं. मोटा अंदाजा यह है कि बिचौलिए 8 से 10 गुना ज्यादा कीमत पर हरी सब्जियां बेच रहे हैं.

‘केरल में इस तरह की समस्या के समाधान के लिए वहां की सरकार ने सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर रखा है, जिस से कम पर किसी भी तरह के किसान से कोई सब्जी नहीं खरीद सकता है. ऐसी व्यवस्था पूरे देश में हो, तो किसान और उपभोक्ता दोनों को राहत मिलेगी.’

कैसे होता है मुनाफे का खेल

लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके में रहने वाले शुभम सिंह खेतीकिसानी करने के साथसाथ किसानों की राजनीति और अपना कारोबार भी करते हैं. वे बताते हैं, ‘हम एक बार अपने खेत की भिंडी ले कर लखनऊ की दुबग्गा सब्जी मंडी गए. वहां बिचौलिए ने 8 रुपए प्रति किलोग्राम में भिंडी की कीमत तय की. कैसरबाग की फुटकर सब्जी मंडी में यही भिंडी  50 रुपए से 60 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई और घरघर तक पहुंचने की कीमत 80 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई.

‘किसान से उपभोक्ता तक सब्जी पहुंचने में  3 तरह के बिचौलिए जैसे थोक मंडी, फुटकर मंडी और दुकानदार शामिल होते हैं. 10 गुना फायदे में इन की हिस्सेदारी होती है. किसान महीनों मेहनत कर के जिस भिंडी से केवल  8 रुपए प्रति किलोग्राम पाते हैं, जबकि इस में उन की लागत और समय दोनों  ही लगा होता है, पर 3 बिचौलिए केवल उपभोक्ता तक सामान पहुंचाने के नाम पर सारा मुनाफा एक ही दिन में कमा लेते हैं. ये लोग पहले से ऐसी कीमत लगाते हैं, जिस में खराब होने वाली या न बिकने वाली सब्जी की कीमत भी जुड़ी होती है.’

शुभम सिंह आगे बताते हैं कि मंडी में किसान की फसल की कीमत कुछ बिचौलिए बोली लगा कर तय करते हैं. इसी कीमत पर किसान को अपनी फसल बेचनी होती है. मनमुताबिक कीमत न मिलने के बाद भी किसान पैदावार बेचने को मजबूर होते हैं. मंडी के बिचौलिए, आढ़ती और दलाल किसानों से किसी भी तरह की हमदर्दी नहीं रखते हैं. किसान को तो 2 फीसदी मंडी शुल्क भी अदा करना पड़ता है.

उत्तर प्रदेश सरकार मंडी शुल्क में कटौती कर के किसानों को राहत देने का दावा कर रही है. उत्तर प्रदेश सरकार की मंडियों में किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए उन से 2 फीसदी मंडी शुल्क लिया जाता है. इस शुल्क से बचने के लिए किसान बिचौलियों  को मंडी के बाहर ही अपनी फसल बेच देते हैं.

सरकार ने मंडियों में किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए बढ़ावा देने के लिए मंडी शुल्क घटा कर आधा कर दिया है. अब किसानों को केवल एक फीसदी मंडी शुल्क देना होगा. किसान और उस से जुडे संगठन काफी दिनों से यह मांग कर रहे थे. इस से किसानों को कितना फायदा होगा, यह देखने वाली बात है.

नए कृषि कानून में किसानों की उपज को खरीदने का काम निजी कारोबारियों और मंडियों को भी दिया गया है. ऐसे में यह जरूरी है कि फसल का न्यूनतम मूल्य जरूर तय किया जाए.

किसानों का शोषण

मंडियों में किस तरह से किसानों को मजबूर किया जाता है, इस को बताते हुए नवनीत सिंह कहते हैं, ‘जब किसान कोई जल्दी खराब होने वाली अपनी उपज ले कर मंडी जाता है, तो वहां बिचौलिए उस की बोली लगाने से ही इनकार कर देते हैं. किसानों को लगता है कि कम से कम आनेजाने और कुछ सामान खरीदने भर का ही पैसा मिल जाए. उन की मजबूरी को समझने के बाद भी बिचौलिए उपज की बोली नहीं लगाते हैं. ये लोग इतने संगठित होते हैं कि अगर एक ने मना कर दिया, तो दूसरा भी खरीदता नहीं है.

