Holi 2024: कबाड़- कैसी थी विजय की सोच

इस बार दीवाली पर जब घर का सारा सामान धूप लगा कर समेटा तब विजय के होंठों पर एक फीकी सी हंसी चली आई थी. मैं जानती हूं कि वह क्यों मुसकरा रहे हैं.

‘‘तो इस बार दीवाली पर भाई के घर जाओगी? वहां जा कर कितने दिन रहोगी? तुम जानती हो न कि तुम्हारी सूरत देखे बिना मेरी सांस नहीं चलती. जल्दी वापस आना.’’

बस स्टैंड तक छोड़ने आए विजय बारबार मेरे बैग को तोलते हुए बोले, ‘‘कितने कपड़े ले कर जा रही हो? भारी है तुम्हारा बैग. क्या ज्यादा दिन रहने वाली हो?’’

चुप हूं मैं. चुप ही तो हूं मैं, न जाने कब से. अच्छा समय बीता भाई के पास मगर जो नया सा लगा वह था मेरी भतीजी का व्यवहार.

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुकी मिनी के पास नया सामान रखने को जगह ही न थी सो उस ने बचपन का संजोया अपनी जान से भी प्यारा सामान यों खुद से अलग कर दिया मानो वास्तव में उसे संभाल कर रखे रखना कोई मूर्खता हो. खिलौने महरी को उस के बच्चों के लिए थमा दिए थे.

और भी विचित्र तब लगा जब मिनी ने अपने ही प्रिय सामान का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था.

‘‘देखो न बूआ, याद है यह बार्बी डौल, इस के लिए कितना झगड़ा किया था मैं ने भैया से. और यह लकड़ी के खिलौने, यह डब्बा देखो तो…’’

सामने सारा सामान बिखरा पड़ा था.

‘‘बच्चे थे तो कितने बुद्धू थे न हम. जराजरा सी बात पर रोते थे. यह बचकाना सामान हटा दिया. देखो, अब पूरी अलमारी खाली हो गई है…सच्ची, कितनी पागल थी न मैं जो इस कबाड़ से ही जगह भर रखी थी.’’

अच्छा नहीं लगा था मुझे उस का यह व्यवहार. आखिर हमारे जीवन में संवेदना भी तो कोई स्थान रखती है. जो कभी प्यारा था वह सदा प्यारा ही तो रहता है न, चाहे बचपन हो या जवानी. फिर जवानी में बचपन की सारी धरोहर कचरा कह कर कूड़े के डब्बे में फेंकना क्या क्रूरता नहीं है?

‘‘पुरानी चीजें जाएंगी नहीं तो नई चीजों को स्थान कैसे मिलेगा, जया. यह संसार भी तो इसी नियम पर चल रहा है न. यह तो प्रकृति का नियम है. जरा सोचो हमारे पुरखे अगर आज भी जिंदा होते तो क्या होता. कैसी हालत होती उन की?’’

‘‘कैसी निर्दयता भरी बात करते हैं विजय, अपने मांबाप के विषय में ऐसा कहते आप को शरम नहीं आती…’’

‘‘मेरी मां को कैंसर था. दिनरात पीड़ा से तड़पती थीं. मैं बेटा हूं फिर भी अपनी मां की मृत्यु चाहता था क्योंकि उन के लिए मौत वरदान थी. मुझे अपनी मां से प्यार था पर उन की मौत चाही थी मैं ने. जया, न ही जीवन सदा वरदान की श्रेणी में आता है और न ही मौत सदा श्राप होती है.’’

विजय की बातें मेरे गले में फांस जैसी ही अटक गई थीं.

‘‘जया, जीवन टिक कर रहने का नाम नहीं है. जीवन तो पलपल बदलता है, जो आज है वह कल नहीं भी हो सकता है और जीवन हम सब के चाहने से कभी मुड़ता भी नहीं. यह तो हम ही हैं जिन्हें खुद को जीवन की गति के अनुरूप ढालना पड़ता है.’’

मैं उठ कर अपनी क्लास लेने चली गई थी. जीवन का फलसफा सभी की नजर में एक कहां होता है जो मेरा और विजय का भी एक हो जाता.

एक बार विजय ने मेरे जमा किए पीतल के फूलदान, किताबों के ट्रंक, टेपरिकार्डर को कबाड़ कहा था. माना कि आज अगर पति और बेटे इस संसार में नहीं हैं तो उन का सामान क्या सामान नहीं रहा?

‘‘जब इनसान ही नहीं रहा तब उस के सामान को सहेजा क्यों जाए. जो चले गए वे आने वाले तो नहीं, तुम तो दिवंगत नहीं हो न.’’

कैसी कड़वी होती हैं न विजय की बातें, कभी भी कुछ भी कह देते हैं. मैं मानती हूं कि इतनी कड़वी बात सिर्फ वही कर सकता है जिस का मन ज्यादा साफ हो और जो खुद भी उसी हालात से गुजर चुका हो.

मैं उस दुविधा से उबर नहीं पा रही हूं जिस में मेरा खोया परिवार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया है. अपने किसी प्रिय की मौत से क्या कोई उबर सकता है?

‘‘क्यों नहीं उबर सकता? क्या मैं उबर कर बाहर नहीं आया तुम्हारे सामने. मेरे पिता तब चले गए थे जब मैं कालिज में पढ़ता था. मां का हाल तुम ने देख ही लिया. पत्नी को मैं ही रास नहीं आया… कोई जीतेजी छोड़ गया और कोई मर कर. तो क्या करूं मैं? मर तो नहीं सकता न. क्योंकि जितनी सांसें मुझे प्रकृति ने दी हैं कम से कम उन पर तो मेरा हक है न. कभी आओ मेरे घर, देखो तो, क्या मेरा घर भी तुम्हारे घर जैसा चिडि़याघर या अजायबघर है जिस में ज्ंिदा लोगों का सामान कम और मरे लोगों का सामान ज्यादा है…’’

विजय की कड़वी बातें ही बहुत थीं मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए, उस पर मिनी का व्यवहार भी बहुतकुछ हिलाडुला गया था मेरे अंतर में.

