तेजस्वी यादव: भाजपा के लिए खतरा

राज्य के मोकामा और गोपालगंज विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव राष्ट्रीय जनता दल के लिए बेहद खास थे. जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा के अलग होने के बाद ये पहले चुनाव थे. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि राजद एक भी सीट न जीते, जिस से उस की साख पर बट्टा लग सके. इस के लिए भाजपा ने राजद नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मामा साधु यादव और मामी इंदिरा यादव को अपनी तरफ मिला लिया था. वह भाजपा की बी टीम की तरह से काम कर रहे थे. इस के बाद भी राजद ने उपचुनाव में मोकामा सीट पर जीत हासिल कर ली. तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘‘गोपालगंज सीट पर भी हम ने भाजपा के वोटों में सेंधमारी की है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में हमें 40,000 वोटों से हार मिली थी, जबकि उपचुनाव में सहानुभूति वोट के बाद भी केवल 1,700 वोटों से हारे हैं.

‘‘इस से इस बात का प्रमाण भी मिल गया है कि तेजस्वी यादव ने अब अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. अब बिहार में राजद ही भाजपा को रोकने का काम कर सकती है.’’

33 साल के तेजस्वी यादव को 2 बार बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिल चुका है. राजनीतिक जानकार तेजस्वी यादव को बिहार के भविष्य का नेता मान रहे हैं. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अपना वजूद खो बैठी है. नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी कोई बन नहीं पाया है. नीतीश कुमार अब बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा रहे हैं. कांग्रेस बिहार में अपने को मजबूत नहीं कर पा रही और भाजपा भी अपने बलबूते कुछ चमत्कार नहीं कर पा रही है. ऐसे में बिहार में सब से मजबूत पार्टी राजद के रूप में सामने है. ट्वैंटी20 क्रिकेट सा धमाल जिस तरह से 20 ओवर के क्रिकेट मैच में दमदार खिलाड़ी आखिरी ओवर तक रोमांच बना कर रखता है, कभी हिम्मत नहीं हारता है, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हारी बाजी अपने नाम कर लेते हैं. जिस भाजपा और जद (यू) गठबंधन ने तेजस्वी यादव को सत्ता से बाहर किया था, मौका मिलते ही तेजस्वी यादव ने उस बाजी को पलट कर वापस सत्ता में हिस्सेदारी कर ली.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 10 नवंबर, 1989 को हुआ था. वे राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे हैं. तेजस्वी यादव क्रिकेट खेलना भी जानते हैं. उन्होंने दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए आईपीएल भी खेला है. दिसंबर, 2021 में दिल्ली की एलेक्सिस से उन की शादी हुई थी. तेजस्वी और एलेक्सिस दोनों एकदूसरे को 6 साल से जानते थे और पुराने दोस्त थे. तेजस्वी यादव को महज 26 साल की उम्र में बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. तब वे डेढ़ साल तक नीतीश कुमार की 2015 वाली सरकार में बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे थे.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी राजद को मजबूत किया. वे कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़े. राजद सब से बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के चलते नीतीश कुमार और भाजपा ने मिल कर सरकार बनाई. उस समय तेजस्वी यादव बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 10 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार और भाजपा में अलगाव हो गया. इस के बाद नीतीश कुमार और राजद का तालमेल हुआ, जिस के बाद तेजस्वी यादव को दोबारा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं.

तेजस्वी से डरती है भाजपा जिस तरह से लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में भाजपा के बढ़ते रथ को बिहार में रोका था और उसे अपने बल पर सत्ता में नहीं आने दिया था, वही काम अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की राजनीति को खत्म करने के लिए भाजपा ने उन्हें चारा घोटाले में फंसाया था, वैसे ही अब तेजस्वी यादव को आईआरसीटी घोटाला मामले में फंसाने का काम हो रहा है. भाजपा समझ रही है कि अगर तेजस्वी यादव को रोका नहीं गया, तो उसे बिहार में सत्ता नहीं मिलेगी.

आईआरसीटी घोटाला मामले में तेजस्वी यादव के वकीलों ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के खिलाफ सीबीआई व ईडी का गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया. आईआरसीटी घोटाला मामले में सुनवाई के दौरान तेजस्वी यादव के वकीलों ने कहा कि विपक्ष के नेता होने के नाते केंद्र सरकार के गलत कामों का विरोध करना उन का फर्ज है. कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम को फटकारते हुए कहा कि वे सार्वजनिक रूप से बोलते वक्त जिम्मेदाराना बरताव करें और उचित शब्दों का इस्तेमाल करें. आईआरसीटी घोटाला साल 2004 में संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान का है. रेलवे बोर्ड ने उस वक्त रेलवे की कैटरिंग और रेलवे होटलों की सेवा को पूरी तरह निजी क्षेत्र को सौंप दी थी. इस दौरान झारखंड के रांची और ओडिशा के पुरी के बीएनआर होटल के रखरखाव, संचालन और विकास को ले कर जारी टैंडर में अनियमितताएं किए जाने की बातें सामने आई थीं.

यह टैंडर साल 2006 में एक प्राइवेट होटल सुजाता होटल को मिला था. आरोप है कि सुजाता होटल के मालिकों ने इस के बदले लालू प्रसाद यादव के परिवार को पटना में 3 एकड़ जमीन दी थी, जो बेनामी संपत्ति थी. इस मामले में भी लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत 11 लोग आरोपी हैं. सीबीआई ने जुलाई, 2017 में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव समेत 11 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. इस के बाद सीबीआई की एक विशेष अदालत ने जुलाई, 2018 में लालू प्रसाद यादव और अन्य के खिलाफ दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था. मामा का लिया सहारा तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भाजपा उन के मामा साधु यादव का प्रयोग भी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव तेजस्वी का विरोध कर रहे हैं. परिवार का होने के कारण तेजस्वी यादव उन के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 75 विधायकों के साथ राजद सब से बड़ी पार्टी बनी थी. उपचुनाव में एक सीट पर जीत मिलने के बाद उस के विधायकों की संख्या 76 हो गई है. दूसरी तरफ भाजपा ने वीआईपी पार्टी के 3 विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर लिया था. इस के बाद भाजपा 77 विधायकों के साथ बिहार की पहले नंबर की पार्टी बन गई थी. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 4 विधायकों के पाला बदलते ही बिहार में राजद के पास विधानसभा में विधायकों की संख्या 80 हो गई है.

आने वाले दिनों में भाजपा और राजद के बीच सीटों को ले कर सांपसीढ़ी का यह खेल चलता रहेगा. लेकिन इस में तेजस्वी यादव भारी न पड़ जाएं, इस के लिए भाजपा उन की मजबूत घेराबंदी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव इस में सब से बड़ा मोहरा बन रहे हैं. आने वाले दिनो में बिहार में बड़ा उलटफेर हो सकता है, जिस के बाद बिहार में सरकार चलाने के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार की जरूरत खत्म हो सकती है. राजद के साथ कुल

80 विधायक हैं. कांग्रेस और वाम दल तो पहले से ही महागठबंधन में हैं. इस से संख्या कुलमिला कर 114 है. अगर तेजस्वी यादव कहीं जीतनराम मांझी के 4 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायकों को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब रहे, तो उन के साथ विधायकों की कुल संख्या 121 हो जाएगी, जो नीतीश कुमार के लिए खतरनाक हो जाएगा. आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं. यह भाजपा के लिए खतरा है. वह तेजस्वी यादव में मंडल युग का लालू प्रसाद यादव वाला असर देख रही है.

महाराष्ट्र: संजय राउत जेल से लौटे- अदालत का इंसाफ और नरेंद्र मोदी

अब तो देश के सामने सबकुछ खुला खेल फर्रुखाबादी की तरह साफसाफ है. महाराष्ट्र में शिव सेना नेता संजय राउत की गिरफ्तारी और तकरीबन 100 दिन की जेल और अदालत से रिहाई. सब से बड़ी बात अदालत की टिप्पणी से साफ है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और अमित शाह का गृह मंत्रालय किस तरह काम कर रहा है. अगर हम लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बात करें, तो आज का समय एक काले अंधेरे की तरह है और देश की जनता अगर इस का अपने मतदान के माध्यम से रास्ता नहीं निकालेगी, तो आखिर में डंडा देश की आम जनता की पीठ पर ही पड़ने वाला है.

शिव सेना सांसद संजय राउत 100 दिन बिता कर एक विजेता की भूमिका में जेल से आ गए हैं. उन की वापसी पर शिव सेना समर्थकों ने जगहजगह ‘टाइगर इज बैक’, ‘शिव सेना का बाघ आया’ जैसे पोस्टर लगाए और यह संदेश दे दिया है कि चाहे कोई कितना जुल्म कर ले, शिव सेना और संजय राउत झुकने वाले नहीं हैं. दरअसल, शिव सेना नेता संजय राउत को प्रवर्तन निदेशालय ने पात्रा चाल घोटाले में मनी लौंड्रिंग से जुड़े मामले में इस साल जुलाई महीने में गिरफ्तार किया था. जेल से बाहर आने के बाद संजय राउत ने अपने घर के बाहर मीडिया से चर्चा की. उन्होंने कहा कि उन की सेहत ठीक नहीं है. अपनी कलाई की ओर इशारा करते हुए संजय राउत ने कहा, ‘‘3 महीने बाद यह घड़ी पहनी है. यह भी कलाई पर ठीक से नहीं आ रही है.’’

जेल में बिताए दिनों को इस से बेहतर दर्दभरे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता. इस से पहले संजय राउत ने बाला साहब ठाकरे की समाधि शिवाजी पार्क पहुंच कर उन्हें नमन किया और यह संदेश दे दिया कि आने वाले समय में उन की दिशा क्या होगी. दूसरी तरफ उन्होंने शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात की. इस मौके पर उद्धव ठाकरे ने साफसाफ कहा कि केंद्र की जांच एजेंसियां किसी पालतू की तरह काम कर रही हैं. संजय राउत नजीर बन गए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की खुल कर आलोचना करने वाले संजय राउत ने जेल से बाहर आते ही अपने तेवर दिखा दिए और कहा, ‘वे नहीं जानते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती मुझे गिरफ्तार कर के की है. यह उन के राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी गलती साबित होगी.’

दरअसल, आज देश के हर नागरिक के लिए सोचने वाली बात है कि क्या हम तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं? अगर हम महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर डालें तो यह साफ है कि जो भी घट रहा है, मानो उस की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है. उद्धव ठाकरे का शरद पवार और कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर सत्तासीन होना केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को रास नहीं आया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विधायकों को तोड़ दिया गया. यह सच सारे देश ने देखा है और यह लोकतंत्र की हत्या से कम नहीं कहा जा सकता.

मगर एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद महाराष्ट्र की सत्ता और शिव सेना का नाम और निशान खोने वाले उद्धव ठाकरे के लिए यह राहत का सबब है. पहले अंधेरी पूर्व उपचुनाव में जीत और अब संजय राउत की रिहाई ने उन्हें बड़ी राहत दी है. दशहरे की रैली में बड़ी तादाद में लोगों को जुटाने के बाद से ही उद्धव ठाकरे गुट आक्रामक अंदाज में नजर आ रहा है. शायद आज की नरेंद्र मोदी सरकार की विचारधारा यह मानती है कि जो विरोधी हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाए. चाहे बिहार हो या फिर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड हर प्रदेश में भाजपा आक्रामक है और उस के नेता चाहते हैं कि विरोधी खत्म हो जाएं, मगर वे भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की खूबसूरती विपक्ष से ही होती है.

