पतिव्रता: कैसा था वैदेही का पति

पूरे समर्पण के साथ पतिव्रता का धर्म निभाने वाली वैदेही के प्रति उस के पति की मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ चुकी थीं. रात की खामोशी को तोड़ते हुए दरवाजा पीटने की बढ़ती आवाज से चौंक कर भास्कर बाबू जाग गए थे. घड़ी पर नजर डाली तो रात के 2 बजे थे. इस समय कौन हो सकता है? यह सोच कर दिल किसी आशंका से धड़क उठा.

उन्होंने एक नजर गहरी नींद में सोती अपनी पत्नी सौंदर्या पर डाली और दूसरे ही क्षण उसे झकझोर कर जगा दिया. ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. ‘‘क्या हुआ, यह तो मुझे भी नहीं पता पर काफी देर से कोई हमारा दरवाजा पीट रहा है,’’ भास्कर ने स्पष्ट किया. ‘‘अच्छा, पर आधी रात को कौन हो सकता है?’’ सौंदर्या ने कहा और दरवाजे के पास जा कर खड़ी हो गई. ‘‘कौन है? कौन दरवाजा पीट रहा है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘आंटी, मैं हूं प्रिंसी.’’ ‘‘यह तो धीरज बाबू की बेटी प्रिंसी का स्वर है,’’ सौंदर्या बोली और उस ने दरवाजा खोल दिया. देखा तो प्रिंसी और उस की छोटी बहन शुचि खड़ी हैं. ‘‘क्या हुआ, बेटी?’’ सौंदर्या ने चिंतित स्वर में पूछा. ‘‘मेरी मम्मी के सिर में चोट लगी है, आंटी. बहुत खून बह रहा है,’’ प्रिंसी बदहवास स्वर में बोली. ‘‘तुम्हारे पापा कहां हैं?’’ ‘‘पता नहीं आंटी, मम्मी को मारनेपीटने के बाद कहीं चले गए,’’ प्रिंसी सुबक उठी. सौंदर्या दोनों बच्चियों का हाथ थामे सामने के फ्लैट में चली गई. वहां का दृश्य देख कर तो उस के होश उड़ गए. उस की पड़ोसिन वैदेही खून में लथपथ बेसुध पड़ी थी.

वह उलटे पांव लगभग दौड़ते हुए अपने घर पहुंची और पति से बोली, ‘‘भास्कर, वैदेही बेहोश पड़ी है. सिर से खून बह रहा है. लगता है उस के पति भास्कर ने सिर फाड़ दिया है. बच्चियां रोरो कर बेहाल हुई जा रही हैं.’’ ‘‘तो कहो न उस के पति से कि वह अस्पताल ले जाए, हम कब तक पड़ोसियों के झमेले में पड़ते रहेंगे.’’ ‘‘वह घर में नहीं है.’’ ‘‘क्या? घर में नहीं है….पत्नी को मरने के लिए छोड़ कर आधी रात को कहां भाग गया डरपोक?’’ ‘‘मुझे क्या पता, पर जल्दी कुछ करो नहीं तो वैदेही मर जाएगी.’’ ‘‘तुम्हीं बताओ, आधी रात को बच्चों को अकेले छोड़ कर कहां जाएं?’’ भास्कर खीज उठा. ‘‘तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं, बस, जल्दी से फोन कर के एंबुलेंस बुला लो. तब तक मैं श्यामा बहन को जगा कर बच्चों के पास रहने की उन से विनती करती हूं,’’ इतना कह कर सौंदर्या पड़ोसिन श्यामा के दरवाजे पर दस्तक देने चली गई थी और भास्कर बेमन से फोन कर एंबुलेंस बुलाने की कोशिश करने लगा. श्यामा सुनते ही दौड़ी आई और दोनों पड़ोसिनें मिल कर वैदेही के बहते खून को रोकने की कोशिश करने लगीं. एंबुलेंस आते ही बच्चों को श्यामा की देखरेख में छोड़ कर भास्कर और सौंदर्या वैदेही को ले कर अस्पताल चले गए.

‘‘इस बेचारी की ऐसी दशा किस ने की है? कैसे इस का सिर फटा है?’’ आपातकालीन कक्ष की नर्स ने वैदेही को देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी. ‘‘देखिए, सिस्टर, यह समय इन सब बातों को जानने का नहीं है. आप तुरंत इन की चिकित्सा शुरू कीजिए.’’ ‘‘यह तो पुलिस केस है. आप इन्हें सरकारी अस्पताल ले जाइए,’’ नर्स पर वैदेही की गंभीर दशा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. भास्कर नर्स के साथ बहस करने के बजाय मरीज को सरकारी अस्पताल ले कर चल पडे़. वैदेही को अस्पताल में दाखिल करते ही गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया. कक्ष के बाहर बैठे भास्कर और सौंदर्या वैदेही के होश में आने की प्रतीक्षा करने लगे. बहुत देर से खुद पर नियंत्रण रखती सौंदर्या अचानक फूटफूट कर रो पड़ी. झिलमिलाते आंसुओं के बीच पिछले कुछ समय की घटनाएं उस के दिलोदिमाग पर हथौडे़ जैसी चोट कर रही थीं. कुछ बातें तो उस के स्मृति पटल पर आज भी ज्यों की त्यों अंकित थीं. उस रात कुछ चीखनेचिल्लाने के स्वर सुन कर सौंदर्या चौंक कर उठ बैठी थी. कुछ देर ध्यान से सुनने के बाद उस की समझ में आया था कि जो कुछ उस ने सुना वह कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत थी. चीखनेचिल्लाने के स्वर लगातार पड़ोस से आ रहे थे. अवश्य ही कहीं कोई मारपीट पर उतर आया था. सौंदर्या ने पास सोते भास्कर पर एक नजर डाली थी. क्या गहरी नींद है.

एक बार सोचा कि भास्कर को जगा दे पर उस की गहरी नींद देख कर साहस नहीं हुआ था. वह करवट बदल कर खुद भी सोने का उपक्रम करने लगी पर चीखनेचिल्लाने के पूर्ववत आते स्वर उसे परेशान करते रहे थे. सौंदर्या सुबह उठी तो सिर बहुत भारी था. ‘क्या हो गया? सुबह के 7 बजे हैं. अब सो कर उठी हो? आज बच्चों की छुट्टी है क्या?’ भास्कर ने चाय की प्याली थामे कमरे में प्रवेश किया था. ‘पता नहीं क्या हुआ है जो सुबह ही सुबह सिरदर्द से फटा जा रहा है.’ ‘चाय पी कर कुछ देर सो जाओ. जगह बदल गई है इसीलिए शायद रात में ठीक से नींद न आई हो,’ भास्कर ने आश्वासन दिया तो सौंदर्या रोंआसी हो उठी थी. ‘सोचा था अपने नए फ्लैट में आराम से चैन की बंसी बजाएंगे. पर यहां तो पहली ही रात को सारा रोमांच जाता रहा.’ ‘ऐसा क्या हो गया? उस दिन तो तुम बेहद उत्साहित थीं कि पुरानी गलियों से पीछा छूटा. नई पौश कालोनी मेें सभ्य और सलीकेदार लोगों के बीच रहने का अवसर मिलेगा,’ भास्कर ने प्रश्न किया था. ‘यहां तो पहली रात को ही भ्रम टूट गया.’ ‘ऐसा क्या हो गया जो सारी रात नींद नहीं आई,’ भास्कर ने कुछ रोमांटिक अंदाज में कहा, ‘प्रिय, देखो तो कितना सुंदर परिदृश्य है. उगता हुआ सूरज और दूर तक फैला हुआ सजासंवरा हराभरा बगीचा. एक अपना वह पुराना बारादरी महल्ला था जहां सूर्य निकलने से पहले ही लोग कुत्तेबिल्लियों की तरह झगड़ते थे. वह भी छोटीछोटी बातों को ले कर. ‘इतना प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है. वह घर हम अवश्य छोड़ आए हैं पर वहां का वातावरण हमारे साथ ही आया है.’ ‘क्या तात्पर्य है तुम्हारा?’ ‘यही कि जगह बदलने से मानव स्वभाव नहीं बदल जाता. रात को पड़ोस के फ्लैट से रोनेबिलखने के ऐसे दयनीय स्वर उभर रहे थे कि मेरी तो आंखों की नींद ही उड़ गई. बच्चे भी जोर से चीख कर कह रहे थे कि पापा मत मारो, मत मारो मम्मी को.’ ‘अच्छा, मैं ने तो समझा था कि यह सभ्य लोगों की बस्ती है, पुरानी बारादरी थोडे़ ही है. यहां के लोग तो मानवीय संबंधों का महत्त्व समझते होंगे पर लगता है कि…

सौंदर्या ने पति की बात बीच में काट कर वाक्य पूरा किया, ‘कि मानव स्वभाव कभी नहीं बदलता, फिर चाहे वह पुरानी बारादरी महल्ला हो या फिर शहर का सभ्य सुसंस्कृत आधुनिक महल्ला.’ ‘तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं, मैं तभी जा कर उस वीर पति को सबक सिखा देता. अपने से कमजोर पर रौब दिखाना, हाथ उठाना बड़ा सरल है. ऐसे लोगों के तो हाथ तोड़ कर हाथ में दे देना चाहिए.’ ‘देखो, बारादरी की बात अलग थी. यहां हम नए आए हैं. हम क्यों व्यर्थ ही दूसरों के फटे में पांव डालें,’ सौंदर्या ने सलाह दी. ‘यही तो बुराई है हम भारतीयों में, पड़ोस में खून तक हो जाए पर कोई खिड़की तक नहीं खुलती,’ भास्कर खीज गया था. दिनचर्या शुरू हुई तो रात की बात सौंदर्या भूल ही गई थी पर नीलम और नीलेश को स्कूल बस मेें बिठा कर लौटी तो सामने के फ्लैट से 3 प्यारी सी बच्चियों को निकलते देख कर ठिठक गई थी. सब से बड़ी 10 वर्षीय और दूसरी दोनों उस से छोटी थीं. तीनों लड़कियां मानों सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थीं. सीढि़यां चढ़ते ही सामने के फ्लैट का दरवाजा पकडे़ एक महिला खड़ी थी.

दूधिया रंगत, तीखे नाकनक्श. सौंदर्या ने महिला का अभिवादन किया तो वह मुसकरा दी थी. बेहद उदास फीकी सी मुसकान. ‘मैं आप की नई पड़ोसिन सौंदर्या हूं,’ उस ने अपना परिचय दिया था. ‘जी, मैं वैदेही’ इतना कहतेकहते उस ने अपने फ्लैट में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था, मानो कोई उस का पीछा कर रहा हो. भारी कदमों से सौंदर्या अपने फ्लैट में आई थी. अजीब बस्ती है. यहां कोई किसी से बात तक नहीं करता. इस से तो अपनी पुरानी बारादरी अच्छी थी कि लोग आतेजाते हालचाल तो पूछ लेते थे. दालचावल बीनते, सब्जी काटते पड़ोसिनें बालकनी में भी छत पर खड़ी हो सुखदुख की बातें तो कर लेती थीं और मन हलका हो जाता था. पर इस नए परिवेश में तो दो मीठे बोल सुनने को मन तरस जाता था. यही क्रम जब हर 2-3 दिन पर दोहराया जाने लगा तो सौंदर्या का जीना दूभर हो गया. बारादरी में तो ऐसा कुछ होने पर पड़ोसी मिल कर बात को सुलझाने का प्रयत्न करते थे, पर यहां तो भास्कर ने साफ कह दिया था कि वह इस झमेले में नहीं पड़ने वाला. और वह कानों में रूई के फाहे लगा कर चैन की नींद सोता था. पड़ोसियों के पचडे़ में न पड़ने के अपने फैसले पर भास्कर भी अधिक दिनों तक टिक नहीं पाया. हुआ यों कि कार्यालय से लौटते समय अपने फ्लैट के ठीक सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी धीरज द्वारा अपनी पत्नी पर लातघूंसों की बरसात को भास्कर सह नहीं सका था.

उस ने लपक कर उस का गिरेबान पकड़ा था और दोचार हाथ जमा दिए. ‘मैं तो आप को सज्जन इनसान समझता था पर आप का व्यवहार तो जानवरों से भी गयागुजरा निकला,’ भास्कर ने पड़ोसी की बांह इस प्रकार मरोड़ी कि वह दर्द से कराह उठा था. भास्कर ने जैसे ही धीरज का हाथ छोड़ा वह शेर हो गया. ‘आप होते कौन हैं हमारे व्यक्तिगत मामलों में दखल देने वाले. मेरी पत्नी है वह. मेरी इच्छा, मैं उस से कैसा भी व्यवहार करूं.’ ‘लानत है तुम्हारे पति होने पर जो मारपीट को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हो,’ दांत पीसते हुए भास्कर पड़ोसी की ओर बढ़ा पर दूसरे ही क्षण वैदेही हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी थी. ‘भाई साहब, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, आप हमारे बीच पड़ कर नई मुसीबत न खड़ी करें.’ भास्कर को झटका सा लगा था. दूसरी ओर अपने फ्लैट का द्वार खोले सौंदर्या खड़ी थी. वैदेही पर एक पैनी नजर डाल कर भास्कर अपने फ्लैट की ओर मुड़ गया था. सौंदर्या उस के पीछे आई थी. वह सौंदर्या पर ही बरस पड़ा था. ‘कोई जरूरत नहीं है ऐसे पड़ोसियों से सहानुभूति रखने की. अपने काम से काम रखो, पड़ोस में कोई मरे या जिए. नहीं सहन होता तो दरवाजेखिड़कियां बंद कर लो, कानों में रूई डाल लो और चैन की नींद सो जाओ.’ सौंदर्या भास्कर की बात भली प्रकार समझती थी. उस का क्रोध सही था पर चुप रहने के अलावा किया भी क्या जा सकता था. धीरेधीरे सौंदर्या और वैदेही के बीच मित्रता पनपने लगी थी. ‘क्या है वैदेही, ऐसे भी कोई अत्याचार सहता है क्या? सिर पर गुलम्मा पड़ा है, आंखों के नीचे नील पडे़ हैं जगहजगह चोट के निशान हैं… तुम कुछ करती क्यों नहीं,’ एक दिन सौंदर्या ने पूछ ही लिया था. ‘क्या करूं दीदी, तुम्हीं बताओ. मेरे पिता और भाइयों ने साम, दाम, दंड, भेद सभी का प्रयोग किया पर कुछ नहीं हुआ. आखिर उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो लगता है एक दिन ऐसे ही मेरा अंत आ जाएगा.’ ‘क्या कह रही हो. इस आधुनिक युग में भी औरतों की ऐसी दुर्दशा? मुझे तो तुम्हारी बातें आदिम युग की जान पड़ती हैं.’ ‘समय भले ही बदला हो दीदी पर समाज नहीं बदला. जिस समाज में सीताद्रौपदी जैसी महारानियों की भी घोर अवमानना हुई हो वहां मेरी जैसी साधारण औरत किस खेत की मूली है.’ ‘मैं नहीं मानती, पतिपत्नी यदि एकदूसरे का सम्मान न करें तो दांपत्य का अर्थ ही क्या है.’ ‘हमारे समाज में यह संबंध स्वामी और सेवक का है,’ वैदेही बोली थी.

‘बहस में तो तुम से कोई जीत नहीं सकता. इतनी अच्छी बातें करती हो तुम पर धीरज को समझाती क्यों नहीं,’ सौंदर्या मुसकरा दी थी. ‘समझाया इनसान को जाता है हैवान को नहीं,’ वैदेही की आंखें डबडबा आईं और गला भर आया था. सौंदर्या गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर बेंच पर बैठी थी कि चौंक कर उठ खड़ी हुई. अचानक ही वर्तमान में लौट आई वह. ‘‘मरीज को होश आ गया है,’’ सामने खड़ी नर्स कह रही थी, ‘‘आप चाहें तो मरीज से मिल सकती हैं.’’ सौंदर्या को देखते ही वैदेही की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली. ‘‘मैं घर चलता हूं. कल काम पर भी जाना है,’’ भास्कर ने कहा. ‘‘भाई साहब, अब भी नाराज हैं क्या? कोई भूल हो गई हो तो क्षमा कर दीजिए इस अभागिन को,’’ वैदेही का स्वर बेहद धीमा था, मानो कहीं दूर से आ रहा हो. ‘‘गांधी नगर में मेरी बहन रहती है. उसे आप फोन कर दीजिएगा,’’ इतना कह कर वैदेही ने फोन नंबर दिया पर वह चिंतित थी कि न जाने कब तक अस्पताल में रहना पड़ेगा. भास्कर घर पहुंचा तो धीरज वापस आ चुका था. उसे देख कर बाहर निकल आया. ‘‘वैदेही कहां है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘कौन वैदेही? मैं किसी वैदेही को नहीं जानता,’’ भास्कर तीखे स्वर में बोला. ‘‘देखो, सीधे से बता दो नहीं तो मैं पुलिस को सूचित करूंगा,’’ धीरज ने धमकी दी. ‘‘उस की चिंता मत करो, पुलिस खुद तुम्हें ढूंढ़ती आ रही होगी.

वैसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नी तो तुम्हारे विरोध में कुछ कहेगी नहीं, पर हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं,’’ भास्कर का क्रोध हर पल बढ़ता जा रहा था. तभी भास्कर ने देखा कि उस माउंट अपार्टमेंट के फ्लैटों के दरवाजे एकएक कर खुल गए थे और उन में रहने वाले लोग मुट्ठियां ताने धीरज की ओर बढ़ने लगे थे. ‘‘इस राक्षस को सबक हम सिखाएंगे,’’ वे चीख रहे थे. भास्कर के होंठों पर मुसकान खेल गई. इस सभ्यसुसंस्कृत लोगों की बस्ती में भी मानवीय संवेदना अभी पूरी तरह मरी नहीं है. उसे वैदेही और उस की बच्चियों के भविष्य के लिए आशा की नई किरण नजर आई. उधर धीरज वहां से भागने की राह न पा कर हाथ जोडे़ सब से दया की भीख मांग रहा था.

अंधेरे की छाया : किस बीमारी का शिकार हुई प्रमिला

महेंद्र सिंह ने अपनी पत्नी प्रमिला के कमरे में झांक कर देखा. अंदर पासपड़ोस की 5-6 महिलाएं बैठी थीं. वे न केवल प्रमिला का हालचाल पूछने आई थीं बल्कि उस से इसलिए भी बतिया रही थीं कि उस की दिलजोई होती रहे. जब से प्रमिला फालिज की शिकार हुई थी, महल्ले के जानपहचान वालों ने अपना यह रोज का क्रम बना लिया था कि 2-4 की टोलियों में सुबह से शाम तक उस का मन बहलाने के लिए उस के पास मौजूद रहते थे. पुरुष नीचे बैठक में महेंद्र सिंह के पास बैठ जाते थे औैर औरतें ऊपर प्रमिला के कमरे में फर्श पर बिछी दरी पर विराजमान रहती थीं.

वे लोग प्रमिला एवं महेंद्र की प्रत्येक छोटीबड़ी जरूरतों का ध्यान रखते थे. महेंद्र को पिछले 3-4 महीनों के दौरान उसे कुछ कहना या मांगना नहीं पड़ा था. आसपास मौजूद लोग मुंह से निकलने से पहले ही उस की जरूरत का एहसास कर लेते थे और तुरंत इस तरह उस की पूर्ति करते थे मानो वे उस घर के ही लोग हों. उस समय भी 2 औरतें प्रमिला की सेवाटहल में लगी थीं. एक स्टोव पर पानी गरम कर रही थी ताकि उसे रबर की थैली में भर कर प्रमिला के सुन्न अंगों का सेंक किया जा सके. दूसरी औरत प्रमिला के सुन्न हुए अंगों की मालिश कर रही थी ताकि पुट्ठों की अकड़न व पीड़ा कम हो. कमरे में झांकने से पहले महेंद्र सिंह ने सुना था कि प्रमिला वहां बैठी महिलाओं से कह रही थी, ‘‘तुम देखना, मेरा गौरव मेरी बीमारी का पत्र मिलते ही दौड़ादौड़ा चला आएगा. लाठी मारे से पानी जुदा थोड़े ही होता है. मां का दर्द उसे नहीं आएगा तो किस को आएगा? मेरी यह दशा देख कर वह मुझे पीठ पर उठाएउठाए फिरेगा. तुरंत मुझे दिल्ली ले जाएगा और बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा.’’ महेंद्र के कमरे में घुसते ही वहां मौन छा गया था. कोई महिला दबी जबान से बोली थी, ‘‘चलो, खिसको यहां से निठल्लियो, मुंशीजी चाची से कुछ जरूरी बातें करने आए हैं.’’ देखतेदेखते वहां बैठी स्त्रियां उठ कर कमरे के दूसरे दरवाजे से निकल गईं. महेंद्र्र ऐेनक ठीक करता हुआ प्रमिला के पलंग के समीप पहुंचा. उस ने बिस्तर पर लेटी हुई प्रमिला को ध्यान से देखा.

शरीर के पूरे बाएं भाग पर पक्षाघात का असर हुआ था. मुंह पर भी हलका सा टेढ़ापन आ गया था और बोलने में जीभ लड़खड़ाने लगी थी. महेंद्र प्रमिला से आंखें चार होते ही जबरदस्ती मुसकराया था और पूछा था, ‘‘नए इंजेक्शनों से कोई फर्क पड़ा?’’ ‘‘हां जी, दर्द बहुत कम हो गया है,’’ प्रमिला ने लड़खड़ाती आवाज में जवाब दिया था और बाएं हाथ को थोड़ा उठा कर बताया था, ‘‘यह देखो, अब तो मैं हाथ को थोड़ा हरकत दे सकती हूं. पहले तो दर्द के मारे जोर ही नहीं दे पाती थी.’’ ‘‘और टांग?’’ ‘‘यह तो बिलकुल पथरा गई है. जाने कब तक मैं यों ही अपंगों की तरह पलंग पर पड़ी रहूंगी.’’ ‘‘बीमारी आती हाथी की चाल से है औैर जाती चींटी की चाल से है. देखो, 3 महीने के इलाज से कितना मामूली अंतर आया है, लेकिन अब मैं तुम्हारा और इलाज नहीं करा सकता. सारा पैसा खत्म हो चुका है. तमाम जेवर भी ठिकाने लग गए हैं. बस, 50 रुपए और तुम्हारे 6 तोले के कंगन और चूडि़यां बची हैं.’’ ‘‘हां,’’ प्रमिला ने लंबी सांस ली, ‘‘तुम तो पहले ही बहुत सारा रुपया गौरव और उस के बच्चों के लिए यह घर बनाने में लगा चुके थे. पर वे नहीं आए. अब मेरी बीमारी की सुन कर तो आएंगे. फिर मेरा गौरव रुपयों का ढेर…’’ ‘‘नहीं, मैं और इंतजार नहीं कर सकता,’’ महेंद्र बाहर जाते हुए बोला, ‘‘तुम इंतजार कर लो अपने बेटे का. मैं डा. बिहारी के पास जा रहा हूं, कंपाउंडर की नौकरी के लिए…’’ ‘‘तुम करोगे वही जो तुम्हारे मन में होगा,’’ प्रमिला चिढ़ कर बोली, ‘‘आने दो गौरव को, एक मिनट में छुड़वा देगा वह तुम्हारी नौकरी.’’ ‘‘आने तो दें,’’ महेंद्र बाहर निकल कर जोर से बोला, ‘‘लो, सलमा बाजी और उन की बहुएं आ गई हैं तुम्हारी सेवा को.’’ ‘‘हांहां तुम जाओ, मेरी सेवा करने वाले बहुत हैं यहां. पूरा महल्ला क्या, पूरा कसबा मेरा परिवार है. अच्छी थी तो मैं इन सब के घरों पर जा कर सिलाईकढ़ाई सिखाती थी. कितना आनंद आता था दूसरों की सेवा में. ऐसा सुख तो अपनी संतान की सेवा में भी नहीं मिलता था.’’ ‘‘हां, प्रमिला भाभी,’’ सलमा ने अपनी दोनों बहुओं के साथ कमरे में आ कर आदाब किया और प्रमिला की बात के जवाब में बोली, ‘‘तुम से ज्यादा मुंशीजी को मजा आता था दूसरों की खिदमत में.

अपनी दवाओं की दुकान लुटा दी दीनदुखियों की सेवा में. डाक्टरों का धंधा चौपट कर रखा था इन्होंने. कहते थे गौरव हजारों रुपया महीना कमाता है, अब मुझे दुकान की क्या जरूरत है. बस, गरीबों की खिदमत के लिए ही खोल रखी है. वरना घर बैठ कर आराम करने के दिन हैं.’’ ‘‘ठीक कहती हो, बाजी,’’ प्रमिला का कलेजा फटने लगा, ‘‘क्या दिन थे वे भी. कैसा सुखी परिवार था हमारा.’’ कभी महेंद्र और प्रमिला का परिवार बहुत सुखी था. दुख तो जैसे उन लोगों ने देखा ही नहीं था. जहां आज शानदार गौरव निवास खड़ा है वहां कभी 2 कमरों का एक कच्चापक्का घर था. महेंद्र का परिवार छोटा सा था. पतिपत्नी और इकलौता बेटा गौरव. महेंद्र की स्टेशन रोड पर दवाओं की दुकान थी, जिस से अच्छी आय थी. उसी आय से उन्होंने गौरव को उच्च शिक्षादीक्षा दिला कर इस योग्य बनाया था कि आज वह दिल्ली में मुख्य इंजीनियर है. अशोक विहार में उस की लाखों की कोठी है. वह देश का हाकी का जानामाना खिलाड़ी भी तो था. बड़ेबडे़ लोगों तक उस की पहुंच थी और आएदिन देश की विख्यात पत्रपत्रिकाओं में उस के चर्चे होते रहते थे. गौरव ने दिल्ली में नौकरी मिलने के साथ ही अपनी एक प्रशंसक शीला से शादी कर ली थी. महेंद्र व प्रमिला ने सहर्ष खुद दिल्ली जा कर अपने हाथों से यह कार्य संपन्न किया था. शीला न केवल बहुत सुंदर थी बल्कि बहुत धनवान एवं कुलीन घराने से थी. बस, यहीं वे चूक गए. चूंकि शादी गौरव एवं शीला की सहमति से हुई थी, इसलिए वे महेंद्र और प्रमिला को अपनी हर बात से अलग रखने लगे. यहां तक कि शीला शादी के बाद सिर्फ एक बार अपनी ससुराल नसीराबाद आई थी.

फिर वह उन्हें गंवार और उन के घर को जानवरों के रहने का तबेला कह कर दिल्ली चली गई थी. पिछले 15 वर्षों में उस ने कभी पलट कर नहीं झांका था. महेंद्र और प्रमिला पहले तो खुद भी ख्ंिचेखिंचे रहे थे, लेकिन जब उन के पोता और पोती शिखा औैर सुदीप हो गए तो वे खुद को न रोक सके. किसी न किसी बहाने वे बहूबेटे के पास दिल्ली पहुंच जाते. गौरव और शीला उन का स्वागत करते, उन्हें पूरा मानसम्मान देते. लेकिन 2-4 दिन बाद वे अपने बड़प्पन के अधिकारों का प्रयोग शुरू कर देते, उन के निजी जीवन में हस्तक्षेप करना शुरू कर देते. वे उन्हें अपने फैसले मानने और उन की इच्छानुसार चलने पर विवश करते. यहीं बात बिगड़ जाती. संबंध बोझ लगने लगते और छोटीछोटी बातों को ले कर कहासुनी इतनी बढ़ जाती कि महेंद्र और प्रमिला को वहां से भागना पड़ जाता. प्रमिला और महेंद्र आखिरी बार शीला के पिता की मृत्यु पर दिल्ली गए थे. तब शिखा और सुदीप क्रमश: 10 और 8 वर्ष के हो चुके थे.

उन के मन में हर बात को जानने और समझने की जिज्ञासा थी. उन्होंने दादादादी से बारबार आग्रह किया था कि वे उन्हें अपने कसबे ले जाएं ताकि वे वहां का जीवन व रहनसहन देख सकें. गौरव के दिल में मांबाप के लिए बहुत प्यार व आदर था. उस ने घर ठीक कराने के लिए शीला से छिपा कर मां को 10 हजार रुपए दे दिए ताकि शीला को बच्चों को ले कर वहां जाने में कोई आपत्ति न हो. परंतु प्रमिला की असावधानी से बात खुल गई. सासबहू में महाभारत छिड़ गया और एकदूसरे की शक्ल न देखने की सौगंध खा ली गई. परंतु नसीराबाद पहुंचते ही प्रमिला का क्रोध शांत हो गया. वह पोतापोती और गौरव को नसीराबाद लाने के लिए मकान बनवाने लगी. गृहप्रवेश के दिन वे नहीं आए तो प्रमिला को ऐसा दुख पहुंचा कि वह पक्षाघात का शिकार हो गईर् औैर अब प्रमिला को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दीख रहा था.

महेंद्र डा. बिहारी के यहां से लौटा तो अंधेरा हो चुका था. पर घर का दृश्य देख कर वह हक्काबक्का रह गया. प्रमिला का कमरा अड़ोसपड़ोस के लोगों से भरा हुआ था. प्रमिला अपने पलंग पर रखी नोटों की गड्डियां उठाउठा कर एक अजनबी आदमी पर फेंकती हुई चीख रही थी, ‘‘ले जाओ इन को मेरे पास से और उस से कहना, न मुझे इन की जरूरत है, न उस की.’’ आदमी नोट उठा कर बौखलाया हुआ बाहर आ गया था. उसे भीतर खड़े लोगों ने जबरदस्ती बाहर धकेल दिया था. कमरे से कईकई तरह की आवाजें आ रही थीं. ‘‘जाओ, भाई साहब, जाओ. देखते नहीं यह कितनी बीमार हैं.’’ ‘‘रक्तचाप बढ़ गया तो फिर कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी. जल्दी निकालो इन्हें यहां से.’’ और 2 लड़के उस आदमी को बाजुओं से पकड़ कर जबरदस्ती बाहर ले गए. वह अजनबी महेंद्र से टकरताटकराता बचा था. महेंद्र ने भी गुस्से में पूछा था, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘मैं गौरव का निजी सहायक हूं, जगदीश. साहब ने ये 50 हजार रुपए भेजे हैं और यह पत्र.’’ महेंद्र ने नोटोें को तो नहीं छुआ, लेकिन जगदीश के हाथ से पत्र ले लिया. पत्र को पहले ही खोला जा चुका था और शायद पढ़ा भी जा चुका था. महेंद्र ने तत्काल फटे लिफाफे से पत्र निकाल कर खोला. पत्र गौरव ने लिखा था: पूज्य पिताजी एवं माताजी, सादर प्रणाम, आप का पत्र मिला. माताजी के बारे में पढ़ कर बहुत दुख हुआ. मन तो करता है कि उड़ कर आ जाऊं, मगर मजबूरी है. शीला और बच्चे इसलिए नहीं आ सकते, क्योंकि वे परीक्षा की तैयारी में लगे हैं. मैं एशियाड के कारण इतना व्यस्त हूं कि दम लेने की भी फुरसत नहीं है. बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर ये चंद पंक्तियां लिख रहा हूं. मैं समय मिलते ही आऊंगा. फिलहाल अपने सहायक को 50 हजार रुपए दे कर भेज रहा हूं ताकि मां का उचित इलाज हो सके. आप ने लिखा है कि आप ने हर तरफ से पैसा समेट कर नए मकान के निर्माण में लगा दिया है, जो बचा मां की बीमारी खा गईर्.

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यह आप ने ठीक नहीं किया. बेकार मकान बनवाया, हम लोगों के लिए वह किसी काम का नहीं है. हम कभी नसीराबाद आ कर नहीं बसेंगे. मां की बीमारी पर भी व्यर्थ खर्च किया. पक्षाघात के रोग का कोई इलाज नहीं है. मैं ने कईर् विशेषज्ञ डाक्टरों से पूछा है. उन सब का यही कहना है मां को अधिकाधिक आराम दें. यही इलाज है इस रोग का. मां को दिल्ली लाने की भूल तो कभी न करें. यात्रा उन के लिए बहुत कष्टदायक होगी. रक्तचाप बढ़ गया तो दूसरा आक्रमण जानलेवा सिद्ध होगा. एक्यूपंक्चर विधि से भी इस रोग में कोई लाभ नहीं होता. सब धोखा है… महेंद्र इस से आगे न पढ़ सका. उस का मन हुआ कि उस पत्र को लाने वाले के मुंह पर दे मारे. लेकिन उस में उस का क्या दोष था. उस ने बड़ी कठिनाई से अपने को संभाला और जगदीश को पत्र लौटाते हुए कहा, ‘‘आप उस से जा कर वही कहिए जो उसे जन्म देने वाली ने कहा है. मेरी तरफ से इतना और जोड़ दीजिए कि हम तो उस के लिए मरे हुए ही थे, आज से वह हमारे लिए मर गया.