‘‘देखो न बूआ, अलमारी खोलो तो कितना अच्छा लग रहा है. लगता है सांस आ रही है. कैसा बचकाना सामान था न, जिसे इतने साल सहेज कर रखा…’’ मिनी चहकी.

जवानी आतेआते मिनी में नई चेतना, नई सोच चली आई थी जिस ने उस के प्रिय सामान को बचकाने की श्रेणी में ला खड़ा किया था. पता नहीं क्यों यह सब भी विजय के साथ बांट लिया मैं ने. जानती हूं वह मेरा उपहास ही उड़ाएंगे, ऐसा भी कह दिया तो सहसा आंखें भर आईं विजय की.

‘‘मैं इतना भी कू्रर नहीं हूं, जया. पगली, मैं भी तो उसी हालात का मारा हूं जिन की मारी तुम हो. आज 5 साल हो गए दोनों को गए… जया, वे दोनों सदा तुम्हारी यादों में हैं, तुम्हारे मन में हैं… उन्हें इतना तो सस्ता न बनाओ कि उन्हें उन के सामान में ही खोजती रहो. जो मन की गहराई में छिपा है, सुरक्षित है, वह कचरे में क्योंकर होगा…’’ मेरे सिर पर हाथ रखा विजय ने, ‘‘तुम्हारी शादी तुम्हारे पति के साथ हुई थी, इस सामान के साथ तो नहीं. लोग तो ज्ंिदा जीवनसाथी तक बदल लेते हैं, मेरी पत्नी तो मुझ ज्ंिदा को छोड़ गई और तुम यह बेजान सामान भी नहीं बदल सकतीं.’’

सहसा लगा कि विजय की बातों में कुछ गहराई है. उसी पल निश्चय किया, शायद शुरुआत हो पाए.

लौटते ही दूसरे दिन पूरे घर का मुआयना किया. पीतल का कितना ही सामान था जिस का उपयोग मुमकिन न था. उसे एकत्र कर एक बोरी में डाल दिया. महरी को कबाड़ी की दुकान पर भेजा, थोड़ी ही देर में कबाड़ी वाले की गाड़ी आ गई.

शाम को महरी पुराने कपड़ों से बरतन बदलने वाली को पकड़ लाई. मैं ने कभी कपड़ा दे कर बरतन नहीं लिए थे. अच्छा नहीं लगता मुझे.

‘‘बीबीजी, इन की भी तो रोजीरोटी है न. इस में बुरा क्या है जो आप को भी चार बरतन मिल जाएं.’’

‘‘मैं अकेली जान क्या करूंगी बरतन ले कर?’’

‘‘मेरी बेटी की शादी है, मुझे दे देना. इसी तरह साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिल जाएगा. कपड़ों का सही उपयोग हो जाएगा न बीबीजी.’’

गरदन हिला दी मैं ने.

2 ही दिन में मेरा घर खाली हो गया. ढेर सारे नए बरतन मेज पर सज गए, जिन्हें महरी ने दुआएं देते हुए उठा लिया.

‘‘बच्ची की गृहस्थी के पूरे बरतन निकल आए साहब के कपड़ों से. बरसों इस्तेमाल करेगी और आप को दुआएं देगी, बीबीजी.’’

पुरानी पीतल और किताबें बेच कर कुछ हजार रुपए हाथ में आ गए.

कालिज आतेजाते अकसर कालीन की दुकान पर बिछे व टंगे सुंदर कालीन नजर आ जाते थे. बहुत इच्छा होती थी कि मेरे घर में भी कालीन हो. पति की भी बहुत इच्छा थी, जब वह जिंदा थे.

शाम होतेहोते मेरे 2 कमरों के घर में नरम कालीन बिछ गए. पूरा घर खुलाखुला, स्वच्छ हो कर नयानया लगने लगा. अलमारी खोलती तो वह भी खुलीखुली लगती. रसोई में जाती तो वहां भी सांस न घुटती.

‘‘जया, क्या बात है 2 दिन से कालिज नहीं आई?’’ सहसा चौंका दिया विजय ने.

मैं घर की सफाई में व्यस्त थी. कालिज से छुट्टी जो ले ली थी.

‘‘अरे वाह, इतना सुंदर हो गया तुम्हारा घर. वह सारा कबाड़ कहां गया? क्या सब निकाल दिया?’’

विजय झट से पूरा घर देख भी आए. भीग उठी थीं विजय की आंखें. कितनी ही देर मेरा चेहरा निहारते रहे फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘‘उम्मीद मरने लगी थी मेरी. लगता था ज्यादा दिन जी नहीं पाओगी इस कबाड़ में. लेकिन अब लगता है अवसाद की काई साफ हो जाएगी. तुम भी मेरी तरह जी लोगी.’’

पहली बार लगा, विजय भी संवेदनशील हैं. उन का दिल भी नरम है. कुछ सोच कर कहने लगे, ‘‘मैं भी तुम जैसा ही था, जया. मां की दर्दनाक मौत का नजारा आंखों से हटता ही नहीं था. जरा सोचो, जिस मां ने मुझे जीवन दिया उसे एक आसान मौत दे पाना भी मेरे हाथ में नहीं था. क्या करता मैं? पत्नी भी ज्यादा दिन साथ नहीं रही. मैं जानता हूं कि इन परिस्थितियों में जीवन ठहर सा जाता है. फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही जीवन है.’’

विजय की आंखें झिलमिलाने लगी थीं. मेरे सिर पर अभी भी उन का हाथ था. हाथ उठा कर मैं ने विजय का हाथ पकड़ लिया. हजार अवसर आए थे जब विजय ने सहारा दिया था. सौसौ बार बहलाना भी चाहा था.

यह पहला अवसर था जब वह खुद मेरे सामने कमजोर पड़े थे. सस्नेह थाम लिया मैं ने विजय का हाथ.

‘‘मेरे पति की बड़ी इच्छा थी कि नरम कालीन हों घर में. बस, कभी मौका ही नहीं मिला था…कभी मौका मिला भी तो इतने रुपए नहीं थे हाथ में. बेकार पड़े सामान को निकाला तो उन की इच्छा पूरी हो गई. मैं ने कुछ गलत तो नहीं किया न?’’