‘एक बार हम अपने खेत से उगाई गई हरी प्याज बेचने मंडी गए. हरी प्याज के जल्दी खराब होने और सड़ने का खतरा रहता है. कई बार तो यह रातभर भी नहीं रुक पाती है. मंडी में इस को खरीदने से इनकार कर दिया गया. बहुत कहा तो एक आढ़ती ने कहा कि चबूतरे पर रख जाओ, सड़ीगली निकाल कर. अगर कुछ बिक गई तो पैसा दे देंगे.

‘एक तरह से कूड़े की तरह हम अपनी हरी प्याज के 10 गट्ठर फेंक कर चले आए. बदले में आढ़ती ने केवल 1,000 रुपए दिए.’

जिस प्याज को वह आढ़ती सड़ीगली, कूड़ा कह रहा था, उसे उस ने खोल कर छोटेछोटे गट्ठर बना लिए और 10 रुपए प्रति गट्ठर फुटकर मंडी के किसान को बेच दिया. वैसे, कई बार किसान परेशान हो कर ऐसी उपज को फेंक देते हैं या पशुओं को खिला देते हैं.

मंडियों में भी आपस में किसानों की खरीद को ले कर एक समझौता होता है. कोई किसान चाह कर भी अपनी उपज फुटकर मंडी या दुकानदार को नहीं बेच सकता. इसी तरह कोई उपभोक्ता अगर चाहे कि वह फुटकर मंडी या थोक मंडी से अपने रोज की जरूरत के लिए कुछ खरीद ले, तो नहीं खरीद सकता है. शहरों में रेहड़ी लगाने के लिए भी किसान को इजाजत नहीं होती. इस के अलावा वह सस्ती कीमत पर भी उपभोक्ता को सीधे उपज नहीं बेच सकता है.

मोहनलालगंज, लखनऊ की ब्लौक प्रमुख विजय लक्ष्मी कहती हैं, ‘किसानों को उपज का दाम लागत से भी कम मिल रहा है. केंद्र सरकार को नया कृषि कानून बनाने से पहले यह तय करना चाहिए था कि किसानों को उपज की सही कीमत मिले. किसानों के हितों की हिफाजत करने के लिए सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए.’

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महंगाई पर पड़ता असर

सब्जियों और दूसरे खाद्यान्नों की महंगाई का असर आम जीवन पर भी पड़ता है. तालाबंदी के दौर में भी रसोई की जरूरतों को नजरअंदाज करना मुश्किल काम नहीं था. भंडारण कर के रखी जाने वाली चीजों की ज्यादा खरीदारी की गई, जिस में आटा, चावल, आलू, प्याज, दालें और तेलमसाले  प्रमुख थे.

मुनाफाखोरों ने इन के दामों में न केवल बढ़ोतरी कर दी, बल्कि घटिया माल की सप्लाई भी की. तालाबंदी के समय में फैक्टरियों में माल तैयार नहीं हो रहा था. बाजार में बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए तमाम लोकल ब्रांड भी माल बना कर बेचने लगे, जो उतना अच्छा भले ही नहीं होता था, पर कीमत में बहुत अंतर नहीं था.

लखनऊ के सप्रू मार्ग पर शर्मा चाट का एक ठेला लगता है. तालाबंदी के पहले वह 30 रुपए प्लेट की दर से आलू की टिक्की बेचता था. तालाबंदी के बाद जब सरकार ने सड़कों पर दुकानें खोलने की इजाजत दे दी, तो उस ने चाट की कीमत में बढ़ोतरी कर दी.

इसे चलाने वाले प्रकाश शर्मा का कहना है कि 50 रुपए प्रति प्लेट टिक्की इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि हर चीज के दाम बढ़ गए हैं खासकर आलू के दाम बहुत बढ़े हुए हैं. इस के अलावा हम ने  3 साल के बाद दाम बढ़ाए हैं और करीबकरीब हर जगह इसी कीमत पर चाट बिक रही है. दुकानों में तो 80 रुपए प्रति प्लेट टिक्की बिक रही है.

उपभोक्ता मामलों के जानकार पत्रकार रजनीश राज कहते हैं, ‘तालाबंदी  के बाद घाटे को पूरा करने के लिए कुछ कारोबारियों ने कीमतों में बढ़ोतरी कर दी. इस का असर यह हुआ कि खानेपीने की हर चीज 15 फीसदी से ले कर 30 फीसदी तक महंगी हो गई.