काश, वह पैदा होते ही मर जाता.’’ जगदीश सिर झुका कर चला गया. महेंद्र प्रमिला के कमरे में घुसा. उस ने देखा कि वहां सब लोग मुसकरा रहे थे. प्रमिला की आंखें भीग रही थीं, लेकिन उस के होंठ बहुत दिनों के बाद हंसना चाह रहे थे. महेंद्र ने प्रमिला के पास जाते हुए कहा, ‘‘तुम ने बिलकुल ठीक किया, पम्मी.’’ तभी बिजली चली गई. कमरे में अंधेरा छा गया. प्रमिला ने देखा कि अंधेरे में खड़े लोगों की परछाइयां उस के समीप आती जा रही हैं. कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, कोई मोमबत्ती जलाओ.’’ ‘‘नहीं, कमरे में अंधेरा रहने दो,’’ प्रमिला तत्काल चीख उठी, ‘‘यह अंधेरा मुझे अच्छा लग रहा है. कहते हैं कि अंधेरे में साया भी साथ छोड़ देता है. मगर मेरे चारों तरफ फैले अंधेरे में तो साए ही साए हैं. मैं हाथ बढ़ा कर इन सायों का सहारा ले सकती हूं,’’ प्रमिला ने पास खड़े लोगों को छूना शुरू किया, ‘‘अब मुझे अंधेरे से डर नहीं लगता, अंधेरे में भी कुछ साए हैं जो धोखा नहीं हैं, ये साए नहीं हैं बल्कि मेरे अपने हैं, मेरे असली संबंधी, मेरा सहारा…यह तुम हो न जी?’’ ‘‘हां, पम्मी, यह मैं हूं,’’ महेंद्र ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘तुम्हारे अंधेरों का भी साथी, तुम्हारा साया.’’ ‘‘तुम नौकरी करना डा. बिहारी की. रोगियों की सेवा करना. अपनी संतान से भी ज्यादा सुख मिलता है परोपकार में. मुझे संभालने वाले यहां मेरे अपने बहुत हैं. मैं निचली मंजिल पर सिलाई स्कूल खोल लूंगी, मेरे कंगन औैर चूडि़यां बेच कर सिलाई की कुछ मशीनें ले आना औैर पहियों वाली एक कुरसी ला देना.’’ ‘‘पम्मी.’’ ‘‘हां जी, मेरा एक हाथ तो चलता है. ऊपर की मंजिल किराए पर उठा देना. वह पैसा भी मैं अपने इन परिवार वालों की भलाई पर खर्च करना चाहती हूं. हमारे मरने के बाद हमारा जो कुछ है, इन्हें ही तो मिलेगा.’’ एकाएक बिजली आ गई. कमरे में उजाला फैल गया. सब के साथ महेंद्र ने देखा था कि प्रमिला अपने एक हाथ पर जोर लगा कर उठ बैठी थी. इस से पहले वह सहारा देने पर ही बैठ पाती थी. महेंद्र ने खुशी से छलकती आवाज में कहा, ‘‘पम्पी, तुम तो बिना सहारे के उठ बैठी हो.’’ ‘‘हां, इनसान को झूठे सहारे ही बेसहारा करते हैं.

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मैं इस आशा में पड़ी रही कि कोई आएगा, मुझे अपनी पीठ पर उठा कर ले जाएगा औैर दुनिया के बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा. मेरा यह झूठा सहारा खत्म हो चुका है. मुझे सच्चा सहारा मिल चुका है…अपनी हिम्मत का सहारा. फिर मुझे किस बात की कमी है? मेरा इतना बड़ा परिवार जो खड़ा है यहां, जो जरा से पुकारने पर दौड़ कर मेरे चारों ओर इकट्ठा हो जाता है.’’ यह सुन कर महेंद्र की छलछलाई आंखें बरस पड़ीं. उसे रोता देख कर वहां खड़े लोगों की आंखें भी गीली होने लगीं. महेंद्र आंसुओं को पोंछते हुए सोच रहा था, ‘ये कैसे दुख हैं, जो बूंद बन कर मन की सीप में टपकते हैं और प्यार व त्याग की गरमी पा कर खुशी के मोती बन जाते हैं.

सनकी हत्यारा : खून से लथपथ लाश और बेसबौल का डंडा

Crime News in Hindi: सोमनाथ से जबलपुर (Jabalpur) तक आने वाली सोमनाथ एक्सप्रैस ट्रेन 17 दिसंबर, 2018 को शाम करीब 5 बजे जब जबलपुर स्टेशन पहुंची तो सैकड़ों यात्रियों के साथ एक कोच में सवार मनीष वाजपेयी भी प्लेटफार्म नंबर 3 पर उतरे. मनीष वाजपेयी नर्मदा विकास प्राधिकरण (Narmda Development Authority) में इंसपेक्टर (Inspector) के पद पर नौकरी करते थे. मनीष का परिवार जबलपुर के गढ़ा थाना इलाके में इंदिरा गांधी वार्ड की अजनी सोसाइटी में रहता था. मनीष की पोस्टिंग जबलपुर के नजदीक जिले नरसिंहपुर में थी इसलिए वह रोज सुबह ट्रेन से जाने के बाद शाम को सोमनाथ एक्सप्रैस (Somnath Express) से ही वापस घर आ जाते थे. मनीष के 2 बेटे हैं, जिन में से बड़ा बेटा इंदौर में इंजीनियर है और छोटा बेटा नरसिंहपुर के पास मुगली गांव में अपने नानानानी के पास रह कर खेती का काम संभालता है. इस तरह उन की पत्नी विनीता दिन भर में अकेली रह जाती थी. इसलिए शाम को स्टेशन से उतर कर घर जाने से पहले मनीष पत्नी को फोन जरूर करते थे ताकि घर की जरूरत का सामान रास्ते से खरीदते हुए घर पहुंचे.

उस रोज भी मनीष ने जबलपुर स्टेशन से बाहर निकल कर पत्नी विनीता से बात की और फिर सीधे घर पहुंच गए. घर पहुंचने तो उन्हें दरवाजे के चैनल गेट पर अंदर से ताला पड़ा मिला. घर में अकेले रहने पर विनीता चैनल पर ताला लगा देती थी. मनीष ने घंटी बजाई और कुछ देर तक पत्नी द्वारा दरवाजा खोलने का इंतजार किया. लेकिन काफी देर बाद भी विनीता दरवाजा खोलने नहीं आई तो मनीष ने कई बार दरवाजा पीटा व घंटी बजाई. उन्होंने पत्नी के मोबाइल पर भी रिंग की परंतु कोई परिणाम नहीं निकला.
इसी बीच पड़ोस में रहने वाले अशोक वर्मा बाहर आए तो मनीष को दरवाजे पर खड़ा देख कर वह एक मिनट उन के पास रुक कर बात करने लगे. तब मनीष ने विनीता द्वारा दरवाजा न खोलने की बात उन्हें बताई तो अशोक शर्मा ने कहा कि हो सकता है कि विनीता वाशरूम में हो. अशोक मनीष को तब तक अपने घर चाय पीने के लिए ले गए.

मनीष अशोक वर्मा के घर चाय पीतेपीते भी कई बार पत्नी का मोबाइल नंबर मिलाते रहे. लेकिन पत्नी के मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी, पर वह फोन नहीं उठा रही थी. मनीष परेशान थे कि आखिर वह कहां है जो फोन भी नहीं उठा रही.

चाय पीने के बाद दोनों फिर बाहर आ गए. मनीष ने फिर से अपने घर की घंटी बजाई पर कोई नतीजा नहीं निकला. फिर मनीष के कहने पर अशोक वर्मा अपने घर के आंगन से बाउंड्री वाल फांद कर मनीष की छत पर पहुंचे. उन्होंने घर में उतर कर कमरे का नजारा देखा तो वहां उन्हें सब कुछ ठीक नहीं लगा.
अशोक को घबराया देख खुद मनीष भी बाउंड्री वाल फांद कर अपने घर में दाखिल हो गए. जब वह ऊपर की मंजिल पर पहुंचे तो वहां का नजारा देख कर उन के होश उड़ गए.

उन की पत्नी विनीता खून से लथपथ फर्श पर पड़ी थी. विनीता के गले में पतली रस्सी भी बंधी थी. और पास ही खून से सना बेसबौल का डंडा पड़ा था. यह सब देख कर मनीष अपना होश खो बैठे. उन्होंने तत्काल गैलरी के गेट का ताला तोड़ कर पुलिस व ऐंबुलेंस को फोन किया.

घटना की जानकारी मिलते ही गढ़ा थानाप्रभारी शफीक खान पुलिस फोर्स ले कर घटनास्थल पर पहुंच गए. पहली ही नजर में साफ था कि विनीता की मौत हो चुकी थी. गले में रस्सी बंधी थी और चेहरा पूरी तरह से खराब हो चुका था. मामला हत्या का देख कर थानाप्रभारी ने एसपी अमित सिंह, एएसपी संजीव उइक सीएसपी दीपक मिश्रा को भी घटना की जानकारी दे दी. जिस से एएसपी उइक और सीएसपी दीपक मिश्रा के अलावा एफएसएल और फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट की टीम भी मौके पर पहुंच गई.

इंसपेक्टर खान ने पूरे मकान का बारीकी से निरीक्षण किया तो पाया कि हत्यारे ने मकान में फ्रेंडली एंट्री की थी. इस का मतलब यह निकला कि हत्यारा विनीता का परिचित ही था. घटनास्थल की जांच और जरूरी काररवाई करने के बाद पुलिस ने विनीता की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.

पुलिस ने मनीष से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि उन की शाम करीब 5 बजे विनीता से फोन पर उस समय बात हुई थी जब वह ट्रेन से जबलपुर स्टेशन पर उतरे थे. स्टेशन से घर आने में उन्हें 25 मिनट लगे थे. उसी दौरान विनीता के साथ वारदात हुई थी.

चूंकि घर का सभी सामान सुरक्षित था इसलिए हत्या का मकसद लूट नहीं था. 25 मिनट में इतनी सफाई से हत्या कर हत्यारा भाग ही नहीं सकता था. इस से साफ था कि हत्यारा विनीता के साथ घर में पहले से मौजूद रहा होगा. हत्यारा विनीता का मोबाइल अपने साथ ले गया. मतलब साफ था कि मोबाइल के माध्यम से हत्यारे की पहचान संभव थी.

पुलिस ने मृतका विनीता के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाने के अलावा उस के बैकग्राउंड की भी जांच शुरू कर दी. इस के अलावा मनीष वाजपेयी के यहां आनेजाने वालों की सूची बना कर उन सब से भी पूछताछ की.

इस दौरान पता चला कि इन सब में से एक परिचित शहर से लापता मिला और उस का मोबाइल फोन भी बंद आ रहा था. इसलिए पुलिस ने शक की सुई उसी आदमी की तरफ घुमा दी.

इसी बीच पुलिस का ध्यान एक ऐसे फोन नंबर की तरफ भी गया जिस से विनीता के पास अकसर फोन आता था. इस नंबर पर दोनों के बीच वाट्सऐप पर हुई चैटिंग की पुलिस ने जांच की तो पता चला कि उक्त नंबर वाला युवक विनीता पर अनैतिक संबंध बनाने का दबाव बना रहा था.

पुलिस ने इसी बात को ध्यान में रख कर जांच आगे बढ़ाई तो पता चला कि घटना वाले समय उक्त फोन नंबर जबलपुर में ही था. इतना ही नहीं दोपहर 12 बजे से साढ़े 5 बजे के बीच उस की लोकेशन भी विनीता के घर के पास के टौवर के टच में थी. यह फोन घटना से 3 दिन पहले से जबलपुर में था और घटना वाले दिन सुबह के समय उस फोन से विनीता से बात भी की थी.

इसलिए पुलिस ने पूरा ध्यान इस फोन नंबर पर ही लगा दिया. उस फोन का सिमकार्ड शिवकांत उर्फ रिंकू पुत्र धर्मनारायण पांडे, निवासी बड़ा शिवाला मझनपुर, जिला कौशांबी, उत्तर प्रदेश के नाम से खरीदा गया था.

पुलिस ने इस संदिग्ध फोन नंबर को सर्विलांस पर लगा दिया. साइबर सेल की मदद से जांच टीम को जानकारी मिली कि उस फोन की लोकेशन कस्बे में कक्षपुर ब्रिज के पास है. टीम तुरंत वहां पहुंच गई और एक युवक को कक्षपुर ब्रिज के पास से गिरफ्तार कर लिया.

उस ने अपना नाम शिवकांत उर्फ रिंकू बताया. उस के कपड़ों पर खून के कुछ दाग लगे मिले जिस से पुलिस को पूरा भरोसा हो गया कि विनीता का कातिल कोई और नहीं रिंकू ही है. पूछताछ में रिंकू विनीता को जानने से भी इनकार करता रहा लेकिन जब पुलिस ने उस का मिलान विनीता के घर के पास लगे सीसीटीवी कैमरों के फुटेज से किया तो रिंकू दोपहर लगभग 12 बजे विनीता के घर आता हुआ और शाम साढ़े 5 बजे वहां से वापस जाता दिखा.

अब रिंकू सीसीटीवी फुटेज को गलत साबित नहीं कर सकता था. लिहाजा चारों तरफ से घिर जाने पर रिंकू ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. उस ने विनीता की हत्या की जो कहानी बताई, वह हैरान कर देने वाली निकली—

कोई 25 साल पहले नरसिंहपुर के मुगली गांव की रहने वाली विनीता की शादी नर्मदा विकास प्राधिकरण में कार्यरत मनीष वाजपेयी के साथ हुई थी. दोनों के 2 बेटे हैं.

मनीष संपन्न परिवार के अकेले बेटे थे तो वहीं विनीता भी उच्च परिवार की एकलौती बेटी थी. सरकारी नौकरी में मनीष अच्छे पद पर थे. इसलिए घर में रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी.

पूरा परिवार काफी सभ्य और सुलझे विचारों वाला था. विनीता धार्मिक प्रवृत्ति की थी. वह शहर में होने वाले धार्मिक आयोजनों में अकसर शामिल होती रहती थी. विनीता जितनी सुंदर देखने में थी, उतनी ही वह मन की भी साफ थी.

कुछ समय पहले वह एक धार्मिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने वृंदावन गई थी. उस कार्यक्रम में कौशांबी से शिवकांत मिश्रा उर्फ रिंकू फोटोग्राफी करने वहां आया हुआ था. उस कार्यक्रम में शामिल कई लोग रिंकू से अपने फोटो खिंचवा रहे थे. विनीता को ऐसे मौके पर फोटो खिंचाने का शौक नहीं था. इसलिए वह चुपचाप भीड़ से अलग खड़ी थीं.  इस दौरान रिंकू की नजर विनीता पर पड़ी तो वह उस की सुंदरता पर मोहित हो गया. वह विनीता के पास आ गया और विनीता से अपनी फोटो खिंचवाने का आग्रह करने लगा.
पहले तो विनीता ने उसे मना कर दिया लेकिन जब रिंकू ने जिद की तो विनीता ने अपने कुछ फोटो उस से खिंचवाए. जिस के बाद औनलाइन फोटो भेजने के लिए रिंकू ने उन का वाट्सऐप नंबर भी ले लिया.
इस के 2 दिन बाद रिंकू ने विनीता के सारे फोटो वाट्सऐप से भेज दिए. साथ ही फोटो खिंचवाने के लिए उस ने विनीता का आभार भी व्यक्त किया.

विनीता जैसी खुद सरल स्वभाव की थी, वैसा ही वह फोटोग्राफर रिंकू को समझ रही थी. लेकिन रिंकू ऐसा था नहीं. कुछ दिन बाद फोटो मिलने की बात पूछने के बहाने रिंकू ने विनीता को फोन किया और दोस्ती बढ़ाने के लिए वह उस से मीठीमीठी बातें करने लगा. धीरेधीरे जब उस ने विनीता के घर का पता सहित उस के बारे में सब कुछ जान लिया तो वह अपनी औकात पर आ गया.

वाट्सऐप मैसेज भेज कर वह विनीता से उस की खूबसूरती की तारीफ करने लगा और बातोंबातों में उस ने उस से अपने प्यार का इजहार भी कर दिया. विनीता को यह बात अजीब लगी. कोई दूसरी महिला होती तो शायद वह उस की शिकायत पुलिस से कर देती. लेकिन विनीता ने ऐसा न कर के पहले उसे समझाने की कोशिश की लेकिन वह उसे जितना समझाने की कोशिश करती, रिंकू उतनी ही आशिकी भरी बातें करता.