सब से बड़ी बात यह कि भाजपा भी कभी विपक्ष में थी. अगर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता चाहते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कहां होती, यह शायद अंदाजा लगाया जा सकता है. अब चूंकि संजय राउत जेल से निकल आए हैं, लिहाजा वे चुप तो बैठेंगे नहीं. उन का हर वार नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार पर ज्यादा होगा, ताकि भविष्य की राजनीति में खलबली मची रहे.

नीतीश कुमार: प्रधानमंत्री पद की ‘पदयात्रा’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक तरह से मानो तलवार खींच ली है. वे लगातार राहुल गांधी से ले कर अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से मिल रहे हैं. उन की इस भेंटमुलाकात का सिलसिला एक तरह से ‘प्रधानमंत्री पद’ हासिल करने के लिए पदयात्रा के समान है.

नीतीश कुमार के पास 17 साल के मुख्यमंत्री पद का गौरवशाली इतिहास है और देशभर में उन की अलग पहचान भी है. मगर यह भी सच है कि बीच में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर के अपनी छवि और भविष्य पर सवालिया निशान भी लगा लिया है.

इस ‘पदयात्रा’ के पड़ाव यह सच है कि नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग हो कर कांग्रेसी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ तालमेल कर के भाजपा को और सब से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को धोखा दिया है.

घटनाक्रम बता रहा है कि आज के सत्तासीन केंद्र के ये नेता विपक्ष और दूसरी पार्टियों को एक तरह से खत्म कर देना चाहते हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का एक बड़ा चेहरा देश के सामने आया है और वे लगातार देश के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं और सब को एकजुट कर रहे हैं.

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी यानी माकपा के दफ्तर में पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार ने पत्रकारों से कहा कि यह समय वाम दलों, कांग्रेस और सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर के एक मजबूत विपक्ष बनाने का है.

6 सितंबर, 2022 को नीतीश कुमार अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के लिए उन के आवास पर पहुंचे. इस मौके पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और जनता दल (यू) के नेता संजय झा भी मौजूद थे.

अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर के बताया कि मेरे घर पधारने के लिए नीतीश कुमार का शुक्रिया.

नीतीश कुमार ने उन के साथ देश के कई गंभीर विषयों पर चर्चा की. उन्होंने अपने ट्वीट में बताया कि उन के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, आपरेशन लोटस, खुलेआम विधायकों की खरीदफरोख्त कर चुनी सरकारों को गिराना, भाजपा सरकार में बढ़ता निरंकुश भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई.

वहीं नीतीश कुमार ने कहा कि हमारी कोशिश क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट करने की है. अगर सभी क्षेत्रीय पार्टियां मिल जाएं, तो यह बहुत बड़ी बात होगी और हम मिल कर देश के लिए एक मौडल तैयार करने पर काम कर रहे हैं.

इस से पहले नीतीश कुमार ने कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी और यह संदेश दे दिया कि वे एक ऐसी पदयात्रा पर निकल पड़े हैं, जो आने वाले समय में उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सकती है.

हर पटवारी बेईमान होता है!

हमारे देश के कितने ही गांव, शहर, कसबे, जाति के लोग बेईमान माने जाते हैं. इन लोगों को बारबार जन्मजात बेईमान बताया जाता है. गालियां देते समय इन की जाति, शहर या राज्य का नाम ले कर कहा जाना आम है कि तुम तो वहां के हो, इसलिए बेईमान होगे ही.

भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने खिलाफ राजनीति में जुड़े हर जने पर ईडी, सीबीआई, पीएमएलए, एनआईए, पुलिस को लगा कर अपना उल्लू तो सीधा कर रही है पर इस चक्कर में खुदको भी गहरा काला पोत रही है. यह सोच हरेक के मन में पक्की होती जा रही है कि जिस के पास सत्ता है, पावर है, कुछ कर सकता है, वह ऊपर की भरपूर कमाई कर रहा है, उस के यहां तो कमरे भरे पड़े हैं.

अगर वह भारतीय जनता पार्टी में है तो उस पर रेड न होने की वजह से जनता उसे शरीफ मान लेगी, यह नामुमकिन है. जब बहुत से मंत्री, मुख्यमंत्री, अफसर, उद्योगपति, ठेकेदार चपेट में आ चुके हों तो कुछ बचे होंगे, यह भी पक्का माना जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी का हर मंत्री भी बेईमान होगा.

कोई ऐसे ही केवल दिल बदलने से वर्षों पुरानी पार्टी से नाता नहीं तोड़ता. उसे मंत्री पद का लालच भी तभी दिया जा सकता है जब वह मंत्री न हो. यहां तो भाजपा दूसरी पार्टी के मंत्रियों को अपने में मिला कर मंत्री बना रही है तो मतलब साफ है कि उन्हें मंत्री बनने के साथसाथ कुछ और मिला होगा. यह वही कुछ और जिसे ढूंढ़ने के अवसर भाजपा सरकार अपने विरोधियों की पार्टी वालों को भेज रही है.

जनमानस में यह तो हमेशा से था कि हरेक पार्टी बेईमान है पर कांग्रेस महाबेईमान है, यह 2014 तक विनोद राय जैसे कंपट्रोलर जनरल ने नकली, झूठी, विश्वासघात करने वाली साजिशों भरी रिपोर्टें दे कर साबित कर दिया था. जिस तरह 2014 में जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने उसे हाथोंहाथ लिया, साबित हो गया कि वह नितांत बेईमानी वाली रिपोर्ट थी और आज जिस तरह वे ऊंचे पद पर बैठे हैं उस से भी साबित है कि इनाम भी मिला.

हमारे देश में शराफत को भाव कभी अच्छा नहीं मिला. धर्म हमेशा कहता रहा कि हर जजमान तो पाप करता ही रहता है और जब तक दानदक्षिणा न दो इस पाप से मुक्ति नहीं मिलेगी. गोदान इसी पाप से मरने के बाद पिंड को यमराज के प्रेतों के जुल्मों से बचाने के लिए किया जाता है. गरुड़ पुराण भरा है उन कष्टों के बखानों से जो यम के दूत देते हैं और उन तरीकों से भी जो दान की वजह से मिलते हैं, पर इस से क्या दान लेने वाला बेईमान नहीं हो जाता?

जो लोग पापी से दान लेते हैं वे पापी के पार्टनर हुए न. अगर 20 नेताओं के यहां रेड पड़ती है, 2-3 के यहां करोड़ों मिलते हैं, 18 के मामले बरसों चलते रहते हैं तो क्या साबित नहीं होता कि सभी नेता चाहे किसी पार्टी के हैं, बेईमान हैं? आज सत्ता में सब से ज्यादा नेता भाजपा के हैं, सब से ज्यादा सरपंच भाजपा के हैं, सब से ज्यादा जिला अध्यक्ष भाजपा के हैं, सब से ज्यादा विधायक भाजपा के हैं, सब से ज्यादा सांसद भाजपा के हैं, सब से ज्यादा मंत्री भाजपा के हैं. वे शराफत के पुतले होंगे जबकि उन के जैसे दूसरी हर पार्टी के विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री काले हैं, यह तो सोचना ही गलत है. भाजपा अपना नुकसान ज्यादा कर रही है. भाजपा हर सुबह बता देती है कि किसी विधायक, मंत्री, सांसद पर भरोसा न करो, उस ने जनता का पैसा खाया होगा.

हर नेता पटवारी की तरह का है क्योंकि यह मान लिया गया है कि हर पटवारी बेईमान होता है.

भाजपा की कमजोर कड़ी है पश्चिमी इलाका

उत्तर प्रदेश  भाजपा की   शैलेंद्र सिंह  कमजोर कड़ी है  पश्चिमी इलाका भारतीय जनता पार्टी को यह पता है कि अगर वोट जातीय आधार पर पड़ेंगे, तो उसे नुकसान होगा. ऐसे में उस की पहली कोशिश यह रहती है कि वोट धर्म के आधार पर पड़ें. साथ ही, वह जातियों में भी एकजुटता नहीं रहने देना चाहती है.  उत्तर प्रदेश में जाट बिरादरी ऐसी है, जिस के पास केवल लोकदल का सहारा रहता है. अब भाजपा इस में सेंधमारी करने की कोशिश कर रही है. इस योजना के तहत भाजपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश संगठन मंत्री पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहने वालों को बनाया है.

भारतीय जनता पार्टी ने 2022 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीत कर लगातार दूसरी बार बहुमत की सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली थी. इस के बाद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ले कर उस के मन में डर बैठा हुआ है.  भाजपा को इस बात का भरोसा नहीं है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट समाज भाजपा के पक्ष में ही वोट देगा. भाजपा की बहुत सारी कोशिशों के बाद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जिस में जाट बिरादरी का बहुमत ज्यादा है, को वह अपने पक्ष में खड़ा नहीं देख रही है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल की साख बनी हुई है. चौधरी अजित सिंह के बाद उन के बेटे जयंत चौधरी ने जाट समाज पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लोकदल और समाजवादी पार्टी गठबंधन ने अपना असर दिखा दिया था.

अगर बहुजन समाज पार्टी ने विधानसभा चुनाव में अपनी भूमिका सही से दिखाई होती, तो भाजपा का जीतना मुश्किल हो जाता. भाजपा साल 2024 के लोकसभा चुनावों में कोई ऐसा खतरा नहीं मोल लेना चाहती, जिस से उसे किसी दूसरे दल पर निर्भर रहना पड़े. राजनीति में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. विपक्षी एकता के असर में अगर बसपा, सपा और लोकदल एक ही मंच पर आ गए और दलितपिछड़ों में यादव और जाटव समाज के साथ दूसरी जातियां भी एक मंच पर खड़ी हो गईं, तो भाजपा के लिए दिक्कत हो सकती है. जाट बिरादरी को खुश करने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी ने चौधरी भूपेंद्र सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. वैसे, वे पहले योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री थे.

उन्होंने साल 1991 में भाजपा का साथ पकड़ा था और मेहनती नेता कहलाते हैं. खराब हालात में भी उन की मेहनत से साल 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा इस बैल्ट की 126 सीटों में से  85 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी. अब साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा 80 सीटें जितने का लक्ष्य रख रही है. ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को खुश करना सब से ज्यादा जरूरी है. इस के लिए ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले चौधरी भूपेंद्र सिंह को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. पश्चिम से ही हैं संगठन मंत्री भाजपा ने प्रदेश संगठन मंत्री के रूप में सुनील बंसल की जगह पर बिजनौर जिले की नगीना तहसील के रहने वाले धर्मपाल सिंह को जिम्मेदारी दी है. इस का मतलब यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही भाजपा ने अपना प्रदेश  अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह को बनाया है और यहीं से धर्मपाल सिंह को संगठन मंत्री बना दिया है.  भाजपा में संगठन मंत्री का पद बहुत खास पद होता है. इस की वजह यह है कि भाजपा का संगठन मंत्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक सदस्य होता है. इस पद पर वही रहता है, जो संघ का सदस्य हो. इस के पहले यह पद सुनील बंसल के पास था, जिन को ‘सुपर सीएम’ कहा जाता था.

सत्ता के इसी असर की वजह से सुनील बंसल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच संबंध सहज नहीं रहते थे. भाजपा के मंत्री और नेता योगी आदित्यनाथ से ज्यादा सुनील बंसल को अहमियत देते थे.  इस से भाजपा में संगठन मंत्री की ताकत को समझा जा सकता है. यह पद ऐसा है, जिस पर संघ तबादले करता है. धर्मपाल सिंह इस के पहले झारखंड भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अहमियत को बढ़ाने के लिए भाजपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष और संगठन मंत्री दोनों ही एक इलाके से दे दिए हैं. इस दांव से वह जाट बिरादरी के बीच अपनी पैठ और मजबूत करना चाहती है.  पश्चिमी उत्तर प्रदेश का असर केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि इस की सीमा से लगे दिल्ली और हरियाणा तक भी होता है. ऐसे में ये दोनों ही नेता काफी असरदार साबित हो सकते हैं. इन को संगठन का अनुभव भी है. इस वजह से ये अच्छा चुनाव लड़ा सकते हैं, जिस से भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ज्यादा लोकसभा सीटें मिल सकती हैं.