जरा सी आत्मग्लानि सिर उठाने लगी तो फिर से उबार लिया विजय ने, यह कह कर कि नहीं तो, जया, सुंदर कालीन में भी तो तुम अपने पति की ही इच्छा देख रही हो  न. सच तो यह है कि जो जीवन की ओर मोड़ पाए वह भला गलत कैसे हो सकता है.

रोतेरोते मुसकराना कैसा लगता है. मैं अकसर रोतीरोती मुसकरा देती हूं तो विजय हाथ हिला दिया करते हैं.

‘‘इस तरह तो तुम जाने वालों को दुख दे रही हो. उन का रास्ता आसान बनाओ, पीछे को मत खींचो उन्हें. जो चले गए उन्हें जाने दो, पगली. खुश रहना सीखो. इस से उन्हें भी खुशी होगी. वह भी तुम्हें खुश ही देखना चाहते हैं न.’’

सहसा हाथ बढ़ा कर विजय ने पास खींच लिया और कहने लगे, ‘‘जीवन के अंतिम छोर तक तुम ने अपने पति का साथ दिया है. तुम किसी के साथ विश्वासघात नहीं कर रही. न अपने पति के साथ, न बेटे के साथ और न ही मेरे साथ. हम सब साथसाथ रह सकते हैं, जया.’’

विजय के हाथों को पिछले 3 साल से हटाने का प्रयास कर रही हूं मैं. विजय ने सदा मेरी इच्छा का सम्मान किया है.

लेकिन इस पल मैं ने जरा सा भी प्रयास नहीं किया. विजय स्तब्ध रह गए. उन की भावनाओं का सम्मान कर मैं पति का अपमान नहीं कर रही. धीरेधीरे विश्वास होने लगा मुझे. अविश्वास आंखों में लिए विजय ने मेरा चेहरा सामने किया. हैरान तो होना ही था उन्हें.

न जाने क्याक्या था जिस के नीचे दबी पड़ी थी मैं. कुछ यादों का बोझ, कुछ अपराधबोध का बोझ और कुछ अनिश्चय का बोझ. पता नहीं कल क्या हो.

शब्दों की आवश्यकता तो कभी नहीं रही मेरे और विजय के बीच. सदा मेरा चेहरा देख कर ही वह सब भांपते रहे हैं. भीगी आंखों में सब था. सम्मान सहित आजीवन साथ निभाने का आश्वासन. मुसकरा पड़े विजय. झुक कर मेरे माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ दिया. खुश थे विजय. मैं कबाड़ से बाहर जो चली आई थी.

Holi 2024: सतरंगी रंग

Story in Hindi

Holi 2024: होली के रंगों को साफ करने के लिए अपनाएं ये टिप्स

होली पर्व का नाम सुनते ही मन रंगरंगीली उमंगों से भर उठता है. होली रंगों का त्योहार है. इसे एकदूसरे पर गुलाल लगा कर मनाया जाता है परंतु आजकल गुलाल के साथसाथ लोग रंगों का भी प्रयोग करते हैं. अकसर घरों में एकदूसरे को रंग लगाते समय या रंग से बचने के प्रयास में रंग यहांवहां गिर जाता है. प्राकृतिक रंगों के दागधब्बे जहां आसानी से निकल जाते हैं, वहीं आजकल बाजार में उपलब्ध रासायनिक रंगों के दागधब्बों को साफ करना बड़ी चुनौती होती है.

यहां प्रस्तुत हैं, कुछ ऐसे उपाय जिन से घर की दीवारों, फर्श आदि पर लगे रंगों के दागधब्बों को आसानी से साफ किया जा सकता है :

दीवारें

– ध्यान रखें कि केवल उन्हीं दीवारों को साफ किया जा सकता है जिन पर वाशेबल डिस्टैंपर किया गया हो.

औयल बाउंड डिस्टैंपर वाली दीवारों की सफाई खुद करने का प्रयास न करें.

– वाशेबल पेंट की दीवारों को साफ करने के लिए पानी और साबुन का घोल बना कर गीले कपड़े और स्पंज से साफ करें.

– ब्रैंडेड पेंट को दीवारों से कैसे साफ किया जाए, इस की जानकारी कंपनी की वैबसाइट पर दी होती है. उसे पढ़ कर भी दीवारों को साफ किया जा सकता है.

– पानी प्रतिरोधी रंगों से रंगी दीवारों को साफ करने के लिए स्टेन ब्लागर की भी मदद ले सकती हैं. इस से दीवारों पर दागधब्बे नहीं लगते.

– यदि सादे पानी के प्रयोग से दीवारें साफ न हों तो टचअप का प्रयोग करें.

हलका सा टचअप कर के आप अपनी दीवारों को नया लुक दे सकती हैं. इस से आप की दीवारें बिलकुल नई सी लगने लगेंगी.

– टचअप करने का प्रयास आप स्वयं न करें. इस के लिए प्रोफैशनल की मदद लें अन्यथा शेड का हलका सा डिफरैंस भी दीवारों का लुक खराब कर देगा.

– दीवारों पर पड़े धब्बों को कभी बेकिंग पाउडर या ब्लीच से साफ करने का प्रयास न करें अन्यथा उन का रंग हलका पड़ जाएगा.

फर्श

– जहां तक संभव हो फर्श पर गिरे रंग को तुरंत साफ करने का प्रयास करें और यदि ऐसा करना संभव न हो तो उस पर थोड़ा सा पानी डाल दें ताकि रंग का धब्बा न पड़ने पाए.

– हलकेफुलके धब्बों को साबुन के पानी से एक नायलौन ब्रश से हलके हाथ से रगड़ कर साफ करें ताकि फर्श पर स्क्रैच न हो.

– अधिक पक्के धब्बों को साफ करने के लिए 2 बड़े चम्मच बेकिंग पाउडर में 1 छोटा चम्मच पानी मिला कर पेस्ट बनाएं और उसे धब्बों पर लगा कर आधे घंटे के लिए छोड़ दें. फिर साफ कपड़े से पोंछ दें. यदि धब्बे फिर भी न छूटें तो इस प्रक्रिया को 2-3 बार दोहराएं.