विनीता ने एक गलती जो की थी, वह यह थी कि जिस रोज रिंकू ने पहली बार उस से इश्क का इजहार किया था, उसी रोज उसे बात पति को बता देनी चाहिए थी, पर नहीं बताई. दरअसल उस का सोचना था कि वह अपने स्तर से इस समस्या को सुलझा लेगी. लेकिन अब पानी सिर से ऊपर पहुंचने लगा था.
समस्या कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा उसे उस रोज लगा जब रिंकू कई दूसरे कार्यक्रम में फोटोग्राफी करने जबलपुर तक आने लगा. विनीता के घर का पता उस ने पहले ही ले लिया था.
उसे यह भी मालूम था कि विनीता अकसर घर पर अकेली रहती है. इसलिए वह रोज अचानक ही वह उस के घर आ धमका.

उस के घर आ कर भी वह उस से अपने प्यार का इजहार करने लगा. इस पर विनीता ने उसे समझाया, ‘‘देखो रिंकू, मैं शादीशुदा हूं, इसलिए मुझ से इस तरह की उम्मीद करना गलत है.’’
‘‘मैं शादी करने की बात कहां कर रहा हूं. मैं तो केवल साथ में एक रात बिताने की मांग कर रहा हूं.’’ रिंकू ने बेशर्मी से कहा.

उस की बात पर विनीता को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई तमाशा खड़ा न हो इसलिए उसे समझाबुझा कर वापस भेज दिया. लेकिन इस घटना के बाद वह विनीता को वाट्सऐप पर काफी अश्लील मैसेज भेजने लगा. जिस से तंग आ कर विनीता ने उसे सख्त शब्दों में आगे से कोई मैसेज या फोन न करने की चेतावनी दे दी.

रिंकू ने पुलिस को बताया कि वह विनीता की खूबसूरती का इतना दीवाना हो चुका था कि वह हर हाल में उसे पाना चाहता था. घटना वाले दिन जब वह जबलपुर आया तो उस ने पहले ही निर्णय कर लिया था कि इस बार विनीता के घर से खाली वापस नहीं आएगा. इसलिए उस रोज मनीष के नरसिंहपुर के लिए रवाना होते ही वह उस के घर पहुंच गया.

घर पहुंच कर वह विनीता पर अपनी बात मनवाने का दबाव बनाने लगा. लेकिन विनीता ने साफतौर पर उस की बात मारने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं उस ने रिंकू से वहां से चले जाने को कह दिया.

लेकिन रिंकू उस के घर पर जम कर बैठ गया. इस पर विनीता ने उस से कहा कि अगर अब भी वह सही रास्ते पर नहीं आया तो वह उस की सारी वाट्सऐप चैटिंग पति को दिखा कर उस की शिकायत पुलिस से भी कर देगी. पर विनीता की बात का रिंकू पर कोई असर नहीं पड़ा.

इसी बीच शाम 5 बजे मनीष ने जबलपुर स्टेशन आ कर विनीता को फोन किया तो उस समय रिंकू वहीं बैठा था. उसे लगा कि आज विनीता अपने पति को सब कुछ बता देगी. इसलिए विनीता के साथ वह जबरदस्ती करने लगा. उस का सोचना था कि अगर वह किसी तरह से संबंध बनाने में कामयाब हो गया तो शायद वह उस की शिकायत पति से नहीं कर पाएगी.

लेकिन विनीता ने रिंकू को धक्का दे कर खुद से दूर कर दिया और बचने के लिए वह ऊपर के कमरे में भागी, जहां पीछे से रिंकू भी पहुंच गया. उसी समय रिंकू ने साथ लाई पतली रस्सी उस के गले पर कस दी जिस से उस की सांस रुक गई. फिर पास रखे बेसबौल के डंडे से उस के चेहरे पर बेहताशा वार किए. उसे लगा कि यह मर चुकी है, तो वह वहां से विनीता का फोन ले कर भाग गया.

उस ने विनीता का फोन कक्षपुरा ब्रिज के पास छिपा दिया था, जो पुलिस ने बरामद कर लिया. रिंकू का सोचना था कि विनीता ने उस की पहचान के बारे में किसी तीसरे को जानकारी नहीं दी है इसलिए उस का नाम कभी भी इस मामले में सामने न आने पर वह कभी नहीं पकड़ा जाएगा.

पर उस की सोच गलत साबित हुई. पुलिस ने रिंकू से पूछताछ करने के बाद उसे न्यायालय में पेश किया जहां से उसे जेल भेज दिया.

दरिंदे : सोनाली की दबी इच्छा

वह अपना सिर घुटनों में छिपा कर बैठी थी लेकिन रहरह कर एक जोर का कहकहा लगता और सारी मेहनत बेकार हो जाती. पास बैठा सोनाली का पति सुरेंद्र भरी आवाज में उसे दिलासा देने में जुटा था, ‘‘ऐसे हिम्मत मत हारो… ठंडे दिमाग से सोचेंगे कि आगे क्या करना है.’’ सुरेंद्र के बहते आंसू सोनाली की साड़ी और चादर पर आसरा पा रहे थे. बच्चों को दूसरे कमरे में टैलीविजन देखने के लिए कह दिया गया था. 6 साल का विकी तो अपनी धुन में मगन था लेकिन 10 साल का गुड्डू बहुतकुछ समझने की कोशिश कर रहा था. विकी बीचबीच में उसे टोक देता मगर वह किसी समझदार की तरह उसे कोई नया चैनल दिखा कर बहलाने लगता था.

2 साल पहले तक सोनाली की जिंदगी में सबकुछ अच्छा चल रहा था. पति की साधारण सरकारी नौकरी थी, पर उन के छोटेछोटे सपनों को पूरा करने में कभी कोई अड़चन नहीं आई थी. पुराना पुश्तैनी घर भी प्यार की गुनगुनाहट से महलों जैसा लगता था. बूढ़े सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने सोनाली को मांबाप की कमी कभी महसूस नहीं होने दी थी. एक दिन सुरेंद्र औफिस से अचानक घबराया हुआ लौटा और कहने लगा था, ‘कोई नया मंत्री आया है और उस ने तबादलों की झड़ी लगा दी है. मुझे भी दूसरे जिले में भेज दिया गया है.’ ‘क्या…’ सोनाली का दिल धक से रह गया था. 2 घंटे तक अपने परिवार से दूर रहने से घबराने वाला सुरेंद्र अब 2 हफ्ते में एक बार घर आ पाता था. बच्चे भी बहुत उदास हुए, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता. मनचाही जगह पर पोस्टिंग मिल तो जाती, मगर उस की कीमत उन की पहुंच से बाहर थी. हार कर सोनाली ने खुद को किसी तरह समझा लिया था. वीडियो काल, चैटिंग के सहारे उन का मेलजोल बना रहता था. जब भी सुरेंद्र घर आता था, सोनाली को रात छोटी लगने लगती थी. सुरेंद्र की बांहों में भिंच कर वह प्यार का इतना रस निचोड़ लेने की कोशिश करती थी कि उन का दोबारा मिलन होने तक उसे बचाए रख सके. उस के दिल की इस तड़प को समझ कर निंदिया रानी तो उन्हें रोकटोक करने आती नहीं थी.

बिस्तर से ले कर जमीन तक बिखरे दोनों के कपड़े भी सुबह होने के बाद ही उन को आवाज देते थे. जिंदगी की गाड़ी चलती रही, लेकिन अपनी दुनिया में मगन रहने वाली सोनाली एक बड़े खतरे से अनजान थी. उस खतरे का नाम राजेश सिंह था जो ठीक उन के पड़ोस में रहता था. शरीर से बेहद लंबेतगड़े राजेश को न अपनी 55 पार कर चुकी उम्र का कोई लिहाज था और न ही गांव के रिश्ते से कहे जाने वाले ‘चाचा’ शब्द का. उस की गंदी नजरें खूबसूरत बदन की मालकिन सोनाली पर गड़ चुकी थीं. दबंग राजेश सिंह हत्या, देह धंधा जैसे अनेक मामलों में फंस कर कई बार जेल जा चुका था लेकिन हमेशा किसी न किसी से पैरवी करा कर बाहर आ जाता था. सुरेंद्र का साधारण समुदाय से होना भी राजेश सिंह की हिम्मत बढ़ाता था. राजेश सिंह का कोई तय काम नहीं था. बेटों की मेहनत पर खेतों से आने वाला अनाज खा कर पड़े रहना और चुनाव के समय अपनी जाति के नेताओं के पक्ष में इधर से उधर दलाली करना उस का पेशा था. हालांकि बेटे भी कोई दूध के धुले नहीं थे. बाकी सारा समय अपने दरवाजे पर किसीकिसी के साथ बैठ कर यहांवहां की गप हांकना राजेश सिंह की आदत थी. सोनाली बाहर कम ही निकलती थी, लेकिन जब भी जाती और राजेश सिंह को पता चल जाता तो घर से निकलने से ले कर वापस लौटने तक वह उस को ही ताकता रहता.

उस के उभारों और खुले हिस्सों को तो वह ऐसे देखता जैसे अभी खा जाएगा. एक दिन सोनाली जब आटोरिकशा पर चढ़ रही थी तो उस की साड़ी के उठे भाग के नीचे दिख रही पिंडलियों को घूरने की धुन में राजेश सिंह अपने दरवाजे पर ठोकर खा कर गिरतेगिरते बचा. उस के साथ बैठे लोग जोर से हंस पड़े. सोनाली ने घूम कर उन की हंसी देखी भी, पर उन की भावना नहीं समझ पाई. आखिर वह दिन भी आया जिस ने सोनाली का सबकुछ छीन लिया. उस के सासससुर किसी संबंधी के यहां गए हुए थे और छोटा बेटा विकी नानी के घर था. बड़ा बेटा गुड्डू स्कूल में था. बाहर हो रही तेज बारिश की वजह से मोबाइल नैटवर्क भी खराब चल रहा था जिस के चलते सोनाली और सुरेंद्र की ठीक से बात नहीं हो पा रही थी. ऊब कर उस ने मोबाइल फोन बिस्तर पर रखा और नहाने चली गई. सोनाली ने दोपहर के भोजन के लिए दालचावल चूल्हे पर पहले ही चढ़ा दिए थे और नहाने के बीच में कुकर की सीटियां भी गिन रही थी. हमेशा की तरह उस का नहाना पूरा होतेहोते कुकर ने अपना काम कर लिया. सोनाली ने जल्दीजल्दी अपने बालों और बदन पर तौलिए लपेटे और बैडरूम में भागी आई. बालों को झटपट पोंछ कर उस ने बिस्तर पर रखे नए सूखे कपड़े पहनने के लिए जैसे ही अपने शरीर पर बंधा तौलिया हटाया कि अचानक 2 मजबूत हाथों ने उसे पीछे से दबोच लिया. अचानक हुए इस हमले से बौखलाई सोनाली ने पीछे मुड़ कर देखा तो हमलावर राजेश सिंह था जो छत के रास्ते उस के घर में घुस आया था और कमरे में पलंग के नीचे छिप कर उस का ही इंतजार कर रहा था. उस के मुंह से शराब की तेज गंध भी आ रही थी. सोनाली चीखती, इस से पहले ही किसी दूसरे आदमी ने उस का मुंह भी दबा दिया. वह जितना पहचान पाई उस के मुताबिक वह राजेश सिंह का खास साथी भूरा था और उम्र में राजेश सिंह के ही बराबर था. सोनाली के कुछ सोचने से पहले ही वे दोनों उसे पलंग पर लिटा कर वहां रखी उस की ही साड़ी के टुकड़े कर उसे बांध चुके थे. सोनाली के मुंह पर भूरा ने अपना गमछा लपेट दिया था. इस के बाद राजेश सिंह ने पहले तो कुछ देर तक अपनी फटीफटी आंखों से सोनाली के जिस्म को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर उस के ऊपर झुकता चला गया. काफी देर बाद हांफता हुआ राजेश सिंह सोनाली के ऊपर से उठा. भयंकर दर्द से जूझती, पसीने से तरबतर सोनाली सांयसांय चल रहे सीलिंग फैन को नम आंखों से देख रही थी. टैलीविजन पर रखा सोनाली, सुरेंद्र और बच्चों का ग्रुप फोटो गिर कर टूट चुका था. रसोईघर में चूल्हे पर चढ़े दालचावल सोनाली के सपनों की तरह जल कर धुआं दे रहे थे. इस के बाद भूरा बेशर्मी से हंसता हुआ अपनी हवस मिटाने के लिए बढ़ा. राजेश सिंह बिस्तर पर पड़े सोनाली के पेटीकोट से अपना पसीना पोंछ रहा था. भूरा ने अपने हाथ सोनाली के कूल्हों पर रखे ही थे कि तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई. राजेश सिंह ने दरवाजे की झिर्री से झांका तो गुड्डू की स्कूल वैन का ड्राइवर उसे साथ ले कर खड़ा था. राजेश सिंह ने जल्दी से भूरा को हटने का इशारा किया.

वह झल्लाया चेहरा लिए उठा और अपने कपड़े ठीक करने लगा. ‘तुम ने बहुत ज्यादा समय ले ही लिया इस के साथ, नहीं तो हम को भी मौका मिल जाता न,’ भूरा भुनभुनाया. लेकिन राजेश सिंह ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया और जैसेतैसे अपने कपड़े पहन कर जिधर से आया था, उधर से ही भाग गया. जब दरवाजा नहीं खुला तो गुड्डू के कहने पर ड्राइवर ने ऊपर से हाथ घुसा कर कुंडी खोली. घुसते ही अंदर के कमरे का सब नजारा दिखता था. ड्राइवर के तो होश उड़ गए. उस ने शोर मचा दिया. सुरेंद्र आननफानन आया. सोनाली के बयान पर राजेश सिंह और भूरा पर केस दर्ज हुए. दोनों की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन राजेश सिंह ने अपनी पहचान के नेता से बयान दिलवा लिया कि घटना वाले दिन वह और भूरा उस के साथ मीटिंग में थे. मैडिकल जांच पर भी सवाल खड़े कर दिए गए. कुछ समाचार चैनलों और स्थानीय महिला संगठनों ने थोड़े दिनों तक अपनीअपनी पब्लिसिटी के लिए प्रदर्शन जरूर किए, बाद में अचानक शांत पड़ते गए. सालभर होतेहोते राजेश सिंह और भूरा दोनों बाइज्जत बरी हो कर निकल आए. ऊपरी अदालत में जाने लायक माली हालत सुरेंद्र की थी नहीं. आज राजेश सिंह के घर पर हो रही पार्टी सुरेंद्र और सोनाली के घावों पर रातभर नमक छिड़कती रही. इस के बाद राजेश सिंह और भी छुट्टा सांड़ हो गया. छत पर जब भी सोनाली से नजरें मिलतीं, वह गंदे इशारे कर देता. इस सदमे से सोनाली के सासससुर भी बीमार रहने लगे थे. राजेश सिंह के छूट जाने से सोनाली के मन में भरा डर अब और बढ़ने लगा था. रातों को अपने निजी अंगों पर सुरेंद्र का हाथ पा कर भी वह बुरी तरह से चौंक कर जाग उठती थी. कई बार सोनाली के मन में खुदकुशी का विचार आया, लेकिन अपने पति और बच्चों का चेहरा उसे यह गलत कदम उठाने नहीं देता था. दिन बीतते गए. गुड्डू का जन्मदिन आ गया. केवल उस की खुशी के लिए सोनाली पूरे परिवार के साथ होटल चलने को राजी हो गई. खाना खाने के बाद वे लोग काउंटर पर बिल भर रहे थे कि तभी सामने राजेश सिंह दिखाई दिया. सफेद कुरतापाजामा पहने हुए वह एक पान की दुकान की ओट में किसी से मोबाइल फोन पर बात कर रहा था. राजेश सिंह पर नजर पड़ते ही सोनाली के मन में उसी दिन का उस का हवस से भरा चेहरा घूमने लगा.