मसला: पौराणिक जीवियों के विरोध में मुखरता की कमी

 शैलेंद्र सिंह

सिस्टम में बदलाव के लिए राजनीतिक सत्ता जरूरी होती है. राजनीतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए विचारों की शुद्धता से समझौता करना पड़ता है. विचारों को बनाए रखते हुए सत्ता को बहुत लंबे समय तक बैलैंस नहीं रखा जा सकता है. ऐसे में कई बार दूसरे विचारों को अपनाने का दिखावा किया जाता है और मतलब निकल जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देने को राजनीतिक चतुराई कहा जाता है.

यह कड़वा सच है, जिस की हकीकत जान कर भी उस की धोखेबाजी की बुराई तो दूर बात भी नहीं की जाती. इसे सहज घटना की तरह लिया जाता है मानो यह बेईमानी तो धर्म से एप्रूव्ड है.

पौराणिक कथाओं तक में ऐसी कहानियों को बारबार दोहराया गया है, जिस की वजह से ऐसे कामों को गलत भी नहीं माना जाता है.

हिंदू पौराणिकजीवियों के सताए गए लोग भी पौराणिक कथाओं और नियमों में विश्वास करने लगे हैं, क्योंकि उन को समझाने के लिए कोई मीडिया या मंच नहीं है.

इस समुद्र मंथन की कहानी ऐसी ही एक पौराणिक कथा है, जिस के जरीए आज के हालात को समझाने की कोशिश करते हैं.

एक समय की बात है. राजा बलि के राज्य में दैत्य, असुर व दानव बहुत ज्यादा ताकतवर हो उठे थे. उन को असुरों के गुरु शुक्राचार्य से तमाम ताकतें हासिल हो गई थीं. दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इंद्र कमजोर हो गए थे. दैत्यराज बलि का राज तीनों लोकों पर हो चुका था. इंद्र समेत सभी देवता उस से डरे रहते थे.

इस बात से दुखी देवता विष्णु के पास पहुंचे और उन को अपनी परेशानी सुनाई. तब विष्णु ने कहा कि यह तुम लोगों के लिए संकट का समय है. दैत्यों, असुरों व दानवों का दबदबा हो रहा है और तुम लोगों के लिए संकटकाल को दोस्ती के भाव से बिता देना चाहिए. तुम दैत्यों से दोस्ती कर लो और क्षीरसागर को मथ कर उस में से अमृत निकाल कर पी लो.

दैत्यों की मदद से यह काम आसानी से हो जाएगा. इस काम के लिए उन की हर शर्त मान लो और अपना काम निकाल लो. अमृत पी कर तुम अमर हो जाओगे और तुम में दैत्यों को मारने की ताकत आ जाएगी.

इस के बाद इंद्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकालने की बात बलि को बताई. दैत्यराज बलि ने देवराज इंद्र से समझौता कर लिया. समुद्र मंथन की तैयारियों में ही देवताओं ने चतुराई दिखानी शुरू कर दी.

वासुकी नाग को मुंह की ओर से पकड़ते समय देवताओं ने ऐसा दिखावा किया, जैसे वही ताकतवर हैं. यह बात दैत्य, असुर, दानवों को अपना मजाक लगी. इन लोगों ने देवताओं से कहा कि हम किसी से ताकत में कम नहीं हैं. हम मुंह की ओर की जगह लेंगे.

तब देवताओं ने वासुकी नाग की पूंछ की ओर की जगह ले ली. समुद्र मंथन से जो निकला, वह देवता और दानव आपस में बांटने लगे. अच्छीअच्छी चीजों पर देवताओं ने कब्जा किया, बाकी चीजें दानवों को दे दीं.

जब अमृत कलश सामने आया, तो आपस में लड़ाई होने लगी. दोनों ही पक्ष इस पर अपना हक चाहते थे. जब देवता हारने लगे, तब एक बार ही छल का इस्तेमाल किया गया. देवताओं की निराशा को देख कर विष्णु ने तत्काल बहुत सुंदर कामुक युवती का मोहिनी रूप धर लिया और लड़ते दैत्यों के पास जा पहुंचे.

विष्णु को विश्वमोहिनी रूप में देख कर देत्य व देवताओं की तो बात ही क्या स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले शंकर भी मोहित हो कर उन की ओर बारबार देखने लगे. जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुंदरी को अपनी ओर आते देखा, तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुंदरी की ओर एकटक देखने लगे.

विश्वमोहिनी बने विष्णु ने अमृत का बंटवारा कुछ इस तरह किया कि सारा का सारा देवताओं को मिल गया. अमृत कलश ले कर देवताओं और दैत्यों को अलगअलग लाइन में बैठने के लिए कहा. उस के बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुए देवताओं को अमृतपान कराने लगे.

दैत्य उन के कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुए कि अमृत पीना ही भूल गए. इस तरह देवताओं को अमृत पिला कर विष्णु वहां से लोप हो गए. उन के लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी खत्म हो गई. वे गुस्सा हो देवताओं पर हमला करने लगे. भयंकर देवासुर संग्राम शुरू हो गया, जिस में देवराज इंद्र ने दैत्यराज बलि को हरा कर अपना इंद्रलोक वापस ले लिया.

ऐसे खो गई विचारधारा

भारत की राजनीति में भी ऐसी तमाम कहानियां हैं, जहां वोटों के लिए दलित और पिछड़ों का इस्तेमाल किया गया. वोट हासिल करने के बाद उन को इस हालत में पहुंचा दिया गया कि वे अपनी ताकत खो कर दूसरों के मुहताज हो गए.

80 के दौर में दलित चिंतन में कांशीराम का नया विचार आया कि सत्ता के जरीए सिस्टम को बदलना होगा. कांशीराम ने बामसेफ की जगह पर बसपा यानी बहुजन समाज पार्टी को शुरू किया. इसी दौर में राम मंदिर आंदोलन आगे बढ़ा, मंडल कमीशन लागू हुआ, समाज में उथलपुथल का दौर चला. दलितपिछड़ों के सामने पौराणिक विचारधारा कमजोर पड़ने लगी. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने ‘मिले मुलायमकांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ का नारा दे कर सत्ता पर कब्जा किया. ऐसा लगा कि सत्ता के जरीए सिस्टम बदलने के लिए दलितपिछड़े एक मंच पर आ गए हैं.

उत्तर प्रदेश में उस समय सरकार चला रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों को रोकने के लिए अयोध्या में गोली चलवाई. इस के बाद मुलायम सिंह यादव को ‘मुल्ला मुलायम’ कहा जाने लगा. अब धर्म की राजनीति और राम मंदिर आंदोलन का विरोध पूरी ताकत से हो रहा था.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सब को हरा कर सपाबसपा गठबंधन की सरकार बनी. उस दौर में यह साफ  दिख रहा था कि जातीय जागरूकता ने धर्म की राजनीति को हाशिए पर धकेल दिया है. अयोध्या की सरयू नदी में कुछ ही पानी बहा होगा कि सपा और बसपा जैसे दल धर्म के विरोध की राजनीति को छोड़ कर सत्ता की राजनीति पर उतर आए और धर्म का विरोध करना छोड़ दिया.

बसपा नेता मायावती धर्म का विरोध करते हुए कहती थीं, ‘हिंदू देवीदेवताओं की जो मूर्तियां खुद अपनी रक्षा नहीं कर पातीं, वे जनता की रक्षा क्या कर पाएंगी?’

कांशीराम खुद भी कहते थे कि पौराणिक विचारधारा नीबू के रस की तरह होती है. जैसे एक बूंद नीबू का रस पूरे दूध को फाड़ सकता है, वैसे ही पौराणिक विचारधारा के समर्थन की राजनीति होने लगी. मायावती ने मनुवादी भाजपा की मदद से 3 बार मुख्यमंत्री की कुरसी हासिल की.

साल 2007 में जब बसपा अपने बल पर जीत कर बहुमत से सत्ता में आई, तो इस का श्रेय ‘दलितब्राह्मण एकता’ वाले सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को दिया गया. 1990 के बाद मंडल कमीशन का असर देश की राजनीति पर कमजोर होने लगा और धर्म की राजनीति का असर बढ़ने लगा.

हर दल का नेता अयोध्या जा कर माथा टेकने लगा. 2014 के बाद तो अयोध्या में बौद्ध धर्म भी आडंबर का विरोध दिखावे भर तक सीमित रह गया. 6 दिसंबर को मसजिद के शहीद होने को होने वाले कार्यक्रम फकत तमाशाई बन कर रह गए. कई संगठन, जो अयोध्या को अछूत मान कर दूरी बनाए हुए थे, अयोध्या की भक्ति में डूब गए. अयोध्या की ब्रांडिंग का जरीया बनने लगे.

हिंदू पौराणिकजीवियों के सताए लोग भी पौराणिक कथाओं और नियमों में विश्वास करने लगे, क्योंकि उन के लिए पौराणिक कथाओं से मुकाबला करना आसान नहीं रह गया. बसपा के विचार खत्म हो गए, तो उस का जनाधार भी खो गया और वह सत्ता से दूर हो गई.

‘गैस्ट हाउस कांड’ को भूल कर मायावती ने समाजवादी पार्टी से समझौता किया. इस के बाद भी कुछ हासिल नहीं हुआ, तो वापस अपनी जगह आ गईं. भाजपा के विरोध का स्वर नरम पड़ गया. अब दलित बसपा से ज्यादा भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया है.

इस्तेमाल किया और छोड़ा

मायावती कोई अकेली नेता नहीं हैं, जिन को पौराणिक विचारधारा ने इस्तेमाल किया और जब वह किसी काम के नहीं रह गए, तो उन को छोड़ दिया. ऐसे नेताओं की लंबी लिस्ट है. दलित नेताओं में एक बड़ा नाम रामविलास पासवान का था. रामविलास पासवान ऐसे नेता थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री वीपी सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डा. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी सब के मंत्रिमंडल में प्रमुख मंत्री के रूप में काम किया था.

राम विलास पासवान का जन्म बिहार के खगरिया जिले के शाहरबन्नी गांव में हुआ था. वे एक अनुसूचित जाति परिवार में पैदा हुए थे.

रामविलास पासवान ने 2 शादियां की थीं. पहली शादी राजकुमारी देवी से हुई थी. पहली पत्नी राजकुमारी देवी से उषा और आशा 2 बेटियां हैं. बाद में उन्होंने पहली पत्नी को तलाक दे दिया. इस के बाद अमृतसर की रहने वाली एयरहोस्टेस और पंजाबी हिंदू रीना शर्मा से शादी की. उन से एक बेटा और एक बेटी हैं. उन के बेटे चिराग पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं. रामविलास पासवान 9 बार लोकसभा सांसद और 2 बार राज्यसभा सांसद रहे थे.

रामविलास पासवान ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत दलितों के अधिकार और सम्मान को ले कर की थी. साल 1983 में उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए दलित सेना का गठन किया. जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) से अलग हो कर लोक जनशक्ति पार्टी का गठन किया. इस के बाद वह भाजपा की अगुआई वाले राजग का सदस्य हो कर रह गए.

साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही बीमारी की हालत में रामविलास पासवान की मौत हो गई. पार्टी की कमान बेटे चिराग पासवान के हाथ आई. बिहार के चुनाव में पिता की तरह उन्होंने भाजपा का साथ दिया. भाजपा ने जनता दल (यूनाइटेड) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच दूरियां बढ़ाने का काम किया.