– पक्के धब्बों को साफ करने के लिए हाइड्रोजन पैराक्साइड को स्पंज पर लगा कर फर्श पर रगड़ें.

– यदि आप का फर्श सफेद संगमरमर का है, तो उस पर तरल ब्लीच का प्रयोग करें.

परंतु रंगीन और लैमिनेटेड फर्श पर ब्लीच का प्रयोग न करें अन्यथा यह उस का रंग फीका कर देगा.

– लकड़ी के फर्श पर गिरे सूखे रंग को तुरंत पोंछ कर साफ करें. यदि गीला रंग गिरा है तो साफ सूती कपड़े को ऐसिटोन में भिगो कर हलके हाथ से रगड़ते हुए साफ करें. ध्यान रखें कि कई बार इस से नाजुक फर्नीचर की पौलिश भी निकल जाती है. ऐसे में धब्बे हटाने के बाद पुन: पौलिश करवा लें जहां तक संभव हो रंग और पानी की व्यवस्था घर से बाहर ही करें और एक बार रंग या गुलाल लग जाने पर आप स्वयं भी बारबार अंदरबाहर न आएंजाएं. इस से आप व्यर्थ की परेशानियों से बच जाएंगी.

Holi 2024: जिंदगी की उजली भोर

सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.

अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी.

अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए.

अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं. सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है.

जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

Holi 2024: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है.

इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

Holi 2024: केमिकल रहित रंगों से खेलें सेफ होली

होली खेलते समय रंगों की गुणवत्ता सही हो. कैमिकल रंगों के बजाय सूखे रंग, अबीर, फूल आदि का प्रयोग करें. परंपरागत तौर पर होली गुलाल, जो कि ताजा फूलों से बनाया जाता था, के साथ खेली जाती थी. पर आजकल रंग कैमिकल के इस्तेमाल के साथ फैक्टरी में बनाए जाने लगे हैं. इन में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले कैमिकल्स हैं, लेड औक्साइड, कौपर सल्फेट, एल्युमिनियम ब्रोमाइड, प्रुशियन ब्लू, मर्क्यूरी सल्फाइट. इन से काला, हरा, सिल्वर, नीला और लाल रंग बनते हैं. ये देखने में रंग जितने आकर्षक होते हैं उतने ही हानिकारक तत्व इन में इस्तेमाल हुए होते हैं.

लेड औक्साइड रीनल फेलियर का कारण बन सकता है, कौपर सल्फेट आंखों में एलर्जी, पफ्फिनैस और कुछ समय के लिए अंधेपन का कारण बन सकता है. एल्युमिनियम ब्रोमाइड और मर्क्यूरी सल्फाइट खतरनाक तत्व होते हैं और प्रुशियन ब्लू कौन्टैक्ट डर्मेंटाइटिस का कारण बन सकते हैं. ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें अपना कर इन हानिकारक तत्वों के असर से बचा जा सकता है.

त्वचा को रखें नम

पारस अस्पताल, गुरुग्राम के त्वचा विभाग के प्रमुख डा. एच के कार कहते हैं, ‘‘होली खेलते समय फुल आस्तीन के कपड़े पहनें ताकि आप की त्वचा खतरनाक तत्त्वों के असर से सुरक्षित रहे. खुद को पूरी तरह से हाइड्रेटेड रखें क्योंकि डिहाइड्रेशन से त्वचा रूखी हो जाती है और ऐसे में आर्टिफिशियल रंगों में इस्तेमाल होने वाले कैमिकल्स न सिर्फ आप की त्वचा को अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं, बल्कि इन का असर लंबे समय तक बना रहेगा. अपने कानों और होंठों को नम बनाए रखने के लिए वैसलीन लगाएं. अपने नाखूनों पर भी वैसलीन लगा सकती हैं.’’

डा. एच के कार आगे कहते हैं, ‘‘अपने बालों में तेल लगाना न भूलें, ऐसा न करने से बाल होली के रंगों में मिले कैमिकल्स से डैमेज हो सकते हैं. जब कोई आप के चेहरे पर रंग फेंक रहा हो या उसे रगड़ रहा हो तब आप अपने होंठों और आंखों को अच्छी तरह से बंद कर लें. सांस के जरिए इन रंगों की महक अंदर जाने से इंफ्लेमेशन हो सकता है, जिस से सांस लेने में तकलीफ हो सकती है.

‘‘होली खेलते समय अपने कौंटैक्ट लैंस निकाल दें और आंखों के आसपास की त्वचा को सुरक्षित करने के लिए सनग्लासेज पहन लें.

‘‘ज्यादा मात्रा में भांग खाने से आप का ब्लडप्रैशर बढ़ सकता है. इसलिए इस का इस्तेमाल भूल कर भी न करें.

‘‘अपने चेहरे को कभी रगड़ कर साफ न करें क्योंकि ऐसा करने से त्वचा पर रैशेज और जलन हो सकती है. स्किन रैशेज से बचने के लिए त्वचा पर बेसन व दूध का पेस्ट लगा सकते हैं.’’

जिन लोगों की त्वचा संवेदनशील होती है उन्हें ऊपर बताए तमाम उपायों का खास ध्यान रखना चाहिए. आजकल बाजार में और्गेनिक रंग भी उपलब्ध हैं, कैमिकल वाले रंगों की जगह इन्हें खरीद कर लाएं. एकदूसरे के ऊपर पानी से भरे गुब्बारे न फेंकें, इस से आंखों, चेहरे व शरीर को नुकसान हो सकता है.

होली के त्योहार के दौरान ऐसी चीजें खानेपीने से बचें जो बहुत ज्यादा ठंडी हों.