उस के द्वारा फोन पर कहे जा रहे शब्द उसे वही आवाज लग रहे थे जो उस की इज्जत लूटते समय वह अपने मुंह से निकाल रहा था. सोनाली का दिमाग तेजी से चलने लगा. उबलते गुस्से और डर को काबू में रख वह आज अचानक कोई फैसला ले चुकी थी. उस ने सुरेंद्र के कान में कुछ कहा. सुरेंद्र ने बच्चों से खाने की मेज पर ही बैठ कर इंतजार करने को बोला और होटल के दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया. सोनाली ने आसपास देखा और राजेश सिंह के ठीक पीछे आ गई. वह अपनी धुन में था इसलिए उसे कुछ पता नहीं चला. सोनाली ने अपने पेटीकोट की डोरी पहले ही थोड़ी ढीली कर ली थी. उस ने राजेश सिंह का दूसरा हाथ पकड़ा और अपने पेटीकोट में डाल लिया. राजेश सिंह ने चौंक कर सोनाली की तरफ देखा. वह कुछ समझ पाता, इस से पहले ही सोनाली उस का हाथ पकड़ेपकड़े रोते हुए चिल्लाने लगी,

‘‘अरे, यह क्या बदतमीजी है? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे साथ ऐसी घटिया हरकत करने की?’’ सोनाली के चिल्लाते ही सुरेंद्र होटल से भागाभागा वहां आया और उस ने राजेश सिंह पर मुक्कों की बरसात कर दी. वह मारतेमारते जोरजोर से बोल रहा था, ‘‘राह चलती औरत के पेटीकोट में हाथ डालेगा तू?’’ जिन लोगों ने राजेश सिंह का हाथ सोनाली के पेटीकोट में घुसा देख लिया था, वे भी आगबबूला हुए उधर दौड़े और उस को पीटने लगे. भीड़ जुटती देख सुरेंद्र ने अपने जूते के कई जोरदार वार राजेश सिंह के पेट और गुप्तांग पर कर दिए और मौका पा कर भीड़ से निकल गया. जब तक कुछ लोग बीचबचाव करते, तब तक खून से लथपथ राजेश सिंह मर चुका था. जो सजा उसे बलात्कार के आरोप में मिलनी चाहिए थी, वह उसे छेड़खानी के आरोप ने दिलवा दी थी. द्य

स्टेशन की वह रात : भाग 1

इसलिए उस ने पुल से चलते हुए आखिरी प्लेटफार्म की तरफ कदम बढ़ाए. सीढि़यों से उतर कर आखिरी प्लेटफार्म की भी वह बैंच पकड़ी, जिस के बाद नशेडि़यों, चोरउच्चकों का इलाका शुरू हो रहा था. थोड़ाबहुत जोखिम लेना तेजा के लिए आम बात थी. कुछ दूरी पर ही मैलीकुचैली चादरों में भिखारी सो रहे थे.

चाय की दुकान पर एकाध खरीदार पहुंच रहे थे. रेलवे जंक्शन के कोने में मौजूद दुकान पर चाय खरीद रहे लोगों की हालत भी टी स्टौल की तरह उजड़ी हुई थी. तेजा जिस मंजिल के लिए निकला था, उसे पाना नामुमकिन था, लेकिन सपनों का पीछा करना उस की लत बन चुकी थी. इस वजह से दिमाग में कभी चैन नहीं रहा था. अचानक ही पीछे से आई हलकी आवाज ने तेजा को चौंका दिया, ‘‘भैयाजी, 2 दिन से कुछ खाया नहीं है.’’ कहने को तो तेजा तेज आवाज से भी डरने वालों में से नहीं था, लेकिन इतनी रात में आखिरी प्लेटफार्म का कोना पकड़ते वक्त उसे नशेडि़यों की नौटंकी का अंदाजा था. सो, अचानक पीछे से आ कर बैंच पर बैठ जाने वाली 30-35 साल की एक औरत की धीमी आवाज ने भी उसे सकते में डाल दिया था. पहनी हुई साड़ी और शक्लसूरत से वह औरत कहीं से भी रईस नहीं लग रही थी, लेकिन भिखारी भी दिखाई नहीं देती थी. हालांकि यह जरूर लगता था कि वह घर से निकल कर सीधी यहां नहीं आई है. उस का कई दिन भटकने जैसा हुलिया बना हुआ था. हालात भांप कर तेजा ने चौकस आवाज में कहा कि वह पैसे नहीं देगा. हां, अपने पैसे से दुकान वाले को बोल कर चायबिसकुट जरूर दिला सकता है. लेकिन औरत का अंदाज चायबिसकुट पाने तक सिमट जाने वाला नहीं था.

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औरत ने दुखियारी बन कर कहा, ‘‘मैं बहुत ही मुश्किल में हूं, कुछ पैसे दे दो.’’ तेजा का दिमाग चकरा गया, क्योंकि यह औरत उस टाइप की भी नहीं लग रही थी, जो अंधेरी रातों में नौजवानों को इशारे कर बुलाती हैं. न ही कपड़े और सूरत उस के भिखारी होने पर मोहर लगा रहे थे. तेजा ने चेहरा थोड़ा नरम करने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘यहां स्टेशन के अंधेरे कोने में क्या कर रही हो?’’ उस औरत ने धीमी आवाज में और दर्द लाते हुए कहा, ‘‘बस, थोड़े पैसे दे दीजिए.’’ तेजा ने नजरें घुमा कर चारों तरफ देखा. उस की नजरें यह तसल्ली कर लेना चाहती थीं कि कम रोशनी वाले स्टेशन के कोने में एक औरत के साथ बैठने पर दूसरों की नजरें उसे किसी अलग नजरिए से तो नहीं देख रही हैं? लेकिन तेजा को यह जान कर तसल्ली हुई कि स्टेशन जैसे कुछ देर पहले था, ठीक अब भी वैसा ही है. नए हालात देख कर कालेज के फाइनल ईयर का स्टूडैंट तेजा रोमांच से भर उठा. यह रोमांच इस उम्र के लड़कों में खास हालात बनने पर खुद ही पैदा हो जाता है. तेजा भी दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं था. सो, उसे भी यह एहसास हुआ. अब जब आसपास के हालात बैंच के माहौल में खलल डालने वाले नहीं थे, तो तेजा का खोजी दिमाग सवाल उछालने लगा. उस ने कहा, ‘‘मैं पैसे तो दे दूंगा, लेकिन पहले यह बताओ कि तुम इस हालत में यहां क्या कर रही हो?’’ पैसे मिलने की बात सुन कर उस औरत ने बताया कि वह बिहार के पटना की रहने वाली है.

मेरा मर्द बहुत बुरा आदमी था. घर खर्च के लिए वह पैसे नहीं देता था. वह दारू पीता था. बच्चे खानेखिलौनों के लिए हमेशा मां को ही कहते थे, लेकिन पति के गलत बरताव और नशेड़ी होने की वजह से वह घुट रही थी. एक दिन जेठानी से उस का झगड़ा हो गया. जब पति घर आया तो उस ने बाल धोने के लिए शैंपू खरीदने के पैसे मांग लिए. पहले से ही जेठानी के सिखाए नशेड़ी पति ने उस की बेरहमी से पिटाई कर दी. यह पिटाई नई नहीं थी, लेकिन लंबे अरसे से उस के मन में जो बगावती ज्वालामुखी दबा बैठा था, उस रात फट पड़ा. पति को जवाब देना तो उस के बूते से बाहर था, लेकिन घर में सबकुछ छोड़ फिल्मी हीरोइन की तरह सीधे स्टेशन पहुंच गई. आंसू पोंछने का दौर चलने के बाद दिल को पत्थर बना लिया और आखिर में अनजान ट्रेन में कदम रख ही दिया और आज यहां है. मच्छरों का काटना, मुसाफिरों की शक्की नजर का डर, सबकुछ तेजा के दिमाग से भाग चुका था और उस औरत की बातें सुन कर उस का घनचक्कर दिमाग और ज्यादा घूम गया.

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तेजा ने पूछा, ‘‘शैंपू की खातिर पति ने पीट क्या दिया, तुम अपने छोटेछोटे बच्चोें को छोड़ कर घर से भाग आई? कितने दिन पहले घर छोड़ा था? क्या तुम ट्रेन से सीधे अंबाला स्टेशन पर उतरी हो? तुम्हारा नाम क्या है?’’ तेजा के 4 सवालों की बौछार का सामना करने के बाद अपने लंबे बालों को हलके से खुजलाते हुए उस औरत ने खुद का नाम रश्मि बता कर कहा, ‘‘सही से याद नहीं.

सुरा प्रेम में अव्वल भारत

साल 2005 से साल 2016 के बीच इस की खपत दोगुनी हो चुकी थी. मनोवैज्ञानिकों की रिसर्च बताती है कि किसी चीज की लत लग जाने से इनसान को दिमागी तनाव, असंतोष और हताशा होती है. हमें इस रिसर्च की वजहों की जांचपड़ताल खुशहाली के विश्व सूचकांक में करनी चाहिए. दुनिया के 155 देशों में हम नीचे खिसक कर 133वें पायदान पर आ गए हैं,

जबकि एक साल पहले हमारी जगह 122वीं थी. अगर आम आदमी बेचैन और परेशान है तो जाहिर है कि वह राहत की तलाश में शराब जैसे नशे का आसान सहारा लेता है. लेकिन उस के लिए पैसा भी तो होना चाहिए. भारत जैसे देश में, जहां राज्य सरकारें शाही खर्च पूरे करने के लिए शराब पर भारीभरकम टैक्स लगाती हों, ऐसे में सस्ती शराब गरीब के लिए वरदान जैसी बन जाती है. इसी कमजोरी का फायदा पैसे के लिए जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले लोग उठाते हैं. केंद्र सरकार मानती है कि हर साल 2 से 3 हजार लोग जहरीली शराब पीने से अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर जहरीली व सस्ती शराब ने 110 से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया. यह तथाकथित शराब उत्तराखंड के पवित्र क्षेत्र हरिद्वार में बनी थी और एक पारिवारिक उत्सव के मौके पर वहां आए मेहमानों को परोसी गई थी. कहने की जरूरत नहीं है कि हर थोड़े समय पर लगातार होने वाली ऐसी घटनाएं निकम्मे प्रशासन, भ्रष्टाचार और जनविरोधी नीतियों की ओर ध्यान दिलाती हैं, लेकिन हमदर्दी और दिखावटी कानूनी कार्यवाही वाले खोखले उपायों से आगे हम कभी जा ही नहीं पाते हैं. नतीजतन, मौत का यह ताडंव बदस्तूर जारी रहता है.

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उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसा ही हादसा साल 2015 में मुंबई के इलाके मालवणी में हुआ था, जिस में तकरीबन 106 मजदूर सस्ती शराब पीने से अपनी जान गंवा बैठे थे. अगर उसी इलाके में जा कर देखा जाए तो वहां अब भी उसी तरह सस्ती व नकली शराब बनते हुए मिल जाएगी. निकम्मे प्रशासन और लचर कानून व्यवस्था की पोल खोलने वाले ऐसे हादसों के तत्काल बाद सरकारी मशीनरी छापे मारती है और तलाशी मुहिम चलाती है. ज्यादा कोशिश किए बिना ही वह नकली जहरीली शराब बनाने वाले ठिकानों तक पहुंच जाती है और सैकड़ोंहजारों लिटर जानलेवा शराब बरबाद करने की तसवीरें ले कर वाहवाही के लिए जनता के सामने आ खड़ी होती हैं. अंधाधुंध गिरफ्तारियों के साथ ही कुछ दिनों के लिए जहर के सौदागर ओझल हो जाते हैं और जैसे ही जनता का गुस्सा कम होने लगता है, वे फिर यह धंधा शुरू कर देते हैं. इस मामले में सब से जरूरी सवाल यह है कि सरकारें विभागीय जवाबदेही क्यों तय नहीं करती हैं? गैरकानूनी शराब के कारोबार पर निगरानी रखने के लिए सभी प्रदेशों में अलग विभाग काम कर रहे हैं. ऐसे हादसों के सामने आने पर इन विभागों से न केवल जवाबतलब किया जाना चाहिए, बल्कि इस के लिए जवाबदेह अफसरों और मुलाजिमों पर सख्त कार्यवाही भी की जानी चाहिए.

पर ऐसा होता नहीं है. प्रशासन वाले शायद इन आंकड़ों से खुश हो जाते हैं कि दुनिया में शराब का सब से बड़ा उपभोक्ता और तीसरा आयातकर्ता भारत है. हालांकि, देश में बहुत बड़े पैमाने पर कारखानों में शराब का उत्पादन होता है. ऐसे बड़े कारखानों की तादाद 10 है. इन में तैयार की जाने वाली शराब का 70 फीसदी देश में ही सुरा प्रेमियों द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है, फिर भी ज्यादा सस्ता और आसान नशा मुहैया कराने के लिए शराब के नाम पर जहरीली चीजों से तैयार पेय का बेचा जाना आम बात है. ये पेय ही जानलेवा बन जाते हैं. देश के 8 राज्य ऐसे हैं, जिन में ऐसे 70 फीसदी हादसों से लोगों को दोचार होना पड़ता है. इन में उत्तर प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना शामिल हैं. ऐसी घटनाएं शराबबंदी वाले गुजरात में भी सामने आ चुकी हैं, हालांकि कारोबारी हितों को ध्यान में रखते हुए इन पर कोई सख्त कारगर कार्यवाही नहीं की गई है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड हादसों से जुड़ी जानकारी बताती है कि जिस जहरीले पेय को पीने से इतनी बड़ी तादाद में लोग मौत का शिकार बने, उस की कीमत सिर्फ 10 रुपए से शुरू हो कर 30 रुपए तक थी.

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यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि शराब पर सभी राज्य सरकारों को टैक्स की दरें घटानी चाहिए, लेकिन इस के खिलाफ एक दलील तो यह भी है कि शराब सस्ती होगी तो ज्यादा मात्रा में पीने की वजह से लोगों की सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ेंगी. दूसरी परेशानी पैसे की है. सभी राज्य सरकारें तकरीबन 20 फीसदी राजस्व शराब पर टैक्स से जुटाती?हैं. जाहिर है, यह राजस्व का एक बड़ा जरीया है. यही वजह है कि शायद ही किसी राज्य का कोई ऐसा बजट आता हो, जिस में शराब पर टैक्स न बढ़ाए जाते हों. राज्य सरकारों की इस पैसा बटोरू लालची नीति ने शराब इतनी महंगी कर दी है कि गरीब आदमी की उस तक पहुंच मुश्किल हो गई. इन हालात ने ही सस्ती शराब बनाने के लिए संगठित अपराधी गिरोहों को मौका दिया है. ये गिरोह कई तरीकों से सस्ता नशा तैयार करते हैं. इन का तंत्र पूरी योजना बना कर काम करता है और निगरानी रखने वाले सरकारी अफसरों व मुलाजिमों के साथ भी उन की अच्छी दोस्ती बनी रहती है. आबकारी विभाग को सस्ता नशा बनाने वालों और बेचने वालों की जानकारी होती है.

सच तो यह है कि इस गैरकानूनी काम पर उन्हीं की सरपरस्ती है, वरना वे इतनी आसानी और कामयाबी से अपने आपराधिक कारोबार को चला ही नहीं सकते. आमतौर पर शराब की 4 किस्में प्रचलित हैं. इन में पहली है ताड़ी या कच्ची शराब, जिसे अरक या अर्क, ठर्रा, फैनी वगैरह कई नामों से पुकारा जाता है. दूसरी है देशी शराब, तीसरी बीयर और विदेशी कह कर सेवन की जाने वाली शराब और चौथे नंबर पर स्कौच या वाइन जैसी महंगी आयातित विदेशी शराब हैं. हम एक 5वीं किस्म भी रख सकते हैं जो गरीब बस्तियों या दूरदराज के गांवों में बिना कोशिश के मिल जाती है और जो सब से सस्ती लागत में तैयार करने के लिए जहरीली चीजों से बनाई जाती है. कच्ची शराब को ज्यादा नशीला बनाने की कोशिश में वह जहरीली हो जाती है. आमतौर पर इसे बनाने में गुड़, शीरा से लहन तैयार किया जाता है. लहन को मिट्टी में दबा दिया जाता है. इस में यूरिया और बेशरम बेल की पत्तियां डाली जाती हैं. ज्यादा नशीला बनाने के लिए इस में औक्सिटोसिन मिला दिया जाता है, जो थोड़ी भी मात्रा ज्यादा हो जाने पर मौत की वजह बनता है. कुछ जगहों पर कच्ची शराब बनाने के लिए गुड़ में खमीर और यूरिया मिला कर इसे मिट्टी में दबा दिया जाता है. खमीर उठने पर इसे भट्ठी पर चढ़ा दिया जाता है. गरम होने के बाद जब भाप उठती है तो उस से शराब उतारी जाती है. इस के अलावा सड़े संतरे, उस के छिलके और सड़ेगले अंगूर से भी खमीर तैयार किया जाता है. कच्ची शराब में औक्सिटोसिन और यूरिया जैसे कैमिकल मिलाने की वजह से मिथाइल अलकोहल बन जाता है.