बिहार चुनाव में हार के बाद चिराग पासवान और उन की पार्टी लोक जनशक्ति दोनों ही बिहार की राजनीति में अलगथलग पड़ गए.

रामविलास पासवान ने दलित राजनीति से अपना कैरियर शुरू किया और फिर सत्ता के लिए समझौता कर के कुरसी पर बने रहे. विचारधारा छोड़ने के बाद उन का जनाधार सिमट गया. वे उस पार्टी के पीछे चलने को मजबूर रहे, जिस के खिलाफ चुनाव लड़ने का काम किया करते थे.

पौराणिक विचारधारा ने रामविलास पासवान का इस्तेमाल कर उन के आधार को खत्म कर दिया. रामविलास पासवान के बाद उन की पार्टी गुम हो गई है.

न इधर के रहे न उधर के

दलित नेताओं में एक बड़ा नाम डाक्टर उदित राज का लिया जाता है. वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर उत्तरपश्चिम दिल्ली के सांसद बने थे.

उदित राज भी दलित राजनीति के सहारे आगे बढ़े थे. एससीएसटी संगठनों के अखिल भारतीय संघ के वे राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.

इस के पहले साल 1988 में उदित राज को भारतीय राजस्व सेवा के लिए चुना गया था. एमए और एलएलबी की डिगरी लेने के साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से उन्हें मानद उपाधि मिली थी. डाक्टर उदित राज की पत्नी का नाम सीमा राज है. उन के एक बेटा और एक बेटी हैं.

साल 2003 में डाक्टर उदित राज ने भारत सरकार की सभी सेवाओं से इस्तीफा दे दिया और ‘इंडियन जस्टिस’ नाम की पार्टी बनाई. उदित राज हमेशा की तरह अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य वंचित वर्गों के लिए लड़ते रहे.

उत्तर प्रदेश में मायावती के विकल्प के रूप में खुद को पेश करने के लिए उन्होंने ‘इंडियन जस्टिस’ पार्टी बनाई. जब कामयाबी नहीं मिली, तो दलित विचारधारा छोड़ पौराणिक विचारधारा के साथ हो लिए.

साल 2014 में डाक्टर उदित राज भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. साल 2014 में उत्तरपश्चिम दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से आम आदमी पार्टी की राखी बिड़ला को हराने के बाद वे 16वीं लोकसभा में सांसद चुने गए.

सत्ता के लिए विचारधारा छोड़ने के बाद डाक्टर उदित राज का जनाधार खत्म हो गया. तब भाजपा ने उन को साल 2019 में निकाल दिया. डाक्टर उदित राज फिर से दलितों की लड़ाई लड़ने का दम भरने लगे, पर अब उन की पहले जैसी साख नहीं रही.

ऐसे नेताओं की लिस्ट में दलित नेता रामदास अठावले, ‘अपना दल’ की नेता अनुप्रिया पटेल के नाम भी शामिल हैं. समय के साथसाथ भाजपा की अगुआई वाले राजग में इन का कद इस कदर छोटा हुआ है कि अब रोटी, कपड़ा और मकान के लिए सरकार के आगे हाथ फैलाने को मजबूर हैं.

उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर को उत्तर प्रदेश सरकार से बाहर जाना पड़ा. योगी सरकार भी ओमप्रकाश राजभर के जनाधार को खत्म करने की योजना बना रही है. ऐसे तमाम दलित नेता भी अपनी विचारधारा को छोड़ कर पौराणिक विचारधारा के साथ जा खड़े हुए हैं. दलित नेताओं के ऐसे फैसलों से दलितों को बेहद नुकसान हुआ है.

समाज का हुआ नुकसान

पौराणिक विचारधारा ने केवल राजनीति को ही नेस्तनाबूद करने का काम नहीं किया है, बल्कि समाज को भी नुकसान पहुंचाया है. विचारों की लड़ाई को पूरी तरह से खत्म कर दिया. कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करने के समय यह कहा गया कि इस से पूरे देश के लोग कश्मीर में जमीन खरीद सकेंगे.

देशभर के लोगों में खुशी की लहर उठने लगी. बिना सोचेसमझे लोग सोशल मीडिया पर कश्मीर में जमीन का टुकड़ा खरीदने को ले कर खुश होने लगे. धारा 370 को खत्म करने के बाद आज तक वहां के हालात सामान्य नहीं हुए हैं. बाहर के लोगों को तो छोड़ दें, वहां के रहने वाले भी पहले की तरह खुशहाली से नहीं रह पा रहे हैं.

ठीक इसी तरह अयोध्या में राम मंदिर बनाते समय यह कहा गया कि सभी जातियों के लोगों का यह मंदिर है. जब अयोध्या में राम मंदिर ट्रस्ट बना, तो उस में सब से बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग शामिल हुए. राम मंदिर बनाने के लिए चंदा हर किसी से लिया जा रहा है. मंदिर के संचालन का काम केवल कुछ खास लोगों तक ही सीमित रहेगा.

पौराणिक विचारधारा की सब से बड़ी खासीयत यही है कि वह अपना काम निकालने के लिए हर जाति और धर्म की बात करती है, पर जैसे ही काम निकल जाता है, वह केवल अपने हित पर काम करती है.

समुद्र मंथन से ले कर दलित नेताओं के इस्तेमाल तक इस बात को देखा और समझा जा सकता है. चुनावी दौर की बात करें, तो वह भी सत्ता के लिए समुद्र मंथन सा होता है, जहां हर किसी के हक की बात होती है.

चुनाव में महंगाई कम करने, भ्रष्टाचार खत्म करने, रोजगार देने और देश के विकास की बात होती है. सत्ता पाने के बाद ये काम नहीं होते. जनता को किसी न किसी तरह बहकाने का काम किया जाता है. पौराणिक विचारधारा में आम लोगों को धर्म के नाम पर बेवकूफ  बनाया जाता है.

धर्म के नाम पर चंदा लिया जाता है. इस से मंदिर और उस से जुड़े लोगों का विकास होता है, भक्तों का केवल नुकसान होता है. यह बात नहीं बताई जाती है.

भक्ति की आड़ में दलित राजनीति की ही तरह से आरक्षण को बेदम किया जा रहा है. सरकार जिस तरह से खेती का निजीकरण करने वाले कृषि कानून ले कर आई है, उस से गरीब को और भी गरीब बनाना है, जिस से वह सरकार को वोट दे कर मिलने वाली सब्सिडी और नकद सहायता राशि पा कर खुश होते रहें. जैसे 500 रुपए महीने की ‘किसान सम्मान निधि’ पा कर किसान खुश हो रहे हैं. यह राशि तभी तक है, जब तक किसानों से काम है. उस के बाद किसानों की हालत भी दलित नेताओं की तरह से हो जानी है.

औरतों पर भक्ति की मार

पौराणिक विचारधारा की सब से ज्यादा मार औरतों पर ही पड़ती है. पौराणिक विचारधारा ने औरतों को गुलाम बना लिया है. ऐसे में हर राजनीतिक दल उन्हें संरक्षण नहीं देता है. समझने के लिए देखें, तो भाजपा की मोदी सरकार ने मुसलिम औरतों को राहत देने के लिए ‘तीन तलाक कानून’ में सुधार का काम किया, पर हिंदू धर्म की औरतों के लिए कुछ भी नहीं किया.

हिंदू औरतों के सब से ज्यादा मुकदमे फैमिली कोर्ट में लंबित हैं. सालोंसाल औरतें भटकती रहती हैं. औरतों को ले कर किसी तरह के रोजगार का अलग से प्रावधान नहीं किया गया. केवल कैरियर के लिहाज से नहीं, घरगृहस्थी को सही ढंग से चला सकें, उस के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई गई. रसोई गैस के सिलैंडर महंगे हो रहे हैं. बच्चों की स्कूल की फीस महंगी हो गई है. गृहस्थी की गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है. औरतों के नाम पर नाममात्र की प्रौपर्टी है.

भक्ति की मार का ही असर है कि आज भी औरतें बेटा और बेटी में फर्क करती हैं. वे आईवीएफ तकनीक अपना कर बेटे ही पैदा करना चाहती हैं. मंगलसूत्र पहने रहती हैं. करवाचौथ का व्रत वही करती हैं. विधवा या परित्यक्ता होने पर अपने भाग्य को दोष देती हैं, मर्द को नहीं. अंधविश्वास में पड़ कर धर्म के बनाए चक्र में वे पिसती रहती हैं.

त्याग की कमी

धर्म और आडंबर के प्रचार और विरोध की शुरुआत को देखें तो लगता है कि साल 1990 में पहले धर्म के विरोध का जो लैवल था, वह धीरेधीरे कमजोर पड़ने लगा. इस में बामसेफ और वामपंथी दलों के विचारों का कमजोर पड़ना सब से प्रमुख रहा.

भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर आंदोलन के सहारे पौराणिक कथाओं और नियमों का जिस तरह से प्रचार करना शुरू किया, विरोध के स्वर कमजोर पड़ने लगे. पहले राजनीतिक दलों में विचारधारा को ले कर भ्रम पैदा हुआ, फिर सामाजिक संगठन इस का शिकार हुए. धीरेधीरे मीडिया में भी धर्म के आडंबर का विरोध खत्म हो गया. मीडिया में धर्म का प्रचार हावी होता गया. प्रिंट के मुकाबले इलैक्ट्रौनिक चैनलों ने धर्म के प्रचार को बढ़ावा देने का काम किया.

पौराणिक कथाओं का महिमामंडन शुरू हुआ. स्वर्ण की सीढि़यां, पुनर्जन्म, मंदिरों की कहानियों के जरीए धर्म का बखान दिनरात किया जाने लगा. इस के बाद बाबाओं के प्रवचन और पौराणिक कथाओं को टीवी सीरियल के रूप में पेश किए जाने का काम शुरू हुआ.

एक तरफ जहां धर्म का प्रचार करने में पैसा था, तो वहीं दूसरी तरफ धर्म और आडंबर का विरोध करने वाले माली रूप से टूटते जा रहे थे. जैसे नशे का प्रचार करने वाले आबकारी विभाग के पास बहुत पैसा होता है और नशे का विरोध करने वाले मद्य निषेध विभाग के पास पैसे की कमी होती है. इस वजह से वे अपने कार्यक्रमों को पूरा नहीं कर पाते हैं. धर्म और आडंबर का विरोध करने वालों की हालत भी उसी तरह से हो गई. पैसे की कमी में यह लड़ाई कमजोर पड़ती गई.

धर्म असरदार क्यों

धर्म की विचारधारा का विरोध और समर्थन एकसाथ शुरू हुआ. इस के बाद विरोध के स्वर हाशिए पर पहुंच गए. इस की वजह यह रही कि धर्म बहुत सारी जातियों को अपने साथ ले कर चलने में सफल हो गया.

जिन दलितों में एक जमाने में बौद्ध धर्म अपनाने की दिलचस्पी रहती थी, अब वह हिंदू धर्म की तरफ बढ़ने लगे. देवीदेवताओं को गाली देने वाले लोगों का साथ छोड़ कर यह देवीदेवताओं की पूजा करने लगे. तीजत्योहार मनाने लगे. मंदिरों में जाने लगे. ऐसे लोगों ने ही बसपा का साथ छोड़ दिया और पौराणिक कथाएं सुनाने वाले को वोट देना शुरू कर दिया.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने जब अपना संगठन बनाया, तो उस की राजनीतिक शाखा भी तैयार कर ली थी. जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का सफल उदाहरण है.

संघ ने धर्म को सीढ़ी बना कर राजनीति की सत्ता को हासिल किया. इसी के जरीए सिस्टम को अपने मुताबिक बनाने का काम किया. राम मंदिर बनाना और अनुच्छेद 370 को हटाना इस के उदाहरण हैं.