इन्फैक्शन का खतरा

दिल्ली के लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में त्वचा विभाग के निदेशक और प्रोफैसर डा. विजय कुमार गर्ग कहते हैं, ‘‘कैमिकल रंगों से एलर्जी की समस्या, सांस में तकलीफ व इन्फैक्शन हो सकता है. रंगों को गाढ़ा करने के लिए आजकल उस में कांच का चूरा भी मिलाया जाता है जिस से त्वचा व आंख को नुकसान हो सकता है. बेहतर होगा कि आप हर्बल रंगों से होली खेलें. अपने साथ रूमाल या साफ कपड़ा जरूर रखें ताकि आंखों में रंग या गुलाल पड़ने पर उसे तुरंत साफ कर सकें. रंग खेलने के दौरान बच्चों का खास ध्यान रखें.’’

कोलंबिया एशिया अस्पताल, गाजियाबाद के त्वचा विशेषज्ञ डा. भावक मित्तल कहते हैं, ‘‘जहां तक हो सके सुरक्षित, नौन टौक्सिक और प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करें. ये न सिर्फ खतरनाक कैमिकल से मुक्त और सुरक्षित होते हैं बल्कि इन को त्वचा से हटाना भी आसान होता है. एक अन्य विकल्प यह है कि आप अपने लिए घर पर रंग बनाएं, जैसा कि पुराने जमाने में फलों के पाउडर व सब्जियों में हलदी और बेसन जैसी चीजें मिला कर रंग बनाए जाते थे, लेकिन ध्यान रहे, अगर ये तत्त्व अच्छे से बारीक पिसे हुए नहीं होंगे तो ये त्वचा पर रैशेज, लाली और यहां तक कि इरिटेशन का कारण बन सकते हैं.’’

कैमिकल रंगों से बालों को ऐसे बचाएं

अगर त्वचा और बाल रूखे होते हैं तो न सिर्फ इन पर खतरनाक रंगों का असर अधिक होता है बल्कि कैमिकल भीतर तक प्रवेश कर जाता है. होली खेलने से 1 घंटा पहले बालों में तेल लगा कर अच्छे से मसाज करें. तेल आप की त्वचा पर सुरक्षा की एक परत बनाएगा और इस से रंग आसानी से निकल जाएगा. कान के पीछे के हिस्से, उंगलियों के बीच के हिस्से और अपने नाखूनों के पास की त्वचा को बिलकुल नजरअंदाज न करें.

होली खेलने से पहले नारियल अथवा औलिव औयल के साथ सिर में अच्छे से मसाज करने से न सिर्फ खतरनाक रंगों के असर से बचाव होता है बल्कि गरमी और धूलमिट्टी से भी बचाव होता है. यह तेज रंगों को आप के सिर की त्वचा पर चिपकने नहीं देता है.

अपनी त्वचा को एग्जिमा, डर्मेटाइस और अन्य समस्याओें से बचाने के लिए हाथों और पैरों को ढकने वाले कपड़े पहने.

Holi 2024: दीवारें बोल उठीं

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे. गुस्से में बुदबुदाए जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी. बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे  हालात को कोस रहे हैं. अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते.

यह आज की बात नहीं थी. अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब रोज की दिनचर्या बन गई थी. कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की तरह उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते. उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के सिर्फ नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी.

औलाद से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय. लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रिझा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही. विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई.

वह जब भी स्कूल की या दोस्तों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास. समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का.

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का. आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं. इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई औलाद कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन.

लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती. तब भी वह अपना अधिकतर समय यारदोस्तों की टोली में ही बिताना पसंद करता. रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी.

‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है.’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से खुद को रोक नहीं पाए. जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो तबाही निश्चित होती है. बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है.

मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की. जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं. कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’

कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही. सच ही तो था, गुस्सा इनसान से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत खत्म कर देता है. मुझे इंद्र पर नहीं खामखा अपने पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की.

इंद्र का स्वभाव जल्दी उखड़ने वाला रहा है, लेकिन उन के गुस्से के चलते मैं भी चिड़चिड़ी होती गई. इंद्र हमेशा अमन के हर काम की चीरफाड़ करते रहते. शुरू में अपनी गलती मान कर इस काम में सुधार करने वाले अमन को भी लगने लगा कि उस के काम की, आलोचना सिर्फ आलोचना के लिए की जा रही है और इसे ज्यादा महत्त्व देना बेकार है.

यह सब सोचतेसोचते मैं ने अपने दिमाग को झटका. तभी विचार आया कि बस, बहुत हो गया. अब इन सब से मुझे खुद को ही नहीं, इंद्र को भी बाहर निकालना होगा.

आज सुबह से माहौल में पैदा हो रही तल्खियां और तल्ख न हों, इसलिए मैं ने इंद्र को पनीर परोसते हुए कहा, ‘‘आप यों तो उस के कमरे में जा कर बारबार देखते हो कि वह ठीक से सोया है या नहीं, और वैसे छोटीछोटी बातों पर बच्चों की तरह तुनक जाते हो. आप के दोस्त राजेंद्र भी उस दिन समझा रहे थे कि गुस्सा आए तो बाहर निकल जाया करो.

‘‘बस, अब बहुत हो गया बच्चे के पीछे पुलिस की तरह लगे रहना. जीने दो उसे अपनी जिंदगी, ठोकर खा कर ही तो संभलना जानेगा’’ मैं ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ऐसा है शिल्पी मैडम, जब तक जिंदा हूं, आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती. घर है यह, सराय नहीं कि जब चाहे कोई अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक मुंह उठाए चला आए और देहरी पर खड़े दरबान की तरह हम उसे सैल्यूट मारें,’’ दोनों हाथों को जोर से जोड़ते हुए इंद्र जब बोले तो मुझे उन के उस अंदाज पर हंसी आ गई.

रविवार को फिर अमन 10 बजे का चाय पी कर निकला और 1 बजने को था, पर वह अभी तक नदारद था. बहुत मन करता है कि हम सब एकसाथ बैठें, लेकिन इस नीड़ में मैं ने हमेशा एक सदस्य की कमी पाई. कभी इंद्र की, कभी अमन की. इधर हम पतिपत्नी व उधर मेरे बूढ़े सासससुर की आंखों में एकदूसरे के साथ बैठ कर भरपूर समय बिताने की लालसा के सपने तैरते ही रह जाते.