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इस की वजह से ही लोगों की मौत होती है. मिथाइल अलकोहल के शरीर में जाते ही तेज रासायनिक क्रिया होने लगती है. इस का असर बढ़ने पर शरीर के अहम अंग जैसे जिगर, गुरदे, फेफड़े काम करना बंद करने लगते हैं. इस की वजह से कई बार तुरंत मौत हो जाती है. खपत के लिहाज से देश में सब से पहला नाम आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का है. वहां एक साल में औसत प्रति व्यक्ति 34.5 लिटर या हर हफ्ते 665 मिलीलिटर शराब इस्तेमाल की जाती है. कीमती या सस्ती शराब का सीधा ताल्लुक पीने वाले की कमाई और उस के रहनसहन से होता है. शहर में कुछ बेहतर किस्म की और गांव में देशी शराब को प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है. वैसे, फिलहाल भारत में गुजरात, बिहार, केरल, लक्षद्वीप, नागालैंड और मणिपुर में शराबबंदी है. हाईवे पर शराब बिक्री बैन देश के हाईवे पर हर साल डेढ़ लाख लोगों की जान चली जाती है. इस की एक अहम वजह शराब के चलते होने वाले हादसों को माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में कदम उठाते हुए नैशनल हाईवे पर बेची जाने वाली शराब के नियमों में सख्ती की है. इन रास्तों से कम से कम 220 मीटर दूर ही शराब की दुकानें खोली जा सकेंगी.

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पहले के आदेश में यह दूरी 500 मीटर तय की गई थी, लेकिन राज्य सरकारों और केंद्र की दलीलों के बाद इसे कम कर दिया गया है. उन का कहना था कि पहाड़ी क्षेत्रों में 500 मीटर के फासले पर पहाड़ आ ही जाएगा. इस बदलाव का फायदा सिक्किम, मेघालय, हिमाचल प्रदेश राज्यों को भी मिलेगा. इसी तरह का तर्क गोवा के मामले में पेश किया गया कि इतनी कम दूरी पर समुद्र हर जगह पर आ जाएगा. इस आधार पर वहां भी यह फासला घटा दिया गया. अदालत से कुछ राज्यों ने यह गुहार भी लगाई गई कि वहां शराबबंदी लागू की जाए. इन में झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं. एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि शराब की दुकानों का संचालन नहीं, नशे के कारोबार पर कंट्रोल करना सरकारों का काम है, इसलिए जो निगम या सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं, उन को इस से हट जाना चाहिए.

संस्कार

लेखक- आशा जैन

नई मारुति दरवाजे के सामने आ कर खड़ी हो गई थी. शायद भैया के ससुराल वाले आए थे. बाबूजी चुपचाप दरवाजे की ओट में हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और मां, जो पीछे आंगन में झाडू दे रही थीं, भाभी के आवाज लगाते ही हड़बड़ी में अस्तव्यस्त साड़ी में ही बाहर दौड़ी आईं.

आते ही भैया की छोटी साली ने रिंकू को गोद में भर लिया और अपने साथ लाए हुए कई कीमती खिलौने दे कर उसे बहलाने लगी. ड्राइंगरूम में भैया के सासससुर तथा भाभीभैया की गपशप आरंभ हो गई. भाभी ने मां को झटपट नाश्ता और चाय बनाने को कह दिया. मां ने मुझ से पूछ कर अपनी मैली साड़ी बदल डाली और रसोई में व्यस्त हो गईं. मां और बाबूजी के साथ ही ऐसा समय मुझे भी बड़ा कष्टकर प्रतीत होता था. इधर भैयाभाभी के हंसीठट्टे और उधर मां के ऊपर बढ़ता बोझ. यह वही मां थीं जो भैया की शादी से पूर्व कहा करती थीं, ‘‘इस घर में जल्दी से बहू आ जाए फिर तो मैं पलंग पर ही पानी मंगा कर पिऊंगी,’’ और बहू आने के बाद…कई बार पानी का गिलास भी बहू के हाथ में थमाना पड़ता था. जिस दिन भैया के ससुराल वाले आते थे, मां कपप्लेट धोने और बरतन मांजने का काम और भी फुरती से करने लगती थीं. घर के छोटेबड़े काम से ले कर बाजार से खरीदारी करने तक का सारा भार बाबूजी पर एकमुश्त टूट पड़ता था. कई बार यह सब देख कर मन भर आता था, क्योंकि उन लोगों के आते ही मांबाबूजी बहुत छोटे पड़ जाते थे. दरवाजे के बाहर बच्चों का शोरगुल सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा.

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कई मैलेकुचैले बच्चे चमचमाती कार के पास एकत्र हो गए थे. भैया थोड़ीथोड़ी देर बाद कमरे से बाहर निकल कर देख लेते थे और बच्चों को इस तरह डांटते खदेड़ते थे, मानो वे कोई आवारा पशु हों. भैया के सासससुर के मध्य रिंकू की पढ़ाई तथा संस्कारों के बारे में वाक्युद्ध छिड़ा हुआ था. रिंकू बाबूजी द्वारा स्थापित महल्ले के ही ‘शिशु विहार’ में पढ़ता था. किंतु भाभी और उन के पिताजी का इरादा रिंकू को किसी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवाने का था. भाभी के पिताजी बोले, ‘‘इंगलिश स्कूल में पढ़ेगा तो संस्कार भी बदलेंगे, वरना यहां रह कर तो बच्चा खराब हो जाएगा.’’ इस से पहले भी रिंकू को पब्लिक स्कूल में भेजने की बात को ले कर कई बार भैयाभाभी आपस में उलझ पड़े थे. भैया खर्च के बोझ की बात करते थे तो भाभी घर के खर्चों में कटौती करने की बात कह देती थीं. वह हर बार तमक कर एक ही बात कहती थीं, ‘‘लोग पागल नहीं हैं जो अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाते हैं. इन स्कूलों के बच्चे ही अच्छे पदों पर पहुंचते हैं.’’ भैया निरुत्तर रह जाते थे. बड़े उत्साह से भाभी ने स्कूल से फार्म मंगवाया था. रिंकू को किस प्रकार तैयारी करानी थी इस विषय में मुझे भी कई हिदायतें दी थीं. वह स्वयं सुबह जल्दी उठ रिंकू को पढ़ाने बैठ जाती थीं. उन्होंने कई बातें रिंकू को तोते की तरह रटा दी थीं. वह उठतेबैठते, सोतेजागते उस छोटे से बच्चे के मस्तिष्क में कई तरह की सामान्य ज्ञान की बातें भरती रहती थीं. अब मां और बाबूजी के साथ रिंकू का खेलना, घूमना, बातें करना, चहकना काफी कम हो गया था.

एक दिन वह मांबाबूजी के सामने ही महल्ले के बच्चों के साथ खेलने लगा. भाभी उबलती हुई आईं और तमक कर बाबूजी को भलाबुरा कहने लगीं, ‘‘आप रिंकू की जिंदगी को बरबाद कर के छोड़ेंगे. असभ्य, गंदे और निरक्षर बच्चों के साथ खेलेगा तो क्या सीखेगा.’’ और बाबूजी ने उसी समय दुलारते हुए रिंकू को अपनी गोद में भर लिया था. भाभी की बात सुन कर मेरे दिल में हलचल सी मच गई थी. ये अमीर लोग क्यों इतने भावनाशून्य होते हैं? भला बच्चों के बीच असमानता की खाई कैसी? बच्चा तो बच्चों के साथ ही खेलता है. एक मुरझाए हुए फूल से हम खुशबू की आशा कैसे कर सकते हैं. क्यों नहीं सोचतीं भाभी यह सबकुछ? एक बार उबलता दूध रिंकू के हाथ पर गिर गया था. वह दर्द से तड़प रहा था. सारा महल्ला परेशान हो कर एकत्र हो गया था, तरहतरह की दवाइयां, तरहतरह के सुझाव. बच्चे तो रिंकू को छोड़ कर जाने को ही तैयार नहीं थे. आश्चर्य तो तब हुआ जब भाभी के मुंह से उन बच्चों के प्रति वात्सल्य के दो बोल भी नहीं फूटे. वह उन की भावनाओं के साथ, उमड़ते हुए प्यार के साथ तालमेल ही नहीं बैठा पाई थीं. भाभी भी क्या करतीं? उन के स्वयं के संस्कार ही ऐसे बने थे. वह एक अमीर खानदान से ताल्लुक रखती थीं. पिता और भाइयों का लंबाचौड़ा व्यवसाय है. कालिज के जमाने से ही वह भैया पर लट्टू थीं. उन का प्यार दिनोंदिन बढ़ता गया. मध्यवर्गीय भैया ने कई बार अपनी परिस्थिति की यथार्थता का बोध कराया, लेकिन वह तो उन के प्यार में दीवानी हुई जा रही थीं.

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समविषम, ऊंचनीच का विचार न कर के उन्होंने भैया को अपना जीवनसाथी स्वीकार ही लिया. जब इस घर में आने के बाद एक के बाद एक अभावों का खाता खुलने लगा तो वह एकाएक जैसे ढहने सी लगी थीं. उन्होंने ही ड्राइंगरूम की सजावट और संगीत की धुनों को पहचाना था. इनसानों के साथ जज्बाती रिश्तों को वह क्या जानें? वह अभावों की परिभाषा से बेखबर रिंकू को अपने भाइयों के बच्चों की तरह ढालना चाहती थीं. भैया की औकात, भैया की मजबूरी, भैया की हैसियत का अंदाजा क्योंकर उन्हें होता? कभीकभी ग्लानि तो भैया पर भी होती थी. वह कैसे भाभी के ही सांचे में ढल गए थे. क्या वह भाभी को अपने अनुरूप नहीं ढाल सकते थे? रिंकू टेस्ट में पास हो गया था. भाभी की खुशी का ठिकाना न रहा था. मानो उन की कोई मनमांगी मुराद पूरी हो गई थी. अब वह बड़ी खुशखुश नजर आने लगी थीं. जुलाई से रिंकू को स्कूल में भेजे जाने की तैयारी होने लगी थी. नए कपड़े बनवाए गए थे. जूते, टाई तथा अन्य कई जरूरत की वस्तुएं खरीदी गई थीं. अब तो भाभी रिंकू के साथ टूटीफूटी अंगरेजी में बातें भी करने लगी थीं. उसे शिष्टाचार सिखाने लगी थीं. भाभी रिंकू को जल्दी उठा देती थीं, ‘‘बेटा, देखा नहीं, तुम्हारे मामा के ऋतु, पिंकी कैसे अपने हाथ से काम करते हैं. तुम्हें भी काम स्वयं करना चाहिए. थोड़ा चुस्त बनो.’’ भाभी उस नन्ही जान को चुस्त बनना सिखा रही थीं, जिसे खुद चुस्त का अर्थ मालूम नहीं था.

मां और बाबूजी रिंकू से अलग होने की बात सोच कर अंदर ही अंदर विचलित हो रहे थे. आखिर रिंकू के जाने का निश्चित दिन आ गया था. स्कूल ड्रेस में रिंकू सचमुच बदल गया था. वह जाते समय मुझ से लिपट गया. मैं ने उसे बड़े प्यार से पुचकार कर समझाया, ‘‘तुम वहां रहने नहीं, पढ़ने जा रहे हो, वहां तुम्हारे जैसे बहुत से बच्चे होंगे. उन में से कई तुम्हारे दोस्त बन जाएंगे. उन के साथ पढ़ना, उन के साथ खेलना. तुम हर छुट्टी में घर आ जाओगे. फिर मांबाबूजी भी तुम से मिलने आते रहेंगे.’’ भाभी भी उसे समझाती रहीं, तरहतरह के प्रलोभन दे कर. मां और बाबूजी के कंठ से आवाज ही नहीं निकल रही थी. बस, वे बारबार रिंकू को चूम रहे थे.

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रिंकू की विदाई का क्षण मुझे भी रुला गया. बोगनबेलिया के फूलों से ढके दरवाजे के पास से विदाई के समय हाथ हिलाता हुआ रिंकू…मां और बाबूजी के उठे हाथ तथा आंसुओं से भीगा चेहरा… उस खामोश वातावरण में एक आवाज उभरती रही थी. बोगनबेलिया के फूलों की पुरानी पंखडि़यां हवा के तेज झोंके से खरखर नीचे गिरने लगी थीं. उस के बाद उस में संस्कार के नए फूल खिलेंगे और अपनी महक बिखेरेंगे. द्य

मोक्ष

लेखक- सुधा गोयल 

‘‘मां,कुंभ नहाने चलोगी? काफी दिन से कह रही थीं कि मुझे गंगा नहला ला. इस बार तुम्हें नहला लाता हूं. आज ट्रेन का टिकट करा लिया है.’’ यह सुन कर गोमती चहक उठीं, ‘‘तू सच कह रहा है श्रवण, मुझे यकीन नहीं हो रहा.’’ ‘‘यकीन करो मां, ये देखो टिकटें,’’ श्रवण ने जेब से टिकटें निकाल कर गोमती को दिखाईं और बोला, ‘‘अब जाने की तैयारी कर लेना, जोजो सामान चाहिए बता देना. अगले हफ्ते आज के ही दिन चलेंगे.’’ ‘‘कौनकौन चलेगा बेटा? सभी चल रहे हैं न?’’ ‘‘नहीं मां, सब जा कर क्या करेंगे?

कुंभ पर बहुत भीड़ रहती है. सब को संभालना मुश्किल होगा. बस, हम दोनों ही चलेंगे.’’ गोमती ने श्वेता की ओर देखा. उन के अकेले जाने से कहीं बहू नाराज न हो. उन्हें लगा कि इतनी उम्र में अकेली बेटे के साथ कैसे जाएंगी? श्रवण कैसे संभालेगा उन्हें. घर में तो जैसेतैसे अपना काम कर लेती हैं, बाहर कै से उठेंगीबैठेंगी. घड़ीघड़ी श्रवण का सहारा मांगेंगी. फिर कहीं सब के सामने ही श्रवण झल्लाने लगा तो? दुविधा हुई उन्हें. ‘‘अब क्या सोचने लगीं, मांजी? आप के बेटे कह रहे हैं तो घूम आइए. हम सब तो फिर कभी चले जाएंगे. इस के बाद पूरे 12 साल बाद ही कुंभ पडे़गा.’’ ‘‘बहू, क्या श्रवण मुझे संभाल पाएगा?’’ गोमती ने अपना संशय सामने रखा तो श्रवण हंस पड़ा. ‘‘मां को अब अपने बेटे पर विश्वास नहीं है. जैसे आप बचपन में मेरा ध्यान रखती थीं वैसे ही रखूंगा. कहीं भी आप का हाथ नहीं छोडूंगा. खूब मेला घुमाऊंगा.’’ श्रवण की बात पर गोमती प्रसन्न हो गईं. उन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी होने जा रही थी. कुंभ स्नान कर मोक्ष पाने की कामना वह कब से कर रही थीं. कई बार श्रवण से कह चुकी थीं कि मरने से पहले एक बार कुंभ स्नान करना चाहती हैं. कुंभ पर नहीं ले जा सकता तो ऐसे ही हरिद्वार ले चल.

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वक्त खिसकता रहा, बात टलती रही. अब जब श्रवण अपनेआप कह रहा है तो उन का मन प्रसन्नता से नाचने लगा. उन्होंने बहूबेटे को आशीर्वाद से लाद दिया. 1 रात 1 दिन का सफर तय कर मांबेटा दोनों इलाहाबाद पहुंचे. गोमती का तो सफर में ही बुरा हाल हो गया. ट्रेन के धड़धड़ के शोर और सीटी ने रात भर गोमती को सोने नहीं दिया. श्रवण का हाथ थामे वह बारबार टायलेट जाती रहीं. ट्रेन खिसकने लगती तो पांव डगमगाने लगते. गिरतीपड़ती सीट तक पहुंचतीं. ‘‘अभी सफर शुरू हुआ है मां, आगे कैसे करोगी? संभालो स्वयं को.’’ ‘‘संभाल रही हूं बेटा, पर इस बुढ़ापे में हाथपांव झूलर बने रहते हैं. पकड़ ढीली पड़ जाती है. इस का इलाज मुझ पर नहीं है,’’ वह बेबस सी हो जातीं. ‘‘कोई बात नहीं. मैं हूं न, सब संभाल लूंगा,’’ श्रवण उन की बेबसी को समझता. खैर, सोतेजागते गोमती का सफर पूरा हुआ. गाड़ी इलाहाबाद स्टेशन पर रुकी तो प्लेटफार्म की चहलपहल और भीड़ देख कर वह हैरान रह गईं. श्रवण ने अपने कंधे पर बैग टांग लिया और एक हाथ से मां का हाथ पकड़ कर स्टेशन से बाहर आ गया. शहर आ कर श्रवण ने देखा कि आकाश में घटाएं घुमड़ रही थीं. यह सोच कर कि क्या पता कब बादल बरसने लगें, उस ने थोड़ी देर स्टेशन पर ही रुकने का फैसला किया. मां के साथ वह वेटिंग रूम में जा कर बैठ गया.