जैसेजैसे भाजपा राजनीतिक संतुलन को साधने के लिए अलगअलग विचारों के लोगों को साथ लेगी, उस के विचारों में भी शुद्धता कम होगी और दूसरे विचार के लोगों के शामिल होने से पार्टी का हाशिए पर जाना शुरू हो जाएगा. अगर धर्म की विचारधारा को सत्ता हासिल नहीं होती, तो उस का प्रचारप्रसार इतना ज्यादा नहीं होता.

पौराणिक विचारधारा ने राजनीतिक समुद्र मंथन कर सत्ता को हासिल किया. सत्ता से मिले अमृत का खुद पान किया. अमृत की मांग दूसरे लोग न कर सकें, इस के लिए जातिधर्म के मोहपाश में उन को उलझाने का काम किया गया है.

अमृत के नाम पर नशा मोहिनी द्वारा पिलाया जा रहा है, यह न कोई बता रहा है और न औरतें सुनने को तैयार हैं, क्योंकि इन बातों को पुलिस, अदालत और कानून के नाम पर दबा दिया जाता है और सताए गए लोगों के नेता चुप हैं.

‘सूत्रधार’ के बहाने सत्ता का खेल

सुनील शर्मा

20 दिसंबर, 2021 को मराठी और हिंदी फिल्मों के कलाकार व डायरैक्टर चंद्रकांत दत्तात्रेय जोशी की 77 साल की उम्र में मौत हो गई थी. जब मैं ने उन के बारे में थोड़ा ज्यादा खंगाला तो मुझे उन से जुड़ी एक हिंदी फिल्म नजर आई, जिस का नाम ‘सूत्रधार’ है.

चंद्रकांत दत्तात्रेय जोशी ने इस फिल्म का डायरैक्शन किया था, जिस में स्मिता पाटिल, गिरीश कर्नाड और नाना पाटेकर जैसे दिग्गज कलाकारों ने बेहतरीन काम किया था.

इस फिल्म की कहानी का प्लौट इतना भर था कि एक कच्चेपक्के घरों के अति पिछड़े गांव में एक अमीर जमींदार गिरीश कर्नाड का एकछत्र राज चलता है, जिसे लोग डर कहें या इज्जत से ‘सरकार’ कहते हैं.

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वह ‘सरकार’ बच्चे नाना पाटेकर के सामने उस के पिता की अपने गुरगों से पिटाई करवाता है, जो नाना पाटेकर के बालमन पर छप जाती है. नाना पाटेकर के पिता का कुसूर इतना ही होता है कि वह अपनी जमीन पर कुआं खुदवा रहा होता है, पर उस ने ‘सरकार’ से इजाजत नहीं ली होती है.

बड़ा हो कर नाना पाटेकर पहले गांव में ही टीचर बनता है और गिरीश कर्नाड के फैसलों की काट करता है. इतना ही नहीं, बाद में नौकरी छोड़ कर उसी के खिलाफ सरपंच का चुनाव लड़ कर जीतता है और गिरीश कर्नाड की सत्ता के किले में सेंध लगा देता है, पर बाद में नाना पाटेकर राजनीति के खेल में इतना ज्यादा रम जाता है कि वह अपने परिवार, अपने उसूल, अपनी आक्रामकता को परे रख कर धीरेधीरे दूसरा गिरीश कर्नाड बन जाता है. फिल्म के आखिर में एक बच्चा नाना पाटेकर के खिलाफ हो जाता है और कहानी में एक नया सूत्र बंध जाता है.

चूंकि अब देश में चुनाव का माहौल है तो फिल्म ‘सूत्रधार’ का एक संवाद और भी मौजूं हो जाता है कि ‘कुरसी सबकुछ बिगाड़ देती है’. यह संवाद एक आम आदमी के मुंह से कहलवाया गया है, जो गांव का ही बाशिंदा है और वह गांव भी कोई भारत सरकार का ‘निर्मल गांव’ नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र का एक पिछड़ा हुआ गांव है, जहां नाना पाटेकर अपनी राजनीति की शुरुआत हरिजन टोले से करता है, जो ‘सरकार’ गिरीश कर्नाड के अहम पर पहली चोट होती है और चूंकि लोग अंदर ही अंदर ‘सरकार’ और उन के गुरगों से खार खाए बैठे होते हैं, लिहाजा नाना पाटेकर अपनी ईमानदार इमेज के चलते चुनाव जीत जाता है.

फिल्म ‘सूत्रधार’ साल 1987 में रिलीज हुई थी, मतलब आज से 35 साल पहले, पर अगर भारत में राजनीति के मौजूदा हालात की बात करें, तो तब से ले कर आज तक कुछ ज्यादा आंदोलनकारी बदलाव नहीं हुआ है.

नाना पाटेकर जैसे नएनवेले नेता अपने क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव के सपने दिखा कर सत्ताधारी पक्ष को हराने की नीयत से जनता के सामने जाते हैं और अपने लक्ष्य को पा भी लेते हैं, पर बाद में जनता को महसूस होता है कि यह तो पहले जैसा ही निकम्मा निकला. अब भी उन की समस्याएं जस की तस हैं, पर भ्रष्टाचार करने वालों के चेहरे बदल गए हैं.

अगर फिल्म ‘सूत्रधार’ के कथानक को देखें तो एक मास्टरपीस होने के गुण भले ही उस में न हों, फिर भी वह भारतीय राजनीति का ऐसा आईना है, जो आज भी जस की तस तसवीर दिखाता है.

‘सरकार’ गिरीश कर्नाड का दबदबा खत्म होते ही उन के कुछ पिछलग्गू नाना पाटेकर की तरफ हो जाते हैं यानी उन की निष्ठा जनता के प्रति नहीं होती है, बल्कि वे सत्ता पक्ष में बने रहना चाहते हैं, फिर ताकत किसी के पास भी क्यों न रहे.

यहां जनता भी कठघरे में खड़ी दिखाई देती है और उस के लिए चुनाव का मतलब प्रचार के समय अमीर नेताओं से कुछ दिन भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिल जाना, कंबलबरतन उपहार में लपक लेना भर होता है. और अगर किसी ‘खास गुरगे’ को कुछ ज्यादा मिल गया तो वह अपनी औकात के हिसाब से गोलमाल करता है.

इस फिल्म में यही छोटा भ्रष्टाचार बड़ी बारीकी से दिखाया गया है कि कैसे गांव वालों से दूध खरीदने वाली सहकारी समिति के ‘कर्ताधर्ता’ किसान महिलाओं को ‘छुट्टा नहीं है’ कह कर अठन्नी का भी घपला कर लेते हैं. मुरगी केंद्र का रखवाला रात को मुरगी पका कर खा जाता है और दोस्तों के साथ दारू पार्टी करता है और सब से कहता फिरता है कि रात को मुरगी चोरी हो जाती है.

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यहां ‘कुरसी सबकुछ बिगाड़ देती है’ संवाद की गहराई समझ में आती है कि जब किसी छोटी या बड़ी कुरसी पर बैठने वाले के दस्तखत की कीमत बढ़ जाती है, तो फिर जनता के बीच से गए जनता के नुमाइंदे ही खुद को खुदा से कम नहीं समझते हैं. खुद नाना पाटेकर उस ‘भाऊ’ नीलू फुले की शरण में चला जाता है, जिस का हाथ पहले ‘सरकार’ के सिर पर होता है. मतलब जो मक्कारी और मौकापरस्ती में ‘सरकार’ का भी बाप होता है.

यहां फिर ‘निष्ठा’ का सवाल खड़ा होता है कि नेता तो जैसे भी होते हों, जनता भी अपनी मक्कारी का ठीकरा नेताओं के सिर पर फोड़ कर अपना पल्ला झाड़ने में बड़ी माहिर होती है. वह अपनी गरीबी, गंदगी और गलीजपने को कभी नहीं देखती है.

घरपरिवार में ही देख लें, तो किसी बड़े और सयाने के फैसलों की ही कद्र घर के दूसरे लोग नहीं करते हैं. वे अपने छोटे फायदों में ही उलझे रहते हैं, जिस का नतीजा यह होता है कि वे दूसरों से हर मामले में पिछड़ जाते हैं. जब ऐसे लोगों की भरमार हो जाती है तो उन से बना पड़ोस, महल्ला, गांव, कसबा, शहर भी उन शातिरों की भेड़ बन जाता है, जिसे जहां मरजी हांकना सब से आसान काम होता है.

भारत, जो कई सौ साल से विदेशी आक्रांताओं का गुलाम रहा है, में हम भारतीयों की इसी ‘निष्ठा’ की कमी भी बहुत बड़ी वजह रही है. यह कमी हमारे मन में इतनी ज्यादा घर कर चुकी है कि आज के सियासी नेता भी ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का सहारा ले कर कभी धर्म के नाम पर, तो कभी क्षेत्रवाद के नाम पर और जब बस नहीं चलता है तो जातियों में बांट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.

यही वजह है कि फिल्म ‘सूत्रधार’ का एक पिछड़ा हुआ गांव हो या फिर असली जिंदगी की कोई मैट्रो सिटी, जनता चुनाव के समय तमाशबीन बन जाती है. उसे अपने छोटेछोटे फायदे नजर आते हैं, फिर सामने फिल्मी ‘सरकार’ हो या असली का बाहुबली.

पिछड़ों और दलितों से घबराई भाजपा की ठंडी गरमी

 शैलेंद्र सिंह

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला सी ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं. चुनाव की गरमी जैसेजैसे बढ़ रही है, भाजपा की बेचैनियां भी वैसेवैसे बढ़ रही हैं. महंगाई, बेरोजगारी और खेतीकिसानी के मुद्दों के आगे धर्म की बातें सुनना लोगों को पसंद नहीं आ रहा है.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों में वैसे ही भगदड़ मच गई, जैसे प्लेटफार्म पर रेलगाड़ी के आने के समय होती है. जिस का रिजर्वेशन होता है, वह भी और जिस का साधारण टिकट होता है, वह भी भगदड़ का हिस्सा होता है. जिस के पास ट्रेन का टिकट नहीं होता, वह सब से ज्यादा उछलकूद करता है. सब का मकसद एक ही होता है, रेलगाड़ी पर चढ़ कर अपनी मंजिल तक पहुंचना.

चुनाव आते ही सब नेताओं का एक ही मकसद होता है कि चुनाव जीत कर विधायक बनना. राजनीतिक दल कमजोर नेता को हटा कर मजबूत नेता को टिकट देना चाहते हैं, जिस से उन की सरकार बन सके. नेता टिकट कटने पर पार्टी के प्रति सारी निष्ठा को छोड़ कर अपने जुगाड़ में लग जाता है. उत्तर प्रदेश में चुनावी रेलगाड़ी अब प्लेटफार्म से चल चुकी है. जिस नेता को जहां बैठना था, बैठ चुका है.

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चुनावी गरमी अब बढ़ चुकी है. हालांकि प्रदेश के मौसम में पहले जैसी गरमी नहीं है, खासकर प्रदेश में सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के खेमे में माहौल बेहद ठंडा महसूस हो रहा है. उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पूरी ताकत झोंक दी है.

भाजपा के कार्यकर्ता धर्म के सहारे राजनीति करने में माहिर हैं. वे धर्म का प्रचार बेहतर तरीके से कर सकते हैं. बेरोजगारी, महंगाई और किसानों के मुद्दे पर हो रहे विरोध का वे सही जवाब नहीं दे पा रहे हैं. यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने 40 संगठनों के 4 लाख कार्यकर्ताओं को चुनाव प्रचार में उतार दिया है. ये कार्यकर्ता घरघर जा कर यह सम?ाने का काम कर रहे हैं कि वोट बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर नहीं, बल्कि धर्म के मुद्दे पर दें.