अपनी सास गिरिजा के साथ बैठी उदास मन से मैं दरवाजे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी. आंखों में रहरह कर आंसू उमड़ आते, जिन्हें मैं बड़ी सफाई से पोंछती जा रही थी कि तभी मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मन को भीगी लकड़ी की तरह मत बनाओ कि धीरेधीरे सुलगती रहो. अमन के नासमझ व्यवहार से जी हलका मत करो.’’

‘‘मांजी, अभी शादी होगी उस की. आने वाली बहू के साथ भी अमन का व्यवहार…’’

शिल्पी की बात को बीच में ही रोक कर समझाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘आने वाले कल की चिंता में तुम बेकार ही नई समस्याओं को जन्म दे रही हो. कभी इनसान हालात के परिणाम कुछ सोचता है लेकिन उन का दूसरा ही रूप सामने आता है. नदी का जल अनवरत बहता रहता है लेकिन वह रास्ते में आने वाले पत्थरों के बारे में पहले से सोच कर बहना तो रोकता नहीं न. ठीक वैसे ही इनसान को चलना चाहिए. इसलिए पहले से परिणामों के बारे में सोच कर दिमाग का बोझ बेकार में मत बढ़ाओ.’’

‘‘पर मांजी, मैं अपने को सोचने से मुक्त नहीं कर पाती. कल अगर अपनी पत्नी को भी समय न दिया और इसी तरह से उखड़ाउखड़ा रहा तो ऐसे में कोई कैसे एडजस्ट करेगा?

‘‘मैं समझ नहीं पा रही, वह हम से इतना कट क्यों रहा है. क्या आफिस में, अपने फें्रड सर्कल में भी वह इतना ही कोरा होगा? मांजी, मैं उस के दोस्त निखिल से इस का कारण पूछ कर ही रहूंगी. शायद उसे कुछ पता हो. अभी तक मैं टालती आ रही थी लेकिन अब जानना चाहती हूं कि कुछ साल पहले तक जिस के हंसीठहाकों से घर गुलजार रहता था, अचानक उस के मुंह पर ताला कैसे लग गया?

‘‘इंद्र का व्यवहार अगर उसे कचोट रहा है बेटी, तो इंद्र तो शुरू से ही ऐसा रहा है. डांटता है तो प्यार भी  करता है,’’ अब मां भी कुछ चिंतित दिखीं, ‘‘शिल्पी, अब जब तुम ने ध्यान दिलाया है तो मैं भी गौर कर रही हूं, नहीं तो मैं भी इसे पढ़ाई की टेंशन समझती थी…’’

बातों के सिलसिले पर डोरबेल ने कुछ देर के लिए रोक लगा दी.

लगभग 3 बजे अमन लौट कर आया था.

‘‘आप लोग मुझे यों घूर क्यों रहे हो?’’ अमन ने कमरे में घुसते हुए दादी और मां को अपनी ओर देखते हुए पा कर पूछा.

अमन के ऐसा पूछते ही मेरा संयम फिर टूट गया, ‘‘कहां चले गए थे आप? कुछ ठौरठिकाना होता है? बाकी दिन आप का आफिस, आज आप के दोस्त. कुछ घर वालों को बताना जरूरी समझते हैं आप या नहीं?’’ मैं जबजब गुस्से में होती तो अमन से बात करने में तुम से आप पर उतर आती.

लेकिन बहुत ही संयत स्वर में मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर गले लगा कर अमन बोला, ‘‘ओ मेरी प्यारी मां, आप तो गुस्से में पापा को भी मात कर रही हो. चलोचलो, गुस्सागुस्सी को वाशबेसिन में थूक आएं,’’ और हंसतेहंसते दादी की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘दादी, गया तो मैं सैलून था, बाल कटवाने. सोचा, आज अच्छे से हेड मसाज भी करवा लूं. पूरे हफ्ते काम करते हुए नसें ख्ंिचने लगती हैं. एक तो इस में देर हो गई और ज्यों ही सैलून से निकला तो लव मिल गया.

‘‘आज उस की वाइफ घर पर नहीं थी तो उस ने कहा कि अगर मैं उस के साथ चलूं तो वह मुझे बढि़या नाश्ता बना कर खिलाएगा. मां, तुम तो जानती हो कि कल से वही भागादौड़ी. हां, यह गलती हुई कि मुझे आप को फोन कर देना चाहिए था,’’ मां के गालों को बच्चे की तरह पुचकारते हुए वह नहाने के लिए घुसने ही वाला था कि पापा का रोबीला स्वर सुन कर रुक गया.

‘‘बरखुरदार, अच्छा बेवकूफ बना रहे हो. आधा दिन यों ही सही तो आधा दिन किसी और तरह से, हो गया खत्म पूरा दिन. संडे शायद तुम्हें किसी सजा से कम नहीं लगता होगा. आज तुम मुंह खोल कर सौरी बोल रहे हो, बाकी दिन तो इस औपचारिकता की भी जरूरत नहीं समझते.’’

अमन के चेहरे पर कई रंग आए, कई गए. नए झगड़े की कल्पना से ही मैं भयभीत हो गई. दूसरे कमरे से निकल आए दादा भी अब एक नए विस्फोट को झेलने की कमर कस चुके थे. दादी तो घबराहट से पहले ही रोने जैसी हो गईं. इतनी सी ही देर में हर किसी ने परिणाम की आशा अपनेअपने ढंग से कर ली थी.

लेकिन अमन तो आज जैसे शांति प्रयासों को बहाल करने की ठान चुका लगता था. बिना बौखलाए पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘पापा, जैसे आप लोग मुझ से, मेरे व्यवहार से शिकायत रखते हो, वैसा ही खयाल मेरा भी आप के बारे में है.

‘‘मैं बदला तो केवल आप के कारण. मुझे रिजर्व किया तो आप ने. मोबाइल चेपू हूं, लैपटाप पर लगा रहता हूं वगैरावगैरा कई बातें. पर पापा, मैं ऐसा क्यों होता गया, उस पर आप ने सोचना ही जरूरी नहीं समझा. फें्रड सर्कल में हमेशा खुश रहने वाला अमन घर आते ही मौन धारण कर लेता है, क्यों? कभी सोचा?