थोड़ी देर बाद मां से बोला, ‘‘मां, नित्यकर्म से यहीं निबट लो. जब तक बारिश रुकती है हम आराम से यहीं रुकेंगे. पहले आप चली जाओ,’’ और उस ने इशारे से मां को बता दिया कि कहां जाना है. थोड़ी देर में गोमती लौट आईं. फिर श्रवण चला गया. श्रवण जब लौटा तो उस के हाथ में गरमागरम चाय के 2 कुल्हड़ और एक थैली में समोसे थे. मांबेटे ने चाय पी और समोसे खाए. थोड़ा आराम मिला तो गोमती की आंखें झपकने लगीं. पूरी रात आंखों में कटी थी. वहीं सोफे की टेक ले कर आंखें मूंद लीं. करीब घंटे भर बाद सूरज फिर से झांकने लगा. वर्षा के कारण स्टेशन पर भीड़ बढ़ गई थी. अब धीरेधीरे छंटने लगी. गोमती और श्रवण ने भी आटोरिकशा पकड़ कर गंगाघाट तक पहुंचने का मन बनाया. आटोरिकशा ने मेलाक्षेत्र शुरू होते ही उन्हें उतार दिया. करीब 1 किलोमीटर पैदल चल कर वे गंगाघाट तक पहुंचे. गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से एक डेरे में थोड़ा सा स्थान मिला. दोनों ने चादर बिछा कर अपना सामान जमाया और नहाने चल दिए. गोमती ने अपने अब तक के जीवन में इतनी भीड़ नहीं देखी थी. कहीं लाउडस्पीकरों का शोर, कहीं भजन गाती टोलियां, कहीं साधुसंतों के प्रवचन, कहीं रामायण पाठ, खिलौने वाले, झूले वाले, पूरीकचौरी, चाट व मिठाई की दुकानें, धार्मिक किताबों, तसवीरों, मालाओं व सिंदूर की दुकानें, हर जातिधर्म के लोगों को देखदेख कर गोमती चकित थीं. लगता था किसी दूसरे लोक में आ गई हैं. वह श्रवण का हाथ कस कर थामे थीं. भीड़ में रास्ता बनाता श्रवण उन्हें गंगा किनारे तक ले आया. यहां भी खूब भीड़ और धक्कमधक्का था. श्रवण ने हाथ पकड़ कर मां को स्नान कराया, फिर स्वयं किया. गोमती ने फूलबताशे गंगा में चढ़ाए. जाने कब से मन में पली साध पूरी हुई थी. हर्षातिरेक में आंसू निकल पडे़, हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, श्रवण सा बेटा हर मां को देना. आज उसी के कारण तुम्हारे दर्शन कर सकी हूं. श्रवण ने मां को मेला घुमाया. खूब खिलायापिलाया. ‘‘थक गई हूं. अब नहीं चला जाता, श्रवण,’’ गोमती के कहने पर श्रवण उन्हें डेरे पर ले आया. ‘‘मां, तुम आराम करो. मैं घूम कर अभी आया. थोड़े रुपए अपने पास रख लो,’’ उस ने मां को रुपए थमाए.

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‘‘मैं इन रुपयों का क्या करूंगी? तू है तो मेरे पास. फिर 5-10 रुपए हैं मेरे पास,’’ गोमती ने मना किया. ‘‘वक्तबेवक्त काम आएंगे. तुम्हारा ही कुछ लेने का मन हो या कहीं मेले में मेरी जेब ही कट जाए तो…’’ श्रवण के समझाने पर गोमती ने रुपए ले लिए. गोमती ने रुपए संभाल कर रख लिए. उन्हें ध्यान आया कि ऐसे मेलों में चोर- उचक्के खूब घूमते हैं. लोगों को बेवकूफ बना कर हाथ की सफाई दिखा कर खूब ठगते हैं. श्रवण चला गया और गोमती थैला सिर के नीचे लगा बिछी चादर पर लेट गईं. उन का मन आह्लादित था. श्रवण ने खूब ध्यान रखा है. लेटेलेटे आंखें झपक गईं. जब खुलीं तो देखा कि सूरज ढलने जा रहा है और श्रवण अभी लौटा नहीं है. उन्हें चिंता हो आई. अनजान जगह, अजनबी लोग, श्रवण के बारे में किस से पूछें? अपना थैला टटोल कर देखा. सब- कुछ यथास्थान सुरक्षित था. कुछ रुपए एक रूमाल में बांध कर चुपचाप कपड़ों के साथ थैले में डाल लाई थीं. सोचा था पता नहीं परदेश में कहां जरूरत पड़ जाए. उसी रूमाल में श्रवण के दिए रुपए भी रख लिए. वह डेरे से बाहर आ कर इधरउधर देखने लगीं. आदमियों का रेला एक तरफ तेजी से भागने लगा. वह कुछ समझ पातीं कि चीखपुकार मच गई. पता लगा कि मेले में हाथी बिगड़ जाने से भगदड़ मच गई है. काफी लोग भगदड़ में गिरने के कारण कुचल कर मर गए हैं. सुन कर गोमती का कलेजा मुंह को आने लगा. कहीं उन का श्रवण भी…क्या इसी कारण अभी तक नहीं आया है? उन्होंने एक यात्री के पास जा कर पूछा, ‘‘भैया, यह किस समय की बात है?’’ ‘‘मांजी, शाम 4 बजे नागा साधु हाथियों पर बैठ कर स्नान करने जा रहे थे और पैसे फेंकते जा रहे थे.

उन के फेंके पैसों को लूटने के कारण यह कांड हुआ. जो जख्मी हैं उन्हें अस्पताल पहुंचाया जा रहा है और जो मर गए हैं उन्हें सरकारी गाड़ी से वहां से हटाया जा रहा है. आप का भी कोई है?’’ ‘‘भैया, मेरा बेटा 2 बजे घूमने निकला था और अभी तक नहीं लौटा है.’’ ‘‘उस का कोई फोटो है, मांजी?’’ यात्री ने पूछा. ‘‘फोटो तो नहीं है. अब क्या करूं?’’ गोमती रोने लगीं. ‘‘मांजी, आप रोओ मत. देखो, सामने पुलिस चौकी है. आप वहां जा कर पता करो.’’ गोमती ने चादर समेट कर थैले में रखी और पुलिस चौकी पहुंच कर रोने लगीं. लाउडस्पीकर से कई बार एनाउंस कराया गया. फिर एक सहृदय सिपाही अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर गोमती को वहां ले गया जहां मृतकों को एकसाथ रखा गया था. 1-2 अस्थायी बने अस्पतालों में भी ले गया, जहां जख्मी पड़े लोग कराह रहे थे और डाक्टर उन की मरहमपट्टी करने में जुटे थे. श्रवण का वहां कहीं भी पता न था. तभी गोमती को ध्यान आया कि कहीं श्रवण डेरे पर लौट न आया हो और उन का इंतजार कर रहा हो या उन्हें डेरे पर न पा कर वह भी उन्हीं की तरह तलाश कर रहा हो. हालांकि पुलिस चौकी पर वह अपने बेटे का हुलिया बता आई थीं और लौटने तक रोके रखने को भी कह आई थीं. गोमती ने आ कर मालूम किया तो पता चला कि उन्हें पूछने कोई नहीं आया था. वह डेरे पर गईं. वहां भी नहीं. आधी रात कभी डेरे में, कभी पुलिस चौकी पर कटी. जब रात के 12 बज गए तो पुलिस वालों ने कहा, ‘‘मांजी, आप डेरे पर जा कर आराम करो. आप का बेटा यहां पूछने आया तो आप के पास भेज देंगे.’’

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पुत्र के लिए व्याकुल गोमती उसे खोजते हुए डेरे पर लौट आईं. चादर बिछा कर लेट गईं लेकिन नींद आंखों से कोसों दूर थी. कहां चला गया श्रवण? इस कुंभ नगरी में कहांकहां ढूंढ़ेंगी? यहां उन का अपना है कौन? यदि श्रवण न लौटा तो अकेली घर कैसे लौटेंगी? बहू का सामना कैसे करेंगी? खुद को ही कोसने लगीं, व्यर्थ ही कुंभ नहाने की जिद कर बैठी. टिकट ही तो लाया था श्रवण, यदि मना कर देती तो टिकट वापस भी हो जाते. ऐसी फजीहत तो न होती. फिर गोमती को खयाल आया कि कोई श्रवण को बहलाफुसला कर तो नहीं ले गया. वह है भी सीधा. आसानी से दूसरों की बातों में आ जाता है. किसी ने कुछ सुंघा कर बेहोश ही कर दिया हो और सारे पैसे व घड़ीअंगूठी छीन ली हो. मन में उठने वाली शंकाकुशंकाओं का अंत न था. दिन निकला. वह नहानाधोना सब भूल कर, सीधी पुलिस चौकी पहुंच गईं. एक ही दिन में पुलिस चौकी वाले उन्हें पहचान गए थे. देखते ही बोले, ‘‘मांजी, तुम्हारा बेटा नहीं लौटा.’’ रोने लगीं गोमती, ‘‘कहां ढूंढू़ं, तुम्हीं बताओ. किसी ने मारकाट कर कहीं डाल दिया हो तो. तुम्हीं ढूंढ़ कर लाओ,’’ गोमती का रोतेरोते बुरा हाल हो गया. ‘‘अम्मां, धीरज धरो. हम जरूर कुछ करेंगे. सभी डेरों पर एनाउंस कराएंगे. आप का बेटा मेले में कहीं भी होगा, जरूर आप तक पहुंचेगा. आप अपना नाम और पता लिखा दो. अब जाओ, स्नानध्यान करो,’’ पुलिस वालों को भी गोमती से हमदर्दी हो गई थी.

गोमती डेरे पर लौट आईं. गिरतीपड़ती गंगा भी नहा लीं और मन ही मन प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, मेरा श्रवण जहां कहीं भी हो कुशल से हो, और वहीं घाट पर बैठ कर हर आनेजाने वाले को गौर से देखने लगीं. उन की निगाहें दूरदूर तक आनेजाने वालों का पीछा करतीं. कहीं श्रवण आता दीख जाए. गंगाघाट पर बैठे सुबह से दोपहर हो गई. कल शाम से पेट में पानी की बूंद भी न गई थी. ऐंठन सी होने लगी. उन्हें ध्यान आया, यदि यहां स्वयं ही बीमार पड़ गईं तो अपने श्रवण को कैसे ढूंढ़ेंगी? उसे ढूंढ़ना है तो स्वयं को ठीक रखना होगा. यहां कौन है जो उन्हें मनुहार कर खिलाएगा. गोमती ने आलू की सब्जी के साथ 4 पूरियां खाईं. गंगाजल पिया तो थोड़ी शांति मिली. 4 पूरियां शाम के लिए यह सोच कर बंधवा लीं कि यहां तक न आ सकीं तो डेरे में ही खा लेंगी या भूखा श्रवण लौटेगा तो उसे खिला देंगी. श्रवण का ध्यान आते ही उन्होंने कुछ केले भी खरीद लिए. ढूंढ़तीढूंढ़ती अपने डेरे पर पहुंच गईं. पुलिस चौकी में भी झांक आईं. देखते ही देखते 8 दिन निकल गए. मेला उखड़ने लगा. श्रवण भी नहीं लौटा. अब पुलिस वालों ने सलाह दी, ‘‘अम्मां, अपने घर लौट जाओ. लगता है आप का बेटा अब नहीं लौटेगा.’’ ‘‘मैं इतनी दूर अपने घर कैसे जाऊंगी. मैं तो अकेली कहीं आईगई नहीं,’’ वह फिर रोने लगीं. ‘‘अच्छा अम्मां, अपने घर का फोन नंबर बताओ. घर से कोई आ कर ले जाएगा,’’ पुलिस वालों ने पूछा. ‘‘घर से मुझे लेने कौन आएगा? अकेली बहू, बच्चों को छोड़ कर कैसे आएगी.’’ ‘‘बहू किसी नातेरिश्तेदार को भेज कर बुलवा लेगी. आप किसी का भी नंबर बताओ.’’ गोमती ने अपने दिमाग पर लाख जोर दिया, लेकिन हड़बड़ाहट में किसी का नंबर याद नहीं आया.

दुख और परेशानी के चलते दिमाग में सभी गड्डमड्ड हो गए. वह अपनी बेबसी पर फिर रोेने लगीं. बुढ़ापे में याददाश्त भी कमजोर हो जाती है. पुलिस चौकी में उन्हें रोता देख राह चलता एक यात्री ठिठका और पुलिस वालों से उन के रोने का कारण पूछने लगा. पुलिस वालों से सारी बात सुन कर वह यात्री बोला, ‘‘आप इस वृद्धा को मेरे साथ भेज दीजिए. मैं भी उधर का ही रहने वाला हूं. आज शाम 4 बजे टे्रन से जाऊंगा. इन्हें ट्रेन से उतार बस में बिठा दूंगा. यह आराम से अपने गांव पीपला पहुंच जाएंगी.’’ सिपाहियों ने गोमती को उस अनजान व्यक्ति के साथ कर दिया. उस का पता और फोन नंबर अपनी डायरी में लिख लिया. गोमती उस के साथ चल तो रही थीं पर मन ही मन डर भी रही थीं कि कहीं यह कोई ठग न हो. पर कहीं न कहीं किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा, वरना इस निर्जन में वह कब तक रहेंगी. ‘‘मांजी, आप डरें नहीं, मेरा नाम बिट्ठन लाल है. लोग मुझे बिट्ठू कह कर पुकारते हैं. राजकोट में बिट्ठन लाल हलवाई के नाम से मेरी दुकान है. आप अपने गांव पहुंच कर किसी से भी पूछ लेना. भरोसा रखो आप मुझ पर. यदि आप कहेंगी तो घर तक छोड़ आऊंगा. यह संसार एकदूसरे का हाथ पकड़ कर ही तो चल रहा है.’’ अब मुंह खोला गोमती ने, ‘‘भैया, विश्वास के सहारे ही तो तुम्हारे साथ आई हूं. इतना उपकार ही क्या कम है कि तुम मुझे अपने साथ लाए हो. तुम मुझे बस में बिठा दोगे तो पीपला पहुंच जाऊंगी. पर बेटे के न मिलने का गम मुझे खाए जा रहा है.’’ अगले दिन लगभग 1 बजे गोमती बस से अपने गांव के स्टैंड पर उतरीं और पैदल ही अपने घर की ओर चल दीं. उन के पैर मनमन भर के हो रहे थे. उन्हें यह समझ में न आ रहा था कि बहू से कैसे मिलेंगी. इसी सोचविचार में वह अपने घर के द्वार तक पहुंच गईं. वहां खूब चहलपहल थी. घर के आगे कनात लगी थीं और खाना चल रहा था. एक बार तो उन्हें लगा कि वह गलत जगह आ गई हैं. तभी पोते तन्मय की नजर उन पर पड़ी और वह आश्चर्य और खुशी से चिल्लाया,

‘‘पापा, दादी मां लौट आईं. दादी मां जिंदा हैं.’’ उस के चिल्लाने की आवाज सुन कर सब दौड़ कर बाहर आए. शोर मच गया, ‘अम्मां आ गईं,’ ‘गोमती आ गई.’ श्रवण भी दौड़ कर आ गया और मां से लिपट कर बोला, ‘‘तुम कहां चली गई थीं, मां. मैं तुम्हें ढूंढ़ कर थक गया.’’ बहू श्वेता भी दौड़ कर गोमती से लिपट गई और बोली, ‘‘हाय, हम ने सोचा था कि मांजी…’’ ‘‘नहीं रहीं. यही न बहू,’’ गोमती के जैसे ज्ञान चक्षु खुल गए, ‘‘इसीलिए आज अपनी सास की तेरहवीं कर रही हो और तू श्रवण, मुझे छोड़ कर यहां चला आया. मैं तो पगला गई थी. घाटघाट तुझे ढूंढ़ती रही. तू सकुशल है… तुझे देख कर मेरी जान लौट आई.’’ मांबेटे दोनों की निगाहें टकराईं और नीचे झुक गईं. ‘‘अब यह दावत मां के लौट आने की खुशी के उपलक्ष्य में है. सब खुशीखुशी खाओ. मेरी मां वापस आ गई हैं,’’ खुशी से नाचने लगा श्रवण. औरतों में कानाफूसी होने लगी, लेकिन फिर भी सब श्वेता और श्रवण को बधाई देने लगे. वे सभी रिश्तेदार जो गोमती की गमी में शामिल होने आए थे, गोमती के पांव छूने लगे. कोई बाजे वालों को बुला लाया. बाजे बजने लगे. बच्चे नाचनेकूदने लगे. माहौल एकदम बदल गया. श्रवण को देख कर गोमती सब भूल गईं. शाम होतेहोते सारे रिश्तेदार खापी कर विदा हो गए. रात को थक कर सब अपनेअपने कमरों में जा कर सो गए. गोमती को भी काफी दिन बाद निश्ंिचतता की नींद आई. अचानक रात में मांजी की आंखें खुल गईं, वह पानी पीने उठीं. श्रवण के कमरे की बत्ती जल रही थी और धीरेधीरे बोलने की आवाज आ रही थी. बातों के बीच ‘मां’ सुन कर वह सट कर श्रवण के कमरे के बाहर कान लगा कर सुनने लगीं. श्वेता कह रही थी, ‘तुम तो मां को मोक्ष दिलाने गए थे. मां तो वापस आ गईं.’ ‘मैं तो मां को डेरे में छोड़ कर आ गया था.