सवालों में घिरी ‘बुलडोजर सरकार’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करते केंद्र सरकार में गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहा कि ‘वोट यह देख कर मत दें कि विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री कौन है? वोट प्रधानमंत्री के हाथों को मजबूत करने के लिए दें’.

इस का सीधा सा मतलब यह था कि भाजपा बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर चुनाव लड़ने से डर रही है. इसी वजह से वह राष्ट्रवाद, धर्म और केंद्र सरकार के नाम पर वोट मांग रही है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव प्रचार में कहते हैं, ‘कुछ नेताओं की गरमी अभी शांत नहीं हुई है. 10 मार्च को चुनाव नतीजा आने के बाद यह गरमी शांत कर दी जाएगी. मईजून के महीने में भी हम उत्तर प्रदेश को शिमला बना देते हैं’. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह बयान उन की ‘ठोंक दो’ शैली को बढ़ावा देने वाला है.

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योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बड़े नेता डर और आतंक का माहौल बना कर वोट हासिल करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में 5 साल पहले दबंग, दंगाई ही कानून थे. उन का कहा ही सरकार का आदेश हुआ करता था. हम उत्तर प्रदेश  के बदलाव के लिए खुद को खपा रहे हैं. विपक्ष के लोग बदला लेने के लिए ठान कर बैठे हैं. इन बदला लेने वालों के बयानों को देख कर लगता है कि वे पहले से ज्यादा खतरनाक हैं.

‘कोई भूल नहीं सकता कि 5 साल पहले व्यापारी लुटता था, बेटी घर से बाहर निकलने में घबराती थी, माफिया सरकारी संरक्षण में घूमते थे. प्रदेश  दंगों की आग में जल रहा होता था और सरकार उत्सव मना रही होती थी.’

योगी आदित्यनाथ ने अपनी छवि ‘बुलडोजर सरकार’ की बनाई है, जहां ‘ठोंक दो’, ‘गाड़ी पलटा दो’ जैसे अलंकार उन की सरकार की शोभा बढ़ाते हैं. यही जुमले अब भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए वोट मांगने में मुश्किल खड़ी कर रहे हैं. तमाम दांवपेंच और सत्ता के दबाव के बाद भी भाजपा अकेली पड़ गई है. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने लोकदल सहित छोटेछोटे दलों के साथ सीधा गठबंधन कर लिया है.

कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी के साथ है. कांग्रेस ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव और उन के चाचा शिवपाल यादव के सामने कांग्रेस का कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच यह नया नहीं है. समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ कभी अपना उम्मीदवार नहीं उतारती थी.

उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अलगअलग चुनाव लड़ रही हैं. इस के बाद भी टिकट बंटवारे में उन का टारगेट यह है कि किस तरह से भाजपा के उम्मीदवार को हराया जा सके. इस के लिए दोनों दलों में आपसी सहमति बनी हुई है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचार करते हुए जब सड़क पर प्रियंका गांधी वाड्रा के काफिले के सामने सपा नेता अखिलेश यादव और लोकदल के नेता जयंत चौधरी मिल गए थे, तो दोनों काफिले रुक गए थे और आपसी अभिवादन के बाद ही आगे बढ़े थे.

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यह इन नेताओं की आपसी सम?ाबू?ा को दिखाता है. असल में कांग्रेस सपा गठबंधन से इस वजह से अलग है, जिस से वह अलग चुनाव लड़ कर भाजपा की अगड़ी जातियों खासकर ब्राह्मणों के वोट अपनी तरफ कर के भाजपा को नुकसान कर सके.

बेरोजगारी, महंगाई, किसान पर लाचारी

वोट मांगने के लिए घरघर जाने वाले कार्यकर्ताओं से लोग सवाल करते हैं कि पैट्रोल 100 रुपए लिटर, खाने का तेल 200 रुपए लिटर और रसोई गैस का सिलैंडर 1,000 रुपए का है, ऐसे में गृहस्थी कैसे चलेगी? इन सवालों के जवाब भाजपा का प्रचार करने वालों के पास नहीं है. शहरों से हट कर जब गांव के लोगों से वोट मांगे जाते हैं, तो वहां के लोग छुट्टा जानवरों से खेत में होने वाले नुकसान, खाद के महंगे दाम की बात करने लगते हैं.

इन सवालों के जवाबों से लाचार हो कर भाजपा ने नई रणनीति बनाई है. अब वह वोट मांगने के लिए उन घरों में जा रही है, जिन को सरकार की किसी न किसी योजना का लाभ मिला है. भाजपा की भाषा में इन को ‘लाभार्थी’ कहा जाता है.

प्रचार पर जाने वाले कार्यकर्ताओं को उन के क्षेत्र के लाभार्थियों के नाम की लिस्ट पहले से दे दी जाती है. कार्यकर्ता इन घरों पर ही जा रहे हैं. वहां उन से महंगाई, बेरोजगारी और किसानों के सवाल कम होते हैं. भले ही ‘लाभार्थी’ कहा जाने वाला यह वर्ग सीधे सवाल नहीं करता, पर उस के मन में भी यह सवाल उठता है कि महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की क्या हालत है?

भाजपा के लिए चुनौती देने वाली बात यही है कि उस का समर्थन करने वाले से ज्यादा लोग उस का विरोध करने वालों का कर रहे हैं.

एक लोकगायिका हैं नेहा सिंह राठौर. वे बिहार की रहने वाली हैं. उत्तर प्रदेश में उन का ननिहाल है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने एक गाना ‘बिहार मा का बा’ गाया था, जिस के जरीए नेहा सिंह को सोशल मीडिया पर बहुत तारीफ मिली थी. अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी नेहा सिंह राठौर ने ‘यूपी में का बा’ गाने के सहारे यहां की अव्यवस्था पर सवाल किया. इन सवालों के घेरे में नेहा सिंह ने ‘मोदीयोगी’ को निशाने पर लिया.

नेहा सिंह राठौर को जनता ने हाथोंहाथ लिया, जिस से बौखला कर भाजपा की आईटी सैल और अंधभक्तों ने नेहा को जबरदस्त ट्रोल करना शुरू कर दिया. पर नेहा ने हौसला नहीं हारा और हिम्मत से ‘यूपी में का बा’ के अलगअलग गाने गाती रहीं.

भाजपा का विरोध जनता के बीच इतना है कि उस का प्रचार करने वालों को दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. कार्यकर्ताओं को ही नहीं, बल्कि भाजपा के विधायकों और कई नेताओं को उन के क्षेत्र में घुसने से रोका गया. पहले भी इस तरह का इक्कादुक्का विरोध होता था, जिस में जनता को सामने कर के विपक्ष के लोग बैनरपोस्टर टांग देते थे कि ‘प्रचार के लिए यहां संपर्क न करें’. लेकिन नेता के सामने आ कर कोई विरोध नहीं करता था.

इस बार जनता विरोध कर रही है और भाजपा नेताओं को क्षेत्र में घुसने नहीं दे रही है. इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. उत्तर प्रदेश में 20 जनवरी से 30 जनवरी के बीच 9 नेताओं को जनता का विरोध ?ोलना पड़ा. लोगों ने इन को गांव में घुसने नहीं दिया.

मंत्री से ले कर विधायक का विरोध

इस में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से ले कर तमाम नेता शामिल हैं. वे कौशांबी जिले की सिराथू सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. 22 जनवरी, 2022 को जब वे गुलामीपुर चुनाव प्रचार करने गए, तो महिलाओं ने उन को घेर कर नारेबाजी शुरू कर दी.

प्रयागराज से एमएलसी सुरेंद्र चौधरी को अफजलपुर में लोगों ने चुनाव प्रचार नहीं करने दिया. सुरेंद्र चौधरी सम?ाते रहे कि ‘सरकार ने राम मंदिर बनवाया’, पर लोगों ने एक नहीं सुनी. सुरेंद्र चौधरी को वहां से प्रचार छोड़ कर जाना पड़ा.

जालौन की उरई सीट से विधायक गौरी शंकर वर्मा चुनाव प्रचार करने गए, तो विरोध में नारेबाजी शुरू कर दी गई. लोगों ने जब सड़क, नल, पानी का हिसाब मांगा, तो गौरी शंकर वर्मा वहां से चलते बने.

इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. बुलंदशहर में देवेंद्र सिंह लोधी स्याना सीट से विधायक हैं. जब वे प्रचार करने गए, तो लोगों ने विरोध किया. उन का आरोप था कि ‘5 साल न कोई नल दिया, न सड़क. अब वोट मांगने क्यों आए हो?’ पहले तो देवेंद्र सिंह ने लोगों को सम?ाने की कोशिश की, पर जब बात नहीं बनी तो चुपचाप वापस चले आए.

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा विधायकों से लोग नाराज हैं कि अपने ही वोटरों को किसान आंदोलन में मुकदमे में फंसा दिया. इसी बात को ले कर खतौली से भाजपा विधायक विक्रम सैनी का विरोध हुआ. यही नहीं, कई जगहों पर वोट मांगने पर जनता ने भाजपा विधायकों के खिलाफ नारेबाजी की.

यहां के किसानों ने कहा कि उन पर जिस तरह से मुकदमे किए गए, कील और आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया, वह दर्द वे भूले नहीं हैं. यह सब देख कर ही भाजपा के बड़े नेताओं को प्रचार के लिए उतारना पड़ा, जिन के साथ पूरा लावलश्कर चलता है. इस से जनता विरोध नहीं कर पाती है.

किसान आंदोलन के साथसाथ महंगाई और बेरोजगारी भी विरोध की एक बड़ी वजह है. भाजपा इस कारण से इन मुद्दों को पीछे छोड़ कर धर्म, राष्ट्र, पलायन और बदमाशी पर बात कर रही है. भाजपा इन मुद्दों के नाम पर वोटर को डरा कर वोट लेना चाहती है.

‘अंडर करंट’ साबित होंगे

महंगाई और बेरोजगारी को भले ही विपक्ष चुनावी मुद्दा न बना पा रहा हो, पर महंगाई और बेरोजगारी को ले कर जनता के बीच गुस्सा बना हुआ है. पहले यह उबलते दूध की तरह होता था, जो कुछ समय में शांत हो जाता था.

इस चुनाव में केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी यह मुद्दा बना हुआ है. जनता इसी कारण विपक्षी दलों के साथ खड़ी है. भले ही विपक्षी दल खुद इन मुद्दों को ले कर बात करने से बच रहा हो, पर एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में इस बार जनता चुनाव लड़ रही है. उस का यह गुस्सा ‘अंडर करंट’ की तरह ही है, जो अब वोट देते समय निकल कर सामने आएगा.

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सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर, 2021 में बेरोजगारी दर 7.84 फीसदी हो गई है. उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी की दर 4.9 फीसदी हो गई है. भले ही विपक्षी दल प्रमुखता से यह बात नहीं कर पा रहे हैं, पर उत्तर प्रदेश के बेरोजगारों ने ‘यूपी मांगे रोजगार’ नाम से अलग मुहिम चला रखी है.

भाजपा के वोटरों में सब से बड़ी तादाद  नौजवानों की है, जो 18 से 35 साल की उम्र के हैं. इन के पास रोजगार का सब से बड़ा संकट है. प्रयागराज में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले नौजवानों पर जिस तरह से लाठियां बरसाई गईं, वह भाजपा के लिए बड़ा संकट बन रहा है.

युवा कार्यकर्ता जब वोट मांगने जा रहे हैं, तो उन के साथी ही उन का विरोध कर रहे हैं. इन के विरोध की गंभीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी क्षेत्र वाराणसी के नौजवानों ने उन के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया था.