‘‘आफिस से घर आने पर आप हमेशा गंभीरता का लबादा ओढ़े हुए आते. मां ने आप से कुछ पूछा और आप फोन पर बात कर रहे हों तो अपनी तीखी भावभंगिमा से आप पूछने वाले को दर्शा देते कि बीच में टोकने की जुर्रत न की जाए. पर आप की बातचीत का सिलसिला बिना कमर्शियल बे्रक की फिल्म की भांति चलता रहता. दूसरों से लंबी बात करने में भी आप को कोई प्रौब्लम नहीं होती थी लेकिन हम सब से नपेतुले शब्दों में ही बातें करते.

‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं. जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन बाद में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था.

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की जरूरतें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं. बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से. मेरे मन में यह सोच बर्फ की तरह जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है. कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया.

‘‘मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बोझ अपने ऊपर लादना शुरू किया. घर में कुछ, बाहर और कुछ. लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी. मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है. दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा इनसान हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही वजह से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले.

‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से ज्यादा दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे. घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो. तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था.

‘‘छोटे रहते तुम मेरा हुक्म बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था. यारदोस्तों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता. पर जैसेजैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को  व्यक्त करने लगे.

‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा. धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए. बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और सख्ती करने लगा. धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते. मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर समझता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते.

‘‘लेकिन आज मैं समझ रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रिंसिपल घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया.

‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक तरफ पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी तरफ बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी.’’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं. कम से कम मुझे तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था. जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे दिमाग में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है. हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन खुद ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी नजरों से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं.

‘‘हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी तारीफ करती हैं. यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की तरह तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ इतिहास खोल कर रख दिया.

‘‘यानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस झूठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक जरूरत बन गई है. जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए. इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला.

‘‘अच्छा, अगर तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का जवाब देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, प्रिंसिपल की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े.

मेरी खुशी का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था.

Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

Holi 2024: होली से दूरी, यंग जेनरेशन की मजबूरी

होली का दिन आते ही पूरे शहर में होली की मस्ती भरा रंग चढ़ने लगता है लेकिन 14 साल के अरनव को यह त्योहार अच्छा नहीं लगता. जब सारे बच्चे गली में शोर मचाते, रंग डालते, रंगेपुते दिखते तो अरनव अपने खास दोस्तों को भी मुश्किल से पहचान पाता था. वह होली के दिन घर में एक कमरे में खुद को बंद कर लेता  होली की मस्ती में चूर अरनव की बहन भी जब उसे जबरदस्ती रंग लगाती तो उसे बहुत बुरा लगता था. बहन की खुशी के लिए वह अनमने मन से रंग लगवा जरूर लेता पर खुद उसे रंग लगाने की पहल न करता. जब घर और महल्ले में होली का हंगामा कम हो जाता तभी वह घर से बाहर निकलता. कुछ साल पहले तक अरनव जैसे बच्चों की संख्या कम थी. धीरेधीरे इस तरह के बच्चों की संख्या बढ़ रही है और होली के त्योहार से बच्चों का मोहभंग होता जा रहा है. आज बच्चे होली के त्योहार से खुद को दूर रखने की कोशिश करते हैं.

अगर उन्हें घरपरिवार और दोस्तों के दबाव में होली खेलनी भी पड़े तो तमाम तरह की बंदिशें रख कर वे होली खेलते हैं. पहले जैसी मौजमस्ती करती बच्चों की टोली अब होली पर नजर नहीं आती. इस की वजह यही लगती है कि उन में अब उत्साह कम हो गया है.

1. नशे ने खराब की होली की छवि

पहले होली मौजमस्ती का त्योहार माना जाता था लेकिन अब किशोरों का रुझान इस में कम होने लगा है. लखनऊ की राजवी केसरवानी कहती है, ‘‘आज होली खेलने के तरीके और माने दोनों ही बदल गए हैं. सड़क पर नशा कर के होली खेलने वाले होली के त्योहार की छवि को खराब करने के लिए सब से अधिक जिम्मेदार हैं. वे नशे में गाड़ी चला कर दूसरे वाहनों के लिए खतरा पैदा कर देते हैं ऐसे में होली का नाम आते ही नशे में रंग खेलते लोगों की छवि सामने आने लगती है. इसलिए आज किशोरों में होली को ले कर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है.’’

2. एग्जाम फीवर का डर

होली और किशोरों के बीच ऐग्जाम फीवर बड़ी भूमिका निभाता है. वैसे तो परीक्षा करीबकरीब होली के आसपास ही पड़ती है. लेकिन अगर बोर्ड के ऐग्जाम हों तो विद्यार्थी होली फैस्टिवल के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि उन का सारा फोकस परीक्षाओं पर जो होता है. पहले परीक्षाओं का दबाव मन पर कम होता था जिस से बच्चे होली का खूब आनंद उठाते थे. अब पढ़ाई का बोझ बढ़ने से कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं और भी महत्त्वपूर्ण होने लगी हैं, जिस से परीक्षाओं के समय होली खेल कर बच्चे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते.

होली के समय मौसम में बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में मातापिता को यह चिंता रहती है कि बच्चे कहीं बीमार न पड़ जाएं. अत: वे बच्चों को होली के रंग और पानी से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जो बच्चों को होली के उत्साह से दूर ले जाता है. डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘बच्चे खेलकूद के पुराने तौरतरीकों से दूर होते जा रहे हैं. होली से दूरी भी इसी बात को स्पष्ट करती है. खेलकूद से दूर रहने वाले बच्चे मौसम के बदलाव का जल्द शिकार हो जाते हैं. इसलिए कुछ जरूरी सावधानियों के साथ होली की मस्ती का आनंद लेना चाहिए.’’ फोटोग्राफी का शौक रखने वाले क्षितिज गुप्ता का कहना है, ‘‘मुझे रंगों का यह त्योहार बेहद पसंद है. स्कूल में बच्चों पर परीक्षा का दबाव होता है. इस के बाद भी वे इस त्योहार को अच्छे से मनाते हैं. यह सही है कि पहले जैसा उत्साह अब देखने को नहीं मिलता.