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मुझे क्या पता कि मां लौट आएंगी. मां का हाथ गंगा में छोड़ नहीं पाया. पिछले 8 दिन से मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी. मैं ने मां को मारने या त्यागने का पाप किया था. मैं सारा दिन यही सोचता कि भूखीप्यासी मेरी मां पता नहीं कहांकहां भटक रही होंगी. मां ने मुझ पर विश्वास किया और मैं ने मां के साथ विश्वासघात किया. मां को इस प्रकार गंगा घाट पर छोड़ कर आने का अपराध जीवन भर दुख पहुंचाता रहेगा. अच्छा हुआ कि मां लौट आईं और मैं मां की मृत्यु का कारण बनतेबनते बच गया.’ बेटे की बातें सुन कर गोमती के पैरों तले जमीन कांपने लगी. सारा दृश्य उन की आंखों के आगे सजीव हो उठा. वह इन 8 दिनों में लगभग सारा मेला क्षेत्र घूम लीं. उन्होंने बेटे के नाम की जगह- जगह घोषणा कराई पर अपने नाम की घोषणा कहीं नहीं सुनी. इतना बड़ा झूठ बोला श्रवण ने मुझ से? मुझ से मुक्त होने के लिए ही मुझे इलाहाबाद ले कर गया था. मैं इतना भार बन गई हूं कि मेरे अपने ही मुझे जीतेजी मारना चाहते हैं. वह खुद को संभाल पातीं कि धड़ाम से वहीं गिर पड़ीं. सब झेल गईं पर यह सदमा न झेल सकीं. उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वह सचमुच मोक्ष…

मेरा संसार

लेखक- अमिताभ श्रीवास्तव

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया.

मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती? कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है. यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए. जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है.

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तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता. मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है. जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं? हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे.

संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई. मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है. पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद.

किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है. आज छुट्टी है और कोई अपना दफ्तर का काम भी नहीं है इसलिए इस दोपहर की सूनी सी तपन के बीच खुद को देख पा रहा हूं. दूरदूर तक सिर्फ सूरज की आग और अपने अंदर भी विचारों की एक आग, ‘उस के’ निरंतर दिए जाने वाले दर्द की आग. गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है. उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं. ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है. ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है.

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तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं. फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ. ‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’ कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है. ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है?

इसलिए कि मैं अकेला हूं? रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को. बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का. घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है.

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फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है. सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है. मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि यह महज व्यवहार होता है, प्रेम नहीं, तो वह भड़क जाती है. उस का अहम् सिर चढ़ कर बोलने लगता है कि प्रेम के संदर्भ में मैं उसे कैसे समझाने लगा? जो प्रेम वह करती है वही एकमात्र सही है. और यदि मुझे उस से बातें करनी हैं या प्रेम करना है तो नतमस्तक हो कर उस की हां में हां मिलाता रहूं. यह अप्रत्यक्ष शर्त है उस की. किंतु मेरे लिए पे्रेम का अर्थ सिर्फ प्रेम है, कोई शर्त नहीं, कोई बंधन नहीं. प्रेम तो स्वतंत्र, विस्तृत होता है. एकदम खुला हुआ, जहां स्वयं का भान नहीं बल्कि जिस से प्रेम होता है उस की ही मूर्ति, उस का ही गुणगान होता है. मैं प्रेम को किसी प्रकार का संबंध भी नहीं मानता क्योंकि संबंध भी तो एक बंधन होता है और प्रेम बंधता कहां है? वह तो खुले आसमान की तरह अपनी बांहें फैलाए रखता है. क्योंकि व्यवहार में अंतर आना हो सकता है किंतु प्रेम में? …संभव नहीं. सच तो यह है कि रचना मेरे प्रेम को समझना नहीं चाहती और मैं भी उसे कुछ समझाना नहीं चाहता. कभीकभी मुझे लगता है कि मैं बेकार ही अपने दिमाग को परेशान किए रखता हूं.

मैं ने कोई ठेका तो नहीं ले रखा है उसे समझाने का या उसे अपनी हालत बता कर सहानुभूति बटोरने का…यदि ऐसा है तो फिर मेरे प्रेम का अर्थ क्या हुआ? पेन पता नहीं कहां रख दिया…ज्योति मेरी हरेक चीज को कायदे से जमा कर रखती है, और जब भी मुझे कुछ लेना होता है उसे आवाज दे देता हूं…. ज्योति कहती है कि जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं. इतने सारे कामों के बीच भी वह कभी कहती नहीं कि मैं थक चुकी हूं, कुछ तुम ही कर लो….पता नहीं ज्योति किस मिट्टी की बनी है. ओह, ज्योति तुम कहां हो. अचानक ज्योति की याद तेज हो गई. रचना कहीं खो गई. मैं ज्योति को कितना नजरअंदाज करता हूं इस के बावजूद ज्योति मेरा उतना ही ध्यान रखती है…क्या प्रेम यही होता है? ज्योति द्वारा किया जाने वाला व्यवहार मेरे प्रेम की परिभाषा को नए मोड़ पर ले जा रहा है, क्या मैं अब तक…यह जान नहीं पाया कि प्रेम होता क्या है? रचना द्वारा किए जाने वाला प्रेम और ज्योति द्वारा किया जाने वाला प्रेम…इस मुकाबले में मुझे तय करना है कि आखिर कौन सही है? आज इस अकेलेपन में निर्णय तो लेना ही होगा…मैं ने डायरी लिखने का मन बदल दिया और इसी द्वंद्व में स्वयं को धकेल दिया कि अचानक मोबाइल की रिंग बजी. फोन बजता रहा…, देखा तो धक्क रह गया…रचना का था. धड़कनें बढ़ गईं. इतने दिनों बाद उस का फोन…और मेरा इंतजार भी…, क्या करूं. मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उसे रिसीव करूं. …अंतत: रिंग बजबज कर खत्म हो गई. मैं बैठा रहा, इंतजार करता रहा कि दोबारा वह फोन करेगी?

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किंतु काफी देर हो गई उस ने दोबारा नहीं किया. मन में कई तरह की बातें उठने लगीं. क्यों किया होगा उस ने फोन? वह भी इतने महीने बाद? आज ही? क्या मेरी टैलीपैथी ने काम किया? यदि ऐसा होता तो इस के पहले भी कई बार मैं ने उसे याद किया है, बहुत याद किया है किंतु उस ने फोन नहीं किया. आज ही क्यों? क्या मैं उसे फोन लगाऊं? मैं इसी उधेड़बुन में था कि ज्योति के फोन पर कही अंतिम बात दिमाग में घुसी, ‘यदि तुम्हें मेरी याद आए तो फोन कर देना क्योंकि यहां से फोन जल्दी नहीं लग पाता.’ खैर…ज्योति को तो फोन कर ही दूंगा. पर उस की याद कहां आ रही है. क्यों नहीं आती उस की याद? आती भी है तो सिर्फ इसलिए कि इतने काम कौन करेगा? क्या ज्योति से मेरा विवाह महज इसीलिए हुआ है कि वह घर और मेरा ध्यान रखे? यही उस का धर्म है, दायित्व है? मैं सिर्फ आदेश देता रहूं? नहीं…ऐसा तो कतई नहीं है. यदि ऐसा होता तो ज्योति भी यही सोचती. उसे क्या जरूरत है मेरा ध्यान रखने या मेरे लिए सोचते रहने की? क्या वह नहीं सोच सकती कि मैं उस के लिए कुछ करूं? कभी घुमाफिरा लाऊं या कभी मनोरंजन के लिए कोई फिल्म ही दिखा लाऊं? मैं ने ऐसा तो कभी उस के साथ किया नहीं, बावजूद वह मुझ से इतना लगाव रखती है. क्या मैं दुनिया का इतना बेशकीमती आदमी हूं? नहीं, एक मामूली सा ऐसा इंसान हूं, जो महीने के अंत में ठनठन गोपाल हो जाता है. फिर ज्योति से ही कहता है कि यदि उस ने कुछ बचत कर रखी है तो मेरे जेबखर्च के लिए दे दे. वह देती भी है. पता नहीं कहां से, कैसे बचत कर लेती है? रोमी की जिद भी तो उस की बचत से ही पूरी होती है. पर कभी वह अपने लिए कोई खर्च करते नहीं दिखी. मन विचारों में डूब चुका था. मुझे लगा कि शायद मैं स्वार्थी हूं? या ज्योति को अब तक नहीं समझ पाया. उस ने मुझे अच्छी तरह से समझ रखा है तभी तो मेरे लिए वह हमेशा तत्पर रहती है. सच तो यह है कि विवाह 2 ऐसे विरोधियों के बीच होता है जो सेतु बनाने में पूरी जिंदगी लगा देते हैं. यही उन का धर्म है.

मैं इसे निभा रहा हूं, सच है मगर जो प्रेम करता है उसे अनदेखा भी करता हूं, यह भी सच लगने लगा है. ज्योति ने कभी मुझ से कहा था कि प्रेम के लिए पात्र का होना आवश्यक है. एक ऐसे पात्र का जो प्रेम को अपने में समेट सके. कभीकभी ऐसा भी होता है कि हम जिस से प्रेम करते हैं, वह उसे पचा भी नहीं पाता, अपने प्रेम के अहम् में वह प्रेमी को अंकुश में रखना चाहता है जबकि यह नहीं होना चाहिए. ज्योति की यह बात मुझे रचना की स्मृति की ओर खींच देती है. आज जो हालात हैं रचना किसी प्रकार भी मेरे निश्छल प्रेम को समझ नहीं पाती. उसे नजरअंदाज करती है. घड़ी समय को खींचती हुई आगे बढ़ रही थी, डेढ़ घंटा बीत गया. रचना का फोन नहीं आया. मैं इंतजार कर रहा था.

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क्या रचना अब मुझ से प्रेम नहीं करती? उस ने क्यों किया था फोन? और जब किया था तो दोबारा क्यों नहीं किया? अभी यह सोच ही रहा था कि एक बार फिर मोबाइल बज उठा. मैं हड़बड़ा गया, फिर धड़कनें बढ़ गईं. रचना का होगा? मैं भी कैसा आदमी हूं, जो रचना के बारे में उल्टापुल्टा सोच रहा था. पर मेरी रचना ऐसी नहीं है, गुस्सा उतर गया होगा, बस यही सोचते हुए जैसे ही मैं ने फोन उठाया तो रिंग बज कर फिर खत्म हो गई. मैं ने देखा तो दंग रह गया. अपने आप को धिक्कारा, माथा ठोक बैठा… आज ही यह सब होना है? मैं ने मोबाइल पर नंबर मिलाया…यही सोच कर कि अब सिर्फ इसी नंबर पर बात होगी. यही नंबर मेरी जिंदगी का सच है…यही नंबर प्रेम का सार है…यही नंबर है जो यथार्थ है, यही नंबर है जो मुझ से निश्छल प्रेम करता है… ‘‘हैलो… ज्योति… तुम ने अभी फोन किया था न… क्यों?’’ ‘‘बस, ऐसे ही… मुझे लगा आप कुछ परेशान हैं….’’ ‘‘परेशान…, हां, बस यों ही…वैसे ऐसी कोई बात नहीं है….’’ ‘‘मैं कल आ रही हूं.’’ ‘‘सच.’’ ‘‘हां, सचमुच…’’ ‘‘पर इतनी जल्दी?’’ ‘‘हां…मुझे बस मम्मी से मिलना था सो मिल ली….’’ ‘‘सच ज्योति…तुम आ रही हो…ओह ज्योति… आ जाओ…तुम…, मुझे जरूरत है तुम्हारी…सिर्फ तुम्हारी.’’ फोन रख दिया. एकदम से पता नहीं क्या हुआ, पूरा माहौल बदल गया, जिस अतीत के बंधनों से मैं जकड़ा हुआ था, उस से मुक्त हो अचानक मैं खुशी से झूम उठा…यहां तक कि नाचने लगा और जोर से चिल्ला उठा…मुझे मेरा संसार मिल गया.

ले वोटर हलवा खा

जो बहुमत में हों वे सबकुछ तल्लीनता से ही करते हैं. करना भी चाहिए. कल को सरकार हो या न हो. सच कहूं तो जब से हाशिए पर गया हूं हलवा खाना तो दूर, हलवे का गीत सुनने तक को कान तरस गए हैं. समझते देर न लगी कि जनाब का हलवा पक रहा है. जनता तक पहुंचे या न पहुंचे, इस से उन्हें क्या सरोकार. हलवा गातेपकाते उन के बीच जश्न का माहौल था. कोई गैस की आंच कम तेज कर रहा था तो कोई हलवे में डालने को लाए मेवों से एकदूसरे से मुंह छिपा कर अपनीअपनी जेबें भर रहा था.

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सरकारी फंड से बन रहे हलवे की बू आते ही मुंह में कुछ पानी भर आया तो वे चिल्लाए, ‘‘रुक…’’ उन के चिल्लाने पर मैं रुका नहीं, ठिठक गया. उन्हें खुशी हुई कि चलो, उन के हलवे की बू से कोई तो रुका. ‘‘क्या है सर?’’ हलवा उन का था, सो अनजान सा बनते हुए पूछा. ‘‘देखो डियर, हम क्या बना रहे हैं?’’ वे मुझे गरदन से पकड़ कर कड़ाहे के पास ले गए. मैं डरा भी कि कहीं कड़ाहे में ही डाल दिया तो? जनता का राज है भाई साहब, ऐसे में जनता के साथ कुछ भी हो सकता है. ‘‘वाह सर, कमाल. यह क्या बन रहा है? वाह, इस से तो स्वर्ग वाली छप्पन भोगों सी खुशबू आ रही है,’’ मैं ने नाक बंद कर सूंघते हुए कहा तो वे आहआह की जगह वाहवाह कर उठे. ‘‘सरकारी हलवा बन रहा है,’’ कहते हुए हलवा चीफ गदगद थे. ‘‘किस के लिए?’’ ‘‘जनता के लिए यार. अपना तो सब काम जनता के लिए है प्यारे. तन से ले कर मन तक सब. हम तो बस जनता की खाल उतारने के लिए ही यहां आए हैं.’’ ‘‘जनता की खाल उतारने?’’ ‘‘नहीं यार, जबान फिसल गई.’’ ‘‘इसे हलवा कहते हैं क्या सर?’’ हलवा ऐसा होता है क्या सर? हलवा किस खुशी में? आप ने कोई और जनता गतिरोधी काम कर दिया है क्या?’’ मैं ने हलवे में सड़ी सूजी देख कर पूछा. पानी में मुसकराते कीड़े तैर रहे थे. सरकारी थे या अर्धसरकारी, यह तो उन को ही पता होगा.

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‘‘नहीं यार, मजाक मत कर. हमें पता है कि तुम सरकार के साथ जब देखो मजाक ही करते रहते हो.’’ ‘‘तो यह हलवा किस खुशी में? प्रभुभोगी साधुओं को पैंशनभोगी करने की खुशी में या…’’ ‘‘अरे, हम ने साधुसज्जनों को पैंशन की घोषणा क्या कर दी कि… बेचारों को पैंशन मिलेगी तो जोगी का जोगपना कम से कम चैन से तो कटेगा. वे अपने को मोक्ष पर, समाज कल्याण पर और ज्यादा फोकस कर पाएंगे?’’ ‘‘मतलब है कि आप उन को भी आरामभोगी बना कर ही दम लोगे? देखो बंधु, तुम सब पर राजनीति करो, पर साधुसंतों पर तो राजनीति मत ही करो.’’ ‘‘अच्छा चल, इस बारे में बाद में टैलीविजन पर डिबेट करेंगे कभी. अभी तो हलवा खा और बकबका मत,’’ कहते हुए वे कड़ाहे से जलताजलता हलवा मेरे हाथ पर धरने को हुए, तो मैं ने कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हैं सर? मेरा हाथ जल जाएगा तो…?’’ ‘‘जल जाए. हम तो तुम जैसों का मुंह भी जलाना चाहते हैं, ताकि… बहुत सच कहते फिरते हो न तुम. अबे ला बे गरमागरम हलवा, जनाब के मुंह में डाल देते हैं और तब तक अपना मुंह बंद रखिएगा प्लीज, जब तक हलवा बंट नहीं जाता.’’

 

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