बेरोजगारों के गुस्से की वजह यह है कि कोरोना काल के दौरान तालाबंदी से निजी क्षेत्र को जब नुकसान हुआ, तो वहां से तमाम लोगों को नौकरियों से बाहर कर दिया गया. ये युवा अब अपने सुरक्षित भविष्य के लिए सरकारी नौकरियों की तरफ जाना चाहते हैं. वहां परीक्षा पेपर आउट हो जा रहा है. परीक्षा का रिजल्ट सालोंसाल नहीं आता. जिन का रिजल्ट आ जाता है, उन को अपौइंटमैंट लैटर नहीं दिया जाता.

सरकार अब अपने विभागों में भी संविदा पर नौकरियां देने लगी है. वहां भी भाईभतीजावाद और सिफारिश चल रही है. इस वजह से छात्रों का गुस्सा उन के अंदर भरा हुआ है.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में नौजवानों ने भाजपा को वोट दिया था. उस को यह लगा था कि ‘डबल इंजन’ सरकार उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर खोलेगी.

नौजवानों को झांसा देने के लिए योगी सरकार ने ‘इंवैस्टर मीट’ और ‘डिफैंस ऐक्सपो’ जैसे कई आयोजन किए. नौजवानों को यह बताने की कोशिश भी की थी कि चीन से भाग कर विदेशी कंपनियां उत्तर प्रदेश में कारखाने लगाने जा रही हैं, जिस से नौजवानों को रोजगार मिल सकेगा.

उत्तर प्रदेश को फिल्म सिटी बनाने का झांसा भी दिया गया. इन में से कोई भी घोषणा जमीन पर नहीं उतरी. इस वजह से बेरोजगारों का गुस्सा अंडर करंट के रूप में काम कर रहा है, जिस का पता 10 मार्च को चल पाएगा.

भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला की ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं.

चुनाव और लालच : रोग बना महारोग

सुरेश चंद्र रोहरा

चुनाव का सीधा मतलब अब कोई न कोई लालच देना हो गया है. तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियां वोटरों को ललचाने का काम कर रही हैं और यह सीधासीधा फायदा नकद रुपए और दूसरी तरह के संसाधनों का है, जिसे सारा देश देख रहा है और संवैधानिक संस्थाएं तक कुछ नहीं कर पा रही हैं.

क्या हमारे संविधान में कोई ऐसा प्रावधान है कि राजनीतिक दल देश के वोटरों को किसी भी हद तक लुभाने के लिए आजाद हैं और वोटर अपनी समझ गिरवी रख कर के अपने वोट ऐसे नेताओं को बेच देंगे, जो सत्तासीन हो कर 5 साल तक उन्हें भुला बैठते हैं?

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क्या यह उचित है कि चुनाव जीतने के लिए लैपटौप, स्कूटी, मोबाइल, रुपएपैसे दिए जाना जरूरी हो? क्या अब विकास का मुद्दा पीछे रह गया है? क्या देश के दूसरे अहम मसले पीछे रह गए हैं कि हमारे नेताओं को रुपएपैसे का लौलीपौप वोटरों को देना जरूरी हो गया है या फिर यह सब गैरकानूनी है?

अब देश के सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर ऐक्शन ले लिया है और अब देखना यह है कि आगेआगे होता है क्या? क्या रुपएपैसे के लोभलालच पर अंकुश लग जाएगा या फिर और बढ़ता चला जाएगा? यह सवाल आज हमारे सामने खड़ा है.

25 जनवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करना एक गंभीर मद्दा है.’

चीफ जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने इस मामले को ले कर देश में चुनाव कराने वाली संवैधानिक संस्था भारतीय चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया है.

चुनाव में ‘माले मुफ्त दिल ए बेरहम’ जैसी हरकतें कर रहे राजनीतिक दलों  की मान्यता रद्द करने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने यह कदम उठाया. इस के बाद अब यह बहुतकुछ मुमकिन है कि आने वाले समय में कोई ठोस नतीजा सामने आ जाए.

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आप को यह बताते चलें कि सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एनवी रमण ने कहा, ‘अदालत जानना चाहती है कि इसे कानूनी रूप से कैसे नियंत्रित किया जाए? क्या ऐसा इन चुनावों के दौरान किया जा सकता है या इसे अगले चुनाव के लिए किया जाए? निश्चित ही यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि मुफ्त बजट तो नियमित बजट से भी तेज है.’

दरअसल, देश की चुनाव व्यवस्था और राजनीतिक दलों की मुफ्त घोषणाओं पर यह सुप्रीम कोर्ट का खास और गंभीर तंज है.

नींद में चुनाव आयोग

लंबे समय से देश में चुनाव आयोग वोटरों को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही घोषणाओं पर एक तरह से चुप्पी साध कर बैठा हुआ है. लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव उसे निष्पक्ष तरीके से पूरा कराने की जिम्मेदारी देश के संविधान ने चुनाव आयोग को सौंपी है और यह चुनाव आयोग केंद्र सरकार की मुट्ठी में रहा है.

ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे असंसदीय बरताव और कानून की नजर से गलतसलत बरताव को देखते हुए भी अनदेखा करता रहा है, वरना तकरीबन 40 साल पहले शुरू हुए वोटरों को लुभाने की कोशिशों पर शुरुआत में ही अंकुश लगाया जा सकता था.

दक्षिण भारत के बड़े नेता अन्नादुरई ने बहुत सस्ते में वोटरों को चावल देने की घोषणा के साथ इस चुनावी लालच के सफर की शुरुआत की थी, जिस के बाद एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में इस चलन को आगे बढ़ाया.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जो अपने शबाब पर है, अखिलेश यादव ने वोटरों को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा दी है कि अगर हमारी सरकार आई तो हम यह देंगे, वह देंगे. इसी तरह कांग्रेस की चुनाव कमान संभालने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी उत्तर प्रदेश चुनाव में वोटरों को कांग्रेस की सरकार बनने पर बहुतकुछ फ्री में देने का ऐलान कर दिया है.

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पंजाब में कांग्रेस के नवजोत सिंह सिद्धू ने भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और फ्री में बहुतकुछ देने की योजनाएं जारी कर दी हैं. अब यह रोग देशभर में महारोग बन चुका है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया है.

आप को यह बताते चलें कि चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के साथ एक बैठक कर उन से उन के विचार जानने चाहे थे और फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया था.

सुप्रीम कोर्ट में वोटरों को लालच देने के मुद्दे वाली यह याचिका भारतीय जनता पार्टी के नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है. याचिका में कहा गया है कि राजनीतिक दलों के चुनाव के समय मुफ्त चीजें देने की घोषणाएं वोटरों को गलत तरीके से प्रभावित करती हैं. इस से चुनाव प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और यह निष्पक्ष चुनाव के लिए ठीक नहीं है.

पीठ ने सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले के एक पुराने फैसले का भी जिक्र किया. उस में अदालत ने कहा था कि चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के रूप में नहीं माना जा सकता है.

इस बारे में अदालत ने चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों की सलाह से आदर्श आचार संहिता में शामिल करने की सलाह दी थी.

याचिकाकर्ता की तरफ से एक सीनियर वकील ने दलील दी कि इस मामले में केंद्र सरकार से हलफनामा तलब करना चाहिए. राजनीतिक दल किस के पैसे के बल पर रेवडि़यां बांटने के वादे कर रहे हैं. कैसे राजनीतिक दल मुफ्त उपहार की पेशकश कर रहे हैं. हर पार्टी एक ही काम कर रही है.

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इस पर चीफ जस्टिस एनवी रमण ने उन्हें टोका और पूछा कि अगर हर पार्टी एक ही काम कर रही है, तो आप ने अपने हलफनामे में केवल 2 पार्टियों का ही नाम क्यों लिया है.

जवाब में उन वकील ने कहा कि वे पार्टी का नाम नहीं लेना चाहते. पीठ में शामिल जस्टिस हिमा कोहली ने उन से पूछा कि आप के बयानों में काफीकुछ स्पष्ट है. याचिकाकर्ता के वकील का सुझाव था कि इस तरह की गतिविधि में शामिल पार्टी को मान्यता नहीं देनी चाहिए.

अब देखिए कि आगे क्या होता है. क्या सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से देश में आने वाले चुनाव में वोटरों को ललचाने का खेल बंद होगा या फिर यह बढ़ता ही चला जाएगा?

विधानसभा चुनाव 2022: दलित, पिछड़े और मुसलिम तय करेंगे जीत-हार

शैलेंद्र सिंह

त्रेता युग में अयोध्या के राजा दशरथ ने जब अपने बड़े बेटे राम को 14 साल के लिए वनवास भेजा तो राम ने अयोध्या के सजातीय लोगों या वहां की सेना से कोई मदद नहीं ली, बल्कि मदद लेने के लिए वे पिछड़ी जाति के केवट के पास गए. वन में खानेपीने के लिए वे आदिवासी जनजाति की शबरी के पास गए.

जब वन में रहते हुए पत्नी सीता का अपहरण रावण ने कर लिया, तब सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के लिए भी राम ने अयोध्या की सेना और अपने सगेसंबंधियों का साथ नहीं लिया. रावण से युद्ध के लिए जो सेना राम ने बनाई उस में वानर, भालू जैसे वन में रहने वाले शामिल थे. लेकिन जब राम अयोध्या की गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने अपने राज्य के लोगों, मंत्रियों और सजातीय लोगों को हिस्सा दिया.

राम की बात और रामराज लाने वाली भाजपा ने भी यही किया. साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दलित और पिछड़ों में फूट डालने के लिए गैरयादव, पिछड़ी जातियों और गैरजाटव दलित जातियों के नेताओं से सत्ता बनाने में मदद ली. जैसे ही भाजपा को बहुमत मिला, सत्ता ऊंची जातियों के ठाकुरब्राह्मणों को सौंप दी.

इस से दलित और पिछड़े ठगे से रह गए. इन लोगों ने किसी न किसी बहाने अपनी बात रखने की कोशिश की, पर उन की आवाज को सुना नहीं गया. अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलितपिछड़ों ने तय किया है कि वे भाजपा की बात को नहीं सुनेंगे.

सत्ता की चाबी इन के पास

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दलित, पिछड़े और मुसलिम जीतहार के सब से बड़े फैक्टर हैं. ये तीनों मिल कर तकरीबन 85 फीसदी होते हैं. बहुत से दलों और नेताओं को लग रहा है कि मायावती इस चुनाव में हाशिए पर हैं. तमाम चुनावी सर्वे मायावती को कांग्रेस से भी नीचे चौथे नंबर की पार्टी मानते हैं.

यह सच है कि मायावती का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले जैसा दमदार नहीं है, इस के बाद भी दलित बड़ा वोट बैंक है. चुनावी जीत में वह सब से बड़ा फैक्टर है. इस की वजह यह है कि सब से ज्यादा दलित वोट ही एक दल से दूसरे दल की तरफ जाते हैं.

साल 2014 से ले कर साल 2019 तक लोकसभा के 2 और विधानसभा के एक चुनाव में दलित वोटर धर्म के नाम पर भाजपा के साथ खड़े हो गए. साल 2017 में योगी सरकार के राज में दलितों पर हुए जोरजुल्म ने इस तबके को फिर से भाजपा से दूर खड़ा कर दिया है. अब यह तबका जिधर होगा जीत उधर ही होगी. उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड विधानसभा सीटें हैं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इन रिजर्व्ड सीटों में 31.5 फीसदी वोट ले कर 58 और बहुजन समाज पार्टी ने 27.5 फीसदी वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. भारतीय जनता पार्टी को 14.4 फीसदी वोटों के साथ केवल 3 सीटें मिली थीं.

पर साल 2017 के विधानसभा चुनाव में नतीजे उलट गए और 85 रिजर्व्ड सीटों में से 69 सीटें भाजपा ने जीतीं. भाजपा को 39.8 फीसदी वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीटें मिलीं, जबकि बसपा सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई. मतलब, दलित समाज जिधर खड़ा होगा जीत उधर ही होगी.