‘‘अब हम बच्चों पर तमाम तरह के दबाव होते हैं. साथ ही अब पहले वाला माहौल नहीं है कि सड़कों पर होली खेली जाए बल्कि अब तो घर में ही भाईबहनों के साथ होली खेल ली जाती है. अनजान जगह और लोगों के साथ होली खेलने से बचना चाहिए. इस से रंग में भंग डालने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है.’’

3. डराता है जोकर जैसा चेहरा

होली रंगों का त्योहार है लेकिन समय के साथसाथ होली खेलने के तौरतरीके बदल रहे हैं. आज होली में लोग ऐसे रंगों का उपयोग करते हैं जो स्किन को खराब कर देते हैं. रंगों में ऐसी चीजों का प्रयोग भी होने लगा है जिन के कारण रंग कई दिनों तक छूटता ही नहीं. औयल पेंट का प्रयोग करने के अलावा लोग पक्के रंगों का प्रयोग अधिक करने लगे हैं. लखनऊ के आदित्य वर्मा कहता है, ‘‘मुझे होली पसंद है पर जब होली खेल रहे बच्चों के जोकर जैसे चेहरे देखता हूं तो मुझे डर लगता है. इस डर से ही मैं घर के बाहर होली खेलने नहीं जाता.’’

उद्धवराज सिंह चौहान को गरमी का मौसम सब से अच्छा लगता है. गरमी की शुरुआत होली से होती है इसलिए इस त्योहार को वह पसंद करता है. उद्धवराज कहता है, ‘‘होली में मुझे पानी से खेलना अच्छा लगता है. इस फैस्टिवल में जो फन और मस्ती होती है वह अन्य किसी त्योहार में नहीं होती. इस त्योहार के पकवानों में गुझिया मुझे बेहद पसंद है. रंग लगाने में जोरजबरदस्ती मुझे अच्छी नहीं लगती. कुछ लोग खराब रंगों का प्रयोग करते हैं, इस कारण इस त्योहार की बुराई की जाती है. रंग खेलने के लिए अच्छे किस्म के रंगों का प्रयोग करना चाहिए.’’

4. ईको फ्रैंडली होली की हो शुरुआत

‘‘होली का त्योहार पानी की बरबादी और पेड़पौधों की कटाई के कारण मुझे पसंद नहीं है. मेरा मानना है कि अब पानी और पेड़ों का जीवन बचाने के लिए ईको फ्रैंडली होली की पहल होनी चाहिए. ‘‘होली को जलाने के लिए प्रतीक के रूप में कम लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए और रंग खेलते समय ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो सूखे हों, जिन को छुड़ाना आसान हो. इस से इस त्योहार में होने वाले पर्यावरण के नुकसान को बचाया जा सकता है,’’ यह कहना है सिम्बायोसिस कालेज के स्टूडेंट रह चुके शुभांकर कुमार का. वह कहता है, ‘‘समय के साथसाथ हर रीतिरिवाज में बदलाव हो रहे हैं तो इस में भी बदलाव होना चाहिए. इस से इस त्योहार को लोकप्रिय बनाने और दूसरे लोगों को इस से जोड़ने में मदद मिलेगी.’’

एलएलबी कर रहे तन्मय को होली का त्योहार पसंद नहीं है. वह कहता है, ‘‘होली पर लोग जिस तरह से पक्के रंगों का प्रयोग करने लगे हैं उस से कपड़े और स्किन दोनों खराब हो जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. कई बार होली खेले कपड़े दोबारा पहनने लायक ही नहीं रहते. ‘‘ऐसे में जरूरी है कि होली खेलने के तौरतरीकों में बदलाव हो. होली पर पर्यावरण बचाने की मुहिम चलनी चाहिए. लोगों को जागरूक कर इन बातों को समझाना पड़ेगा, जिस से इस त्योहार की बुराई को दूर किया जा सके. इस बात की सब से बड़ी जिम्मेदारी किशोर व युवावर्ग पर ही है.

होली बुराइयों को खत्म करने का त्योहार है, ऐसे में इस को खेलने में जो गड़बड़ियां होती हैं उन को दूर करना पड़ेगा. इस त्योहार में नशा कर के रंग खेलने और सड़क पर गाड़ी चलाने पर भी रोक लगनी चाहिए.’’

5. किसी और त्योहार में नहीं होली जैसा फन

होली की मस्ती किशोरों व युवाओं को पसंद भी आती है. एक स्टूडेंट कहती है, ‘‘होली ऐसा त्योहार है जिस का सालभर इंतजार रहता है. रंग और पानी किशोरों को सब से पसंद आने वाली चीजें हैं. इस के अलावा होली में खाने के लिए तरहतरह के पकवान मिलते हैं. ऐसे में होली किशोरों को बेहद पसंद आती है

‘‘परीक्षा और होली का साथ रहता है. इस के बाद भी टाइम निकाल कर होली के रंग में रंग जाने से मन अपने को रोक नहीं पाता. मेरी राय में होली जैसा फन अन्य किसी त्योहार में नहीं होता. कुछ बुराइयां इस त्योहार की मस्ती को खराब कर रही हैं. इन को दूर कर होली का मजा लिया जा सकता है.’’ ऐसी ही एक दूसरी छात्रा कहती हैं, ‘‘होली यदि सुरक्षित तरह से खेली जाए तो इस से अच्छा कोई त्योहार नहीं हो सकता. होली खेलने में दूसरों की भावनाओं पर ध्यान न देने के कारण कई बार लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है, जिस से यह त्योहार बदनाम होता है. सही तरह से होली के त्योहार का आनंद लिया जाए तो इस से बेहतर कोई दूसरा त्योहार हो ही नहीं सकता.

‘‘दूसरे आज के किशोरों में हर त्योहार को औनलाइन मनाने का रिवाज चल पड़ा है. वे होली पर अपनों को औनलाइन बधाइयां देते हैं. भले ही हमारा लाइफस्टाइल चेंज हुआ हो लेकिन फिर भी हमारा त्योहारों के प्रति उत्साह कम नहीं होना चाहिए.’’

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