‘दुकानदार महंगाई का बहाना बना कर दाम बढ़ा देते हैं, लेकिन दाम घटने पर कोई माल सस्ता नहीं बिकता है. आलू के महंगे होने से टिक्की के दाम बढ़ गए, पर आलू के सस्ते होने पर टिक्की के दाम घटेंगे नहीं. खानेपीने की चीजों में इस तेजी की वजह लेबर की कमी और फैक्टरियों में कम उत्पादन होना भी है.’

बाढ़ में डूबे बिहार से आई रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर, पढ़ें पूरी खबर

कुदरती कहर हो या मानव जनित दुर्घटनाएं, दुनिया के किसी एक कोने से ऐसी तस्वीर कभीकभी सामने आती है कि जिन्हें देखते ही या तो रूह कांप उठता है या फिर रोंगटे खङे हो जाते हैं. ऐसी त्रासदियों में आमतौर पर या तो बच्चे होते हैं या फिर महिलाएं. यों तो दुनियाभर में बच्चों की ऐसीऐसी भयानक तस्वीरें सामने आई हैं जिन्हें देख कर किसी के भी रोंगटे खङे हो जाएं, मगर बाढ की विनाशलीला के बीच बिहार से एक ऐसी ही खौफनाक तस्वीर सामने आई है, जिसे देख कर कलेजा मुंह को आ जाए.

खौफनाक तस्वीर

इस तस्वीर में एक मृत बच्चा पानी से घिरे एक टीले पर पङा हुआ है. वह टीला भी इतना गीला हो चुका है कि कभी भी भरभरा कर पानी में समा सकता है. बच्चे के आसपास कोई नहीं है और वह लावारिस पङा पानी में समा जाने को तैयार है. उस का पूरा शरीर अकड़ कर फूल चुका है.

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सीरिया युद्ध में भी ऐसे ही हालात थे

इसी तरह की एक तस्वीर साल 2015 में तुर्की के समुद्रीतट पर से एक सीरियाई बच्चे की भी सामने आई थी. तब सीरिया में चल रहे गृहयुद्ध की बर्बरता को देख पूरी दुनिया स्तब्ध थी. यह तस्वीर इतना खौफनाक था कि देख कर ही आंखों में आंसू आ जाएं. ऐलन कुर्दी नाम के इस 3 साल के बच्चे का शव तुर्की समुद्रीतट पर बह कर आया था.

पिता-बेटी की रूला देने वाली तस्वीर

कुछ समय पहले उत्तरी अमेरिका की सीमा से लगी रियो ग्रांडे नदी के किनारे एक पिता और बेटी की लाश की तस्वीर भी सामने आई थी, जो बेहद भयानक और मानवीय संवेदना को बुरी तरह रूला रहा था.

अब बाढ की वीभिषका से जूझ रहे बिहार से आई इस मृत बच्चे की तस्वीर ने मानव सभ्यता को हिला कर रख दिया है.

कहर मगर क्यों

कुछ लोग इसे कुदरती कहर बता रहे हैं, कुछ अंधविश्वासी भगवान का प्रकोप, तो वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस के लिए पूरी मानव सभ्यता को ही दोष दे रहे हैं, जिन की वजह से वन खाली हो गए, जंगलों की इतनी कटाई हुई कि वहां रेगिस्तान जैसे हालात हो गए. इस से पहाड़ों के बीच से आने वाली सैकड़ों नदियां अपना मूल रास्ता भटक कर ऐसा कहर बरपाती हैं कि हर साल हजारों की संख्या में लोग मारे जाते हैं. लाखों बेघर हो जाते हैं और करोड़ों कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.

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कौन है असली गुनहगार

बिहार में हर साल आने वाली बाढ भी जहां मानव भूलों का नतीजा हैं, वहीं सफेदपोश नेताओं की लापरवाही भी, जो सिर्फ बाढ से घिरे लोगों के बीच जा कर फोटो खिंचवाने और मुआवजा की घोषणा कर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर लेते हैं. न तो पिछली सरकारें और न ही वर्तमान सरकार ने बाढ से बचाव के लिए कोई प्लान बनाया है.

दरअसल, बिहार में हर साल बाढ नेपाल से छोङे गए पानी से आता है. इस से दोनों ही तरफ के लाखों लोग प्रभावित होते हैं. बस होता इतना भर है कि नेपाल और भारत दोनों ही एकदूसरे पर दोष मढ़ते हैं मगर होता कुछ नहीं. मगर ऐसी खौफनाक तस्वीर देख कर भी सरकार नींद से जाग जाएगी, कहना बेमानी होगा.

 

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