दलित को सत्ता में हिस्सेदारी देने के लिए संविधान में रिजर्व्ड सीटों का इंतजाम किया गया है. उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड हैं. इन सीटों पर जिस का कब्जा रहा है, वही उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहा है. साल 2017 में 85 रिजर्व्ड सीटों में भाजपा ने 65 गैरजाटवों को टिकट दिया था. भाजपा ने 76 रिजर्व्ड सीटों पर जीत हासिल की. बसपा को 2, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 3 और अपना दल को 2 सीटें मिली थीं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा 58, बसपा 15 और भाजपा 3 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, वहीं साल 2007 में बसपा 62, सपा 13, भाजपा 7 और कांग्रेस 5 सीटों पर जीती थी.

योगी राज में जब दलित अत्याचार की घटनाएं तेजी से घट रही थीं, उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे. दलित वर्ग उन को किस तरह से साथ दे रहा है, यह बात 2022 के विधानसभा चुनाव में तय हो जाएगी.

चंद्रशेखर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना चाहते थे, लेकिन सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने उन को केवल 3 सीटें देने की बात कही. इस से नाराज हो कर चंद्रशेखर ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया.

इन में बंटी दलित राजनीति

बसपा प्रमुख मायावती का अब दलितों के बीच वैसा असर नहीं रहा, जैसा 1990 के दशक में था. इस के बाद भी दलित तबका जीत का सब से बड़ा फैक्टर है. बसपा संस्थापक कांशीराम ने 80 के दशक में दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया था. यह उन की चेतना जगाने का ही नतीजा था कि मायावती 1-2 बार नहीं, बल्कि 4 बार मुख्यमंत्री बनी थीं.

दलित वोटों पर कांशीराम के बाद मायावती का लंबे समय तक एकछत्र राज रहा. पर मायावती ने जब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘दलितब्राह्मण’ किया तब से दलित तबका मायावती से दूर जाने लगा. बसपा जाटव और गैरजाटव में बंट गई. मायावती सिर्फ जाटव दलितों की ही नेता बन कर रह गईं. इसी वजह से मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर चली गईं.

मायावती ने खुद को राजनीति की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए अपने धुर विरोधी दल समाजवादी पार्टी के साथ साल 2019 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन भी किया था. इस के बाद भी दलित तबका मायावती के साथ खड़ा नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में जीत के लिए बना यह गठबंधन चुनाव के खत्म होते ही टूट गया.

अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों पर कांग्रेस, सपा और भाजपा की नजर है. असल में पिछड़े समुदाय के बाद उत्तर प्रदेश में दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी दलित बिरादरी की है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 22 फीसदी के करीब है. यह दलित वोट बैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. दलित आबादी की सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है.

दलित तबके की कुल आबादी में से 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की दूसरी जो उपजातियां हैं, उन की तादाद 46 फीसदी के करीब है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौरबाराबंकी में 25-25 फीसदी है. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित तबका निर्णायक भूमिका में है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की सब से बड़ी आबादी आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, नोएडा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बस्ती, संत कबीरनगर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और सहारनपुर जिलों में है. दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर राजधानी लखनऊ के आसपास के जिलों जैसे सीतापुर, रायबरेली, बाराबंकी, अमेठी, कौशांबी, प्रतापगढ़, लखनऊ देहात, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गोंडा आदि में खासा असर रखती है.

मायावती की तरह ही दलित नेता चंद्रशेखर भी जाटव समुदाय से आते हैं. दोनों ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते हैं. उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति जाटव समुदाय के ही आसपास रही है, जिस की वजह से अनदेखी का शिकार हो कर साल 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम ऐसी जातियों के लोग विरोधी दलों के साथ चले गए.

दलित आबादी का यह बिखराव ही उस को कमजोर कर गया. बसपा के अलावा दूसरे दलों ने गैरजाटव दलित नेताओं को अपने पक्ष में करने का काम किया. भाजपा ने इस दिशा में बेहतर काम किया. पासी बिरादरी के कौशल किशोर को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया. उन की पत्नी को लखनऊ की मलिहाबाद सीट से विधायक बनाया गया.

दलित सियासत में धोबी और वाल्मीकि वोटरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. बरेली, शाहजहांपुर, सुलतानपुर, गाजियाबाद, मेरठ, हाथरस और बागपत में धोबी और वाल्मीकि काफी बड़ी तादाद में रहते हैं. जाटवों और वाल्मीकि समाज के बीच काफी दूरियां देखने को मिलती हैं. वाल्मीकि तबका शुरू से ही भाजपा के साथ जुड़ा है. धोबी समाज भी साल 2012 के बाद से बसपा से हट गया.

उत्तर प्रदेश के दलित नेता

उत्तर प्रदेश में दलित नेताओं में मायावती का नाम सब से ऊपर आता है. उन की छांव में बसपा में कोई बड़ा नेता उभर नहीं पाया. भाजपा में सुरेश पासी, रमापति शास्त्री, गुलाबो देवी, कौशल किशोर और विनोद सोनकर जैसे नेता हैं. कांग्रेस के पास आलोक प्रसाद और पीएल पुनिया जैसे नेता हैं. साल 2017 के बाद दलित नेता चंद्रशेखर का नाम चर्चा में आया.

समाजवादी पार्टी में सुशीला सरोज और अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ जैसे नेता हैं. अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ ऐसे नेता हैं, जो साल 2017 में भाजपा लहर में भी विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे. अगर समाजवादी पार्टी के संगठन में इन को अहमियत दी गई होती, तो आज वे दलितों के बड़े नेता बनते.

दलित राजनीति में एक दौर ऐसा भी था, जब कांग्रेस में बड़े दलित नेता होते थे. धीरेधीरे कांग्रेस का दलित वोट बैंक भाजपा में चला गया. इस को अपनी तरफ करने में सपा और बसपा दोनों ही नाकाम रहे.

जिधर पिछड़े उधर जीत

उत्तर प्रदेश की राजनीति में गैरयादव, अतिपिछड़ी जातियां चुनावी जीत का आधार बन गई हैं. इस वजह से ही भाजपा और सपा दोनों ही इन जातियों पर निर्भर हो चुकी हैं. छोटीछोटी ये जातियां आबादी में कम होने की वजह से अकेले दम पर भले ही सियासी तौर पर खास असर न दिखा सकें, लेकिन किसी बड़ी तादाद वाली जाति या फिर तमाम छोटीछोटी जातियां मिल कर किसी भी दल का राजनीतिक खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती हैं.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़ा वोट बैंक पिछड़े तबके का है. 52 फीसदी पिछड़े वोट बैंक में से तकरीबन 43 फीसदी वोट बैंक गैरयादव बिरादरी का है. जीतहार में इस का रोल सब से ज्यादा होता है.

उत्तर प्रदेश में पिछड़े तबके की 79 जातियां हैं, जिन में सब से ज्यादा यादव और दूसरा नंबर कुर्मी समुदाय का है. यादव सपा का परंपरागत वोटर माना जाता है. गैरयादव जातियों में कुर्मी और पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा, मौर्य, शाक्य और सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गड़रिया और पाल 3 फीसदी, निषाद, मल्लाह, बिंद, कश्यप, केवट 4 फीसदी, तेली, साहू, जायसवाल 4 फीसदी, जाट 3 फीसदी, कुम्हार, प्रजापति, चौहान 3 फीसदी, कहार, नाई, चौरसिया 3 फीसदी, राजभर 2 फीसदी और गुर्जर 2 फीसदी हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्य समेत 12 दूसरे पिछड़ी जाति के विधायकों के भाजपा छोड़ने से यह बात साफ है कि इस चुनाव में भाजपा के साथ अतिपिछड़ी जातियां नहीं जा रही हैं.

फूट डालो और राज करो

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित, पिछड़े और मुसलिम सब से मजबूत हैं. मुसलिम तबका हमेशा से भाजपा के खिलाफ रहा है. ऐसे में भाजपा के पास केवल दलित और पिछड़े ही थे, जिन्हें भाजपा अपनी तरफ कर सकती थी. यहां यादव और जाटव भले ही भाजपा के साथ न हों, पर गैरजाटव और गैरयादव जातियों को वह अपनी तरफ करने में कामयाब रही है.

उत्तर प्रदेश का एक सामाजिक समीकरण और भी है, जिस में पिछड़ी जातियां और दलित एक जगह नहीं खड़े हो सकते. 90 के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति के बाद साल 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई. 2 साल में ही यह सरकार गिर गई. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा ने चुनावी गठबंधन किया, पर वह भी कामयाब नहीं रहा.

भाजपा दलित और पिछड़ों के बीच इस दूरी का फायदा उठा कर सत्ता में बनी रहती है. भाजपा के लिए भी अब मुश्किल यह है कि वह दलित और पिछड़ों को एकसाथ कैसे साधेगी. जैसे ही चुनाव भाजपा बनाम सपा होगा, गैरजाटव दलित सपा के साथ न जा कर भाजपा के साथ खड़े हो जाएंगे, जो भाजपा के लिए फायदे का काम होगा. उत्तर प्रदेश में जाटव बनाम यादव एक मुद्दा रहा है. वे दोनों एकसाथ खड़े नहीं रहना चाहते हैं.

भाजपा की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी ने जैसेजैसे राम मंदिर की राजनीति को आगे बढ़ाया, वैसेवैसे मुसलिम राजनीति उस के विरोध में एकजुट होने लगी. पहले मुसलिम तबका कांग्रेस के साथ पूरी तरह से लामबंद था. साल 1993 में उत्तर प्रदेश में मुसलिम वोटर का एक बड़ा धड़ा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ा हो गया.

उत्तर प्रदेश में तकरीबन 20 फीसदी मुसलिम मतदाता हैं, जो पूरी तरह से भाजपा के विरोध में हैं. साल 2014 के बाद मुसलिम व भाजपा 2 अलगअलग ध्रुवों पर खड़े हो गए हैं. 20 फीसदी वोट जीतहार में बड़ा माने रखते हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस खाई को और भी चौड़ा कर दिया है.

इस के साथसाथ तीन तलाक, नागरिकता कानून और राम मंदिर के चलते मुसलिम तबका खुद को असुरक्षित महसूस कर के एकजुट हो गया है. योगी आदित्यनाथ ने ‘80 बनाम 20’ का नारा दे कर साफ कर दिया है कि मुसलिम भाजपा के साथ नहीं हैं.

इस चुनाव से पहले भी मुसलिम एकजुटता ने कमंडल की राजनीति को पछाड़ने का काम किया है. मुसलिम राजनीति तब और ज्यादा असरदार हो जाती है, जब दलित और पिछड़े उस के साथ मिल जाते हैं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में साल 1991 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. हिंदुत्व के बल पर भाजपा ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल कर ली. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मसजिद ढहा दी गई.

इस के बाद मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के एकमात्र मसीहा बन कर उभरे. मुसलिम वोटों के जरीए वे साल 1993 में मुख्यमंत्री बन गए. मुसलमानों का एक बड़ा तबका मुलायम सिंह यादव को एक मसीहा के रूप में देखने लगा. तब उत्तर प्रदेश की राजनीति में नारा लगा था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गया जय श्रीराम’.

इस समीकरण को तोड़ने में भाजपा ने ‘फूट डालो राज करो’ का काम किया. इस का असर साल 2014 से देखने को मिला. हिंदुत्व का भाव दलित और पिछड़ों में जगा कर मुसलिम विरोध की ढाल तैयार हो गई.

पर साल 2022 में जिस तरह से दलितपिछड़ा तबका भाजपा से दूर हो रहा है, उस से उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ?ाटका लगेगा.

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